प्यारा और सोनू पेड़ पर थे।

हर तरफ नजर रख रहे थे।
उन्होंने जगमोहन और मलिक को वैन के आगे वाले हिस्से में भी बैठते देखा था। वो काफी देर भीतर रहे थे, फिर दोनों वैन से बाहर आकर बातें करने लगे तो सोनू कह उठा---
"प्यारे मामला समझ नहीं आ रहा...।"
"क्या?"
"वो दोनों आदमी खड़ी वैन के भीतर जा बैठे। दस-बारह मिनट भीतर रहे। उसके बाद वैन से बाहर निकल कर बातें करने लगे। बातें करनी थीं तो फिर वैन के आगे वाले हिस्से में, भीतर क्यों बैठे थे।"
"होगी कोई बात...।"
"सोचने वाली बात है प्यारे। वो वैन के भीतर दस मिनट तक बैठे क्या करते रहे? उन्होंने वैन भी स्टार्ट नहीं की। की होती तो आवाज हम तक आ जाती।" सोनू में सोच भरे स्वर में कहा।
"हमें यहाँ ज्यादा देर नहीं हुई।" प्यारे ने कहा--- "धीरे-धीरे ही समझ आएगा कि क्या हो रहा है। एक ताला तो खोल दिया है उसने। वो देख, रोशनी में नीचे ताला पड़ा नजर आ रहा...।"
"चुप कर।" उसी पल सोनू फुसफुसाया--- "कोई इधर ही आ रहा है।"
दोनों ने चुप्पी साध ली।
कोई इधर ही आ रहा था।
वह मल्होत्रा था। मल्होत्रा ने उसी पेड़ के नीचे आकर सू-सू किया और वापस चला गया।
"कमीने को यही पेड़ मिला था!" सोनू बोला--- "साला बदबू छोड़ गया।"
"बदबू?" प्यारा बोला--- "वो सू-सू करके गया है।"
"तो बदबू...।" सोनू ने कहना चाहा।
"बदबू, कहाँ से आ गई...।"
"उसके सू-सू से बदबू ही तो निकलेगी। खुशबू तो नहीं...।"
"सोनू...।"
"बोल-बोल...।"
"वो जो अभी कार आई थी। जिसकी आवाज सुनी थी। उसमें से कोई निकलकर सामने नहीं आया। ये उतने ही आदमी हैं।"
"हाँ। आने वाला जो भी है, सामने क्यों नहीं आया?"
"दो आदमी उस तरफ गये जरूर थे। उनमें से एक तो वो ही था जो सू-सू करने आया था इधर...।"
"दोबारा कार की आवाज सुनाई नहीं दी हम सोचें, आने वाला चला गया।"
"खैर, जो भी होगा, अभी सामने आ जाएगा।"
दोनों की नजरें बातों के साथ-साथ उन सब पर दौड़ रही थीं।
"प्यारे, मुझे गिन्नी की याद आ रही है...।"
गिन्नी की?"
"वो जाग गई होगी...या नींद में होगी।"
"जाग गई होगी तो हमें वहाँ ना पाकर, घबरा गई होगी।" प्यारे ने कहा।
"मैं गिन्नी को देख कर आता हूँ।" सोनू बोला।
"तू यहीं रह मैं जाता हूँ।" प्यारे बोला।
"तू जाएगा?" सोनू ने प्यारे को देखा।
"हाँ...।"
"ठीक है। मैं यहीं बैठा हूँ। तू एक हाथ भी फेर आना गिन्नी पर...।" सोनू बोला।
"हाथ फेर दूँ... क्या मतलब?"
"बच्चा ठहराने वाला हाथ...। पाँच-दस मिनट तो लगेंगे...।"
"समझा...।"
"उसके बाद गिन्नी को समझाकर वहीं बिठा आना।"
"ठीक है। जाता हूँ।" प्यारे ने कहा और पेड़ से उतरने लगा।
"हाथ फेरने में पाँच-दस मिनट से ज्यादा ना लगाना। कहीं तो पूरी रात लगा दे...।" सोनू कह उठा।
"चिंता मत कर। मैं अभी लौट आऊँगा।"
"एक ताला खुल चुका है। दूसरे को खोलने में देर नहीं लगेगी। हमने लाख-डेढ़ लाख भी झाड़ना है इनसे।"
"तू कहे तो मैं जाता ही नहीं...।"
"गिन्नी चिंता कर रही होगी। एक चक्कर लगा आ...।"
प्यारा पेड़ से उतरा और तेजी से अँधेरे में गुम होता चला गया।
◆◆◆
जगमोहन, सोहनलाल के पास पहुँचा। जगदीश और अम्बा उसके पास थे।
जगमोहन सोहनलाल के पास बैठता कह उठा।
"तू जानबूझकर इतनी देर क्यों लगा रहा है?"
"देर?" सोहनलाल ने मुँह बनाया--- "मोटा ताला खुलने में देर लगती ही है।"
"अब तो मोटा खुल गया।"
"हाँ...।"
"तो जल्दी से पतला भी खोल दे। किस चक्कर में तू देर लगा रहा है?" जगमोहन बोला।
"ताले ऐसे ही खुलते हैं। तुझे क्या पता...।"
पास खड़े जगदीश और अम्बा उनकी बातें सुन रहे थे।
सोहनलाल ने जगमोहन को देखा, फिर अपने काम पर लग गया।
जगमोहन पास ही बैठा रहा।
तभी सोहनलाल धीमे स्वर में बुदबुदाया---
"देवराज चौहान आने वाला है।"
बेहद धीमे शब्द थे, परन्तु जगमोहन ने सुने ये शब्द।
जगमोहन के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा।
झनझनाहट सी हुई मस्तिष्क में।
देवराज चौहान आने वाला है? यहाँ?
देवराज चौहान को कैसे पता कि यहाँ पर वैन है?
जगमोहन, सोहनलाल को देखता रहा। मस्तिष्क में कई सवाल थे। परन्तु जगदीश और अम्बा की मौजूदगी की वजह से चुप रहा। सोहनलाल काम में लगा होने का दिखावा करता रहा।
जगमोहन खड़ा हो गया।
ये जानकर आँखों में चमक आ चुकी थी कि देवराज चौहान यहाँ आने वाला है।
"ये वैन के ताले खोलने में देर लगा रहा है ना?" अम्बा ने जगमोहन से कहा।
"ऐसे कामों में कुछ वक्त तो लगता ही है।" जगमोहन ने शांत स्वर में कहा।
"तुमने वैन के भीतर मौजूद गनमैनों से बात की?" जगदीश ने पूछा।
"हाँ...।" जगमोहन ने सिर हिलाया।
"क्या वो बाहर आने को तैयार हैं?"
"नहीं...।"
"वो भीतर ही रहे तो गड़बड़ हो जाएगी। हम नहीं चाहते कि गोलियाँ चलें...।" जगदीश व्याकुलता से कह उठा।
"प्राइवेट जासूसों को इस काम में नहीं आना चाहिए था। ये काम गैरकानूनी है।" जगमोहन बोला।
जगदीश और अम्बा चौंके।
"तुम्हें किसने कहा कि हम प्राइवेट...।"
"मलिक ने...।"
"ओह...।"
"मलिक की हिम्मत कम होती जा रही है...।" जगमोहन बोला--- "अब उसमें पहले जैसा जोश नहीं रहा।"
"वो भीतर मौजूद गनमैनों की वजह से परेशान है।" अम्बा कह उठा।
ये जानकर आँखों में चमक आ चुकी थी कि देवराज चौहान यहाँ आने वाला है।
"ये वैन के ताले खोलने में देर लगा रहा है ना?" अम्बा ने जगमोहन से कहा।
"ऐसे कामों में कुछ वक्त तो लगता ही है।" जगमोहन ने शांत स्वर में कहा।
"तुमने वैन के भीतर मौजूद गनमैनों से बात की?" जगदीश ने पूछा।
"हाँ...।" जगमोहन ने सिर हिलाया।
"क्या वो बाहर आने को तैयार हैं?"
"नहीं...।"
"वो भीतर ही रहे तो गड़बड़ हो जाएगी। हम नहीं चाहते कि गोलियाँ चलें...।" जगदीश व्याकुलता से कह उठा।
"प्राइवेट जासूसों को इस काम में नहीं आना चाहिए था। ये काम गैरकानूनी है।" जगमोहन बोला।
जगदीश और अम्बा चौंके।
"तुम्हें किसने कहा कि हम प्राइवेट...।"
"मलिक ने...।"
"ओह...।"
"मलिक की हिम्मत कम होती जा रही है...।" जगमोहन बोला--- "अब उसमें पहले जैसा जोश नहीं रहा।"
"वो भीतर मौजूद गनमैनों की वजह से परेशान है।" अम्बा कह उठा।
"ये ही सच है, वरना काम तो हो ही चुका है। ताले खुलने की देर है।" जगदीश बोला।
जगमोहन कुछ कहने लगा कि सोहनलाल का फोन बजा।
सोहनलाल ने काम छोड़ कर फोन पर बात की।
दूसरी तरफ देवराज चौहान था।
"हम उस इलाके में आ पहुँचे हैं जहां तुमने आने को कहा था।" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी--- "बताओ, हमें किधर आना है।"
"ओह नानिया... तुम तो मेरे लिए परेशानी खड़ी कर रही हो।" उठते हुए सोहनलाल कह उठा।
"हम सड़क की तरफ से उस इलाके में आए हैं। इस वक्त जहाँ हैं, वहाँ खेत ही खेत हैं।"
"एक मिनट...।" सोहनलाल ने फोन पर कहा, फिर जगदीश, अम्बा और जगमोहन से बोला--- "तुम लोग फूटो यहाँ से। मेरी पत्नी का फोन है। कुछ प्राइवेट बात करनी है। थोड़ा दूर हट जाओ कि मेरी बात ना सुन सको।"
"तुम काम से ज्यादा अपनी पत्नी से बात करने में दिलचस्पी ले रहे हो...।" जगदीश भुनभुनाया।
"भाड़ में जा तू साले!" सोहनलाल ने कहा और कई कदम दूर जा खड़ा हुआ और धीमे स्वर में बातें करने लगा।
"इस जैसा घटिया ताले खोलने वाला मैंने पहले कभी नहीं देखा।" जगदीश ने तीखे स्वर में कहा।
"मान लो, वो अभी खोल देता है तो तुम लोग क्या करोगे?" जगमोहन ने कहा।
"क्या मतलब?"
"मैं भीतर मौजूद गनमैनों की बात कर रहा हूँ...।"
"उन्हें बाहर निकालने की ड्यूटी तुम्हारी है। मलिक ने कहा कि...।"
"गलत बात मत बोलो। मेरी कोई ड्यूटी नहीं है। मलिक के कहने पर मैं कोशिश अवश्य कर रहा हूँ कि...।"
"मेरा वही मतलब था...।" जगदीश ने कहा।
अम्बा जगदीश को देखता बोला।
"वैन के लॉक खुलते ही हमारे सामने गम्भीर हालात होंगे।"
"हाँ...।" जगदीश बेचैन हो उठा।
"गनमैन भीतर से गोलियाँ चलाना शुरू कर...।"
"उनके पास ऑटोमेटिक गनें हैं।" जगमोहन बोला।
"तुम्हें कैसे पता?"
"मेरी बात हुई है उनसे। उन्होंने ही बताया है।" जगमोहन ने कहा।
"वो झूठ भी तो कह सकते...।"
"उन्होंने सच कहा है और उनके हथियारों से निकलने वाले छर्रे खास तरह का घेरा बनाकर, फैलकर, आगे बढ़ते हैं कि दुश्मन ज्यादा से ज्यादा घायल हो या मर जाए। वो घातक गनें हैं। अब तुम लोग सोचो कि क्या करना है। तुम सब प्राइवेट जासूसों हो। जो भी तुम लोग कर रहे हो, कानून के दायरे से बाहर रहकर कर रहे हो। एक तरह से तुम लोग बैंक-वैन डकैती में शामिल हो चुके हो। अब सिर्फ खून-खराबा होना ही बाकी है।"
अम्बा और जगदीश की नजरें मिलीं।
दोनों के चेहरों पर घबराहट आ ठहरी थी।
"पुलिस से अब तुम लोगों का बचना संभव नहीं है। जासूसी का लाइसेंस भी कैंसिल होगा और जेल भी जाओगे। गनमैनों की गोली से मर गए तो सारे झंझट से मुक्ति मिल जाएगी।" जगमोहन गम्भीर था।
"ये सच कह रहा है जगदीश...।" अम्बा ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी--- "हमें ये काम नहीं करना चाहिए था।"
"मलिक पागल है जिसने एक करोड़ के लालच में यह काम हाथ में ले लिया।" जगदीश झल्लाया---"तुम यहीं पर रहो। मैं मलिक से बात करता हूँ। प्राइवेट जासूसी और डकैती में बहुत फर्क होता है। हम ये काम क्यों कर रहे हैं।"
"अब समझ में आई बात...।" जगमोहन मुस्कुराया।
"क्या कहोगे मलिक से?"
जगदीश ने कुछ नहीं कहा और वहाँ से चला गया।
अम्बा ने जगमोहन को देखा।
"हमने तो मुसीबत मोल ले ली...।" अम्बा बोला।
"मुझे तो हैरानी है कि तुम लोगों को पहले ये बात क्यों ना समझ आई? प्राइवेट जासूस इतने बेवकूफ तो नहीं होते।"
तभी सोहनलाल पास आ पहुँचा। बात कर ली थी उससे फोन पर।
"पत्नी से हो गई बात?" जगमोहन व्यंग्य से बोला--- "क्या कहती है पत्नी?"
"पत्नी को शक है कि मैं किसी दूसरी औरत के साथ हूँ...।" सोहनलाल वापस बैठ कर अपने काम में व्यस्त होता बोला।
"क्या कहने...।"
"वो यहाँ आकर मुझे देखना चाहती है कि मैं क्या कर रहा हूँ...।" सोहनलाल ने पुनः कहा।
"तो वह यहाँ आ रही है?"
"पास ही है। दस मिनट में पहुँच जाएगी।"
जगमोहन समझ गया कि देवराज चौहान दस मिनट में यहाँ पहुँचने वाला है।
तभी अम्बा तेज स्वर में कह उठा---
"क्या कहा तुमने? तुम्हारी पत्नी दस मिनट में यहाँ आ रही है?"
सोहनलाल ने गर्दन घुमा कर अम्बा को देखा फिर मुस्कुरा कर कह उठा---
"चिंता मत करो। कोई नहीं आ रही। मैं इस समझदार को बेवकूफ बना रहा हूँ...।"
"जल्दी से काम निपटाओ अपना।" अम्बा बोला।
"भीतर बैठे गनमैनों के बारे में सोचो।" सोहनलाल ने कड़वे स्वर में कहा--- "वो सबसे पहले तुम्हें ही मारेंगे।"
"मुँह बंद रख, वरना तेरा मुँह तोड़ दूँगा।" अम्बा गुर्रा उठा।
जगमोहन ने गहरी साँस ली।
उसी पल जगदीश वहाँ आ पहुँचा। उसका चेहरा तमतमाया हुआ था।
"क्या हुआ?" अम्बा ने उसे देखते ही पूछा।
"मैंने मलिक को साफ कह दिया है कि वो इस काम से हट जाए। काम यहीं छोड़ दे। वरना मैं उसकी नौकरी छोड़ दूँगा।" जगदीश के स्वर में गुस्सा भरा हुआ था--- "हम गैरकानूनी काम कर रहे हैं।"
"वो क्या बोला?"
"शायद वो भी अब इस मामले की गम्भीरता को समझ चुका है। कहता है छाबड़ा से बात करके आता हूँ...।"
"छाबड़ा कौन?" जगमोहन बोला।
"तुम चुप रहो।" जगदीश के स्वर में गुस्सा था।
"छाबड़ा वो ही है ना, तुम्हारा क्लाइंट? जिसके कहने पर ये काम किया जा रहा है।" जगमोहन पुनः बोला।
"तुम चुप रहो, वरना...।"
"सब्र से काम लो जगदीश।" अम्बा बोला--- "अपने पर काबू रखो।"
जगदीश गहरी-गहरी साँसें लेने लगा। फिर अम्बा कह उठा---"मैंने मलिक को दस मिनट का वक्त दिया है कि वो इस काम से हाथ झाड़ ले। नहीं तो मैं यहाँ से जा रहा हूँ।"
"जो भी हो, हम बैंक वैन डकैती के अपराधी तो बन ही चुके हैं।"
जगदीश गुर्राकर रह गया।
जगमोहन खड़ा सोच रहा था कि अनजाने में प्राइवेट जासूसों ने अपने लिए मुसीबत इकट्ठी कर ली है।
◆◆◆