“दस दिनों से हम जिस वक्त का इंतज़ार कर रहे थे, वो वक्त आ गया है।”कहने के साथ ही देवराज चौहान ने जगमोहन, सोहनलाल और भटनागर पर निगाह मारी- “जो हमें खबर मिली थी वो ठीक निकली। केटली एण्ड केटली ज्वैलर्स लिमिटेड के शोरूम में, फ़्रांस में, नीलामी के खरीदे गए डायमंड्स (हीरे) दो घंटे पहले ही पहुंचे हैं। जिनकी कीमत साढ़े चार अरब रुपये है।”
कहने के पश्चात देवराज चौहान रुका और सिगरेट सुलगाई।
जगमोहन ने बेचैनी से पहलू बदला।
-और भटनागर- पैंतालीस वर्षीय भटनागर, उन खतरनाक, तेज-तर्रार लोगों में से था, जो सारा जीवन अपराध करते रहे, परन्तु पुलिस के हाथों से बचे ही रहे। भटनागर ने हर तरह के अपराध किए थे। जिनमें कई डकैतियां भी थीं। अपने हर काम में वो मास्टर माना जाता था। अचूक निशानेबाज था। दिलेर था। मुसीबत के वक्त भी होश कायम रखता था। कुछ महीने पहले इत्तफाक से देवराज चौहान की भटनागर से मुलाकात हो गई थी और भटनागर ने देवराज चौहान के साथ काम करने की तीव्र इच्छा जाहिर की थी। भटनागर के बार-बार कहने पर देवराज चौहान ने उससे वायदा किया था कि किसी काम में, वो फिट बैठा तो उसे बुलाएगा।
-और अब देवराज चौहान ने जरूरत के मुताबिक भटनागर को बुला लिया था।
सोहनलाल सोच भरे ढंग से, गोली वाली सिगरेट के कश ले रहा था। देवराज चौहान ने पुनः कहना शुरू किया।
“इस खबर के मिलने के पश्चात हमने पिछले आठ दिनों से केटली एण्ड केटली लिमिटेड ज्वैलर्स के शोरूम की बिल्डिंग को बारीकी से चेक किया और शोरूम के भीतर के इंसानों की जानकारी हासिल करके इस नतीजे पर पहुंचे कि कैसे साढ़े चार अरब के हीरों को पाया जा सकता है।”
“अपनी पूरी योजना तो तुमने अभी हमें बताई नहीं।” जगमोहन कह उठा।
“अब बताऊंगा।मुझे हीरों के आने का इंतजार था। मन में ये बात भी थी कि कहीं खबर झूठी या गलत ना हो, और हमारी पहले से ही कर रखी तैयारी बेकार न जाये। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, सब ठीक रहा।” देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा- “शोरूम के साढ़े चार अरब के उन हीरों को वहीं रखा गया है, जहां के बारे में हमारे पास पहले से ही खबर थी या फिर उनके रखने की जगह बदली गई है, ये बात पक्के तौर पर जानकर ही अपनी योजना बताऊंगा कि कैसे हमने शोरूम में डकैती करके साढ़े चार अरब के हीरों को हासिल करना है।”
“ये बात किस से मालूम करोगे?” भटनागर ने पूछा।
“उसी से।” देवराज चौहान ने भटनागर को देखा- “जिससे शोरूम के बारे में और सुरक्षा के इन्तजामों के बारे में जानकारी पाई थी। वो जानकारी देने की पूरी कीमत वसूल रहा है।”
भटनागर सिर हिलाकर रह गया।
“तुम्हारा क्या ख्याल है, हम साढ़े चार अरब रुपये के वो हीरे हासिल कर लेंगे?” जगमोहन ने पूछा। उसके चेहरे पर उभरी व्याकुलता स्पष्ट नजर आ रही थी।
देवराज चौहान के गम्भीर चेहरे पर मुस्कान उभरी।
“हर काम इसी आशा के साथ किया जाता है कि वो पूरा होगा। काम का नतीजा तो बाद में सामने आता है कि सफलता हाथ लगी या असफलता।” देवराज चौहान ने कहा।
जगमोहन ने कुछ नहीं कहा।
भटनागर के चेहरे पर मुस्कान उभरी और गायब हो गयी।
“साढ़े चार अरब के हीरों का केटली एण्ड केटली ज्वैलर्स ने बीमा करा रखा है?” सोहन लाल ने पूछा।
“हां। नीलामी में उन हीरों को खरीदने के पश्चात केटली फर्म ने फौरन उन हीरों का बीमा कराया था। ये खबर तो पहले ही हमारे पास आ चुकी है। ऐसे में केटली एण्ड केटली को हीरों के हाथ से निकल जाने से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। केटली एण्ड केटली ज्वैलर्स के नुकसान की भरपाई बीमा कंपनी करेगी।”
सोहनलाल होंठ सिकोड़ कर रह गया।
इस समय चारों भटनागर के फ्लैट पर मौजूद थे।
देवराज चौहान ने कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह मारी फिर उठता हुआ बोला।
“शोरूम में साढ़े चार अरब के हीरों को कहां रखा गया है, इस बात की पक्की खबर लेकर कुछ घण्टे में लौटता हूं। उसके बाद साढ़े चार अरब के हीरे पाने की सारी योजना बताऊंगा।”
“मैं साथ चलूं?” कहते हुए भटनागर ने उठने की कोशिश की।
“नहीं।”
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केटल एण्ड केटली ज्वैलर्स लिमिटेड के शोरूम से शाम को आठ बजे, पचास वर्षीय व्यक्ति निकला और पैदल ही आगे बढ़ गया। सादी सी कमीज-पैंट उसके बदन पर मौजूद थी। शेब कर रखी थी। वो चमनलाल गुप्ता था। केटली एण्ड केटली ज्वैलर्स में पिछले बीस बरस से एकाउंट्स लिखने का काम कर रहा था। तनख्वाह बुरी नहीं थी, परंतु परिवार बड़ा होने के कारण उन पैसों से खींच-खांच कर महीना ही निकल पाता था। यही वजह थी जमा पूंजी के नाम पर पास में कुछ नहीं था और तीन लड़कियां एक के बाद एक जवान हुई, घर में मौजूद थीं। एक अट्ठाईस बरस की। दूसरी छब्बीस और तीसरी चौबीस की। बाकी के तीन बच्चे अभी छोटे थे और पढ़ रहे थे।
चमनलाल गुप्ता केटली एण्ड केटली से आधा किलोमीटर दूर, बस स्टॉप पर पहुंचने ही वाला था कि फुटपाथ के पास, उसके करीब एक कार आकर रुकी।
वो ठिठका। पल भर के लिये कार में निगाह मारी।
ड्राईविंग सीट पर देवराज चौहान मौजूद था।
उसे देखते ही चमनलाल गुप्ता सकपका उठा।
देवराज चौहान ने हाथ बढ़ाकर कार का दरवादा खोला तो हड़बड़ाया-सा चमनलाल गुप्ता, जल्दी से भीतर बैठा। दरवाजा बन्द कर लिया। देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी।
“भगवान के लिए अब बस भी करो।” चमनलाल गुप्ता सूखे स्वर में कहा उठा- “तुमने जो-जो भी जानना चाहा, मैंने बता दिया। मेरे से मिलने...।”
“जो तुमने बताया है, उसके बदले में तुम्हें पन्द्रह लाख रुपए दिए हैं।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
“हां।” उसने गहरी सांस ली- “मैंने कब मना किया है। लेकिन समझा करो। तुम जो भी हो, ठीक नहीं हो। मैं जानता हूं, उन साढ़े चार अरब के हीरों को पाने के लिए तुम कोई गड़बड़ करोगे। इसलिए मैं नहीं चाहता कि कोई तुम्हें मेरे साथ देखे- और इस बात का वायदा तुम कर ही चुके हो कि किसी भी हालत में अपने इस मामले में मेरा नाम नहीं आने दोगे।”
“फिक्र मत करो। इस बारे में पूरी तरह निश्चिंत हो जाओ।”
“अब तुम्हें मेरी क्या जरूरत पड़ गई जो.....।”
“छोटी सी बात पूछनी थी।” देवराज चौहान कार ड्राइव करता हुआ बोला।
“पूछो। जल्दी पूछो।”
“साढ़े चार अरब के वे हीरे शोरूम में कहां रखे गए हैं?”
चमनलाल गुप्ता के चेहरे पर झल्लाहट के भाव उभरे।
“इतनी जल्दी भूल गये। बताया तो था कि.....।”
“तुमने तब बताया था जब हीरे फ्रांस में थे। आने के बाद उनके रखने की जगह किसी वजह से बदली जा सकती है।”
“जगह नहीं बदली गई। उन्हें वहीं रखा गया है, जहां के बारे में तुम्हें पहले बता चुका हूं।”
“कोई और नई खबर इस मामले में?” देवराज चौहान ने पूछा।
“नहीं। मुझे यहीं उतार दो।”
“केटली एण्ड केटली का उन हीरों के बारे में क्या प्रोग्राम है?”
“कैसा प्रोग्राम?”
“कब तक उन हीरों को शोरूम में रखा जायेगा? केटली के मालिक उनका क्या करंगे?”
“इस बारे में कोई पक्की खबर नहीं है मेरे पास।” चमनलाल गुप्ता ने बेचैनी से कहा- “हर बड़े शहर में केटली एण्ड केटली का शोरूम है। मेरे ख्याल में बिक्री के लिए उन हीरों को जरूरत के मुताबिक़ बांटकर दूसरे बड़े शहरों के शोरूम में भेजा जायेगा। इतनी बड़ी कीमत के हीरे एक जगह रखना ठीक नहीं। ये बात तो केटली एण्ड केटली वाले भी जानते हैं।”
देवराज चौहान ने कुछ न कहा।
“अब उतार भी दो मुझे।”
देवराज चौहान ने सड़क के किनारे कार रोक दी।
चमनलाल गुप्ता कार का दरवाजा खोलकर नीचे उतरता हुआ बोला।
“भगवान के लिए अब मुझे पहचानना बंद कर दो। कल को तुमने कुछ किया और मेरा-तुम्हारा मेल-जोल खुल गया तो फिर मेरा भगवान ही मालिक है।” कहने के साथ ही उसने बाहर से दरवाजा बंद किया।
देवराज चौहान ने बिना कुछ कहे कार आगे बढ़ा दी।
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बुरी नजर वाले, तू मेरे साला।
मैटाडोर टैम्पो के पीछे मोटे-मोटे अक्षरों में ये लिखा हुआ था और टैम्पो मध्यम-सी रफ़्तार से सड़क पर आगे बढ़ रहा था।
टैम्पो का मालिक था तीस वर्षीय अमृतपाल।
और क्लीनर के तौर पर बीस-बाईस वर्षीय बुझे सिंह हमेशा टैम्पो के साथ चिपका रहता था।
इस वक्त टैम्पो खाली था। अमृतपाल उसे चला रहा थाऔर साथ में बैठा था टैम्पो का क्लीनर बुझे सिंह। जिसने पायजामा और ऊपर कमीज डाल रखी थी।
“उस्ताद जी!” एकाएक बुझे सिंह कह उठा।
“बोल...बोल..।”
“उस्ताद जी! मैं भी टैम्पो खरीदां गां।” बुझे सिंह ने कहा।
“ओ तू हर वक्त बुझिया गल्लां ही क्यों करता है।” अमृतपाल ने मुंह बनाया।
“क्यों? की गलत कहा मैंने?”
“तेरा प्यो(पिता) है?”
“नहीं! वो तो मर गया।”
“अपने पीछे जमीन-जायदाद छोड़ के गया?”
“छोड़ काँ गया? उसकी आख़िरी रस्में पूरी करने के लिए पैसा उधार लेना पड़ा।” बुझे सिंह ने गहरी सांस ली।
“फिर तू टैम्पो डालेगा के, पेट वास्ते दो रोटी दां जुगाड़ करेगा।”
“ये ई ते मुसीबत वे। पेट न होता तो मैं पैसे बचा-बचा के टैम्पो खरीद लेता।” बुझे सिंह ने मुंह लटकाकर कहा- “उस्ताद जी तुसी (आपने) कैसे टैम्पो खरीदा?”
“कोई दिक्कत नेई आई।” अमृतपाल बोला- “मेरा प्यो (पिता) मरा। फूंक-फांक के घर आया। रोकड़ा तो कुछ नहीं छोड़ा बाप ने। लेकिन टैम्पो खरीदने का सामान छोड़ गया वो।”
“सोना छोड़ गया होगा वो।” बुझे सिंह ने जल्दी से कहा।
“नहीं। सोना कहाँ था घर में?”
“चांदी होगी उस्ताद जी।”
““नई वे। वो जमीन थी, जिस पर वो हल चलाया करता था। मैं ठहरा ड्राईवर। मेरा हल से क्या वास्ता। ट्रक-रेलगाड़ी होती तो सोचता भी। मैंने फ़ौरन जमीन बेची और टैम्पो खड़ा कर लिया।”
“वाह उस्ताद जी! वाह! तबाड़ी (आपकी) किस्मत तो बहुत बढ़िया वे।”
“बस जो है, तेरे सामने ही है। महीने-दो महीने में, जब भी वक्त मिलता है, गाँव के मकान का फेरा लगा आता हूँ। एक-दो रातें वहां बिता लेता हूँ।” अमृतलाल ने लापर-वाही से कहा।
“उस्ताद जी तबाड़ा (आपका) गाँव का मकान मुझे बोत अच्छा लगता है। कितना खुल्ला (बड़ा) है। दो बार मैं वां गया। बोत अच्छा लगा। खेता नूं वेख (देखकर) के मन खुश हो जाता है।”
अमृतपाल ने मोड़ काटा।
“उस्ताद जी, एक बात बोलूं।” बुझे सिंह एकाएक दाँत दिखाकर मुस्कुराया- “शादी कर लो।”
“शादी।”
“हाँ उस्ताद जी। मेरी मानों तो कर लो। उम्र वी तो हो गयी वे।”
“ओ शादी वास्ते लड़की ढूँढनी पड़ेगी। यां वक्त का है कि...।” अमृतपाल ने कहना चाहा।
“ओ कुड़ी दी फिक्र न करो। उसका इंतजाम मैं गारण्टी से कर दूंगा।
“वो कैसे?”
“मेरी बहन है। मेरे को भी उसकी शादी करनी वे। और आपको व्याह वास्ते कुड़ी चाहीदी वे। दोनों काम नाल-नाल हो जायेंगे। तुसी वी सुखी। मैं भी खुश। आप दोनों गाँव वाले मकान में रहना। तब तक मैं टैम्पो चलाना सीख लूँगा। मैं कमाऊंगा और तुसी दोनों बैठ के खाना।”
अमृतपाल ने बुझे सिंह को घूरा फिर सामने देखने लगा।
“कोई और बेवकूफ नहीं मिला जो मुझे बेवकूफ समझता है?” अमृतलाल तीखे स्वर में बोला।
“कां गलती हो गयी उस्ताद जी?”
“अपनी बहन को तू शादी के नाम पर मेरी खूंटे से बांध रहा है। ऊपर से अपना खूंटा भी उखाड़कर मेरे घर लगाना चाहता है कि तू मेरे को कमा कर खिलायेगा। मतलब कि तेरा और तेरी बहन दी, सारी उम्र की रोटी-पानी का ठेका मैं ले लूं। उस्ताद मेरे को बोलता है और बनता मेरा उस्ताद है।”
“आपने गलत समझा वें, तुसी (आप) मेरी बहन से व्याह करो। मैं ये शहर छोड़कर, दूसरे शहर में नौकरी कर लूंगा। मैं तो आपको सुख देने की सोच....।”
“फालतू बात मत कर।” अमृतपाल ने सख्त लहजे में कहा।
“नेई करना। मैं तो अपनी बहन की शादी आपसे करने की सोच....।”
“मुझे नहीं करनी। समझा क्या?”
“ठीक वे उस्ताद जी। आपके जवाब से बुझे सिंह का मन बुझ गया।” उसका मुंह लटक गया।
“बीड़ी दे।”
“सिगरेट दूं।” बुझे सिंह जल्दी से बोला- “तीन दिन पहले पैकिट खरिदा....।”
“बीड़ी बोला है तेरे को।”
“आपकी मर्जी उस्ताद जी।” कहकर बुझे सिंह ने बीड़ी सुलगाई और अमृतपाल को थमा दी।
अमृतपाल ने बीड़ी का कश लिया।
“उस्ताद जी!” बुझे सिंह ने जल्दी से कहा- “व्याह बेशक न करना। लेकिन सुनने में क्या जाता है। मेरी बहन को खाना बनाना, सफाई करना, कपड़े धोना और....।”
“चुप!”
“हो गया।” बुझे सिंह ने होंठ बन्द कर लिए।
“अगर तू इसी तरह मुझे तंग करता रहा तो मैं दूसरा क्लीनर रख लूंगा।”
“ऐसा न करना उस्ताद जी। मैं और मेरी बहन भूखे मर जाएंगे। छोड़ो व्याह जैसी बेकार की बातें।” बुझे सिंह जल्दी से बात को सम्भालता हुआ कह उठा- “मुझे माधुरी दीक्षित बोत अच्छी लगती है।”
“तू टैम्पो कभी नहीं खरिद सकता।”
“क्यों उस्ताद जी?”
“क्योंकि तेरे को पुराने मॉडल अच्छे लगते हैं। माधुरी दीक्षित में और बीस साल पुराने टैम्पो के मॉडल में कोई फर्क नहीं है।”
“कोई फर्क नहीं उस्ताद जी। मानता हूं।”
“और सुन। मॉडल कौन-सा है, वो बाद में देखते हैं। पहले इंजन देखते हैं कि कितना दम है। सीधा मॉडल देखकर टैम्पो का सौदा नहीं कर लेते। “
“समझ गया उस्ताद जी।”
“क्या समझ गया?”
“मुंह बन्द ही रहे तो अच्छा है, परन्तु मैं सब समझ गया। आपका ही तो चेला हूं।”
अमृतपाल ने सड़क के किनारे टैम्पो रोका। इंजन बन्द किया। यह होल-सेल का भीड़-भाड़ वाला बाजार था। टैम्पो-ठेले, लोग, हर तरफ भीड़ थी। तेज शोर कानों में पड़ रहा था।
“यां क्या उस्ताद जी?”
“सड़क पार करके, वो सामने लाले के पास जा। बोल, अमृता टैम्पो लाया है। सामान ले जाना है कहीं?”
“वो लाला।” बुझे सिंह ने मुंह बनाया- “जो हर बार दस-बीस रुपये कम ही देता है और कभी चाय नहीं पिलाता।”
अमुतलाल ने तीखी नजरों से उसे घूरा।
“तेरे को तनख्वाह लेनी है कि नहीं?”
“क्यों नेई लेनी?बोत जरूरत है।”
“तो जा लाले से पूछ। अगर उसके पास भेजने को माल न हो तो आगे जाकर बाकी के अपने जो पांच-सात लाले हैं, उनसे पूछ लेना।” कहकर अमृतलाल ने बीड़ी का कश लगाया- “जल्दी आना। यह जगह नो पार्किंग है। कहीं सौ पचास न ठुकवा दियो।”
“अभी वापस आया।” कहने के साथ ही बुझे सिंह दरवाजा खोलकर मैटाडोर टैम्पो से उतर गया।
चौथे मिनट ही बुझे सिंह की वापसी हुई।
“उस्ताद जी! काम बन गया वे। वो तीसरा वाला लाला बोलदा वे, फटाफट टैम्पो विच माल लादो।”
“कहां ले जाना है माल?”
“रामपुर। चार घण्टों विच रामपुर। चार घण्टे आराम करके सुबह वापस। क्यों उस्ताद जी?”
“पहले माल लेकर रामपुर तो पहुंचो। वापसी भी देख लेंगे।” कहने के साथ ही अमृतलाल ने टैम्पो स्टार्ट किया तो बुझे सिंह फौरन भीतर आ बैठा- “वो आगे वाले कट से मोड़ के....।”
“चुप रह। मेरे को नेई पता क्या लाले के गोदाम का रास्ता।” अमृतलाल ने मुंह बनाया।
“मैं तो यूं ही बता रहा था उस्ताद जी।”
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देवराज चौहान ने जगमोहन, सोहनलाल और भटनागर पर निगाह मारी। सबके चेहरों पर गम्भीरता थी। वे इस वक्त भटनागर के फ्लैट पर ही थे।
आखिरकार दो मिनट की चुप्पी के पश्चात देवराज चौहान कह उठा।
“केटली एण्ड केटली के यहां से साढ़े चार अरब रुपए के हीरे कैसे निकालने हैं, यह बताने जा रहा हूं। पहले मैं पूरी तरह वहां के सुरक्षा के इंतजामों के बारे में बताऊंगा। उसके बाद बताऊंगा कि कैसे हमें उन हीरों तक पहुंचना है।” पल भर रुक कर देवराज चौहान ने पुनः कहा- “लेकिन एक बात हम सबको अपने मस्तिष्क में बिठा लेनी है कि केटली एण्ड केटली ज्वेलर्स के शोरूम में प्रवेश करना और माल बाहर लाना, आसान काम नहीं है फिर भी हम कामयाब होने की चेष्टा करेंगे।”
जगमोहन ने बेचौनी से पहलू बदला।
सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट सुलगा ली।
भटनागर गम्भीर स्वर में कह उठा।
“तुमने यह सोच लिया है कि कैसे सुरक्षा इंतजामों को तोड़कर भीतर प्रवेश करना है?”
“हां!” देवराज चौहान ने भटनागर को देखा- “सोच लिया है। लेकिन सोचने और करने में बहुत फर्क है। काम के दौरान कई बार ऐसा कुछ हो जाता है कि सोची हुई हर बात बेकार हो जाती है।”
“मैं समझता हूं।” भटनागर ने सिर हिलाकर धीमे स्वर में कहा- “मैंने भी कई डकैतियां डाली हैं।”
देवराज चौहान ने चेहरे पर गंभीरता और सोच के भाव समेटे कहना शुरू किया।
“जैसा कि आप लोग जानते हैं कि केटली एण्ड केटली का शोरूम भरी-पूरी मार्किट में है, जहां दिन में पैर रखने की भी जगह नहीं मिलती। इतनी भीड़ रहती है उस मार्किट में। और रात के ग्यारह-बारह बजे तक उस मार्किट में चहल-पहल रहती है। यूं तो दुकाने नौ बजे तक बंद हो जाती हैं, परंतु मार्किट में पान वालों की दुकानें, स्वीट्स शॉप और रेस्टोरेंट वगैरह रात के ग्यारह बजे तक खुले रहते हैं। यानि कि एक बजे के करीब जाकर वो मार्किट खामोश होती है, और दो चौकीदार डंडा और सीटी बजाते रात भर वहां घूमते और बंद दुकानों के शटर के तालों को चेक करते हैं कि कहीं कोई ताला या शटर भूल से खुला तो नहीं रह गया।”
तीनों की निगाहें देवराज चौहान पर थीं।
“अब हम आते हैं केटली एण्ड केटली के शोरूम पर। जो कि एक साथ आठ दुकानों को खरिद कर बनाया गया है और पीछे की जगह को भी खरिद कर शोरूम का हिस्सा बना दिया गया है। कुल मिलाकर वो शोरूम साढ़े चार सौ गज में बना है, जबकि वहां एक जगह की कीमत, लाख रूपये से ज्यादा है। सामान्य अवस्था में, दिन में केटली एण्ड केटली शोरूम के बाहर दो गनमैन खड़े होते हैं और सतर्क रहते हैं। शोरूम के भीतर दिन भर एक गनमैन, एक खास काउन्टर के पीछे मौजूद रहता है ताकि किसी भी तरह की गड़बड़ होने पर, मामले को सम्भाल सके। इसके साथ ही वहां आठ वीडियो कैमरे दिन और रात चौबीसों घंटे चालू रहते हैं। दिन में ऑटोमैटिक वीडियो कैमरे, आने वाले ग्राहकों, कर्मचारियों यानि कि शोरुम की सारी हलचल को अपने में कैद करते हैं। और रात को शोरूम के भीतर कुछ होता है तो, कैमरे उसकी तस्वीर-हलचल भी अपने में कैद कर लेंगे।”
“यही इन्तजाम है?” सोहनलाल बोला।
“सुनते रहो।” देवराज चौहान ने सिर हिलाया- “रात के वक्त, शोरूम बन्द करते
वक्त अलार्म स्विच ऑन कर दिया जाता है। यानि कि शोरूम बन्द होने के बाद अगर वहां के तालों को कोई, बिना असल चाबी के खोलने की चेष्टा करेगा तो अलार्म बज उठेगा। एक स्पीकर, जो शोरूम के भीतर है, वह जोर से बजेगा और इसके साथ ही, पांच सौ गज दूरी पर, चौराहे पर बीट बॉक्स है, दूसरा स्पीकर वहां मौजूद है। वहां अलार्म बजेगा। बीट बॉक्स में तीन पुलिस वाले सारी रात मौजूद रहते हैं। यानि कि उस स्थिति में शोरूम में प्रवेश करने वाला असफल रहेगा। अलार्म की तेज आवाज गूंजने पर उसे फौरन वहां से निकल जाना पड़ेगा, नहीं तो पकड़ा जाएगा।”
चाबी से खोलने की चेष्टा करे तो अलार्म बज उठेगा। एक स्पीकर तो शोरूम के भीतर है, वो जोरों से बजेगा और इसके साथ ही, पांच सौ गज दूरी पर, चौराहे पर बीट-बॉक्स है, दूसरा स्पीकर वहां मौजूद है। वहाँ अलार्म बजेगा। उस बीट बॉक्स में, तीन पुलिस वाले सारी रात मौजूद रहते हैं। यानी कि उस स्थिति में शोरूम में प्रवेश करने वाला असफल रहेगा। अलार्म की तेज आवाज़ गूंजने पर उसे फ़ौरन वहाँ से निकल जाना पड़ेगा, नहीं तो पकड़ा जायेगा।”
देवराज चौहान पल भर के लिए ठिठका।
किसी ने कुछ नहीं कहा। नज़रें देवराज चौहान पर थीं।
“इसके साथ ही रात को दो गनमैंन, शोरूम के बंद दरवाजे के शटर के बाहर, स्टूलों पर मौजूद होते हैं। यानि कि उनसे निपटने के बाद ही, शोरूम के तालों को खोलने की चेष्टा की जा सकती है, जो कि इतना आसान नहीं है। चौकीदार भी वहाँ यदा-कदा आते-जाते रहते हैं और वे दोनों गनमैन पूरी रात ठीक तरह अपनी ड्यूटी देते हैं। पांच मिनट की भी नींद नहीं लेते।”
“तुमने ये बात चेक की है ?” भटनागर बोला।
“हाँ। कई बार। बीते आठ दिनों में यही करता रहा हूँ।” देवराज चौहान ने उसे देखा।
भटनागर सिर हिलाकर रह गया।
“ये इन्तजाम तो केटली एंड केटली ने सामान्य अवस्था में कर रखे हैं। चूंकि अब साढ़े चार करोड़ के हीरे शोरूम में मौजूद है तो, ऐसे में उसने कुछ और इन्तजाम किए हैं।” देवराज चौहान ने तीनों पर निगाह मारी – “आज रात में शोरूम के बाहर दो की अपेक्षा चार गनमैन मौजूद होंगे और एक गनमैन रात भर शोरूम के भीतर मौजूद रहेगा। यानि कि अपनी तरफ से केटली एंड केटली ने पक्का इन्तजाम किया है।”
“एक गनमैन शोरूम के भीतर...!” जगमोहन ने बेचैनी से पहलू बदला।
“हाँ...।”
“ये तो झंझट वाला काम हो गया।” जगमोहन ने उखड़े स्वर में कहा – “किसी तरह शोरूम के भीतर प्रवेश कर भी गए तो भीतर वाला गनमैन हमारे काम को असफल बना देगा। बाहर वालों की अपेक्षा, भीतर वाले से हमें ज्यादा ख़तरा होगा।”
देवराज चौहान मुस्कुराया।
जगमोहन गहरी साँस लेकर रह गया।
तीनों की नज़रें देवराज चौहान पर ही थी।
“अब बात आती है कि उन हीरों को कहाँ रखा गया है ?” देवराज चौहान कह उठा – “हीरे उस शोरूम में नहीं है जहां कस्टमर खरीददारी के लिए आते हैं या जहां रात भर गनमैन मौजूद रहता है।”
“तो कहाँ हैं ?” जगमोहन के होंठों से निकला।
“शोरूम के बेसमेंट में। नीचे जाने के लिए सीढियाँ उसी शोरूम के एक कोने में हैं। जहां मजबूत दरवाजा लगा रहता है, जो कि दिन में भी बंद रहता है, और रात में तो बंद रहता ही है। बेसमेंट में कीमती और महंगा सामान रखा जाता है, और नीचे जाने वाली सीढियाँ पर लगे दरवाजे को दिन में भी बहुत जरुरत पड़ने पर ही खोला जाता है।” दो पल के लिए ठिठक कर देवराज चौहान पुनः कह उठा – “बेसमेंट में अन्य जगहों के अलावा एक छोटा-सा कमरा है, जो कि आर्म्सप्रूफ स्टील की चादरों से बना हुआ है। और वो स्टील की चादरें जमीन में भी चार फीट तक गयी हुई है। वो छः फीट चौड़ा और छः फीट लम्बा है। छः फीट ही ऊँचा है और उसकी छत भी स्टील की चादर की है। यानि कि उसे तोडा या काटा नहीं जा सकता।”
“पक्का... !” सोहनलाल कह उठा।
“हाँ। और उसके दरवाजे पर बेहद मजबूत ऑटोमैटिक लॉक सिस्टम है।” देवराज चौहान ने सोहनलाल को देखा – “जिसके बारे में मुझे बताया गया है कि उसे खोल पाना सम्भव नहीं।”
“देखी जायेगी।” सोहनलाल होंठ सिकोड़कर सिर हिलाकर कह उठा।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया।
“ये हैं वहाँ के इन्तजाम। सुरक्षा व्यवस्था केटली एंड केटली की।” देवराज चौहान बोला।
जगमोहन फ़ौरन सिर हिलाकर कह उठा।
“मुझे तो काम बनता नहीं लगता।”
“क्यों ?” सोहनलाल ने उसे देखा।
“सबसे पहली बात तो ये है कि, ये काम हम दिन में नहीं कर सकते। क्योंकि दिन में शोरूम का सारा स्टाफ भीतर होता है। बाहर दो और एक गनमैन भीतर होता है और वो हीरे बेसमेंट में, स्टील के छोटे-से कमरे में हैं, जहां तक पहुंचना और वहाँ का लॉक खोलना, यानि कि दिन में हमारे पास इतना वक़्त हो ही नहीं सकता कि ये सब काम ठीक-ठाक ढंग से किया जा सके।”
सोहनलाल के चेहरे पर सोच के भाव नज़र आ रहे थे।
“अब रही बात रात की तो रात में बाहर गनमैन मौजूद हैं। ऊपर से बिना चाबी के शोरूम को खोलने की चेष्टा की जाये तो अलार्म बजने लगता है। तीसरी बात ये कि रात को भी बंद शोरूम के भीतर गनमैन मौजूद रहता है। यानि कि खून खराबा करने के अलावा कुछ नहीं हो सकता। जगमोहन ने स्पष्ट शब्दों में कहा – “केटली एंड केटली बेवकूफ तो है नहीं, जो उसने साढ़े चार अरब की कीमत के हीरे वहाँ रख छोड़े हैं। ये कदम सोच-समझ कर ही उठाया होगा।”
“जगमोहन शायद ठीक कहता है।” भटनागर ने धीमे स्वर में कहा।
सोहनलाल कह उठा।
“वहाँ के ताले भी आसानी से खुलने वाले नहीं होंगे। उनके लिए भी मुनासिब वक़्त चाहिए। और वो मुनासिब वक़्त आधे घंटे का भी हो सकता है और छः-आठ घंटों का भी...।”
देवराज चौहान खामोशी से सिगरेट के कश ले रहा था।
उसे खामोश पाकर, भटनागर कह उठा।
“तुमने कुछ सोचा कि कैसे, ठीक-ठाक ढंग से भीतर चला जा सकता है? बताना तो जरा....।”
देवराज चौहान ने भटनागर को देखा।
जगमोहन और सोहनलाल की नज़रें भी देवराज चौहान पर जा टिकीं।
“तुमने कोई रास्ता सोचा है ?” सोहनलाल ने पूछा।
“डकैतियां तो मैनें भी की हैं।” भटनागर कह उठा – “लेकिन ऐसी सख्त डकैती के बारे में तो मैनें कभी सोचा भी नहीं।”
“तो फिर समझो कि आज तक तुमने एक भी डकैती नहीं की...।” जगमोहन कह उठा – “असल डकैती भटनागर ऐसी ही होती है कि जहां पहुँचने का रास्ता न हो और जुगाड़ भिडाकर रास्ता बनाकर माल साफ़ किया जा सके।”
भटनागर गहरी सांस लेकर रह गया।
जगमोहन ने देवराज चौहान से कहा।
“मुझे नहीं लगता कि इस बार हमें कामयाबी मिल सके।”
देवराज चौहान मुस्कुराया। सिगरेट ऐशट्रे में मसली।
“कोशिश करने में क्या हर्ज है ?”
“केटली एंड केटली के बेसमेंट में कैसे पहुंचेंगे ?” जगमोहन के होंठ सिकुड़े।
देवराज चौहान सिर हिलाकर कह उठा - “केटली एंड केटली ने अपने शोरूम में हीरों की सुरक्षा के जो इन्तजाम कर रखे हैं, उन इन्तजामों को छेड़े बिना हमें उन हीरों तक पहुंचना हैं।”
“ये कैसे हो सकता है।” जगमोहन के होंठों से निकला।
“असंभव...।” भटनागर बोला।
सोहनलाल की नज़रें देवराज चौहान पर थीं।
“हमने केटली एंड केटली का शोरूम नहीं लूटना – बल्कि बेसमेंट में मौजूद हीरों तक पहुंचना है। ऐसे में जरुरी तो नहीं है कि, शोरूम से गुजर कर ही बेसमेंट में पहुंचा जाए।” देवराज चौहान ने कहा – “केटली एंड केटली के बेसमेंट के पीछे जो दीवार है, उस दीवार के साथ अंडरग्राउंड नाले का पाइप जा रहा है। जो कि तब बिछाया गया था, जब वो इलाका खाली होता था। करीब तीस-पैंतीस बरस पहले। उस पाइप में से कभी गन्दा पानी गुजरता था, लेकिन भीड़भाड़ बढ़ने की वजह से कॉर्पोरेशन को पानी की निकासी के लिए दूसरा रास्ता बनाना पड़ा। यह पंद्रह साल पहले की बात है। दूसरे रास्ते की वजह से पहले बनाया गया अंडरग्राउंड नाला बंद करना पड़ा। यानि कि वो इस्तेमाल के काबिल नहीं रहा और अब वो सुखा पड़ा है। बेकार पड़ा है। लोग भूल भी चुके हैं उस नाले को। जो कि करीब पांच फीट के व्यास का है।”
तीनों की निगाहें आपस में मिलीं।
“तुम्हे कैसे पता चला उस सूखे नाले के बारे में ?” भटनागर ने पूछा।
“कॉर्पोरेशन से। केटली एंड केटली के इन्तजामों को जानने के बाद मुझे लगा कि हीरों तक पहुंचना असम्भव-सा हो रहा, तो तब मेरा ध्यान, जमीन के नीचे बिछने वाले नालों की तरफ गया कि हो सकता है कोई बड़ा पाइप बेसमेंट के करीब से गुजर रहा हो। कॉर्पोरेशन के ऑफिस में मौजूद एक आदमी को पैसे देकर उस इलाके के नीचे बिछने वाले नालों की फाइल और नक़्शे निकलवाये तो इत्तफ़ाक से, वो आदमी उस नक़्शे को ले आया जो पहले वाला था। तब पता चला कि बेसमेंट के साथ होता हुआ, पांच फीट व्यास का नाले का पाइप निकल रहा है, जो कि पंद्रह सालों से इस्तेमाल में नहीं है। उसमें प्रवेश करने का रास्ता उस नक़्शे में था। वो सब मैनें नोट कर लिया।”
भटनागर के होंठ से हंसी निकल गयी। ख़ुशी से भरी हंसी।
जगमोहन की आँखों में तीव्र चमक नज़र आने लगी।
सोहनलाल ने सिर हिलाते हुए गोली वाली सिगरेट सुलगाई।
“अंडरग्राउंड नाले का वो सुखा पाइप हमें हीरों तक पहुँचायेगा।” जगमोहन कह उठा।
“हाँ...।” देवराज चौहान ने सिर हिलाया।
“वो नाला पंद्रह सालों से बंद है।” सोहनलाल कह उठा – “उसमें जहरीली गैस भी हो सकती है।”
“ये देखना पड़ेगा। ऑक्सीजन सिलेंडर और फेसमास्क लेकर, नाले में जाकर, चेक करना पड़ेगा। वैसे भी जब हम अपना काम करने के लिए उस नाले में प्रवेश करेंगे, तो तब भी ऑक्सीजन सिलेंडर का हमें इस्तेमाल करना पड़ेगा। क्योंकि सांस लेने के लिए वहाँ ऑक्सीजन नहीं मिलेगी।”
“ये बात तो है।” भटनागर ने सिर हिलाया।
“मतलब कि...।” जगमोहन बोला – “नाले का वो पाइप और बेसमेंट की दीवार तोड़कर हम भीतर प्रवेश कर सकेंगे।”
“हाँ...।”
“लेकिन इस बात का अंदाजा हमें कैसे होगा, कि नाले में कितना रास्ता तय करके कहाँ से हमें तोड़-फोड़ शुरू करनी है। ये भी हो सकता है कि हम कहीं गलत जगह रास्ता बनाना शुरू कर दें।” जगमोहन ने कहा।
“आज रात इस बात को चेक कर लिया जाएगा।” देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।
“वो कैसे ?”
“जहां से उस नाले में प्रवेश करने का रास्ता है, वहाँ से केटली एंड केटली के शोरूम का रास्ता नापा जाएगा। अगर नाले का पाइप कहीं से मुड़ता हुआ जाता है तो उस मोड़ की लम्बाई को जमा या घटाया जायेगा। ये काम मैं और सोहनलाल करेंगे।” देवराज चौहान ने कहा।
सोहनलाल ने सहमति में सिर हिलाया।
“ऑक्सीजन सिलेंडर और फेसमास्क का इन्तजाम हो जायेगा ?” देवराज चौहान ने पूछा।
“हो जाएगा।” सोहनलाल ने सिर हिलाया।
“नाले में से रास्ता बनाने के लिए तो पॉवर वाले कटर की जरुरत पड़ेगी।” भटनागर बोला – “अगर रास्ता बनाने के लिए तोडा-ताड़ी की तो शोर बाहर तक पहुँच सकता है।”
“हाँ...। कटर का ही इस्तेमाल करना पड़ेगा। कटर चलाने के लिए, करंट के लिए साथ में बैटरी भी ले जानी पड़ेगी कि कटर चलाया जा सके। ये सारे इन्तजाम कल दिन में तुम करोगे भटनागर। वो हीरे, दो-तीन दिन के भीतर उस शोरूम से, केटली एंड केटली के अन्य शोरूम में पहुँच जायेंगे, जो कि दूसरे बड़े शहरों में हैं। इसलिए कल रात ही हमें इस काम को कर देना है।”
भटनागर ने सहमति से सिर हिलाया।
“इसका मतलब...।” जगमोहन जल्दी से कह उठा – “कल साढ़े चार अरब के हीरे हमारे पास...।”
“अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।” देवराज चौहान उठता हुआ बोला – “चलो सोहनलाल! रात भर हमें व्यस्त रहना है। नाले के पूरे रास्तों को चेक करना है, और ये भी तय करना है कि नाले के किस हिस्से के पीछे केटली एंड केटली शोरूम का बेसमेंट है। और अभी ऑक्सीजन सिलेंडर का भी इन्तजाम करना है।”
सोहनलाल उठ खड़ा हुआ।
“मैं साथ चलता हूँ..।” जगमोहन भी उठा।
“नहीं। रात के वक़्त तीन का एक साथ होना, ज्यादा शक पैदा करेगा। मैं नहीं चाहता कि काम शुरू होने से पहले ही किसी तरह की गड़बड़ हो। काम ख़त्म करके मैं बंगले पर ही पहुचुंगा।”
“ठीक है। फिर मैं बंगले पर ही जाता हूँ...।”
“नाले में प्रवेश करने के लिए गटर का ढक्कन कहाँ हैं ?” भटनागर ने पूछा।
“पुलिस स्टेशन की दीवार के पास...।” देवराज चौहान मुस्कुराया।
“क्या ?” भटनागर हडबडा उठा।
जगमोहन ने रूखे होंठों पर जीभ फेरी।
सोहनलाल गहरी सांस ले कर रह गया।
“मतलब कि अगर हम अपने काम में सफल हो जाते हैं तो, साढ़े चार अरब के हीरे लेकर पुलिस स्टेशन के पास से ही बाहर निकलेंगे।” भटनागर ने अविश्वास भरे स्वर में कहा।
“हाँ।”
“नई मुसीबत...।” जगमोहन बड़बड़ा उठा।
सोहनलाल ने गोली वाली नयी सिगरेट सुलगाई।
“लेकिन हम ऑक्सीजन सिलेंडर, कटर जैसा सामान लेकर, वहाँ से भीतर कैसे प्रवेश करेंगे ? पास ही पुलिस स्टेशन है। किसी की भी नज़र पड़ सकती है।” सोहनलाल बोला।
“हम कोशिश करेंगे कि किसी की नज़र न पड़े।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा – “इसके लिए भी कोई न कोई रास्ता तो निकालना ही पड़ेगा। अभी हमारे पास वक़्त है। आज की रात और कल का दिन भी...।”
☐☐☐
रात के ग्यारह-साढ़े ग्यारह का वक़्त हो रहा था।
देवराज चौहान और सोहनलाल ऑक्सीजन का सिलेंडर लेकर जब पुलिस स्टेशन के पास पहुंचे। सिलेंडर और अन्य सामान को कुछ देर अँधेरे में ही रखकर, वे वहाँ पहले आस-पास नज़र मारने आये थे। पुलिस स्टेशन से कुछ पहले ही दोनों ठिठके।
चलती सड़क पर पुलिस स्टेशन था। वाहन आ-जा रहे थे। सड़क के किनारे ही पुलिस स्टेशन पर प्रवेश द्वार था। भीतर प्रवेश करते ही दोनों तरफ बाग़ जैसी जगह बना रखी थी और बीच में दस फीट चौड़ा रास्ता था जो आगे जाकर पुलिस स्टेशन बना हुआ था। उसकी दीवारों से एहसास हो रहा था कि वो पचास बरस से भी पहले का बना हुआ है।
पुलिस वाले अथवा अन्य लोग, भीतर-बाहर निकलते कभी-कभार नज़र आ जाते थे।
“मेनहोल कहाँ है ?” सोहनलाल ने आस-पास नज़र मारने के बाद कहा।
“आओ।”
दोनों आगे बढ़े।
“पुलिस स्टेशन की चारदीवारी के गेट से सौ गज पहले दीवार के साथ ही देवराज चौहान ठिठका और आस-पास देखता हुआ शांत स्वर में बोला।
“नीचे देखो।”
सोहनलाल ने फ़ौरन नीचे देखा। वहाँ अँधेरा था। सड़क पर मौजूद स्ट्रीट लाइट की रौशनी मध्यम-सी वहां तक आ रही थी। उसे मैनहोल का कवर नज़र आया। जो कि जमीन का ही हिस्सा लग रहा था। वो ढक्कन ढाई फीट लंबा और दो फीट चौड़ा था।
“ये है ?” सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा।
“हाँ...।”
“ये तो पूरा का पूरा खतरे वाला सौदा हुआ।” सोहनलाल कह उठा।
“यहाँ से चलो।”
दोनों वहाँ से हटकर दूर हो गए।
“क्या कहना चाहते हो ?” देवराज चौहान ने पूछा।
“पुलिस स्टेशन के बाहर से ऐसी हरकत करना ठीक नहीं।” सोहनलाल ने होंठ सिकोड़ते हुए कहा – “हमारी हरकत पर किसी की निगाह पड़ जाना मामूली बात है। और...।”
“ये ख़तरा तो उठाना ही पड़ेगा।” देवराज चौहान के स्वर में दृढ़ता थी।
“ठीक है। लेकिन ऐसे में मैनहोल का ढक्कन उठाकर भीतर कैसे... ?”
“कार लाकर यहाँ खड़ी करनी पड़ेगी। पूछने पर कहना पड़ेगा कि कार खराब हो गयी है और कार की ओट लेकर, मैनहोल का ढक्कन हठाकर, भीतर प्रवेश किया जायेगा।” देवराज चौहान ने कहा।
“ये खतरे वाला काम होगा। हमारे भीतर प्रवेश करने के बाद कोई पुलिस वाला, कार खड़ी देखकर इस तरफ आ सकता है। मैनहोल का ढक्कन अपनी जगह से हटा पाकर....।”
“मैनहोल से नीचे उतरने के बाद, हम नीचे से ढक्कन खींचकर वापस रख देंगे।” देवराज चौहान बोला।
“तब भी शक हो सकता है। क्योंकि मैनहोल का ढक्कन इस वक़्त जमीन में धंसा-सा लग रहा है। जब हम इसे सरकाकर ऊपर रखेंगे तो वो उठा-उठा-सा नज़र आयेगा और...।”
“तुम ठीक कहते हो। लेकिन हमें ये खतरा उठाना ही पड़ेगा।”
“और कल क्या करेंगे ?”
“कोई ऐसा पुख्ता इन्तजाम हो जायेगा कि किसी को शक न हो कि यहाँ कुछ हो रहा है।” देवराज चौहान ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा – “केटली एंड केटली तक इसी रास्ते से पहुचेंगे।”
सोहनलाल ने सोच भरी निगाहों से दूर मेनहोल की तरफ देखा।
“मेनहोल के नीचे नाला किस तरफ जाता है ?” सोहनलाल ने पूछा।
“इधर। सड़क के नीचे से होकर, उन मकानों के पार उसी मार्किट में जाता है जहां केटली एंड केटली का शोरूम है। आओ पहले मेनहोल से शोरूम तक की दूरी का अंदाजा लगा लें। उसके बाद भीतर प्रवेश करेंगे।” देवराज चौहान ने अँधेरे में आस-पास देखते हुए कहा।”
“अंदाजा कैसे लगाओगे ?”
“कॉर्पोरेशन के नक़्शे के मुताबिक़ मैंने अंदाजा लगाया है कि केटली एंड केटली वाले शोरूम तक साढ़े-सोलह सौ फीट का फासला है। सबसे पहले तो हमें ये चेक करना है कि मेनहोल से शोरूम का फासला साढ़े-सोलह सौ फीट ही है। बाकी काम उसके बाद करेंगे।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा – “लेकिन ये लम्बाई नापने में हमें धोखा भी हो सकता है।”
“वो कैसे ?”
“नाले की पाइप तो ज़मीन के भीतर से सीधी जा रही है। जब कि ज़मीन के ऊपर सामने मकान बने नज़र आ रहे हैं। मकानों के भीतर घुसकर तो नपाई होने से रही। ऐसे में अगर पांच फीट का भी धोखा खा गये तो सारी योजना फेल हो जायेगी।” देवराज चौहान गंभीर स्वर में बोला।
“ओह ! ये तो अड़चन वाली बात हो गयी..।”
“हाँ, दिक्कत तो हो सकती है।” देवराज चौहान ने सिर हिलाया – “हमें ये जानना होगा कि कौन-सा मकान कितने गज में बना है। पाइप जिन मकानों के नीचे से गुजर रही है, उन मकानों ने कितनी जगह घेर रखी है। इसी तरफ हिसाब लगाकर, सारा काम करना होगा।”
“ऐसे में तो हमसे कहीं भी चूक हो सकती है।”
देवराज चौहान मुस्कुराया।
“हाँ। चूक हो भी सकती है और नहीं भी।”
उसके बाद देवराज चौहान और सोहनलाल सारी रात अपने काम में व्यस्त रहे। इस बात की सावधानी बरतते रहे, कि कोई उन पर शक करके उन्हें टोके नहीं।
बहरहाल दिन का उजाला होने से पंद्रह मिनट पहले ही दोनों मेनहोल का ढक्कन हटाकर बाहर निकले। ढक्कन को वापस होल पर फिट कर दिया और पास ही खड़ी कार में बैठकर वहाँ से चल पड़े। सूखे नाले में प्रवेश करने की वजह से उनके हाथ-पाँव और कपडे मिटटी से सने पड़े थे। रात भर की भागदौड़ की थकान चेहरों पर थी। जो सामान वो साथ लेकर नाले में गये थे। उसे भीतर ही छोड़ आये थे, क्योंकि आज रात फिर उन्हें भीतर प्रवेश करना था।
देवराज चौहान ने कार को सोहनलाल के एक कमरे के फ्लैट के बाहर ले जाकर रोका और फिर दरवाजे पर लटक रहा ताला खोलकर भीतर प्रवेश कर गए।
☐☐☐
सोहनलाल ने चाय बनायी, एक अपने और एक देवराज चौहान के लिए।
देवराज चौहान ने चाय का घूँट भरा।
“सोहनलाल ! किसी टेम्पो जैसे वाहन का इन्तजाम करना होगा।” देवराज चौहान ने कहा – “आज तो हमने कार का इस्तेमाल किया। पुलिस वालों की नज़रों से बचने के लिए, और हमारी कार खड़ी कई पुलिस वालों ने देखी होगी। कल रात भी वो वहाँ पर कार खड़ी देखेंगे तो कोई भी पुलिस वाला वहाँ देखने के लिए पहुँच सकता है कि कार वहाँ क्यों खड़ी है। और ऐसे में पुलिस वालों को शक भी हो सकता है कि कोई गड़बड़ है।”
सोहनलाल ने सिर हिलाया।
“ठीक कहते हो। कल कार के बदले वहाँ टेम्पो हो तो ज्यादा बढ़िया रहेगा।”
“रात को भीतर कैसे प्रवेश करना है, ये मैं शाम को भटनागर के यहाँ बताऊंगा।”
“तो ठीक है।” सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा – “टेम्पो का इन्तजाम करने के लिए टेम्पो चोरी करना पड़ेगा। इस काम में चोरी का टेम्पो इस्तेमाल करना ठीक होगा? अगर टेम्पो किराये पर लेते हैं तो साथ में ड्राईवर अवश्य होगा।”
“कोई पहचान वाला नहीं हैं ?”
“नहीं...।”
“तो...” देवराज चौहान उठते हुए बोला – “टेम्पो रात को आठ-नौ बजे ही उठाना और वहाँ ले जाकर खड़े कर देना। टेम्पो वाले को रिपोर्ट लिखाते-लिखाते ही आधी रात हो जायेगी और हमें टेम्पो की जरुरत सिर्फ दिन निकलने तक होगी।”
“हूँ...” सोहनलाल ने चाय का घूँट भरा।
देवराज चौहान ने चाय समाप्त की और बाहर निकल गया।
☐☐☐
“उस्ताद जी, उठो। सात बज गये। रामपुर दी सुबह दा मजा ही कुछ और है। माल तो रात को ही उतार दिया। अब वापस चलकर लाले से भाड़ा वसूलते है, फिर उस भाड़े की तनख्वाह बनाकर मुझे दे देना।” बुझे सिंह ने चारपाई पर सोये अमृतपाल को हिलाते हुए कहा।
अमृतपाल ने आँखे खोलीं और करवट लेकर, चारपाई पर उठ बैठा। वह सड़क किनारे खुली जगह पर स्थित ढाबे के पास लगे पेड़ों के नीचे, चारपाई पर रात को सोया था। ढाबे वाले से खासी पहचान कर रखी थी। जब भी वे टेम्पो में माल लेकर रामपुर आते, रात यहीं बिताते थे।
“क्या वक़्त हुआ है ?” अमृतपाल ने आँखें मलते हुए कहा।
“सात बजे हैं। मैंने तो नहा-धो भी लिया। नाश्ते की जरुरत पड़ी तो आपको उठा दिया।” बुझे सिंह मुस्कुराया।
“नाश्ता कर लेता।”
“कैसे कर लेता उस्ताद जी ! आप तो जानते ही हैं कि मैं कुछ ज्यादा खाता हूँ। फिर बाद में आप कहते हैं कि पचास रुपये का खा गया। दोनों मिल-बैठकर खायेंगे तो, आपको पता नहीं चलेगा, मैनें कितने का खाया।”
अमृतपाल ने बुझे सिंह को घूरा।
“तू कभी अच्छी बात नहीं करेगा।”
“मैनें क्या गलत बोल दित्ता उस्ताद जी उठो, नहा-धो लो। फिर मिल बैठ के नाश्ता कर दे आं।”
☐☐☐
अमृतपाल ने नहा-धोकर वही कपडे पहन लिए। फिर बुझे सिंह के साथ नाश्ता करने लगा। ढाबे वाले से कहकर स्पेशल आलू के पराठे बनवाये थे।
खाने के दौरान बुझे सिंह कह उठा।
“उस्ताद जी ! खा-पी के चलदे आं। बारह बजे तक पौंच जावांगे।”
“दोपहर बाद वापस चलेंगे।”
“दोपहर बाद, वो क्यों ?”
“रामपुर में मेरी दूर की बुआ रहती है। पिछली बार दो महीने पहले जब गाँव के मकान पर गया तो उसका पत्र आया पडा था। पत्र में उसको लड़की दिखाने की बात कही थी।” खाते-खाते अमृतपाल बोला।
“लड़की दिखाने की बात.. वो क्यों... ?”
“शादी के लिए। इसलिए बुआ के पास जाना है। दो-तीन घंटे वहाँ लगेंगे।”
बुझे सिंह हडबडाकर जल्दी से कह उठा।
“उस्ताद जी ! मैं क्या बुरा आदमी हूँ ?”
“नहीं। क्यों ?”
“तो फिर तुसी मेरी बहन के साथ ब्याह क्यों नहीं कर लेते। वो आपको बोत सुखी रखेगी।”
“तेरी बहन के साथ ब्याह नहीं करूँगा।”
“वो, आलू दे परांठे भी बोत अच्छे बनाती है।”
“मैं, तेरे जैसी मुसीबत को सारी उम्र के लिए अपने गले नहीं बांधना चाहता, तेरी बहन से शादी करके।”
“उस्ताद जी, मैंने तो पहले ही कहा कि जब आप मेरी बहन से ब्याह कर लें। मैं कहीं और नौकरी कर लूँगा। कहोगे तो शहर छोड़कर चला जावांगा। साला होने के नाते कभी-कभी आ जाया करूँगा। बाहर ही मेरी चारपाई बिछा देना। घर की देखभाल भी हो जायेगी और मेरी दो-चार रातां कट जावांगी।”
अमृतलाल खामोशी से परांठा खाता रहा।
“तैयारी करां उस्ताद जी...।”
“किस बात की ?”
“ब्याह की...।”
“बुझे !” अमृतपाल ने तीखे स्वर में कहा – “तेरे को मेरे पास नौकरी करनी है कि नहीं ?”
“न करके मैंने भूखा मरना है क्या ! नौकरी मिलती ही कहाँ है !”
“तो मेरे से ब्याह-शादी की बात मत किया कर। मैं टेम्पो दां मालिक। ड्राईवर। और तू मेरे नीचे नौकरी करने वाला, मेरे टेम्पो दा क्लीनर। मैं तेरी बहन से कैसे शादी कर सकता हूँ। आखिर मेरी भी तो इज्ज़त है। लोग क्या कहेंगे, मैनें क्लीनर की बहन से ब्याह किया।”
“ये बात भी ठीक है।” बुझे सिंह मायूसी से कह उठा – “एक बात बताना उस्ताद जी!”
“क्या ?”
“मैं टेम्पो खरीद लूँगा टे, फिर आप मेरी बहन से शादी कर लेंगे।”
“तू टेम्पो कैसे खरीद सकता है ? तेरे पास पैसा... ?”
“मैं कहाँ खरीद रहा हूँ। पूछा रहा हूँ। पूछने में क्या हर्ज है उस्ताद जी ?” बुझे सिंह कह उठा।
“हाँ। फिर कर लूँगा।”
“वो तो ठीक है। फिर भी एक बार मेरी बहन को देख लेते तो ठीक रहता। शायद...।”
“फ़ालतू बात नहीं।” अमृतपाल ने सख्त स्वर में कहा – “नाश्ता ख़त्म कर और मार्किट जाकर पता लगा कि किसी ने माल मुम्बई भेजना है। वापसी पर टेम्पो भर के जायेगा तो दो पैसे और बन जायेंगे। तब तक मैं अपनी बुआ से मिलकर आता हूँ...।”
“जैसी आपकी मर्जी। बुआ के घर ने ही जांदे तो ठीक रहता।”
बुझे सिंह ने गहरी सांस ली।
“क्यों ?”
“रिश्ता पक्का हो गया तो मेरी बहन का क्या होगा ?” बुझे सिंह का चेहरा लटक गया।
“दुनियां में और लड़के मर गए हैं क्या ?”
“वो तो जिंदा है, पर मेरी नज़र तो आप पर है उस्ताद जी। आपके पास टेम्पो हैं। गाँव में बड़ा-सा मकान है। कमाई भी बढ़िया कर लेते हो। मेरी रोटी-पानी दा वी ख्याल रखते हो। इससे बढ़िया वर मेरी बहन के लिए और कौन-सा होगा।” बुझे सिंह ने मक्खन भरे स्वर में कहा।
“मैनें तेरी बहन से शादी ने करनी। समझ गया ?”
“वो तो मैं पहले ही समझ गया था। पर, मैं सिर्फ बात कर रहा हूँ, शादी के लिए तो अब नहीं कह रहा।” बुझे सिंह ने आलू का परांठा गोल करके मुंह में ठूंसते हुए कहा।
☐☐☐
दोपहर का एक बजने वाला था।
बुझे सिंह, अमृतपाल के पास पहुंचा, जो कि भरे-पूरे बाज़ार में एक दूकान पर बैठा चाय पी रहा था। डेढ़ घंटे से वो यहीं बैठा था।
“उस्ताज जी !” बुझे सिंह बोला – “माल टेम्पो में लाद दिया।”
“तिरपाल डाल के रस्सा बाँध दिया अच्छी तरह... ?”
“सब कुछ फिट कर दित्ता। बस आपकी कमी है।” बुझे सिंह मुस्कुराया।
अमृतपाल चाय समाप्त करके उठा और बुझे सिंह के साथ बाहर आ गया।
“उस्ताद जी ! लाले से भाड़ा वगैरह ले लेना। नेई तो दोबारा जब रामपुर आयेंगे, तब मिलेगा।” बुझे सिंह ने कहा।
“बात हो गयी है। मुम्बई में माल जिस लाले के हवाले करना है, वह भाड़ा देगा।” चलते-चलते अमृतपाल ने कहा।
“ये भी ठीक है।”
पंद्रह मिनट में ही वे दोनो टेम्पो के साथ रामपुर से बाहर हाईवे पर आ पहुंचे।
“दोपहर के खाने का समय हो रहा है।” बुझे सिंह कह उठा – “कुछ भूख भी लग रही है। वो बात ये है उस्ताद जी, कि सफ़र में जब गाडी चलती है तो पेट हिलता है। इसलिए भूख कुछ ज्यादा ही लगदी वे।”
“सुबह तूने आलू के परांठे ठूंस-ठूंस के खाये थे...।”
“वो तो सुबह की बात है। नाश्ता था। दोपहर को तो लंच होता है ना ?” बुझे सिंह ने उसे देखा।
“अपन पेट का हिलना बंद कर ले। कोई लंच नहीं होगा। चार घंटे का रास्ता है। मुम्बई पहुंचकर माल को टेम्पो से उतरवाकर ही खाना खायेंगे।” अमृतपाल ने रफ़्तार बढाते हुए कहा।
“तब तक तो मैं भूखा मर जाऊँगा।” बुझे सिंह मुंह लटकाकर कह उठा।
“नहीं मरता।”
“वो तो ठीक है। चलो, रास्ते में कहीं चाय ही पिला देना। आप तो अपनी बुआ के यहाँ से भी खा आये होंगे।”
अमृतपाल मुस्कुरा उठा।
“कुड़ी देखि, जो बुआ ने दिखाने को लिखा था पत्र में... ?” एकाएक बुझे सिंह ने पूछा।
“हाँ।”
“मामला फिट बैठा ?” बुझे सिंह ने जल्दी से पूछा।
“नहीं...।”
“नहीं।” बुझे सिंह का चेहरा खिल उठा – “ओ मुबारका। सुन के मूहुं मिट्ठा हो गया। वैसे हुआ क्या ? कुड़ी ने आपको पसंद नहीं किया या आपने कुड़ी को ? बात कहाँ अटकी ?”
“वो लड़की छः महीने की शादी के बाद, विधवा हो गयी थी। बुआ ने सोचा उससे शादी करने को मैं मान जाऊँगा। लेकिन मैं नहीं माना। लड़कियों की कोई कमी पड़ी है।”
“कोई कमी नहीं उस्ताद जी ! मेरी बहन है न जो...।”
“चुप...।”
“ठीक है, चुप कर जाता हूँ। जब मैं टेम्पो का मालिक बनूँगा, तब तो मेरी बहन से ब्याह कर ही लोगे। तब हम दोनों की हैसियत बराबर की होगी। ठीक कहा मैनें उस्ताद जी.. ?”
“हाँ। पहले टेम्पो खरीद के दिखा।”
“ये ई ते मुसीबत है। पैसे कहाँ है टेम्पो खरीदने के...।” बुझे सिंह का चेहरा बुझ गया।
तभी अमृतपाल के होंठ सिकुड़े। टेम्पो कुछ डोलता-सा लगा।
“टेम्पो में कोई गड़बड़ लग रही है।” अमृतपाल के होंठो से निकला।
“कैसी गड़बड़ ?”
“पता नहीं। शायद पंचर..।”
अमृतपाल ने टेम्पो की स्पीड कम करते हुए, संभलकर उसे सड़क के किनारे ले जाकर रोका।
“मैं देखता हूँ....।” कहने के साथ ही बुझे सिंह दरवाजा खोलकर टेम्पो से नीचे उतर गया।
फिर तुरंत बाद ही बुझे सिंह की आवाज़ कानों में पड़ी।
“उस्ताद जी ! टैर दा काम हो गया ?”
“क्या हुआ ?”
“पंचर....।”
अमृतपाल ने मुंह बनाया और इंजन बंद करके नीचे उतरता हुआ बोला।
“स्टेप्नी तैयार है ना ?”
“बिलकुल तैयार है। लेकिन टेम्पो विच ते माल लदा हुआ है। जैक चढाते वक़्त पूरा दम लगाना पड़ेगा। उस्ताद जी, ये मेरे कल्ले (अकेले) दां बस दा नहीं...।”
“जैक निकाल। मैं भी तेरे साथ लग जाऊँगा, स्टेप्नी भी निकाल।”
☐☐☐
पैंतालिस मिनट बाद उनका सफ़र पुनः शुरू हो गया।
“उस्ताद जी !” बुझे सिंह बीड़ी सुलगाते हुए बोला – “अब टैर दोबारा ठुक गया तो गड़बड़ हो जायेगी..। स्टेप्नी तो अब पैंचर है। बोत मुसीबत खड़ी हो जायेगी।”
“सड़ी बात मत किया कर।” अमृतपाल ने तीखे स्वर में कहा – “उल्लू दे पट्ठे। अब पहिया पैंचर हुआ तो तेरे हाथ में स्टैपनी देकर दौड़ाऊंगा, कि कहीं से भी पैंचर लगवा के आ।”
“मैनें तो बात की है। ये तो नेई बोला कि टैर पैंचर फिर हो जायेगा।” बुझे सिंह कह उठा।
☐☐☐
शाम को छः बजे टेम्पो ने मुम्बई में प्रवेश किया और पौने सात बजे उस दूकान पर पहुंचे, जहां माल देना था। माल उतारने में एक घंटा लग गया। दूकान वाले से माल का भाड़ा लेकर, वे वहाँ से चले। सुबह के उठे, अब वे दोनों थकान महसूस कर रहे थे।
“उस्ताद जी, भूख बहुत जोरों की लगी है।” बुझे सिंह कह उठा – “अब तो पक्की जान निकली जा रही है।”
“चल। अपने उसी ढाबे में चलकर खाना खाते हैं। पेट भर कर खाना।” अमृतलाल मुस्कुराकर बोला।
“वाह ! अपने उस्ताद जी तो बोत बड़े दिल वाले ने। दोपहर का खाना नेई खाया था। वो भी खालूं डिनर के साथ ?”
“खा ले। खा ले।”
“ऐ ते मजा ई आ गया। वा भई वा।”
“सुबह तू फिर नाश्ते के लिए कहेगा। वो भी अभी कर लेना।” अमृतपाल मुस्कुराया।
“इतना सारा माल इकठ्ठा नेई खादा जाएगा उस्ताद जी। नाश्ता कल सवेरे ही करांगे।”
“खाने के बाद मालूम है क्या करना है ?”
“आराम करना है। जी भर कर सोना है।”
“स्टेप्नी पैंचर है। पैंचर लगाना....।”
“उस्ताद जी ! पैंचर कल सुबह दे नाश्ते दे बाद। आज नहीं।” बुझे सिंह ने थके स्वर में कहा।
“याद से। भूल मत जाना।”
“भूल गया तो क्लीनर होने का क्या फायदा। अपने काम मुझे याद रहते है।”
कुछ ही देर बाद दोनों अपने पसंदीदा ढाबे पर पहुंचे। टेम्पो सड़क पार, खाली जगह पर खड़ा किया और सड़क पार करके ढाबे में आ पहुंचे।
☐☐☐
“बस उस्ताद जी।” बुझे सिंह सब्जी-डाल की खाली प्लेटों को ऊँगली से साफ़ करके, ऊँगली चाटता हुआ बोला – “और नेई। अब तो पेट फटने वाली हालत हो गयी है।”
“दोपहर का लंच भी खा लिया ना ?” अमृतपाल मुस्कुराया।
“मेरे ख्याल में तो खा ही लिया होवेगा। वैसे मैंने कितनी रोटी खादी वे ?” बुझे सिंह ने उसे देखा।
“पुत्तरा।” अमृतपाल व्यंग्य से कह उठा – “जब बिल आयेगा, तब पता चलेगा।”
“उस्ताद जी, बिल नू तुसी देखो। बिल दा नाम सुनकर ते मेरा दिल धड़कता है।” कहते हुए बुझे सिंह खड़ा हो गया – “मैं ज़रा बाहर जाकर खाना हज़म कर लूं।”
“टेम्पो पर कपडा मार दे।”
“ठीक वे। आप बिल को निपटा आना। वो लाले के पास जाना है, जिसका कल माल लेकर रामपुर गए थे। उससे पैसे लेकर, बीच में और डालकर, मेरी तनख्वाह बनाकर मुझे दे देना।”
“कल जायेंगे। नींद आ रही है। कमरे पर जाकर सोयेंगे।” अमृतपाल ने कहा।
“ठीक वे। सवेरे पैंचर लगाने के बाद, लाले के पास चलेंगे।” कहने के साथ ही बुझे सिंह बाहर निकल गया। अमृतपाल का खाना भी ख़त्म होने को था।
☐☐☐
तीन मिनट भी नहीं बीते होंगे कि बुझे सिंह ने भीतर प्रवेश किया। उसके चेहरे पर ख़ुशी नज़र आ रही थी। पास पहुंचकर बैठता हुआ जल्दी से कह उठा।
“उस्ताद जी ! खुशखबरी लाया हूँ।”
“क्या ?”
“सारी अड़चन दूर हो गयी।”
“कैसी अड़चन ?” अमृतपाल ने बुझे सिंह के चेहरे पर नज़र मारी।
“मेरी बहन के ब्याह की।”
“क्यों – रिश्ता तय हो गया क्या ?”
“तय तो नेई हुआ। लेकिन अब तो पक्का ही हो जायेगा।” बुझे सिंह ने दाँत दिखाये।
“क्या मतलब ?” अमृतपाल ने कहा और पानी पीने लगा।
“आप मेरी बहन से इसलिए शादी नहीं कर रहे थे कि आपके पास टेम्पू है। टेम्पो के मालिक हैं और मेरे पास टेम्पो नहीं है, और मुझे आपके नीचे रहकर अपना और अपनी बहन का पेट भरना पड़ता है। मजा ही आ गया उस्ताद जी ? अब हम दोनों बराबर हो गये।” बुझे सिंह ने हंस कर कहा।
“क्यों।” अमृतपाल व्यंग्य भरे शब्दों में कह उठा – “तूने भी टेम्पो खरीद लिया है।”
“नहीं उस्ताद जी ! मेरी इतनी औकात कहाँ।”
“तो फिर हम दोनों बराबर कैसे हो गये ?”
“आपका, टेम्पो गायब हो गया।”
“क्या ?” अमृतपाल के माथे पर बल पड़े।
“हाँ उस्ताद जी। जहां उसे खड़ा किया था। वहाँ तो क्या, आपका टेम्पो दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा। कोई ले उड़ा है उसे। उसके नट-बोल्ट खोलकर, इंजन वगैरह अलग करके बेच देगा, और बाकी का हिस्सा किसी कबाड़ी के हवाले कर देगा। आजकल ऐसा ही होता है आपका तो काम हो गया। दिल छोटा मत कीजिये, मैं हूँ आपके साथ। तो ब्याह का कौन-सा दिन पक्का करूँ उस्ताद जी... ? वो शुभ दिन...।”
“उल्लू का पठ्ठा.. !” अमृतपाल दाँत भींचकर उठ खड़ा हुआ, और बिल देने के बाद जल्दी से बाहर आ गया। बुझे सिंह उसके साथ था।
बाहर अँधेरा फैला था।
अमृतपाल ने सड़क पार नज़र मारी। टेम्पो नहीं था वहाँ।
“उस्ताद जी, मान लो मेरी बात। मैं झूठ क्यों बोलूँगा। अब हम दोनों की औकात बराबर..।”
“जुबान बंद रख बुझया वरना....।” अमृतपाल गुस्से से मुठ्ठियाँ भींचकर रह गया।
“ठीक है, उस्ताद जी।”
“कौन ले जा सकता है टेम्पो ?”
“चोर ही ऐसा काम करते हैं।”
“ये तो बहुत बुरा हुआ।” अमृतपाल परेशान-सा कह उठा – “मेरी रोजी-रोटी का वही तो सहारा था। टेम्पो हाथ से निकल गया तो मैं क्या करूँगा।”
“अजी करना क्या है ? मेरी बहन से ब्याह करो। रही बात रोटी-पानी की तो मिल-मिलाकर कहीं मेहनत करके दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ कर ही लेंगे।” बुझे सिंह ने ख़ुशी से कहा – “मेरी बहन भी कितनी खुश होगी कि बिना पैसे का बंदोबस्त हुए, मैनें उसके ब्याह का इन्तजाम कर दिया।”
गुस्से में अमृतपाल का हाथ उठा और बुझे सिंह के गाल से जा टकराया।
बुझे सिंह लडखडाया।
“तेरे को ज़रा भी शर्म नहीं कि मेरा टेम्पो चोरी हो गया है और तू खुशियाँ मना रहा है। अपनी बहन की शादी की ही बातें किये जा रहा है। मेरा टेम्पो ढूँढने की जरुरत नहीं समझी तूने...।”
बुझे सिंह अपना गाल मसलते हुए बोला।
“उस्ताद जी ! आपका टेम्पो चोरी हो जाने का मुझे बहुत दुख है। सच मानो। सीना चीर कर दिखा सकता होता, तो अब तक दिखा चूका होता। लेकिन मजबूर हूँ।” बुझे सिंह ने मुंह लटकाकर कहा – “रही बात टेम्पो ढूँढने की तो तुसी ही बताओ, कौन-सी गली या कौन-से चौराहे पर तलाश करूँ। टेम्पो ले जाने वाला तो अब तक उसे खोल-खाल के बेचने के लिए उसका इंजन भी निकाल चूका होगा।”
“अपनी गन्दी जुबान बंद रख।” अमृतपाल ने दाँत भींचकर कहा।
“जो हुक्म...।”
“चल...।”
“कहाँ ?”
“पुलिस स्टेशन...।”
“पुलिस स्टेशन ! क्यों मैंने थोड़े न टेम्पो चोरी किया है जो....।”
“उल्लू के पट्ठे, टेम्पो चोरी हो जाने की रिपोर्ट लिखाने जाना है पुलिस स्टेशन।” अमृतपाल ने दाँत भींचे।
“ओह ! फिर ठीक है।” बुझे सिंह कह उठा – “उस्ताद जी, पुलिस वाले भी बोत चालु होते हैं। चार महीनों के बाद उन्होंने टेम्पो की हेडलाइटें और खाली टूल बॉक्स हमारे सामने रख देना है और लिखवा लेंगे कि उन्होंने टेम्पो ढूंढ निकाला और हमारे हवाले कर दिया। अब सोचने की बात तो ये है कि उन दोनों हेडलाइटो को हाथ में पकड़ कर चार महीने बाद हम क्या करेंगे ? ये पहले सोच लें तो ठीक रहेगा।”
अमृतपाल का हाथ फिर उठने लगा कि बुझे सिंह जल्दी से कह उठा।
“चलिए उस्ताद जी ! पुलिस स्टेशन चलते हैं। टेम्पो की हेडलाइट ही मिल जाए। क्या बुरा है। भागते चोर की लंगोटी ही सही। रिपोर्ट लिखाने में क्या हर्ज है।”
☐☐☐
देवराज चौहान जब भटनागर के फ्लैट पर पहुंचा तो शाम के आठ बज रहे थे। जगमोहन कुछ देर पहले ही वहाँ पहुंचा था। उसे अकेला देखकर जगमोहन ने पूछा।
“सोहनलाल कहाँ है ?”
“वो कहीं से टेम्पो का इन्तजाम करके, रात को दस बजे हमें तयशुदा जगह पर मिलेगा।” देवराज चौहान ने कहा।
“टेम्पो ? वो किस वास्ते ?” जगमोहन के माथे पर बल पड़े।
“अब जो बताऊंगा, उसमें तुम्हे हर सवाल का जवाब मिल जाएगा।”
“इसका मतलब।” भटनागर के होंठ सिकुड़े – “हम आज रात वास्तव में अपना काम करने जा रहे हैं।”
हाँ....। तुम्हे जिस सामान का इन्तजाम करने को कहा था, वो कर लिया ?” देवराज चौहान ने पूछा।
“हाँ। नाले के भीतर, जिस चीज की जरुरत पड़ती है, जो तुमने नहीं कही, उसका भी इन्तजाम कर लिया है।”
देवराज चौहान ने चेहरे पर सोचें समेटे सिर हिलाया।
“पांच फीट व्यास के नाले के भीतर, जहां से हमें रास्ता बनाना है, यानि की जहाँ पर केटली एंड केटली के शोरूम का बेसमेंट है, उस जगह पर रात को ही निशान लगा दिया है, ताकि आज रात हमें वो जगह तलाश करने में परेशानी न हो। वक़्त खराब न हो।”
“जहाँ निशान लगाया है।” भटनागर बोला – “पक्का, उसके पार ही शोरूम का बेसमेंट है ?”
“पक्का क्या, कच्चा क्या। सोच-समझ कर ही वहां निशान लगाया है।” देवराज चौहान ने भटनागर को देखा – “जिस मेनहोल से हमें भीतर प्रवेश करके वहाँ तक पहुंचना है, उसके ऊपर जमीन पर कई मकान बने हुए हैं। इसलिए नपाई में कुछ अंदाजा भी इस्तेमाल करना पड़ा। मेरे ख्याल में शायद ठीक जगह निशान लगाया गया है।”
“लेकिन ये सब करना कैसे है ?” जगमोहन ने कहा।
देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।
“तुम बाहर ही रहोगे।”
“क्या मतलब ?” जगमोहन के चहरे पर अजीब से भाव उभरे।
“योजना के मुताबिक़ तुम्हे बाहर ही रहना है। हमारे साथ भीतर नहीं जाना है।” देवराज चौहान ने कहा।
“लेकिन... लेकिन मैं बाहर रहकर क्या करूँगा ?” जगमोहन के चेहरे पर उलझन नज़र आने लगी।
“बाहर भी काम है। अभी मालूम हो जायेगा। तुमने वो सब संभालना है।” तभी भटनागर बोला।
“वो हीरे किसी चीज में पैक हैं या... ?”
“पैक हैं। लैदर (चमड़े) की थैलियाँ हैं। पांच थैलियाँ जो कि आम लिफाफों के साइज़ की हैं। उन पर नंबरों वाले लॉक लगे हैं। ब्राउन कलर का लैदर है थैलियों का।”
“साढ़े चार अरब के हीरे उन लैदर की पांच थैलियों में आ गए ?” जगमोहन कह उठा।
“हो हीरे हैं। सोना नहीं। दस अरब के हीरे एक थैली में भी आ सकते हैं। हीरे से ज्यादा कीमती पत्थर इस दुनिया में नहीं। मुठ्ठी में आ जाने वाले हीरे की कीमत भी, दो अरब या इससे ज्यादा हो सकती है। किसी हीरे को अपनी कीमत का एहसास कराने के लिए बड़ी जगह की जरुरत नहीं। वो जेब में भी आ सकता है।” कहने के पश्चात देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई।
“हमें काम कैसे करना है, इस बारे में बताओगे ?” भटनागर कह उठा।
“वही बताने जा रहा हूँ। सुन लो तुम दोनों...। कोई बात ठीक न लगे तो कह सकते हो।”
जगमोहन और भटनागर की निगाहें, देवराज चौहान पर जा टिकीं।
☐☐☐
पुलिस स्टेशन में मौजूद कांस्टेबल ओमवीर ने अमृतपाल और बुझे सिंह को घूरा।
“क्या बात है ?”
“साहब जी !” अमृतपाल ने हाथ जोड़कर कहा – “टेम्पो सड़क के किनारे खड़ा करके ढाबे पर खाना खाने गए कि बाहर आने पर, टेम्पो को गायब पाया। कोई चोरी करके ले गया है। टेम्पो ही मेरी रोजी-रोटी का जरिया था। उसे ढूंढ निकालिए। इंस्पेक्टर साहब से कहा तो उन्होंने बोला, आप के पास रिपोर्ट लिखा दूं...।”
“हूँ...।” ओमवीर ने अकडू ढंग से सिर हिलाया – “नंबर क्या था टेम्पो का ?”
“2000...।”
“मैं सन नहीं पूछ रहा। टेम्पो का नम्बर पूछ रहा हूँ जो चोरी हो गया है।”
“जी 2000...।”
“बहरा है क्या ? सुना नहीं मैनें क्या पूछा है ?”
“जनाब वही तो बता रहा हूँ।”
“टेम्पो का नम्बर...।”
“जी हाँ। 2000, MRP 2000।”
“हूँ ठीक है। बताते जाओ। कौन-से ढाबे के बाहर खड़ा था। कितने बजे खड़ा था ? कितनी देर खड़ा रहा, और कौन चोरी करके ले गया ?” कांस्टेबल ओमवीर कागज़ और पेन संभालता हुआ बोला।
“साहब जी, मुझे तो पता नहीं कौन चोरी करके ले गया। हम तो खाना..।”
“ठीक है। ठीक है। तुम बताते जाओ। मैं लिख रहा हूँ रिपोर्ट...।”
बीस मिनट लगे रिपोर्ट लिखने में।
ओमवीर ने ऐसे सांस ली जैसे छूटकारा मिला हो।
“इंस्पेक्टर जी !” बुझे सिंह कह उठा – “तो हम अब कब आएं वो हेडलाइट और खाली टूल बॉक्स लेने...।”
“क्या ?”
“साहब जी... !” अमृतपाल जल्दी से कह उठा – “इसका मतलब है कि टेम्पो के बारे में मालूम करने कब आयें ?”
“कब तक मिल जाएगा वो.. ?”
“तुम्हारा पता लिख लिया है। जब मिलेगा, खबर कर देंगे।
बीच में फेरा भी लगाते रहना। रही बात कि कब तक मिल जाएगा, तो इस सवाल के जवाब में इन्तजार करो।” कांस्टेबल ओमवीर ने मुंह बनाकर कहा – “कम से कम टेम्पो तो चोरी होने के बाद, किस्मत वाले को ही वापस मिलता है। कार वगैरह होती तो शायद दो-चार महीनों में मिल जाती। जाओ। अभी मुझे भी खाना खाना है।”
अमृतपाल और बुझे सिंह पुलिस स्टेशन से बाहर आ गए।
“उस्ताज दी, एक काम तो बढ़िया हो गया।” बुझे सिंह कह उठा।
“क्या ?” अमृतपाल का मन रोने को कर रहा था।
“खाना खा लिया। वरना अब खाने का मजा नहीं आता, टेम्पो चोरी होने के बाद...।”
“तू अपनी जुबान बंद रखा कर..।” अमृतपाल गुस्से से बोला।
“ठीक है। टेम्पो की बात नहीं करता। मैं जानता हूँ टेम्पो की याद आते ही आपका मन दुखता है। उस्ताद जी, वो पुलिस वाला भी कह रहा था कि टेम्पो चोरी होने के बाद, किस्मत वालों को ही मिलता है और आपकी किस्मत इतनी तेज तो है नहीं। आज्ञा हो तो दूसरी तरफ सोचें।”
“दूसरी तरफ ?”
“हाँ। टेम्पो तो मिलने वाला नहीं। हम दोनों की औकात अब एक दूसरे से छिपी नहीं है। अब तो आप मेरी बहन से शादी कर सकते हो। उसके बाद रोटी-पानी के इन्तजाम के लिए कोई ठईया वगैरह देख लेते हैं। सुना है चाय का धंधा भी बुरा नहीं। तो हो जाए उस्ताद जी..।”
अमृतपाल का हाथ उठा और बुझे सिंह के गाल से जा टकराया। अमृतपाल के चेहरे पर गुस्सा ही गुस्सा नज़र आ रहा था। वो खा जाने वाली नज़रों से बुझे सिंह को देखने लगा।
बुझे सिंह अपना गाल मसलता कह उठा।
“उस्ताद जी, बुरे वक़्त में रास्ता बताना तो मेरा फ़र्ज़ है। अब आप मानों या न मानों, ये तो आपकी मर्जी ही है। जरुरी तो नहीं ना कि मेरी बात आपको पसंद आये।”
☐☐☐
रात के ग्यारह बज रहे थे।
पुलिस स्टेशन की भागा-दौड़ी अब कुछ थम-सी गयी थी। जबकि शाम को पुलिस स्टेशन में काफी आवा-जाही थी। सड़क पर से गाड़ियाँ निकल रही थीं। उनकी हेडलाइटें कभी-कभार थोड़ी-बहुत इधर पड़ जाती थी। वरना स्ट्रीट लाइट की मध्यम रौशनी ही वहाँ पहुँच रही थी।
देवराज चौहान की कार काफी दूर खड़ी थी, जिसमें रात को काम आने वाला सामान लाया गया था। जगमोहन मैली-सी पैंट और वैसी ही कमीज में टेम्पो के पास खड़ा था। कार में से सामान निकालकर टेम्पो में रखा गया और सोहनलाल उसके साथ बैठ गया।
“चल...।” सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट सुलगा ली।
“पुलिस स्टेशन की तरफ... ?” जगमोहन ने टेम्पो आगे बढाते हुए पूछा।
“हाँ...।”
तीन मिनट के भीतर ही टेम्पो पुलिस स्टेशन के पास पहुँच गया।
“इधर।” सोहनलाल बोला – “मेनहोल इधर है। मेनहोल के पास ही, पुलिस स्टेशन के गेट की तरफ टेम्पो खड़ा करना, ताकि मेनहोल को आड़ मिल सके।”
जगमोहन ने वैसे ही टेम्पो को खड़ा किया। मेनहोल के पास। टेम्पो को दूसरी तरफ सौ गज आगे पुलिस स्टेशन का गेट नज़र आ रहा था और अभी-अभी पुलिस जीप निकालकार गयी थी।
जगमोहन ने इंजन बंद किया। हेडलाइट ऑफ की और नीचे उतरकर बोनट खोला और इंजन से छेड़छाड़ करने लगा। सोहनलाल उतर कर जब पास पहुंचा तो जगमोहन बोला।
“अब टेम्पो स्टार्ट नहीं होगा।”
सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट का कश लिया।
“मुझसे ज्यादा तुम लोग सुरक्षित रहोगे। रात भर टेम्पो के पास, पुलिस स्टेशन के बाहर...।” जगमोहन ने गहरी सांस ली – “कोई भी पुलिस वाला आकर टोक सकता है। शक भी कर सकता है की...।”
“कुछ घंटो की बात है।” सोहनलाल लापरवाही से बोला – “कुछ नहीं होगा।”
जगमोहन कुछ नहीं बोला।
पंद्रह मिनट बाद देवराज चौहान और भटनागर पैदल ही वहां आ पहुंचे।
“सब ठीक है ?” देवराज चौहान ने दबे स्वर में पूछा।
“हाँ...।” सोहनलाल ने सिर हिलाया।
फिर उन्होंने पैनी निगाहों आस-पास दौड़ाई।
उसके बाद देवराज चौहान नीचे झुका और मेनहोल का ढक्कन उठाकर एक तरफ किया तो उसी पल भटनागर फुर्ती के साथ मेनहोल में उतर गया।
देवराज चौहान और जगमोहन टेम्पो में पडा सामान उठा-उठाकर भटनागर को थमाते, तो भटनागर उस सामान को मेनहोल में नीचे रख देता।
दो मिनट में ही ये सारा काम निपट गया।
इसके बाद सोहनलाल मेनहोल में उतरा।
फिर देवराज चौहान मेनहोल में उतारते हुए जगमोहन से बोला।
“जैसा समझाया है, वैसा ही करना...।”
“ठीक है।”
देवराज चौहान मेनहोल में उतर गया। अब वे नज़र आने बंद हो चुके थे। जगमोहन ने जल्दी से मेनहोल का ढक्कन उठाकर वापस रखा। उसके बाद खुले बोनट में हाथ डालकर इंजन में पैदा की खराबी ठीक की फिर ड्राइविंग सीट पर बैठकर टेम्पो स्टार्ट किया। बिना हेडलाइट जलाये, उसे आगे-पीछे करके, टेम्पो को मेनहोल के ऊपर खड़ा कर दिया। यानि की मेनहोल तक पहुँचने के लिए, टेम्पो के नीचे से सरक कर जाना पड़ता।
इसके बाद इंजन बंद करके जगमोहन नीचे उतरा और पुनः बोनट खोलकर खराबी पैदा कर दी कि टेम्पो स्टार्ट न हो सके। बोनट खुला ही रहने दिया। फिर, टेम्पो में से पुराना-सा कपडा निकाला और बोनट की तरफ नीचे बिछाकर लेट गया। वहां से नीचे ही मेनहोल का ढक्कन नज़र अ रहा था। साथ ही वो मन ही मन सोच रहा था कि क्या वो लोग साढ़े चार अरब रूपए के हीरे हासिल करने में कामयाब हो जायेंगे ? जरूर होंगे। इस विचार के साथ ही जगमोहन का दिल जोरों से धड़का। तभी उसकी निगाह टेम्पो के नम्बर पर पड़ी तो बरबस ही मुस्कुरा पड़ा।
क्योंकि सन 2000 चल रहा था और टेम्पो का नम्बर भी 2000 ही था।
यानि कि अमृतपाल का टेम्पो...।
☐☐☐
सबसे पहले भटनागर ने पांच फीट व्यास वाले सूखे नाले में तीव्र रोशनी वाली टॉर्च ऑन की। रौशनी दूर-दूर तक नाले में फ़ैल गयी। नाले में कोई ख़ास गन्दगी नहीं थी। चलने के लिए रास्ता साफ़ था। पांच फीट की उंचाई होने की वजह से उन्हें झुक कर रहना पड़ रहा था।
एक ऑक्सीजन सिलेंडर कल का पड़ा था। दो वे आज साथ लाये थे। सबसे पहले तीनों ने सिलेंडरों को पीठ पर बांधकर, ठीक से सांस लेने के लिए ऑक्सीजन का इंतजाम किया। भटनागर फेसमास्क लगाने लगा तो सोहनलाल ने टोका।
“इसकी जरुरत नहीं। पाइप में कहीं भी ऐसी गन्दगी नहीं है कि जहरीली गैस बन सके। कल हमने ये बात अच्छी तरह देख ली थी। रास्ता भी साफ़ है।”
भटनागर ने फेसमास्क नहीं लगाया।
तीनों ने हाथ में टॉर्चें थामीं। सोहनलाल ने वो थैला उठा लिया जिसमें पावरफुल कटर मौजूद था और नीचे रखी, चार्ज हुई भारी बैटरी को दायें-बायें से देवराज चौहान और भटनागर ने उठा लिया।
बैटरी फुल चार्ज थी और कटर को पूरा करंट दे सकती थी कि वो अपना काम कर सके।
धीरे-धीरे, नाले की छत से बचते सिर झुकाये वे आगे बढ़ने लगे। तीन टॉर्चों की तीव्र रौशनी नाले की उस पाइप में सूर्य की रोशनी का मुकाबला कर रही थी।
“कितनी देर लगेगी, वहाँ तक पहुँचने में ?” भटनागर ने पूछा।
“बारह-पंद्रह मिनट...।” देवराज चौहान ने कहा।
“इसका मतलब हम एक-दो घंटे में अपना काम करके बाहर होंगे।” भटनागर कह उठा।
“ख्याल तो ऐसा ही है।”
आगे सोहनलाल टॉर्च थामे चल रहा था।
☐☐☐
“अरे ओ केसरिया.... !”
“हाँ सरदार !”
“नपाई पूरी हो गयी का ?”
“हो गयी सरदार..।” केसरिया ने कहा – “ये ई वो जगह है।”
टॉर्च की रोशनी में दोनों ने नाले के पाइप की उस जगह को देखा।
“तो यहीं तोड़-फोड़ करनी हौवे का ?”
“हाँ सरदार। इसी के पीछे चार-पांच अरब के हीरे पड़े हैं।” केसरिया ने कहा।
“निकाल तो ज़रा छैनी-हथौड़ा। यो सुसरी नाले की दीवार को तो हम दो बार में ही तौड़ देवें।”
कंधे पर लटके थैले में से छैनी-हथौड़ा निकालता हुआ केसरिया कह उठा।
“इसके पीछे, वो जमीन के नीचे बने कमरे की दीवार भी हौवे है सरदार...।”
“फ़िक्र क्यों करत हो केसरिया ! अब हमारा रास्ता कोई दीवार न रोक सकत।”
चम्बल का मशहूर डाकू नानकचंद। जो कि नानू के नाम से जाना जाता था। हर तरफ उसका आतंक कायम था। गाँव के गाँव उसके नाम से खौफ खाते थे। पुलिस भी उससे दूर रहना ही पसंद करती थी, परन्तु छः महीने पहले, उसके और उसके गिरोह की मुठभेड़ पुलिस वालों से हो गयी। उस मुठभेड़ में उसके गिरोह का तो कोई आदमी नहीं मरा लेकिन आठ पुलिस वाले मारे गए। वो पुलिस वाले क्या मरे, नानकचंद उर्फ़ नानू का जीना हराम हो गया।
पुलिस ने उसके गिरोह का जीना हराम कर दिया। ऊपर से और भी पुलिस वाले आ गए। बड़े ऑफिसर भी आ गए। उन सबका एक ही मकसद था डाकू नानकचंद उर्फ़ नानू को ख़त्म करना। नानकचंद समझ गया कि पुलिस हाथ धोकर उसके पीछे पड़ चुकी है। देर-सवेर में वो पुलिस वालों की गोली का निशाना बनकर ही रहेगा। ऐसे में समझदारी थी कि वो यहाँ से भाग ले।
केसरिया, नानकचंद का दायाँ हाथ था। विश्वासी आदमी था।
नानकचंद ने इस बारे में केसरिया से बात की तो केसरिया फ़ौरन वहाँ से खिसकने को तैयार हो गया। क्योंकि सिर पर मंडराते पुलिस के खतरे को वो भी भांप चूका था। दोनों ने तय किया कि इसके बारे में अपने गिरोह के किसी आदमी से बात नहीं करेंगे, क्योंकि कोई भी पुलिस का मुखबिर हो सकता है। और उसी रात, चुपचाप वाले ढंग से जितना माल वो साथ ले सकते थे, लिया और घोड़ों पर सवार होकर खामोशी से गिरोह को छोड़कर निकल गए। सीधा स्टेशन पहुंचे। आधी रात का वक़्त हो रहा था।
प्लेटफ़ॉर्म पर गाड़ी छुटने को तैयार खड़ी थी।
दोनों उसमें सवार हो गए।
मुम्बई जा रही थी वो ट्रेन।
इस तरह दोनों मुम्बई पहुँच गए। पास में पैसा तो था ही। अपना हुलिया ठीक करवाया। नए कपडे लिए। किराये पर एक कमरा ले लिया। यानि कि अब उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वे दोनों चम्बल के खतरनाक डाकू है। खुद को यु.पी. के गाँव से आया ही बताते। दो-तीन महीने तो आराम से खा-पीकर ही बिताये जब पास में मौजूद माल हल्का होता नज़र आया तो कहीं मोटा हाथ मारने के लिए भागदौड़ करने लगे। वे जान चुके थे कि शहर में मोटे माल पर हाथ मारा जा सकता है। वरना चम्बल के आसपास गाँवों-शहरों में तो लाख-दो लाख से ज्यादा एक बार में हाथ नहीं आते। इसी बीच उनकी पहचान भी कई लोगों से हो गयी थी, परन्तु किसी को भी अपना असली परिचय नहीं बताया था।
इसी बीच उन्हें किसी तरह खबर मिली कि केटली एंड केटली शोरूम में अरबों के हीरे पहुँचने वाले हैं। ये सुनते ही उन्होंने हीरों को पाने के लिए भागादौड़ी शुरू कर दी। दोनों अपने दीमागों को दौड़ाने लगे। और ये उन दोनों की सोच-समझ का ही नतीजा था कि’ इस वक़त दोनों उसी रास्ते से हीरों को पाने की चेष्टा में थे, जिस रास्ते से देवराज चौहान ने हीरों को पाने की योजना बनायी थी।
नानकचंद उर्फ़ नानू, पचपन बरस का छः फीट का, सेहतमंद व्यक्ति था। भारी चेहरा सपाट ही रहता, परन्तु आँखों में क्रूरता और काईयाँपन भरा रहता। चम्बल के डाकू ने जीवन में आज तक कितनों की जाने ली हैं, इसका हिसाब उसके पास नहीं था। उसके करीबी जानते थे कि वो खतरनाक इंसान है।
केसरिया। वैसे केसर सिंह नाम था उसका, परन्तु अब उसे केसरिया ही कहते थे। वो पचास बरस के आसपास था। लम्बाई में नानकचंद से कुछ कम था। सेहत ठीक-ठाक थी। जान लेने में उसे कभी भी परहेज नहीं रहता था। सारी उम्र, लूटपाट और छीना-झपटी में ही बिताई थी। बीते दस-बारह बरसों से वो नानकचंद के साथ था और दोनों में अच्छी पटती थी।
केसरिया ने भारी हथौड़ा और लम्बी छैनी निकालकर नानकचंद को दी।
“पांच मिनट में याँ से रास्ता बनता नज़र आवे केसरिया।” कहते हुए नानकचंद नीचे बैठ गया।
इसे पहले कि नानकचंद छैनी-हथौड़े का इस्तेमाल करता, दूर पांच फीट व्यास के नाले में दोनों ने रोशनी चमकती देखी।
दोनों चौंके। चेहरों पर अजीब से भाव उभरे।
“सरदार ! यहाँ कोई और लोग भी हैं।” केसरिया के होंठों से निकला।
“पुलिस न हौवे। बाकी तो सब ठीक है।” दाँत भींचे कहते हुए नानकचंद ने कपड़ों में छिपा रखी रिवाल्वर निकाल ली। छैनी-हथौड़ा पहले ही वो नीचे रख चूका था।
रोशनी करीब आती जा रही थी।
“का करें सरदार... ?”
“अभी देखता रह।” नानकचंद दाँत भींचे कह उठा।
केसरिया ने हाथ में पकड़ी टॉर्च सामने की तरफ कर दी।
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देवराज चौहान, सोहनलाल और भटनागर ठिठके। चेहरों पर अजीब से, हैरानी के भाव आ गए। देवराज चौहान की आँखें सिकुड़ चुकी थीं। होंठों में खिंचाव आ गया था।
तीनों की नज़रें कुछ दुरी पर नज़र आ रही टॉर्च की रौशनी पर थी, जो उनकी तरफ थी और उनकी टॉर्चों की रोशनी भी सामने की तरफ उठ चुकी थी। स्पष्ट देख रहे थे वे कि इसी नाले में सामने दो लोग मौजूद हैं। कई सेकंड तक उनके बीच खामोशी रही। चार्ज बैटरी नीचे रख दी गयी।
“ये... ये लोग कौन हैं ? यहाँ क्या कर रहे हैं ?” भटनागर के होंठों से निकला।
देवराज चौहान ने होंठ भींचे रिवाल्वर निकाल ली।
तीनों रुक चुके थे।
“एक ने रिवाल्वर भी निकाली हुई है।” सोहनलाल ने सतर्क स्वर में कहा।
“लेकिन ये हैं कौन... ?” यहाँ क्या कर रहे हैं ?” भटनागर का स्वर कठोर होने लगा था।
“ये यहाँ वही कर रहे हैं, जो हम करने आये हैं।” देवराज चौहान शब्दों को चबाकर बोला।
“क्या ? मतलब कि ये भी केटली एंड केटली के शोरूम से हीरे निकालने आये हैं।” सोहनलाल के माथे पर बल पड़े।
“हाँ। इसके सिवाय इनके यहाँ होने का कोई मतलब नहीं।” देवराज चौहान ने भींचे स्वर में कहा।
“लेकिन... लेकिन ये आये कैसे भीतर ? हम तो...।”
“इन्होने भीतर आने के लिए दूसरे मेनहोल को इस्तेमाल किया होगा, जो सड़क के बीचों-बीच हैं।” कहते हुए देवराज चौहान सोहनलाल से आगे आ गया – “सावधान रहना। अब कुछ भी हो सकता है।”
“ख़त्म करो सालों को।” भटनागर गुर्राया – “ये दोनों...।”
‘खामोश रहो। इस तरह की कोई गलती मत कर देना भटनागर।” देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा – “ये लोग समझदार लग रहे हैं। एक तो इनका यहाँ तक पहुँच जाना और फिर रिवाल्वर हाथ में होने पर ही हम पर गोली न चलाना। कोई बेवकूफ होता तो कब का हम पर फायर कर चूका होता। बात करके देखते हैं।”
“क्या बात करेंगे !” भटनागर ने कड़वे स्वर में कहा – “हम यहाँ हीरे लेने आये हैं और...।”
“हीरे तो वो भी लेने आये हैं।” देवराज चौहान ने तीखे स्वर में कहा – “बेहतर होगा, बीच में मत बोलो। कोशिश यही करनी है कि खून-खराबे की नौबत न आये।” कहने के साथ ही देवराज चौहान सावधानी से आगे बढ़ने लगा।
भटनागर ने दाँत भींचकर सोहनलाल से कहा।
“देवराज चौहान पागल है जो...।”
“अभी तक तो उसका दीमाग ठीक है।” सोहनलाल ने शांत स्वर में कहा – “तुम अपने बारे में सोचो।”
देवराज चौहान तीन कदम ही आगे बढ़ा होगा कि नानकचंद का खूंखार स्वर उसके कानों में पड़ा।
“वहीँ ठहर जा।”
देवराज चौहान फ़ौरन ठिठक गया।
“पहले ये बताई दे कि तू पुलिस वाला है ?”
“नहीं।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
“झूठ मत बोलियो। मैं चेहरे देखकर पुलिस वालों को पहचान लेता हूँ।” नानकचंद का स्वर पुनः आया।
“मैं पुलिस वाला नहीं हूँ।”
“हूँ। ठीक है। आ जा।”
देवराज चौहान पुनः आगे बढ़ा।
भटनागर और सोहनलाल पीछे थे।
देवराज चौहान उनसे चार कदम पहले ठिठक गया। टॉर्च की तीव्र रौशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी।
“केसरिया... !”
“हाँ सरदार।”
“रोशनी नीचे कर ले। इन तीनों में से कोई भी पुलिस वाला नहीं है।” नानकचंद ने कहा।
केसरिया ने टॉर्च वाला हाथ नीचे कर लिया। चार टॉर्चों की रोशनी ने वहाँ दिन जैसा उजाला फैला रखा था। देवराज चौहान और नानकचंद पैनी निगाहों से एक-दूसरे को देख रहे थे।
“कौन है तू ?” नानकचंद गुर्राया।
“पहले तुम अपने बारे में बताओ।” देवराज चौहान शब्दों को चबाकर कह उठा।
“जो पूछूं बोलता रह। वरना गोली अन्दर उतार दूंगा।”
नानकचंद गुर्रा उठा।
“रिवाल्वर मेरे पास भी है।” देवराज चौहान ने पहले वाले स्वर में कहा।
“मेरे पास भी है।” एक कदम पीछे खड़ा सोहनलाल कह उठा।
भटनागर ने भी रिवाल्वर वाला हाथ हिलाया।
“जब दो आदमी बात कर रहे हों तो, चूहों को बीच में नहीं बोलना चाहिए।” नानकचंद खतरनाक स्वर में कह उठा - “इसे देख ये केसरिया बीच में बोला क्या ?”
“तूने चूहा किसे कहा ?” भटनागर ने दाँत किटकिटाकर, रिवाल्वर वाला हाथ उठाया।
नानकचंद के कुछ कहने से पहले ही देवराज चौहान कठोर स्वर में बोला।
“भटनागर, खामोश हो जाओ। चुप...।”
होंठ भींचे भटनागर ने रिवाल्वर वाला हाथ नीचे कर लिया।
देवराज चौहान और नानकचंद की नज़रें पुनः मिलीं।
“कौन हो तुम ?” देवराज चौहान ने पूछा।
“ये पूछ मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ ?” नानकचंद एकाएक मुस्कुरा पड़ा।
“क्या कर रहे हो तुम ?”
“जो तू करने आया है।” नानकचंद मुस्कुरा रहा था।
देवराज चौहान की आँखे सिकुड़ी।
“केसरिया... !”
“हां सरदार।”
“अब का करें ? ये लोग तो बहुत मौके पर आये। हम न तो इधर के रहे न उधर के। चम्बल होता तो अब तक काम ही निपटाई देता पर अब का करें केसरिया ?” नानकचंद अपनी मूछों पर हाथ फेरता हुआ कह उठा।
“चम्बल की पैदाइश मुम्बई में...।” सोहनलाल के होंठों से निकला।
“तुम हीरे लेने आये हो ?” देवराज चौहान ने नानकचंद को घूरा।
“हाँ। चार-पंच अरब के हीरे हैं।” नानकचंद मूंछ पर हाथ फेर रहा था – “यूँ तो अब तक तुम तीनों को गोली मार दी होती। लेकिन सोचा, गोली की आवाज़ से सारा मामला धरा ही न रह जाए।”
भटनागर के होंठों से हल्की-सी गुर्राहट निकली।
“मतलब कि समझौता करना चाहते हो।” देवराज चौहान ने होंठ सिकोड़ कर कहा।
“केसरिया !”
“हाँ सरदार...।”
“इसके साथ भी वो ही करें जो एक बार भोलाराम के साथ किया था।”
“आधा-आधा सरदार...।”
“हाँ। वही कर लेते हैं। झगडे से क्या फायदा ! दो अरब के हीरे भी मिले तो बहुत हैं।”
“ठीक है सरदार...।” केसरिया ने सिर हिलाया – “समझौता कर लो...।”
नानकचंद ने देवराज चौहान को देखकर सिर हिलाया।
“सुना, केसरिया क्या कहता है ?”
“कोई जरुरत नहीं।” भटनागर गुर्रा उठा – “उडाओ सालों को गोली से...।”
देवराज चौहान मुस्कुराया।
नानकचंद की सतर्क निगाहें उस पर ही थीं। हाथ में तैयार, रिवाल्वर दबी थी।
“नाम क्या है तुम्हारा ?” देवराज चौहान का स्वर सामान्य था।
“नानकचंद...।”
“तो नानकचंद, समझौता कई तरह का होता है। आधा-आधा ही नहीं होता।”
“क्या मतलब ?”
देवराज चौहान ने हाथ में दबी टॉर्च की रौशनी उनके आसपास नाले की पाइप पर डाली।
“केटली एंड केटली शोरूम के बेसमेंट तक पहुँचने का रास्ता कहाँ से है ?” देवराज चौहान ने पूछा।
“हूँ।” नानकचंद व्यंग्य से बोला – “तो रास्ता जान लेना चाहते हो।”
“रास्ता कहाँ से जाता है, ये हमें मालूम है। कल हम आ चुके हैं। ये बात चेक कर चुके हैं। अगर तुम समझौते की किसी हद तक पहुंचना चाहते हो तो मेरी बात का जवाब दो।” देवराज चौहान ने कहा।
“केसरिया !”
“हाँ सरदार।”
“ये हमसे चालाकी तो नहीं कर रिया।”
“ऐसा लगता तो नहीं है।” केसरिया ने कहा।
“लगता तो हमें भी नहीं है। फिर भी सोचा पूछ ही लें।”
केसरिया ने सिर हिलाया फिर देवराज चौहान से कह उठा – “जो तुम पूछ रहे हो, उससे समझौते का क्या मतलब हौवे ?”
“है। तभी तो पूछ रहा हूँ। जवाब दो मेरी बात का।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने रिवाल्वर जेब में डाल ली।
नानकचंद सिर हिलाकर बोला।
“मैं भी रिवाल्वर जेब में डालूं का ?”
“रख लो।”
“तुम्हारे आदमियों के हाथों में...।” नानकचंद ने बात अधूरी छोड़ी।
“रिवाल्वरें वापस रख लो।”
दोनों ने रिवाल्वरें वापस रखीं। भटनागर कड़वे स्वर में बड़बड़ा उठा।
“मामला मेरे हाथ में होता तो अब तक सब कुछ बराबर कर दिया होता।”
नानकचंद ने रिवाल्वर जेब में डाली और एक जगह थपथपा कर बोला।
“इस जगह के पार बेसमेंट है।”
“ठीक है। इस जगह के पास केटली एंड केटली का बेसमेंट है तो तुम आधे-आधे के हकदार हुए।” देवराज चौहान बोला।
“नहीं तो... ?”
“नहीं तो चौथाई के...।”
नानकचंद ने देवराज चौहान को घूरा।
“ये क्या बात हुई... ?”
“ये बात हुई।” देवराज चौहान ने कहा – “क्योंकि तुम गलत जगह बता रहे हो। ठीक जगह कौन-सी है, वो मैं जानता हूँ। चौथाई तुम्हे इसलिए मिलेगा कि इस नाजुक वक़्त में तुम यहाँ मौजूद हो।”
“हूँ।” और अगर मेरी बताई जगह के पीछे ही वो जगह निकली तो ?
“तो चौथाई हमारा।”
नानकचंद के चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे।
“केसरिया.. !”
“हाँ सरदार।”
“क्या कहता है ये ?”
“सरदार, हिस्सेदारी की बात तो हिसाब लगाकर ही कर रहा है।” केसरिया ने कहा।
“बाद में हेराफेरी पर उतर आया तो ?”
“निपट लेंगे सरदार...।”
नानकचंद सिर हिलाकर, देवराज चौहान से बोला।
“ठीक है। तुम्हारा समझौता मंजूर...।”
“अभी एक बात का समझौता बाकी है।”
“क्या बचत हो अभी... ?”
“वो हीरे। बेसमेंट के स्टील रूम में मौजूद हैं। और उसका ताला खोलना आसान नहीं। कैसे खोलोगे उसका ताला। ये सब मालूम करके ही यहाँ तक पहुंचे होंगे।” देवराज चौहान ने कहा।
“ये कौन-सी बड़ी बात है। छैनी रखकर, हथौड़े से ऐसी चोट मारें कि ताला गायब हो जाये। क्यों केसरिया ?”
“ठीक बोला सरदार...।”
देवराज चौहान मुस्कुराया।
“ये चम्बल का माल, यहाँ कहाँ से आ गया ?” सोहनलाल गहरी सांस लेकर मन ही मन बडबडाया।
“अगर इस तरह तुम ताला न खोल सके और मैनें अपने ढंग से खोल लिया तो फिर तुम्हे तिहाई का भी आधा मिलेगा।” देवराज चौहान बोला।
“और अगर हमने छैनी-हथौड़े से खोल लिया तो ?”
“तो हम तिहाई का आधा ले लेंगे।” देवराज चौहान मुस्कुराया – “बाकी सब तुम्हारा..।”
“और खोलने का पहला मौका किसे मिले हो ?”
“पहला मौका भी तुम्हारा होगा।”
“क्यों केसरिया...।”
“बात तो ये ठीक बोले है सरदार...।”
“बाद में गड़बड़ की तो ?”
“निपट लेंगे सरदार...।”
नानकचंद सिर हिलाकर कह उठा।
“ठीक है। हम में समझौता हो गए हो।”
देवराज चौहान ने छैनी-हथौड़े को देखा।
“रास्ता कैसे बना रहे थे ?”
“छैनी-हथौड़े से दस मिनट में रास्ता...।” नानकचंद ने कहना चाहा।
बेवकूफी वाली हरकत मत करो। हथौड़े के चोटों की आवाजें बाहर तक भी जा सकती हैं।” देवराज चौहान ने बात काटकर कहा – “ये काम ड्रिल मशीन जल्दी और बिना शोर कर देगी...।”
“ड्रिल मशीन है क्या ?” नानकचंद ने पूछा।
“हाँ...।”
“लेकिन उसे चलाने के लिए बिजली कहाँ से... ?”
“इन्तजाम है करंट का भी। वो देखो। फूल साइज़ की चार्ज हुई बैटरी। ड्रिल मशीन बैटरी से चलेगी। जाओ बैटरी को उठाकर यहाँ लाओ।” देवराज चौहान ने कहा।
“मैं लाऊं ?” नानकचंद के माथे पर बल पड़े – “मैं सरदार हूँ अपने गिरोह का और...।”
“इस काम में बड़ा-छोटा कोई नहीं होता जाओ काम करो।”
“ठीक है।” नानकचंद बैटरी की तरफ बढ़ा।
भटनागर ने उसके साथ बैटरी को उठाना चाहा।
“रहने दे। नानकचंद का दम-ख़म जानता नहीं अभी तू...।”
भटनागर पीछे हट गया।
और नानकचंद ने उस भारी बैटरी को, आसानी से अकेले ही उठाकर वहाँ रख दी।
उसके बाद भटनागर, सोहनलाल और केसरिया, नानकचंद की बनाई जगह में, रास्ता बनाने की तैयारी में लग गए। उंचाई कम होने के कारण वहाँ सिर झुकाए खड़ा होना पड़ रहा था। ऐसे में देवराज चौहान नीचे बैठ गया।
कोई काम न पाकर नानकचंद भी उसके पास आ बैठा।
“तुमने अपने बारे में नहीं बताया...।” नानकचंद बोला।
“क्या बताऊँ ?”
“अपना नाम, अपना परिचय। मेरा नाम तो तुम जान ही चुके हो। मैं चम्बल का खतरनाक डाकू हूँ। लेकिन पुलिस के दबाव से मुझे चम्बल से भागना पड़ा। तुम कौन हो ?”
“मेरा नाम ही मेरा परिचय है। देवराज चौहान कहते हैं मुझे...।”
नानकचंद ने सिर हिलाया अगले ही पल जोरों से चौंका।
“क्या ?” नानकचंद हडबडाया – “क्या नाम बताया ? देवराज चौहान...।”
“हाँ...।”
“वो.. वो शहरी डकैत.. !” नानकचंद हक्का-बक्का था।
“क्या ?”
“म... मेरा मतलब कि व.. वही देवराज चौहान, जो डकैतियाँ करता है। अखबारों में डकैतियों के बारे में ख़बरें छपती हैं। जिसे पुलिस नहीं पकड़ पा रही। व... वही हो तुम। देवराज चौहान...।”
“मालूम नहीं...।” देवराज चौहान ने गहरी सांस ली – “लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि मेरा नाम देवराज चौहान है। डकैतियाँ ही डालता हूँ मैं और अखबारों में खबर छापना आम बात है।”
“ओह !” नानकचंद के स्वर में अजीब-से भाव आ गए – तुम वही देवराज चौहान हो। तुम्हारे बारे में तो हम चम्बल में बातें किया करते थे। चम्बल का हर डाकू तुम्हारा लोहा मानता है। क्या ढंग है तुम्हारा डकैतियाँ करने का ? हम तो सोचा करते थे तुम कैसे होगे। ओ केसरिया !?”
“हाँ सरदार।”
“जान हो ये देवराज चौहान हो। वो ही जिसकी बातें हम चम्बल में करते थे।”
“सच सरदार...।”
“सरदार का झूठ बोलो हो।”
तभी ड्रिल की आवाज़ गूंज उठी। जो कि भटनागर के हाथ में भी।
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