धर्मपुरे जैसे बदनाम इलाके का यह निहायत ही घटिया बार था, यह दूसरी बात थी कि इस इलाके में यही बार किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं था । भीतर प्रवेश करते ही बहुत बड़ा हॉल था। जहां कुर्सियां और टेबल लगा रखी थीं । पीने वाले बोतलों और शीशे के गिलास सहित जमे बैठे थे । किसी शरीफ व्यक्ति का तो यहां मतलब ही नहीं था । यहां सब शहर के छठे हुए बदमाश थे । शहर में होने वाले सत्तर प्रतिशत जुर्मो की जड़ इसी धर्मपुरे में थी । हर मुजरिम इस इलाके में आकर खुद को सुरक्षित समझता था।
बार में एक तरफ केबिन बने हुए थे, जहां दरवाजों के स्थान पर, गाढ़े रंग का, हरा मैला, मोटा-सा पर्दा लटक रहा था । बाहर के केबिन बड़े-बड़े दादाओं के लिये ही आरक्षित रहते थे ।
पिछले कुछ दिनों से इस बार में बिल्कुल नया चेहरा नजर आ रहा था । उम्र कोई चालीस के आस-पास होगी । सूखा, पतला और लम्बा । गालों में गड्ढे पड़े हुए थे । तीखी नाक और चालाकी से भरी चमकती आंखें । सिर के बाल आधे सफेद और आधे काले थे । चूंकि वह सब आधा इंच लम्बे थे, इसलिए बेतरतीबी से फैले हुए थे । बदन पर अक्सर काली पैंट और चार खानों वाली कमीज ही दिखाई देती थी । सस्ती-सी सिगरेट का पैकिट और माचिस हमेशा उसके बायें हाथ में दबा रहता । यह जुदा बात थी कि उसे कभी-कभार पीते हुए देखा जाता ।
पहले दिन तो वह हॉल के कोने में टेबल पर बैठा हॉल में निगाहें दौड़ाता रहा । करीबन वह चार घंटे वहां बैठा होगा और इन चार घंटों में उसने सिर्फ एक पैग शराब का ही पिया । इस बीच न तो वह किसी से बोला और न ही किसी ने आकर उससे बात करने की चेष्टा की, सिवाय वेटर के । फिर रात के साढ़े बारह बजे वह उठा और बाहर निकल गया।
अगली रात नौ बजे वह फिर आया और कल वाली जगह पर बैठकर हॉल में निगाहें दौड़ाने लगा । आधे से ज्यादा टेबिलें भरी हुई थी और वह जानता था कि घंटे भर में यह सारी जगह नामी-गिरामी बदमाशों से भर जायेगी । लगभग डेढ़ घंटे के पश्चात उसने वेटर को शराब का पैग लाने को कहा । पैग आने पर वह धीरे-धीरे चुस्कियां लेने लगा ।
आधे घंटे में कहीं जाकर पैग समाप्त हुआ तो उसने सिगरेट का कश लिया, फिर इस तरह कश लेने लगा कि सिगरेट ज्यादा देर तक चले ।
एकाएक वहां संभलकर बैठ गया । कुछ दूर टेबल के गिर्द पड़ी कुर्सियों पर पांच व्यक्ति बैठे शराब पी रहे थे। सहसा एक उठकर उसकी तरफ बढ़ने लगा । आने वाला पैनी निगाहों से उसे देख रहा था। वैसी ही निगाहों से वो भी उसे देखने लगा । वो आकर उसकी टेबल के पास रुक गया, हाथ में शराब का गिलास मौजूद था जिसे वो आते समय अपने टेबल से उठा लाया था ।
"कल तुझे पहली बार देखा था और आज दूसरी बार...आने वाला होंठ सिकोड़ कर बोला--- "कौन है तू...?"
"तुम्हारी ही तरह शरीफ इंसान हूं ।" वो शांत भाव से कह उठा।
"मैंने तुमसे पूछा है कौन है तू...?" इस बार उसका स्वर उखड़ गया--- "ज्यादा हीरो बनने की कोशिश न कर, वरना वरना...।"
"वरना तू मुझे उठाकर बाहर फेंक देना...।"
"नहीं, ऐसा घटिया काम मैं नहीं करता ।" कहने के पश्चात उसने एक ही सांस में गिलास खाली करके टेबल पर रखा और जेब से गरारी वाला चाकू निकालकर, उसका फल खोला और उसके चेहरे के सामने लहराकर बोला--- "अब समझा ।"
चाकू देखकर उसके चेहरे पर क्षण भर के लिए घबराहट के भाव आये फिर तुरन्त ही संभल गया । उसकी आंखों की पुतलियां बता रही थी कि उसका जेहन बहुत तेजी से काम कर रहा है ।
तभी चाकू वाले के अन्य चार साथी भी वहां पहुंचे । वो सब इस अंदाज में खड़े हो गए कि उनके बीच वो घिरकर रह गया। परन्तु अपनी भरपूर कोशिशों के कारण, वो लापरवाही से कुर्सी पर ही जमा रहा, उसने आने वाले अन्य चारों पर निगाह डाली, फिर उंगलियों में फंसी सिगरेट को शराब के खाली गिलास में डाल दिया, जो कि क्षण भर तड़पकर बुझ गई।
"चाकू जेब में रख ले बेटे।" उसने अपने स्वर में आत्म-विश्वास भरकर कहा ।
"मेरे पास भरा हुआ रिवाल्वर है ।"
"साला धमकी देता है ।" एक में क्रोध भरे स्वर में कहा ।
"जब तक तेरा रिवाल्वर बाहर आयेगा, तब तक चाकू पेट में घुसकर पीठ के रास्ते से बाहर निकल जायेगा ।"
"अगर इतना ही भरोसा है तो तू चाकू चला सकता है ।" कहते हुए क्षण भर के लिए उसकी आंखों में भय आया--- "लेकिन उससे पहले ही गोली तेरी खोपड़ी को फाड़कर रख देगी । शायद तुझे नजर नहीं आ रहा कि मेरी उंगली रिवाल्वर के ट्रेगर पर है और उसमें छः गोलियां भरी हुई हैं।"
सबने हैरानी से उसके हाथों को देखा जो कि खाली टेबिल पर पड़े थे ।
"तुम्हारे हाथ तो खाली हैं ।" तीसरे ने आश्चर्य से कहा।
"अपनी-अपनी समझ का फेर है ।" वो अजीब से स्वर में बोला--- "तुम जैसे बहुत-से मेरे हाथों मर चुके हैं, जिन्होंने मेरे हाथों को खाली समझा...।"
वो पांचो एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे ।
"इधर-उधर से कुर्सियां खींच लो और यहीं बैठ जाओ ।" वो फौरन बोला ।
"शराफत से पूछोगे तो हर बात का जवाब मिलेगा, नहीं तो...।"
पांचों ने फौरन निर्णय किया। चाकू वाले ने चाकू बंद करके जेब में डाला, फिर उन्होंने अन्य टेबिलों से उठाकर वहां लगाई और वहीं जम गये। एक पहले वाली टेबिल से शराब की बोतल और गिलास उठा लाया। शराब के गिलासों में पड़ी और महफिल गर्म हो उठी ।
उसके क्लास में भी शराब डाल दी गई । ये सब देखकर उसके चेहरे पर राहत के भाव आ गये । आंख विजयपूर्ण मुस्कान से चमक उठी ।
"अब कहो गुरु ! तुम चीज क्या हो ?" एक ने उत्सुकता से पूछा, "कहां से आये हो ?" अब तक कौन-कौन से गुल खिलाएं हैं ?"
उसकी थोड़ी-सी अकड़ गई । थोड़ी-सी छाती फूल गई।
उसने ऐसी निगाहों से सबको देखा जैसे सब बिना उसकी इजाजत के वहां आ बैठे हो ।
"मेरा नाम ही मेरा परिचय है ।"
"क्या नाम है तुम्हारा ?"
"सोहनलाल ।"
"दो पल वहां पर चुप्पी छाई रही ।"
"हम समझे नहीं, तुम किस सोहनलाल की बात कर रहे हो ?"
कहने वाले के चेहरे पर उसकी कठोर निगाहें जम गईं, फिर अगले ही पल उसका हाथ चला और कहने वाले के गाल पर जा पड़ा ।
"हरामजादे ।" एकाएक सोहनलाल गुर्राया--- "अंडरवर्ल्ड में कितने सोहनलाल भरे पड़े हैं, जो मुझे अपना परिचय देना पड़ेगा । आंखें फाड़कर देख, बम्बई का मशहूर गैंगेस्टर सोहनलाल तेरे सामने बैठा है।"
उसके इन शब्दों के साथ ही वहां सबको सांप सूंघ गया । हर किसी की हालत ऐसी हो रही थी। जैसे उन्हें शेर के पिंजरे के भीतर फेंक दिया हो। हाथों में पकड़े शराब के गिलासों में घूंट भरना भूलकर, सूख रहे होंठों को जीभ से गीला करने लगे। गलों में खुश्कीपूर्ण कांटे चुभ रहे थे ।
तभी जैसे उन्हें होश आया। सबने हाथों में पकड़े शराब के गिलास खाली किये और गहरी-गहरी सांसे लेने लगे।
"ए... ए... क...बात कहूं उस्ताद, बुरा तो नहीं मानोगे ?"
"कहो ।" सोहनलाल कहने वाले की उखड़ी निगाहों से देखने लगा।
कहने के पूर्व उसके चेहरे पर हिचकिचाहट के भाव उभरे ।
"उस्ताद ।" वो सूखे होंठों पर जीभ फेरकर बोला ।" आज से करीब दो महीने पहले तुम्हारे गैंग की टक्कर बम्बई पुलिस से हो गई थी और पुलिस ने तुम्हारे सारे गैंग को मारकर, तुम्हें भी मार दिया था, तुम्हारे मरे की तस्वीर देशभर के सारे अखबारों में छपी थी ।"
"मैं तुम्हारे सामने बैठा हूँ न ?" सोहनलाल होंठ भींचकर बोला ।
"हां...हाँ ।"
"तो फिर वह सब बातें भूल जाओ, जो अखबार में छपी थी। सोहनलाल को मारना पुलिस वालों के बस का नहीं है । वो सब मेरी ही चाल थी जो कामयाब रही, अब कानून की निगाहों से मैं मरा हुआ हूं और हकीकत तक जिंदा हूँ।"
एक बार फिर तीखा सन्नाटा वहां छा गया ।
"उस्ताद, गिलास को खाली करो ।"
सोहनलाल ने भौहें सिकोड़कर कहने वाले को देखा जो खींसे निपोर रहा था, फिर उसने ऐसे गिलास उठाया जैसे बहुत बड़ा अहसान कर रहा हो । तत्पश्चात एक घूंट भरने के पश्चात बुरा-सा मुंह बनाते हुए गिलास नीचे रख दिया ।
"क्या हुआ उस्ताद ?"
"बहुत घटिया शराब है, बिल्कुल स्प्रिट की तरह ।"
"माफ करना उस्ताद, हमें ध्यान नहीं रहा, अभी बढ़िया माल लेकर आता हूँ ।" कहने के पश्चात वो उठा और तेज कदमों से बार काउंटर की तरफ बढ़ गया ।
"मेरी गलती माफ कर देना उस्ताद, मैंने तुम पर चाकू खोल दिया था ।" चाकू वाला सिर झुकाकर पश्चाताप भरे स्वर में बोला ।
"गलती तब होती, जब तुम शौक चढ़ा देते, इस समय माफी मांगने के लिए भी जिंदा न होते ।" सोहनलाल ने अपना स्वर खतरनाक बना कर कहा।
"लेकिन उस्ताद, तुम दो महीने कहां रहे ?" दूसरे ने पूछा ।
पुलिस की निगाहों से बचने के लिए अंडरग्राउंड हो गया था, उसके बाद बम्बई से सैकड़ों मील दूर यहां प्रकट हो गया ।
"यह तो अच्छा बहुत अच्छा किया उस्ताद, नहीं तो हमारी किस्मत में कहां था कि आप जैसे नामी और खतरनाक गैंगस्टर के साथ बैठकर शराब पीते ।"
सोहनलाल की छाती फूल गई ।
"वक्त-वक्त की बात है, अगर कभी बम्बई में मिले होते तो अंग्रेजी शराब में तुम्हें नहला देता, जेबों में नोट भर देता...लेकिन अब...। सोहनलाल ने गहरी सांस ली, 'अब तो ये हालत है कि सिगरेट पीने तक को पैसे नहीं हैं।"
"फिक्र मत करो उस्ताद, हमारे होते हुए चिंता करने की जरूरत नहीं ।" कहते हुए उसने जेब से सौ-सौ के कुछ नोट निकालकर टेबल पर रख दिये, "यह थोड़ा-सा नजराना है । कल किसी मोटी मुर्गी का गला काटकर मोटा माल दूँगा ।"
सोहनलाल ने विचार भरी निगाहों से नोटों को देखा, फिर टेबिल पर पड़े अपने पैकेट में से सिगरेट निकालकर सुलगाई ।
"क्या नाम है तेरा ?"
"जग्गा ।"
"जग्गा?" सोहनलाल ने लम्बा कश खींचकर उसे देखा,
"बहुत जल्द मैं यहां पर अपना गैंग स्थापित करने जा रहा हूँ । बम्बई से भी खतरनाक गैंग, तब मैं तुझे याद रखूंगा ।"
"शु...शुक्रिया...उस्ताद ।"
"उस्ताद थोड़ा-सा माल मेरे पास भी है ।" दूसरा बोला है ।
"थोड़ा-सा मेरे पास भी ।"
फिर सबने नोट निकालकर टेबल पर रख दिये।
"मैं तुम सबका ध्यान रखूँगा ।" करते हुए सोहनलाल ने नोट उठाये और जेब में डाल लिये, फिर उठते हुए बोला, "मुझे एक जरूरी काम याद आ गया है, अब कल मुलाकात होगी ।"
"ऐसी भी जल्दी क्या है उस्ताद, ये अंग्रेजी आपके लिए है और देसी हम सबके लिए ।" एक बोतल लेकर वहां आ पहुंचा ।
सोहनलाल ने विचार भरी निगाहों से बोतल को देखा ।
"मुझे अफसोस है कि मैं रुक नहीं सकता । आज रात मुझे पचास लाख सोने की खेप मिलने वाली है । जिसे लेने जाना मेरे लिए निहायत जरूरी है ।" कहने के पश्चात उसने हाथ बढ़ाकर अंग्रेजी शराब की बोतल ले ली।
"मैं तुम्हारा दिल नहीं तोड़ना चाहता, बोतल ले जा रहा हूं। फुर्सत में मैं पी लूंगा ।" बोतल लिये सोहनलाल आगे बढ़ा ही था कि सामने से आते वेटर ने टोका ।
"पैग के पैसे ?"
सोहनलाल ने हाथ के अंगूठे से टेबिल की ओर इशारा किया और आगे बढ़ गया । आंखों में विजयपूर्ण चमक लहरा रही थी।
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कमरे में प्रवेश करके सोहनलाल ने लाइट ऑन की और घड़ी मे वक्त देखा । रात के बारह बज रहे थे । चेहरे पर धूर्तता पूर्ण मुस्कान थिरक रही थी । हाथ में थमी शराब की बोतल मेज पर रखी और सिगरेट सुलगाकर कश लिया ।
कमरे में टूटी-फूटी चारपाई और एक तिपाई के अलावा कुछ नहीं था । पीछे खुलने वाली खिड़की, गंदे नाले के साथ सटी हुई थी, इसी कारण हर समय कमरे की हवा में दुर्गंध व्याप्त रहती।
सोहनलाल ने जेब से नोट निकालकर चारपाई पर रखे और उन्हें गिनने लगा । सौ-सौ के इक्कीस नोट थे । सोहनलाल के होंठों से हंसी उबल पड़ी । उसने नोट वापस जेब में रखे और तिपाई पर शराब की बोतल की सील खोलकर, उसे होंठों से लगा लिया ।
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अगले दिन सोहनलाल नहा-धोकर जब बदबूदार कमरे से बाहर निकला, तो दिन के ग्यारह बज रहे थे। उसने एक बढ़िया से रेस्टोरेंट में नाश्ता किया और बाजार की तरफ बढ़ गया।
उसका इरादा दो जोड़ी कपड़े खरीदने का था । पिछले कई दिनों से इन्हीं कपड़ों को धो-धोकर पहन रखा था, अब तो यह घिसने के पश्चात फटने को तैयार थे । बाजार तक पहुंचने में उसे आधा घंटा लग गया । वहां काफी भीड़ थी, वह भीड़ में जगह बनाकर आगे बढ़ता हुआ अपनी मनपसंद की दुकान ढूंढने लगा ।
तभी पीछे से धक्का लगा । वो बिजली की-सी फुर्ती से घूमा और उसका हाथ एक कलाई पर जम गया ।
जिसकी कलाई उसके हाथ में थी, वो बीस-बाईस बरस का हीरो टाइप युवक था । दोनों की आंखें मिलीं।
किसी का ध्यान भी उन पर न था।
"क्यों खलीफा ?" सोहनलाल गुर्राया--- "जेब काटता है ।"
नोटों का पुलिंदा युवक की मुट्ठी में बंद हो चुका था, अगर सोहनलाल फुर्ती से उठकर उसकी कलाई न पकड़ता तो अब तक वो इस भीड़ में जाने कहां गुम हो चुका होता ।
"छोड़ दे मेरा हाथ...।" युवक दांत भींचकर बोला ।
"मेरे नोट मुझे वापस दे...।" सोहनलाल ने अपना स्वर खतरनाक बनाकर कहा ।
तभी युवक का दूसरा हाथ जेल में गया और उसने चाकू बाहर निकालकर सोहनलाल की कमर में लगा दिया । सोहनलाल का शरीर जोर से कांपा । चेहरे पर हल्की-सी सफेदी उभर आई।
अगर किसी की निगाह उन पर पड़ी, तो आंखें दूसरी तरफ फेर लीं।
"चाकू हटा ले, मेरी जेब में भरा हुआ रिवाल्वर है...।" सोहनलाल गुर्राया ।
"जेब में है न...?" युवक दांत किटकिटाकर बोला ।
"हाँ ।"
"चिंता मत कर, वो जेब में ही रहेगा और ये चाकू पूरा-का-पूरा अंदर घुस जायेगा, मेरी कलाई छोड़ दे...।" युवक का स्वर खतरनाक हो गया ।
"शायद तुझे नजर नहीं आ रहा, मेरी उंगली रिवाल्वर के ट्रिगर पर है।"
तभी चाकू की नोंक सोहनलाल की कमर में चुभी। सोहनलाल ने घबराकर उसकी कलाई छोड़ दी ।
युवक नोटों सहित भीड़ में गुम हो गया।
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आज सोहनलाल ने बार में प्रवेश किया, तो दस बज रहे थे । चारों तरफ अंधेरा छा चुका था । भीतर लाइट जगमगा रही थी। सोहनलाल दो कदम ही आगे बढ़ा होगा कि कल वाले पांचों युवकों में से दो फौरन उसके पास पहुंच गये।
"आओ उस्ताद, आज तो देर कर दी ।" एक ने खुशामदी स्वर में कहा ।
सोहनलाल बिना उनकी ओर देखे, हॉल में निगाहें दौड़ाता हुआ बोला...।" आज दोपहर में, शहर से बाहर चला गया था । चूँकि यहां अपना गैंग तैयार करना है, इसलिए भागदौड़ करनी पड़ रही है । बहुत प्यास लग रही है, यहां कहीं ठंडा पानी नहीं है ?" सोहनलाल अपने गले पर हाथ फेरकर बोला ।
"तुम चलो उस्ताद...मैं बढ़िया पैग बनाकर लाता हूँ । सारी प्यास रफूचक्कर हो जायेगी ।" कहने के साथ ही वो बार के काउंटर की तरफ बढ़ गया ।
"आओ उस्ताद, मेरे पास आओ ।"
"कहाँ...?"
"वहां सामने टेबल पर ।" उसने खींसे निपोरकर कहा--- "मेरे कुछ और दोस्त भी वहां पर बैठे हैं । सोचा, आपसे मिलाकर उनके भाग्य भी जगा दूँ ।"
सोहनलाल ने निगाहें घुमाकर देखा, तो एकबारगी सकपका उठा । बहुत सारे टेबिलों को आपस में मिलाकर तीस फुट लम्बी टेबल बना रखी थी । उसके आसपास कुर्सियों की लाइन लगी हुई थीं । जिन पर करीब पच्चीस व्यक्ति मौजूद थे और अधिकांश उसकी तरफ ही देख रहे थे । जाहिर है वो सब यहां के छठे हुए बदमाश होंगे ।
सोहनलाल ने अपने सामने खड़े व्यक्ति को देखा ।
"तुमने मुझसे पूछे बिना, मेरा परिचय सबको क्यों दिया...?" सोहनलाल गुर्राया।
सोहनलाल के चेहरे के भाव देखते ही उसका गुलाबी चेहरा सफेद पड़ गया । मुस्कुराती आंखों में भय सिमट आया । होंठ भद्दे अंदाज में मुड़ गये ।
लोहा गर्म देखकर सोहनलाल ने चोट की और दांया हाथ घूसे की शक्ल में घुमा दिया । जो कि उसके चेहरे से जा टकराया। वो चीख होंठों में दबाकर दो कदम लड़खड़ाकर पीछे हो गया ।
सोहनलाल ने पुनः हाथ उठाया ।
"म...म...मु...झे माफ कर दो उस्ताद...।" वो फौरन दोनों हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा उठा ।
सोहनलाल का आधा उठा हाथ रुका, फिर नीचे आ गया । चौड़ी छाती फूलकर कुप्पा हो गई । कुछ गर्दन अकड़ गई ।
"आइन्दा मेरे से संबंधित जो भी काम हो, सोच कर करना...।" सोहनलाल ने खतरनाक स्वर में कहा, फिर उसकी पीठ थपथपाकर बोला--- "चलो, टेबल पर चलते हैं। मैं कम-से-कम पब्लिसिटी चाहता हूं, अगर पुलिस को मालूम हो गया कि मैं सोहनलाल हूं, तो मुझे यहां से भागना पड़ेगा ।"
"गलती हो गई उस्ताद, फिर कभी ऐसी गलती नहीं होगी।
इस दो मिनट के वक्त के बीच ही सबकी निगाहें सोहनलाल पर टिक चुकी थी । शायद सोहनलाल के पास खड़ा व्यक्ति कोई नामालूम हस्ती नहीं थी और उसका इस तरह घूसा खाकर सोहनलाल के सामने हाथ जोड़ना जाहिर करता था कि सोहनलाल कोई बड़ा मगरमच्छ है ।
वहां मौजूद सब सोहनलाल को पैनी निगाहों से देख रहे थे ।
सोहनलाल शाही से, उस व्यक्ति के साथ चलता हुआ, टेबल की तरफ बढ़ा । उसके दोनों हाथ कुछ इस तरह से आगे-पीछे हो रहे थे जैसे हैंगर पर लटकी कमीज की बाहें तेज हवा में झूल रही हो।
तभी पैग लाने वाला सामने आ खड़ा हुआ। उसने एक हाथ से पैग पकड़ा था और दूसरे हाथ से हथेली को ट्रे का रूप दिया हुआ था
"उस्ताद, प्यास को फौरन भगा देने वाला स्पेशल पैग ।"
सोहनलाल ने पैग को देखा, विचारपूर्ण मुद्रा में क्षण भर सोचा, फिर हाथ बढ़ाकर पैग उठाया और एक ही सांस में समाप्त करके, खाली पैग उसे वापस थमाया, फिर हथेली से होंठों को साफ किया ।
"मजा आया उस्ताद ?"
"हाँ...बहुत ज्यादा आया ।" सोहनलाल लापरवाही से कह उठा--- "एक और लेकर आओ, ऐसा पैग पीकर प्यास और बढ़ गई है ।"
"अभी लाया उस्ताद ।" वह तेजी से पुनः कार की तरफ बढ़ गया।
सोहनलाल उसके साथ पुनः टेबल की तरफ बढ़ने लगा
"उस्ताद, आज जो लोग आपसे मिलने वाले हैं, उनमें से हर कोई अपने इलाके का खतरनाक दादा है । लोग तो उनका नाम सुनकर कांपते हैं । पुलिस वाले इनसे दूर रहने में ही अपना भला समझते हैं । और...।"
"चाहें जो भी हो ।" सोहनलाल उसकी बात काटकर बोला--- "इनमें से कोई भी मुझसे ज्यादा खतरनाक नहीं हो सकता ।"
"हाँ उस्ताद, आपके सामने तो सब बच्चे हैं । आप अकेले हो, तब भी यहां लोग आपका मुकाबला नहीं कर सकते ।" उसने फौरन सहमति से सिर हिलाया।
सोहनलाल की छाती पुनः चौड़ी हो गई ।
सोहनलाल के टेबल के पास पहुंचते ही एक ने सामने वाली कुर्सी को खींचा और आदर भरे स्वर में बोला---
"आओ उस्ताद, हम कब से आपका इंतजार कर रहे हैं ।"
सोहनलाल ने देखा, उसके लिए बिल्कुल सामने वाली कुर्सी रखी गई थी, जहां से वो टेबल के गिर्द कुर्सियों पर बैठे, हर एक का चेहरा आसानी से देख सकता था । उसने भी कुर्सी की पीठ पर हथेली थपथपाई, फिर जेब से सिगरेट निकालकर सुलगाने के पश्चात वो हिला और कुर्सियों पर बैठे व्यक्तियों के पास जाकर, उनके चेहरे पर भरपूर निगाह डालने लगा।
जिसको भी सोहनलाल देखता वो आदर भाव से खड़ा हो जाता, जबकि हर कोई एक-से-एक बढ़कर खतरनाक 'दादा' था।
सबको देखने के बाद सोहनलाल वापस अपनी कुर्सी पर आ बैठा ।
अब सोहनलाल हॉल में बैठे अन्य बदमाशों की उत्सुकता का केंद्र बन गया था । सबकी आश्चर्यपूर्ण दृष्टि उस पर ही थी।
इसी बीच सोहनलाल दूसरा स्पेशल पैग भी पी चुका था और उसे तीसरा पैग लाने को भेज दिया था । सिगरेट का सुलगाया 'टोटा' उसने पास खड़े बदमाश को थमा दिया, जिसने फौरन आगे बढ़कर, उसे ऐश ट्रे में मसल दिया।
"इन लोगों को यहां क्यों इकट्ठा किया गया है ?" सोहनलाल ने बेहद शांत स्वर में, अपने पास खड़े व्यक्ति से पूछा ।
"उस्ताद...जब इन्होंने आपके बारे में सुना तो हर कोई आपसे मिलने को बेचैन हो उठा । सो, ये आपके दर्शन करने आ गये ।
सोहनलाल ने गंभीरता से सिर हिलाया ।
"एक जेब कतरे का हुलिया सुनो...।" सोहनलाल बोला ।
"कहो उस्ताद ।"
"बाईस-चौबीस साल की उम्र होगी। पतला, लम्बा घुंघराले बाल। जब बोलता है, तो नीचे के दांत नजर आते हैं । आज उसने सफेद रंग के कपड़े पहन रखे थे। उसने मेरी जेब काटी है। जब मैंने रिवाल्वर निकालकर उसे शूट करना चाहा, तो उसने चाकू का इस्तेमाल किया । भीड़ बहुत थी, इसलिए मैंने रिवाल्वर का इस्तेमाल नहीं किया ।"
"ये घटना कहां हुई ?"
"ग्रांड रोड पर, ग्यारह के आस-पास का वक्त होगा ।"
इतना सुनते ही वहां बैठे दादाओं में से एक दादा उठ खड़ा हुआ ।
"उस्ताद, ग्रांड रोड मेरा इलाका है, अगर आप मुझे आधे घंटे का वक्त दें तो मैं आपकी जेब काटने वाले को यहां हाजिर कर दूँ ।"
"क्या नाम है तुम्हारा ?"
"सोमनाथ ।"
"हूं । ठीक है । मैं तुम लोगों की काबिलियत देखना चाहता हूं ।" सोहनलाल ने उसे देखकर एहसान भरे स्वर में कहा ।
थैंक्स उस्ताद । कहने के पश्चात वो तेजी से एक तरफ बढ़ गया ।
उसके जाने के बाद सोहनलाल ने सब पर सरसरी निगाह डालकर कहा ।
"आप सब लोगों से मिलकर, मुझे वास्तव में खुशी हुई । चूंकि यहां हमारी पहली मुलाकात है, इसलिए आज छोटा-सा जश्न होगा ।" कहने के पश्चात उसने पास खड़े बदमाश को देखा--- "जश्न का प्रबंध करो ।"
"अभी लो उस्ताद ।" वो तेजी से बार काउंटर की तरफ बढ़ गया ।
इतने में सोहनलाल का तीसरा स्पेशल पैग आ गया।
कुछ ही देर में टेबिल पर शराब की अंग्रेजी बोतलें सज गईं, फिर महफिल गर्म हुई, शराब पेट में जाने लगी और मुंह से शब्दों की बौछार । अब तक जो सोहनलाल के व्यक्तित्व के कारण दबे से थे, वो खुलकर बातें करने लगे । सोहनलाल उन्हें अपने खास किस्से बताने लगा, जिससे सुनने वाले दांतो तले उंगलियां दबा रहे थे । बोतलें खाली होती जा रही थी । महफिल का रंग अब सिर पर चढ़कर बोलने की कोशिश कर रहा था ।
तभी सोमनाथ वहां आ पहुंचा । उसके साथ चार दादा थे।
जिनके बीच वो जेबकतरा युवक घिरा हुआ था । जिसने सुबह सोहनलाल की जेब काटी थी ।
"उस्ताद...।" सोमनाथ सोहनलाल के पास पहुंचकर बोला--- "यही था वो लड़का, जिसने आपकी जेब काटी और आपको चाकू दिखाया था ।"
जेब काटने वाला युवक थरथर कांपने लगा । उसने एक ही निगाह में पहचान लिया कि शहर के बड़े-बड़े दादा वहां मौजूद थे । और वो सोहनलाल की ही ताजपोशी में लगे हुए थे । आंखों के सामने उसे अपनी मौत दिखाई देने लगी ।
सोहनलाल ने शराब का गिलास टेबल पर रख और आंखें मिचमिचाकर सोमनाथ को देखने के पश्चात युवक को देखा।
"हाँ...। साला यही था जिसने मुझे चूहा समझकर, चाकू मेरी कमर में लगाया था । क्यों बेटे, अब क्या हाल है ? उन नोटों से कितनी ऐश की ?" सोहनलाल शराब के नशे में, आंखें नचाकर कह उठा ।
"नौसिखिये की औलाद ।" सोमनाथ ने एक हाथ से उसके चेहरे सिर के बाल पकड़े और दूसरा हाथ झापड़ के तौर पर उसके चेहरे पर जमा दिया--- "उस्ताद की जेब काटता है। तेरी यह हिम्मत।
बालों का खिंचाव । पूरे वेग से पड़ा चेहरे पर थप्पड़ और मन में मौत का खौफ, इन सब बातों ने उसे पहले ही अधमरा कर दिया था । शरीर का दर्द लिए वो गिरा और तड़पकर उठते हुए उसने सोहनलाल के पांव को पकड़ लिया । चेहरे पर करुणा टपक रही थी ।
"मुझे माफ कर दो, यहां सब अंजाने में हुआ, मुझे मालूम नहीं था । आप हम सबके खुदा है । एक बार मुझे माफ कर दीजिए जिंदगी भर आपके पांव धोकर पीता रहूँगा ।" कहने के साथ ही उसकी आंखों से आंसू बहने लगे ।
इससे पहले सोहनलाल कुछ कहता, सोमनाथ ने पुनः उसके बाल पकड़े और उसे खड़ा करके दरिंदगी भरे स्वर में बोला---
"उस्ताद का माल निकाल हरामजादे।"
युवक ने कांपते हाथों से, पैंट की जेब से नोट निकाले और उसकी तरफ़ बढ़ाये ।
"मुझे नहीं, उस्ताद के चरणों में डाल इन्हें ।"
युवक ने फौरन हारकर सारे नोट सोहनलाल के पैरों के पास रख दिये । उसका पूरा जिस्म थरथर कांप रहा था।
अन्य बदमाशों ने फौरन नोट उठाकर, सोहनलाल के सामने टेबल पर रख दिये । सोहनलाल का सीना क्षण-प्रतिक्षण चौड़ा होता जा रहा था । गर्दन ऊंची उठती जा रही थी । उसने नोट उठाकर अपनी जेब मे डाल लिये ।
"मैं तुमसे बहुत खुश हूं सोमनाथ ।"
"थैंक्यू उस्ताद ।" सोहनलाल के सामने झुकता हुआ बोला--- "आप कभी मुझे सेवा का मौका दें तो मैं खुद को भाग्यशाली समझूंगा ।"
सोहनलाल ने अपने हाथों से शराब गिलास में डाली और गिलास सोमनाथ की तरफ बढ़ाते हुए मुस्कुराया।
"जिससे मैं बहुत खुश होता हूं, उसे अपने हाथों से जाम बनाकर पिलाता हूँ ।"
"शुक्रि...या उस्ताद ।" सोमनाथ ने झुककर दोनों हाथों से गिलास इस तरह थामा जैसे भगवान उसे अमृत दे रहे हो ।
फिर सोहनलाल ने अपना गिलास खाली किया और युवक से बोला ।
"क्यों बे, क्या नाम है तेरा ?"
"सुन्दर... सुन्दर लाल ।" वो सूखे होंठों पर जीभ फेरकर कह उठा।
"सुन्दर ।" सोहनलाल ने बड़बड़ा कर कहा, "कब से कर रहा है जेब काटने का धंधा ?"
"ब...बचपन... से ।"
"चाकू कब से जेब में रखना शुरू किया ?"
"चा... चा... र साल हो गये ?"
"कभी किसी को मारा भी है ?"
"न...नहीं सिर्फ डराता हूँ ।"
क्षण भर के लिए सोहनलाल को, दिन में हुई चाकू की चुभन याद आ गई जो सुन्दर के दबाने से कमर में हुई थी।
"बोल अब, तेरा क्या किया जाये ?"
"मुझे म...मा...फ कर...।"
"तूने उस्ताद पर चाकू उठाया है ।" सोमनाथ गरज उठा--- "तुझे माफ नहीं किया जा सकता ।" फिर वो पलटकर साथ आये चार दादाओं से बोला, "इस हरामजादे को यहां से ले जाओ और टुकड़े करके इसकी लाश किसी नाले में फेंक दो ।"
'न...हीं...।" सुन्दर के होंठों से चीख निकली, जैसे अभी से ही उसे जिबह किया जा रहा हो। वो सोमनाथ के पांवों से लिपट गया ।
सोमनाथ ने जोर से टांग को झटका दिया तो सुन्दर छिटक कर दूर जा गिरा । उसकी सिसकियां बराबर गूंज रही थीं।
सोमनाथ के आदेश पर चारों दादाओं ने सुन्दर को जकड़ लिया।
"अरे भाई, क्यों गुस्सा कर रहे हो ।" सोहनलाल मुंह बनाकर सोमनाथ से कहने लगा, "छोड़ दो बेचारे को उसका तो धंधा ही जेब काटने का है और फिर मेरे मुंह पर तो नहीं लिखा कि मैं सोहनलाल हूँ ।" सोहनलाल के इशारे पर चारों दादाओं ने उसे छोड़ दिया ।
सुन्दर सिसकता सोहनलाल के पांव में आ गिरा
सोहनलाल ने उसके सिर पर हाथ फेरा और प्यार से बोला--- "चल उठ । बच्चों की तरह रोया नहीं करते, अबे कुर्सी ला मेरे शागिर्द के लिए ।" सोहनलाल ने पास खड़े बदमाश को देखा ।
अगले ही पल वहां कुर्सी हाजिर हो गई । सोहनलाल ने उसे कुर्सी पर बिठाया और टेबल पर पड़ा शराब का गिलास सुन्दर के हाथ में थमा दिया
सुन्दर के चेहरे का रंग वापस लौटने लगा ।
बात आई-गई हो गई । महफिल वापस अपने रंग पर लौटने लगी । खाली होने के साथ-साथ नई बोतलें टेबल पर आ गईं और फिर सोहनलाल अपनी बीती गैंगस्टर जिंदगी के कारनामे शान से बताने लगा । सुनने वालों के सिर रबड़ की गुड़िया की भांति नीचे-ऊपर हो रहे थे।
सोहनलाल की हैसियत शाही मेहमान जैसी हो चुकी थी ।
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रात के एक बजे सोहनलाल बार से निकला तो उसकी जेब में नोटों का काफी मोटा पुलन्दा था । कल वाले पांचों बदमाशों ने नोटों का बंडल उसे भेंट किया था । महज इसलिए कि जब वह अपना गैंग स्थापित करे, तो उन्हें भी शामिल कर ले ।
बाहर निकलते समय साथ में सुन्दर भी था । ठंडी हवा के झोंकों के कारण शराब का नशा छटने लगा।
"उस्ताद ।" सुन्दर दबे स्वर में बोला, "आज आपने रहम न किया होता तो मैं अब तक मर चुका होता ।"
"अबे छोड़, मुर्दों की तरह बातें न कर सोहनलाल ने उसके कंधे पर हाथ मारा--- "ये बता जेब में कितना माल है ?"
"म...माल ! तीन-चार सौ रुपया होगा उस्ताद।"
"निकाल ।"
सुन्दर ने जेब से नोट निकालकर सोहनलाल की हथेली पर रखे, सोहनलाल ने नोटों को जेब में डालकर कहा---
"रात बहुत हो गई है । जा अब घर जाकर सो, मुझे भी नींद आ रही है ।" सोहनलाल ने उसकी पीठ थपथपाई और अपने रास्ते बढ़ गया।
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अगले दिन सुबह जब सोहनलाल नहा-धोकर तैयार हुआ और बाहर आकर कल वाले बढ़िया रेस्टोरेंट में नाश्ता करने के पश्चात वो मार्केट की ओर बढ़ गया । ताकि कुछ जोड़ी कपड़े खरीद सके । कल तो जेबकतरे के कारण कपड़े खरीदने का काम अधूरा रह गया था । आज कल की अपेक्षा कहीं ज्यादा उसकी जेब में नोट मौजूद थे । इसलिये दिल को आखिर तक तसल्ली थी।
कपड़े खरीदने के पश्चात वो यूँ ही मार्केट में घूमता रहा । नाई की दुकान में शेव बनवाई और दोपहर को थ्री-स्टार होटल में लंच करने के पश्चात वापस अपने बदबूदार कमरे में आ गया ।
बदन पर पड़े घिसे मैले, कुचैले कपड़े उतारकर उसने अब पिछली तरह की खिड़की खोलकर गंदे कपड़े नाले में फेंके और नहाकर नये कपड़े पहन लिये । अब उसके चेहरे पर राहत के भाव दिखाई देने लगे ।
उसने सिगरेट सुलगाई और चारपाई पर अधलेटा होकर कश लेने लगा । तभी उसकी निगाह जूतों पर पड़ी जो कि घिसकर बदसूरत हो रहे थे । मन-ही-मन उसने फैसला किया कि बाहर निकलते ही जूते भी नये खरीदेगा ।
अभी इन विचारों में खोया हुआ था कि उसके कानों में जूतों की आहट पड़ने लगी । उसने सिर घुमाया और खुले दरवाजे की तरफ देखने लगा ।
अगले मिनट ही दरवाजे पर पैंतीस बरस के आकर्षक व्यक्ति का चेहरा दिखाई दिया । सोहनलाल फौरन उछलकर खड़ा हो गया। एक ही निगाह में उसे पहचान लिया कि आने वाले की जेब मे रिवाल्वर मौजूद है । हर ओर से वो सेहतमंद लग रहा था । बदन पर कमीज और पैंट थी ।
शारीरिक तौर पर सोहनलाल उससे आधा था ।
"किसके दरवाजे पर खड़े हो प्यारे भाई ।" सोहनलाल स्थिर स्वर में बोला ।
"आपके ।" उसने शांत स्वर में जवाब दिया ।
"हूँ ।" सोहनलाल ने उसे देखते हुए सिर हिलाया--- "जानते हो मैं कौन हूँ ?"
"जी हाँ । बिना जाने मैं भला यहां आने की गुस्ताखी कैसे कर सकता हूँ ? आप बम्बई के मशहूर गैंगस्टर साहब सोहनलाल हैं।"
सोहनलाल की आंखें सिकुड़ गईं, फिर उसकी निगाह आगंतुक की जेब पर जा टिकी, जहां रिवाल्वर होने की स्पष्टता का आभास हो रहा था ।
"तुम्हारा नाम ?" सोहनलाल ने सिगरेट का गहरा कश लिया ।
"महेश चंद्र ।"
"अब तुम्हें क्या चाहिये ?"
"मैं आपको लेने आया हूँ ।" महेश चन्द्र ने शालीन स्वर में कहा
"साला, कह तो ऐसे रहा है कि लेने आया हूँ जैसे यमराज ने भेजा हो ।" सोहनलाल ने उसे देखकर बुरा-सा मुंह बनाया--- अगर तू मेरे नाम के साथ-साथ मेरा काम जानता है, तो यह भी जानता होगा, सोहनलाल को बिना उसकी मर्जी के कहीं ले जाना, कोई मामूली बात नहीं है ।"
महेश चन्द्र ने संजीदगी से सिर हिलाया।
"मुझे मालूम है सोहनलाल जी, मैं आपसे कोई जब जोर-जबरदस्ती नहीं कर रहा और न ही ऐसा कुछ करने का इरादा है। दरअसल...।"
"एक मिनट ।" सोहनलाल ने उसे टोका, "पहले अपनी जेब में पड़ा रिवाल्वर जरा इधर सरका दे ।"
महेश चन्द्र ने फौरन जेब से रिवाल्वर निकाला और सोहनलाल की तरफ उछाल दिया । सोहनलाल ने रिवाल्वर लपका, उसे उलट-पुलटकर देखा, फिर खिड़की के पास पहूँचकर, चेम्बर खोलते हुए उसकी सारी गोलियाँ नाले में फेंक दीं। तत्पश्चात रिवाल्वर बन्द करके उसे महेश चन्द्र की तरफ उछाल दिया ।
"आइन्दा किसी से पहली बार मिलने जाओ, तो खाली रिवाल्वर साथ ले जाया करो, अगर मेरी बात नहीं समझे तो फिर किसी दिन समझा दूँगा ।"
"जी मैं समझ गया ।" महेश चन्द्र शांत स्वर में बोला, "अब से मैं ऐसा ही करूंगा ।"
"बात क्या है बच्चे, बहुत शराफत से मेरी बातें समझे जा रहे हो ?" सोहनलाल के होंठ सिकुड़े और माथे पर बल पड़ गये।
महेश चन्द्र मुस्कुराया ।
"दरअसल आप बहुत पहूँचे हुए इंसान हैं । बम्बई के अंडरवर्ल्ड में आपका नाम हर समय गूंजता रहता है । इसलिये आपकी किसी बात का इंकार करके मैं आपके क्रोध का शिकार नहीं होना चाहता ।" उसने शांत और स्थिर लहजे में कहा।
सोहनलाल की छाती चौड़ी हुई और गर्दन चन्द सेंटीमीटर ऊंची हो गई । समाप्त हो रही सिगरेट फेंककर नई सुलगा ली।
"हाँ, अब बोलो, तुम कुछ कहने जा रहे थे ?"
"जी, मैं श्रीमान तीरथ राम पाहवा का कमाण्डो हूँ ।"
"तीरथराम पाहवा । ये क्या बला है ?"
"जैसी आपकी बम्बई के अंडरवर्ल्ड में पोजीशन है, कुछ वैसी ही पोजीशन श्रीमान तीरथराम पाहवा की इस शहर में है।"
"सोहनलाल ने थूक गले में निगली, बदन थोड़ा-सा सिकुड़ गया ।
"तो ?"
"पाहवा साहब ने आपको लाने के लिये मुझे भेजा है ।"
सोहनलाल ने फौरन दो-तीन कश इसलिये । चेहरे पर से कई भाव आकर गुजर गये । चेहरा पत्थर की तरह भावहीन था ।
"अगर मैं ना चलना चाहूँ तो ?"
"आपकी मर्जी, मुझे जोर जबरदस्ती करने का हुक्म नहीं है, फिर आपके साथ कौन बेवकूफ जोर-जबरदस्ती करना चाहेगा, आप तो अकेले ही एक गैंग के बराबर हैं ।"
सोहनलाल की छाती पुनः फूलने को हुई कि पिचक गई । आंखों के सामने तीरथराम पाहवा का काल्पनिक, खौफनाक चेहरा उभर गया।
"काम क्या है ?" सोहनलाल लापरवाही दर्शाते हुए बोला ।
"इस बारे में मुझे कोई खबर नहीं ।"
"हूँ ।" सोहनलाल गहरी सोच में डूब गया ।
महेश चन्द्र खामोशी से दरवाजे की चौखट के पास खड़ा रहा । वहां कई पल तक गहरी शांति व्याप्त रही ।
"आपके सामने कोई कठिनाई है, तो मुझसे कहिये, शायद मैं आपके काम आ सकूं ।" सोहनलाल को गहरी सोच में डूबे देखकर, महेश चन्द्र ने कहा ।
सोहनलाल ने गर्दन टेढ़ी की, फिर नकारात्मक ढंग से सिर हिलाते हुए कहा--- "नहीं कोई कठिनाई नहीं, वैसे भी मैं अपनी कठिनाइयाँ खुद ही हल करता हूँ । चलो, मैं तीरथराम पाहवा से मिलने के लिये तैयार हूँ । जाना कैसे होगा ?"
"बाहर आपकी सेवा के लिये कार और पाहवा साहब के तीन आदमी खड़े हैं, आइये ।" महेश चन्द्र ने आदर भरे स्वर में कहा ।
सोहनलाल के होंठों से गहरी सांस निकली और महेश चन्द्र के साथ हो गया । ना जाना या इंकार करना भी उसके हक में ठीक नहीं था । इस बात का अहसास सोहनलाल को था ही।
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रास्ते में कार रुकवाकर सोहनलाल ने बढ़िया से जूते खरीदे और शान से चलता हुआ वापस कार में आ बैठा । कार पुनः आगे बढ़ गई ।
आधे घंटे के पश्चात कार शहर के खूबसूरत फाइव स्टार होटल जय गणेश के आहते में जा रुकी । कार रुकते ही बिजली की तेजी से कमाण्डो बाहर निकले और अदब से खड़े हो गये। सोहनलाल ने बिना किसी उतावलेपन से, बाहर निकलकर सिगरेट सुलगाने के पश्चात सिर उठाकर होटल की ऊंचाई को देखा।
नियोन लाइन 'जय गणेश' होटल लिखा दिखाई दे रहा था ।
"कहाँ चलना है ?" सोहनलाल ने महेश चन्द्र को देखा ।
"मीनार पर, पाहवा साहब आपका इंतजार कर रहे हैं ।
सोहनलाल ने सिर हिलाया और खुद ही आगे की तरफ बढ़ने लगा । चारों कमाण्डो बराबर उसके साथ, साये के समान थे ।
होटल के प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश करते ही सामने बहुत बड़ा हॉल रिसेप्शन के रूप में सजा हुआ था । कीमती सोफे, नर्म गद्दे कालीन, छत और दीवारों की सजावट तो देखते ही बनती थी । रिसेप्शन काउंटर दिखाई दे रहे थे, जहां बेहद खूबसूरत युवतियां सेवा के लिये तत्पर थीं ।
सोहनलाल को चारों कमाण्डो कोने में बनी लिफ्ट के पास ले गये, जिस पर लिखा 'प्राइवेट' शब्द दूर से ही चमक रहा था। वो सब लिफ्ट में प्रवेश हुए और लिफ्ट ऊपर की तरफ बढ़ने लगी । एक मिनट के पश्चात लिफ्ट रुकी और सब बाहर आ गये ।
यह लम्बी और खूबसूरत चमचमाती गैलरी थी ।
तभी एक गनमैन वहां पहुँचा । उसे देखकर महेश चन्द्र सोहनलाल से बोला ।
"सर, आपको तलाशी देनी होगी ।"
"क्यों ?" सोहनलाल के माथे पर बल पड़ गये ।
"पाहवा साहब के पास हर किसी को तलाशी के पश्चात ही पहुँचाया जाता है । ये यहाँ का बहुत पुराना नियम है ।"
"अगर मैं तलाशी न दूँ तो ?"
"तो आपका पाहवा साहब से मिलना संभव नहीं ।"
"तुम शायद भूल रहे हो कि मैं पाहवा साहब से मिलने का ख्वाहिशमन्द नहीं था, बल्कि तुम्हारे पाहवा साहब मुझसे मिलना चाहते हैं । जिस दिन मैं अपनी मर्जी से मिलने आऊँगा, तब अवश्य मैं अपनी तलाशी देना पसंद करुँगा । कम-से-कम अब यानी इस समय मैं तलाशी देना जरूरी नहीं समझता ।" सोहनलाल दृढ़ स्वर में बोला ।
महेश चन्द्र के चेहरे पर विवशता और कशमकश के भाव व्यक्त हो गये।
"सर, ये बेहद मामूली-सी बात है, अगर आप...।"
"तुम्हारे लिये मामूली बात हो सकती है, लेकिन सोहनलाल के लिए नहीं ।" सोहनलाल उखड़ कर बोला--- "मेरा वक्त बर्बाद न करो और मुझे बाहर छोड़ आओ...।"
महेश चन्द्र होंठ काटता हुआ विचार पूर्ण मुद्रा में खड़ा रहा ।
"तुम चाहो तो पाहवा साहब से बात कर सकते हो ।" सोहनलाल ने कहा ।
"शायद, अब करनी ही पड़ेगी, जबकि मैं ऐसा नहीं चाहता था ।"
"इन्हें ले जाओ महेश ।" तभी गैलरी में न दिखाई देने वाले स्पीकरों में से भारी आवाज निकलकर उसके कानों में पड़ी ।
सारे कमाण्डो एकएका अटेंशन हो गये ।
"यस सर...।" महेश चन्द्र ने अलर्ट स्वर में कहा।
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