वासना का तूफान गुजर जाने के बाद देवांश ने अपने जिस्म को थोड़ा ऊपर उठाया । तकिया डबल बैड की पुश्त पर टिकाकर सिर पर रखा और हाथ बढ़ाकर बैड की दराज से पैकिट-माचिस उठा लिए ।


एक सिगरेट सुलगाई । आहिस्ता-आहिस्ता उसमें कश लगाने लगा ।


कमरे में नाइट बल्ब का मद्धिम प्रकाश बिखरा हुआ था । बगल में दिव्या लेटी थी ।


तृप्त!


अलसाई सी ।


दोनों के नग्न जिस्म एक मखमली कम्बल में ढके थे।


कुछ देर बाद - - - दिव्या के जिस्म में भी हलचल हुई।


थोड़ी उचकी वह | चेहरा देवांश के नग्न सीने पर रख दिया । वैसा करने पर उसके काले, लम्बे घने और खुले हुए बाल देवांश की छाती पर बिखर गये । दिव्या ने उसी पोज में पलकें देवांश की तरफ उठाकर पूछा--- "क्या सोच रहे हो ?”


“यही कि - - - कब तक चलेगा ऐसा ?” ——-


"कैसा?”


“ उसका इलाज चलते आज छः महीने हो गये । बुखार है कि टूटने का नाम नहीं ले रहा । टी. बी. का पता तो खैर पांच महीने पहले ही लग गया था । भट्टाचार्य लगातार दवाएं दे रहा है। आज वह ऑफिस में आया था, कहने लगा लीवर डैमेज होने लगा है।"


“तुमने पूछा नहीं - - - ये नई-नई बीमारियां क्यों हो रही हैं उसे?”


“सबकुछ एड्स के कारण है । एड्स के रोगी के जिस्म में बीमारियों से लड़ने की क्षमता क्षीण हो जाती है। जो बीमारी एक बार पकड़ लेती है, उसे दवाओं से केवल दबाये रखा जा सकता है। खत्म नहीं किया जा सकता।”


“ यानी बुखार और टी. बी. की तरह अब लीवर का भी इलाज चलेगा?”


“मतलब तो यही हुआ भट्टाचार्य की बातों का ।”


“पैसा कहां से आयेगा?”


“वही सोच रहा था ।”


दिव्या चुप रह गई। जैसे कहने को कुछ सूझ न रहा हो ।


“दिव्या!” काफी देर की चुप्पी के बाद देवांश ने कहा--- "मुझे तुम्हारे जेवर चाहिएं ।”


“ज- जेवर ?” दिव्या बुरी तरह चिहुंकी, जैसे देवांश ने उसकी जान मांग ली हो --- “घर में रखे सारे जेवर तो तुम पहले ही गिरवी रख चुके हो ।”


“मैं उनकी नहीं, उनकी बात कर रहा हूं जो तुम्हारे पर्सनल बैंक लॉकर में रखे हैं।”


“वे जेवर हमारी आखिरी पूंजी है देव ।”


" इसके अलावा और क्या कर सकते हैं?”


“मतलब?”


“ये घर, वो इमारत जिसमें राजदान एसोसियेट्स का ऑफिस है --- राजदान ने पहले ही बिजनेस क्राइसेस से उबरने के लिए गिरवी रखे हुए थे। तुम्हारे करीब आधे जेवर उसका इलाज कराने के लिए मैं रख चुका हूं। बिजनेस की हालत खराब है। नई कालोनी का प्लान भी 'उबार' नहीं पा रहा हमें। साइट पर एक ईंट तक नहीं रखी गई है, बुकिंग ओपन कर दी गई । फ्लैट्स बुक कराने के लिए लोगों में वैसा ही उत्साह है जैसा सोचा था। काफी पैसा आ रहा है। उसी से स्टाफ का खर्च पूरा कर रहा हूं, फाइनेंसर्स के मुंह बंद किये हुए हैं. इलाज करा रहा हूं और दूसरे खर्चे करने पड़ रहे हैं। अब तक तो यह सब जैसे तैसे संभाले हुए था, मगर आगे संभाले रखना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होगा। जिन लोगों ने नई कालोनी में फ्लैट्स बुक कराये हैं वे जानना चाहते हैं निर्माण कब शुरू हो रहा है। कोई ठोस जवाब नहीं है मेरे पास | नये-नये बहाने बनाकर टाले हुए हूं उन्हें मगर फाइनेंसर्स साले इतने घाघ हैं कि 'टलने' को भी तैयार नहीं । पिछले चार महीने से राजदान के ऑफिस न जाने के कारण बेचैनी सी फैली हुई है उनमें । वे उनसे मिलना चाहते हैं, जानना चाहते हैं ऐसी क्या बीमारी हो गयी है उसे जो चार महीने से ऑफिस नहीं पहुंचा। बेचैनी का कारण अपने रुपये डूब जाने की आशंका है। मुझ पर अभी तक उनका विश्वास नहीं जम पाया है।”


“इसका मतलब तुम बिजनेस को ठीक से संभाल नहीं सके।”


चिढ़ सा गया देवांश । बोला --- “संभाल न लिया होता तो छः महीने कैसे गुजर जाते? विरासत में उसने दिया ही क्या है मुझे? खुद को हुआ एड्स ! तुम जानती हो कितना मंहगा इलाज चल रहा है। जो पैसा आता है, पानी की तरह उसी में बह जाता है। लीवर का इलाज चलेगा तो खर्चा और बढ़ जायेगा। ये सांप गले में न पड़ा होता तो यही पैसा नई कालोनी के निर्माण में लगता। लोगों को साइट पर कुछ होता नजर आता तो बुकिंग और तेज होती, उसी पैसे से सारे दिलद्दर दूर हो जाते ।”


चेहरे पर घृणा इकट्ठी करके दिव्या कह उठी --- “पता नहीं कब मरेगा कम्बख्त !”


“हमें मारने के बाद ।”


“क्या मतलब ?”


“क्या मौत की तरफ ही नहीं बढ़ रहे हैं हम ? उसका इलाज हमें कर्ज में इस कदर डुबो देगा कि एक दिन पब्लिक और फाइनेंसर्स ही नोंच-नोंचकर खा जायेंगे ।”


“भट्टाचार्य को बीमारी के बारे में पता लगना । न उसे पता लगता न इलाज की सलाह देता, न हम इस चक्रव्यूह में फंसते । राजदान तो खुद ही मानता था इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। अब तक तो मर खप भी गया होता । पिंड छूट चुका होता हमारा मगर... वर्तमान हालात में उसके इलाज से पीछे नहीं हट सकते । भट्टाचार्य बेवकूफ नहीं है । उसे हमारी आर्थिक स्थिति की पूर्ण जानकारी भले ही न हो, परन्तु इतना इल्म जरूर है कि हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। इसके बावजूद हम इतना महंगा इलाज करा रहे हैं, इस बात का उसके दिमाग पर प्रभाव है। बहुत 'पाजिटिव' सोच है


उसकी हमारे बारे में। उसकी नजर में मैं एक आदर्श भाई और तुम एक मिसाल देने वाली पत्नी हो । इधर हमने इलाज में कोताही बरती, उधर उसकी सभी धारणाएं धूल-धूसरित हुईं - ।"


“हमें क्या लेना इस बात से कि वह हमारे बारे में क्या सोचता है ?”


“तुम्हें शायद मालूम नहीं है दिव्या, राजदान अगर इलाज के अभाव में मर जाये तो हम पर उसकी हत्या का इल्जाम आ सकता है।”


“क-क्या कह रहे हो ये ?” दिव्या हकला गई ।


“अगर किसी को पता है कि फलां शख्स की जान, फलां दवा देने से बच सकती है मगर तीमारदार सक्षम होने के बावजूद दवा नहीं देता और मरीज मर जाता है तो दवा न देने वाला कानून की नजर में मरीज का हत्यारा है ।”


“क्यों न भट्टाचार्य को विश्वास में लेने की कोशिश करें।”


“मतलब?”


“ अपनी पूर्ण आर्थिक स्थिति से अवगत करायें उसे। और..."


उसकी बात काटकर कहता चला गया देवांश ---“भट्टाचार्य के रहते यह सम्भव नहीं है कि हम राजदान के जिंदा रहने तक इलाज से पीछे हट जायें । हमें अंतिम सांस तक उसे बचाने के लिए जूझते रहना होगा । "


“भले ही कंगले हो जायें ।”


“यही तो विडम्बना है। हम बिल्कुल नहीं चाहते वह एक पल भी जिये । हमारी हर सांस बार - बार यही दुआ कर रही है वह घड़ी के चौथाई में मर जाये... और जानते भी हैं दुनिया की किसी दवा से वह बचने वाला नहीं है, इसके बावजूद इतना महंगा इलाज चलाये रखने पर मजबूर हैं जिसका अंजाम एक दिन हमारी कंगाली होगी ।”


“कुछ भी हो जाये, गहने तो नहीं दूंगी मैं ।”


“फांसी के फंदे में फंसी गर्दन जब लम्बी हो जायेगी तो क्या करोगी उनका ?”


“तुम गलत समझ रहे हो देव । गहने देने से मैं इसलिए इंकार नहीं कर रही ये मुझे तुम्हारी या अपनी जान से ज्यादा प्यारे हैं बल्कि, बल्कि इसलिए इंकार कर रही हूं क्योंकि....” कुछ कहती-कहती रुक गई दिव्या । अपना वाक्य उसने जानबूझकर अधूरा छोड़ दिया था ।


कुछ देर तक देवांश उसके आगे बोलने की प्रतीक्षा करता रहा लेकिन जब वह नहीं बोली तो पूछा--- "क्योंकि ?”


“मैं नहीं चाहती आगे उसका इलाज हो ।”


"वजह?”


“इलाज इसी तरह चलता रहा तो कुछ और दिन जीता रहेगा वह ।” कहते-कहते उसके चेहरे पर ऐसे भाव उभर आये जैसे कोई ऐसी बात बताने का निश्चय किया हो जिसे बताना नहीं चाहती थी । अपने एक - एक शब्द पर जोर डालते हुए कहा उसने --- “तीस अगस्त तक उसका मरना जरूरी है । "


देवांश की आंखें सुकड़ गईं । मुंह से निकला --- “क्या मतलब हुआ इस अटपटी बात का?”


“ इकत्तीस अगस्त को उसके द्वारा ली गई एक भी सांस हमारी बरबादी के ताबूत में गड़ी अंतिम कील बन जायेगी।”


“अचानक क्या पहेलियां बुझाने लगीं तुम ?” देवांश बुरी तरह “मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा । ऐसा क्या पहाड़ टूट पड़ने वाला है इकत्तीस अगस्त को ?” उलझ गया था———


दिव्या ने तुरंत जवाब नहीं दिया ।


वह विस्तर से उठी । इस बात की कोई परवाह नहीं थी उसे कि वह पूरी तरह नग्न थी । देवांश को भी उस जिस्म पर ध्यान देने का होश नहीं था जिसके आकर्षण ने एक दिन उसे 'रंगे हाथों' पकड़वा दिया था।


दिव्या ने बैड के कोने पर पड़ा अपना नाइट गाऊन उठाया। वह क्रीम कलर का 'साटन' के कपड़े का बना था जो जरा भी झीना नहीं था । उस वक्त उसे अपने जिस्म पर डालने के बाद बटन बंद करने में व्यस्त थी जब बुरी तरह अधीर हुए देवांश ने पूछा--- " बतातीं क्यों नहीं? तीस अगस्त तक उसका मरना क्यों जरूरी है ?”


मुंह से इस बार भी दिव्या ने कुछ नहीं कहा । दायां हाथ गाऊन की जेब में डाला । एक 'तह' हुआ कागज निकाला और देवांश की तरफ उछाल दिया। कागज उस कम्बल पर जा गिरा जिसके नीचे देवांश का नग्न जिस्म था । हैरत से आंखें फाड़े वह कभी कागज की तरफ देख रहा था, कभी दिव्या की तरफ । फिर उसने कागज उठाया। तहें खोलीं और खुले कागज को देखते ही उछल पड़ा । मुंह से निकला ---“प- पालिसी ! ये तो पांच करोड़ की बीमा पालिसी है। उसके मरते ही पौ बारह कर देगी हमारे ।”


“उस तारीख पर ध्यान दो जब तक यह 'वैलिड' है ।”


“तीस अगस्त ।” देवांश की नजरें पालिसी पर जमी थी ।


“तीस अगस्त को इसका अगला प्रीमियम ड्यू है। वह सही तारीख पर नहीं पहुंचा तो पालिसी 'लैप्स' हो जायेगी अर्थात् अगर वह तीस अगस्त के बाद मरता है तो फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी एल.आई.सी. से।”


“ठ- ठीक कह रही हो तुम ।”


“नोमीनी वाले कालम में मेरा नाम है। अगर वह तीस अगस्त को या उससे पहले मरता है तो पांच करोड़ मिलेंगे। सोचो देव --- पांच करोड़ ! सारे कर्जे-वर्जे निपटाने के बावजूद हम बाकी पैसे को बिजनेस में लगाकर शाही जिन्दगी जीते रह सकते हैं, जिसे जीने की हमें आदत पड़ चुकी है। लेकिन अगर वह तीस अगस्त तक नहीं मरा । तीस अगस्त की रात के बारह बज के बाद एक सांस भी ले लिया तो दुनिया की कोई ताकत हमें तबाह होने से नहीं बचा सकती। समझ रहे हो न?”


“समझ तो मैं सबकुछ चुका हूं मगर...


“मगर?”


“इस पॉलिसी के बारे में तुमने पहले क्यों नहीं बताया ?”


" उन बातों पर ध्यान मत दो जिन पर ध्यान देने से कोई फायदा नहीं है।” सर्द स्वर में दिव्या कहती चली गई - - -“केवल वे बातें ध्यान में रखो जिनसे हमें नफा-नुकसान होने वाला है। पांच अगस्त है आज । केवल पच्चीस दिन बचे हैं। अगर वह इन पच्चीस दिन में मरता है तो हमारे लिए उसकी मौत स्वर्ग के दरवाजे खोल देगी । छब्बीसवें दिन मरता है तो दोजख की आग में जलने के लिए तैयार रहो । ”


देवांश का जी चाहा, चीख-चीखकर कहे --- 'तुमने मुझे पॉलिसी के बारे में इसलिए नहीं बताया क्योंकि इस रकम को अकेली डकार जाना चाहती थीं और अब बताया तो केवल इसलिए बताया क्योंकि तुम्हारे सामने इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है।'


मगर, यह सब कहा नहीं उसने ।


उसे लगा--- इससे दोनों के बीच कटुता बढ़ेगी और यह वक्त आपस में कटुता बढ़ाने का नहीं था । अतः असली उद्गारों को दबाये - दबाये बोला--- "कौन कह सकता है वह कब मरेगा? पच्चीस दिन के अंदर या उसके बाद !”


“इसीलिए जेवर नहीं दे रही है मैं । इलाज चलता रहा तो इस अवधि के अंदर मरने की कोई संभावना नहीं है । इलाज बंद कर दिया जाये तो एक बार को...


“मगर इलाज बंद किया कैसे जा सकता है ?” कसमसाता देवांश उसकी बात बीच में ही काटकर कह उठा--- --“बताई तो हैं तुम्हें सारी प्रॉब्लम्स । इलाज न कराना एक तरह से उसकी हत्या करना होगा । भट्टाचार्य का बयान फांसी करा देगा हमें ।”


“सोचो देव। सोचो, क्या किया जाये । जिन हालात में हम हैं, सोचना तो उनमें कुछ पड़ेगा ही।”


“अंजाने में ही सही, क्या हम उसकी हत्या के बारे में नहीं सोचने लगे हैं।”


“जिसे आज नहीं तो कल मरना है, उसकी हत्या के बारे में क्या सोचना, क्या न सोचना देव ।” दिव्या कहती चली गई ---“देखा जाये तो जिन्दा है ही कहां वह ? लाश बन चुका । एक ऐसी लाश जो सांस ले रही है। ये सांसें वह तीस अगस्त के बाद तक लेती रही तो हमारी सांसें रुक जायेंगी । अगर ये हत्या भी हुई तो किसी जागते इंसान की नहीं बल्कि एक लाश की हत्या होगी! मुक्ति होगी उसकी । उस कष्ट से मुक्ति जो वह बिस्तर पर पड़ा झेल रहा है। ऐसे मरीज के लिए तो उससे बेइंतिहा प्यार करने वाला भी मौत मांगने लगता है।”


“ दोनों बातों में फर्क है दिव्या, हम उसकी मौत उसकी नहीं अपनी 'मुक्ति' के लिए चाहते हैं । ”


“सारे हालात बता दिए हैं तुम्हें! अब तुम जानो, तुम्हारा काम ।”


“मरना तो वह तीस अगस्त से पहले ही चाहिए, मगर कैसे ? कैसे हो सकता है ऐसा ?”


“मान लो, मेरे पास गहने हैं ही नहीं ।”


“मान लेने से काम नहीं चलता । अगर वह इलाज के अभाव में मरा तो भट्टाचार्य यकीनन हमें फंसा देगा | अगर इलाज चलता रहा तो... आह!” वह चुटकी बजा उठा। चेहरे पर ऐसे भाव उभरे जैसे अचानक कुछ सूझा हो । एक पल पहले तक बुझे बुझे नजर आ रहे चेहरे पर चमक नजर आने लगी ।


बेचैन हुई दिव्या ने पूछा- “क्या हुआ देव? क्या कहते-कहते रुक गये तुम ?”


“हां ।” बड़बड़ाकर मानो उसने खुद ही से कहा --- "ये हो सकता है ! यही ठीक रहेगा ।”


“क्या ठीक रहेगा ?” मारे उत्तेजना के दिव्या की आवाज कांप



रही थी ।


“भट्टाचार्य की नॉलिज में इलाज उसी तरह चलता रहेगा जैसे अब तक चल रहा है, बल्कि इससे भी ज्यादा गंभीरता के साथ चलेगा । वह हर दवा खरीदी जायेगी जो वह लिखेगा, मगर दी नहीं जायेगी राजदान को । उसकी नालिज में राजदान की मौत हमारे द्वारा उसे बचाने की हर कोशिश के बावजूद होगी।”


“तरकीब तो अच्छी है ।” एकाएक दिव्या की आंखें चमक उठीं---“मगर..


“मगर ?”


“दवाएं आयेंगी तो गहने...


“उफ्फ ! तुम्हें गहनों की पड़ी है। बेवकूफ हो तुम । ये क्यों नहीं सोचतीं दवा न मिलने के कारण यदि वह पच्चीस दिन के अंदर मर गया तो जाने कितने गहने खरीद लिए जायेंगे। यही करना होगा हमें । बड़ी ही मार्वलस तरकीब है ये । दुनिया के किसी और आदमी की तो बात ही छोड़ो, दिन-रात उसका इलाज कर रहे भट्टाचार्य तक को इल्म नहीं होगा कि वह मौत, मौत नहीं हत्या होगी ।”


***


हड्डियों का पंजर नजर आने लगा था राजदान । ऐसा--- जैसे कंकाल पर असंख्य झुर्रियों वाली चुड़चुड़ी खाल चढ़ा दी गई थी । गोश्त का तो नामोनिशान नहीं था जिस्म में। आंखें गड्ढों में धंस गई थीं। काले धब्बे पड़ गये थे उनके चारों तरफ । ज्योतिहीन आंखें गोल-गोल और डरावनी नजर आने लगी थीं।


खांसी उठती थी तो उठे ही चली जाती थी ।


यूं कांप उठता था उसका जिस्म जैसे टहनी से टूटने को तैयार सूखा पत्ता कांप रहा हो । जब खांसता था तो दिव्या और देवांश उससे दूर हट जाते थे । केवल बबलू था जो पूरा झुक जाता और जोर-जोर से उसकी छाती को रगड़ने लगता। ऐसे हर समय पर राजदान अपने कमजोर हाथों से उसे परे धकेलने की कोशिश करता ।


खांसी थम जाने पर कहता - - - "दूर रहा कर मुझसे।”


“क्यों चाचू ?” बड़ी मासूमियत से पूछा करता था वह ।


“तुझे भी खांसी हो जायेगी गधे । ”


“तो हो जाये । जो मेरे चाचू को हुआ है, वह मुझे भी हो जाये तो अच्छा है न ।”


बबलू के ऐसा कहने पर दिल भर आता था उसका । जी चाहता था, उस मासूम को खींचकर अपनी बांहों में भर ले, मगर ऐसा कर नहीं पाता था। इस डर से कि कहीं सचमुच टी. बी. के जर्म्स उसमें भी दाखिल न हो जायें। हालांकि भट्टाचार्य अनेक बार कह चुका था - - - मैं तुम्हें ऐसी दवाएं दे रहा हूं जिससे वे जर्म्स किसी और को इफेक्ट नहीं कर सकते। इसके बावजूद बबलू को खुद से दूर ही रखने की कोशिश करता था वह । जब पास आता, उसकी सेवा करता । दवा देता तो आंखें भर आती थीं राजदान की ।


इस वक्त भी वह उसी के पास बैठा था । उसके बैड पर | टांगें दबा रहा था उसकी । साथ ही कहता जा रहा था - - - “ अब मैंने अपना मन पढ़ाई में लगा लिया है चाचू ।”


“और उसने?” राजदान ने पूछा ।


“उसने भी।” बबलू की आवाज फुसफुसाहट में बदल गई थी---“मैंने स्वीटी से वही कहा जो तुमने कहा था । यह कि ---अब हमें बाहर ही नहीं, स्कूल में भी अकेले में नहीं मिलना चाहिए। ऐसा नहीं किया तो फेल हो जायेंगे । मार पड़ेगी घर पर । शर्त लगा ली है हमने, मेरे नम्बर ज्यादा


आये तो वह पिक्चर दिखायेगी, उसके नम्बर ज्यादा आये तो मुझे दिखानी पड़ेगी।"


“मेहनत कर, जीतेगा तू ही ।”


“तुम कहते हो तो कर लूंगा चाचू मगर...


“मगर?”


“इच्छा तो मेरी ऐसी है कि वही जीत जाये ।”


“ऐसा क्यों?”


“ मैं जीत गया तो पिक्चर दिखाने के लिए पैसे कहां से लायेगी बेचारी !”


यह बात बबलू ने इतनी मासूमियत के साथ कही थी कि रोकने की लाख चेष्टाओं के बावजूद राजदान अपने मुंह से बेसाख्ता निकलने वाले ठहाके को न रोक सका | बुरी तरह खिलखिलाकर हंस पड़ा वह । हंसी खांसी में तब्दील होती चली गई। ‘चाचू-चाचू' कहता बबलू उसकी टांगें छोड़कर छाती मलने लगा । खुद को नियंत्रित करने का प्रयास करते राजदान ने चेहरा विपरीत दिशा में घुमा लिया। नियंत्रित होते-होते उसके मुंह में बलगम भर गया था । बबलू ने जल्दी से झपटकर पलंग के नीचे रखा रेत भरा तसला उठाकर उसके मुंह के सामने करते हुए कहा--- "लो चाचू ।”


राजदान ने बलगम रेत में थूका । उस वक्त वह ममता भरी आंखों से बबलू को निहार रहा था जब वह तसला यथास्थान रखने के लिए सीधा होता हुआ बोला--- "सॉरी चाचू ! मुझे तुम्हें हंसाना नहीं चाहिए था । बहुत तकलीफ हुई न । मगर, ऐसी कोई बात कही तो नहीं थी मैंने जिससे हंसी आती । पता नहीं तुम क्यों हंस पड़े ?”


कैसे कहता राजदान ? कैसे कहता कि अब सिर्फ वही है जो उसे हंसा सकता है। हल्की सी मुस्कान के साथ बोला--- “वो जीत गई तो तू कहां से लायेगा पैसे ?”


“छोड़ो उसकी बात । तुम्हें फिर खांसी आ जायेगी ।”


“ बता ना यार । नखरे मत दिखा ।”


“मैं लड़का हूं चाचू । कर ही लूंगा कुछ न कुछ जुगाड़ ।”


राजदान के फीके होठों पर बड़ी ही रसीली मुस्कान उभरी। बोली---“बो भी लड़की है बबलू उस्ताद ! कर ही लेगी कहीं न कहीं से तुझे पिक्चर दिखाने का जुगाड़ । याद रख, मेरा बेटा होगा तो जीतेगा तू ही । उससे ज्यादा नम्बर लाने हैं तुझे ।”


“ओ. के. चाचू ! ओ. के. । उससे ज्यादा नम्बर लाकर दिखाऊंगा मैं तुम्हें ।” कहने के बाद वह थोड़ा रुका, फिर आगे बोला--- "तुमसे मिलने को कह रही थी वो ।”


“म-मुझसे?... क्यों?”


“कहने लगी - - - मैं तेरे उन चाचू से मिलना चाहती हूं जो तुझे इतनी अच्छी-अच्छी बातें बताते हैं ।”


“ मिलने की इच्छा तो मेरी भी है उससे ।”


“इजाजत हो तो ले आऊं किसी दिन ?”


“एग्जाम कब खत्म होंगे तुम्हारे ?”


“पच्चीस तारीख को ।”


“छब्बीस को ले आना।” राजदान की आंखें शून्य में स्थिर हो गयीं ---- “तब तक तो शायद मैं हूं ।”


“ये क्या बात हुई चाचू ?... कभी-कभी तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं।”


“अभी छोटा है न तू । कुछ बातें तभी समझ में आती हैं जब...“बच्चा बड़ा हो जाता है।" सेंटेंस पूरा करते हुए भट्टाचार्य ने कमरे में कदम रखा।


“टपक पड़ा तू । एक सैकिण्ड लेट नहीं हो सकता।" राजदान ने कहा- -- “उधर सुबह के ठीक नौ बजे धमकेगा, इधर रात के नौ बजे। कोई और काम भी है तुझे ? ”


भट्टाचार्य के जवाब से पहले बबलू बोल पड़ा---“डॉक्टर अंकल! कैसे डॉक्टर हैं आप? दोस्त भी हैं चाचू के कितने  दिन हो गये कमरे में चाचू को पड़े-पड़े | आप इन्हें ठीक नहीं कर सकते ?”


बच्चे की मासूम बात पर धक्का-सा लगा भट्टाचार्य को । जी चाहा --- काश, वह डॉक्टर नहीं, भगवान होता । जल्द ही खुद को नियंत्रित करता बोला--- "ठीक कैसे नहीं होगा ये । अच्छे-अच्छों को ठीक कर दिया मैंने ।”


“जो पहले ही अच्छे हों उन्हें ठीक करना कहां की कारीगरी है। डॉक्टर अंकल, बात तो तब है जब बुरे - बुरों को अच्छा किया जाये। क्यों चाचू?”


इस बार भट्टाचार्य के मुंह से बेसाख्ता ठहाका फूट पड़ा ।


राजदान ने खुद को बड़ी मुश्किल से खिलखिलाकर हंसने से रोका था । ऐसा उसने पुनः खांसी उठने के डर से किया था ।


केवल मुस्कराकर रह गया वह हंसने के बाद भट्टाचार्य ने कहा---“आज समझ में आया मेरा दोस्त तुझसे इतनी घुट-घुटकर बातें क्यों करता है । तेरी बातें बातें नहीं, अच्छा खासा टॉनिक होती हैं । ”


“तो मेडिकल स्टोर पर बेचनी शुरू कर दूं अपनी बातें?”


एक बार फिर भट्टाचार्य ठहाका न रोक सका ।


कुछ देर बाद जब राजदान ने बबलू से कहा --- 'सवा नौ बज गये हैं, अब तू जा ।' तो बबलू यह कहकर चला गया कि 'मैं जानता हूं जाना होगा। अपनी बीमारी के बारे में मेरे सामने बातें नहीं करते तुम । '


उसके जाने के कम से कम दो मिनट तक कमरे में खामोशी रही । न राजदान कुछ बोला, न भट्टाचार्य |


अंततः भट्टाचार्य ने कहा --- “बड़ा अच्छा लड़का है। बहुत सेवा करता है तेरी ।”


“मगर तू एकदम घटिया डॉक्टर है ।”


“ इतने बेहतरीन नतीजे पर कैसे पहुंचा ?” भट्टाचार्य मुस्करा रहा था ।


“ पहले ही क्या कम दवाएं खा रहा था मैं जो कल रात और बढ़ा दीं?”


तुरन्त कोई जवाब नहीं दे सका भट्टाचार्य ।


असल में राजदान को 'लीवर' के बारे में बताया था । टी. बीके साथ उसी की दवाएं जोड़ी थीं उसने । कुछ देर बाद बोला --- “कब, कौन सी और कितनी दवा देनी है, सोचना तेरा नहीं मेरा काम है । " —


“इतनी दवाएं लिख दी हैं तूने, पेट तो साला उन्हीं से भर गया है। फिर पूछता है--- भूख लगी या नहीं, कुछ खाया क्यों नहीं? खाऊं तो तभी जब तेरी दवाओं ने पेट में जगह छोड़ी हो । ”


" बीमारी है तो दवाएं खानी ही पड़ेंगी उस्ताद ।”


“तू मुर्दे में जान डालने की कोशिश कर रहा है ।”


“ और काम ही क्या होता है डॉक्टर का ?”


“आज छः महीने हो गये । दुनिया का कोई वैज्ञानिक उस दवा का आविष्कार नहीं कर सका जिसके इंतजार में मुझे जिन्दा रखे हुए है । और मेरे जीते जी वैसा कुछ होगा भी नहीं बल्कि इसके उलट, छोटा और दिव्या तबाह हो जायेंगे । ”


“क्या कहना चाहता है?"


“देख भट्टाचार्य! तू डाक्टर बाद में, दोस्त पहले है मेरा । इसलिए अपने घर के हालात बता रहा हूं।” धीमे स्वर में राजदान कहता चला गया --- "भले ही छोटा और दिव्या अपनी वर्तमान परेशानियां मुझे नहीं बताते, इलाज कराये चले जा रहे हैं। मगर इतना बेवकूफ नहीं हूं मैं। सब जानता हूं इस घर की आर्थिक पोजीशन | ये जो टीन-टप्पर नजर आ रहे हैं, असल में कुछ भी हमारा नहीं है। ये महंगा इलाज अगर इसी तरह चलता रहा तो


मेरे मरने से पहले वे दोनों मर जायेंगे।"


“मतलब क्या हुआ, इलाज बंद कर दिया जाये ?”


" हंडरेड परसेन्ट बंद कर दिया जाना चाहिए।"


“दिमाग खराब हो गया है तेरा ? जानता भी है, अगर मैंने ऐसा किसा तो कानून की नजर में यह तेरी हत्या होगी । फांसी पर लटकवाने का इरादा है मुझे ? ”


“किसी को पता ही क्या लगेगा यार ?”


“हर क्रिमिनल यही सोचकर क्राइम करता है। "


“उफ्फ!... तू तो समझने को ही तैयार नहीं है। बात तभी तो समझ में आये जब तू समझने की कोशिश करे । सुन,


ध्यान से सुन मेरी बात ।" वह अपने एक-एक शब्द को प्रभावशाली बनाने की कोशिश करता कहता चला गया - - - “ अब तुझे यह बात मान लेनी चाहिए --- कम से कम मेरे जिन्दा रहने तक कोई 'आविष्कार' नहीं होने वाला है। चाहे जो दवाएं दे ले, बहुत ज्यादा जिन्दगी नहीं बची है मेरी। क्या फर्क पड़ना है मुझ पर ? अब भी क्या कर रहा हूं मैं? जिन्दा लाश ही तो हूं, मगर... छोटे और दिव्या पर बहुत फर्क पड़ जायेगा । यकीन मान, वे कहें न कहें--- हकीकत ये है मेरा इलाज आर्थिक रूप से उन्हें चौपट किये दे रहा है। जितनी देर से मरूंगा, मेरी मौत पर वे कर्ज के उतने ही गहरे गर्त में डूबे होंगे। क्या फायदा इससे ? मेरे बचने की कोई उम्मीद होती, तब भी यह सब तर्कसंगत लगता लेकिन जब कोई उम्मीद ही नहीं है तो क्या समझदारी है उन्हें बरबाद करने में? देख यार, मरने वाले की अंतिम इच्छा तो साले जल्लाद भी पूरी करते हैं, तू तो दोस्त है अपना---एक ही इच्छा है मेरी, मेरी मौत के बाद वे खुशहाल रहें। 'जाते वक्त' अगर मेरी आत्मा पर यह बोझ रहा कि वे कर्ज में नाक तक डूबे हुए हैं तो मरने के बाद भी चैन नहीं मिलेगा मुझे " 


रोकने की लाख चेष्टाओं के बावजूद भट्टाचार्य की आंखें डबडबा उठी थीं।


“अरे !” राजदान ने कहा--- "तू तो टसवे बहाने लगा । ”


भट्टाचार्य ने पलक से कूदकर कपोल पर ढलक आये आंसू को अपने अंगूठे से पौंछते हुए कहा--- "अपने पिछले जीवन में मैंने किसी शख्स को मरने के लिए उतना लालायित नहीं देखा जितना तुझे देख रहा हूं। जीने की ललक उनमें भी होती है जिनके पैर कब्र में लटके हों मगर तू... इस हाल में भी अपने बारे में नहीं, उनके बारे में सोच रहा है। कितना पागल है तू!”


“समझ क्यों नहीं रहा दोस्त, मैंने तो जी ली अपनी जिन्दगी । अब उन्हें जीना है।"


“एक डॉक्टर होने के नाते मैं ऐसा नहीं कर सकता।”


“यानी मेरी इतनी मेहनत के बावजूद तेरा पतनाला वहीं गिरा।"


“मेरा फर्ज है --- मरीज को तब तक जिन्दा रखने की कोशिश करना जब तक वह मर न जाये । ”


“इसका मतलब तू डॉक्टर का डॉक्टर रहा, दोस्त नहीं बन सका मेरा । साथ नहीं देगा मेरे मिशन में | ओ. के. ।” कहने के बाद उसके कमजोर और डरावने चेहरे पर अजीब-सी दृढ़ता के भाव उभर आये । कहता चला गया चह--- "ये


मिशन कोई ऐसा तो है नहीं जिसे तेरी मदद के बगैर पूरा नहीं कर सकता । तेरे सामने तो केवल इसलिए गिड़गिड़ा रहा था ताकि चैन से, स्वाभाविक मौत मर सकूं। वरना, मरने के तरीकों की क्या कमी है दुनिया में ?”


“र- राज !” भट्टाचार्य के हलक से चीख निकल गई --- “ये क्या बक रहा है तू?”


“कर! खूब कर इलाज ।” राजदान के होठों पर फीकी मुस्कान थी --- “देखता हूं कब तक बचाये रखेगा मुझे । ”


“ये पागलपन है राज! पागलपन है ये!” भट्टाचार्य ने झपटकर उसके दोनों कंधे पकड़े, झंझोड़ता हुआ चीखा ---“इस दिशा में तू सोचेगा भी नहीं।”


बहुत शान्त स्वर में कहा राजदान ने--- “दोस्त जब साथ न दे तो दुख होता है।”