वालिया कंस्ट्रक्शन का मालिक, 28 बरस का अजय वालिया, अपने ऑफिस की छठी मंजिल की खिड़की पर खड़ा, बाहर का नजारा देख रहा था। सामने ही मुख्य सड़क नजर आ रही थी, जहाँ वाहनों की कतारें रेंगती नजर आ रही थीं। वह आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक था और उसे देखकर दौलत की महक आने लगती थी।
आज से दस साल पहले उसके माँ-बाप प्लेन क्रैश में मारे गए थे।
कंस्ट्रक्शन का काम पिता का ही था। वह ढेर सारी दौलत और कई बड़ी इमारतें पीछे छोड़ गए थे। उनकी मौत के बाद काम बंद हो गया। पिता के असिस्टेंट मोहन दास ने अगले चार साल तक, वफादारी के साथ सब इमारतों की देखभाल की। तब तक अजय वालिया ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली। 22 बरस की उम्र काम में हाथ डालने के लिए ठीक थी। उसके बाद अजय वालिया ने अपने पिता का कंस्ट्रक्शन का रुका काम सम्भाल लिया और अगले छह बरसों में काम को चौगुना बढ़ा दिया था। इस काम में मोहन दास ने उसकी बहुत सहायता की थी। आज वालिया कंस्ट्रक्शन का नाम मुम्बई में बड़े नामों के बीच आता था।
अजय वालिया का मोबाइल फोन बजने लगा। अजय वालिया खिड़की से हटा और आगे बढ़कर टेबल पर पड़ा मोबाइल फोन उठाकर बात की।
"हेलो!"
"वालिया!" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
"ओह, देवराज चौहान! कैसे हो?" अजय वालिया के चेहरे पर मुस्कान आ ठहरी।
"मैं ठीक हूँ! तुम्हारा काम बढ़िया चल रहा होगा?" उधर से देवराज ने पूछा।
"हाँ, सब ठीक है!"
"अभी मुझे जगमोहन ने बताया कि तुम्हें दो सालों में 482 करोड़ दिया जा चुका है।"
"हाँ, पूरा हिसाब है मेरे पास!"
"दो सालों में कोई वापसी नहीं हुई?" देवराज चौहान की शांत आवाज वालिया के कानों में पड़ी।
"हम लोग पार्टनर है देवराज चौहान...।"
"जानता हूँ। जब तुम्हारे पिता कंस्ट्रक्शन कम्पनी संभालते थे, मैं तब भी पार्टनर हुआ करता था। परन्तु दो सालों से हम पैसा लगाए जा रहे हैं और वापसी जरा भी नहीं है।"
"मैंने जगमोहन को बताया तो था कि मैंने एक साथ छह प्रोजेक्ट शुरू कर रखे हैं। काम ज्यादा फैला लिया है। लेकिन छह में से तीन प्रोजेक्ट लगभग पूरे हो चुके हैं। मैं कुछ ही दिनों में पब्लिक में स्कीम निकालने जा रहा हूँ। तैयारी हो चुकी है।"
"हूँ...।"
"तुम्हारा पैसा प्रॉफिट के साथ वापस आएगा।"
"जानता हूँ! मैंने सिर्फ देरी की वजह पूछी है।"
"इसी बहाने तुमसे बात हो गयी। वरना जगमोहन से ही मेरी बात होती है, तुमसे नहीं।"
"पैसों के सारे काम वह ही संभालता है।"
तभी दरवाजा खुला और मोहन दास तीन-चार फाइल्स थामें भीतर आ गया।
"सब ठीक है। तुम्हारा पैसा सुरक्षित है। तुम सिर्फ मुझ पर भरोसा करो...।"
"भरोसा है।" कहकर उधर से देवराज चौहान ने फोन काट दिया था।
अजय वालिया ने भी फोन रखा, और मोहन दास से बोला- "विनय से कहो कि स्टार अपार्टमेंट और साईं बाबा अपार्टमेंट की पब्लिक के लिए योजना जल्दी अखबारों में दे।"
"दोनों अपार्टमेंट के इश्तिहार आज ही अखबारों में बुक करायें हैं। कल के अखबारों में वह पब्लिक के सामने होंगे।" मोहन दास ने कहा, "हमारी कम्पनी की तरफ से, साइट पर बुकिंग ऑफिस भी सुबह आठ बजे खुल जायेंगे।"
"तो तुमने सब सम्भाल लिया।" अजय वालिया मुस्कुराया, "हमेशा की तरह...।"
"मेरा तो काम ही यही है, आपकी परेशानियाँ अपने सिर ले लूँ।" मोहन दास बोला और हाथ में दबी फाइल्स टेबल पर रखता कह उठा, "ये आपने मंगवाई थीं। आज मुझे जल्दी घर जाना होगा।"
"तो पूछने की क्या जरूरत है। जब मर्जी आओ, जब मर्जी जाओ। मैं तुम्हारे बेटे जैसा हूँ। तुमने यह काम जमाने के लिए मेरी बहुत सहायता की है। अगर तुम मेरे साथ न होते तो शायद मैं इतना सफल नहीं हो पाता...।"
"आज के वक़्त में सफलता दौलत से मिलती है। दौलत ही दौलत को खींचती है।" मोहन दास मुस्कुराकर कह उठा, "आपके पास पैसा है काम में लगाने को तो आप कभी भी हार नहीं सकते।"
"बाजार से उठाकर पैसा लगा रखा है इस काम में। तुम तो जानते ही हो।"
"सब ही ऐसा करते हैं।" मोहन दास बोला, "अब मैं घर जाऊँगा और कल सुबह लेट आऊँगा। शायद लंच तक।"
अजय वालिया ने सहमति में सिर हिला दिया।
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वह रंजन था जो बारह बजे से ही उस चौदह मंजिला इमारत के सामने पार्किंग में मौजूद था। उसकी नजर बराबर इमारत के मुख्य दरवाजे पर टिकी रही थी। गले में पॉवरफुल शॉट लेने के लिए कीमती कैमरा लटका था। इस वक़्त शाम के चार बज रहे थे कि उसका फोन बजा। उसने फोन निकालकर बात की।
"हेलो...!"
"रंजन!" दूसरी तरफ से महेश की आवाज कान में पड़ी, "वह निकला क्या?"
"अभी नहीं।"
"दीपक को मैं तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। वह कुछ देर के लिए तुम्हारी जगह ले लेगा।"
"ठीक है!" रंजन ने कहा और फोन बंद करके जेब में रखा।
इस दौरान उसकी निगाह इमारत के मुख्य गेट पर ही थी, जहाँ से ढेरों लोग अंदर-बाहर होते नजर आ रहे थे।
ठीक तभी उसकी निगाह अजय वालिया पर पड़ी, जो छोटा सा ब्रीफकेस थामें बाहर निकल रहा था। रंजन ने फौरन कैमरा संभाला और लेंस सेट करके एक के बाद एक अजय वालिया की तस्वीरें लेने लगा।
अजय वालिया ब्रीफकेस थामे पार्किंग में खड़ी अपनी कोरोला कार के पास पहुँचा।
"नमस्ते सर!"
"नमस्कार हीरा!" अजय वालिया मुस्कुराया, "कार की चाभी मुझे दे दो।"
"जी!" हीरा ने फौरन कार की चाभी अजय वालिया को दे दी।
"तुम बंगले पर पहुँचो।" अजय वालिया कार का दरवाजा खोलते हुए बोला, "मैं रात को आऊँगा।"
"जी!" हीरा ने सिर हिलाया और पलटकर चला गया।
अजय वालिया कार में बैठा। ब्रीफकेस बगल वाली सीट पर रखा और कार स्टार्ट करके आगे बढ़ा दी।
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रंजन सावधानी से अपना कार ड्राइव करता, अजय वालिया की कार का पीछा कर रहा था। कैमरा उसके पास की सीट पर रखा हुआ था। उसी पल उसका फोन बजा।
"हेलो!" रंजन ने एक हाथ से फोन दबाकर कान से लगाया।
"तुम कहाँ हो?" दीपक जी आवाज कानों में पड़ी, "यहाँ कहीं भी नजर नहीं...।"
"मैं वालिया के पीछे हूँ...।"
"ओह, तो वह बाहर निकला। कब कहाँ हो तुम?"
"मरीन ड्राइव पर।"
"मैं यहीं हूँ। मुझे फोन पर बताना कि वह कहाँ गया?"
"उसकी कार की रफ्तार कम हो रही है। आगे मोड़ है, वह शायद उधर मुड़ेगा।"
"वह नजरों से दूर नहीं होना चाहिए।"
"फोन बंद कर रहा हूँ।"
"मुझे जल्दी फोन करके बताओ। मैं वहीं आता हूँ।"
"रंजन ने फोन बंद करके कमीज की जेब में रखा। उसकी नजरें आगे जा रही अजय वालिया की कार पर थी।
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अजय वालिया ने उस पाँच मंजिला इमारत की पार्किंग में कार रोकी और ब्रीफकेस थामे उतरकर भीतर की तरफ बढ़ता चला गया। सामने ऊपर जाने को सीढ़ियाँ थीं और साथ में लिफ्ट भी। लिफ्ट पर 'आउट ऑफ आर्डर' का छोटा सा बोर्ड लगा था। अजय वालिया सीढ़ियों से दूसरी मंजिल पर पहुँचा। वहाँ आमने-सामने दो-फ्लैट बने नजर आ रहे थे, परन्तु उनके बीच 30 फिट की गैलरी थी। अजय वालिया एक फ्लैट के दरवाजे पर पहुँचा और वहाँ लगा कॉलबेल का स्विच दबा दिया।
भीतर कहीं बेल बजी। चंद पलों बाद दरवाजा खुला।
दरवाजा खोलने वाली 26-27 बरस की इंतहाई खूबसूरत युवती थी। उसने स्कर्ट और ब्लाउज पहन रखा था। बाल कंधों तक लहरा रहे थे। बालों की लटें गालों तक आती झूल रही थीं।
दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराए।
ओह, अजय!" युवती ने खुशी से भरी साँस ली।
अजय ने भीतर प्रवेश किया। उसकी कमर में हाथ डाला।
"कैसी हो देवली?" अजय वालिया ने प्यार से पूछा।
"तुम आ गए हो तो बहुत खुशी हूँ। चार दिन बाद तुम्हें मेरी याद आई।"
"बहुत व्यस्त...।" तभी अजय वालिया की निगाह एक तरफ सोफे पर बैठे साठ वर्षीय व्यक्ति पर पड़ी, "ये कौन हैं?"
"पापा हैं मेरे।" देवली जल्दी से बोली, "घण्टा भर पहले ही कानपुर से आये हैं और अब जाने ही वाले हैं, क्यों पापा?"
"मैं जाने ही वाला था।" वह व्यक्ति उठता हुआ बोला।
अजय वालिया शांत भाव से मुस्कुराया।
"तुम्हारा पास लाख रुपया होगा। पापा को देना है। घर की कोई समस्या है। पैसा लेने ही मेरे पास आये थे।" देवली बोली।
"क्यों नहीं।" अजय वालिया ने ब्रीफकेस खोला और हजार के नोटों की गड्डी निकालकर देवली को दी।
देवली ने गड्डी थामी और आगे बढ़कर उस व्यक्ति को देती कह उठी-
"लो पापा। कब छोटू की फीस दे देना। खुद पर मत खर्च कर लेना।"
उसने मुस्कुराकर गड्डी अपने जेब में रख ली। फिर दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
"आपने अपना नाम नहीं बताया?" अजय वालिया सामान्य स्वर में कह उठा।
"पापा का नाम कंवर पाल है।" देवली जल्दी से कह उठी।
अजय वालिया ने पहले देवली को देखा फिर कंवर पाल को। वह ही इस बात को जानती थी कि उसका नाम कंवर पाल नहीं, जगत पाल है।
कंवर पाल दरवाजे के पास पहुँचा और दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया।
देवली ने तुरंत आगे बढ़कर दरवाजा बन्द करके सिटकनी लगाई और पलटी। तब तक अजय वालिया ब्रीफकेस नीचे रखकर, उसकी तरफ बाँहें फैला चुका था।
देवली आगे बढ़ी और अजय वालिया की बाहों में समा गयी। अजय वालिया ने उसे बाँहों में भींच लिया।
"साल भर हो गया हमें मिलते। तुमने मुझे यह फ्लैट लेकर दिया। मेरे सारे खर्चे पूरे करते हो।" देवली सीने से लगी कह उठी।
"और तुम मेरी जरूरतें पूरी करती हो। जिंदगी ऐसे ही चलती रही।"
"तुम अच्छे हो अजय।"
"हम दोस्त हैं। मतलब है दोस्त।" अजय वालिया मुस्कुराया, "तुम्हें पैसा चाहिए और मुझे तुम।"
"मैं तुम्हें पसंद करती हूँ।"
"मैं भी। लेकिन हमारा रिश्ता सिर्फ दोस्ती का है।"
देवली अजय से अलग होती कह उठी।
"मैं तुम्हें पसंद नहीं?"
"बहुत हो। तभी तो साल भर से सिर्फ तुम्हारे पास आ रहा हूँ।"
"मुझसे शादी कर लो।"
"जो वैसे ही हासिल हो रही हो, उससे शादी करने का क्या फायदा।" अजय वालिया ने कहा।
"बहुत मतलबी हो।" देवली मुस्कुरायी।
"इतना भी नहीं, जितना कि तुम समझ रही हो।" अजय वालिया बराबर मुस्कुरा रहा था।
देवली हँसी और पुनः अजय से जा लिपटी।
"यह कंवर पाल तुम्हारा पिता था?"
"हाँ, क्यों?"
"यूँ ही पूछा। कुछ अजीब सी बात थी उसमें। लेकिन मैं समझ नहीं पाया क्या अजीब बात।"
"छोड़ो भी। पापा गए। उन्हें पैसों की जरूरत थी। तुम बहुत वक़्त पर आए कि पापा को पैसे मिल गए।"
अजय ने देवली को कस के भींच लिया।
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रंजन ने कार ड्राइव करते हुए एक हाथ से फोन थामे नंबर मिलाया। नजरें आगे जाती कंवर पाल की कार पर थी। इस बार पीछा करने में वह बहुत सावधानी बरत रहा था।
"कहो रंजन।" उधर से दीपक की आवाज आई, "अजय वालिया कहाँ पर है?"
"मरीन ड्राइव के फ्लैट का पता नोट करो।" कहकर रंजन ने पता बताया।
"ठीक है, मैं पहचानता हूँ। अपनी कार में हूँ और मरीन ड्राइव की तरफ ही आ रहा हूँ।"
"पूरी बात सुन लो।"
"कुछ हुआ क्या?" उधर से दीपक की आवाज आई।
"अजय वालिया जिस फ्लैट में गया है, उस फ्लैट का दरवाजा बेहद खूबसूरत युवती ने खोला था। अजय वालिया के भीतर जाने पर एक-ढेड़ मिनट में ही एक आदमी वहाँ से बाहर निकला और एक तरफ पहले से ही खड़ी अपनी कार में बैठकर वहाँ से चल दिया। वह आदमी मुझे कुछ ठीक नहीं लगा। इस वक़्त मैं उसी का पीछा कर रहा हूँ। उसकी तस्वीर भी खींच ली मैंने।"
"हमें अजय वालिया से मतलब है।"
"तुम ठीक कहते हो दीपक, लेकिन यह आदमी उसी फ्लैट से निकला, जहाँ वालिया गया। हमें यह मालूम करना चाहिए कि इस व्यक्ति का वालिया से क्या सम्बन्ध है।" रंजन ने फोन पर कहा।
"लेकिन अजय वालिया को इस तरह अकेला नहीं छोड़ना।"
"तुम कितनी देर में मरीन ड्राइव के इस फ्लैट में पहुँचोगे?"
"दस मिनट लगेंगे मुझे।"
"ठीक है। तुम्हें क्या मालूम करना है सुन लो। उस फ्लैट में रहने वाली युवती कौन है? उसका अजय वालिया से क्या वास्ता है? सब कुछ मालूम करो।" रंजन ने कहा।
"वालिया उसी फ्लैट में है?"
"हाँ! मेरे ख्याल में वह जल्दी नहीं जाने वाला वहाँ से।"
"ठीक है।"
रंजन ने फोन बन्द करके जेब में रखा।
नजरें सामने जा रही कार पर थी। बीच में एक अन्य कार आ गयी थी। परन्तु रंजन उस कार को निगाहों से ओझल नहीं होने देना चाहता था। पीछा जारी रहा।
दो घण्टे में वह दादर पहुँचा।
रंजन के चेहरे पर अजीब से भाव आ ठहरें। दादर आने के लिए सीधा रास्ता था परंतु वह अपनी कार को कई ऐसे रास्तों पर ले गया, जो दादर तक जाने के लिए इस्तेमाल नहीं होते थे।
कहीं उसे पीछा किये जाने का शक तो नहीं हो गया?
रंजन के पास इस बात का जवाब नहीं था। दादर के पुराने इलाके में आगे वाली कार जा रुकी थी। रंजन ने अपनी कार पहले ही रोक दी।
कंवर पाल कार से निकला और सामने नजर आ रही, दस फिट चौड़ी गली में प्रवेश कर गया।
शाम हो रही थी। अंधेरा छा जाने को तैयार था। वहाँ और भी ढेरों लोगों की भीड़ थी।
रंजन अपनी कार छोड़कर उसके पीछे गली में जा चुका था। जल्दी उसे गली में एक मकान के सामने रुकते और दरवाजा थपथपाते देखा। रंजन रुका नहीं। लोगों की भीड़ के साथ आगे बढ़ता हुआ उसके पास से निकला। उसे भरपूर निगाहों से देखा। उसका ध्यान रंजन की तरफ नहीं था। तभी दरवाजा खुला तो कंवर पाल भीतर प्रवेश कर गया। दरवाजा बंद हो गया।
रंजन दस कदम आगे ठिठका हुआ इसी तरफ देख रहा था। जब दरवाजा बंद हो गया तो रंजन की निगाहें इस तरफ घूमने लगीं कि उस घर के बारे में, उस व्यक्ति के बारे में किससे जानकारी प्राप्त करें?
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रात बारह बजे अजय वालिया अपने बंगले पर पहुँचा।
बंगला बड़ा और शानदार था। तीन नौकर उसके इंतजार में जागते मिले।
वालिया ऊपर जाती सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया तो एक नौकर साथ में चल पड़ा।
"कोई नई खबर मुरली?" वालिया ने पूछा।
"नहीं मालिक, कोई खबर नहीं" मुरली साथ-साथ सीढ़ियाँ चढ़ता कह उठा।
"तू रोज ही ऐसा कहता है।" वालिया मुस्कुराया, "कभी तो खबर दे दिया कर।"
"यह जो मोबाइल फोन चल पड़े हैं, इनकी वजह से हमारा काम हल्का हो गया है।" मुरली भी मुस्कुराया, "पहले मालिक के आने पर बताया करते थे कि किसका फोन आया। फोन करने वाले ने क्या-क्या कहा। अब तो हर कोई मोबाइल फोन पर बात कर लेता है। मैंने ठीक कहा न मालिक?"
"हाँ, ठीक ही कहा।"
अजय वालिया अपने बेडरूम में पहुँचा और कपड़े खोलने लगा।
"खाना लगा दूँ?" मुरली ने पूछा।
"नहीं मैं डिनर ले चुका हूँ।"
"यह क्या बात हुई? हम आपकी पसंद की चीजें बनाते हैं और आप सप्ताह में पाँच दिन बाहर से ही डिनर कर आते हैं।"
"कल नहीं करूँगा। घर पर ही खाऊँगा रात का खाना।"
मुरली चला गया। अजय वालिया ने बाथरूम में जाकर हाथ-मुँह धोया, कपड़े बदले की फोन बजने लगा।
"हेलो!" अजय वालिया ने बात की।
"कैसे हो वालिया?"
"ओह, दीपचंद! कैसे हो तुम?"
"मैं तो बस आप बड़े लोगों की सेवा करने के लिए हाजिर रहता हूँ।" दीपचंद के हँसने का स्वर सुनाई दिया।
"तुम तो खाल उतारते हो लोगों की।"
"मैं इसे सेवा कहता हूँ।" दीपचंद पुनः हँसा, "तुम्हारा बंगला मेरे पास गिरवी रखा है।"
"भूला नहीं हूँ।" वालिया मुस्कुराया।
"सप्ताह भर ही बचा है एग्रीमेंट के हिसाब से। तुम्हें अपना बंगला छुड़ाना होगा, वरना मैं नीलामी कर दूँगा।"
"महीने तक मेरे पास पैसा आएगा, तुम्हें देने को।"
"कोई बात नहीं। तुमने कह दिया, मैंने मान लिया। रकम याद है न। तैंतालीस करोड़ लिया था तुमने और वापस पचास करोड़ देना है।"
"याद है। तुम याद मत दिलाओ।" अजय वालिया के होंठों पर मुस्कान थी।
"और जरूरत हो तो मैं सेवा के लिए तैयार हूँ।"
"अभी तो सब बढ़िया हो रहा है।"
"पता चला कल से तुम अपने दो बिल्डिंग के फ्लैट्स की बुकिंग शुरू कर रहे हो।"
"तेज नजर है तुम्हारी।"
"धंधे में आँख खुली रखनी पड़ती है। मेरे पास तुम्हारे लिए एक ऑफर है।"
"कहो।"
"तुम जो होटल बना रहे हो, उसमें मैं तुम्हारा पार्टनर बनना चाहता हूँ।"
"नहीं दीपचंद। अपने किसी प्रोजेक्ट में मुझे पार्टनर की जरूरत नहीं। मेरा सब कुछ बढ़िया चल रहा है। मैं तुम्हें महीने बाद फोन करूँगा, पचास करोड़ लौटाने के लिए।" वालिया ने कहने के साथ ही फोन बंद कर दिया। चेहरे पर शांत भाव थे।
तभी मुरली ने कमरे में प्रवेश किया।
"मालिक कॉफी बना लाऊँ?"
"नहीं! अब मैं नींद लूँगा। तुम मुझे सुबह आठ बजे कॉफ़ी के साथ उठा देना।"
"ठीक है मालिक।" मुरली ने कहा और पलटकर बाहर निकल गया।
अजय वालिया ने लाइट ऑफ की और बेड पर जा लेटा।
■■■
अगले दिन सुबह नौ बजे।
ब्लू मून होटल का रूम नंबर 281,
टेबल पर अजय वालिया की तस्वीरें पड़ी थीं। तस्वीरों को देखकर इस बात का स्पष्ट आभास हो रहा था कि वे तस्वीरें अजय वालिया की जानकारी में आये बिना ली गयी हैं।
रंजन, दीपक और महेश के अलावा वहाँ रूपा नाम की युवती मौजूद थी।
रूपा, जिसने कि साधारण सा सूती सूट पहन रखा था। बाल पीछे को बाँधकर रबर में फँसा रखे थे। चेहरे पर किसी तरह का मेकअप नहीं था। परन्तु वह ऐसे ही बहुत खूबसूरत लग रही थी। पाँच फीट, पाँच इंच की लम्बाई। चौड़े कंधे। उसकी खूबसूरती देखते ही बनती थी। चूँकि वह कुछ देर पहले ही नींद से उठी थी ऐसे में वह और भी दिलकश लग रही थी।
इस वक़्त वे चारों कमरे में पड़े सेन्टर टेबल के गिर्द कुर्सियों पर बैठे थे।
रूपा ने कुछ पल पहले ही, अजय वालिया की तस्वीरें देखकर टेबल पर वापस रखी थी। फिर उन तीनों को देखा। शांत चेहरे पर गंभीरता छाई हुई थी।
"मेरे ख्याल से हम अजय वालिया के बारे में हर जरूरत की जानकारी हासिल कर चुके हैं।" दीपक ने कहा, "वह मस्त-मौला टाइप का इंसान है। देवली नाम की लड़की को उसने फ्लैट लेकर दे रखा है। उसके खर्चे उठाता है। अगर व्यस्त न हो तो उसके पास सप्ताह में दो-तीन बार जाता है। अजय वालिया की तीन इमारतें तैयार हो चुकी हैं। बाकी चार में एक होटल का प्रोजेक्ट है, एक कमर्शियल इमारत है, शेष दो सोसाइटी की इमारतें हैं।" कहकर वह रुका।
"वह इस वक़्त कंगाल हो चुका है।" महेश बोला, "उसने सारा पैसा कंस्ट्रक्शन के कामों में लगा रखा है। यहाँ तक कि अपना शानदार बंगला भी दीपचंद के पास पचास करोड़ में गिरवी रखा हुआ है।"
"तो उसकी जान उन छह प्रोजेक्ट्स में फँसी है, जहाँ उसका पैसा लगा हुआ है।" रूपा ने कहा।
"ठीक कहा तुमने।"
"हम कब से उस पर नजर रख रहे हैं।" रंजन ने कहा, "अजय वालिया अपने कामों में पूरी दिलचस्पी लेता है। बहुत कम वह किसी होटल या नाईट क्लब में जाता है। फुर्सत मिलने पर अपना वक़्त वह देवली के पास ही बिताता है।"
इसके साथ ही रंजन ने कंवलपाल की तस्वीर निकाल कर रूपा के सामने रखी।
"कल जब अजय वालिया देवली के पास गया तो यह आदमी पहले से ही देवली के पास मौजूद था। वालिया के भीतर जाने के एक-दो मिनट बाद यह बाहर आया और कार में बैठकर चल दिया। चेहरे से यह शत-प्रतिशत संदिग्ध लगता है।"
"संदिग्ध से तुम्हारा मतलब?" रूपा ने रंजन को देखा।
"मैं ज्यादा स्पष्ट नहीं कर पाऊँगा इस बात को। परन्तु यह मुझे ठीक आदमी नहीं लगा। मैंने इसका पीछा किया, जहाँ ये गया था। परन्तु मैं इसके बारे में ज्यादा पता नहीं लगा पाया। क्योंकि उस घर में यह मेहमान के तौर पर ठहरा हुआ है। आस-पड़ोस वाले इसके बारे में नहीं जानते।"
"तो इसके बारे में पता लगाओ।"
"हाँ, मैं अब मरीन ड्राइव के पास ही उस कॉलोनी में जाऊँगा इसके बारे में पता लगाने के लिए।"
"मेरे ख्याल में देवली पर भी नजर रखनी चाहिए। यह पुनः देवली के पास आ सकता है।"
"महेश देवली के फ्लैट पर नजर रखेगा।" रंजन ने कहा तो महेश ने सिर हिला दिया।
"तुम अब क्या करोगी?" दीपक ने पूछा।
"अपना काम।" रूपा ने गंभीर स्वर में कहा, "जिसके लिए हम भाग-दौड़ कर रहे हैं।"
"तुम्हें सावधान रहना...।"
"तुम तीनों मेरे साथ हो तो मुझे किसी का डर नहीं। यह मेरा 'गेम' है। मेरा जितना तय है।" रूपा दृढ़ स्वर में कह उठी।
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कॉलबेल की आवाज सुनकर देवली की आँख खुली। उसने घड़ी में वक़्त देखा। सुबह के नौ बजे रहे थे। कौन आ सकता है इस वक़्त? काम वाली भी ग्यारह बजे आती है।
दरवाज में लगी मैजिक आई पर आँख लगाई तो उसके होंठ भींचते चले गए।
बाहर कंवर पाल खड़ा दिखा था। माथे पर बल डाले देवली ने दरवाजा खोला। उसकी नजरें कंवर पाल से मिलीं।
कंवर पाल ने उसे सिर से पाँव तक देखा फिर मुस्कुराकर कह उठा- "आज तो बड़ी हसीन लग रही हो।"
"अपना गन्दा मुँह बन्द करो।" देवली धीमे स्वर में गुर्रा उठी। कंवर पाल के माथे पर बल पड़े फिर अगले ही पल मुस्कुरा पड़ा।
"गुस्से में तुम्हारी सुंदरता और भी बढ़ जाती है।"
"दफा हो जाओ यहाँ से।"
कंवर पाल ने शेव बढ़े अपने गालों पर हाथ फेरा और कह उठा- "कल हमारी बात पूरी नहीं हुई थी। वालिया आ पहुँचा था यहाँ।"
"मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी।"
"मुझे करनी है जानेमन।" कंवर पाल आगे बढ़ा और उसे पीछे धकेलता भीतर आ गया, "चार महीने लगे तुम्हें ढूँढने में। तुम इस तरह मुझे यहाँ से दफा नहीं कर सकती।"
देवली ने दरवाजा बंद किया और कठोर स्वर में बोली- "मैं तुमसे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती।"
"रिश्ता तो हमारा बहुत पुराना है। दस साल पुराना।" कंवर पाल मुस्कुराकर सोफे पर बैठ गया, "मुझे वह वक़्त याद आता है जब तुम मेरे पहलू में बैठा करती थी। तुम्हारा स्वाद मैं भूल नहीं सका अभी तक।"
देवली ने होंठ भींच लिए।
"अब उसी स्वाद को अजय वालिया चख रहा है। बहुत मोटा शिकार फाँसा है तुमने।"
"चले जाओ यहाँ से।"
"मेरा नाम भी तुमने कल वालिया को गलत बताया और तो और मुझे अपना बाप बना लिया उसके सामने।"
"तुम इसी लायक हो।" देवली ने कड़वे स्वर में कहा।
"नाराज हो मुझसे?"
"मैं तुम्हारा चेहरा भी नहीं देखना चाहती।" देवली ने नफरत से कहा।
"अब समझा। तुम यह समझती हो कि मैंने प्रताप को मारा है। यही बात है न?"
"मैं समझती नहीं, प्रताप को तुमने ही मारा है।"
"गलतफहमी है तुम्हारी।" कंवर पाल ने इनकार में सिर हिलाया, "मैंने उसे नहीं मारा।"
देवली की निगाह कंवर पाल पर जा टिकीं।
"तुमने नहीं मारा?" वह खूंखार शेरनी की तरह गुर्रायी।
"नहीं! परन्तु मैंने तुम्हें पहले ही सतर्क कर दिया था कि प्रताप से नजदीकियाँ मत बनाओ, ये ठीक नहीं है।"
"और तुमने प्रताप को नहीं मारा?"
"नहीं।"
उसी पल देवली सोफे पर बैठे कंवर पाल पर झपट पड़ी। सोफा पीछे को लुढ़क गया। दोनों फर्श पर जा गिरे। देवली ने फुर्ती से उसकी पैंट में छिपी रिवॉल्वर हासिल की और उसकी ठोड़ी पर नाल रख दी और खुद उसके पेट पर चढ़ बैठी। चेहरा दरिंदगी से भरा था।
कंवर पाल सकते की सी हालत में रह गया।
"मैं तुम्हें मार देना चाहती हूँ। क्योंकि तुमने प्रताप को मारा था।"
"मैंने नहीं मारा। तुम गलती कर रही हो देवली।"
"चुप रह कुत्ते। तू उससे जलता था क्योंकि मैंने उससे शादी करने का प्रोग्राम बना लिया था। मैं तेरे को भाव नहीं दे रही थी। तुमने मुझे कई बार वार्निंग दी कि मैं प्रताप से दूर हो जाऊँ लेकिन...।"
"प्रताप को राजा के लोगों ने मारा।"
"बकवास मत कर। तूने और जीवन ने प्रताप को मारा और कह दिया कि राजा के लोग मार गए हैं।"
"तू गलत है। जीवन से पूछ ले।"
"प्रताप की मौत के साथ ही जीवन गायब हो गया। महीना भर उसकी तलाश की मैंने।" देवली दाँत भींचे कह रही थी, "तब तू भी गायब हो गया था। मुन्ना से पता चला कि गाँव में तेरी माँ की तबीयत खराब है, उसे देखने गया है। साले तेरी माँ को तभी बीमार होना था। तू बहाना बनाकर खिसक गया। कसम से तब मैं इतने गुस्से में थी कि तू मिल जाता तो आज जिंदा न रहता। तो सच में बहुत बड़ा कुत्ता है।"
कंवर पाल उसे देखता रहा। देवली उसे छोड़कर खड़ी हो गयी। रिवॉल्वर हाथ में थी।
"दोबारा तू मेरे सामने आया तो मैं तुझे मार दूँगी हरामी।"
कंवर पाल उठ खड़ा हुआ। उसका चेहरा शांत था।
"देवली!" कंवर पाल गंभीर स्वर में बोला, "तू अपनी औकात से बाहर जा रही है।"
"गोली मारूँ क्या?"
"मैं क्या हूँ, यह तू अच्छी तरह जानती है।" उसने पुनः कहा, "बढ़-चढ़ के मत बोल।"
"मैं तेरे से डरती नहीं। तू कमीना है, तू...।"
"कानपुर में हमने इकट्ठे दस साल बिताए।"
"भाग जा हरामजादे, वरना...।" देवली का चेहरा धधक उठा था।
कंवर पाल के होंठ भींच गए।
"मेरी रिवॉल्वर दे।"
देवली ने रिवॉल्वर की गोलियों वाली मैग्जीन निकाली और रिवॉल्वर उसकी तरफ उछाल दी।
"दोबारा कभी मेरे सामने मत आना।"
कंवर पाल ने रिवॉल्वर थामी और उसे पैंट में फँसाता कह उठा- "तू सजती नहीं कि वालिया की रखैल बनकर रहे।"
"तू मुझे सजाने की कोशिश मत कर। मैं बिना सजावट के भी बहुत अच्छी हूँ।" देवली ने जले-भुने स्वर में कहा।
"मैं तेरे पास क्यों आया, यह तो सुन ले।"
"मुझे कुछ नहीं सुनना।"
"सुनाने आया हूँ तो सुनना ही पड़ेगा।" कंवर पाल मुस्कुराया, "एक आसामा भी ढूंढी है। यहीं मुम्बई में। 5-6 करोड़ मिल जाएगा अगर उसका अपहरण कर लें तो। काम भी ज्यादा कठिन नहीं। दो दिन लगेंगे और...।"
"मुझे तेरे साथ कोई काम नहीं करना। कानपुर की बातें प्रताप की मौत के साथ ही खत्म हो चुकी हैं।"
"पुलिस को कई मामले में तेरी तलाश है। मैं तेरे बारे में पुलिस को खबर कर...।"
"धमकी देता है। तू कर पुलिस को खबर, तब मैं तेरी सारी पोल-पट्टी खोल दूँगी। मेरे पर हाथ डालकर पुलिस को इतना फायदा नहीं होगा, जितना कि तेरे को पकड़कर होगा।"
कंवर पाल ने देवली को घूरा।
"वालिया को मैं बता सकता हूँ कि तू कानपुर में मेरे साथ कई अपराधों में फँसी हुई है।"
"बेशक बता दे। वह मेरा पति नहीं है।" देवली जहरीले स्वर में कह उठी, "लेकिन तुझे नहीं छोड़ूँगी तब। प्रताप की मौत का बदला भी लेना है तेरे से। रगड़ दूँगी तेरे को साले।"
कंवर पाल मुस्कुराया।
"बहुत बदल गयी है तू। लगता हक़ी शराफत की जिंदगी बिताने का भूत सवार है तुझ पर। बिता ले। लेकिन इस काम में मेरे साथ हो जा। दो दिन में पाँच-छह करोड़ मिल जायेंगे।"
देवली आगे बढ़ी और दरवाजा खोलकर खड़ी हो गयी।
"निकल।" देवली दाँत पीसकर बोली।
"तू मेरे तलवे चाटा करती थी और अब...।"
"वह वक़्त कानपुर में रह गया हरामी। निकल जा अब यहाँ से।"
कंवर पाल उसे देखते हुए आगे बढ़ा। दरवाजे के पास पहुँचकर ठिठका।
"पहले से अब तू ज्यादा खूबसूरत हो गयी है मेरी जान।" कंवर पाल मुस्कुराया।
"दफा हो हरामी के...।"
"कोई मुझसे ऐसी भाषा बोलता है तो मैं उसे कभी छोड़ता नहीं, जानती है न?"
"क्या करेगा तो मेरा, जा कर...।"
"अभी नहीं।"
"दोबारा कभी मेरे सामने भी पड़ा तो तेरे को जिंदा नहीं छोड़ूँगी।" देवली ने दाँत भींचते हुए कहा।
"तेरे में मैं दोबारा जरूर मिलूँगा। तब देखूँगा मैं तेरे तेवर। जगत पाल उर्फ कंवर पाल को पसंद नहीं कि कोई उसके सिर पर आ बैठे।"
देवली ने बाहर खड़े जगत पाल को बाहर को धकेला और दरवाजा बंद कर लिया।
"जल्दी मरेगा मेरे हाथों से।" देवली के होंठों से गुर्राहट निकली।
■■■
जगत पाल उस पुरानी कार में बैठा और वहाँ से चल पड़ा।
महेश कुछ देर पहले ही वहाँ पहुँचा था। चूँकि रंजन ने कल उसकी तस्वीर ली थी, उसकी तस्वीर देख चुका था, इसलिए वह उसे देखते ही फौरन पहचान गया था। महेश ने अपनी कार स्टार्ट की और उसके पीछे लग गया। उसने दीपक को फोन किया।
"कहो!" कान में दीपक की आवाज पड़ी।
"वही कल वाला व्यक्ति आज फिर उस युवती के पास आया था, जिसके पास अजय वालिया आया था।"
"इसका मतलब वह उस युवती का कुछ खास है।"
"ऐसा ही लगता है। मैं उसके पीछे हूँ।"
"उसके बारे में पता करो कि वह कौन है। क्या वहीं जाता है जहाँ कल गया था, या कहीं और जाता है। उसके बारे में जानकारी मिलेगी तभी यह सोचा जाएगा कि वह हमारे लिए नुकसान देह है या नहीं।"
■■■
गुलाबी रंग का फूलों वाला सूती कमीज-सलवार रूपा ने इस वक़्त पहन रखा था। दो बजे का वक़्त था। धूप तेज थी। वह इस वक़्त सामने की इमारत की पार्किंग के पास ही ऐसी छोटी सड़क पर खड़ी थी कि पार्किंग के बाहर आने वाले वाहन वहीं से होकर बाहर मुख्य सड़क पर जाते थे। उसे इंतजार था तो अजय वालिया का अपने ऑफिस से बाहर आने का। यह इंतजार छोटा भी हो सकता था और लम्बा भी। दो घण्टों से वहाँ इस प्रकार खड़ी थी जैसे किसी का इंतजार कर रही हो। पार्किंग में आने-जाने वाहन वहाँ से निकल रहे थे। जरा हट कर खोमचे वालों की लाइन लगी थी।
रूपा का इंतजार खत्म हो गया।
उसने अजय वालिया को ब्रीफकेस थामे मुख्य दरवाजे से बाहर निकलकर पार्किंग की तरफ बढ़ते देखा।
रूपा के चेहरे पर गम्भीरता और तसल्ली के भाव आ गए थे। उसने खोमचे की तरफ निगाह मारी जहाँ दीपक पेड़ की छाया में, छोटी सी दीवार पर बैठा था। दोनों की नजरें मिलीं।
रूपा ने आँखों के इशारे से उसे बताया दिया कि शिकार आ रहा है।
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अजय वालिया अपनी कार तक पहुँचा कि हमेशा की तरह हीरा वहाँ आ पहुँचा।
"चलो हीरा।" वालिया कार का दरवाजा खोलता कह उठा, "लंच लेना है कहीं?"
"जी!" हीरा ड्राइविंग सीट सम्भालता बोला, "कहाँ चलेंगे मालिक।"
"आज लंच हाउस ले चलो। अंबेडकर रॉड पर।"
"मालिक!" कार स्टार्ट करके हीरा कार बढ़ा कह उठा, "लंच हाउस में ठीक सामान नहीं होता।"
"तूने खाया वहाँ?"
"नहीं!" धीरे-धीरे कार पार्किंग से बाहर की तरफ जा रही थी, "लेकिन कार पार्क करने के बाद कभी-कभार वहाँ के स्टाफ से बात हो जाती है। बातों-बातों में पिछली बार एक ने बताया कि वे दो-तीन दिन पहले बने सामानों में मक्खन डालकर, गर्म करके ग्राहक के आगे रख देते हैं।"
"तुम्हारा क्या ख्याल है कि मुझे वहाँ लंच करना चाहिए?" अजय वालिया मुस्कुराया।
"किंग रेस्टोरेंट ठीक है। वहाँ ताजा सामान बनता है। कोई भी चीज चौबीस घण्टे से ज्यादा हो जाये तो उस सामान को वह ग्राहकों को नहीं देते। स्टाफ को खाने को दे देते हैं।" हीरा ने बताया।
"ठीक है। किंग रेस्टोरेंट ही चलो। बचो... वह लड़की...।" एकाएक वालिया तेज स्वर में बोला।
हीरा ने पहले ही ब्रेक लगा दिए थे। परन्तु लड़की को वह नहीं बचा सका।
वह और कोई नहीं रूपा थी। जो कार से टकराई और नीचे जा गिरी। फिर उठी नहीं।
"मालिक इसमें मेरी कोई गलती नहीं... मैं...।"
वालिया तुरंत कार से बाहर निकला। फौरन ही वहाँ लोग इकट्ठे होने शुरू हो गए।
"मर तो नहीं गयी।"
"जिंदा है।"
"देखकर नहीं चलाते गाड़ी।"
लोगों की तरह-तरह की आवाजें आनी शुरू हो गई थीं। पार्किंग वाला भी वहाँ आ पहुँचा।
"इसे मेरी कार में रखो।" वालिया बोला, "मैं इसे डॉक्टर के पास ले जाता हूँ।"
पार्किंग वाले ने हीरा के साथ मिलकर रूपा को उठाया और पीछे वाली सीट पर लिटा दिया। दूसरे ही मिनट कार तेजी से आगे बढ़ गयी। दीपक फुर्ती से एक तरफ खड़ी कार की तरफ दौड़ पड़ा।
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रूपा नर्सिंग होम के बेड पर बेहोशी के मुद्रा में पड़ी थी। डॉक्टर अभी उसके पास से गया था। इंजेक्शन लग चुका था। डॉक्टर के मुताबिक वह ठीक थी। कोई चोट नहीं लगी। कभी भी उसे होश आया सकता था।
पास में ही अजय वालिया मौजूद था। वालिया देर से रूपा के मासूम और खूबसूरत चेहरे को निहार रहा था। रूपा के चेहरे पर जाने क्या खास बात थी कि वह उसके दिल में उतरती चली गयी थी। नजरें हटाता तो पुनः निगाह उसके चेहरे पर ही जा टिकती थीं। तेज चलती साँसों से उसका उठता-बैठता सीना, कानों में खूबसूरत छोटे-छोटे टॉप्स, चेहरे पर आती बालों की लटें।
अजय वालिया ने अपना दायाँ हाथ आगे बढ़ाया और बेहद प्यार से उंगली से उसके चेहरे पर बिखरी दो लटों को पीछे किया। ठीक उसी पल रूपा का शरीर थोड़ा सा हिला। फिर होंठों से नन्हीं सी कराह निकली। बन्द पलकें जोरों से काँपी। गर्दन दायें-बायें हिली फिर अगले ही पल उसकी आँखें खुल गयी।
अजय वालिया की निगाह उस पर पड़ी। रूपा फौरन उठ बैठी। कमरे में नजरें दौड़ाई फिर अजय वालिया को देखा।
"म... मैं कहाँ हूँ? आप कौन...?"
"आप मेरी कार से टकरा गई थीं?" वालिया मुस्कुराकर बोला, "लेकिन फिक्र की कोई बात नहीं, आप ठीक हैं।"
"ओह!" रूपा ने जल्दी से अपने हाथ-पाँव देखे।
"यह जगह नर्सिंग होम है।" अजय वालिया ने पुनः कहा, "मेरा नाम अजय है।"
"शुक्र है कि मैं ठीक हूँ।" रूपा के होंठों से निकला, "मेरी वजह से आपको तकलीफ हुई...।"
"नहीं, बल्कि मेरी गाड़ी से टकरा जाने से आपको जो परेशानी हुई, उसके लिए मैं माफी चाहता हूँ।"
"मैं अब जाऊँगी।" कहने के साथ ही रूपा बेड से उतरी। नीचे रखी वैली पैरों में डाली।
"आपने अपना नाम नहीं बताया।" अजय एकाएक कह उठा।
"नाम? नहीं, कोई जरूरत नहीं नाम बताने की।" रूपा कह उठी, "आपने मेरे लिए जो किया, उसके लिए शुक्रिया।" कहने के साथ ही वह कमरे से बाहर की तरफ बढ़ती चली गयी।
अजय वालिया उसके पीछे लपका।
"मैं आपको छोड़ देता हूँ, जहाँ आप जाना...।"
"मैं चली जाऊँगी।"
देखते ही देखते रूपा बाहर निकलकर जा चुकी थी। अजय वालिया गहरी साँस लेकर रह गया। जो भी हो रूपा उसका दिल चुराकर ले गयी थी।
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बाद अजय वालिया का काम में कुछ खास मन नहीं लगा। लंच के नाम पर आधा-अधूरा ही खा पाया। आँखों के सामने रूपा का चेहरा ही रहा। पहली बार उसे कोई ऐसी लड़की दिखी थी, जो उसका दिल ले गयी थी। उसे देखकर पहली बार महसूस हुआ कि उस लड़की से उसे शादी कर लेनी चाहिए।
परन्तु वह अब जाने कहाँ थी।
पता तो दूर अपना नाम तक नहीं बताकर गयी थी वह। अजय वालिया उसके ख्याल को अपने मन से निकालने की चेष्ठा करता, परन्तु सफल नहीं हो पाता।
शाम पाँच बजे वह अपने ऑफिस में मौजूद था कि मैनेजर मोहन दास आ गया। वह दिन भर के काम की रिपोर्ट देने लगा। लेकिन अजय वालिया अनमने मन से उसकी बात सुनता रहा। आखिरकार मोहन दास ने टोका।
"क्या बात है? आप कुछ उलझे-उलझे से हैं।"
"हाँ, कुछ बात है।" अजय वालिया ने गहरी साँस ली, "एक लड़की मुझे पसंद आ गयी है।"
"शादी के लिए?" मोहन दास मुस्कुराया।
"हाँ!"
"यह तो अच्छी बात है। आपको फौरन शादी कर लेनी चाहिए। आप तो...।"
"लेकिन मैं जानता नहीं कि वह कहाँ रहती है।" अजय वालिया उठ खड़ा हुआ।
"ओह!"
"मैं जा रहा हूँ। आज कोई भी काम करने का मेरा मन नहीं है।" कहने के साथ ही अजय वालिया ने अपना ब्रीफकेस उठाया और मुस्कुराकर मोहन दास से बोला, "अजीब सा महसूस कर रहा हूँ। क्या प्यार में ऐसा होता है?"
"पता नहीं, होता होगा।" मोहन दास ने मुस्कुराकर कहा, "मैंने तो कभी प्यार नहीं किया। सीधी शादी ही हुई थी मेरी।"
उसके जवाब पर अजय वालिया हँस पड़ा और बाहर निकलता चला गया।
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नर्सिंग होम से निकलने के पश्चात रूपा तेजी से सड़क किनारे-किनारे आगे बढ़ती चली गयी। रह-रह कर वह पीछे देख लेती थी कि कहीं अजय वालिया तो पीछे नहीं आ रहा। परन्तु सब ठीक था।
अजय वालिया को पीछे आने का मौका ही नहीं मिला था। रूपा ने निकलने में बहुत फुर्ती दिखाई थी।
रूपा तेजी से आगे बढ़ती रही। दो-तीन मिनट के पश्चात उसके पास कार आ रुकी। भीतर दीपक बैठा था।
रूपा ने जल्दी से दरवाजा खोला और भीतर आ बैठी। दीपक ने कार आगे बढ़ा दी।
"सब ठीक रहा?" दीपक ने शांत स्वर में पूछा।
"मेरे ख्याल में तो ठीक ही रहा। जैसे मेरा विचार था, वही हुआ।" रूपा ने गंभीर स्वर में कहा।
"वह तुम्हारी खूबसूरती पर मर मिटा है।"
"लगता तो ऐसा ही है। जब मैं बेहोश थी तो वह मेरे चेहरे पर आए बालों को बहुत प्यार से हटा रहा था। तभी मैंने होश में आने का ड्रामा कर दिया था। उसने मेरा नाम पूछा। मुझे छोड़ देने को कहने लगा।"
दीपक खामोशी से कार चलाता रहा।
"वह बाहर आया था मेरे पीछे-पीछे?" रूपा ने पूछा।
"पीछे-पीछे तो नहीं, परन्तु मिनट भर बाद बाहर आया था। कार में बैठने से पहले वह तुम्हारी तलाश में हर तरफ नजरें दौड़ा रहा था, परन्तु तुम नहीं दिखी तो वह अपनी कार में जा बैठा था।"
"कल पता चल जाएगा कि मैंने उसे कितना शीशे में उतारा, "रूपा बोली, "मुझे होटल छोड़ देना।"
"महेश होटल के बाहर तुम्हारा इंतजार कर रहा है।"
"क्यों?"
"वही बतायेगा।"
महेश उन्हें होटल के बाहर ही इंतजार करता मिला। रूपा और दीपक उससे मिले।
"वही आदमी देवली से मिलने आज फिर आया था।" महेश ने बताया, "बाहर निकला तो मैंने उसका पीछा किया। वह वहीं गया जहाँ कल गया था और रंजन उसके पीछे था। दीपक तुम मेरे साथ आओ।"
"कहाँ?"
"हमें उस घर में रहने वालों से उसके बारे में पता करना होगा। पहले इंतजार करेंगे कि वह उस घर से बाहर जाए, फिर वहाँ पर जो भी होगा, उसकी गर्दन नापकर पूछेंगे उसके बारे में...।"
"क्या यह जरूरी है?" दीपक ने रूपा को देखा, "उस आदमी को जानने की जरूरत ही क्या है?"
"वह देवली के पास आता-जाता है और देवली का अजय वालिया से मिलना लगा रहता है। ऐसे में उसके बारे में जान लिया जाए तो ठीक रहेगा। अजय वालिया के करीब के हर व्यक्ति के बारे में हमें जानकारी रखनी है। क्या पता कि वह आदमी, अजय वालिया से भी मिलता रहा हो। हमारे पास उसके बारे में जानकारी होनी चाहिए।" रूपा ने कहा।
"ठीक है।" महेश ने दीपक को देखा, "चलो, चल चलते हैं।"
"वैसे यह काम देवली का गर्दन नापकर भी कर सकते हैं।" दीपक ने कहा, "वह उस आदमी के बारे में बता देगी।"
"देवली को छेड़ने की गलती मत करना।" रूपा कह उठी, "वह वालिया के करीब है। मैं नहीं चाहती कि वालिया को कुछ सोचने का मौका मिले।"
■■■
दीपक और महेश की निगाह गली में उसी मकान पर थी। वह भीड़-भाड़ वाला इलाका था। इसलिए नजर रखने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हो रही थी।
शाम साढ़े चार बज रहे थे जब उन्होंने उस आदमी को घर से बाहर निकलते देखा।
महेश और दीपक की नजरें मिलीं। वह जगत पाल को जाता देखते रहे। जब वह गली से बाहर निकल गया तो दोनों आगे बढ़े और उस मकान के दरवाजे पर जा पहुँचे। दीपक दरवाजा खटखटाते महेश से बोला-
"सावधान रहना, वह वापस भी लौट सकता है।" दीपक ने सिर हिला दिया।
तभी दरवाजा खुला। दरवाजा खोलने वाली साठ-पैंसठ बरस की औरत थी।
"कहो?" उस औरत ने दोनों को देखा।
"जो अभी-अभी बाहर गया है, हम उसके बारे में पूछना चाहते हैं।"
"क्यों?" बुढ़िया बोली।
"हमें लगता है जैसे वह हमारा दोस्त है। पुराना दोस्त। परन्तु याद नहीं आ रहा है कि उसे कहाँ देखा है।"
"तो उसी से क्यों न पूछ लिया जब वह बाहर निकला था।" उसने कहा।
"हम उससे पूछने ही वाले थे कि वह हमारी नजरों से ओझल हो गया।" दीपक बोला, "पानी मिलेगा पीने को?"
"हाँ, हाँ! आओ, भीतर आ जाओ।" वह पलटकर भीतर जाती बोली, "जगत पाल है वह। कानपुर का नामी बदमाश। मेरा बेटा भी कभी उसके साथ काम किया करता था। परन्तु एक मामले में फँस गया और जेल चला गया।"
"ओह, जगत पाल है वह।" महेश ने फौरन इस प्रकार कहा जैसे बीती बात याद आ गयी हो, "तभी तो मुझे लग रहा था कि उसे कहीं देखा है। कई साल पहले मैंने भी जगत पाल के साथ काम किया था। सच में वह बहुत शातिर है।"
"मेरा बेटा भी कम नहीं है। अपहरण करके फिरौती लेने में मास्टर है। परन्तु बुरा वक्त था, फँस गया।"
उस बूढ़ी औरत ने दोनों को पानी पिलाया।
"चाय रखूँ क्या?" उसने पूछा।
"नहीं! चाय की जरूरत नहीं। जगत पाल मुम्बई में क्या कर रहा है?"
"पता नहीं। दो महीने से मेरे पास ही रह रहा है। खर्चा पानी उसी से चल रहा है। किसी को ढूँढने आया था मुम्बई में। अब कहता है कि जिसे ढूँढने आया था वह मिल गयी है।"
"लड़की है कोई?"
"लड़की ही होगी।"
"उसने बताया कि वह क्या करना चाहता है?"
"मुझे क्यों बतायेगा? ज्यादा नहीं पूछती मैं। मेरा क्या मतलब? तुम उससे पूछ लेना। रात तक लौटेगा वह।"
"जरूर! हम आयेंगे।"
"जगत पाल को मैं तुम्हारा नाम क्या बताऊँ?"
"कोई जरूरत नहीं बताने की।" महेश मुस्कुराकर बोला, "हम अचानक उसके सामने आकर उसे हैरान कर देंगे।"
"तो आज रात तुम दोनों का भी खाना बना लूँ।"
"हाँ, हाँ, बना लेना।"
"हजार रुपया दे दो। बाजार से सामान ले आती हूँ। रोटी-पानी में खर्चा तो होता ही है।"
महेश और दीपक की नजरें मिलीं।
दीपक ने पाँच सौ का नोट निकालकर उसे थमाते हुए कहा- "यह रखो अभी। बाकी रात को जब खाने आयेंगे तभी दे देंगे।"
"बोतल वगैरह पीनी हो तो लेते आना। फिर मत कहना कि बोतल के बिना मूड खराब हो गया।"
महेश और दीपक बाहर निकल गए।
■■■
रंजन होटल में रूपा के पास पहुँचा।
"देवली नाम है उसका जो मरीन ड्राइव के पास बने फ्लैटों में रहती है।" रंजन ने बताया, "वहाँ पर साल भर से रह रही है। आस-पास के लोगों से पूछकर जानकारी इकट्ठी की है। वह रिज़र्व किस्म की है। लोगों से कम ही बात करती है। अपने घर में ही रहती है। बहुत कम कहीं बाहर जाती है। उसके पास सिर्फ अजय वालिया ही आता है। जिनसे पूछा उन्होंने अजय वालिया का हुलिया बताया।"
"इतना ही मालूम हुआ उसके बारे में?" रूपा ने पूछा।
"इतना ही।" रंजन ने सिर हिलाया, "मैंने जानने की कोशिश की कि साल भर पहले वह कहाँ थी, परन्तु पता नहीं लगा।"
"हमें जरूरत भी नहीं पता लगाने की। वह अजय वालिया के लिए दिल बहलाने की सामान है।"
"महेश और दीपक के बारे में कोई खबर?"
"वह उस आदमी का पता लगाने गए हैं जो देवली के पास कल भी आया था और आज भी।"
"आज भी आया वह?"
"हाँ! महेश ने उसका पीछा किया। वह वहीं गया जहाँ कल गया था।"
"वह जरूर कोई खास ही होगा।" रंजन ने कहा, "तुम्हें आज वालिया के सामने पड़ना था।"
"हाँ, मैंने अपना काम कर दिया है।"
"तुम्हारी खूबसूरती का जादू उस पर चला?" रंजन गंभीर था।
"कल पता चल जाएगा।" रूपा ने सोच भरे अंदाज में सिर हिलाया।
तभी महेश और दीपक वहाँ आ पहुँचे।
उस आदमी का नाम जगत पाल है। वह कानपुर का बदमाश है। जिस घर में वह महीनों से ठहरा है वहाँ 60-65 साल की बूढ़ी औरत रहती है। उस औरत का बेटा जगत पल के साथ कानपुर में अपहरण-फिरौती जैसा काम करता था। परन्तु अब वह जेल में है। औरत का कहना है कि जगत पाल मुम्बई में किसी को ढूँढ रहा था और वह लड़की है।" दीपक ने बताया।
"फिर तो हम सोच सकते हैं कि वह देवली को ढूँढ रहा होगा।" रंजन बोला।
"देवली कौन?" महेश ने पूछा।
"वही लड़की जिसके पास वालिया जाता है। उसका नाम देवली है।"
"हो सकता है कि वह देवली को ही ढूँढने मुम्बई आया हो।"
महेश ने सिर हिलाया।
"इस बात से स्पष्ट है कि वालिया और जगत पाल में कोई आपसी सम्बन्ध नहीं है।" रूपा कह उठी, "वालिया कभी भी ऐसे घटिया बदमाश से वास्ता नहीं रखेगा। शहर में वह रुतबे वाला इंसान है।"
"तो हम यह सोचे कि जगत पाल का रिश्ता, देवली के साथ ही है।"
"हाँ!"
"परन्तु कल वालिया जब देवली के पास पहुँचा तो जगत पाल वहाँ मौजूद था। तो देवली ने उससे क्या कहा होगा कि वह कौन है और...।"
"जो भी कहा हो, उससे हमारी योजना पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मोटे तौर पर हमें जानना था कि अजय वालिया इन दिनों किन-किन लोगों से घिरा है और वह हमने जान लिया।" रूपा ने सोच भरे स्वर में कहा।
"परन्तु जगत पाल ठीक बन्दा नहीं है।" रंजन ने कहा।
"वह कैसा भी हो, उससे क्या हमारे काम पर फर्क पड़ता है?"
"नहीं।"
"हम उनके बारे में जानते हैं। वह हमारे बारे में नहीं जानते कि हमारा काम बिगड़ सके।" रूपा गंभीर थी।
"ठीक है।" महेश बोला, "अब क्या करना है?"
"हमारा प्लान जो चल रहा है, वही चलेगा?" रूपा बोली, "कल मेरी और अजय वालिया की एक छोटी सी मुलाकात फिर होगी। तुम लोग जाओ। इस बारे में कल सुबह बता दूँगी कि काम कैसे करना है।"
■■■
जगत पाल ने गिलास उठाया और घूँट भरा। उसकी आँखें नशे में लाल हो रही थी। इस समय वह उसी मकान के साधारण से कमरे में कुर्सी पर बैठा था। सामने टेबल पर ढका खाना पड़ा था। दीवार पर लगी पुरानी सी घड़ी में 10.30 हो रहे थे।
तभी 60-65 बरस की उस औरत ने भीतर प्रवेश किया।
"बस कर। कितनी पियेगा?" वह बोली।
"वह दोनों आये नहीं मौसी। तुम तो कहती थी कि रात के खाने पर आयेंगे।"
"खाना बनाने के सामान लाने के पाँच सौ रुपये दिए थे मुझे। कह रहे थे कि बाकी पैसे रात को देंगे।"
"नाम नहीं बताया उन्होंने?"
"नहीं! वह कह रहे थे कि अचानक सामने पड़कर तुम्हें हैरान कर देना चाहते हैं।"
जगत पाल के चेहरे पर अजीब सी मुस्कान फैल गयी।
"वह कहते गए और तुमने विश्वास कर लिया उनका।"
"क्यों न करती। बुरा क्या कहा उन्होंने।"
"वह नहीं आयेंगे मौसी।"
"क्यों?"
"वह जो भी थे, मेरे बारे में पता करने आये थे और पूछताछ करके चले गए। तुम बहुत भोली हो।"
"मुझे तो तेरी बात का विश्वास नहीं।"
"कुछ देर में मैं खाना खाऊँगा। बाकी खाना सम्भाल कर रख लेना। कल काम आ जाएगा।" जगत पाल व्यंग्य भरे स्वर में कह उठा।
"भगवान ही जाने क्या बात है।" कहकर बुढ़िया कमरे में चली गयी।
जगत पाल सोचने लगा कि उसके बारे में पूछताछ करने वाले पुलिस के आदमी नहीं हो सकते। पुलिस होती तो सीधे-सीधे उसे पकड़ लेती। उसके कहीं से उसके पीछे लगे होंगे। उसका ठिकाना देखा और उसके बारे में जानकारी पाने आ गए। रह-रहकर उसके दिमाग में यही आ रहा था कि क्या वे लोग देवली के यहाँ से पीछे लगे थे? क्या अजय वालिया देवली की निगरानी करवा रहा है कि जो भी उससे मिलने आये, उसके बारे में उसे खबर होती रहे।
■■■
अगला दिन।
जिस इमारत में अजय वालिया का ऑफिस था, उसी के बाहर एक तरफ हटकर, एक जगह रूपा हाथ में फ़ाइल थामें खड़ी थी। वह भीड़-भाड़ वाली जगह थी। आस-पास और भी इमारतें थी। हर पल लोगों का आना-जाना जारी था। सामने ही पार्किंग में कारें खड़ी थी। शोर-शराबा हो रहा था। रूपा इस तरह खड़ी थी जैसे किसी का इंतजार कर रही हो। कोई आने वाला हो।
तभी रूपा का मोबाइल फोन बजा।
"हेलो!" रूपा ने बात की।
"वह आ गया है।" महेश की आवाज कानों में पड़ी, "उसकी सिल्वर कलर की लंबी कार तुम भी देख रही हो।"
रूपा की निगाह फौरन पार्किंग की तरफ गयी। सिल्वर कलर की लंबी कार उसे नजर आ गयी।
"हाँ!" रूपा के होंठ हिले, "मुझे दिख गयी वह कार।"
तभी पार्किंग के बीच रूपा ने कार रुकती देखी। पिछला दरवाजा खुला। अजय वालिया को उसने बाहर निकलते देखा। हाथ में ब्रीफकेस था। उसने दरवाजा बंद किया तो कार पार्किंग में आगे बढ़ गयी। अजय वालिया इमारत की तरफ बढ़ने लगा।
"वह इस तरफ आ रहा है।" महेश की आवाज कानों में पड़ी।
रूपा ने फोन बंद किया। फ़ाइल को हाथ में थाम रखा था। मोबाइल भी हाथ में था। नजरें इमारत के मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ते वालिया पर थीं और फिर वह अपनी जगह से हिली और तेजी से इमारत के उसी मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ गयी जिधर अजय वालिया बढ़ा चला आ रहा था।
■■■
अजय वालिया आज जल्दी में था। ऑफिस का कुछ जरूरी काम करना था और मोहन दास से भी कुछ पता करना था कि कल फ्लैटों की बुकिंग के लिए लोग आए या नहीं? इन सब बातों के बीच रूपा का मासूम चेहरा भी उसके मस्तिष्क में लहरा जाता कि जाने वह कहाँ होगी। दोबारा वह कभी मिलेगी भी या नहीं।
ब्रीफकेस थामे तेज-तेज कदमों से वह इमारत के प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ रहा था कि एकाएक उसके मस्तिष्क में तीव्र झटका लगा। दो पल तो आँखों पर भरोसा ही नहीं हुआ।
परंतु जल्द ही विश्वास हो गया कि वह कल वाली युवती ही है। लोगों की भीड़ के साथ तेज-तेज चलती हुई वह प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ रही थी। वालिया का दिल खुशी से तेज धड़कने लगा। उसके एक हाथ में फ़ाइल थी, दूसरे में मोबाइल। दोनों हाथ उसने आगे को बाँध रखे थे। शरीर पर पीले रंग का साधारण सा सूट था। बाल पीछे बंधे हुए थे। कानों में कल वाले ही टॉप्स थे। वालिया को सादगी की खूबसूरत मूरत लगी वह।
अजय वालिया जल्दी से रूपा की तरफ बढ़ा। रूपा ने एक बार भी अजय वालिया की तरफ नहीं देखा था। वह जैसे अपने में व्यस्त थी।
ठीक प्रवेश गेट पर ही वह रूपा के पास पहुँच गया। वहाँ से और भी लोग अंदर-बाहर हो रहे थे।
"हेलो!" वालिया जल्दी से बोला, "पहचाना मुझे?"
रूपा ने उसे देखा फिर भीतर प्रवेश करती चली गयी।
भीतर फर्श पर कारपेट बिछा हुआ था। एक तरफ लिफ्ट थी और साथ ही ऊपर जाने की सीढ़ियाँ। प्रवेश द्वार के पास ही वर्दी पहने वॉचमैन का टेबल मौजूद था और उसके बहुत बड़े बोर्ड पर चार्ट बना था कि कौन-कौन से फ्लोर पर, कौन-कौन सा ऑफिस है। लिफ्ट के पास पाँच-छह लोग लिफ्ट आने के इंतजार में खड़े थे। रूपा उनके साथ जाकर खड़ी हो गयी।
अजय वालिया उसके पास आ पहुँचा।
"मैं आपसे ही बात कर रहा हूँ। मुझे पहचाना आपने?"
रूपा ने वालिया पर नजर मारकर कहा- "नहीं।"
"कमाल है! कल आप मेरी कार से टकरा गई थीं। मैं आपको...।"
"ओह, हाँ! अब पहचान लिया।"
तभी लिफ्ट आ रुकी। दरवाजे खुले, लोग बाहर निकले। बाहर वालों ने भीतर प्रवेश किया। रूपा भी लिफ्ट में जा पहुँची। दो लोग और आये और लिफ्ट में प्रवेश कर गए। ऊपर जाने के लिए लिफ्ट के दरवाजे बंद होने लगे।
अजय वालिया वहीं ठिठका। लिफ्ट में मौजूद रूपा को देखता रहा। जबकि रूपा का ध्यान जरा भी उसपर नहीं था। लिफ्ट के दरवाजे बंद हो गए। आज रूपा उसे कल से भी ज्यादा हसीन लगी थी। परन्तु अब भी वह रूपा से बात नहीं कर पाया था।
शायद वह जल्दी में थी?
क्या वह यहीं कहीं काम करती है? कल भी तो बाहर पार्किंग के पास उसकी कार से टकराई थी।
जो भी हो वह आज उसका इंतजार करेगा बाहर निकलने का। बेशक सारा दिन ही उसे इंतजार क्यों न करना पड़े। उसने मोबाइल निकाला और ब्रीफकेस थामे मुख्य दरवाजे से बाहर निकलता नम्बर मिलाने लगा।
"हेलो!" जल्दी ही मोहन दास की आवाज कानों में पड़ी।
"कहाँ हो?"
"ऑफिस में सर। आप अभी आये नहीं?"
"मैं आ गया हूँ। नीचे पार्किंग में हूँ। यहीं आ जाओ। जो भी बात डिस्कस करनी है यहीं कर लेंगे।"
"क्या मतलब?"
"आ जाओ, फिर मतलब पूछना।" अजय वालिया ने कहा और फोन बंद करके जेब में रखा। नजरें इमारत के प्रवेश गेट पर थीं।
■■■
महेश एक तरफ मौजूद रह कर अजय वालिया पर नजर रखे था कि उसका फोन बजा।
"कहो।" स्क्रीन पर आया नंबर देखने के बाद महेश ने बात की।
"वह कहाँ है?" रूपा की आवाज कानों में पड़ी।
"बाहर। इमारत के बाहर आ गया है। एक तरफ खड़ा है। यकीनन वह तुम्हारे बाहर आने के इंतजार में खड़ा है। मुझे पूरा यकीन है कि अगर तुम शाम तक बाहर न निकलो तो वह वहाँ से हिलेगा नहीं।"
"यह तो अच्छी खबर है।"
"उसने तुमसे बात करने की कोशिश की?"
"हाँ, परंतु मैंने ज्यादा बात नहीं की।" रूपा की आवाज कानों में पड़ रही थी।
"बाजी तुम्हारे हक़ में है। हमने जो करना था वह कर दिया। आगे का सारा काम तुम्हारा है।"
"मैं सब ठीक कर लूँगी।"
"मुझे भी यही लगता है। तुम अब बाहर कब आओगी?"
"मुझे एक घण्टा तो लगाना ही चाहिए। तुम्हारा क्या ख्याल है?"
"ठीक कहती हो।" महेश अजय वालिया पर नजरें टिकाए कह उठा, "उसका मैनेजर मोहन दास इमारत से निकलकर उसके पास आ पहुँचा है। परन्तु उसका मुझे जाने का इरादा नहीं लगता।"
"मुझे फोन पर खबर देते रहना।" उधर से रूपा ने कहते हुए फोन बंद कर दिया।
■■■
मोहन दास अभी-अभी अजय वालिया को वहीं छोड़कर इमारत में गया था। मोहन दास से बातों के दौरान भी वालिया की निगाह इमारत के प्रवेश गेट पर ही थी।
यह सब कुछ अजय वालिया को अजीब-सा लग रहा था। वह कई बार खुद से सवाल कर चुका था कि इस तरह खड़े होकर किसी लड़की के बाहर आने का इंतजार करना, क्या वह ठीक कर रहा है?
परंतु हर बार उसका मन कहता कि वह ठीक कर रहा है। पहली बार तो कोई लड़की उसे अच्छी लगी थी और मन में चाह उठी थी कि उसके साथ शादी कर ले। उसके पास सब कुछ है, परिवार भी बस जाए तो क्या बुरा है।
यही वक़्त था जब अजय वालिया ने रूपा को बाहर निकलते देखा। रूपा का चेहरा उतरा हुआ था। फ़ाइल और मोबाइल हाथ में वैसे ही थमा था।
अजय वालिया उसके पास जा पहुँचा।
"हेलो!"
"आप मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हो?" रूपा तेज स्वर में बोली, "मैं पहले से ही परेशान हूँ।"
अजय वालिया सम्भला फिर मुस्कुराकर कह उठा-
"मैं आपके पीछे नहीं हूँ। कल इत्तेफाक से आप मेरी कार से टकरा गयीं। आज भी इत्तेफाक से आप से मुलाकात हो गयी। परन्तु तीसरी बार यानी कि अब मैं अवश्य आपका इंतजार कर रहा था, आपके बाहर आने का।"
"क्यों?"
"क्योंकि आप मुझे अच्छी लगीं। मैं दो बात आपसे करना चाहता हूँ।"
रूपा ने गहरी साँस ली और अजय वालिया को देखा।
"आप यहाँ नौकरी करते हैं?" रूपा ने एकाएक पूछा।
"मैं?" अजय वालिया अगले ही पल मुस्कुराकर कह उठा, "कुछ ऐसा ही समझ लीजिए।"
"आपके यहाँ कोई कंप्यूटर टाइपिस्ट की पोस्ट खाली है?"
"क्यों?"
"मुझे नौकरी करनी है। यहाँ भी मैं नौकरी के लिए आयी थी, लेकिन वह पोस्ट किसी और को मिल गयी। मुझे नौकरी की सख्त जरूरत है। अगर आपके ऑफिस में नौकरी मिल जाये तो...।"
"मैं अपने बॉस से पता करूँगा। परन्तु इसके लिए आपको मेरी एक शर्त माननी होगी।" अजय वालिया मुस्कुराया।
"मैं ऐसी-वैसी लड़की नहीं...।"
"मैं चाहता हूँ कि आप मेरे साथ लंच करे।"
"लंच? ओह, आज तो मैंने सुबह से कुछ खाया भी नहीं।" रूपा को जैसे एकाएक याद आया।
"तो हो जाये।"
"मेरे पास पैसे नहीं है।" रूपा मुस्कुरा पड़ी।
"मेरे पास है।" अजय वालिया हौले से हँसा, "मैं अभी तक आपका नाम नहीं जान सका।"
"रूपा।"
"मुझे अच्छा लगा। मैं अजय वालिया हूँ। आइए उधर मेरी कार खड़ी है। मुझे खुशी है कि आप मेरे साथ लंच लेने जा रही हैं। आप पहली बार में ही मुझे बहुत अच्छी लगीं कि...।"
"रहने दीजिए। ज्यादा हवा मत दीजिए। मैं इसलिए आपके साथ लंच के लिए चल रही हूँ कि आप मेरी नौकरी लगवा देंगे।"
"जरूर। इस बात की मैं पूरी कोशिश करूँगा।"
■■■
अजय वालिया को आज लंच का जो मजा आया था, वह जिंदगी में पहले कभी नहीं आया। और इसकी वजह थी रूपा। जिसे वह पसंद करने लगा था। उसके साथ लंच करने का मौका मिल जाये तो कहना ही क्या। रूपा की हर अदा उसे बहुत ही अच्छी लग रही थी। उसकी आवाज, उसका बातें करने का अंदाज, खाने का अंदाज। मुस्कुराना। कभी-कभी हौले से हँसना। वालिया, रूपा का दीवाना होता जा रहा था।
लंच के बाद कॉफ़ी मंगवाई गयी।
"मैंने आज ज्यादा खा लिया।" अजय वालिया ने मुस्कुराकर कहा।
"मैंने भी। अब तो आप मेरी नौकरी लगवा देंगे?"
"मैं सोचता हूँ कि यह लंच जिंदगी भर जितना लम्बा चले तो मेरी मुँह माँगी मुराद पूरी हो जाये।"
"क्या मतलब?"
"आपका फोन नम्बर मिल सकता है?"
"क्यों नहीं। आप मेरी नौकरी लगवाने वाले हैं। फोन नम्बर तो आपको देना ही पड़ेगा।"
रूपा ने अपना मोबाइल नम्बर अजय वालिया को दिया।
"आपके घर में कौन-कौन है?"
जवाब में रूपा खामोश रही।
"शायद आपको मेरा सवाल अच्छा नहीं लगा?"
"अच्छे-बुरे की बात नहीं है। मैं अपने परिवार के बारे में कोई बात नहीं करना चाहती।" रूपा ने धीमे स्वर में कहा।
"मैं दोबारा पूछूँगा भी नहीं। लेकिन आप रहती कहाँ हैं?"
"यह भी नहीं बताऊँगी।"
"आपकी मर्जी। मेरे सवालों से आप नाराज मत होइएगा।" अजय वालिया की निगाह उसके खूबसूरत चेहरे पर थी।
"मेरी नौकरी...।" रूपा ने कहना चाहा।
"इसके बारे में मैं जल्दी ही आपको फोन करूँगा रूपा जी।"
"शुक्रिया!" रूपा ने उठने का उपक्रम किया, "अब मैं चलूँगी।"
"लेकिन कॉफ़ी...।"
"बस। आधी पी ली। मैं कॉफ़ी ज्यादा नहीं पीती।"
"चलिए, मैं आपको छोड़ देता हूँ, जहाँ आप जाना चाहे।"
उसके बाद अजय वालिया ने बिल पे किया और रूपा के साथ रेस्टोरेंट से बाहर आ गया। पार्किंग में हीरा कार के साथ मौजूद था। वालिया ज्यादा से ज्यादा देर रूपा के साथ बिताना चाहता था।
पंद्रह मिनट बाद रूपा एक सड़क के किनारे कार रुकवाकर उतर गई।
वालिया ने उससे कहा कि नौकरी के लिए वह जल्दी ही उसे फोन करेगा।
■■■
बेल बजने पर देवली ने दरवाजा खोला। उसे यकीन था कि अजय वालिया आया होगा, परन्तु जगत पाल को सामने पाकर उसके होंठ भींच गए।
जगत पाल मुस्कुराया।
"वालिया के आने का इंतजार हो रहा था क्या?"
"दफा हो जाओ।" भींचे स्वर में देवली गुर्रा उठी।
"मैं तो आना ही नहीं चाहता था। परंतु तेरे फायदे के लिए आना पड़ा।"
"मुझे कोई काम नहीं करना। पहले का काम मैंने छोड़ दिया है। खासतौर से तेरा साथ तो मैंने पूरा ही छोड़ दिया है।"
"गुस्से में तू सच में ही हसीन लगती है।" जगत पाल मुस्कुराया, "मुझे भीतर आने दे। तेरे को तेरे काम की ही बात बताऊँगा।"
दो पल उसे घूरने के बाद पश्चात पीछे हटती देवली कह उठी-
"तेरा बार-बार आना मुझे पसंद नहीं। इसी बात पर तेरे से झगड़ा होगा मेरा।"
जगत पाल मुस्कुराता हुआ भीतर आ गया। देवली ने दरवाजा बंद किया।
"तेरा इस तरह वालिया की रखैल बनकर रहना मुझे अच्छा नहीं लगता।"
"तू न तो मेरा बाप है, न ही पति। फिर तेरे अच्छे-बुरे की परवाह क्यों करूँ?"
"यह भी ठीक कहा तूने।"
"जो बात करनी है कर और दफा हो जा।" देवली ने कठोर स्वर में कहा।
"तुझ पर नजर रखी जा रही है।"
"क्या?" देवली अचकचाई।
"विश्वास नहीं आया?" जगत पाल अब मुस्कुरा नहीं रहा था।
"यह नहीं हो सकता।"
"यही हो रहा है। मैं तेरे पास दो बार आया और मेरे पीछे कोई लग गया। यह देखा गया कि मैं कहाँ पर टिका हुआ हूँ। फिर दो लोगों ने वहाँ पहुँचकर, मेरे बारे में जानकारी हासिल की। यह कल दोपहर की बात है।"
"वह कहीं और से तेरे पीछे लगे होंगे।"
"मैं कहीं और गया ही नहीं। ऐसा कोई काम किया ही नहीं कि किसी को मेरे पीछे आना पड़े। मैं सिर्फ यहीं आया। जो भी मेरे पीछे लगा, यहीं से लगा।" जगत पाल की शांत आवाज में दृढ़ता थी।
देवली होंठ भींचे उसे देखती रही। जगत पाल ने सिगरेट सुलगाई और कश लेकर कह उठा-
"अजय वालिया जिसका तू नोट रूपी रस निचोड़ रही है, वह तेरे पर नजर रखवा रहा है।"
"असम्भव! वालिया मुझ पर नजर नहीं रखवा सकता।" देवली ने दृढ़ स्वर में कहा।
"उस पर इतना ज्यादा विश्वास।"
"मैं उसे एक साल से जानती हूँ। वह कैसा है, मुझसे बेहतर दूसरा कोई नहीं जान सकता। वह शरीफ बिजनेसमैन है। अपने काम से उसे प्यार है। फुर्सत के वक़्त वह मेरे पास आ जाता है। उसे मुझ पर पूरा भरोसा है। वह मेरी निगरानी नहीं करवाएगा।"
"लेकिन तुझ पर नजर तो रखी जा रही है। मुझे इस बात का पूरा भरोसा है।"
देवली उसे देखते खामोश रही।
"तू अपना फोन नम्बर मुझे दे दे। कोई बात करनी होगी तो मैं फोन कर लूँगा।"
"मैं तेरे से कोई बात...।"
"मेरे बार-बार आने से तेरे को समस्या होगी देवली। जबकि तेरे पर नजर रखी जा रही है। मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से...।"
"बहुत चिंता है मेरी?" देवली ने कड़वे स्वर में कहा और फोन नम्बर उसे बताया।
"बहुत।" जगत पाल ने गम्भीर स्वर में कहा, "दस साल तक तू मेरी बेहतरीन साथी रही है। तू समझदार और तेज दिमाग की है। मैं तेरा बुरा सोच ही नहीं सकता। बल्कि अब भी चाहता हूँ कि तू पहले की तरह मेरे साथ काम करे।"
"ऐसी चाहत थी तो प्रताप को नहीं मारना था।"
"मैंने नहीं मारा। तू भूल में है कि...।"
"देवली कभी भूल में नहीं होती। मेरी नजर हर तरफ रहती है।"
"लेकिन अपने ही घर के बाहर नजर नहीं है तेरी कि कोई तेरे पर नजर रख रहा है।"
"तू जा...।" देवली ने बात खत्म करते हुए कहा।
"बेशक, मैं जा ही रहा हूँ।"
"दोबारा मेरे पास नहीं आना।"
"तेरा फोन चालू रहा, हमारी बात होती रही तो मैं नहीं आऊँगा यहाँ।"
"मैं तेरे से रिश्ता नहीं रखना चाहती।"
जगत पाल हँसा फिर कह उठा-
"तूने मुझे अपना फोन नम्बर दिया है, इसी से जाहिर है कि तेरे को मेरे से रिश्ता रखने में परहेज नहीं है।"
"नम्बर इसलिए दिया है ताकि तू मेरे से दूर रहे। दफा रहे यहाँ से।"
जगत पाल पुनः हँसा और आगे बढ़कर दरवाजा खोलकर बाहर निकलता बोला- "मेरी बात याद रख, तेरे पर नजर रखी जा रही है। इससे मेरा तो कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन तू किसी फेर में फँस सकती है।" कहने के साथ ही जगत पाल बाहर निकलता चला गया।
देवली आगे बढ़ी और दरवाजा बंद कर दिया। उसके होंठ भिंचे हुए थे। चेहरा सोच में डूबा हुआ था। वह जानती थी कि इतनी बड़ी बात जगत पाल यूँ ही नहीं कहेगा। परन्तु उसे इन बात का भी भरोसा था कि वालिया उस पर नजर नहीं रखवा सकता। वह भला उस पर क्यों नजर रखवायेगा।
अगर जगत पाल की बात सही है तो बात कुछ और ही है।
देवली आगे बढ़ी और खिड़की के पास पहुँचकर पर्दे को उँगली से जरा सा हटाकर एक आँख से बाहर देखने लगी। देखती रही। वक़्त बीतने लगा। उसकी निगाह हर तरफ घूम रही थी। खिड़की से सोसाइटी का मेन गेट स्पष्ट नजर आ रहा था। लोग और गाड़ियाँ आती-जाती नजर आ रही थीं।
देवली की निगाह सोसाइटी के मुख्य गेट से बाहर दायीं तरफ फुटपाथ के साथ खड़ी उस कार पर जा टिकी जिसकी ड्राइविंग सीट पर एक व्यक्ति बैठा नजर आ रहा था।
देवली देर तक उसे ही देखती रही। एकमात्र वही शख्स ऐसा लग जिसे देखकर कहा जा सकता था कि अगर उस पर नजर रखी जा रही है, तो वही रख रहा है।
देवली खिड़की से हट गई। उसके खूबसूरत चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे। पता करना होगा कि सच क्या है। क्या वास्तव में जगत पाल ठीक कह रहा है कि उस पर नजर रखी जा रही है?
इस बात को वह हल्के में नहीं ले सकती। उस पर नजर रखी जा रही है तो यह गंभीर बात थी।
देवली बाहर जाने के लिए कपड़े बदलने लगी।
■■■
देवली कार में बाहर निकली। वह जीन की पैंट और स्कीवी पहने थी। आँखों पर काला चश्मा लगा रहा था। खुले बाल कंधों से नीचे तक जा रहे थे। खूबसूरत लग रही थी वह।
सोसाइटी के गेट के बाहर उसकी कार निकली और आगे बढ़ गयी। बाहर खड़ी उस कार की तरफ उसने एक बार भी नहीं देखा था, परन्तु पीछे का दृश्य देखने के लिए वह बार-बार शीशे में झाँक लेती थी।
अगले ही पल उसके चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे। वह कार उसके पीछे आने लगी थी।
तो जगत पाल का कहना सही था कि उस पर नजर रखी जा रही है।
देवली ने खुद को अजीब सी हालत में महसूस किया। कानपुर में वह जो करती थी, वह सब उसने प्रताप की हत्या के बाद कानपुर में ही छोड़ दिया था और खामोशी से मुम्बई आ गयी थी। यहाँ इत्तेफाक से ही उसकी मुलाकात वालिया से हुई और दोनों में पट गयी। देवली को भी सहारा चाहिए था। इस तरह वह वालिया की बनकर रहने लगी।
साल भर से शराफत की जिंदगी बीता रही थी। ऐसे में उस पर नजर कौन रखेगा?
अजय वालिया को उस पर नजर रखने की कोई जरूरत ही नहीं है। इसका मतलब कुछ नया हो रहा है। कोई उस पर नजर रखवा रहा है। लेकिन क्यों?
देवली के लिये उस पर नजर रखना, उसे हैरान कर देने वाली बात थी।
कुछ देर बाद देवली ने कार बिग बाजार के मॉल के पार्किंग में रोकी और पीछा करने वाले को दिखाने के लिए सामान खरीदने के लिए भीतर पहुँच गयी। भीतर के शीशे से कई बार उसने बाहर झाँका। जल्दी ही उसे वह कार नजर आ गयी जो उसके पीछे लगी थी।
इस वक़्त उसे ड्राइविंग सीट पर बैठे व्यक्ति का चेहरा स्पष्ट दिखा। देवली ने इस आदमी को पहले कभी नहीं देखा था। पाठकों को हम बता दें कि वह कोई और नहीं, रंजन था, जो देवली पर नजर रख रहा था। उसके पास आज करने को कोई खास काम नहीं था, तो वह दीपक से कह आया था कि देवली पर नजर रखने जा रहा है।
देवली ने जरूरत का सामान खरीदा और अपने फ्लैट पर आ गयी। रंजन उसके पीछे था।
अब देवली को शक की कोई गुंजाइश नहीं रही थी कि उस पर नजर रखी जा रही है। ऐसे में देवली के मस्तिष्क में सुईंया चुभने लगी कि कौन है, जो उस पर नजर रख रहा है, और उससे क्या चाहता है।
परन्तु किसी भी सवाल का जवाब उसके पास नहीं था।
देवली ने खिड़की से झाँककर देखा। वह कार फिर वहीं फुटपाथ के पास खड़ी थी। होंठ भींचे देवली उस छोटे से ड्राइंग रूम टहलने लगी। चेहरे पर गंभीरता थी।
तभी उसका मोबाइल फोन बजने लगा।
"हेलो!" देवली ने कालिंग स्विच दबाकर फोन कान से लगाया।
"विश्वास आ गया मेरी बात का?" जगत पाल की आवाज कानों में पड़ी।
"तुम?" देवली के होंठों से निकला।
"मैं जानता था कि तुम जरूर यह जानने के लिए बाहर निकलोगी कि क्या वास्तव में तुम पर नजर रखी जा रही है। ऐसे में मैं तुम्हारी सोसाइटी से दूर नहीं गया था और तुम्हें बाहर निकलते देखा कार में। तुमने वह कार तो देख ही ली होगी, जो तुम्हारे पीछे गयी और पीछे ही वापस आयी।"
फोन कान से लगाये और होंठ भींचे देवली खड़ी रही।
"मेरे ख्याल में देवली अब तुम्हें मेरी जरूरत है।"
"शायद।" देवली के होंठ से निकला।
"तुम जरूर जानना चाहोगी कि तुम पर कौन नजर रख रहा है और क्यों रख रहा है?"
"तुम भी तो जानना चाहोगे कि तुम्हारे बारे में छानबीन करने वाले वह कौन लोग हैं?"
"मेरी बात छोड़ो। मैं तो जान ही लूँगा। परन्तु तुम्हें नहीं बताऊँगा। क्यों बताऊँ? तुम तो मेरे काम की रही नहीं।"
"क्या चाहते हो?"
"मैं यह पता लगाकर तुम्हें बताऊँगा कि तुम पर नजर कौन रख रहा है और क्यों रख रहा है। बदले में तुम उस काम में मेरा साथ दोगी। दो दिन का काम है। पाँच-सात करोड़ हाथ में आ जायेगा। वालिया को पता भी नहीं चलेगा कि तुम दो दिन फ्लैट से गायब रही। यह सब करना मामूली सा काम है तुम्हारे लिए।"
देवली के होंठ भींच गए।
"तुम्हारी चुप्पी को मैं इंकार समझूँ?"
"सिर्फ एक ही काम।" देवली के होंठ खुले।
"हाँ, एक ही...।"
"मंजूर है।"
"गुड! अब मैं पता लगाता हूँ कि तुम पर नजर क्यों रखी जा रही है। क्या मामला है?"
"कुछ कर मत देना।" देवली बोली, "पहले सब कुछ मुझे बताना जगत पाल।"
"निश्चिंत रहो। कुछ करने से पहले मैं तुम्हें बताऊँगा। यह तुम्हारा मामला लग रहा है मुझे।"
■■■
उस समय शाम के पाँच बज रहे थे जब अजय वालिया, देवली के पास पहुँचा।
"ओह, तुम!" देवली ने दरवाजा खोला तो उसे देखते ही कह उठी, "आज तो बहुत खुश लग रहे हो।"
"सच में।" भीतर आता वालिया कह उठा।
"क्या बात है?" मुस्कुराते हुए देवली ने दरवाजा बंद किया।
अजय वालिया सोफे पर जा बैठा और ब्रीफकेस एक तरफ रख दिया।
"मुझे वह लड़की मिल गयी है जिससे मैं शादी कर सकता हूँ।" वालिया ने खुशी भरे स्वर में कहा।
देवली दो पल तो वालिया को देखती रह गयी। मन में यही आया कि वालिया साफ दिल का इंसान है। कितनी आसानी से उसे यह बात कह दी, जबकि वालिया यह भी सोच सकता था कि वह बात उसे बुरी भी लग सकती है।
वालिया उस पर नजर नहीं रखवा रहा है। कोई और ही है उस पर नजर रखने वाला।
"मतलब कि मेरा पत्ता साफ।" देवली मुस्कुराकर उसके सामने बैठ गयी, "कौन है वह?"
"रूपा नाम है उसका। कल ही वह मिली थी। आज उसके साथ लंच भी लिया।"
"पसंद है तुम्हें वो?"
"बहुत।"
"तुम दौलतमंद इंसान हो अजय।" देवली कह उठी, "कोई भी तुम्हें फसाने की चेष्टा कर सकता है।"
"उसे तो मैं फसाने की चेष्टा कर रहा हूँ।" वालिया हँसा, "वह मेरे बारे में कुछ नहीं जानती। वह सोचती है कि मैं कहीं नौकरी करता हूँ। शायद उसी की तलाश थी मुझे। वो...।"
"तुम बच्चे नहीं हो। अपना अच्छा-बुरा समझते हो।" देवली ने कहा, "उसका घर-परिवार देख लेना।"
"मैं जानता हूँ कि मैं जो कर रहा हूँ, ठीक कर रहा हूँ।" वालिया ने कहा, "तुम अपने बारे में फिक्र मत करना कि मैंने शादी कर ली तो तुम्हें छोड़ दूँगा। यह फ्लैट, कार तुम्हारी है। तुम्हारे बैंक में मैं इतना पैसा जमा कर दूँगा कि तुम अच्छे से जीवन बिता सको। बेहतर होगा कि किसी से शादी कर लेना।"
"शुक्रिया अजय। तुम्हें मेरी चिंता है। मेरे लिए यही खुशी की बात है। तुम साफ दिल के हो। मैं तुम्हें पसंद करती हूँ। लेकिन तुम कुछ भोले हो। शरीफ हो। मैं फिर कहती हूँ, जिससे भी शादी करो, इसे पहले समझ लेना।"
"मैं तुम्हारी बातों का ध्यान रखूँगा।" अजय वालिया खुशी से मुस्कुरा रहा था।
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