वही हुआ जिसका राजदान को डर था ।
'जेन' ड्राइव करता देवांश सीधा शांतिबाई के कोठे की तरफ बढ़ा।
राजदान एक टैक्सी की पिछली सीट पर बैठा उसका पीछा कर रहा था। इतना ही नहीं, खुद को छुपाता वह उसके पीछे 'कोठे' तक भी पहुंच गया । कोठे के मुख्यद्वार पर ताला लगा देखकर देवांश चौंका था। फिर उसने शांतिबाई की पड़ोसन से बात की। उस वक्त राजदान एक दीवार के पीछे खड़ा सबकुछ सुन रहा था जब पड़ोसन देवांश को बता रही थी कि विचित्रा और शांतिबाई को ठकरियाल बकायदा हथकड़ी लगाकर ले गया है।
समय रहते राजदान अपने स्थान से हटा और तेजी से चलता हुआ वापस टैक्सी की पिछली सीट पर आ बैठा । कुछ देर बाद देवांश भी वापस आया । जेन स्टार्ट की और आगे बढ़ गया | राजदान ने एक बार फिर टैक्सी ड्राईवर से उसे ‘फालो' करने के लिए कहा ।
कुछ देर बाद ।
जब राजदान की समझ में आ गया देवांश कहां जा रहा है तो उसने ड्राइवर से टैक्सी रोकने के लिए कहा। उस वक्त टैक्सी 'जुहू बीच' पर थी । टैक्सी वाले को वहीं रुकने का इशारा करके वह रेत पर चलता हुआ उस तरफ बढ़ा जिधर समुद्र में उठने वाली लहरें किनारों से टकराकर दम तोड़ रही थीं ।
इस बीच उसने मोबाइल पर एक नम्बर मिला लिया था ।
दूसरी तरफ से रिसीवर उठाया जाते ही बोला---“मैं बोल रहा हूं।”
“ओह ! राजदान साहब ।” दूसरी तरफ से ठकरियाल की आवाज उभरी --- “कैसा रहा नाटक ?”
“एकदम फिट ।” राजदान ने कहा--- "दोनों में से किसी को जरा भी शक नहीं हुआ।"
“एक्टिंग आपने भी लाजवाब की । एक बार तो खुद मुझे ही लगा, कहीं आप सचमुच एस. एस. पी. से मेरा पत्ता साफ कराने के चक्कर में तो नहीं हैं।”
“याद रखना ठकरियाल ।” राजदान दम तोड़ती लहरों के नजदीक जाकर ठिठका --- “हमारे बीच हुई 'डील' के बारे में उन्हें जिन्दगी के किसी मोड़ पर पता न लग सके। अगर छोटे को पता लग गया, मुझे उसकी करतूत के बारे में मालूम है तो वह कभी मुझसे आंख नहीं मिला सकेगा। अपनी ही नजरों से गिर जायेगा वह । जलील महसूस करेगा खुद को। ऐसा मैं नहीं चाहता । दूसरी तरफ - - - यदि दिव्या को भनक लग गई, छोटा उसे फांसी कराने वाला था तो शायद वह उसे मेरी तरह माफ न कर सके । तुम समझ सकते हो ठकरियाल, इस बात का खुलासा हम तीनों के सम्बन्धों को बिखेर कर रख देगा ।”
" इस मामले में मेरे और आपके विचार हंडरेड परसेंट मिलते हैं राजदान साहब । दरअसल रामोतार आदि के सामने मैं भी दूध का धुला हूं । इसलिए खुद चाहूंगा 'डील' की बात बाथरूम से बाहर का रास्ता कभी न देखे।”
“वह तुम्हारी ही तरफ आ रहा है । "
“कौन ? देवांश ?”
"हां ।”
“कोठे पर भी जरूर गया होगा । ”
“वहीं से आ रहा है । "
“ये सब स्वाभाविक प्रतिक्रियाएं हैं उसकी । उसके दिमाग में जो सवाल घुमड़ रहे हैं, उनके जवाब तो उसे चाहिएं ही चाहिएं।”
“तुम्हें उसे संतुष्ट करना होगा ताकि इस 'झमेले' से निकलकर काम में मन लगा सके।”
"फिक्र न करें, मैं उसे संभाल लूंगा ।”
“विचित्रा और शांतिबाई के बारे में क्या सोचा?”
“ मैंने कहा ही था --- उन्हें छोड़ना पड़ेगा ।”
“बात तो ठीक है |... केस बना तो छोटा भी फंसेगा । नहीं बना तो उन्हें भी छोड़ना पड़ेगा। मगर... ।” कहता- कहता थोड़ा रुका राजदान, फिर बोला --- “पुरानी कहावत है --- नागिनों को जख्मी करके नहीं छोड़ना चाहिए।"
“कहें तो किसी और केस में लाद दूं?”
“केस कोई भी हो --- कल वे जमानत पर फिर बाहर होंगी। पुनः छोटे से सम्पर्क स्थापित करने की कोशिश करेंगी। इधर छोटा भी वही कोशिश कर रहा है। हालांकि उम्मीद नहीं है लेकिन क्या पता वह फिर उनके किसी जाल में फंस जाये या गुस्से से भन्नाया उनके खून से अपने हाथ ही रंग बैठे । दोनों ही स्थितियों में बरबाद हो जायेगा वह । उस वक्त तो मैं भी नहीं होऊंगा उसकी मदद के लिए। मैं नहीं चाहता मेरे बाद वह किसी ऐसे चक्रव्यूह में फंसे ।”
“तो क्या चाहते हैं आप?”
“हमेशा के लिए निजात ।” कहते वक्त राजदान के जबड़े कस गये थे ।
सन्नाटा छा गया दूसरी तरफ ।
इधर राजदान का चेहरा पत्थर की तरह सख्त और बुदुग नजर आने लगा था। कुछ देर वह ठकरयाल के जवाब का इंतजार करता रहा। फिर बोला “बोलो!... कर सकोगे ऐसा ?” ..
“दोनों से ?” पूछा गया।
“एक के बाद दूसरी और ज्यादा जख्मी हो उठेगी, अतः निजात दोनों से जरूरी है।" राजदान इस वक्त किसी कोण से 'सहृदय' राजदान नजर नहीं आ रहा था--"यह काम मुझे छह साल पहले इंस्पैक्टर कामथ से करा लेना चाहिए था । यह दिन न देखना पड़ता । किसी ने सच कहा है ठकरियाल, इरादा अगर नागिन के खतरे से हमेशा के लिए निजात पाने का हो तो फन कुचल देना चाहिए उसका । "
“आज रात मेरे घर पचास की जगह पिचहत्तर लाख पहुंच जायें तो काम हो जायेगा। पचास बाथरूम में हुए 'मैटिलमेन्ट' के मुताविक । पच्चीस हमेशा के लिए निजात दिलाने के ।”
“डन ।”
“इधर से भी डन ।” ठकरियाल की आवाज “समझो काम हो गया ।”
राजदान ने मोबाइल ऑफ किया। पलटा । और तेज कदमों के साथ टैक्सी की तरफ बढ़ गया ।
***
“अ-आप! आप यहां क्यों आ गये देवांश बावृ?” उसे अपने ऑफिस में दाखिल होता देखते ही ठकरियाल कुर्सी से खड़ा होता बोला--- “प्लीज! चले जाइए यहां से वरना आपके भ्राता जी खटिया खड़ी कर देंगे मेरी ।”
“खटिया तो मैं खड़ी करने आया हूं तुम्हारी ।" देवांश गुर्राया ।
“अ - आप भी उसी लाइन पर चल पड़े --- मगर क्यों, क्यों 1 आप दोनों भ्राता मेरी खटिया के पीछे पड़ गये हैं?”
“किस बेस पर कहा भैया से कि मैं विचित्रा के बहकावे में आकर...
“किसी बेस पर नहीं सरकार । किसी वेस पर नहीं । वो तो बस यूं ही, कल्पनाएं करने की बीमारी है न मुझे। अब ये साली पुलिस की नौकरी छोड़कर जासूसी उपन्यास लिखने शुरू करूंगा । वेद प्रकाश शर्मा के पेट पर लात मारूंगा । इसी लायक हूं मैं । भला पुलिस में स्टोरियां 'घड़ने' से काम थोड़ी चलता है। यहां तो जो आप मुंह से निकालें उसका सुबूत चाहिए।”
“ यानी तुमने जो कहा, बगैर सुबूत के कहा ? ”
“सोलह आने बगैर सुबूत के कहा देवांश बाबू । सुवूत होते तो क्या 'उसी तरह' दुम दबाकर चला आता आपकी विला से? उल्टा मैं ही खटिया खड़ी न कर देता आपकी और आपके भ्राता जी की ? जिस तरह हल्दी की गांठ हाथ लगते ही चूहा खुद को पंसारी समझ बैठता है उसी तरह, मेरे हाथ एक किताब क्या लग गई --- खुद को बुक सेलर समझ बैठा । यानी इस भ्रम का शिकार हो गया कि अब आप मेरे जम्बूरे से बचकर नहीं जा सकते ।”
“किताब हाथ लगते ही तुम इस नतीजे पर कैसे पहुंचे कि भैया की हत्या 'विषकन्या' द्वारा की जाने वाली है और यह सब करने वाला मैं हूं?”
“अब तो मैं कुछ भी नहीं कह रहा देवांश बाबू | पूरी तरह बेदाग हैं आप। दूध के धुले ! गंगाजल से नहाये । पाक-साफ। पवित्र और पाकीजा ।”
“ अब न सही, लेकिन तब भी - - - किस बेस पर कहा वह सब?”
“कहा तो है, कोई बेस नहीं था मेरे पास । मति मारी गयी थी मेरी जो किताब हाथ लगते ही सोच बैठा --- 'हो-न-हो, ये किताब समरपाल के घर आपने पहुंचाई होगी।' इस सोच के पीछे आपकी और विचित्रा की जुगलबंदी थी । ताज के सुईट में ही कहा था मैंने--- 'ये जुगलबंदी मेरे हलक से नीचे नहीं उतर रही।' असल में यह शक मुझे उसी समय से हो गया था कि नकाबपोश आप हैं और धार पर समरपाल को रखना चाहते हैं। यह बीज बुग्गा की 'कद-काठी' वाली बात ने दिमाग में डाल दिया था मेरे । किताब में अण्डरलाइन हुआ मैटर देखते मैटर देखते ही समझा विचित्रा के नशे में चूर आप 'विषकन्या' द्वारा अपने भ्राता जी की रामनाम सत्य करने के प्लान पर काम कर रहे हैं । जानना चाहता था तो केवल यह कि 'विषकन्या' कौन बनेगी? यह जानने कोठे पर जा धमका। मां-बेटी को पकड़कर यहां ले आया। पूछताछ की उनसे।”
यह था वह प्वाइंट जिसकी बारीकी में देवांश घुसना चाहता था । धड़कते दिल से पूछा उसने --- “क्या कहा विचित्रा और शांतिबाई ने?”
“वही कहती रहीं जो आप कह रहे हैं। यह कि --- उनका या आपका इस किताब या विषकन्या से कोई सम्बन्ध नहीं है।
मगर मुझ पर तो मानो शनि की साढ़े सती शुरू हो चुकी थी। बाल बराबर यकीन नहीं किया उन पर । यह सोचकर विला पर जा धमका कि मेरी स्टोरी सुनकर आपके भ्राता जी के हाथ-पांव ठंडे पड़ जायेंगे। लेकिन वहां तो पासे ही पलट गये सारे । इधर मैंने आप पर शक व्यक्त किया, उधर आग का गोला बन गये राजदान साहब । उसके बाद --- मैं किसी तरह पिंड छुड़ाकर वहां से भागा, वो सीन तो आपने देखा ही था । अब तो कान पकड़ लिए हैं मैंने---सोते वक्त भी ख्याल रखूंगा पैर कहीं विला की तरफ तो नहीं फैल गये हैं।"
अब कहीं जाकर देवांश ने राहत की सांस ली।
तब, जब यकीन हो गया विचित्रा और शांतिबाई टूटी नहीं हैं । ठकरियाल को न तो पता है कि अण्डरलाइन दिव्या के पैन से की गई थीं न ही ये कि विषकन्या दिव्या थी | कुछ देर शांत रहने के बाद उसने अगला सवाल किया --- “विचित्रा और शांतिबाई कहां हैं?”
“क्यों पूछ रहे हैं आप?”
उस पर हावी सा होता देवांश गुर्राया--- "क्यों से क्या मतलब?”
“बुरा मत मानियेगा हुजूर । रियाया हूं आपकी । गुस्ताखी का कारण केवल इतना है कि आपके द्वारा उनके बारे में पूछने की दो वजह हो सकती हैं। पहली, आप अब भी विचित्रा के दीवाने हों। दूसरी, अपने भ्राता जी द्वारा उनकी हकीकत जानने के बाद खून के प्यासे हों उनके ।”
“वजह कोई भी हो, तुम्हें क्या फर्क पड़ता है ?”
“कोई फर्क नहीं पड़ता । खासतौर पर इसलिए क्योंकि मैं उन्हें यहां से रुख्सत कर चुका हूं।"
“रुख्सत कर चुके हो ?” देवांश चौंका --- “क्यों?”
“जब कोई केस ही नहीं बन रहा था हुजूर तो यहां रखकर क्या अचार डालता उनका ?”
“कब छोड़ा ?”
“छोड़ तो विला से आते ही दिया था सरकार, मगर मेरे ख्याल से अपने निवास स्थान की तरफ जाने की जहमत नहीं उठायेंगी वे !”
"क्यों?”
“ मैंने उन्हें अच्छी तरह समझा दिया था कि अपने भ्राता जी से उनकी हकीकत जानने के बाद साक्षात यमराज का अवतार बन चुके हैं आप | कहा था ---जान की खैर चाहती हो तो हमेशा के लिए छोड़ दो यह शहर । बहुत डर गई थीं वेचारी | चेहरे हल्दी की गांठ वन गये थे। जान किसे प्यारी नहीं होती? मेरा ख्याल है, अब तक वे 'बोरीवली' पार कर चुकी होंगी ।”
“यह सब कहने के लिए किसने कहा था तुमसे ?”
“मेरी कांशियस ।”
“क्यों?”
“वता चुका हूं हुजूर। अपने इलाके में होने वाली हत्या किसी इंस्पैक्टर को अच्छी नहीं लगती और मुझे आपके हाथों उनके मरने का पूरा खतरा था । बहरहाल...
ठकरियाल का वाक्य अधूरा रह गया ।
कारण था ---बीच में ही देवांश का पलटना और जिस तेजी से आया था उसी तेजी से बाहर निकल जाना । उसके जाते ही ठकरियाल के होटों पर धूर्त मुस्कान उभरी। बड़बड़ाकर खुद ही से कहा उसने --- 'बहरहाल, मेरा नाम भी टेकचंद ठकरियाल है!'
***
“वैलकम छोटे !... वैलकम ।” उसे ऑफिस में दाखिल होता देखकर राजदान ऊंची पुश्त वाली रिवाल्विंग चेयर से खड़ा हो गया ।
" ये क्या कर रहे हैं भैया?” कीमती कांच के टॉप वाली विशाल मेज की तरफ बढ़ते देवांश ने कहा --- “भ-भला मुझे देखकर आपके खड़े होने का क्या मतलब ?”
“आज तू पहली बार कुछ सीखने की इच्छा से इस ऑफिस में आया है।” खुशी से दमकते चेहरे के साथ होठों पर मुस्कान लिए राजदान ने कहा--- "हफ्ते भर के अंदर मैं तेरे लिए अलग केबिन बनवा दूंगा ।”
देवांश कुछ बोल न सका।
“ इनसे मिल ।” राजदान ने एक विजिटर्स चेयर पर बैठे शख्स की तरफ इशारा किया --- “ये हमारे फाइनेंसर्स में से हैं। रामभाई शाह । और रामभाई, ये है राजदान एसोसियेट्स का भावी मालिक, मेरा छोटा भाई ।” ....
रामभाई शाह ने कुर्सी पर बैठे ही बैठे उससे हाथ मिलाया।
हाथ मिलाते वक्त देवांश 'अपनत्व' का भाव लिए मुस्कराया था परन्तु शाह के होठों पर 'औपचारिक' मुस्कान भी न उभरी। शाही चेहरे और बड़ी-बड़ी मूछों वाले शाह का व्यवहार उदासीन सा था । देवांश को उसका 'रियेक्शन' अच्छा नहीं लगा। राजदान ने वापस अपनी कुर्सी पर बैठते हुए कहा--- "बैठ छोटे ।"
जाने क्यों, शाह के साथ बैठने की इच्छा नहीं हुई देवांश की । फिर भी, इस बारे में अपने भाव प्रकट किये बगैर बैठ गया। राजदान ने कहा --- “रामभाई, मैं तो अब रिटायर होना चाहता हूं। बहुत जल्द सारा कारोबार छोटे को संभालना है।"
शाह ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की । बल्कि अपने ही काम की बात कही उसने --- “देवांश बाबू के आने से पहले मैंने कुछ कहा था ।”
“हां ।” राजदान बोला- -- “तुम अपने ब्याज की बात कर रहे थे। अगले हफ्ते पहुंच जायेगा ।”
“शैड्यूल के मुताबिक वह पिछले हफ्ते पहुंचना था।”
“तुम तो जानते हो रामभाई, मैं अभी कनाडा से लौटा हूं। शैड्यूल सेट करने में दो-चार दिन तो लग ही जायेंगे। पांच
ही लाख की बात है, क्यों फिक्र करते हो?”
“पैसे का काम पैसे से चलता है राजदान साहब, बातों से नहीं।” उसके लहजे में परायापन-सा था --- "जब व्याज समय पर नहीं पहुंचता तो मुझे 'मूल' की चिंता सताने लगती है। थोड़ा-थोड़ा करके ही सही, अगले हफ्ते से मूल भी देना शुरू करो।”
“ओ.के. ।” राजदान का भाव ऐसा था जैसे उसे टालना चाहता हो --- “जैसा चाहते हो वैसा हो जाएगा।”
“तो बोलो, ब्याज की हर किश्त के साथ मूल में से कितना दोगे?”
“बीस लाख ठीक रहेंगे ?”
“पच्चीस ।”
राजदान ने पुनः बात खत्म करनी चाही --- “ओ.के.”
“पच्चीस प्लस पांच, यानी तीस। अगले हफ्ते से स्टार्ट ?” शाह ने ठोक बजाकर वायदा लिया ।
“डन यार... डन ।” कहने के साथ राजदान ने उसकी तरफ हाथ बढ़ा दिया ।
शाह ने कुर्सी से खड़े होते हुए हाथ मिलाया । जो गर्मजोशी राजदान के अंदाज में थी, वह शाह के अंदाज में नहीं थी । हालांकि विदा होने से पूर्व हाथ उसने देवांश से भी मिलाया मगर असल में वह मिलाया नहीं था बल्कि अपनी हथेली देवांश की हथेली से 'टच' भर की थी । जैसे एहसान कर रहा हो । इस बार देवांश ने भी खास तवज्जो नहीं दी । शाह के जाते ही बोला --- “भैया, ये आदमी मुझे जंचा नहीं।”
राजदान मुस्कराया। मेज से डिब्बी उठाई । म्यूजिकल लाइटर से सिगार सुलगाया और बोला--- "बिजनेस का पहला सबक - - - इस बात पर ध्यान मत दो, कौन तुम्हें जंचता है, कौन नहीं जंचता। केवल इस बात पर ध्यान दो --- कौन तुम्हारे काम का है, कौन नहीं ? काम का है तो कितना? जितने काम का हो, उतनी ही तवज्जो दो । उससे रत्ती भर कम या ज्यादा नहीं। आदमी अगर काम का नहीं है तो भले ही चाहे जितना जंचता हो, उससे बातें करके टाइम खराब मत करो। बिजनेस चेयर पर बैठने के बाद एक ही मंत्र याद रखना --- टाइम इज मनी ।”
“फिर भी भैया! आदमी कम से कम व्यावहारिक तो हो ।”
“यकीन करो, शाह एक अत्यन्त व्यावहारिक और शानदार आदमी है मगर अपने करेक्टर को बिजनेस में इन्वॉल्व नहीं करता । जब बिजनेस कर रहा होता है तो सिर्फ बिजनेसमैन होता है। इस कुर्सी पर बैठकर मैं भी वैसा ही हूं और तुम्हें भी वैसा ही बनना होगा । जब किसी से काम निकालना हो तो कुछ और, काम निकल चुके तो कुछ और.... और किसी से काम ही न हो तो कुछ और । उसके वर्तमान व्यवहार की वजह साफ है ---आज हम उसके देनदार हैं, समय पर ब्याज की किश्त नहीं दे सके। समय के मुताबिक उसकी अकड़ ठीक है और उसकी अकड़ को नजरअंदाज करके अपने व्यवहार में नम्रता बनाये रखना हमारी मजबूरी । ”
“कितना पैसा है उसका ?”
“ढाई करोड़ ।”
" मुंह पर क्यों नहीं मारते?”
राजदान इस तरह मुस्कराया जैसे बुजुर्ग बच्चे की बचकानी बात पर मुस्कराया हो --- “पैसा होता तो ऐसा जरूर करता मैं । ब्याज की किश्त तो कम से कम लेट नहीं ही होती ।”
“तो क्या इस वक्त हमारे पास पांच लाख रुपये भी नहीं हैं?"
" हैं क्यों नहीं? लो --- अभी बताता हूं तुम्हें ।” कहने के साथ राजदान ने इन्टरकॉम उठाया । एक नम्बर मिलाने के बाद बोला-~-“समरपाल, बैंक एकाउन्ट लेकर आओ।”
रिसीवर वापस रखे राजदान को मुश्किल से आधी मिनट हुआ था, समरपाल ऑफिस में आया। दोनों को अभिवादन किया । उसके हाथ में बैंक स्टेटमेंट था ।
राजदान ने पूछा- -- “सभी एकाउन्ट्स में मिलाकर इस वक्त कितना पैसा है ?”
“सत्तर लाख सर ।"
“ओह !” राजदान के चेहरे पर पल भर के लिए चिंता नजर आई---लेकिन अगले पल उससे 'उबरकर' हुक्म जारी किया ---“पिचहत्तर लाख कैश चाहिए । बैंक मैनेजर से कहना ओवर ड्राफ्ट कर दे ।”
“यस सर ।”
“ जा सकते हो ।”
समरपाल वापस चला गया। राजदान ने कहा--- "तुमने सुना, बैक में सत्तर था | पांच अगर पिछले हफ्ते शाह को पहुंचा दिया जाता तो वह इस वक्त यहां बैठा नहीं मिलता। अब भी उससे अगले हफ्ते के लिए कहना पड़ा तो केवल इसलिए क्योंकि पिचहत्तर लाख किसी और को देना है ।”
“किसको?”
राजदान के चेहरे का रंग थोड़ा उड़ गया | जल्द ही संभलकर बोला--- “फिलहाल बस इतना समझो, वह देनदारी, शाह की देनदारी से ज्यादा जरूरी है ।”
“ ऐसे कितने लोगों का कितना कर्जा है हम पर ?”
“इसे कर्जा नहीं, देनदारी कहते हैं छोटे । दो ही चीजें होती हैं बिजनेस में ---देनदारी और लेनदारी ! जो प्रापर्टी हमारे पास है, उसे भी लेनदारी ही कह सकते हैं । जब लेनदारी, देनदारी से ज्यादा हो तो बिजनेसमैन शान से जी रहा होता। शाह जैसे लोगों की अकड़ बरदाश्त नहीं करता । लेकिन जब लेनदारी, देनदारी से कम हो तो थोड़ा दबकर चलना पड़ता है।"
“ यानी इस वक्त हम पर देनदारी ज्यादा है ?"
“एक ही दिन में इतना सबकुछ नहीं बता देना चाहता था मैं तुम्हें मगर शाह की मौजूदगी के कारण जब बात चल ही गई है तो सुनो।" राजदान ने एक कश के बाद कहना जारी रखा- -- “पिछले कुछ दिनों से हमारे बिजनेस में ‘मंदा' चल रहा है। शाह जैसे फाइनेंसर्स से पैसा लेकर हमने महंगी जमीनें खरीदीं, उन पर फ्लैट्स बनाये । मान लो एक फ्लैट जमीन सहित सौ रुपये खर्च करके बनाया । अब वह एक सौ पांच, एक सौ दस अर्थात सौ से जितने ज्यादा रुपये में बिके वह हमारा प्रॉफिट होगा मगर, हो उल्टा रहा है। पिछले दिनों जमीन और बिल्डिंग मैटीरियल के रेट इतने डाउन हुए हैं कि सौ रुपये में बने फ्लैट को लोग इकसठ रुपये में खरीदने को तैयार नहीं हैं। साठ रुपये के खरीदार हैं। इतने नुकसान पर फ्लैट बेचे गये तो समझ सकते हो --- कम्पनी डूब जायेगी । ज्यादा के खरीदार बाजार में हैं नहीं, मतलब फ्लैट बने खड़े हैं । जो पैसा फाइनेंसर्स से लिया है वह कॉलोनियों की शक्ल में है हमारे पास। .... मूल न सही - - - ब्याज तो देना ही पड़ रहा है उन्हें । जितना ब्याज दे रहे हैं, समझ लो --- तैयार फ्लैट्स हमारे लिए उतने ही महंगे होते जा रहे हैं यानी जो फ्लैट सौ रुपये में तैयार हुआ था, अगर अब तक दिया गया ब्याज उसमें जोड़ दें तो एक फ्लैट में एक सौ दो या एक सौ तीन रुपये लग चुके हैं।”
“यानी एक तरफ फ्लैट्स में लगाई गई रकम बढ़ रही है, दूसरी तरफ खरीदार न होने की वजह से कीमत घट रही है।"
“मुझे खुशी है तुम ठीक समझे ।”
“लेकिन इस तरह तो स्थिति बदतर होती चली जायेगी । एक तरफ जितने ज्यादा महीने गुजरेंगे यानी जितना ब्याज देते जायेंगे, हमारे लिए फ्लैट्स की लागत उतनी ज्यादा होती जायेगी, जबकि वास्तव में उनकी कीमत कम हो रही है । ”
“यह संकट भविष्य का है। वर्तमान संकट ये है कि जब फ्लैट्स बिक ही नहीं रहे तो शाह जैसे लोगों को ब्याज दें कहां से? ब्याज समय पर नहीं देंगे तो साख बिगड़ेगी। साख बिगड़ी तो फाइनेंसर्स मूल मांगना शुरू कर देंगे । जब ब्याज ही देने को नहीं है तो मूल कहां से देंगे? इस संकट से बचने का एक ही रास्ता है ---जैसे भी हो, ब्याज समय पर देते रहें ताकि अन्य फाइनेंसर्स को शाह की तरह मूल मांगने का मौका न मिले।”
“लेकिन जब फ्लैट्स बिकेंगे नहीं तो ब्याज हो या मूल --- दिया कहां से जायेगा ?”
“इसी खेल में उलझने और रास्ता निकालने को बिजनेस कहते हैं।”
“यह स्थिति तो बड़ी भयावह है। फ्लैट बेचे तो डूबे, नहीं बेचे तो भी डूबे ।”
“निःसन्देह स्थिति भयावह है। मगर घबराना नहीं चाहिए। बिजनेस में घबराये और.. और ज्यादा फंसे । जो स्थिति हमारी है, वह हमारी ही नहीं - - - आज की तारीख में इस धंधे को कर रहे हर शख्स की है । यह सोच हमें बल देती है।"
“बल से होगा क्या, पैसा तो चाहिए ही न?”
“इतने मत घबराओ, बिजनेस में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं । जो फ्लैट आज कोई साठ रुपये में लेने को तैयार नहीं है, मुमकिन है कल डेढ़ सौ रुपये का बिकने लगे।”
“ये भी मुमकिन है रेट साठ से नीचे आ जाये ?”
“करेक्ट ।... ये भी हो सकता है ।”
“इन हालात में हम करेंगे क्या?”
“पहली बात ---उम्मीद पर ही दुनिया कायम है। दूसरी बात - - - हम रेट चढ़ने की उम्मीद में हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकते। इसी क्राइसेज से निकलने के लिए नई कालोनी की स्कीम बनाई है मैंने। आज के... यानी कम रेट पर जमीन ली है। टार्गेट होगा---पैंतीस से चालीस रुपये में फ्लैट तैयार करके पचास से साठ तक में बेचना । उस प्रॉफिट से हम फाईनेंसर्स को तब तक उलझाये रखेंगे जब तक सौ रुपये वाले फ्लैट्स कम से कम उतने में न बिकने लगें जितनी उनकी लागत हो । ”
“नई कॉलोनी बनाने के लिए भी तो पैसा चाहिए?”
“यकीनन चाहिए | "
“ब्याज देने को ही नहीं, फिर...
“इसी का नाम बिजनेस है। खुद को उबारना है तो पैसे का इंतजाम करना होगा । कहीं से भी । कैसे भी। नहीं कर पाये तो डूब जायेंगे मगर... तेरा पहला ही दिन है आज । यह सब सोचकर हलकान मत हो । अभी तो मैं बैठा हूं--- कर लूंगा पैसे का इंतजाम ! तेरा काम होगा - - - जल्द से जल्द नई कॉलोनी तैयार कराना।"
“महीने दो महीने में तो तैयार हो नहीं जायेगी कॉलोनी । बहरहाल टाइम लगेगा । तब तक पैसा ही पैसा चाहिए । कॉलोनी के निर्माण के लिए, स्टाफ की तनख्वाह के लिए और फाइनेंसर्स को देने के लिए भी । ”
“जरूरत से ज्यादा निराश हो गया है तू । 'क्राईसेज' जरूर है मगर निराश होने जैसी बात नहीं है । निराश होने से बात और बिगड़ जाती है छोटे | नई कॉलोनी के लिए हम 'बुकिंग ओपन' करेंगे। यानी पब्लिक कम दामों में फ्लैट्स बुक करा सकती है। अपना नक्शा इतना जानदार है कि उम्मीद है लोग उसकी तरफ दौड़ पड़ेंगे । बुकिंग की रकम से ही कॉलोनी तैयार होगी, तनख्वाहें दी जायेंगी और शाह जैसे फाइनेंसर्स के मुंह बंद किये जायेंगे । इसलिए, जब से कनाडा से आया हूं तब से एक ही बात कह रहा हूं तुझसे | जल्द से जल्द नये प्रोजेक्ट की तरफ ध्यान दे । "
“मैं वह जमीन देखना चाहूंगा जहां कॉलोनी बनाई जानी है।"
“अब चला है तेरा दिमाग सही दिशा में।” बहुत देर बाद राजदान के होठों पर सच्ची मुस्कान उभरी । कुर्सी से खड़ा होता बोला - - - “आ।.... साईट पर चलते हैं ।”
देवांश ने निश्चय कर लिया था कि अब सचमुच उसे अपना दिमाग बिजनेस में लगा देना चाहिए । वह जान ही चुका था --- राजदान ज्यादा दिनों का मेहमान नहीं है। उसके बाद उसका जो है, सब उसी का है। दिव्या सहित । मगर, जो है ---उसे संभालने की कला तो राजदान से सीखनी ही पड़ेगी । कला नहीं सीखी तो सब डूब जायेगा । राजदान की बातें सुनकर वह और ज्यादा फिक्रमंद हो उठा था । एक ही निचोड़ था उसकी बातों का - - - यह कि बिजनेस तलवार की धार पर चल रहा था। नई कॉलोनी वाला पासा सही पड़ने का मतलब था --- पौ बारह । गलत पड़ने का मतलब था --- बरबादी ।
वह उठा और राजदान के पीछे ऑफिस के दरवाजे की तरफ बढ़ गया ।
उस वक्त राजदान ने हाथ बढ़ाकर दरवाजा खोला ही था जब उसे हल्की सी खांसी उठी । खांसता हुआ वह कॉमन
लॉबी में पहुंचा | देवांश दो कदम पीछे था । लॉबी में दोनों तरफ बने केबिन्स में राजदान एसोसियेट्स का स्टाफ बैठा था जो उन्हें देखकर सम्मान में खड़ा हो गया। शुरू में खांसी पर न राजदान ने खास ध्यान दिया था, न देवांश ने, मगर जब एक बार शुरू हुई खांसी रुकी ही नहीं तो देवांश सहित सारे स्टाफ की उस पर खास तवज्जो गई ।
धसका सा लग गया था राजदान को ।
खांसते-खांसते दुहेरा हो गया ।
दायां हाथ मुट्ठी की शक्ल में मुंह के सामने कर रखा था उसने ।
देवांश लपककर नजदीक पहुंचा। सम्भालने की कोशिश करता बोला---“क्या हुआ भैया? क्या हुआ?”
राजदान को बोलने की फुर्सत मिले तो बोले भी।
खांसने से ही होश नहीं था उसे ।
लॉबी के दोनों तरफ से स्टाफ उसकी तरफ दौड़ पड़ा । देवांश के साथ सभी संभालने की कोशिश कर रहे थे उसे मगर खांसी थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी । खांसते-खांसते चेहरा लाल हो गया । आंखें पलकों से बाहर तक उबल आईं। और अंततः खांसता ही खांसता फर्श पर गिर पड़ा।
वह बेहोश हो चुका था।
देवांश चिल्लाया--- "डॉक्टर को फोन करो !... जल्दी !”
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