बुधवार : 20 मई

जीतसिंह सुबह दस बजे तक सोया रहा।
शायद अभी और भी सोता अगरचे कि मोबाइल न बज उठा होता।
पिछली रात एडवर्ड सिनेमा के करीब वाले बेवड़े के अड्डे से चिंचपोकली का रुख करने की जगह वो कालबा देवी लौटा था और उस घड़ी अपने किराये के फ्लैट में था।
उसने काल रिसीव की जो कि गाइलो की थी।
‘‘किधर है?’’—उसने पूछा।
जीतसिंह ने बताया।
‘‘रात मेरे को भी यहीच लगा था कि तू चिंचपोकली नहीं जाने वाला था ।’’
‘‘कैसे फोन किया?’’
‘‘चेराट का मैसेज आया न!’’
‘‘चेराट!’’
‘‘मुरली चेराट। जौहरी बाजार वाले वाल्ट का मलयाली क्लर्क। भूल भी गया?’’
‘‘नहीं। क्या बोला?’’
‘‘लास्ट नाइट, मिडनाइट में, लॉकर 243 ऑपरेट हुआ ।’’
‘‘कोई उसमें ब्रीफक्रेस रख के गया?’’
‘‘हाँ। हमेरे को कल रात टैन ओक्लॉक पर उधर होने का। अपनी तैयारी कर लेना ऐन परफेक्ट कर के। यहीच बोलने को फोन लगाया। क्या!’’
‘‘ठीक है ।’’
‘‘शाम को मिलते हैं ।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘बोलेगा। बात न हो सके तो शाम आठ बजे कल वाले बेवड़े अड्डे पर आने का। बरोबर?’’
‘‘बरोबर ।’’
‘‘अभी कट करता है ।’’
‘‘नहीं, अभी नहीं। अभी मेरे को कुछ बोलने का ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘वो डिपार्टमेन्ट स्टोर वाला सिन्धी सेठ...जिस का शनिवार को मर्डर हुआ...बोले तो वो किसी सुपारी किलर का काम ।’’
‘‘क्या बात करता है! छापे में साफ लिख रयेला था कारजैकर का काम। नई होंडा कार काबू में करने का था। ओनर रिजिस्ट किया इस वास्ते स्टैब किया ।’’
‘‘मेरे को कारजैकिंग वाली स्टोरी पर एतबार नहीं ।’’
‘‘पण कारजैकिंग...’’
‘‘कवर अप था ।’’
‘‘किस बात का?’’
‘‘मर्डर का ।’’
‘‘मर्डर!’’
‘‘बरोबर। कोई सिन्धी सेठ की सुपारी लगाया। पहले भी बोला ।’’
‘‘पण काहे?’’
‘‘माल काबू में करने के वास्ते। सिन्धी सेठ का औकात सौ करोड़ से ऊपर। कोई उतावला, बेसब्रा भीड़ू...किसी को सेठ के अपनी आयी मौत मरने का इन्तजार भारी...इस वास्ते वो सुपारी लगाया ।’’
‘‘जीते, तू तो सुष्मिता को प्वायन्ट आउट कर रयेला है!’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘अरे, वो क्लोज रिलेटिव है...’’
‘‘और भी हैं ।’’
‘‘वो क्लोजेस्ट है ।’’
‘‘कोई नहीं मानता। इसी वास्ते निकाल बाहर किया ।’’
‘‘ये तो तू बरोबर बोला। तो...सुपारी कोई लगाया तो कौन लगाया?’’
‘‘दो बेटे हैं, एक बेटी है, एक दामाद है ।’’
‘‘अरे, वो...वो...दे आर वैल ऑफ पीपुल ।’’
‘‘हमें क्या मालूम!’’
‘‘सौ करोड़ की औकात वाले सेठ का औलाद और कैसा होयेंगा?’’
‘‘वो जुदा मसला है, गाइलो, ये टेम मेरे को कहीं और फोकस रखने का ।’’
‘‘सुपारी किलर पर?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘ठीक है। तू बोलता है तो मैं फैलाता है अन्डरगिराउन्ड में...’’
‘‘मैं बोलता है ।’’
‘‘कोई खुसर पुसर सुनाई दिया, कुछ पकड़ में आया तो फारवर्ड करेगा तेरे को ।’’
‘‘थैंक्यू ।’’
जीतसिंह लेमिंगटन रोड पहुँचा।
सिन्धी डिपार्टमेन्ट स्टोर खुला था और उसमें हमेशा जैसी रौनक और चहल पहल दिखाई दे रही थी।
बाहर से ही उसको मालूम पड़ गया कि शनिवार के बाद वो उसी रोज खुला था।
वो भीतर दाखिल हुआ। उसकी निगाह स्टोर के भीतर तक फिरी तो उसने पाया कि पिछवाड़े में बने स्टोर के मालिक पुरसूमल के शानदार एयरकंडीशंड आफिस की स्टोर की ओर की विशाल ग्लास विंडो पर से वैनेटियन ब्लाइंड्स का पर्दा उठा हुआ था, और भीतर पुरसूमल की एग्जीक्यूव चेयर पर एक फिल्म स्टार्स जैसी शक्ल सूरत वाला—और वैसा ही मगरूर—नौजवान लड़का विराजमान था। ऐन वैसा ही एक नौजवान उसके सामने एक विजिटर्स चेयर पर बैठा हुआ था।
प्रवेश द्वार के करीब ही एक स्टाल था जिसके काउन्टर के पीछे स्टोर के कर्मचारियों की वर्दी पहने एक व्यक्ति मौजूद था जिस की शर्ट की पॉकेट पर ‘मे आई हैल्प यू’ लिखी प्लेट लगी हुई थी। वैसा ही कई साइज बड़ा साइन काउन्टर के ऊपर जंजीर से भी लटक रहा था।
जीतसिंह वहाँ पहँुचा।
‘मे आई हैल्प यू’ व्यक्ति मशीनी अन्दाज से मुस्कराया।
‘‘तिवारी जी से मिलना है ।’’—जीतसिंह सहज भाव से बोला।
‘‘तिवारी जी?’’—उस व्यक्ति की भवें उठीं।
‘‘इधर के मैनेजर तिवारी जी ।’’
‘‘अच्छा, वो! वो तो छोड़ गये ।’’
‘‘छोड़ गये?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘इतने साल से यहाँ मुलाजिम थे...’’
‘‘मैं तो ज्यादा पुराना नहीं—सिर्फ पाँच साल हुए हैं—लेकिन सुना है तिवारी जी तो जब से स्टोर है, तब से यहाँ थे ।’’
‘‘फिर भी छोड़ गये?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘एकाएक?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘मैंने सुना है शनिवार के बाद से स्टोर आज ही खुला है, तो छोड़ कब को गये?’’
वो खामोश हो गया।
‘‘तुम इतने सवाल क्यों पूछ रहे हो, भई?’’—फिर बोला—‘‘कौन हो तुम?’’
‘‘मैं उन का भांजा हूँ। बद्री नाम है। बद्रीनाथ ।’’
‘‘ओह! इधर ही रहते हो? मुम्बई में?’’
‘‘नहीं। बनारस से आया हूँ। पहली बार। मामू इधर कहाँ रहते हैं, नहीं मालूम। माँ बोली स्टोर जाना, मिल जायेंगे। अभी आया तो तुम कहते हो छोड़ गये ।’’
‘‘हाँ, भई ।’’
‘‘कब छोड़ गये?’’
‘‘सुना है सोमवार शाम को नये मालिकों से सेठ जी की मौत का अफसोस करने कोलाबा गये थे तो तभी कुछ हुआ था कि...एकाएक छोड़ गये ।’’
‘‘छोड़ गये या निकाल दिये गये?’’
‘‘भई, सुबह जब से स्टोर खुला है, तब से इधर यही चर्चा है। कोई कहता है तिवारी जी खुद ही रिटायर हो जाना चाहते थे, कोई कहता है नये मालिकों ने डिसमिस कर दिया। असल बात तो या तिवारी जी जानें या नये मालिक जानें ।’’
‘‘नये मालिक!’’
‘‘वो बैठे हैं न सेठ जी के आफिस में!’’—उसने एक गुप्त इशारा पिछवाड़े की तरफ किया।
जीतसिंह ने उसकी निगाह का अनुसरण किया।
‘‘वो जो सेठ जी की कुर्सी पर बैठा है, जिसके सिर के छोटे बाल, लम्बी कलमें और बारीक मूँछ है, वो बड़ा लड़का आलोक चंगुलानी है। जो उसके सामने बैठा है, जिसके झब्बेदार बाल हैं, जो क्लीन-शेव्ड है लेकिन जो निचले होंठ और ठोढ़ी के बीच आजकल के फैशन की बालों की तिकोन रखे है, वो छोटा है, अशोक चंगुलानी ।’’
‘‘अभी स्टोर ये चलायेंगे?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘तो?’’
‘‘बेच बाच के वापिस इंगलैण्ड जायेंगे, जहाँ से कि आये हैं ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘आज सुबह आते ही यही घोषणा की ।’’
‘‘इतने मुलाजिमों का क्या होगा?’’
‘‘स्टोर के नये मालिक ने न बरकरार रखा तो बुरा ही होगा। नया मालिक तो हो सकता है डिपार्टमेन्ट स्टोर ही न चलाना चाहे, यहाँ से कोई और धन्धा करे ।’’
‘‘और धन्धा क्या?’’
‘‘भई, इतनी प्राइम लोकेशन पर इतनी प्राइम प्रापर्टी है, सौ धन्धे मुमकिन हैं ।’’
‘‘ठीक। फिर तो मामू को इधर से जाना ही पड़ना था—अभी गये या ठहर के जाते!’’
‘‘वो तो है!’’
‘‘उन्होंने कभी ऐसा कोई इशारा किया था कि रिटायर होना चाहते थे?’’
‘‘नहीं, कभी नहीं। मैंने उनके जाने की बात सुनकर और लोगों से भी इस बाबत सवाल किया था, सब का मेरे वाला ही जवाब था। हिम्मत करके आफिस में जाकर मैंने नये मालिकों से पूछा था तो दोनों खफा हो गये थे। फिर बड़े ने जवाब दिया था कि इस्तीफा देकर बलिया चले गये थे जहाँ कि उन का पुश्तैनी घर है। तुम्हें तो मालूम ही होगा!’’
‘‘ऐसे एकाएक कोई कैसे जा सकता है! बकाया तनख्वाह मिलनी होती है, प्राविडेंट फण्ड का हिसाब होना होता है, ग्रैजएटली करके कुछ होता है पुराने मुलाजिमों का जिसका हिसाब होना होता है...’’
‘‘गै्रच्युइटी ।’’
‘‘वही। मामू ये सब क्लेम किये बिना ही चले गये?’’
‘‘ऐसी रकमों के चैक बाद में पीछे भिजवाये जा सकते हैं ।’’
‘‘ठीक। ठीक। लेकिन मामू को बलिया कूच कर जाने की जल्दी क्या होगी? नौकरी छोड़ने की जल्दी—या छुड़वाये जाने की जल्दी—तो समझ में आती है। अपने पैसों का हिसाब किये बिना, उसको क्लेम किये बिना चले जाने का क्या मतलब?’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘ये मतलब कि वो अभी मुम्बई में ही होंगे ।’’
‘‘हो तो सकता है!’’
‘‘मेरे को मामू के घर का पता नहीं मालूम। यहाँ किसी को मालूम हो तो पता करवा दो, मेहरबानी होगी ।’’
‘‘वो घर होंगे!’’
‘‘देख के आने में क्या हर्ज है! अभी हुए तो मेरा होटल में ठहरने का खर्चा बच जायेगा ।’’
‘‘मुम्बई कैसे आना हुआ?’’
‘‘पूना में काम था, वहाँ आया था, फारिग हुआ तो सोचा मामू से मिलता चलूँ ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘तो मामू का इधर का पता...वो तो यहाँ के रिकार्ड में भी होगा!’’
‘‘मैं....मालूम करता हूँ ।’’
‘‘हो सके तो मोबाइल नम्बर भी ।’’
‘‘मोबाइल नम्बर!’’
‘‘आजकल तो हर किसी के पास होता है। नहीं?’’
‘‘हाँ। आता हूँ ।’’
‘‘शुक्रिया ।’’
स्टाल के पीछे से निकल कर वो भीतर कहीं गया।
पीछे जीतसिंह खामोशी से, फासले से, दोनों भाइयों का मुआयना करता रहा।
पाँच मिनट में वो शख्स वापिस लौटा। उसने जीतसिंह को एक दोहरा किया हुआ कागज थमाया।
‘‘शुक्रिया ।’’—वो कृतज्ञ भाव से बोला—‘‘अपने मेहरबान का नाम तो मैंने जाना ही नहीं!’’
‘‘कपिल। कपिल खिरवार ।’’
‘‘शुक्रिया, खिरवार साहब ।’’
जवाब में उसने मुस्करा कर, सिर नवा कर शुक्रिया कबूल किया।
जीतसिंह जाने के लिये घूमा, ठिठका, वापिस घूमा।
‘‘कुछ और याद आ गया?’’—खिरवार बोला।
‘‘यही बात है ।’’—जीतसिंह खेदपूर्ण भाव से तनिक मुस्कराता बोला।
‘‘बोलो वो भी!’’
‘‘तिवारी जी का पूरा नाम क्या है?’’
‘‘देवकी नन्दन ति...’’
वो ठिठका, उसने घूर कर जीतसिंह को देखा।
‘‘शुक्रिया’’—जीतसिंह जल्दी से बोला—‘‘शुक्रिया, जनाब ।’’
होंठ भींचे, त्योरी चढ़ाये, खिरवार जीतसिंह को तब तक देखता रहा जब तक वो निगाह से ओझल न हो गया।
बाहर आकर जीतसिंह ने कागज खोला।
उस पर रेलवे कालोनी परेल का एक पता और एक मोबाइल नम्बर दर्ज था।
उसने वो नम्बर खड़काया।
तुरन्त ‘ये नम्बर मौजूद नहीं है’ की घोषणा होने लगी।
वो परेल पहँुचा।
उसे मालूम था कुछ हाथ नहीं आने वाला था, फिर भी पहँुचा।
क्वार्टर का जो नम्बर कागज पर दर्ज था, उस पर ताला लगा हुआ था।
उसने बगल के क्वार्टर का दरवाजा खटखटाया।
लुंगी बनियान पहने, सिग्रेट पीते एक मटमैले से व्यक्ति ने दरवाजा खोला।
‘‘क्या है?’’—वो रूखे स्वर में बोला।
‘‘वो’’—जीतसिंह बोला—‘‘बाजू के क्वार्टर वाले तिवारी जी...’’
‘‘चले गये ।’’
‘‘चले गये! बोले तो लौट के आने का...’’
‘‘नक्को। पक्की करके चले गये। खाली कर गये क्वार्टर ।’’
‘‘एकाएक!’’
‘‘ऐसीच हुआ। मैं खुद हैरान। भीड़ू सोमवार रात को लौटा, मंगल सुबह सवेरे इधर से नक्की किया ।’’
‘‘किधर गये?’’
‘‘क्या मालूम किधर गये!’’
‘‘जब क्वार्टर को ताला लगा कर गये...’’
‘‘ताला क्वार्टर का मालिक लगाया जो कि रेलवे का मुलाजिम। वो एक कमरा उस तिवारी कर के भीड़ू को भाड़े पर उठाया। अभी वो खाली करके गया तो इधर ताला उसका कैसे होयेंगा!’’
‘‘सॉरी। तुम्हेरे को कतई कोई वजह नहीं मालूम कि एकाएक क्यों छोड़ गये या कहाँ चले गये?’’
‘‘अरे, बोला न, नहीं मालूम। काहे कू मगज चाटता है ।’’
उसने जीतसिंह के मँुह पर दरवाजा बन्द कर दिया।
कालबैल बजी।
आलोक ने अशोक की तरफ देखा।
लेमिंगटन रोड से वो दोनों बस लौटे ही थे।
‘‘देखता हूँ ।’’—अशोक बोला।
‘‘मेड ने घन्टी सुन ली होगी, यहीं कहीं होगी, देख लेगी ।’’
‘‘मैं देखता हूँ न!’’
अशोक मेन डोर पर पहँुचा। उसने दरवाजा खोला। आगन्तुक पर उसकी निगाह पड़ी तो वो सिर से पाँव तक काँप गया।
आर्थर फिंच!
कैसीनो का एनफोर्सर।
अभी बुधवार को उस को सिर से पाँव तक ठोक के गया, तीन पसलियाँ तोड़ के गया।
‘‘हल्लो!’’—पहाड़ जैसे जिस्म वाला एनफोर्सर—कर्जा-वसूली-स्पैशलिस्ट—आर्थर फिंच बोला—‘‘सो वाट्स दि गुड न्यूज फार मी?’’
‘‘अभी कुछ नहीं है ।’’
‘‘साइड में हटो ।’’
‘‘पागल मत बनो। घर में फैमिली के सारे मेम्बर मौजूद हैं ।’’
‘‘अभी बात करना है ।’’
‘‘यहाँ नहीं हो सकती ।’’
‘‘बाहर आओ ।’’
‘‘फ्लैट के सामने भी नहीं ।’’
‘‘मैं टलने का नहीं ।’’
‘‘नीचे पार्किंग में जाओ। आता हूँ ।’’
‘‘ओके। बट ओनली फाइव मिनट्स वेट करेगा, फिर वापिस इधर आयेगा ।’’
‘‘मैं पाँच मिनट में आता हूँ ।’’
अशोक ने उसके मँुह पर दरवाजा बन्द किया।
वो वापिस उस बैडरूम में लौटा जहाँ वो अपने बड़े भाई आलोक को बैठा छोड़ कर गया था।
‘‘कौन था?’’—आलोक उत्सुक भाव से बोला।
‘‘कोई इधर का ही बाशिन्दा था ।’’—अशोक बोला—‘‘अजीब सा नाम लिया था, पकड़ में न आया ।’’
‘‘क्या चाहता था?’’
‘‘पापा का अफसोस करने आया था। बोलता था आज ही नासिक से वापिस लौटा ।’’
‘‘भीतर बुलाना था ।’’
‘‘वो ही इच्छुक नहीं था भीतर आने का। खानापूरी करने आया जान पड़ता था। कंडोलेंस के दो शब्द बोले और चला गया ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘मैं जरा टहल के आता हूँ ।’’
आलोक की भवें उठीं।
‘‘दिल घबरा रहा है। थोड़ा हवा में फिरूँगा तो ठीक हो जायेगा ।’’
‘‘ओह! ओके। गैट अलांग ।’’
अशोक फ्लैट से बाहर निकला, लिफ्ट पर पहँुच कर उसने काल बटन दबाया और प्रतीक्षा करने लगा।
वो खौफजदा था—इतना कि छुपाना मुहाल था। पिछले बुधवार भी वो ऐसे ही एकाएक वहाँ पहँुचा था जबकि वो फ्लैट में अकेला था और उसे अन्दर बाहर से हिला गया था। तब उसने सपने में नहीं सोचा था कि लन्दन के जिस कैसीनो का वो कर्जाई था, उसका कोई एनफोर्सर न सिर्फ उस के पीछे मुम्बई पहँुच जायेगा, उसे तलाश भी कर लेगा।
पहाड़ जैसा फिंच प्रेत की तरह उसके सामने आ खड़ा हुआ था।
कैसे पहले ही हर तरह की जानकारी निकाल चुका था और तब उसके पास पहँुचा था।
‘‘युअर फादर’’—उसके जेहन में फिंच की आवाज गूँजी—‘‘फिल्दी रिच। मालूम किया मैं। उससे पैसा माँग। साफ बोल सब। वर्ना तू फिनिश ।’’
‘‘वो नहीं सुनेगा ।’’—फरियाद सी करती आवाज में उसने कहा था।
‘‘सुनेगा। डेफिनिटली सुनेगा। कोई बाप अपनी नौजवान औलाद का मरा मँुह नहीं देखना चाहता। सैकण्डली, माँ-बाप औलाद के लिये ही कमाते हैं ।’’
‘‘फिर भी...’’
‘‘नो फिर भी। इसी लाइन पर कुछ कर। वर्ना मैं करता हूँ ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘तेरे को फिनिश। यही आर्डर है मेरे को ।’’
‘‘मेरे को फिनिश करने से तुम्हारा पैसा वसूल हो जायेगा?’’
‘‘नहीं। लेकिन जब उधर लन्दन में पब्लिसिटी होगा कि क्यों तेरा लाइफ गया तो किसी की तेरे माकिफ कैसीनो को थूक लगाने की मजाल नहीं होगी ।’’
‘‘ठीक है। मैं बात करूँगा पापा से ।’’
‘‘दैट्स लाइक ए गुड ब्वाय। युअर डिसीजन सेव्ड ए लाइफ। युअर ओन। अभी मेरे को’’—वो अपनी जींस में से भारी बक्कल वाली बैल्ट निकालने लगा—‘‘तेरी सेव्ड लाइफ को पार्शली डैमेज करने का ।’’
लिफ्ट में दाखिल होते वक्त उसके शरीर ने यूँ झुरझुरी ली जैसे ‘पार्शल डैमेज’ पिछले बुधवार न हुआ हो, उसी क्षण हुआ हो।
वो नीचे पहँुचा।
वो पार्किंग में लिफ्ट से परे एक कार के हुड के साथ टेक लगाये सिग्रेट के कश लगा रहा था। उसे पहँुचता देख कर उसने सिग्रेट फेंका और सीधा हुआ।
‘‘यू बेयरली मेड इट ।’’—कलाई घड़ी पर निगाह डालता वो कठोर स्वर में बोला।
‘‘एक लिफ्ट आउट आफ आर्डर है ।’’—अशोक का स्वर स्वयमेव ही दयनीय हो उठा—‘‘दूसरी ऊपर टैंथ फ्लोर पर देर से पहँुची ।’’
‘‘नैवर माइन्ड दैट नाओ। अभी बोलो इनहैरिटेंस की क्या पोजीशन है?’’
‘‘अभी कोई पोजीशन नहीं ।’’
‘‘क्या बोला?’’
‘‘वो पलक झपकते होने वाला काम नहीं। परसों या उससे अगले दिन हमारा वकील सक्सेशन के लिये सिविल जज के कोर्ट में हमारी तरफ से—वारिसों की तरफ से—पेश होगा। उस के बाद सक्सेशन सर्टिफिकेट हासिल होने में कितना टाइम लगेगा मेरे को नहीं मालूम ।’’
‘‘सर्टिफिकेट मिलने के बाद?’’
‘‘प्रापर्टी की सेल में टाइम लगेगा। फिर वारिसों में बँटवारा होगा। तभी मैं तुम्हारी रकम लौटा पाऊँगा ।’’
‘‘मैं इतना टाइम इन्तजार नहीं कर सकता ।’’
‘‘मत करो। लन्दन लौट जाओ। पैसा हाथ आते ही मैं भी तो वहीं लौटूँगा! आखिर वहाँ मेरा घर है, रेस्टोंरेन्ट है ।’’
‘‘आई कैन नाट ट्रस्ट यू। इस बार हाथ से निकल गया तो साला पता नहीं ब्लडी टिम्बकटू पहँुचेगा कि अदीस अबाबा पहँुचेगा। आई डोंट वांट दैट। मेरे को तेरा शैडो बन के रहने का ।’’
‘‘तो वेट करो ।’’
‘‘ब्लडी लायर जो काम परसों करेगा, उसके भी एक दिन बाद करेगा, वो पहले क्यों न किया?’’
‘‘तैयारी करनी पड़ती है न! होम वर्क करना पड़ता है न!’’
‘‘लुक चम, इफ यू आर हैंडिंग मी ए लाइन, यू विल बी सॉरी ।’’
‘‘नो लाइन। ऐवरीथिंग स्ट्रेट ।’’
‘‘यस। स्ट्रेट। एवरीथिंग। ओके। और वेट करता है ।’’
‘‘थैंक्यू ।’’
‘‘बाडी कैसा है?’’
‘‘अभी ठीक नहीं है। बहुत दुखता है। सूजन भी बहुत है। एण्ड रैड आल ओवर ।’’
‘‘रिब्स?’’
‘‘प्लास्टर में हैं। अभी नहीं जुड़ीं ।’’
‘‘कितनी टूटीं?’’
‘‘तीन ।’’
‘‘गुड। ‘पार्शल डैमेज’ ज्यादा टाइम तक याद रहेगा। नो?’’
‘‘यस ।’’
‘‘सैटरडे को आता है ।’’
‘‘उस रोज पैसा कहाँ से होगा?’’
‘‘अरे डम्ब ऐस! कोर्ट में क्या हुआ, ये जानने को आता है ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘अभी जाता है ।’’
जाते-जाते भी वो अपना स्टीम रोलर जैसा घूँसा अशोक की नाक के आगे लहराने से बाज न आया।
अशोक सिर से पाँव तक काँपा। वो चला गया तो उसे यकीन आया कि ठोक नहीं गया था।
शाम आठ बजे जीतसिंह जम्बूवाड़ी, गाइलो के फेवरेट बेवड़े अड्डे पर पहँुचा।
इस बार गाइलो उसे वहाँ एक कोने की टेबल पर अकेला बैठा मिला।
उसने बड़ी गर्मजोशी से जीतसिंह से हाथ मिलाया।
‘‘अभी घूंट नहीं लगाया?’’—उसके सामने बैठता जीतसिंह बोला।
‘‘तेरा वेट करता था न!’’
‘‘आज अकेला बैठेला है?’’
‘‘उसका भी यहीच जवाब है। तेरा वेट करता था ।’’
‘‘थैंक्यू बोलता है। वो सुबह की सुपारी किलर वाली बात....किया कुछ?’’
‘‘किया न! सब भरोसे के डिरेवर भाइयों को बोला अन्डरगिराउन्ड में फैलाने को। कोई इन्फो निकलेगा तो थमायेगा न तेरे को!’’
‘‘निकलेगा?’’
‘‘होगा तो पूरा-पूरा चानस कि निकलेगा। मैं साथ में ये भी तो फैलाया कि किसी को सिमिलर जॉब का वास्ते सेम भीड़ू माँगता था जो कि सिन्धी डिपार्टमेन्ट स्टोर वाला सेठ को टपकाने का इतना परफेक्ट जॉब किया ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘अगर वो सुपारी किलिंग है तो कुछ न कुछ पकड़ में जरूर आयेगा, टेम लगेगा पण आयेगा। सुपारी किलिंग हैइच नहीं, तो भी मालूम पड़ेगा पण....टेम लगेगा ।’’
‘‘वान्दा नहीं ।’’
‘‘तूने कल का वास्ते अपना तैयारी कर लिया?’’
‘‘अरे, मेरी तैयारी क्या है? औजार ही तो उठाने हैं खुफिया जगह से! समझ ले हो चुका वो काम ।’’
‘‘कल रात ठीक दस बजे हमेरे को उधर होने का ।’’
‘‘ठीक ।’’
‘‘अभी मैं डिरिंक आर्डर करे?’’
‘‘नहीं, अभी मेरे को कुछ बात करने का बहुत इम्पार्टेंट कर के। तब तक ले, सिग्रेट पी ।’’
दोनों ने सिग्रेट सुलगाये।
‘‘अभी बोल ।’’—गाइलो उत्सुक भाव से बोला—‘‘क्या है इम्पार्टेंट बात?’’
‘‘गाइलो मेरे को एक फीलिंग आया ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘उधर वाल्ट में इलैक्ट्रानिक सर्वेलेंस का इन्तजाम हो सकता है ।’’
‘‘इलैक्...ट्रानिक सर्वे...लेंस बोले तो?’’
‘‘उधर क्लोज सर्कट कैमरा लगे हो सकते हैं ।’’
‘‘अभी भी बोले तो?’’
‘‘अरे, समझ न! बैंकों में, ज्वेलरी शॉप्स पर, बड़े शोरूम्स में, शाॅपिंग माल्स में और ऐसी ही बेशुमार जगहों पर जगह-जगह घूमने वाले कैमरे नहीं लगे होते जो हर आवाजाही रिकार्ड करते हैं और वो सब कुछ टीवी स्क्रीन पर भी दिखाते हैं! कोई भीड़ू स्क्रीन के सामने बैठकर—जो कि एक टेम में चार कैमरे चलते दिखा सकता है, छ: दिखा सकता हैं, नौ दिखा सकता है—सब चौकसी कर सकता है कि किधर क्या हो रहेला था। वो भीड़ू—जिसको मानीटर बोलते हैं—न हो तो सब रिकार्ड होता जाता है। और बाद में भी जब चाहे देखा जा सकता है। कई बार चोरी करते लोग या कोई और खतरनाक वारदात करते लोग उन सर्वेलेंस कैमरों की वजह से पकड़े गये हैं ।’’
‘‘जैसे अभी लास्ट वीक चार हथियारबन्द भीड़ू विरार के एक बैंक में डाका डालने गये थे, पुलिस ने बाद में बैंक के कैमरों में पकड़ी उन की रील देखी थी तो सब के थोबड़े पहचान में आ गये थे और वो पकड़े गये थे। मैं ने टीवी पर न्यूज में देखा था ।’’
‘‘अभी आयी बात समझ में ।’’
‘‘तेरा मतलब है उधर प्रीमियर वाल्ट सर्विस में ऐसा इन्तजाम हो सकता है!’’
‘‘हाँ। ऐसा इन्तजाम उधर है तो हम अपने प्रोजेक्ट में कामयाब होके भी पकड़े जा सकते हैं ।’’
गाइलो चिन्तित दिखाई देने लगा।
‘‘पण’’—फिर बोला—‘‘वो पिराइवेट करके वाल्ट...साला हण्ड्रड पर्सेंट कस्टमर फ्रेंडली वाल्ट, जिधर लॉकर हायर करने पर कोई जाँच नहीं, कोई पड़ताल नहीं, कोई रिकार्ड नहीं, कोई पेपर वर्क नहीं तो ये साला इलैक्ट्रॉनिक सर्वेलेंस कर के जो तू बोला, कैसे होयेंगा?’’
‘‘न हो, खुशी की बात है। पर तसदीक तो होना माँगता है कि नहीं माँगता?’’
‘‘वो तो माँगता है बरोबर पण...कैसे होयेंगा?’’
‘‘अरे, भई, कोई सरकारी हुक्म होगा इस बाबत। ऐसे ठीये चलाने वालों को पुलिस का महकमा भी तो आर्डर करता है क्लोज्ड सर्कट टीवी का इन्तजाम ऐन पक्की करके रखने का। ऐसे सरकारी आर्डर मानने पड़ते हैं, फालो करने पड़ते हैं ।’’
‘‘ऐसा?’’
‘‘हाँ। हम उधर किसी दूसरे का लॉकर खोल रहे होंगे और हमारी फिल्म बन गयी तो गिरफ्तारी में क्या कसर रह जायेगी?’’
‘‘गिरफ्तारी कम्पलेंट पर होती है एफआईआर कराने पर होती है, कौन करायेगा? समगलर करायेगा, नॉरकॉटिक्स डीलर करायेगा या वैसा माल परचेज करने वाला करायेगा?’’
‘‘शिनाख्त में क्या कसर रह जायेगी! जिस भीड़ू लोगों का माल लुटेगा, शिनाख्त बराबर उनकी पकड़ में होगी। फिर तेरा क्या होगा रे, गाइलो! और जीते का क्या होगा! अपना माल वापिस पाने के वास्ते वो भीड़ू लोग हमें पाताल से खोद निकालेंगे। फिर क्या जिन्दा छोड़ देंगे? दो चपत लगायेंगे और बोलेंगे बेटा फिर ऐसी गलती न करना?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘तो फिर?’’
‘‘ये साली’’—गाइलो बड़बड़ाया—‘‘कैमरों वाली बात मेरे मगज में पहले क्यों न आयी?’’
‘‘आखिर तो आयी! अभी भी टेम है। तू उधर का कस्टमर है, पता कर सकता है कि इस सिलसिले में उधर क्या पोजीशन है!’’
‘‘वो तो मैं करेगा बरोबर पण, जीते, कैमरे हुए तो?’’
‘‘तो हमें कोई जुगत करनी होगी कि जो टैन मिनट्स हमारे को उधर फन्कशन करने का, उन में वो कैमरे कुछ रिकार्ड न करें ।’’
‘‘कैसे होयेंगा?’’
‘‘होगा तो वाल्ट के भीतर एक ही कैमरा होगा, वो दस मिनट के लिये बिगड़ सकता है, बन्द हो सकता है ।’’
‘‘अभी फिर बोलता है, कैसे होयेंगा?’’
‘‘उस मलयाली क्लर्क की हैल्प से होयेंगा जो तेरे से सैट है। क्या नाम बोला था?’’
‘‘चेराट। मुरली चेराट ।’’
‘‘वो हैल्प कर सकता है ।’’
‘‘अरे, जब उसका कैरेक्टर एक्सपोज्ड है, साला पक्की है कि रोकड़े को झुक के सलाम करता है तो हैल्प तो कर सकता है पण जो भीड़ू एक मामूली काम का—कि कोई इस्पेशल करके लॉकर कब आपरेट हुआ—ट्वेन्टी थाड माँगता था, वो कैमरा आफ करने का तो साला एक पेटी माँगेगा ।’’
‘‘माँगेगा ही तो! मिल तो नहीं जायेगा न! पहले ट्वेन्टी माँगता था तो तू बारगेन किया न, वो ट्वैल्व पर आया न! अभी भी बारगेन करने का। हार्ड बारगेन करने का। क्योंकि कोई खुल्ला रोकड़ा तो हमेरे पास है नहीं!’’
‘‘वो सवाल करेगा कि टैन मिनट्स का वास्ते क्यों वाल्ट का कैमरा आउट ऑफ फंक्शन, आउट आफ आर्डर माँगता है!’’
‘‘जब सर्विस की फीस चार्ज करेगा तो क्यों सवाल करेगा? जब पहला डील किया था तो उसने सवाल किया था कि तेरे को लॉकर 243 के आपरेशन की जानकारी क्यों माँगता था?’’
‘‘नहीं। पण वो गैस तो कर सकता है कोई पंगा, कोई लोचा, कोई फाउल प्ले!’’
‘‘क्या पंगा, क्या लोचा, क्या फाउल प्ले, उसे न मालूम पड़े तो पड़ा गैस करता रहे ।’’
‘‘जीते, लॉकर आपरेशन का इंफो आउट करना....बोले तो इज ए पैटी थिंग। पण किसी खास टेम पर किसी खास पीरियड के लिये उधर का कोई कैमरा आफ करना....इज ए बिग थिंग। साला कैसे अननोटिस्ड जायेगा? फिर उसी की तो वाट लगेगी जो उधर उस टेम डयूटी पर होगा! नो’’—गाइलो ने पुरजोर अन्दाज से इन्कार में सिर हिलाया—‘‘वो भीड़ू इतना बड़ा रिस्क लेगा...नो, आई डोंट थिंग सो ।’’
‘‘अरे, अभी तो यही कनफर्म नहीं है कि उधर कैमरे लगे हैं ।’’
‘‘लगे हुए तो?’’
‘‘तो वो खुद बोलेगा न कि हमेरा काम उसके रिस्क लेने के काबिल है या नहीं!’’
‘‘ऐसा?’’
‘‘कोई सिस्टम ऐन फिट, एन चौकस नहीं होता...’’
‘‘बोले तो परफेक्ट नहीं होता ।’’
‘‘हाँ। इन्सान की बनाई मशीन है, कितनी भी परफेक्ट हो, बिगड़ने का चांस हमेशा होता है। ऐसा है बरोबर तो कहीं लगा सर्वेलेंस का कोई कैमरा क्यों नहीं बिगड़ सकता? खराबी नोटिस में आने में और उसको दूर करने में दस मिनट क्यों नहीं लग सकते?’’
‘‘खास दस मिनट ।’’
‘‘हमेरे को मालूम कौन से दस मिनट खास, उन्हें क्या मालूम?’’
‘‘ये तो तू बरोबर बोला ।’’
‘‘मैं बरोबर बोला तो कोई कैमरा बिगड़ सकता है, बेवजह बिगड़ सकता है, ये बात उस मलयाली क्लर्क के मगज में भी आयेगी। फिर हो सकता है वो ज्यादा मँुह न फाड़े, उसकी माँग ज्यादा बड़ी न हो ।’’
गाइलो सोचने लगा।
‘‘तेरे को क्यों वाल्ट का कैमरा आफ माँगता है, इसकी एक रैडीमेड वजह पहले से ही तेरे पास है ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘तेरे को उधर अपना लॉकर आपरेट करने के लिये टैन मिनट्स का...वो क्या बोला तू...नो इन्ट्रप्शन, नो डिस्टर्बेंस टेम माँगता था क्योंकि तेरे को कुछ खास, नाजुक आइटम्स एक-एक करके अपने लॉकर में मूव करने का था। अभी बोल, अपनी खास आइट्म्स कैमरा सर्वेलेंस में आना तेरे को क्यों माँगता होयेंगा?’’
‘‘जब सब आता है तो...’’
‘‘नहीं आता। पैक्ड आता है। फस्र्ट पार्टी जो ब्रीफकेस लॉकर 243 में छोड़ के जाता है, को क्या पहले ब्रीफकेस को उधर खोलता है कि कैमरा कैच कर ले कि भीतर नॉरकॉटिक्स था, डायमंड्स था, वाचिज था?’’
‘‘काहे कू?’’
‘‘दूसरी पार्टी जब पेमेंन्ट का ब्रीफकेस रखने आता है तो पहले उसे खोल के कैमरे के सामने करता है कि कैमरा रिकार्ड कर ले कि उस में रुपिया था या डालर था या पाउण्ड था या यूरो था?’’
‘‘नैवर! कैसे होयेंगा!’’
‘‘जैसा उस वाल्ट का रिप्यूट है, उससे साफ जाहिर है कि उसकी सर्विसिज दो नम्बर के धन्धे वालों के लिये हैं। स्ट्रेट धन्धा करने वाला कोई भीड़ू उधर नहीं आने का, वो स्ट्रेट सर्विस वाले बैंक में जायेगा। जौहरी बाजार वाले वाल्ट में सब सिलसिला भले ही दो नम्बर का हो फिर भी कोई सोने की ईंट या चान्दी की सिल्ली या हीरे या घड़ियाँ हाथ में लेकर नहीं चला आने वाला ।’’
‘‘ठीक ।’’
‘‘पण तू पहले से बोल के रखा कि तेरे को अपना कोई खास, स्पेशल, नाजुक आइटम्स एक-एक करके अपने लॉकर में मूव करने का। तेरे को नहीं माँगता कि कोई भीड़ू देखे कि वो आइटम्स क्या हैं, फिर तेरे को ये कैसे माँगता होयेंगा कि कैमरा रिकार्ड करे कि वो आइटम्स क्या हैं!’’
‘‘ठीक। मैं सब फालो किया ऐन परफेक्ट कर के। पण अभी जो मैं फालो किया, उसके कान्टैक्स्ट में तू कहना क्या माँगता है?’’
‘‘ये कि मेरे को उम्मीद नहीं कि वो मलयाली क्लर्क टैन मिनट्स के लिये वाल्ट का कैमरा आउट आफ आर्डर करने के लिये तेरे से कोई बड़ी फीस मांगेगा ।’’
‘‘हूँ। ओके! देखता है ।’’
‘‘देखता है?’’
‘‘हाँ। अभी जाता है न उधर!’’
‘‘अभी?’’
‘‘हाँ। जीते, जब तक ये बात नक्की नहीं होती, किसी किनारे नहीं लगती, मेरे को नशा नहीं होने का ।’’
‘‘इस वास्ते अभी का अभी जौहरी बाजार जायेगा?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘मैं साथ चलता हूँ ।’’
‘‘नहीं। मैं उधर एक्सपोज्ड है। मैं तेरे को मेरा माफिक उधर एक्सपोज्ड होना नहीं माँगता ।’’
‘‘कल रात दस बजे भी तो मेरे को एक्सपोज होना पड़ेगा!’’
‘‘नहीं होना पड़ेगा। एक इस्कीम है मेरे मगज में, नहीं होना पड़ेगा।’’
‘‘क्या?’’
‘‘बोलेगा। अभी जाता है। तू इधरीच बैठ और बाटली मार। मेरे को वन आवर लगेगा लौट के आने में ।’’
‘‘नहीं। मैं अकेले नहीं पीता ।’’
‘‘तो घर जा। कल मार्निंग में मैं तेरे को रिपोर्ट करता है ।’’
‘‘ठीक ।’’
‘‘किधर जायेगा? चिंचपोकली या विट्ठलवाडी ।’’
‘‘विट्ठलवाडी। चिंचपोकली को तो अभी भूल ही जाने का ।’’
‘‘ओके। कल मार्निंग में फोन लगाता है या खुद आता है ।’’