"क्यों, भई ?" - भाई की आवाज आयी - "तुम तो कहते थे ये तीन थे ?"


"मेरे पास तो तीन ही पहुंचे थे।" - ईरानी बोला - "मेरा ख्याल था कि यहां भी वो तीनों ही आयेंगे लेकिन...


"क्या लेकिन ?"


जवाब में ईरानी की आवाज न आयी ।


"डोंगरे ।”

"बोलो, बाप ।" - नयी आवाज आयी ।


"बाहर जा के देख । बाकी दो बाहर कहीं हो सकते हैं। वो कहीं इधर-उधर छुपे हुए हो सकते हैं। दो आदमी साथ ले के जा और पता कर । "


फिर फर्श पर पड़ते कई भारी कदमों की आवाज ।


“भाई सावन्त !” - ईरानी की आवाज आई - "मुझे अब इजाजत है ?"


- “अभी नहीं ।" - भाई सावन्त सख्ती से बोला - "अभी मेरे को पहले माल चौकस करना मांगता है । तुम्हारा भेजा वो साला गाडगिल कम्पनी का पचास लाख रुपया ले गया और जा के दिल को धड़का लगा लिया। धोखा किया कम्पनी के साथ । जा के मर गया । अब मैं पहले माल चौकस करना मांगता है। क्या पता माल उन दो आदमियों के पास हो जो इस एक के साथ नहीं आये ।"


"भाई, माल किसी के पास भी हो, अब तो तुम्हारे हाथ मे ही आना है । अब मेरा इधर क्या काम ?”


"कोई काम नहीं । पण अभी नहीं जाने का है । "


"लेकिन..."


"ज्यास्ती बात नहीं, ईरानी, ज्यास्ती बात नहीं । और जुबान चलाने का नहीं है । हाथ पांव चलाने का है । "


"क...... क्या करू ?"


" ट्रक में देखो । शायद माल उधर हो ।"


"मैं देखूं ?"


"

और कौन देखे ? माल की पहचान तुम्हारे सिवाय और किसको है ?"


"

ओह ।"

"जल्दी करो ।”


जीतसिंह पेटियों की ओट में और दुबक गया ।


ट्रक का पृष्ठभाग शटर के साथ जुड़ा हुआ था इसलिये ईरानी ऊपर की तिरपाल हटाकर ही ट्रक के भीतर कूद सकता था ।


जीतसिंह उसकी ऐसी किसी आमद के लिए तैयार हो गया।


तिरपाल का एक कोना हटा और फिर वहां से हांफता हुआ ईरानी ट्रक के भीतर टपका ।

तत्काल जीतसिंह ने रिवॉल्वर उसके माथे के साथ सटा दी और उसके कान में फुसफुसाया - "आवाज न निकले । आवाज निकाली तो हम दोनों मर जायेंगे। लेकिन पहले तू मरेगा, साले धोखेबाज । "


ईरानी के होश उड़ गये । उसका शरीर यूं सामने को झुका जैसे बेहोश होकर मुंह के बल गिरने लगा हो । जीतसिंह ने उसे उसके सिर के बालों से पकड़कर सीधा किया । ईरानी का चेहरा पीड़ा से विकृत हो उठा और पीड़ा की वजह से ही उसके होश ठिकाने आने लगे । उसने आतंकित भाव से जीतसिंह की तरफ देखा । |


"अरे, क्या सो गये हो भीतर जा के ?" - बाहर से आवाज आयी ।


"कह, अभी देख रहे हो।" - जीतसिंह ईरानी के कान में फुसफुसाया । साथ ही उसने उसके बालों को जोर से खींचा।


"

अभी देख रहा हूं।" - ईरानी उच्च स्वर में बोला ।


"क्यों ?" - बाहर पूछा गया ।


"यहां कई पेटियां हैं । खोल खोल के देखनी पड़ेंगी।" - जीतसिंह बोला ।


“कई पेटियां हैं ।” - ईरानी ने दोहराया - "खोल खोल के देखनी पड़ेंगी ।"


“जल्दी करो ।" - बाहर से आवाज आयी ।


"धोखा क्यों किया ?" - जीतसिंह दांत पीसता-सा ईरानी के कान में बोला ।


"मजबूरी थी ।" - ईरानी कांपते स्वर में बोला - "कम्पनी में कर्जे के लिये गाडगिल की सिफारिश मैंने की थी। गाडगिल मर गया तो भाई सावन्त अपनी रकम के लिये मुझे जिम्मेदार ठहराने लगा । मेरे को पकड़ मंगवाया उसने । मजबूरन मुझे सब कुछ उसे बताना पड़ा ।"


“अब मूर्तियां कम्पनी हथियाना चाहती है ?”


"

भाई सावन्त हथियाना चाहता है वरना कम्पनी में उसकी नाक नीची होगी कि उसकी वजह से कम्पनी का पचास लाख रूपया डूब गया ।"


"ईरानी ।" - बाहर से झुंझलाई हुई आवाज आयी - "अरे, भीतर जिन्दा है या मर गया ?"


"बोलो तुम्हें मदद की जरूरत है।" - जीतसिंह बोला ।


" तुम क्या करोगे ?"


"सामने आ जायेगा । जो कहा है, करो।"


"मुझे यहां मदद की जरूरत है।" - ईरानी उच्च स्वर में बोला ।


"क्यों ?"


"कई पेटियां हैं।" - जीतसिंह फुसफुसाया ।


"कई पेटियां हैं, भाई । सबको मैं अकेला खोलूंगा तो टाइम तो लगेगा ही । "

“शाबाश ।” - जीतसिंह बोला ।


"बाप" - तभी डोंगरे की आवाज आयी- "बाहर कोई नहीं है। डोंगरे बाहर गया था और लौट आया था - जीतसिंह ने सोचा - जबकि शटर बन्द था । इसका मतलब था कि बाहर निकलने का कोई और भी रास्ता था ।


शायद केबिन के भीतर से ।


"कमाल है।" - भाई सावन्त की आवाज आयी "अकेला आदमी ट्रक लेकर आया ।" -


"ऐसा ही लगता है ।"


"डोंगरे, अपना ईरानी भीतर ट्रक में है और मदद मदद चिला रहा है । जाके देख वो कुछ कर भी रहा है कि ऐसे ही खाली-पीली बोम मार रहा है । "


"अभी देखता है बाप । "


लेकिन डोंगरे नाम का शख्स ईरानी की तरह छत के रास्ते भीतर न टपका । वो ज्यादा समझदार था जो कि ट्रक की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा । जाहिर था कि वो ट्रक को आगे सरकाना चाहता था ताकि शटर के साथ जुड़ा पड़ा उसका पिछला हिसा शटर से दूर हो जाता और वो उधर से आराम से भीतर चढ़ आता ।


ट्रक के इंजन ने खर्र-खर्र की आवाज की और खामोश हो गया ।

कई बार ऐसा हुआ । इंजन स्टार्ट न हो पाया ।


"ये तो बिगड़ गया ।" - डोंगरे की आवाज आयी ।


"कोई वान्दा नहीं ।" - भाई सावन्त की आवाज आयी "शटर उठाओ ।" -


कुछ क्षण बाद शटर धीरे धीरे उठने लगा ।


जाहिर था कि उसका संचालन बिजली की मोटर से होता था


शटर एक तिहाई उठकर रुक गया । अब उसका निचला सिरा ट्रक के फर्श से कोई दो फुट ऊपर रुका हुआ था ।


उधर एक साया प्रकट हुआ ।


जीतसिंह ने जोर से रिवॉल्वर की मूठ का प्रहार ईरानी की खोपड़ी पर किया । ईरानी के मुंह से बोल भी न फूटा और वो अचेत होकर मुंह के बल लुढ़क गया ।


" ईरानी ?" - डोंगरे बोला ।


"इधर" - जीतसिंह भरसक ईरानी के स्वर की नकल करता हुआ बोला ।


साया, जो कि डोंगरे था, ट्रक में चढ़ आया । वो ट्रक के पृष्ठ भाग में पहुंचा तो उसने रिवॉल्वर की नाल को अपनी तरफ झांकते पाया ।


"

ओह ।" - डोंगरे निडर भाव से बोला - " तो तू यहां छुपा हुआ है । "

"हां"

"तीसरा कहां है ?"


"तीसरा नहीं है ।"


"तेरा जोड़ीदार तो मर गया। अब तू क्या करेगा ?"


" मैं भी मर जाऊंगा। लेकिन पहले तुझे मारकर और बाहर मौजूद ज्यादा से ज्यादा लोगों को मारकर । "


"बेवकूफी करेगा । तेरी हमारी क्या अदावत है ? तू बेशक यहां से चलता बन । तेरे को कोई कुछ नहीं बोलेगा ।"


"माल पीछे छोड़कर ?"


"हां । माल छोड़ेगा तो जान बचायेगा न ? माल के पीछे पड़ेगा तो जान भी चली जायेगी ।"


जीतसिंह सोचने लगा ।


"तू यहां बैठा नहीं रह सकता ।" - डोंगरे यूं बोला जैसे किसी बच्चे को समझा रहा हो- "तू मुझे यहां रोके भी नहीं रख सकता । हमारा बॉस बेवकूफ नहीं इ । ट्रक में मेरे दाखिल हो जाने के बाद भी उसे कोई नतीजा सामने नहीं आता दिखाई देगा तो वो समझ जायेगा कि कोई गड़बड़ थी । वो समझ जायेगा जिस आदमी की तलाश में उसने बहार सड़क पर आदमी भेजे थे वो भीतर ट्रक में मौजूद था। फिर तेरी हालत यहां पिंजरे में फंसे चूहे जैसी होगी ।"


"अपने बॉस को आवाज देकर इधर बुला ।”

डोंगरे के नेत्र फैले ।


"तू" - वो बोला- "तू भाई पर हाथ डालना मांगता है ?" "बुला ।"


'भाई सावन्त कोई मामूली आदमी नहीं, वो कम्पनी का बड़ा ओहदेदार है। उस पर हाथ डालने का मतलब जानता है ? मतलब है कम्पनी से बैर मोल लेना । फिर तेरा क्या होगा, जानता है या बताऊं ?"


"जानता हूं। मैं अभी मरा या ठहर के मरा, क्या फर्क पड़ेगा ?"


"डोंगरे !" - बाहर से भाई सावन्त की झुंझलाई आवाज आयी - "तेरे पर भी साला ईरानी की सोहबत का असर हो गया । तू भी अन्दर ही जाकर बैठ गया ।'


"उसे बुला ।" - जीतसिंह रिवॉल्वर की नाल उसकी पसलियों में चुभोता बोला- "वो न आना चाहे तो भी बुला किसी बहाने से । वर्ना मैं गोली चलाता हूं।"


“तू मरेगा ।”

"तेरे बाद ।”


“बाप !” - डोंगरे उच्च स्वर में बोला- "जरा इधर आने का है ।"


“इधर किधर ?” - भाई सावन्त ने पूछा ।


"टिरक के पीछू ।"

"क्यों ?"


"तुम्हेरे को, सिर्फ तुम्हेरे को कुछ दिखाने का है।"


फर्श पर पड़ते कदमों की आवाज हुई ।


"फर्श पर लेट ।" - ह बोला - "मुंह के बल ।”


डोंगरे ने आदेश का पालन किया ।


जीतसिंह ने उसकी जेब से रिवॉल्वर निकालकर अपने दूसरे हाथ में थाम ली और वो ट्रक के पृष्ठभाग में सरक गया ।


भाई सावन्त उधर प्रकट हुआ। वो आंखें फाड़-फाड़कर ट्रक के भीतर देखने लगा ।


"डोंगरे !" - वो झुंझलाया - सा बोला- "किधर है ?"


जीतसिंह ने ट्रक के बाहर छलांग लगायी, उसने एक बांह भाई की गर्दन के गिर्द लपेट दी थी, रिवॉल्वर से हवा में दो फायर किये और चिल्लाकर बोला - "तुम्हारा बड़ा साहब मेरे कब्जे में है। किसी ने कोई शरारत की तो ये गोली खा जायेगा ।"


गोदाम में मौजूद प्यादों को जैसे सांप सूंघ गया ।


"माल किधर है ?" - जीतसिंह भाई सावन्त से बोला ।


"वो तो तेरे पास है ।" - भाई सावन्त बोला ।


"मूर्तियां नहीं । माल से मिलने वाला माल । रोकड़ा । साठ लाख रूपया।"

"तू पागल है । वो रोकड़ा तेरे को मूर्तियों के ग्राहक से मिलना था । ग्राहक इधर किधर है ? ग्राहक इधर कैसे होता ? ग्राहक का इधर क्या काम ? इधर तो हम हैं ।"


जीतसिंह हकबकाया ।


"मैं" - उसके मुंह से निकला - "मूर्तियां वापस ले जाऊंगा।”

"कैसे ? सिर पर उठाकर ? ट्रक तो चलता नहीं । "


"

आप इतने साहब लोग इधर हैं । इधर आप लोगों की कोई गाडी-वाड़ी क्यों नहीं है ? "


भाई सावन्त ने जवाब न दिया ।


"ईरानी क्या प्रभादेवी से इधर पैदल आया ? बड़े साहब, मैं जवाब का इन्तजार कर रहा हूं। और इस बार मैं फायर हवा में नहीं करूंगा, आपकी बाडी में करूंगा। समझे ?"


- “होटल सी-व्यू कम्पनी का है।" - भाई सावन्त कठिन स्वर में बोला, उसके लिए वो मौत की घड़ी थी कि एक मामूली हलकट के हाथों उसके प्यादों के सामने उसकी मिट्टी पलीत हो रही थी ।


"तो ?"


"इस इमारत से होटल तक एक अंडरग्राउंड रास्ता है । हम उसी रास्ते पहुंचे थे । गाड़ियां वहां होटल की पार्किंग में खड़ी हैं। "


"हूं । शटर गिराए जाने का हुक्म दीजिये ।"

"शटर बंद कर दो।"


मोटर चलने की आवाज हुई । शटर धीरे धीरे नीचे सरकता बंद हो गया । मोटर की आवाज भी बंद हो गयी ।


"तू बेवकूफ है" - भाई सावन्त बोला - "जो कम्पनी से पंगा ले रहा है । तेरी हमारी कोई अदावत नहीं । तू अभी इधर से जा सकता है । तेरे को कोई नहीं रोकेगा ।”


"मैं पीठ में गोली नहीं खाना चाहता ।"


"तेरे पर कोई गोली नहीं चलाएगा । बोला न तेरे से हमारी कोई अदावत नही ।"


"मेरे साथी से भी तो तुम्हारी कोई अदावत नहीं थी ?"


"बरोबर बोला । पण वो इधर से टक समेत भाग निकलना मांगता था । उसको रोकने को गोली चलाना पड़ा जिसमें वो मर गया ।”


जीतसिंह खामोश रहा ।


"तू बहादुर आदमी है। तू भाई सावन्त पर हाथ डाला । भाई सावन्त बहादुर आदमी की कद्र करता है। समझ तेरी जिंदगी तेरे को इनाम में दिया। अब इस इनाम को कैश कर और यहां से खिसक जा । "


" आप अपने अंडरग्राउंड रास्ते से मेरे साथ होटल चल रहे हैं । मूर्तियों की पेटी उठाकर । "


" भेजा फिरेला है ? कम्पनी का ओहदेदार कहीं वजन उठाता है ?"

"वजन मैं उठाऊंगा।"


"तो तेरी औकात भाई सावन्त के साथ चलने के काबिल नहीं रहेगी।"


"किसी आदमी को कहिये वो पेटी उठाकर हमारे साथ चले |"


"तू अकेला दो आदमियों पर निगाह नहीं रख सकेगा । तू शर्तिया मारा जाएगा । तू सुरंग में ही मारा जायेगा ।"


हे भगवान ! - जीतसिंह असहाय भाव से गर्दन हिलाता मन-ही-मन बोला - ये क्या गोरखधन्धा है ! क्यों मेरी पेश नहीं चल रही !


फिर उसने फैसला किया कि मूर्तियों का गम खाने में ही उस घड़ी उसकी भलाई थी ।


"आप" - वो सख्ती से बोला- "अंडरग्राउंड रास्ते से मेरे साथ होटल चलेंगे।"


“पण...” - भाई सावन्त ने कहना चाहा ।


“नो पण । आप बहादुर आदमी की कद्र करते हैं तो उसकी खातिर ये छोटी-सी जहमत उठा लीजिये। मुझे होटल के रास्ते यहां से रुखसत करके आइये । अकेले । अपने आदमियों को कह दीजिये कि उस दौरान कोई यहां से न हिले । कोई हमारे पीछे न आये । कोई शटर उठाकर बहार सड़क पर न निकले । जल्दी कीजिये। मेरे सब्र का प्याला छलक रहा है। मैं बौखलाकर भी गोली चला सकता हूं।"

भाई सावन्त के पास आदेश पालन करने के अलावा कोई चारा नहीं था ।


***