अगली सुबह ।
उत्साह से भरे वे बबलू के घर के दरवाजे पर पहुंचे।
मगर ।
एक ही झटके में सारे मंसूबों पर इस तरह पानी फिर गया जैसे खारे पानी की लहर समुद्र किनारे किसी के द्वारा बड़े अरमानों के साथ बनाये गर्म रेत के घरौंदे को अपने साथ ले गई हो ।
मुख्य द्वार पर ताला पड़ा था ।
मोटा ।
अलीगढ़ी ताला।
मुंह चिढ़ाता लग रहा था वह उन्हें ।
कुछ देर तक किसी के मुंह से कोई आवाज न निकल सकी ।
ठगे से खड़े रह गये वे ।
फिर ।
ठकरियाल ने बबलू के फ्लैट के ठीक सामने वाले फ्लैट का दरवाजा खटखटाया। दरवाजा एक अधेड़ आयु की महिला ने खोला ।
ठकरियाल ने पूछा-“कहां गये ये लोग?”
“बद्रीनाथ गये हैं मगर ठहरिये, आपके लिये कुछ दे गये हैं वे ।” कहने के बाद महिला मुड़ी, वापस अपने फ्लैट के अंदर गई और मुश्किल से आधा मिनट बाद आई तो उसके हाथ में एक दज्ञेटा सा पैकिट था । उसे ठकरियाल की तरफ बढ़ाती बोली – “सत्यप्रकाश जी कह गये हैं, आप आयें तो यह आपको दे दूं ।”
पैकिट लेते वक्त ठकरियाल के मुंह से निकला —“क्या है इसमें?”
“न उन्होंन बताया। न मैंने खोला। वैसा का वैसा ही सीलबंद है।”
ठकरियाल ने देखा- - सचमुच वह एक सीलबंद पैकिट था और... यह देखकर तो दिव्या और देवांश के देवता ही कूच कर गये कि सील पर राजदान के हस्ताक्षर थे ।
नीचे तारीख पड़ी थी— अट्ठाईस अगस्त ।
सहमी-सहमी आंखों से तीनों एक-दूसरे की तरफ देखते रह गये।
***
“हा... हा...हा...हा... ।”
सारे कमरे में राजदान के अट्टहास गूंज रहे थे ।
पागलों की तरह हंसता प्रतीत हो रहा था वह ।
दिव्या और देवांश के चेहरों पर हवाईयां उड़ रही थीं ।
ठकरियाल की हालत भी उनसे अलग नजर नहीं आ रही थी। कहकहों के बाद टेप रिकार्डर से निकलकर राजदान की आवाज पिघला शीशा बनकर उनके कानों के रास्ते जहन में उतरने लगी — “मैं जानता हूं । आज... अर्थात् अट्ठाईस अगस्त को ही जानता हूं कि बबलू की हवालात से फरारी के बाद तुम उसके मां-बाप को गिरफ्तार करने पहुंचोगे। ऐसे हर केस में पुलिस सदियों से यही करती आई है । फरार चोर-उचक्कों तक को पकड़ने के लिये पुलिस को उसके नाते-रिश्तेदारों को उठाने के अलावा और कुछ नहीं सूझता। इसलिये मैंने सत्यप्रकाश और सुजाता को ही नहीं, स्वीटी को भी अण्डग्राउण्ड करने का इन्तजाम कर दिया है। चाहे जितना सिर पटक लो—वे तुम्हारे हाथ नहीं आयेंगे। धरे रह जायेंगे बबलू पर दबाव बनाने के तुम्हारे मंसूबे। नहीं ठकरियाल इन घिसी-पिटी चालों से कोई नतीजा नहीं निकलेगा। कोई नया पैंतरा सोचो, ऐसा – जिसे मैं न सोच सका होऊं ।”
बात पूरी होने के बाद टेपरिकार्डर से एक बार फिर राजदान के हंसने की आवाज निकलने लगी। ठकरियाल ने झपटकर उसे ‘ऑफ’ कर दिया।
दिव्या और देवांश में तो अपने स्थान से हिलने तक की ताकत नहीं बची थी ।
अचानक किसी ने कमरे का दरवाजा खटखटाया ।
यूं उछल पड़े तीनों, जैसे आसपास बम फटा हो।
देवांश बड़ी मुश्किल से अपने मुंह से मरियल सी आवाज निकाल सका – “क... कौन है ?”
“आपसे कोई मिलने आया है साब।” आवाज आफताब की थी।
भन्नाया हुआ देवांश आफताब पर चिल्ला पड़ने वाला था कि ठकरियाल ने रोका । टेपरिकार्डर से केसिट निकालकर जेब में डाली और दरवाला खोलने का इशारा किया । जाने क्या-क्या कहने की हसरतों को दिल में दबाये देवांश दरवाजे की तरफ बढ़ा ।
उसे खोला।
सामने आफताब खड़ा था ।
“कौन है?” देवांश ने पूछा ।
“मैं नहीं जानता साब। पहली ही बार आया है । मगर कहता है — बड़े साहब का पुराना दोस्त हैं ”
“नाम नहीं पूछा तूने?”
“अखिलेश बताया है साब ।”
“अखिलेश?” दिव्या चौंक सी पड़ी ।
और बस ।
आगे कुछ नहीं बोली वह ।
शायद आफताब की मौजूदगी के कारण चुप रह गई थी।
ठकरियाल ने हालात को समझा । आफताब से कहा- “उसे बाहर बैठा । हम आते हैं।”
आफताब पत्थर की तरह सपाट चेहरा लिये वापस चला गया।
देवांश ने शंका व्यक्त की— “टेप से निकली आवाज तो नहीं सुन ली होगी आफताब ने?”
“नहीं।” ठकरियाल ने कहा – “मैंने 'वोल्यूम स्लो' रखा था। बंद कमरे के बाहर आवाज हरगिज नहीं गई होगी।”
“आगन्तुक का नाम सुनकर तुम चौंकी क्यों थी?” देवांश ने दिव्या से पूछा ।
“मैंने यह नाम कहीं सुना था ।” दिमाग पर जोर डालती सी दिव्या ने कहा- -“शायद वकीलचंद जैन के मुंह जब वह पहली बार यहां आया था। इसके अलावा एक और कोई नाम लिया था उसने । याद नहीं आ रहा । कहा था—राजदान के बचपन के चार दोस्त थे। भट्टाचार्य, वकीलचंद, अखिलेश और ... एक कोई और । पता नहीं क्या नाम लिया था उसने ।”
देवांश बड़बड़ाया-“सवाल ये है, वह यहां आया क्यों है ?”
“मुझे तो कोई नया पंगा लगता है ।”
“मतलब?”
“अपने पुराने दोस्तों को ही काम सौंप गया है राजदान ।”
ठकरियाल ने कहा— “जैसे वकीलचंद को मानवाधिकार आयोग की तरफ से ड्यूटी पर लगा गया।”
“उम्मीद है, इस टेप को सुनने के बाद एक बार फिर तुम्हारे दिमाग से यह गलतफहमी दूर हो गई होगी कि तुम कोई ऐसी चाल सोच सकते हो जो मरने से पहले राजदान ने नहीं सोच ली थी ।” देवांश ने अंततः वह बात कह ही दी जो टेप सुनने के बाद से लगातार उसके पेट में गैस का गोला बनकर घुमड़ रही थी – “पता नहीं ऐसा कुछ है भी या नहीं जो उसने सोच नहीं लिया था।”
“इन बातों पर बाद में चर्चा करें तो बेहतर होगा।” ठकरियाल ने कहा – “फिलहाल उसे देखा जाये जो आया है। जाने कयों, मेरी 'सिक्सथ सेंस' कह रही है- - वह भी किसी खास काम पर राजदान का ही नियुक्त किया हुआ मोहरा होना चाहिये।”
इस तरह, अखिलेश से मिलने का फैसला हुआ।
वे इमारत से बाहर आये।
वह फ्रन्ट लॉन में पड़ी छः लॉन चेयर्स में से एक पर बैठा था।
बल्कि।
उसे बैठा हुआ कहना गलत है ।
कुर्सी पर लेटा हुआ था वह ।
पैर फैलाकर सामने पड़ी मेज पर लुढ़का रखे थे।
धूप चटकी हुई थी ।
दृश्य ऐसा था जैसे सागर किनारे धूप स्नान कर रहा हो |
सूरज की सीधी और तीखी किरणों से बचने के लिये उसने अपनी कैप से चेहरा ढक रखा था | बेहद पतला था वह । कपड़े जिस्म पर यूं झूलते से महसूस हो रहे थे जैसे खेत में पक्षियों को डराने के लिये बांस के पुतले को पहना दिये जाते हैं।
और।
कपड़े भी अजीब थे ।
कमीज पर रंग-बिरंगे वाहन बने हुये थे।
बच्चों की तिपहियां साईकिल से लेकर अंतरिक्ष यान तक।
साईकल, स्कूटर, मोटरसाईकिल, रेलगाड़ी, हवाई जहाज, जलपोत और पनडुब्बी तक। पैंट लाल कलर की थी ।
आंखों में चुभने वाले रंग की ।
पैरों में जूतियां थीं। वे, जो कुर्ते- पैजामे पर पहनी जानी चाहिये थीं।
तीनों के दिमाग में एक ही बात कौंधी – ये आदमी, आदमी कम कार्टून ज्यादा है। वे उसके नजदीक पहुंच गये।
ऐसी कोई कोशिश नहीं की थी तीनों में से किसी ने कि कदमों की आहट न हो सके। सामान्य चाल से चलते उसके नजदीक पहुंचे थे। आहटें भी हुई थीं मगर वह जरा भी सजग नहीं हुआ। सजग होना तो दूर, जगा तक नहीं।
वह सचमुच सो रहा था।
वातावरण में खर्राटे गूंज रहे थे।
कुछ देर तीनों उसे अजीब सी नजरों से देखते रहे। फिर आपस में आंखें मिलीं। अंततः ठकरियाल को कंधा पकड़कर झंझोड़ना पड़ा — “मिस्टर अखिलेश!”
“मैं जाग रहा हूं।” उसने उसी मुद्रा में कहा।
तीनों ने अजीब नजरों से एक-दूसरे की तरफ देखा ।
“बैठिये।” उसने डंडे जैसे अपने हाथ से मेज के चारों तरफ पड़ी कुर्सियों की तरफ इशारा किया ।
ठकरियाल ने थोड़े सख्त स्वर में पूछा – “तुम्हें मिलना किससे है?”
“मिलना तो भाभी जान से था लेकिन जब तुम तीनों आ गये हो तो तीनों से ही मिल लूंगा। मिलने में कुछ घिस तो जायेगा नहीं मेरा ।”
एक बार फिर तीनों की नजरें मिलीं। उन्हें आश्चर्य हुआ—आखिर यह कब जान लिया उसने कि वे तीन हैं। चेहरे से कैप तक तो हटाई नहीं थी पट्ठे ने। कुछ देर की खामोशी के बाद दिव्या ने कहा – “मैं हूं दिव्या | कहो क्या कहना है ?”
“यूं लट्ठमार बातें क्यों कर रही हो भाभी जान । आराम से बैठ जाओ।”
“तुम तो ऐसी बेतकल्लुफी के साथ बातें कर रहे हो जैसे पता नहीं मुझे कब से जानते हो ।” दिव्या ने शुष्क स्वर में कहा—“जबकि मैंने जीवन में पहली बार तुम्हारी शक्ल देखी है ।”
“गलत...।” वह बोला—“गलत कहा आपने । शक्ल अभी देखी कहां है? अभी तो पर्दानशीं हुआ पड़ा हूं मैं।”
“म-मेरा मतलब।” दिव्या बौखला सी गई— “म - मैं तुमसे पहले कभी नहीं मिली।”
“करेक्ट।...ये बात करेक्ट है ।”
देवांश ने पूछा—“हो कौन तुम?”
“पुराना परिचय दूं या नया?”
“मतलब?”
“मेरा एक परिचय वह है जो आफताब आपको दे चुका है अर्थात् कच्छिया यार हूं राजदान का । उस राजदान का जो इस नश्वर संसार को छोड़कर जा चुका है। पांच यार हुआ करते थे हम । मैं, राजदान, भट्टाचार्य, वकीलचंद और अवतार । धमाचौकड़ी मचाये रखा करते थे मुहल्ले में। ऐसी, कि लोगों की नाक में दम हो जाया करता था। वैसे ये नाक में दम वाला मुहावरा आज तक मेरे दिमाग...
“यहां क्यों आये हो?” ठकरियाल उसकी बात काटकर गुर्राया।
“अभी तो पहला ही परिचय पूरा नहीं हुआ, दूसरा देना भी शुरू नहीं किया कि आपने तीसरा सवाल ठोक दिया। सीढ़ी-सीढ़ी चढ़कर बात परवान चढ़े तो बेहतर होता है ।"
“जो भी कहना है, संक्षेप में कहो।”
“जैसा हुक्म।” कहने के साथ उसने अपना हाथ ठकरियाल की तरफ बढ़ा दिया—“ये है मेरा नया परिचय।”
तीनों ने देखा— उसके हाथ ने एक विजिटिंग कार्ड था ।
ठकरियाल ने उसे लिया ।
तीनों ने एक साथ देखा और... तीनों ही चौंक पड़े ।
ठकरियाल ने कहा— “तो प्राईवेट जासूस हो तुम?”
“अभी-अभी संक्षेप में बात करने के लिये कहा था आपने। क्या फायदा उसे दोहराने से जो कार्ड बता रहा है। दिल्ली से पधारा हूं। वैसे जो धंधा मैं करता हूं, हमारे मुल्क में उसे फालतू का धंधा माना जाता है। कहा जाता है— जिसे कोई और धंध न मिले, वह प्राईवेट जासूस बनकर बैठ जाये। वैसे, दिल्ली में दुकान ठीक चल रही है मेरी ।”
“यहां पधारने का कारण ?”
“हां।... अब ठीक है ये सवाल मगर, जवाब इसके भी दो हैं । पहला – यार मर गया है, आना तो था ही लेकिन...
“लेकिन?”
“आप लोगों ने अक्सर सुना होगा— जो सिंगर होते है, उन्हें दोस्त भी शादी बुलाये तो गाना गाने के लिये कहने लगते हैं। ऐसा ही हाल फोटोग्राफर दोस्त का भी होता है। पट्ठा पहुंचता यार की शादी अटैन्ड करने है, पकड़ा हाथ में कैमरा दिया जाता है। कुछ ऐसी ही हालत मेरी भी हो गई है। आना मातम में शामिल होने चाहिये था, आ जासूसी करने गया हूं।”
“ज-जासूसी करने?”
“ज- जी।”
“तुम प्राईवेट जासूस हो न?”
“स्टाम्प पेपर निकालो। लिखकर दे देता हूं । बाकायदा लाईसेंस है मुझ पर।”
" प्राईवेट जासूस तब जासूसी करने निकलता है न, जब उसे 'एप्रोच' किया जाये ?”
“काफी शानदार ‘जी. के.' है आपका ?”
“इस केस पर तुम्हें किसने नियुक्त किया है?”
“खुद याड़ी ने मेरे ।”
“र-राजदान ने?”
“वही तो।” कहने के साथ झटके से उसने अपने चेहरे से कैप हटा लिया – “मैं भी ठीक उसी तरह चौंका था जैसे आप चौंके खुद मक्तूल ने अपने मर्डर की इन्वेस्टीगेशन के लिये नियुक्त किया है। मेरे जीवन की यह पहली ‘दुर्घटना’ है। और मेरे ही जीवन की क्यों, मेरे ख्याल से तो विश्व में पहली ही बार घटी है ये दुर्घटना । इसे तो 'गिनीज बुक' में जगह मिलनी चाहिये। राजदान से पहले शायद दुनिया के किसी शख्स ने कभी अपने मर्डर की इन्वेस्टीगेशन करने के लिये जासूस 'एंगेज' नहीं किया होगा। वाह, क्या बात है। कारनामा हो तो ऐसा । आखिर यार था अपना । ऐसी ही कुछ करना चाहिये था उसे।”
ठकरियाल, दिव्या और देवांश उसे देखते रह गये । उसने जिसके चेहरे की एक-एक हड्डी खाल को चीरकर बाहर निकल आने को बेचैन सी नजर आ रही थी। नाक गोभी के पकौड़े जैसी थी। कान सामान्य से बड़े । होठ पतले निब से खींची गई सरल रेखा जैसे और आंखे गढ़े में धंसी थीं। पुतलियों का रंग हरा था । क्रिस्टल की गोलियों जैसी चमक थी उनमें । ठकरियाल ने वैसी आंखें ‘डिस्कवरी’ पर दिखाये गये ‘किंग कोबरा' की देखी थीं। सचमुच उसकी आंखों में ऐसा कुछ था कि दिव्या और देवांश की रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ती चली गई। काफी कठिनाई से खुद को नियंत्रित करने के बाद ठकरियाल ने पूछा- -“हम कैसे मान लें तुम्हें राजदान ने ‘एंगेज’ किया है?"
उसने मेज से पैर हटाये। टांगे समेटी और कुर्सी से खड़ा हो गया।
उन्हें पहली बार एहसास हुआ- -साढे छः फुट से एक सूत भी कम लम्बा नहीं था वह ।
पतला-दुबला । साढ़े छः फुटा । अजीब लग रहा था।
हवा थोड़ी तेज चली तो तन पर मौजूद सुर्ख पैन्ट और वाहनों से सजी शर्ट ‘फड़-फड़' की आवाज के साथ यूं फड़फड़ाने लगी जैसे ‘क्लिप’ में फंसे सूखने के लिये डाले गये कपड़े । ठकरियाल के एकदम नजदीक खड़ा था । इसलिये उसके चेहरे की तरफ देखने के लिये ठकरियाल को ऊपर देखना पड़ा। ‘सरल रेखा' नुमा होठ मुस्कराने वाले अंदाज में फले। साथ ही वातावरण में उसकी आवाज गूंजी – “जवाब संक्षेप में दूं या हनुमान की पूंछ बनाकर?”
“संक्षेप में ।”
उसने जेब से कागज निकालकर ठकरियाल की तरफ बढ़ा दिया । ठकरियाल ने कागज लिया ।
उत्सुकतावश देवांश और दिव्या भी उसके नजदीक सरक जाये | जैसी कि उम्मीद थी - - एक बार फिर राजदान के लेटर पैड पर राजदान की हैंड राईटिंग मौजूद थी।
वह लेटर भी अट्ठाईस अगस्त को ही लिखा गया था। अखिलेश वापस कुर्सी पर बैठ चुका था।
तीनों ने एक साथ लेटर पढ़ना शुरू किया
अखिलेश—मुझे एक वकील की जरूरत थी । सो, वकीलचंद का ख्याल आया । पूना से बुलाया उसे । तेरे और अवतार के बारे में पूछा। अवतार का तो उसे भी नहीं पता आजकल कहां है और क्या कर रहा है। तेरे बारे में बताया—तू दिल्ली में है और वहां के हाई सर्किल में सबसे बेहतरीन प्राईवेट डिटेक्टिव माना जाता है ।
सच पूछे तो मुझे किसी ऐसे ही जासूस की तलाश थी ।
कितना सुखद इत्तफाक है, ऐसा एक शख्स तू ही निकल आया। मेरे बचपन का दोस्त ।
दोस्त, पता नहीं—ये जिन्दगी भी कितनी पेचीदगियों से भरी पड़ी है। अब मुझ ही को ले । मुझे मालूम है— कल, यानी उन्तीस अगस्त की रात को करीब एक बजे मुझे कत्ल कर दिया जायेगा। साईलेंसर युक्त रिवाल्वर से कत्ल होगा मेरा । मेरे अपने ही रिवाल्वर से। कातिलों को भी अच्छी तरह जानता हूं अर्थात् मालूम है— मुझे कौन लोग कत्ल करने वाले हैं परन्तु इस लेटर में उनके नाम नहीं लिखूंगा। ऐसा कोई हिन्ट तक नहीं दूंगा जिससे तू कातिलों के बारे में अनुमान लगा सके। ऐसा कुछ कर दिया तो तेरे करने के लिये भला रह ही क्या जायेगा? मैं चाहता हूं – इस केस में अपनी काबलियत दिखाने का तुझे पूरा मौका मिले । अपने टेलेंट से पहुंचे मेरे कातिलों तक। यह लेटर तुझे मिलने तक मेरा कत्ल हो चुका होगा।
खोपड़ी घूम रही होगी तेरी। यह सोचकर कि जब मुझे मालूम है, मेरा कत्ल कब, कहां और किन लोगों के हाथों होना है तो ऐसा होने ही क्यों दे रहा हूं मैं?
उससे पहले ही, पकड़वा क्यों नहीं देता उन्हें जो ऐसा करने वाले हैं ।
यह भी एक रहस्य है ।
ऐसा रहस्य जिसका तुझे पर्दाफाश करना है।
चाहूं तो इस लेटर में भी लिख सकता हूं। मगर नहीं ।
बात एक बार फिर वहीं आकर अटक जाती है ।
मैंने ही लिख दिया तो तेरे करने के लिये क्या बचेगा?
दुनिया को तुझे ही बताना है कि मालूम होने के बावजूद मैंने अपना कत्ल क्यों हो जाने दिया।
कत्ल होने वाले हर शख्स की केवल एक ही ख्वाहिश होती है- —यह कि उसके कातिलों को सख्त सजा मिले। मेरी भी यही ख्वाहिश है।
यह जिम्मेदारी मैं तुझे सौंपकर जा रहा हूं। उम्मीद है, तू जरूर खरा उतरेगा।
तेरे बचपन का यार
आर. के. राजदान
पत्र पढ़कर ठकरियाल ने चेहरा ऊपर उठाया। नजर दिव्या और देवांश के चेहरों पर पड़ी तो लगा - उन पर किसी ने हल्दी पोत दी है । टांगे कांप रही थीं उनकी । ठकरियाल ने अखिलेश पर ध्यान दिया। वह पुनः उसी पोज में खड़ा खर्राटे मार रहा था जिसमें उसके जगाये जाने से पहले था। देवांश ने कुछ कहने के लिये मुंह खोला। ठकरियाल ने उसे कुछ न बोलने का इशारा किया और अखिलेश का कंधा पकड़कर पूर्व की भांति झंझोड़ता हुआ बोला— “मिस्टर अखिलेश।”
“मैं जाग रहा हूं।” कहने के साथ वह कुर्सी पर सीधा होकर बैठ गया । कैप सिर पर रख ली । बोला – “उम्मीद है अब आपको मानना पड़ेगा, मुझे राजदान ने ही ‘एंगेज’ किया है।”
“मिस्टर अखिलेश!” ठकरियाल के लहज़े में अजीब सी कठोरता उत्पन्न हो गयी थी— “हम लोग काम की बातें करें तो बेहतर होगा।”
“हां। बेहतर तो यही होगा मगर, काम की बात करने से पहले मैं एक जरूरी काम जरूर करता हूं। उसे कर लूं ।” कहने के साथ उसने पैंट की जेब से सिगरेट का पैकिट निकाला । एक सिगरेट का सारा तम्बाकू निकालकर बायीं हथेली पर डाल लिया ।
उसमें सुल्फा मिलाया।
दायें हाथ के अंगूठे से रगड़ा । सुल्फे को अच्छी तरह तम्बाकू के साथ रगड़ने के बाद तम्बाकू को वापस सिगरेट में भर लिया।
इस काम में पांच मिनट लग गये उसे ।
तीनों खामोशी के साथ उसकी हरकतों को देखते रहे ।
सिगरेट सुलगाकर एक कश लगाने के बाद कहा -“हां । अब तैयार हूं मैं काम की बातें करने के लिये।”
ठकरियाल ने पूछा-“हमसे क्या चाहते हो ?”
अखिलेश ने सिगरेट उसकी तरफ बढ़ा दी ।
“नहीं।” ठकरियाल ने कहा – “मैं सुल्फा नहीं पीता।” ।
“अच्छी बात है। पीना भी नहीं चाहिये । बुरी चीज होती है। पर क्या करूं । ‘लत' पड़ गयी । खैर !” कहने के बाद उसने सुट्टा लगाया। ढेर सारे गाढ़े धुवें से वातावरण को दूषित किया और बोला— “आप इन्वेस्टीगेटर हैं इस केस के। अभी तक इन्वेस्टीगेशन आप ही ने की है। क्या कहते हैं आपके जहन के कलपुर्जे?”
“शायद तुम्हें मालूम नहीं है, यह केस तुम्हारे यहां आने से पहले ही हल हो चुका है।”
“नाश्ते में आज अखबार ही चाटे हैं मैंने।”
“तब तो...
“नहीं। बबलू राजदान का कातिल नहीं हो सकता।”
“बेस?”
“एक नहीं, दो हैं।”
“बोलो।”
“पहला — मेरे उस यार के कत्ल का केस इतना सीधा-सादा नहीं हो सकता है जिसके लिये उसने मुझ जैसे महान जासूस को यहां बुलाया है और न ही, उसका कातिल इतनी आसानी से पकड़ा जा सकता है।” कहने के साथ एक और सुट्टा लगाया, बोला—“बेस नम्बर दो—याड़ी ने अपने लेटर में एक से ज्यादा बार 'कातिलों' लिखा है अर्थात् कोई एक शख्स उसका कातिल नहीं होना चाहिये।”
“ये सिर्फ ‘कयास’ है, जबकि हमारे पास ठोस सुबूत मौजूद हैं।”
“जैसे?”
“घटनास्थल से बरामद, बबलू के फुट स्टैप्स, अंगुलियों के निशान, उसके स्कूल बैग से बरामद दिव्या जी के जेवर, राजदान के खून से सने बबलू के कपड़े और अंत में, बबलू द्वारा किया गया इकबाले जुर्म । खुद उसके द्वारा सुनाई गई कत्ल की चश्मदीद वारदात।”
“मेरे ख्याल से बबलू असल हत्यारों के षड्यंत्र का शिकार है।”
“बात ख्यालों से नहीं ठोस सुबूतों से बनती है मिस्टर अखिलेश ।”
“धन्यवाद। ऐसे शख्स को इतनी उम्दा बात बताने के लिये धन्यवाद जिस शख्स ने दिल्ली के जासूस मार्केट में तहलका मचा रखा है।” कहते वक्त ‘सरल रेखा' पर बड़ी ही विचित्र मुस्कान उभरी थी। उसने अपनी किंग कोबरा जैसी हरी आंखें ठकरियाल के चेहरे पर जमाये रख कर कहा- -“अब आया हूं तो सुबूत भी जुटने शुरू हो जायेंगे। इस मामले में लोग मुझे ‘मैग्नेट' कहते हैं। ऐसा मैग्नेट जिसकी तरफ ‘लोहे के बुरादे' की तरह सुबूत खिंचे चले आते हैं और अंततः चिपककर रह जाते हैं मेरे जहन की दीवारों पर।”
यह सब अखिलेश ने इतने दृढ़ आत्मविश्वास के साथ कहा था कि दिव्या और देवांश की रूह फना हो गयीं। उन्हें लगादृढ़ किसी हालत में उन्हें पांच करोड़ तक नहीं पहुंचने देगा यह शख्स।
मगर,
ठकरियाल उतना डरा हुआ नजर नहीं आ रहा था ।
कुछ कहने के लिये उसने मुंह खोला था कि दीनू काका ने नजदीक आकर कहा- -“पोस्टमार्टम से फोन आया है छोटे मालिक । डैड बॉडी मिल सकती है ।”
देवांश ने यह सोचकर राहत की सांस ली कि फिलहाल उसे अखिलेश के सवालों का सामना नहीं करना पड़ेगा।
0 Comments