ज़माने का ड़र
जब चीज़ें आँखों के बिल्कुल पास होती हैं तो अक्सर धुंधली हो जाती हैं फिर जब दूर होती हैं तब साफ़ दिखने लगती हैं, लेकिन अगर बहुत दूर हो जाएँ तो दिखना बन्द हो जाती है। यह ड़र अब वीर और माया, दोनों को सताता था कि कहीं अब एक-दूसरे से इतना दूर न हो जाए कि एक-दूसरे को देख पाना भी दूभर हो जाए। यह दूरी और दर्द दोनों पहले भी महसूस कर चुके थे और मालूम था कि एक-दूसरे के बिना जीना कितना दर्द पहुँचाता है।
वीर और माया की अक्सर फ़ोन पर बातें होने लगी थी। वीर दो-तीन बार माया के घर जाकर उससे मिल चुका था, लेकिन फिर भी एक ग़्लानि उसके मन में हमेशा रहती थी। उसे हमेशा महसूस होता था कि जिस अधिकार को एक बार त्याग चुका है, उसे बार-बार बनाए रखने के प्रयत्न से बढ़कर विड़म्बना और क्या होगी, लेकिन फिर भी वीर हर बार माया के पास पहुँच जाता था।
माया का वीर के साथ फिर से एक-दो बार झगड़ा हुआ क्योंकि माया ने वीर से एक घड़ी मंगवाई थी, लेकिन वीर बार-बार भूल जाता था। इसी बात को लेकर फिर से दोनों के बीच लड़ाई हुई थी। वीर को बार-बार इस रिश्ते का अन्त नजर आता था और वो हर बार ख़ुद को महीनों तक तैयार करता था कि जब माया उसे मिलने बुलाएगी, तो वह माया की बात को अनसुना कर देगा और उसे मिलने से मना कर देगा, लेकिन हर बार यह व्यर्थ ही जाता था। यह कैसा प्रेम था उनके बीच, जो उनका आत्मसम्मान तक निगल चुका था? जब आत्मसम्मान घट जाता है तब ग़लत और सही भी दिखाई नहीं देता है और उसकी ग़्लानि भी नहीं होती है।
वीर और माया अब अपने पुराने प्यार की दूसरी पारी खेल रहे थे। वीर अब वही पुराना वीर था, जिसमें केवल माया के लिए प्यार था तो कुछ वीर में कमी भी थी। माया वीर से मिलना चाहती थी। माया ने वीर से कहा कि वह उससे कल मिलने के लिए आए, लेकिन वीर का कल सरकारी नौकरी के लिए इंटरव्यु था। वीर ने माया को मना किया कि वह कल नहीं मिल सकता, लेकिन माया वीर से कल ही मिलना चाहती थी। माया ने कहा कि उसके पास कल ही मिलने का मौक़ा है उसके बाद वह कुछ महीनों तक नहीं मिल पाएगी।
वीर यही सोचता रहा कि वह कल माया से मिलने जाए या नहीं? वह माया को फिर से खोना नहीं चाहता था। प्रेम जब सारी सीमाएं तोड़कर आगे निकल जाए तब सही और ग़लत के बारे में सोचना बेमानी-सा लगता है। वीर ने भी यही फ़ैसला किया कि वह कल माया से मिलने के लिए जाएगा।
अगले दिन माया ने बताया कि वह कालेज में है और उसे वहीं आना है। वीर माया के कालेज के पास पहुँच चुका था, जहाँ से दोनों को माया के फ़्लैट पर जाना था। माया ने वीर को 10 मिनट इन्तज़ार करने के लिए कहा। काफ़ी देऱ इन्तज़ार करने के बाद वीर ने माया को फ़ोन किया, लेकिन माया ने फ़ोन नहीं उठाया। वीर बार-बार माया को फ़ोन कर रहा था, लेकिन माया फ़ोन नहीं उठा रही थी। वीर को माया पर गुस्सा आ रहा था। उसे लग रहा था कि अगर माया को ऐसा ही करना था तो उसे मिलने के लिए बुलाया ही क्यों? वीर अपना इंटरव्यु तक माया के लिए छोड़ कर आया था। वीर को माया के ऊपर बहुत ज़्यादा गुस्सा आ रहा था।
“सुन, मैं फ़्लैट पर आ गई हूँ, तो तू भी यही आ जा अब।” माया ने कुछ देर बाद फ़ोन पर कहा।
“यार, हद होती है। जब वही मिलना था तो सीधा वही बुलाती ना, यहाँ क्यों बैठा रखा है मुझे?” वीर ने झुंझलाकर कहा।
“मैंने सोचा तो यही था कि यहीं से साथ निकलेंगे, लेकिन यहाँ मुझे काफ़ी लोग जानते है तो बस इसलिए मैं वहाँ से निकल आई और घर आकर तुझे फ़ोन किया है।” माया ने जवाब दिया।
“तो फ़ोन तो कर सकती थी कि मैं निकल रही हूँ। तूने तो घर जाकर मुझे याद किया है कोई तेरे इन्तज़ार में बैठा भी है।” वीर ने इतना कहकर फ़ोन रख दिया।
वीर को माया पर गुस्सा आ रहा था। वीर कालेज से सीधा माया के फ़्लैट पर पहुँच गया। माया ने दरवाज़ा खोला तो वह नहाकर आई थी। माया ने दरवाज़ा बन्द किया और बालकनी में जाकर बालों को सुखाने लगी। वीर को अगर गुस्सा नहीं आ रहा होता तो वह वही बालकनी में जाकर माया को सुखाते बालों को देखकर वही उसे बाँहो में भर लेता, लेकिन वीर का गुस्सा इतनी जल्दी शान्त होने वाला नहीं था। वीर बालकनी में गया और माया का हाथ पकड़कर उसे कमरे में ले आया। वीर ने माया से कहा कि अगर तुझे यहाँ मिलना था तो मुझे कालेज क्यों बुलाया और अगर तुझे वहाँ से अकेले आना था तो कम से कम वहाँ से निकलने से पहले फ़ोन कर देती, लेकिन तुमने यहाँ आने के बाद फ़ोन किया। माया कुछ कह पाती, उससे पहले ही वीर ने माया के गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा मार दिया। थप्पड़ इतनी ज़ोर से लगा कि कमरे में आवाज गूँज गई और माया की चीख़ निकल गई। वीर को भी अन्दाजा नहीं था कि उससे इतनी ज़ोर से थप्पड़ लग जाएगा। वीर माया पर फिर से अपना हक़ समझने लगा था। उसे लगा था कि वह जैसे चाहे माया के साथ बर्ताव कर सकता था। उसे पहले की तरह पीट भी सकता था, लेकिन माया वो माया नहीं थी अब। आज पहली बार माया की आंखों से आँसू नहीं निकले बल्कि माया को भी गुस्सा आ गया। माया ने वीर का कॉलर पकडा और वीर से कहा कि मैंने सोचा था कि तू बदल गया है, लेकिन तू अब भी पहले जैसा ही है। तूने पहले भी कभी मेरी मजबूरियाँ नहीं समझीं और आज भी नहीं समझी। मैंने सोचा था कि शायद अब तुम मुझे समझोगे, लेकिन मेरा ऐसा यक़ीन करना सब व्यर्थ था। अब आगे से तुझसे मिलना तो छोड़, बात तक भी नहीं करूँगी। माया ने वीर को कॉलर से पकड़े हुए ही घर से बाहर निकाल दिया।
वीर नीचे पार्किंग में गया और उसने अपनी कमीज़ ठीक की। वीर को अहसास हुआ कि उसने बहुत बड़ी ग़लती कर दी है। वह हर बार ऐसी गलतियाँ कैसे कर सकता है, लेकिन अब ग़लती फिर से दोहराई जा चुकी थी। माया से माफ़ी मांगने के लिए वीर ने बहुत बार फ़ोन किया, ‘सॉरी’ लिखकर मैसेज किया, लेकिन माया ने कोई जवाब नहीं दिया। वीर झुंझलाकर माया के फ़्लैट पर गया और दरवाज़ा पीटने लगा। काफ़ी देर दरवाज़ा खटखटाने और डोरबेल बजाने के बाद भी माया की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया। अंत में वीर वहाँ से निराश होकर दिल्ली लौट आया।
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