बेला गुनगुनाते हुए सुबह तैयार हो रही थी कि मोना चौधरी उसके पास पहुंची। उसके बदन पर कमीज-सलवार थी। घने बालों की चुटिया हो बहुत ही अच्छे ढंग से बनाया हुआ था। जो कि कूल्हों तक जा रही थी । बहुत ही खूबसूरत लग रही थी वो । आंखों में मौजूद काजल, उसकी चंचलता को बढ़ा रहा था ।
उधर बेला भी किसी कयामत मत से कम नहीं थी ।
दोनों एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर सुंदर थी ।
"कहां जाने के लिए तू तैयार हो रही है ?" मोना चौधरी ने तीखे स्वर में पूछा ।
बेला ने उसे सिर से पांव तक देखा फिर मुस्कुरा कर बोली ।
"तो तू भी दंगल देखने जा रही है।"
"हां और तू घर बैठकर दोपहर का खाना बना ।" मोना चौधरी का स्वर पहले जैसा था ।
"तू घर बैठ । खाना बना । मैंने तो दो दिन पहले ही कह दिया था मां से । आज मैं जाऊंगी। "
"तू नहीं जाएगी ।" मोना चौधरी की आवाज में गुस्सा भर आया।
"क्या बात है मिन्नो । आज से पहले तो तूने इस तरह आदेश देने की बात नहीं की।" बेला ने उसे गहरी निगाहों से देखा ।
"फालतू की बात मत कर | तू दंगल देखने नहीं जाएगी ।"
"तेरे कहने से मैं रुकने वाली नहीं।" बेला ने स्पष्ट कहा ।
मोना चौधरी दांत भींचे बेला को घूरने लगी। उ
सकी परवाह न करते हुए बेला तैयार होने में पुनः व्यस्त हो गई ।
"तू देवा पर नजर रखती है ना ?" मोना चौधरी ने तीखे स्वर में कहा ।
बेला ने गर्दन घुमा कर मोना चौधरी को देखा।
"अब समझी मिन्नो तेरी सड़न की वजह क्या है ।" बेला ने शांत स्वर में कहा ।
"देवा पर से नजर हटा ले बेला ।"
"क्यों ?"
"मैं उससे ब्याह करूंगी।"
बेला के चेहरे पर गंभीरता उभरी ।
"देख मिन्नो । अगर तेरे और देवा में ऐसी कोई बात है तो साफ कह दे । मैं रास्ता बदल दूंगी । अगर कोई बात नहीं है तो फिर तेरे को कोई हक नहीं कि अपनी मर्जी मुझ पर थोपे।"
"देवा को मैं कब से अपना मान चुकी ।"
"ये बात तो मेरे साथ भी है ।" बेला ने कहा--- "देवा ने तेरे को अपना माना है तो कह दे ।"
"मैं देवा को अपना बना लूंगी । तू रास्ते से हट जा।"
"ये गलत बात है। मैं नहीं मानूंगी तेरी बात ।" बेला की आवाज में तीखापन आ गया ।
"तेरे को मेरी बात माननी ही होगी बेला ।" मोना चौधरी गुस्से से चीख उठी ।
इससे पहले बेला कुछ कहती । तभी मुद्रानाथ ने भीतर प्रवेश किया । होठों पर मूंछें । शरीर पर कुर्ता-पायजामा। पांवो में चप्पलें ।
"क्या बात है मिन्नो । किस बात पर गुस्सा हो रही हो ।" मुद्रानाथ ने पूछा ।
मोना चौधरी चुप। बेला खामोश ।
"मेरी बात का जवाब दो।" मुद्रानाथ ने दोनों को देखा । ने
"बेला ने मोना चौधरी से कहा ।
"मिन्नो । अब जवाब दे बापू को ।"
"दंगल पर जाने की बात हो रही है बापू ।" मोना चौधरी की आवाज में अभी भी गुस्सा था
"तो जाओ । झगड़ना नहीं आपस में । दोनों एक साथ जाओ और साथ ही वापस आओ ।" मुद्रानाथ ने कहा ।
"मैं तो सत्तो के साथ जंग दंगल देखने जा रही हूं।" गुस्से को दबाते हुए मोना चौधरी बाहर निकल गई।
******
"म्याऊं।"
बिल्ली की आवाज सुनकर, मोना चौधरी की आंख खुली । रौनक देवी के साथ बातें करते करते जाने कब उसकी आंख लग गई थी । रौनक देवी चारपाई पर नहीं थी। कमरे में बल्ब जल रहा था । बिल्ली कमरे में उसी कोने में बैठी चमकती निगाहों से उसे देख रही थी।
मोना चौधरी उठ बैठी। बाहर अंधेरा हो रहा था ।
"मां ।" मोना चौधरी के होठों से पुकार निकली।
"मैं चूल्हे पर हूं।"
मोना चौधरी खड़ी हुई और उसके कदम खुद-ब-खुद दरवाजे की तरफ बढ़ते गए । दरवाजे को पार किया तो बाहर सेहन था, जहां एक तरफ बल्ब के प्रकाश के नीचे चूल्हे पर, रौनक देवी बर्तन रखे, कड़छी भीतर डालकर उसे हिला रही थी ।
"क्या कर रही हो मां ?" मोना चौधरी उसके पास पहुंचते हुए बोली ।
"खाना तैयार कर रही हूं।" रौनक देवी प्यार से बोली--- "तेरे से बात करने में इतना वक्त गुजर गया कि खाना बनाने का ध्यान ही नहीं रहा । आधे घंटे में तैयार हो जाएगा। मौसी के यहां मत चले जाना, खाना खाने ।"
"फिक्र मत कर मां । तेरे हाथ का बना ही खाऊंगी।" मोना चौधरी के होठों से निकला । तभी उसके कानों में घोड़े की हिनहिनाहट गूंजी।
मोना चौधरी की निगाह अस्तबल की तरफ उठी। जहां एक बल्ब मध्यम सी रोशनी फैला रहा था और वहां चार घोड़े बंधे स्पष्ट नजर आ रहे थे । एक घोड़ा फिर उसे देखकर हिनहिनाया।
"मां मैं बाहर का चक्कर लगा कर आ रही हूं। तुम खाना बनाओ ।" मोना चौधरी बोली । "अंधेरे में जाने की क्या जरूरत है। सुबह चली जाना।"
"अभी आई मां ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी अस्तबल में बंधे घोड़ों की तरफ बढ़ गई । पास पहुंचकर, जो घोड़ा उसे देखकर हिनहिना रहा था, उसकी गर्दन पर हाथ फेरा । उसे प्यार किया। फिर उसे खोला और और उछल कर उसकी पीठ पर बैठ गई । लगाम और जीन पहले ही कसी हुई थी।
मोना चौधरी की पीठ पर बैठते ही घोड़े ने दोनों टांगें ऊपर करके, हिनहिनाते हुए अपनी खुशी जाहिर की फिर वो बाहर जाने वाले गेट की तरफ बढ़ा । टापों का स्वर गूंजने लगा ।
तभी रौनक देवी का ऊंचा स्वर कानों में पड़ा ।
"अब अंधेरे में दूर मत चली जाना मिन्नो । मैं खाना बनाए बैठी हूं।" ।
"अच्छा मां ।"
और फिर देखते ही देखते घोड़े पर सवार मोना चौधरी खुले गेट से बाहर निकलती चली गई ।
मोना चौधरी घोड़े को इतनी तेज दौड़ आ रही थी, जैसे वो हवा में बातें कर रहा हो । कोई भी रास्ता, कोई भी गली उसके लिए अनजान नहीं थी । लगाम के इशारे पर घोड़ा गलियों में, चौड़े रास्ते पर मुड़ रहा था । कहीं-कहीं लोग आ-जा रहे थे, तो कहीं बिल्कुल वीरानी थी।
फिर वो एक ऐसी सड़क पर जा पहुंची, जहां छोटा-सा बाजार था। सड़क के दोनों तरफ छोटी-छोटी दुकानें, मध्यम-सी रोशनी में चमक रही थी । कस्बे के कुछ लोग खरीदारी में व्यस्त थे ।
मोना चौधरी ने घोड़ा बेहद धीमा कर लिया । उसकी नजरें हर तरफ घूम रही थी। तभी सड़क के बीचो-बीच खड़े व्यक्ति को देखकर, उसने घोड़े की लगाम खींच ली । वो घोड़े पर बैठी मोना चौधरी को ही देख रहा था । घोड़ा रुक चुका था। मोना चौधरी की निगाह भी उस पर ही टिकी थी।
वो पैंतीस बरस का सेहतमंद व्यक्ति था । उसकी मूंछो में करारापन था । चेहरे से वो अकड़ किस्म का लग रहा था । लेकिन इस वक्त आंखे सिकोड़े मोना चौधरी को देख रहा था।
"मिन्नो तू ।" उसके होठों से निकला।
"हां। मैं ही हूं।" मोना चौधरी के होठों से निकला--- "अभी तक तेरी आदत गई नही ।"
"कौन सी आदत ?"
"सड़क के बीच खड़े होकर, दूसरों का रास्ता रोकने की आदत । पचास बार तेरे को समझा चुकी हूं राधेश्याम, सुधर जा । वरना किसी दिन बुरी तरह पिटेगा ।" मोना चौधरी के हाथों से ये शब्द निकल रहे थे।
राधेश्याम नाम का वो व्यक्ति आंखें सिकोड़े उसे देखे जा रहा था ।
"देखता क्या है ?" मोना चौधरी दबंग स्वर में बोली ।
"तू वापस आ गई है । वही चेहरा, वही रूप लेकर ?"
"हां । आ गई हूं मैं ।"
"कमाल है । कब आई ?"
"तेरे को क्या करना है पूछकर ।" मोना चौधरी उसी लहजे में बोली--- "तू अपनी आदतें ठीक कर ले ।"
और लोग भी वहां इकट्ठे होने लगे ।
मोना चौधरी की निगाह उन पर फिरने लगी ।
इकठ्ठी होती भीड़ की आवाजें आने लगी।
"अरे,ये तो मिन्नो है ।"
"मिन्नो वापस आ गई । "
"गुरुवर ने कहा तो था कि मिन्नो एक दिन अपने रूप में वापस अवश्य आएगी।"
मोना चौधरी ने पुनः राधेश्याम को देखा ।
"अब आगे से हट जा राधेश्याम । वरना अपना रास्ता मुझे साफ करना आता है ।" मोना चौधरी की आवाज में चुभन आ गई।
"म-मैंने तुम्हारा रास्ता नहीं रोका मिन्नो ।" राधेश्याम फौरन एक तरफ बढ़ता हुआ बोला ।
लोगों की आवाजें बातें मोना चौधरी के कानों में पड़ रही थी । हर कोई उसे मिन्नो कह कर पुकार रहा था और वो भी जानती थी कि वो मिन्नो ही है ।
उसने घोड़ा आगे बढ़ा दिया |
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मोना चौधरी और रौनक देवी फर्श पर बैठे, घर के बरामदे में खाना खा रहे थे। सामने सेहन के पार गेट नजर आ रहा था । अस्तबल नजर आ रहा था । गाय और भैंसें बंधी नजर आ रही थी । बेह्रद शांत माहौल था। रात के अंधेरे में कहीं-कहीं, कभी कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई देने लगती।
"मां ।" खाने के दौरान मोना चौधरी के होठों से निकला--- "तूने फिर वही दाल बनाई है, जो बेला को पसंद है । "
रौनक देवी मुस्कुराई ।
"बेला की पसंद में क्या बुराई है ?"
"मेरा वो मतलब नहीं था । लेकिन मेरी पसंद की दाल बनाती तो ज्यादा मजा आता ।"
"ठीक है मिन्नो । सुबह तेरी ही पसंद के पराठे बनाऊंगी ।"
"मूली के पराठे ।" मोना चौधरी के होठों से बरबस ही निकला ।
"हां।" रौनक देवी ने भीगी निगाहों से उसे देखा--- "सब याद है तेरे को ।"
"हां मां । सब याद आ गया है ।" मोना चौधरी धीमे स्वर में कह उठी--- "लेकिन कुछ बातों के बाद, आगे कुछ भी साफ-साफ याद नहीं आ रहा।"
"वो भी याद आ जाएगा । तेरे बापू के पास शक्तियां हैं। वो सब तेरे को याद दिला देंगे।" मोना चौधरी खाते-खाते ठिठकी । रौनक देवी को देखा ।
"मां, जो सुनने में आ रहा है कि दालू मेरे बापू और बेला का दुश्मन बना हुआ है, तो वो तुम्हारा दुश्मन क्यों नहीं बना। तुम्हारी जान लेने की उसने कोशिश क्यों नहीं की ?"
रौनक देवी की निगाह भी मोना चौधरी के चेहरे पर जा टिकी ।
"मिन्नो । तेरे को ये बात याद नहीं ।"
"कौन सी बात मां । "
"रौनक देवी का खाना भी रुक गया था।
"तू मुझसे झगड़ बैठी है। देवी बनने के बाद, तूने अपने पास मुझे महल में ले जाने से इंकार कर दिया था । तेरा गुस्सा किस पर गिरे, किसी को मालूम नहीं होता था । पागल हो उठती थी गुस्से में तू । खैर, मैंने भी तेरे साथ महल में जाना पसंद नहीं किया और यहीं रही। तेरे बापू और बेला तेरे साथ चले गए थे, क्योंकि जो भी हो, उनकी निगाहों में तू बच्ची ही थी । उसके बाद दालू ने जो किया, वो सामने आ गया । मेरी तरफ दालू ने इसलिए कोई ध्यान नहीं दिया कि मेरी दिलचस्पी महलों में न होकर इस घर में थी।"
मोना चौधरी, रौनक देवी को देखती रही । फिर बोली ।
"मां । मैंने तुमसे झगड़ा किया था ।"
"छोड़ बीती बातों को । आगे की सोच । दालू से हमें तू ही मुक्ति दिला सकती है। नगरी का समय चक्र होकर हमें बर्बाद कर रखा है। न कोई मर सकता है। न कोई जी सकता है। कोई पैदा नहीं हो सकता । इतनी लंबी जिंदगी जीकर क्या करना है, हमने । दालू को नगरी पर देर तक राज्य करने की इच्छा है। इसी कारण वह ज्यादा जीना चाहता है और हम सब को बर्बाद कर रखा है।"
"चिंता मत कर मां ।" मोना चौधरी गंभीर स्वर में कह उठी --- "मैं सब ठीक कर दूंगी। मुझे परंतु मुझे याद आ जाए कि...।"
तभी मौसी का स्वर कानों में पड़ा ।
"रौनक, ओ रौनक । कहां मर गई तू।"
दोनों की निगाहें गेट की तरफ उठी। जहां से मौसी भीतर प्रवेश कर रही थी ।
"आ मौसी।" मोना चौधरी के होठों से निकला--- "खाना खा ले।"
"मैं तो खा आई हूं । तेरा पेट- वेट तो खराब नहीं हुआ ?" पास आते मौसी ने पूछा ।
"पेट खराब हो बेला का । मेरा क्यों खराब हो ? " जाने कैसे ये शब्द मोना चौधरी के होठों से निकले।
"मैंने तो इसलिए पूछा कि मिन्नो दोपहर में तू साग और रोटी ज्यादा खा गई थी । शुक्र है तेरे पेट में कोई गड़बड़ नहीं हुई और हां, साग बचा रखा है, कल फिर आ जाना । मक्की की रोटी उतार दूंगी और घड़ा भरकर लस्सी भी तेरे सामने रख दूंगी । सारी पीकर पेट खराब कर लेना।"
मोना चौधरी मुस्कुराई ।
"मौसी देख लेना । कल भी मेरा पेट खराब नहीं होगा ।"
"देख लूंगी। देख लूंगी ।" कहने के बाद मौसी ने रौनक देवी से कहा--- " बहुत खुश हो रही होगी कि मिन्नो लौट आई है। अच्छा, तेरे को पता है नील भी आया है ।"
"नील बेटा भी आया है।" रौनक देवी के होठों से निकला ।
"क्यों री तूने मां को बताया नहीं कि नील...।" मौसी ने कहना चाहा।
"भूल गई मौसी ।" मोना चौधरी जल्दी से कह उठी ।
"साग रोटी तो तू बोलती नहीं । मेरे बेटे की बात भूल गई।" मौसी का स्वर तीखा हो गया |
"कहां है नीलसिंह ?" रौनक देवी ने मोना चौधरी को देखा ।
"मां ।" मोना चौधरी के चेहरे पर गंभीरता नजर आने लगी--- "वो तेरी नगरी में कहीं है मेरे साथ ही था बिछड़ गया। परसू भी नगरी में है। "
"परसू ।" रौनक देवी के होठों से निकला ।
"परसू बेटा भी है ।" मौसी के चेहरे पर अजीब सी मुस्कान उभरी --- "सबको साथ लेकर गई थी और साथ लेकर ही वापस आई है । "
मोना चौधरी मौसी का चेहरा देखती रही ।
मौसी ने रौनक देवी से कहा ।
"रौनक । बता दूध कहां है । आज दूध ज्यादा लेना है । घड़ा भरकर लस्सी जो इसके लिए बनानी है। रखा कहां, वही तो होगा जहां रोज रखती है ।"
कहने के साथ ही मौसी पलटकर चूल्हे की तरफ बढ़ गई । जहां कई बड़े बर्तन पड़े नजर आ रहे थे ।
मोना चौधरी ने रौनक देवी को देखा ।
"मां । बिल्ली को दूध दे दिया था ?"
"हां-हां तू फिक्र नहीं कर । मैं कुछ नहीं भूली हूं । जब तू नींद में थी तभी बिल्ली को दूध में रोटी डालकर दे दी थी। उसका पेट भरा न होता तो क्या वो मुझे चैन से बैठने देती है।" रौनक देवी ने कहा ।
******
"म्याऊं।"
बिल्ली की आवाज पर मोना चौधरी की नींद खुली ।
उसने आसपास देखा। बरामदे के बल्ब की रोशनी भीतर तक आ रही थी । दरवाजा खुला था। सब कुछ स्पष्ट नजर आ रहा था । रौनक देवी को उसने पास ही चारपाई पर नींद में डूबे पाया ।
तभी बिल्ली ने उछाल भरी और उसके तकिए पर आ बैठी और कंधे पर पंजा मारा । फिर छलांग मारकर दरवाजे की तरफ और चौखट पर बैठकर, पलटकर उसे देखने लगी।
मोना चौधरी की आंखें सिकुड़ी । बिल्ली उसे आने का इशारा कर रही थी ।
उसे चारपाई से न उतरते पाकर, बिल्ली ने पुकारा।
"म्याऊं।"
मोना चौधरी ने गहरी नींद में डूबी रौनक देवी को देखा । फिर चारपाई पर उठ बैठी । पास ही रखे जूते, पांव में पहने । फिर खड़ी होकर, बिल्ली की तरफ बढ़ी तो दिल्ली दरवाजा पार करती हुई आगे बढ़ गई । मोना चौधरी उसके पीछे थी ।
बिल्ली उसे लेकर गेट तक पहुंची और फिर उछल कर कंधे पर जा बैठी और उसके कंधे पर पंजा मारा । उसका मतलब समझ कर मोना चौधरी ने बंद गेट खोला तो दिल्ली छलांग लगाकर नीचे आई और आगे बढ़ गई । मोना चौधरी उसके पीछे चलने लगी । इतना तो स्पष्ट हो चुका था कि बिल्ली उसे किसी खास जगह पर ले जाना चाहती थी ।
हर तरफ रात का गहरा सन्नाटा और सुनसानी छाई हुई थी । सिर्फ दूर से कुत्तों के भौंकने की आवाज ही कानों में पड़ रही थी ।
दस मिनट मोना चौधरी बिल्ली के पीछे, इसी तरह चलती रही और वो वहां पहुंच गई जहां मुद्रानाथ ने उसे छोड़ा था । रुककर बिल्ली ने पलटकर मोना चौधरी को देखा । बिल्ली की चमकपूर्ण आंखों से नजरें मिलते ही, उसके मस्तिष्क में अजीब सी हलचल हुई । फिर सब नजरें सीधी की तो चौंक पड़ी।
सामने मुद्रानाथ बेला और देवराज चौहान खड़े थे ।
"बापू ।" मोना चौधरी के होठों से निकला ।
मुद्रानाथ के चेहरे पर मुस्कान उभरी।
"सब आंखें बंद करो।" मुद्रानाथ ने कहा ।
बेला, देवराज चौहान और मोना चौधरी ने आंखें बंद कर ली । उसके बाद मुद्रानाथ ने आंखें बंद की और होठों ही होठों में कुछ बड़बड़ाने लगा।
******
"आंखें खोलो।"
उन्होंने आंखें खोली तो खुद को उसी गुप्त कमरे में पाया, जहां से वे गए थे ।
देवराज चौहान के चेहरे पर गंभीरता थी। बेला शांत थी।
जबकि मोना चौधरी का चेहरा अजीब से भावों से भरा पड़ा था ।
"बेला ।" मोना चौधरी की नजरें बेला पर गई । स्वर में अजीब से भाव थे--- "मैं सच कहती अब तेरे से कभी झगड़ा नहीं करूंगी। किसी भी बात पर नहीं झगडूंगी । तू तो मेरी बहन ।"
बेला मुस्कुराई ।
"तो तेरे को सब याद आ गया मिन्नो ।" बेला मुस्कुराई ।
"तेरे बारे में तो काफी बातें याद आ गई। मैं ही पागल थी जो जिद है सब कुछ करती थी। बेला के होठों पर बराबर मुस्कान छाई हुई थी ।
"मेरे को इस बात की खुशी है कि तूने अपनी बहन को पहचान लिया।" बेला हौले से हंसी । मोना चौधरी की आंखें गीली हो उठी। उसने दोनों बाहें फैला दी ।
"गले नहीं लगेगी ?"
बेला जल्दी से आगे आई और मोना चौधरी की बाहों में समा गई ।
मुद्रानाथ के चेहरे पर मुस्कान थी । देवराज चौहान गंभीरता सब देख रहा था। बेला अलग होते हुए बोली।
"मां कैसी है ?"
"अच्छी है । तू मिली नहीं मां से ? "
"वक्त नहीं मिला । बहुत व्यस्त थी । जाऊंगी कभी छिपकर मां से मिलने ।" बेला ने कहा ।
मोना चौधरी ने मुद्रानाथ को देखा ।
"बापू मुझे सब कुछ याद नहीं आया...। मैं...।"
"सब याद आ जाएगा मिन्नो ।" मुद्रानाथ का चेहरा गंभीर हो गया--- "देवा के साथ तुम उस आसन पर बैठ जाओ ।"
मोना चौधरी ने देखा, कमरे के बीचो-बीच छोटा-सा आसन पड़ा नजर आ रहा था । जो कि पहले वहां मौजूद नहीं था । फिर उसकी निगाह मुद्रानाथ पर जा टिकी ।
"आसन पर बैठने की, मेरी क्या जरूरत है ।" देवराज चौहान बोला ।
"बहुत जरूरत है देवा।" मुद्रानाथ ने गंभीर स्वर में कहा--- "बीता जन्म तुम दोनों को याद आ जाना चाहिए | तभी तो दालू का मुकाबला कर सकोगे। अकेली मिन्नो शायद दालू का मुकाबला न कर सके । "
देवराज चौहान और मोना चौधरी की निगाहें मिली ।
उसके बाद दोनों खामोशी से आसन की तरफ बढ़ गए ।
"जूते उतार दो" मुद्रानाथ ने कहा ।
आसन के पास पहुंचकर देवराज चौहान और मोना चौधरी ने जूते उतारे और आसन पर जा बैठे। दोनों के बीच दो-दो फीट का फासला था । बैठने के बाद उन्होंने मुद्रानाथ को देखा।
मुद्रानाथ ने गंभीर स्वर में कहा ।
"हो सकता है, पूर्वजन्म की बातें याद आने तक, तुम दोनों को कुछ तकलीफें हो । लेकिन हर हाल में तुम दोनों को अपने मस्तिष्क पर काबू रखना है और मैं जानता हूं तुम दोनों कितने हौसलामंद हो । इसलिए मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी इस कोशिश को व्यर्थ नहीं होने दोगे।"
दोनों खामोश रहे । कुछ भी नहीं बोले ।
"आंखों को बंद कर लो और किसी भी स्थिति में खोलने की चेष्टा मत करना।"
दोनों ने आंखें बंद कर ली ।
उसी पल मुद्रानाथ ने अपना हाथ हवा में लहराया और कुछ बुदबुदाया । इसके साथ ही वहां अंधेरा छा गया। उस गहरे अंधेरे में सिर्फ देवराज चौहान और मोना चौधरी के चेहरे सूर्य की भांति चमक रहे थे, जैसे सारा प्रकाश उनके चेहरों पर आ टिका हो । देखते ही देखते दोनों के चेहरे पसीने से भर उठे । जो की बूंदे बनकर ठोड़ी की तरफ आने लगा।
दोनों के चेहरों पर असंयत के भाव नजर आने लगे । परंतु वे उसी मुद्रा में रहे।
और फिर मुद्रानाथ ने आंखें बंद की और दोनों हाथ जोड़कर, होठों ही होठों में कुछ बुदबुदाने लगे। कुछ देर बाद एकाएक आसन के गिर्द आग भड़क उठी और देखते ही देखते वो लपटें ऊपर उठती जा रही थी। फिर ऐसा भी वक्त आया, जब आगे की लपटों के पीछे वो दोनों छिप गए।
कमरे का वातावरण बेहद गर्म हो उठा था ।
और मुद्रानाथ उसी मुद्रा में, मंत्रों का उच्चारण जारी रखे था।
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दालूबाबा ने आंखें सिकोड़कर हरीसिंह को देखा ।
एक तरफ केसर सिंह खड़ा था ।
"मुझे विश्वास नहीं आ रहा हरिसिंह । दालूबाबा के होठों से निकला--- "तुम्हें भूल हुई...।"
"दालूबाबा ।" हरीसिंह ने गंभीर स्वर में कहा--- "आप जानते हैं हरीसिंह की खबर कभी गलत नहीं होती ।"
दालूबाबा का चेहरा खतरनाक भावों से भरने लगा ।
"मैं इस बात पर कैसे विश्वास कर सकता हूं कि कोई तिलस्मी जहर को भी खत्म करने की हिम्मत रखता हो और उसे खत्म कर दे । असंभव । नहीं हरीसिंह । तुम्हारी बात विश्वास के काबिल नहीं । क्यों केसरे ।" दालूबाबा गुर्राया ।
केसर सिंह दांत भींचकर तुरंत बोला ।
"आप ठीक कह रहे हैं । तिलस्मी जहर पर काबू पाना असंभव है। कोई उसकी जान ले सकता है, इस बात पर तो विश्वास ही नहीं किया जा सकता। मैं विश्वास के साथ रहता हूं, हरीसिंह की खबर गलत है ।"
दालूबाबा की निगाह हरीसिंह पर जा टिकी ।
"क्यों हरीसिंह, कहां पर तेरे से गलती हो गई । "
"मेरे से कोई गलती नहीं हुई दालूबाबा ।" हरीसिंह ने दृढ़ स्वर में कहा।
"जवाब देने में जल्दी मत कर । सोच-समझ कर जवाब दे । गलत खबर की सजा जानता है ।" दालूबाबा एक-एक शब्द चबाकर खतरनाक सर में कह उठा ।
"हरीसिंह अपनी औकात जानता है दालूबाबा । आपको कुछ भी कहने से पहले, मैं पचासों बार उस पर गौर करता हूं, फिर शब्द मुंह से निकालता हूं।" हरीसिंह की आवाज में दृढ़ता थी।
दालूबाबा ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला की इजाजत लेकर पहरेदार ने भीतर प्रवेश किया ।
"गीतलाल जी आए हैं । "
"आने दो ।" दालूबाबा ने सिर हिलाया ।
पहरेदार बाहर निकल गया ।
"दालूबाबा ।" हरीसिंह ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैं अपनी आंखों से तिलस्मी जहर की लाश देखकर आ रहा हूं । इसलिए मैं अपने शब्दों के साथ अपनी जगह पर अडिग हूं।"
दालूबाबा का चेहरा गुस्से से और भी धधक उठा ।
तभी गीतलाल ने भीतर प्रवेश किया और सलाम करके बोला ।
"तिलस्म से आ रहा हूं और बुरी खबरें लाया हूं।"
"क्या ?"
सबकी निगाहें गीतलाल के चेहरे पर जा टिकी ।
"देवा और मिन्नो पर किए गए वार असफल रहे । हर बार जीत उनकी होती रही । " गीतलाल ने कहा ।
"ये कैसे संभव है।" दालूबाबा गुर्रा उठा ।
"ये संभव हो चुका है।" गीतलाल ने पहले वाले लहजे में ही कहा---और तो और हैरत की बात है कि तिलस्मी जहर की भी उन्होंने हत्या कर दी । तब मैं दूर रहकर दोनों का पीछा कर रहा था। मैंने अपनी आंखों से तिलस्मी जहर की, देवा और मिन्नो के साथ लड़ाई देखी है। लड़ाई के दौरान जाने कैसे देवा अपने पूर्व जन्म वाले रूप में आ गया । जाने कैसे उसके हाथ में कटार आ गई । जिससे उसने तिलस्मी जहर को मारा और उसके बाद पुकारने की आवाजों में भ्रम में भी वो नहीं पड़े और सही प्रकार से उन्होंने तिलस्मी जहर का संस्कार भी कर दिया। हैरत है कि ये सब उन्हें कैसे मालूम हुआ कि ऐसा करके वे तिलस्मी जहर से छुटकारा पा सकते हैं।" ।
दरिंदा लगने लगा था दालूबाबा ।
"ये सब उसी गद्दार की करतूत है । वही देवा और मिन्नो की सहायता कर रहा है ।"
दालूबाबा दहाड़ा ।
"आप किसकी बात कर रहे हैं दालूबाबा ?" हरीसिंह ने पूछा।
"उसका गद्दार की जो इन लोगों को पृथ्वी से, यहां नगरी में लाया है ।" कहते हुए दालूबाबा के पास खड़े केसर सिंह को देखा--- "परसू ने मुंह नहीं खोला?"
"नहीं। उसे ठीक करके, दोबारा यातना दी गई । वो पहले से भी बुरी तरह घायल हो गया । लेकिन फकीर बाबा की असलियत क्या है, वो बताने को तैयार नहीं । "
दालूबाबा जे होठों से गुर्राहट निकली।
"केसरे।"
"जी।"
"परसू को उसके साथियों के साथ कमरे में बंद कर दे । अब उससे भी कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं ।" दालूबाबा के क्रोध का कोई अंत नजर नहीं आ रहा था ।
"ऐसा क्यों दालूबाबा ?" केसर सिंह सतर्क सा नजर आने लगा था।
"नगरी में वो गद्दार कौन है, कौन हमारे खिलाफ चल रहा है । यह सब बात छिपने वाली नहीं । मालूम हो ही जाएगी। इस वक्त हमारे सामने सबसे अहम मुद्दा देवा और मिन्नो का खड़ा हुआ है ।" दालूबाबा एक-एक शब्द चबाए वहशी-सुर्ख चेहरा लिए कहे जा रहा था --- "जाने क्यों मुझे लग रहा है कि वे मुझे नुकसान पहुंचा सकते हैं । क्योंकि हमारी कई कोशिशों के बाद भी उनका कुछ नहीं बिगड़ा । तिलस्म की खतरों से भी वे बचते जा रहे हैं । क्योंकि कोई गद्दार हमारे खिलाफ, उन दोनों की सहायता कर रहा है । "
"तो अब क्या हुक्म है दालूबाबा ?" केसर सिंह ने पूछा ।
"अनुष्ठान का प्रबंध करो।"
"अनुष्ठान ?" केसर सिंह के होठों से निकला।
"मैं किसी भी तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहता । देवा और मिन्नो तिलस्मी जहर को समाप्त कर दिया है तो मेरे लिए खतरे की घंटी है । इसलिए हाकिम को बुलाना जरूरी हो गया है।"
पाठको, तिलस्मी ताज का क्या हुआ ? देवराज चौहान और मोना चौधरी में ताज को कौन हासिल कर पाया ? क्या दालूबाबा के कब्जे से ताज पाया जा सका, जो कि सख्त तिलस्मी पहरे में था ? देवराज चौहान और मोना चौधरी के साथियों का क्या हुआ, जो दालूबाबा की कैद में थे ? और हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान में उनके खून का इस्तेमाल करने जा रहा था ? हाकिम, जिसे देवताओं से अमरत्व प्राप्त था, क्या देवराज चौहान और मोना चौधरी उसका मुकाबला कर सके ? क्या फकीर बाबा को गुरुवर के श्राप से मुक्ति मिल सकी ? देवराज चौहान और मोना चौधरी में दोस्ती हो सकी ? पिंजरे में कैद नीलू महाजन का क्या हुआ ? क्या रूस्तम राव वायदे के मुताबिक लाडो से ब्याह कर सका । क्या दूसरों को भी पूर्वजन्म की बातें याद आ सकीं ? गुरुवर कौन था, जिससे भूत-वर्तमान और भविष्य में होने वाली घटनाओं का पूरा ज्ञान था ? वो हाकिम जिससे हर कोई खौफ खाता था, आखिर उसकी असलियत क्या थी ? देवराज चौहान अपने परिवार वालों से फिर मिल सका ? उन्हें कैद से मुक्ति दिला सका ? ऐसे और कई भी कई सवालों का जवाब आप पाएंगे, आगामी प्रकाशित होने वाले अनिल मोहन के नए उपन्यास "कौन लेगा ताज में।"
केसर सिंह ने सूखे होठों पर जीभ फेरी।
हरीसिंह और गीत लाल की निगाहें मिली । चेहरे पर घबराहट स्पष्ट नजर आ रही थी। "केसरे ।" दालूबाबा गुस्से से पागल हो रहा था --- "हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान का प्रबंध कर ।
"जी दालूबाबा।" केसर सिंह ने पुनः सूखे होठों पर जीभ फेरी--- "अनुष्ठान के सामान का मैं सारा इंतजाम करता हूं । मनुष्य का खून लाने के लिए पृथ्वी पर भी जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी । वो पहले से ही हमारी कैद में है। लेकिन मैं कुछ कहना चाहता हूं।"
"क्या ?"
"कोशिश कीजिए दालूबाबा । हाकिम को बुलाये बिना काम चल जाए तो ज्यादा ठीक रहेगा।"
"नहीं । ये मेरा अंतिम फैसला है । अनुष्ठान करना पड़ेगा, हकीम को बुलाने के लिए। मैं नगरी में आए इन खतरों को फौरन खत्म कर देना चाहता हूं और हाकिम आते ही सब ठीक कर देगा । तुमसे जो कहा है, वो ही करो । फौरन अनुष्ठान की तैयारियां आरंभ कर दो।"
"जी दालूबाबा ।" कहते हुए केसर सिंह की आंखों में बेचैनी झलक रही थी हाकिम को बुलाया जा रहा है और हाकिम के आने का मतलब वो क्या, नगरी का हर व्यक्ति समझता था।
हरीसिंह और गीत लाल भी हाकिम के आने की सोच कर चिंतित हो उठे थे ।
"तुम दोनों तिलस्म में जाओ ।" दालूबाबा ने हरीसिंह और गीतलाल से कहा--- "वहां होने से वाली हलचलों पर निगाह रखने की कोशिश करो। हाकिम के आते ही सब ठीक हो जाएगा । जाओ।"
हरीसिंह और गीतलाल खामोशी से पलटकर बाहर निकल गये ।
दालूबाबा के चेहरे पर दरिंदगी के भाव नाच रहे थे ।
"तू क्यों खड़ा है केसरे । जाकर तैयारी कर । दालूबाबा ने कठोर निगाहों से उसे देखा ।
"जी ।" केसर सिंह ने कहा और बाहर निकल गया।
"हाकिम ।" दालूबाबा दांत पीसकर बड़बड़ाया फिर। ठहाका लगाकर हंस पड़ा।
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वहां तूफान जैसी तेज हवा चल रही थी। देवराज चौहान और मोना चौधरी के चेहरे रोशनी में चमक रहे थे । बाकी हर जगह पर गहरा अंधेरा था । हवा में उनके सिर के बाल तीव्रता से उड़ रहे थे। उनके चेहरों पर बेहद थकान और तनाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था ।
एक घंटा हो चुका था उन्हें इस अवस्था में बैठे।
अंधेरे में मुद्रानाथ और बेला खड़े थे । बेला शांत स्थिर थी । परंतु मुद्रानाथ के मंत्रों के उच्चारण की आवाजें कभी-कभी वहां गूंज उठती थी और अब धीरे-धीरे वहां चलती तूफानी हवा कम होने लगी । अजीब सा शोर वहां पर हुआ था, वो शांत होने लगा और फिर वो वक्त भी आया, जब हवा बिल्कुल थम गई।
हवा के रुकते ही, वो पूरी जगह फिर से रोशन हो गई ।
बेला जैसे पहले खड़ी थी, अब भी वैसे ही खड़ी हो गई । लेश मात्र भी नहीं हिली थी ।
मुद्रानाथ भी वैसे ही खड़ा था, जैसे पहले थे। परंतु इस वक्त उसके चेहरे पर ऐसी थकान नजर आ रही थी जैसे अथाह मेहनत करके हटा हो । मुद्रानाथ ने अपने हाथ सीधे किए और देवराज चौहान और मोना चौधरी को देखते हुए होठों ही होठों मंत्र का उच्चारण किया तो दोनों की आंखें खोल ली।
इस वक्त दोनों की आंखों में तीव्र प्रकाश विद्यमान था । चेहरा थका हुआ था। शरीर जैसे बेजान-सा हो रहा था, परंतु मस्तिष्क में तीव्र हलचल, खलबली मचा रही थी। दोनों ने मुद्रानाथ फिर बेला को देखा उसके बाद उनकी निगाहें आपस में टकराई ।
"देवा ।" मोना चौधरी के होठों से निकला । ।
"मिन्नो।" देवराज चौहान मुस्कुरा पड़ा
अगले ही पल मोना चौधरी गुस्से से सुर्ख होने लगी।
"तूने मेरी जान ले ली थी मिन्नो ।" देवराज चौहान बोला--- "लेकिन मैं तुम्हें नहीं मार सका था।"
"ये कैसे हो सकता है ।" मुद्रानाथ कह उठा--- "मरते-मरते तुमने मिन्नो की जान ले ली थी
देवराज चौहान ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला कि मोना चौधरी दांत भींचकर कह उठी "नहीं बापू । देवा के खंजर से नहीं, बल्कि मुझ पर छुपकर धोखे से वार किया, दालू ने ।" मोना चौधरी के चेहरे पर वहशी भाव नजर आने लगे--- "नील सिंह, हमेशा मुझे समझाता रहा । आप दोनों मुझे समझाते रहे कि दालू पर मैं इतना विश्वास न करु । परंतु मैं नहीं मानी और वही विश्वास मुझे ले डूबा । "
"ये खबर मेरे लिए नई है कि तुम देवा के हाथों नहीं मरी, बल्कि दालू ने धोखे से तुम्हारी जान ली । वो नगरी को हथियाने की योजना बना रहा था। तभी तो उसने अंत में तुम्हें भड़काया और फिर तुम्हारी जान भी उसी ने ली। उसके बाद उसे दूसरा हमला मुझ पर और बेला पर किया, परंतु किस्मत अच्छी थी, हम बच निकले ।" मुद्रानाथ ने मुस्कुरा कर कहा--- 'मुझे खुशी है कि तुम दोनों को पूर्व जन्म की बातें याद आ गई।"
तभी बेला बोली ।
"क्यों री मिन्नो । अब तो तेरे को याद आ गया कि मैं तेरी बहन हूं।"
मोना चौधरी मुस्कुराई और आगे बढ़कर, बेला को गले से लगा लिया ।
"बेला । अब मैं तेरे से कभी नहीं झगडूंगी ।" कहते हुए मोना चौधरी की आंखें छलछला उठी।
मुद्रानाथ ने देवराज चौहान को देखा।
"देवा बेटे । तू क्या सोच रहा है ?" मुद्रानाथ के स्वर में अपनापन था।
"मैं सोच रहा हूं बाबा कि मिन्नो के साथ जो झगड़ा हुआ, वो हमारा आपसी झगड़ा नहीं था । बल्कि झगड़ा करवाने के लिए, योजना तैयार की गई । हमें लड़वाया गया ।" देवराज चौहान ने कहा ।
मुद्रानाथ ने मुस्कुराकर सिर हिलाया ।
"और इस मामलें को पहली चिंगारी पेशीराम ने ही दिखाई थी ।" देवराज चौहान बोला । "हां और वो अब पश्चाताप भी कर रहा है। पेशीराम दिल का बुरा नहीं, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है । जो होना है, वो तो होकर ही रहेगा ।" मुद्रानाथ ने गहरी सांस लेकर कहा ।
तभी मोना चौधरी जलते स्वर में गुर्रा उठी।
"बापू ।" मोना चौधरी का चेहरा प्रतिशोध से भर चुका था--- . "दालू को मैं छोडूंगी नहीं । उसने जो किया है, उससे उसे मौत ही निजात दिला सकती है। मैं उसे...।"
"तुम बहुत जल्दी गुस्से में आ जाती हो ।" देवराज चौहान गंभीर स्वर में बोला--- "अगर उस जन्म में भी तुम जल्दी गुस्से में नहीं आती तो शायद हममें झगड़ा बढ़ नहीं पाता ।"
"क्या मतलब ?"
"दालू को कमजोर मत समझो । डेढ़ सौ साल से वो जमा हुआ है । हर ताकत उसके पास है। है मत भूलो कुलदेवी का वो ताज जो तुम्हारे माथे पर होता था, जिसमें देवताओं ने सिद्धियों से प्राप्त शक्ति भर रखी है, उस पर दालूबाबा का कब्जा है, उसी के दम पर उसने नगरी का समय चक्र रोक रखा है । तिलस्मी ताज की शक्तियों के सामने, हम नहीं ठहर सकते । दालू का मुकाबला नहीं कर सकते । इसलिए हमें सोच-समझकर, दालू पर हाथ डालना होगा।"
मोना चौधरी ने दांत भिंच लिए ।
"देवा ठीक कहता है बेटी ।" मुद्रानाथ ने चिंतित स्वर में कहा--- "और अब एक और खतरा सिर पर आने वाला है। जिसका तुम दोनों को एहसास नहीं ।
"कैसा खतरा ?"
"गुरुवर ने कहा था कि जब देवा और मिन्नो को अपने पूर्व जन्म के बारे में सब कुछ याद आ जाएगा तो ठीक उसी वक्त दालू, हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान का आरंभ करेगा।"
"हाकिम ?"
देवराज चौहान और मोना चौधरी चौंके ।
"वो हाकिम जो...।" मोना चौधरी ने कहना चाहा ।
"हां। मैं उसी हाकिम की बात कर रहा हूं, जिसने देवताओं से अमरत्व हासिल कर लिया था और अब उसे कोई नहीं मार सकता । वो कैसे मर सकता है, उसकी युक्ति तुम्हारे पास मौजूद किताब में लिखी हुई है परंतु तब भी जरूरी नहीं कि, हाकिम की जान ली जाए। वो भी जीत सकता है । "
"वो किताब, मेरे अपने महल में गुप्त जगह छिपा रखी है ।" मोना चौधरी के होठों से निकला ।
"तो हर हाल में फौरन तुम्हें उस किताब को पाना होगा। क्योंकि हाकिम को बुलाने के लिए, दालूबाबा का अनुष्ठान शुरू हो चुका है । और हाकिम के आने पर क्या उथल-पुथल होगी, यह तुम दोनों सोच ही सकते हो ।"
"मैं अभी महल की तरफ रवाना होती हूं।" मिन्नो सुलगते स्वर में कह उठी ।
"जाओ । देवा भी तुम्हारे साथ रहेगा । अब तिलस्म में तुम्हें किसी तरह का खतरा नहीं, क्योंकि पूर्वजन्म की याद आते ही, तिलस्म का जर्रा-जर्रा तुम्हारे दिमाग में आ चुका है।" कहने के साथ ही मुद्रानाथ आगे बढ़ा । जाने कब उसके हाथ में सफेद मोतियों की माला आ गई थी। पास आकर माला को उसने मोना चौधरी के गले में डाला--- "यह माला गुरुवर का आशीर्वाद है तुम्हारे लिए । गुरुवर ने कहा था जब तुम्हें पूर्व जन्म की याद आ जाए, तो इसे तुम्हारे गले में डाल दूं।"
"हाकिम के बीच में आने से हालात खतरनाक हो जाएंगे।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा ।
"तुम ठीक कहते हो देवा, लेकिन होनी को कौन रोक पाया है ? जो होना है, वो तो होकर ही रहेगा।" मुद्रानाथ ने शांत गंभीर स्वर में कहा
"बापू मैं महल में उस किताब को लेने जा रही हूं । देवा मेरे साथ रहेगा " कहने के साथ मोना चौधरी ने देवराज चौहान को देखा। दोनों की निगाह मिली । बरबस ही मुस्कुरा पड़े । पूर्व जन्म की बातों ने उन्हें मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया था । जाने क्या उन्हें मुस्कुराते देखकर, बेला के होठों पर मुस्कान रेंग गई ।
और मुद्रा नाथ को आने वाले वक्त का इंतजार था कि दालू और हाकिम से टक्कर लेने का क्या अंजाम होगा । क्या, कहीं फिर नगरी तबाही और बर्बादी में तो नहीं डूब जाएगी ?
समाप्त
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