शुक्रवार : पांच मई : दुबई

छोटा अंजुम ने एक बन्द दरवाजे पर हौले से दस्तक दी और फिर ‘भाई’ की डैन में कदम रखा।

‘भाई’ को उसने एक विशाल आफिस टेबल के पीछे राज सिंहासन जैसी एग्जीक्यूटि‍व चेयर पर पसरे पाया। हमेशा की तरह वो नख से शिख तक सजा धजा था और कृत्रिम प्रकाश से आलोकित उस वातानुकूलित कमरे में भी आंखों पर काले शीशों वाला कीमती चश्मा लगाये था। वो बड़े इत्मीनान से सिगार के कश लगा रहा था और करीब पड़े टेलीविजन पर इन्डिया और पाकिस्तान का क्रिकेट मैच देख रहा था।

अपने दायें हाथ के तौर पर जाने जाने वाले छोटा अंजुम को देखकर उसने रिमोट से टी.वी. की साउन्ड बन्द कर दी और प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा।

छोटा अंजुम करीब पहुंचा और अदब से बोला — “आपका मोबाइल बन्द जान पड़ता है।”

‘भाई’ ने हड़बड़ा कर अपने कोट की उस जेब में हाथ डाला जिसमें उसका मोबाइल फोन मौजूद था।

मोबाइल को उसने सच में ही ऑफ पाया।

“पता नहीं कैसे बन्द हो गया!” — वो उसे फिर से ऑन करता बड़बड़ाया।

“हो जाता है।” — छोटा अंजुम बोला।

“बात क्या है?” — ‘भाई’ ने उत्सुक भाव से पूछा।

“सिंगापुर से फोन आया था। फोन करने वाले ने ही बताया था कि आपका मोबाइल ऑफ था। आपको दूसरे, डैस्क फोन पर, लगाई गयी काल मेरे पास बजती है इसलिए...”

“फोन किस का था?” — ‘भाई’ ने उतावले भाव से उसकी बात काटी।

“रॉस ऑरनाल्डो का।”

वो नाम सुनते ही ‘भाई’ ने मुंह से सिगार निकाल कर ऐश ट्रे पर टिका दिया।

रॉस ऑरनाल्डो माफिया डॉन रीकियो फिगुएरा का वैसा ही करीबी लेफ्टीनेंट था जैसा कि छोटा अंजुम उसका था। रीकियो फिगुएरा अमरीकी माफिया के एशियन एम्पायर का चीफ कन्ट्रोलर था जो कि सिंगापुर को अपना हैडक्वार्टर बनाये था। सारे एशिया में होने वाली हेरोइन स्मगलिंग को वो कन्ट्रोल करता था और इस सिलसिले में जिन इलाकों पर उसकी खास निगाह होती थी, वो थे हेरोइन की पैदावार और स्मगलिंग के मामले में गोल्डन ट्रायंगल कहलाने वाले देश थाइलैंड, लाऔस और बर्मा और गोल्डन क्रीसेंट के नाम से जाने जाने वाले देश अफगानिस्तान, पाकिस्तान और ईरान। गोल्डन क्रीसेंट में अफगानिस्तान एशिया में अफीम, मोर्फीन और हेरोइन की प्रोडक्शन का मेजर सेंटर था और पाकिस्तान उस माल की तमाम योरोप तक निकासी का, बाजरिया ईरान, तुर्की या बाजरिया भारत, पुर्तगाल मेजर रूट था। भारत क्योंकि गोल्डन ट्रायंगल और गोल्डन क्रीसेंट दोनों के बीच में पड़ता था इसलिये हेरोइन स्मगलिंग के इन्टरनेशनल झण्डाबरदारों को अब भारत में भारी सम्भावनायें दिखाई देने लगी थीं।

उस घड़ी ‘भाई’ का दिल गवाही दे रहा था कि वो टेलीफोन कॉल जरूर उसी सिलसिले में थी।

“क्या कहता था ऑरनाल्डो?” — प्रत्यक्षत: वो बोला।

“उसने क्या कहना था?” — छोटा अंजुम बोला — “जो कहना होगा, उसके बॉस ने कहना होगा।”

“बॉस क्या कहता था?”

“बॉस बॉस है।”

“क्या मतलब?”

“फिगुएरा भला मेरे से क्यों बात करता?”

“तो फिर बात क्या बनी? क्यों मेरे सिर पर आ खड़ा हुआ है?”

“क्योंकि आपने बिग बॉस रीकियो फिगुएरा से बात करनी है।” — छोटा अंजुम एक क्षण ठिठका और फिर अर्थपूर्ण स्वर में बोला — “फौरन।”

“कहां?”

“सिंगापुर।”

“तो खड़ा खड़ा मुंह क्या देखता है? फोन लगा।”

सहमति में सिर हिलाता छोटा अंजुम उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया, उसने मेज पर पड़े कई टेलीफोनों में से एक को अपने करीब घसीटा और उस पर एक नम्बर पंच करने लगा।

एक दूसरा टेलीफोन ‘भाई’ ने अपने करीब खींच लिया। वो टेलीफोन स्पीकर या हैंड फ्री टेलीफोन कहलाता था — उस पर बात करने के लिए उसका रिसीवर उठा कर कान से लगाना जरूरी नहीं होता था — और वो उस टेलीफोन के पैरेलल में लगा हुआ था जिस पर कि उस घड़ी छोटा अंजुम नम्बर लगाने की कोशिश कर रहा था।

“हल्लो” — एकाएक छोटा अंजुम बोला — “मैं दुबई से छोटा अंजुम बोलता हूं। आप कौन?”

छोटा अंजुम कुछ क्षण दूसरी ओर से आती आवाज सुनता रहा और फिर माउथपीस पर हाथ रख कर बोला — “ऑरनाल्डो है लाइन पर। बोलता है बिग बॉस नहीं है लेकिन उसके पास आपके लिए बिग बॉस का मैसेज है।”

‘भाई’ ने सहमति में सिर हिलाया और अपने सामने पड़े टेलीफोन का वो स्विच ऑन किया जिससे कि वो स्पीकर फोन बन जाता था।

तत्काल छोटा अंजुम ने अपने हाथ में थमे रिसीवर को अपने फोन के क्रेडल पर रख दिया।

“हल्लो!” — ‘भाई’ बोला — “ऑरनाल्डो!”

“यस।” — दूसरी तरफ की आवाज भी फोन के स्पीकर में से साफ निकली — “भाई’?”

“हां।”

“आपका मोबाइल ऑफ था?”

“सॉरी। अनजाने में हो गया।”

“मिस्टर फिगुएरा का मूड ऐसे मामलों में आप जानते हैं कैसा होता है!”

“अरे भई, बोला न सॉरी। अब बात तो करवाओ मिस्टर फिगुएरा से!”

“मिस्टर फिगुएरा इस वक्त यहां नहीं हैं। मेरे पास आपके लिए उनका हुक्म है।”

“हुक्म! हुक्म है?”

“हां।”

‘भाई’ तिलमिलाया, उसने यूं अपने लेफ्टीनेंट की तरफ देखा जैसे हुक्म शब्द से उसकी हेठी हो गयी हो, बेचैनी से कुर्सी में पहलू बदला और फिर भरसक सुसंयत स्वर में बोला — “क्या? क्या हुक्म है?”

“बिग बॉस आपसे रूबरू बात करना चाहता है।”

“ऐसी क्या बात है?”

“बिग बॉस ही बतायेगा।”

“कहां बात करना चाहता है?”

“इण्डिया।”

“इण्डिया?”

“फौरन प्लेन से मुम्बई पहुंचिये और मोबाइल पर अगला आदेश मिलने का इन्तजार कीजिये।”

“बट दैट इज आउट आफ क्वेश्चन।”

“वजह?”

“वजह तुम लोगों को मालूम है। नहीं मालूम है तो मालूम होनी चाहिये।”

“वजह?”

“वहां की सरकार ने मेरी गिरफ्तारी का वारन्ट जारी किया हुआ है। मैं मुम्बई जा कर अपनी हालत आ बैल मुझे मार जैसी नहीं कर सकता।”

“आप इण्डिया अक्सर जाते हैं।”

“चोरी से। समुद्र के रास्ते। नामालूम जगहों पर। चन्द घन्टों के लिए। मरता क्या न करता जैसे हालात में।”

“मौजूदा हालात को भी मरता क्या न करता जैसे हालात समझ लीजिये।”

“लेकिन प्लेन से? वो भी सीधा मुम्बई जा कर उतरूं? ये नहीं हो सकता।”

“आप अपने तरीके से मुम्बई पहुंच सकते हैं?”

“पहुंच सकता हूं। लेकिन फौरन नहीं। मेरे तरीके से वहां पहुंचना कई दिन का प्रोजेक्ट बन सकता है।”

“होल्ड कीजिये।”

“ठीक है।”

‘भाई’ ने स्पीकर का स्विच आफ किया और भुनभुनाया — “कमीना झूठ बोलता जान पड़ता है कि रीकियो फिगुएरा वहां उसके करीब नहीं है। मुझे होल्ड करा के जरूर उसी से मशवरा कर रहा होगा।”

छोटा अंजुम ने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया और फिर बोला — “भाई’, हम कुछ ज्यादा ही खौफजदा नहीं रहते अपने इन गैरमुल्की आकाओं से?”

“बात तो ऐसी ही है, मेरे अजीज” — ‘भाई’ बोला — “लेकिन क्योंकि हेरोइन और आर्म्स स्मगलिंग के मामले में इन लोगों की सरपरस्ती हमने खुद कुबूल की है इसलिये हमारा एतराज करने का मुंह नहीं बनता।”

“ठीक।”

तभी टेलीफोन पर लाल एल.ई.डी. जलने बुझने लगा।

‘भाई’ ने तत्काल स्पीकर का स्विच ऑन किया।

“मीटिंग नेपाल में होगी।” — ऑरनाल्डो की आवाज आयी — “कोई एतराज?”

“कोई एतराज नहीं।” — ‘भाई’ बोला — “लेकिन अगर मैं सिंगापुर ही...”

“गुड। कल आपका लंच काठमाण्डू के होटल सोल्टी ओबराय में मिस्टर रीकियो फिगुएरा के साथ होगा।”

“लेकिन अगर...”

लाइन कट गयी।

‘भाई’ के चेहरे पर वितृष्णा के भाव आये। उसने स्पीकर का स्विच ऑफ करके फोन अपने से परे धकेल दिया और ऐश ट्रे पर से अपना सिगार उठा लिया।

छोटा अंजुम ने सशंक भाव से उसकी तरफ देखा।

“क्या देखता है?” — ‘भाई’ भुनभुनाया — “जा के टिकट का इन्तजाम कर।”

सहमति में सिर हिलाता छोटा अंजुम तत्काल उठ खड़ा हुआ।

शनिवार : छ: मई : दिल्ली काठमाण्डू

“तू मेरे साथ नहीं चल सकती।” — विमल बोला।

उस घड़ी विमल, नीलम और सुमन गोल मार्किट के इलाके में कोविल मल्टीस्टोरी हाउसिंग कम्पलैक्स की आठवीं मंजिल पर स्थित सुमन के उस फ्लैट में मौजूद थे जो कि मॉडल टाउन वाली पिपलोनिया की कोठी में नीलम के साथ सुमन की रिहायश के दौरान खाली पड़ा रहा था।

मायाराम तब भी पुलिस हिरासत में था और बकौल सब-इंस्पेक्टर लूथरा अभी भी खूब होहल्ला मचा रहा था। उसके साथ जो नयी बात वाकया हुई थी, वो ये थी कि पता नहीं कैसे उसकी खबर प्रैस को लग गयी थी। नतीजतन कई पत्र प्रतिनिधि उसकी टोह में लगे थे लेकिन जल्दी ही तकरीबन ने सोहल की बाबत उसके बयान को एक सिरफिरे का प्रलाप जान कर उससे किनारा कर लिया था। केवल इण्डियन एक्सप्रेस के रवि खोसला नाम के एक रिपोर्टर ने उसकी बातों को कदरन तवज्जो से सुना था और उसे आश्वासन दिया था कि उसके बयान के एक दो पहलुओं की तसदीक हो जाने के बाद वो अपने पर्चे में उस पर एक फीचर प्रकाशित करवायेगा।

बहरहाल दिल्ली में इतनी मुश्किल से जमे विमल के पांव उखड़ रहे थे। बीवी बच्चे की खातिर जो वाइट कालर एम्पलाई जैसी गृहस्थ जिन्दगी उसने दिल्ली में अपनायी थी, वो महज चार दिन की चान्दनी निकली थी। यानी कि कुत्ते जैसी दुर दुर करती आवारागर्द जिन्दगी अभी भी उसकी खोटी तकदीर के साथ बन्धी हुई थी और उसका साया अब नीलम और नन्हें सूरज सिंह सोहल पर भी हावी हो रहा था। उसकी ये दिली ख्वाहिश उसका वाहेगुरू खातिर में नहीं लाया था कि उसकी नापाक जिन्दगी की परछाई उसकी बीवी पर, उसके बच्चे पर न पड़ती।

जो तुध भावे नानका सोई भली कार।

ऊपर से अब नीलम ये जिद ठान बैठी थी कि वो जहां जायेगी, उसके साथ जायेगी।

“मैं जरूर जाऊंगी।” — नीलम दृढ़ स्वर में बोली — “ऐसे ही एक बार पहले तुमने मुझे मुम्बई से धक्का दिया था तो मैं तुम्हारी सूरत देखने को तरस गयी थी, इस बार मैं खता नहीं खाने वाली।”

“पहले भी कहां खता खायी थी!” ि‍ वमल बोला—-“मैं लौटा नहीं था?”

“कब लौटे थे। जबकि तुम्हारे लौटने की तमाम उम्मीदें खत्म हो चुकी थीं। वो तो मेरे पर माता भगवती भवानी की ही किरपा हुई जो कि ऐन अपने दरबार में उसने बिछड़े मेल मिलाये वरना...”

वो खामोश हो गयी, उसकी आंखें डबडबा आयीं, उसके गले की घंटी जोर से उछली।

“नीलम, तेरा मेरे साथ जाना मेरी दुश्वारियां बढ़ा सकता है।”

“न जाना भी बढ़ा सकता है। मेरा न जाना तुम्हारे पर कोई विपत्ति न आने की गारन्टी हो तो बोलो।”

“वो तो ठीक है लेकिन...”

“और तुम एक बात भूल रहे हो।”

“क्या?”

“तुम दिल्ली इसलिये छोड़ रहे हो कि उस खसमांखाने मायाराम बावा की हाल दुहाई तुम्हें सोहल साबित कर सकती है और तुम गिरफ्तार हो सकते हो।”

विमल ने सशंक भाव से सुमन की तरफ देखा।

“उसकी तरफ क्या देख रहे हो?” — नीलम बोली — “वो अब सब जानती है। इतने दिन मेरे से छुप के तुम्हारी चेली बन के तुम्हारे हर काम में ये तुम्हारी मदद करती रही तो क्या बिना कुछ जाने बूझे ही करती रही? सरदार जी, अब सुमन से हमारा कुछ नहीं छुपा हुआ।”

“तुम्हारा भी?”

“तुम्हारे पीछे इतना अरसा हम अकेली एक साथ रहीं तो क्या मुंह पर पट्टी बांधे रहीं?”

“ओह!”

“तुमने खुद कहा था कि खुद पाण्डेय जी की राय में तुम्हारा अब दिल्ली में बने रहना ठीक नहीं था क्योंकि जेल में बन्द बावे की ये तोतारटन्त बन्द नहीं होने वाली कि गैलेक्सी का कथित एकाउन्टेंट अरविन्द कौल नाम का कथित कश्मीरी असल में सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल है। अगर पुलिस को आखिरकार उसकी बातों पर विश्वास आ गया — जो कि तुम खुद कहते हो कि देर सबेर आकर रहेगा — तो तुम्हारी दिल्ली से गैरहाजिरी की बाबत जानकर क्या वो मुझे बख्श देंगे? तब क्या वो इतने बड़े इश्तिहारी मुजरिम की बीवी को उस तक पहुंचने का जरिया बनाने में गुरेज करेंगे? मुजरिम का मददगार भी मुजरिम होता है, सरदार जी।”

“बड़ी सयानी बात कही।”

नीलम शर्माई।

“जबकि मिडल फेल है।”

“पास। सौ बार बताया।”

विमल तनिक हंसा। वो कुछ क्षण सोचता रहा, फिर बोला — “मायाराम भी मेरे ही जैसा इश्तिहारी मुजरिम है। अमृतसर वाली डकैती और वहां हुए डबल मर्डर से उसका रिश्ता जुड़ जाना महज वक्त की बात है। तब वो फांसी पर लटकेगा।”

“ये बात तुम्हारे लिये तसल्ली क्योंकर हो गयी?”

“मेरा मतलब है तब उसकी मेरे खिलाफ हायतौबा अपने आप ही बन्द हो जायेगी।”

“किसे उल्लू बना रहे हो, प्राणनाथ? ऐसा है तो तुम भी यहीं टिके रहो और इन्तजार करो उसकी हायतौबा बन्द होने की।”

विमल ने इंकार में सिर हिलाया।

“मुझे उल्लू बनाने के लिए झूठ बोलना इस बार काम नहीं आने वाला, सरदार जी। बावे की हायतौबा तो बन्द होते होते होगी, तुम यहां टिके रहे तो तुम्हारा काम तो हाथ के हाथ हो जायेगा। फिर जो अंजाम तुम्हारा होगा, मेरे भी उसी अंजाम को तुम रोक नहीं पाओगे। इसलिये मेरे पर अहसान करके या तरस खा कर नहीं, वक्त की जरूरत जान कर मुझे अपने साथ ले कर चलो।”

“सूरज का क्या होगा?”

“वही जो हमारा होगा। या नहीं होगा। इस वक्त हम तीनों की तकदीर एक धागे से बन्धी है।”

“चारों की।” — सुमन धीरे से बोली।

“नहीं, नहीं।” — तत्काल विमल ने विरोध किया — “मेरी गुनाहों से पिरोई जिन्दगी की परछाईं भी तुम पर पड़े, ये मुझे कुबूल न होगा। तुम्हारा गेहूं के साथ घुन की तरह पिसना मुझे हरगिज भी मंजूर नहीं होगा।”

“लेकिन...”

“सुमन, मेरी बहना, तूने पहले ही ये काफी से ज्यादा किया है जो कि नीलम की दिल्ली की तनहा जिन्दगी में इसका साथ देना कुबूल किया। अब और भी करेगी तो ये होम करते हाथ जलाने वाली बात होगी। अब तूने यहां अपने इस फ्लैट में अकेले रहना है और बालिग, जिम्मेदार और खुदमुख्तार बन कर दिखाना है।”

“जब तक कि” — नीलम बोली — “तेरी शादी नहीं हो जाती।”

सुमन खामोश हो गयी।

“और ये रकम” — विमल ने वो ब्रीफकेस खोलकर उसके सामने रखा, जिसमें पिपलोनिया की मॉडल टाउन वाली कोठी और दो कारों की बिक्री से हासिल हुई मुकम्मल रकम बन्द थी — “तेरी आइन्दा शादीशुदा जिन्दगी को संवारने में तेरे बहुत काम आयेगी।”

नोटों से ठूंस ठूंस कर भरा ब्रीफकेस देख कर सुमन के मुंह से सिसकारी निकली।

“इतनी बड़ी रकम” — वो बोली — “आप मुझे दे रहे हैं?”

“अपनी छोटी बहन को दे रहा हूं।”

“मैं नहीं ले सकती।”

“क्यों? क्यों नहीं ले सकती?”

“क्योंकि ये मेरी औकात से, एक मामूली टेलीफोन आपरेटर की औकात से, बाहरी रकम है।”

“तेरे इस बद््नसीब, गैंगस्टर भाई की औकात से बाहरी रकम तो नहीं! तेरी और मेरी औकात दो कैसे हो गयीं! जब तेरी मां स्वर्णलता वर्मा को और तेरी छोटी बहन राधा को उन पांच बलात्कारियों ने मार डाला था, जो आज सब के सब जहन्नुम की आग में झुलस रहे हैं, तो क्या तभी मैंने तुझे अपनी बहन नहीं माना था? तू क्या समझती है कि मैंने तेरे साथ एक फर्जी रिश्तेदारी गढ़ी थी ताकि मेरा तेरे से ये मतलब हल हो पाता कि मेरी दिल्ली से गैरहाजिरी के दौरान तू तब गर्भवती नीलम का खयाल रख पाती?”

“नहीं।” — सुमन व्याकुल भाव से बोली — “नहीं।”

“तो फिर?”

“मैं इतनी बड़ी रकम नहीं सम्भाल सकती।”

“तू सम्भाल सकती है। तेरी मां के पास बैंक में एक लॉकर था जो कि, तूने खुद बताया था कि, उसकी मौत के बाद तूने अपने नाम करा लिया था।”

“ठीक। लेकिन इतने नोट उस लॉकर में नहीं समा सकते।”

“सौ सौ के होने की वजह से। गैलेक्सी के मालिक शुक्ला साहब इन्हें पांच पांच सौ के नोटों में तब्दील करवा देंगे। फिर क्या प्राब्लम होगी?”

“वो तो ठीक है लेकिन फिर भी इतनी बड़ी रकम...”

“ये मामूली रकम है। तेरे जैसी स्नेहमयी बहन के लिए करोड़ों की रकम भी कम है।”

“लेकिन...”

“फिर लेकिन?”

“सुमन” — नीलम बोली — “ये तेरा दहेज है जो तेरा भाई तुझे वक्त से जरा पहले दे रहा है।”

वो रोने लगी।

“मुझे भी साथ ले के चलो।” — वो हिचकियां लेती हुई बोली।

“ये नहीं हो सकता।” — विमल बोला।

“क्यों नहीं हो सकता? जब दीदी जा सकतीं हैं तो...”

“ये भी नहीं जा सकती लेकिन इसके सामने मेरी पेश नहीं चल रही। इसकी मर्जी के खिलाफ मैंने इसे छोड़ कर जाने की कोशिश की तो ये मेरे कन्धे पर सवार हो जायेगी। ये जोंक की तरह मेरी पीठ पर ऐसी चिपकेगी कि तत्ता चिमटा लगाने पर भी नहीं हटेगी। तू ऐसा नहीं कर सकेगी।”

“ये मेरे बारे में अच्छा अच्छा बोल रहे हो” — नीलम बोली — “या मुझे कोस रहे हो?”

“खुद ही समझ।”

“समझ लिया। यानी कि ये निश्चित हुआ कि मैं तुम्हारे साथ चल रही हूं।”

“नीलम, मैं तेरे से झूठ नहीं बोलना चाहता, मैं तुझे गुमराह नहीं करना चाहता इसलिये कह रहा हूं, कुबूल कर रहा हूं कि तेरी इस बात में दम है कि तुझे दिल्ली में पीछे छोड़ कर जाना तेरे लिये, और फिर तेरे जरिये मेरे लिये, भारी मुसीबत का बायस बन सकता है। तू मेरे साथ चल सकती है, क्योंकि मेरी तरह तेरा भी दिल्ली से कूच करना जरूरी है, लेकिन नन्हें सूरज का हमारे साथ होना हमारे लिये नयी दुश्वारियां खड़ी कर सकता है। आइन्दा जिन्दगी में ये भी हमारी शिनाख्त का जरिया बन सकता है और यूं एक नयी बर्बादी की भूमिका बन सकती है।”

तुरन्त नीलम के चेहरे पर गहन चिन्ता के भाव आये।

“तू दिल्ली में नहीं रह सकती लेकिन जहां भी रहेगी तेरा सूरज के साथ मेरे से दूर रहना जरूरी होगा। मेरे से दूर ऐसी कोई सेफ जगह तलाश करने में वक्त लगेगा। इसलिये वक्ती तौर पर तू अपनी जिद छोड़ और या तो चण्डीगढ़ चली जा जहां कि तू मूल रूप से रहती थी या इसी फ्लैट में सुमन के साथ गुमनाम जिन्दगी जीना कुबूल कर, तब तक के लिए कुबूल कर जब तक कि मैं मुम्बई या मुम्बई से बाहर कहीं तुम्हारे रहने के लिए कोई सेफ ठिकाना तलाश नहीं कर लेता।”

“वो ठिकाना मैं तुम्हारे साथ तलाश करूंगी।”

“लेकिन सूरज...”

“सूरज को मैं रख लूंगी।” — सुमन व्यग्र भाव से बोली।

“क्या?”

“सूरज को मैं रख लूंगी। सूरज मेरे पास रहेगा तो दीदी कहीं भी निि‍श्चंत आप के साथ जा सकेंगी।”

“लेकिन तुम इसे कैसे रख पाओगी?”

“क्यों नहीं रख पाऊंगी?”

“तुमने नौकरी भी तो करनी होगी?”

“अब नौकरी करना मेरे लिये जरूरी नहीं। अपने भाई के सदके अब मैं लाखों की मालकिन हूं।”

“मजाक मत कर।”

“नौकरी से छुट्टी मिल जाती है। मेरी पांच महीने की छुट्टी जमा है। तब तक तो कोई प्राब्लम ही नहीं, बाद की बाद में देखी जायेगी।”

विमल ने नीलम की तरफ देखा।

“ये ठीक कह रही है।” — नीलम बोली — “सूरज थोड़ा अरसा सुमन के पास रह सकता है। वो इससे हिला मिला भी हुआ है इसलिये कोई प्राब्लम नहीं होगी। हम जल्दी से जल्दी इसे यहां से ले जाने की कोशिश करेंगे। अब बात खत्म करो।”

“ठीक है फिर।”

नीलम ने चैन की मील लम्बी सांस ली।

“हम कल ही मुम्बई की अर्ली मार्निंग फ्लाइट पकड़ लेंगे।”

“गुड।” — नीलम बोली — “वैरी का वैरी गुड।”

“वैरी का वैरी गुड नहीं होता, साली अनपढ़। वैरी गुड होता है।”

“वैरी गुड। और मुझे ये रिश्ता भी कुबूल।”

“कौन सा?”

“वही जो तुमने अभी मेरे साथ गांठा।”

“अरे, कौन सा?”

“साली का। साली आधी घरवाली होती है। मैं ही साली, मैं ही घरवाली। इसका मतलब ये हुआ कि मैं तुम्हारी डेढ़ घरवाली। तुम्हारी हैसियत तो बहुत मामूली हो गयी मेरे सामने, बादशाहो।”

विमल की बरबस हंसी छूट गयी।

ठीक एक बजे एक टैक्सी पर सवार ‘भाई’ और छोटा अंजुम सोल्टी ओबराय पहुंचे।

छोटा अंजुम ने टैक्सी का भाड़ा चुकाया और अपने बॉस के पीछे होटल की लॉबी में कदम रखा।

तत्काल एक सोफे पर से उठ कर एक सूटबूटधारी व्यक्ति उनकी तरफ बढ़ा।

छोटा अंजुम की उस पर निगाह पड़ी तो वो धीरे से बोला — “ऑरनाल्डो।”

‘भाई’ ने उसकी निगाह का अनुसरण किया और फिर सहमति में सिर हिलाया।

“वैलकम! वैलकम!” — ऑरनाल्डो करीब पहुंच कर बोला।

“मिस्टर फिगुएरा आ गये?” — ‘भाई’ ने पूछा।

“हां। डायनिंग हाल में बैठे आप ही का इन्तजार कर रहे हैं।”

“बढ़‍िया।”

“आइये।”

‘भाई’ ने छोटा अंजुम की तरफ देखा।

“लंच सब का इकट्ठा होना पहले से तय है।” — ऑरनाल्डो बोला — “आगे जैसा बिग बॉस बोलेगा।”

“ओह!”

दोनों ऑरनाल्डो के साथ हो लिये।

डायनिंग हाल के एक कोने की टेबल पर बिग बॉस रीकियो फिगुएरा विराजमान था।

वे उस टेबल पर पहुंचे।

दोनों मेहमानों ने फिगुएरा का अभिवादन किया।

फिगुएरा ने गर्दन को खम देकर अभिवादन स्वीकार किये और फिर बोला — “प्लीज सिट डाउन।”

तीनों बैठ गये।

रीकियो फिगुएरा एक कोई पचास साल का खूब मोटा क्लीन शेव्ड व्यक्ति था जो कि अपने सिर के बालों को यूं खोपड़ी पर चिपका कर रखता था जैसे खोपड़ी पर बालों की रंगत का पलस्तर हुआ हुआ हो। उसकी राष्ट्रीयता के बारे में ‘भाई’ को निश्चित रूप से कोई जानकारी नहीं थी अलबत्ता वो नाम से पुर्तगाली या स्पेनिश लगता था। वो स्याह काला सूट पहने था और झक सफेद कमीज पर स्याह बो टाई लगाये था। अपनी दायीं कलाई में वो हीरों से जड़ा ब्रेसलेट पहने था और बायें हाथ की दूसरी उंगली में लाखों डालर की कीमत वाले इकलौते हीरे की अंगूठी पहने था।

“ठीक वक्त पर पहुंचे।” — वो बोला — “मैं वक्त के पाबन्द लोगों की कद्र करता हूं।”

“खड़े पैर” — ‘भाई’ दबे स्वर में बोला — “प्लेन टिकट का इन्तजाम मुश्किल से हो पाया।”

“मुश्किल से ही सही लेकिन हो तो गया!”

“जी हां। हो तो गया।”

“अच्छा हुआ। वरना तुम लोगों को उड़ कर नेपाल पहुंचना पड़ता।”

‘भाई’ को जैसे सांप सूंघ गया। मतलब साफ था। और उसमें छुपी धमकी भी स्पष्ट थी। वहां लेट पहुंचना यकीनन ‘भाई’ की इज्जत आबरू पर भारी गुजरता।

उसने बेचैनी से पहलू बदला।

“लंच से पहले” — फिगुएरा बोला — “कोई ड्रिंक लेना पसन्द करोगे?”

‘भाई’ ने इंकार में सिर हिलाया।

फिगुएरा ने छोटा अंजुम की तरफ देखा।

लेकिन उसका सिर तो ‘भाई’ के इंकार के साथ ही इंकार में हिलने लगा था।

फिगुएरा ने केवल एक बार थोड़ा परे हट कर खड़े स्टीवार्ड की तरफ देखा तो वो यूं हरकत में आया जैसे रिमोट कन्ट्रोल से चलता हो। उसने किसी को कोई मीनू पेश करने की कोशिश न की। या तो वो जानता था कि बिग बॉस को क्या पसन्द था या उसे पहले से ऑर्डर दिया जा चुका था। तत्काल दो वेटर उन्हें लंच सर्व करने लगे।

पूरी खामोशी के बीच लंच शुरू हुआ और खत्म हुआ। उस दौरान न तो एक बार भी फिगुएरा ने सिर उठाया और न कोई बात करने की कोशिश की।

“रॉस।” — आखिरकार वो बोला।

“यस, बॉस।” — तत्काल ऑरनाल्डो बोला।

“भाई’ के जोड़ीदार को कैसीनो की सैर करा कर लाओ। कैसीनो में ये कुछ हारे तो मेरी तरफ से, जीते तो इसका।”

“यस, बॉस।”

“रिटर्न आफ्टर थर्टी मिनट्स।”

“यस, बॉस।”

ऑरनाल्डो ने छोटा अंजुम को उठने का इशारा किया। फिर दोनों वहां से रुखसत हो गये।

फिगुएरा ने स्टीवार्ड को इशारा किया।

दक्ष स्टीवार्ड ने दोनों को कीमती हवाना सिगार सर्व किये और उन्हें सुलगाने में उनकी मदद की।

फिगुएरा ने खामोशी से सिगार के कई कश लगाये और फिर बोला — “पिछले कुछ अरसे से इण्डिया में हमारा हेरोइन का कारोबार चौपट है। जो थोड़ी बहुत कसर अभी बाकी है, वो आइन्दा दिनों में पूरी हो जायेगी। वजह बोलो।”

“मैं!” — ‘भाई’ हड़बड़ाया — “मैं वजह बोलूं?”

“और कौन बोले? तुम्हीं तो वो शख्स हो जो दुबई में बैठे भी इण्डिया के अन्डरवर्ल्ड की नब्ज थामे हो। तुमसे क्या छुपा होगा! वजह बोलो।”

“मैं वजह नहीं जानता लेकिन ऐसे हालात से वाकिफ हूं जो कि वजह हो सकते हैं।”

“हालात ही बयान करो।”

“इण्डिया में हेरोइन के कारोबार के मेजर सेंटर दिल्ली और मुम्बई हैं। पिछले कुछ अरसे में दोनों ही जगह ऐसी अनहोनी वाकया हुई है जो धन्धे में फर्क आने की — आपके अलफाज में चौपट होने की — वजह हो सकती है।”

“क्या हुआ है?”

“मुम्बई में ‘कम्पनी’ का दबदबा था जिसका टॉप बॉस पहले राज बहादुर बखिया था, फिर इकबाल सिंह था और हाल ही में आखिर में व्यास शंकर गजरे था। दिल्ली में ऐसा दबदबा गुरबख्शलाल नाम के अन्डरवर्ल्ड डॉन का था। ये चारों पावरफुल बॉस आज की तारीख में जन्नतनशीन हो चुके हैं और उनको इस दुनिया से रुखसत करने के पीछे जिस इकलौते शख्स का हाथ था, वो सोहल के नाम से जाना जाता है। सोहल वो इकलौता शख्स बताया जाता है जिसने दिल्ली में गुरबख्शलाल की हस्ती मिटाई, उसके नॉरकॉटिक्स के धन्धे को नेस्तनाबूद किया और मुम्बई में ‘कम्पनी’ का मुकम्मल खात्मा किया और नॉरकॉटिक्स के धन्धे की कमर तोड़ी।”

“सोहल वो इकलौता शख्स बताया जाता है? बताया जाता है? है नहीं?”

“है।”

“है तो है बोलो। बात को लपेट कर न बोलो।”

“सॉरी।”

“और ये न भूलो कि तुम्हारा आदमी और ऑरनाल्डो आधे घन्टे में वापिस आ रहे हैं जिसमें से” — उसने अपनी घड़ी पर निगाह डाली — “सात मिनट गुजर भी चुके हैं और तुमने अभी मुझे चन्द नाम ही गिनाये हैं।”

“सॉरी अगेन।”

“तो ये सोहल इतने बड़े बड़े अन्डरवर्ल्ड डॉन्ज को खत्म करके उनकी जगह खुद ले बैठा है?”

“नहीं।”

“नहीं?” — फिगुएरा की भवें उठीं।

“नहीं। ऐसा हो जाता तो बात ही क्या थी! वो क्या है कि ये आदमी आर्गेनाज्ड क्राइम के, उसके झण्डाबरदारों के सख्त खिलाफ है। वैसे तो ये हर गैरकानूनी धन्धे के खिलाफ बताता है अपने आपको — मेरा मतलब है कि है — लेकिन नॉरकॉटिक्स ट्रेड के तो ये सख्त खिलाफ है।”

“क्यों?”

“वजह मालूम नहीं लेकिन सिवाय इसके और क्या वजह हो सकती है कि मूर्ख है। नहीं जानता कि ताकत कहां है और उसको कैसे अपने जाती फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।”

“बहरहाल इस इकलौते शख्स की वजह से मुम्बई में हेरोइन की खपत बन्द है और दिल्ली में तकरीबन बन्द है?”

“हां। अलबत्ता दिल्ली में गुरबख्शलाल की बिरादरी के एक शख्स सलीम खान ने नॉरकॉटिक्स का धन्धा फिर से चालू करने का हौसला किया था लेकिन कुछ अपनी नातजुर्बेकारी की वजह से और कुछ बद्किस्मती की वजह से बड़े रहस्यभरे हालात में मारा गया था और हेरोइन की एक बड़ी खेप भी पुलिस के कब्जे में आ गयी थी।”

“उसी शख्स सोहल की वजह से?”

“कहना मुहाल है। वैसे उसके साथ जो बीती थी, उस पर सोहल के काम करने के तरीके की छाप तो बराबर थी।”

“आगे किसी ने उस धन्धे में हाथ डालने की कोशिश नहीं की?”

“मेरी जानकारी में अभी तक तो नहीं की।”

“आगे कोई ऐसी कोशिश कर सकता है?”

“कर तो सकता है।”

“कौन?”

“गुरबख्शलाल के ही सलीम खान जैसे और बिरादरी भाई हैं दिल्ली में।”

“नाम बोलो।”

“लेखूमल झामनानी, पवित्तर सिंह, भोगीलाल, माताप्रसाद ब्रजवासी।”

“इनमें से सब से जबर कौन है?”

“झामनानी।”

“उसे गुरबख्शलाल की जगह लेने को तैयार करो।”

“मुश्किल काम है।”

“क्यों मुश्किल काम है?”

“उसके सिर पर सोहल की धमकी की तलवार लटक रही है। सब के सिर पर सोहल की धमकी की तलवार लटक रही है।”

“धमकी! कैसी धमकी?”

“यही कि अगर किसी ने भी नॉरकॉटिक्स ट्रेड में हाथ डालने की कोशिश की तो वो उसे जान से मार डालेगा।”

“वो एक अकेला आदमी!”

“वो सिख है, जिस के धर्म में एक भी सवा लाख माना जाता है।”

“नानसेंस।”

“वो मुम्बई के अन्डरवर्ल्ड में वन मैन आर्गेनाइजेशन कहलाता है।”

“ऐसा शख्स अगर सच में ही कोई है तो वो हमारी तरफ होना चाहिये या हमारे खिलाफ होना चाहिये?”

“होना तो हमारी तरफ ही चाहिये लेकिन...”

“जब दुश्मन काबू में आता न दिखाई दे तो उसे दोस्त बना लेना चाहिये।”

“वो ऐसी दोस्ती का कायल नहीं।”

“कैसे मालूम? कभी की किसी ने ऐसी कोशिश?”

‘भाई’ कुछ क्षण सोचता रहा फिर उसने अनभिज्ञता जताते हुए कन्धे उचकाये।

“राज बहादुर बखिया को मैं जाती तौर से जानता था।” — फिगुएरा बोला — “वो बहुत दाना आदमी था। हैरानी है कि उसने भी ऐसी कोई कोशिश न की।”

“उसने बखिया के दस टॉप के ओहदेदार मार गिराये थे और तीन की मौत की वजह बना था। बाद में उसने खुद बखिया को भी मार गिराया था।”

“वॉट ए मैन!”

“‘कम्पनी’ से सोहल की दुश्मनी जगविदित है। ऐसे आदमी से बखिया दोस्ती करता भी तो क्योंकर करता?”

“कोशिश करता तो कोई रास्ता भी निकल आता। लेकिन कोशिश तो उसने की ही नहीं थी।”

‘भाई’ खामोश रहा।

“दुश्मनी खत्म करने के दो ही कारआमद तरीके होते हैं। या तो दुश्मनी खत्म कर दो या दुश्मन को खत्म कर दो। चलो, मान लिया कि उस आदमी की ढिठाई की वजह से या मूर्खता की वजह से ‘कम्पनी’ से उसकी दुश्मनी बरकरार रही, वो ‘कम्पनी’ का दोस्त बनने को तैयार न हुआ, तो फिर उसे ही क्यों न खत्म कर दिया गया?”

“कोशिशें बहुत की गयीं। इकबाल सिंह और गजरे के वक्त में तो बहुत ही ज्यादा कोशिशें की गयीं लेकिन कोई कोशिश कामयाब न हो सकी।”

“वजह?”

“एक तो उसने प्लास्टिक सर्जरी से अपना चेहरा तब्दील करा लिया था — वैसे इकबाल सिंह के वक्त में उसके नये चेहरे का भी राज खुल गया था — दूसरे, ऐसे काम मुखबिरों के दम पर होते हैं। अन्डरवर्ल्ड में ‘कम्पनी’ के कई भेदिये थे, आज भी हैं, लेकिन कोई उसकी बाबत कोई पुख्ता खबर ले कर कभी ‘कम्पनी’ में न पहुंचा। वजह ये थी कि सोहल के लिए अन्डरवर्ल्ड में और मुम्बई के जुल्म से सताये गरीब तबके में हमदर्दी की लहर दौड़ गयी थी। लोगबाग उसकी पोल खोलने या उसको पकड़वाने की जगह उसको छुपाने और बचाने में, उसकी कैसी भी हरचन्द मदद करने में दिलचस्पी लेने लगे थे। ये ‘कम्पनी’ के लिए बद््किस्मती की बात थी कि मुम्बई में ‘कम्पनी’ की बुराइयों के साथ साथ सोहल की अच्छाइयों के चर्चे होने लगे थे। उसके लिए हमदर्दी की ऐसी लहर दौड़ गयी थी कि मुम्बई में ऐसे हज़ारों लाखों लोग पैदा हो गये थे जो कि सोहल का बाल भी बांका नहीं होने देना चाहते थे। इसीलिये मुखबिर उसकी मुखबिरी नहीं करते थे, भेदिये उसका भेद नहीं खोलते थे। ऐसी मिसाल तक सामने आयीं कि पुलिस ने उसको पकड़ के छोड़ दिया, ‘कम्पनी’ के प्यादों ने उसे थामा तो लोगों ने प्यादों का ही पीट पीट के बुरा हाल कर दिया और सोहल को निकल जाने दिया। खुद ‘कम्पनी’ के सिपहसालार श्याम डोंगरे ने एक बार उसे पकड़ा और ये कह के छोड़ दिया कि वो सोहल नहीं था।”

“ऐसे सिपहसालार को ठौर न मार दिया गया?”

“उसकी उस करतूत की पोल बहुत देर बाद खुली थी, वरना यकीनन कोई गम्भीर सजा पाता।”

“हूं।”

“‘कम्पनी’ के बखिया, इकबाल सिंह और गजरे के यानी कि तीनों बादशाहों के निजाम में सोहल ‘कम्पनी’ की गिरफ्त में आया लेकिन तीनों ही बार भाग निकलने में कामयाब हो गया।”

“कमाल है!”

“‘कम्पनी’ ने उसकी गिरफ्तारी के लिए उसके असली, नकली दोनों चेहरों की तसवीरें मुम्बई के अन्डरवर्ल्ड में सर्कुलेट करवाईं और भारी इनामात का भी ऐलान किया लेकिन कोई नतीजा न निकला। लोगबाग उसकी ऐसी तरफदारी करने लगे थे कि किसी को इनाम की चाह नहीं थी, कोई ‘कम्पनी’ की शाबाशी या ओहदेदारी का तलबगार नहीं था। उसे पकड़वाना तो दूर, वो लोगों के सामने से गुजरता था तो वो उसकी तरफ पीठ फेर कर खड़े हो जाते थे। लोग उसे सान्ता क्लास कहते हैं, जीसस क्राइस्ट कहते हैं, खुदा कहते हैं, काल पर फतह पाया कोई पीर पैगम्बर कहते हैं। गरीबों का हमदर्द, दोस्तों का दोस्त, दुश्मनों का दुश्मन कहते हैं। भूखे के मुंह में रोटी का निवाला देने वाला, नंगे के तन पर कपड़ा डालने वाला, अन्धे की आंख, लंगड़े की लाठी, बेसहारे का सहारा, अनाथ का नाथ और और पता नहीं क्या क्या कहते हैं। कहते हैं उसकी वजह से कितने ही यतीमखाने, हस्पताल, विधवाश्रम वगैरह चलते हैं।”

“तुम भी उसके मुरीद मालूम होते हो।”

“मैं?”

“हां।”

“नहीं, हरगिज नहीं।”

“तो उसकी तारीफ के पुल क्यों बान्ध रहे हो?”

“ओह! सॉरी! सॉरी!”

“वो मुम्बई में है?”

“वहीं होगा।”

“है?”

“मालूम नहीं। मालूम करना पड़ेगा।”

“करो।”

“ठीक।”

“उससे बात करो, उसे अपनी तरफ करने की कोशिश करो, उसे ‘कम्पनी’ की खाली गद्दी आफर करो। नहीं मानता तो शूट कर दो, कोई उसकी हिमायत में आगे आये तो उसे भी शूट कर दो। इन कोशिशों में खून के दरिया बह जायें तो भी कोई परवाह नहीं।”

“मेरा फील्ड दुबई है। मैं मुम्बई में कैसे...”

“खुद नहीं कर सकते हो तो करवाओ। अपने वो जौहर दिखाओ जो कि आज तक दिखाते आये हो।”

“जी!”

“बाहर से आर.डी.एक्स. भेज कर मुम्बई में विस्फोट कराते हो न? कोई फिल्म प्रोड्यूसर तुम्हारी प्रोटेक्शन की फीस नहीं भरता तो उसका सरेआम कत्ल करवाते हो न? कोई बिल्डर तुम्हें हफ्ता नहीं पहुंचाता तो उसको जहन्नुमरसीद करने का सामान करते हो न? अपनी पसन्द के नेता लोगों को जितवाते हो न? रण्डीखाने और जुए के अड्डे चलवाते हो न? जब इतना कुछ दुबई बैठे करा सकते हो तो ये काम क्यों नहीं करा सकते?”

‘भाई’ खामोश रहा।

“गजरे की मौत के बाद से मैंने सुना है कि ‘कम्पनी’ का मनका मनका बिखर गया। उन बिखरे मनकों को फिर इकट्ठा करके एक धागे में पिरोया जा सकता है। ‘कम्पनी’ एक बार फिर कहरबरपा बन सकती है।”

“किस की सरपरस्ती में?”

“तुम शुरुआत तो करो, सरपरस्त भी निकल आयेगा। कभी बखिया भी तो निकला था जो कि फ्लोरा फाउन्टेन पर बैठ कर बूट पालिश करने वाला एक अनपढ़ आदमी था। इकबाल सिंह भी तो निकला था जो कि बखिया का एक मामूली लेफ्टीनेंट था, गजरे भी तो निकला था जो कि इकबाल सिंह के अन्डर में चलने वाला एक मामूली प्यादा था!”

“आप तो” — ‘भाई’ मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला — “‘कम्पनी’ के बारे में बहुत कुछ जानते हैं।”

“और याद करो कि इतने बड़े और ताकतवर डॉन बनने से पहले खुद तुम क्या थे? एक मामूली पोस्टमैन की मामूली औलाद जो बाप की तरह पोस्टमैन ही बन जाती तो गनीमत होती।”

‘भाई’ हड़बड़ाया।

“हमारे एम्पायर में जन्म से बड़ा कोई नहीं होता। बड़ा बनता है। जैसे तुम बने। जैसे मैं बना। जैसे वो सोहल बना जिसका कद अभी खुदा से भी दस इंच ऊंचा साबित करके हटे हो।”

‘भाई’ ने बेचैनी से पहलू बदला।

“‘कम्पनी’ रहे न रहे, कारोबार बरकरार रहना चाहिये। हेरोइन का कारोबार ठप्प होना हम अफोर्ड नहीं कर सकते। इसके रास्ते में जो भी रुकावट बने उसे खत्म करना होगा। जो भी सिर लुढ़कें, बेहिचक लुढ़काने होंगे। ऐसा तुम नहीं करोगे तो हम करेंगे। लेकिन उस सूरत में लुढ़कने वाले सिरों में एक सिर तुम्हारा भी हो सकता है। अन्डरस्टैण्ड?”

‘भाई’ के मुंह से बोल न फूटा।

“इण्डिया में हेरोइन के कारोबार का ढीला पड़ना हम अफोर्ड नहीं कर सकते। हेरोइन से होने वाली बड़ी कमाई से हमने अपने और बड़े प्रोजेक्ट्स को फाइनांस करना होता है। हम सारे एशिया में डिस्टर्बेंस के हालात देखना चाहते हैं। हम कहीं कोई स्थिर सरकार नहीं चाहते। अस्थिर सरकारों के जेरेसाया ही हमारा धन्धा पनप सकता है। सरकारें अस्थिर बनी रहें, इसके लिए हमें टैरेरिस्ट्स को माली इमदाद देनी पड़ती है, उन्हें आर.डी.एक्स. और ए.के. 47 जैसा असलाह देना पड़ता है। राकेट लांचर्स तक देने पड़ते हैं। ये सब कुछ तभी हो सकता है जबकि हमारा हेरोइन का व्यापार पनपे। हेरोइन एक तरह से हमारे फाइनांि‍शयल रिसोर्सिज की लाइफ लाइन बन गयी हुई है। ये लाइन न टूटनी चाहिये, न कमजोर पड़नी चाहिये। अन्डरस्टैण्ड?”

‘भाई’ ने केवल सहमति में सिर हिलाया।

“मैंने जो कहना था, कह दिया। तुम्हें एक महीने का वक्त दिया जाता है। एक महीने में मुझे तुम्हारी जुबानी ये गुड न्यूज मिल जाये कि दिल्ली में किसी जिम्मेदार आदमी ने गुरबख्शलाल की जगह ले ली है और मुम्बई में ‘कम्पनी’ का सरगना या सोहल बन गया है या सोहल की हस्ती मिटा दी गयी है। दि मीटिंग इज ओवर नाओ।”

***