“ब - ब्लड ?” राजदान बिस्तर से उछल पड़ा--- "मेरा ब्लड ले लिया डाक्टर भट्टाचार्य ने।”


दिव्या ने कहा --- “कह तो यही रहा था देवांश ।”


“मगर क्यों ? ” गुस्से की ज्यादती के कारण राजदान चीख-सा पड़ा---“क्यों लेने दिया ब्लड ? क्या तुम जानती नहीं उसने पी. सीआर. टेस्ट कर लिया तो क्या होगा ?”


“यह बात ऑफिस की है। मैं वहां नहीं थी । मुझे तो देवांश ने तब बताया जब आपको बेहोश हालत में लेकर यहां आया। स्टाफ ने डॉक्टर भट्टाचार्य को बुला लिया था । आपको चैक करने के बाद उसने कहा --- 'खांसते-खांसते बेहोश होने का कारण समझ में नहीं आ रहा है, ब्लड टेस्ट करना पड़ेगा ।”


“उफ्फ ! ... वह बात 'आम' होती जा रही है जिसे मैं छुपाना चाहता था।” कसमसाता हुआ राजदान मानो खुद ही से कह रहा था --- “पी. सी. आर. टेस्ट कर लिया तो उसे पता लग जायेगा मुझे एड्स है। उसे यह टेस्ट करने से रोकना होगा । फोन दो मुझे । ”


दिव्या ने 'तिपाई' से कॉर्डलेस उठाकर उसे दे दिया।


राजदान बेचैन नजर आ रहा था । बड़ी तेजी से भट्टाचार्य के क्लिनिक का नम्बर मिलाया । दूसरी तरफ से रिसीवर उठाया गया ।


भट्टाचार्य की आवाज उभरी --- “यस!”


“मैं बोल रहा हूं भट्टाचार्य ।”


“ओह! होश आ गया तुझे ?”


“ब्लड कहां है मेरा ?”


“लेबोरेट्री में ।”


“क्या टेस्ट करना चाहते हो ?”


“मेरी जिन्दगी का यह पहला केस है जब कोई शख्स

खांसता-खांसता बेहोश हो गया । कारण समझ से बाहर शायद टेस्ट से पता लगे ।”


“मुझे नहीं कराना टेस्ट ।” राजदान ने कहा --- “फौरन यहां ले आ मेरा ब्लड ।”


“ये क्या बात हुई? क्यों नहीं कराना टेस्ट ?”


“बहस मत कर यार । नहीं कराना तो नहीं कराना । ब्लड लेकर फौरन वापस आ जा तू ।”


“ अजीब बात है, ब्लड न हुआ - - - समुद्र मंथन के बाद निकला अमृत हो गया। ऑफिस में जब ब्लड ले रहा था तो देवांश ने विरोध किया । विरोध भी इतना ज्यादा कि मैंने किसी को करते नहीं देखा ।”


चौंका राजदान --- “छोटे ने विरोध किया ?”


“मगर मैंने एक नहीं सुनी उसकी । डॉक्टर हूं, फर्ज तो निभाना ही था और अब तू ब्लड के लिए मरा जा रहा है । अरे, छटांकभर खून निकलने से मर नहीं जायेगा तू । वैसे भी, अब वापस तो चढ़ाया नहीं जा सकता। फिर करेगा क्या उसका?”


“ मैं नहीं चाहता मेरा ब्लड टेस्ट हो ।”


“मगर क्यों - आखिर डाऊट क्या है तुझे और देवांश को?"


“कोई डाऊट नहीं है यार, इतनी गहराई में क्यों जा रहा है?” उत्तेजित अवस्था में कहते कहते राजदान ने नियंत्रित किया । थोड़े संयत स्वर में बोला “अच्छा, ब्लड को लेकर यहां आ तो सही सबकुछ बताता हूं तुझे।" 


“ओ. के. ।” भट्टाचार्य ने हथियार डालते हुए कहा - "आ रहा हूं।" 


राजदान ने कॉर्डलैस ऑफ करके बैड पर डाल दिया। उसकी आंखें दिव्या के चेहरे पर जम गई थीं। कुछ ऐसे अंदाज में घूर रहा था वह कि दिव्या को अपने सम्पूर्ण जिस्म में सर्द लहर दौड़ती महसूस हुई। राजदान को जीवन में पहली बार अपनी तरफ शकभरी नजरों से देखते पाया था उसने । काफी देर तक जब वह कुछ बोला नहीं, केवल घूरता रहा तो दिव्या को अपनी घबराहट छुपाने के लिए पूछना पड़ा--- " ऐसे क्या देख रहे हो?”


बड़े ही सपाट लहजे में पूछा उसने --- "छोटे को एड्स के बारे में तुमने बताया ?”


“म- मैंने?” दिव्या बुरी तरह हकला गई - - - “न- नहीं तो।”


राजदान के हलक से गुर्राहट - सी निकली --- “झूठ बोल रही हो तुम!” 


“झ झूठ ?... भ-भला मैं झूठ क्यों बोलने लगी राज?” - -


“तो कैसे पता लगा उसे ?”


“क- कैसे कह सकते हो उसे पता है ?” 


“भट्टाचार्य जब ब्लड ले रहा था तो उसने विरोध किया, क्यों?”


“म - मैं क्या कह सकती हूं इसके बारे में?” घबराई हुई दिव्या इसके अलावा और कहती भी क्या --- “ये तो वही बता सकता है ।”


“बात ठीक है तुम्हारी । वही बता सकता है ।” राजदान ने उसे स्थिर नजरों से घूरते हुए कहा --- " है कहां इस वक्त ?”


“कुछ देर पहले फ्रैश होने अपने कमरे में गया ।” कहने के साथ वह दरवाजे की तरफ बढ़ती हुई बोली --- "अभी बुलाकर लाती हूं।”


“ठहरो !” राजदान के लहजे में गुर्राहट सी थी ।


जहां की वहां ठिठक गई दिव्या ।


रोकने की लाख चेष्टाओं के बावजूद जिस्म कांपने लगा था।


“मेरी तरफ घूमो ।” राजदान ने हुक्म-सा दिया ।


दिव्या का दिल बहुत जोर-जोर से धड़कने लगा था। उसे लग रहा था --- वह राजदान की शकभरी आंखों का सामना नहीं कर सकेगी मगर राजदान ने हुक्म भी कुछ इस तरह जारी किया था कि अवहेलना नहीं कर सकती थी। जी चाह रहा था भाग जाये यहां से लेकिन जानती थी इससे राजदान का शक और गाढ़ा हो जायेगा । अतः खुद को नियंत्रित रखने के हजार-हजार प्रयत्न करती पलटी। हालांकि इस वक्त वह अपना चेहरा नहीं देख सकती थी। मगर महसूस जरूर कर रही थी कि चेहरे पर उड़ती हवाइयों को वह काबू में नहीं रख पा रही है ।


राजदान की आंखों से निकली किरणें जैसे उसके जिस्म को बेंधकर सीधी दिलो-दिमाग को देख रही थीं। एकाएक उसने राजदान को मुस्कराते पाया । बड़ी ही गहरी मुस्कान के साथ कहा था उसने --- “छोटे से काम के लिए तुम्हें कष्ट करने की क्या जरूरत है ?”


दिव्या कोशिश के बावजूद मुंह से आवाज न निकाल सकी।


राजदान ने इन्टरकॉम का रिसीवर उठाया । आफताब से

देवांश को भेजने के लिए कहा और वापस रख दिया। अब वह बैड से उठा | सिगार सुलगाया, बोला- - - “ हकबकाई --- क्यों खड़ी हो ? आराम से सोफे पर बैठो ।” 


हिम्मत करके दिव्या ने कहा - -- “मैं पहली बार आपको, अपने पर शक करते महसूस कर रही हूं ।”


“ मैंने भी पहली बार तुम्हें झूठ बोलते महसूस किया है।”


दिव्या के जवाब से पहले दौड़ता भागता देवांश कमरे में दाखिल हुआ। राजदान पर नजर पड़ते ही बोला--- "थैंक्स गॉड! आपको होश आ गया | मगर... आप खड़े क्यों हैं । लेट जाओ भैया ।”


“इतनी कमजोरी महसूस नहीं कर रहा है मैं ।”


“आपको शायद याद नहीं, किस कदर जोर से खांसी उठी थी ? बेहोश हो गये थे आप ।”


“भट्टाचार्य ने मेरा खून लेना चाहा ।”


“चाहा क्या, ले ही लिया उन्होंने ।”


“तेरे विरोध के बावजूद -” 


देवांश के मुंह से फ्लो में निकला --- “हां । ”


“क्यों?... क्यों किया तूने विरोध ?”


“म-मतलब?” देवांश बौखला गया ।


“सवाल बहुत सीधा है छोटे । बौखला क्यों रहा है? टेस्ट के लिए डॉक्टर द्वारा ब्लड लेना इतनी आम घटना है जिसका विरोध पेशेन्ट का कोई सगा - सम्बन्धी नहीं करता । बल्कि चाहता है जिस बीमारी का पता नहीं लग रहा उसका टेस्ट से ही पता लग जाये । और भी लोग रहे होंगे वहां । पूरा स्टाफ रहा होगा। भट्टाचार्य का कहना है, तेरे अलावा किसी ने विरोध नहीं किया । तेरे विरोध पर भट्टाचार्य ही नहीं, बाकी लोग भी हैरान रह गये होंगे । बात है भी हैरानी की, मैं खुद हैरान हूं | ब्लड लेने का इतना विरोध क्यों किया तूने?”


हड़बड़ाकर देवांश ने दिव्या की तरफ देखा ।


“उधर नहीं छोटे ।” राजदान ने टोका --- “इधर... मेरी आंखों में देखकर जवाब दे । क्या कारण था विरोध का? भट्टाचार्य ने मेरे जिस्मसेछटांक भर खून निकाल ही लिया तो क्या गजब...


“आप तो पीछे ही पड़ गये छोटी सी बात के । सुनना ही

चाहते हैं तो सुनिए ।” दिव्या जैसे फट पड़ी --- “मैंने बताया था देवांश को । नहीं बताती तो क्या करती? क्या करती मैं? घुटती रहती अकेली अंदर ही अंदर ? आखिर क्या गलत किया मैंने ?”


“मैंने कब कहा तुमने गलत किया ?”


“तो क्यों बात का बतंगड़ बना रहे हैं?”


“बात झूठ ने बढ़ाई है दिव्या । पहले ही कह देतीं तुमने छोटे को बता दिया है तो कोई बात ही नहीं थी। हां, दुख जरूर होता कि जब मैंने मना किया तो तुमने क्यों बताया ?”


“आप सिर्फ अपने दुख के बारे में सोचते हैं भैया । यह नहीं सोचते आपकी कौन-सी हरकत से सामने वाले को कितना दुख होगा।” लाइन पकड़ते ही देवांश कहता चला गया --- “यह क्यों नहीं सोचा आपने कि आपके एक 'छुपाव' से मुझे कितना दुख होगा ? क्या मुझे इस घर की किसी ? समस्या के बारे में जानने का हक नहीं है ?”


“पागल है तू। ... निरा पागल । भला तुझे कौन-सा हक नहीं है घर में?”


“तो क्यों छुपाई मुझसे इतनी बड़ी बीमारी? क्यों नहीं किया मुझे अपने दुख में शरीक ? क्या इतना भी हक नहीं है मेरा ?


आपसे अच्छी तो भाभी हैं। कम से कम अपना तो समझा मुझे। तभी तो अपना दुख मेरे साथ बांटा । एक आप हैं, इस पर भी ताना दे रहे हैं भाभी को । अरे बताती नहीं तो क्या करतीं? घुट-घुटकर मर जातीं अकेली । ”


“मुझे माफ कर दो राज ... माफ कर दो मुझे ।” कहने के साथ दिव्या सचमुच उसके कदमों से आ लिपटी ।


“अरे! अरे! ये क्या कर रही हो दिव्या ?” बौखलाकर राजदान ने उसे अपने कदमों से उठाया । रोती हुई दिव्या ने कहा--- “देवांश को बताने के पीछे कोई दुर्भावना नहीं थी मेरी । बस इतने बड़े गम का बोझ अकेले न उठा सकी।”


“ठीक कहा तुमने । मुझे यह सोचना चाहिए था इतने बड़े बड़े दुख का बोझ तुम अकेली कैसे उठाओगी? और छोटे... सचमुच मैंने इस घर की हर समस्या से तेरे अवगत होने के अधिकार में सेंध लगाई है मगर बेटे, बताना केवल इसलिए नहीं चाहता था कहीं मुझसे पहले तू ही टूटकर न बिखर जाये । तुझे बहुत हिफाजत से रखना चाहता हूं मैं| उतनी ही हिफाजत से जितनी हिफाजत से एक मां अपने बच्चे को रखती है । "


“इतना ही प्यार मैं भी करता हूं आपसे ।” देवांश ने कहा --- “ और मैं आपको इतनी आसानी से मरने नहीं दूंगा।"


"देख । इसलिए नहीं बताना चाहता था मैं तुझे । अब तू मेरे इलाज के बारे में सोचेगा । भागदौड़ करेगा सारी दुनिया में । मगर ये बेवकूफी होगी छोटे | पढ़ा-लिखा है यार तू | जानता है दुनिया के किसी कोने में एड्स का इलाज नहीं है। फिर इस दिशा में सोचने से क्या फायदा...


कमरे में भट्टाचार्य की आवाज गूंजी--- “तो इस वजह से तू ब्लड के लिए मरा जा रहा था ? "


तीनों ने चौंककर दरवाजे की तरफ देखा ।


वहां डॉक्टर भट्टाचार्य को खड़ा देखकर सन्नाटा-सा छा गया तीनों पर ।


इस एहसास ने किसी के मुंह से बोल न निकलने दिया कि भट्टाचार्य ‘एड्स’ के बारे में जान गया है। आगे बढ़ते हुए उसी ने कहा --- “ये कैसे समझ लिया तूने कि तेरी मौत निश्चित हो गयी है?"


“देख भट्टाचार्य।” राजदान बोला--- "इस बात का जिक्र तू और किसी से नहीं करेगा ।”


“पहले मेरे सवाल का जवाब दे । ”


“क्या आज तक कोई डॉक्टर एड्स के किसी मरीज को बचा सका है?”


"यकीनन नहीं ।”


"फिर?”


“ बात ठीक है, अभी तक किसी को इस बीमारी से पूरी तरह बचा लेने वाली दवा नहीं बनी है। मगर...


“मगर?”


“ ऐसी दवाएं हैं, जिनसे हम मरीज की लाइफ बढ़ा सकते हैं यानी मरीज अगर छह महीने में मरने वाला हो तो उसे एक साल, डेढ़ साल, दो साल तक जीवित रखा जा सकता है ।”


"बस ?” व्यंग्य सा किया राजदान ने --- “उसके बाद वह मर जायेगा | फायदा क्या हुआ तेरी इस बकवास का ? सिर्फ इतना ही कि जो छह महीने में मरने वाला था वह दो साल में मर जायेगा।”


“मुमकिन है बच भी जाये।”


“वह कैसे ?"


"देख राज, झूठ नहीं बोलूंगा तुझसे । जो हकीकत है वही बताऊंगा।” भट्टाचार्य कहता चला गया --- “सारी दुनिया, दुनिया के महानतम वैज्ञानिक एड्स के पीछे पड़े हुए हैं । दिन-रात ऐसी दवाओं का आविष्कार करने की कोशिश की जा रही है जिससे एड्स के मरीज को बचाया जा सके। एक न एक दिन तो कामयाबी मिलेगी ही। क्या पता वह कामयाब हो जायें । अब जरा सोच, अगर यह सोचकर तुझे कोई दवा ही न दी जाये कि मरना तो है ही, तू छह महीने के अंदर मर जाता है और मौत के एक दिन बाद खबर आती है एड्स का इलाज खोज लिया गया है तो क्या होगा ?”


“क्या होगा ?”


“माथा पीटते रह जायेंगे हम सब | यह सोचकर कि अगर दवाएं दी गयी होतीं तो तू इतनी जल्दी नहीं मरता और आज, जबकि एड्स की दवा बन चुकी है, तुझे पूरी तरह बचाया जा सकता था।"


“अगर दवा का आविष्कार उसके एक दिन बाद हुआ जब मैं तेरी दवाएं लेने के बावजूद मरा यानी लगभग दो साल बाद?”


“पहली स्थिति में हमें छह महीने मिलेंगे। दूसरी में दो साल।”


“मैं कहता हूं दवा नहीं भी बन पाती ।” उत्साह से भरे देवांश ने कहा--- " तब भी यही क्या कम है कि आप हमारे साथ डेढ़ साल ज्यादा रहेंगे? हमें आपके साथ की जरूरत है भैया ।”


दिव्या बोली---“मैंने पहले ही कहा था भट्टाचार्य भाईसाहब को बता दो । मुमकिन है कोई रास्ता निकल आये । मगर ये माने ही नहीं। दवाओं से इनकी लाइफ एक दिन भी बढ़ जाती है तो मेरे लिए वह काफी है।... भाईसाहब, अगर ऐसी दवाएं हैं तो आज ही से देना शुरू कर दीजिए | इनकी जिन्दगी का हरेक दिन आपका मुझ पर एहसान होगा । ”


राजदान ने भट्टाचार्य से कहा--- " यानी तूने अपना जादू इन पर चला ही दिया ।”


“यह जादू नहीं, हकीकत है दोस्त । एक ऐसी हकीकत जिसे स्वीकार करते ही तेरी लाइफ बढ़नी शुरू हो जायेगी। विश्वास रख, अपनी दवाओं से मैं तुझे तब तक जिन्दा रखूंगा जब तक दुनिया का कोई वैज्ञानिक एड्स की दवा न खोज निकाले और उसके बाद ... तुझे कम से कम एड्स से नहीं मरने दिया जायेगा ।”


“ओ. के. । ... एक शर्त पर इलाज कराऊंगा मैं तुझसे । ”


“इनकी कोई शर्त मत सुनिए भाईसाहब ।” देवांश कह उठा ---“बस इलाज शुरू कर दीजिए । ”


“बुराई कुछ नहीं है शर्त सुनने में ।” कहने के बाद वह राजदान से मुखातिब होता बोला--- "बोल याड़ी | क्या शर्त है तेरी?”


“तू इस बीमारी के बारे में बाहर किसी को नहीं बतायेगा।”


“ऐसा भला हो सकता है कि तू कोई बात कहे और मैं न मानूं?” कहने के साथ भट्टाचार्य ने बड़ी गर्मजोशी के साथ उसका कंधा दबाया था ।


***


“इंस्पैक्टर साहब ।” मौत की आशंका से घिरी शांतिबाई की आवाज कांप रही थी --- “इतनी रात गये आप हमें कहां ले जा रहे हैं?”


“सिर्फ हाथ-पैर बांध रखे हैं तुम्हारे । चक्षुओं पर पट्टी नहीं चढ़ा रखी । फिर देख क्यों नहीं सकतीं कि चांदनी रात में नौका विहार कर रहे हैं हम | वाह ! आनन्द ही अनूठा है इस सफर का ।” स्टीमर ड्राइव करते ठकरियाल ने शायराना अंदाज में कहा --- “क्या शानदार नजारा है । आकाश के


मस्तक पर दमकता चांदी के थाल जैसा चन्द्रमा । दृष्टि के अंतिम छोर तक बिखरी चांदनी और चारों तरफ समुद्र । किनारे का दूर-दूर तक पता नहीं है। होगा भी कैसे --- बैण्ड स्टैण्ड से पच्चीस किलोमीटर दूर निकल आये हैं हम। लहरें यूं उछल रही हैं जैसे जम्प लगाकर चांद को छू लेना चाहती हैं। इनके गर्जने का शोर कितना भला लग रहा है कानों के पर्दों को ।”


“ पर हमारी मंजिल आखिर है कहां ?”


“इतनी बेचैन हो रही हो तो ये लो।” कहने के साथ उसने इंजन ऑफ कर दिया --- “जहां पहुंच गये हैं इसी को मंजिल समझ लो ।”


अपनी गति के कारण स्टीमर कुछ और दूर उसी दिशा में बढ़ा, फिर रुक गया।


रुक क्या गया --- सागर की उफनती लहरों पर हिचकोले से खाने लगा। पानी की दीवारें रह-रहकर दौड़ती हुई आतीं। स्टीमर से टकरातीं और बिखरती हुई दूसरी तरफ जा गिरतीं ।


लहरों का यह क्रम अनवरत जारी था।


शांतिबाई, विचित्रा और ठकरियाल पूरी तरह भीगे हुए थे।


ठकरियाल ड्राइविंग सीट से हटा । डगमगाते स्टीमर के फर्श पर बैलेंस बनाता पिछले हिस्से में मौजूद उन कुर्सियों के नजदीक पहुंचा जिनके साथ वे एक रस्सी की मदद से बंधी हुई थीं । शांतिबाई ने पूछा---“आपने हमें बांध क्यों रखा है हुजूर ?”


“लो - - - पहले क्यों नहीं कहा तुमने ? आपत्ति है तो खोल देता हूं।” कहने के बाद उसने सचमुच दोनों को रस्सी के बंधन से मुक्त कर दिया ।


आजाद होते ही शांतिबाई ने पूछा--- " आप हमें यहां क्यों लाये हैं?”


“खलास करने ।” आराम से कहने के साथ ठकरियाल ने जेब से रिवाल्वर निकाल लिया ।


सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई दोनों की । आखिर वह आशंका सच निकली जो पिछले दो घण्टे से उनके दिमाग में 'मंथ' रही थी । कोशिश के बावजूद उनके मुंह से आवाज न निकल सकी।


ठकरियाल ने कहा---“काफी खोपड़ी घुमाई मैंने सोच रहा था ---दोनों को एक साथ मार दूंगा तो क्रियाकर्म कौन करेगा तुम्हारा ? भरी दुनिया में अकेली हो । अब सोचता हूं---यही जगह ठीक रहेगी। आहार भी मिल जायेगा मछलियों को । और तुम्हारे लिए भी यही अच्छा रहेगा। बहुत पाप किये हैं तुमने । शायद मछलियों की दुआओं से ही जन्नत में एन्ट्री मिल जाये ।”


“म - मगर ।” विचित्रा की आवाज शांतिबाई से कहीं ज्यादा कांप रही थी --- “अब क्यों मारना चाहते हो तुम हमें? सारी शर्तें तो मान लीं तुम्हारी । सब कुछ बता दिया है --- यह भी कि देवांश को किस तरह दिव्या के निप्पल्स पर जहर पहुंचाना था।”


“ उसी का हुक्म हुआ है ये सब करने का । ”


"देवांश का ?”


“दोनों भाइयों का । संयुक्त ।" बड़े ही लच्छेदार अंदाज में बात कर रहा था ठकरियाल --- “जैसे ही बड़े भाई ने छोटे भाई को तुम्हारी हकीकत बताई, छोटा यमराज की तरफ फुंफकारा । वह पट्ठा तो अपने ही हाथ से गर्दन मरोड़ने का तलबगार था तुम्हारी, मगर 'बड़ा' होशियार है, बोला---'पैसे वाले खुद अपने हाथ खून से नहीं रंगा करते। पैसे के बल पर कराते हैं ऐसे काम । ”


“म... मगर तुम कामथ की तरह भ्रष्ट पुलिसिए नहीं हो ।”


शांतिबाई ने कहा --- “होते... तो हम ही ने अपना पार्टनर बनाने का ऑफर दिया था । उसे क्यों ठुकराते ?”


“एक तो तू औरत । ऊपर से रंडी । यानी अकल से तेरा कोई सरोकार नहीं हो सकता । तुम्हारा पार्टनर बनने में क्या मिलता मुझे? तुम तो खुद कंगली हो । होशियार आदमी उधर लार टपकाता है बाई जी जिधर वास्तव में नावा हो । पिचहत्तर लाख मिले हैं मुझे । तुम सोच सकती थीं कभी इतना देने की? उसके आदमी ने मेरे घर पहुंचा दिए, तब यहां की सैर कराने लाया हूं तुम्हें । ”


होश उड़ गये उनके । कोशिश के बावजूद मुंह से आवाज न निकाल सकीं।


ठकरियाल पूरी मस्ती के मूड में कहता चला गया---“दोनों बंधुओं ने एक ही बात कही । यह कि --- अब वे तुम दोनों की मनहूस शक्ल देखना नहीं चाहते। हमेशा के लिए निजात चाहते हैं तुमसे ताकि अपनी बाकी जिन्दगी चैन से गुजार सकें।"


शांतिबाई अपना थोड़ा बहुत हौसला कायम रखे बोली --- “ह - हमारे बीच अब भी एक सौदा हो सकता है इंस्पैक्टर साहब ।” 


“बड़ी चालू है तू। मुझे ही चलाने चल पड़ी । ”


“झूठ नहीं बोल रही ठकरियाल साहब । मेरे पास विचित्रा और देवांश के ऐसे फोटो हैं----जैसे कभी राजदान और विचित्रा के थे। उन फोटुओं के उतने ही नोट और दे सकते हैं वे तुम्हें । "


ठकरियाल ने उसे बहुत ध्यान से देखते हुए कहा--- "कहां हैं?"


“मेरे बैंक लॉकर में।"


“ यानी मैं तुझे यहां से लौटा ले चलूं ताकि तू लॉकर से फोटो निकालकर मुझे दे सके।”


“आप जानते ही हैं हुजूर ।” अपना जादू उसे चलता नजर आने लगा था --- “बैंक लॉकर को वही खोल सकता है जिसका वह हो । ”


" ऐसा कैसे कर सकता हूं मैं? अगर आज रात के बाद उनमें से किसी ने तुम्हें देख लिया तो मेरी ही खटिया खड़ी कर देंगे वे । पैसे वाले हैं। किसी और से मेरी ही रामनाम सत्य कराने में कितनी देर लगेगी उन्हें !”


“ऐसा नहीं होगा। दिन निकलते ही आप मुझसे अपनी

देखरेख में लॉकर खुलवायें । फोटो आपको सौंपने के बाद हम दोनों हमेशा के लिए मुंबई छोड़ देंगी । पुश्तैनी गांव में जाकर बस जायेंगी अपने। वादा रहा - - - कभी उनके सामने नहीं पड़ेंगी। मतलब --- वे कभी नहीं जान सकेंगे हम जिन्दा हैं, आपने उनका काम नहीं किया । आपके हाथ में वे फोटो होंगे तो..


“मेरी मरती हुई मां ने कहा था --- ज्यादा लालच हमेशा बंटाधार करता है ।” कहने के साथ ठकरियाल ने बगैर किसी चेतावनी के ट्रेगर दबा दिया मगर रिवाल्वर से केवल 'क्लिक' की आवाज निकलकर रह गयी । न गोली चली, न धमाका हुआ।


ठकरियाल ने चौंककर रिवॉल्वर की तरफ देखा । बड़बड़ाया --- 'इसे कहते हैं 'शिकार' के वक्त कुतिया हगासी । मगर गलती तेरी नहीं है मेरी है । गीली ही क्यों होने दिया तुझे ।'


उधर, शांतिबाई और विचित्रा को लगा --- मौत के मुंह से लौट आई हैं वे ।


बचाव का एक ही रास्ता सूझा उन्हें --- यह कि ठकरियाल को दबोच लें। दोनों मिलकर समुद्र में फेंक दें उसे । इसी इरादे से ठकरियाल पर झपट पड़ीं ।


ठकरियाल ने स्वप्न तक में ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की थी।


दोनों उसके ऊपर आकर गिरीं तो बौखला गया वह । सम्भाल नहीं सका खुद को । स्टीमर के फर्श पर जा गिरा। चील की तरह लिपटी हुई शांतिबाई और विचित्रा उसके ऊपर थीं। उनके बंधनों से निकलने की पुरजोर कोशिश कर रहा था वह । लहरों पर पहले से ही डगमगा रहे स्टीमर की हालत तिनके जैसी हो गयी थी ।


“कसकर पकड़ विचित्रा ।” ठकरियाल को दबोचे शांतिबाई ने कहा --- “हमारे पास अपनी जिन्दगी बचाने का यह आखिरी मौका है।”


इधर, ठकरियाल भी समझ चुका था, उनके हावी होने का मतलब उसकी अपनी मौत है। अपने एक पैर को आजाद करके उसने किसी तरह विचित्रा के पेट पर रखा और पूरी ताकत से धक्का दिया। मुंह से चीख निकालती विचित्रा उफनते - गरजते समुद्र में जा गिरी। ।


विचित्रा के अंजाम ने क्षणभर के लिए शांतिबाई को शिथिल किया ।


उस क्षण का लाभ उठाकर ठकरियाल ने उसे भी अपने

ऊपर से धकेला ।


शांतिबाई का सिर एक कुर्सी से जा टकराया । आंखों के आगे रंग-बिरंगे तारे नाच उठे थे । इसके बावजूद वह डगमगाते स्टीमर पर तेजी से खड़ी हुई । ठकरियाल ने उस पर जम्प लगाई। उसकी कोशिश शांतिबाई को भी स्टीमर से बाहर धकेल देने की थी, परन्तु शांतिबाई ने उसे कसकर भुजाओं में भर लिया ।


परिणाम!


झौंक में दोनों स्टीमर से बाहर गिरे ।


समुद्र में गिरते ही एक-दूसरे से अलग हो गये वे । ठकरियाल को नहीं मालूम शांतिबाई कहां गई? बस अपने बारे में मालूम था उसे। यह कि - - - एक लहर उसे स्टीमर से दूर उड़ाती ले गई । पुनः सागर के कलेजे से टकराने के बाद अब वह गहराई में उतरता जा रहा था ।


जल्द ही उसने खुद को नियंत्रित किया । डाई के बाद पानी से ऊपर की तरफ की यात्रा शुरू की । समुद्र के गर्भ में उतना उफान नहीं था जितना सतह पर था । सतह पर पहुंचते ही लहरों ने उसे पुनः अपनी लपेट में लेने की कोशिश शुरू कर दी। उनसे संघर्ष करते ठकरियाल ने खुद को सतह पर बनाये रखा । देखा --- स्टीमर करीब बीस मीटर दूर था ।


हाथ-पैर मारकर स्टीमर की तरफ तैरना शुरू किया।


मुश्किल से पांच मीटर तैर पाया था कि एक लहर ने विपरीत दिशा में उछाल दिया ।


बीस मीटर की जगह स्टीमर से पच्चीस मीटर दूर हो गया वह ।


उसी समय एक आवाज उसके कानों में पड़ी---“बचा...।” और, आवाज गुम हो गई वह । आवाज विचित्रा की थी । ठकरियाल समझ गया, वह पूरा शब्द कहने से पहले ही पुनः पानी में डूब चुकी थी । ठकरियाल यह भी समझ गया लहरें उसे तैरकर स्टीमर तक नहीं पहुंचने देंगी। अब उसने लहरों के खिलाफ संघर्ष करने की जगह खुद को उनके हवाले कर दिया ।


धीरे-धीरे उस दिशा में आया जिधर से दौड़ती हुई लहरें सीधी जाकर स्टीमर से टकराती थीं और अब अगर यह लिखा जाये तो गलत न होगा कि एक लहर पर सवार होकर वह स्टीमर से जा टकराया । पलक झपकते ही स्टीमर के किनारे को जकड़ लिया उसने ।


फिर कोशिश करके उस पर चढ़ भी गया।


बुरी तरह थक गया था वह ।


काफी देर तक कुर्सी को जकड़े हांफता रहा ।


आंखें चारों तरफ उधम मचाती लहरों पर थीं । विचित्रा और शांतिबाई की तलाश थी उन्हें । काफी कोशिश के बाद भी वे नजर नहीं आईं। फिर वह तिनके की तरह डगमगा रहे स्टीमर पर संभल-संभलकर चलता हुआ ड्राइविंग सीट पर पहुंचा।


इंजन स्टार्ट किया और वापस चल दिया ।


उसे पूरा यकीन था ---दोनों में से कोई नहीं बचेगी ।


वहां से दूर होता ठकरियाल बड़बड़ा उठा --- “छब्बे जी बनने आया था मैं यहां, किस्मत ने साथ न दिया होता तो हरामजादियों ने दूबे जी बना दिया था । ”