सुनील के फ्लैट की घन्टी बजी ।
सुनील अभी भी बिस्तर में ही था । उसने घड़ी देखी । साढे दस बजे थे । आज उसका दफ्तर जाने का इरादा नहीं था और जिस दिन वह दफ्तर नहीं जाता था, दोपहर से पहले बिस्तर से बाहर नहीं निकलता था ।
सुनील ने अखबार एक ओर रख दिया और बिस्तर में से निकल पड़ा । उसने पलंग पर ही रखा गाउन उठाकर पहना और द्वार की ओर बढ गया ।
तब तक घन्टी दुबारा बज पड़ी ।
सुनील ने आगे बढकर द्वार खोल दिया ।
द्वार पर एक सुन्दर लड़की थी ।
“गुड मार्निंग ।” - वह मधुर स्वर में बोली ।
“वैरी गुड मार्निंग ।” - सुनील ने मुस्कराकर उत्तर दिया । उसने देखा लड़की के चेहरे पर चिन्ता के लक्षण थे - “फरमाइये ।”
“मुझे भीतर आने के लिए नहीं कहेंगे आप ?” - वह शिकायत-भरे स्वर में बोली ।
“ओह, सॉरी ।” - वह बोला और द्वार से एक ओर हट गया ।
लड़की भीतर आ गई ।
“तशरीफ रखिये ।” - सुनील बोला ।
लड़की एक सोफे पर बैठ गई ।
सुनील भी उसके सामने आ बैठा ।
“मुझे आपकी सूरत पहचानी-सी लग रही है ।” - सुनील उसे गौर से देखता हुआ बोला ।
“आपने मुझे यूथ क्लब में देखा होगा ।”
“ठीक कह रही हैं आप । लेकिन आप यूथ क्लब की सदस्या तो नहीं हैं ।”
“नहीं । मैं एक अन्य सदस्य के साथ गैस्ट के रूप में आया करती थी ।”
“अच्छा ।”
लड़की चुप रही ।
“आप चाय पियेंगी ?” - सुनील ने शिष्ट स्वर में पूछा ।
“नहीं, धन्यवाद । मैं चाय पीकर आई हूं ।”
“और फरमाइये, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ?”
“सेवा तो आप बहुत कर सकते हैं, सुनील साहब ।” - लड़की गम्भीर स्वर में बोली - “लेकिन सवाल तो यह है कि आप करेंगे या नहीं ।”
“अगर मेरे बस का कुछ होगा तो इन्कार नहीं करूंगा ।” - सुनील उसके चिन्तापूर्ण चेहरे को लक्ष्य करता हुआ बोला ।
“मैं आपकी सहायता चाहती हूं ।”
“किस सिलसिले में ?”
“समस्या तो मेरी निजी ही है लेकिन वास्तव में मैं एक तीसरे व्यक्ति के हित के लिये चिन्तित हूं ।”
“आप मुझे पूरी बात सुनाइये । अगर उस सिलसिले में मैं कुछ कर सका तो जरूर करूंगा ।”
लड़की चुप रही ।
सुनील उसके बोलने की प्रतीक्षा करता रहा ।
“मेरा नाम नीला है ।” - वह सावधानी से एक-एक शब्द का चयन करती हुई बोली - “मैं राजनगर टैक्सटाइल मिल के मालिक रत्न प्रकाश की प्राइवेट सैक्रेट्री हूं । रत्न प्रकाश की आयु लगभग पैंतीस वर्ष है । मैं पिछले चार वर्षों से यह नौकरी कर रही हूं । इस समय मेरी आयु छब्बीस वर्ष है । चार वर्ष पहले जब मेरी नियुक्ति रत्न प्रकाश की सैक्रेट्री के रूप में हुई थी, उस समय रत्न प्रकाश विवाहित था । लगभग दो वर्ष पहले रत्न प्रकाश की पत्नी की मृत्यु हो गई थी । उस समय तक वह निःसन्तान था । पत्नी की मृत्यु के बाद कुछ महीने तक तो रत्न प्रकाश बहुत एकाकी जीवन व्यतीत करता रहा, उसके बाद में वह मुझमें गहरी दिलचस्पी लेने लगा ।”
“आपमें ?”
“हां । और अगले कुछ ही महीनों में वह दिलचस्पी गहरे प्यार में बदल गई ।”
“कौन-सा प्यार ? वह प्यार जो भारतीय फिल्मों में चित्रित मिल मालिक या उनके लड़के अपनी सैक्रेट्रियों से करते हैं और जिसमें हीरोइन एक भारी ट्रेजिडी का शिकार होकर आधी दर्जन बिरह गीत गाती है और अन्त में नदी में छलांग लगा देती है या रेल की पटरी पर सिर रख देती है ।”
नीला के चेहरे ने एकदम कई रंग बदले । अन्त में वह धीरजपूर्ण स्वर में बोली - “नहीं । वह प्यार जो एक शरीफ और ईमानदार आदमी एक शरीफ और ईमानदार औरत से करता है ।”
“खैर, फिर ?”
“उसने मुझसे शादी का वादा किया ।”
“लेकिन शादी की नहीं ।” - सुनील बोला ।
“आपको कैसे मालूम ?” - नीला हैरान होकर बोली ।
“ऐसी कहानियों का एक विशेष ढंग का पैटर्न होता है और उसकी एक विशेष ढंग की सम्भावनायें होती हैं । तुम्हारी कहानी का रुख बता रहा है कि या तो शादी हुई नहीं और अगर हुई तो निभी नहीं ।”
“आप कैसे दावा कर सकते हैं ?”
“अगर इन दोनों में से कोई एक बात न होती तो आप यह दास्तान सुनाने के लिये मेरे सामने न बैठी होतीं ।”
“शादी ।” - नीला मरे स्वर में बोली - “नहीं हुई ।”
“क्यों ?”
“मेरा दावा है कि वह किसी धोखे का शिकार हो गया ।”
“किस्सा क्या है ?”
“रत्न प्रकाश एक सेल्ज कान्फ्रेंस के सिलसिले में विशालगढ गया और जब वहां से लौटा तो उसके साथ एक अनिद्य सुन्दर युवती थी जिसका परिचय उसने अपनी पत्नी के रूप में दिया । उसका नाम सन्तोष था ।”
“सन्तोष थी कौन ?”
“कोई कुछ नहीं जानता । उसके विषय में स्वयं रत्न प्रकाश कुछ नहीं जानता लेकिन फिर भी यह हकीकत है कि रत्न प्रकाश ने विशालगढ में उससे कानूनी तौर पर शादी की और उसे इज्जत के साथ विशालगढ लेकर आया । लोगों ने इस शादी के विषय में अटकलें लगाईं । कोई कहता कि सन्तोष रत्न प्रकाश की कोई पुरानी प्रेमिका थी । कोई कहता रत्न प्रकाश विशालगढ में उसकी सूरत देखकर लट्टू हो गया था । कोई कहता वह रत्न प्रकाश की रखैल थी जिससे अपनी पत्नी मर जाने के कारण उसने शादी कर ली है । मतलब यह कि जितने मुंह उतनी बातें । लेकिन वास्तविकता कोई भी नहीं जानता था ।”
“नई शादी के बाद उसने तुमसे बात की ?”
“हां । और सुनील साहब, रत्न प्रकाश ने मुझसे हजार माफी मांगी और कहा कि सन्तोष से उसकी शादी एक ऐसी जबरदस्त मजबूरी का परिणाम थी जिसे टालना असम्भव था ।”
“उसने बताया नहीं मजबूरी क्या थी ?”
“नहीं । लेकिन मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि रत्न प्रकाश झूठ नहीं बोल रहा था । मैं रत्न प्रकाश के चरित्र को खूब समझती हूं । यह जान लेना मेरे लिये कठिन काम नहीं है कि वह कब झूठ बोल रहा है और कब सच बोल रहा है ।”
“उसने सन्तोष के बारे में कुछ बताया ?”
“नहीं । सन्तोष तो एक ऐसा रहस्य है जो खुद रत्न प्रकाश पर नहीं खुल पाया है । रत्न प्रकाश से शादी करने से पहले सन्तोष कहां रहती थी, कौन थी, क्या थी, किन लोगों से सम्बन्धित थी, कोई कुछ नहीं जानता और न ही कोई कुछ जान पाया है ।”
“इस बात को कितना अरसा हो गया है ?”
“लगभग आठ महीने ।”
“खैर, फिर ?”
“मैं नौकरी छोड़ जाना चाहती थी लेकिन रत्न प्रकाश के मजबूर करने पर मैंने ऐसा नहीं किया । रत्न प्रकाश ने कभी भी मेरे साथ कोई अनुचित व्यवहार नहीं किया था । मैंने सोचा नौकरी तो मैंने करनी ही है, फिर यहीं रहने का क्या हर्ज है ? दो महीने बिना किसी विघ्न-बाधा के शान्तिपूर्वक गुजर गये । मैंने और रत्न प्रकाश ने स्थिति को ज्यों का त्यों स्वीकार करके उसी ढंग से जीवनयापन करना आरम्भ कर दिया । फिर पहली बार मुझे सन्तोष पर इस बात का सन्देह हुआ कि उसने रत्न प्रकाश को एक पति के रूप में नहीं, सोने का अंडा देने वाली मुर्गी के रूप में देखा है ।”
“क्या हुआ था ?”
“सन्तोष ने रत्न प्रकाश से कहा कि वह उसके नाम से बैंक में एक अलग से एकाउन्ट खुलवा दे क्योंकि कभी एकाएक पैसे की जरूरत पड़ जाने पर उसे रत्न प्रकाश को तलाश करने में बड़ी दिक्कत होती थी । रत्न प्रकाश को इसमें कोई एतराज वाली बात नहीं लगी । उसने बैंक में सन्तोष के नाम एक लाख रुपये का अलग एकाउन्ट खुलवा दिया । बीस दिन बाद संयोगवश ही मुझे सन्तोष की पास बुक देखने का अवसर मिला और, सुनील साहब, एक लाख रुपये में से बीस दिन में ही अस्सी हजार रुपये गायब थे । और वे अस्सी हजार रुपये केवल दो बार में चालीस-चालीस हजार के दो चैकों की सूरत में निकाले गये थे ।”
“ब्लैकमेल ?”
“भगवान जाने । सम्भव है उसने अपनी मर्जी से इतना रुपया किसी को दिया हो ।”
“तुमने यह बात रत्न प्रकाश को बताई ?”
“हां । लेकिन उसने बात को टाल दिया । लेकिन मेरे से यह बात छुपी न रह सकी कि वह खुद भी बहुत चिन्तित था । मैं उसकी प्राइवेट सैक्रेट्री हूं इसलिए वह बहुत-सी बातें चाहते हुए भी मुझसे छुपा नहीं पाता है ।”
“फिर ?”
“इस घटना के दो महीने बाद एक दिन सन्तोष ने बताया कि वह अपना हीरों का हार कहीं खो बैठी है । हार की कीमत एक लाख रुपया थी ।”
“उसने बताया नहीं कि हार कैसे खो गया ?”
“बड़ी लचर बात कही उसने । वह बोली कि क्लब के क्लाक रूम में उसने हार को उतारकर सिंक के पास रखा था और फिर हार को वहीं भूलकर बाहर निकल आई थी । लगभग पांच दिन बाद हार की याद आने पर वह दोबारा वहां गई थी तो हार गायब था । बहुत तलाश करने के बाद भी हार नहीं मिला ।”
“पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई थी ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?” - सुनील ने हैरानी से पूछा ।
“रत्न प्रकाश कहता है कि उसे इस बात का विश्वास नहीं कि हार खोया है । हार जरूर सन्तोष ने जान-बूझकर किसी को दिया है । पुलिस में रिपोर्ट करने पर अगर तफ्तीश द्वारा यह बात प्रकट हो गई तो वह तमाशा बन जायेगा ।”
“इतना कुछ जानते हुए भी रत्न प्रकाश कुछ करता नहीं है ?”
“क्या कर सकता है वह ?” - नीला असहाय भाव से हाथ फैलाकर बोली - “सन्तोष का जरूर-जरूर उस पर कोई दबाव है । वह किसी कारणवश सन्तोष से डरता है । उसी दबाव को इस्तेमाल करके सन्तोष ने रत्न प्रकाश से शादी भी की है । और उसी दबाव के कारण सन्तोष अभी भी उसका मुर्गा बना रही है और वह खून का घूंट पीकर रह जाता है ।”
“खैर, फिर ?”
“इसके बाद रुपये-पैसे के मामले में इससे मिलती-जुलती एक-दो घटनायें और भी हुईं । सन्तोष ने...”
“छोड़ो । बैकग्राउन्ड समझाने के लिये जो कुछ तुमने बताया है, वह काफी है । अब यह बताओ, तुम मुझसे किस प्रकार की सहायता चाहती हो ?”
दोनों पता नहीं कब तकल्लुफ छोड़कर तुम पर आ गये थे ।
“कभी सबरवाल बिल्डिंग का नाम सुना है ?”
“सबरवाल बिल्डिंग ? यह वहां है ना - महात्मा गांधी रोड पर ?”
“हां । सबरवाल बिल्डिंग एक चार मंजिली इमारत है । इसकी निचली मंजिल में दुकानें हैं, दूसरी और तीसरी मंजिल में दफ्तर हैं और चौथा मंजिल पर एक क्लब है । नाम है स्टार क्लब ।”
“सबरवाल बिल्डिंग तस्वीर में कहां फिट होती है ?” - सुनील उतावले स्वर में बोला ।
“सन्तोष चाहती है कि रत्न प्रकाश सबरवाल बिल्डिंग खरीद ले ।”
“क्यों ?” - सुनील के माथे पर बल पड़ गये ।
“मालूम नहीं । लेकिन मेरा ख्याल है उसकी स्टार क्लब में कोई दिलचस्पी है ।”
“स्टार क्लब में ऐसी क्या बात है ?”
“भगवान जाने ।”
“स्टार क्लब में कोई विशेषता है क्या ?”
“एक क्या, कई हैं ।”
“जैसे ?”
“स्टार क्लब का फ्लोर शो बहुत बढिया होता है । आर्केस्ट्रा बहुत शानदार है, काकटेल बहुत बढिया होती हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि कुछ ऐसा सिलसिला बन गया है कि वहां आम तौर पर अपने विवाहित जीवन से परेशान लोग जाते हैं ।”
“क्या मतलब ?”
“स्टार क्लब में आने वाले नब्बे प्रतिशत पुरुष ऐसे होते हैं जो उच्च वर्ग से सम्बन्धित हैं और जिनकी पत्नियों ने उनकी नाक में दम कर रखा है । इसी प्रकार स्टार क्लब में आने वाली नब्बे प्रतिशत स्त्रियां ऐसी होती हैं जो उन उद्योगपतियों की पत्नियां हैं जो अधिक से अधिक पैसा कमाने में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें अपनी पत्नियों की ओर ध्यान देने की, उन्हें मनोरंजन के लिये कहीं ले जाने की फुरसत नहीं है । मतलब यह कि स्टार क्लब में आने वाले स्त्री-पुरुष पति-पत्नी तो होते हैं लेकिन पुरुष किसी और का पति होता है और स्त्री किसी और की पत्नी होती है ।”
“ये लोग पकड़े नहीं जाते कभी ?”
“नहीं, क्योंकि अगर पति-पत्नी दोनों ही इस प्रकार की फास्ट लाइफ पसन्द करने वाले हों या ऐसे स्थानों पर मूव करने वाले हों तो झगड़ा ही किस बात का है ।”
“खैर, छोड़ो । तुम मुझे यह बताओ कि अगर सन्तोष चाहती है कि रत्न प्रकाश सबरवाल बिल्डिंग खरीद ले तो इसमें तुम्हें क्या एतराज है ?”
“सुनील साहब, सबरवाल बिल्डिंग का मालिक सी आर सबरवाल उस बिल्डिंग की कीमत बीस लाख रुपये चाहता है जबकि उस बिल्डिंग की मार्केट वैल्यू पांच लाख से अधिक नहीं है । रत्न प्रकाश इस तथ्य को जानता है लेकिन फिर भी वह सन्तोष के दबाव में आकर उस बिल्डिंग को चौगुनी कीमत में खरीदने को तैयार है ।”
“इससे तो यह प्रकट होता है कि सन्तोष जानबूझकर रत्न प्रकाश को घाटे के सौदे में फंसा रही है ताकि सबरवाल को नकद पन्द्रह लाख का लाभ हो जाये ।”
“राइट ।”
“तुम मुझसे क्या चाहती हो ?”
“मैं चाहती हूं कि तुम सन्तोष के पंजे से रत्न प्रकाश को छुड़ाने में मेरी सहायता करो ।” - नीला भर्राये स्वर में बोली - “सुनील, यह बात सुनने में बुरी लगती है लेकिन यह हकीकत है कि मैं अब भी रत्न प्रकाश से मुहब्बत करती हूं । मैं उसकी हितचिन्तक हूं । रत्न प्रकाश न जाने किस दबाव में आकर सन्तोष के हाथों का खिलौना बना हुआ है । अगर शीघ्र ही कुछ किया नहीं गया तो वह औरत उसे बरबाद कर देगी । मैं चाहती हूं तुम किसी प्रकार सन्तोष के पिछले जीवन के बखिए उधेड़ डालो । तुम यह पता लगाओ कि सन्तोष का रत्न प्रकाश पर क्या दबाव है और क्यों उसने आनन-फानन सन्तोष से शादी कर ली । सन्तोष की सबरवाल या सबरवाल बिल्डिंग में क्या दिलचस्पी है ? या शायद सन्तोष का स्टार क्लब से कोई सम्बन्ध हो ! सुनील, बताओ, मेरी मदद करोगे न ? देखो मुझे निराश न करना ।”
और उसने सुनील का दायां हाथ कसकर अपने दोनों हाथों में दबा लिया ।
“नीला देवी जी !” - सुनील बोला - “सुनील की एक कमजोरी है जिसके कारण वह अपने मित्रों में बहुत बदनाम है ।”
“क्या ?”
“ही कैन नाट सी ए डैमसेल इन डिस्ट्रेस (वह किसी हसीना को संकट में नहीं देख सकता) ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि एक बार तो अब तुम मुझे पूरी फौज से भिड़ जाने के लिए कहोगी तो वह भी करूंगा ।”
“तुम मेरी मदद करोगे न ?”
“अब लिखकर दूं क्या ?”
“नहीं ।” - वह तनिक हड़बड़ाकर बोली - “आई मीन थैंक्यू । थैंक्यू वैरी मच ।”
“अब जरा जल्दी-जल्दी मेरी दो-तीन बातों का जवाब दो ।”
“पूछो ।”
“सन्तोष की सोशल लाइफ कैसी है ? क्या रत्न प्रकाश उसे होटल, क्लबों वगैरह में अपने साथ ले जाता है ?”
“अब नहीं, अब तो वह जहां जाती है, अकेली ही जाती है ।”
“वह स्टार क्लब जाती है ?”
“मेरा ख्याल है जाती है क्योंकि इस प्रकार की औरतों का सबसे अधिक मनोरंजन वहीं सम्भव है ।”
“स्टार क्लब का मालिक कौन है ?”
“निरंजन नाम का एक फिल्मी गुन्डा-सा लगने वाला आदमी है ।”
“सन्तोष और सबरवाल में कोई सम्बन्ध है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“पिछले आठ महीनों में तुमने सन्तोष के पिछले जीवन के बारे में जानने की कोशिश नहीं की ?”
“कोशिश तो बहुत की लेकिन जान कुछ नहीं पायी ।”
सुनील चुप हो गया ।
“रत्नप्रकाश की शादी के लगभग दो महीने बाद की एक छोटी-सी घटना मैं तुम्हें बताती हूं, शायद उसे तुम किसी काबिल समझो ।” - नीला कुछ सोचती हुई बोली ।
“क्या ?”
“उस रोज रत्न प्रकाश अपनी सेफ की चाबियां घर भूल आया था । उसने घर से चाबियां ले आने के लिए मुझे भेजा था । मैं लगभग बारह बजे रत्न प्रकाश की कोठी पर पहुंची थी । मैं सीधी सन्तोष के कमरे के समीप जा पहुंची थी । सन्तोष वहां अकेली नहीं थी । कमरे में उसके सामने एक लगभग पचास वर्ष की वृद्धा खड़ी थी । सन्तोष वृद्धा से कह रही थी कि उसे सन्तोष से जरा भी मुहब्बत थी तो वह सन्तोष के घर में तो क्या राजनगर में भी दुबारा कदम न रखे । उसी समय उसे मेरी उपस्थिति का आभास हो गया था और उसने बोलना बन्द कर दिया था । वह वृद्धा तेजी से कोठी से बाहर निकल गई थी । मैंने सन्तोष से चाबियां लीं और बाहर निकलकर उस वृद्धा को तलाश करने लगी । कोठी से थोड़ी ही दूर वह मुझे सड़क पर जाती मिल गयी । मैंने उसे रोक लिया और उससे पूछा कि सन्तोष से उसका क्या सम्बन्ध है ?”
“उसने बताया कुछ ?”
“कुछ बताना तो दूर, उलटे उसने मुझे गन्दी-गन्दी गाली देनी शुरू कर दीं । मैं घबराकर उससे अलग हट गई लेकिन मैंने उसका पीछा नहीं छोड़ा । मैं काफी फासला रखकर उसका पीछा करती रही । वह कुछ दूर जाकर तांगे में बैठ गई और टैम्पल रोड पर उतरी । वहां से वह पच्चीस नम्बर इमारत के तीसरे फ्लैट में घुस गयी । मैंने अड़ोस-पड़ोस से उस फ्लैट के स्वामी के विषय में पूछा । पता लगा कि वहां रुद्रसिंह नाम का एक व्यक्ति रहता है जो किसी जमाने में बहुत बड़ा जमींदार था लेकिन सबकुछ ऐयाशी में गंवा चुकने के बाद अब फक्कड़ था । इससे अधिक मैं कुछ नहीं जान पाई । उसके बाद भी मैंने कई बार पच्चीस टैम्पल रोड का चक्कर लगाया लेकिन वह बुढिया मुझे फिर दिखाई नहीं दी ।”
“तुमने रुद्रसिंह से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया ?”
“मेरा हौसला ही नहीं हुआ । मैंने ऐसा भयानक आदमी नहीं देखा अपने जीवन में । खूंखार भेड़िया-सा लगता है वह ।”
“वह अब भी वहीं रहता है ?”
“पिछले हफ्ते तक तो वहीं रहता था ।”
“तुम्हारे पास सन्तोष की कोई तस्वीर है ?”
नीला ने अपना पर्स खोला और उसमें से एक पोस्टकार्ड साइज की तस्वीर निकालकर सुनील की ओर बढा दी ।
सुनील ने देखा वह एक बेहद रूपवती युवती और एक बड़े ही प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले पुरुष का इकट्ठा चित्र था ।
“साथ में रत्न प्रकाश है ?” - सुनील ने पूछा ।
“हां ।”
सुनील ने तस्वीर जेब में रख ली ।
“मुझे अपना पता और फोन नम्बर दे दो । मैं बाद में तुमसे सम्पर्क स्थापित करूंगा ।”
नीला ने एक कार्ड उसे थमा दिया ।
“और सुनील ।” - वह बोली ।
“यस ।”
“यह लो ।” - और उसने सौ-सौ के कुछ नोट पर्स में से निकालकर उसकी ओर बढा दिये - “छः सौ रुपये हैं, फिलहाल मेरे पास इतने ही हैं लेकिन बाद में और इन्तजाम कर दूंगी ।”
सुनील ने एक उड़ती-सी नजर नोटों पर डाली और बोला - “तौहीन कर रही हो तुम मेरी ।”
“तौहीन ?” - वह एकदम बौखलाकर बोली ।
“हां । तुमने क्या मुझे कोई दफ्तर खोलकर बैठा हुआ प्राइवेट जासूस या कार्पोरेशन का वकील समझ रखा है जो ये रुपये मुझे दे रही हो । नीली-पीली देवी जी, अगर मैं कुछ करूंगा तो अपने शौक की खातिर करूंगा, किसी मेहनताने के लालच में नहीं ।”
“लेकिन...”
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं । मैंने बहुत हराम का पैसा कमाया है, वह कहीं खर्च भी तो होना चाहिये ।”
“हराम का पैसा !”
“और क्या ! अगर मैं किसी का कोई छोटा-सा काम कर दूं और प्रसन्न होकर वह बदले में मुझे दस हजार रुपये दे दे या कोई और कीमती चीज दे दे - जैसे एक बार किसी ने मुझे कार दी थी - तो वह हराम का माल ही तो हुआ !”
नीला फिर नहीं बोली ।
***
लगभग एक बजे सुनील अपने फ्लैट से बाहर निकला ।
बगल की इमारत में ग्राउन्ड फ्लोर पर गैरेज थे । उनमें से एक गैरेज सुनील के पास था जिसमें वह अपनी वह नई एम्बेसेडर कार रखता था जो एक केस के सिलसिले में उसे सेठ सुन्दरदास ने उपहारस्वरूप दी थी । काफी समय तक वह गाड़ी सुनील के लिए सिरदर्द बनी रही थी । जिस इमारत में सुनील का फ्लैट था, उसमें कोई गैरेज नहीं था । मोटरसाइकिल तो वह कहीं भी ठेल देता था लेकिन कार समस्या बन गई थी । कार वह चलाता भी बहुत कम था क्योंकि उसे अपनी साढे सात हार्स पावर की दुर्लभ मोटरसाइकिल से इश्क था । काफी समय तक तो यही होता रहा कि कार या तो लावारिसों की तरह तिरपाल से ढकी बैंक स्ट्रीट में खड़ी रहती थी या फिर यूथ क्लब के कम्पाउन्ड में । बाद में सौभाग्यवश ही उसे बगल की इमारत में एक गैरेज खाली मिल गया था ।
सुनील ने गैरेज का द्वार खोला । उसने गाड़ी बाहर निकाली और गैरेज फिर बन्द कर दिया ।
वह टैम्पल रोड की ओर उड़ चला ।
पच्चीस, टैम्पल रोड के सामने उसने गाड़ी रोक दी और बाहर निकल आया । वह एक शानदार इमारत थी । नीचे छः दुकानें थीं और ऊपर की तीन मंजिलों में फ्लैट थे । उन दुकानों में से एक दुकान के छोटे से भाग को पार्टीशन से अलग करके वहां एक पनवाड़ी बैठा हुआ था ।
वह पनवाड़ी की ओर बढा ।
“एक लक्की स्ट्राइक का पैकेट देना ।” - वह एक नोट उसकी ओर बढाता हुआ बोला ।
पनवाड़ी ने बड़ी इज्जत से उसकी ओर पैकेट और बाकी पैसे बढा दिये । शायद उसने सुनील को कार में से निकलते देख लिया था ।
सुनील ने एक सिगरेट सुलगाया और लापरवाही से कश लगाने लगा ।
पनवाड़ी आशापूर्ण नेत्रों से उसे देख रहा था ।
“तुम तो यहां के पुराने रहने वाले लगते हो, प्यारेलाल ।” - सुनील बड़े अपनत्व-भरे स्वर में पनवाड़ी से बोला ।
“हां, साहब । सालों गुजर गये यहीं दुकान करते ।” - पनवाड़ी बोला ।
“फिर तो आसपास के रहने वालों को खूब पहचानते होगे तुम ?”
“एक-एक को जानता हूं, साहब ।”
“तुम्हें मालूम है रुद्रसिंह कहां रहते हैं ? वे पहले जमींदार थे । बड़ा रोबदार चेहरा है उनका और...”
“मैं समझ गया, साहब” - पनवाड़ी जल्दी से बोला - “वे तो इसी इमारत में रहते हैं । कोई काम है उनसे ?”
“हां, मिलना था ।”
“इस समय तो वे मिलेंगे नहीं ।”
“अच्छा !”
“हां साहब । अभी एक घण्टा पहले कहीं गये हैं । आज न जाने क्यों जल्दी चले गये । वे वैसे आम तौर पर तो वे अन्धेरा हो जाने के बाद ही घर से निकलते हैं और सारी रात न जाने कहां-कहां धक्के खाते फिरने के बाद सुबह दो-तीन बजे नशे में धुत घर लौटते हैं । दिन-भर सोये रहते हैं और शाम होते ही फिर वही सिलसिला ।”
“बहुत पैसा है क्या उनके पास ?”
“अजी अब क्या रखा है ! पैसा था किसी जमाने में । लेकिन रंडियों के कोठों और शराब की बोतलों के चक्कर में लाखों-करोड़ों की जमींदारी में आग लगा दी । बीस साल में सब कुछ फूंक दिया । मैंने अपनी आंखों से इनका पतन होते देखा है । पहले मैं विशालगढ में रंडियों के बाजार में दुकान किया करता था । तभी से ठाकुर रुद्रसिंह के ठाठ देख रहा हूं । अब तो हालत यह है कि विशालगढ में तो ये घुस भी जायें तो कोई न कोई इनका कत्ल कर देगा । अब तो एड़ियां घिस-घिसकर जिन्दगी गुजार रहे हैं । अगर मर गये तो कार्पोरेशन की कूड़ा ढोने वाली गाड़ी ही इनकी लाश उठाने आयेगी ।”
“वक्त की मार बहुत बुरी पड़ी ठाकुर पर ।”
“कर्म ही ऐसे थे इनके । लेकिन अब भी रस्सी जल गई लेकिन बल नहीं गया । अब भी शाम को यूं मूंछों पर ताव देकर निकलते हैं जैसे राजनगर इनके बाप की जागीर हो ।”
“ठाकुर के पास पैसा अब भी है ?”
“पैसा ! ठाकुर के पास ! हरुफ-मेम करने के लिये एक तांबे का सिक्का नहीं है इसके पास ।”
“अच्छा !”
“ठाकुर ने यह फ्लैट” - पनवाड़ी ऊपर की ओर संकेत करता हुआ बोला - “आज से बीस साल पहले सौ रुपये किराये पर लिया था । उस समय सौ रुपया किराया बहुत होता था । अब ठाकुर ने एक छोटा-सा कमरा अपने पास रखकर बाकी सारे का सारा फ्लैट एक दूसरे साहब को पांच सौ रुपये महीने पर दिया हुआ है ।”
“मकान मालिक एतराज नहीं करता ?”
“उसका हौसला नहीं होता । ठाकुर की सूरत देखकर उसके प्राण खुश्क हो जाते हैं । ठाकुर को तो अपने आगे-पीछे की चिन्ता है नहीं । मकान मालिक को यही डर लगा रहता है कि कहीं वह उसका खून ही न कर दे । एक बार उसने इस विषय में ठाकुर से विरोध किया था तो ठाकुर ने उसे सिर से ऊंचा उठाकर सड़क पर पटक दिया था । तब से वह बेचारा तो ठाकुर से सौ रुपये मांगने भी नहीं आता । लेकिन ठाकुर हर महीने बड़ी ईमानदारी से उसे सौ रुपये भिजवा देता है । महंगी से महंगी विलायती शराब पीने वाला ठाकुर अब उन चार सौ रुपयों में सन्तरे-माल्टे पी-पीकर गुजर करता है ।”
“उसका आगे-पीछे कोई नहीं है क्या ? कोई आस-औलाद, कोई रिश्तेदार...”
“है क्यों नहीं, साहब ? ठाकुर के तीन लड़के हैं । पत्नी भी जीवित है । ठाकुर की पत्नी देहरादून में अपने बड़े लड़के के साथ रहती है । बड़ा लड़का विवाहित है और देहरादून में अच्छा-खासा बिजनेस कर रहा है । दो छोटे लड़के इंग्लैंड में पढ रहे हैं । ठाकुर ने शायद अपने जीवन में यही एक अकलमन्दी का काम किया है कि उसने भले समय में तीनों लड़कों और पत्नी के नाम बैंक में पच्चीस-पच्चीस हजार रुपये जमा करवा दिये थे । वर्ना आज वे भी ठाकुर की तरह बरबादी की सूरत देख चुके होते ।”
“ठाकुर की पत्नी या लड़के उससे मिलने नहीं आते ?”
“लड़के नहीं आते । पहले पत्नी आती थी लेकिन ठाकुर उससे बड़ी बुरी तरह पेश आता था । बाद में उसने भी आना बन्द कर दिया ।”
“आखिरी बार ठाकुर की पत्नी ठाकुर से कब मिलने आयी थी ?”
“लगभग छः महीने पहले ।”
“हूं ।” - सुनील बोला । उसी सिगरेट का आखिरी कश लगाया और सिगरेट को सड़क पर फेंककर उसे जूते से मसल दिया ।
“आप ठाकुर से क्यों मिलना चाहते थे, बाबूजी ?” - पनवाड़ी ने एकाएक पूछा ।
सुनील एक क्षण के लिये हड़बड़ाया और फिर सुसंयत स्वर में बोला - “मैं रुद्रसिंह का दूसरा लड़का हूं । पिछले सप्ताह ही इंग्लैंड से लौटा हूं । कल रात के प्लेन से वापस जा रहा हूं ।”
पनवाड़ी आंखें फाड़े उसका मुंह देखता रहा ।
“फिर भी... फिर भी, सरकार” - वह हकलाकर बोला - “आप ठाकुर के विषय में मुझसे पूछ रहे थे ?”
“हमें अपने बाप के विषय में मालूम ही क्या है, भाई” - सुनील गहरी सांस लेकर बोला - “मैं आठ साल का था और मेरा छोटा भाई पांच साल का था जब हम इंग्लैंड भेज दिये गये थे । उस दिन के बाद मैं आज भारत लौटा हूं । मैं तो ठाकुर को पहचानता भी नहीं हूं ।”
“सरकार” - पनवाड़ी हाथ जोड़कर बोला - “मैं आपको जानता नहीं था । ठाकुर की शान में कोई गुस्ताखी हो गई हो या मेरे मुंह से कोई गलत बात निकल गयी हो तो क्षमा करना ।”
“तुम्हें क्या कहना है, प्यारे ।” - सुनील उसका कन्धा थपथपाता हुआ बोला - “जब अपने ही घर में खोट हो तो बाहर वालों का मुंह कैसे बन्द किया जा सकता है !”
पनवाड़ी घबराया-सा सुनील का मुंह देखता रहा ।
“अच्छा । चलता हूं ।” - सुनील चलने का उपक्रम करता हुआ बोला - “ठाकुर साहब को बताना मत कि उनका लड़का इंग्लैंड से उनसे मिलने आया था । अगर उन्हें पता लग गया तो वे आत्मग्लानि के मारे अपना यह ठिकाना भी छोड़कर कहीं और चल देंगे ।”
“अच्छा, सरकार ।” - पनवाड़ी बोला ।
“मेहरबानी । मैं कल फिर आऊंगा ।”
सुनील जाने के लिये मुड़ा ।
“सरकार !” - पनवाड़ी एकाएक बोल पड़ा ।
“हां ।” - सुनील ने पूछा ।
“सरकार, आज से पहले ऐसा कभी हुआ नहीं कि ठाकुर साहब इस समय घर से निकले हों । सम्भव है वे अन्धेरा होने से पहले एक बार लौटकर आयें । अगर आप तकरीबन छः बजे लौटकर आयें तो सम्भव है आपकी उनसे मुलाकात हो जाये ।”
“मैं आ जाऊंगा ।” - सुनील बोला - “लेकिन ठाकुर से मेरे बारे में जिक्र मत करना ।”
“जैसी आपकी मर्जी, सरकार ।”
“शाबाश ।”
सुनील वापस कार में आ बैठा ।
***
सुनील महात्मा गांधी रोड पहुंचा ।
सबरवाल बिल्डिंग के आगे कारों का मेला लगा हुआ था । सुनील को कहीं भी बिल्डिंग की हद में कार खड़ी करने का स्थान दिखायी नहीं दिया ।
सुनील कहीं और पार्किंग तलाश करने के लिये गाड़ी आगे बढाने ही वाला था कि उसे इमारत की लाबी के समीप से पार्किंग में से एक टू सीटर निकलती दिखायी दी । सुनील ने गाड़ी टू सीटर द्वारा खाली किये स्थान की ओर मोड़ दी । टू सीटर द्वारा छोड़ी गयी जगह बहुत थोड़ी थी और सुनील बड़ी कठिनाई से गाड़ी वहां पार्क कर सका । अब उसकी कार रकी स्थिति यह थी कि कार इमारत की लाबी की हद जाहिर करने वाली सफेद लकीर और एक हवाई जहाज जैसी लम्बी-चौड़ी विदेशी गाड़ी के बीच इस प्रकार फंसी हुई थी कि विदेशी गाड़ी तब तक बाहर नहीं निकल सकती थी जब तक कि आगे से सुनील अपनी गाड़ी न हटाता ।
पहले तो सुनील ने सोचा कि वह अपनी गाड़ी वहां से हटा ले लेकिन बाद में उसने यह सोचकर गाड़ी वहां से हटाने का इरादा छोड़ दिया कि वह जल्दी से वापस लौट आयेगा । विदेशी गाड़ी किसी बड़े अफसर की मालूम होती थी जो शायद आफिस का समय समाप्त होने से पहले नहीं लौटने वाला था ।
सुनील लिफ्ट द्वारा चौथी मंजिल पर स्थित क्लब में पहुंच गया ।
द्वार पर खड़े वेटर ने उसे ठोककर सलाम किया और बड़ी तत्परता से द्वार खोल दिया ।
सुनील भीतर घुस गया ।
क्लब का अर्धप्रकाशित हाल बड़ा रोमांटिक वातावरण प्रस्तुत कर रहा था । स्टार क्लब नाम की ही क्लब थी । उस का सारा सिलसिला एक शानदार विलायती होटल जैसा था । आर्केस्ट्रा वातावरण में पाश्चात्य संगीत की उत्तेजक स्वर लहरियां प्रवाहित कर रहा था । सफेद वर्दीधारी वेटर बड़ी फुर्ती से मेजों के बीच में घूम रहे थे । वातावरण रह-रहकर महिलाओं के खनकते हुए ठहाकों से गूंज जाता था । हाल में पुरुषों से अधिक स्त्रियां दिखायी दे रही थीं । कोई भी पुरुष अकेला नहीं थी ।
सुनील एक खाली मेज की ओर बढ गया ।
उसने एक सिगरेट सुलगा लिया और अपने आसपास दृष्टि दौड़ाने लगा ।
एक वेटर उसकी कोहनी के पास आ खड़ा हुआ ।
सुनील ने अपने आसपास की मेजों पर दृष्टि दौड़ाई । तकरीबन सभी लोग शराब पी रहे थे ।
“जानी वाकर !” - उसने आर्डर दिया - “ब्लैक लेबल ।”
वेटर आदरपूर्ण ढंग से सिर झुकाकर वहां से हट गया ।
सुनील सिगरेट के गहरे कश लेता हुआ अपने आसपास बैठे लोगों के चेहरों पर दृष्टि दौड़ाने लगा ।
कोई चेहरा उस पहचाना हुआ नहीं लगा ।
अपनी मेज वाली लाइन में तीसरी मेज पर बैठे हुए एक जोड़े पर उसकी नजर टिक गयी ।
औरत उसे पहचानी हुई लगी । सुनील ने बड़ी सावधानी से सन्तोष और रत्न प्रकाश की तस्वीर निकाली और उसे अपनी हथेली में छुपाकर गौर से संतोष का चेहरा देखने लगा ।
उसने संतुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाया और तस्वीर फिर जेब में रख ली ।
तीसरी मेज पर बैठी हुई औरत सन्तोष ही थी ।
लेकिन उसका साथी कौन थी ?
“यूअर ड्रिंक, सर !” - उसी क्षण उसे वेटर का स्वर सुनाई दिया ।
वेटर ने विस्की का पैग, सोडा और बर्फ मेज पर रख दी ।
“थैंक्स ।” - सुनील बोला ।
“और कुछ, साहब ?” - वेटर ने पूछा ।
“अभी नहीं ।” - सुनील बोला - “सुनो ।”
“यस सर ।”
“उस मेज पर वे जो भारी से साहब बैठे हैं” - सुनील संतोष के साथी की ओर एक गुप्त संकेत करता हुआ बोला - “वे प्रोड्यूसर-डायरेक्टर देवराज हैं न जो आजकल एक ऐतिहासिक फिल्म बना रहे हैं ?”
“नहीं, साहब ।” - वेटर बोला - “वे तो सबरवाल साहब हैं ।”
“सबरवाल साहब !” - सुनील उलझन का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“जी हां । यह इमारत, जिसमें यह क्लब है, इन्हीं की है ।”
“ओह, फिर तो मुझसे भूल हुई । लेकिन यार, इनकी सूरत एकदम प्रोड्यूसर-डायरेक्टर देवराज से मिलती है ।”
“कई बार ऐसा हो जाता है, साहब ।” - वेटर शिष्ट स्वर में बोला ।
“हां । ऐनी वे । थैंक्स ।” - सुनील बोला ।
वेटर वहां से हट गया ।
सुनील ने अपनी पसन्दीदा स्काच विस्की के गिलास में बर्फ के टुकड़े डाले और गिलास को तीन चौथाई सोडे से भर लिया ।
उसकी तीव्र दृष्टि अब सबरवाल पर टिकी हुई थी । सबरवाल उसे शक्ल-सूरत से एक लोमड़ी जैसा चालाक और मक्कार आदमी लगा ।
“हल्लो !”
सुनील ने चौंककर सिर उठाया । उसके सामने एक सुन्दर युवती खड़ी थी जिसकी आयु बीस-इक्कीस वर्ष से अधिक नहीं थी । उसके सुडौल शरीर पर विदेशी परिधान बहुत भला लग रहा था ।
“हल्लो !” - उसने सिगरेट ऐश-ट्रे में डाल दिया और उठ खड़ा हुआ ।
“मेरा नाम अरुणा है ।” - वह अपना हाथ सुनील की ओर बढाती हुई मादक स्वर में बोली ।
“इट्स ए प्लेजर !” - सुनील बोला और उसने केवल एक क्षण के लिये हाथ थामकर छोड़ दिया - “बन्दे को अल्फा कहते हैं - प्रिंस अल्फा ।”
“यू आर ए प्रिंस ?” - वह हैरानी का प्रदर्शन करती हुई बोली ।
“नहीं होना चाहिये था मुझे ?”
“ओह नो । आई मीन, ओह यस ।” - वह चहकी - “ए प्रिंस ! हाऊ स्वीट !”
सुनील चुप रहा । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह लड़की उससे चाहती क्या थी ?
“आप अकेले हैं ?” - उसने पूछा ।
“हां ।”
“बड़ी बुरी बात है ।”
“इतनी बुरी बात तो नहीं है ।” - सुनील संकेत समझकर एकदम बोल पड़ा - “अभी तो शाम भी नहीं ढली है । दरअसल यही वक्त तो तनहाई में गुजारने का होता है । उसके बाद तो फिर शुरू हो जाता है हंगामा, राग-रंग, वगैरह-वगैरह ।”
अरुणा के चेहरे पर क्षणभर के लिये उलझन के लक्षण उभर आये और फिर उसने ने भाव मुस्काराहट में छुपा लिये ।
“बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर, प्रिंस अल्फा !” - वह मुस्कराती हुई बोली - “मैं यहां होस्टेस ‘परिचारिका’ हूं । हमारा सौभाग्य है कि आप स्टार क्लब में तशरीफ लाये । अगर आपको अपनी क्लब में मौजूदगी के दौरान में किसी भी क्षण तनहाई महसूस हो तो आप किसी भी वेटर से कह दीजिएगा, मैं आपकी सेवा के लिये फौरन हाजिर हो जाऊंगी ।”
“थैंक यू । थैंक यू वैरी मच । इट विल बी ए प्लेजर ।” - सुनील बोला ।
“एन्जोय योरसैल्फ, प्रिंस !” - अरुणा बोली और वहां से हट गई ।
सुनील फिर अपनी सीट पर बैठ गया ।
उसने एक नया सिगरेट सुलगा लिया । उसे समझ नहीं आया कि अरुणा क्यों स्वयं को उसके सिर पर थोपना चाहती थी ।
उसने सामने की सीटों पर दृष्टि दौड़ाई ।
संतोष और सबरवाल अब भी बैठे हुए थे और किसी गम्भीर वार्तालाप में मग्न थे ।
सुनील ने अभी तक अपने स्काच के गिलास में से एक घूंट भी नहीं पिया था ।
उसका वेटर विचित्र नेत्रों से उसे घूर रहा था ।
सुनील की दृष्टि वेटर से मिली । वह वेटर की नजरों का भाव समझ गया । उसने एक ही सांस में गिलास खाली कर दिया और वेटर को समीप आने का संकेत किया ।
वेटर समीप आ खड़ा हुआ ।
सुनील ने अपनी आर्डर दोहरा दिया ।
वेटर उसे फिर स्काच सर्व कर गया ।
इस बार सुनील धीरे-धीरे स्काच की चुस्कियां लेने लगा ।
उसे बाहर खड़ी अपनी कार की बड़ी चिन्ता थी क्योंकि उसकी कार के हटे बिना पिछली कार वाला अपनी कार नहीं निकाल सकता था । लेकिन उस समय वह उठने की स्थिति में नहीं था । वह संतोष और सबरवाल पर नजर रखना चाहता था ।
उसी क्षण हाल के दूसरे कोने में उसे अरुणा फिर दिखाई दी । वह एक वेटर से बात कर रही थी । उसने वेटर के हाथ में एक कागज थमाया और फिर सुनील की ओर संकेत कर दिया ।
वेटर सुनील की ओर बढा ।
अरुणा भीड़ में कहीं गायब हो गयी ।
वेटर उसके समीप पहुंचा और उसने वह कागज सुनील की ओर बढा दिया ।
“यह क्या है ?” - सुनील कागज लेता हुआ बोला ।
“आपके लिये है ।” - वेटर बोला ।
“किसने दिया है ?” - उसने पूछा लेकिन कागज देने के फौरन बाद ही वेटर वहां से हट गया था ।
सुनील ने कागज खोला, लिखा था:
मिस्टर सुनील,
आपका प्रिंस अल्फा वाला स्टण्ट चला नहीं हैं । आपकी वास्तविकता हमसे छुपी नहीं है । भगवान के लिये या तो यहां से तशरीफ ले जाइये या फिर तन्हाई छोड़िये, घूमिये, फिरिये, और महिलाओं में दिलचस्पी लीजिये । यही कुछ करने के लिये लोग यहां आते हैं । इस समय भी हाल में उपस्थित कई महिलायें आपको प्रशंसापूर्ण नजरों से देख रही हैं । स्टार क्लब में अकेला आदमी ऐसा मालूम होता है जैसे शीशमहल में चोर घुस आया हो ।
नीचे किसी के हस्ताक्षर नहीं थे ।
सुनील के चेहरे पर चिंता और हैरानी के गहन भाव परिलक्षित होने लगे । अरुणा उसे कैसे जानती है, यह उसके लिये एक पहेली थी ।
लेकिन बात सच थी । हाल में वही अकेला आदमी था जिसके साथ कोई स्त्री नहीं थी और जब अरुणा ने उसका साथ देना चाहा था तो उसने बड़ी सफाई से उसे टाल दिया था ।
संतोष और सबरवाल की बगल वाली मेज पर एक लड़की बैठी थी । सुनील अपने स्थान से उठा और उस ओर बढ गया ।
“हल्लो !” - वह लड़की के समीप आकर बोला ।
“हल्लो !” - लड़की ने मुस्कराकर उत्तर दिया ।
“मे आई शेयर दिस टेबल विद यू ?” (मैं आपके साथ बैठ जाऊं) - सुनील ने पूछा ।
“ओह, श्योर ।”
“थैंक्स !” - सुनील बैठता हुआ बोला ।
“हाऊ अबाउट ए ड्रिंक ?” - सुनील ने पूछा ।
“गुड आइडिया !” - वह बोली ।
“आप क्या पियेंगी ?” - सुनील ने पूछा ।
“शेरी ।” - वह बोली ।
वही वेटर फिर सुनील के पास आ खड़ा हुआ था ।
“मैडम के लिये शेरी । मेरे लिये वही ।” - सुनील ने आर्डर दिया ।
लगभग फौरन ही वेटर ने आर्डर सर्व कर दिया ।
“मैंने आपको यहां पहली बार देखा है ।” - लड़की बोली ।
“मैं इससे पहले तीन या चार बार ही यहां आया हूं ।”
“ओह !”
“आप तो लगता है, यहां अक्सर आती हैं !” - सुनील खामखाह ऊलजलूल सवाल किये जा रहा था ।
“जी हां । लगभग रोज ही ।”
संतोष और सबरवाल अब भी बातें कर रहे थे लेकिन इतने समीप होने के बावजूद उसे उनकी बातचीत का एक शब्द भी सुनाई नहीं दे रहा था ।
“मेरा नाम लारा है ।” - लड़की शेरी की चुस्कियां लेती हुई बोली ।
सुनील ने अपना नाम बताने का उपक्रम नहीं किया ।
“और आपका ?” - उसने पूछा ।
“आई एम सारी ।” - सुनील अपराधपूर्ण स्वर में बोला - “मैं अपना नाम नहीं बताया करता ।”
“क्यों ?” - लड़की हैरान होकर बोली ।
“जानेमन !” - सुनील बोला - “मैं विवाहित हूं । मेरे तीन बच्चे हैं, मेरी पत्नी बेहद बदसूरत है । मैं पांच सौ रुपए कमाता हूं लेकिन अपनी पत्नी को घर का खर्च चलाने के लिये केवल सौ रुपये देता हूं, जिसमें भगवान ही जानता है, वह अपनी और तीन बच्चों का पेट कैसे भरती है । मेरी पत्नी को यह बात मालूम नहीं है कि मैं चार सौ रुपए महीना ऐसे होटलों और क्लबों में घूमकर खर्च कर देता हूं । मेरी बीवी के चार पहलवान भाई हैं । अगर उन्हें यह मालूम हो गया कि मैं उन की बहन और बच्चों को इस तरह अभाव में रखकर खुद होटलों में गुलछर्रे उड़ाता फिरता हूं तो वे मेरी हड्डी-वोटी अलग करके रख देंगे । इस खतरे से बचे रहने के लिए मैं हमेशा नई जगह जाने का प्रयत्न करता हूं और कभी भी किसी लड़की को अपना नाम नहीं बताता ।”
“तुम्हारी तीन बच्चों के बाप जैसी उम्र तो नहीं लगती ।” - लड़की बोली ।
“तुम्हारे ख्याल से मेरी उम्र क्या है ?”
“सत्ताईस साल, अधिक से अधिक अट्ठाईस साल ।”
“मैं छत्तीस साल का हूं ।”
“झूठ !” - लड़की उसे गौर से देखती हुई अविश्वासपूर्ण स्वर में बोली ।
“मत मानो ।” - सुनील लापरवाही से बोला ।
“अच्छा, चलो मान लिया, लेकिन तुम्हारे जैसे खूबसूरत आदमी की शादी एक बदसूरत औरत से हो कैसे गई ?”
“सब तकदीर का चक्कर है ।” - सुनील माथे पर हाथ मारकर बोला ।
उसी समय वेटर सुनील के समीप आ खड़ा हुआ ।
“साहब !” - वह सुनील का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए बोला ।
“अब क्या फिर कोई पर्चा ले आए हो ?” - सुनील कड़ुवे स्वर में बोला ।
“नहीं, साहब ! मैनेजर साहब दो मिनट के लिए आपसे बात करना चाहते हैं ।”
“तो उन्हें कहो यहां आ जायें ।”
“अगर आप ही उनके आफिस में तशरीफ ले चलें तो बड़ी कृपा होगी । एक-दो मिनट से अधिक समय नहीं लगेगा ।” - वेटर विनयपूर्ण स्वर में बोला ।
सुनील उठ खड़ा हुआ ।
“मैं अभी आता हूं ।” - वह लड़की से बोला ।
लड़की ने सहमति में सिर हिलाया ।
वह वेटर के पीछे हो लिया ।
हाल के बाहर एक गलियारा था । उसके दूसरे सिरे पर मैनेजर का कमरा था ।
वेटर ने आगे बढकर द्वार खोल दिया और बोला - “मिस्टर सुनील कुमार चक्रवर्ती फार यू सर ।”
सुनील ने यूं घूरकर वेटर को देखा जैसे एकाएक उसके माथे पर सींग निकल आए हों ।
वेटर वहां से हट गया ।
सुनील भीतर घुस गया ।
एक विशाल मेज के पीछे एक मोटा-ताजा बदमाश-सा लगने वाला आदमी बैठा था । उसके दांतों में एक पाइप दबा हुआ था ।
वह उठ खड़ा हुआ और हाथ आगे बढाता हुआ बोला - “हाऊ आर यु, मिस्टर सुनील !”
सुनील ने हाथ मिलाया और बोला - “फाइन ।”
“प्लीज, सीट डाउन ।”
सुनील एक कुर्सी पर बैठ गया ।
वह आदमी भी बैठ गया ।
“बन्दे को निरंजन कहते हैं ।” - उसने पाइप मुंह में से निकालकर हाथ में ले लिया - “मैं स्टार क्लब का मैनेजर हूं और मालिक भी ।”
“आप मुझे कैसे जानते हैं ?” - सुनील ने उसे घूरते हुए पूछा ।
“हा... हा... हा !” - वह ठठाकर हंस पड़ा - “आप जैसे महान आदमी को कौन नहीं जानता, मिस्टर सुनील ।”
“मजाक छोड़िये ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - “हमारी तो सात पुश्तों में कोई महान आदमी नहीं हुआ । मुझे तो वहम होने लगा है कि कहीं मैं कोई इश्तहारी मुजरिम या फिल्म स्टार तो नहीं ।”
“क्यों ?” - निरंजन हंसता हुआ बोला ।
“स्टार क्लब में वेटर से लेकर मालिक तक मुझे हर कोई जानता है ।”
“मिस्टर सुनील !” - अब निरंजन भी गम्भीर हो उठा - “जिस किस्म का धन्धा मैं चला रहा हूं, उसमें यह जरूरी होता है कि मुझे हर प्रकार के लोगों की जानकारी रहे । स्टार क्लब में एक विशेष प्रकार के, एक विशेष वर्ग के लोग ही आते हैं । यहां धनाढ्य वर्ग के ऐसे पति आते हैं जो अपनी पत्नियों से दुखी हैं, जिनकी पत्नियां सोशल लाइफ के योग्य नहीं । यहां ऐसी पत्नियां आती हैं, जिन्हें अपने पतियों के संसर्ग का सुख प्राप्त नहीं । यहां का वातावरण ऐसा है कि दोनों ही प्रकार के लोग यहां स्वयं को सुरक्षित समझते हैं । इसके अलावा भी स्टार क्लब में बहुत कुछ प्राप्य है ।”
“जैसे परिचारिकायें । अभिसारिकायें ।” - सुनील व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“तुम ठीक कह रहे है ।” - निरंजन ने स्वीकार किया - “लेकिन घटिया माल नहीं । स्टार क्लब का सब कुछ फर्स्ट ग्रेड होता है । मिस्टर सुनील, मुझे इस धन्धे से बहुत तगड़ी कमाई है और इस कमाई को सलामत रखने के लिए मेरे लिए बहुत जरूरी है कि मैं क्लब में आने वाले लोगों के सुख-सुविधा और सुरक्षा का पूरा-पूरा ध्यान रखूं । इसलिए नगर के एक प्रसिद्ध समाचार-पत्र के उससे भी प्रसिद्ध रिपोर्टर का स्टार क्लब में आगमन मेरी नजरों में खटके बिना नहीं रह सकता जबकि मैं यह भी जानता हूं कि वह यहां मनोरंजन के लिए नहीं आया है ।”
“तुम मेरे जैसे सब लोगों को जानते हो ?”
“सबको तो नहीं लेकिन ऐसे सब लोगों को जानता हूं जो मेरे लिए या यूं कहिए मेरे धन्धे के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं । प्राइवेट डिटेक्टिव, पुलिस के आदमी और अखबारों के तुम जैसे रिपोर्टरों पर, जो केवल सैन्सेशनल मैटर हन्टिंग के लिए ही ऐसे स्थानों के चक्कर लगाते हैं, मैं कड़ी निगरानी रखता हूं ।”
“छोड़ो ।” - सुनील उकताकर बोला - “मान लिया मेरे जैसे लोग तुम्हारे धन्धे के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकते हैं । अब तुम चाहते क्या हो ?”
“क्या वह भी मुझे ही बताना पड़ेगा ?”
“तुम्हारा मतलब है कि तुम स्टार क्लब में मेरी मौजूदगी नहीं चाहते ?”
“बिल्कुल ठीक समझा है तुमने ।”
“यह एक क्लब है, यहां कोई भी आ सकता है । तुम मुझे यहां आने से रोक सकते हो ?”
निरंजन की आंखें एकदम कठोर हो गयीं ।
“रोक सकता हूं ।” - वह ब्लेड की धार की तरह पैने स्वर में बोला ।
“कैसे ? वेटरों से कह दोगे कि वे मुझे सर्व न करें या मुझे यह सुनने को मिलेगा कि कोई मेज खाली नहीं है ?”
“मुझे इससे ज्यादा सीधे तरीके आते हैं ।” - वह बोला ।
“कौन से ?”
“एक तरीका यह है ।” - निरंजन बोला और उसने मेज की दराज में से एक चाकू निकाल लिया । उसने कमानी दबायी और चाकू का आठ इंच लम्बा चमकदार फल एक कड़ाक की आवाज से बाहर निकल आया । निरंजन अपने बायें हाथ का अंगूठा उसके फल पर फिराने लगा ।
“बड़ा तेज चाकू है ।” - सुनील सहज स्वर में बोला ।
“हां ।” - निरंजन विषभरे स्वर में बोला - “देखोगे कितना तेज है ?”
“फिर कभी देखूंगा ।” - सुनील बोला - “फिलहाल इसे जेब में रखो ।”
“जैसी तुम्हारी मर्जी ।” - निरंजन बोला और उसने चाकू बन्द कर दराज में रख लिया ।
“तुम यह कैसे कह सकते हो कि मैं यहां मनोरंजन के लिए नहीं आया ?” - सुनील ने पूछा ।
“तुम्हारा व्यवहार ।” - वह बोला - “यहां आदमी अकेला आता जरूर है लेकिन दस मिनट से अधिक अकेला रहता नहीं है । या तो हाल में ही उसे साथी मिल जाता है या हमारी परिचारिकायें उसकी सेवा करने लगती हैं । मैंने अरुणा को भेजा, तुमने उसे टाल दिया । फिर तुम्हें वार्निंग भेजी गई । तुम यहां से गए तो नहीं लेकिन तुमने अपने व्यवहार में अन्तर पैदा कर लिया । फिर भी तुम्हारा व्यवहार तुम्हारी नीयत की चुगली कर रहा था । मिस्टर सुनील, उस बात को आप तो महसूस नहीं कर सकते लेकिन मैं महसूस करता हूं कि आपके अखबार में छपी ऐसी खबर कि फलां आदमी की पत्नी फलां आदमी के साथ नाइट क्लबों में गुलछर्रे उड़ाती फिरती है, मेरा कितना अहित कर सकती है । ऐसी एक खबर यहां आने वालों की नजर में से गुजरने की देर है कि नब्बे प्रतिशत लोग यहां आना बन्द कर देंगे ।”
एकाएक न जाने कैसे सुनील की नजर निरंजन की कलाई पर बंधी घड़ी पर पड़ी । वह एक बेहद कीमती घड़ी थी । घड़ी में चार बजकर तीस मिनट हुए थे । उसने एक गुप्त दृष्टि अपनी घड़ी पर डाली । उसकी घड़ी में साढे तीन बजे थे ।
निरंजन की घड़ी एक घण्टा आगे थी ।
सुनील ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला लेकिन फिर उस ने अपना इरादा बदल दिया ।
“मैंने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है मिस्टर सुनील ।” - निरंजन बोला - “अब यह सोचना आपका काम है कि आप मुझ पर कृपा करना चाहते हैं या नहीं ?”
“तुम यहां सोचते हो न कि मैं यहां से उठूं और स्टार क्लब से दफा हो जाऊं ?”
“नहीं, साहब ।” - निरंजन बोला - “हम इतने बुरे लोग नहीं हैं जैसा आप समझते हैं । आप ठाठ से वापस अपनी टेबल पर लौट जाइए । ठाठ से कुछ भी आर्डर कीजिए, मौज कीजिये । जब तक जी चाहे यहां ठहरिए और जाती बार अपना बिल भी अदा करने की तकलीफ मत कीजिये लेकिन एक बार सीढियां उतर जाने के बाद दुबारा फिर कभी लौटकर मत आइये ।”
“मनोरंजन के लिए भी नहीं ?”
“मनोरंजन के लिए आइये लेकिन ग्राहक के तौर पर नहीं, मेरे मेहमान के रूप में । मुझे अपनी सेवा करने का मौका दीजिये । मुझे खुशी होगी ।”
“बेहतर ।”
“थैंक्यू वैरी मच ।”
“अब मैं तशरीफ ले जा सकता हूं ?”
“शौक से, शौक से ।”
सुनील उठ खड़ा हुआ । निरंजन ने बड़ी गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया ।
वह द्वार की ओर बढ गया ।
द्वार के ऊपर एक बड़ी-सी घड़ी लगी हुई थी । सुनील ने देखा - वह भी एक घण्टा आगे थी ।
वह मेन हॉल में पहुंच गया और उस मेज की ओर बढा जहां वह लारा नाम की लड़की को छोड़कर गया था ।
लारा वहीं थी लेकिन सन्तोष और सबरवाल वाली मेज खाली पड़ी थी ।
उसने हाल में हर ओर दृष्टि दौड़ाई । दोनों उसे कहीं दिखाई नहीं दिये ।
सारा किस्सा पलक झपकते ही सुनील की समझ में आ गया । सुनील ने सबरवाल के बारे में वेटर से पूछकर अच्छा नहीं किया था । शायद सूचना निरंजन तक पहुंच गई थी कि वह सबरवाल में दिलचस्पी ले रहा है । निरंजन ने उसे अपने आफिस में बुला भेजा था और दस-पन्द्रह मिनट उसे वहीं अटकाये रखा था । उतनी देर में सन्तोष और सबरवाल वहां से खिसक गए थे ।
निरंजन की चालाकी से आगे बढने की एक लाइन सुनील के हाथ से निकल गई थी ।
फिर उसे अरुणा का ख्याल आया ।
उसने एक वेटर को रोक लिया ।
“यस सर ।” - वेटर बोला ।
“जरा अरुणा को बुला सकते हो ?” - सुनील बोला ।
“साहब, अरुणा मैडम तो चली गयीं ।”
“कहां ?”
“उनकी ड्यूटी खतम हो गयी । अगर आप कहें तो किसी और होस्टेस को बुलाऊं ?”
“नहीं, जाने दो ।”
सुनील वापस लारा के पास आ बैठा ।
“क्या बात थी ?” - लारा ने ऐसी आत्मीयता से पूछा जैसे वह सुनील को वर्षों से जानती हो ।
“मैं गिरफ्तार किया जाने वाला हूं ।” - सुनील बड़े इत्मीनान से झूठ बोलता हुआ बोला ।
“क्यों ?” - वह हैरानी से बोली ।
“क्योंकि मैं अपने सात बच्चों के भरण-पोषण में दिलचस्पी नहीं ले रहा हूं ।”
“सात ! अभी तो तुमने कहा था कि तुम्हारे तीन बच्चे हैं ?” - वह और भी हैरान होकर बोली ।
“तीन तो मेरी पहली बीवी से हैं ।”
“तो... तुम्हारी दो बीवियां हैं ?”
“हां ।” - वह विषादपूर्ण स्वर में बोला - “सात बच्चे मेरी दूसरी बीवी से हैं । उसी ने अदालत में अर्जी दी है कि मैं बच्चों के लालन-पालन के लिये खर्चा नहीं दे रहा हूं । पहली बीवी तो बेचारी बड़ी शरीफ है ।”
“अगर यह बात खुल गई कि तुम्हारी दो बीवियां हैं तो ?”
“तो फिर सत्यानाश । जिन्दगी जेल में चक्की पीसते गुजर जायेगी ।”
“तुम वाकई छत्तीस साल के हो ?” - वह उसके सुन्दर और सुडौल चेहरे को घूरती हुई बोली ।
“तुम्हें अब भी शक है ?”
लारा चुप हो गई ।
सुनील भी चिन्तित मुद्रा बनाये बैठा रहा ।
“मैनेजर ने तुम्हें क्यों बुलाया था ?”
“मैनेजर मेरा दोस्त है । उसी ने मुझे बताया है कि मैं गिरफ्तार किया जाने वाला हूं ताकि पुलिस के आने से पहले ही मैं यहां से खिसक जाऊं ।”
“तो फिर जाते क्यों नहीं हो ?”
“सोच रहा हूं कहीं तुम बुरा न मान जाओ ।”
“अरे, मैं बुरा नहीं मानूंगी, बाबा ।” - वह पीछा छुड़ाने के भाव से बोली ।
“सच ?” - सुनील हर्षित स्वर में बोला ।
“और क्या ?”
“थैंक्यू वैरी मच । यू आर ए गुड गर्ल ।” - सुनील बोला ।
और उसने वेटर को संकेत किया ।
वेटर समीप आ गया ।
“बिल ।”
“नो बिल, सर । आज आप और आपके मित्र क्लब के मेहमान हैं ।”
“ओह, मैं तो भूल ही गया था ।”
लारा हैरानी से उसका मुंह देखने लगी । सुनील उसकी समझ से परे था ।
सुनील उठ खड़ा हुआ और लारा को अन्तिम बार अभिवादन करके बाहर निकल आया ।
वह लिफ्ट द्वारा नीचे उतरा और इमारत से बाहर निकल आया । उसकी गाड़ी किसी ने एकदम मुख्य द्वार के सामने धकेल दी थी । उसने अपने पीछे खड़ी विदेशी गाड़ी की ओर नजर दौड़ाई ।
वह गाड़ी वहां नहीं थी ।
बात सुनील की समझ में आ गई । बड़ी गाड़ी वाले की गाड़ी उसकी गाड़ी के सामने से हटे बिना पार्किंग से बाहर नहीं निकल सकती थी । इसलिए उसने अपनी गाड़ी को लो गियर में लाकर सुनील की गाड़ी को आगे धकेल दिया था । परिणामस्वरूप उसकी गाड़ी पार्किंग की हद लांघकर एकदम लाबी में आ खड़ी हुई थी ।
विदेशी गाड़ी के स्थान पर अब एक टैक्सी खड़ी थी ।
वह अपनी कार की ओर बढा ।
उस टैक्सी में से ड्राइवर निकलकर उसकी ओर बढा । टैक्सी ड्राइवर की नाक चपटी थी और एक कान गायब था । उसका चेहरा बेहद भद्दा था ।
“आपकी गाड़ी है यह ?” - वह सुनील की एम्बेसेडर की ओर संकेत करके बदतमीजी भरे स्वर में बोला ।
“हां ।”
“यह गाड़ी खड़ी करने की जगह है ?”
“मैंने यहां खड़ी नहीं की थी गाड़ी । किसी ने इसे आगे धकेल दिया है ।” - सुनील बोला ।
“कोई पागल था जो आपकी गाड़ी आगे धकेल गया ?”
“अबे तू गवर्नर लगा हुआ है ?” - सुनील एकदम क्रोधित हो उठा - “तू क्यों सफाई मांग रहा है मुझसे ? मैंने यहीं खड़ी की थी गाड़ी, तुझे क्या ?”
“बाबूजी” - ड्राइवर अभी भी नाराज स्वर में बोला लेकिन अब उसके स्वर में अवज्ञा का भाव नहीं था - “आप के लाबी में गाड़ी छोड़ देने से दिक्कत तो हमें ही होती है । अभी पांच मिनट पहले मैं एक मेम साहब को यहां लाया था । लाबी में जगह नहीं थी इसलिए उन्हें सड़क पर ही उतरना पड़ा । वह खामखाह मुझ पर लाल-पीली होती रहीं । आपकी गलती से हमारी तो सवारी नाराज हो गई न ।”
“अब तुम चाहते क्या हो ?” - सुनील उखड़कर बोला ।
“चाहना क्या है, साहब ! मालिक हैं आप । जो जी में आये कीजिये ।”
सुनील ने बिना उत्तर दिये गाड़ी का द्वार खोला और भीतर ड्राइविंग सीट पर जा बैठा ।
उसने गाड़ी स्टार्ट की और उसे मुख्य सड़क पर ले आया ।
वह वापस टैम्पल रोड की ओर जा रहा था ।
***
25, टैम्पल रोड पर उसने गाड़ी रोक दी ।
वह कार में से निकला और सड़क पार करके पनवाड़ी की दुकान के सामने पहुंचा ।
दुकान पर पहले वाला पनवाड़ी नहीं था । उसके स्थान पर एक लगभग दस साल का लड़का बैठा था ।
“तुम्हारा बाप कहां गया ?” - सुनील ने उससे पूछा ।
“चाचा घर गये हैं ।” - लड़का बोला ।
“ठाकुर रुद्रसिंह आये हैं ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“तुम्हें मालूम है, उनका फ्लैट कौन-सा है ?”
“तीसरा ।”
“कौन-सी मंजिल पर ?”
“दूसरी ।”
“अच्छा ।” - सुनील बोला और सीढियों की ओर बढ गया । दूसरी मंजिल के दाईं ओर के फ्लैट पर तीन नम्बर लिखा था । सुनील ने घन्टी के पुश पर उंगली रख दी ।
द्वार लगभग एक पैंतीस वर्ष की महिला ने खोला ।
“ठाकुर रुद्रसिंह है ?” - सुनील ने शिष्ट स्वर में पूछा ।
महिला ने एक बार उसे सिर से पांव तक घूरा और फिर रूक्ष स्वर में बोली - “नहीं हैं ।”
“कब आयेंगे ?”
“मालूम नहीं ।”
“आप... ठाकुर की...”
“हम ठाकुर के कुछ नहीं हैं । ठाकुर ने यह फ्लैट हमें सबलैट कर रखा है । वह फ्लैट के केवल एक कमरे मे रहता है ।”
“ओह ! मैं तकलीफ के लिये माफी चाहता हूं ।”
“कोई बात नहीं !” - वह वैसे ही रुक्ष स्वर में बोली ।
सुनील के मुड़ते ही उसने भड़ाक से द्वार बन्द कर लिया ।
सुनील चुपचाप सीढियां उतरने लगा ।
उसी समय एक लड़की तेजी से सीढियां चढती हुई बिना उसकी ओर ध्यान दिये उसकी बगल से गुजर गयी ।
सुनील को उसकी सूरत की एक झलक ही मिली थी लेकिन फिर भी वह पहचान गया था ।
वह स्टार क्लब की खूबसूरत होस्टेस अरुणा थी ।
सुनील घूमकर सीढियों के मोड पर आ खड़ा हुआ और ऊपर देखने लगा ।
अरुणा रुद्रसिंह वाले फ्लैट की घन्टी बजा रही थी ।
द्वार खुला और सुनील को द्वार में उसी महिला का चेहरा दिखाई दिया जिसने सुनील से बात की थी ।
लड़की के होंठ तेजी से हिले । उत्तर में महिला ने कुछ कहा और नकारात्मक ढंग से सिर हिला दिया ।
उनके वार्तालाप की आवाज सुनील के कानों में नहीं पड़ रही थी ।
कुछ क्षण यही दोनों ओर से शब्दों का आदान-प्रदान होता रहा, फिर लड़की मुस्कराई और दोनों हाथ जोड़ दिये ।
सुनील जल्दी से मुड़ा और लपकता हुआ सीढियां उतरने लगा ।
मुख्य द्वार के सामने एक सफेद रंग की स्टैण्डर्ड गाड़ी खड़ी थी । सुनील उसकी दूसरी ओर आ खड़ा हुआ और प्रतीक्षा करने लगा ।
अरुणा मुख्यद्वार से बाहर निकली । उसके चेहरे से परेशानी टपक रही थी ।
वह स्टैण्डर्ड कार की ओर बढी ।
“हल्लो ।” - सुनील उसके सामने आकर बोला ।
अरुणा एकदम चौंक पड़ी । उसने सिर उठाया और आश्चर्यनिश्रित स्वर में बोली - “तुम !”
“पहचान लिया मुझे ?”
अरुणा चुप रही ।
“स्टार क्लब की परिचारिकायें बड़ी सम्पन्न है !” - वह बोला ।
“क्या मतलब ?”
“यह कार तुम्हारी है न ?”
“तुमसे मतलब ?”
“क्लब में तो तुम इतनी बेरुखी से बात नहीं कर रही थीं । वहां तो तुम चीनी की तरह घुली जा रही थी ।”
“वहां तुम ग्राहक थे ।”
“इससे तुम्हारी स्थिति में क्या फर्क पड़ता है ? ग्राहक तो मैं यहां भी हो सकता हूं ।”
“शटअप !” - वह होंठ काटती हुई बोली ।
“आलराइट ।”
“तुम यहां क्या कर रहे हो ?”
“यही सवाल तो मैं तुमसे पूछना चाहता था ।”
अरुणा चुप रही ।
“तुम्हारी ठाकुर रुद्रसिंह में क्या दिलचस्पी है ?” - सुनील ने पूछा ।
अरुणा फिर चौंक पड़ी ।
“तुम ठाकुर रुद्रसिंह को कैसे जानते हो ?” - उसने तीखे स्वर में पूछा ।
“यह तो मेरे सवाल का जवाब नहीं है ।”
“मुझे तुम्हारे सवालों का जवाब देने की फुरसत नहीं है । मेरा रास्ता छोड़ो ।”
“लेकिन मुझे बहुत फुरसत है ।”
“तो फिर मैं क्या करूं ?”
“देखो, मेरी कार सामने खड़ी है । तुम उसमें बैठो और जहां तुम कहोगी मैं तुम्हें छोड़ आऊंगा । इस तरह रास्ता भी कट जायेगा और बातें भी हो जायेंगी ।”
“कार मेरे पास भी है ।”
“तो फिर तुम मुझे अपनी कार में बैठा लो ।”
“तुम चाहते क्या हो ?”
“अपने कुछ सवालों का जवाब ।”
“और अगर मैं जवाब न दूं तो ?”
“तो मैं सवाल फिर पूछूंगा । तुम फिर इनकार करोगी । मैं फिर पूछूंगा । इस तरह सिलसिला चलता ही रहेगा ।”
“बिना इसके मेरा पीछा नहीं छोड़ोगे ?”
“नहीं ।”
अरुणा ड्राइविंग सीट की ओर बढती हुई बोली - “अच्छी बात है ।”
अरुणा ड्राइविंग सीट पर आ बैठी । उसने कार का सुनील की ओर का दरवाजा खोला । सुनील भीतर बैठ गया और बोला - “कहां जा रही हो ?”
“तुमसे मतलब ?” - अरुणा तमककर बोली - “जहां मैं जा रही हूं, वहां अगर तुम नहीं जाना चाहते हो तो उतर जाओ ।”
सुनील चुप हो गया ।
अरुणा भी चुपचाप गाड़ी चलाये जा रही थी । उसके चेहरे के भाव ऐसे थे जैसे वह किसी पेचीदा समस्या का हल खोजने में मग्न हो ।
“तुम स्टार क्लब में वाकई होस्टेस हो ?” - सुनील ने चुप्पी तोड़ी ।
“नहीं ?” - अरुणा बोली ।
“तो फिर ?”
“स्टार क्लब के धन्धे में मैं और निरंजन फिफ्टी-फिफ्टी के पार्टनर हैं ।”
“तुम निरंजन की पार्टनर हो !” - सुनील हैरानी से बोला ।
“इसमें हैरानी की कौन-सी बात है ?”
“तुम उस बदमाश के संसर्ग में आई कैसे ?”
“बस आ गई ।”
“कहीं कोई इश्क-विश्क का चक्कर तो नहीं है ?”
“पागल हो क्या ? निरंजन की उमर मेरे से दुगनी है और वह बाल-बच्चों वाला आदमी है ।”
“इसी उमर में तो इश्क का भूत सबसे अधिक सताता है ।”
“मिस्टर, दरअसल मेरे डैडी निरंजन के पार्टनर थे । दोनों जिगरी दोस्त थे । लगभग एक साल पहले मेरे डैडी की मृत्यु हो गई और निरंजन ने बड़ी ईमानदारी से डैडी का स्थान मुझे दे दिया ।”
“तो फिर तुमने क्लब में मुझे यह क्यों कहा था कि तुम होस्टेस हो ?”
“तुम्हें वहां से दफा करने के लिये ।”
“क्यों ?”
“कारण तुम्हें निरंजन ने बताया ही था ।”
“तुम लोग मुझसे इतना डरते हो ?”
“तुमसे नहीं । तुम्हारी हरकतों से ।”
“अब तो इतनी बातें हो गईं । अब तो कम से कम यह बता दो कि ठाकुर रुद्रसिंह में तुम्हारी क्या दिलचस्पी है ?”
“ठाकुर रुद्रसिंह तो माध्यम है । वास्तव में हमारी दिलचस्पी तो किसी और में है ।”
“हमारी ?”
“मेरा मतलब, मेरी और निरंजन की ।”
“किसमें ?”
“राजनगर टैक्सटाइल मिल के मालिक रत्न प्रकाश की पत्नी सतोष में ।”
सुनील चौंक पड़ा लेकिन उसने अपने मन के भाव अरुणा पर प्रकट नहीं होने दिये ।
“उसमें क्या दिलचस्पी है तुम लोगों की ?”
“संतोष सबरवाल बिल्डिंग खरीदना चाहती है ।”
“इससे तुम लोगों को क्या फर्क पड़ता है ?”
“सबरवाल विल्डिंग की चौथी मंजिल हमने सबरवाल से लीज पर ली हुई है । लीज की अवधि पन्द्रह साल है और अभी छ: साल ही खत्म हुए हैं । लीज की एक शर्त यह है कि अगर सवरवाल बिल्डिग को बेच देता है तो नब्बे दिन में हमारी लीज खतम समझी जायेगी । स्टार क्लब का धन्धा अप्रत्याशित लाभ में चल रहा है । इस प्रकार का धन्धा एक बार उखड़कर दुबारा जमता नहीं है । अगर संतोष के दबाव में आकर रत्न प्रकाश ने इमारत खरीद ली तो हम बरबाद हो जायेंगे ।”
“लेकिन अगर रत्न प्रकाश इमारत खरीदना चाहता है तो तुम लोग उसे कैसे रोक सकते हो ?”
“यही तो मजेदार बात है । रत्न प्रकाश इमारत नहीं खरीदना चाहता और सबरवाल इमारत सिर्फ इसलिये बेचना चाहता है क्योंकि उसे चौगुनी कीमत मिल रही है । सारा बखेड़ा तो संतोष का है । वह न जाने क्यों सबरवाल बिल्डिंग खरीदने के लिये मरी जा रही है ।”
“खैर, संतोष का ही सही । तुम लोग उसे इमारत खरीदने से कैसे रोक लोगे ?”
“हम संतोष के पिछले जीवन के विषय में जानकारी हासिल करने का प्रयत्न कर रहे हैं । संतोष को रत्न प्रकाश विशालगढ से विवाह करके लाया था । संतोष के रत्न प्रकाश से शादी से पहले के जीवन के विषय में कोई कुछ नहीं जानता है । यहां तक कि रत्न प्रकाश भी नहीं । प्रत्यक्ष है कि संतोष के पिछले जीवन में ऐसा कुछ है जिसे वह किसी पर प्रकट नहीं होने देना चाहती । अगर हमें संतोष के पिछले जीवन की जानकारी हासिल हो जाये तो हम उस पर दबाव डाल सकते हैं कि वह सबरवाल बिल्डिंग को खरीदने का ख्याल छोड़ दे ।”
“लेकिन तुम्हें उसके पिछले जीवन की जानकारी कैसे होगी ?”
“एक-दो तुरुप के पत्ते हमारे हाथ में हैं ।”
“क्या ?”
“एक बूढी औरत रत्न प्रकाश की अनुपस्थिति में संतोष से मिलने आया करती है । संतोष उसका आगमन पसन्द नहीं करती है और वह हमेशा उसे टालने का प्रयत्न करती है । वह औरत विशालगढ से आती है और रुद्रसिंह के पास ठहरती है । वह औरत कौन है और रुद्रसिंह से उसका क्या सम्बन्ध है यह बात हम जानने का प्रयत्न कर रहे हैं । लेकिन रुद्रसिंह किसी प्रकार भी निरंजन के हत्थे नहीं चढ रहा है । अब रुद्रसिंह को शीशे में उतारने का प्रयत्न कर रही हूं ।”
“लेकिन तुम्हें इतनी बातें कैसे मालूम हैं ?”
“मुझे निरंजन ने बताई हैं ।”
“और निरंजन कैसे जानता है ?”
अरुणा कई क्षण चुप रही और फिर बोली - “मिस्टर सुनील कुमार, रुद्रसिंह ने जिस आदमी को अपना फ्लैट सबलैट कर रखा है, वह निरंजन ही है ।”
“क्या ?” - सुनील हैरानी से चिल्ला पड़ा ।
“चिल्लाओ मत ।”
“फिर भी वह रुद्रसिंह से कुछ जानकारी हासिल नहीं कर पा रहा है ?”
“रुद्रसिंह बहुत चालाक आदमी है और फिर निरंजन ने भी बेवकूफी की थी । उसने रुद्रसिंह से ऐसे सीधे सवाल पूछ डाले थे कि वह सन्दिग्ध हो उठा था । जो कुछ निरंजन को मालूम है वह सब उसे उस औरत की रुद्रसिंह से बातें सुन-सुनकर ही मालूम हुआ है । जब से निरंजन ने इस सिलसिले में उससे सवाल पूछे हैं, तब से वह और भी सतर्क हो उठा है ।”
“रुद्रसिंह वाले फ्लैट में जिस औरत से तुम बात कर रही थीं वह औरत कौन थी ?”
“तो तुमने मुझे वहां भी देखा था ?”
“हां, मैं भी रुद्रसिंह से मिलना चाहता था ।”
“क्यों ?”
“यूं ही । तुमने बताया नहीं, वह औरत कौन थी ?”
“वह निरंजन की पत्नी है ।”
“कार का यह सफर कब तक चलेगा ?”
“मैं अपने फ्लैट पर जा रही हूं । तुम जहां चाहो तुम्हें उतार देती हूं ।” - वह बोली ।
“तुम संतोष या रुद्रसिंह के बारे में और क्या जानती हो ?”
“बहुत कुछ ।”
“क्या ?”
“अब नहीं बताऊंगी ।”
“क्यों ?”
“मुझे अपनी बेवकूफी का अहसास हो गया है । तुम तो मुझे यह भी नहीं बताना चाहते कि तुम संतोष में क्यों दिलचस्पी ले रहे हो । खुद मेरे से जमाने-भर के सवाल पूछ डाले ।”
सुनील कुछ नहीं बोला । उसने देखा कि गाड़ी लिंक रोड से गुजर रही थी ।
उसी समय अरुणा ने एक इमारत के सामने गाड़ी रोक दी ।
“उतरो ।” - वह बोली - “मेरा फ्लैट आ गया है ।”
“मैं भी तुम्हारे फ्लैट में चलूं ?”
“नहीं ।”
सुनील ने लापरवाही से जेब से सिगरेट निकालकर सुलगा लिया ।
अरुणा ने इग्नीशन बन्द किया और गाड़ी से बाहर निकल आई ।
“निकलो न बाबा ।” - वह सुनील वाली साइड में आकर झुंझलाये स्वर मेंबोली ।
“अभी मैंने तुमसे बहुत-सी बातें पूछनी हैं ।” - सुनील इत्मीनान से बोला ।
“मैं तुम्हारी किसी बात का जवाब देने के तैयार नहीं हूं ।”
“क्यों ?”
“मेरी मर्जी ।”
“तो फिर मैं बैठा रहूं यहीं पर, जब तक कि तुम्हारा इरादा न बदल जाये ।”
“अगर मेरा इरादा बदलने की प्रतीक्षा करोगे तो इसी गाड़ी में तुम्हारी कब्र बनेगी ।”
“मुझे कोई एतराज नहीं ।”
“तो पड़े सड़ते रहो यहां ।” - वह झल्लाकर बोली - “जब बैठे-बैठे बोर हो जाओगे तो खुद ही दफा हो जाओगे ।”
और वह पांव पटकती हुई इमारत में घुस गई ।
सुनील चुपचाप बैठा सिगरेट के कश लेता रहा ।
उसे पूरी आशा थी कि अरुणा जरूर लौटकर आयेगी ।
लगभग तीन मिनट बाद अरुणा भागती हुई इमारत से बाहर निकली । उसने एक बड़ा-सा कोट मजबूती से अपने आसपास लपेटा हुआ था । उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं और वह थर-थर कांप रही थी ।
सुनील हड़बड़ाकर कार से बाहर निकल आया ।
“क्या हुआ ?” - उसने पूछा ।
वह उसके समीप आ गई । उसने कांपते हाथों से कसकर सुनील की बांह पकड़ ली और उसे इमारत की ओर घसीटती हुई बोली - “ऊपर... मेरे फ्लैट में... भगवान के लिये जल्दी मेरे साथ चलो ।”
“क्या हुआ है ?”
“प्लीज, चलो-चलो ।”
सुनील ने सिगरेट फेंक दिया और उसके साथ इमारत के भीतर की ओर लपका ।
रास्ते में उसने कुछ नहीं पूछा ।
सीढियां तय करके वे पहली मंजिल पर पहुंचे ।
चाबी अरुणा के हाथ में थी । द्वार में स्प्रिंग लाक लगा हुआ था । अरुणा ने बायें हाथ से कोट सम्भाल और दायें हाथ से चाबी ताले में लगाकर ताला खोल दिया ।
सुनील उसके साथ भीतर घुस गया ।
फ्लैट में पर्याप्त प्रकाश था ।
ड्राइंगरूम की मेज पर अरुणा का पर्स रखा था । बैडरूम का द्वार खुला हुआ था और पलंग पर अरुणा का वह स्कर्ट और ब्लाउज पड़ा था जो वह कुछ मिनट पहले पहने हुए थी ।
“क्या बात है ?” - सुनील ने पूछा ।
“बाथरूम में !” - वह कापते स्वर में बाथरूम की ओर संकेत करती हुई बोली । क्षण-भर के लिये उसके कोट का अगला भाग खुल गया और सुनील ने देखा कि वह केवल अन्डरवियर और ब्रेसियर ही पहने हुए थी ।
अरुणा ने जल्दी से कोट अपने इर्द-गिर्द लपेट लिया ।
सुनील बैडरूम से होता हुआ बाथरूम की ओर बढा ।
अरुणा उसके पीछे थी । वह अब भी कांप रही थी ।
सुनील ने एक झटके के साथ बाथरूम का द्वार खोल दिया ।
बाथटब में सबरवाल की लाश पड़ी थी । उसका सिर टब की साइड पर टिका हुआ था और हाथ-पांव बाहर लटक रहे थे ।
उसकी खोपड़ी तरबूज की तरह फटी हुई थी ।
सुनील ने आगे बढकर उसके दिल पर हाथ रख दिया ।
हरकत गायब थी ।
वह उठ खड़ा हुआ ।
“मर गया है ?” - अरुणा ने थरथराते स्वर में पूछा ।
“हां ।” - सुनील शान्ति से बोला और उसने बाथरूम का द्वार बन्द कर दिया ।
अरुणा खामोश खड़ी रही ।
“क्या हुआ था ?” - सुनील ने पूछा ।
“मैं... मैं !” - वह हकलाई ।
“शान्ति से बताओ । घबराओ नहीं ।”
“मैं” - वह स्वर को नियन्त्रित करने का प्रयत्न करती हुई बोली - “तुम्हें छोड़कर ऊपर आई । कपड़े उतारकर हाथ-मुंह धोने के लिये मैं बाथरूम की ओर बढी । द्वार खोलते ही मेरी नजर इस पर पड़ी । भय से मेरी चीख निकल गई । मैं एकदम बाहर की ओर भागी । तन ढकने के लिये यह कोट ही पहली चीज थी जो मेरे हाथ में आई । मैंने शरीर पर कोट लपेटा और थर-थर कांपती हुई नीचे भागी ।”
“दहशत के मारे तो तुम्हारे प्राण निकले जा रहे होंगे ?” - सुनील व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“मुझे यूं लग रहा था जैसे मेरा हार्टफेल ही जायेगा ।” - अरुणा व्यंग्य न समझ सकी ।
“अच्छा !” - वह आश्चर्य का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“हां । ...अब मुझे क्या करना चाहिये, सुनील ?” - वह भोले स्वर में बोली ।
“पुलिस को फोन कर दो ।” - सुनील ने राय दी ।
अरुणा कोन में रखे फोन की ओर बढी ।
“फोन करने से पहले एक बात बताओ ।” - सुनील उसे रोकता हुआ बोला ।
“पूछो ।” - वह उलझनपूर्ण स्वर में बोली ।
“आज से पहले तुम्हारा कभी पुलिस से वास्ता पड़ा है ?”
“नहीं तो ।”
“तो फिर तूफाने हमदम, तुम्हारी सेहत के लिये अच्छा यही है कि जो कहानी तुमने मुझे सुनाई है, तुम कोई उससे अच्छी कहानी पुलिस के आगमन से पहले ही सोच लो । तुम्हारी जिन्दगी में यह शायद हत्या का पहला मामला होगा जबकि पुलिस ने ऐसे सैकड़ों केस सुलझाये होंगे । उनकी पारखी नजरों के सामने तुम्हारा यह झूठ चलेगा नहीं ।”
“क्या बक रहे हो?” - वह उखड़कर बोली ।
“मैं यह बक रहा हूं कि तुम्हारी कहानी इतनी लचर है कि पुलिस को तो क्या, मुझे भी उस पर विश्वास नहीं हुआ है ।”
अरुणा ने खा जाने वाली नजरों से सुनील को घूरा और फिर निर्णयात्मक ढंग से टेलीफोन की ओर बढी । उसने रिसीवर उठाया और नम्बर घुमाने के लिये हाथ डायल की ओर बढाया । वह कुछ क्षण हिचकिचाई और फिर उसने रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया । वह सुनील की ओर घूमी और धीमे स्वर में बोली - “क्या खराबी है मेरी कहानी में ?”
“तुम्हारी कहानी में कुछ ऐसे नुक्स हैं जिनसे यह सिद्ध हो जाता है कि तुम झूठ बोल रही हो ।”
“क्या ?”
“तुम चाबियां पर्स में रखती हो न ?”
“हां ।”
“फ्लैट का द्वार खोलने के बाद, स्वाभाविक है, चाबियां तुमने वापिस पर्स में डाल दी होंगी ?”
“हां ।”
“फिर तुमने कपड़े उतारे और हाथ-मुंह धोने के लिये बाथरूम में गयीं । तभी तुमने लाश देखी । तुम आतंकित हो उठीं । आतंक के आधिक्य से तुमने कपड़े भी पहने और कोट लपेटकर एकदम बाहर की ओर भागीं । ठीक है न ?”
“ठीक है ।”
“लेकिन जब तुम नीचे पहुंची थीं तो चाबियां तुम्हारे हाथ में थीं । इतनी हड़बड़ाहट के बाद भी तुम्हें पर्स में से चाबियां निकालना कैसे याद रहा ?”
“क्योंकि फ्लैट के मुख्य द्वार में स्प्रिंग वाला ताला फिट है । द्वार बन्द होते ही ताला अपने-आप बन्द हो जाता है । इसलिये यह मेरी आदत बन गई है कि बाहर जाते समय मैं चाबियां साथ लेकर जाती हूं ।”
“लेकिन यह मत भूलो कि तुम स्वयं को इतना आतंकित प्रकट कर रही थीं कि तुम्हें कपड़े पहनने की सुध नहीं थी । अगर तुम वाकई इतनी आतंकित होतीं तो तुम्हें पर्स उठाकर उसे खोलकर उसमें से चाबियां निकालकर पर्स को दुबारा बन्द करके उसे अपने स्थान पर रखने के मुकाबले यह अधिक सहूलियत का काम मालूम होता कि तुम पर्स ही उठा लेतीं और फिर बाद में जरूरत पड़ने पर उसमें चाबियां टटोलती रहतीं ।”
“अच्छा, मान ली तुम्हारी बात । लेकिन तुम इससे सिद्ध क्या करना चाहते हो ?”
“मैं इससे यह सिद्ध करना चाहता हूं कि तुम्हें बहुत पहले से यह बात मालूम थी कि बाथरूम में सबरवाल की लाश पड़ी थी । यह बात कोरा ड्रामा है कि लाश तुमने अब देखी है । तुम मुझे नीचे कार में छोड़कर ऊपर आयीं । तुमने द्वार खोला लेकिन चाबियां अपने हाथ में ही रखीं क्योंकि तुम्हें मालूम था कि दो-तीन मिनटों बाद ही तुम्हें उनकी जरूरत पड़ने वाली है । फिर तुम बाथरूम में गयी । चाबियां तुमने बिस्तर पर उछाल दीं, अपने कपड़े उतारे, बड़े इत्मीनान से शरीर पर कोट लपेटा, बाथरूम में झांककर देखा कि लाश अभी वहीं थी, फिर चाबियां उठाई और फिर भारी दहशत का प्रदर्शन करती हुई फ्लैट से बाहर भाग खड़ी हुई ।”
अरुणा चुप रही ।
“सबूत के तौर पर एक नजर बिस्तर पर डाल लो । जहां तुमने चाबियां फेंकी थीं, उस स्थान पर चाबियों के दबाव के निशान स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं ।”
अरुणा चिहुंककर टेलीफोन के पास से हटी । वह लपककर पलंग के पास पहुंची और बिस्तर पर दृष्टि दौड़ाने लगी ।
फिर उसने हाथ-पांव ढीले छोड़ दिये और कहरभरे स्वर में बोली - “मुझे बेवकूफ बना रहे थे ! इतनी मोटी चादर पर हल्की-सी चाबियों के दबाव का निशान कैसे उभर सकता है !”
“नहीं उभर सकता ।” - सुनील ने बड़ी शरारत से स्वीकार किया ।
“तो फिर ? ऐसा क्यों कहा तुमने ?”
“तुम्हारा झूठ साबित करने के लिये । जानेबहार, हमने भी ये बाल धूप में काले नहीं किये हैं । अगर तुम सच बोल रही होतीं और वास्तव में तुमने चाबियां, मेरे कथनानुसार बिस्तर पर न रखी होतीं तो तुम मेरे कथन की सत्यता को परखने के लिये एकदम यूं कूदकर बिस्तर की ओर नहीं भागतीं ।”
अरुणा के चेहरे पर पराजय के गहन चिह्र परिलक्षित होने लगे । वह एक गहरी सांस लेकर धम्म से सोफे पर बैठ गई ।
“अब शुरू हो जाओ ।” - सुनील बोला ।
“क्या शुरू हो जाऊं ?” - वह बोली ।
“वास्तव में क्या हुआ था ?”
“तुम्हारा क्या ख्याल है ?”
“मैंने तो अपना ख्याल पहले ही बता दिया है तुम्हें । स्टार क्लब में से निकलने के बाद किसी समय तुम अपने फ्लैट में आयीं । तुमने बाथरूम में सबरवाल की लाश पाई या तुमने खुद ही उसकी हत्या कर दी और चुपचाप फ्लैट से बाहर निकल गयीं । तुम अपने लिये एक ऐसी शहादत तलाश करना चाहती थीं जिसके माध्यम से तुम यह सिद्ध कर सको कि तुम्हें तो अपने फ्लैट में लाश पड़ी हुई मिली थी । संयोगवश तुम्हें मैं मिल गया । तुम मुझे अपने फ्लैट के सामने ले आयीं और मुझे कार में छोड़कर ऊपर चली गईं । अगले ही क्षण तुम आतंकित-सी बाहर भागी आई और मुझ पर यह प्रकट करने लगीं कि लाश तुमने अभी देखी है । अगर मेरे स्थान पर और कोई होता तो बाद में वह पुलिस को तुम्हारे हक में ही बयान देता । चाबियों वाली गड़बड़ के अलावा तुम्हारी एक्टिंग इतनी जोरदार थी कि कोई भी यह बात स्वीकार कर लेता कि तुमने उसी समय पहली बार लाश देखी थी और उसकी हत्या से तुम्हारा कोई सम्बन्ध होने का सवाल ही नहीं था । मैंने तो सिर्फ आउटलाइन बयान की है । पूरी दास्तान तो तुम ही सुनाओगी ।”
“तुम्हारी आउटलाइन बिल्कुल ठीक है । मैं तुम्हें पूरी दास्तान भी सुनाऊंगी लेकिन अभी नहीं । फिलहाल तो भगवान के लिये पुलिस को फोन करो । इस लाश को मेरे फ्लैट में पड़े-पड़े जितनी देर होती जायेगी, मेरे लिए सफाई देना उतना ही कठिन होता जायेगा ।”
“ओके !” - सुनील बोला ।
वह एक बार फिर बाथरूम में घुस गया और सबरवाल की लाश के समीप बैठ गया और उसके कोट की जेब टटोलने लगा ।
उसे एक ही असाधारण वस्तु दिखाई दी ।
उसके कोट की भीतरी जेब में 22 कैलिबर की एक रिवाल्वर थी ।
एकाएक सुनील की नजर सबरवाल की कलाई पर बंधी घड़ी पर पड़ी ।
घड़ी में पांच बजकर पैंतीस मिनट हुए थे ।
सुनील ने अपनी घड़ी देखी - छः बजकर पैंतीस मिनट हो चुके थे ।
सबरवाल की घड़ी ठीक एक घन्टा पीछे थी ।
और निरंजन के हाथ की घड़ी और उसके कमरे में लगी क्लाक एक घन्टा आगे थी ।
“क्या इन दोनों बातों में कोई सम्बन्ध है ?” - यह प्रश्न कील की तरह उसके दिमाग में ठुक गया ।
“क्या बात है ? इसकी घड़ी में कोई खराबी है ?” - अरुणा बोली । वह पता नहीं कब सुनील के पीछे आ खड़ी हुई थी ।
“नहीं !” - सुनील बोला ।
वह टेलीफोन की ओर बढ गया ।
उसने पुलिस को फोन कर दिया ।
फोन से निपटने के बाद वह अरुणा की ओर मुड़ा ।
“मैंने पुलिस को फोन कर दिया है ।” - वह बोला - “यह कत्ल का केस है । इंस्पेक्टर प्रभूदयाल यहां आ रहा है । मैं उसे निजी रूप से जानता हूं । वह बहुत ही घाघ अफसर है । उसके सामने झूठ बोलना खुदा को धोखा देने जैसा है। इसलिए जरा सोच-समझकर बात जुबान से निकालना । अगर कोई उलटा-सीधा बयान दे दिया तो अब तुम तो फंसोगी ही, साथ में मुझे भी फंसाओगी । समझीं ?”
अरुणा ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
***
पहले एक सब-इंस्पेक्टर और दो सिपाही आये । वे लगभग आधे घन्टे तक फ्लैट और लाश का निरीक्षण करते रहे और अरुणा और सुनील से भांति-भांति से प्रश्न पूछते रहे ।
फिर फोटोग्राफर और फिंगर प्रिन्ट एक्सपर्ट आये ।
अन्त में इंस्पेक्टर प्रभूदयाल ने फ्लैट में कदम रखा ।
सुनील को देखकर उसने बुरा-सा मुंह बनाया लेकिन कुछ औपचारिक शब्दों के अतिरिक्त कुछ नहीं बोला । वह अपने साथियों से जा मिला और काफी समय तक परिस्थिति की जानकारी करता रहा ।
अन्त में वह बाहर ड्राइंग रूम में आ गया और अरुणा तथा सुनील के सामने बैठ गया ।
वह कई क्षण सुनील को घूरता रहा और फिर बोला - “राजनगर में जहां भी हत्या होती है, पुलिस के पहुंचने से पहले वहां तुम जरूर मौजूद होते हो ।”
“यह बात तुम मुझे कम से कम बीस बार कह चुके हो, इंस्पेक्टर साहब ।” - सुनील लापरवाही से बोला ।
“और न जाने अभी कितनी बार और कहूंगा ।” - प्रभूदयाल गम्भीरता से बोला - “दो ही तरीके हैं जिनसे मैं इस स्थिति से छुटकारा पा सकता हूं ।”
सुनील ने जानबूझकर प्रश्न नहीं पूछा ।
“या तो कोई तुम्हारी भी हत्या कर दे ।” - प्रभूदयाल खुद ही बोला - “या फिर किसी केस में तुम ऐसे फंसो कि कम से कम पन्दरह साल के लिये अन्दर हो जाओ ।”
“दो तरीके और भी हैं ।” - सुनील के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कराहट दौड़ गई ।
“क्या ?”
“या तो तुम आत्महत्या कर लो या फिर पुलिस की नौकरी छोड़ दो ।”
प्रभूदयाल का चेहरा कानों तक सुर्ख हो गया । उसने खा जाने वाली नजरों से सुनील को घूरा लेकिन सुनील तो खिड़की से बाहर देख रहा था ।
प्रभूदयाल ने बड़ी कठिनाई से स्वयं को नियन्त्रित किया और फिर अरुणा की ओर आकर्षित हुआ ।
“घटना की मोटी-मोटी बातें मुझे अपने आदमियों से मालूम हो चुकी हैं ।” - वह बोला - “आपसे फिलहाल एक-दो सवाल पूछूंगा, मिस अरुणा ।”
“पूछिये ।” - अरुणा सतर्क स्वर से बोली ।
“आप सुनील को कब से जानती हैं ?”
“लगभग एक साल से ।”
“आपका सुनील से क्या सम्बन्ध है ?”
“सुनील मेरा मित्र है ।”
“बस, केवल मित्र ही ?” - प्रभूदयाल के स्वर में व्यंग्यपूर्ण व्यंग्य का हल्का-सा पुट था ।
“जी हां, केवल मित्र ही ।” - अरुणा भी वैसे ही व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली ।
“आपने मेरे आदमियों को बताया है कि आप उसके साथ फिल्म देखने जाने वाली थीं ?”
“जी हां ।”
“आप कपड़े उतारने के बाद गुसलखाने की ओर बढीं और आपको लाश दिखाई दी । आप आतंकित हो उठीं और एक कोट लपेटकर नीचे भागीं ।”
“जी हां ।”
“फ्लैट का द्वार खोल चुकने के बाद आपने चाबियां कहां रखी थीं ?” - प्रभूदयाल ने सहज स्वर में पूछा ।
“चाबियां मैंने पर्स में डाल दी थीं और पर्स बन्द करके मेज पर रख दिया था ।”
“और जब आप लाश देखकर बाहर भागी थी तो आपने चाबियां पर्स में से निकाल ली थीं ?”
“नहीं ।” - अरुणा शान्ति से बोली - “मैंने पर्स ही उठा लिया था । पर्स से चाबियां निकालने की सुध कहां थी मुझे ।”
प्रभूदयाल ने गहरी सांस ली । शायद उसे इस उत्तर की आशा नहीं थी ।
“ये सच कह रही हैं ?” - उसने सुनील से पूछा ।
“अक्षरश: ।” - सुनील ने उत्तर दिया ।
“आप मृत को पहचानती हैं ?” - प्रभूदयाल फिर अरुणा की ओर आकर्षित हुआ ।
“जी हां, उसका नाम सबरवाल है । वह सबरवाल बिल्डिंग का मालिक है ।”
“वह आपके प्लैट पर पहले भी आया करता था ?”
“जी हां, कभी-कभी ।”
“आप तो जाती बार फ्लैट को ताला लगाकर गयी थीं न ?”
“जी हां ।”
“और जब आप लौटी थीं तो आपको ताला बन्द मिला था ?”
“जी हां ।”
“तो फिर सबरवाल भीतर कैसे घुसा ?”
“मुझे क्या मालूम इन्स्पेक्टर साहब !” - अरुणा बड़ी मासूमियत से बोली ।
प्रभूदयाल चुप हो गया ।
“और कुछ ?” - अरुणा ने पूछा ।
“फिलहाल, बस ।” - प्रभूदयाल बोला । उसने एक दृष्टि अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर डाली - “अभी शो का टाइम है, आप ठाठ से फिल्म देख आइये । जब तक आप लौटकर आयेंगी, आपके फ्लैट से लाश हटाई जा चुकी होगी ।”
“और मैं ?” - सुनील ने पूछा ।
“आप भी जाइये ।” - प्रभूदयाल तीव्र स्वर से बोला ।
सुनील उठ खड़ा हुआ ।
“आओ ।” - वह अरुणा से बोला ।
अरुणा उठकर सुनील के पास आ खड़ी हुई । सुनील ने उसकी बगल में हाथ डाला और द्वार की ओर बढा ।
“एक बात आप दोनों याद रखियेगा ।” - प्रभूदयाल पीछे से बोला - “आप दोनों अभी सन्देह से मुक्त नहीं हैं । मैंने अभी आप लोगों से केवल चन्द ही सवाल पूछे हैं । तफ्तीश के दौरान आपको बयान के लिए हैडक्वार्टर बुलाया जा सकता है ।”
“मैनी-मैनी थैंक्स, सर ।” - सुनील बोला और अरुणा के साथ बाहर निकल आया ।
दोनों कार में आ बैठे । ड्राइविंग सीट पर अरुणा थी । उसने गाड़ी स्टार्ट की और उसे मुख्य सड़क पर ले आयी ।
“कहां जा रही हो ?” - सुनील ने पूछा ।
“टैंपल रोड ।” - अरुणा दांतों से होंठ काटती हुई बोली - “जहां तुम अपनी कार छोड़ आये हो ।”
“क्यों ?”
“ताकि तुम अपनी कार में जाकर बैठो और मेरा पीछा छोड़ो ।”
“लेकिन इंस्पेक्टर ने तो कहा था कि हम दोनों फिल्म देखकर आयें ।”
“ऐसी की तैसी इंस्पेक्टर की और साथ में तुम्हारी भी ।” - वह उत्तेजित स्वर में बोली - “देखो मिस्टर, अगर तुम यह समझते हो कि मेरा झूठ पकड़कर या मेरी खातिर इंस्पेक्टर से झूठ बोलकर तुम मुझ पर कोई अनुचित दबाव डाल पाने की स्थिति में आ गये हो तो वह तुम्हारा वहम है । अब अगर तुम इंस्पेक्टर के सामने कोई उल्टा-सीधा बयान देने की कोशिश करोगे तो तुम भी मेरे साथ फंसोगे । समझे ?”
“बड़ी समझदार हो !” - सुनील व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“व्यंग्य की जरूरत नहीं है ।” - वह बोली - “अपनी भलाई के मामले में मैं वाकई बड़ी समझदार हूं और यह भी मेरी शराफत है कि मैं तुम्हें गाड़ी में बिठाकर टैम्पल रोड छोड़ने जा रही हूं वरना इच्छा तो यह तो रही है कि तुम्हें अभी यहीं सड़क पर धकेल दूं ।”
“तो फिर ऐसा करती क्यों नहीं हो ?” - सुनील ने लापरवाही से पूछा ।
वह कुछ नहीं बोली ।
सुनील ने सिगरेट का पैकेट निकाला और उसने एक सिगरेट सुलगा ली ।
वह बड़ी तल्लीनता से सिगरेट फूंकने लगा ।
सिगरेट समाप्त हो जाने पर उसने बचा हुआ सिगरेट का टुकड़ा खिड़की से बाहर फेंक दिया ।
उसने देखा गाड़ी टैम्पल रोड की ओर नहीं जा रही थी ।
“टैम्पल रोड का रास्ता इधर तो नहीं है ।” - वह बोला ।
अरुणा ने उत्तर नहीं दिया ।
“तुम क्या मुझे भगाकर ले जा रही हो ?” - सुनील कृत्रिम घबराहट का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“कभी शीशे में अपना मुंह देखा है ?” - वह बोली ।
“आज सुबह शेव करते समय देखा था ।” - सुनील भोले स्वर में बोला - “अच्छा-खासा तो है ।”
“बकवास बन्द करो ।”
“तुम बताती क्यों नहीं हो कि कहां जा रही हो ?”
“महात्मा गांधी रोड, सबरवाल बिल्डिंग ।”
“क्यों ?”
“निरंजन को सबरवाल की हत्या का सूचना देने ।”
“क्या उसे तुम पर भरोसा नहीं है ?”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि अगर तुमने उससे कहा है कि तुम सबरवाल की हत्या कर दोगी तो तुमने हत्या कर ही दी होगी ।”
“पागल हुए हो क्या ? मैंने उसकी हत्या नहीं की ।”
“अच्छा !” - सुनील यूं बोला जैसे उसने एकदम नई बात सुनी हो ।
अरुणा का चेहरा भभक उठा लेकिन वह जुबान से कुछ नहीं बोली और सुनील भी चुप रहा ।
अरुणा चुपचाप गाड़ी चलाती रही ।
अन्त में गाड़ी सबरवाल बिल्डिंग के कम्पाउंड में आ रुकी ।
“चलो ।” - वह बाहर निकलती हुई बोली ।
“कहां ?”
“स्टार क्लब में ।”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“निरंजन ने मुझे गज भर का चाकू दिखाकर वार्निंग दी थी कि अगर मैं दुबारा स्टार क्लब में घुसा तो...”
और उसने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से अपनी गरदन पर हाथ फेरा ।
“अच्छा, तुम यहीं बैठो, मैं ऊपर से होकर आती हूं । फिर तुम्हें टैम्पल रोड छोड़ आऊंगी ।”
“नहीं, कोई जरूरत नहीं है ।” - सुनील गाड़ी से बाहर निकलता हुआ बोला - “मैं टैक्सी ले लूंगा ।”
“अच्छा ।” - अरुणा हिचकिचाती हुई बोली - “मर्जी तुम्हारा ।”
“ओके, गुडनाइट ।” - सुनील बोला ।
“गुडनाइट ।” - अरुणा ने उत्तर दिया ।
सुनील टैक्सी की ओर बढ गया ।
***
सुनील ने टैक्सी टैम्पल रोड पर पच्चीस नम्बर के सामने रुकवायी ।
उसने टैक्सी का बिल चुकाया और टैक्सी से बाहर निकल आया ।
उसने देखा पनवाड़ी दुकान पर बैठा था ।
सुनील उसकी ओर बढा ।
“आइये, ठाकुर साहब ।” - पनवाड़ी विनयपूर्ण स्वर में बोला ।
शायद यह सुनील के उस झूठ का असर था कि वह ठाकुर रुद्रसिंह का लड़का था जो पनवाड़ी उसे भी ठाकुर साहब ही कहने लगा था ।
“ठाकुर साहब आए हैं ?” - उसने पूछा ।
“नहीं, साहब ।” - पनवाड़ी बोला ।
“अच्छा ।” - सुनील निराशपूर्ण स्वर में बोला ।
“अब तो साहब, वे रात को दो-तीन बजे ही लौटेंगे ।”
“खैर !” - सुनील बोला और जाने के लिए मुड़ा ।
फिर एकाएक उसके दिमाग में एक विचार आया और वह फिर पनवाड़ी की ओर आकर्षित हुआ - “तुम्हें मालूम है ठाकुर साहब जाते कहां हैं ?”
“कोई एक जगह हो तो बताऊं, साहब ।”
“फिर भी तुम्हें जो मालूम है, वह तो बताओ ।”
“आम तौर पर वे दो स्थानों पर जाते हैं । एक तो धर्मपुरे में पंजाब होटल है और दूसरा विशालगढ हाइवे पर पेशावरी रेस्टोरेन्ट है । दोनों ही स्थानों पर कच्ची शराब का नाजायज धन्धा होता है । इसके अलावा भी बहुत जगह हैं लेकिन वहां वे कम ही जाते हैं और उन जगहों का पता मुझे मालूम भी नहीं है ।”
“पंजाब होटल और पेशावरी रेस्टोरेन्ट के बारे में ही तुम्हें कैसे मालूम है ?”
“पंजाब होटल तो कभी-कभार मैं भी जाता हूं । वहां मैंने कई बार ठाकुर साहब को देखा है । पेशावरी रेस्टोरेन्ट के बारे में मैं इसलिए जानता हूं कि जब ठाकुर बेतहाशा पीकर होश खो बैठते हैं तो पेशावरी रेस्टोरेन्ट का ही कोई आदमी उन्हें रिक्शा पर लादकर घर लाता है ।”
सुनील ने धन्यवाद के रूप में कुछ औपचारिक शब्द पनवाड़ी को कहे और फिर अपनी कार की ओर बढ गया जिसे कि वह सड़क के दूसरे किनारे पर खड़ी छोड़ गया था ।
वह कार के स्टेयरिंग पर जा बैठा । उसने कार स्टार्ट की और धर्मपुरे की ओर चल दिया ।
धर्मपुरा उसका देखा हुआ इलाका था । पंजाब होटल तलाश करने में उसे दिक्कत नहीं हुई ।
उसने कार को होटल से दूर ही खड़ा कर दिया और फिर होटल की ओर बढा ।
होटल का द्वार बन्द था और बाहर उर्दू में लिखा हुआ एक बोर्ड टंगा हुआ था । लिखा था - आज और कल होटल बन्द रहेगा ।
होटल के बाहर तंदूर और भट्टियों के लिए बने प्लेटफार्म पर मैले-कुचैले कपड़े एक लड़का बैठा था ।
“आज होटल क्यों बन्द है ?” - सुनील ने लड़के से पूछा ।
लड़के ने एक बार सिर से पांव तक सुनील को देखा और फिर रूखे स्वर में बोला - “मालिक के घर में मातम हो गया ।”
“क्या हुआ है ?”
“उसकी बीवी मर गई है । होटल परसों खुलेगा ।”
सुनील बिना लड़के की ओर दुबारा देखे वहां से हट गया और वापस कार में आ बैठा ।
उसने गाड़ी विशालगढ हाइवे की ओर जाने वाली सड़क पर डाल दी । हाइवे पर पहुंचकर उसने गाड़ी धीमी कर दी और सावधानी से दायें-बायें नजर फिराता हुआ आगे बढता रहा । सड़क के दोनों ओर कारखानों की इमारतें, छोटे-छोटे खोखे और ट्रांसपोर्ट कम्पनियों के दफ्तर फैले हुए थे ।
एक स्थान पर उसे पेशावरी रेस्टोरेन्ट का बोर्ड लगा हुआ दिखाई दिया । सुनील गाड़ी आगे बढा ले गया । कुछ दूर जाकर उसने गाड़ी रोक दी और पैदल पेशावरी रेस्टोरेन्ट की ओर लौटा ।
रेस्टोरेन्ट एक दो मंजिली बिना पलस्तर की हुई ईंटों की इमारत थी, जिसके सामने इमारत के छः गुने क्षेत्रफल में फैला हुआ लान था । इमारत तक जाने का रास्ता लान के बीचोंबीच से होकर था । रास्ते के दोनों ओर लान में भी पत्थर की सिलों वाली मेजें बिछी हुई थीं । केवल दो-तीन मेजों पर ही आदमी दिखाई दे रहे थे ।
सुनील राहदारी पार करके रेस्टोरेन्ट की इमारत में पहुंच गया ।
वह एक गंदी-सी जगह थी जहां बाहर जैसी ही कुछ मेजे बिछी हुई थीं । एक ओर काउंटर था जिस पर उस समय कोई बैठा हुआ नहीं था । दूसरी ओर दीवार के साथ-साथ पांच केबिन थे जिन पर बिस्तर पर बिछाने वाली चादरों के बनाये हुए गंदे-गंदे पर्दे लटक रहे थे । भीतर बाहर की अपेक्षा अधिक आदमी थे ।
सुनील ने आस पास दृष्टि दौड़ाई लेकिन उसे ठाकुर रुद्रसिंह के हुलिये से मेल खाने वाला कोई आदमी नहीं दिखाई दिया ।
“आइये साहब ।” - वेटर-सा लगने वाला एक लड़का उसकी ओर अग्रसर होता हुआ बोला ।
“ठाकुर रुद्रसिंह को जानते हो ?” - सुनील ने उससे पूछा ।
“ठाकुर रुद्रसिंह...?” - लड़का उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“हां । बड़ा रोबदार चेहरा है उनका । लम्बे-चौड़े आदमी है । ...और कई बार तुम उन्हें 25, टैम्पल रोड स्थित उनके फ्लैट में भी छोड़कर आए हो ।”
“अच्छा !” - लड़का एकाएक बोल पड़ा - “वो साहब ! वो बाहर बैठे हैं ।”
“जरा दिखाओ ।”
लड़का उसे बाहर ले आया ।
लान में अधिक रोशनी नहीं थी । उसी धुंधले प्रकाश में लड़के ने एक कोने में एक छोटी-सी मेज के सामने बैठे एक आदमी की ओर संकेत कर दिया ।
“तुम जाओ ।” - वह लड़के से बोला ।
लड़का वहां से हट गया ।
सुनील लापरवाही से चलता हुआ ठाकुर की मेज के थोड़ा और समीप आ गया ।
सूरत-शक्ल में ठाकुर वाकई बड़ा खूंखार आदमी मालूम होता था । उसका डील-डौल इतना लम्बा-चौड़ा था कि ऐसा अनुभव होता था कि अगर उसने जरा भी जोर दिया तो मेज और कुर्सी दोनों ही उसके भार से चकनाचूर हो जायेंगी ।
उसके सामने एक देशी शराब की बोतल पड़ी थी जो दो-तिहाई खाली थी । बगल में एक प्लेट में प्याज के कतले पड़े थे ।
ठाकुर नीट ही पी रहा था ।
सुनील कुछ क्षण अनिश्चित-सा वहीं खड़ा रहा । फिर वह अपने सिर को हल्का-सा झटका देकर बाहर की ओर चल दिया ।
वह कार में आ बैठा और वापस नगर की ओर चल दिया ।
उसने घड़ी देखी । दुकानें बन्द होने में अभी काफी समय था ।
उसने कार एक शराब की दुकान के सामने रोक दी ।
उसने ‘जानीवाकर’ विस्की की एक बोतल खरीदी और वापस पेशावरी रेस्टोरेन्ट में पहुंच गया ।
उसने बोतल कोट की जेब में इस प्रकार रखी की जब तक कोई गौर से न देखे, वह किसी को दिखाई न दे ।
उसने सहज भाव से अपने दायें-बायें दृष्टि दौड़ाई । उस की दृष्टि ठाकुर पर आकर ठहर गई । उसने अपने मुख से एक आश्चर्य भरा स्वर निकाला और एकदम ठाकुर की मेज की ओर लपका ।
ठाकुर से सामने रखी बोतल में अब तलछट ही बाकी थी ।
“अरे !” - वह एकाएक ठाकुर के सामने आकर आश्चर्यपूर्ण स्वर में बोला - “ठाकुर रुद्रसिंह जी ! आप ! यहां ! कमाल है ।”
ठाकुर ने एकदम अपना सिर उठाया । उसकी लाल-लाल अंगारों की तरह दहकती हुई आंखें एक क्षण के लिए सुनील को अपने शरीर में दहकती हुई सलाखों की तरह धंसती हुई महसूस हुई । उसके सारे शरीर में एक ठण्डी लहर दौड़ गई लेकिन प्रत्यक्ष में वह ऐसी प्रसन्नता के भाव प्रकट करता रहा जैसे वर्षों बाद किसी पुराने परिचित से मिला हो ।
ठाकुर कई क्षण उसे घूरता रहा ओर फिर नशे में थर-थराते हुए स्वर में बोला - “मैंने पहचाना नहीं तुम्हें बरखुरदार ।”
“आपने पहचाना नहीं मुझे !” - सुनील पहले से दो गुणा हैरानी प्रकट करता हुआ बोला - “ठाकुर साहब, मैं हूं सुनील । जब आप विशालगढ में रहते थे - तब तो ‘बाजार’ में आपसे अक्सर मुलाकात हो जाया करती थी ।”
‘बाजार’ से उसका तात्पर्य विशालगढ के वेश्याओं के बाजार से था । सुनील को ठाकुर के बारे में जो थोड़ी-बहुत जानकारी थी उसे ही वह तुरुप के पत्तों के तरह इस्तेमाल कर रहा था । लेकिन मन ही मन में वह डर रहा था । देशी शराब की पूरी बोतल नीट पी जाने के बाद भी ठाकुर अच्छा-खासा होश में था । वह नशे में तो जरूर था लेकिन उसने होश नहीं खोया था । सुनील को अपनी स्कीम की सफलता पर सन्देह होने लगा था । उसे लग रहा था कि अगले कुछ ही क्षणों में ठाकुर के सामने उसकी पोल खुल जायेगी ।
“माफ करना, बरखुरदार” - ठाकुर थरथराते स्वर में बोला - “मैं वाकई पहचान नहीं पाया । बैठो, बैठो ।”
सुनील छुटकारे की गहन निःश्वास लेता हुआ ठाकुर के सामने बैठ गया ।
“बात यह है बेटे” - ठाकुर बोला - “उमर बहुत हो गई है । याददाश्त दगा देने लगी है और फिर विशालगढ छोड़े हुए भी एक जमाना गुजर गया है । अब तो न पुरानी सूरतें याद रही हैं और न पुराने नाम । क्या नाम बताया था तुमने अपना ?”
“सुनील ।” - सुनील तत्परता से बोला ।
“माफ करना, भई । मैं तुम्हें पहचान नहीं पाया ।”
“जी, कोई बात नहीं ।”
“तुम... तुम वो केबल कम्पनी वालों के दामाद तो नहीं हो जिनकी माल रोड पर कोठी थी ?”
“जी हां, आपने ठीक पहचाना है !” - सुनील मौके का लाभ उठाता हुआ बोला । भगवान जाने ठाकुर किन केबल कम्पनी वालों से उसका रिश्ता जोड़ रहा था ।
“तुम्हें गाना सुनने का शौक था ।”
“जी हां । आपको तो सभी कुछ याद है ।” - सुनील प्रशंसापूर्ण स्वर में बोला ।
“इसी बात का तो गम है, बेटे” - ठाकुर भावुक स्वर में बोला - “कि मुझे सभी कुछ याद क्यों रहता है ? पिछले जमाने की याद आती है तो कलेजे पर छुरी चल जाती है ।”
सुनील चुप रहा ।
“पुराना सिलसिला अब भी जारी है ?” - ठाकुर ने पूछा ।
“अब कहां, ठाकुर साहब ! जीवन बहुत व्यस्त हो गया है ।”
“रहते तो विशालगढ में ही हो न ?”
“जी हां ।”
“इधर कैसे आये ?”
“राजनगर आ रहा था । गला तर करने के लिए रुक गया ।”
“यह शौक कब से पाल लिया तुमने ?”
“ठाकुर साहब, वक्त की रफ्तार के साथ-साथ बहुत कुछ बदल जाता है । फिर सुनील ही क्यों न बदले ।”
ठाकुर ने एक खोखला ठहाका लगाया और बोला - “तुम्हें मालूम था यहां मिलता है ?”
“नहीं । लेकिन माल मैं साथ लाया हूं ।”
और सुनील ने ‘जानीवाकर’ निकालकर मेज पर रख दी । जानीवाकर पर दृष्टि पड़ते ही ठाकुर की आंखों में एक विचित्र प्रकाश की चमक उभरी जो फौरन ही कहीं विलीन हो गई । ठाकुर ने अपने सिर को झटका दिया और गिलास से मेज को ठकठकाने लगा ।
पलक झपकते ही एक वेटर उसके सामने आ खड़ा हुआ ।
“मेरे लिए तो फील्ड मार्शल ले आओ” - ठाकुर बोला - “और साहब को गिलास, सोडा वगैरह लाकर दो ।”
“फील्ड मार्शल क्या ?” - सुनील ने हैरानी से पूछा ।
“यह ।” - ठाकुर देशी शराब की खाली बोतल की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
“नहीं, ठाकुर साहब” - सुनील ने एकदम विरोध किया - “जब तक फील्ड मार्शल का बाप खतम नहीं हो जाता, आपका फील्ड मार्शल इस मेज पर नहीं आ सकता ।”
“लेकिन बेटे...”
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं । जो मैं लाया हूं, अगर आप उसी को नहीं चलने देंगे तो मैं आपकी मेज छोड़ दूंगा ।”
और सुनील उठने के लिए तत्पर हो उठा ।
“अरे बैठो-बैठो ।” - ठाकुर बोला और फिर वेटर की ओर आकर्षित हुआ - “फील्ड मार्शल रहने दो, भाई । गिलास वगैरह और कुछ तले हुए आलू ले आओ ।”
वेटर चला गया ।
सुनील ने अपनी जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला, और उसने एक सिगरेट एक तिहाई पैकेट से बाहर सरकाकर पैकेट ठाकुर की ओर बढा दिया ।
“बरखुरदार, तुम्हें तो मालूम होना चाहिए कि मैं केवल हुक्का पीता हूं, सिगरेट नहीं पीता ।”
सुनील ने होंठ काट लिये । गलती हो गई थी । लेकिन फौरन ही उसे उत्तर सूझ गया । उसने सिगरेट निकालकर पैकेट मेज पर रख दिया और सिगरेट अपने होठों में लगाता हुआ बोला - “मैंने सोचा शायद वक्त के साथ-साथ आप भी कुछ बदले हों । जैसे मैं विस्की नहीं पीता था लेकिन पीने लगा हूं, वैसे ही शायद आप भी सिगरेट पीने लगे हों । लेकिन मालूम होता है ठाकुर रुद्रसिंह हमेशा ठाकुर रुद्रसिंह ही रहेंगे । आपकी जिन्दगी का अन्दाज किसी भी सिलसिले में नहीं बदलेगा ।”
सुनील ने सिगरेट सुलगा लिया ।
वेटर गिलास वगैरह मेज पर रख गया ।
सुनील ने बोतल खोल ली । उसने अपने गिलास के मुकाबले में ठाकुर के गिलास में तिगुनी शराब डाली । फिर उसने जल्दी से अपना गिलास सोडे से भर लिया ताकि ठाकुर उसके गिलास में पड़ी शराब की मात्रा देख न सके । उसने ठाकुर की ओर सोडा बढाया ।
“नहीं ।” - ठाकुर एकदम बोला । देशी शराब का नशा अब थोड़ा-थोड़ा प्रभाव दिखाने लगा था । आंखों के साथ-साथ अब उसका चेहरा भी सुर्ख हो उठा था ।
सुनील ने सोडा रख दिया और अपना गिलास उठाकर ऊंचा करता हुआ बोला - “गुजरे जमाने की याद में ।”
ठाकुर ने भी गिलास उठाया । दोनों ने गिलास टकराये । सुनील ने एक घूंट पीकर गिलास नीचे रख देया । ठाकुर एक ही सांस में नीट विस्की हलक से नीचे उतार गया । उसने भारी हाथ से गिलास मेज पर पटका और नेत्र बन्द कर लिये ।
सुनील ठगा-सा ठाकुर का चेहरा देख रहा था । ऐसे बेतहाशा शराब पीने वाला आदमी उसने पहले कभी नहीं देखा था ।
“और सुनाइये ठाकुर साहब, राजनगर में कैसी कट रही है ?” - सुनील बातचीत का सिलसिला शुरू करने का प्रयत्न करता हुआ बोला ।
“मौत का इन्तजार कर रहे हैं, बरखुरदार ।” - ठाकुर नेत्र खोलकर बोला ।
“अशुभ बात मत कीजिये, ठाकुर साहब ।”
“कोई फर्क नहीं पड़ता है” - ठाकुर आर्द्र स्वर में बोला - “पिछली बार जब कलेजे में दर्द उठा था तो डाक्टर ने बताया था कि मेरे दोनों फेफड़े छलनी हो चुके हैं और अगर मैंने विस्की पीना बन्द नहीं किया तो मैं किसी भी दिन भगवान के घर पहुंच जाऊंगा । लेकिन यह मुंह की लगी कहीं छूटती है ।”
सुनील ने ठाकुर के गिलास में शराब की पर्याप्त मात्रा फिर डाल दी ।
“तुम तो लो, बेटा ।” - ठाकुर बोला ।
“मैं तो ठाकुर साहब, दो या तीन पैग ही पी पाता हूं । अभी थोड़ी देर में लूंगा ।”
“ऐसे तो अच्छा नहीं लगता, बरखुरदार ।”
“ऐसा मत सोचिये ठाकुर साहब । आप नहीं जानते हैं कि आज आपसे मिलकर मुझे कितनी खुशी हो रही है ।”
“मुझे भी अपने बीते जीवन के एक साथी से मिलकर कम खुशी नहीं हो रही है ।” - ठाकुर बोला ।
“मेरा सौभाग्य है यह ।”
“मेरा भी ।”
ठाकुर ने भी दो बड़े-बड़े घूंट भरे और बड़े टूटे स्वर में बोला - “कभी-कभी जानते हो मैं क्या सोचता हूं ?”
“क्या ?” - सुनील ने पूछा ।
“मैं सोचता हूं इसी तरह कल, परसों या किसी और रोज मैं दो-तीन फील्ड मार्शल हलक में झोंककर यहां से बाहर निकलूंगा, फिर मेरे फेफड़े, मेरा हौसला, मेरा संयम मुझे जवाब दे जायेगा और मैं लड़खड़ाकर शायद किसी गन्दी मोरी में जा गिरूंगा,फिर एक कुत्ता मेरा मुंह चाट रहा होगा । मुझे एक बार, आखिरी बार, होश आयेगा । मेरी जुबान पर गुलाब का नाम आयेगा और मैं दम तोड़ दूंगा । धरती की छाती पर से एक बेहद जलील, एक बेहद गिरे हुए आदमी का बोझ हल्का हो जायेगा ।”
ठाकुर ने गिलास की बाकी शराब भी हलक में उड़ेल ली ।
वह बेहद भावुक हो उठा था ।
सुनील ने उसके गिलास में फिर शराब डाल दी ।
इस बार ठाकुर ने विरोध नहीं किया ।
“गुलाब कौन है, ठाकुर साहब ?” - सुनील ने ठाकुर को कुरेदा ।
“गुलाब !” - ठाकुर झूमकर बोला - “गुलाब को तुम नहीं जानते ? कैसे आदमी हो तुम ? लेकिन तुम आदमी कहां हो ! तुम तुम तो केबल कम्पनी वालों के दामाद हो ।”
ठाकुर कुछ नशे के कारण और कुछ भावुकता के कारण बहक रहा था ।
“मैं तो आदमी नहीं हूं लेकिन गुलाब तो औरत थी न ?”
“औरत !” - ठाकुर जोर से बोला - “सिर्फ औरत ! औरत तो सभी होती हैं । बरखुरदार, गुलाब समूची औरत थी । गुलाब वह थी जो दुनिया की कोई औरत नहीं हो सकती । गुलाब रण्डी थी, गुलाब बाजार में बैठती थी लेकिन वह रण्डी और बाजारू औरत तभी तक रही जब तक उस पर ठाकुर रुद्रसिंह की नजर नहीं पड़ी । उसके बाद ठाकुर रुद्रसिंह ने गुलाब पर किसी दूसरे मर्द का साया नहीं पड़ने दिया । मैंने अपनी जमींदारी लुटा दी, अपनी पत्नी को छोड़ दिया, अपनी औलाद से मुंह फेर लिया, मैं बरबाद हो गया लेकिन मैंने - ठाकुर रुद्रसिंह ने - गुलाब को नहीं छोड़ा ।”
“लेकिन शायद गुलाब ने ठाकुर रुद्रसिंह को छोड़ दिया ।” - सुनील धीरे से बोला ।
शब्द बम के गोले की तरह रुद्रसिंह की चेतना से टकराये । उसकी मुट्ठियां भिंच गयीं उसके गले की नसें उभर आयीं, उसकी आंखें बाहर की ओर उबल पड़ीं, उसने एक कहर भरी दृष्टि सुनील पर डाली ।
सुनील के शरीर में झुरझुरी दौड़ गयी ।
अगले ही क्षण उसे ठाकुर के चेहरे पर गहन पीड़ा और बेवसी के भाव दिखायी दिये । उसने धीरे से अपना हाथ गिलास की ओर बढाया और गटागट खराब पी गया । उसने कांपते हाथों से गिलास मेज पर रख दिया ।
“तुम सच कह रहे हो ।” - वह धीमे स्वर में बोला - मैंने गुलाब को नहीं छोड़ा - गुलाब ने मुझे छोड़ दिया ।”
सुनील शन्ति से उसके दुबारा बोलने की प्रतीक्षा करता उसके सामने बैठा रहा ।
वो इन्सान जीवन संग्राम में इस बुरी तरह पराजित हो चुका था कि अपनी हार का जिक्र सुनकर अब वह क्रोध भी प्रकट करता था तो उसमें से बेबसी ही झलकती थी ।
“लेकिन क्यों ?” - वह एकाएक चिल्ला पड़ा - “क्यों छोड़ दिया गुलाब ने मुझे ? क्यों पूछो क्यों ?”
“मुझे मालूम है ।” - सुनील निर्विकार स्वर में बोला ।
“क्या मालूम है तुम्हें ? कहो, क्या मालूम है तुम्हें ?”
“आपका रुपया-पैसा उड़ने की देर थी कि गुलाब की आप में दिलचस्पी उड़ गयी । आपका उस पर अधिकार समाप्त हो गया और उसकी महफिल फिर नये-नये ग्राहकों से आबाद होने लगी ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?” - ठाकुर हैरानी से बोला ।
“क्योंकि यह ऐसी कहानी है जो लाखों-करोड़ों बार दोहरायी जा चुकी है । अन्तर केवल चरित्रों के नाम का होता है । बाकी कहानियों में गुलाब नहीं थी, रुद्रसिंह नहीं थे तो इन्हीं से मिलते-जुलते कोई और चरित्र थे ।”
“तुम ठीक कह रहे हो लेकिन एक फर्क है ।”
“क्या ?”
“ठाकुर रुद्रसिंह गुलाब की एक-एक पंखुड़ी उधेड़ सकता था । वह उसकी बोटी-बोटी उड़ा सकता था ।
“लेकिन आपने ऐसा किया नहीं ?”
ठाकुर चुप रहा ।
“क्यों ?” - सुनील ने इस बार बोतल की बची सारी शराब उसके गिलास में डाल दी और बोतल लान में लुढका दी ।
“क्योंकि मैं गुलाब से मुहब्बत करता था । सुनील, उस जमाने में मैं बहुत जालिम आदमी था । मेरी जमींदारी में लोग मुझसे कांपते थे । मैंने अपनी जमींदारी की बहुत लड़कियां खराब की थीं, मैंने सैकड़ों बाजारू औरतों से वास्ता रखा था । जिसने भी मेरा विरोध किया था उसे मैंने कोड़ों से पिटवाया था, उसे जान से मरवा डाला था लेकिन गुलाब की सूरत देखते ही मेरी हालत सरकस के पालतू शेर जैसी हो जाती थी । वह जो कहती थी मैं मान जाता था । फिर गुलाब ने मुझे धोखा दिया । मेरे बाद उसने कई मर्दों से सम्बन्ध रखा लेकिन मैं चाहकर भी उसका अहित न कर सका ।”
ठाकुर शराब की चुस्कियां लेने लगा ।
“फिर एकाएक एक दिन गुलाब कहीं गायब हो गयी ।” - ठाकुर बोला ।
“कहां ?”
“भगवान जाने कहां ! लेकिन मैंने उसे कहां-कहां नहीं खोजा ।”
“केवल इसलिये क्योंकि आप उससे मुहब्बत करते थे ?”
“एक कारण और भी था ।”
“क्या ?”
“मेरे द्वारा गुलाब ने एक फूल-सी बच्ची को जन्म दिया था । वह अपनी मां की हू-ब-हू तस्वीर थी । मैं अपनी उस बिटिया से बहुत प्यार करता थआ । जिस समय गुलाब गायब हुई उस समय वह बच्ची आठ साल की थी । गुलाब खानदानी वेश्या थी । उसकी दादी वेश्या थी, उसकी मां वेश्या थी । एक वेश्या की सम्पत्ति तो उसकी लड़की ही होती है । मुझे भय था कि कहीं गुलाब उसे भी इसी राह पर न लगा दे । मैं गुलाब को ढूंढता रहा लेकिन मुझे गुलाब मिली और न अपनी बच्ची ।”
ठाकुर ने एक बड़ा-सा घूंट और पिया ।
“मैं उजड़ गया । मेरे अपने परिवार से मेरा सम्बन्ध छूट गया । मेरे लड़के इंग्लैड में पढते हैं जो शायद मेरी सूरत भी नहीं पहचानते । मेरी पत्नी मुझसे मिलने आती है तो मैं उसे डांटकर भगा देता हूं । एक जमाना हुआ मैंने विशालगढ छोड़ दिया है । मैं राजनगर में रहता हूं । टैम्पल रोड पर मेरा फ्लैट है, जिसे सबलैट करने से मुझे पांच सौ रुपये मिल जाते हैं और उससे मेरी जिन्दगी कट रही है ।”
ठाकुर चुप हो गया ।
“फिर गुलाब या आपकी बच्ची आपको नहीं मिली ?”
“लगभग छः महीने पहले मुझे गुलाब मिली ।” - ठाकुर धीरे से बोला ।
“अच्छा ? कहां ? कैसे ?”
“एक दिन वह टैम्पल रोड वाले मेरे फ्लैट में आई । उसने मुझे सोते से जगाया । वह अपनी प्रौढावस्था में ही सत्तर साल की बुढिया लग रही थी । उसने बताया कि उसकी सारी जमा पूंजी लुट गई थी । विशालगढ छोड़कर वह विश्वनगर रहने लगी थी । वहां एक बार उसके घर में डाका पड़ा था और डाकू उसे एकदम नंगी करके छोड़ गये थे । तब तक भानु भी जवान हो चुकी थी ।”
“भानु कौन ?”
“वही बच्ची जो गुलाब को मुझसे उत्पन्न हुई थी ।”
“फिर ?”
“गुलाब ने भानु को भी अपनी राह पर चलाने का प्रयत्न किया । लेकिन वह तैयार नहीं हुई । लेकिन गुलाब ने भी जिद नहीं छोड़ी । उसने एक दिन विश्वनगर के ही एक आदमी से दस हजार रुपया लेकर उसे उस आदमी के हवाले कर दिया । उस आदमी ने रात-भर जबरदस्ती भानु से अपने दस हजार रुपए वसूल किए । अगले दिन भानु घर से भाग गई । फिर गुलाब भी भानु को यूं ढूंढती फिरी जैसे कभी मैं गुलाब को ढूंढता था ।”
“उसे भानु मिली ?”
“उसे भानु यहीं राजनगर में दिखाई दी । गुलाब ने चुपचाप उसके बारे में सब जानकारी हासिल कर ली । इस समय भानु राजनगर के एक बहुत बड़े उद्योगपति की पत्नी है । वह सुखी है, सम्पन्न है । लेकिन गुलाब अभाव में मरी जा रही है । एक दिन गुलाब भानु से मिलने उसकी कोठी पर गई लेकिन भानु ने न केवल उसे शरण देने से इंकार कर दिया बल्कि यह भी कहा कि अगर उसे अपनी बेटी से जरा भी मुहब्बत थी तो वह उसके घर में तो क्या, राजनगर में भी दुबारा कदम न रखे । वहां से दुत्कारी हुई गुलाब मेरे पास आई ।”
“वह आपसे क्या चाहती थी ?”
“वह चाहती थी कि मैं उस कुछ नकद रुपया दूं । लेकिन मैं तो खुद कंगाल हूं, उसे क्या देता ? जब मैंने उसे रुपया नहीं दिया तो वह अपने खानदानी कमीनेपन पर उतर आई । मैंने उससे भानु का पता पूछा तो वह बोली कि वह मुझे भानु का पता तब तक नहीं बतायेगी जब तक मैं उसे पांच हजार रुपये नहीं दूंगा । लेकिन मेरे पास पांच हजार रुपये होते तो देता । गुलाब मुझ पर यह शर्त लगाकर चली गई । मैं यह सोच-सोच कर बहुत तड़पा कि यह जानते हुए भी कि मेरी बेटी राजनगर में ही है, मैं उसकी सूरत नहीं देख सकता । क्योंकि मैउसे जानता नहीं । मैं उसे पहचानता नहीं ।”
“गुलाब दुबारा नहीं आई ?”
“जाती बार कह गई थी कि मैं एक हफ्ते बाद आऊंगी । उस एक हफ्ते में मैंने अपने जानकारी के दायरे में झोली फैला-फैलाकर, भीख मांग-मांगकर पांच हजार रुपये इकट्ठे किये लेकिन गुलाब नहीं आई । भगवान जाने वह कहां मर-खप गई । मैंने स्वयं भानु को बहुत तलाश करने की कोशिश की लेकिन वह मुझे मिली नहीं । लेकिन मैंने कोशिश करनी नहीं छोड़ी है ।”
“लेकिन जब आप उसे जानते नहीं, उसे पहचानते नहीं तो आप उसे ढूंढ कैसे सकते हैं ?”
“एक पहचान है मेरे पास ।” - ठाकुर विश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्या ?”
“यह तस्वीर ।” - ठाकुर बोला और उसने अपने कोट की भीतरी जेब में से एक तस्वीर निकाली और सुनील की ओर बढा दी ।
धुंधले प्रकाश में भी सुनील को पुरानी पड़ गई उस तस्वीर में अंकित अनिंद्य सुन्दर स्त्री को पहचानने में दिक्कत नहीं हुई ।
वह रत्न प्रकाश की पत्नी संतोष की तस्वीर थी ।
“यह... यह... संतोष की... मेरा मतलब है, भानु की तस्वीर है ?” - सुनील ने जल्दी से पूछा ।
“नहीं, बेटे । यह गुलाब की तस्वीर है । मैंने तुम्हें पहले भी बताया था कि मां-बेटी दोनों की सूरत हू-ब-हू मिलती है । मुझे भरोसा है कि इसी तस्वीर के जरिये एक न एक दिन मैं अपनी बेटी को जरूर खोज निकालूंगा । जरूर खोज निकालूंगा । जरूर खोज...”
ठाकुर की आंखें मुंद गयीं और उसका सिर धीरे-धीरे नीचे झुकता हुआ मेज पर टिक गया ।
गिलास में बची हुई विस्की उपेक्षित-सी उसके सामने पड़ी रही ।
सुनील उठ खड़ा हुआ । उसने तस्वीर सावधानी से ठाकुर की जेब में सरका दी ।
उसने वेटर को आवाज दी ।
“बिल ।” - सुनील बोला ।
“इनका भी ?” - वेटर ने ठाकुर की ओर संकेत करके पूछा ।
“हां ।” - सुनील बोला ।
“तेईस रुपये साठ पैसे ।”
सुनील ने अपना पर्स निकाला और उसमें से एक पचास का नोट निकालकर वेटर के हवाले किया ।
“तुम्हें इनका घर मालूम है न ?” - सुनील ने पूछा ।
“जी हां, मालूम है ।”
“जब ये होश में आयें तो इन्हें टैक्सी पर बैठाकर घर छोड़ आना । बाकी पैसे तुम ले लेना ।”
“अच्छा, साहब ।” - वेटर प्रसन्न स्वर में बोला - “सलाम, साहब ।”
सुनील लान में से होता हुआ बाहर सड़क पर आ गया ।
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