दिन के 12 बज रहे थे।

बैंक का काम रोज की भांति ठीक ढंग से चल रहा था। आज कुछ भी नया नहीं था।

साठ-सत्तर लोगों का स्टाफ था और इतने ही काम से आये लोग बैंक में मौजूद थे। हर कोई व्यस्त नजर आ रहा था। बैंक के बाहरी गेट पर दोनाली बन्दूक थामे गार्ड खड़ा था।

C.C.T.V. कैमरे बैंक में चारों तरफ लगे थे। कुछ फिक्स थे तो कुछ तस्वीरें लेते मध्यम-सी रफ्तार से सेट अंदाज में घूमे जा रहे थे। गार्ड इस वक्त दोनाली बन्दूक कंधे पर फैलाये, हथेली में तम्बाकू रगड़ते इधर-उधर देख रहा था। रोज की बोरियत भरी ड्यूटी वो आज भी पूरा कर रहा था। तभी गार्ड की निगाह बाहर की तरफ उठी तो उसने बैंक के सामने सफेद रंग की वैन रुकती देखी, जिसके शीशे काले थे।

गार्ड यूं ही, उधर ही देखता रहा।

देखते-ही-देखते वैन में से चार लोग बाहर निकले और बैंक के प्रवेश गेट की तरफ आने लगे। उनमें से एक देवराज चौहान था। दोनों हाथ जेबों में डाले शांत अंदाज में वो बैंक के गेट की तरफ बढ़ रहा था।

गार्ड ने तम्बाकू मुंह में रखा और उन पर से नजरें हटा ली।

तभी वैन में से एक और व्यक्ति बाहर निकला। उसके चेहरे पर क्रीम कलर का झीना नकाब था। वो भी तेजी से बैंक की तरफ बढ़ता चला गया। इससे ये तो स्पष्ट हो गया कि कुछ होने वाला है।

देवराज चौहान ने बैंक की सीढ़ियां चढ़ी और गार्ड के पास पहुंचा। ठिठका।

गार्ड ने उसे देखा।

“हम बैंक लूटने जा रहे हैं।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

गार्ड चौंका। उसकी आंखें सिकुड़ी। अचकचाए अंदाज में उसने देवराज चौहान को देखा।

“क्या बात कर रहे हो!” गार्ड के होंठों से निकला।

“अगर तुमने कोई हरकत करने की चेष्टा की तो मेरा आदमी तुम्हें मार देगा।” देवराज चौहान बोला।

गार्ड ने पास खड़े आदमी को देखा।

उस आदमी ने उसी पल रिवॉल्वर निकाल कर गार्ड की कमर में लगा दी।

गार्ड की टांगें कांप उठी।

देवराज चौहान आगे बढ़ा तो बाकी के दोनों आदमी और नकाब वाला भीतर आ गये। नकाब वाले ने बैंक का कैंची गेट बंद किया और आगे बढ़ गया। गार्ड और वो आदमी बैंक के भीतर, कैंची गेट के पास खड़े थे।

“ये...ये क्या कर रहे हो?” गार्ड घबराये स्वर में कह उठा।

“बैंक लूट रहे हैं।” वो व्यक्ति बोला –“खामोश रहो और शांत रहो, वरना गोली मार दूंगा।”

देवराज चौहान अपने साथ के दोनों लोगों से कह उठा –

“बिखर जाओ, पोजीशन ले लो।”

वो दोनों वहां से दूर होते चले गये।

तब तक नकाब वाला पास आ गया था।

“जगमोहन!” देवराज चौहान ने कहा –“अगर कोई पंगा खड़ा करे तो शूट कर देना।”

जगमोहन ने सिर हिला दिया।

अगले ही पल देवराज चौहान ने रिवॉल्वर निकाली और हाथ ऊपर उठाकर फायर कर दिया।

धमाका गूंजने की देर थी कि एकाएक वहां भगदड़ मच गई।

देवराज चौहान रिवॉल्वर थामे एक टेबल पर चढ़ा और ऊंचे स्वर में कह उठा –

“हम बैंक लूटने आये हैं। किसी की जान नहीं लेना चाहते। परन्तु जो हमारे रास्ते में आयेगा वो मारा जायेगा। जो जहां है, वहीं पर खड़ा रहे। हम सिर्फ दौलत लेने आये हैं, किसी की जान नहीं लेना चाहते। ऐसे में कोई हमें मजबूर ना करे कि हमें किसी की जान लेनी पड़े। सब अपनी-अपनी जगह पर शांत और चुपचाप खड़े रहें। हम कई लोग हैं, इसलिये जो हम कहते हैं वो ही करो।”

एकाएक बैंक में उठती आवाजें थमने लगी।

कुछ पलों में ही वहां खामोशी छा गई।

बैंक में मौजूद सबकी निगाह टेबल पर चढ़े देवराज चौहान पर थी।

“जगमोहन...।” देवराज चौहान ने कहा –“मैनेजर को ढूंढो, वो कहां है। उसके साथ स्ट्रांग रूम की दौलत इकट्ठी करो।”

चेहरे पर नकाब ओढ़े जगमोहन रिवॉल्वर वाला हाथ लहराता मैनेजर के केबिन की तरफ बढ़ता चिल्लाया –

“इस बैंक का मैनेजर कहां है, जल्दी से मेरे सामने आये।”

देवराज चौहान टेबल पर खड़ा हर तरफ नजरें सतर्कता से घुमा रहा था।

मैनेजर के केबिन के बाहर ही सूट पहने पचपन बरस का आदमी सकते की-सी हालत में खड़ा था।

जगमोहन सीधा उसके पास पहुंचा और गुर्राहट भरे स्वर में कह उठा –

“मैनेजर तुम हो...?”

उसने फौरन सहमति से सिर हिला दिया।

“स्ट्रांग रूम में चलो। दो आदमी साथ ले लो। सारे नोट भरकर मुझे दो। ये काम पांच मिनट में हो जाना चाहिये।” जगमोहन ने दांत भींचकर सख्त स्वर में कहा।

मैनेजर घबराया-सा वहीं खड़ा रहा।

“गोली मारूं?” जगमोहन ने वहशी स्वर में कहा।

“न...नहीं।” मैनेजर के होंठों से सूखा-सा स्वर निकला।

“जल्दी करो बेवकूफ! देर होने से गड़बड़ हो जायेगी और सबसे पहले तुम ही मरोगे।”

दस मिनट में ही नोटों से भरा बड़ा थैला जगमोहन ने दो आदमियों के साथ, वैन के भीतर रखवाया। खुद भी वैन में बैठ गया। चेहरे पर अभी भी झीना नकाब मौजूद था। उसी पल देवराज चौहान और तीनों साथी बैंक से आकर वैन में आ बैठे। देवराज चौहान ने ड्राईविंग सीट संभाली। वैन के दरवाजे बंद हो चुके थे। अगले ही पल वैन वहां से दूर होती चली गई।

वैन के आगे-पीछे कहीं भी नंबर प्लेट नहीं थी।

☐☐☐

दोपहर बाद, शाम 4 बजे।

पुलिस हेडक्वार्टर में पुलिस के उच्चाधिकारियों की मीटिंग हुई।

उस मीटिंग में बैंक के C.C.T.V. कैमरों में आवाज की रिकॉर्डिंग नहीं थी, इसलिए डकैती के दौरान बैंक में होने वाली कोई भी बातचीत उस फुटेज से सुनने को नहीं मिली। परंतु पुलिस द्वारा बैंक के लोगों का लिया बयान इस वक्त उनके पास ही मौजूद था कि डकैतों का सरदार, अपने साथी को जगमोहन कहकर पुकार रहा था।

ए.सी.पी. कामेश्वर ने वहां मौजूद पुलिस वालों पर नजर मारते गम्भीर स्वर में कहा–

“देवराज चौहान को पहचान लिया गया है और बैंक के कर्मचारियों और उस वक्त मौजूद ग्राहकों का बयान भी ले लिया गया है कि देवराज चौहान, अपने साथी को जगमोहन कहकर पुकार रहा था। यानि कि इस बात में अब कोई शक नहीं रहा कि डकैती मास्टर देवराज चौहान ने जगमोहन और तीन अन्य लोगों के साथ, ये बैंक डकैती की है। सबके चेहरे C.C.T.V. कैमरों ने कैद कर लिए हैं, परन्तु जगमोहन ने उस वक्त नकाब पहन रखा था, इसलिए उसका चेहरा स्पष्ट नहीं आ सका कैमरे में। पांच लोगों ने इस डकैती को अंजाम दिया। अपराधी हमारे सामने है, मतलब कि हमने उसे पहचान लिया है। पुलिस अब उसकी तलाश में लग सकती है। देवराज चौहान की तस्वीर की और उसके तीन साथियों की तस्वीरें निकाली जा रही हैं। ये तस्वीरें पूरी मुम्बई में पुलिस वालों को बांट देती हैं। मैं जल्द-से-जल्द देवराज चौहान और उनके साथियों को कानून के फंदे में देखना चाहता हूं। पूरे मुम्बई में हाई अलर्ट कर दो। चौबीस घंटों के भीतर मैं देवराज चौहान को अपने सामने देखना चाहता हूं।”

वहां मौजूद कमिश्नर पाटिल ने कहा।

“डकैती मास्टर देवराज चौहान के पकड़ने का काम इंस्पेक्टर पवन कुमार वानखेड़े के हवाले है।”

“इंस्पेक्टर वानखेड़े।” ए.सी.पी. के चेहरे पर सख्ती दिखी – “देवराज चौहान का केस कई सालों से वानखेड़े के पास है।”

“तो इंस्पेक्टर वानखेड़े ने अब तक देवराज चौहान को पकड़ा क्यों नहीं?” सख्त स्वर था ए.सी.पी. कामेश्वर का।

“इसका जवाब तो वानखेड़े साहब ही दे सकते हैं।” अन्य पुलिस वाले ने कहा।

ए.सी.पी. कामेश्वर ने इन्टरकॉम का रिसीवर उठाया, कान से लगाकर बटन दबा दिया।

दूसरी तरफ बजर बजने लगा, फिर कानों में इंस्पेक्टर विजय दामोलकर की आवाज पड़ी-

“यस...!”

“दामोलकर! इंस्पेक्टर पवन कुमार वानखेड़े को अभी मेरे पास भेजो...।”

“जी सर...!”

कामेश्वर ने रिसीवर रखते हुए कहा।

“देवराज चौहान माना हुआ डकैती मास्टर है। पुलिस में कब से वांटेड है...और हैरानी है कि वो कभी भी पकड़ा नहीं गया। इंस्पेक्टर वानखेड़े...।”

“एक बार वो पकड़ा गया था।” कमिश्नर पाटिल ने कहा।

“कब?”

“कई साल पहले। वानखेड़े ने ही उसे पकड़ा था, परंतु वो आसानी से फरार हो गया।”

“फरार हो गया, कैसे?”

“इसी हेडक्वार्टर में वानखेड़े ने उसे रखा था। तब वो वानखेड़े की कस्टडी में ही था और गिरफ्तारी के चंद घंटों बाद ही वो फरार हो गया।”

“ये कैसे हो सकता है?”

“ये ही हुआ था।”

“तो क्या वो वानखेड़े की लापरवाही से फरार हुआ?”

पाटिल चुप रहा।

“या वानखेड़े और देवराज चौहान में सौदा पट गया और वानखेड़े ने उसे फरार करवा दिया!” कामेश्वर ने तीखे स्वर में कहा।

अब तक खामोश बैठा ए.सी.पी. केलकर, कामेश्वर को घूरता कह उठा – “ए.सी.पी. साहब, आप सीधे-सीधे इंस्पेक्टर वानखेड़े पर, रिश्वत लेकर फरार करवाने का इल्जाम लगा रहे हैं।”

कामेश्वर ने केलकर को देखा।

चंद पल दोनों एक-दूसरे को देखते रहे।

खामोशी तीखी हो उठी।

“सॉरी।” ए.सी.पी. कामेश्वर ने मुस्कराने की चेष्टा की –“मैं कुछ गलत कह गया...।”

“इंस्पेक्टर पवन कुमार वानखेड़े के बारे में सब जानते हैं कि वो कितना ईमानदार और मेहनती है।” ए.सी.पी. केलकर ने पुनः कहा –“उसे दो बार ए.सी.पी. बनने का मौका मिला, परंतु वो फील्ड में काम करना चाहता है, इसलिये उसने तरक्की नहीं ली।”

“इतने सालों में वानखेड़े देवराज चौहान को क्यों नहीं पकड़ सका?” कामेश्वर ने कहा।

“ये बात वानखेड़े से की जाये तो बेहतर होगा।” कमिश्नर पाटिल ने कहा।

तभी टेबल पर पड़ा इंटरकॉम बजने लगा।

“हैलो...।” ए.सी.पी. कामेश्वर ने रिसीवर उठाया।

“सर!” इंस्पेक्टर दामोलकर की आवाज कानों में पड़ी –“वानखेड़े साहब तो रात को ही किसी केस के सिलसिले में नेपाल गये हैं।”

“ठीक है।” कामेश्वर ने रिसीवर रखा और सबसे कह उठा –“इंस्पेक्टर वानखेड़े नेपाल गया है रात को। वानखेड़े से बाद में भी बात हो जायेगी। इस वक्त तो मुद्दा देवराज चौहान का है। मैं ऐसे डकैती मास्टर को जेल में देखना चाहता हूं। ये कोई मजाक नहीं है कि एक बैंक में पांच हथियारबंद लोग घुस आते हैं और एक सौ अट्ठाइस लोगों की मौजूदगी में 15 मिनट में वो बैंक से पौने दो करोड़ की रकम लूटकर ले जाते हैं। वहां पर कोई उनका मुकाबला करने की कोशिश कर सकता था, ऐसे में गोलियां चलती और कई लाशें बिछ जाती। कुछ भी हो सकता था। मैं नहीं चाहता कि देवराज चौहान ऐसा दोबारा करे।”

सबकी निगाहें ए.सी.पी. कामेश्वर पर थी।

“क्या कहना चाहते हैं आप?” कमिश्नर पाटिल ने पूछा।

“अगर किसी को ऐतराज ना हो तो देवराज चौहान को पकड़ने का काम मैं अपने हाथ में लेना चाहता हूं।”

“ये तो अच्छी बात है।” ए.सी.पी. केलकर ने कहा।

“तो मैं अभी से इस काम पर लग जाना चाहता हूं।” ए.सी.पी. कामेश्वर ने सिर हिलाकर कहा –“मैं देवराज चौहान को पकड़कर दिखाऊंगा। मैं उस डकैती मास्टर को इस तरह कानून नहीं तोड़ने दूंगा।”

मीटिंग खत्म हो गई।

सब उठे और बाहर निकले।

ए.सी.पी. कामेश्वर वहां से सीधा अपने ऑफिस में पहुंचा और इंटरकॉम पर इंस्पेक्टर विजय दामोलकर को बुलाया।

चार मिनट में ही इंस्पेक्टर दामोलकर ए.सी.पी. के सामने था।

“दामोलकर!” ए.सी.पी. कामेश्वर ने कहा –“तुम्हारे हाथ में जो भी काम है, उसे किसी और के हवाले कर दो। तुम मेरे साथ काम करोगे। मैंने डकैती मास्टर देवराज चौहान को पकड़ना है।”

“यस सर...।”

“आज सुबह उसने चार साथियों के साथ बैंक में डकैती की और सवा सौ आदमियों की मौजूदगी में, पौने दो करोड़ रुपये वो ले भागे। मैं देवराज चौहान की ये दादागिरी नहीं चलने दूंगा। जरूरत पड़ी तो उसका एनकाउंटर करूंगा। जो भी हो, उसका वजूद अब मैंने खत्म करना है और इसके लिये मुझे फील्ड में काम करना होगा। मैं अभी आदेश जारी कर रहा हूं कि पूरे मुम्बई में रेड-अलर्ट कर दिया जाये। देवराज चौहान और उसके साथियों की तस्वीरें छः बजे तक मुम्बई के हर पुलिस स्टेशन पर, हर पी.सी.आर. पर ड्यूटी दे रहे पुलिस वालों तक पहुंच जायेगी। जैसे भी हो, देवराज चौहान अब आजाद नहीं रहना चाहिये। मेरी कोशिश है कि 24 घंटों में नतीजा सामने आ जाये।”

☐☐☐

शाम के 8 बज रहे थे।

पूरी मुम्बई में रेड अलर्ट जारी हो चुका था।

जगह-जगह, खासतौर से हर महत्वपूर्ण सड़क पर नाकेबंदी लगाकर, पुलिस हाथों में देवराज चौहान और उसके साथियों की तस्वीरें लिए, लोगों को पहचानने की चेष्टा कर रही थी। इससे लोगों को असुविधा हो रही थी। पहुंचने में उन्हें देरी हो रही थी, परंतु पुलिस को भी अपना काम करना था। देवराज चौहान और उसके साथियों को पकड़ना था।

ए.सी.पी. कामेश्वर, इंस्पेक्टर दामोलकर के साथ हर नाके पर पहुंचकर अपनी मौजूदगी दर्शाने की चेष्टा कर रहा था कि काम पर लगे पुलिस वाले उसे फील्ड में देखकर सतर्कता से काम करते रहें। कामेश्वर हर कीमत पर देवराज चौहान को तलाश करके, पकड़कर सींखचों के पीछे पहुंचा देना चाहता था या उसका एनकाउंटर कर देने का दृढ़ इरादा अपने मन में रखे हुए था।

☐☐☐

अगले दिन, दोपहर एक बजे।

वो नीले रंग की वैन सड़कों पर तेजी से दौड़ी जा रही थी। उसके शीशे काले थे। ड्राइविंग सीट पर देवराज चौहान मौजूद था। चार अन्य आदमी वैन में मौजूद थे। तीन तो कल वाले ही थे, जिनके साथ देवराज चौहान ने कल बैंक लूटा था और चौथा कल वाला जगमोहन ही था। उसके चेहरों पर कल की तरह ही झीना नकाब स्किन कलर का पड़ा था।

वैन में खामोशी थी।

“हम लोगों की तलाश में पुलिस मुम्बई भर में भागी फिर रही है।” एक ने कहा।

“इन बातों की तुम लोगों को आदत हो जायेगी। पुलिस से डर लगना बंद हो जायेगा।” देवराज चौहान ने कहा।

“मुझे पुलिस का कोई डर नहीं है।” दूसरे ने कहा।

“मुझे भी नहीं है।” तीसरा बोला।

देवराज चौहान ने कोहनी स्टेयरिंग में फंसाई और सिगरेट सुलगाकर कश लिया।

जगमोहन खामोश बैठा था।

“कल हमने पौने दो करोड़ का हाथ मारा।” पहले वाला बोला।

“इन छोटी-छोटी रकमों के बारे में मत सोचो।” देवराज चौहान ने कहा।

“छोटी रकमें? ये तो बड़ी रकम है।”

“बहुत जल्दी तुम लोग देखोगे कि बड़ी रकम क्या होती है।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

“लेकिन अब हम जा कहां रहे हैं?”

“हीराभाई-नन्द किशोर ज्वैलर्स का नाम सुना है?” देवराज चौहान ने कहा।

“हीराभाई-नन्द किशोर, ये तो बहुत बड़ा ज्वैलर्स है, बांद्रा में...।” दूसरे के होंठों से निकला।

“हम बांद्रा ही जा रहे हैं।”

“वहां डकैती करनी है?”

“हां...।” देवराज चौहान ने सिर हिलाया –“आज हम हीराभाई-नन्द किशोर ज्वैलर्स के यहां डकैती करेंगे। डायमंड और सोना मिलाकर वहां से हमें बीस-तीस करोड़ का सामान मिल जायेगा।”

“बीस-तीस करोड़?” पहले वाले के होंठों से निकला।

“मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि इतनी बड़ी रकम का हाथ मारूंगा।” तीसरे ने गहरी सांस ली।

“ये बड़ी रकम नहीं है।” देवराज चौहान ने कहा।

“बड़ी रकम नहीं है बीस-तीस करोड़?”

“नहीं...।”

“तो फिर बड़ी रकम किसे कहते हो?” तीसरे की निगाह देवराज चौहान पर जा टिकी थी।

बाकी दोनों भी देवराज चौहान को देखने लगे थे।

देवराज चौहान वैन ड्राइव करते कह उठा–

“कल हमने जो किया और जो आज करने जा रहे हैं, वो तुम तीनों का टेस्ट है। मैंने तुम लोगों को ऐसे छोटे-छोटे कामों के लिए अपने साथ नहीं मिलाया। हकीकत में मुझे तुम लोगों के साथ एक बड़ी डकैती करनी है।”

“बड़ी डकैती?”

“कहां पर?”

“अगर बड़ी डकैती करनी है तो हम ये सब काम क्यों कर रहे हैं?”

देवराज चौहान ने कश लेकर मोड़ काटा था और कह उठा – “ये सब करके मैं देखना चाहता हूँ कि तुम लोगों में से कोई कमजोर तो नहीं है? क्या मैंने सही आदमी का चुनाव किया है। इस वक्त मैं तुम लोगों का टेस्ट ले रहा हूं। अगर तुममें से मुझे कोई कमजोर लगा तो इन लूटों में से उसे हिस्सा देकर अलग कर दूंगा। क्योंकि मैंने जो बड़ी डकैती करनी है, उसमें कमजोर इंसान मेरा खेल बिगाड़ सकता है।”

तीनों ने एक-दूसरे को देखा।

वैन तेजी से दौड़ी जा रही थी।

“वो...वो बड़ी डकैती कितनी रकम की होगी?” पहले वाले ने गंभीर बेचैनी भरे स्वर में पूछा।

“हीराभाई-नन्द किशोर ज्वैलर्स का शोरूम आने वाला है। हम बांद्रा पहुंच चुके हैं। तैयार हो जाओ।” देवराज चौहान ने कहा फिर खामोश बैठे जगमोहन से बोला –“तुम चुप क्यों हो?”

जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा और गहरी सांस लेकर रह गया। कहा कुछ नहीं।

वैन अब मुख्य सड़क से हटकर इलाके की भीतरी सड़क पर दौड़ रही थी।

सूर्य निकला हुआ था। तेज गर्मी थी। रह-रहकर माथे पर पसीना आ जाता था। सड़कों पर आते-जाते लोगों पर इस गर्मी का कोई असर नहीं हो रहा था। अपने काम के लिए सब दौड़े जा रहे थे।

“परेरा।” देवराज चौहान बोला –“वैन के पिछले हिस्से में गार्ड की यूनिफार्म रखी है, अपने कपड़े उतारो और उसे पहन लो।”

परेरा ने बिना कुछ पूछे अपनी सीट छोड़ी और एक कदम पीछे हटकर कपड़े उतारने लगा।

“यूनिफार्म ठीक वैसी ही है, जैसा कि हीराभाई-नन्द किशोर ज्वैलर्स के गार्ड्स ने पहन रखी है।” देवराज चौहान कहता जा रहा था –“तुम्हें गार्ड्स की जगह लेनी है। दुकान के बाहर, प्रवेश गेट के पास दो बंदूकधारी गार्ड खड़े रहते हैं। हम उन्हें संभालेंगे और भीतर ले जायेंगे उन्हें। शटर को आधे से ज्यादा नीचे गिरा दिया जायेगा। तुम शटर के बाहर रहोगे और बाहर का सारा मामला संभालोगे। तुम गार्ड्स की यूनिफार्म में होंगे, इसलिये तुम पर कोई शक नहीं कर सकेगा। जो कोई भी शोरूम में आना चाहे, तुमने गार्ड्स होने के नाते उन्हें प्यार से बताना है कि दो घंटे के लिए शोरूम बंद है। कोई भीतर नहीं जा सकता। हर कोई तुम्हारी बात मानेगा और कोई शक भी नहीं कर सकता, क्योंकि तुम गार्ड्स की यूनिफार्म में होंगे। बाहर का सारा काम तुम्हें बढ़िया ढंग से संभालना है।”

“आसान काम है।” परेरा वैन के पीछे पड़े लिफाफे को उठाकर खोलता हुआ बोला।

लिफाफे में से उसने नई मिली गार्ड्स की वर्दी निकाली और पहनने लगा।

फिर सिर पर टोपी डाल ली।

उसके बाद अपनी रिवॉल्वर जेब में ठूंसी।

“मैं तैयार हूं...।” परेरा बोता।

वैन चलाते देवराज चौहान ने गर्दन घुमाकर उस पर नजर मारी, फिर सामने देखते कह उठा–

“तुम तो पूरी तरह हीराभाई-नन्द किशोर के शोरूम के गार्ड्स लग रहे हो। परंतु जैसा कि तुम सोच रहे हो, तुम्हारा काम आसान नहीं है। दुकान का शटर आधे से ज्यादा नीचे गिरा होगा। तुम बाहर रहोगे और आने वालों को तसल्ली भरे अंदाज में रोकना है कि उन्हें किसी प्रकार का शक ना हो। हो सकता है कि आने वाले को फोन करके शोरूम में बुलाया हो, या फिर कोई जल्दी में हो सकता है, उसे माल की डिलीवरी लेकर, फौरन ही कहीं पहुंचाना हो।”

“मैं समझ गया।”

“अगर कोई काबू में ना आये तो उस स्थिति में तुम आने वाले को कह सकते हो कि वो थोड़े से उठे शटर के नीचे से शोरूम में जा सकता है, परंतु ऐसा होने पर तुम हमें फोन पर तुरंत खबर दोगे।”

“ये नौबत नहीं आयेगी। मैं सब ठीक कर लूंगा।”

“इस बात का ध्यान रखना कि शोरूम के बाहर रहकर तुमने कोई पंगा खड़ा नहीं करना है।” देवराज चौहान ने पुनः कहा।

“तुम मुझे बच्चों की तरह समझाओ मत...। इन बातों को मैं भी समझता हूं।”

“मेरे लिए तुम लोग बच्चे ही हो और मैं तुम लोगों को ट्रेंड कर रहा हूं ताकि जो बड़ी डकैती करनी है, उसमें तुम लोगों को शामिल कर सकूँ। जो मैं कहता हूं, वो ठीक से सुनो। मुझे इस काम की परवाह नहीं, परंतु तुम्हारी छोटी-सी गलती तुम्हें उस बड़ी डकैती से बाहर कर सकती है जो कि मैं करने वाला हूं। तब तुम्हें अफसोस होगा कि...!”

“मुझे अपने पर पूरा भरोसा है देवराज चौहान कि मैं काबिल हूं इन कामों के लिए। तभी तो तुम ढूंढते हुए मेरे पास पहुंचे और...!”

“इस वक्त तुमने ये साबित करना है कि मैंने सही आदमी को तलाशा है।” देवराज चौहान बोला –“तैयार हो जाओ। वो सामने ही हीराभाई-नन्द किशोर ज्वैलर्स का शोरूम है। परेरा, तुम वैन में ही रहोगे और ये देखते रहोगे कि हम क्या कर रहे हैं। जैसे ही हम शोरूम के बाहर मौजूद दोनों गार्ड्स को भीतर ले जायें, तुमने वैन से निकलकर वो जगह संभाल लेनी है।”

परेरा ने सिर हिला दिया।

बाकी दोनों और जगमोहन तैयार हो गये थे।

“तुम्हारे चेहरे पर नकाब है जगमोहन। ऐसे में तुम परेरा के बाद ही वैन से निकलना और कोशिश करना कि कोई तुम्हें नकाब पहने, शोरूम में जाते ना देखे। परंतु यहां बहुत भीड़ है और ऐसा होना संभव नहीं।”

“चिंता मत करो। मैं नकाब उतार लूंगा और शोरूम में प्रवेश करने के बाद ही नकाब पहनूंगा।” जगमोहन बोला।

“ये ठीक रहेगा।” देवराज चौहान ने कहा और हीराभाई-नन्दकिशोर ज्वैलर्स के शोरूम के सामने वैन को रोक दिया।

देवराज चौहान और बाकी दोनों वैन से उतरे और सहज भाव से तीनों हीराभाई-नन्द किशोर ज्वैलर्स के शोरूम की तरफ बढ़ने लगे। भीड़ थी, लोग आ-जा रहे थे। शोरूम के शीशे के दरवाजे के पास दो बंदूकधारी गार्ड्स खड़े थे। दरवाजे के दोनों तरफ बड़े-बड़े शो केसों में सोने और हीरों के नेकलेस तथा अन्य प्रकार की ज्वैलरी सजा रखी थी।

“लखानी। वाडेकर।” देवराज चौहान आगे बढ़ते शांत स्वर में कह उठा –“जो भी करो, आराम से करो। किसी भी बात की जल्दबाजी मत करना। जल्दबाजी काम को बिगाड़ देती है। सब्र के साथ काम करोगे तो सफलता मिलेगी। मैं शोरूम में चला जाऊंगा। तुम दोनों ने दोनों गार्ड्स को भीतर लाना है। इस तरह कि शोरूम के बाहर आते-जाते लोगों को गड़बड़ की भनक भी ना मिले।”

लखानी और वाडेकर ने कुछ नहीं कहा।

तीनों दरवाजे पर पहुंचे।

उन्हें आया पाकर एक गार्ड ने आदर भरे ढंग से शीशे का दरवाजा खोला।

देवराज चौहान भीतर प्रवेश कर गया।

उसी पल दरवाजा खोलने वाले गार्ड की कमर से वाडेकर ने चोरी-छिपे ढंग से रिवॉल्वर लगा दी।

गार्ड ने चौंककर वाडेकर को देखा।

“मरना है क्या?” वाडेकर फुसफुसाया –“चल अन्दर...।” कहने के साथ ही वाडेकर ने रिवॉल्वर की नाल का दबाव बढ़ाया।

गार्ड घबराया-सा शीशे के खुले दरवाजे से भीतर प्रवेश कर गया। वाडेकर उसके साथ था।

तब तक लखानी दूसरे गार्ड को घेर चुका था। छिपे अंदाज में रिवॉल्वर निकलकर उसके हाथ में आ चुकी थी और दूसरे गार्ड ने उसके हाथ में रिवॉल्वर देख भी ली थी। उसकी बंदूक कंधे पर टिकी थी।

“तेरा साथी समझदार है जो रिवॉल्वर देखकर, फौरन बात मान कर भीतर चला गया। अब तेरा क्या इरादा है, गोली खायेगा या भीतर चलेगा। वक्त कम है, जल्दी हां या ना बोल।” लखानी की आवाज में मौत के सर्द भाव थे।

तभी परेरा वहां आया और खड़ा हो गया।

“ले...नया गार्ड आ गया।” लखानी कठोर स्वर में बोला –“ये ड्यूटी देगा। मारूं गोली क्या?”

“न...नहीं...।”

“तो चल भीतर। अपनी बन्दूक इसे दे दे।”

गार्ड ने तुरंत अपनी बंदूक परेरा को दी।

परेरा ने बंदूक कंधे पर लटकाई और वहां खड़ा हो गया।

लखानी गार्ड के साथ शोरूम के भीतर चला गया।

परेरा सतर्क किंतु लापरवाही भरे अंदाज में वहां खड़ा था। तीन कदमों के फासले पर, फुटपाथ पर लोग आ-जा रहे थे, परंतु किसी को हवा भी नहीं लगी थी कि यहां क्या हुआ।

उसी पल सामने से जगमोहन आया। उसने नकाब नहीं डाला हुआ था।

दोनों में आंखों-ही-आंखों में बात हुई। सब ठीक है, का इशारा हुआ।

“शटर गिरा...।” जगमोहन उसके पास पहुंचते ही कह उठा।

जगमोहन और परेरा ने मिलकर शटर को नीचे किया।

आधे से ज्यादा नीचे किया और फिर जगमोहन भीतर प्रवेश कर गया। चूंकि शटर गिराने में गार्ड की वर्दी पहने परेरा भी साथ था, इसलिये देखने वालों को सब कुछ सामान्य लगा था।

परेरा आधे से ज्यादा गिरे शटर के पास बंदूक कंधे पर लटकाए खड़ा हो गया था।

☐☐☐

हीराभाई-नन्द किशोर का ज्वैलरी शोरूम काफी बड़ा था। ऊपर की मंजिल भी उनकी ही थी जिसकी सीढ़ियां कोने से जाती थी। ऊपर की मंजिल पर गहने बनाने और डायमंड की कटिंग, तराशने और उन्हें सेट करने का काम होता था।

नीचे का काम हीराभाई देखता था और ऊपर का नन्द किशोर संभालता था। हीराभाई की उम्र पचास बरस थी और नन्द किशोर पैंतालीस बरस का था। ये धंधा उन्हें बाप-दादे से विरासत में मिला था।

एक-सवा बजे नन्द किशोर नीचे आया और हीराभाई के पास कुर्सी पर जा बैठा। शोरूम में तेज रोशनियां जल रही थी। साड़ियां पहने पन्द्रह बेहद खूबसूरत सेल्स गर्ल थी वहां। हर कोई किसी-ना-किसी काम में व्यस्त नजर आ रही थी। सबके पास वहां ग्राहक थे। मध्यम-सी बातों का स्वर हर तरफ से उठ रहा था।

“हीरा।” बैठते हुए नन्द किशोर ने कहा –“गिनानी का जो डायमंड सेट तैयार करना है, उसमें कितना सोना डालें?”

“पचास परसेंट...।”

“पन्द्रह तोले का सेट है।”

“पचास परसेंट ठीक है।”

“और डायमंड?”

“जो गुजरात से घटिया डायमंड मंगाये थे, वो ही डायमंड गिनानी वाले सेट में लगवाना। बीच में जो मोटा डायमंड लगे, वो महंगा वाला लगा देना। हर किसी की निगाह उसी डायमंड पर जायेगी। वो बढ़िया क्वालिटी का होना चाहिये...।” हीराभाई ने कहा।

“तू गिनानी से खुंदक क्यों खाता है?” नन्द किशोर मुस्कराकर बोला।

“साले के पास बहुत पैसा है। काम-धाम कुछ करता नहीं। हर महीने अपनी दस साल छोटी बीवी के लिये महंगे जेवरात खरीदता रहता है।”

“तुझे गिनानी के पैसे से समस्या है या उसकी दस साल छोटी बीवी से...?”

“ये गोपाल भीतर क्यों आया है?” एकाएक हीराभाई ने कहा –“उसके साथ कौन है?”

नन्द किशोर की निगाह गार्ड की तरफ और उसके साथ मौजूद देवराज चौहान की तरफ गई। वो उनकी तरफ ही आ रहे थे।

अगले ही पल नन्द किशोर चौंककर कह उठा–

“ही...हीरा...ये तो...ये तो इसकी फोटो आज के अखबार में छपी है।”

“किसकी?” हीरा हड़बड़ाया।

“जो गोपाल के साथ है। इसने बैंक लूटा था कल।” नन्दकिशोर ने हड़बड़ाये ढंग से टेबल पर पड़े अखबार को पकड़कर उसके पन्ने पलटे और एक पन्ना सामने किया –“ये देख, ये इसी की फोटो है।”

हीराभाई ने अखबार में छपी फोटो पर नजर मारी।

“मैंने आज सुबह इसकी फोटो कई बार देखी थी।” नन्दकिशोर ने कहा –“लेकिन ये यहां क्यों...?”

“ये हमारी दुकान लूटने आया है।” हीराभाई ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी –“हम लुटने वाले हैं नन्द किशोर...।”

तब तक गोपाल और देवराज चौहान उनके पास आ पहुंचे थे।

शोरूम के सारे कर्मचारी सामान्य ढंग से काम कर रहे थे।

वाडेकर शोरूम के बीच ही ठहर गया था।

हीराभाई और नन्द किशोर की घबराई नजरें देवराज चौहान पर थी।

“ये है मालिक?” देवराज चौहान ने साथ आये गार्ड से पूछा।

गार्ड ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

“मैं डकैती मास्टर देवराज चौहान हूं।” देवराज चौहान ने कठोर स्वर में दोनों से कहा –“ये शोरूम लूटने आया हूँ...।”

“न...न...नहीं...।” हीराभाई के होंठों से कांपता स्वर निकला –“तुम ऐसा नहीं कर सकते...।”

“मेरे साथ और भी कई लोग हैं। भीतर भी और बाहर भी...।” देवराज चौहान ने रिवॉल्वर निकालकर खतरनाक स्वर में कहा –“अगर तुममें से किसी ने चालाकी दिखाने की कोशिश की तो दोनों ही मारे जाओगे।”

दोनों ने शोरूम के बीच खड़े वाडेकर को देखा।

तभी एक सेल्सगर्ल की निगाह देवराज चौहान के हाथ में दबे रिवॉल्वर पर पड़ी तो वो चीख उठी।

शोरूम में मौजूद तमाम लोगों का ध्यान इस तरफ हुआ।

तभी वाडेकर रिवॉल्वर निकालता चिल्ला उठा–

“कोई अपनी जगह से नहीं हिलेगा। यहां डकैती हो रही है, जो मरना चाहे वो ही आवाज मुंह से निकाले।”

एकाएक शोरूम में गहरा सन्नाटा छा गया।

रिवॉल्वर थामे वाडेकर की सतर्क निगाह हर तरफ घूम रही थी।

लखानी भी अब तक दूसरे गार्ड के साथ भीतर आ चुका था।

धीरे-धीरे वहां के हालात खतरनाक होते जा रहे थे।

देवराज चौहान ने पास में खड़े गार्ड के कंधे पर लटकी गन लेते हुए कहा–

“चुपचाप एक तरफ होकर बैठ जाओ। अगर मरना चाहो तो ही कुछ करने की सोचना।”

गार्ड कांपती टांगों से एक तरफ सरककर नीचे बैठ गया।

ये देखकर लखानी ने अपने काबू में दूसरे गार्ड से कहा–

“चल, अपने साथी के पास जाकर बैठ। चुपचाप, जरा भी हरकत की तो मरेगा।”

वो गार्ड भी कांपती टांगों से अपने साथी गार्ड की तरफ बढ़ गया।

शोरूम में मौजूद हर कोई स्तब्ध बैठा था।

देवराज चौहान ने वाडेकर से कहा–

“तुम ऊपर की मंजिल पर कंट्रोल करो । वहाँ कोई पुलिस को फोन ना कर दे।”

रिवॉल्वर थामे वाडेकर ऊपर जाती सीढ़ियों की तरफ दौड़ पड़ा।

लखानी रिवॉल्वर वाला हाथ हवा में लहराता ऊंचे स्वर में बोला–

“खामोश रहोगे तो जिंदा बच जाओगे। मरना हो तो तभी आवाज निकालना।”

तभी शोरूम के लोगों ने दुकान का शटर नीचे होते देखा।

हीराभाई का हाथ तेजी से टेबल के नीचे गया।

उससे भी तेजी से देवराज चौहान आगे बढ़ा और हाथ में दबी रिवॉल्वर की नाल का वार उसके गाल पर किया।

“ओह...।” हीराभाई पीड़ा के साथ छटपटा उठा। मुंह के भीतर का गाल फट गया और होंठों पर बहता खून दिखा। देवराज चौहान ने रिवॉल्वर की नाल उसके सिर पर रख दी। चेहरे पर वहशी भाव नाच उठे थे।

“क्या है, टेबल के नीचे?” देवराज चौहान गुर्रा उठा।

हीराभाई का चेहरा भय से सफेद होने लगा।

नन्द किशोर तो बुत की मुद्रा में बैठा था।

“बोला, क्या करने जा रहा था?” देवराज चौहान पुनः गुर्राया –“चुप रहा तो गोली मार दूंगा।”

“खतरे का अलार्म बजाने जा रहा था।” हीराभाई जल्दी से कह उठा।

“कहां बजता है ये अलार्म?”

“दुकान के बाहर।” हीराभाई बोला –“दूर-दूर तक आवाज जाती है।”

“दोनों यहां से खड़े हो जाओ।” देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा।

हीराभाई और नन्द किशोर उठे तुरंत।

“वहां बीचों-बीच नीचे बैठ जाओ।” देवराज चौहान ने कहा।

तभी जगमोहन को पास आते देखा तो देवराज चौहान बोला–

“इन दोनों की तलाशी लो कि इनके पास हथियार तो नहीं फिर इन्हें बीचों-बीच फर्श पर बिठा दो।”

जगमोहन दोनों को वहां से ले गया।

रिवॉल्वर थामे देवराज चौहान ने पूरे शोरूम में तसल्ली भरी निगाह मारी, फिर ऊंचे स्वर में कह उठा–

“तुम लोगों को डरने की जरूरत नहीं। हम यहां किसी की जान लेने नहीं आये। परंतु किसी ने होशियारी दिखाने की चेष्टा की तो वो जरूर मारा जायेगा। हम यहां का सोना और डायमंड लूटने आये हैं। वो लेकर चले जायेंगे।”

“तुम आधा ले लो, आधा छोड़ जाओ।” दुकान के बीच, फर्श पर बैठा हीराभाई रो देने वाले स्वर में कह उठा।

चार कदमों के फासले पर खड़ा जगमोहन गुर्रा उठा–

“चुप रहो, वरना मारे जाओगे।”

“मैं बरबाद हो जाऊंगा।” हीराभाई की आंखों से आंसू निकले –“मैं...!”

“तुम मरना चाहते हो?” जगमोहन ने रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा करके खतरनाक स्वर में कहा।

“चुप हो जा हीरा।” नन्द किशोर जल्दी से कह उठा –“जान है तो सब कुछ है।”

“लेकिन...!”

“चुप...।” नन्द किशोर ने धीमे स्वर में कहा –“पुलिस इन्हें पकड़ लेगी और हमारा माल भी बरामद कर लेगी। सब ठीक हो जायगा। अभी इन्हें ले जाने दे, अब तू आवाज मत निकालना। हम दोबारा से धंधा खड़ा कर लेंगे। मार्केट में हमारी साख है। हमें उधार माल मिल जायेगा। जान है तो जहान है। सब ठीक हो जायेगा। अब तू आवाज मत निकालना।”

देवराज चौहान का ऊंचा स्वर वहां गूंजा।

“शोरूम के कर्मचारियों में से तीन ऐसे लोग उठे जो ये जानते हों कि हीरे-जवाहरात और महंगे गहने कहां-कहां रखे हैं और उन्हें थैलों में भरकर हमारे हवाले करना है। जल्दी करो, तीन आदमी...।”

परंतु कोई अपनी जगह से नहीं हिला।

उसी पल जगमोहन आगे बढ़ा और नन्द किशोर की कनपटी पर रिवॉल्वर रखकर गुर्राया–

“तू उठ। सारा माल निकालकर हमें दे। इंकार किया तो अभी गोली मार दूंगा।”

नन्द किशोर फौरन कांपती टांगों से खड़ा हो गया और कह उठा–

“गोली मत मारना। मैं सब कुछ तुम्हारे हवाले करता हूं। रिवॉल्वर पीछे कर लो। आओ, मेरे साथ...।”

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परेरा, जो कि हीराभाई-नन्द किशोर ज्वैलर्स शोरूम के बाहर, दुकान का आधे से ज्यादा शटर गिराये गार्ड की वर्दी में बंदूक थामे खड़ा था, अभी उसे पांच मिनट ही खड़े हुए थे कि अचानक ही अजीब-सी मुसीबत में फंस गया। उसके पास ही फुटपाथ पर लोग आ-जा रहे थे कि अचानक ही एक आदमी भीड़ से निकलकर उसके सामने आ खड़ा हुआ।

उसे देखते ही परेरा अचकचा उठा।

वो पिंटो था।

उसका चचेरा भाई। दोनों में अच्छी पटती थी। कुछ दिन पहले एक अपहरण का काम भी दोनों ने साथ ही किया था।

“तू?” पिंटो हैरानी से कह उठा –“यहां, गार्ड की नौकरी कर रहा है, कब से?”

परेरा हक्का-बक्का सा उसे देखने लगा।

“बता तो, तेरा दिमाग कब से खराब हो गया जो तू गार्ड की नौकरी...।”

“क...कौन हो तुम?” परेरा सकपका कर कह उठा।

“मैं...? मैं पिंटो, तेरा चचेरा भाई परेरा, लेकिन...!”

“तेरे को कोई गलतफहमी हुई है। मेरा नाम प्रेमसिंह है, परेरा नहीं। मैं तुम्हें नहीं जानता...।” परेरा ने कहा।

पिंटो, परेरा को घूरने लगा।

“जाओ यहां से।” परेरा ने मुंह फेरकर कहा –“मालिक ने मना कर रखा है यूं ही किसी से बात करने को।”

पिंटो के चेहरे पर अजीब से भाव आ ठहरे।

“तू परेरा नहीं है?”

“एक बार कह तो दिया कि मेरा नाम प्रेम सिंह है।” परेरा खुद को संभाल चुका था।

“तू सच में परेरा नहीं है?”

“सुनता नहीं तेरे को, एक बार कह जो दिया कि मैं प्रेम सिंह हूँ...।”

“अच्छा।” पिंटो सिर हिलाकर कह उठा –“हैरानी है कि तू परेरा नहीं है। तू प्रेम सिंह है। लेकिन तेरी आवाज भी परेरा जैसी है।”

परेरा मुंह घुमाये शांत खड़ा रहा। मन-ही-मन पिंटो को चले जाने को कह रहा था।

“चल मजाक बहुत हो गया।” पिंटो मुस्कराकर कह उठा –“ये बता कि तू कब से गार्ड को नौकरी...!”

“दो साल हो गये यहां नौकरी करते –और मैं तेरे को नहीं जानता...।”

“दो साल? सप्ताह पहले तो हम मिले थे। तू कह रहा था कि जैसे भी हो, मोटा पैसा कमाना है – और अब तुझे देखता हूं कि तू यहां पर गार्ड की नौकरी कर रहा है और खुद को प्रेम सिंह कह रहा है। मैं कैसे मान लूं कि तू परेरा नहीं प्रेम सिंह है।”

परेरा ने खा जाने वाली निगाहों से पिंटो को देखा।

पिंटो मुस्कराया।

“यार, इतना तो कह दे कि तू परेरा ही है।”

“प्रेम सिंह हूं मैं...।” परेरा झल्लाया।

पिंटो ने मुंह बनाया। दुकान के बड़े-बड़े शोकेसों में रखे जेवरातों को देखा।

परेरा झल्लाया-सा उसे देख रहा था।

“तू?” पिंटो धीमे स्वर में कह उठा –“कहीं इस दुकान पर हाथ साफ तो नहीं कर रहा?”

“क्या?” परेरा गुस्से से कह उठा –“तुम पागल हो क्या, मालिक को भीतर से बुलाऊं क्या, वो तेरे को पुलिस में दे देंगे। मैं कह दूंगा कि तू मेरे को शोरूम लूटने की सलाह दे रहा था...।”

पिंटो उसे देखते हुए मुस्कराने लगा।

परेरा पुनः सकपका-सा उठा।

“एक बात तो माननी पड़ेगी परेरा कि तू पक्का हरामी है।” पिंटो बोला।

परेरा उसे देखता रहा।

“सीधे-सीधे ही कह दे कि तू यहां काम कर रहा है तो मैं चला जाता हूं। मेरे से क्या छिपाना। लेकिन ये शिकायत तो तेरे से रहेगी कि इस बड़े काम में तूने मेरे को साथ नहीं लिया। जबकि हमने कई बार एक साथ काम किया है।” पिंटो ने पुनः शोकेसों में लगे जेवरातों को देखा –“यहां से मोटा माल तेरे हाथ लगेगा अगर तू सफल रहा तो...!” कहते हुए पिंटो ने जेब से मोबाईल निकाला और नंबर मिलाने लगा।

“अगर अब तू नहीं गया तो मैं अभी तेरे बारे में मालिक को खबर...!”

अगले ही पल परेरा की जेब में पड़ा फोन बजने लगा।

परेरा के होंठ भिंच गये। उसने पिंटो के हाथ में दबे मोबाईल को देखा।

पिंटो ने मुस्कराकर फोन काटा और वापस अपनी जेब में रखते कड़वे स्वर में कह उठा– “तो प्रेम सिंह जी, आपका मोबाईल नम्बर मेरे को कैसे पता चल गया?”

“यहां से खिसक जा।” परेरा एकाएक गहरी सांस लेकर कह उठा।

“शोरूम के अन्दर काम हो रहा है?” पिंटो ने धीमे स्वर में कहा।

“हां...।” बताना पड़ा परेरा को।

“कितने आदमी हो?”

“पांच।”

“तूने मेरे को साथ क्यों नहीं लिया?”

“ये मेरा काम नहीं है, किसी और का है। उसने मुझे साथ लिया है। तू खिसक तो यहां से...।”

“हाथ तंग चल रहा है, पांच-सात लाख मिल जाते तो बहुत बढ़िया हो जाता।”

“मैं दे दूंगा, तू चला जा यहां से...!” परेरा गुस्से में बोला।

“जेवरात भी चल जायेंगे। मैं बेच लूंगा उन्हें। अगर काम में मेरी जरूरत हो तो...।”

“दफा हो जा...।”

“ठीक है। मैं शाम को तेरे को फोन करूंगा।” कहकर पिंटो आगे बढ़ता चला गया।

परेरा खा जाने वाली निगाहों से पिंटो को देखता रहा।

पिंटो उसकी निगाहों से ओझल हो गया।

परेरा ने चैन की सांस ली कि वो चला गया।

परंतु पिंटो गया नहीं था। वो पास की पार्किंग से अपनी कार उठा लाया और कुछ दूर खड़ी करके परेरा पर नजर रखने लगा। वो देखना चाहता था कि परेरा किन लोगों के साथ काम कर रहा है।

बीस मिनट बाद हीराभाई-नन्द किशोर के ज्वैलरी शोरूम का शटर ऊपर उठा और देवराज चौहान, जगमोहन, वाडेकर और लखानी बाहर निकले। उनके पास दो बैग और एक भरा थैला था।

परेरा ने दोनाली को पास ही में रख लिया।

वे सब तेजी से सामने खड़ी वैन में प्रवेश करते चले गये।

देवराज चौहान ने ड्राईविंग सीट संभाली और अगले ही पल वैन को दौड़ा दिया।

हीराभाई-नन्द किशोर का ज्वैलरी शोरूम लुट चुका था।

कुछ दिन पहले क्या हुआ था, वो देखते हैं।

वाडेकर, जिसका पूरा नाम राजू वाडेकर था, दस सालों से ड्रग्स का धंधा कर रहा था। बहुत अच्छा नेटवर्क बना रखा था उसने। पाकिस्तान-अफगानिस्तान से ड्रग्स का माल आता और अपनी बना रखी चेन में आगे सरका देता। इसी में ही वो मोटा नावां कूट रहा था। पुलिस को वक्त पर हफ्ता देता था। कोई समस्या नहीं थी। सब ठीक चल रहा था। दो-दो औरतें उसने रखैल के तौर पर रखी हुई थी। दोनों ही खूबसूरत थी और वाडेकर उन पर पैसा लुटाता था।

राजू वाडेकर की जिंदगी के बीते दस साल इसी तरह मजे से कटे थे। उसे पूरा भरोसा था कि आगे की जिंदगी भी इसी तरह कट जायेगी, परंतु ऐसा नहीं हो सका था। उस दिन वो ऑफिस में बैठा था कि सादे कपड़ों में इलाके का पुलिस इंस्पेक्टर रोहित भरनवाल उसके पास पहुंचा। इंस्पेक्टर भरनवाल उसका हमेशा ही बहुत ध्यान रखता था।

“आओ...।” इंस्पेक्टर भरनवाल को देखते ही वाडेकर मुस्कराकर बोला –“बैठो यार, कैसे हो?”

इंस्पेक्टर रोहित भरनवाल कुर्सी पर बैठा। वो गंभीर दिख रहा था।

“सब ठीक तो है?” वाडेकर ने पूछा।

“मैं तुझे ऐसी खबर सुनाने जा रहा हूं कि जिसे सुनकर तेरे को खुशी नहीं होगी।” भरनवाल बोला।

“अच्छा, ऐसी क्या बात है?”

“मेरा ट्रांसफर हो गया है।”

“ओह, ये खबर तो सच में बुरी है।” वाडेकर परेशान हुआ।

“नया ए.सी.पी. आया है। वो जानता है कि तुम्हारे साथ मेरे अच्छे संबंध हैं। उसने मेरा ट्रांसफर कर दिया।”

“मतलब कि अब वो नोट चाहता है मेरे से...।”

“ए.सी.पी. चंपानेरकर ने ही मुझे तुम्हारे पास भेजा...।”

“ए.सी.पी. ने तुम्हें मेरे पास भेजा...।” वाडेकर ने मुस्कराकर पहलू बदला –“तो कितनी रकम मांगता है वो?”

“वो कहता है कि तुमसे कह दूं कि वो अपने इलाके में ऐसे काम नहीं होने देगा। एक सप्ताह का वक्त दिया है उसने...कि तुम अपना ये धंधा समेटकर इस इलाके से चले जाओ।” इंस्पेक्टर रोहित भरनवाल ने गंभीर स्वर में कहा।

“मतलब कि ज्यादा रकम लेना चाहता है, तभी उसने ऐसा कहा...।”

“ए.सी.पी. चंपानेरकर ऐसा नहीं है। वो सख्त मिजाज पुलिस वाला है। चार्ज लेते ही उसने अपने इलाके में मौजूद हर गलत काम करने वाले को इसी तरह खबर भिजवा दी कि काम बंद करके इलाका छोड़ दे।” भरनवाल बोला –“तुम्हें उसकी बात को गंभीरता से लेना चाहिये।”

“ऐसी क्या आफत है –कोई तो कीमत होगी ही उसकी...।”

“मैंने अपना आखिरी फर्ज निभा दिया।” भरनवाल कुर्सी छोड़कर उठ खड़ा हुआ –“अब तुम जानो और ए.सी.पी. चंपानेरकर। मुझे अब ट्रैफिक में भेज दिया गया है। कल वहां पर मेरी ड्यूटी शुरू हो जायेगी।”

इंस्पेक्टर रोहित भरनवाल चला गया।

राजू वाडेकर ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया। वो जानता था कि पुलिस वाले बदलते रहते हैं। हर नया पुलिस वाला पहले रौब मारता है फिर मोटी रकम तय करता है और उसके बाद सब ठीक से चलने लगता है।

वाडेकर ने अपने खास आदमी केतन पारिख को बुलाकर कहा–

“भरनवाल की ट्रांसफर हो गई है और नया ए.सी.पी. चंपानेरकर ने भरनवाल के हाथों मैसेज भिजवाया है, हम धंधा बंद करके इलाका छोड़ दें।”

“पुराने पुलिस वाले जब जाते हैं तो ऐसी समस्या आती है।” केतन पारिख बोला –“आप उस ए.सी.पी. को नोट चढ़ा दीजिये।”

“यही सोचा है मैंने। पता कर कि वो कमिश्नर कहां मिलेगा तब तक मैं छोटा ब्रीफकेस नोटों से भर देता हूं...।”

“कितना देंगे?”

“दस लाख।”

“पहली बार में ही इतना देंगे तो वो ज्यादा मुंह फाड़ेगा।”

“कोई फर्क नहीं पड़ता। ड्रग्स से बहुत पैदा हो रही है। तू पता कर वो किधर होगा।”

केतन पारिख बाहर निकल गया।

वाडेकर ने छोटे से ब्रीफकेस में हजार के नोटों की दस गड्डियां डालकर उसे बंद किया।

☐☐☐

पांच मिनट में ही केतन पारिख ने लौटकर कहा–

“ए.सी.पी. चंपानेरकर अपने ऑफिस में मौजूद है।”

“ये ब्रीफकेस ले जा उसके पास। बोलना मैंने भिजवाया है। हर हफ्ते इतनी सेवा होती रहेगी उसकी। इसे यूं ही मत ले जाना। किसी डिब्बे में बंद करके, ऊपर कागज चढ़ा कर ले जाना।” वाडेकर ने कहा।

केतन पारिख ब्रीफकेस थामे बाहर निकल गया।

☐☐☐

दो घंटे बाद केतन पारिख वापस लौटा और चमकदार कागज में लिपटा डिब्बा टेबल पर रखते बोला–

“नहीं लिया उसने...।”

वाडेकर के होंठ सिकुड़े।

“क्या बोला?”

“मैंने कहा कि वाडेकर साहब ने गिफ्ट भिजवाया है तो उसने पूछा बीच में क्या है। मैंने कहा ब्रीफकेस। बोला कितने नोट हैं, मैंने बता दिया दस लाख हैं तो उसने बेहद नरमी के साथ लेने से मना कर दिया। बोला, मैं रिश्वत नहीं लेता।”

“साला ज्यादा नखरे दिखा रहा है।” वाडेकर ने मुंह बनाया –“कल ब्रीफकेस में 15 लाख ले जाना।”

“ठीक है।”

“तेरे को क्या लगता है कितने में पटेगा?”

“कह नहीं सकता।”

“क्यों?”

“पहली बार किसी पुलिस वाले ने पैसे वापस दिए हैं। वरना वो रखकर ये भी कह सकता था कि कल पांच और ले आना, अगर धंधा चलाए रखना चाहते हो तो...। परंतु उसने ऐसा कुछ भी नहीं कहा।” पारिख बोला।

“अकड़ू लगता है। उम्र क्या है उसकी?”

“पचपन के आस-पास होगी।”

“कल पन्द्रह लेकर जाना उसके पास...।”

☐☐☐

अगले दिन केतन पारिख का फोन आया वाडेकर को।

“ले लिया ब्रीफकेस उसने?” वाडेकर ने पूछा।

“नहीं...। लेकिन ये जरूर पूछा कि कितने हैं।”

“तुमने बताया?”

“हां, मैंने कहा 15 हैं। तो उसने बड़े आराम से लेने से मना कर दिया और बोला कि वाडेकर को कहूं कि बाकी छः दिन रह गये हैं।”

“हरामजादा! अपना भाव बढ़ाना चाहता है।” वाडेकर गुस्से से बोला।

“शायद बीस लाख में सेट हो जाये।”

“बीस लाख हफ्ता, बहुत ज्यादा है। सच बात तो ये है कि पन्द्रह भी ज्यादा ही था, अब मुझे ही इस ए.सी.पी. से मिलना होगा।”

“इस वक्त वो अपने ऑफिस में ही है।”

राजू वाडेकर दो घंटे बाद ए.सी.पी. चंपानेरकर के ऑफिस में पहुंचा।

ए.सी.पी. ने उसे प्रश्नभरी नजरों से देखा तो वाडेकर मुस्कराकर बोला–

“नमस्कार ए.सी.पी. साहब। मैं वाडेकर हूं, राजू वाडेकर।”

“बैठो।” चंपानेरकर ने मुस्कराकर कुर्सी की तरफ इशारा किया।

वाडेकर कुर्सी पर बैठता हुआ कह उठा–

“लगता है आप मुझसे ज्यादा ही नाराज हैं।”

“क्यों?” ए.सी.पी. चंपानेरकर के चेहरे पर शांत मुस्कान थी।

“मैंने दस लाख भिजवाया तो आपने मना कर दिया। पन्द्रह भिजवाया तो वो भी नहीं लिया।” वाडेकर हंसकर बोला –“पन्द्रह बहुत है। इस धंधे में मैं इससे ज्यादा नहीं दे सकता। ज्यादा बड़े स्कूल पर तो मैं धंधा करता नहीं। रोटी-पानी निकल आती है। इतना ही बहुत है। आपको हर सप्ताह पन्द्रह लाख पहुंच जाया करेगा।

सही वक्त आपके पास पैसा पहुँचा करेगा।”

तभी एक पुलिस वाला तेजी से भीतर आता बोला– “सर, मिस्टर मजूमदार आ पहुंचे हैं, वो...।”

“तुम देख नहीं रहे कि मैं वाडेकर साहब से बात कर रहा हूं...।” चंपानेरकर ने कठोर स्वर में कहा।

पुलिस वाला संभला।

“मजूमदार साहब इंतजार कर सकते हैं। मैं वाडेकर साहब का वक्त खराब नहीं करना चाहता, इन्हें इंतजार कराकर। इनका वक्त कीमती है। इनके जाने के बाद ही मजूमदार से मिलूंगा। जाओ।”

वो पुलिस वाला उस पल बाहर निकल गया।

ए.सी.पी. चंपानेरकर ने मुस्कराकर वाडेकर को देखा।

वाडेकर, चंपानेरकर के व्यवहार से कुछ बेचैन हो उठा था।

“तो आप क्या कह रहे थे वाडेकर साहब?”

वाडेकर ने अपनी बात फिर दोहराई। तो चंपानेरकर बोला–

“आपको इस बात पर तसल्ली होनी चाहिये कि आपका आदमी मुझे मेरे ही ऑफिस में रिश्वत देने आया और मैंने उसे गिरफ्तार नहीं किया। जबकि दो बार वो पैसे लेकर आया।” चंपानेरकर ने शांत स्वर में कहा –“मुझे उन्हीं इलाकों में भेजा जाता है, जहां पर तुम जैसे लोगों के धंधे बंद कराने हों। अपनी कुर्सी संभालने से पहले ही मैं, इलाके के उन लोगों के बारे में जान लेता हूं जो गैरकानूनी काम करते हैं और जिनके धंधे मैंने बंद कराने होते हैं। ये बात नहीं कि मैं रिश्वत नहीं लेता। परंतु मैं ड्रग्स जैसे कामों में रिश्वत नहीं लेता। ये जहर है जो तुम देश की जनता के बीच फैला रहे हो। मेरे कहने पर इंस्पेक्टर भरनवाल तुम्हें सात दिन का वक्त दे गया था। जिसमें से एक दिन बीत चुका है...और आज दूसरा दिन है। अभी तुम्हारे पास वक्त है कि तुम अपना धंधा बंद करके ये इलाका छोड़कर जा सकते हो। मेरी-तुम्हारी दुश्मनी नहीं है, इसलिए मैंने तुम्हें वक्त दिया है।”

“ए.सी.पी. साहब।” वाडेकर ने शांत स्वर में कहा –“मेरे धंधा बंद कर देने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इस देश में हजारों लोग हैं जो ड्रग्स का काम कर रहे हैं। ये काम तो चलता ही रहेगा।”

“कोई बात नहीं। अभी मेरी नजर तुम पर है। कम-से-कम तुम इस इलाके से धंधा बंद करके खिसक जाओ।”

“मैं आपको 20 लाख हफ्ता दूंगा।”

“तुम बेकार की कोशिश कर रहे हो।”

“यहां मेरा सब कुछ जमा-जमाया है। इलाका छोड़ने से मुझे करोड़ों का नुकसान हो जायेगा। जिन लोगों ने मेरे पैसे देने हैं, वो भी नहीं देंगे। मेरी भी मजबूरी है। मेरे से आपको अस्सी लाख महीना मिलेगा। इतना पैसा तो...।”

“अब उठ जाओ वाडेकर। मेरा वक्त बहुत कीमती है। ये बात अपने दिमाग में बिठा लो कि मैं ड्रग्स के धंधा करने वालों से रिश्वत नहीं लेता। सच बात तो ये है कि मैं तुम्हें इस तरह उखाड़ देना चाहता हूं कि तुम दोबारा कहीं पर भी अपना धंधा ना जमा सको। मैंने तुम्हें सात दिन का वक्त जरूर दिया है, परंतु मैं तुम्हें इलाके से जाने नहीं दूंगा। मेरी निगाह हर वक्त तुम पर है।”

“क्या मतलब?”

“मैंने स्पष्ट रूप से कहा है कि तुम्हें इस लायक नहीं छोडूंगा कि तुम दोबारा ड्रग्स का धंधा कर सको।”

वाडेकर ने बेचैनी भरी नजरों से चंपानेरकर की आंखों में देखा।

चंपानेरकर की आंखों में दृढ़ता भरी थी।

“ऐसा क्यों?” उसके होंठों से निकला।

“मुझे ऊपर से ये ही आदेश मिला है कि तुम्हारी ऐसी हालत कर दी जाये कि तुम दोबारा धंधा खड़ा ना कर सको। देश के बच्चों का सत्यानाश कर रही है ड्रग्स। सरकार इस बात की पूरी कोशिश कर रही है कि ड्रग्स का कारोबार करने वालों को ऐसा कोई भी मौका ना दिया जाये कि वो दोबारा ड्रग्स का धंधा कर सके।”

“आपने कहा कि मुझे वक्त दिया है, परंतु इलाके से जाने भी नहीं दूंगा।” वाडेकर अजीब से स्वर में कह उठा।

ए.सी.पी. चंपानेरकर मुस्कराया। परंतु कहा कुछ नहीं।

एकाएक वाडेकर उठा और बिना कुछ कहे, बाहर निकल गया। वो खतरा महसूस करने लगा था।

☐☐☐

“पारिख।” राजू वाडेकर परेशान स्वर में कह उठा –“मुझे भारी गड़बड़ लग रही है। ए.सी.पी. शायद मेरा एनकाउंटर करना चाहता है।”

केतन पारिख चौंका।

“ये आप क्या कह रहे हैं?”

“मुझे ऐसा ही लगा कि...!”

“क्या कहा उसने?”

“वो कमिश्नर कहता है कि उसने मुझे सप्ताह का वक्त जरूर दिया है, परंतु मुझे जाने नहीं देगा। उसके आदमी मुझ पर नजर रख रहे हैं और वो कहता है कि मेरा ऐसा हाल कर देगा कि दोबारा मैं ड्रग्स का धंधा कहीं भी जाकर शुरू ना कर सकूं। उसने स्पष्ट कहा है कि सरकार की तरफ से उसे ड्रग्स के कारोबार को खत्म करने का आदेश मिला है।”

“क्या उसने कहा कि वो आपका एनकाउंटर करेगा?”

“नहीं, परन्तु उसकी बातों से मुझे लगा कि वो ऐसा कर सकता है।”

“मुझे लगता है कि आप खामख्वाह वहम पाल रहे हैं। ऐसा कुछ नहीं हैं।”

“मेरी बात कम ही गलत निकलती है पारिख...!”

“तो?”

दोनों एक-दूसरे को देखने लगे।

“ए.सी.पी. पीछे हटने वाला नहीं। वो मुझे अपनी बात का पक्का लगा।”

“ऐसा तो नहीं कि ऐसी बातें कहकर वो आपसे मोटे नोट वसूल करना चाहता हो?”

कुछ पल चुप रहकर वाडेकर कह उठा–

“ऐसा नहीं लगता मुझे।”

“आपको एक बार फिर कोशिश करनी चाहिये ए.सी.पी. को पटाने की।”

“वो पटेगा नहीं...।” वाडेकर ने इंकार में सिर हिलाया।

“मोटी रकम के साथ कोशिश करें, नहीं तो कुछ और सोचते हैं।” पारिख बोला।

“कुछ और क्या?”

“साफ कर देंगे कमिश्नर को...।”

“उसने कहा है कि वो मुझ पर नजर रखवा रहा है।” वाडेकर तेज स्वर में बोला।

“ये बात वो झूठ भी तो कह सकता है।”

वाडेकर ने पारिख को देखा, फिर गंभीर स्वर में कह उठा–

“तुम चेक करो कि क्या मुझ पर नजर रखी जा रही है?” वाडेकर ने कहा।

“ठीक है। मैं चेक करूंगा। परंतु मेरा सुझाव है कि कमिश्नर को खत्म कर दिया जाये।”

“इस बार ये करना आसान नहीं होगा। एक बार तो एक इंस्पेक्टर को हमने खत्म करवा दिया था, जो हमारे पीछे हाथ धोकर पड़ गया था। परंतु ये कमिश्नर खेला-खाया, सतर्क इंसान लगता है। इन हालातों में वो जानता है कि मैं उसे मारने की सोच सकता हूँ...।”

“ये काम हमने तो नहीं करना, हमारे आदमियों ने करना है। उसे कोई भी मार सकता है। अगर आप इस बारे में ज्यादा सतर्क रहना चाहते हैं तो ये काम हम बाहर के किसी आदमी से करा सकते हैं।” केतन पारिख ने गंभीर स्वर में कहा।

वाडेकर होंठ भींचे सोच में डूब गया।

“मेरी राय है कि आप एक बार पचास लाख के साय कमिश्नर के पास जाईये जरूर। शायाद वो मान जाये।”

☐☐☐

अगले दिन बड़े ब्रीफकेस के साथ वाडेकर ए.सी.पी. चंपानेरकर के ऑफिस में पहुंचा। दस मिनट उसे इंतजार करना पड़ा फिर वो भीतर जाकर चंपानेरकर से मिला। चंपानेरकर ने मुस्कराकर उसे देखा, फिर ब्रीफकेस पर नजर मारकर कहा–

“लगता है इस बार बड़ी रकम लाये हो। ब्रीफकेस बड़ा है।”

वाडेकर ने ब्रीफकेस टेबल पर रखा और मुस्कराकर बोला–

“पचास लाख है। इसके अलावा बीस लाख हफ्ते आपको मिलते रहेंगे।”

ए.सी.पी. चंपानेरकर ने शांत भाव से वाडेकर से कहा–

“बैठो...।”

वाडेकर बैठा और बोला–

“हम लोग तो एक ही तालाब की मछली हैं। हमें मिलकर रहना...!”

“मैंने तो सोचा था कि तुम मेरी हत्या करने की योजना बना रहे होंगे। चंपानेरकर ने कहा।

“क्या बात करते हैं साहब!” वाडेकर जल्दी से कह उठा –“ड्रग्स का काम जरूर करता हूं, परंतु ये सब काम नहीं करता। पुलिस वालों को मैं इज्जत की नजरों से देखता हूं। पुलिस वाले तो मेरे लिए भगवान हैं।”

“तुम क्यों अपना वक्त खराब कर रहे हो वाडेकर?” ए.सी.पी. चंपानेरकर शांत स्वर में बोला।

वाडेकर की निगाह चंपानेरकर पर जा टिकी।

“मैं रिश्वत नहीं लूंगा। तुम्हारे पांव उखाड़ दूंगा। तुम्हें ड्रग्स का धंधा नहीं करने दूंगा। अपने इलाके में भी नहीं, दूसरे इलाके में भी नहीं...।”

वाडेकर के होंठ कट गये।

“मैंने तो सोचा था कि तुमने अपना बिस्तरा बांध लिया होगा। आज तीसरा दिन है। परंतु तुमने तो कोई भी तैयारी नहीं की।”

“और मैं सोच रहा था कमिश्नर कि तुम मजाक कर रहे हो मेरे से। रकम बढ़वाना चाहते हो।” वाडेकर ने होंठ खोले।

“गलत मत सोचो। मैंने तुमसे जो भी कहा है, वो सच है।” चंपानेरकर ने उसकी आंखों में देखा।

“अब मैं तुम्हारी बात पर गंभीरता से सोचूंगा।” वाडेकर बोला।

“मेरी हत्या करवाओगे?”

“नहीं।” वाडेकर मुस्कराया –“ऐसे घटिया काम में नहीं करता।”

“तुम्हारे लिए हत्यारे का काम करो वाले तुम्हारे दो आदमी आलम और मेहरचंद हैं ना?”

“सब कुछ पता कर रखा है आपने...।” वाडेकर के चेहरे पर मुस्कान थी, परंतु आंखों में तीखे भाव।

“आलम और मेहरचंद तुम्हें ढूंढे से भी नहीं मिलेंगे।”

वाडेकर चौंका।

“क्या मतलब?”

चंपानेरकर मुस्कराया।

“कहां हैं वो? क्या किया है तुमने उनके साथ?”

“लगता है तुम्हें आज तक पुलिस वाला नहीं मिला। सब नोट लेने वाले ही मिले हैं।”

वाडेकर ने गहरी सांस लेकर कहा–

“मेहरचंद और आलम कहां हैं।”

“पता नहीं। लेकिन वो तुम्हें नहीं मिलेंगे। ऐसे में तुम हत्या बाहर के लोगों से करवाओगे।”

“मैं पुलिस वालों की जान नहीं लेता।”

ए.सी.पी. चंपानेरकर शांत भाव से उसे देखता रहा।

वाडेकर बेचैनी भरे अंदाज में बैठा रहा।

“अपने बारे में सोचो वाडेकर! मैंने तुम्हें हर तरफ से घेर लिया। तुम कैसे बचोगे मुझसे?”

वाडेकर को महसूस होने लगा कि ए.सी.पी. चंपानेरकर बहुत खतरनाक है।

“जो ढंग मैं तुम पर इस्तेमाल कर रहा हूं, वो पहले भी बहुतों पर इस्तेमाल कर चुका हूं, परंतु कोई बचा नहीं मुझसे। अब तुम्हारी बारी है। मेरी नजर तुम पर है कि अब तुम क्या करते हो। तुम्हें गिरफ्तार करके जेल में डालना मेरे लिए मामूली बात है। तुम्हें अभी बंद कर सकता हूं और तुम पर ऐसी धाराएं लगा दूंगा कि सारी जिंदगी जेल में ही रहोगे। परंतु मैं तुम जैसे लोगों को जेल में डालने के काम नहीं करता। तुम लोग जेल को ही अपना ठिकाना बनाकर वहीं में अपना काम शुरू...!”

“मेरे साथ क्या करना चाहते हो तुम?”

“तुम्हारा सत्यानाश करूंगा, ताकि तुम दोबारा ड्रग्स का धंधा ना कर सको या फिर...!”

“क्या या?” वाडेकर की आंखें सिकुड़ी।

“ये तुम पर निर्भर होगा कि तुम अपना एनकाउंटर कराना चाहोगे या नहीं...।” चंपानेरकर मुस्कराया।

वाडेकर का दिल धड़क उठा।

तो उसका ख्याल ठीक था कि उसका एनकाउंटर हो सकता है।

“मेरी सलाह मानो तो अपनी सारी दौलत समेटकर तैयारी कर लो यहां से निकल जाने की...।”

“तुम मुझे धमकी दे रहे हो?”

“ये धमकी अधिकारिक तौर पर है। तुम्हें खुश होना चाहिये कि मैंने स्पष्ट तौर पर सारे हालात तुम्हारे सामने रख दिए हैं। फैसला खुद कर लो।”

वाडेकर उठा। टेबल पर रखा ब्रीफकेस पकड़ लिया।

दोनों की नजरें मिली।

“तो कमिश्नर साहब!” वाडेकर शांत स्वर में कह उठा –“अब हममें बातचीत का दौर खत्म हो गया।”

ए.सी.पी. चंपानेरकर मुस्कराया।

“तो ये तय रहा कि हम दोस्त नहीं बन सकते।”

“कभी नहीं...।” चंपानेरकर ने स्पष्ट कहा।

ब्रीफकेस थामे वाडेकर पलटकर बाहर निकलता चला गया।

☐☐☐

“पाटिल, हालात खराब हो गये हैं।” राजू वाडेकर ने गंभीर स्वर में कहा –“चंपानेरकर किसी भी तरह से मानने को तैयार नहीं है – और एनकाउंटर की बात उसने कह दी है। यही मेरा अंदेशा था कि वो मुझे खत्म करेगा।”

“अजीब पुलिस वाला है वो...।” पारिख बड़बड़ा उठा।

“ये मामला नहीं सुलझ सकता।” वाडेकर ने इंकार में सिर हिलाया।

“तो?”

“ए.सी.पी. ने मेहरचंद और आलम को भी गायब कर दिया है। तुमने देखा उन दोनों को?”

“कल देखा था, ये बात क्या ए.सी.पी. ने कही?”

“हां...! वो जानता है कि ये दोनों मेरे लिए हत्या करने का काम करते हैं। वो इस बारे में सतर्क है कि मैं उसकी हत्या करा सकता हूं...।”

“ऐसा है तो उसने अभी तक आपको आजाद क्यों रखा है?”

“मैं नहीं जानता। वो कोई चाल खेल रहा है।”

“कैसी चाल?”

“मुझे क्या पता?” वाडेकर झल्लाया –“मेहरचंद और आलम को शायद उसने शूट कर दिया हो।”

“वो दोनों आसानी से पकड़ में आने वाले नहीं...।” पारिख बोला।

“कल वो दोनों मुझसे मिले थे। नोटों की जरूरत थी उन्हें। मैंने दिए। तुम पता करो कि वो दोनों कहां हैं।”

“कमिश्नर उनके बारे में झूठ बोलकर अपनी कच्ची नहीं करायेगा।” पारिख गंभीर था।

चंद क्षण वहां खामोशी रही।

“अब आपने क्या सोचा?”

“ए.सी.पी. चंपानेरकर, हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गया है। पैसा लेने को तैयार नहीं। पचास लाख को उसने छुआ तक नहीं। मेरा धंधा यहां से उखड़ गया तो मुझे बहुत बड़ी रकम का नुकसान हो जायेगा। नई जगह धंधा जमाने में कई साल लग जायेंगे।”

“वाडेकर साहब आप तो हिम्मत हारने वाले नहीं हैं। छोटी-छोटी मुसीबतें तो आती ही रहती हैं।”

वाडेकर ने पारिख को देखा।

“एक पुलिस वाले की तो बात है। साफ कर देते हैं। सब ठीक हो जायेगा।”

“मेहरचंद और आलम तो...!”

“बाहर के लोग क्या कम हैं इस काम के लिए। फोन करके कमिश्नर की हत्या का आर्डर दे देते हैं। रकम चुपचाप उनके पास पहुंचा देंगे कि उन्हें पता भी नहीं चलेगा, काम कौन करवा रहा है उनसे। ए.सी.पी. साफ तो हमारी परेशानी दूर...।”

पारिख का मोबाईल बजने लगा।

“हैलो।” उसने बात की।

“हमने दो आदमियों को पकड़ा है। इसी ठिकाने पर नजर रख रहे थे। वो पुलिस वाले हैं। उनकी जेब में आई-कार्ड हमने देखा है।” उधर से आवाज कानों में पड़ी –“क्या करें इनका?”

“रुको...।” कहकर पारिख ने इस बारे में वाडेकर को बताया।

वाडेकर ने कहा कि उन्हें भीतर ले आओ।

ये ही बात कहकर पारिख ने फोन बंद किया तो वाडेकर गंभीर स्वर में बोला– “इससे ये तो साबित हो गया कि कमिश्नर मुझसे झूठ नहीं बोल रहा।”

पारिख के चेहरे पर गंभीरता नजर आने लगी थी।

“वो कमिश्नर सच में कुछ करने का इरादा रखता है।” पारिख बोला।

वाडेकर के होंठ भिंच गये।

“इन पुलिस वालों का क्या करना है?”

“पूछताछ करूंगा। अगर पुलिस वालों को कुछ किया तो कमिश्नर मुझे नहीं छोड़ने वाला।” वाडेकर गुर्रा उठा।

पारिख के दांत भिंच गये।

“मेरे ख्याल में कमिश्नर को खत्म कर देना ही ठीक रहेगा पारिख। जब तक जिंदा रहेगा, मुझे परेशान करता रहेगा।”

“इन हालातों में हमारे पास यही एक बढ़िया रास्ता है।” पारिख ने कहा।

चार आदमी उन दो पुलिस वालों को वहां छोड़ गये।

दोनों सादे कपड़ों में थे। पूछने पर पता चला कि एक हवलदार है और एक कांस्टेबल। वाडेकर ने उन दोनों के आई कार्ड देखे और कार्डों को उनकी जेबों में ठूंसता कह उठा– “किसके कहने पर तुम दोनों मेरे ठिकाने पर नजर आ रहे थे?”

“ए.सी.पी. साहब का आर्डर है।”

“नाम क्या है?

“चंपानेरकर साहब...।”

वाडेकर के चेहरे पर कठोरता आ गई।

“तुम दोनों को डर नहीं लगता कि मैंने पकड़ लिया तो जान से मार दूंगा...।”

दोनों के चेहरों पर घबराहट आ ठहरी।

“मुझे भूल गये या मेरे बारे में कुछ जानते नहीं हो...।”

“ह...हमें आर्डर मिला तो हम ड्यूटी करने आ गये। हम तो...।”

“अब ए.सी.पी. चंपानेरकर तुम दोनों को कैसे बचायेगा? मैं तुम लोगों को छोड़ने वाला नहीं।”

“हमारा कोई कसूर नहीं, ड्यूटी तो करनी ही पड़ती है हमें।” दूसरा कह उठा –“हम...!”

“क्या ड्यूटी थी तुम्हारी?”

“आप पर नजर रखना और हर चार घंटे बाद फोन पर ए.सी.पी. साहब को रिपोर्ट देना कि आप क्या कर रहे हैं और क्या-क्या किया?”

“कब से नजर रखे हो मुझ पर?”

“परसों से...।”

“आलम और मेहरचंद कहां हैं?”

“हमें क्या पता, हम तो आप पर नजर रख रहे हैं।”

“ए.सी.पी. ने उन दोनों को उठवा लिया है या उन्हें शूट करके कहीं फेंक दिया है?” वाडेकर गुर्राया।

दोनों पुलिस वालों ने एक-दूसरे को देखा। फिर एक ने कहा– “हमें इस बारे में कुछ भी नहीं मालूम...।”

वाडेकर ने पारिख को देखा।

पारिख फौरन सतर्क हो गया।

तभी वाडेकर का मोबाईल बजने लगा।

“इन दोनों को खत्म कर दो पारिख...।” मोबाईल निकालता वाडेकर कठोर स्वर में बोला –“इससे ए.सी.पी. को अक्ल आयेगी।”

“हमें मत मारो...।”

“हमने तुम्हारा बिगाड़ा ही क्या है ?”

दोनों पुलिस वाले घबरा उठे।

“इन दोनों की लाशें ए.सी.पी. को नहीं मिलनी चाहिये।”

कहने के साथ ही वाडेकर ने मोबाईल का कॉलिंग स्विच दबाया और फोन को कान से लगाता कह उठा –“हैलो...।”

दोनों पुलिस वालों के चेहरे भय से पीले दिखने लगे।

पारिख ने रिवॉल्वर निकाल ली थी।

“मेहमानों का ख्याल रखना वाडेकर।” ए.सी.पी. चंपानेरकर की आवाज वाडेकर के कानों में पड़ी –“चाय-कॉफी के साथ बिस्कुट भी खिलाकर भेजना दोनों को वापस। मुझे नहीं मालूम था कि तुम मेहमाननवाज भी हो।”

वाडेकर अचकचा उठा।

“सुना तुमने...।”

“हाँ...।” खुद को संभाला वाडेकर ने –“तुम मुझसे दोस्ती क्यों नहीं कर लेते...?”

“तुम्हारी गर्दन पर पुलिस की तलवार लटकी है –उसे पहचानो।” चंपानेरकर का शांत स्वर उसके कानों में पड़ा –“तुम्हारा अंत मैं देख रहा हूं। पांच मिनट के भीतर उन दोनों पुलिस वालों को बाहर भेज दो।” इसके साथ ही फोन बंद हो गया।

होंठ भींचे वाडेकर ने फोन कान से हटाया और जेब में डालता कह उठा– “तुम दोनों जा सकते हो...।”

दोनों पुलिस वालों ने अविश्वास भरी नजरों से वाडेकर को देखा।

पारिख की आंखें सिकुड़ी। उसने रिवॉल्वर वाला हाथ नीचे कर लिया।

“जाओ, दफा हो जाओ...।” वाडेकर गुर्रा उठा।

वो दोनों पलटे और तेज-तेज कदमों से बाहर निकलते चले गये।

“क्या हुआ?” पारिख ने आंखें सिकोड़े पूछा –“उन्हें जाने क्यों दिया?”

“ए.सी.पी. चंपानेरकर का फोन था। उसे मालूम था कि ये दोनों मेरे पास हैं।”

“ये कैसे हो सकता है?”

“इसका एक ही मतलब है कि दो से ज्यादा आदमी मुझ पर नजर रख रहे हैं।” वाडेकर ने दांत भींचकर कहा।

“ओह...! आखिर वो चाहता क्या है?”

“वो चाहता है कि मैं धंधा बंद करके यहां से चला जाऊं। दूसरी तरफ वो ये भी कहता है कि जाने नहीं देगा मुझे। मेरा एनकाउंटर करेगा।”

“तो ए.सी.पी. ने आपको घेर लिया है।” पारिख ने कहा।

“शायद...।”

“हम सोच क्या रहे हैं, हमें फौरन ए.सी.पी. को खत्म करा देना चाहिये...।”

“वो सतर्क है। वो जानता है कि मैं ऐसा कर सकता हूं। परंतु ये काम हमें करना ही होगा।” वाडेकर का चेहरा दरिंदगी से भरने लगा था –“गुल्लू को फोन लगाओ। कीमत उसकी पसन्द की, लेकिन आज ए.सी.पी. खत्म हो जाना चाहिये।”

पारिख ने सिर हिलाया और मोबाईल निकालकर नंबर मिलाने लगा।

वाडेकर सोच रहा था कि चंपानरकर बच्चा नहीं है, घिसा हुआ पुलिस वाला है। उसके गिर्द जाने कब से जाल बुन रहा है। वो आसानी से मौत के जाल में फंसने वाला नहीं।

तभी फोन पर बात करके पारिख ने फोन बंद करके कहा–

“गुल्लू कहता है शाम तक काम हो जायेगा। 25 लाख भिजवाने को कहा है उसने।”

“भिजवा दे...।” वाडेकर ने सोच भरे स्वर में कहा।

पारिख बाहर निकल गया।

वाडेकर गुस्से से भरे अंदाज में सोचों में डूबता रहा।

दस मिनट बाद पारिख भीतर आया और बोला–

“पांडे के हाथों 25 लाख भिजवा दिया है गुल्लू को।”

वाडेकर सोचों से बाहर निकलकर पारिख से कह उठा–

“पारिख! हमें दूसरी तैयारी भी कर लेनी चाहिये...।”

“दूसरी तैयारी?”

“अगर गुल्लू ए.सी.पी. को उड़ाने में सफल नहीं हो सका तो क्या होगा?” वाडेकर बोला।

“तो...तो ए.सी.पी. आपको छोड़ने वाला नहीं।” पारिख बेचैनी भरे स्वर में कह उठा।

“हमें ये भी सोचना चाहिये कि गुल्लू असफल हो सकता है।”

दोनों कई पलों तक एक-दूसरे को देखते रहे।

“दूसरी तैयारी से आपका मतलब क्या है?”

“माल समेटो। तैयारी कर लो। अगर गुल्लू असफल रहा तो हमें खिसक जाना होगा।”

“आप डरकर भाग रहे हैं।”

“बेवकूफ, वो पुलिस वाला है। उसके हाथों में कानून की ताकत है और वो मुझे एनकाउंटर की धमकी दे चुका है। पुलिस वालों से एक हद तक ही पंगा लिया जा सकता है। वो हरामी बिकने को भी तैयार नहीं। गुल्लू के हाथों अगर वो बच जाता है तो सीधा मुझे खत्म करने आयेगा। वो मेरा काम कर देगा। आसानी से मुझे मार देगा। ऐसे में हमें तैयारी कर लेनी चाहिये भाग जाने की। गोदाम में जितनी ड्रग्स पड़ी है, वो सब टैम्पो में लदवा ले। मैं अपनी दौलत समेटता हूं। इस वक्त कैश रकम मेरे पास ज्यादा है। दो दिन बाद पाकिस्तान से पार्टी आने वाली है, पैसा उसे देना है। परंतु अब सारे काम रोकने पड़ेंगे।”

“जाना पड़ा तो कहां जायेंगे?”

“सूरत वाले ठिकाने पर। मुम्बई से निकल चलना होगा। शायद ये सब ना ही हो, गुल्लू ए.सी.पी. को खत्म कर ही दे। परंतु हमें सावधानी के नाते अपनी तैयारी कर लेनी चाहिये। बुरा वक्त हमेशा दबे पांव ही आता है।”

“मैं ड्रग्स को पैक कराकर टैम्पो में डलवाता हूं...।” पारिख ने वहां से जाना चाहा।

“सुन...।” वाडेकर ने टोका –“अपने आदमियों को पता ना चले कि हम यहां से खिसकने की सोच रहे हैं। उन्हें ये ही कहना है कि कहीं से मोटा आर्डर आया है। सारी ड्रग्स वहीं भिजवाई जा रही है।”

“समझ गया। मैं सब संभाल लूंगा।” पारिख ने गंभीर स्वर में कहा और बाहर निकल गया।

वाडेकर परेशान था। चेहरे पर गुस्सा था।

“हरामजादा ए.सी.पी....!”

☐☐☐

गुल्लू की उम्र 35 बरस थी और पेशेवर हत्यारा था वो।

लंबा कद, नुकीली नाक, धंसी आंखें और सिर के बाल छोटे। होंठ पतले थे और हमेशा ही बंद रहते थे। वो बहुत कम बोलता था। उसे देखकर सामने वाला अवश्य उससे बचकर निकल जाना चाहेगा। वो हमेशा अकेला ही काम करता था। जब भी किसी की हत्या करनी होती तो बहुत आराम के साथ अपने शिकार के बारे में जानकारी हासिल करता कि वो कब, कहां-कहां जाता है और फिर किसी मुनासिब मौके पर शिकार को घेरकर उसका काम-तमाम कर देता। समझदारी से वो हर काम करता था।

शाम के चार बजे गुल्लू पुलिस हेडक्वार्टर के सामने टैक्सी से उतरा और पैसे देकर हेडक्वार्टर के भीतर प्रवेश करता चला गया। दस मिनट बाद ही वो ए.सी.पी. चंपानेरकर के ऑफिस में प्रवेश कर रहा था।

भीतर प्रवेश करते ही गुल्लू ठिठका।

चंपानेरकर दो पुलिस वालों से बातें कर रहा था।

गुल्लू को देखते ही चंपानेरकर ने उन दोनों पुलिस वालों से कहा–

“तुम लोग अभी जाओ, बाद में बुलाऊंगा।”

दोनों पुलिस वाले बाहर निकल गये।

“आओ गुल्लू...!” ए.सी.पी. चंपानेरकर की निगाह उसके चेहरे पर ठहर गईं –“बैठो।”

गुल्लू आगे बढ़कर कुर्सी पर बैठा और बोला–

“आपका ख्याल सही निकला। वाडेकर ने मुझे 25 लाख भिजवाये हैं, आपकी हत्या के लिए...।”

“ये तो होना ही था। क्योंकि मेहरचंद और आलम को मैंने गायब कर दिया है। वाडेकर उन दोनों से ही हत्या करवाने का काम लेता था। उनके बाद तुम ही थे, जिससे वो हत्या करवायेगा।” ए.सी.पी. ने गंभीर स्वर में कहा –“25 लाख में सौदा हुआ?”

“हां...।”

“और पैसे भी मिल गये?”

“हां। सौदे में ये बात शामिल है कि तुम्हारी हत्या शाम तक हो जानी चाहिये...।”

“चिंता मत करो, शाम अभी बहुत दूर है।”

“तुमने मुझे कहा था कि वाडेकर ऐसा कुछ करने को कहे तो मुझे बताना। जितने में सौदा होगा, उतनी ही रकम तुम मुझे गद्दारी करने की एवज में दोगे। अब मुझे पच्चीस लाख तुम दोगे।”

“एक घंटे में पैसा तुम तक पहुंच जायेगा। तुम कहां पैसा लेना चाहोगे?''

“अपने ठिकाने परे। मैं वहीं जा रहा हूं...।”

“ठिकाने पर पहुंचो। अब से एक घंटे बाद पैसा देने, तुम्हारे पास कोई आयेगा।”

गुल्लू उठा, तभी उसका मोबाईल बजा।

“हैलो...।” गुल्लू ने बात की।

“काम अभी हुआ कि नहीं?” उधर से पारिख की आवाज आई।

“आज काम हो जायेगा। ए.सी.पी. मर जायेगा।” कहकर गुल्लू ने फोन बंद कर दिया।

चंपानेरकर शांत-सा गुल्लू को देख रहा था।

“तुम्हारे मरने की खबर सुनने के लिए वाडेकर बेचैन है। तुमने ऐसा क्या कर दिया?”

“मैं उसका धंधा बंद कराने जा रहा हूं।” चंपानेरकर ने कहा।

“इससे मुझे कोई मतलब नहीं... । तुम एक घंटे तक 25 लाख मुझे जरूर भिजवा देना। हेरा-फेरी मत करना।”

गुल्लू बाहर चला गया।

चंपानेकर ने मोबाईल निकाला और नंबर मिलाकर फोन कान से लगा लिया।

“हैलो...।” उधर से देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।

“गुल्लू को पच्चीस लाख दे दो।”

“इसका मतलब मामला ठीक लग रहा है।” देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।

“हां...। उसे पैसा पहुंचाने में देर मत करना। वो खतरनाक है। मैंने कहा है एक घंटे में उस तक पैसा पहुंच जायेगा। वो अपने ठिकाने पर है।”

“समझो पहुंच गया। अब तुमने क्या करना है, तुम...!”

“वो मैं सब संभाल लूंगा।” चंपानेरकर ने कहा और फोन बंद कर दिया।

चंपानेरकर के चेहरे पर सोच के भाव थे।

कुछ पल बीते कि उसका मोबाईल बजा।

“हैलो...।”

“सर! वाडेकर गोदाम में रखी ड्रग्स टैम्पो में लदवा रहा है। वो शायद गोदाम खाली करने की तैयारी में लगा है।”

चंपानेरकर समझ गया कि वाडेकर हर तरफ से अपनी तैयारी कर रहा है। गुल्लू ने उसे मार दिया तो ठीक, नहीं तो वो अपना सब कुछ समेटकर खिसक जायेगा। वाडेकर चालाकी से काम ले रहा था।

“नजर रखो और हर हरकत की खबर मुझे देते रहो।”

☐☐☐

गुल्लू एक तंग बत्ती के छोटे से कमरे में मौजूद था। कमरे में एक फोल्डिंग बेड बिछा हुआ था और एक मेज-कुर्सी थी। कमरे का दरवाजा खुला था। इन दिनों ये ही उसका ठिकाना था। उसका परमानेंट ठिकाना कोई नहीं था। अक्सर वो जगह बदलता रहता था। पुलिस से और अपने दुश्मनों से उसे सतर्क रहना आता था। चार महीनों से वो इसी ठिकाने पर टिका हुआ था। परंतु अब वो जानता था कि ठिकाना बदलने का वक्त आ गया है। 25 लाख उसे वाडेकर का आदमी दे गया था कि वो ए.सी.पी. चंपानेरकर की हत्या कर दे और अब 25 लाख चंपानेरकर उसके पास भिजवा रहा था।

पचास लाख के साथ कुछ वक्त के लिए मुम्बई से निकल जाने की सोच लिया था उसने। वो नहीं चाहता था कि वाडेकर और पुलिस के मामले के बीच उसे कोई नुकसान हो जाये। अगले छः महीनों में मामला ठंडा हो जायेगा तो, वो तब आराम से वापस आ सकता है। इसी पल दरवाजे पर आहट हुई।

फोल्डिंग पर लेटे गुल्लू का हाथ तकिये के नीचे मौजूद रिवॉल्वर पर जा टिका। नजरें दरवाजे पर जा टिकी। जहां देवराज चौहान एक ब्रीफकेस थामे खड़ा था। रिवॉल्वर थामे गुल्लू उठ खड़ा हुआ।

दोनों ने एक-दूसरे को देखा।

“कमिश्नर ने पच्चीस लाख भिजवाया है।”

“नीचे रख दो।”

देवराज चौहान ने वहीं दरवाजे के पास ब्रीफकेस रखा और बोला–

“चेक कर लो।” देवराज चौहान बोला।

“जरूरत नहीं।” गुल्लू ने सख्त स्वर में कहा।

देवराज चौहान पलटकर वहां से चला गया।

गुल्लू ने ब्रीफकेस उठाकर उसे खोला। पच्चीस लाख पूरे थे।

☐☐☐

“क्या हो रहा है!” पारिख झल्लाकर बोला –“गुल्लू का नम्बर नहीं मिल रहा।”

“ये कैसे हो सकता है।” वाडेकर बोला।

“स्विच ऑफ आ रहा है।”

वाडेकर के होंठ भिंच गये।

दोनों इस वक्त ठिकाने के एक कमरे में मौजूद थे। सामने ही चार सूटकेस पैक किए रखे थे। जिसमें कि वाडेकर की दौलत कैश में, हीरे और सोना मौजूद था। पिछले कई घंटों से वो सब कुछ समेटने में लगा था और अब जाकर फारिग हुआ था। उसे गुल्लू से इस खबर का इंतजार था कि ए.सी.पी. चंपानेरकर का काम कर दिया है उसने। गुल्लू अगर चंपानेरकर को मार देता है तो यहीं रहकर उसे पहले का धंधा करना था। अगर वो असफल रहता है। तो उसने अपनी दौलत के साथ खिसक जाना था। वाडेकर इस बात पर यकीन करता था कि पुलिस वालों के साथ लंबे झगड़े में नहीं उलझना चाहिये।

“गुल्लू का फोन ना मिलना गड़बड़ की तरफ इशारा कर रहा है पारिख...!”

“कैसी गड़बड़?”

“कहीं कमिश्नर ने गुल्लू का तो सफाया नहीं कर दिया।”

पारिख वाडेकर को देखने लगा, फिर बोला– “अगर ऐसा हो भी गया तो गुल्लू के फोन की घंटी तो बजनी चाहिये। वो भी नहीं बज...!”

“हो सकता है कमिश्नर की चलाई गोली जेब में पड़े मोबाईल पर लगी हो, फिर उसके दिल में जा धंसी हो...।”

“गुल्लू खतरनाक है। वो असफल नहीं होता। उसे मार पाना तो जरा भी आसान नहीं है।” पारिख बोला।

“मेरे ख्याल में हमें खिसक जाना चाहिये...।”

“आप ज्यादा घबरा रहे...!”

“मैं घबरा नहीं रहा, सतर्कता इस्तेमाल कर रहा हूं। अगर सब ठीक रहा तो वापस लौट आयेंगे।”

दोनों की नजरें मिली।

“मैं फिर उसका नंबर मिलाकर देखता हूं।” कहकर पारिख पुनः गुल्लू का नंबर मिलाने लगा।

परंतु नंबर नहीं लगा। उधर से स्विच ऑफ आ रहा था।

“हमें नहीं पता कि गुल्लू के साथ क्या हुआ। परंतु कुछ भी होने पर ए.सी.पी. समझ जायेगा कि मैंने उसे, उसकी हत्या करने को भेजा है। अगर वो जिंदा बच गया तो वो सीधा यहीं आयेगा।” वाडेकर बोला।

“ये बात तो है।” पारिख बेचैन हुआ।

“ड्रग्स से भरा टैम्पो कहां पर है?”

“उसे मैंने सावधानी के नाते जवाहर रोड पर खड़ा करवा दिया है।”

“टैम्पो वाले से कहो कि सूरत पहुंचे। सूरत में कहां जाना है, उसे फोन पर बता देंगे। टैम्पो वाला भरोसे का है?”

“पुराना आदमी है हमारा।”

“गुड। उसे निकल चलने को कहो और हम भी इन सूटकेसों के साथ...!”

तभी उनके कानों में दौड़ते कदमों की आवाजें पड़ीं।

दोनों चौंके।

अगले ही पल हाथों में रिवॉल्वरें दिखने लगी।

“कोई हमारी तरफ आ रहा है।” पारिख गुर्राकर कह उठा।

तभी दो आदमियों ने हांफते हए कमरे में प्रवेश किया। वो उनके ही आदमी थे।

“बाहर...बाहर पुलिस ने घेरा डाल लिया है।” एक ने उखड़ी सांसों के साथ कहा।

वाडेकर के पांवों तले से जमीन निकल गई।

ए.सी.पी. चंपानेरकर का चेहरा उसकी आंखों के सामने नाच उठा।

पारिख ने हड़बड़ाकर वाडेकर को देखा।

“खेल खत्म...।” वाडेकर गुर्रा उठा –“अब समझ में आया कि गुल्लू का फोन क्यों नहीं मिल रहा था।”

“ए.सी.पी. ने गुल्लू को मार दिया होगा। अब हम क्या करें?” पारिख गुस्से से चीख उठा।

वाडेकर ने उन दोनों आदमियों से पूछा–

“कितनी पुलिस है बाहर?”

“बीस-तीस पुलिस वाले हैं। सब हथियारबंद...।”

“जाओ तुम दोनों।” वाडेकर ने शब्दों को चबाकर कहा –“पुलिस पर गोलियां नहीं चलाएं। सबसे कह दो।”

वो दोनों भागते हुए वापस चले गये।

“हमें पुलिस का मुकाबला करना चाहिये।” पारिख ने कहा।

“बेवकूफ, अगर पुलिस टीम पर गोलियां चला दीं तो वो हर चुन-चुनकर मार देंगे। और पुलिस आ जायेगी। जब तक जान सलामत है, तब तक आशा रखो कि सब ठीक हो जायेगा।” वाडेकर ने गुस्से से झल्लाए स्वर में कहा।

“चंपानेरकर आपको नहीं छोड़ेगा।”

वाडेकर के दांत भिंच गये ।

“हमें गुप्त रास्ते से निकल चलना चाहिये।” पारिख ने बेचैनी से कहा।

“नहीं जा सकते।”

“क्यों?”

“इन चारों सूटकेसों में करोड़ों की दौलत है। मैं इन्हें छोड़कर नहीं जा सकता।”

“एक सूटकेस आप उठाईये, दूसरा मैं उठाता हूं...और निकल चलते हैं।” पारिख ने जल्दी से कहा।

“और बाकी के दोनों सूटकेस?”

“उन्हें यहीं छोड़ना पड़ेगा।”

“दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा? ये मेरी जिंदगी भर की कमाई है। इसे मैं कैसे छोड़ सकता हूं...।”

पारिख तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ा।

“कहां जा रहे हो?”

पारिख ठिठका और पलटकर बोला– “मैं अभी आया...।”

दोनों की नजरें मिली।

वाडेकर की आंखों में खतरनाक चमक उभरी।

“जा रहे हो मुझे मुसीबत में छोड़कर...।” वाडेकर ने शांत स्वर में कहा।

“मुझे अपनी जान प्यारी है।”

वाडेकर ने रिवॉल्वर वाला हाथ उठाना चाहा कि पारिख ने उससे पहले ही रिवॉल्वर उस पर तान दी।

“ये सब नहीं चलेगा वाडेकर! मैंने तुम्हारी बहुत सेवा की है और अपने को बचाने की खातिर, मुझे यहां से जाना होगा, अगर तुमने जरा भी गड़बड़ की, मुझे रोकने की चेष्टा की तो मैं गोलियां चला दूंगा।”

वाडेकर का भी रिवॉल्वर वाला हाथ उठ चुका था।

दोनों एक-दूसरे पर रिवॉल्वर ताने, एक-दूसरे की आंखों में देख रहे थे।

वक्त ठहर-सा गया था कमरे में।

धांय-धांय...!

वाडेकर के रिवॉल्वर से एक के बाद एक दो गोलियां निकली और पारिख की छाती में जा धंसी।

पारिख के शरीर को जबर्दस्त झटका लगा और वो पीछे को जा गिरा। रिवॉल्वर उसके हाथ से छूट गई थी। गिरने के बाद वो हिला नहीं था। आंखें फटी-सी रह गई थीं। पलकें बंद करने का भी उसे वक्त ना मिल पाया था।

होठ भींचे वाडेकर ने रिवॉल्वर वाला हाथ नीचे किया और लटकर चारों सूटकेसों को देखा।

“ए.सी.पी. ने तो मेरे लिए मुसीबत खड़ी कर दी है।” वाडेकर बड़बड़ाया और व्याकुल भाव से कुर्सी पर आ बैठा।

गहरी शांति छाई हुई थी।

चंद मिनट बीते कि कमरे के बाहर आहटें महसूस की उसने।

वाडेकर की निगाह खुले दरवाजे पर जा टिकी।

फिर उसे दरवाजे पर दो गनें दिखाई दीं। किसी को भीतर झांकते पाया। वो पुलिस वाला था।

“पुलिस ने इस जगह को घेर लिया है। तुम्हारे आदमी हमार कब्जे में हैं। अपनी रिवॉल्वर गिरा दो।” झांकने वाले ने कठोर स्वर में कहा –“वरना हम इसी पल तुम्हें खत्म कर देंगे।”

वाडेकर ने कुर्सी पर बैठे-ही-बैठे रिवॉल्वर गिरा दी। चेहरा फीका पड़ गया था।

तभी गनें थामे दो पुलिस वाले भीतर आ गये। उसे निशाने पर लेकर इधर-उधर खड़े हो गये।

वाडेकर ने दोनों पर निगाह मारकर कहा– “ए.सी.पी. चंपानेरकर कहां है?”

“यहां...।” दरवाजे की तरफ से आवाज आई।

वाडेकर ने उधर देखा।

ए.सी.पी. चंपानेरकर दरवाजे पर आ खड़ा हुआ था। हाथ में रिवॉल्वर दबी थी।

वाडेकर ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी, वो कुर्सी पर ही बैठा रहा।

चंपानेरकर ने कमरे की स्थिति का जायजा लिया।

“इसे क्यों मारा?” चंपानेरकर का इशारा पारिख की लाश की तरफ था।

“पुलिस का घेरा पड़ने की सुनकर, ये मुझे छोड़कर भाग जाना चाहता था।” वाडेकर उठ खड़ा हुआ।

“मुसीबत में सब साथ छोड़ देते हैं।” चंपानेरकर मुस्कराया।

दोनों पुलिस वाले वाडेकर पर गनें ताने सावधान खड़े थे।

चंपानेरकर कमरे में आ गया। सूटकेसों को देखकर कह उठा–

“तो तुम यहां से भाग रहे थे। इन सूटकेसों में दौलत भर रखी होगी।”

वाडेकर ने होंठ भींच लिए।

“कोई भी एक सूटकेस खोलो।” चंपानेरकर ने एक पुलिस वाले से कहा।

पुलिस वाला सूटकेसों की तरफ बढ़ गया।

दूसरा वाडेकर पर गन थामे खड़ा रहा।

“तुमने मुझे सात दिन का वक्त दिया था।”

“सामान्य स्थिति में...।”

“स्थिति अब भी सामान्य है।” वाडेकर ने बेचैनी भरे स्वर में कहा।

“नहीं, अब कुछ भी सामान्य नहीं है।” चंपानेरकर ने सिर हिलाकर कहा –“तुमने गुल्लू को मेरी जान लेने को भेजा...।”

वाडेकर जानता था कि कमिश्नर ये ही कहेगा।

“मुझे नहीं पता था कि पारिख क्या कर रहा है। मुझसे पूछे बिना इसने गुल्लू से तुम्हें मारने को कह दिया था। थोड़ी देर पहले ही मुझे ये पता चला...तो मैं पारिख को गुस्सा हुआ कि उसने ऐसा क्यों किया?”

“सच?” चंपानेकर के होंठ सिकुड़े।

“कसम से...!”

“इसका मतलब तुम अपने आदमियों को ठीक से संभाल नहीं पाते। वो अपनी मनमानी करते रहते हैं।”

“गुल्लू वाला मामला पारिख ने ही खड़ा किया, मुझे जानकारी नहीं थी।” वाडेकर बेचैन-सा कह उठा।

“जो भी हो, गुल्लू तुम्हारे आदमी के कहने पर ही मुझे मारने आया था और अब मैं तुम्हारा एनकाउंटर करने जा रहा हूँ। ये बात तुम्हें पहले ही कह दी थी कि मैं तुम्हें छोड़ने वाला नहीं, अब तो...!”

“सर, ये देखिए...।”

ए.सी.पी. चंपानेरकर की गर्दन घूमी।

एक सूटकेस खुला पड़ा था सामने। सूटकेस के आधे हिस्से में हीरे-जवाहरात ठूंसे रखे थे और बाकी आधे हिस्से में 1000 के नोटों की गड्डियां भरी पड़ी थी।

वाडेकर को लगा मुसीबत अब और भी बढ़ गई है।

“तुम तो सच में अपनी जमा पूंजी लेकर भाग रहे थे। कहां भागने का इरादा था?”

वाडेकर चुप रहा।

“चारों सूटकेसों का यही हाल है। हीरे-जवाहरात और नोटों की गड्डियां?” चंपानेरकर ने वाडेकर को देखा।

वाडेकर कहता भी तो क्या!

“फिर तो मैं बहुत अच्छे मौके पर आया। तुम्हारा ड्रग्स से लदा टैम्पो जो जवाहर रोड पर खड़ा है, उसे भी पुलिस ने पकड़ लिया है। पुलिस वालों ने बताया कि वो ड्रग्स भी दस-बीस करोड़ की है। इतना पैसा तुम कहां से ले आते हो?”

“ड्रग्स उधार मिलती है। माल बेचकर कीमत चुकाता हूं...।”

“पकड़ी जाये तो?”

“तो ड्रग्स की कीमत का पन्द्रह परसेंट पार्टी को देना पड़ता है। बाकी माफ हो जाता है।” वाडेकर ने फीके स्वर में कहा।

“अब तो तुम्हारा खेल खत्म हो गया...।” चंपानेरकर ने सख्त स्वर में कहा –“अगर गुल्लू को बीच में ना लाये होते तो दो दिन अभी और खेल चलना था। परंतु अब मामला सिमट...!”

“दो सूटकेस तुम ले लो। मैं दो लेकर चला जाता हूं...।” वाडेकर ने फीके स्वर में कहा।

ए.सी.पी. चंपानेरकर ने सूटकेसों को देखा, फिर उसे देखकर हंसकर बोला–

“तुम्हारा एनकाउंटर करके मैं चारों सूटकेस ले सकता हूँ...।”

“मुझे मारने की बात क्यों बीच में लाते हो। हम सौदा कर सकते हैं। इतना माल तुम्हें पहले कभी नहीं मिला होगा।”

“कितना माल है कुल?”

“पच्चीस-तीस करोड़...।” वाडेकर ने दिल पर पत्थर रखकर कहा।

“इतना माल क्या तुमने ठिकाने पर रखा हुआ था?”

“नहीं, दिन भर में कई जगह से इकट्ठा किया। मुझे मारने से तुम्हें कोई फायदा नहीं होगा।”

“बात तो तुम्हारी सही है।” चंपानेरकर ने कहा –“अपनी जान बचाना चाहते हो?”

“हां...।”

“तो चारों सूटकेस मेरे...।”

“नहीं, ये गलत...।”

“एक सूटकेस का माल पुलिस पार्टी में बंट जायेगा, बाकी तीन मैं रख लूंगा। ड्रग्स को पकड़ा गया माल दिखाकर सरकार के हिस्से में पहुंच जायेगा और तुम आजादी पा जाओगे।”

“चारों सूटकेस तुम्हें दे दूंगा तो मैं कंगाल हो जाऊंगा।”

“लाश में बदलने से बेहतर है कंगाल हो जाना। फौरन फैसला करो हां या ना? तुम्हारा एक जवाब तुम्हारा जीवन बचा सकता है। दूसरे जवाब पर तुम्हारी जान चली जायेगी। दोनों सूरत में तुम्हारी दौलत तुम्हारे हाथ से निकलनी ही है।” कहने के साथ ही चंपानेरकर आगे बढ़ा और हाथ में दबी रिवॉल्वर की नाल उसकी छाती पर रख दी।

वाडेकर का चेहरा फक्क पड़ गया।

“जवाब तुम्हारा कोई भी हो, दौलत हर हाल में तुम्हारे हाथ से जायेगी। देखना ये है कि जिंदगी बचाना चाहते...!”

“हां...।” वाडेकर की टांगें कांपी –“मैं जिंदगी बचाना चाहता हूं...।”

चंपानेरकर ने उसकी छाती से रिवॉल्वर हटा ली।

“यहां से निकल जाओ और तब तक तुम जिंदा रहोगे, जब तक मेरे रास्ते में नहीं आओगे। जिंदगी में कभी मेरे रास्ते में आने की कोशिश की तो तुम्हें बहुत बुरी मौत मारूंगा।”

वाडेकर ने गहरी सांस लेकर हसरत भरी निगाहों से सूटकेसों की तरफ देखा।

“दूसरे के माल पर बुरी नजर नहीं डालते। दफा हो जाओ। ये हमारी आखिरी मुलाकात है। दोबारा मिले तो मारे जाओगे।”

इन हालातों में वाडेकर कुछ नहीं कर सकता था।

ए.सी.पी. चंपानेरकर ने उसे घेरा ही इस ढंग से था कि वो बेबस हो गया था।

“तुम बुरे पुलिस वाले हो।” वाडेकर ने हारे स्वर में कहा।

“दफा हो जा।” चंपानेरकर गुर्राया –“वरना अभी गोलियों से छलनी कर दूंगा।”

वाडेकर लुटे अंदाज में कमरे से बाहर निकल गया।

“सूटकेस बंद करो और चारों सूटकेस बाहर पुलिस कार में रखो। सबको हिस्सा मिल जायेगा।” चंपानेरकर ने कहा।

दोनों पुलिस वाले फौरन काम में जुट गये।

चंपानेरकर ने मोबाईल निकालकर नंबर मिलाया, फोन कान से लगा लिया। कमरे के कोने में चला गया।

“हैलो...।” अगले ही पल उसके कानों में देवराज चौहान की आवाज पड़ी।

“वाडेकर अभी-अभी अपने ठिकाने से बाहर...!” चंपानेरकर ने धीमे स्वर में कहा।

“हां, मैंने उसे देख लिया है। वो नजर आ गया है।”

“वो अपनी दौलत के साथ यहां से फूटने के फेर में था। मैंने सारी दौलत पर कब्जा जमाकर, उसे कंगाल कर दिया है।”

“ये तो बहुत ही बढ़िया रहा। बाकी मैं संभाल लूंगा।”

“तुमने एक करोड़ रुपया मुझे देना है देवराज चौहान...।” चंपानेरकर ने जैसे याद दिलाया।

“अभी नहीं, अभी तुम्हारा काम बाकी है। कन्हैया लखानी और जॉन अंताओ परेरा को...।”

“वो मुझे याद है। कल से उनमें से किसी एक के काम पर लग जाऊंगा।”

उधर से देवराज चौहान ने फोन बंद कर दिया।

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