सारी रात के जागे हुए थे वे ।


पूरा दिन टेंशन भरी भाग-दौड़ में गुजरा था।


इसके बावजूद दिव्या और देवांश को नींद नहीं आ रही थी।


दिमागों में सवाल ही सवाल घुमड़ रहे हों तो नींद आ भी कैसे सकती है? जानते थे— सुबह होते ही पुनः व्यस्त हो जाना है। पोस्टमर्टम से लाश मिलेगी। उसका अंतिम संस्कार होगा। और भी जाने क्या-क्या नई बातें सामने आयें। उन्हें फेस करने के लिये थोड़ा आराम भी जरूरी है, यही सोचकर सोने जाने की चेष्टा की तो दिव्या ने कहा – “नहीं। मैं अकेली नहीं सो सकती । डर लगेगा मुझे । तुम यहीं, मेरे साथ सो जाओ।” 


देवांश बगैर हील-हुज्जत किये रुक गया। 


दोनों दिव्या के कमरे में डबल बैड पर लेट गये । 


उसी डबल बैड पर, जिस पर उनकी रंगीन रातें गुजरी मगर आज । 


किसी को कोई मूड नहीं हुआ । 


कपड़े तक चेंज नहीं किये उन्होंने। 


जो सारा दिन पहने रहे थे, वहीं पहने लेट गये ।


एक-दूसरे की तरफ से करवट लिये । 


बहुत देर तक करवटें बदलते रहे। 


एकाध बार देवांश का हाथ दिव्या के कोमल अंग से भी टकराया । 


परन्तु । 


न तो उसने अपने अंदर कही तनाव महसूस किया, न ही दिव्या रोमांचित हो सकी। अंततः देवांश ने कहा – “दिव्या।”


“हूं ।” आंखें बंद ही रखीं दिव्या ने । 


“नींद नहीं आ रही।” 


इस बार दिव्या ने आंखों खोलकर कहा – “मुझे भी।” 


“क्यों न एक–एक पैग लें?... थोड़ा-सा घूमकर आयें किचन लॉन में।” 


उसके बाद । 


उन्होंने एक-एक नहीं, दो-दो पैग लिये । 


एक–एक सिगरेट सुलगाई और किचन लॉन में पहुंच गये। 


वह किचन लॉन जिसे देखने के बाद हर शख्स कह उठता था— - 'यह तो 'परिस्तान' है ।' 


सचमुच। 


परिस्तान ही था वह । 


यह वह जन्नत थी जिसका निर्माण राजदान ने दिव्या के लिये कराया था ।


उसके प्यार में डूबकर । 


कुछ उसी तरह, जैसे शाहजहां ने ताजमहल बनवाया था ।


वह अक्सर कहा करता था— 'दिव्या, शहजहां ने तो ताजमहल मुमताज के मरने के बाद बनवाया था मगर मैने यह ‘परिस्तान’ अपने प्यार की खातिर तुम्हारे जीते जी बनवाया है।'


वह दो हजार गज में फैला हुआ था । कृत्रिम पहाड़ थे उसमें जो बड़े-बड़े पत्थर लाकर बनाये गये थे। पत्थरों के बीच से संगीतमय आवाज के साथ बहती जलधारायें थीं। झरने थे। फव्वारे थे । तालाब और स्वीमिंग पूल था । एक फाऊन्टेन तो ऐसा था जो बीस फुट की ऊंचाई तक पानी की मोटी धार उछाला करता था।


सारे लॉन में पत्थरों, पौधों और होज आदि की बैक में छुपाकर कुछ इस तरह असंख्य रंग-बिरंगे बल्ब लगाये गये थे कि जब वे ‘ऑन’ होते थे तो वे नहीं, केवल उनसे फूटती रंग-बिरंगी रोशनियां नजर आया करती थीं। बहुत ही सुन्दर नजारा होता था वह ।


मगर ।


इस वक्त वहां की सभी रंगीनियां गायब थीं।


कारण था- - एक भी बल्क का 'ऑन' न होना ।


फव्वारे सूखे पड़े थे।


झरने खामोश ।


प्रत्येक रात को उन सबको गतिमान करने और रोशनियां आदि ऑन करने का काम आफताब का था । शायद आज उसने उन्हें ऑन करने की जरूरत नहीं समझी थी। अपनी तरफ से ठीक ही किया था उसने । परिस्तान के मालिक को मरे पहला ही दिन तो था आज। अभी तो लाश श्मशान भी नही पहुंची थी । फिर भला, वहां रंगीनियां कैसे बिखेर सकता था वह? उस सबकी जरूरत भी नहीं थी दिव्या और देवांश को ।


रात भी अंधेरी थी ।


हर तरफ अंधेरा ।


मगर अचानक ।


एक छोटी सी चट्टान जगमगा उठी। दोनों ने चौंककर उधर देखा ।


“अरे!” दिव्या के मुंह से निकला – “वहां की लाईट किसने ऑन की?” 


क्या जवाब देता देवांश?


अभी वे कुछ समझ भी नहीं पाये थे कि-एक और पहाड़ चमक उठा। जहां के तहां ठिठक गये दोनों।


होश फाख्ता ।


देवांश के मुंह से कांपती आवाज निकली – “यहां कोई है।”


दिव्या ने कुछ कहना चाहा मगर, मुंह से आवाज न निकल सकी।


उससे पहले ही 'कट-कट-कट' की आवाजों के साथ किचन लॉन की सभी लाईटें ऑन होती चली गईं।


हकबकाये से वे कभी इधर देख रहे थे, कभी उधर ।


फिर ।


अचानक ‘जैट पम्प’ चलने की आवाज ने शंत वातावरण को चीर डाला ।


साथ ही, झरने चलने लगे।


फाऊन्टेन ने बीस फुट की ऊंचाई तक पानी की मोटी धार फैंकनी शुरू कर दी।


पत्थरों के बीच बहते पानी की संगीतमय आवाज हर तरफ गूंजने लगी।


जो परिस्तान कुछ देर पहले अंधेरे की चादर ओढ़े, खामोशी के साथ सोया पड़ा था वह देखते ही देखते न सिर्फ जाग गया बल्कि


रोशनियों से दमक उठा।


पेड़, पौधे, घास, हौज, चट्टाने, झरने और फव्वारे ।


सब जीवित हो उठे।


बड़ा ही मनमोहक नजारा था वह ।


परन्तु ।


दिव्या और देवांश को बहुत डरावना लग रहा था ।


मारे खौफ के दिव्या देवांश से लिपट गई ।


देवांश की हालत भी उससे बेहतर नहीं थी I


दिमाग में एक ही सवाल था । कैसे गतिमान हो गया सब कुछ ? किसने किया?


“क-कौन है?” दिव्या के मुंह से भवाक्रांत आवाज निकली — “यहां कौन है देव ?”


देवांश की सहमी हुई नजरें उसी को तलाश करने की कोशिश कर रही थीं। उसे- - जिसने अचानक परिस्तान को जीवन दे दिया था।


उसने पाया- इस वक्त वह वहां खड़ा है जहां से पहली बार दिव्या को झरने के नीचे नहाते देखा था । बहुत ही बड़ा, किसी शिलाखण्ड जैसा विशाल पत्थर था वह ।


फिर ।


एक चट्टान पर इंसानी परछाई नजर आई।


सिर्फ परछाई।


परछाई का मालिक नजर नहीं आया।


“द-देव!” कांपती आवाज में दिव्या ने परछाई की तरफ इशारा किया –“व-वो देखों ।”


देवांश समझ गया—जिसकी परछाई सामने वाली चट्टान पर पड़ रही है, वह उसके दायीं तरफ मौजूद विशाल पत्थर के पीछे होना चाहिये।


दिव्या का हाथ पकड़े उस तरफ लपका।


पत्थर की बैक में पहुंचा।


तब वहां कोई नहीं था।


उसने देखा—उसकी और दिव्या की परछाईंया उसी चट्टान पर हिल-डुल रही थीं जिस पर कुछ देर पहले अंजान शख्स की परछाईं


अपनी ही परछाईं से डर सा लगने लगा उन्हें ।


देवांश समझ गया—कुछ देर पहले वह यहीं था ।


मगर अब ।


अब नहीं था ।


किधर गया?


देवांश जोर से चीख पड़ा — “कौन है यहां?”


आवाज पूरे परिस्तान में गूंजती चली गई ।


अनेक पत्थरों से टकराकर वापस आई ... और खुद उसी के कानों में धंस गई।


अपनी ही आवाज बहुत डरावनी लगी थी उसे।


“देव। चलो यहां से।” डरी हुई दिव्या ने उसे खींचने का प्रयास किया।


पगलाया सा देवांश चारों तरफ को इस तरह देख रहा था । जैसे हिरन शेर की गंध पाकर उसे ढूंढने काप्रयास कर रहा हो । उसी क्षण | दिव्या के हलक से जोरदार चीख निकली |


देवांश ने बौखलाकर उसक नजरों को पीछा किया ।


वह ठीक उनके सामने एक विशाल पत्थर के शीर्ष पर खड़ा था ।


वह ।


जिसे देखकर दिव्या के हलक से चीख निकली थी ।


राजदान का नाईट गाऊन था उसके जिस्म पर ।


वहीं, जो राजदान को बहुत पसंद था।


स्केल जितनी चौड़ी काली- सफेद पट्टियां वाला गाऊन।


ठीक सामने होने के बावजूद वे सीधे-सीधे उस तक नहीं पहुंच सकते थे। जिस पत्थर पर वे थे, वह उससे काफी ऊंचे पत्थर के


शीर्ष पर खड़ा था ।


वह उन्हीं की तरफ देख रहा था ।


दिव्या की हालत तो पहले ही खराब थी । देवांश भी थरथरा उठा ।


राजदान ही नजर आ रहा था वह ।


हिम्मत करके देवांश एक बार फिर चीखा- “धोखा देने की कोशिश मत करो हमें । हम जानते हैं तुम राजदान नहीं हो सकते। कौन हो तुम?”


और।


जवाब में जो हरकत उसने की उसे देखकर देवांश के समूचे जिस्म में सिहरन दौड़ गई। वह अपने हाथ से उन्हें अपने नजदीक आने का इशारा कर रहा था ।


बड़ी ही डरावनी लगी उन्हें, उसकी यह हरकत ।


ऐसा लग रहा था, जैसे यमराज इशारे से अपनी तरफ बुला रहा हो ।


“देव! देव! वो तो वही है। मैं नहीं रुक सकती यहां । प्लीज...प्लीज चलो।” दिव्या का जिस्म और आवाज, दोनों कांप रहे थे। देवांश को विपरीत दिशा में खींचने का प्रयास कर रही थी वह ।


देवांश को खुद समझ में नहीं आ रहा था क्या करे ?


यूं खड़ा रह गया जैसे अचानक स्टेचू में तब्दील हो गया हो।


और राजदान अचानक अपने स्थान से हिला । एक ही जम्प में उस पत्थर पर पहुंचा गया जिस पर खड़ी होकर दिव्या को नहाते देवांश ने देखा था। अब उसे ऊपर मौजूद चट्टान से झरने की शक्ल में पानी गिर रहा था।


वह नहा रहा था ।


वहीं, जाहं देवांश ने दिव्या को नहाते देखा था।


कितना उत्तेजक दृश्य था वह ।


कितना डरावना ।


और उस वक्त तो दिव्या और देवांश के जिस्म सूखे पत्तों की मानिन्द कांप उठे जब नहाते हुए उस राजदान ने अचानक अपने जिस्म से गाऊन उतारकर एक तरफ फेंक दिया ।


उफ्फ ।


पूरी तरह नंगा था वह।


जैसे भूत नहा रहा हो।


अब तो... अब तो देवांश का हौसला भी जवाब दे गया । कसकर दिव्या का हाथ पकड़ा उसने और उस तरफ दौड़ लगा दी जिस तरफ से परिस्तान से बाहर निकला जा सकता था। पत्थरों पर गिरते-पड़ते वे इस तरह भाग रहे थे जैसे सैकड़ों भूत पीछे लगे हों। एक बार भी पलटकर झरने की तरफ नहीं देखा था ।


किचन लॉन और विला के अंदरूनी भाग को जोड़ने वाले एकमात्र दरवाजे तक पहुंचते-पहुंचते उनकी हालत ऐसी हो गयी जैसी ‘मैराथन’ की दौड़ पूरी करने वाले धावक की होती है।


गैलरी में पहुंचते ही उन्होंने 'धाड़' से दरवाजा बंद कर लिया। चटकनी चढ़ाई । डंडाला कसा। ताला लगा दिया।


दोनों की साँसें धौंकनी की मानिंद चल रही थी।


एक कदम भी और चलने की हिम्मत नहीं बची थी दिव्या में मगर देवांश उसका हाथ पकड़े, लगभग घसीटता हुआ गैलरी में भागता चला गया।


लॉबी में पहुंचा।


दिव्या ने पूछा – “कहां घसीटे ले जा रहे हो देव?” 


देवांश ने जवाब नहीं दिया। उसका रुख उस गैलरी की तरफ था जिसके अंतिम छोर पर राजदान का बैडरूम था। 


केवल उसी कमरे की बॉल्कनी से किचन लॉन को देखा जा सकता था । 


वे बैडरूम में पहुंचे। 


बालकनी कांच के स्लाईडिंग डोर के पार थी । 


स्लाईडिंग के नजदीक पहुंचते ही वे ठिठक गये। 


दोनों की नजर बॉल्कनी में रखी आराम कुर्सी पर जम गईं। 


यह वही आराम कुर्सी थी जिस पर बैठकर राजदान अक्सर किचन लॉन की रंगीनियां का नजारा किया करता था। 


खाली कुर्सी अपने चन्द्राकार पायें पर झूल रही थी। ठीक यूं, जैसे तब झूला करती थी जब राजदान बैठा होता था ।


“द-देव!” दिव्या की आवाज कांप रही थी— “कुर्सी हिल क्यों रही है ?” 


देवांश बड़बड़ाया- “ऐसा लगता है, जैसे अभी-भी उस पर से उठकर कोई गया हो ?” 


“हे भगवान ।... .. कौन था यहां?” कांच के पार सारी गैलरी साफ नजर आ रही थी ।


झूलती कुर्सी के अलावा कोई भी तो नहीं था वहां । 


देवांश का हाथ पकड़ बॉल्कनी में पहुंचा।


उस रेलिंग की तरफ लपका जहां किचन लॉन का नजारा किया जा सकता था।


और ।


वहां पहुंची ही, एक और झटका लगा उन्हें।


परिस्तान अंधकार में डूबा हुआ था । 


एक भी लाईट ऑन नहीं थी । 


रुके हुए फव्वारे । 


खामोश झरने।


अंधकार! अंधकार! और अंधकार !


सब कुछ वैसा, जैसा तब था जब उन्होंने पहला कदम परिस्तान में रखा था। 


चंद जुगनू जरूर भिनभिना रहे थे इधर-उधर।


अंधेरे में दैत्यों की मानिन्द खड़े कृत्रिम पहाड़ उन्हें मुंह चिड़ाते से लगे। 


उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कुछ देर पहले लॉन जगमगा रहा था। तो क्या वह सब दृष्टि-भ्रम था?


किसी जादुई जंजाल में फंस गये थे वे?


अचानक देवांश ने महसूस किया – दिव्या जान-बूझकर लम्बी-लम्बी सांसे लेने की कोशिश कर रही हैं उसने चौंककर देखा। दिव्या की हरकत बड़ी अजीब लगी उसे ।


वर्तमान हालात में थोड़ी डरावनी भी ।


विचार उभरा—‘कहीं दिमाग तो नहीं हिल गया है दिव्या का?' ऐसा ही लगता था । 


देवांश ने झपटकर उसके दोनों कंधे पकड़े जोर से झंझोड़ता हुआ चीखा— “दिव्या... दिव्या... ये क्या कर रही हो तुम? पागल हो गयी हो क्या?”


“मैं कुछ सूंघ रही हूं।” उसने अजीब स्वर में कहा – “मुझे कुछ स्मैल आ रही है देव । तुम भी सूंघो ।”


इस विचार ने देवांश के होश उड़ा दिये कि कहीं सचमुच ही दिव्या सनक तो नहीं गई है? हरकत तो एसी थी उसकी ।


वब अब भी कुछ सूंघने का प्रयत्न कर रही थी ।


खौफ का मारा देवांश चिल्ला उठा — “होश में आओ दिव्या! सम्भालो खुद को ।”


वह बड़बड़ाई—“वह यहीं था ।... कुछ देर पहले वह यहीं था ।” 


“क-कौन?... कौन था यहां?... क्या बक रही हो तुम?” 


“र- राजदान।... राजदान था यहां ।”


“र-राजदान ?”




“सूंघो देव! सूँघो। मुझे उसके सिगार की स्मैल आ रही है।"


अब जाकर देवांश की समझ में आया – दिव्या पागल नहीं हुई थी। 


उसने भी लम्बी-लम्बी सांसे लीं और सचमुच, वातावरण में स्मैल थी। 


वही स्मैल जो राजदान के सिगार के धुवें से आती थी। अब देवांश को उस स्मैल के स्रोत की तलाश थी और जल्द ही उसने उसे ढूंढ भी लिया। 


आराम कुर्सी क दायीं तरफ, फर्श पर एक एश्ट्रे रखी थी और एश्ट्रे पर रखा था सुलगा हुआ सिगार । 


आधा सिगार था वह । जैसे आधा किसी के द्वारा पिया जा चुका हो | 


देवांश ने झुककर सिगार उठा लिया । 


“म-मैंने कहा था न देव । कुछ देर पहले वह यहीं था ।” 


देवांश ने सिगार का अंतिम सिरा चैक किया। वह गीला था। उसे राजदान के सिगार पीने का स्टाईल याद आया—दांतों में दबाकर सिगार पीता था वह। इ


इस कारण अंतिम सिरा उसके थूक से गीला हो जाता था। 


इसके बावजूद देवांश ने कहा – “जरूरी नही इसे उसी ने पिया हो। कोई भी पी सकता है ये सिगार ।”


“लेकिन कौन है?” दिव्या चीख पड़ी— “उसके अलावा और कौन आयेगा चहां?”


देवांश चुप रहा गया। कोई जवाब नहीं था उसके पास अपनी जगह सटीक ही था दिव्या का सवाल— कौन आयेगा यहां? क्यों पियेगाव ही सिगार जो राजदान पीता था? क्यों उसी आराम कुर्सी पर बैठकर झूलेगा?


जब कुछ सूझा नहीं तो दिव्या को बाहों में भर लिया। और दिव्या ।


दिव्या उससे अमर बेल की मानिन्द लिपट गईं।


उस लिपटने में प्यार या वासना का आवेग नहीं बल्कि खौफ था। वह खौफ जिसने उसके जहन को बुरी तरह जकड़ लिया था। देवांश उसे यूं ही लिये, स्लाईडिंग पार करके बैडरूम में आ गया।


उसी क्षण ।


कान खड़े हो गये उसके ।


छिटककर दिव्या भी अलग हो गई।


जाहिर है—वह आवाज उसने भी सुन ली थी जिसने देवांश के कान खड़े किये थे। दोनों की खौफजदा आंखें बाथरूम के दरवाजे पर स्थिर हो गईं ।


वह कमरे की तरफ से खुला हुआ था ।


अंदर से शॉवर चलने की आवाज आ रही थी ।


दिव्या फुसफुसाई- -“वह नहा रहा है ।” देवांश के जबडे कस गये ।


वह बगैर कुछ कहे बाथरूम के दवाजे की तरफ बढ़ा।


“नहीं।” दिव्या ने लपककर उसकी कलाई पकड़ ली— “तुम वहां मत जाओ।”


“छोड़ो दिव्या।” देवांश ने हल्का सा झटका देकर अपनी कलाइ छुड़ाने के साथ कहा— “वह, वह नहीं हो सकता।” 


“क्यों- क्यों नहीं हो सकता?”


“वह मर चुका है।” देवांश दांत भंचकर गुर्राया।


“शायद नहीं। उसने फोन पर हमसे बात की है । बबलू ने कहा था ...


“बकता है वो। आवाज की नकल करने वाले मैंने बहुत देखे हैं। मेरे सामने । मेरी इन आंखों के सामने मरा है वो । भले ही तुम भी मान लो वह कोई ओर था मगर मैं नहीं मान सकता ।”


“लेकिन कोई और, हमें 'वह' बनकर डराने की कोशिश क्यों करेगा?”


“वही जानना चाहता हूं मैं।” कहने के साथ, हालांकि जोश में वह दरवाजे की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ा था परन्तु दरवाजे के नजदीक पहुंचकर ठिठक गया।


लपककर दिव्या भी उसके नजदीक आ गई थी ।


दिल धाड़-धाड़ करके बज रहे थे ।


अंदर से शॉवर चलने की आवाज अभी भी आ रही थी ।


साथ ही उन्होंने सुनी— राजदान के गुनगुनाने की आवाज।


दिव्या फुसफुसा उठी— “नहाते वक्त वह हमेशा यही गाना गुनगुनाता है।” देवांश के रोंगटे खड़े हो गये ।


अचानक उसे ख्याल आया- -वह निहत्था है ।


इस तरह अंदर घुस जाना उसकी भूल भी साबित हो सकती है । अंदर जो भी है, राजदान या कोई और... उस पर हमला भी कर सकता है ।


उसका मुकाबला करने, उस पर काबू पाने के लिये कुछ चाहिये।


किसी ऐसी चचीज की तलाश में उसने सारे कमरे में नजर दौड़ाई जिसे हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सके। नजर कमरे की एक दीवार पर ‘शो-पीस’ के रूप में लटकी दो तलवारों पर ठहर गई। एक-दूसरे को क्रॉस किये हुए थीं वे। देवांश जानता था - उनमें धार नहीं है ।


वास्तव में केवल ‘शो-पीस’ ही हैं वे परन्तु उनसे बेहतर कमरे में और कुछ नहीं था। अतः एक जम्प सी लगाई। तलवारों के नजदीक पहुंचा और अगले ही पल वह तलवार के साथ वापस बाथरूम के दरवाजे के नजदीक था। 


दायें हाथ में तलवार ताने, बायें हाथ से ढुके हुए दरवाजे को धकेला।


उसी क्षण - गुनगुनाहट गायब हो गई। शॉवर अब भी चल रहा था ।


देवांश ने एक झटके से दरवाजा खोल दिया ।


वह किसी भी हमले का सामना करने के लिये तैयार था ।


परन्तु ।


कोई हमला नहीं हुआ।


ड्रेसिंग और बाथरूम के बीच अपारदर्शी कांच का जो दरवाजा था उस पर एक परछाईं को जरूर हिलते-डुलते देखा उसने। वह भी केवल एक पल के लिये ।


अगले पल उसने एक झटके से कांच का दरवाजा खोला।


परछाईं ने उसी क्षण खिड़की से फ्रन्टलॉन की तरफ जम्प लगाई ।


देवांश खिड़की पर झपटा। बाहर अंधेरा था | कुछ भी तो नजर नहीं आया उसे । हां, किसी के भागते कदमों की आवाज जरूर सुनाई दी।


हिम्मत करके देवांश ने भी खिड़की के बाहर जम्प लगा दी।


उसके पीछे दिव्या भी कूद पड़ी । 


वह केवल इसलिये देवांश के पीछे थी क्योंकि वर्तमान हालात में अकेली नहीं रहना चाहती थी । 


तलवार सम्भाले देवांश आगे, दिव्या उसके पीछे दौड़ रही थी । 


जोश में भरे देवांश को खुद नहीं मालूम था वह उस परछाई के पीछे दौड़ रहा है जिस खिड़की से कूदते देखा था या उससे विपरीत दिशा में क्योंकि चारों तरफ नीम अंधेरा था। 


आज तो वह बल्ब भी ऑफ था जो पिछली रात ऑन था।


अब तो पदचाप भी सुनाई नहीं दे रही थी उसे, फिर भी भाग रहा था।


रुका तब जब अचानक खुद को तेज प्रकाश दायरे में फंसा पाया। 


प्रकाश एक जीप की हैडलाईट्स का था।


उसका, जो ड्राईव वे पर दौड़ती सीधी उसकी तरफ आ रही थी ।


पीछे से दिव्या और सामने से जीप आकर देवांश के नजदीक रुकी। 


वातावरण में जीप के ड्राईविंग डोर से कूदते ठकरियाल की आवाज गूंजी— “क्या हुआ देवांश ? हाथ से तलवार लिये क्यों भागे फिर रहे हो अंधेरे में?” 


देवांश इस कदर हांफ रहा था कि तुरन्त जवाब तक न दे सका।