मलिक महसूस कर रहा था कि हालात बुरे होते जा रहे हैं। वैन का पिछला दरवाजा खुलने पर हालात और भी बुरे हो जाएंगे। वो प्राइवेट जासूस है। उसे यह काम हाथ में नहीं लेना चाहिए था। वह ठीक सोच रहा है या गलत, इस बारे में बात करने मल्होत्रा के पास जाने ही वाला था कि उखड़ा-सा जगदीश उसके पास आ पहुँचा।
जगदीश की बात को उसने ध्यान से सुना।
उसकी सोचों को बल मिला कि वह ठीक सोच रहा है।
इस काम से उसे हट जाना चाहिए। छाबड़ा का पैसा उसे लौटा देगा।
मलिक ने अपने विचार मल्होत्रा के सामने रखे।
मल्होत्रा उसकी डिटेक्टिव एजेंसी का पुराना जासूस था।
"अब पीछे हटने का क्या फायदा?" मल्होत्रा ने गम्भीर स्वर में कहा।
"क्यों?"
"हम इस मामले में गले तक फँस चुके हैं।"
"बैंक-वैन डकैती में हमारा पूरा दखल जुड़ चुका है। इस मामले से हम पल्ला नहीं झाड़ सकते।"
"अभी भी बहुत कुछ होना बाकी है।"
"क्या?"
"खून-खराबा। जो कि वैन का दरवाजा खुलते ही शुरू हो जायेगा।"
मल्होत्रा ने अपनी परेशान निगाहें वैन पर मारीं।
"अभी वक्त हमारे हाथ में है मल्होत्रा। हम खून-खराबे का इल्जाम अपने पर नहीं आने देना चाहते।"
"मुझे नहीं समझ आ रहा कि मैं क्या कहूँ...।"
"छाबड़ा से बात करते हैं।"
"तुम क्या समझते हो कि छाबड़ा इस बात से खुश होगा कि तुम मामले से पीछे हट रहे हो?"
"चलो बात तो करें।"
मलिक और मल्होत्रा पेड़ों के झुरमुटों के बाहर, छाबड़ा की कार तक पहुँचे।
उन्हें आते पाकर छाबड़ा ने कार का शीशा नीचे करके पूछा---
"मिल गए कागजात?"
दोनों पास आकर रुके। मलिक गम्भीर स्वर में कह उठा---
"अभी कुछ नहीं हुआ। सारे हालात ऐसे ही हैं।"
"तुम बहुत धीमी रफ्तार से चल रहे हो मलिक...।"
वैन के भीतर मौजूद दोनों गनमैन बाहर निकलने को तैयार नहीं। वो गोलियाँ चलाने का इरादा रखते हैं।"
"तुम निपटो उनसे।" छाबड़ा ने कहा।
"कैसे?"
छाबड़ा खामोश रहा।
"क्या उन्हें मार दूँ?"
"नहीं, ये सब नहीं चाहते हम। तुम्हें ऐसा करने को कहेंगे भी नहीं।"
"कहने, ना कहने से क्या होता है? हम जो काम कर रहे हैं, उसमें यह होना जरूरी हो गया है।"
"बिना खून-खराबे के ये काम करो और कागजात मुझे...।"
"छाबड़ा साहब!" मलिक ने गम्भीर स्वर में कहा--- "मैं आपसे ये कहने आया हूँ कि मैं इस काम से पीछे हट रहा हूँ।"
"क्या कह रहे हो?" छाबड़ा के होठों से निकला और दरवाजा खोलकर बाहर आ गया--- "तुम ऐसा नहीं कर सकते...।"
"मुझे इस काम में हाथ नहीं डालना चाहिए था। मैं और मेरे आदमी डकैती के मुजरिम बन गए हैं। कुछ देर बाद जो खून-खराबा होगा, वो हत्याएं भी मेरे ही सिर पर आएंगी।"
तभी वधवा कार से बाहर निकलता कह उठा---
"ये बातें तुम्हें काम को हाथ में लेते वक्त सोचनी चाहिए थीं।"
"ये भूल मुझसे जरूर हुई।"
"तुम काम के इस मौके पर, सब कुछ छोड़कर, भाग नहीं सकते।" वधवा ने कठोर स्वर में कहा--- "हमने तुम पर और उस ताले पर पैसा खर्च किया है। हमारी अपनी भी प्लानिंग है। हमें वो कागज चाहिए...।"
"मेरे आदमी विद्रोह कर रहे हैं।" मलिक कह उठा।
"उन्हें तुम संभालो...।"
"मैंने कहा है कि वो विद्रोह कर रहे हैं... और उनका विद्रोह करना ठीक है। हम बहुत बड़ा गैरकानूनी काम कर रहे हैं।"
"पहले क्यों नहीं सोचा इस बारे में...।"
"तुम लोगों की तरफ से ऐसी फीस ऑफर की गई थी कि मैं इंकार नहीं कर सका। अब मैंने सोचा है कि तुम्हारा पैसा वापस कर...।"
"हमें पैसा नहीं, वो कागज चाहिए।" छाबड़ा ने सख्त स्वर में कहा--- "अगर अब तुम इस से पीछे हटे तो हम किसी भी तरह यह खबर पुलिस तक पहुँचा देंगे कि बैंक-वैन डकैती के पीछे तुम लोग हो। बाकी के सबूत पुलिस ढूंढ लेगी।"
मलिक के होंठ भिंच गए। उसने मल्होत्रा को देखा।
"यहाँ से चलो।" मल्होत्रा गम्भीर स्वर में बोला--- "हमें काम पूरा करना होगा।"
मलिक ने गहरी साँस ली और मल्होत्रा के साथ वापस चल पड़ा।
छाबड़ा और वधवा उन्हें जाते देखते रहे।
"मलिक को खतरा लगा होगा। तभी पीछे हट रहा है।" वधवा ने कहा।
"खतरा तो है ही। भीतर वो दो गनमैन जो बैठे हैं।" छाबड़ा ने चिन्तित स्वर में कहा।
"अब मलिक पीछे हटा तो सारा काम गड़बड़ा जायेगा।" वधवा ने बेचैनी से कहा।
"वो पीछे नहीं हटेगा। मलिक जानता है कि अब पीछे नहीं हटा जा सकता।" छाबड़ा ने विश्वास भरे स्वर में कहा--- "वो कुछ परेशान हो गया था, तभी हमारे पास आ गया। लेकिन अब वह ठीक से काम करेगा।"
"उसे इस बात का अहसास हुआ है कि उसे इस काम में हाथ नहीं डालना चाहिए था।"
छाबड़ा गहरी साँस लेकर रह गया।
◆◆◆
प्यारा लौट आया।
पेड़ पर चढ़ा और सोनू के पास आ पहुँचा।
"हाथ फेर आया?" सोनू ने पूछा।
"गिन्नी तो गहरी नींद में थी। खुर्राटे मार रही थी।" प्यारा बोला।
"लगता है महीने भर की नींद, आज ही पूरी करके हटेगी।"
"अच्छा है। हम इधर का ध्यान रखते रहेंगे।" प्यारे ने सिर हिलाकर कहा।
"तेरा बच्चा ठहराने का प्रोग्राम तो बीच में ही रह जाएगा।"
"वो भी हो जाएगा। जरा इधर से निपट लें। वैसे तेरे को पूरा विश्वास है कि लाख-डेढ़ लाख हमें मिल जाएगा?"
"पक्का प्यारे! तू मुझ पर भरोसा रख...।"
"कोई नई बात हुई यहाँ पर?" प्यारे ने पूछा।
"नहीं। सब पहले जैसा ही है। इन्हें वैन खोलने दे।"
"हम कितनी बढ़िया जगह बैठे हैं। हम सबको देख सकते हैं, परन्तु कोई हमें नहीं देख सकता।"
"शुक्र कर कि कोई हमें ना देखे।"
तभी प्यारे ने मलिक और मल्होत्रा को वापस आते देखा।
"ये दोनों कहाँ से आ रहे हैं? हमेशा इकट्ठे ही जाते हैं। कोई गड़बड़ी तो नहीं करते...।"
"तेरे को याद है कि हमने इंजन की आवाज सुनी थी। उधर कोई कार खड़ी है।"
"हाँ...।"
"ये दोनों वहाँ पर मौजूद लोगों से मिलकर ही आ रहे हैं।"
"बार-बार उनके पास क्यों जाते हैं?"
"होगी कोई बात! हमें क्या?" सोनू बोला--- "बस एक बार ताला खुलने दो। लाख-डेढ़ लाख तो हाथ आया ही...।"
"सुना है पहला लाख कमाना ही कठिन होता है, उसके बाद तो पुराने लाख को देखकर, नये लाख अपने आप आ जाते हैं...।"
"किससे सुना है?"
"चरणदास मोची है ना, उसने ही ये बात कही।"
"उसके पास पहला वाला लाख कभी नहीं आ सकता। सारी उम्र वो यही बात कहता रहेगा।"
"ये बात तू कैसे कह सकता है?"
"उसकी तो रोटी ही मुश्किल से चलती है। लाख कहाँ इकट्ठा कर पाएगा?"
"तूने सही कहा।"
"प्यारे मैं सोच रहा हूँ कि इनमें सरदार कौन है।"
"सरदार?"
"इन सबका बड़ा। आखिर कोई तो होगा...।" सोनू ने नजरें दौड़ाते सोच भरे स्वर में कहा।
"मुझे तो किसी में भी सरदारों वाली बात नहीं लगती। सरदार तो दूर से ही पहचाना जाता है।"
"तू ठीक कहता है। उसकी बड़ी-बड़ी मूंछें होंगी। शान से चलेगा और बात-बात पर गोली चलाएगा।"
"तेरे को कैसे पता कि सरदार ऐसा होता है।"
"मैंने बहुत फिल्में देखी हैं। तूने भी तो देखी हैं मेरे साथ। हर फिल्म में कोई न कोई तो सरदार होता ही है।"
"हाँ, पर इनमें वैसा सरदार नजर नहीं आता। सब चमचे ही लगते हैं।"
"जो पैसा हमें यहाँ से मिलेगा, वो हम आधा-आधा बांट लेंगे।" सोनू बोला।
"क्या करेगा तू आधे पैसे का?"
"मैं ऑटो खरीद लूँगा। चलाया करूँगा। तू क्या करेगा?"
"मैं दुकान कर लूँगा। परिवार पालने के लिए कोई काम-धंधा तो होना ही चाहिए...। तू खाने-पीने का सामान मेरी दुकान से खरीदना...।"
"वो देख। सब इस वैन खोलने वाले के पास इकट्ठे हो रहे हैं।"
"चक्कर क्या है?"
दोनों की निगाहें उधर ही टिक गईं।
◆◆◆
सोहनलाल ने ज्योंही दूसरा ताला खोलने की घोषणा की, सबमें खुशी की लहर दौड़ गई।
सबने सोहनलाल को घेर लिया।
"इस बार तूने काम जल्दी कर दिया...।" अम्बा कह उठा।
"मोटे ताले में देर लगती है।" सोहनलाल मुस्कुराया--- "मैंने तो पहले ही कहा था कि बाकी काम तो फटाफट हो जाएगा।"
"अब एक ही ताला बचा है।"
"हाँ, जिसका चौड़ा लीवर वैन के फर्श में जा रहा है। दस मिनट में वह खोल दूँगा।"
"दस मिनट में?" सुदेश बोला।
"देखते रहो।" सोहनलाल मुस्कुराया--- "अगर अभी नानिया का फोन आ जाए तो पाँच मिनट में भी खोल सकता हूँ।"
तभी जगदीश, मलिक कि बाँह पकड़े उसे एक तरफ ले गया।
"क्या सोचा तुमने?" जगदीश ने उखड़े स्वर में कहा।
"सब्र से काम लो जगदीश...।" मलिक गम्भीर स्वर में बोला।
"मैंने पूछा है तुमने क्या सोचा कि...।"
"तुम मुझसे इस तरह की बात नहीं कर सकते। मत भूलो कि तुम मेरी डिटेक्टिव एजेंसी में नौकरी करते...।"
"भाड़ में गई तुम्हारी नौकरी!" जगदीश गुस्से में कह उठा--- "मैं जासूसी का काम करता हूँ। डकैती का नहीं...।"
"समझने की कोशिश करो जगदीश... हम...।"
"मैं कुछ नहीं समझना चाहता... मैं जा रहा हूँ... तुम...।"
"तुम इस तरह बीच मामले में सबको छोड़कर नहीं जा सकते। यह गलत है।"
"गलत तो तुम कर रहे हो।"
"तुम्हें पहले से ही पता था कि हम किस काम में हाथ डालने जा रहे हैं। मैंने किसी से कुछ नहीं छुपाया।" मलिक बोला--- "तब तो तुम बहुत खुश थे... और कह रहे थे कि यह काम आसानी से हो जाएगा।"
"तब मैं बेवकूफ था। मैं...।"
"अब समझदार हो गए हो?" मलिक ने उसे घूरा।
जगदीश दाँत भींचकर उसे देखने लगा।
इस बीच मल्होत्रा उनके पास आ पहुँचा और बोला---
"क्या हो रहा है?"
"जगदीश, मामले को बीच में छोड़कर जाना चाहता है।" मलिक ने गहरी साँस लेकर कहा।
"थोड़ी देर की तो बात है जगदीश।" मल्होत्रा शांत-गम्भीर स्वर में बोला।
"थोड़ी देर में ही तो सबकुछ हो जाने वाला है मल्होत्रा।"
जगदीश ने होंठ भींचकर कहा--- "भीतर दो गनमैन हैं और वो बाहर निकलने को तैयार नहीं। गनें तैयार करके, वो भी दरवाजा खुलने का इंतजार कर रहे हैं।"
मल्होत्रा ने होंठ भींच लिए।
"ये बात हमें पहले नहीं कही मलिक ने कि भीतर दो गनमैन भी बैठे होंगे।"
"मुझे खुद नहीं पता था।" मलिक बोला।
"नहीं पता था तो क्या यह मेरी गलती है?" जगदीश ने दाँत भींच कर कहा--- "हम शरीफ लोग हैं जासूसी का धंधा करते हैं। इस तरह बैंक-वैन डकैती में शामिल होकर, हम क्या साबित करना चाहते हैं? ये बहुत गलत हो रहा है।"
अब तक अम्बा भी पास आ गया था। वो गम्भीर था।
मैं इस गलत काम में अब तुम्हारा और साथ नहीं दे सकता।"
"अब और बचा ही क्या है जो...।"
"अभी लाशें बची हैं। हमारी या उन गनमैनों की लाशें गिरेंगी, वैन का दरवाजा खुलते ही...।" जगदीश चीखा।
जगमोहन भी वहाँ पहुँचा।
"गम्भीर बातचीत चल रही है...।" जगमोहन सबके चेहरों पर नजरें दौड़ाते कह उठा।
"हमारी बातों में तुम दखल मत दो।" मल्होत्रा बोला।
"मैं तो सिर्फ सुन रहा हूँ। कहो तो चला जाता हूँ। जगमोहन बोला।
"बेहतर होगा कि चले जाओ।"
जगमोहन शराफत से वहाँ से हट गया।
मलिक ने वैन के पीछे की तरफ नजर मारी। सोहनलाल के पास सुदेश मौजूद था।
"जगदीश...।" मल्होत्रा ने गम्भीर स्वर में कहा--- "जिस बात से तुम्हें गुस्सा आ रहा है, उससे हम सब ही परेशान हैं। मलिक को भी आशा नहीं थी कि वैन के भीतर इस तरह गनमैन बंद हो सकते हैं। परन्तु अब कुछ नहीं हो...।"
"क्यों नहीं हो सकता? हम अभी काम को यहीं छोड़ कर वापस जा सकते हैं।"
"नहीं।" अम्बा ने सिर हिलाया--- "अब हम काम को छोड़कर नहीं जा सकते। काम काम होता है। हाथ में लिया है तो पूरा करना ही होगा। इस तरह काम को अधूरा छोड़ना हमें शोभा नहीं देता। बेशक हम गलत काम में हाथ डाल बैठे हैं।"
"अम्बा... तुम भी...।" जगदीश ने कहना चाहा।
"मैं सिर्फ ये कह रहा हूँ कि हम गलत काम में हाथ डाल बैठे हैं परन्तु काम को पूरा करना ही होगा।" अम्बा बोला।
"भीतर जो तेरे दो बाप बैठे हैं...वो?" हमें शांति से उसका हल सोचना चाहिए।" अम्बा के चेहरे पर गम्भीरता थी।
"वो बाहर निकलने को तैयार नहीं और हम अपना काम अधूरा छोड़ना नहीं चाहते। वो गनें तैयार किए बैठे हैं। दरवाजा खुलने का इंतजार है उन्हें। तब वो गोलियाँ चला देंगे। हमने भी गोलियाँ चलाईं और उनमें से कोई मारा गया तो हम हत्यारे बन जाएंगे।"
"मैं तुम्हारी बात से सहमत हूँ।" मलिक ने विचलित स्वर में कहा--- "देखते हैं... कोई रास्ता निकल आये।"
"अब क्या रास्ता निकलेगा? हम अपनी योजना के अंतिम चरण पर हैं।" जगदीश गुर्राया।
"तुम कुछ देर सब्र रखो।" मल्होत्रा ने कहा--- "अगर हालात हमारे पक्ष में न हुए तो हम काम छोड़कर, चले जायेंगे।"
"पक्का।"
"प्रॉमिस...।" मल्होत्रा ने दृढ़ स्वर में कहा।
जगदीश उसी पल वहाँ से हटा और सोहनलाल-सुदेश की तरफ बढ़ गया।
मलिक, मल्होत्रा और अम्बा की नजरें मिलीं।
"जगदीश की परेशानी जायज है मलिक...।" मल्होत्रा ने कहा।
"मैं समझता हूँ...।" मलिक के भिंचे होंठों से शब्द निकले।
"अब क्या किया जाये?" अम्बा बोला--- "वैन का दरवाजा कभी भी खुल सकता है।"
तीनों की नजरें मिलीं।
"जगमोहन से बात करता हूँ...। वो भी गनमैनों से बात करेगा...।" मलिक ने कहा और जगमोहन की तरफ बढ़ गया।
कुछ दूरी पर मौजूद जगमोहन ने मलिक को अपनी तरफ आते देखा तो मुस्कुरा पड़ा।
"आओ।" जगमोहन बोला--- "अब तुम कहोगे कि मैं वैन में बंद गनमैनों से बात करूँ।"
"हाँ...।" मलिक व्याकुलता से सिर हिला उठा।
"मैं जानता था कि तुम इसी काम के लिए मेरे पास आने वाले हो। तुमने अपनी हद से बड़ी चीज में टांग फँसा दी है।"
"समझो कि अगर हम नहीं होते तो तुम इस स्थिति में क्या करते?"
"मैं?"
"हाँ...।"
"अगर तुम बीच में ना होते तो देवराज चौहान पास में होता। वह किसी तरह मामला संभाल लेता।" जगमोहन बोला।
"और तुम क्या करते?"
"मैं 60 करोड़ की गिनती कर रहा होता।"
"क्या तुम लोग गनमैनों को मार देते?"
"नहीं। देवराज चौहान खून बहाकर, पैसा हासिल करने के खिलाफ है।"
"लेकिन देवराज चौहान को हत्या करते भी सुना है मैंने।" मलिक ने कहा
"वो पंगे वाला मामला होता है। दौलत पाने के लिए देवराज चौहान हत्याएं नहीं करता।"
"जो भी हो, तुम को संभालो। उन्हें बाहर निकलने को तैयार करो।"
"मुझे नहीं लगता कि वो निकलेंगे...।"
"तुम कोशिश तो करो।"
"जरूर करुँगा।" जगमोहन ने कहा और वैन की तरफ बढ़ गया।
मलिक उसके पीछे चल दिया।
जगमोहन ड्राइविंग सीट पर जा बैठा।
मलिक बगल वाली सीट पर।
जगमोहन पीछे छोटी-सी खिड़की सरका कर ऊँचे स्वर में कह उठा---"जवाहर...रोमी। तुम लोगों के लिए एक और खुशखबरी लाया हूँ।"
"दूसरा ताला भी खुल गया।" रोमी की आवाज जगमोहन को सुनाई दी।
"तो तुम जानते हो...।"
"इसके अलावा तुम और क्या खुशखबरी दे सकते हो?"
"अब तीसरा और आखिरी ताला खोला जा रहा है । दस-पन्द्रह मिनट की बात है।"
"हम तैयार हैं।" जवाहर की कठोर आवाज आई।
"बाहर आने को?"
"नहीं। तुम सबको खत्म करने को।"
जगमोहन ने मलिक पर नजर मारी।
मलिक ने बेचैनी से पहलू बदला।
"हमें ऐसा कुछ करना चाहिए कि गोलियाँ ना चलें। आराम से सब कुछ निपट जाये।"
"तो वैन को छोड़कर चले जाओ।" रोमी की आवाज आई।
"नहीं। इस तरह नहीं। तुम दोनों को बिना हथियार वैन के बाहर आ जाना चाहिए। हम दौलत लेकर चले जाएंगे।"
"हमें बाहर निकालना चाहते हो ताकि हमें मार सको?"
"गलत मत सोचो। हम खून-खराबे से बचना चाहते हैं। इस वक्त यही चिंता है हमें।"
"हम बाहर आकर बे-मौत नहीं मरना चाहते। मरेंगे तो दो-चार को मारकर मरेंगे।"
"तुम मेरा यकीन नहीं करोगे कि तुम लोगों की जान लेने का हमारा इरादा नहीं है।"
"हम तुम्हारी बातों में फँसने वाले नहीं...।"
जगमोहन ने गहरी साँस लेकर मलिक को देखा, फिर कह उठा--- "वो मेरी बात मानने को तैयार नहीं...।"
"बात करो। उन्हें विश्वास दिलाओ कि हम खून नहीं बहाना चाहते।" मलिक ने दाँत भींचकर कहा।
"तुम बात कर लो। मैं इन्हें और नहीं समझा सकता।" जगमोहन बोला।
मलिक ने अपना चेहरा आगे किया और ऊँचे स्वर में बोला---
"मेरी आवाज सुन रहे हो?"
"ये कौन है?" जवाहर की आवाज आई।
"करोड़ों वाला पागल!" जगमोहन बोला--- "तुम दोनों से बात करना चाहता है।
जवाब में कोई शब्द नहीं आया।
"हम खून-खराबा नहीं चाहते, इसलिए तुम्हें बाहर आने को कह रहे हैं।" मलिक ने कहा।
"इतनी ही चिंता है तो वैन को छोड़कर चले जाओ।" रोमी की आवाज आई।
"हमें पैसा भी चाहिए...।" मलिक पुनः कह उठा।
"हम कोशिश करेंगे कि सबसे पहले तुम्हें ही शूट कर सकें।" जवाहर की आवाज बाहर आई।
"तो तुम लोग नहीं मानोगे?"
"अपनी चिंता करो। हम हथियार डालने वाले नहीं।"
"तुम दोनों डरते हो कि तुम्हारे बाहर आने पर, कहीं हम तुम दोनों को मार ना दें?"
"हमारा डर गलत है?"
"डर ठीक है, परन्तु तुम दोनों गलत हो। हम ऐसा कुछ भी करने वाले नहीं।" मलिक बोला।
जगमोहन शांत बैठा था। सुन रहा था।
"हमें क्या पता कि तुम क्या करने वाले हो। हमें जिंदा छोड़ कर अपने खिलाफ गवाह क्यों तैयार करोगे?"
"हम शरीफ लोग हैं और...।"
"वो तो हम देख ही चुके हैं कि तुम लोग कितने शरीफ हो। देवराज चौहान कहाँ है?"
"देवराज चौहान?"
"वो ही डकैती मास्टर। जगमोहन हमें बता रहा था कि इस काम में डकैती मास्टर देवराज चौहान शामिल है...।" मलिक ने जगमोहन को देखा।
जगमोहन ने सहमति में सिर हिला दिया।
"हाँ वो यहीं है।" मलिक ने कहा।
"वो हमसे बात क्यों नहीं करता?"
"वो...।" मलिक ने पल भर ठिठक कर कहा--- "उसने ये काम हम पर छोड़ रखा है। तुम चाहो तो उससे बात करा देते हैं।"
"कोई जरूरत नहीं।"
"मैं अभी भी अपनी बात पर कायम हूँ। दो-दो करोड़ तुम दोनों को दिया जाएगा। बाहर आ जाओ।"
"हम पोजीशन लिए बैठे हैं। तुम जरा दरवाजा तो खोलो...।" भीतर से रोमी की गुर्राहट आई।
मलिक ने आहत भाव से जगमोहन को देखा।
जगमोहन ने उसे वैन से निकलने को कहा।
दोनों नीचे आ गए। मलिक परेशान-सा कह उठा---
"वो दोनों वैन से बाहर आने को तैयार नहीं।"
"उन्हें डर है कि हम उन्हें मार देंगे।"
परन्तु हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं वो...।"
"उन्हें कौन समझाए...।" जगमोहन ने गहरी साँस ली।
"अब क्या होगा?" मलिक ने परेशानी भरे अंदाज में होंठ भींच लिए।
जगमोहन ने कुछ नहीं कहा और सोहनलाल की तरफ बढ़ गया।
◆◆◆
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