कमरे के बाहर दीवार पर एक नई-नकोर नेम प्लेट लगी हुई थी, जिस पर लिखा था : देवेन्द्र कुमार यादव : इंस्पेक्टर, स्पेशल स्कवाड ।
जो सिपाही मुझे मेरे ऑफिस से जबरन उठाकर का लाया था, उसने बड़े अदब से दरवाजा खोला और मुझे भीतर दाखिल होने का संकेत किया ।
मैंने भीतर कदम रखा ।
वैसे तो मुझे उम्मीद है कि, आप अपने खादिम को भूले नहीं होंगे, लेकिन अगर इत्तफाकन ऐसा हो गया हो तो मैं आपको अपना परिचय फिर से दिये देता हूं । बंदे को सुधीर कोहली कहते हैं । बन्दा प्राइवेट डिटेक्टिव के उस दुर्लभ धंधे से ताल्लुक रखता है, जो हिन्दोस्तान में अभी ढंग से जाना-पहचाना नहीं जाता, लेकिन इसे आप कुदरत का करिश्मा कहें या बंदे का, दिल्ली शहर में आपके खादिम की अच्छी-खासी पूछ है ।
इंस्पेक्टर यादव ने फोन करने की जगह बन्दा भेजकर मुझे वहां तलब किया था इसलिये मामला जरूर गम्भीर था ।
यादव एक कोई पैंतीस साल का, छह फुट से भी ऊपर निकलते कद का, हट्टा-कट्टा कड़ियल जवान था जो अपनी उम्र के लिहाज से काफी जल्दी इंस्पेक्टर बन गया था ।
इंस्पेक्टर के पद पर उसकी तरक्की में आपके खादिम का भी हाथ था ।
एक सरसरी निगाह यादव पर डालते हुए मैंने उसका अभिवादन किया ।
वर्दी वही थी, आदमी भी वही था, कोई इजाफा था तो यह कि कन्धे पर सितारे दो की जगह तीन हो गए थे, लेकिन फिर भी न जाने क्यों मुझे यादव पहले से कहीं ज्यादा सजा-धजा और रोबदार, लगा ।
“बैठो !” - वह गंभीरता से बोला ।
रुतबा बहुत कारआमद चीज होती है । तरक्की होते ही पट्ठे के लहजे में भी फर्क आ गया था । अब वह लट्ठमार हरयाणवी में नहीं बोल रहा था, अब उसके लहजे में सलीका और सन्तुलन था ।
मैं बैठ गया ।
मैंने जेब से अपना डनहिल का पैकेट निकाला और लाइटर से एक सिगरेट सुलगा लिया ।
“मरने वाला मेरा क्लायंट था ?” - मैंने ढेर सारा धुआं उगलते हुए पूछा ।
“किसने कहा” - वह मुझे घूरता हुआ बोला - “कि कोई मर गया है ?”
“तुम्हारी नौकरी ने कहा । तुम फ्लाइंग स्कवाड के उस दस्ते से ताल्लुक रखते हो जो सिर्फ कत्ल के केसों की तफ्तीश के लिये भेजा जाता है ।”
“वो पहले की बात है । ऐसा तब होता था जब मैं सब-इंस्पेक्टर था । अब मैं” - उसके स्वर में गर्व का पुट आ गया - “इंस्पेक्टर होता हूं । और मैं कहीं भेजा नहीं गया हूं, अपने दफ्तर में बैठा हूं ।”
“जहां कि तुमने हवलदार भेजकर मुझे तलब किया है ?”
“हां ।”
“उस आदमी को तलब किया है जिसकी वजह से आज तुम इंस्पेक्टर हो ।”
“भई” - वह तनिक हड़बड़ाया - “तुम हिरासत में थोड़े ही हो । बुलाया ही तो है तुम्हें ।”
“किसलिए ?”
“वैसे तुम हिरासत में भी हो सकते हो ।”
“क्यों ?” - मेरे माथे पर बल पड़ गए - “मैंने क्या किया है ?”
“तुम पर फ्रॉड का केस है ।”
“क्या ?”
“हां ।”
“कैसा फ्रॉड ! मैंने किसके साथ फ्रॉड किया है ?”
“मुल्क के कायदे कानून के साथ ।”
“अरे, क्या पहेलियां बुझा रहे हो” - मैं तनिक झल्लाया - “किस्सा क्या है ? ठीक से बताओ न ।”
“किस्सा जरा पुराना है । दो साल पुराना ।”
“इतनी लेट न्यूज से मेरा वास्ता है ?”
“हां ।”
“जरा मैं भी सुनूं क्या है यह लेट न्यूज जो मुझ पर फ्रॉड का केस बना रही है ।”
“तुम गोपाल वशिष्ठ से वाकिफ हो ?”
“कौन गोपाल वशिष्ठ ? वो लेखक ?”
“हां ।”
“सिर्फ नाम से वाकिफ हूं । मेरा कोई जिगरी नहीं है वो ।”
“तुम्हारे क्लायंट का तुम्हारा जिगरी होना जरुरी भी नहीं है ।”
“वह मेरा क्लायंट है ?”
“था । दो साल पहले । जब तुमने उसका उसकी बीवी मीरा वशिष्ठ से तलाक करवाया था । उसे अपनी बीवी के चरित्र पर शक था और इसी बिना पर वह तलाक हासिल करना चाहता था । अपनी बेवफाई के सबूत जुटाने के लिये उसने तुम्हारी सेवायें हासिल की थीं ।”
“ऐसा किसने कहा ?” - मैं हैरानी से बोला ।
“किसी ने भी कहा । क्या यह झूठ है ?”
“सरासर झूठ है ।”
“यह झूठ है कि दो साल पहले गोपाल वशिष्ठ ने तुम्हारी सेवायें हासिल की थीं ?”
“झूठ है । यह झूठ है कि उसने मेरी सेवाएं हासिल की थीं । लेकिन यह सच है कि उसने मेरी सेवाएं हासिल करना चाही थीं ।”
“क्या फर्क हुआ ?”
“बहुत फर्क हुआ । किसी चीज की ख्वाहिश करना आपका जाती मामला है, लेकिन उसके हासिल में उस शख्स का भी दखल होता है, जिसकी कि वह चीज है । मसलन मैं श्रीदेवी से शादी की ख्वाहिश कर सकता हूं । लेकिन सिर्फ मेरे ख्वाहिश करने से वह मुझे हासिल नहीं हो सकती ।”
“यह बात तुम्हारे और वशिष्ठ पर कैसे लागू हुई ?”
“वशिष्ठ को अपनी बीवी के कैरेक्टर पर शक था । वह उसकी दुश्चरित्रता का कोई अदालत में टिक सकने लायक सबूत हासिल करना चाहता था । इस काम के लिये उसे प्राइवेट डिटेक्टिव की सेवाओं की जरुरत थी, उसकी सैक्रेट्री ने उसे मेरा नाम सुझाया था ।”
“सैक्रेट्री ने ?”
“हां । तब अनीता सोनी नाम की जो लड़की उसकी सैक्रेट्री हुआ करती थी, वह मेरी वाकिफ्कार थी, उसी ने वशिष्ठ को मेरा नाम सुझाया था । लेकिन इत्तफाक से मैं उन दिनों किसी और केस में मशगूल था । तुम तो जानते ही हो कि मेरी वन मैन एजेंसी है । अपनी प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी का पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर सब कुछ मैं ही हूं । इसलिये मुझे वह केस लेने से इनकार करना पड़ा था ।”
“आगे ?”
“तब मैंने ही उसे एक और प्राइवेट डिटेक्टिव का नाम सुझाया था ।”
“किसका ?”
“बलबीर साहनी का ।”
“तुम उससे कैसे वाकिफ हो ?”
“हमपेशा होने की वजह से ऐसी वाकफियत हो ही जाती है ।”
“उस दूसरे जासूस ने - बलबीर साहनी ने - क्या कुछ किया था, इसकी तुम्हें खबर है ?”
“खबर रखने की जरुरत तो नहीं थी लेकिन अनीता क्योंकि गाहे-बगाहे मुझे मिलती रहती थी, इसीलिए उसी से मुझे मालूम हुआ था कि आगे क्या कुछ हुआ था ।”
“क्या हुआ था ?”
“वही जो वशिष्ठ चाहता था । बलबीर ने पहाड़गंज के एक होटल में मीरा वशिष्ठ को अपने बॉय फ्रेंड के साथ रंगे हाथों पकड़ा था । खुद अनीता उस बात की गवाह थी । बाद में बलबीर और अनीता की गवाही की बिना पर ही वशिष्ठ को अपनी बीवी से तलाक हासिल हुआ था ।” - मैं एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “यादव साहब, इस सीधे-सादे, ओपन एंड शट केस में फ्रॉड कहां से आ घुसा ? अगर फ्रॉड हुआ है तो किसके साथ ?”
“बीवी के साथ । तलाकशुदा औरत के साथ । मीरा वशिष्ठ के साथ ।”
“वो कैसे ? क्या गवाह झूठे थे ? क्या गैरमर्द के साथ वो रंगे हाथों नहीं पकड़ी गई थी ?”
“पकड़ी गई थी । लेकिन वो कथित गैरमर्द उस पर थोपा गया था । वो कथित गैरमर्द गोपाल वशिष्ठ का आदमी था ।”
“तुम यह कहना चाहते हो कि जान-बूझकर ऐसे हालात पैदा किये गए थे जिसमें कि मीरा वशिष्ठ बेवफा लगे ?”
“हां । अब बोलो यह फ्रॉड हुआ कि न हुआ ?”
“फिर तो हुआ ।”
“और इस फ्रॉड के चीफ आर्किटैक्ट” - उसने खंजर की तरह एक उंगली मेरी तरफ भौंकी - “तुम हो ।”
“मैं !”
“हां । मैं तुम्हारी बात मान भी लूं कि वशिष्ठ तुम्हारा क्लायंट नहीं था, तुमने बतौर क्लायंट उसे आगे बलबीर साहनी को पास ऑन कर दिया था तो भी मेरा दावा है कि सारी स्कीम के पीछे दिमाग तुम्हारा ही लगा हुआ है । कोई तुम्हारे जैसा शरारती आदमी ही वो स्कीम सोच सकता था जिस पर कि बलबीर साहनी ने अमल किया, बतौर तुम्हारे शागिर्द अमल किया । बीवी को रंगे हाथों पकड़ने का जो ड्रामा रचा गया था, वह गोपाल वशिष्ठ और उसके जोड़ीदारों की मिलीभगत थी ।”
“कहने से क्या होता है ?”
“यह बात साबित की जा सकती है । पहले नहीं साबित की जा सकती थी, लेकिन अब साबित की जा सकती है ।”
“कैसे ?”
“उस आदमी की हकीकत का पर्दाफाश करके जो कि होटल के कमरे में मीरा वशिष्ठ के साथ पकड़ा गया था ।”
“कौन है वो आदमी ?”
“जैसे तुम्हें मालूम नहीं” - यादव व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“यादव साहब, - बाई गॉड, मुझे नहीं मालूम ।”
“यानी कि तुमने तस्वीर नहीं देखी ?”
“तस्वीर ! कौन सी तस्वीर ?”
“जो होटल के कमरे की खींची गयी थी । जिसमें मीरा वशिष्ठ और उसका कथित बॉय फ्रेंड दिखाई दे रहे हैं ।”
“मैंने ऐसी कोई तस्वीर नहीं देखी । मुझे किसी तस्वीर के अस्तित्व की भी खबर नहीं ।”
“तुम झूठ बोल रहे हो ।”
“मुझे क्या फायदा झूठ बोलने से ?”
“क्यों नहीं फायदा ? ऐसे किसी फ्रॉड में तुम्हारी शिरकत की पोल खुल जाने से तुम्हारा प्राइवेट डिटेक्टिव का लाइसेंस कैंसिल हो सकता है, तुम्हारा धन्धा बंद हो सकता है ।”
“लेकिन यादव साहब, मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूं कि मेरा इस केस से कोई ताल्लुक नहीं । वशिष्ठ मेरा क्लायंट नहीं था ।”
“यह तुम्हारी ही करतूत है । इस करतूत पर तुम्हारे ट्रेड मार्क का ठप्पा लगा मुझे साफ दिखाई दे रहा है ।”
“यह तुम्हारा वहम है । मेरे साय ज्यादती है । वशिष्ठ कहता है कि वो मेरा क्लायंट था ?”
“यह तो तुम ही कह रहे हो कि वो तुम्हारे पास आया था और तुमने उसे आगे बलबीर साहनी के पास भेजा था ।”
“बलबीर साहनी कहता है कि उस केस पर वह मेरी एसोसिएशन में काम कर रहा था ?”
“नहीं” - यादव कठिन स्वर में बोला ।
“तो फिर कौन ऐसा कहता है ?”
“हालात ऐसा कहते हैं । जो हरकत हुई है उसका जुगराफिया ऐसा कहता है । कोहली, वैसी हरामीपंती की बात तुम्हारे सिवाय और कोई नहीं सोच सकता ।”
“यह मेरे ऊपर सरासर बेजा और गलत इल्जाम है ।”
“तुम्हारे कहने से क्या होता है ?”
“तो और किसके कहने से होता है ? तुम्हारे कहने से ?”
यादव खामोश रहा । वह कुछ क्षण अपलक मुझे देखता रहा, फिर मुझे विचलित होता न पाकर उसने निगाह झुका ली और मेज का एक दराज खोला । उसने दराज में से एक लिफाफा बरामद किया और उसमें से कैबिनेट साइज की एक ब्लैक एंड वाईट तस्वीर बरामद की । उसने वह तस्वीर मेरे सामने डाल दी ।
“इसे देखो” - वह बोला ।
मैंने तस्वीर उठा ली ।
तस्वीर में किसी मामूली होटल का एक मामूली कमरा चित्रित था । उसमें मीरा वशिष्ठ कमरे में लगी डबल बैड के एक किनारे पर बैठी दिखाई दे रही थी । उस वक्त वह एक झीनी सी नाइटी पहने थी और उसके बालों से यूं लग रहा था जैसे वे उसने अभी खोले थे । उसके करीब एक हट्टा-कट्टा तंदरुस्त आदमी खड़ा था, कमर से ऊपर उसका शरीर नंगा था और प्रत्यक्षत: उसी क्षण उतारी कमीज उसके हाथ में थी । दोनों के रुख कैमरे की तरफ थे और उनके चेहरे पर हड़बड़ाहट के और आतंक के ऐसे भाव थे जैसे कैमरे की फ्लैश पड़ने पर ही उनकी कैमरे की तरफ तवज्जो गई हो ।
रूबरू मीरा को मैंने सिर्फ एक बार एक पार्टी में देखा था । इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं थी कि वह एक खूबसूरत औरत थी, उम्र में भी वह वशिष्ठ से तेरह-चौदह साल छोटी थी, लेकिन उसकी खूबसूरती में कुदरत का दखल कम और बनावटी चमक-दमक ज्यादा थी, वैसे ही जैसे किसी चीज की क्वालिटी से ज्यादा रोब आप उसकी डेकोरेशन और पॉलिश-पैकिंग वगैरह का खाएं ।
“क्या देखा ? - यादव बोला ।
“वही जो तुमने दिखाया” - मैं तस्वीर वापिस उसके सामने डालता हुआ सहज भाव से बोला - “तस्वीर ! तस्वीर देखी ।”
“सिर्फ तस्वीर नहीं देखी । खास तस्वीर देखी । वो तस्वीर जो कि बीवी की बेवफाई का अकाट्य सबूत है ।”
“मुझे नहीं मालूम था कि कोई तस्वीर भी खींची गई थी ।”
“यानी कि बाकी बातें मालूम थीं ?”
“हां ।”
“किसने बताई ? बलबीर साहनी ने ?”
“नहीं । अनीता ने बताई । मैंने पहले ही कहा है ।”
“किस्सा क्या है ?”
“किस्सा तुम्हें मालूम तो है ।”
“मैं तुम्हारी जुबानी सुनना चाहता हूं ।”
“मेरी जुबानी भी सुन तो चुके हो ।”
“मैं दोबारा सुनना चाहता हूं ।”
“ठीक है । सुनो” - मैं डनहिल का कश लगाने के लिये एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “उस लेखक को - गोपाल वशिष्ठ को अपनी बीवी के चरित्र पर शक था । उस पर निगरानी रखने के लिये उसने बलबीर साहनी की सेवाएं प्राप्त की थीं ।”
“तुम्हारी सलाह पर ?”
“हां । मेरी सलाह पर ।” - मैं सख्ती से बोला - “अब क्या सलाह देने के लिये भी ..”
“बहस मत करो । आगे बढ़ो ।”
“बलबीर साहनी वशिष्ठ की बीवी के पीछे लग गया था । लेकिन कई दिनों की निगरानी का हासिल कुछ भी न निकला ।”
“क्यों न निकला ? अगर वो बेवफा थी तो उसने कई दिन यार के बिना कैसे सब्र कर लिया ?”
“मुझे नहीं पता । औरत होने का मुझे कोई तजुर्बा नहीं ।”
“हो सकता है कि उसे शक हो गया हो कि उसकी निगरानी की जा रही थी ।”
“हो सकता है । यह भी हो सकता है कि वो सुधर गयी हो । यह भी हो सकता है कि उसने कोई ऐसा व्रत रखा हुआ हो जिसमें एक खास अरसे के लिये गैर मर्द के साथ हमबिस्तर होने पर पाबंदी हो । यह भी हो सकता है कि...”
“आगे बढो ।”
“कैसे आगे बढूं ? बढ़ने कहां दे रहे हो तुम ? अभी मेरी जुबान से डेढ़ फिक्र नहीं निकला होता कि तुम मुझे टोक देते हो ।”
वह खामोश रहा ।
“फिर एक दिन दोपहर के करीब वशिष्ठ के पास बलबीर साहनी का टेलीफोन आया । उसने बताया कि उस रोज मीरा वशिष्ठ कनाट प्लेस के रेस्टोरेंट में एक शख्स से मिली थी, जहां से उठकर वे दोनों पहाड़गंज में स्थित डायमंड नाम के एक होटल में चले गए थे जहां कि उनहोंने एक कमरा हासिल किया था । बकौल बलबीर साहनी, उसे उस घड़ी एक गवाह की जरुरत थी जो कि बाद में अदालत में कह सके कि उसने खुद अपनी आंखों से मीरा वशिष्ठ को होटल के कमरे में एक गैरमर्द के आगोश में देखा था ।”
“अदालत में दो गवाहों की जरुरत होती है ।”
“यादव साहब, लगता है इन्स्पेक्टर बनकर तुमने अपनी आखिरी मंजिल पा ली है । अब बाकी की उम्र तुम इन्स्पेक्टर ही बना रहना चाहते हो । ए सी पी बनने की या उससे भी आगे जाने की तुम्हारी कोई ख्वाहिश नहीं ।”
“क्या मतलब ?” - वह आंखें निकालकर बोला ।
“तुम बात ही ऐसी कर रहे हो जैसे अक्ल के दरवाजे को ताला लगाकर चाबी खो दी हो । अरे, दूसरा गवाह क्या बलबीर साहनी खुद न हुआ ?”
“वशिष्ठ ने क्या इंतजाम किया दूसरे गवाह का ?”
“उसने अपनी सैक्रेट्री अनीता सोनी को पहाड़गंज भेज दिया ।”
“वह खुद क्यों न गया ?”
“अपनी बीवी को किसी दूसरे के आगोश में देखने का हौसला वह नहीं जमा कर पाया होगा अपने में ।”
“वह इसलिए नहीं गया क्योंकि फिर उसे उस आदमी को - उस अपने आदमी को - जो कि बीवी के साथ था, पहचानना पड़ता ।”
“नॉनसैंस ।”
“ऐसे बेहूदे नजारे का गवाह बनने के लिये लड़की मान गयी ?”
“जाहिर है कि मान गयी । थोड़ी हील-हुज्जत के साथ मानी होगी, अपने एम्प्लोयर की मिन्नत-समाजत के बाद मानी होगी, लेकिन मान गयी ।”
“फिर ?”
“फिर क्या ? फिर अनीता और बलबीर साहनी मीरा वशिष्ठ की अपने पति से बेवफाई और उसकी अपनी बेहयाई के गवाह बने । लेकिन..” - मैं एक क्षण ठिठका, मैंने सामने पड़ी तस्वीर पर निगाह डाली - “मुझे नहीं मालूम था, मुझे किसी ने नहीं बताया कि उस नाजुक घड़ी में तस्वीर भी खींची गयी थी ।”
“फिर ?”
“फिर उसके बाद एक बार और गोपाल वशिष्ठ मेरे पास आया था । अब उसे एक वकील की जरुरत थी जो कि हासिल सबूत की बिना पर तलाक की आगे की कार्यवाही को अंजाम दे सकता । मखीजा नाम का एक बुजुर्ग वकील मेरा वाकिफकार था । मैंने वशिष्ठ को उसका नाम सुझा दिया । उसी ने अदालत में वशिष्ठ की तलाक की अर्जी दाल दी । तलाक हासिल हो गया ।”
“बीवी ने कोई विरोध नहीं किया ?”
“वह क्या विरोध करती ? वह तो ओपन एन्ड शट मामला था । उसके खिलाफ अकाट्य सबूत थे । फिर भी अदालती खानापूरी के तौर पर दावे की जवाबदेही के लिये उसने अनिल पाहवा नाम का एक वकील किया था, लेकिन दूसरी ही पेशी में न मीरा वशिष्ठ अदालत में पेश हुई थी और न उसका वकील पेश हुआ था । मैजिस्ट्रेट ने एकतरफा फैसला सुना दिया था । वशिष्ठ को अपनी बेवफा बीवी से उसे बिना हर्जा-खर्चा अदा किये निजात मिल गयी थी । वशिष्ठ के नॉवल पर कोई फिल्म बन रही थी जिसके चक्कर में तब वो बम्बई में था । मखीजा ने मुझे बताया था कि उसने वशिष्ठ को बम्बई तार भेजकर खबर कर दी थी कि उसका तलाक मंजूर हो गया था । कहानी खत्म ।”
यादव ने इनकार में सिर हिलाया ।
“मतलब ?” - मैं बोला ।
“कहानी अभी खत्म नहीं । कहानी अभी जारी है । कहानी इस तस्वीर की वजह से अभी जारी है ।”
“लेकिन यह तस्वीर तो और भी सबूत है बीवी की करतूत का ।”
“यह तस्वीर सबूत है लेकिन बीवी की करतूत का नहीं, खाविंद की करतूत का । गोपाल वशिष्ठ की करतूत का ।”
“कैसे ?”
“तुम अभी भी यही कहते हो कि तस्वीर में मीरा के साथ जो शख्स दिखाई दे रहा है, तुम उसे नहीं जानते ।”
“न जानता हूं, न पहचानता हूं ।”
“जरा हिंट भी नहीं इस बाबत कि यह कौन है ?”
“न ।”
“सच कह रहे हो ?”
“मैंने तुमसे पहले कभी झूठ बोला है ?”
“हां एक दर्जन बार ।”
मैंने एक आह भरी, असहाय भाव से गर्दन हिलाई और नया सिगरेट सुलगा लिया ।
“यह आदमी” - यादव ने बम सा छोड़ा - “गोपाल वशिष्ठ का ड्राइवर है ।”
“क्या ?” - मैं हैरानी से बोला ।
“मुकेश मैनी नाम है इसका ।”
“और यह वशिष्ठ का ड्राइवर है” - मैं अपलक तस्वीर को दोबारा देखता हुआ बोला ।
“अब नहीं है, लेकिन तलाक के बहुत अरसे के बाद तक था ।”
“तो फिर क्या हुआ” - मैं तनिक दिलेरी से बोला - “क्या किसी औरत का अपने ड्राइवर से अफेयर नहीं हो सकता ? बड़े-बड़ों की मेम साहबों में तो अपने ड्राइवरों, खानसामों से ऐसे ताल्लुकात रखने का अच्छा-खासा रिवाज है । ऊपर से यह ड्राइवर तो खूबसूरत है, नौजवान है, मेरा मतलब है, कम-से-कम तस्वीर में तो ऐसा दिखता है ।”
“कोहली, तुम्हारी बीवी का तुम्हारे ड्राइवर से...”
“मेरी कोई बीवी नहीं ।”
“मैं मिसाल दे रहा हूं ।”
“बीवी की मुझे मिसाल भी मत दो । मैं दूध का जला हूं, छाछ भी फूंक-फूककर पीता हूं ।”
“अगर मेरी बीवी का मेरे ड्राइवर से अफेयर हो, मुझे इस बात की खबर लग जाए, बतौर सबूत ऐसी तस्वीर भी मुझे हासिल हो तो जब मैं अपनी बेवफा बीवी के खिलाफ यह कदम उठाऊंगा कि उससे तलाक हासिल करने के लिये अदालत का दरवाजा खटखटाऊंगा तो क्या उस हरामजादे, दगाबाज ड्राइवर को मैं नौकरी पर रखे रहूंगा ? उसकी पीठ पर लात मारकर उसे दफा नहीं करूंगा मैं ?”
“जरूर करोगे” - मैंने कबूल किया - “ऐसे हालात में तो आदमी खून करने पर अमादा हो जाता है ।”
“बिल्कुल ! लेकिन उस लेखक ने, गोपाल वशिष्ठ ने, ड्राइवर को नौकरी से नहीं निकाला । तलाक के बाद भी वह बदस्तूर वशिष्ठ का ड्राइवर बना रहा । ऐसा सिर्फ एक ही तरीके से मुमकिन हो सकता है । वह तरीका यह है कि ड्राइवर मालिक का विश्वसनीय खिदमतगार था, उसने बीवी का यार बनके, यह तस्वीर खींची जाने लायक माहौल पैदा करके, अपने मालिक की खास खिदमत की थी । ऐसे खिदमतगार को दफा नहीं किया जाता बल्कि गोद में बिठाकर इनाम इकराम से नवाजा जाता है ।”
मैं खामोश रहा ।
“अब बोलो, यह बीवी के साथ फ्रॉड हुआ या न हुआ ?”
“यूं तो हुआ ।”
“यकीनन हुआ । और यह सारा बखेड़ा वशिष्ठ ने एक नपी-तुली स्कीम पर अमल करके इसलिए किया ताकि उसे बिना कोई हर्जा-खर्चा दिए अपनी बीवी से तलाक मिल सके और वह बम्बई की उस फिल्म स्टार से शादी कर सके जिसका कि वह आजकल पति है । और सुधीर कोहली” - यादव कहरभरी निगाहों से मुझे घूरता हुआ बोला - “इस सारे ड्रामे के अहम किरदार चाहे तुम नहीं हो लेकिन इसकी स्क्रिप्ट तुम्हारी ही लिखी हुई है ।”
“जैसे तुम यहां मेरी ऐसी-तैसी फेरने पर तुले हुए हो, तुम्हारी वैसी नजरेइनायत इस कथित ड्रामे के बाकी किरदारों पर भी तो होनी चाहिए थी । खास तौर से बलबीर साहनी पर ।”
“मेरी उससे बात हुई है । वह मानता है कि यह तस्वीर उसने खींची थी लेकिन वह यह नहीं मानता कि बीवी के खिलाफ फ्रॉड में वह वशिष्ठ का मददगार था । वह कहता है कि वह बीवी के यार के बारे में न पहले कुछ जानता था और न आज कुछ जानता है ।”
“वह कहता है कि उसने क्या करना है, इस बाबत उसे मैंने सिखाया-पढ़ाया था ?”
“वह कहता है कि वशिष्ठ को तुमने उसके पास भेजा था ।”
“यह मेरे सवाल का जवाब नहीं ।”
“तुमने वशिष्ठ को सिखाया-पढाया होगा । वशिष्ठ ने आगे बलबीर साहनी को सिखा-पढ़ा दिया होगा ।”
“वशिष्ठ कहता है कि मैंने उसे सिखाया-पढाया था ?”
“अभी नहीं कहता । मैंने कहा न कि अभी मेरी उससे बात नहीं हुई ।”
“बात कर लो । वह यही कहेगा कि मैंने उसे सिर्फ रास्ता दिखाया था, उस रास्ते पर उंगली पकड़कर उसे चलाया नहीं था ।”
“देखेंगे ।”
“लेकिन सबसे पहले तो तुम्हें ड्राइवर से” - मैंने फिर तस्वीर की तरफ देखा - “इस मुकेश मैनी से बात करनी चाहिए थी । आखिर यह...”
“मैंने की थी इससे बात । सबसे पहले की थी । उसे यह तस्वीर भी दिखाई थी ।”
“फिर क्या बोला वो ?”
“कुछ भी नहीं बोला । तस्वीर देखते ही जैसे उसने अपने होंठ सी लिये । मैं उससे कुछ भी न कहलवा पाया ।”
“यह इन्स्पेक्टर यादव कह रहा है ?”
“उसके खिलाफ कोई चार्ज नहीं बनता था ।”
“क्या कहने ! और मेरे खिलाफ बनता है । मैं फ्रॉड का अंग हूं लेकिन उस कथित फ्रॉड का हीरो, बीवी का कथित यार, फ्रॉड का अंग नहीं ।”
“अभी मैंने उसका पीछा छोड़ नहीं दिया है । बाकी लोगों से बात हो ले, मैं उससे फिर बात करूंगा ।”
“बीवी क्या कहती है ?”
“वशिष्ठ की बीवी ? वो फिल्म स्टार ?”
“वो नहीं, तलाकशुदा बीवी । जिसकी यह तस्वीर है । मीरा वशिष्ठ ।”
“यानी कि तुम्हें नहीं मालूम ?”
“क्या ?”
“कि मीरा वशिष्ठ अब इस दुनिया में नहीं है ।”
“अच्छा ! क्या हुआ उसे ? कैसे मरी ?”
“एक एक्सीडेंट में मरी । कोई सात महीने पहले की बात है । रात को किसी पार्टी से अपनी कार खुद ड्राइव करती लौट रही थी कि विनय मार्ग पर कार का पहिया पंचर हो गया । उस वक्त सड़क सुनसान थी । मदद हासिल करने की खातिर सड़क पर आती एक कार को रुकने का इशारा देने के लिए सड़क के बीच में आ खड़ी हुई थी । अब पता नहीं कि उस दूसरी कार वाले की ब्रेकें कमजोर थीं या वह उसे वक्त रहते दिखाई नहीं दी थी लेकिन नतीजा यह निकला कि वह कार मीरा वशिष्ठ को रौंदती हुई गुजर गयी ।”
“ओह !”
यादव खामोश रहा ।
“अब मुझे क्या कहते हो ?”
“मैं तुम्हें यह कहता हूं कि तुम कबूल करो कि वह तलाक तुम्हारी, वशिष्ठ की, उसके ड्राइवर की और उस जासूस बलबीर साहनी की मिलीभगत है ।”
“वाह ! कोई धांधली है ! एक गलत, नाजायज, बेबुनियाद बात को भला मैं यूं कैसे कबूल कर लूं ?”
“तुम पछताओगे ।”
“वो क्या नई बात होगी मेरे लिए ! मैं तो तभी से पछता रहा हूं जब से मैंने इस नामुराद धंधे में कदम रखा है ।”
“देखो, तुम...”
“पहले मेरी एक बात का जवाब दो ।”
“कौन सी बात का ?”
“यह पुलिस केस कैसे बन गया ? अगर कोई फ्रॉड हुआ है तो जिसके साथ हुआ है, वो तो मर गई । अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि उसके साथ फ्रॉड हुआ था या इंसाफ ?”
“उसे नहीं पड़ता लेकिन उसके होतों-सोतों को पड़ता है ।”
“मतलब ?”
“मीरा वशिष्ठ की अहिल्या शर्मा नाम की एक बड़ी बहन है जो कि गाजियाबाद के न्यू राजनगर के नाम से जाने वाले इलाके में रहती है । उसने शिकायत की है कि उसकी बहन के साथ फ्रॉड हुआ है । उसी ने यह तस्वीर हमें दी है ।”
“उसके पास यह तस्वीर कहां से आई ?”
“कहती है किसी ने भेजी ।”
“किसने ?”
“पता नहीं । तस्वीर के साथ जो चिट्ठी थी, वो गुमनाम थी ।”
क्यों भेजी ? वो भी इतने अरसे के बाद । जब दो साल से इस तस्वीर का अस्तित्व था तो किसी ने तस्वीर मीरा वशिष्ठ की जिंदगी में उसी को क्यों न भेजी ?”
“क्या पता क्यों न भेजी ?”
“अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से किसी को क्या हासिल ?”
“अहिल्या शर्मा को हासिल है ।”
“कैसे ?”
“अगर फ्राड साबित होता है तो गोपाल वशिष्ठ का अपनी बीवी से तलाक भी गलत करार दिया जा सकता है और कैंसल हो सकता है । यह गोपाल वशिष्ठ के लिए बहुत बड़ी सजा होगी क्योंकि तब उसकी मौजूद शादी भी अवैध करार दी जाएगी जो कि उसकी एक्ट्रेस बीवी के लिए भारी तौहीन और सदमे की बात होगी ।”
“लेकिन अगर ऐसा हो गया तो अहिल्या शर्मा को क्या हासिल होगा ?”
“उसे संतोष हासिल होगा । इस बात का संतोष हासिल होगा कि उसके जीजा ने उसकी बहन की जो दुर्गति की थे उसने उसका बदला ले लिया ।”
“यह तो बड़ी वाहियात बात हुई ।”
“तुम्हारे लिए । अहिल्या शर्मा के लिए नहीं ।”
“जरूर वह औरत कोई बड़ी खुंदकी, फसादी, खूसट बुढ़िया होगी ।”
“वो कुछ भी हो, जो रिपोर्ट हमारे पास लिखाई गयी है, उसकी तफतीश करना मेरा फर्ज है ।”
“ठीक है, करो । अब मेरे लिए क्या हुक्म है ?”
यादव कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “उस लड़की से तुम्हारी यारी कैसी है ?”
“किस लड़की से ?” - मैं बोला ।
“वशिष्ठ की भूतपूर्व सैक्रेट्री से । अनीता सोनी से ।”
“अच्छी यारी है । क्यों ?”
“और बकौल तुम्हारे उसी ने तुम्हें वशिष्ठ के तलाक के केस की बाबत सब कुछ बताया था ?”
“हां । कहा तो । और कितनी बार कहलवाओगे ?”
“लेकिन उसने तुम्हें यह नहीं बताया कि जो आदमी होटल के कमरे में उसने मीरा वशिष्ठ के साथ देखा था, वह वशिष्ठ का ड्राइवर था । यह क्या मानने लायक बात है ? या यह हजम होने लायक बात है कि जिस शख्स की वह नौकरी करती थी, वह उसके ड्राइवर को नहीं पहचानती थी ?”
“यादव साहब” - मैं बड़ी संजीदगी से बोला - “इस बात से मैं खुद हैरान हूं कि अनीता ने उस ड्राइवर के बच्चे का कभी मेरे सामने जिक्र नहीं किया ।”
“क्यों नहीं किया ?”
“मैं पूछूंगा उससे ।”
“जिक्र उसने जरूर किया होगा लेकिन क्योंकि तुम फ्रॉड में अपनी शिरकत से मुकर रहे हो इसलिए ड्राइवर से ताल्लुक रखती हर बात को मेरे से छुपाने की कोशिश करना तुम्हारे लिए जरूरी है ।”
“तुम” - मैं मुंह बिगाड़कर बोला - “सारी रात लगे रहो तो यह बहस खत्म नहीं होने वाली ।”
“बहस अभी खत्म हो सकती है ।”
“कैसे ?”
“सच बोलो । जो हकीकत है उसे कबूल करो ।”
“जो हकीकत है वो तुम्हें कबूल नहीं है ।”
“मैं...”
“मैं लड़की से बात करूंगा और खास तौर से उससे पूछूंगा कि ड्राइवर के बारे में उसने मुझे क्यों नहीं बताया था ।” - मैं एक क्षण ठिठका और बोला - “तुम चाहो तो मेरे साथ चल सकते हो और खुद सुन सकते हो कि वह क्या कहती है ।”
“तुमने पहले ही उसे पट्टी पढ़ा दी होगी ।”
“तौबा ! अरे, जैसे आनन-फानन तुम्हारा वह हवलदार मुझे यहां घसीटकर लाया था उसमें मेरे पास वक्त कहां था किसी को पट्टी पढ़ाने का ! यहां पहुंचने से पहले तो मुझे यह भी मालूम था कि तुमने मुझे क्यों तलब किया था ।”
“अच्छा, अच्छा !”
“क्या अच्छा-अच्छा !”
“अब तुम” - उसने मुझे घूरा - “मेरे से जवाबतलबी की कोशिश कर रहे हो ?”
मैंने कोई सख्त बात कहने के इरादे से मुंह खोला लेकिन फिर चुप ही रहना मुनासिब समझा ।
“अब तुम जा सकते हो ।” - वह एकाएक बोला ।
“शुक्रिया” - मैं उठ खड़ा हुआ ।
“मैं तुम्हें फिर तलब करूंगा” - वह धमकी के अंदाज में बोला ।
“जरूर करना । बंदा कहीं गायब नहीं हो जाने वाला ।”
“यही कहना चाहता था मैं । कहीं गायब मत हो जाना ।”
“नहीं होऊंगा ।”
***
अनीता सोनी उन दिनों डिफेंस कॉलोनी में स्थित एक बहुत बड़े एक्सपोर्ट हाउस के सबसे बड़े साहब की प्राइवेट सैक्रेट्री की बड़ी ठाठदार नौकरी कर रही थी ।
कामकाजी लड़कियों की तरक्की की बाबत किसी सयाने ने कहा है कि ऐसी लड़कियों की तरक्की तब कहीं ज्यादा आसान होती है जबकि या तो वे अपनी जनरस नेचर का प्रदर्शन करें और या फिर इस बात का प्रदर्शन करें, और उस प्रदर्शन को कैश करें, कि नेचर उनके साथ किस कदर जनरस तौर से पेश आई थी ।”
अनीता में माशाअल्ला दोनों खूबियां थीं । उसका मिजाज भी उतना ही खुशनुमा था जितना कि उसका सांचे में ढला हुआ लंबा-ऊंचा जिस्म ।
मुझे देखकर वह खुश ज्या हुई या हैरान ज्यादा हुई, मैं फैसला न कर सका ।
ऑफिस में उसका एक अलग एयरकन्डीशंड सेक्रेटरियल ऑफिस था, बॉस उसका उस वक्त कहीं गया हुआ था, इसीलिए उसके ऑफिस में भी उससे तनहाई में बात कर पाने का मौका बंदे को हासिल था ।
“क्या हुआ ?” - मुझे एक निहायत आरामदेय कुर्सी पर सजा देने की औपचारिकता निभा चुकने के बाद वह बोली - “रास्ता भूल गए ? कहीं और जाना चाहते थे लेकिन इत्तफाकन यहां पहुंच गए !”
“रास्ता तो नहीं भूला” - मैं बड़ी संजीदगी से बोला ।
“तो ?”
“वो क्या है कि बहुत दिनों से कोई खूबसूरत लड़की नहीं देखी थी, आगे दिख पाने की कोई उम्मीद भी नहीं बंध रही थी, इसलिए मैं यहां चला आया ।”
“तुम किसी गांव में गए हुए थे ?”
“नहीं तो । यहीं था ।”
“दिल्ली शहर में ?”
“हां ।”
“और यहां तुम्हें कोई खूबसूरत लड़की नहीं दिखाई दी ?”
“अब तो दिखाई दे रही है । पहले नहीं दिखाई दी थी ।”
“तुम्हारा इशारा मेरी तरफ है ?”
“और तो कोई मुझे यहां दिखाई नहीं दे रहा ।”
“अब देख ली खूबसूरत लड़की ?”
“हां ।”
“तो फिर जाओ । अब बैठे क्यों हो ?”
“अभी जी भरकर नहीं देखी । अभी दिल नहीं भरा ।”
“वो कैसे भरेगा ?”
“अभी तुमसे कुछ बातें करके और फिर शाम को तुम्हारे से डिनर डेट हासिल करके ।”
“जो बातें अब करना चाहते हो, शाम की डिनर डेट उसकी रिश्वत तो नहीं ?”
“हो सकती है ।”
“हो सकती है या है ?”
“है ।”
“एक बात तो माननी पड़ेगी तुम्हारे बारे में, सुधीर कोहली ।”
“क्या ?”
कमीने हो लेकिन झूठे नहीं हो ।”
“इसमें एक बात और जोड़ लो ।”
“वो क्या ?”
“ईमानदार भी हूं । कमीना हूं तो सबके लिए बराबर कमीना हूं ।”
“यह तुम्हारा नुक्स है कि खासियत ?”
“लगता नुक्स है लेकिन है खासियत ।”
“खुद ही फैसला कर लिया कि यह खासियत है ?”
“और कौन करेगा ?”
“जानते हो जोनाथन स्विफ्ट ने क्या कहा है ?”
“क्या कहा है ?”
“उसने कहा है कि आदमी का कमीना होना कोई अचरज की बात नहीं लेकिन उसका अपनी कमीनगी से शर्मिंदा न होना निश्चय ही अचरज की बात है ।”
“यह जोनाथन-जोनाथन समथिंग तुम्हारे कोई ऐसा बॉयफ्रेंड तो नहीं जिसकी आज तक मुझे खबर न लगी हो ?”
“जैसे मेरे बाकी बॉयफ्रेंड्स की तुम्हें मुकम्मल जानकारी है ।”
“फिर भी...”
“छोड़ो” - एकाएक उसका स्वर बदला - “अब बताओ कैसे आए ?”
मैं एक क्षण खामोश रहा, फिर बोला - “यहां सिगरेट पीने की पाबंदी तो नहीं ?”
“एक मुझे भी तो दो तो कोई पाबंदी नहीं ।”
“मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकाला । हम दोनों ने एक-एक सिगरेट सुलगा लिया ।
उसने बड़ी दक्षता से सिगरेट का एक कश लगाया ।
आपके खादिम को ऐब करने वाली लड़कियां बहुत अच्छी लगती हैं, ऐसी लड़कियां आसानी से फंस जाती हैं । फिर उनमे मेलजोल का स्कोप भी ज्यादा होता है । सैक्स भी तो एक तरह का ऐब ही है । जो लड़की एक ऐब करती होगी तो क्या वो दूसरे से बाज आ जाती होगी । बावजूद अपने इन ख्यालात के खाकसार को सिगरेट पीने वाली लड़की से इत्तफाक नहीं, ऊपर से अनीता तो कश लगाकर यूं धुंए की दोनाली छोड़ रही थी कि क्या कोई चेन स्मोकर मर्द भी ऐसा कर पाता ।
“मैं बताऊं तुम यहां क्यों आये हो ?” - एकाएक वह बोली ।
मैं हड़बड़ाया । मैंने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“तुम मेरे भूतपूर्व बॉस गोपाल वशिष्ठ के उसकी पहली बीवी से तलाक के सिलसिले में यहां आये हो ।”
“बात तो दुरुस्त है लेकिन मेरी आमद की वजह जानकार तुमने कोई बहुत बड़ा तीर नहीं मारा है । मैं अभी सीधा पुलिस हैडक्वार्टर से आ रहा हूं ।”
“तुम्हें भी इसी सिलसिले में वहां तलब किया गया था ?”
“हां । और वहां इन्स्पेक्टर यादव ने मुझे बताया था कि पुलिस तुमसे भी पूछताछ कर चुकी थी ।”
“पुलिस तुम्हें क्या कह रही थी ?”
“वो लोग कहते हैं कि बीवी के साथ फ्रॉड हुआ है और उस फ्रॉड का स्क्रिप्ट-राइटर मैं हूं ।”
“अच्छा !”
मैंने उसे यादव से हुई अपनी बातचीत का खुलासा सुनाया ।
“ओह !” - वह चिंतित भाव से बोली - “पुलिस कोई मुसीबत तो नहीं खड़ी करेगी ?”
“किसके लिये ?”
“तुम्हारे लिये । मेरे लिये ।”
“तुम्हारे लिये मुसीबत खड़ी करने के लिये तो उनके पास कुछ नहीं है, अलबत्ता मेरी खबर लेने के लिये वह इन्स्पेक्टर पूरी तरह से आमादा मालूम होता है ।”
“लेकिन हकीकतन तो तुमने कुछ भी नहीं किया ।”
“नहीं किया लेकिन पुलिस को मेरी बात का विशवास नहीं । साबित करके दिखाना होगा कि मैंने कुछ नहीं किया ।”
“कैसे करोगे ?”
“बात की तह तक पहुंचकर ।”
“कैसे पहुंचोगे ?”
“यार दोस्तों, मेहरबानों, कदरदानों की मदद से ।”
“कोई है ऐसा यार दोस्त, मेहरबान, कदरदान निगाह में ?”
“एक तो अभी सामने बैठा है ।”
“मैं क्या मदद करूं ?”
“अनीता, दो साल पहले की उस रेड की तुम्हें अच्छी तरह से याद है न ?”
“हां । है ।”
“उस प्राइवेट डिटेक्टिव बलबीर साहनी के कहने पर तुम पहाड़गंज के डायमंड नाम के होटल में गयी थीं, जहां तुमने अपनी आंखों से मीरा वशिष्ठ को एक गैरमर्द के साथ देखा था ?”
“हां ।”
“तुमने उस गैरमर्द की सूरत देखी थी ?”
उसने उत्तर न दिया । वह सिगरेट के कश लगाने लगी ।
“न सिर्फ सूरत देखी थी” - मैं जिदभरे स्वर में बोला - “बल्कि तुमने उसे पहचाना भी था । दुरुस्त ?”
वह परे देखने लगी ।
“यह बात अब खुल चुकी है कि वो गैरमर्द कौन था । अनीता, वो गैरमर्द वशिष्ठ का ड्राइवर मुकेश मैनी था - बोलो था कि नहीं ?”
“था ।”
“था तो इसमें छुपाने वाली क्या बात थी ? तुमने यह बात मुझे तभी क्यों नहीं बताई थी कि बीवी का यार और कोई नहीं, घर का ड्राइवर ही था ?”
“इसीलिए नहीं बताई थी” - वह धीरे से बोली - “क्योंकि बीवी का यार घर का ड्राइवर था ।”
“यह क्या वजह हुई ?”
“यही वजह थी । बीवी की आशनाई अपने रुतबे के किसी शख्स के साथ होती तो कोई बात भी थी, लेकिन घर के ड्राइवर के साथ..यह तो वशिष्ठ के जले पर नमक छिड़कने जैसी बात थी ।”
“इस वजह से बीवी के यार की हकीकत तुमने वशिष्ठ से छुपाई लेकिन मुझसे क्यों छुपाई ?”
“तुम्हें यह बात जानकर क्या हासिल होता ? तुम्हारा इस केस से क्या वास्ता था ?”
“फिर भी ।”
“क्या फिर भी ?”
“भई, जब तुमने बाकी बातें बताई थीं तो यह भी बताई होती ।”
“हासिल क्या होता ! उलटे नुक्सान हो सकता था ।”
“क्या नुक्सान हो सकता था ?”
“तुम कभी वशिष्ठ से मिल सकते थे और ड्राइवर और उसकी करतूत का जिक्र छेड़ सकते थे ।”
“जैसे वशिष्ठ मेरा जिगरी यार था और मुझसे रोज मिलता था ।”
“ऐसा मुंह तुम इक्की-दुक्की मुलाकात में भी फाड़ सकते थे ।”
“मैं पागल हूं ?”
“मुझे क्या पता ! मुझसे भी तो कम ही मिलते हो । अक्सर मिलते रहो तो कोई राय जाहिर करूं ।”
मैंने बहस छोड़ दी ।
“तुम्हें मालूम है” - मैं बोला - “बलबीर साहनी ने वहां की एक तस्वीर भी खींची थी ?”
“मालूम है ।”
“तस्वीर उसने तुम्हारे सामने खींची थी ?”
“हां ।”
“कैसे ?”
“कैसे क्या ? उसने पहले की-होल में से झांका था कि भीतर क्या हो रहा था और फिर कैमरा तैयार कर लिया था । उसने भड़ाक से कमरे का दरवाजा खोला था और तस्वीर खींच ली थी ।”
“भड़ाक से कमरे का दरवाजा खोला था यानी कि दरवाजा भीतर से बंद नहीं था ?”
“जाहिर है कि बंद नहीं था ।”
“फिर ?”
“फिर इससे पहले कि दोनों संभल पाते हम दोनों भाग खड़े हुए थे ।”
“मुकेश मैनी तुम्हारे पीछे नहीं भागा था ?”
“वो किसलिए ?”
“सबूत नष्ट करने के लिये । बलबीर से कैमरा छीनकर उसमें से फिल्म निकालने के लिये ।”
“शायद इसलिए न भागा हो क्योंकि उसने कपड़े उतारे हुए थे और उन्हें पहनने में उसे वक्त लगता ।”
“उसने सिर्फ कमीज उतारी हुई थी और वह भी उसके हाथ में थी । पहाड़गंज में जैसे होटल हैं, उनमें कमीज उतारकर होटल में या बाहर सड़क पर भागे फिरना कोई बहुत काबिले एतराज नजारा नहीं ।”
“अब मैं क्या कहूं इस बारे में ?”
“बहरहाल कोई पीछे नहीं भागा था ?”
“न ।”
“बलबीर साहनी ने वशिष्ठ को वह तस्वीर दिखाई थी ? या अपनी रिपोर्ट के साथ नत्थी करके भेजी थी ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“मैंने उसे ऐसा करने से मना किया था । वशिष्ठ का मतलब तो मेरी और बलबीर साहनी की गवाही से ही हल हो जाना था, वशिष्ठ वह तस्वीर देखता और तस्वीर में ड्राइवर को पहचानता तो खामखाह बेचारे का दिल टूटता ।”
“बड़ा ख्याल किया उसके दिल का तुमने !”
उसने घूरकर मुझे देखा ।
“ये जो कलाकार किस्म के लोग होते हैं, इन पर छोकरियां बहुत मरती हैं । कहीं तुम्हारा भी तो बुढऊ पर दिल नहीं आ गया था ?”
“कर दी शुरू बकवास ।”
“कर दी और फौरन बंद कर दी । वशिष्ठ ने पूछा नहीं कि उसकी बीवी के साथ जो मर्द था, वह कौन था ?”
“जब उसने बीवी से तलाक ही लेना था तो क्या फर्क पड़ता था कि मर्द कौन था ?”
“आदमी उत्सुकतावश ऐसी बात पूछ लेता है ।”
“बलबीर से पूछा हो तो पूछा हो, मुझसे तो नहीं पूछा था ।”
“पुलिस कब आई थी तुम्हारे पास ?”
“कल ।”
“कल मुझे खबर की होती ।”
“मैंने कल ऑल इण्डिया रेडियो की आठ बजे की खबरों में यह खबर लगवाने की कोशिश की थी लेकिन अफसोस कि कामयाब न हो सकी ।”
“बातें बनाना खूब सीख गई हो ।”
“हां ।”
“क्या हां ?”
“बातें बनाना खूब सीख गई हूं ।”
“और नया क्या-क्या सीखा है ?”
“बहुत कुछ । घर पर आना, तुम्हें भी सिखा दूंगी ।”
“वह तो मैं आऊंगा ही, एकाध सबक यहीं दो न ।”
वो हंसी । वह कोई मामूली हंसी न थी । वह मर्द के दिल में अभिसार के सपने जगाने वाली हंसी थी ।
“मुकेश मैनी को नौकरी से कब निकाला गया था ?” - मैंने बात आगे बढाई ।
“कोई छ: महीने पहले ।”
“उसका कोई मौजूदा अता-पता मालूम हो तुम्हें ?”
“मालूम है । वो दरियागंज के आकाश होटल के एक कमरे में रहता है ।”
“वो तो अच्छा-खासा होटल है । एक ड्राइवर स्थायी रूप से वहां रहने का खर्चा कैसे अफोर्ड कर सकता है ?”
“अब वो किसी बढ़िया जगह ड्राइवर होगा ।”
“फिर भी होटल में रहने लायक पासे ड्राइवर की नौकरी से नहीं कमाए जा सकते ।”
“उसकी कोई लॉटरी लग गई होगी । कोई चाचा, मामा मर गया होगा और सारी जायदाद उसके नाम छोड़ गया होगा । किसी बैंक का वॉल्ट खोलने में कामयाब हो गया होगा । कोई रईस, उम्रदराज, विधवा का यार बन गया होगा ।”
“बातें बनाना वाकई खूब सीख गई हो ।”
वह फिर हंसी ।
“ऐसी हंसी मत हंसा करो । मुसीबत में फंस जाओगी ।”
“अच्छा !” - वह दांतों में अपना निचला होंठ चुभलाती हुई बोली ।
“हां । खासतौर से किसी ऐसे मर्द के सामने जिसकी रगों में दौड़ते खून में 93-ऑकटेन मिली हुई हो ।”
“जैसे तुम ?”
“हां, जैसे मैं । यह मेज काफी बड़ी है, इस पर रखी लैटर ट्रे और टेलीफोन नीचे फर्श पर रखे जा सकते हैं और दरवाजा, मैं देख रहा हूं कि उस किस्म का है जो बेआवाज भीतर से बंद किया जा सकता है । मगर...”
“खबरदार !”
“हमारे यहां कहते हैं कि जो जी आवे राजी जावे ।”
“तो ?”
“तुम मुझे यहां से राजी नहीं भेजना चाहती ?”
“मतलब ?”
“मेरी रजा इस वक्त यह है” - मैं उठा - “कि मैं यहीं, इस टेबल पर...”
मैंने अभी उसकी तरफ एक ही कदम बढाया था कि उसने कॉलबैल के पुश पर उंगली रख दी ।
“बैठ जाओ” - वह बोली - चपरासी आ रहा है ।”
मैंने एक बड़ी फरमायशी आह भरी और वापिस कुर्सी पर बैठ गया ।
चपरासी ने दरवाजा खोलकर बड़े अदब से भीतर कदम रखा ।
“साहब के लिये पानी लाओ” - वह बोली - “ठंडा ! खूब ठंडा ।”
चपरासी चला गया ।
मैंने फिर डनहिल का पैकेट निकाला । उसने और सिगरेट लेने से इनकार किया तो मैंने अपने लिये सिगरेट सुलगा लिया ।
चपरासी मेरे सामने पानी का एक गिलास रख गया ।
“पी लो” - वह बोली ।
“सिर पर न पलट लूं ?” - मैं बोला ।
“अगर समझते हो कि पानी वैसे ज्यादा असरदार साबित होगा तो बेशक पलट लो ।”
“यह 93-ऑकटेन से भड़की हुई आग है, पानी के वाहिद गिलास से नहीं बुझने वाली ।”
“कोशिश तो करके देखो ।”
“वही तो करने लगा था ।”
“क्या ?”
“कोशिश । तुमने करने ही नहीं दी । घंटी बजा दी ।”
“सुधीर, मैं यहां नौकरी करने आती हूं, पिकनिक मनाने नहीं । मैंने यहां कुछ काम भी करना है ।”
“काम ही तो मैं करना चाहता था यहां ।”
“काम ! तुम कौनसा काम करना चाहते थे ?”
“वही हमारे अहमक पुरखों ने क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के साथ जिसे त्यागने की बेहूदा राय दी है ।”
“फिर वहीं पहुंच गए ?”
“कहां पहुंचा ! पहुंचने तो दिया ही नहीं तुमने । पहले ही घंटी...”
“सुधीर ! सुधीर ! फॉर गॉड सेक । स्टॉप इट नाओ ।”
“एक शर्त पर स्टॉप कर सकता हूं ।”
“कौन सी शर्त ?”
“यही कि जो कुछ स्टॉप करा रही हो उसको स्टार्ट करने का मौका मुझे देने के लिये शाम का कोई वक्त मुकर्रर करो ।”
“ठीक है । सात बजे घर आना ।”
“मैं जरुर आऊंगा । तैयार मिलना ।”
“अच्छा ।”
“और बेकरार भी ।”
वह हंसी । वही अभिसार का वादा करती हुई हंसी हंसी जिसे हंसना अगर पत्नियों को आता होता तो वो को कोई दो कौड़ी को न पूछता ।
***
दरियागंज का आकाश होटल पुरानी दिल्ली का काफी पोपुलर होटल था और पहाड़गंज और फतेहपुरी के होटलों के मुकाबले में अच्छा-खासा इज्जतदार मालूम होता था ।
मैंने रिसैप्शनिस्ट से मुकेश मैनी के कमरे का नंबर पूछा जो उसने बिना कोई हुज्जत या सवाल किये मुझे बता दिया ।
लिफ्ट पर सवार होकर मैं तीसरी मंजिल पर पहुंचा ।
मैंने मुकेश मैनी के कमरे के दरवाजे पर दस्तक दी ।
दरवाजा चौखट से मुश्किल से चार इंच अलग हुआ । मैंने एक कॉर्पोरेशन के सांड जैसे तंदरुस्त आदमी को संदिग्ध भाव से अपनी तरफ झांकते पाया ।
“क्या है ?” - वह उखड़े स्वर में बोला ।
“मुकेश मैनी ?” - मैं बोला ।
“मेरा ही नाम है । कौन हो तुम ? क्या चाहते हो ?”
“तुमसे बात बात करना चाहता हूं । एक मिनट के लिये भीतर आना चाहता हूं ।”
“मैं तुम्हें नहीं जानता ।”
“अब जान जाओगे ।”
“तुम हो कौन ?”
“खाकसार को सुधीर कोहली कहते हैं । नाम” - मैं अपलक उसे देखता हुआ बोला - “शायद कभी सुना हो ।”
उसकी आंखों में पहचान की चमक उभरी लेकिन उसने मुंह से कबूल न किया कि वह मेरे नाम से वाकिफ था ।
“मैं एक प्राइवेट डिटेक्टिव हूं, तुम्हारे पुराने साहब का वाकिफकार हूं और यहां इस वक्त तुम्हें एक लेट न्यूज सुनाने आया हूं ।”
“लेट न्यूज ?”
“हां ।”
“कैसी लेट न्यूज ?”
“तुम्हारे पुराने साहब और उसकी पहली बीवी के तलाक के केस में बहुत पेचीदगी पैदा हो गयी है, उसी बाबत मेरा तुम्हारे से बात करना जरुरी हो गया है ।”
“तलाक हुए तो दो साल हो गए । अब क्या पेचीदगी हो सकती है उसमें ?”
“हो सकती नहीं, हो गयी है ।”
“क्या ? जो कहना चाहते हो, जल्दी कहो ।”
“यहीं खड़ा-खड़ा कहूं ?”
“हां ।”
“दरवाजे की इस चार इंच की झिरी के आर-पार झांकते हुए ?”
“कहा न हां ।”
“भीतर कोई है ?”
“नहीं । कोई नहीं है भीतर ।”
“तो तुम मुझे भीतर आने दो” - मैंने दरवाजे को जबरन भीतर को धकेला - “और अगर भीतर कोई है तो तुम बाहर आ जाओ ।”
उसने मेरी छाती पर हाथ रखकर मुझे पीछे को धकेला और दरवाजा बंद करने की कोशिश की लेकिन मैंने उसकी कोशिश कामयाब न होने दी । मैंने अपनी एक टांग दरवाजे और चौखट के दरम्यान फंसा दी ।
फिर हम दोनों में बाकायदा धक्का-मुक्की होने लगी ।
तभी लिफ्ट का दरवाजा खुला और एक वेटर ने गलियारे में कदम रखा । उसकी निगाह हमारी तरफ उठी तो वह सकपकाया । फिर वह हमारी तरफ लपका ।
“यह क्या हो रहा है, साहब” - वह बोला ।
“कुछ नहीं” - मैं तनिक हांफता हुआ बोला - “जाकर अपना काम कर ।”
तभी एकाएक मुकेश मैनी पीछे को हट गया । क्योंकि उसका मुझे सहारा था इसलिए उसकी उस अप्रत्याशित हरकत से मेरा संतुलन बिगड़ गया । अपने को संभालता-संभालता मैं कमरे के भीतर जाकर गिरा । मेरा सिर एक कुर्सी के पाये से टकराया । मेरा सिर झनझना गया और आंखों के आगे सितारे नाच गए ।
कुछ क्षण बाद मैं संभला और उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ तो मुकेश मैनी को मैंने कमरे के मध्य में खड़ा पाया । उस क्षण वह शांत था, न सिर्फ शांत था बल्कि थोड़ा मुस्करा भी रहा था ।
मैंने दरवाजे की तरफ झांका ।
दरवाजा खुला था लेकिन बाहर गलियारे में वेटर दिखाई नहीं दे रहा था ।
“यह इज्जतदार होटल है” - वह बोला - “यहां मार-कुटाई नहीं चलती ।”
“शुरुआत तो” - मैं बोला - “तुम्हीं ने की थी ।”
“वशिष्ठ के तलाक के बारे में क्या कहना चाहते थे तुम ?”
“मुझे पहले ही भीतर बुलाकर तुम यह सवाल कर लेते तो यह नौबत क्यों आती ?”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“तुम पर यह इल्जाम है की अपने एम्प्लोयर को खुश करने की खातिर तुमने जान-बूझकर अपने आपको एम्प्लोयर की बीवी पर थोपा था और ऐसे हालात पैदा किए थे की वह एक बेवफा और बदकार औरत लगे ।”
“और तुम पर क्या इल्जाम है ?”
“यह कि मैं इस योजना का जन्मदाता हूं ।”
“अगर यह सब साबित हो जाये तो मेरा क्या बिगड़ जाएगा ?”
“तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा । बिगड़ेगा तो मेरा बिगड़ेगा । तब मुझ पर फ्रॉड की जिम्मेदारी आमद होगी । और मेरा लाइसेंस कैंसल होने की नौबत आ जाएगी । वशिष्ठ का बिगड़ेगा जिसकी दूसरी शादी अवैध करार दी जाएगी ।”
“इसमें मैं क्या कर सकता हूं ।”
“सच पूछो तो सब कुछ तुम्हीं कर सकते हो । बशर्ते कि तुम यह साबित कर सको कि तुम हकीकत में ही बीवी के यार थे ।”
“मैं बीवी का यार नहीं था ।”
“ओह !”
“लेकिन मैं वशिष्ठ का कारिंदा भी नहीं था ।”
“मतलब ?”
“देखो, वह शादी चलने वाली नहीं थी । उन दोनों के बीच जूतियों में दाल तो मेरे नौकरी पर आने से पहले से बंट रही थी । दोनों एक-दूसरे से बेजार थे । वशिष्ठ ने उस फिल्म एक्ट्रेस से, अपनी मौजूदा बीवी से दिल लगा लिया और मीरा ने मुझे, घर के ड्राइवर को, अपनी दिलजोई का सामान बना लिया । वह जिंदगी से बोर, गृहस्थी से बेजार और पति से तिरस्कृत औरत थी । मैं उस औरत का यार नहीं, जरूरत था ।”
“तुम्हें इस सिलसिले से कोई एतराज नहीं था ?”
“पागल हुए हो ! मुझे क्यों एतराज होने लगा ? मैं गैर शादीशुदा, तन्हा, जनाने जिस्म का जरूरतमन्द आदमी खामखाह हाथ आती औरत को भला क्यों छोड़ देता ?”
“वह तुम्हारे एम्प्लोयर की बीवी थी !”
“तो क्या हुआ ? मुझे कौनसी उससे शादी करनी थी ?”
“फिर भी...”
“क्या फिर भी ? अगर तुम कोई नैतिकता जैसी बात का हवाला देना चाहते हो तो यह बात बीवी को सूझनी चाहिए थी । एक शख्स को धोखा देने से जब उसकी बीवी को गुरेज नहीं था नौकर को क्यों कर होता ?”
“यानी कि तुम्हारी बीवी के साथ होटल में मौजूदगी मालिक के नमक का हक अदा करने की खातिर नहीं थी ।”
“हरगिज नहीं । सच पूछो तो जब हम यूं होटल में पकड़े गए थे तो मेरे छक्के छूट गए थे ।”
“तुम फोटो खींचने वाले के पीछे क्यों नहीं भागे थे ?”
“नौबत ही नहीं आई थी । मैं तो हैरानी और खौफ से जड़ हो गया था । जब तक मैं नॉर्मल हुआ था, तब तक वह फोटोग्राफर का बच्चा कब का वहां से चंपत हो चुका था ।”
“अगर वह तुम्हारे हाथ आ जाता ?”
“तो यकीनन मैं उसकी गर्दन मरोड़ देता ।”
“सारी घटना का मीरा पर क्या असर हुआ था ?”
“उसके भी मेरी ही तरह छक्के छूट गए थे । बाद में हमने वह होटल छोड़ देने में दस मिनट भी नहीं लगाए थे ।”
“सुना है पुलिस ने भी इस बाबत तुमसे पूछताछ की थी । और तुमने पुलिस को कुछ भी बताने से इंकार कर दिया था ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मुझे डर था कि अपना मुंह फाड़कर मैं किसी झमेले में न फंस जाऊं ।”
“वह तो तुम मुंह फाड़े बिना भी फंस सकते थे ।”
“तब मैं जुबान बंद न रखता । मुझ पर कोई चार्ज नहीं लगा था, मुझे हिरासत में नहीं लिया गया था । मैं खामखाह मुंह फाड़कर पुलिस का काम आसान क्यों करता ।”
“अगर वह सब होता - तुम पर चार्ज लगया जाता, तुम्हें हिरासत में लिया जाता - तो तुम सब कुछ कह डालते ?”
“फिर तो कहना ही पड़ता ।”
“यानी कि तुमने पुलिस की नरमी का फायदा उठाया ?”
“यही समझ लो” - वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “अब मेरे पास वक्त है । अब मैं किसी वकील से मशवरा हासिल कर सकता हूं कि इस मामले में मेरे लिए मुनासिब कदम कौन सा होगा ।”
“इतनी बड़ी बात हो गयी, तुम्हारी करतूत की तस्वीर भी खिंच गयी, फिर भी तुम नौकरी से क्यों नहीं निकाले गए थे ?”
“मैं खुद हैरान हूं । तस्वीर क्या, वशिष्ठ की सैक्रेट्री ने भी तो मुझे देखा था । लगता है न तो उस सैक्रेट्री ने मेरे खिलाफ जुबान खोली थी और न किसी ने वशिष्ठ को वह तस्वीर दिखाई थी ।”
“जरूर यही होगा । क्योंकि तस्वीर देखकर या अपनी सैक्रेट्री से तुम्हारी बाबत सुनकर तो वशिष्ठ तुम्हें नौकरी पर रखे नहीं रह सकता था, तब भी रखे रहता तो उसका यही मतलब होता कि तुम्हारी अपने एम्प्लोयर से मिलीभगत थी ।”
“मेरी उससे कोई मिलीभगत नहीं थी ।”
“रहन-सहन के मामले में तुम्हारे बहुत ठाठबाट दिखाई दे रहे हैं ।”
“तो ?” - उसके माथे पर बल पड़ गए ।
“कई मालिकान अपने खिदमतगारों की किन्हीं खास खिदमात के लिए बहुत दयानतदारी की कीमत अदा करते हैं ।”
“फिर पहुंच गए वहीं पहली जगह पर । मैंने वशिष्ठ की ऐसी कोई खिदमत नहीं की ।”
“तो फिर तुम इतने सम्पन्न कैसे बन गए कि तुम स्थायी तौर पर एक होटल में रहना अफोर्ड कर सकते हो ?”
“इस बाबत मैं तुमसे कोई बात नहीं करना चाहता ।”
“मैं तुम्हारे राज को राज रखूंगा ।”
“शुक्रिया । अपना माल मैं बेहतर तरीके से महफूज रख सकता हूं ।”
“इतने की तो हां या ना कर दो कि तुम्हारी मौजूदा खुशहाली का वशिष्ठ की किन्हीं खिदमत से कोई रिश्ता नहीं ।”
“कोई रिश्ता नहीं ।”
“तुम जरूरत पड़ने पर यह बात पुलिस के सामने दोहराने को तैयार हो कि तुम वशिष्ठ की बीवी से ताल्लुकात बढ़ाकर वशिष्ठ की कोई खिदमत करने की कोशिश नहीं कर रहे थे ?”
“तैयार हूं ।”
“मुकरोगे तो नहीं ?”
“नहीं । मैं जो वादा कर लेता हूं, उससे कभी नहीं मुकरता ।”
“शुक्रिया । मैं तुमसे फिर मिलूंगा ।”
“बेहतर ।”
***
बलबीर साहनी का ऑफिस शंकर मार्केट में था । दरियागंज से शंकर मार्केट का रास्ता मुश्किल से पांच-सात मिनट का था । मैं वहां पहुंचा ।
मुझे बलबीर का ऑफिस बंद मिला ।
अपनी कार को शंकर मार्केट की पार्किंग में ही खड़ी छोड़कर मैं कनाट प्लेस तक पहुंचा जहां कि रीगल सिनेमा वाले ब्लॉक में अनिल पाहवा का छोटा सा लेकिन खूब सजा-धजा ऑफिस था ।
ऑफिस में सजावटी सामान की तरह ही सजी हुई उसकी रिसेप्शनिस्ट ने मुझे बताया कि वकील साहब हाईकोर्ट गए थे और शाम तक लौटकर नहीं आने वाले थे ।
मैंने गोपाल वशिष्ठ से मिलने का निश्चय किया ।
फरीदाबाद में गोपाल वशिष्ठ की भव्य, एक मंजिला कोठी हजार गज के प्लॉट में शोभायमान थी ।
मैंने अपनी कार बाहर खड़ी कर दी और फाटक ठेलकर भीतर दाखिल हुआ ।
किसी चौकीदार जैसे शख्स ने मुझे टोका नहीं, कोई कुत्ता न भौंका, कॉलबैल का भी मुझे कोई जवाब न मिला तो मैं यह सोचने पर मजबूर हो गया कि कहीं कोठी खाली तो नहीं पड़ी थी । दूसरी बार भी कॉलबैल का कोई जवाब न मिला तो मैं घूमकर पिछवाड़े में पहुंचा ।
पिछवाड़े में एक छोटा-सा, खूबसूरत स्विमिंग पूल था लेकिन क्योंकि उस वक्त उसमें कोई जलपरी तैरती नहीं दिखाई दे रही थी, इसलिए बेकार था । रईस लोगों को मेरी राय है कि जब वे लोग स्विमिंग पूल पर खर्चा करें तो वे 36-24-36 के नाप वाली एक हसीना का भी इंतजाम करें जो सिर्फ आगंतुकों को नयन सुख प्रदान करने के लिए स्विमिंग पूल में तैरती दिखाई दिया करे बिल्कुल वैसे ही जैसे वे लोग खूबसूरत ऑफिस में खूबसूरत रिसैपशनिस्ट बिठाते हैं । नौजवान औरत से ज्यादा सजावटी चीज इस सुष्टि में कहीं पैदा हुई है ! ताजमहल को भी उठाकर कहीं सजावट के लिये रख दो तो वह नौजवान औरत से मात खा जायेगा ।
स्विमिंग पूल के किनारे एक व्हील चेयर पर एक छुईमुई सी औरत बैठी थी । उसका चेहरा मोम की रंगत का था और आंखों में एक अजीब-सी बिलौरी चमक थी ।
“हल्लो” - मुझे देखकर उसके होठों पर एक फीकी मुस्कराहट आयी और वह अपनी काया जैसे ही क्षीण स्वर में बोली - “मैंने कॉलबैल की आवाज सुनी थी । मैं तो जाकर दरवाजा खोलने में असमर्थ हूं, नौकर-चाकर पता नहीं कहां मर गए हैं ।”
तभी मैं उसे पहचान गया ।
वह वशिष्ठ की वर्तमान बीवी, भूतपूर्व फिल्म स्टार, चारूबाला थी ।
“आप मिसेज वशिष्ठ हैं ?” - मैं बोला ।
“हां ।”
मधुबाला और नरगिस की श्रेणी की उस बेमिसाल अभिनेत्री की कुन्दन जैसी देहयष्टि को देखकर कभी दर्शकों के दिल से वाह निकलती थी आज मेरे दिल से सिर्फ आह निकल पाई । बेचारी एयर रेड में ध्वस्त इमारत से भी ज्यादा खंडहर और उजड़ी हालत में थी ।
इन मामलों में आदमी इतना बीदनसीबी नहीं होता । उसके चुक जाने के बाद भी उसमें कुछ बचता है । मसलन उसका तजुर्बा, उसकी दानाई, उसके समाजी रुतबे का जलाल । इसके विपरीत औरत गयी तो गयी । रूप और यौवन औरत के हजार दगाबाज यारों से ज्यादा दगाबाज साबित होते हैं ।
“तुम कौन हो ?” - वह बोली ।
“खाकसार को सुधीर कोहली कहते हैं । मैं वशिष्ठ साहब से मिलने आया था ।”
“गोपाल दोपहर का शहर गया हुआ है । आता ही होगा । उसके पब्लिशर के यहां से आये हो ?”
“जी नहीं ।”
“चलो, अच्छा है । आये होते तो उसके लिये बुरी खबर ही लाये होते ।”
“बुरी खबर ?”
“हां । वही प्रकाशक जो पहले गोपाल जो लिखता था, आंखें बंद करके छाप देता था, अब उसके नॉवल में सौ मीन-मेख निकाल देता है । मैंने सोचा शायद फिर पब्लिशर ने कोई फरमान भेजा था कि फलां चैप्टर बदलो, फलां कैरेक्टर बदलो । बेचारा बहुत हिम्मत हारे हुए है आजकल !”
“कौन ? पब्लिशर ?”
“नहीं । गोपाल ।”
“ओह ! हिम्मत तो कभी हारनी ही नहीं चाहिये ।”
“यही तो मैं कहती हूं उससे । मेरी आखिरी फिल्म गोपाल के नॉवल पर बनी थी तब अभी हमरी शादी नहीं हुई थी । तब भी गोपाल बहुत हतोत्साहित और अंजाम से खौफ खाया रहता था । कहता था फिल्म पिट गई तो उसकी बड़ी किरकिरी होगी ।”
“फिल्म कैसी रही थी ?”
“सुपर हिट ।”
“फिर भी वशिष्ठ साहब फिल्मों के लेखक तो न बन पाये ।”
“इसलिये न बन पाये क्योंकि उन्हीं दिनों मेरी तन्दरुस्ती बिगड़ गई और मुझे फिल्म इण्डस्ट्री छोड़ देनी पड़ी । मेरी खातिर बेचारे गोपाल को भी दिल्ली लौट आना पड़ा । मुझे बम्बई की नमी वाली क्लाइमेट से परहेज करने के लिये जो कहा गया था । हमने यहां आकर यह कोठी खरीदी और तभी से हम यहां हैं । मेरी वजह से बेचारा गोपाल भी गिरफ्तार है, कहीं आ जा नहीं सकता जबकि बम्बई में बतौर लेखक कामयाब होने की पहली शर्त ही यह है कि आदमी वहीं का बन के रह जाये । बम्बई में स्थापित होने में उसे मेरी कोई मदद तो हासिल हो न सकी उलटे वह बम्बई जाने से भी रह गया । फिल्म के चक्कर में नॉवल लिखने में कोताही हुई तो उस पब्लिशर के भी तेवर बदले हुए हैं ।”
“पैसे की खातिर तो वशिष्ठ साहब के लिये नॉवल लिखना जरूरी नहीं ?”
“वह बात तो है । पैसे की खातिर तो यहां किसी को हाथ भी हिलाने की जरूरत नहीं । फिल्म इंडस्ट्री मुझ पर बहुत मेहरबान रही है और मेरा मुकद्दर भी, जिसने मुझे अपनी कमाई दौलत को ऐय्याशी और चापलूसों पर उड़ाने से रोका । अपना पैसा मैंने बहुत तरीके से इन्वेस्ट किया हुआ है । हम दस पुश्तों तक बिना कुछ किये खा सकते हैं लेकिन गोपाल के ख्यालात कुछ जुदा किस्म के हैं । वह बीवी की कमाई का मोहताज बनने में हत्तक महसूस करता है । ऊपर से छपास ! छपास नहीं मिटती उसकी । नॉवल लिखने में पैसे के साथ-साथ यश भी तो मिलता है । वह पैसे से ज्यादा यश का भूखा है । लोग उसका नॉवल पढें, वाह-वाह करें, यही तो वह चाहता है ।”
“हर क्रिएटिव आर्टिस्ट यही चाहता है ।”
“दुरुस्त ।”
मैंने अपना डनहिल का पैकेट बेध्यानी में ही जेब से निकाल लिया ।
“सिगरेट न जलाना” - वह तत्काल बोली - “प्लीज !”
पैकेट खोलने को तत्पर मेरा हाथ ठिठक गया ।
“आपको दमा तो नहीं ?” - मैं सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोला ।
“वह क्यों न होगा ?” - वह फीकी हंसी हंसी - “जब हर बीमारी मुझ पर मेहरबान है तो दमा क्यों पीछे रहेगा ?”
मैं खामोश रहा ।
“मुझे दमा भी है ।” - वह अवसादपूर्ण स्वर में बोली - “वैसे जिन्दगी का दामन जो हाथ से छूटा जा रहा है, उसकी वजह कैंसर है ।”
“ओह !”
“डॉक्टरों ने मुझे सिर्फ एक साल की मोहलत दी है ।”
“कैसी मोहलत ?”
“जिन्दा रहने की मोहलत ।”
“ओह माई गॉड !” - मैं दहशतनाक स्वर में बोला ।
वह खामोश रही ।
“और आपको यह बात मालूम है । ऐसी हौलनाक हकीकत से आप वाकिफ हैं ?”
“हां ।”
“यह तो बड़ी नालायकी है आपके डाक्टरों की कि उन्होंने...”
“यह कोई छुपने वाली बात है ? खुद मेरे से यह छुप सकता है कि मेरे पर क्या बीत रही है ?”
“कहते हैं अमेरिका में इन बातों के इलाज...”
“मैं अमरिका हो आई हूं । उन्होंने मेरी बीमारी को, या यूं कहो कि मेरी बीमारियों के कम्बीनेशन को लाइलाज बताया है ।”
“यह तो बहुत अफसोस की बात है कि...”
तभी बाहर से एक कार की आवाज आई ।
“गोपाल आया मालूम होता है ।” - वह बोली ।
“मैं खामोश रहा । मेरी तवज्जो हाथ में थमे डनहिल के पैकेट की तरफ एक बार फिर गयी लेकिन मैंने उसे फौरन जेब के हवाले कर दिया और प्रतीक्षा करने लगा ।
वशिष्ठ वहां पहुंचा । वह नख से शिख तक यूं सजा-धजा हुआ था जैसे किसी फैशन परेड में हिस्सा लेने के लिये तैयार हुआ था । उम्र तो उसकी नहीं छुप रही थी, छोकरा तो वह लग नहीं रहा था लेकिन उसका रख-रखाव इतना शानदार था कि वह उसके व्यक्तित्व को चार चांद लगा रहा था ।
गनीमत थी कि उसने मुझे फौरन पहचान लिया ।
“सुधीर !” - वह बड़ी गर्मजोशी से मेरे से हाथ मिलाता हुआ बोला - “वैलकम ! वैलकम ! कितनी मुद्दत बाद मिले हो ।”
“दो साल तो हो गये होंगे ।”
“हां । दो साल । देखो तो । एक शहर में रहते दो साल से मुलाकात नहीं ।”
“हम एक शहर में नहीं रहते । एक प्रान्त में भी नहीं रहते ।”
“अरे दिल्ली फरीदाबाद एक ही बात है । जितना फासला तुम्हारे घर से करोलबाग का है, उससे कम फासला तुम्हारे घर से यहां का होगा ।”
“वह तो है ।”
“चारु से मिले ?”
“बातरतीब नहीं” - मैं मुस्कराता हुआ बोला ।
चारूबाला को वह बात बहुत पसंद आई । वह भी मुस्कराई, उसने भी दोहराया - “हां, बातरतीब नहीं ।”
“चारू” - वशिष्ठ बोला - “सुधीर कोहली मेरा पुराना दोस्त है । और सुधीर, चारू - दि ग्रेट चारूबाला - मेरी वाइफ है ।”
मैंने चारूबाला का अभिवादन किया जैसे मैं उसी घड़ी उसके रुबरू हुआ था ।
“काम क्या करते हो, कोहली साहब” - वह बोली - “आई मीन वाट इज युअर लाइन ऑफ बिजनेस ?”
“जी, मैं प्राइवेट डिटेक्टिव एजेन्सी चनाता हूं ।” - मैं बोला ।
“प्राइवेट डिटेक्टिव !” - वह बोली - “लाइक फिल्म्स ?”
“नो मैडम”- मैं बोला - “लाइक रीयल ।”
“अच्छा ! मुझे नहीं मालूम था कि हिन्दोस्तान में भी प्राइवेट डिटेक्टिव होते हैं ।”
“अब होने लगे हैं । जैसे पहले आलू, तम्बाकू हिन्दोस्तान में नहीं होते थे लेकिन अब होने लगे हैं । एकाध पौधा बाहर से आ जाता है, मैडम, फिर फसल चल निकलती है ।”
“यानी कि अभी और भी प्राइवेट डिटेक्टिव उग रहे हैं ?”
“जी हां । लेकिन वे अभी बढ़ रहे हैं । उनकी फसल अभी कटनी बाकी है । एकाध अधपका काट लिया गया था तो वह फेल हो गया । फल-फूलकर मुकम्मल पेड़ फिलहाल अभी मैं ही बना हूं ।”
“आगे आपने अपनी कोई कलम नही लगाई ?”
“फिलहाल नहीं । दरअसल मैं वो फल हूं जिसके बारे में कहते हैं कि सहज पके तो मीठा होय ।”
“हमारे पतिदेव को” - एकाएक उसके स्वर से अब तक परिलक्षित हो रहा विनोद का भाव गायब हो गया, उसने अपलक वशिष्ठ की तरफ देखा - “किसी प्राइवेवट डिटेक्टिव की सेवाओं की क्या जरूरत पड़ गयी ?”
“व्यवसायिक सेवाओं की कोई जरुरत नहीं पड़ी, डार्लिंग” - वशिष्ठ मीठे स्वर में बोला - “दरअसल मेरे चालू नॉवल में एक प्राइवेट डिटेक्टिव का कैरेक्टर है और प्राइवेट डिटेक्टिव कैसे फंक्शन करते हैं, मैं यह जानता नहीं । सुधीर से इसके व्यवसाय की बाबत कोई जानकारी हासिल करने के लिए मैंने इसे यहां बुलाया था ।”
इसने मुझे यहां बुलाया था - मैंने हैरानी से सोचा लेकिन प्रत्यक्षत: खामोश रहा ।
“ओह !” - चारुबाला बोली । उसके चेहरे पर से संशय के बादल छंट गए ।
“आओ भीतर चलें ।” - वशिष्ठ मेरी बांह थामता हुआ बोला - “चारु खामखाह हमारी बातों से बोर होगी । क्यों चारु ?”
चारुबाला ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिला दिया ।
वह मुझे इमारत के भीतर एक ऑफिसनुमा कमरे में ले आया ।
“आपने मुझे कब बुलाया ?” - वहां पहुंचते ही मैं बोला - “मैं तो...”
“वह मैंने इसलिए कहा था” - वह बोला - “ताकि चारु तुम्हारे यहां आने का कोई गलत मतलब न लगाए । तुम मेरी पहली बीवी से ताल्लुक रखता खटराग उसके सामने फैला देते तो वह बहुत अपसैट हो जाती । देखा नहीं, बेचारी की वैसे ही क्या हालत है ।”
“यानी कि आपको अंदाजा है कि मैं यहां क्यों आया हूं ?”
“हां ।”
“कैसे अंदाजा है ?”
“अनीता ने फोन किया था । उसी ने बताया था कि पुलिस एकाएक गड़े मुर्दे उखाड़ने पर तुल गयी है और इसी चक्कर में उन्होंने तुम्हारी भी खूब खबर ली है । माजरा क्या है सुधीर ?”
“माजरा आपको नहीं मालूम ?”
“नहीं ?”
“माजरा यह है, वशिष्ठ साहब कि पुलिस आपके और मीरा के तलाक को अवैध सिद्ध करने की कोशिश कर रही है ।”
वशिष्ठ जैसे आसमान से गिरा ।
मैं जेब से डनहिल का पैकेट निकालकर खामोशी से एक सिगरेट सुलगाने लगा ।
“क्या ?” - बड़ी देर बाद उसके मुंह से निकला ।
“और आपने क्या समझा था ?”
“मैं तो समझा था कि मीरा की मौत की बाबत कोई नए क्लू उनके हाथ आए थे और उसी चक्कर में वे नए सिरे से लोगों से पूछताछ कर रहे थे ।”
“वह बात नहीं है ।”
“लेकिन मेरे तलाक के पीछे अब पड़ने का क्या मतलब ? बीवी मेरी मर गयी । मैं दूसरी शादी कर चुका । अब इन बातों से पुलिस को क्या हासिल होने वाला है ?”
मैंने उसे मीरा की बहन की बाबत बताया ।
“ओह !” - वशिष्ठ बोला - “तो उसे अब दो साल बाद सूझा है कि उसकी बहन के साथ बेइंसाफी हुई है । और फिर बेइंसाफी मीरा के साथ कहां हुई है ! बेइंसाफी तो मेरे साथ हुई है । जिस मर्द की बीवी बेवफा निकले...”
“यह भी बहस का विषय है कि वह बेवफा थी या उसे बेवफाई करने के लिए उकसाया गया था ।”
“उकसाया गया था ! किसने उकसाया ?”
“आपने ।”
“क्या कह रहे हो तुम यार ? - वह अचकचाकर बोला ।
“वशिष्ठ साहब, बलबीर साहनी ने मौके की जो तस्वीर खींची थी, वह कुछ और ही कहानी कह रही है ।”
“तस्वीर ! कैसी तस्वीर ?”
“वो तस्वीर जो बलबीर साहनी ने आप की बीवी और उसके कथित यार की खींची थी ।”
“कोई तस्वीर भी खींची गयी थी ?” - वह हैरानी से बोला ।
मैं फैसला न कर सका कि उसकी हैरानी असली थी या फर्जी ।
“हां ।”
“लेकिन..लेकिन मुझे तो तस्वीर के बारे में उसने कुछ नहीं बताया था ।”
“आपने पूछा होता ?”
“कैसे पूछता ! मुझे तो यही नहीं सूझा था कि ऐसे मौके की कोई तस्वीर खींची जा सकती थी ।”
“जुबानी तौर पर यह दरयाफ्त करना तो सूझा होगा कि आप की बीवी के साथ जो मर्द था, वह कौन था ? अपनी बेवफा बीवी की बेवफाई में शरीक शख्स की बाबत जानने की उत्सुकता तो पति को होनी चाहिए या नहीं ?”
उसने उत्तर न दिया ।
“उस मर्द की बाबत आपको बलबीर साहनी के अलावा अनीता से भी पता लग सकता था । लेकिन आपने ऐसी कोशिश नहीं की थी । की थी तो बताइये ?”
“नहीं की थी ।”
“क्यों नहीं की थी ?”
“क्योंकि इससे मेरा मानसिक अवसाद और बढ़ता । मुझे उस शख्स के बारे में मालूम होता तो क्या मैं उसकी अपने से तुलना किए बिना रह पाता ? उसे मैं अपने से बेहतर पाता तो अंगारों पर लोटता या नहीं ?”
मैं खामोश रहा । उसकी बात से मैं पूर्णतया आश्वस्त तो न हो सका लेकिन उसमें दम था, यह मुझे कबूल करना पड़ा ।
“ऊपर से” - वह आगे बढ़ा - “वह नौबत आने पहले ही मेरे और मीरा के बीच फासले की एक बहुत बड़ी खाई पैदा हो चुकी थी । सच पूछो तो शादी के बाद मैं पहले दिन से ही उससे खुश नहीं था । शादी के बाद ही मुझे मालूम हुआ था कि वह एक बदकार और खुदगर्ज औरत थी, जिसके लिए शादी महज एक सहूलियत थी । सुधीर, तलाक की नौबत आने से बहुत पहले से ही हम दोनों के बीच मोहब्बत का कोई जज्बा बाकी नहीं था । हम महज एक दूसरे को बर्दाश्त कर रहे थे । हम घर में मियां-बीवी की तरह नहीं रहते थे, हम ऐसे दो मुसाफिरों की तरह रहते थे, जो इत्तफाक से ही एक होटल में ठहरे हुए थे और जो एक ही किचन से खाना खाते थे ।”
“शादी के एक खास अरसे के बाद ऐसा हो जाना कोई बड़ी, कोई गैरमामूली बात तो नहीं । उच्चवर्ग के लोगों की यह घर-घर की कहानी है ।”
“इतना ही होता तो मैं बर्दाश्त कर लेता । लेकिन मीरा की कपड़ों और जेवरों पर और एशों-इशरत के मामले में फिजूलखर्चियां बेहद बढ़ती जा रही थीं । तभी मेरा माथा ठनका था । तभी मुझे सूझा था कि उसने कहीं कोई यार नहीं पाल लिया था । तभी अपनी सैक्रेट्री अनीता की सलाह पर मैं तुम्हारे पास आया था । देख लो मेरा शक ठीक निकला था । यार निकला था । और रंगे हाथों पकड़ा भी गया था । मेरा उस बदकार औरत से पीछा छूट गया । अब इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि वह यार कौन था ?”
“फर्क पड़ता है ।”
“क्या फर्क पड़ता है ?”
“बीवी का वह कथित यार आपका अपना आदमी था ।”
“मेरा आदमी !” - वह अचकचाया ।
“मुकेश मैनी । आपका ड्राइवर ।”
वह भौचक्का सा मेरा मुंह देखने लगा ।
“नामुमकिन !” - फिर वह बोला ।
“मैंने तस्वीर देखी है । अपनी आंखों से ।”
“मेरा अपना ड्राइवर मेरी बीवी का यार था ?”
“हां ।”
“मुझसे यह बात छुपाई क्यों गई ?”
“अनीता ने इसलिए छुपाई क्योंकि उसने सोचा था कि यह बात जानकार आपके दिल को चोट पहुंचेगी । बलबीर साहनी ने इसलिए छुपाई क्योंकि अनीता ने उसे ऐसा करने के लिए कहा था ।”
“कमाल है” - वह विषादपूर्ण स्वर में बोला - “ऐन मेरी नाक के नीचे मेरे ड्राइवर और मेरी बीवी की आशनाई चल रही थी और मुझे खबर नहीं । यही नहीं उस घटना के बाद भी मैंने उसे अपनी नौकरी पर बरकरार रखा । खूब हंसता होगा वो मुझ पर और सोचता होगा कि इतना भी अंधा कोई न हो । खूब गुलछर्रे उड़ाए होंगे हरामजादे ने मीरा के साथ ।”
“खूब नहीं ।”
“क्या मतलब ?”
“मैंने मालूम किया है । वह होटल वाली मुलाकात उनकी पहली इतनी घनिष्ठ मुलाकात थी । उसमें भी उनका कुछ बना नहीं था । हाथ के हाथ ही उनका काम बिगड़ गया था ।”
“तुमने वह तस्वीर पुलिस के दिखाए देखी ?”
“हां ।”
“पुलिस को वह तस्वीर कहां से हासिल हुई ?”
मैंने बताया ।
वह एक क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “बहरहाल अहिल्या शर्मा को यह तस्वीर किसी ने भेजी हो, मूलरूप से तो यह केवल बलबीर साहनी के पास उपलब्ध थी ?”
“जाहिर है” - मैं सिगरेट का एक कश लगता हुआ बोला ।
“वह इस तस्वीर को आज तक अपने पास रखे क्यों रहा ? पहले तो तलाक के केस में उसके बतौर सबूत इस्तेमाल होने की संभावना निकल सकती थी लेकिन तलाक हो चुकने के बाद भी वह उसे संभाले क्यों रहा ? तब उसने इसे नष्ट कर देने की ईमानदारी क्यों न दिखाई ?”
“उसकी तस्वीर को आगे इस्तेमाल करने की नीयत रही होगी ।”
“वो कैसे ?”
“फर्ज कीजिये, आप से तलाक के बाद मीरा दोबारा शादी कर लेती । तब उस तस्वीर की धमकी से वह मीरा से चार पैसे ऐंठ सकता था ।”
“यह तो ब्लैकमेलिंग हुई ।”
“सरासर हुई ।”
“एक प्राइवेट डिटेक्टिव ऐसा कर सकता था ? तुम ऐसा कर सकते हो ?”
“अपना-अपना जमीर है । अपना-अपना हौंसला है । कोई कर सकता है कोई नहीं कर सकता । कोई कर सकता है लेकिन करता नहीं, कोई नहीं कर सकता लेकिन फिर भी कोशिश करता है ।”
“यह तो गुंडागर्दी है ।”
जवाब में मैंने सिगरेट का कश लगाया ।
“लेकिन मीरा के भी मर चुकने के बाद तो उसे तस्वीर नष्ट करनी चाहिए थी ।”
“तब तक हो सकता है तस्वीर वाली बात उसके ध्यान से उतर गयी हो । या वह तस्वीर को रिकॉर्ड से निकालकर उसे नष्ट करने में आलस कर रहा हो ।”
“हूं ।”
“तलाक के बाद कभी आपकी मीरा से मुलाकात हुई थी ?”
“सिर्फ एक बार । इत्तफाक से । उसके एक्सिडेंट से कोई डेढ़ दो महीने पहले । वह अच्छे मूड में नहीं थी । इसलिए बातचीत “हल्लो, क्या हालचाल है” से आगे नहीं बढ़ पाई थी ।”
“हूं । अब साफ-साफ बताइये, क्या पुलिस के इस दावे में कोई दम है कि आपके ड्राइवर ने आपकी सहायता करने की खातिर आपकी बीवी को फंसाया था और आपके ही कहने पर ऐसे हालात पैदा किए थे जो कि बाद में तलाक की बुनियाद बने ।”
“यह झूठ है” - वह आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “मुझे नहीं मालूम था कि मेरा ड्राइवर ही मेरी बीवी का यार था ।”
“यह बात आपको साबित करके दिखानी होगी । पुलिस आपके कहने भर से ही आपकी बात नहीं मान जाएगी ।”
“अगर मैं साबित न कर सका ?”
“तो मीरा से आपका तलाक गैरकानूनी माना जाएगा और कैंसल हो जाएगा ।”
“उससे मुझे क्या फर्क पड़ेगा ?”
“तब आपकी और चारुबाला की शादी अवैध मानी जाएगी । तब यह माना जाएगा कि चारुबाला से शादी के वक्त आप पहले से ही विवाहित थे । एक बीवी के होते हुए दूसरी शादी करना कानूनन अपराध है ।”
“लेकिन पहली बीवी तो मर चुकी है ।”
“अब मर चुकी है । चारुबाला से आपकी शादी के वक्त वह जिंदा थी ।”
“ओह !” - उसके मुंह से निकला । वह कुछ क्षण चिंतापूर्ण ढंग से गर्दन हिलाता रहा, फिर इतना अरसा खड़ा रहने के बाद उसे एक कुर्सी पर बैठना सूझा ।
मैं भी उसके सामने बैठ गया ।
“अगर यह मामला तूल पकड़ गया तो बहुत बुरा होगा ।”
“किसके लिए ?”
“सबसे ज्यादा चारु के लिए । तुमने देखा ही है वह कितनी सख्त हालत में है । डॉक्टरों ने उसे एक साल का जीवन दिया है । अगर अब उसे मालूम हुआ कि हम दोनों विधिवत विवाहित नहीं थे बल्कि इतने अरसे से पाप की जिंदगी जी रहे थे तो वह तो अभी मर जाएगी ।”
“फिल्म स्टार्स तो बड़े आजाद ख्याल होते हैं । सेक्सुअल फ्रीडम के तो सबसे बड़े हिमायती वही माने जाते हैं । फिर चारुबाला...”
“चारुबाला वैसी फिल्म स्टार नहीं । वह एक बहुत ऊंचे खानदान की लड़की है और सच्चरित्रता को औरत का गहना मानती है । बारह साल वह फिल्म इंडस्ट्री में टॉप की हीरोइन रही लेकिन उसका कभी भी किसी स्कैंडल से नाम नहीं जुड़ा, पब्लिसिटी स्टंट के तौर पर भी नहीं जुड़ा । यह कोई छोटी बात नहीं । फिल्म इंडस्ट्री के सामूहिक कैरेक्टर के स्टैंडर्ड के लिहाज से यह करिश्मा है । एक औरत के लिए, वह भी अविवाहिता के लिए, तो यह खास तौर से करिश्मा है । और अब” - उसने बेचैनी से पहलू बदला - “अब अगर उसे मालूम हुआ कि वह मेरे साथ पाप की जिंदगी जी रही थी तो तुम्हीं सोचो कि उस पर क्या बीतेगी ? सुधीर, कुछ करो ।”
“मैं क्या करूं ? मुझे तो अपनी जान बचानी दूभूर मालूम हो रही है ।”
“लेकिन तुम बचाओगे तो सही अपनी जान ।”
“जरूर बचाऊंगा । वर्ना मेरा सारा कैरियर डूब नहीं जाएगा ! हजार कोशिशों के बाद दिल्ली शहर में बतौर प्राइवेट डिटेक्टिव मैंने अपनी एक साख पैदा की है, अगर अब मेरा लाइसेंस कैंसल हो गया तो बेड़ा ही गर्क हो जाएगा ।”
“जो कि तुम नहीं होने दोगे ।”
“जाहिर है ।”
“फिर क्या बात है ?” - वह शांति की सांस लेकर बोला - “फिर तो मेरी जान अपने आप ही बच जाएगी । तुम अपनी समस्या को हल करोगे तो मेरी समस्या तो खुद हल हो जाएगी ।”
“फोकट में ?”
“तुम कोई फीस चाहते हो ?”
“क्या न चाहूं ?”
“तुम ऐसे काम की फीस चाहते हो जो कि तुमने करना ही है ?”
“अगर मैं ऐसा कुछ करने का इरादा छोड़ दूं ?”
“तो तुम्हारा भी तो खाना खराब होगा ।”
“वो तो होगा लेकिन तब आपका क्या हाल होगा ?”
“क्या चाहते हो ?”
“चंदा ।”
“और अभी तुम मुझे डिटेक्टिव डिटेक्टिव में फर्क बता रहे थे । जमीर जमीर में फर्क बता रहे थे ।”
“मैं वालण्टीयर नहीं हूं ।”
“वह तो मुझे दिखाई दे रहा है । क्या चाहते हो ?”
“जो आपकी श्रद्धा हो ।”
मेरी श्रद्धा पांच रुपए है ।”
“वह श्रद्धा नहीं खुंदक है, प्रोटेस्ट है ।”
“लेकिन...”
“आप इस बात को यूं सोचिए कि चिड़ी चोंच भर ले गई नदी न घटियो नीर ।”
“यहां ऐसी कोई नदी नहीं बह रही ।”
“आपकी बेगम साहिबा ने आपके आने से पहले मुझे खुद बताया था कि आपकी दस पुश्तें अगर बिना कुछ किए गुलछर्रे उड़ाना चाहें तो बखूबी उड़ा सकती हैं ।”
“वह पैसा मेरी बीवी का है ।”
“क्या फर्क पड़ता है जनाब ? घी ने खिचड़ी में ही जाना है ।”
“हाऊ मच ?”
“ट्वेंटी ।”
“दैट्स आउट ऑफ क्वेस्चन ।”
“ओके फिफ्टीन ।”
“टैन । नाट ए पैसा मोर ।”
“आई विल अक्सैप्ट कैश ।”
“मैं लाता हूं ।”
वह उठकर वहां से बाहर चला गया ।
सुधीर कोहली ! - पीछे खुद मैंने अपने आपकी पीठ ठोकी - दि लक्की बास्टर्ड !
मैंने एक नया सिगरेट सुलगा लिया और उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा ।
तभी दरवाजे पर एक अधेड़ आयु का व्यक्ति प्रकट हुआ । वह सिर से गंजा था, आंखों पर सुनहरी फ्रेम वाला चश्मा लगाये था और हैट पहने था । काईयांपन उसके चेहरे पर स्थायी रूप से अंकित था । उसके पीछे साड़ी और पुलोवर पहने उम्र में उससे छोटी लेकिन वैसी ही घुन्नी औरत थी ।
दोनों ने मुझे यूं देखा जैसे खुर्दबीन से किसी कीड़े-मकौड़े को देख रहे हों ।
फिर उनकी निगाह स्टडी में चारों तरफ घूमी ।
“वशिष्ठ साहब अभी बाहर गये हैं” - उनकी निगाह का मंतव्य समझ कर में बोला - “लौटते ही होंगे ।”
“आपकी तारीफ ?” - पुरुष बोला ।
“खादिम को सुधीर कोहली कहते हैं ।”
तभी वशिष्ठ वहां पहुंच गया । उसके हाथ में एक बन्द खाकी लिफाफा था ।
“सुधीर मेरा फ्रेंड है ।” - वशिष्ठ बोला - “और सुधीर ये आलोकनाथ और गीता हैं । गीता चारु की भांजी है ।”
मैंने दोनों का हाथ जोड़कर अभिवादन किया ।
“इधर से गुजर रहे थे” - गीता चिकने-चुपड़े स्वर में बोली - “सोचा मामी का हालचाल जानते चलें ।”
“बहुत अच्छा किया” - वशिष्ठ बोला - “चारु की कंपनी जाएगी ।
“अब तबीयत कैसी है उनकी ?” - आलोकनाथ ने पूछा ।
“वैसी ही है” - वशिष्ठ बोला - “गनीमत है कि पहले से खराब नहीं है ।”
“आप मामी को कहीं बाहर क्यों नहीं ले जाते ?” - गीता बोली ।
“मैं तो चाहता हूं” - वशिष्ठ बोला, मैंने महसूस किया कि उन दोनों से बात करने के लिये उसे बहुत सब्र से काम लेना पड़ रहा था - “लेकिन चारू नहीं मानतीं । कहती है यहीं ठीक है ।”
“आप जिद कीजिये ।”
“पैसे का मुंह मत देखिये न” - आलोकनाथ बोला ।
“वह तो वैसे भी मामी का ही खर्च होना है” - गीता बोली ।
वशिष्ठ खून का घूंट पीकर रह गया ।
“चारू पिछवाड़े में है” - वह बोला ।
“हम मिलकर आते हैं” - आलोकनाथ बोला - “मैडम मेरे से कुछ इन्वेस्टमेंट डिसकस करना चाहती हैं । तुम चाहो तो पास मौजूद रह सकते हो ।”
“वो किसनिये ?” - वशिष्ठ भुनभुनाया ।
“ताकि तुम्हें तसल्ली हो जाए कि तुम्हारी वाइफ को मैंने कोई गलत राय नहीं दी” - उसने जोर का अट्टहास किया - “उन्हें कोई उल्टी-सीधी पट्टी नहीं पढ़ाई ।”
“तुम ऐसा क्यों करोगे ?”
“कोई वजह तो नहीं ।”
“फिर ऐसी बात कहने का मतलब ?”
“तुम सोच तो सकते हो न ऐसा ।”
“क्यों ? मेरी अक्ल खराब है ?”
“लो ! गोपाल, तुम तो बुरा मान गये ।”
“तुम बात ही ऐसी कर रहे हो ।”
आलोकनाथ खामखाह, फिर हंसा । फिर वह मेरी तरफ घूमा ।
“मैं इन्वेस्टमेंट बिजनेस में हूं”- वह बोला - “आसिफ अली रोड पर मेरा ऑफिस है । वीनस इन्वेस्टमेंट्स के नाम से । कभी इन्वेस्टमेंट के बारे में एक्सपर्ट राय की जरूरत हो तो तशरीफ लाइयेगा ।”
“जरूर” - मैं बोला - “कभी-कभार मेरे साथ भी ऐसा इत्तफाक हो जाता है कि मेरी कमाई मेरे बटुवे में से बाहर उफनने लगती है ।”
“मेरे पास तशरीफ लाइयेगा” - वह फिर हंसा - “फिर देखिएगा, आपकी रकम आपके दौलतखाने से बाहर उफनने लगेगी ।”
“शुक्रिया ! फिर तो मैं जरूर आऊंगा ।”
“यह मेरा कार्ड” - उसने अपनी एक जेब में हाथ डाला, फिर दूसरी जेब में हाथ डाला और फिर बोला - “कार्ड इस वक्त मेरे पास नहीं है, मैं आपको कागज पर पता लिख देता हूं ।”
समीप ही राइटिंग डेस्क था । वहां से कागज पैन लेकर उसने कागज पर कुछ लाइनें घसीटी और कागज मुझे थमा दिया ।
“शुक्रिया” - मैं कागज को तह करके जेब में रखता हुआ बोला - “आई विल डेफिनेटली कॉल अपान यू ।”
“यू आर वैलकम आलवेज ।”
औपचारिक मुसकराहटें बिखेरते हुए हुए वे पति-पत्नी वहां से विदा हो गए ।
“मैं भी वहीं जाता हूं” - वशिष्ठ चिंतित भाव में बोला - “यह हरामजादा सच ही चारु को कोई उल्टी-सीधी पट्टी न पढ़ाने लगे ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
वापिसी का सारा रास्ता मैं चारुबाला के बारे में ही सोचता रहा । कैसी दयनीय स्थिति में पहुंची हुई थी वह औरत ! कल तक स्वर्ग की अप्सराओं को मात करने वाले रूप और यौवन की मलिका आज मुट्ठी-भर हड्डियों की एक गठरी लग रही थी । इसके विपरीत वशिष्ठ पचास के पेटे में पहुंचकर भी कामदेव का अवतार लग रहा था । आज वह अपनी बीवी के दुख से दुखी था लेकिन उसके चेहरे पर लिखा था की वह दुख महज दुनियादारी थी, हकीकत में वह अपनी रईस बीवी के मरने का इंतजार कर रहा था । एक बार चारुबाला के श्मशानघाट पहुंचने की देर थी कि वशिष्ठ पत्नी की मौत का गम स्कॉच विस्की में घोलकर पी जाता और किसी नौजवान हसीना के पहलू की पनाहगाह में पहुंच जाता ।
मैं नेहरू प्लेस पहुंचा, जहां कि आपके खादिम का यूनिवर्सल इंवेटिगेशन्स के नाम से दफ्तर था ।
मेरी सैक्रेट्री दफ्तर बंद करके जा चुकी थी लेकिन एक पुलिसिया बंद दरवाजे के सामने चहलकदमी कर रहा था ।
मुझे देखते ही उसके चेहरे पर राहत के भाव आए ।
“आप सुधीर कोहली हैं ?” - वह बोला ।
“हां” - मैं बोला - “क्या बात है ?”
“आपको मेरे साथ पुलिस हेडक्वार्टर चलना है ।”
“क्यों ?”
“आपकी वहां एक केस के सिलसिले में जरूरत है ।”
“किस केस के सिलसिले में ?”
“मुकेश मैनी के कत्ल के सिलसिले में ।”
मैं भौचक्का-सा उसका मुंह देखने देखने लगा ।
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