एसीपी मनोहर देवड़ा आलमगीर आर्ट गैलरी के सिक्योरिटी आफिस में सिक्योरिटी आफिसर भण्डारी के केबिन में उसकी कुर्सी पर जमा बैठा था । रात को ड्यूटी पर मौजूद सिक्योरिटी गार्डों को उसने बारी-बारी फिर से बुलाया था और उनको खूब क्रास क्वेश्चन किया था । इसी काम में रात के दस बज गये थे और वह दोबारा से इसी नतीजे पर पहुंचा था कि उन गार्डों में से कोई दगाबाज नहीं था ।
भण्डारी के प्रति उसके मन में पूर्वाग्रह अभी भी था । कमिश्नर से कोई शह हासिल न हुई होने के बावजूद यह खयाल उसके जेहन से निकला नहीं था कि चोरों का इनसाइड हैल्पर भण्डारी ही हो सकता था ।
उसे अभी भी भण्डारी की उस वक्त की शक्ल भूली नहीं थी जब उसने हरचंद कोशिश की थी कि फाल्स सीलिंग खोलकर पुलिस द्वारा भीतर झांकने की नौबत न आए ।
उसी पूर्वाग्रह ने उसे भण्डारी के केबिन की तलाशी लेने के लिए प्रेरित किया ।
काम नाजायज था लेकिन फिर भी उसने किया ।
तलाशी के दौरान उसने मेज के दराजों को ताला लगा पाया । वह कुछ हिचकिचाया, फिर कुर्सी पर बैठे-बैठे उसने चुपचाप अपने गुच्छे की चाबियां दराज के ताले में ट्राई करनी आरम्भ कर दी ।
एक चाबी ताले में घूम गई ।
उसने एक एक दराज का मुआयना करना आरम्भ किया ।
सबसे नीचे के दराज में उसे एक घड़ी-सी पड़ी दिखाई दी ।
देवड़ा ने उसे निकाल लिया और उसे उलट पलटकर देखने लगा । जल्दी ही उसकी समझ में आ गया कि वह वक्त बताने वाली मामूली घड़ी नहीं थी, बल्कि एक टाइम क्लॉक थी ।
उस टाइम क्लॉक की वहां मौजूदगी का कोई रिश्ता वह पेंटिंगों की चोरी से जोड़ने की कोशिश करने लगा ।
फिर एकाएक वह अपने स्थान से उठा और टाइम क्लॉक हाथ में थामे केबिन से बाहर निकल आया ।
बाहर मौजूद सारे गार्ड उठकर खड़े हो गए ।
“यह क्या है ?” - उसने टाइम क्लॉक सबको दिखाई - “कोई इसे पहचानता है ?”
सबने इनकार में सिर हिलाया ।
“जो गार्ड बाहर मौजूद हैं, उन्हें भी बुलाओ ।”
लेकिन उनमें से कोई भी यह जानता न निकला कि एसीपी के हाथ में थमी चीज क्या बला थी ।
“यह” - एसीपी बोला - “यहां के इस्तेमाल की कोई चीज नहीं ?”
सबने इनकार में सिर हिलाया ।
“आगे इस्तेमाल में आने वाली हो ?”
किसी को उस बाबत कोई खबर नहीं थी ।
उसने वापिस केबिन में आकर भण्डारी के घर का नम्बर डायल किया ।
मालूम हुआ कि भण्डारी सोया पड़ा था । खोपड़ी की चोट की वजह से वह सिडेटिव लेकर सोता था और डाक्टर की हिदायत थी कि जब तक बात इंतहाई जरूरी न हो, उसे सोते से न जगाया जाए ।
देवड़ा ने रिसीवर क्रेडल पर रख दिया ।
कल - वह दृढ स्वर में होंठों में बुदबुदाया - कल सही ।
***
“रुस्तमभाई रोकड़े की झलक देखना चाहता है ।” - तुकाराम ने बताया ।
“क्यों ?” - विमल तनिक हैरानी से बोला ।
“वजह नहीं बताता ।”
“बात क्या हुई थी ?”
तुकाराम ने सारा वार्तालाप दोहराया ।
“उसे किसी ने हड़काया है ।” - विमल निर्णयात्मक स्वर में बोला ।
“किसने ?”
“जाहिर है कि हमारे ही किसी आदमी ने ।”
“हमारा कोई आदमी ऐसा कहां कर सकता है ! वागले तो ऐसा करने से रहा । अकबर, जयरथ और रामन्ना तेरे ऐसे फैन हैं कि सपने में भी तेरे से बाहर जाने की नहीं सोच सकते । बाकी रहा भण्डारी तो वो शाम तक तो हस्पताल में पड़ा था । वो कब को रुस्तमभाई से मिला होगा ?”
विमल सोच में पड़ गया ।
“अब रोकड़ा तो है नहीं” - तुकाराम बोला - “उसे दिखायेंगे क्या ? हम तो रोकड़े की जगह पेंटिंगें भी नहीं दिखा सकते उसे ।”
“रोकड़ा कल शाम तक हो जाएगा ।”
“अगर न हुआ तो ?”
“तो हम उसे रोकड़ा न होने की साफ साफ वजह बता देंगे ।”
“वजह वो समझेगा ?”
“नहीं समझेगा तो अपना ही नुकसान करेगा । आखिर अपने हिस्से की इतनी बड़ी रकम उसने हम से ही हासिल करनी है ।”
“बड़ी रकम हाथ से निकल गई मानकर कहीं वह छोटी रकम की फिराक में न पड़ जाए !”
“छोटी रकम कौन-सी ?”
“तेरी गिरफ्तारी के इनाम की !”
“वो ऐसी हिम्मत नहीं कर सकता । करेगा तो खुद भी फंसेगा ।”
“अव्वल तो फंसेगा नहीं क्योंकि चोरी में उसकी शिरकत साबित करना आसान न होगा । फंसेगा तो इतने बड़े इश्तहारी मुजरिम को गिरफ्तार करवाने की एवज में जरूर वादामाफ गवाह बना लिया जाएगा ।”
“उसे ऐसा कुछ करना होता तो कब का कर चुका होता ।”
“पहले उसे मोटे माल की उम्मीद थी । उम्मीद खतम हो जाने पर वो ऐसा कर सकता है ।”
“कल शाम तक अभी उसकी उम्मीद खतम नहीं हो रही, तुका । जो बात अभी कल शाम को समस्या बनेगी, उस पर अभी से सिर धुनने का क्या फायदा !”
तुकाराम खामोश रहा । उसके चेहरे पर से चिंता के भाव न मिटे ।
“शुरू-शुरू में” - वह कुछ क्षण बाद चिंता में डूबे स्वर में बोला - “यह जगह मुझे बहुत ठीक लगी थी तेरे लिए । लेकिन अब मुझे लग रहा है कि जगह माल के लिए ठीक है, तेरे लिए नहीं । मुझे तो किसी ऐसी जगह होना चाहिए था जहां तेरी मौजूदगी की खबर किसी को न होती ।”
“तुम खामखाह हलकान हो रहे हो । हालात फिलहाल हमारे काबू से बाहर नहीं हैं ।”
“उस छोकरी से कैसी पट रही है तुम्हारी ?”
“मंजुला से ?”
“हां !”
“बढिया ! मुझ पर फिदा हो गई मालूम होती है । अभी से मुझे पटाने की कोशिश कर रही है ।”
“क्यों न करे ! नौजवान घोड़ी जो ठहरी ! उसे तो नौजवान घोड़ा ही चाहिए । भण्डारी जैसे बूढे बैल का क्या करेगी वो !”
“वही, जो अब तक करती थी ।”
“अब शायद न करे । तभी तो तुम्हें पटाने की कोशिश कर रही है !”
“कोशिश ही तो कर रही है कामयाब तो नहीं हो रही !”
“हो जाएगी ?”
विमल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“ऐसे कामों के लिए मेरी उमंग नीलम के साथ खतम हो चुकी है ।”
विमल की आंखों में एकाएक गहरी उदासी की छाया तैर गई ।
हड़बड़ाकर तुकाराम ने उस विषय का वही पटाक्षेप कर दिया ।
“मैं जाता हूं ।” - वह जल्दी से बोला ।
विमल ने सहमति में सिर हिला दिया ।
तुकाराम चला गया तो विमल ने अपना बुझा हुआ पाइप फिर सुलगा लिया और बड़ी गम्भीर मुद्रा बनाए उसके छोटे-छोटे कश लगाने लगा ।
तुकाराम का जोड़ीदार तो वह फिर से बन गया था, लेकिन वह अभी भी फैसला नहीं कर सका था कि जिस दुनिया ने नीलम की जान ली थी, उसमें वापस लौटकर उसने अच्छा किया था या बुरा ।
तुकाराम उसे मृतप्राय हालत में कल्याण से जिलाकर लाया था, वह यूं अपने दोबारा जी जाने को अपनी खशकिस्मती माने या बद्किस्मती ?
फिर तुकाराम की मजाक में कही बात उसके जेहन में गूंजी ।
- जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां !
शायद वह मजाक न था, एक कठोर सत्य था ।
विमल की वार्निंग को पूरी तरह से नजरअन्दाज करके इकबालसिंह बम्बई शहर में बखिया की बादशाहत हथियाकर उसकी जगह बादशाह कहा बैठा था उससे टक्कर लेने के लिए अपने में जो कूवत पैदा करना जरूरी था वह बकौल तुकाराम मुफलिसी में मुमकिन नहीं था । ‘नया चेहरा’ हासिल करना भी विमल के लिये निहायत जरूरी था लेकिन उसके लिए भी एक मोटी रकम दरकार थी । दौलत हासिल करने के लिए तुकाराम ने आलमगीर आर्ट गैलरी में प्रदर्शित होने वाली उन चौबीस फ्रांसीसी पेन्टिगों की चोरी की योजना बनाई कला के बाजार में जिनकी कीमत बारह करोड़ रुपये आंकी जाती थी । जैक रीली नाम का एक एजेन्ट किसी अमरीकी धन कुबेर के लिये उन पेन्टिंगों को छ करोड़ में खरीदने को तैयार था ।
तुकाराम की योजना में खुद उसके, उसके लेफ्टिनेंट कमल के और विमल के अलावा पांच और आदमी शामिल थे । उनमें से एक आलमगीर आर्ट गैलरी का सिक्योरिटी ऑफिसर भण्डारी था जो अपनी नौजवान रखैल मंजुला को रखना अफोर्ड करने की खातिर उस डकैती में शरीक हुआ था । दूसरा रुस्तम भाई अन्धेरी वाला था जिसे अपनी टुररिस्ट टैक्सी की सर्विस की ओट में स्मैक की स्मगलिंग का धन्धा चलाने के लिए दौलत दरकार थी । दो अकबर और जयरथ नाम के मामूली मवाली थे और आखिरी शख्स विजय रामन्ना नाम का एक ठिंगू टैक्सी ड्राइवर था ।
इसके अलावा खीर में मक्खी का दर्जा रखने वाला एक करप्ट पुलसिया इंस्पेक्टर चटवाल था जो रुस्तम भाई के साथ गठजोङ करके छ: करोड़ रुपया हासिल हो जाने के बाद सारा माल खुद हड़प जाने का ख्वाहिशमन्द था लेकिन जिसकी विमल या तुकाराम को खबर नहीं थी ।
इसी प्रकार भराडारी को यह खबर नहीं थी कि जिस औरत की खातिर वह अपनी ही आर्ट गैलरी को लुटवाने का हकीर काम करने जा रहा था, वह एक चरित्रहीन स्त्री थी और उसका एक यार दीपक मेहरा तो उसकी गैरहाजिरी में उसके बान्द्रा वाले फ्लैट में मंजुला से मिलने भी आता था ।
योजना के एक अंग के तौर पर अकबर, जयरथ और रामन्ना ने तोलाराम नायक नाम के एक व्यापारी के आठ साल के लड़के का अपहरण किया ताकि उस पर दबाव डाला जा सके कि आर्ट गैलरी मे पेन्टिगों वाले हाल में जो फाल्स सीलिंग बनाने का ठेका उसे मिला था, उसके कारीगरों के तौर पर वह उन तीनों को अपना आदमी बताकर आर्ट गैलरी भेजे ।
तुकाराम की योजना के मुताबिक मंगलवार शाम को अकबर, जयरथ और रामन्ना ने आर्ट गैलरी की फाल्स-सीलिंग में छुप जाना था । वहां वे धुआं फैलाने वाले बम और आग बुझाने का सामान और फायर फाइटरों की वर्दियां वगैरह पहले ही छपा आये होते हैं । भण्डारी ने उस अलार्म सर्कट को काटना था जिसकी वजह से पेन्टिंग को छूने भर से घंटियां बजनी शुरू हो सकती थीं ।
रुस्तम भाई ने अपने गैरेज में फायर ब्रिगेड का एक इंजन तैयार करना था ।
योजनानुसार अलार्म सर्कट कट जाने के बाद अकबर, जयरथ और रामन्ना ने पेंटिंगों को फ्रेमों में से निकालकर गोल लपेट लेना था और उसे आग बुझाने में प्रयुक्त होने वाले पानी के हौज में भरकर ऊपर से पीतल की नलकी लगानी थी । फिर उन्होंने सारी इमारत में धुयें के बम फोड़ने थे और तब तक फिर से चालू हो चुके अलार्म सर्कट को छेड़ देना था । जब फायर ब्रिगेड वाले वहां पहुंचते तो वे उन्हीं जैसी वर्दियां पहने होने की वजह से उनमें रल-मिलकर वहां से बाहर निकल आते और रुस्तम भाई के नकली फायर ब्रिगेड के इंजन पर सवार होकर वहां से कूच कर जाते ।
तुलसी पाइप रोड पर तुकाराम और विमल को जैक रीली मिलता जो उनसे पेंटिंग ले लेता और उन्हें छ करोड़ की रकम सौंप देता ।
फिर पन्द्रह दिन तक छ करोड़ रूपये के साथ विमल ने भण्डारी की रखैल मंजुला के साथ उसके बान्द्रा वाले फ्लैट पर छुपे रहना था ।
योजना में पहला व्यवधान तब आया जबकि अपेक्षानुसार मंगलवार को पेन्टिंगें बम्बई न पहुंची । पेरिस से उन पेन्टिगों को लाने वाला प्लेन रास्ते में बिगड़ गया और उसे रोम में फोर्स लैंड करना पड़ा जिसकी वजह से अब पेन्टिंग बुधवार सवेरे चार बजे आर्ट गैलरी पहुंचनी थीं ।
उस समस्या का समाधान यह निकाला गया कि अकबर, जयरथ और रामन्ना मंगलवार शाम को फाल्स सीलिंग में छुपने के स्थान पर बुधवार शाम दर्शकों की तरह आर्ट गैलरी में जायें और भण्डारी उनकी यूं सहायता करे कि दर्शन के लिए गैलरी बन्द हो जाने के बाद वे तीनों पेंटिंगों वाले हाल में बन्द हो जायें और शाम सात बजे बाकी योजना पर ज्यों-का-त्यों अमल करें ।
लेकिन बेल तब भी मुंडेर न चढ़ी ।
तोलाराम नायक का आठ साल का लड़का, जो कि बान्द्रा वाले फ्लैट में मंजुला की निगरानी में था, मंजुला की लापरवाही से वहां से निकल भागा और अपने घर पहुंच गया । लड़के के सुरक्षित लौट आने पर तोलाराम नायक ने पुलिस में रिपोर्ट कर दी कि कैसे उससे फाल्स सीलिंग के काम में जबरदस्ती की गयी थी ।
एसीपी देवड़ा खुद आर्ट गैलरी पहुंचा और उसने फाल्स सीलिंग में छुपाया हुआ सारा माल बरामद कर लिया । साथ ही उसे शक भी हो गया कि कुछ चोर फ्रांसीसी पेंटिंगें चुराने के लिये ही सक्रिय थे और जरूर आर्ट गैलरी के सिक्योरिटी स्टाफ में कोई आदमी उनसे मिला हुआ था ।
उसने चोरों को पकड़ने के लिए एक जाल भी फैलाया लेकिन भण्डारी की वार्निंग की वजह से अकबर, जयरथ और रामन्ना उस जाल में फंसने से बच गए ।
फिर विमल ने एक नयी स्कीम बनाई ।
उस स्कीम के मुताबिक पुलिस को हर रोज एक नयी जगह पर बम लगा होने की सूचना मिलने लगी ।
पुलिस के स्पेशल स्क्वायड का इन्स्पेक्टर केलकर उन बमों को बरामद करने और निष्क्रिय करने के लिये हर जगह पहुंचा, जिससे विमल वगैरह को उसकी कार्यप्रणाली पता लगी और यह पता लगा कि इस काम के लिये पुलिस के पास वही एक इकलौता स्पेशलिस्ट था ।
उसी की कार्यप्रणाली पर अमल करके विमल और तुकाराम ने पेंटिंगें चुराईं ।
गैलरी से पेंटिंगें गायब हो जाने की खबर उनकी अपेक्षा से पहले आम हो गयी जिसकी वजह से विमल और तुकाराम की मेटाडोर माहिम क्रीक पर रोड ब्लाक में फंस गई ।
वहां इन्स्पेक्टर चटवाल ने खुद मैटाडोर की तलाशी ली लेकिन मेटाडोर में से न रोकड़ा बरामद हुआ और न पेंटिंगें ।
अगले रोज सुबह विमल ने फ्रांसीसी कल्चरल अटैची जेकुई आंद्रे डेलोन से सम्पर्क स्थापित किया और पेन्टिगों की वापसी के बदले में छ करोड़ की फिरौती की मांग की ।
डेलोन ने फिरौती देना कबूल कर लिया ।
इन्स्पेक्टर चटवाल ने रुस्तम भाई को यह चौंका देने वाली खबर दी कि मेटाडोर में न पेंटिंगें थीं और न रोकड़ा जबकि दोनों में से एक चीज मैटाडोर में लाजमी तौर पर होनी चाहिये थी । चटवाल ने ही रुस्तम भाई को उकसाया कि वह रोकड़ा देखने की मांग पेश करे ।
उधर पुलिस तफ्तीश से यह स्थापित हो गया कि सोहल बम्बई में था और पेंटिंगों की चोरी में उसी का हाथ था ।
तब तक एसीपी देवड़ा आर्ट गैलरी के सिक्योरिटी गार्डों को खूब ग्रिल कर चुका था और इस नतीजे पर पहुंचा था कि खुद सिक्योरिटी ऑफिसर भण्डारी की चोरों के साथ कोई मिलीभगत हो सकती थी ।
देवड़ा ने अपना ख्याल पुलिस कमिश्नर पर जाहिर किया लेकिन कमिश्नर ने उसके ख्याल के साथ इत्तफाक न किया और उस सिक्योरिटी स्टाफ को ही फिर से चैक करने का आदेश दिया ।
(यहां तक की कहानी आपने ‘जीना यहां’ में पढ़ी) ।
अब इससे पहले कि खुद भड़का हुआ रुस्तम भाई अन्धेरीवाला बाकी साथियों को भड़का देता, विमल ने डेलोन से फिरौती की छ करोड़ की रकम हासिल करके दिखानी थी ।
दाता ! - विमल के मुंह से निकला - तेरा अंत न जाई लखया ।
***
रात ग्यारह बजे तुकाराम चैम्बूर में अपने घर के आगे एक टैक्सी पर से उतरा ।
सड़क के मोड़ पर एक काली कार खड़ी थी जिसकी पिछली सीट पर एक विदेशी बैठा हुआ था । उसकी निगाह उस टैक्सी पर टिकी हुई थी ।
तुकाराम टैक्सी से निकलकर भाड़ा चुकाने लगा ।
“वही है ।” - ड्राइविंग सीट पर बैठा भीम नाम का मवाली सा लगने वाला आदमी बोला ।
विदेशी ने खामोशी से सहमति में सिर हिलाया और बदस्तूर टैक्सी की तरफ देखता रहा ।
कुछ क्षण बाद खाली टैक्सी वहां से विदा हो गयी ।
तुकाराम इमारत में दाखिल होकर पहले ही दृष्टि से ओझल हो चुका था ।
“मैं जाता हूं ।” - विदेशी बोला - “दस मिनट में बाहर न आऊं तो तुम्हें मालूम है न तुम्हें क्या करना है ?”
भीम ने सहमति में सिर हिलाया और बोला - “मालूम है ।”
“तुम्हारे बाकी साथी कहां हैं ?”
“दूसरी कार में । जो आगे मोड़ पर खड़ी है ।”
“कितने हैं ?”
“काफी । इस इकलौते आदमी से निपटने के लिए काफी से ज्यादा ।”
“इमारत में और भी आदमी हो सकते हैं !”
“कोई वांदा नहीं । फिर भी हम काफी हैं ।”
“कितने ?”
“छ: । मुझे मिलाकर सात ।”
“हथियारबंद ?”
“सब के सब ।”
“गुड !”
विदेशी कार से बाहर निकला ।
और कुछ क्षण बाद वह तुकाराम के घर के बंद दरवाजे पर दस्तक दे रहा था ।
दरवाजा खुद तुकाराम ने खोला ।
आगंतुक के चेहरे पर निगाह पड़ते ही वह बुरी तरह से चौंका ।
“तुम !” - उसने मुंह से बोला ।
“मे आई कम इन ?” - आगंतुक मुस्कराता हुआ बोला ।
“क्या चाहते हो ?” - तुकाराम कठोरता से बोला ।
“भीतर आना चाहता हूं ।”
“क्यों ?”
“भीतर आकर बताऊंगा । मेरी टांगें कमजोर हैं । मैं ज्यादा देर खड़ा नहीं रह सकता ।”
“तुम यहां पहुंचे कैसे ?”
“यह भी भीतर आकर बताऊंगा ।”
“मैं तुमसे कोई वास्ता नहीं रखना चाहता ।”
“मैं रखना चाहता हूं ।”
“तुम पछताओगे ।”
“कोई बात नहीं । पछता लूंगा ।”
कोई निर्णय लेने की कोशिश करता तुकाराम कुछ क्षण खामोश खड़ा रहा, फिर एकाएक उसने रास्ता छोड़ दिया ।
“थैंक्यू ।” - आगंतुक मुस्कराता हुआ बोला ।
तुकाराम ने उसे बैठक में ले जाकर बिठाया ।
वागले बैठक के पिछले दरवाजे पर प्रकट हुआ लेकिन तुकाराम ने उसे वहां कदम न रखने का इशारा कर दिया ।
आगंतुक एक सोफे पर ढेर हो गया और यूं हांफने लगा जैसे बहुत लम्बा फासला तय करके वहां पहुंचा हो । फिर उसने अपनी जेब से एक सोने का सिगरेट केस निकाला और उसे खोलकर तुकाराम की तरफ बढाया । तुकाराम ने इनकार में सिर हिलाया तो उसने एक सिगरेट निकालकर अपने होंठों से लगाया और सिगरेट केस में ही लगे लाइटर से उसे सुलगा लिया । उसने बड़े तृप्तिपूर्ण भाव से सिगरेट का एक लम्बा कश लगाया ।
आगंतुक का नाम जैक रीली था, वह अमरीकी धनकुबेर जी एफ न्यूमैन का एजेंट था और वही वो शख्स था, मूलरूप से तुकाराम का जिससे पेंटिंगें चुराने की बाबत सौदा हुआ था ।
“तुमने” - रीली बोला - “सोचा होगा कि इतने बड़े शहर में मैं तुम्हें तलाश नहीं कर पाऊंगा ।”
“नहीं सोचा था” - तुकाराम सहज भाव से बोला - “अलबत्ता यह जरूर सोचा था कि ऐसी तलाश तुम गैरजरूरी समझोगे ।”
“मैं गैरजरूरी ही समझता” - रीली बोला - “अगरचे कि मैंने अखबार में पेंटिंगों की चोरी की खबर न पढी होती ।”
“मुझे हैरानी है कि मुम्बई शहर में कोई उस चोरी की अंजाम दे सका ।”
“और मुझे खुशी है कि तुम उस चोरी को अंजाम दे सके ।”
“तुम समझते हो कि चोरी मैंने की है ?”
“मैं समझता नहीं, जानता हूं ।”
“तुम पागल हो ।”
वह मुस्कराया । उसने फिर सिगरेट का एक लम्बा कश जमाया ।
“तुम मुझ तक कैसे पहुंचे ?”
“बस, पहुंच गया पूछता पूछता ।” - रीली लापरवाही से बोला - “सिर्फ करोड़ेक ही तो बाशिंदे हैं तुम्हारे मुम्बई शहर में ! मैंने नम्बर एक से पूछना शुरू किया और पूछता चला गया । किसी ने तो तुम्हें जानता होना ही था । और फिर तुम तो बड़े मशहूर हो ! सुना है यहां के एक माफिया किंग से टक्कर ले चुके हो और बाकायदा उसे पछाड़ चुके हो ।”
“तुम चाहते क्या हो ?”
“ऐसा कुछ नहीं चाहता जो तुम मुझे न दे सको ।” - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “पेंटिंग मेरे हवाले करो और चलकर अपने नोट गिन लो ।”
“तुम पागल तो नहीं हो ! अरे, मैंने तो इस काम का खयाल तभी छोड़ दिया था जब मेरे साथी मुझे दगा दे गये थे और मैंने तुम्हें खबर कर दी थी कि वह मेरे बस का काम नहीं रहा था ।”
“यह काम तुम्हारा है ।” - रीली सख्ती से बोला - “मैंने खूब जांच पड़ताल की है । किसी दूसरी पार्टी ने न इस काम में दिलचस्पी ली है और न इसे करने की कोशिश की है ।”
“मैंने यह काम नहीं किया ।”
“तो फिर किसने किया ?”
“मुझे नहीं पता किसने किया ।”
“मुझे पता है । यह तुम्हारा काम है ।”
“अरे, मैं...”
“देखो । अगर तुम पेंटिंगों की छ: करोड़ से ज्यादा कीमत चाहते हो तो साफ बोलो । कोई दूसरी पार्टी तुम्हें ज्यादा कीमत दे रही है तो उस रकम का नाम लो । मैं तुम्हें उससे भी ज्यादा कीमत दूंगा ।”
“तुम खूब जानते हो तुम्हारे सिवाय उन पेंटिंगों का कोई खरीदार नहीं ।”
“अब निकल आया हो सकता है ।”
“कहां से निकल आया हो सकता है ? क्या आसमान से टपका होगा ?”
“देखो । मेरे साथ बहस मत करो । मैंने उस गुजारी है दुनिया भर के गैंगस्टर्स के साथ । मैं हवा सूंघकर बता सकता हूं कि कौन कितने पानी में है । तुम्हारा सौदा मेरे से हुआ था और मेरे से ही होगा ।”
“धमकी दे रहे हो ?”
“हां ।”
“मुझे धमकी देने वाला यहां से जिंदा नहीं जा सकता ।”
“रीली जा सकता है । जायेगा ।”
“मैं लाश का पता नहीं लगने दूंगा ।”
“ऐसी धमकियां मुझे सारे एशिया और यूरोप में मिल चुकी हैं लेकिन रीली के लाश में तब्दील होने में अभी बहुत वक्त है ।”
“ठहर जा, स्साले...”
“मैं यहां अकेला नहीं आया हूं ।”
उस पर झपटने को तत्पर तुकाराम ठिठका ।
“और मैंने रात नहीं गुजारनी यहां । सोना मैंने अपने होटल के सुइट में जाकर ही है । तुम मेरे साथ जन्नतनशीन होना चाहते हो तो बेशक मुझ पर झपटो ।”
तुकाराम खामोश रहा ।
“मैं लम्बी बहस में नहीं पड़ना चाहता ।” - एकाएक रीली ने सिगरेट एशट्रे में मसल दिया और उठ खड़ा हुआ - “पेंटिंगें तुम्हीं ने चुराई हैं और तुम उन्हें मेरे को ही बेचोगे । इस बाबत कल शाम तक तुमने मुझे कोई अच्छी खबर न सुनाई तो चोरों के सरगने की खबर पुलिस के पास पहुंच जायेगी ।”
“उससे तुम्हें क्या हासिल होगा ?”
“फौरन कुछ नहीं । लेकिन पेंटिंगें बरामद तो होंगी । बरामद होंगी तो उनकी फिर से चोरी की गुंजाइश बनी रहेगी । पेंटिंगें मेरे बॉस न्यूमैन जैसे किसी दूसरे कलैक्टर के पास पहुंच गयी तो कहानी ही खत्म हो जायेगी ।”
“तुम मुझे गिरफ्तार करवा भी दोगे तो पुलिस मेरे खिलाफ कुछ साबित नहीं कर सकेगी ।”
“देखेंगे । देखेंगे ।” - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “कल शाम तक मैं तुम्हारी टेलीफोन काल का इंतजार करूंगा ।”
“अगर पेंटिंगें मेरे पास होती तो अब तक मैं उन्हें बेच न चुका होता !”
“बेच चुके हो तो वह माल दिखाओ जो तुम्हें पेंटिंगें बेचकर हासिल हुआ है ।”
“हो सकता है माल बंट चुका हो ।”
“तो फिर अपना हिस्सा दिखाओ ।”
“हो सकता है अपना हिस्सा मैंने कहीं छुपाया हुआ हो ।”
“कल शाम तक उसे वहां से निकाल लो । ऐसा कोई हिस्सा मुझे दिखा दोगे तो भी मैं तुम्हारा पीछा छोड़ दूंगा । नाओ, गुडनाइट ।”
और बड़ी शान से चलता वह वहां से विदा हो गया ।
उसके जाते ही तुकाराम ने वागले को आवाज दी ।
“जरा चुपचाप देखकर आओ” - वह बोला - “कि वह यहां अकेला आया था या हिमायती लेकर !”
वागले ने सहमति में सिर हिलाया और फौरन बाहर को लपका ।
थोड़ी देर बाद वह वापिस लौटा ।
“अकेला ही था” - उसने बताया - “बस सिर्फ एक ड्राइवर साथ था ।”
“साला !” - तुकाराम भुनभुनाया - “घिस गया मुझे ।”
“यह आदमी कोई समस्या खड़ी कर सकता है ?”
“कर सकता है । मैं तो अब भी कहता हूं कि सौदा इसी से होना चाहिए था लेकिन सोहल की जिद थी कि.. .इस नये बखेड़े की सोहल को खबर करनी होगी । मैं बांद्रा जाता हूं ।”
“मैं भी साथ चलता हूं ।” - वागले फौरन बोला ।
“क्यों ?”
“आधी रात को तुम्हारा अकेला जाना ठीक नहीं होगा ।”
“यह तू तुकाराम से कह रहा है ?”
“हां ।” - वागले दृढ स्वर में बोला ।
“ठीक है फिर । चल । गाड़ी निकाल ।”
***
“काली एम्बेसेडर में तुका था ।” - रीली का मवाली ड्राइवर भीम बोला ।
सड़क के मोड़ पर वे लोग अभी भी मौजूद थे । उस वक्त एक स्टेशन वैगन में आठों के आठों बैठे थे और तुकाराम पर झपटने के लिए कोई स्ट्रेटेजी तैयार करने की कोशिश कर रहे थे ।
“गाड़ी तो कोई और चला रहा था !” - रीली बोला ।
“वह वागले है । तुकाराम का चीफ चमचा ।”
“आधी रात को कहां जा रहे होंगे ?”
“क्या पता !”
“पता लगाओ ।” - रीली जल्दी से बोला - “किसी को इनके पीछे लगाओ ।”
भीम के संकेत पर दो आदमियों को छोड़कर रीली समेत सब स्टेशन वैगन से बाहर निकल आये । दो में से एक बड़ी फुर्ती से स्टेशन वैगन की ड्राइविंग सीट के पीछे सरक गया ।
“वापिस यहीं आना ।” - उसे आदेश मिला ।
उस आदमी ने सहमति में सिर हिलाया ।
स्टेशन वैगन फौरन सड़क पर दौड़ चली ।
बाकी लोग सड़क पर पैदल चलते हुए तुकाराम के मकान के सामने पहुंचे ।
“दरवाजे पर ताला झूल रहा है” - रीली बोला - “तो भीतर तो कोई होगा नहीं !”
कई सिर सहमति में हिले ।
“कोई यह ताला खोल सकता है ?”
“मामूली काम है” - भीम बोला - “मैं खोल सकता हूं ।”
“खोलो ।”
“तुम्हारा भीतर घुसने का इरादा है, बाप ?”
“हां । पेंटिंगें या रोकड़ा, दोनों में से एक चीज यहां से बरामद हो सकती हैं ।”
“अगर वो दोनों ऊपर से आ गये तो ?”
“तो क्या ? अभी भी तुम पांच जने हो, उन दो को नहीं सम्भाल सकते ?”
“सम्भाल सकते है ।”
“देअर यू आर ।” - रीली एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “एक आदमी को कार के साथ सड़क के मोड़ पर भेज दो । वह तुकाराम की कार लौटती देखे तो हार्न बजा दे ।”
“हार्न की आवाज इमारत के भीतर तक पहुंच जायेगी ?”
“रात के सन्नाटे में पहुंच जायेगी । दरवाजे तक तो जरूर ही पहुंच जायेगी । मैं दरवाजे पर खड़ा रहूंगा ।”
“ठीक है ।”
“वक्त बरबाद न करो । खोल सकते हो तो खोलो ताला ।”
ताला खुल गया तो सब भीतर दाखिल हो गये ।
“मैं फिर कह रहा हूं” - रीली बोला - “यहां से हमने या पेंटिंगें बरामद करनी हैं या रोकड़ा । मोटी तलाशी है, कोई सुई ढूंढने का काम नहीं है । पेंटिंगें होंगी तो उनका भी काफी लम्बा चौड़ा बंडल होगा । रोकड़ा होगा तो उससे भी कम से कम तीन चार सूटकेस भरे होंगे ।”
“रोकड़ा मिलने से तुम्हारा काम कैसे बनेगा, बाप ?”
“उसको हजम कर जाने की धमकी देकर मैं कम से कम यह तो जान सकूंगा कि पेंटिंगें तुकाराम ने किसको बेची थी ! फिर आगे की आगे सोचेंगे । अब चलो । शुरू करो ।”
इमारत की तलाशी शुरू हुई ।
लेकिन वहां से न पेंटिंग बरामद हुईं और न रोकड़ा ।
“कहीं तुकाराम सच ही तो नहीं बोल रहा था” - रीली चिंतित भाव से बोला - “कहीं सच ही तो पेंटिंगें किसी और ने नहीं चुराई !”
तभी बाहर कार का हार्न बजा ।
वे सब फुर्ती से बाहर निकले । भीम ने दरवाजे को बदस्तूर ताला लगा दिया ।
फिर वे सब इमारत के करीब की संकरी गली में दाखिल हो गये ।
काली एम्बेसेडर इमारत के सामने आकर रुकी । तुकाराम कार से बाहर निकला तो वागले कार आगे बढाकर ले गया । कार को इमारत में दाखिल करने का रास्ता पिछवाड़े से था और वहां तक पहुंचने के लिए आगे सड़क के मोड़ से घूमकर पिछली सड़क पर जाना पड़ता था ।
तुकाराम इमारत में दाखिल होकर दृष्टि से ओझल हो गया ।
कार भी परली तरफ से मोड़ काट गयी तो वे गली से बाहर निकले । दबे पांव वे आगे बढे ।
मोड़ पर पहुंचकर उन्होंने पाया कि स्टेशन वैगन भी लौट चुकी थी ।
“कहां गया था तुकाराम ?” - रीली ने स्टेशन वैगन के ड्राइवर से पूछा ।
“बांद्रा वैस्ट ।” - उत्तर मिला - “हिल रोड की आठ नम्बर इमारत की दूसरी मंजिल के एक फ्लैट में ।”
“वहां कौन रहता है ?”
“पता नहीं ।”
“उसे पता तो नहीं लगा कि तुम उसके पीछे लगे हुए थे ?”
“नहीं ।”
“न आती बार न जाती बार ?”
“हां ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“मुझे वो फ्लैट दिखाओ । चलो ।”
सबके सब दोनों गाड़ियों में सवार हुए और वहां से बांद्रा के लिए रवाना हो गये ।
***
एसीपी मनोहर देवड़ा सुबह सवेरे ही भण्डारी के घर पहुंच गया ।
भण्डारी तब सोकर उठा ही था ।
“कैसी तबीयत है ?” - देवड़ा हमदर्दीभरे स्वर में बोला ।
“अभी तो तकलीफ में हूं ।” - भण्डारी क्षीण स्वर में बोला ।
“बहुत जोर का वार किया कमीनों ने ।”
“बीवी कह रही थी कि आपने कल रात को भी फोन किया था ?”
“हां । किया तो था ।”
“कोई खास बात थी ?”
“दरअसल मैं आपको एक चीज दिखाना चाहता था ।”
“क्या ?”
“यह ।”
देवड़ा ने टाइम क्लॉक भण्डारी के सामने रख दी ।
भण्डारी हड़बड़ाया । उसने विस्मित भाव से देवड़ा की तरफ देखा ।
“यह क्या है ?” - फिर वह बोला ।
“आप नहीं जानते” - देवड़ा अपलक उसे देखता हुआ बोला - “कि यह क्या है ?”
“जानता हूं । टाइम क्लॉक है । मेरा मतलब है मुझे क्यों दिखा रहे हैं ?”
“हूं । तो आप जानते हैं यह टाइम क्लॉक है ?”
“क्या बड़ी बात है ! सच पूछिये तो ऐसी एक टाइम क्लॉक मेरे पास भी है ।”
“अच्छा !”
“हां । आफिस में ।”
“भण्डारी साहब, यह वही टाइम क्लॉक है ।”
“वही ? कौन सी वही ?”
“आपके आफिस वाली ।”
“आप इसे मेरे आफिस में से निकालकर लाये हैं ?”
“हां ।”
“मेरे आफिस में मेज के जिस दराज में यह थी” - भण्डारी ने उसे पूरा - “उसे तो ताला लगा हुआ था । यानी कि आपने मेरी मेज के दराज का ताला खोलकर...”
“ताला पहले से खुला हुआ था ।”
“तो भी आपने दराज में हाथ...”
“मैं डायरेक्ट्री तलाश कर रहा था । सोचा था डायरेक्ट्री दराज में होगी । दराज का ताला खुला पाया तो मैंने उसे खोल लिया था ।”
“ताला खुला नहीं हो सकता ।”
“खुला था ।”
“खुला भी था तो आपने यह टाइम क्लॉक...”
“इसमें मेरी दिलचस्पी थी ।”
“क्या दिलचस्पी थी ?”
“भण्डारी साहब, आपको याद होगा कि पिछले बुधवार जब मैं आपसे मिला था तो आपने आर्ट गैलरी के अलार्म वाले प्रबंध पर बड़ा जोर दिया था और कहा था कि उसकी वजह से दूसरी मंजिल के हाल में चोरों का घुस पाना मुमकिन न था !”
“याद है ।”
“यह टाइम क्लॉक उस अलार्म सर्कट का हल हो सकती है । इसके इस्तेमाल से किसी खास वक्त पर अलार्म का बजना रोका जा सकता है ।”
“तो ?”
“मैंने पहले ही अर्ज किया था कि चोरों ने आर्ट गैलरी का कोई कर्मचारी अपनी तरफ फोड़ा हुआ हो सकता था ।”
भीतर से भण्डारी का दिल डूबा जा रहा था और वह मन ही मन उस बेहद छिद्रान्वेषी पुलिसिये की तत्काल मौत की कामना कर रहा था लेकिन ऊपर से वह दिलेरी दिखाने का भरसक प्रयत्न कर रहा था ।
“आई सी ।” - वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “और आपके खयाल से वो कर्मचारी मैं हूं । यह टाइम क्लॉक क्योंकि मेरी मेज के दराज में से बरामद हुई है इसलिए इस मामले में आपकी नजरेइनायत मुझ पर हो रही है और आप सुबह सुबह इसी वजह से यहां तशरीफ लाये हैं ?”
अपना बचाव प्रस्तुत करने की कोशिश की जगह भण्डारी को आक्रामक रुख अख्तियार करता पाकर देवड़ा सकपकाया ।
“आप भूल रहे हैं कि मैं आलमगीर आर्ट गैलरी का कोई दफ्तरी चपरासी नहीं, सिक्योरिटी आफिसर हूं । मैं वैसे भी जब चाहूं अलार्म के सर्कट को आफ-आन कर सकता हूं ।”
“ऐसा करने के लिए आपका आर्ट गैलरी में मौजूद होना भी तो जरूरी होता होगा ?”
“सिक्योरिटी आफिसर की नौकरी दस से पांच की नहीं होती । मैं वहां का चौबीस घंटे का मुलाजिम हूं ।”
“इस टाइम क्लॉक का आपके लिए क्या इस्तेमाल है ?”
“कोई इस्तेमाल नहीं ।”
“तो फिर” - देवड़ा हत्प्रभ स्वर में बोला - “यह आपकी मेज के दराज में क्या कर रही थी ?”
“पड़ी थी ।”
“भण्डारी साहब, आप बात को गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं ।”
“मैं बात को आपकी उम्मीद से ज्यादा गम्भीरता से ले रहा हूं । आप जो बातें कर रहे हैं, उनसे ज्यादा गम्भीरता से मैं उन बातों को ले रहा हूं जो आप नहीं कह रहे हैं या जिनकी तरफ आप बड़े अजीबोगरीब इशारे कर रहे हैं ।”
“देखिये, मैं...”
“सुनिये, सुनिये । यह टाइम क्लॉक कोई तीन हफ्ते पहले एक सेल्समैन मुझे दिखाने लाया था और बतौर सैम्पल मेरे पास छोड़ गया था । हमारे यहां इसका कोई इस्तेमाल नहीं, ऐसा मैंने उसे तभी कह दिया था लेकिन वह फिर भी इसे छोड़ गया था । तभी से यह एक गैरजरूरी चीज की तरह मेरी मेज के दराज में पड़ी थी ।”
“इस्तेमाल तो है ! अलार्म सिस्टम के सर्कट में !”
“जनाब, तब अलार्म सिस्टम कहां था ? वह तो फ्रांसीसी पेंटिंगों की हिफाजत के लिये अब लगाया गया है ।”
“सेल्समैन कौन था और किस कंपनी से आया था ?”
“मुझे याद नहीं । सिक्योरिटी डिवाइसिज को सालीसिट करने के लिये दर्जनों सेल्समैन मेरे पास आते हैं । मैं किस किस को याद रखूं ?”
“अपना विजिटिंग कार्ड तो वह आपको देकर गया होगा ?”
“हां, देकर गया होगा । वह मेरे आफिस में कहीं धक्के खा रहा होगा । जब मैं आफिस जाऊंगा तो उसे आपके लिए तलाश कर दूंगा ।”
“हां । प्लीज ।”
“और कुछ ?”
“बस । सहयोग का शुक्रिया ।”
देवड़ा को इस बात पर बड़ी खुंदक आ रही थी कि भण्डारी ने उसका तुरुप का पत्ता इतनी आसानी से पीट लिया था । कमबख्त जरा भी तो नहीं घबराया था ।
हकीकतन, भण्डारी का दिल ही जानता था कि उसके कैसे छक्के छूटे हुए थे । वह मन-ही-मन अपनी इस लापरवाही के लिए, कि टाइम क्लॉक का कोई इस्तेमाल न रह चुका होने के बावजूद वह उसे अपने दराज में रखे रहा था, अपने आपको हजार हजार गालियां दे रहा था ।
“पेटिंगों का कुछ सुराग मिला ?” - भण्डारी ने पूछा ।
“जी नहीं । लेकिन तफ्तीश जारी है ।”
“वो हमेशा ही जारी होती है ।”
“इस बार बहुत व्यापक रूप से काम हो रहा है ।”
“नतीजा भी व्यापक निकले तो जानें ।”
“निकलेगा । जरूर निकालेगा । क्यों नहीं निकलेगा ?”
“देखेंगे ।”
“नमस्ते ।”
देवड़ा उठकर दरवाजे की तरफ बढ़ा तो भण्डारी ने उसे नाम लेकर पुकारा । वह ठिठका, घूमा ।
“टाइम क्लॉक ।” - भण्डारी उसकी तरफ हाथ बढाता बोला ।
देवड़ा खून का घूंट पीकर रह गया । उसने टाइम क्लॉक भण्डारी की फैली हुई हवेली पर रख दी ।
“सैम्पल है ।” - भण्डारी बोला - “पराया है । वापिस करना होगा ।”
देवड़ा कुछ न बोला । फिर वह घूमा और वहां से बाहर निकल गया ।
भण्डारी ने चैन की गहरी सांस ली ।
***
अपने दो आदमियों के साथ फ्लैट की निगरानी करते भीम ने विमल को फ्लैट से निकलकर सड़क पर एक ओर जाते देखा ।
“अब फ्लैट में पीछे छोकरी अकेली होगी !” - भीम खुशी से हाथ मलता बोला - “क्यों न इस वक्त फ्लैट पर धावा बोल दें !”
“क्या फायदा, बाप !” - उसके साथियों में से एक बोला - “कभी छोकरी भी तो किधर जायेंगी ! कभी फ्लैट खाली भी तो होयेंगा !”
“ऐसा पता नहीं कब होगा ?” - भीम बड़बड़ाया ।
“और फिर वह आदमी मोड़ तक ही गया हो सकता है ।” - दूसरा साथी बोला - “वो अभी का अभी वापिस आ सकता है ।”
“पता नहीं फ्लैट खाली कब होगा !” - भीम बोला ।
“अभी हो सकता है, बाप ।” - पहला साथी बोला - “शाम तक तो जरूर ही हो सकता है । बाई कोई सब्जी भाजी खरीदने भी तो जाती होगी !”
“तब तक वो आदमी लौट आयेगा ।”
“शायद न लौटे ।”
भीम ने असंतोष प्रकट करते हुए इनकार में सिर हिलाया ।
“शाम तक देखने में क्या वान्दा है, बाप !” - दूसरा साथी बोला - “वो विलायती साहब भी तो बोलता था कि जल्दबाजी नहीं मांगता ।”
“ठीक है” - भीम भुनभुनाता हुआ लेकिन निर्णयात्मक स्वर में बोला - “अंधेरा होने तक देखते हैं ।”
***
एक पब्लिक काल आफिस से विमल ने डेलोन को उसके होटल में फोन किया ।
वह तुरंत लाइन पर आया ।
“आपने मुझे पहचाना, मिस्यू डेलोन ?” - विमल बोला ।
“पहचाना ।” - उत्तर मिला ।
“क्या खबर है ?”
“रकम का इंतजाम हो गया है ।”
“मुकम्मल रकम का ?”
“हां ।”
“गुड ! अब सुनिए आपको क्या करना है !”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“रकम को सूटकेसों में भर लीजिये और फिर एक सीडी नम्बर प्लेट वाली कार का प्रबंध कीजिए ।”
“वो कैसे होगा ?”
“क्या मुश्किल है ? मुम्बई में फ्रैंच कांसुलेट है । आप वहां से सीडी नम्बर वाली गाड़ी तलब कर सकते हैं ।”
“तुम तो सब कुछ जानते हो !”
विमल हंसा ।
“खैर, आगे बढ़ो ।”
“आपने वे सूटकेस कार की डिकी में रखे लेने हैं और उसको खुद ड्राइव करते हुए वैस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे पर पहुंचना है । माहिम क्रीक पर पुलिस की नाकाबंदी अभी भी है । अब यह देखना आपका काम है कि आपके डिप्लोमैटिक स्टेटस का, आपकी सीडी नम्बर वाली कार का, पुलिस पर प्रत्याशित प्रभाव पड़े और वे आपकी गाड़ी को चैक न करें ।”
“कांसुलेट की गाड़ी को चैक करने की हिम्मत तुम्हारी पुलिस की नहीं होगी । तुम आगे बढो ।”
“आपने गाड़ी वैस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे और मथुरादास विशनजी रोड के क्रासिंग तक ले जानी है । क्रासिंग के करीब आपने गाड़ी को इस हिसाब से इस रफ्तार से चलाना है कि जब आप वहां पहुंचें तो आपको क्रासिंग की लाल बत्ती पर रुकना पड़े ।”
“अगर मुझे लाल बत्ती न मिली तो ?”
“आपने ऐसे ही गाड़ी चलानी है कि लाल बत्ती मिले ।”
“फिर भी न मिली तो ?”
“तो आपको आगे जाकर वैस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे के साथ अर्धवृत बनाती मोगरे रोड के रास्ते वापिस घूमना होगा और लौटकर उसी स्थान पर आना होगा और फिर क्रासिंग की लालबत्ती पर रुकना होगा । डेलोन साहब, यह काम जरूरी है और इतना मुश्किल नहीं जितना आप उसे साबित कर रहे हैं । पहली मर्तबा नहीं तो दूसरी मर्तबा आप उसे बाखूबी अंजाम दे सकते हैं ।”
“ओके । कनसिडर इट डन । आगे ?”
“आगे बस । ठीक तीन बजे आपको वैस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे और मथुरादास विशनजी रोड के चौराहे पर होना है । अगला निर्देश आपको वहीं प्राप्त होगा ।”
“चौराहे पर ! राह चलते !”
“जी हां ।”
“लेकिन इतने पचड़ों की जरूरत क्या है ?”
“जरूरत है ।” - विमल सख्ती से बोला - “जैसा कहा जाए, कीजिए । नहीं करना चाहते तो साफ बोलिए ।”
“नहीं, नहीं” - डेलोन व्यग्र भाव से बोला - “जैसे तुम कह रहे हो, वैसे ही होगा ।”
“गुड !”
विमल ने तत्काल सम्बंधविच्छेद कर दिया ।
***
पुलिस हैडक्वार्टर में एक जींस, कुर्ता, और चश्माधारी युवक एसीपी मनोहर देवड़ा के आफिस में पहुंचा ।
देवड़ा उसे पहचानता था । वह एक्सप्रैस का संवाददाता झालानी था ।
“आओ ।” - देवड़ा बोला - “कैसे आए ?”
“एक बड़ी फड़कती हुई टिप मिली है ।” - झालानी उसके सामने एक कुर्सी पर बैठता हुआ बोला - “उसकी तसदीक के लिए आया हूं ।”
“किस बाबत टिप मिली है ?”
“फ्रैंच पेंटिंगों की चोरी की बाबत ।”
“क्या टिप मिली है ?”
“उनकी चोरी की एक कोशिश पहले भी हो चुकी है ।”
देवड़ा खामोश रहा ।
“क्या यह बात सच है, एसीपी साहब ?” - झालानी जिदभरे स्वर में बोला ।
“तुम्हें किसने बताया ?”
“एक उड़ती चिड़िया ने बताया ।”
“क्या बताया ?”
“वही जो मैंने कहा । कितनी हैरानी की बात है कि पुलिस को एडवांस में खबर थी कि ऐसी कोई चोरी होने वाली है, फिर भी आप लोग चोरी रोक न सके ।”
“कौन कहता है कि पुलिस को एडवांस में खबर थी ?”
“क्या नहीं थी ?”
“कहता कौन है ?”
“मैं कहता हूं ।”
“तुम्हें किसने कहा ?”
“मैं अपना सोर्स आप पर जाहिर नहीं करना चाहता । आप बताइए कि यह बात सच है या नहीं ?”
देवड़ा ने बेचैनी से पहलू बदला । वह फैसला नहीं कर पा रहा था कि झालानी वाकई कुछ जानता था या महज ब्लफ मार रहा था ।
“देवड़ा साहब” - झालानी बड़े अर्थपूर्ण स्वर में बोला - “आप अपनी पुलिस की हैसियत में आदमी को जितना मर्जी समझा बुझा लीजिए, वह फिर भी अपनी पर्सनल ट्रेजेडी का जिक्र करने से बाज नहीं आता । आप सैकड़ों हजारों ट्रेजेडियों से रूबरू होते हैं लेकिन ट्रेजेडी के शिकार के लिए अपनी वाहिद ट्रेजेडी बहुत बड़ी घटना होती है और वह उसका जिक्र अपने दोस्तों, रिश्तेदारों में करने से बाज नहीं आता और उसकी यह हिदायत भी शायद ही कोई मानता है कि भाई साहब, बात आगे किसी को कहना नहीं । कुछ समझे ?”
“समझा ।”
“क्या समझे ?”
“तोलाराम नायक अपनी जुबान बंद रख न सका ।”
“दुरुस्त । खासतौर से तब जबकि जुबान बंद रखने से अब कुछ हासिल भी नहीं । भैंस तो चोरी हो गई । अब तबेले को ताला लगाकर रखने का क्या फायदा ?”
देवड़ा ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अब बताइए, फाल्स सीलिंग की क्या कहानी है ?”
देवड़ा ने बड़ी संजीदगी से सारी कहानी कह सुनाई ।
“आई सी ।” - झालानी बोला - “यानी कि जो चोर अब आप ही के महकमे के कर्मचारी बनकर चोरी कर गए, वो पहले इस काम को फायर फाइटर बनकर अंजाम देना चाहते थे !”
“हां ।”
“और आप फायर फाइटर्स के ही वहां दोबारा प्रकट होने का इंतजार करते रहे ?”
“हां ।”
“फाल्स सीलिंग से बरामद साजोसामान अभी भी फाल्स सीलिंग में ही है ?”
“हां ।”
“मैं उस सामान के वहीं पर पड़े की चंद तसवीरें खींचना चाहता हूं ।”
देवड़ा हिचकिचाया ।
“अब क्या हर्ज है, जनाब ?”
“कोई हर्ज नहीं ।” - देवड़ा निर्णयात्मक स्वर में बोला ।
“तो फिर चलें ?”
“अभी नहीं । अभी कमिश्नर साहब के साथ मुझे कहीं जाना है । तुम ऐसा करो, तुम तीन बजे मुझे आर्ट गैलरी में मिलना । तब तक अपनी बिरादरी के बाकी भाई-बंदों को भी खबर कर रखना ताकि मुझ पर तरफदारी का इलजाम न आए ।”
“ठीक है ।” - देवड़ा उठता हुआ बोला - “मैं तीन बजे आर्ट गैलरी में मिलता हूं ।”
***
कमिश्नर एसीपी देवड़ा के साथ खुद ओबराय शेराटन पहुंचा ।
फ्रांसीसी कलचरल अटैची जेकुई आंट्रे डेलोन से उनकी भेंट हुई ।
“हम चोरी गई पेंटिंग्स की बाबत आपसे बात करना चाहते थे ।” - कमिश्नर क्षीण स्वर में बोला । वह अपने पैरों पर जरूर खड़ा था लेकिन सिर पर हुए प्रहार ने उसके काफी कस बल निकाल दिए थे ।
“मैं खुद उस बाबत आपसे बात करना चाहता था ।” - डेलोन तीखे स्वर में बोला - “क्या कर रहा है आपका महकमा ?”
“हम कोई कोशिश उठा नहीं रख रहे । शहर की जैसी नाकाबंदी हमने की हुई है, उसके मद्देनजर इतना हम गारंटी से कह सकते हैं कि पेंटिंगें शहर से बाहर नहीं गई हैं ।”
“यह कोई खास तसल्ली नहीं । जब तक चोर या चोरी के माल का कोई सुराग नहीं मिलता...”
“सुराग मिलेगा । चोरी का माल भी मिलेगा और चोर भी गिरफ्तार होगा ।”
“काश आपकी इन उम्मीदों में और इस जोशखरोश में मैं भी शरीक हो सकता !”
“डेलोन साहब, हमारी ऐसी धारणा है कि चोर आपसे भी संपर्क कर सकते हैं ।”
“जी !”
“फिरौती की खातिर । उन पेंटिंगों को सुरक्षित आपको लौटाने की एवज में आपसे फिरौती की मांग हो सकती है ।”
“अच्छा !”
“हो सकता है” - कमिश्नर अपलक उसे देखता हुआ बोला - “ऐसी मांग हो भी चुकी हो ।”
“जी !” - डेलोन हड़बड़ाया - “नहीं, नहीं । ऐसी कोई मांग नहीं हुई है ।”
“चोरों ने आपसे संपर्क करने की भी कोशिश नहीं की ?”
“न ।”
“अगर ऐसा कोई संपर्क होगा, ऐसी कोई मांग होगी, तो आप हमें खबर करेंगे ?”
“हां, हां” - डेलोन हिचकिचाता हुआ बोला - “क्यों नहीं !”
“आपका यह आश्वासन है कि ऐसी कोई मांग हो नहीं चुकी ?”
“सरासर है । मैं क्या आपसे झूठ बोलूंगा !”
“इतना तो आप समझते है कि चोरों की बाबत कोई जानकारी रखते हुए आप हमें कुछ नहीं बतायेंगे तो उनकी गिरफ्तारी एक बहुत मुश्किल काम बन जाएगी ।”
“समझता हूं । मिस्टर कमिश्नर, आई एम नाट ए किड । आई वाज नाट बोर्न यस्टरडे ।”
“आई एम ग्लैड दैट यू थिंक सो ।” - कमिश्नर उठता हुआ बोला - “मैं आपसे फिर संपर्क करूंगा ।”
“जरूर । लेकिन इस बार ऐसा किसी अच्छी खबर के साथ कीजिएगा ।”
“ऐसा ही होगा ।”
***
डिप्लोमैटिक प्लेट वाली एक वातानुकूलित फेरारी कार माहिम क्रीक के पुल की तरफ दौड़ी जा रही थी । कार को डेलोन खुद चला रहा था । कार की डिकी में चार बड़े-बड़े सूटकेस मौजूद थे जिनमें सौ-सौ के नोटों की सूरत में छ: करोड़ रुपया बंद था ।
फिरौती अदा करने के अपने अभियान पर डेलोन वक्त से काफी पहले निकल पड़ा था । वह नहीं चाहता था कि ऐन मौके पर कोई व्यवधान पैदा हो जाता और वह निर्धारित समय पर निर्धारित स्थान पर न पहुंच पाता ।
उसने कार के डेश बोर्ड पर लगी इलैक्ट्रॉनिक क्लॉक पर निगाह डाली ।
सवा दो बजे थे ।
पुल पर हुई नाकाबंदी की वजह से उसे अपनी कार की रफ्तार धीमी करनी पड़ी ।
तभी एक सिपाही ने उसे आगे सरकती सी चलती कारों को ओवर टेक करके आगे गुजर जाने का संकेत किया । कार की सीडी नम्बर प्लेट के ऐसे ही रोब की डेलोन को अपेक्षा थी ।
लेकिन वह रोब क्षणभंगुर निकला ।
एक सब-इंस्पेक्टर ने बैरियर के करीब उसे रोका ।
यह डेलोन की बद्किस्मती थी कि उसे रोकने वाला दवे नामक वही सब-इंस्पेक्टर था जो पहले भी अपने आप को निहायत ढीठ और कर्तव्यपरायण साबित कर चुका था ।
सब-इंस्पेक्टर ने कार के सीडी नम्बर का कतई रोब न खाया ।
डेलोन ने कार का अपनी तरफ का शीशा नीचे गिराया और बोला - “क्या है ?”
“जरा दरवाजा खोलिए ।” - दवे बोला ।
“यह फ्रैंच कांसुलेट की कार है ।” - डेलोन बड़े रोब से बोला ।
“मुझे दिखाई दे रहा है ।”
“मेरा नाम जेकुई आंद्र डेलोन है । मैं फ्रेंच सरकार का कलचरल अटैची हूं ।”
“जरूर होंगे ।”
“मैंने फौरन एयरपोर्ट पहुंचना है ।”
“मैं सिर्फ दो मिनट लूंगा ।”
“लेकिन...”
“आप खामखाह बहस में वक्त बर्बाद कर रहे हैं, चैकिंग के बिना आप आगे नहीं जा सकेंगे ।”
“तुम कार में झांकना चाहते हो ?”
“हां ।”
डेलोन ने कार का पिछला दरवाजा खोल दिया ।
“जल्दी करो ।” - वह बोला ।
दवे ने कार के पीछे झांका ।
“डिकी खोलिये ।” - वह बोला ।
“क्या ?” - डेलोन आंखें निकालकर बोला ।
“मैंने अर्ज किया है डिकी खोलिये ।”
“तुम खामखाह मेरा वक्त बर्बाद कर रहे हो और मुझे हैरेस कर रहे हो ।”
“कार को एक ओर लगाइये ।”
“अरे, तुम...”
“कार को एक ओर लगाइए ।” - दवे एक एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला ।
“यहां तुम्हारा इंचार्ज कौन है ?”
“इंस्पेक्टर कालिया ।”
“उसे बुलाओ ।”
“बुलाता हूं । पहले कार एक ओर लगाइए ।”
खून का घूंट पीते डेलोन ने कार को एक तरफ लगाया । वह कार से बाहर निकला ।
“डिकी खोलिए ।” - दवे बोला ।
“अरे, अपने इंचार्ज को बुलाओ ।” - डेलोन झल्लाया ।
“आप पहले डिकी खोलिये ।”
“स्टूपिड, जब तुम अपने इंचार्ज को बुलाओगे तो डिकी खोलना जरूरी नहीं रह जायेगा ।”
तभी एक कार इतनी देर तक अटकी खड़ी पाकर इंस्पेक्टर कालिया खुद ही वहां पहुंच गया ।
“क्या बात है ?” - वह बोला ।
“ये साहब डिकी नहीं खोल रहे हैं ।”
इंस्पेक्टर ने एक सरसरी निगाह डिप्लोमैटिक नम्बर वाली कार और उसके मालिक पर डाली ।
“हमें हिदायत है” - इंस्पेक्टर बोला - “कि हम डिप्लोमैटिक व्हीकल्स भी चैक करें ।”
“होगी” - डेलोन भुनभुनाया - “लेकिन यह चैकिंग आप क्यों कर रहे हैं ? चोरी गयी फ्रेंच पेंटिंगों की तलाश में न ?”
“जी हां ।”
“वो हमारा माल है । चोरी गया हमारा माल क्या हमारी कार में से ही निकलेगा ? जिन पेंटिंगों की बरामदी के लिए मैं आपसे आपकी सरकार से, ज्यादा व्यग्र हूं वह क्या मेरी कार में से निकलेंगी ? अगर निकलेंगी तो इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है ?”
“आप साबित कर सकते है कि जो आप अपने आप को बता रहे है, आप वही हैं ?”
डेलोन हक्का बक्का-सा इंस्पेक्टर का मुंह देखने लगा ।
“यानी कि अब तुम्हें मेरे फ्रेंच कलचरल अटैची होने पर भी शक है ?”
“सर” - इंस्पेक्टर विनीत स्वर में बोला - “कैन यू शो सम प्रूफ आफ युअर आइडेंटिटी ?”
“मेरा पासपोर्ट और बाकी कागजात मेरे होटल के सुइट में हैं लेकिन तुम्हारा कमिश्नर मुझे जानता है । तुम उसे बुलाओ, वही मुझे आइडेंटीफाई करेगा ।”
“आप ऐसा चाहते हैं ?”
“मैं नहीं चाहता, तुम चाहते हो ।”
“मैं तो सिर्फ यह चाहता हूं कि आप एक मिनट के लिए कार की डिकी खोलें ।”
“मैं नहीं खोलूंगा ।”
“आपको एतराज क्या है ?”
“यह उसूल की बात है । तुम खामखाह मुझे हैरेस कर रहे हो । मुझे हैरेसमैंट से एतराज है ।”
“कमिश्नर को बुलाने की मांग करने से तो” - दवे बोला - “आपको और भी हैरेसमैंट होगी । कमिश्नर साहब कोई उड़कर तो यहां पहुंच नहीं सकते ! आपको उनका इंतजार करना मंजूर है लेकिन एक मिनट को कार की डिकी खोलना मंजूर नहीं ?”
“मुझे पुलिस की धांधली मंजूर नहीं ।”
“और अभी आप कह रहे थे कि आपने फौरन एयरपोर्ट पहुंचना है ?”
“आप डिकी खोल रहे हैं ?” - इंस्पेक्टर कालिया ने पूछा ।
“नहीं” - डेलोन बोला - “हरगिज नहीं ।”
“आपकी जिद मेरी समझ से बाहर है ।”
“मुझे लगता है तुम दोनों अपनी नौकरी से बेजार हो ।”
“आप कार में बैठिए” - कालिया निर्णायक स्वर में बोला - “मैं वायरलेस पर कमिश्नर साहब को खबर करता हूं ।”
अंगारों पर लोटता डेलोन कार में जा बैठा ।
जिस बात के समस्या बनने का उसे रत्ती-भर भी अंदेशा नहीं था, वही समस्या बन गयी थी ।
कमिश्नर माहिम क्रीक के नाके पर पहुंचा ।
इंस्पेक्टर कालिया और सब-इंस्पेक्टर दवे ने जल्दी-जल्दी उसे वस्तुस्थिति समझाई ।
“सर” - सब-इंस्पेक्टर दवे बड़े अदब से बोला - “इतनी अड़ी कोई खामखाह नहीं करता । कार में शर्तिया कुछ है ।”
“उसे आपका लम्बा इंतजार करना कबूल हुआ है ।” - इंस्पेक्टर कालिया बोला - “लेकिन डिकी खोलकर तीस सैकेंड में इस जहमत से निजात पाना कबूल नहीं हुआ है ।”
“मैं बात करता हूं ।” - कमिश्नर चिंतित भाव से बोला ।
वह डेलोन के पास पहुंचा ।
डेलोन उसे बांह पकड़कर एक ओर ले गया ।
“मिस्टर कमिश्नर” - वह जल्दी बोला - “आप जानते हैं मैं कौन हूं ?”
“बाखूबी जानता हूं ।” - कमिश्नर बोला ।
“तो जो आप जानते हैं, वह अपने मातहतों को भी बताइये । मिस्टर कमिश्नर, फार गाड सेक, मेरा इनसे पीछा छुड़ाइये ।”
“डिकी में क्या है ?”
“कुछ नहीं है ।”
“ऐसा कहीं हो सकता है ! इतना बखेड़ा आप कुछ नहीं को छुपाने के लिए कर रहे हैं ?”
“यानी कि आप भी डिकी खोलने की जिद कर रहे हैं ?”
“आप हकीकत बता देंगे तो ऐसी जिद करना जरूरी नहीं रह जाएगा ।”
“हकीकत जानना आपको रास नहीं आयेगा ।”
“अच्छा !”
“आप हकीकत जानने की कोशिश न करें, इसी में हम सबकी भलाई है ।”
“डिकी में क्या है ?”
“जाने बिना नहीं मानोगे ?”
“नहीं ।”
“तो यह लो चाबी । खुद जाकर देख लो । लेकिन खुदा के वास्ते, अपने मातहतों को न देखने देना ।”
कमिश्नर सहमति में सिर हिलाता डेलोन की कार की तरफ बढ़ा ।
एक मिनट बाद जब वह वापिस डेलोन के पास पहुंचा तो उसके चेहरे पर गहन उत्कंठा के भाव थे ।
“यह फिरौती की रकम है ?” - उसने पूछा ।
डेलोन ने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
“कितनी ?”
“छ: करोड़ ।”
“कैसे मुहैया की ?”
“बस, कर ली किसी तरह से ।”
“आपने” - कमिश्नर के स्वर में गहरी शिकायत का पुट आ गया - “हमसे झूठ बोला था कि चोरों का आपसे कोई संपर्क नहीं, उनकी फिरौती की कोई मांग नहीं ?”
“हां । मैं शर्मिंदा हूं । लेकिन मैं क्या करता ! मेरी मजबूरी थी । पेंटिंगों की सुरक्षित वापिसी मेरे लिए ज्यादा अहम बात थी ।”
“आपको विश्वास है कि आपके साथ धोखा नहीं होगा और फिरौती के बाद पेंटिंगें वापिस मिल जायेंगी ?”
“हां ।”
“फिरौती की मांग होते ही आपको हमारे पास आना चाहिए था ।”
“मैं आपके पास आना अफोर्ड नहीं कर सकता था । मैं छ: करोड़ रुपया खोना अफोर्ड कर सकता हूं आपके पास आना नहीं ।”
“चोरों की मांग के आगे झुककर आप उन्हें शह दे रहे हैं ।”
“मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि मैं पेंटिंगें वापिस हासिल करने की कोशिश कर रहा हूं । मैं आपका, आपकी सरकार का काम कर रहा हूं । वे पेंटिंगें हमारी रास्ट्रीय धरोहर है । उनकी सलामती और सलामत वापिसी से ज्यादा अहम काम मेरे लिए कोई नहीं ।”
“लेकिन यूं फिरौती अदा करना गैरकानूनी है ।”
“कानूनी तौर पर आप पेंटिंगें वापिस हासिल कर सकते हैं ?”
“कर सकते हैं ।”
“कब ?”
“देर सवेर तो चोरों ने पकड़ा ही जाना है ।”
“मैं कयामत के दिन तक इंतजार नहीं कर सकता ।”
“यह काम अभी हो सकता है । जिस शख्स को आप फिरौती देने जा रहे हैं, उसे हम गिरफ्तार कर लेंगे और फिर उससे उगलवा लेंगे कि पेंटिंगें उसने कहां छुपाई हैं !”
“उसने ऐसा इंतजाम किया हुआ है कि अगर उसको गिरफ्तार किया गया तो पेंटिंगें तो क्या, उनकी राख भी हमारे हाथ नहीं आयेगी ।”
“यह गीदड़भभकी हो सकती है ।”
“हो सकती है । लेकिन मैं इसे चैलेंज करना अफोर्ड नहीं कर सकता ।”
“और हम फिरौती की रकम के साथ चोरों का खिसक जाना अफोर्ड नहीं कर सकते ।”
“यानी कि आप मेरे पीछे लगकर चोरों को गिरफ्तार करने की कोशिश करेंगे ?”
“हां ।”
“आप ऐसा करेंगे तो बहुत बुरा करेंगे । तब न सिर्फ आप बल्कि आपकी सरकार भी आपके इस एक्शन के लिए जवाबदेय होगी । आप मेरे डिप्लोमैटिक स्टेटस को खातिर में नहीं ला रहे हैं । मैंने अब तक आपको और आपके मातहतों को पूरा सहयोग दिया है जबकि मेरे लिए ऐसा करना जरूरी भी नहीं । आप...”
“आप मेरी बात सुनिए ।”
“नहीं । अब आप मेरी बात सुनिये । मेरी कार में वायरलेस टेलीफोन है । मैं अभी आपके सामने कांसुलेट में फोन करता हूं ताकि वे आगे आपकी सरकार से बात कर सकें । मिस्टर कमिश्नर अब आपको जो भी निर्देश हासिल होगा, नई दिल्ली से हासिल होगा ।”
कमिश्नर के छक्के छूट गये ।
“आप चाहते हैं” - वह मरे स्वर में बोला - “कि हम फिरौती अदा होने दें और खुद हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहें ?”
“एग्जैक्टली । बिल्कुल यही चाहता हूं मैं । यह जानते हुए भी कि वे पेंटिंगें चोरी हो सकती हैं, एक तो आप उनकी चोरी नहीं रोक सके, चोरी हो गयी तो आप उनका कोई सुराग तक न पा सके और अब जब हम अपनी जाती कोशिशों से पेंटिंगों को वापिस हासिल करने के लिए कदम उठा रहे हैं तो आपको उससे एतराज है ।”
“हम हरचंद कोशिश कर रहे हैं...”
“मैं वाकिफ हूं आपकी कोशिशों से । आपकी कोशिशें कामयाब होते होते होंगी, मेरी कोशिश अभी कामयाब हो रही है । एक काम हो रहा है और आप उसमें अड़ंगा लगाना चाहते हैं !”
“इस बात की कोई गारंटी नहीं कि काम होगा । आप फिरौती की रकम से खामखाह महरूम हो सकते हैं ।”
“आई डोंट माइंड । मेरी सरकार छ: करोड़ रुपये का नुकसान अफोर्ड कर सकती है ।”
“लेकिन...”
“और आप अपने आप को खुशकिस्मत समझिए कि फिरौती की मांग चोरों ने हमसे की, आपकी सरकार से नहीं । यह मांग आपकी सरकार से हुई होती तो वह भी फिरौती अदा करती, नाक रगड़कर अदा करती । आपकी सरकार को भी छ: करोड़ रुपये का नुकसान या एक चोर का हाथ से निकल जाना उतना अहम न लगाता जितना कि पेंटिंग का वापस हासिल हो जाना और उनका सुरक्षित फ्रांसीसी सरकार के पास पहुंच जाना । कहिये कि मैं गलत कह रहा हूं !”
“फिरौती लेते ही वो लोग आपको पेंटिंगें वापिस करेंगे ?”
“नहीं, फौरन नहीं, लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि पेंटिंगें वापिस हासिल होंगी । आप इस विषय को बार बार न दोहराइये । मैं कई बार अर्ज कर चुका हूं कि मेरी सरकार छ: करोड़ रुपये का नुकसान अफोर्ड कर सकती है । इस मामले में हमें धोखा भी होगा तो कोई बात नहीं । हम इसे एक मिसएडवेंचर मानकर भुला देंगे लेकिन आप अपनी कोशिश जारी रखिएगा और वो तीर तब मारकर दिखा दीजिएगा जिसे मारने का आप इस वक्त दावा कर रहे हैं ।”
“पेंटिंगें हाथ आ जाने के बाद आप हमें खबर करेंगे ? तब तो आप चोरों को गिरफ्तार करवाने में हमारी मदद करेंगे ?”
“एक बार पेंटिंगें हाथ में आ जायें फिर चोरों को दुनिया के पर्दे से नेस्तनाबूद करने में मैं भी आप की मदद करूंगा ।”
“हूं ।”
“आप क्या समझते है कि एक गुण्डे बदमाश के आगे झुकने से मैं खुश हूं ? लेकिन वक्त की जरूरत यही कहती है कि मैं वही कदम उठाऊं जो मैं उठाने जा रहा हूं ।”
“ठीक है, जाइए ।”
“कोई मेरे पीछे नहीं आयेगा ?”
“नहीं ।”
“डू आई हैव यूअर वर्ड फार इट ?”
“यस ।”
“थैंक्यू । आई ऐप्रिशियेट इट । थैंक्यू वैरी मच ।”
डेलोन ने कमिश्नर से हाथ मिलाया और लम्बे डग भरता अपनी कार की ओर बढ गया ।
कमिश्नर अपने मातहतों के करीब पहुंचा ।
“तुम लोगों ने कार का नम्बर नोट किया ?” - कमिश्नर वहां से विदा होती डेलोन की कार की दिशा में देखता हुआ बोला ।
“यस, सर ।” - इंस्पेक्टर कालिया बोला ।
“तमाम नाकों पर वायरलैस से खबर कर दो कि इस कार को कहीं इंटरसैप्ट करने की कोशिश न की जाए ।”
“यस, सर ।”
“सर !” - सब-इंस्पेक्टर दवे उत्सुक भाव से बोला ।
“यस ?” - कमिश्नर उसकी तरफ घूमकर बोला ।
“डिकी में क्या था ?”
“आइफल टावर ।”
***
ठीक तीन बजे एसीपी देवड़ा आलमगीर आर्ट गैलरी पहुंचा ।
प्रैस रिपोर्टर झालानी अपनी बिरादरी के पांच छ: लोगों के साथ पहले से ही वहां मौजूद था ।
“आइये ।” - देवड़ा उन्हें दूसरी मंजिल पर ले आया ।
चोरी के बाद से दूसरी मंजिल का हाल बंद पड़ा था । देवड़ा ने प्रैस रिपोर्टरों के लिए विशेष रूप से उसे खुलवाया ।
फिर उसने रिपोर्टरों को बड़े सब्र से चोरों की पहली योजना की और तोलाराम नायक के लड़के के अपहरण की सारी कहानी सुनाई ।
“मैंने चोरों के लिए एक जाल फैलाया था” - वह खेदपूर्ण स्वर में बोला - “लेकिन अफसोस है कि वे उसमें नहीं फंसे ।”
“जरूर उन्हें आपके फैलाये जाल की खबर लग गयी होगी !” - झालानी बोला ।
तुरंत देवड़ा का ध्यान फिर भण्डारी की तरफ गया ।
उसके अलावा और किससे चोरों को उस जाल की खबर लग सकती थी ।
उसका दिल पुकारकर कह रहा था कि भण्डारी चोरी में शरीक था
लेकिन उसकी शिरकत साबित करने के लिए उसके पास कोई सबूत नहीं था ।
“हम” - एक रिपोर्टर बोला - “फाल्स सीलिंग में पड़े साजोसामान, धुएं के बम, गैस मास्क, फायर फाइटर्स की वर्दियों वगैरह की चंद तसवीरें खींचना चाहते हैं ।”
“शौक से खींचिये ।” - देवड़ा दार्शनिकतापूर्ण स्वर में बोला - “अब क्या फर्क पड़ता है ।”
“थैंक्यू ।”
“मैं फाल्स सीलिंग खुलवाता हूं ।”
फाल्स सीलिंग खुलवाई गयी ।
“भीतर एक वक्त में एक जना ही जाइयेगा ।” - देवड़ा ने चेतावनी दी - “छत ज्यादा लोगों का बोझ नहीं सम्भाल सकेगी ।”
सबने सहमति में सिर हिलाया ।
सबसे पहले झालानी ही अपने कैमरों से लदा-फंदा छत में दाखिल हुआ ।
“देवड़ा साहब !” - थोड़ी देर बाद भीतर से उसकी आवाज आयी ।
“हां ।” - देवड़ा बोला ।
“यह भीतर एक गोल-सा लम्बा-सा बंडल पड़ा है, यह क्या है ?”
“गोल-सा, लम्बा-सा बंडल ?”
“जी हां । चोरों द्वारा रखे गये साजोसामान में ऐसे किसी बंडल का जिक्र तो आपने नहीं किया था !”
“मेरी जानकारी में तो ऐसा कोई बंडल भीतर नहीं था ।”
“तो फिर यह कहां से आया ?”
“उसे बाहर निकालो । देखते हैं ।”
झालानी एक लम्बे, गोल बंडल के साथ फाल्स सीलिंग से बाहर निकला । नीचे आकर उसने बंडल देवड़ा को सौंप दिया ।
देवड़ा कुछ क्षण बंडल को उलटता पलटता रहा फिर उसे अपने एक मातहत के हवाले करके उसने आदेश दिया - “इसे खोलो ।”
बंडल खोला गया ।
बंडल खुला तो भीतर से वैसे ही चार, लेकिन पहले बंडल से पतले, बंडल और बरामद हुए । उनमें से एक खोला गया तो ग्लासिन पेपर में अलग अलग लिपटी छ: पेंटिंगें बरामद हुई । आनन फानन बाकी के तीन बंडल भी खोले गये तो अट्ठारह पेंटिंगें और निकल आईं ।
सब हक्के बक्के से पेंटिंगों को देखने लगे ।
“ये... ये...”
“डायरेक्टर साहब को बुलाओ ।” - एकाएक देवड़ा चिल्लाया - “फौरन !”
एक सिपाही नीचे को दौड़ा ।
उलटे पैर वह बुरी तरह हांफते हुए बर्वे के साथ वहां पहुंचा ।
“ये पेंटिंगें देखिये ।” - देवड़ा बड़े सस्पेंसभरे स्वर में बोला - “क्या ये...”
“वही हैं । वही हैं ।” - बर्वे बोला, खुशी से वह नाचने लगा - “कहां से मिलीं ?”
“यहीं से । फाल्स सीलिंग से ।”
“यह यहीं थीं ?”
“जाहिर है ।”
“यानी कि ये चोरी गयी ही नहीं थीं ?”
“जाहिर है ।”
“कमाल है ! ऐसी चोरी का मतलब !” - फिर एकाएक वह ठिठका - “आप सब लोग बाहर निकलिये । फौरन ! फौरन !” - वह वहां ताला खोलने आये गार्ड की तरफ घूमा - “यहां ताला लगाओ । अलार्म सिस्टम ऑन कर दो । सारे फ्लोर पर पहरा लगा दो ।” - वह देवड़ा की तरफ घूमा - “आप भी अपना पुलिस बंदोबस्त कराइये ।”
“जरूर ।” - देवड़ा बोला - “अभी लीजिये ।”
वह नीचे को भागा ।
सिक्योरिटी आफिस से उसने कमिश्नर को टेलीफोन किया ।
***
तीन बजने में अभी भी वक्त था इसलिए डेलोन ने निर्धारित स्थान पर पहुंचने से पहले इधर उधर चक्कर लगाकर अच्छी तरह से तसल्ली कर ली कि कोई उसके पीछे नहीं लगा हुआ था । जब उसे इस बात की गारंटी हो गयी तो उसने कार को फिर वैस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे पर डाला।
आगे चौराहे पर उसने बत्ती हरी पाई ।
उसने जान बूझकर कार की रफ्तार घटा दी ताकि जब तक वह चौराहे पर पहुंचता बत्ती लाल हो जाती ।
ऐसा ही हुआ ।
उसने जेबरा क्रासिंग के सामने कार रोक दी और बड़े उत्कंठापूर्ण भाव से कोई अप्रत्याशित घटना घटित होने की प्रतीक्षा करने लगा ।
तभी उसके पहलू में एक काली एम्बेसेडर आकर रुकी ।
उसने देखा कार कोई पचास साल का बेहद कठोर चेहरे वाला मराठा चला रहा था और उसकी बगल में एक बाहर को निकले दांतों और पकौड़े की तरह फूली नाक वाला चश्माधारी हिप्पी युवक बैठा हुआ था ।
कार के गतिहीन होते ही वह हिप्पी युवक कार से निकला, उसने झपटकर डेलोन की कार का दरवाजा खोला, उसे जबरन ड्राइविंग सीट से परे धकेला और उसकी जगह स्टियरिंग संभालकर बैठ गया ।
“यह.. .क.. .क” - डेलोन क्रोधित भाव से बोला - “क.. .क्या हरकत...”
“खामोश !” - हिप्पी युवक गुर्राया ।
तभी आगे बत्ती हरी हो गयी ।
हिप्पी युवक ने कार आगे बढ़ा दी ।
पीछे काली एम्बेसेडर पहले तनिक आगे बढी और फिर एकाएक यूं तिरछी होकर रुक गयी कि उसके पीछे आती कार उससे टकराने से बाल बाल बची ।
तुकाराम कार के साथ यूं कुश्ती लड़ने लगा जैसे समझ न पा रहा हो कि कार को एकाएक क्या हो गया था और वह क्यों रुक गयी थी ।
पीछे कारें हार्न पर हार्न देने लगी ।
तुकाराम ने इग्नीशन आफ कर दिया और कार से बाहर निकला । पीछे अटकी खड़ी कारों वालों को हाथ जोड़ता और उनसे धीरज रखने का अनुरोध करता वह कार के अग्रभाग में पहुंचा और उसका हुड उठाकर भीतर झांकने का अभिनय करने लगा । वास्तव में वह उधर देख रहा था जिधर विमल फेरारी भगा ले गया था ।
तभी ट्रैफिक का एक सिपाही तुकाराम की तरफ बढ़ा ।
तब तक फेरारी उसकी निगाहों से ओझल हो गयी थी ।
चौराहे की सिग्नल लाइट हरी से फिर लाल हो गयी थी ।
सिपाही के मुंह खोल पाने से पहले ही तुकाराम ने हुड गिरा दिया और सिपाही को देखकर जबरन मुस्कराता हुआ बोला - “ठीक हो गयी ।”
“अक्खा ट्रैफिक जाम कर दिया !” - सिपाही भुनभुनाया ।
“सारी !” - तुकाराम दांत निकालता बोला ।
वह कार की ड्राइविंग सीट पर आ बैठा । उसने कार का रुख दोबारा सामने सड़क की ओर किया और प्रतीक्षा करने लगा ।
बत्ती हरी हुई तो वह कार को वहां से निकाल ले गया ।
“तुम” - डेलोन बोला - “कौन हो ?”
“यानी कि” - विमल मुस्कराया - “आपने मुझे वाकई नहीं पहचाना ?”
डेलोन ने गहरी सांस ली ।
“अब आवाज से पहचाना है ।” - वह बोला ।
“माल चौकस है ?”
“हां । पीछे डिकी में है । चार सूटकेसों में । गाड़ी रोककर चैक कर लो ।”
“जरूरत नहीं । मुझे आप पर एतबार है ।”
“अब पेंटिंगें कब मिलेंगी ? कैसे मिलेंगी ?”
“मैं जरा तसल्ली कर लूं कि मेरे पीछे कोई नहीं लगा हुआ, फिर मैं आपको कहीं उतारता हूं ।”
“मैंने पूछा था...”
“उसी का जवाब दे रहा था मैं । आप कार से उतरकर टैक्सी पकड़ियेगा और वापिस अपने होटल तशरीफ से जाइयेगा । आधे घंटे में आपके पास पेंटिंगों की बाबत टेलीफोन काल पहुंच जायेगी ।”
“टेलीफोन काल पहुंच जायेगी या पेंटिंगें पहुंच जायेगी ?”
“पहले काल पहुंचेगी, फिर पेंटिंग ।”
“लेकिन...”
“खातिर जमा रखिये । आपका माल आप तक जरूर पहुंचेगा । यह एक ऐसे चोर की जुबान है जिसका दुनिया एतबार करती है ।”
“कोई धोखा तो नहीं होगा ?”
“आप यह सोचकर भी मेरी तौहीन कर रहे है कि मेरे से आपको कोई धोखा हो सकता है ।”
वह खामोश हो गया ।
एकाएक विमल ने कार को जोर से ब्रेक लगाई और बोला - “उतरिये ।”
कार के गतिशून्य होते ही डेलोन हड़बड़ाकर उसमें से उतर गया ।
कार तोप से छूटे गोले की तरह आगे दौड़ चली ।
आगे चौराहे पर उसने कार को आरे रोड पर बायें मोड़ा और रेलवे क्रासिंग पार करके स्वामी विवेकानंद मार्ग पर आ गया ।
अब कार वापस उसी दिशा में भागी जा रही थी जिधर से वह आयी थी ।
तभी एकाएक कार में लगे वायरलेस टेलीफोन पर सिग्नल आने लगा ।
विमल कुछ क्षण सिग्नल को नजरअंदाज करता रहा लेकिन जब सिग्नल आना बदस्तूर जारी रहा तो उसने हिचहिचाते हुए रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया ।
“हल्लो !” - वह बोला ।
“मिस्टर डेलोन ?”
“यस ।”
फोन में स्टेटिक साउंड बहुत ज्यादा आ रही थी इसलिए विमल को उम्मीद थी कि उसकी आवाज पहचानी नहीं जाने वाली थी ।
“मिस्टर डेलोन, मैं मुम्बई पुलिस कमिश्नर बोल रहा हूं ।”
“बोलिए ।”
“आपकी चोर से मुलाकात हो गयी ?”
“अभी नहीं ।”
“बहुत अच्छा हुआ । शुक्र है खुदा का !”
“क्यों ?”
“मिस्टर डेलोन, आप चोर को फिरौती हरगिज भी अदा मत कीजिएगा ।”
“क्यों !”
“क्योंकि पेंटिंगें मिल गयी है ।”
“क्या !”
“जी हां । पेंटिंगें चोर साथ नहीं ले गये थे । वे उन्हें एग्जीबिशन हाल की फाल्स सीलिंग में छुपा गये वे । संयोगवश ही अभी अभी फाल्स सीलिंग में से वे पेंटिंगें बरामद हो गयी हैं । अब उनके लिए फिरौती अदा करना जरूरी नहीं रह गया ।”
“ओह !”
“मैं बड़ी मुश्किल से आपकी कार का टेलीफोन नम्बर हासिल कर पाया हूं और आपसे बात कर सका हूं । अब आप अपने वादे के मुताबिक चोरों को पकड़वाने में मदद कीजिये ।”
“मुझे कैसे विश्वास हो कि पेंटिंगें बरामद हो गयी हैं ?”
“आप कहीं रुककर आर्ट गैलरी के डायरेक्टर से बात कर लीजिए । यह खबर आपके कांसुलेट में भी भिजवाई जा चुकी है । आप वहां फोन करके तसदीक कर लीजिए ।”
“अब आप क्या चाहते हैं ?”
“आप इस वक्त कहां हैं ?”
“वैस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे पर मलाड में ।”
“आपकी चोर से मुलाकात कहां होनी निश्चित हुई है ?”
“बोरीवली में । नैशनल पार्क के करीब के चौराहे पर ।”
“सड़क पर ही ?”
“हां ।”
“आप रास्ते में ही रुक जाइये और तब तक रुके रहिये जब तक हमारी गश्ती गाड़ियां वहां पहुंच न जाएं ।”
“रास्ते में कहां रुकूं ?”
“कांदीवली से थोड़ा आगे हाइवे पर ही ।”
“ठीक है ।”
“आपको इंतजार नहीं करना पड़ेगा । हमारी गाड़ियां बस आपसे आगे पीछे ही वहां पहुंचेंगी ।”
“ठीक है ।”
“ओवर एण्ड आल ।”
विमल ने रिसीवर वापिस हुक पर टांग दिया ।
धन्न करतार ! - उसके मुंह से निकला ।
सारा सिलसिला फिर फेल होने से बाल बाल बचा था ।
वह टेलीफोन काल सिर्फ पांच मिनट पहले आयी होती तो डेलोन ने खुद रिसीव की होती और विमल से मुलाकात से पहले रिसीव की होती ।
फिर माल तो हाथ लगता नहीं, वह और तुकाराम गिरफ्तार भी शर्तिया होते ।
पेंटिंगें बरामद होने का संयोग बहुत नाजुक घड़ी में हुआ था । एयरपोर्ट के करीब पूर्वनिर्धारित स्थान पर तुकाराम काली एम्बेसेडर के साथ मौजूद था ।
उन्होंने चारों सूटकेस फेरारी की डिकी में से निकालकर एम्बेसेडर में रख लिए ।
तुकाराम ने यह तसदीक भी कर ली कि उनमें नोट ही थे ।
फेरारी को उन्होंने वही छोड़ दिया ।
काली एम्बेसेडर बांद्रा की ओर बढ चली ।
चार बजे तक छ: करोड़ रुपये की रकम सुरक्षित बांद्रा पहुंच चुकी थी ।
अब पेंटिंगों की बाबत डेलोन को फोन करना जरूरी नहीं रह गया था । अब तक उसे पेंटिंगें बरामद होने की खबर लग नहीं गयी थी तो अब लग जाने वाली थी ।
फ्लैट की निगरानी करते भीम और उसके साथियों ने फ्लैट में चार सूटकेस ले जाये जाते देखे ।
“रोकड़ा अब आया है ।” - भीम उत्तेजित स्वर में बोला - “रोकड़ा जरूर अब आया है । रोकड़ा जरूर इन सूटकेसों में होयेंगा ।”
“अच्छा हुआ न, बाप” - एक साथी बोला - “कि हम पहले ही फ्लैट में नहीं घुस पड़े ! तब क्या हाथ लगता !”
“बरोबर ।” - भीम ने कबूल किया - “अब रात होने का इंतजार करते हैं ।”
दोनों ने सहमति में सिर हिलाया ।
“तुम यही जमे रहना” - भीम बोला - “मैं रीली साहब को फोन करके आता हूं ।”
“ठीक है ।”
***
ठीक पांच बजे रुस्तमभाई बांद्रा वाले फ्लैट पर पहुंच गया ।
“मैंने कहा था” - वह बोला - “मैं शाम को...”
“खुद क्यों चले आये” - तुकाराम अप्रसन्न स्वर में बोला - “मैंने कहा था मैं वागले को तुम्हें लिवाने के लिए भेजूंगा ।”
“वागले नहीं आया तभी तो आया हूं ।”
“लेकिन...”
“और तुमने कौन-सा भेज दिया है वागले को ?”
“तुम्हें यूं यहां नहीं आना चाहिए था ।”
“तुकाराम, तुम आ सकते हो तो कोई और क्यों नहीं आ सकता ?”
“मेरी बात और है ।”
“क्यों और है तुम्हारी बात ?”
“छोड़ो ।” - विमल बोला - “यह बहस बेमानी है । रुस्तमभाई, तुम जिस मतलब से आये हो उसे हल करो और जाओ यहां से ।”
“यानी कि रोकड़ा दिखा रहे हो ?” - रुस्तमभाई के स्वर में अविश्वास का स्पष्ट पुट था ।
“हां ।”
“यहां इस वक्त फ्लैट में पूरी रकम मौजूद है ?”
“हां । अभी तुम्हें रकम के सिरहाने बिठा देते हैं । उसे गिन लेना । इस बहाने हमारी भी तसल्ली हो जायेगी कि माल पूरा मिला है ।”
“माल कल से ही यहां है ?”
“हां ।”
“लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“ऐसा कैसे हो सकता है !”
“क्यों नहीं हो सकता ?”
“हो सकता है ।” - रुस्तमभाई हड़बड़ाकर बोला - “मैं यूं ही बहक रहा था । मेरा भेजा फिरेला है । रात को मुझे बुरे बुरे सपने आते रहे हैं ।”
“देखो !”
रुस्तमभाई के सामने चारों सूटकेस खोलकर रख दिए गए ।
तभी मंजुला ने भी पहली बार दौलत का वह अम्बार देखा । उसकी आंखें यूं फट पड़ी कि विमल को डर लगने लगा कि कहीं कटोरियों से बाहर न निकल पड़े ।
“शांति !” - विमल उसकी हालत देखकर बोला - “शांति !”
मंजुला ने बड़ी कठिनाई से अपने आप पर काबू पाया ।
“तसल्ली हो गयी, रुस्तमभाई !” - विमल बोला ।
“हां ।” - रुस्तमभाई मंत्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“अब इसमें से अपने हिस्से के पिचहत्तर लाख रुपये निकाल लो ।”
“क्या ?” - रुस्तमभाई चौंका ।
“और उन्हें लेकर यहां से चम्पत हो जाओ । अब तुम्हारी हमारी रिश्तेदारी खतम ।”
“लेकिन मैं इस वक्त अपना हिस्सा कैसे ले जा सकता हूं ?” - वह घबराया ।
“क्यों नहीं ले जा सकते ?”
“सारे शहर में पुलिस की नाकाबंदी है । मैं हाथ के हाथ पकड़ा जाऊंगा । मैं जरूर पकड़ा जाऊंगा । मैं इतनी बड़ी रकम की अपने पास मौजूदगी का क्या जवाब दूंगा ?”
“यह तुम्हारा सिर दर्द है । हमें इससे क्या मतलब ?”
“यह तो जानबूझकर मुझे फंसाने वाली बात हो गयी !”
“हो गयी तो हो गयी ।”
“लेकिन अगर मैं पकड़ा गया तो...”
“तो तुम बेशक हमारी पोल खोल देना । हम तुम्हारे से खफा नहीं होंगे ।”
“सरदार, मेरे से गलती हुई । मुझे माफ कर दे । यूं खामखाह तो मेरी मौत का सामान न कर । खुद ही तो कहा कि पंद्रह दिन हमें माल के पास नहीं फटकना चाहिए और अब खुद ही माल मेरे माथे मढ रहे हो ?”
“तुमने मानी कहां मेरी बात ?”
“मुझसे खता हुई । मुझे माफ कर दो ।”
“क्यों हुई खता ?”
“मुझे गुमराह किया गया था ।”
“किसने किया ऐसा ?”
“उस पौव्वे ने ।”
“किसने ?”
“रामन्ना ने ।”
“वह कहता था कि माल हम हजम कर गए हैं ?”
“ऐसा तो नहीं कहा था उसने ! अलबत्ता वह चाहता था कि कोई गारंटी होनी चाहिए थी कि माल हाथ लग चुका है । साले ने मुझे आगे कर दिया ।”
“और तुम हो गए ?”
“हां, खता हुई मुझसे । मुझे माफ कर दो । मेरे बाप की तौबा जो मैं दोबारा कभी ऐसा शक करूं और ऐसी बकवास जुबान पर लाऊं ।”
“अब तुम्हारी तसल्ली है ?”
“अब” - वह दांत निकालकर बोला - “तसल्ली में क्या कसर रह गई है, बाप !”
“अब रामन्ना को तसल्ली की जरूरत होगी ?”
“नहीं होगी । उसे मैं ठीक कर दूंगा । साले ने बहुत खराब किया मुझे ।”
विमल खामोश हो गया ।
“अब मैं जाऊं ?” - रुस्तमभाई आशापूर्ण स्वर में बोला ।
विमल ने एक बार तुकाराम की तरफ देखा और फिर उसकी सहमति पाकर हामी भर दी ।
रुस्तमभाई वहां से यूं भागा जैसे बहुत बड़े जंजाल से निजात पाया हो ।
सूटकेस बंद करके वापिस बेडरूम की उस वार्डरोब में रख दिए गए जिसमें से वे रुस्तमभाई के आगमन पर निकाले गए थे ।
मंजुला को बैडरूम में छोड़कर दोनों बाहर के कमरे में आ गए ।
“अब मैं रीली को क्या जवाब दूं ?” - तुकाराम बोला ।
“उसे कोई जवाब देने की जरूरत नहीं ।” - विमल बोला - “पेंटिंगों की बरामदी की खबर छुपने वाली नहीं और फिरौती की खबर आम नहीं होने वाली । डेलोन कभी कबूल नहीं करेगा कि उसने चोरों को फिरौती की कोई रकम दी थी । रीली को जब पता लगेगा कि पेंटिंगें अपने असल मुकाम पर पहुंच गई थीं तो वह खुद ही तुम्हारा पीछा छोड़ देगा ।”
“ऐसा ?” - तुकाराम संदिग्ध भाव से बोला ।
“हां । दूसरी सावधानी तुम यह बरत सकते हो कि कुछ दिन के लिए अपना चैम्बूर वाला ठिकाना छोड़ दो और अपने किसी भेदिए को उसकी निगरानी पर लगा दो । रीली की वजह से अगर पुलिस तुम्हारी फिराक में पड़ेगी तो इस तरह तुम्हें उसकी एडवांस में खबर हो जाएगी । नहीं पड़ेगी तो बात साफ हो जाएगी कि रीली ने तुम्हें गीदड़ भभकी ही दी थी ।”
“ठीक है ? मैं कुछ दिन के लिए ‘मराठा’ में रह लूंगा ।”
‘मराठा’ कोलीवाड़ा में स्थित एक होटल था जिसका मालिक सलाउद्दीन वागले का दोस्त था ।
***
भीम ने जैक रीली को उसके होटल में फोन किया और उसे बांद्रा वाले फ्लैट में पहुंचे चार सूटकेसों की बाबत बताया । भीम को यह जानकर बहुत अफसोस हुआ कि रीली ने उस ‘चमत्कारी’ खबर में कोई दिलचस्पी न ली । उलटे उसके जवाब ने उसे हैरान कर दिया ।
“तुम उस फ्लैट की निगरानी करना छोड़ दो ।” - रीली बोला ।
“क्या बोला, बाप !” - भीम सकपकाया ।
“और तुम यहां आकर अपनी और अपने आदमियों की फीस ले जाओ । तुम आना या कोई एक जना आना । सबके सब न चढ दौड़ना मेरे होटल के सुईट पर ।”
“लेकिन बाप, उन सूटकेसों में...”
“हीरे जवाहरात बंद हो सकते हैं । कोहनूर हीरा बंद हो सकता है । दुनिया जहान की दौलत बंद हो सकती है लेकिन वो पेंटिंगें बंद नहीं हो सकती जिनकी मुझे जरूरत है । वे नामुराद पेंटिंगें एक करिश्मे की तरह आर्ट गैलरी से ही बरामद हो चुकी हैं ।”
“ऐसा !”
“शायद तुकाराम सच ही कहता था कि उसका उस चोरी में हाथ नहीं था । तुम चैम्बूर से भी अपने आदमी हटाना न भूलना ।”
“लेकिन, बाप...”
तभी लाइन कट गई ।
भीम के मुंह से एक भद्दी-सी गाली निकली । पहले उसने दोबारा रीली को फोन करने का खयाल किया लेकिन फिर कुछ सोचकर रिसीवर वापस हुक पर टांग दिया ।
“अब” - वह बड़बड़ाया - “इतनी आसानी से तो मैंने उन सूटकेसों का पीछा मत छोड़ा । मैं एक बार देखूंगा तो जरूर कि उनमें क्या है ?”
***
रात दस बजे इंस्पेक्टर चटवाल अंधेरी में रुस्तमभाई के आफिस में पहुंचा ।
“तुमने मेरी बहुत किरकिरी कराई ।” - रुस्तमभाई उसे देखते ही बोला ।
“क्यों ?” - चटवाल बोला - “क्या हुआ ?”
“रोकड़ा तो एकदम चौकस था ।”
“अच्छा ! तुमने अपनी आंखों से देखा था ?”
“हां । चार सूटकेस सौ सौ के नोटों की गड्डियों से ठसाठस भरे हुए थे ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ? मैटाडोर में तो सूटकेस नाम की कोई चीज थी ही नहीं !”
“मुझे नहीं पता कैसे हो सकता है लेकिन वहां रोकड़ा एकदम चौकस
था । बहुत शर्मिंदा होना पड़ा मुझे ।”
“रुस्तमभाई, कोई गड़बड़ है ।”
“क्या ? रोकड़ा सलामत है, फिर भी कोई गड़बड़ है ?”
“हां ।”
“क्या गड़बड़ है ?”
“वहां रोकड़ा कहां से आया ?”
“तुकाराम के अमरीकी खरीदार ने दिया और कहां से आया !”
“पेंटिंगों के बदले में ?”
“और क्या ?”
“यानी कि तुलसी पाइप रोड पर तुकाराम ने पेंटिंगें उस अमरीकी खरीददार को सौंपी और बदले में उस अमरीकी खरीदार ने रोकड़े से भरे चार सूटकेस तुकाराम को सौंपे ?”
“हां ।”
“यानी कि अब जैसे रोकड़ा तुकाराम के पास है, वैसे ही...”
“सोहल के पास है ।”
“एक ही बात है । जैसे रोकड़ा इधर है, वैसे ही पेंटिंगें अमरीकी खरीददार के पास हैं । बराबर ?”
“बराबर ।”
“लेकिन पेंटिंगें तो अमरीकी खरीददार के पास नहीं हैं !”
“तुम्हें क्या मालूम ?”
“पेंटिंगें बरामद हो चुकी है ।”
“बरामद हो चुकी हैं ? कहां से बरामद हो चुकी हैं ? अमरीकी खरीददार से ?”
“नहीं । आलमगीर आर्ट गैलरी में से बरामद हो चुकी हैं । उसी हाल की फाल्स सीलिंग में से बरामद हो चुकी हैं जिसमें से कि वे चुराई गई थीं ।”
“क्या !”
“मैं सच कह रहा हूं । यह बात शाम की खबरों में रेडियो और टीवी पर आ चुकी है और कल के अखबारों में भी छपने चली गई होगी । तुम्हारे जोड़ीदार पेंटिंगें चुराकर साथ नहीं ले गए थे । वे उन्हें हाल की फाल्स सीलिंग में छुपा गये थे । क्या समझे ?”
रुस्तमभाई मुंह से कुछ न बोला लेकिन उसके चेहरे पर अविश्वास के स्पष्ट भाव थे ।
“अब मेरी समझ में आ गया है” - चटवाल आगे बढा - “कि क्यों मैटाडोर में न पेंटिंगें थी और न रोकड़ा था । पेंटिंगें इसलिए नहीं थी क्योंकि वे आर्ट गैलरी से निकाली ही नहीं गई थी और रोकड़ा इसलिए नहीं था क्योंकि वह आगे से हासिल नहीं हुआ था । पेंटिंगों के बदले में ही तो रोकड़ा हासिल होना था ! जब पेंटिंगें नहीं थीं तो रोकड़ा कहां से मिलता ?”
“अब कहां से मिला ?”
“यही तो पल्ले नहीं पड़ रहा । पेंटिंगों के बिना किसी ने रोकड़ा कैसे दे दिया उन्हें ? रुस्तमभाई, मुझे तो कोई घोटाला दिखाई देता है । मुझे तो अभी भी कोई घोटाला दिखाई देता है ।”
“कैसा घोटाला ?”
“तुमने नोट ठीक से देखे वे ? वे असली तो थे ?”
“खड़े पैर इतने सारे नकली नोट कहां से मुहैया किये जा सकते थे ?”
“मुम्बई में कुछ भी मुमकिन है ।”
“नहीं, नहीं । नोट असली थे । मैं क्या अंधा हूं ?”
“तो फिर गड्डियां कोरे कागजों की होंगी और उनमें ऊपर और नीचे के एक एक दो दो नोट असली होंगे ।”
“ऐसी छ: हजार गड्डियां कोई चुटकियों में नहीं बनाई जा सकती ।”
“उनके पास बहुत वक्त था...”
“लेकिन ऐसा करने की कोई जरूरत भी तो हो ! अगर रोकड़ा नहीं हासिल हुआ था तो ऐसा साफ कहा जा सकता था । ऐसा प्रपंच रचने की कोई जरूरत ? कोई वजह ?”
“कोई तो जरूरत होगी ! कोई तो वजह होगी ! रुस्तमभाई, कहीं जरूर कोई धोखे वाला मामला है ।”
“धोखे वाला मामला ! लेकिन वो तो मुझे मेरा हिस्सा तभी दे रहे थे !”
“तुमने ले लिया था ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“शहर में पुलिस की इतनी सरगर्मी है । मैं उतनी बड़ी रकम के साथ फंस सकता था ।”
“बराबर । यह बात वो भी जानते हैं । वो जानते थे कि तुम उस वक्त अपना हिस्सा कबूल नहीं कर सकते थे । इसीलिए उन्होंने तुम्हें हिस्सा देने की आफर की थी क्योंकि उन्हें पता था कि मौजूदा हालात में तुम हिस्सा कबूल नहीं करोगे ।”
“ओह !” - वह कुछ बेचैनी से पहलू बदलता रहा और फिर परेशानहाल बोला - “अब मैं दोबारा तो यह देखने जाने से रहा कि नोटों की गड्डियां ठीक थीं या नहीं, नोट ठीक थे या नहीं !”
“जाओगे तो तुम सही लेकिन इस बार तुम अकेले नहीं जाओगे ।”
“मतलब ?”
“इस बार मैं साथ चलूंगा ।”
“तुम साथ चलोगे !” - रुस्तमभाई चौंका ।
“हां ।”
“यार, मरवाओगे क्या ?”
“मरवाऊंगा नहीं । मारूंगा ।”
“तुम क्या करोगे ?”
“हम वहां जायेंगे और जबरन वे चारों सूटकेस वहां से हथियायेंगे । फिर असलियत अपने आप सामने आ जाएगी ।”
“तुम... तुम...”
“रुस्तमभाई, जिस चील के झपट्टे का मैंने जिक्र किया था वह आज ही रात पड़ेगा ।”
“तुम.. .तुम सोहल से उलझोगे ?”
“अरे, वो क्या आसमान से उतरा है ! इंसान का बच्चा ही तो है ! मैं सम्भाल लूंगा उसे ।”
“लेकिन मैं.. .मैं...”
“तुम उसके रूबरू होने से डरते हो ?”
“हां ।”
“ठीक है । तुम नीचे जीप में बैठना, सोहल से निपटने मैं अकेला फ्लैट में जाऊंगा । जब खेल खत्म हो जाए तो सूटकेस उठवाने तुम भी आ जाना ?”
“खेल ! कौन-सा खेल ?”
“खून का खेल । यह देखो ।” - एकाएक चटवाल के हाथ में एक रिवाल्वर प्रकट हुई - “और यह देखो” - उसके दूसरे हाथ में एक साइलेंसर प्रकट हुआ - “मैंने इन दोनों चीजों का खासतौर से आज रात के इस्तेमाल के लिए इंतजाम किया है । मैं सोहल को और फ्लैट में उसके साथ मौजूद लड़की को शूट कर दूंगा और अड़ोस-पड़ोस में किसी के कान पर जूं भी नहीं रेंगेगी ।”
“तुम.. .तुम दो खून करोगे ?”
“छ: करोड़ की रकम की खातिर मैं दो क्या, बीस खून कर सकता हूं ।”
“लेकिन अभी तो तुम कह रहे थे कि नोट नकली होंगे ! गड्डियां नकली होंगी !”
“अगर ऐसा हुआ तो मेरी बद्किस्मती । लेकिन शायद मेरा खयाल गलत हो । शायद तुम्हारी ही बात सच हो । यह तो जुआ है जो मैंने आज रात खेलना ही होगा ।”
“लेकिन.. .मैं.. .तुम्हारे साथ...”
“तुम सोहल से डरते हो न ! तुम उसके सामने न पड़ना । तुम सिर्फ मेरे साथ चलो । सब काम मैं करूंगा । बाद में तुम सिर्फ नोट ढोने में मेरी मदद करना । ओके ?”
रुस्तमभाई ने उत्तर दिया ।
“फिर आज ही रात हम माल आधा आधा बांट लेंगे ।”
“माल रास्ते में पकड़ा गया तो ?”
“कैसे पकड़ा जाएगा ?”
“शहर में इतनी नाकाबंदी है ।”
“अरे, वो नाकाबंदी शहरियों के लिए है, पुलिस के लिए थोड़े ही है ! मैं मुम्बई पुलिस में इंस्पेक्टर हूं । मैं बावर्दी, पुलिस की जीप में सवार होऊंगा । पुलिस की गाड़ी को भी कहीं पुलिस चैक करेगी !”
“लेकिन..”
“लेकिन वेकिन कुछ नहीं । इस काम को मैंने आज ही अंजाम देना है और तुमने मेरे साथ चलना है । मुझे कल का भरोसा नहीं । मुझे लगता है कल तक वहां न माल होगा, न सोहल होगा और न वह छोकरी होगी ।”
“तुम मुझे मरवाओगे ।”
“अव्वल तो ऐसी नौबत नहीं आएगी । आएगी तो मैं खुद तुम्हारे साथ मरूंगा । मैं तुम्हारे से पहले मरूंगा ।”
“आज ही चलना होगा ?”
“आज नहीं । अभी ।”
“ठीक है फिर । तुम गाड़ी में जाकर बैठो, मैं यहां ताले वाले लगाकर आता हूं ।”
“जल्दी आना ।” - चटवाल उठता हुआ बोला ।
“अच्छा ।”
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