देवराज चौहान और मोना चौधरी, मुद्रानाथ और बेला उस गुप्त जगह से बाहर निकले । वो रास्ता बंद होते ही पुनः उन्हें कांटेदार झाड़ियों का सामना करना पड़ा । जैसे-तैसे उन झाड़ियों को पार करके वो दोनों बाहर आये और ठिठककर एक-दूसरे को देखा । मोना चौधरी के कंधे पर काली बिल्ली मौजूद थी।
बरबस ही उसके होठों पर मुस्कान उभर आई ।
पूर्वजन्म की यादें, आईने की तरह उनके सामने थी। तब दोनों के बीच झगड़ा क्यों बढ़ा किसने बढ़ाया और फिर अंत में कैसे सब कुछ बिखरकर, तबाह होता चला गया ।
"पहले जन्म की बातें याद आने पर तुम्हें कैसा लग रहा है देवराज चौहान ?" मोना चौधरी मुस्कुराई ।
"अच्छा लग रहा है ।" देवराज चौहान के होठों पर भी बराबर मुस्कान उभरी पड़ी थी ।
"अगर तुम समझदारी से काम लेते तो शायद झगड़ा न हो पाता ।" मोना चौधरी कह उठी ।
"और तुम बिना सोचे-समझे जल्दबाजी न करती तो शायद झगड़ा ही न होता । मिल-बैठकर बात खत्म की जा सकती थी ।" देवराज चौहान ने सिर हिलाकर कहा--- "जो तुम्हें ठीक सलाह दे रहे थे, उन्हें तुम गलत समझती रही और गलत सलाह देने वालों को तुमने सिर-आंखों पर बिठा रखा था । इसी वजह से...।"
"पूरे ठीक तो तुम भी नहीं थे ।" मोना चौधरी ने उसकी बात काटी ।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया ।
"हमारे पास वक्त कम है ।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा--- "अगर ये बातें हम किसी और वक्त के लिए रख लें तो बेहतर रहेगा । दालू ने अनुष्ठान करके, हाकिम को बुला लिया और अमरत्व कर चुके हाकिम को समाप्त करने का रास्ता हमारे पास न हुआ तो एक बार फिर तबाही मच सकती है ।"
"तुम ठीक कहते हो ।" मोना चौधरी का चेहरा कठोर होने लगा--- "दालू ने मुझसे बहुत बड़ी गद्दारी की है । उसने सलाह देने के तौर पर मुझे धोखे में रखकर, मेरे से अनजाने में ऐसे काम करवा डाले, जो कि उसकी योजना के हिस्से थे । वह मुझे रास्ते से हटाना चाहता था और हटा भी डाला ।"
"तुम्हारी मौत के बाद नगरी वाले यही समझते रहे कि तुमने मुझे और मैंने तुम्हें मारा है । जबकि हकीकत यह रही कि तुमने मेरी जान ले ली थी और जब तुम बच गई तो दालू ने धोखे से तुम्हारी जान ले ली और यह प्रचार कर डाला कि दोनों एक-दूसरे को मारकर मर गये ।" देवराज चौहान ने कहा ।
"मैं दालू को किसी कीमत पर नहीं छोडूंगा ।" मोना चौधरी गुर्रा उठी ।
"लेकिन पहले हाकिम से टक्कर लेनी होगी, दालू तक पहुंचने के लिये ।" देवराज चौहान की आवाज में गंभीरता आ गई थी--- " और गुरुवर के मुताबिक जब हमें अपने पहले जन्म की याद आएगी तो तब दालू, हाकिम को बुलाने के लिये अनुष्ठान की शुरुआत करने का प्रबंध कर रहा होगा । इससे पहले कि अनुष्ठान के पश्चात हाकिम प्रकट हो । तुम्हें वो किताब हासिल कर लेनी चाहिये, जिसमें यह दर्ज है कि अमरत्व प्राप्त हाकिम को कैसे खत्म किया जा सकता है ।"
"इसके लिए मुझे अपने पूर्वजन्म के महल में जाना होगा । वहां मैंने खास जगह पर किताब को छिपा दिया था और उस महल में मैं पहले भी जा चुकी हूं, उसी महल के कुएं से गीत लाल ने मुझे इस तिलस्म में धकेला था। तब मैं नहीं जानती थी कि वो विशाल महल कभी मेरा ही महल था।"
देवराज चौहान ने मोना चौधरी को देखा
"वहां तक पहुंचने का रास्ता मालूम है तुम्हें कि महल कहां पर है ?" देवराज चौहान ने पूछा ।
"हां, तिलस्म के बाहर है वो महल ।"
"लेकिन बाहर निकलने का रास्ता हमें मालूम नहीं और तिलस्म में कदम-कदम पर...।"
मोना चौधरी के होठों पर अजीब-सी मुस्कान देखकर देवराज चौहान खामोश हो गया ।
"तुम यह बात क्यों बोल रहे हो कि मुझे अपने पूर्वजन्म की सब बातें याद आ चुकी हैं और तिलस्म मेरी ही देन है । यहां खतरे और भटकाव कभी मैंने ही भरे थे । इसलिये अब यह तिलस्म मेरे लिये उस तरह है, जैसे कोई बच्चा रेत पर घर बनाता है और खुद ही उसे तोड़-फोड़ देता है।"
देवराज चौहान ने होंठ सिकोड़कर सिर हिलाया ।
"तुम्हारा साथ होना मेरे लिए और अच्छी बात है । क्योंकि कई जगह पर तिलस्म के दरवाजे तभी खुल सकते हैं जब देवा और मैं साथ हों ।" मोना चौधरी पुनः मुस्कुराई ।
"ऐसा क्यों किया था तुमने ?"
"दुश्मनी के नाते । ताकि कभी तुम अकेले आकर तिलस्म में अपनी मनमानी न कर आओ। तिलस्म के उन रास्तों को न तोड़ दो, जिन्हें मैं नहीं चाहती थी कि तुम तोड़ सको ।" मोना चौधरी बोली ।
"कैसे रास्ते ?"
"जैसे कि तुम अपनी बस्ती वालों, परिवार को तिलस्म से आजाद न कर दो । वो तिलस्म तभी टूट सकता है अगर मैं तुम्हारी सहायता करुं । वरना कभी नहीं टूट सकता । ऐसी और भी कई बातें हैं जो वक्त आने के साथ-साथ तुम्हें मालूम हो जायेंगी ।" मोना चौधरी का स्वर गंभीर हो गया ।
"अगर मेरे परिवार वाले, बस्ती वाले रास्ते में पड़ते हों तो पहले मैं उन्हें तिलस्म कैद से आजाद करवाना पसंद करूंगा । वो मेरा इंतजार कर रहे हैं ।" देवराज चौहान बोला ।
"अभी ऐसा करने से कोई खास फायदा नहीं होगा ।"
"क्यों ?"
"दालू ने उस ताज के दम पर नगरी का समय चक्र रोक रखा है । जब तक समय चक्र रुका रहेगा, तब तक कोई आजाद होकर भी, आजाद न हो सकेगा । इसलिए सबसे पहले नगरी के समय चक्र को चालू करके, नगरी को सामान्य हालातों में लाना है, तभी तो लोगों को कैद से निकालने का, छुटकारा पाने का एहसास हो पायेगा । वो जन्म ले सकेंगे । उम्र पूरी करके मृत्यु को प्राप्त हो सकेंगे । सामान्य इंसानों की तरह वो सब जीवन व्यतीत कर सकेंगे ।" मोना चौधरी का स्वर गंभीर था ।
"नगरी के समय चक्र को पुनः चालू करना, इतना आसान नहीं ।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा ।
"जानती हूं ।"
"उसके लिये वो तिलस्म ताज हासिल करना होगा, जिसे कभी तुम, कुलदेवी बनने पर पहना करती थी । उसी ताज की ताकत के दम पर दालू ने समय चक्र को रोक रखा है । और इस वक्त वो ताज दालू की तिलस्मी शक्तियों के पहरे में मौजूद है, जिनका मुकाबला करना आसान नहीं ।"
"लेकिन मेरे लिए कठिन नहीं है ।" मोना चौधरी के दांत भिंच गये--- "इस नगरी में तिलस्मी विद्या में मेरे से माहिर कभी कोई नहीं रहा। मैं दालू के हर तिलस्मी जाल को काट दूंगी । तिलस्म मेरे लिए मामूली से खेल से ज्यादा नहीं है । ये जुदा बात है कि तुम तिलस्मी विद्या पूर्ण नहीं कर सके थे, इसलिए इस विद्या में इतने माहिर नहीं हो सके । अगर तुम्हें वक्त मिला होता तो शायद हो जाते।"
"तुमने ही मुझे वक्त नहीं लेने दिया ।" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली--- "मुझे कुछ बरस और मिल जाते तो मेरी तिलस्मी विद्या पूरी हो जाती । परंतु तुम्हारे झगड़े में मेरी यह विद्या अधूरी रह गई ।"
मोना चौधरी कुछ नहीं बोली ।
"और नगरी के समय चक्र को पुनः शुरू करने के लिए, ताज तक पहुंचने से पहले, हमें हाकिम से टक्कर लेनी होगी। जो कि आसान काम नहीं है ।" देवराज चौहान ने कहा--- "अमरत्व प्राप्त हाकिम को खत्म करना आसान नहीं ।"
मोना चौधरी के चेहरे पर कठोरता नजर आने लगी ।
"अगर वो किताबों से मिल जाती है, जिसमें इस बात का खुलासा है कि अमरत्व प्राप्त हकीम की जान कैसे ली जा सकती है, तो हाकिम किसी भी हालत में बचेगा नहीं ।" मोना चौधरी दांत किटकिटा उठी।
"तुम तो कह रही थी कि तुम्हें मालूम है वो किताब तुमने महल में किस गुप्त जगह पर रखी थी।"
"हां, मालूम है । लेकिन इस बात का क्या भरोसा कि उस गुप्त जगह को किसी ने खोज नहीं निकाला होगा ।" मोना चौधरी ने कठोर निगाहों से देवराज चौहान को देखा--- "हाकिम जानता है कि एकमात्र उस किताब में इस बात का जिक्र है कि उसे कैसे खत्म किया जा सकता है । ऐसे में क्या हाकिम ने वो किताब तलाश नहीं करवाई होगी ?"
देवराज चौहान सोच भरे ढंग से सिर हिला कर रह गया ।
"म्याऊं।"
तभी बिल्ली बोली और मोना चौधरी के कंधे पर हौले से पंजा मारा । जैसे वो वक्त बरबाद न करके, उन्हें आगे बढ़ने को कह रही हो ।
"आओ चलें ।"
देवराज चौहान और मोना चौधरी आगे बढ़ गये ।
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पाठकों आपने पूर्व प्रकाशित उपन्यास-1 जीत का ताज, 2 ताज के दावेदार अवश्य पढ़ लिए होंगे । फिर भी याद दिलाने के तौर पर बता दूं कि उन दोनों उपन्यासों में आपने क्या पढ़ा । जीत का ताज में फकीर बाबा की लाख कोशिशों के बावजूद भी जब झगड़े के लिये देवराज चौहान और मोना चौधरी आमने-सामने खड़े हो गये तो क्रोधित होकर फकीर बाबा देवराज चौहान और मोना चौधरी को उनके साथियों के साथ अपनी शक्तियों के दम पर पाताल नगरी स्थित तिलस्मी नगरी में पहुंचा देते हैं, जहां इनका सामना मायावी जादुई शक्तियों से होता है । देवराज चौहान और मोना चौधरी में हार-जीत का फैसला हो सके, इसके लिए फकीर बाबा तिलस्मी नगरी में मौजूद ताज लाने को कहते हैं । जो ताज लायेगा, वही जीता माना जाएगा । परंतु आगे बढ़ते समय तिलस्मी नगरी की अदृश्य शक्तियां एक-एक करके सब को गायब कर देती हैं । देवराज चौहान और मोना चौधरी बचे रह जाते हैं । रास्ते में मोना चौधरी को मुद्रानाथ नाम का बूढ़ा व्यक्ति मिलता है, जो मोना चौधरी को खंजर देता है कि मुसीबत के वक्त खंजर से वो सहायता ले सकती है । उधर देवराज चौहान को बेला नाम की युवती का साथ मिल जाता है, जो अदृश्य होकर कदम-कदम पर देवराज चौहान की सहायता करते हुए उसे खतरों से बचाती है । अंत में देवराज चौहान और मोना चौधरी वहां पहुंच जाते हैं, जहां फकीर बाबा ने पहुंचने को कहा था । वो जगह तिलस्मी नगरी का प्रवेशद्वार था और दोनों अलग-अलग रास्तों से ताज लेने के लिये, तिलस्मी नगरी में प्रवेश कर जाते हैं। यहां तक आपने 'जीत का ताज' में पढ़ा और 'ताज के दावेदार' में आपने पढ़ा कि तिलस्मी नगरी में प्रवेश करने के बाद देवराज चौहान और मोना चौधरी का अजीब-अजीब हादसों से सामना होता है उन हादसों से वे बचते हुए आगे बढ़ते हैं । मोना चौधरी कई जगहों पर अपने बुत देखती है। वो समझ नहीं पाती कि उसके बुत यहां क्यों है । जब वो सुनसान जगह पर भटक रही होती है तो गीतलाल नाम का युवक उसे मिलता है जो कि उसे पाताल नगरी के तिलस्मी में धकेल देता है, जहां से बाहर निकलना संभव नहीं । इसी तरह देवराज चौहान को भी तिलस्म में फंसा दिया जाता है । दोनों अलग-अलग खतरों से जूझते हुए, तिलस्म में भटकते रहते हैं । इसी दौरान देवराज चौहान एक ऐसी बस्ती में पहुंच जाता है, जहां वो पूर्वजन्म में रहा करता था, तब भी उसका यही चेहरा था । बस्ती वाले खुश होते हैं, उसे आया पाकर । वहां वो अपने भरे-पूरे परिवार से मिलता है । जेहन में पूर्वजन्म की कुछ-कुछ बातें याद आती हैं । मालूम होता है कि दालू ने नगरी के समय चक्र को रोक रखा है । उन्हें कैद कर रखा है और उन सबको पूरा यकीन है कि देवा उन्हें कैद से मुक्ति दिलाएगा । देवराज चौहान का मस्तिष्क इस कदर उलझ जाता है कि वो ठीक से सोच-समझ नहीं पाता और रात को जब सब नींद में होते हैं तो वो बस्ती से निकल कर आगे बढ़ जाता है । फिर उसकी मुलाकात मोना चौधरी से होती है, जो मौत के मुंह में फंसी हुई है । देवराज चौहान उसे बचाता है । यदा-कदा अदृश्य बेला उसकी सहायता करती रहती है । मिलने पर देवराज चौहान और मोना चौधरी में ये तय होता है कि यहां खतरे बहुत हैं। दोनों का मिलकर रहना ठीक है। जब ताज हाथ में आयेगा तो उसे बीच में रखकर ताज का फैसला कर लेंगे । इस तरह देवराज चौहान और मोना चौधरी आगे बढ़ते हुए एक साथ खतरों का मुकाबला करते हैं। फकीर बाबा भी इस दरम्यान उनसे मिलता है। उधर बेला देवराज चौहान को बताती है कि वो पूर्वजन्म की मिन्नो (मोना चौधरी) की बहन है । कहानी तरह-तरह के रोमांचक मोड़ो से होती हुई आगे बढ़ती है । नगरी पर कब्जा जमाये दालूबाबा को जब उनके आने की खबर मिलती है तो वो इन दोनों के साथियों को कैद करके ये जानना चाहता है कि उन्हें नगरी में कौन लाया ? परंतु उसके सवाल का कोई जवाब नहीं देता । तिलस्मी में मौजूद देवराज चौहान और मोना चौधरी को खत्म करने की अपनी कोशिशें बराबर जारी रहती है। वह तरह-तरह के हथकंडे आजमाता रहता है । जो कि दिलचस्प हैं । आखिरकार बेला उन दोनों को तिलस्म में मौजूद खुफिया जगह ले जाती है, जहां वही मुद्रानाथ मौजूद है, जिसने मोना चौधरी को तिलस्मी खंजर दिया था । बेला भी अब असली रूप में सामने आ जाती है । तब मोना चौधरी को मालूम होता है मुद्रानाथ उसके पूर्वजन्म का पिता और बेला उसकी बहन है लेकिन देवराज चौहान की तरह उसे भी पूर्व जन्म की ठीक से याद नहीं आ पाती। उधर रुस्तम राव, फकीर बाबा के पास है । फकीर बाबा उसे पूर्वजन्म की याद दिला देते हैं । तब रुस्तम राव को याद आता है कि फकीर बाबा की बेटी लाडो से उसका ब्याह होने जा रहा था कि देवा को खतरे में पाकर, मंडप छोड़कर उससे लाडो के ही भाई कालूराम को मारने जाना पड़ा । रूस्तम राव और लाडो में पूर्वजन्म की दिलचस्प बातें होती हैं । रूस्तम राव ज्यादा देर लाडो के पास नहीं रह पाता और फकीर बाबा, रूस्तम राव को तिलस्म में भेज देता है कि वो वहां देवराज चौहान और मोना चौधरी की सहायता करें, उन्हें पूर्वजन्म की बातें याद दिलाने की कोशिश करें। उधर मुद्रानाथ मोना चौधरी को, उस बस्ती में भेजता है, जहां उसकी मां रौनक देवी अभी भी मकान में मौजूद है । मुद्रानाथ और बेला किसी कारणवश, दालू से बचने के लिए छिपे हुए हैं डेढ़ सौ बरस से । डेढ़ सौ बरस से दालू बाबा ने सिद्धियों से भरपूर, तिलस्मी ताज की शक्ति से नगरी का समय चक्र रोक रखा है । मोना चौधरी अपनी मां रौनक देवी से मिलती है । नीलू महाजन की मां, मौसी से मिलती है। सहेली सत्तो से मिलती है । पूर्वजन्म की और भी कई बातें याद आती हैं । परंतु पूरी तरह से कुछ भी याद नहीं आ पाता तो मुद्रानाथ उसी गुप्त जगह पर देवराज चौहान और मोना चौधरी को, अपनी शक्तियों के दम पूर्वजन्म की पूरी याद दिला देता है । उधर दालू की कैद में महाजन जब दालू को देखता है तो उसे एकाएक पूर्वजन्म की बातें याद आ जाती हैं । वो दालू की जान लेने को दौड़ता है कि दालू उसे पिंजरे में बंद कर देता है। दालू को मारने के लिए महाजन पागलों की तरह चीखता-चिल्लाता रहता है । दालू को जब महसूस होता है कि देवा-मिन्नो उसके लिए खतरा बन सकते हैं । उन्हें पूर्वजन्म की याद आ गई तो उनकी सारी हुकूमत खत्म कर सकते हैं तो वो हाकिम को बुलाने का फैसला करता है जो कि गुरुवर का ही बेटा है । अज्ञात वास पर है । जिसे अमरत्व प्राप्त है और अच्छे कामों को छोड़कर बुरे रास्ते पर पड़ गया है । हाकिम अनुष्ठान का इंतजाम करता है, हाकिम को बुलाने के लिए, ताकि हाकिम आकर देवराज चौहान और मोना चौधरी को खत्म कर सके । जिसे भी ये खबर लगती है कि हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान आरंभ होने वाला है तो वह कांप उठता है। हाकिम को नगरी वाले इंसान न मानकर वहशी जानवर मानते हैं । हाकिम को कोई नहीं मार सकता । उससे सब डरते हैं । उधर देवराज चौहान और मोना चौधरी को सब याद आता है तो सारे हालात समझने पर वे चिंतित हो जाते हैं । मुद्रानाथ उन्हें बताता है कि दालू ने हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान की तैयारी आरंभ कर दी है । ताकि वो आकर उन्हें समाप्त कर सके। तब मोना चौधरी को ध्यान आता है कि जब वो देवी थी, तब गुरुवर ने एक किताब लिखकर उसे दी थी, जो की नगरी की देवी के पास ही सुरक्षित रहेगी । उस किताब में ये दर्ज था कि अमरत्व प्राप्त हाकिम से कैसे टक्कर ली जा सकती है और वो किताब मोना चौधरी के तब के पुराने महल में गुप्त जगह पर रखी हुई है । इससे पहले कि हाकिम प्रकट हो, गुरुवर की दी गई उस किताब को पाना जरूरी हो गया, ताकि हाकिम का मुकाबला किया जा सके। देवराज चौहान और मोना चौधरी फौरन उस किताब को लेने के लिये चल पड़ते हैं, ताकि अमरत्व हासिल कर चुके हाकिम से किसी तरह मुकाबला किया जा सके और अब आगे---
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दालू बाबा !
हाकीम को बुलाने के लिए अनुष्ठान की तैयारियां पूर्ण हो चुकी थी । केसर सिंह ने दालूबाबा के बताये अनुसार सारे इंतजाम कर दिए थे ।
इस समय दालूबाबा और केसर सिंह खुले आसमान के नीचे थे । तैयारियां पूर्ण होने की खबर पाते ही बेसब्र दालूबाबा फौरन वहां आ पहुंचा था । यह पांच सौ गज खुली जगह, गोलाई लिए हुए थी । उस जगह के किनारों पर पचास फीट ऊंची दीवारें खड़ी हुई थीं ।
ठीक बीचो-बीच बड़ा-सा हवनकुंड था । जिसे देखकर इस बात का एहसास स्पष्ट हो रहा था कि उसे अभी बनाया गया है । वो हवनकुंड नया और बिना इस्तेमाल हुए नजर आ रहा था । पास ही में अनुष्ठान के दौरान, दालूबाबा के बैठने के लिए चौकी मौजूद थी, जो कि पत्थर की थी और वहां पर अनुष्ठान में इस्तेमाल होने वाली ढेर सारी सामग्री मौजूद थी । सामग्री में बारह कनस्तर शुद्ध घी थे । धूप-अगरबत्तीयां और लोबान, केसर, सूखी सामग्री, मौली के दो बड़े-बड़े गोले, एक बाल्टी तिलक लगाने वाले सिंदूरी रंग से भरी हुई थी । पास ही में जाने किस पेड़ के दो-दो हाथ बड़े सूखे पत्ते मौजूद थे और भी कई तरह का सामान वहां मौजूद था ।
दालूबाबा के बदन पर इस वक्त सफेद धोती थी, जिसे कमर से लपेट रखा था। गले में कई तरह की मालायें मौजूद थी । माथे पर सफेद रंग का लंबा-सा तिलक लगा रखा था । पांवों में कुछ भी नहीं पहन रखा था और आंखों में तीव्र चमक मौजूद थी ।
केसर सिंह पास में हाथ बांधे मौजूद था।
दालूबाबा ने सन्तुष्टि भरी निगाह केसर सिंह के सारे प्रबंध पर डाली पर नजरें उठाकर, कुछ दूर बंधे जगमोहन, बांकेलाल राठौर, सोहनलाल, कर्मपाल सिंह, पाली, घायल पारसनाथ और पिंजरे में कैद नीलू महाजन को देखा ।
उन सबको हाथ-पांव बांधकर नीचे डाला हुआ था । सिर्फ महाजन के हाथ-पांव ही आजाद थे, जो कि गुस्से से भरी, लाल-सुर्ख खूनी आंखों से दालूबाबा को घूर रहा था । यकीनन अगर वो पिंजरे की कैद से आजाद होता तो दालूबाबा को मार देता या फिर उसके हाथों मर जाता।
सबसे ज्यादा बुरी हालत पारसनाथ की थी। जिसका जिस्म यातना दी जाने की वजह से बुरी तरह घायल था। ये जुदा बात थी कि दालूबाबा के आदेश पर उसके जख्मों पर दवा लगा दी गई थी । जिसकी वजह से दर्द से उसे कुछ राहत मिल रही थी।
"केसरे ।" दालूबाबा के होंठो पर मुस्कान उभरी ।
"जी ।"
"इस बार हाकिम के लिए मनुष्यों के खून की कमी नहीं होगी ।" दालूबाबा के स्वर में कहर के भाव थे ।
"आप ठीक कह रहे हैं ।" केसर सिंह के स्वर में हल्की-सी बेचैनी थी--- "मनुष्य के लहू के तरह-तरह के स्वाद हाकिम को मिलेंगे। इससे वो बहुत खुश होगा।"
"परसू के घायल जिस्म पर पहरेदारों को दवा लगाते रहने का आदेश दे दो ।" दालूबाबा बोला ।
"जी ।"
"अनुष्ठान तीन दिन चलेगा । इस बीच किसी भी कीमत पर किसी भी तरह का विघ्न नहीं पड़ना चाहिये । यहां पर पहरेदार खामोशी से आएं और उन्हें खाना देकर खामोशी से चले जायें। जाओ, जाकर यह आदेश भी पहरेदारों को दे दो ।" दालूबाबा जल्दी से अनुष्ठान शुरू कर देने पर आमादा था ।
"वो तो ठीक है दालूबाबा ।" केसर सिंह ने कहा--- "अगर इन मनुष्य कैदियों ने शोर-शराबा पैदा करके, अनुष्ठान में विघ्न डालने की चेष्टा की तो ?"
"इन कैदियों की मुझे चिंता नहीं । ये किसी भी तरह के अनुष्ठान में बाधा नहीं जा सकते। तुम जाकर मेरे आदेश पहरेदारों को दो और फौरन वापस आओ । अनुष्ठान में तुम्हें मेरे साथ बैठना है।"
"जी ।" कहने के साथ ही केसर सिंह पलटा और बड़ी-सी दीवार में लगे, छोटे से दरवाजे की तरफ बढ़ गया ।
दालूबाबा आगे बढ़ा और आसन की मुद्रा में चौकी पर बैठ गया । बगल में दबा रखी सामान्य साइज की एक किताब निकाली, जिस पर काले शहनील का खूबसूरत कपड़ा बना हुआ था । उसे अपने सामने नीचे रख, कपड़ा खोला तो किताब स्पष्ट नजर आई । जो कि बेहद पुरानी लग रही थी । उसके पन्ने मैले हुए पड़े थे और हर पन्ना अनजानी भाषा से भरा पड़ा था । जाने कितनी पुरानी वो किताब थी । अगर उसे सुरक्षित न रखा होता तो उसके पन्ने कब के सड़-सूखकर खराब हो गए होते ।
"दालू -कुत्ते ।" एकाएक पिंजरे में कैद महाजन चीखा ।
दालू ने सिर उठाकर उसे देखा फिर व्यंग्य भरे भाव में मुस्कुराया ।
महाजन ने पिंजरे की सलाखों को इस तरह झंझोड़ा जैसे उन्हें तोड़ देना चाहता हो ।
"हरामजादे, एक बार मुझे पिंजरे से निकाल दे । मैं तेरे इतने टुकड़े करूंगा कि गिने नहीं जा सकेंगे। बिखेर कर रख दूंगा तुझे ।" महाजन गुस्से में चिल्ला उठा।
दालूबाबा हौले से हंसा।
"यह तू नहीं, नीलसिंह बोल रहा है जिसे अपने पूर्वजन्म की बातें याद आ चुकी हैं ।"
"हां, हरामी । मैं नीलसिंह ही हूं । वही नीलसिंह, जिसके तू तलवे चाटे करता...।"
"वो वक्त डेढ़ सौ बरस से गुजर चुका है ।" दालूबाबा की आवाज में जहरीले भाव थे--- "आज मैं ही सब कुछ हूं । मेरा ही नाम लिया जाता है, नगरी में ।"
"तू डेढ़ सौ बरस पहले कुत्ता था और अब बहुत बड़ा कुत्ता बन चुका है तू ।" महाजन की हालत पागलों जैसी हो रही थी--- "मिन्नो तेरे सामने आई तो उसे क्या जवाब देगा ?"
दालूबाबा हंस पड़ा ।
"वो वक्त नहीं आयेगा, जब मिन्नो मेरे सामने पहुंचे ।"
"मिन्नो आयेगी तो तेरे सामने और कुत्ते तेरे से सब हिसाब लेगी । तू...।"
"जानता है नीलसिंह, मैं क्या कर रहा हूं ।"
"क्या ?"
"हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान आरंभ करने जा रहा हूं ।"
"हाकिम ?" महाजन ने होंठ भींच लिए।
दालूबाबा पुनः हंसा ।
"हां ।" हंसते हुए बोला--- "देवा और मिन्नो तिलस्म में फंसे भटक रहे हैं । इससे पहले कि उन्हें अपना पूर्वजन्म याद आये । हाकिम आकर, मेरे कहने पर उनकी जान लेगा । अमरत्व प्राप्त हाकिम को मारा नहीं जा सकता । ऐसे में देवा और मिन्नो बचने से रहे । अब तू ही बता कि मिन्नो मेरे सामने कैसे आयेगी । वो तो मारी जायेगी ।"
महाजन गुर्राया ।
"मिन्नो ने डेढ़ सौ बरस पहले तुझे रखवाला बनाया था, नगरी और तिलस्म का । मालिक नहीं ।"
"मालूम है । भूला नहीं हूं इस बात को ।" दालूबाबा कड़वे अंदाज में मुस्कुराया--- "लेकिन डेढ़ सौ बरस बादशाहों जैसा जीवन व्यतीत करने के पश्चात, अब मैं मिन्नो के आगे सिर झुकाकर उसके हुक्म की तामील नहीं कर सकता । वो आदत ,जो चली गई। उसे वापस नहीं ला सकता । इसलिए बेहतर यही है कि खत्म हो जाये। हाकिम उसे खत्म करेगा । वैसे भी पूर्व जन्म की याद आने पर, मिन्नो को जब मालूम होगा कि मैंने उसके पिता मुद्रानाथ और बहन बेला को जान से मारने की चेष्टा की है और अभी भी कर रहा हूं तो वो मुझे किसी भी हाल में जिंदा नहीं छोड़ने वाली ।"
महाजन ठहाका लगा उठा ।
"देवी के ताज पर अधिकार जमा रखा है । हाकिम तेरी बात मानेगा । इस पर भी तेरे भीतर मिन्नो का खौफ मौजूद है, जबकि तो इस वक्त नगरी का सबसे ताकतवर आदमी है ।"
दालूबाबा के दांत भिंच गये ।
"एक बात और है जो तेरी मौत की वजह बनेगी ।"
"क्या ?"
"मिन्नो को जब मालूम होगा कि तूने परसू को कैसी-कैसी यातना दी है । मुझे किस तरह कैद कर रखा है तो वो तेरी मौत को और भी क्रूर बना देगी ।" महाजन हंसी रोकते हुए बोला--- "अपनी मौत और मिन्नो के क्रोध से बचना चाहता है तो रास्ता बताऊं ।"
दालूबाबा खा जाने वाली निगाहों से महाजन को देखता रहा ।
"पूछेगा तो बताऊंगा । नहीं तो नहीं ।" महाजन ने व्यंग्य से कहा ।
"बोल ।"
"वही जो तू करने जा रहा है । अनुष्ठान कर और बुला ले हाकिम को । ऐसा करने से शायद तेरी जान बचा जाये और हाकिम मिन्नो को खत्म कर दे ।" महाजन शब्दों को चबाकर कह उठा ।
"ऐसा ही होगा ।" दालूबाबा दरिंदगी भरे स्वर में कह उठा--- "अमरत्व प्राप्त हाकिम को कोई नहीं मार सकता और वो आसानी से देवा और मिन्नो को खत्म...।"
दालूबाबा के शब्द अधूरे ही रह गये । उसकी निगाह दाईं तरफ पड़ी । महाजन, सोहनलाल, पारसनाथ, कर्मपाल सिंह, जगमोहन, बांकेलाल राठौर सबकी निगाह भी उस तरफ उठ चुकी थी । सबके चेहरों पर एकाएक हैरानी आ गई थी और महाजन तो खुशी से चीख ही उठा था ।
"गुरुवर ! प्रणाम गुरुवर ।" महाजन खुशी से भरे स्वर में चीख उठा--- "पहचाना मुझे । मैं नीलसिंह, आपका शिष्य । मिन्नो का खास साथी । मुझे पहचान लिया न गुरुवर ?"
वह गुरुवर ही थे जो अचानक प्रकट हो गये थे ।
वही रुप, वही सब कुछ ।
सफेद सुनहरे से चमकते बाल । वैसे ही दाढ़ी-मूंछें । दाढ़ी लंबी होकर छाती तक जा रही थी । स्वस्थ लाल सुर्ख चेहरा । वैसा ही स्वस्थ शरीर । आंखों में अजीब तरह का तेज था । जिसका सामना करना संभव नहीं था गले में तीन मालाएं थी। माथे पर चंदन का तिलक । कमर के गिर्द सफेद धोती और जैसा कपड़ा लिपटा हुआ था, जिसका छोर कंधे पर डाल रखा था । वे नंगे पांव थे ।
डेढ़ सौ बरस बीत जाने पर भी । गुरुवर में कोई बदलाव नहीं आया था । होठों पर शांत मधुरमय मुस्कान । माथे पर बलों की गहरी लकीरें। गले में जनेऊ था जो कमर तक आ रहा था ।
मुस्कुराते हुए वे पिंजरे में बंद नीलसिंह को देख रहे थे ।
जगमोहन, बांकेलाल राठौर, पारसनाथ, कर्मपाल सिंह, सोहनलाल सबकी निगाहें गुरुवर पर थी ।
"प्रणाम गुरुवर ।" दालूबाबा ने हाथ जोड़कर कहा ।
गुरुवर ने मुस्कुराते हुए दालूबाबा को देखा फिर आशीर्वाद देने वाले ढंग में हाथ उठाया और अपने कदम नीचे घायल पड़े पारसनाथ की तरफ बढ़ा दिए, जिसे कि सख्त से बांध रखा था । हाथ-पांव रस्सियों में जकड़े पड़े थे । गुरुवर, पारसनाथ के करीब पहुंचकर ठिठके ।
सबकी उलझन भरी निगाह गुरुवर पर थी ।
पारसनाथ भी पीड़ा भरी निगाहों से गुरुवर को ही देख रहा था ।
"पारसनाथ ।" महाजन आवेश में चीख उठा--- "देख क्या रहा है। गुरुवर खुद तेरे पास आये हैं । बहुत किस्मत वाला है तू। पांवों में पड़ जा गुरुवर के । बहुत कुछ मिल जायेगा तुझे और-ओह ! तू-तू, तेरे तो हाथ-पांव बंधे हुए हैं ।" कहते हुए महाजन के होंठ भिंच गए ।
गुरुवर ने मुस्कुराकर महाजन को देखा ।
"देखा गुरुवर । सब कुछ आपकी आंखों के सामने हैं ।" महाजन दांत पीसकर कह उठा--- "दालू ने परसू का क्या हाल कर दिया है । एक जगह से तो परसू के शरीर की हड्डी तक नजर आ रही है । अमानवीय यातना की हद कर दी दालू ने । शराफत तो इसने न तो पहले कभी थी और न अब है।"
गुरुवर ने अपना मुस्कान भरा चेहरा पारसनाथ की तरफ किया ।
"कैसा है परसू ?" गुरुवर के होठों से शहद से भरे मीठे स्वर निकले ।
पारसनाथ, गुरुवर को न पहचान सका । उसने तो पहली बार, इस इंसान को देखा था । परंतु महाजन की बातों से उसे हालातों का काफी जायजा हो गया था । वह समझ नहीं पाया कि गुरुवर की बात का क्या जवाब दे । खुद-ब-खुद ही उसका सिर हिलता चला गया ।
"ठ-ठीक हूं ।"
"तेरा जिस्म तो जगह-जगह से घायल है और कहता है, ठीक हूं ।" गुरुवर बोले ।
"ठीक हो जाऊंगा ।" पारसनाथ की निगाह गुरुवर पर थी।
"दवा की जरूरत नहीं ?" गुरुवर के होठों पर गहरी मुस्कान थी ।
"नहीं, दो-चार दिन में जख्म भर जायेंगे ।" पारसनाथ ने कहा ।
गुरुवर के होठों पर छाई मुस्कान और भी गहरी हो गई।
"पहले की तरह ही है तू परसू । तब भी तू दर्द और जख्मों की परवाह नहीं करता था और अब भी । शरीर बदल गया, जन्म बदल गया, परंतु आत्मा तो तेरी वही है । तो कर्म भी तो वही होंगे ।"
पारसनाथ न समझने वाली निगाहों से गुरुवर को देखता रहा ।
दालूबाबा आंखे सिकोड़े गुरुवर को देखे जा रहा था ।
गुरुवर नीचे झुके । हाथ पारसनाथ के सिर पर रखा । होठों ही होठों में कोई मंत्र-सा बुदबुदाया और अगले ही पल पारसनाथ का जख्मों से भरा शरीर सामान्य हो गया । अब कहीं कोई जख्म तो क्या, जख्म का निशान भी नहीं बचा था ।
गुरुवर होठों पर मुस्कान लिए सीधे खड़े हो गये ।
पारसनाथ ने खुद को बिल्कुल स्वस्थ पाया । चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे ।
दूसरों का भी यही हाल था ।
जबकि महाजन के होठों से खुशी से भरी हंसी निकली ।
"पहचाना नहीं परसू, मेरे को ?" गुरुवर ने पूछा ।
"नहीं ।" पारसनाथ के होठों से निकला।
"जैसे ऊपर वाले की इच्छा । जब वो चाहेगा, तभी तू पहचानेगा मुझे ।" कहने के पश्चात गुरुवर की मुस्कान भरी मीठी निगाह जगमोहन पर गई--- "तू कैसा है जग्गू ?"
"अच्छा हूं ।" जगमोहन ने तुरंत सिर हिलाया ।
"तू भी नहीं पहचान रहा मुझे ?" गुरुवर के स्वर में भी मुस्कान के भाव थे ।
जगमोहन ने इनकार में सिर हिला दिया ।
गुरुवर ने बांकेलाल राठौर, सोहनलाल को देखा ।
"गुलचंद ,भवर सिंह तुमने भी नहीं पहचाना होगा । पूर्वजन्म याद नहीं आया न ?"
"नहीं ।"
दोनों के सिर इनकार में हिले।
"आयेगा, कभी तो सब कुछ याद आयेगा ।" गुरुवर पहले वाले लहजे में कहते हुए पलटे और कुछ दूर खड़े दालूबाबा को देखने लगे । चेहरे पर वही मीठे और प्रेम के भाव थे ।
'गुरुवर, अब आप खुद ही देख लीजिये, दालू की नीचता को । यह भी कभी आपका शिष्य था । युद्ध कौशल के अलावा तिलस्म भी आपने इसे सिखाया था । कालूराम की तरह यह अभी किस हद तक गिर गया था । कालूराम के कर्म भी इस हद तक गिरे हुए नहीं थे ।" महाजन पुनः गुस्से से चीखा ।
गुरुवर उसी अंदाज में आगे बढ़े और दालू के पास पहुंचकर ठिठके ।
"कैसे हो दालू ?"
"आपका आशीर्वाद है गुरुवर ।" दालू ने आदर भरे स्वर में कहा ।
गुरुवर का काम शिक्षा देना होता है और शिष्य शिक्षा को किस सोच के साथ ग्रहण करता है, यह बात शिष्य के मस्तिष्क और उसके संस्कारों पर निर्भर है ।" गुरुवर का स्वर पहले जैसा ही था ।
दालूबाबा ने गहरी निगाहों से गुरुवर को देखा ।
"गुरुवर ।" दालूबाबा ने आदर भरे स्वर में कहा--- "आपने तो नगरी के कामों में कभी दखल नहीं दिया ।"
"ठीक कहते हो ।"
"तो अब ऐसी क्या जरूरत पड़ गई जो यहां आना पड़ा और मेरे काम में दखल दिया।"
"कैसा दखल दालू ?" गुरुवर बराबर मुस्कुरा रहे थे ।
"परसू को ठीक करना, दखल देना ही तो हुआ गुरुवर ।" दालू के स्वर में आदर भाव थे।
"दालू, अगर तू इसे दखल कहता है तो ये तेरी भूल है । मैं तो आज मजबूर होकर अपने भटके हुए शिष्य को रास्ता दिखाने आया था, परंतु दूसरे शिष्य को घायल देखकर उसकी सहायता कर दी । गुरुवर के लिए तो सब शिष्य बराबर हैं। कोई अच्छा काम करता है तो वो भी मेरा शिष्य है और जो बुरा काम करेगा, उसे भी मैं अपना शिष्य कहने से पीछे नहीं हटूंगा ।"
"क्षमा करें गुरुवर । ये बात तो मैं यूं ही कह बैठा था ।" दालूबाबा ने धीमे स्वर में कहा ।
गुरुवर मीठी मुस्कान लिए दालूबाबा को देखते रहे ।
"कहिये गुरुवर, कैसे आना हुआ ?" दालूबाबा ने पूछा ।
"मैं तो तेरे से पूछने आया था कि नगरी और तिलस्म तेरे पास मिन्नो की अमानत है । अगर तू सब कुछ मिन्नो को वापस देने का इरादा रखता है तो मिन्नो इस वक्त तिलस्म में है।"
दालूबाबा ने गुरुवर को देखा फिर सिर झुका दिया ।
"क्या बात है दालू, तेरा सिर क्यों झुक गया ?"
"गुरुवर, क्षमा कीजिये । आप तो सबके दिल का हाल जानते हैं ।" दालूबाबा ने आदर भाव से कहा ।
गुरुवर के चेहरे पर छाई मुस्कान और गहरी हो गई ।
"ऐसे में आप मेरे से ये सवाल करके, मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं ।" दालूबाबा का स्वर शांत था ।
"मैं तुझे शर्मिंदा नहीं करने आया दालू ।"
"मैं जानता हूं आप कभी झूठ नहीं बोलते ।" दालूबाबा के स्वर में आदर के भाव थे ।
"कोई शिष्य गलत काम करे तो गुरु का फर्ज है कि उसे सच्ची राह दिखाये ।"
"मैं आपसे पूर्ण विद्या हासिल कर चुका हूं गुरुवर ।"
"विद्या कभी भी पूर्ण नहीं होती दालू । जितनी भी ग्रहण कर लो । वही कम है ।" दालूबाबा की आवाज में मीठापन था--- "मैं अच्छी तरह जानता हूं कि तेरी विद्या में कहीं कोई कमी नहीं रही । जहां तक भी तूने विद्या ली । ठीक ली, परंतु कालूराम और हाकिम की तरह उस विद्या का तू गलत इस्तेमाल कर रहा है ।"
दालूबाबा की निगाहें उठी । गुरुवर को देखा फिर सिर झुका लिया ।
"आप कहना क्या चाहते हैं गुरुवर ? स्पष्ट करें ।"
"अवश्य दालू ।" गुरुवर ने मुस्कान भरे स्वर में कहा--- "मैं स्पष्ट ही तो कह रहा हूं । लंबा जीवन जीने का मोह त्याग कर नगरी का समय चक्र पुनः चालू कर दो । जो अमानत तुम्हें मिन्नो दे गई थी, वो उसे वापस कर दे और हाकिम को बुलाने के लिये अनुष्ठान मत कर। सब कुछ त्याग कर मेरी शरण में आ। मैं तुझे ऐसी विद्या सिखाउंगा, जो हर शिष्य को नहीं सिखाई जाती ।"
"गुरुवर, आप अगर अपमान महसूस न करें और मुझे क्षमा करें तो मैं कुछ कहूं ।"
"कहो दालू । मैं अपने शिष्य की बात का बुरा नहीं मानता । अपनी बात कहने का सबको हक है ।"
"गुरुवर, अब आप नगरी के कामों में दखल देने की कोशिश कर रहे हैं ।"
"वो कैसे ?" गुरुवर बराबर मुस्कुरा रहे थे ।
"आपने कहा, मैं नगरी और तिलस्म मिन्नो को वापस दे दूं । यह हम लोगों के काम में दखल नहीं तो और क्या है ?" दालूबाबा का स्वर धीमा और शब्दों में आदर था--- "उस पर आप नगरी के समय चक्र को पुनः चालू करने को कह रहे हैं, जबकि आपको नगरी की बातों में दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिये ।"
गुरुवर मुस्कुराते हुए उसे देख रहे थे ।
दालूबाबा ने कहने के पश्चात गुरुवर से निगाहें नहीं मिलाई थी ।
"आगे कहो दालू, रुक क्यों गये ?"
"और आप कह रहे हैं कि हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान न करूं । यह सब कहना नगरी में दखल ही तो है ।"
गुरुवर के चेहरे पर छाई मुस्कान और गहरी हो गई ।
"यह तुम्हारा सोचने का नजरिया है, तभी तुम इन बातों को नगरी में दखल देने वाली बात कह रहे हो । मेरे नजरिये से सोचो तो ऐसा कुछ भी नहीं है ।" गुरुवर का स्वर बेहद मीठा था ।
"मैं समझा नहीं गुरुवर ।"
"मैं अपने शिष्यों का भला चाहता हूं । तुम हाकीम, देवा, मिन्नो और ये सब जिन्हें तुमने कैदी बना रखा है, सब मेरे ही तो शिष्य है । कोई कैसा भी हो । परंतु मुझे तो सब से प्यार है । मैं तो सबका भला चाहता हूं । डेढ़ सौ बरस पहले भी, जब मेरे शिष्य आपस में झगड़ा बैठे थे तो मेरे ही शिष्यों ने अपनी जान गंवाई थी। मुझे दुख हुआ फिर ऐसा हुआ । अब फिर मुझे दुख होगा । मैं नहीं चाहता कि बीता वक्त पुनः खुद को दोहराये । अगर तुम अपने कदम रोक लोगे तो सब ठीक हो जायेगा । मिन्नो को मैं समझा दूंगा । नगरी का एक तिनका भी नहीं बिखरने दूंगा । इस बात की मैं जिम्मेवारी लेता हूं ।"
"क्षमा करें गुरुवर । कहते हुए मुझे शर्म तो आ रही है, परंतु मैं मजबूर हूं । अपने बढ़े हुए कदमों को वापस लेना मेरे लिए संभव नहीं ।" दालूबाबा धीमे स्वर में कह उठा ।
गुरुवर के चेहरे पर मुस्कान छाई रही ।
"गुरुवर की बात मानने में कभी नुकसान नहीं होता । फायदा ही होता है दालू ।"
दालूबाबा खामोश रहा ।
"मैं चाहूं तो तेरे कदमों को हमेशा के लिए रोक दूं दालू । परंतु मेरा इस बात पर यकीन पक्का है कि इंसान जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल प्राप्त करता है । इसलिए मैं तो विद्या बांटता हूं। शिष्य अपने कर्म करते हैं और ऊपर बैठा सबको देखने वाला कर्मों के मुताबिक ही फल बांटता है।"
"गुरुवर ।" दालूबाबा ने धीमे स्वर में कहा--- "मैं अनुष्ठान कर के हाकिम को बुला रहा हूं । तीसरे दिन वो यहां पर मौजूद होगा । अगर आपके समझाने पर हाकिम सीधे रास्ते पर आ जाये तो मैं हमेशा के लिए आपके चरणो में आ जाऊंगा ।"
गुरुवर खुलकर मुस्कुराये ।
"यह बात तुम इसलिए कह रहे हो कि हाकिम मेरा बेटा है ।" गुरुवर की आवाज में वही मीठापन मौजूद था ।
दालूबाबा ने कुछ नहीं कहा ।
"हाकिम मेरा बेटा है । मेरे से उसने बड़ी से बड़ी विद्या सीख ली ।" गुरुवर के चेहरे पर छाई मुस्कान कम नहीं हुई थी--- "वो विद्या भी मैंने उसे सिखा दी, जो कि नहीं सिखानी चाहिए थी। बहुत बड़ा विद्वान बन गया था वो । मैं तब कितना खुश था कि मेरा बेटा लायक निकला। अपने देवता का आह्वान करके उसे देवता के दर्शन कराये और देवता से हाकिम को अमरत्व दिलवा दिया कि ये जीवन भर दूसरों का भला करेगा। मुझ पर विश्वास करके देवताओं ने हाकिम को अमरत्व दिया था । परंतु अपने ही बेटे के मस्तिष्क की सोचों से मैं हमेशा अनजान रहा । वो तब अमरत्व प्राप्त होने का इंतजार कर रहा था, जिसके प्राप्त होते ही वो बुरे रास्तों पर चल पड़ा । बहुत समझाया मैंने उसे। परंतु अमरत्व हासिल करने के बाद घमंड उसे खा गया था । मेरी एक नहीं सुनी । नहीं मानी मेरी बात । मैं चाहता तो उसका नाश कर सकता था, परंतु हर कोई अपने कर्मों के अनुसार ही फल पाता है। इसलिए मैंने मन से उसे क्षमा कर दिया । उसके अच्छे-बुरे कर्मों को भूल कर अपने रास्ते पर लगा रहा। दो सौ बरस बीत चुके हैं, इस बात को और अब तुम कहते हो कि हाकिम को समझाकर, मैं सीधे रास्ते पर लाऊं । मैं ऐसा क्यों करूं दालू ?"
दालूबाबा खामोश रहा ।
"मैं अपने शिष्य को समझाने आया था ।" गुरुवर बराबर मुस्कुरा रहे थे--- "अब महसूस हुआ कि ये भूल थी मेरी क्योंकि मेरा शिष्य मेरे को ही रास्ता दिखाने लगा ।"
"नहीं गुरुवर, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था । हाकिम की बात यूं ही---।"
"बातचीत का समय पूर्ण हो गया है दालू । अब मेरे चलने का वक्त आ गया है ।" कहने के साथ ही गुरुवर ने आंखें बंद की तो, सबके देखते ही देखते गुरुवर जैसे हवा में विलीन हो गये ।
कुछ पलों के लिए सब सकते की-सी हालत में खड़े रहे।
जाने क्यों दालूबाबा के चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान नाच उठी ।
उसके बाद पास पड़ी छोटी-छोटी लकड़ियां उठाकर कुंड में रखनी आरम्भ कर दी । सबकी निगाहें दालूबाबा की हरकत पर थी कि एकाएक महाजन चीख कर गुस्से से कह उठा ।
"दालू, आज मैं मान गया कि तेरे से बड़ा नीच इस नगरी में कोई दूसरा नहीं ।"
दालूबाबा ने मुस्कुराकर पिंजरे में बंद महाजन को देखा, फिर पुनः अपने काम में व्यस्त हो गया ।
"कमीनी, तूने तो अपने गुरुवर की भी लाज नहीं रखी, फिर देवी के साथ तो जो कर जाये, वही कम है ।" महाजन खा जाने वाले स्वर में कह रहा था--- "गुरुवर ने तेरे को विद्या सिखाकर जानवर से इंसान बनाया । वरना आज भी तू कहीं बैल चलाकर पेट भर रहा होता । गुरुवर का कर्जा तो पूरे जन्म में नहीं उतार सकता तू । गुरुवर की शराफत तो देख आज तक उन्होंने कभी किसी चीज से गुरुदक्षिणा नहीं मांगी । किसी ने दी है तो उन्होंने ग्रहण करने से इंकार कर दिया और आज तेरे को गुरुवर ने कुछ कहा तो तूने मानने से इनकार कर दिया ।"
दालूबाबा मुस्कुराता रहा ।
जगमोहन ने क्रोध से महाजन को देखा ।
"तू क्यों गला फाड़ रहा है। इसकी शक्ल ही बता रही है कि ये निहायत ही घटिया इंसान है ।" जगमोहन बोला ।
"म्हारे को न मालूम हौवे कि का मामलो हौवे ।" बांकेलाल राठौर बंधनों में झगड़ा फड़फड़ा रहा था--- "अंम थारो को एको बात जरूर पूछो हो दालू बाबे ।"
दालूबाबा ने उसे देखा ।
"पूछ भंवर सिंह ।" दालूबाबा के चेहरे पर जहरीली मुस्कान थी ।
"यो कुण्डों में लकड़ियों को लगाकर अपनो चिता सजायो का ?"
दालू बाबा के दांत भिंच गये । उसने सीधा खड़ा होकर बांकेलाल राठौर को घूरा ।
"म्हारे को अखियों ही अखियों में खावे का ?"
"ये मैं अपनी नहीं तुम लोगों की चिता तैयार कर रहा हूं ।" दालूबाबा ने कठोर स्वर में कहा ।
"ऐसी भयानक बातें क्यों करता है दालू ?" सोहनलाल गहरी सांस लेकर कह उठा--- "हमने तेरा क्या बिगाड़ा है ?"
"कुछ नहीं बिगाड़ा गुलचंद ।" दालूबाबा पहले जैसे स्वर में कह उठा--- "लेकिन बिगाड़ बहुत कुछ सकते हो । अगर अभी मुझे देवा और मिन्नो की मौत की खबर मिल जाये तो मैं अनुष्ठान करके हाकिम को नहीं बुलाऊंगा । लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा संभव हो पायेगा, क्योंकि वे तिलस्मी जहर की हत्या कर सकते हैं तो स्पष्ट है कि वे आसानी से बस में आने वाले नहीं । हाकिम ही निपटेगा उनसे ।"
"कुत्ता हमेशा भौंक कर, अपनी सहायता के लिये कुत्ते को ही बुलाता है ।" महाजन ने नफरत भरे स्वर में कहा ।
दालूबाबा अपने काम में व्यस्त रहा ।
तभी केसर सिंह वहां आ पहुंचा ।
"आ केसरे, आदेश दे आया ?"
"हां दालूबाबा ।"
"मैं बाकी कार्य पूर्ण करता हूं, तब तक तुम इन छः कटोरों में इन छः मनुष्यों का लहू भरो।"
"जी ।" कहने के साथ ही केसर सिंह ने सामान्य साइज के छः कटोरे उठाये और उनकी तरफ बढ़ गया।
"ओ राक्षस । ईब तम म्हारा लहू पियो का ?"
"वास्तव में कुत्ते हो तुम लोग ।" जगमोहन सख्त स्वर में कह उठा ।
"मेरे में तो पहले ही खून कम है ।" सोहनलाल ने हड़बड़ाकर कहा--- "फिर पारसनाथ को देखा--- "भाई पारसनाथ मेरे बदले तू कटोरा लहू दे दो । उधार रहा, कभी-न-कभी तो वापस कर ही दूंगा ।"
जवाब में पारसनाथ मुस्कुरा कर रह गया ।
"ये खून निकालेगा ।" कर्मपाल सिंह घबरा उठा ।
तभी महाजन ने जोरों से ठहाका लगाया ।
"दालू ।" महाजन हंसी रोकते हुए कह उठा--- "मेरा खून लेगा तू । ले, पिंजरा हटा । मेरा लहू तो तू बाद में देखेगा । पहले हर जगह तेरा लहू बिखरा होगा।"
केसर सिंह ठिठका । पिंजरे में बंद महाजन पर निगाह मारकर दालूबाबा को देखा ।
दालूबाबा की निगाह भी उस तरफ उठ चुकी थी ।
"केसरे, तुम दूसरों का लहू लो । नीलसिंह का लहू मैं निकालूंगा ।" दालूबाबा ने कहा ।
महाजन कड़वे ढंग से हंस पड़ा ।
केसर सिंह पहले जगमोहन के पास पहुंचा । जिसके हाथ-पांव बंधे पड़े थे और वो बेबस-सा जमीन पर पड़ा था । केसर सिंह ने पीठ पीछे उसके बंधे हाथों की एक उंगली पर हाथ रखा और होठों-ही-होठों में मंत्र बुदबुदाने लगा । देखते-ही-देखते उंगली से बूंद-बूंद करके खून बहने लगा । नीचे गिरती खून की बूंदों के नीचे केसर सिंह ने कटोरा रखा और जगमोहन से बोला ।
"जग्गू, ऐसे ही रहना । तुम्हारे हाथ की उंगली से खून निकल कर कटोरे में पड़ रहा है । अगर तुम हिले तो खून बेकार में बहेगा । एक कटोरा अभी भी तुम्हारे खून का हर हाल में लेना ही है । दोबारा भरना पड़ेगा । इससे तुम्हारे ही शरीर में लहू की कमी होगी । तुम्हारे ही शरीर को नुकसान होगा ।"
"अभी से तुम्हारा क्या मतलब ?" सोहनलाल जल्दी से कह उठा--- "क्या दोबारा फिर खून लोगे ?"
"हां, अब जो खून भरा जा रहा है । वो तो अनुष्ठान के काम आयेगा । हाकिम के आने पर उसे खून पिलाने के लिए पुनः खून निकालना पड़ेगा और जिसका खून उसे सबसे ज्यादा स्वादिष्ट लगेगा वो उस मनुष्य के शरीर का सारा लहू निकालकर पियेगा और शरीर को भूनकर खायेगा।"
"राम-राम ! इतना गंदा है वो हाकीम ।" सोहनलाल कह उठा--- "चिंता की कोई बात नहीं मेरा खून उसे स्वाद नहीं लगेगा । क्योंकि मेरे लहू में तो नशे वाली गोली का स्वाद भरा है ।"
केसर सिंह खामोशी से उनका लहू निकालने में व्यस्त रहा।
कुण्ड में लकड़ियां लगाने के बाद, दालूबाबा अगरबत्ती, धूप जलाकर, हवन कुंड के आसपास विधिनुसार लगाने लगा । अभी उन्हें सुलगाया नहीं गया था । उसके बाद बहुत बड़े पीतल के थाल, जिसमें अनुष्ठान की सूखी सामग्री भरी पड़ी थी, उसे कुण्ड के पास खींच लिया। लोबान को कुण्ड में पड़ी लकड़ियों के ऊपर रख दिया ।
तब तक केसर सिंह लहू के भरे कटोरे ला-लाकर कुण्ड के पास रखने लगा ।
"दालूबाबा, नीलसिंह का लहू, कटोरे में भरना बाकी है ।" केसर सिंह ने कहा ।
"कटोरा नीलसिंह के पिंजरे से चार फीट दूर रखो ।"
दालूबाबा के आदेश पर केसर सिंह ने खाली कटोरा पिंजरे से चार फीट दूर रख दिया।
दालूबाबा ने महाजन को देखा फिर आंखे बंद करके धीमे स्वर में मंत्र बोलने लगा । करीब आधा मिनट यही आलम रहा । फिर बंद आंखों से ही दालूबाबा ने उंगली महाजन की तरफ उठा दी ।
उसी पल पिंजरे के पास पड़ा कटोरा लहू से भरा नजर आने लगा ।
महाजन को एकाएक अपने शरीर में कमजोरी-सी महसूस हुई ।
"कटोरा ले आ केसरे ।"
केसर सिंह ने महाजन के लहू से भरा कटोरा लाकर, बाकी के कटोरों के पास रख दिया।
दालूबाबा ने सारे प्रबंध पर निगाह मारी ।
"सेवक को बुला लाओ ।"
केसर सिंह सिर हिलाकर बाहर निकल गया ।
सबकी निगाह दालूबाबा की हरकतों पर थी । महाजन खूनी निगाहों से दालूबाबा को देख रहा था ।
पांच मिनट में ही केसर सिंह सेवक के साथ लौटा । केसर सिंह सेवक ने कमर पर सफेद धोती लपेट रखी थी । दोनों के माथे पर तिलक और गले में मालाएं मौजूद थी।
दालू बाबा चौकी पर बैठा और दोनों को देखकर शांत स्वर में बोला ।
"तुम दोनों भी बैठ जाओगे । केसर तू यहां और तू यहां ।"
दोनों दालूबाबा की बताई जगह पर बैठ गये ।
"तुम दोनों इस अनुष्ठान के कायदे-नियम जान लो और उसके मुताबिक ही अनुष्ठान की क्रिया में सहायक बनना है ।" दालूबाबा का स्वर गंभीर था--- "जरा सी भी गलती अनुष्ठान को खराब कर देगी ।"
"ऐसा नहीं होगा दालूबाबा ।" केसर सिंह ने विश्वास भरे स्वर में कहा ।
पास बैठे सेवक ने भी सहमति में सिर हिलाया ।
"इस अनुष्ठान में शुद्ध घी के बारह पीपों का ही इस्तेमाल होगा । इसलिए घी को कुण्ड में इस प्रकार डालना है कि ये पीपे तीसरे दिन अंतिम समय में ही समाप्त हों । सेवक घी डालने के लिये लकड़ी का वो चम्मच उठा लो ।"
सेवक ने फौरन चम्मच उठा लिया । घी का खुला कनस्तर पास ही पड़ा था । वो चम्मच के दो फीट लंबा था । और आगे थोड़ी-सी गहराई थी जिसके द्वारा घी कुंड में डाला जा सके।
"केसरे, तुम्हारे पास कबूतर का पंख पड़ा है । जब मैं बांया हाथ ऊपर उठाऊं तो पंख को लहू के कटोरे में गीला करके कुण्ड में छींटे डालने है । याद रहे ये छः कटोरे लहू के हैं एक कटोरे से शुरू होकर छठे कटोरे तक जाना है, उसके बाद पुनः पहले कटोरे से शुरू होना है ।"
"समझ गया दालूबाबा ।"
"और अब दांया हाथ ऊपर उठाऊं तो तुम दोनों ने एक साथ सामग्री और घी कुण्ड में जलती आग में डालना है । यहां अनुष्ठान तीन दिन तक चलेगा और इस बीच खाना या पानी ग्रहण नहीं करना है । किसी भी काम के लिये यहां से नहीं उठना है । यानी कि हाकिम के प्रकट होने के बाद ही यहां से उठना है ।" दालूबाबा ने दोनों को देखा ।
केसर सिंह और सेवक ने सहमति में सिर हिलाया ।
"अनुष्ठान के दौरान ये कैदी मनुष्य कुछ कहकर या कैसी भी हरकत करके अनुष्ठान में विघ्न डालने की चेष्टा कर सकते हैं। परंतु हमें इनकी बातों-हरकतों की तरह जरा भी ध्यान नहीं देना है ।" दालूबाबा गंभीर था ।
दोनों ने पुनः सिर हिलाया ।
दालूबाबा ने अपने सामने पड़ी किताब को देखा।
"हाकिम को बुलाने की युक्ति इस किताब में दर्ज है । परंतु वो युक्ति किस पृष्ठ पर दर्ज है । इस बात से मैं अनजान हूं । यही वजह है कि ये किताब मुझे शुरू से अंत तक पूरी पढ़नी पड़ेगी । किताब के सारे श्लोक और मंत्र मुझे दोहराने पड़ेंगे । किताब के अंतिम पृष्ठ पर आने में तीन दिन का समय लगेगा और अंतिम पृष्ठ समाप्त होते ही हाकिम के आने की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी, जिससे किसी को भी घबराने की आवश्यकता नहीं। वो सारी सामान्य प्रतिक्रिया होंगी, हाकिम की आने की ।"
"जी ।" केसर सिंह ने सिर हिलाया--- "अनुष्ठान के पश्चात हाकिम अवश्य प्रकट होगा ?"
"अवश्य ।" दालूबाबा विश्वास भरे स्वर में मुस्कुराया--- "शक की कोई शंका नहीं ।"
केसर सिंह ने कुछ नहीं कहा ।
"तो अब हम अनुष्ठान शुरू कर रहे हैं ।" कहने के साथ ही दालू बाबा चौकी से उठा और कुंड के पास पहुंच कर केसर सिंह से कहा--- "लकड़ियां पर लहू के छींटे डालो ।"
केसर सिंह ने पंख उठाकर कतार में रखे लहू के प्याले में से पहले प्याले में पंख को डुबोया फिर उसके छीटें कुंड में मौजूद लकड़ियों पर डाले ।
"सामग्री ।"
केसर सिंह ने सामग्री भी डाल दी ।
"घी ।"
सेवक ने फौरन लकड़ी का चम्मच कनस्तर में डालकर घी से भरा और लकड़ियों पर डाल दिया । दालूबाबा ने हवनकुण्ड को दोनों हाथ जोड़े, फिर होठों-ही-होठों में मंत्र बुदबुदाने लगा । देखते ही देखते हवनकुण्ड के किनारे पर लगी धूप-अगरबत्ती सुलग उठी । वातावरण उनकी सुगंध से भर उठा, तभी दालूबाबा ने हवनकुंड में मौजूद लकड़ियों की तरफ उंगली की वो आग से भभक उठी । जिसकी वजह से वातावरण में सामग्री और लोबान की खुशबू भी फैल गई।
हवनकुंड की आग की लपटें चार-चार फीट ऊंची जा रही थी । एकाएक ही वहां का माहौल अजीब-सा रहस्यमयी हो उठा था ।
दालूबाबा ने दोनों हाथ हवनकुंड में जलती आग को जोड़े और अब वापस अपनी चौकी पर आ बैठा । उसके बाद किताब खोली और प्रथम पृष्ठ निकालकर ऊंचे-ऊंचे स्वर में उसमें लिखे अक्षरों, मंत्रों और श्लोकों का उच्चारण करने लगा । जब भी उसका दायां या बायां हाथ उठता तो उसी के मुताबिक केसर सिंह और सेवक हवनकुंड में घी-सामग्री और लहू की बूंदें डालने के कार्य को अंजाम दे देते। हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान आरंभ हो चुका था ।
वे सारे कैदी बने, इस अजीब अनुष्ठान को देख रहे थे । जबकि महाजन के दांत भिंचे हुए थे । चेहरा क्रोध से सुलग रहा था और आंखों में अब व्याकुलता भरी पड़ी थी ।
दालूबाबा के ऊंचे शब्द गूंज रहे थे ।
हवनकुंड की आग भड़क रही थी ।
केसर सिंह और सेवक अपने कार्यों को सही ढंग से अंजाम देते जा रहे थे।
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