मोहनलाल दारूवाला।
यूँ दारू से उसका कोई नाता-वास्ता नहीं था। बाप-दादा नाम के आगे दारूवाला लगाते थे तो परंपरा कायम रखते हुए वो भी अपने नाम के आगे दारूवाला लगाने लगा। यहां तक कि दारू पीने का शौकीन भी नहीं था। यूँ ही कभी-कभार साल भर में एक-आध बार पीने का मूड आये तो थोड़ी-बहुत ले लेता था। मस्त बंदा था दारूवाला। परन्तु अपनी जिंदगी से अपने नसीब से उसे शिकायत बहुत ज्यादा थी। उसकी जिंदगी में नसीब के पत्ते कभी भी सही नहीं पड़े थे। हमेशा ही उल्टे पत्ते पड़े और वो कभी जीत न सका। अपनी जिंदगी को किसी तरह खींच-खांच कर ढो रहा था।
इस वक्त दोपहर का एक बज रहा था। मोहनलाल दारूवाला फरीदाबाद के पास पहाड़ियों और जंगल में मौजूद था और एक छोटी सी पहाड़ी पर चढ़ा, टेलीस्कोपिकगन पर आँख लगाये हिरणों के झुंड को देख रहा था। उंगली गन के ट्रिगर पर टिकी हुई थी। टेलिस्कोप के कारण हिरणों का झुंड बहुत ही पास नजर आ रहा था। एकाएक उसने टेलिस्कोप पर से आँख हटाकर नंगी आँखों से हिरनों के झुंड को देखा तो वो बहुत दूर दिखे। उसने फिर टेलिस्कोप पर आँख लगा दी और एक हिरण को निशाने पर लेकर बड़बड़ाया---
"देख, अब मैं तेरा निशाना लेने जा रहा हूँ, तू घबराना मत। यहीं खड़े रहना, अगर तू अपनी जगह से हटा तो मेरा मूड खराब हो जायेगा।"
अगले ही पल उसने ट्रिगर दबा दिया।
"धायं!"
तीव्र आवाज उभरी और अगले ही पल हिरणों का झुंड तितर-बितर होकर भाग खड़ा हुआ।
दो पलों में ही सब हिरण गायब हो चुके थे जंगल में।
जिस हिरण का वो निशाना ले रहा था, वो भी गायब हो चुका था।
"सत्यानाश---।" उसने टेलीस्कोपिक गन से आँख हटाकर बुरा-सा मुँह बनाया--- "मेरा नसीब ही खराब है। एक हिरण भी हाथ नहीं आया।"
दोपहर की धूप शरीर को चुभ रही थी। आसपास देखने के बाद उसने पुनः टेलीस्कोप से आँख हटाई और खड़ा होते बड़बड़ाया---
"आज का दिन खराब हो गया। कोई फायदा नहीं हुआ।"
पास रखा छोटा सा बैग कंधे पर लटकाया और गन संभाले वहां से हर तरफ नजरें घुमाईं। वो एक ऐसी छोटी पहाड़ी पर खड़ा था, जहां से हर तरफ जंगल ही जंगल नजर आ रहा था। मोहनलाल दारूवाला पहाड़ी से थोड़ा नीचे उतरा और एक तरफ छाया में बैठ कर उसने गन को पास ही रखा और बैग को कंधे से उतारकर, बैग में से टिफिन निकाला। छोटा सा टिफिन ऐसा था जैसा पांचवी का बच्चा उसमें स्कूल खाना ले जाता हो। उसे खोला तो भीतर एक परांठा पड़ा था। परांठे को उठाया और खाने लगा। नजरें सामने के जंगल में फिर रही थीं। वो शांत लग रहा था। उसके चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे अब जिंदगी से कुछ भी पाने की इच्छा न हो। पाने की कोशिश में थक गया हो और अब जो मिल रहा है, उससे मजबूरन सन्तुष्ट हो।
परांठे रूपी लंच करने के बाद बैग से पानी की बोतल निकाल कर उसमें मौजूद बचा-खुचा पानी पिया, फिर उसे वापस रखकर बैग को बंद करके पीठ की तरफ तकिये की तरह रखा और पास रखी गन को थपथपा कर अधलेटा सा होकर, आँखें बंद कर लीं। वो कुछ देर सुस्ता लेना चाहता था। हिरण का शिकार करने की चाहत की वजह से, हिरणों के झुंड आने के इंतजार में वो ढाई घण्टे तक एक ही जगह पर बैठा रहा था और अब कुछ थकान महसूस कर रहा था।
आँख लग गई मोहनलाल दारूवाला की।
दायां हाथ गन पर ही रखा हुआ था, जिससे ये जाहिर हो रहा था कि आदतन वो सतर्क रहने वाला इंसान है। करीब आधा-पौना घण्टा वो इसी प्रकार नींद में रहा।
तभी एक धमाके की आवाज आई तो उसकी आँखें खुल गईं। वो सीधा होकर बैठ गया। गन पर पकड़ मजबूत हो गई। नजरें हर तरफ जाने लगीं। होंठ थोड़े से सिकुड़ गये थे। वो समझ नहीं पाया कि उसकी आँख क्यों खुली थी? क्या हुआ था? चंद पल इसी उलझन में बीत गये।
मोहनलाल दारूवाला सतर्कता से आसपास देखे जा रहा था कि पास में शेर या चीता हो। इतना तो पक्का था वो कि आँख खुलने की वजह कोई शोर कोई आहट ही थी।
पांच मिनट बीत गए। सब ठीक लगा उसे। लेकिन अब उसने नींद लेने का इरादा छोड़ दिया। थोड़ा-सा सुस्ताना ही तो था, वो सुस्ता लिया था। एक बार फिर उसने हिरणों को तलाश करने की सोची और उठ खड़ा हुआ। गन हाथ में थी। बैग उठाकर कंधे से लटका लिया और पुनः पहाड़ी पर चढ़ने जा ही रहा था कि उसी पल उसके कानों में धमाका गूंजा।
वो चौंका।
मोहनलाल दारूवाला को आवाज से समझते देर न लगी कि रिवाल्वर की गोली चली है।
क्या कोई उसकी तरह चोरी-छिपे जंगल में शिकार करने आया है? ऐसा है तो रिवाल्वर से शिकार क्यों करेगा? रिवाल्वर की गोली ज्यादा दूर तक नहीं जाती। शिकार गोली चलाने वाले को फाड़कर खा जायेगा।
जब वो नींद में था तो क्या तब भी उसकी आँख गोली की आवाज सुनकर टूटी थी?
तभी एक के बाद एक कई गोलियाँ चलने की आवाजें आईं।
नहीं। ये शिकार नहीं हो रहा। कुछ और ही बात है। मोहनलाल दारूवाला तेजी से पहाड़ी उतरने लगा। ये बात महसूस कर चुका था कि गोली की आवाजें किधर से आ रही हैं।
कुछ पल बीते कि पुनः गोली चलने की आवाज आई। "ये क्या हो रहा है?" तेजी से पहाड़ी उतरता मोहनलाल दारूवाला बड़बड़ा उठा।
■■■
पैंतीस मिनट बाद मोहनलाल दारूवाला हाथ में टेलिस्कोप लगी गन थामें उस जगह पर जा पहुंचा, जहां से गोलियां चलने की आवाजें आ रही थीं। घना जंगल था यहां, परन्तु वो जानता था कि यहां से बाहर निकल जाने का रास्ता पास ही में है। एक तरह से ये जंगल का शुरुआती हिस्सा ही था। मोहनलाल दारूवाला गन थामें सावधानी से पेड़ों की ओट लेता आगे बढ़ रहा था। काफी देर से फायर की आवाज नहीं सुनाई दी। सबसे पहले दारूवाला को एक कार खड़ी दिखी। तब वो वहां से कुछ दूर था।
कुछ और आगे आया तो दो लाशें पड़ी दिखीं। उसकी आँखें सिकुड़ी। कुछ और आगे आया तो बाईं तरफ कुछ हटकर पड़ी, एक अन्य लाश पर निगाह पड़ी, फिर कई कदमों के फासले पर एक और लाश देखी।
"चार लाशें!" मोहनलाल दारूवाला की सतर्क निगाह हर तरफ घूम रही थी।
उसे जिंदा इंसान की तलाश थी।
गोली चलाने वाला भी पास ही कहीं होना चाहिए।
परन्तु ऐसा कोई भी नहीं दिखा यहां।
तसल्ली कर लेने के पश्चात मोहनलाल दारूवाला पास आ पहुंचा। इस वक्त वो बेहद सतर्क था। किसी भी मुसीबत से निपटने को तैयार था। करीब पहुंचकर उसने लाशों को चेक किया।
वे चारों मरे पड़े थे।
मोहनलाल दारूवाला ने सोच भरी नजरों से इधर-उधर देखा।
"ये लोग किसी काम के लिए, बातचीत के लिए इकट्ठे हुए होंगे। मीटिंग कर रहे होंगे।" मोहनलाल बड़बड़ाया--- "परन्तु किसी बात पर आपस में सहमति नहीं बन पाई होगी और गोलियाँ चल गईं। यही हुआ होगा।"
तभी मोहनलाल दारूवाला की निगाह वहां कार के पीछे वाले खुले दरवाजे से कार में सीट पर बैठे आदमी पर गई। वो जैसे थोड़ा सा हिलता महसूस हुआ था।
मोहनलाल दारूवाला गन थामें सावधानी से कार की तरफ बढ़ने लगा और एक बार फिर उसने हर तरफ नजर मारी। परन्तु कहीं भी कोई नहीं दिखा। वो कार के खुले दरवाजे के पास पहुंचा और सावधानी से भीतर मौजूद व्यक्ति को देखा।
वो देवराज चौहान था।
डकैती मास्टर देवराज चौहान।
परन्तु इस वक्त बुरे हाल में था। कमर में खून ही खून नजर आ रहा था। तय था कि उसे गोली लगी है। चेहरा मुरझाया हुआ था। आँखें बंद थीं और सिर कार की खिड़की से टिका हुआ था। मोहनलाल दारूवाला फौरन समझ गया कि इस आदमी को इसी मुद्रा में गोली मारी गई है। उसके बाद से ये यहीं का यहीं बैठा है।
"तुम होश में हो?" मोहनलाल दारूवाला ने कहा।
परन्तु देवराज चौहान की मुद्रा में कोई फर्क नहीं आया।
मोहनलाल दारूवाला ने सिर कार के भीतर से निकाला और सावधानी से आसपास देखा, परन्तु सबकुछ पहले जैसा ही था। कोई खतरा नहीं दिखा। वो पुनः गन थामें और दूसरा वाला हाथ आगे करके देवराज चौहान के कंधे को हिलाकर बोला---
"क्या तुम ठीक हो?" होश में हो?"
देवराज चौहान का शरीर थोड़ा सा हिला, थोड़ा सा चेहरा हिला। फिर लगा जैसे आँखें खोल रहा हो, लगभग आधे मिनट की कोशिश के बाद देवराज चौहान ने थोड़ी सी आँखें खोलीं, जोकि दर्द से लाल हो रही थीं। आँखों में जैसे पीड़ा का नशा भरा पड़ा था। जरा सी गर्दन घुमाकर देवराज चौहान ने मोहनलाल दारूवाला को देखा।
"क्या हुआ यहां? मैंने यहां गोलियाँ चलने की आवाजें...।"
देवराज चौहान की आँखें पुनः बंद हो गईं।
"हैलो। आँखें खोलो---।" मोहनलाल दारूवाला ने पुनः उसे हिलाया।
देवराज चौहान की आँखें पुनः थोड़ी सी खुलीं। उसे देखा और होंठों से मध्यम सा स्वर निकला---
"तुम...तुम...कौन...हो?"
"मैं... मैं मोहनलाल दारूवाला। पहले तुम बताओ कि यहां...।"
"प-पा-पानी...।" देवराज चौहान के होंठों से निकला।
"पानी, एक मिनट।" मोहनलाल दारूवाला थोड़ा सा पीछे हटा और कंधे पर लटके बैग को नीचे रखकर उसे खोला और उसमें से पानी की बोतल निकाली। परन्तु वो पूरी तरह खाली हो चुकी थी। एक बूंद भी पानी नहीं था बोतल में--- "पानी तो है नहीं।" कहते हुए मोहनलाल ने उसे देखा--- "अरे, तुम तो फिर लुढ़क गये...।"
देवराज चौहान का सिर पुनः कार के बंद शीशे के साथ जा टिका था।
"मर तो नहीं गया?" मोहनलाल दारूवाला ने हाथ बढ़ाकर उसे चैक किया।
परन्तु चलती धड़कन को उसने महसूस किया।
"जिंदा है।" मोहनलाल दारूवाला गहरी सांस लेकर पीछे हटा। बैग पुनः कंधे पर डाल लिया। कार के भीतर नजर मारने के बाद वहां से हटा और कार की डिग्गी के पास पहुंचकर यूँ ही डिग्गी को खोला।
अगले ही पल उसकी निगाह डिग्गी में पड़े बड़े से सूटकेस पर टिक गई।
मोहनलाल दारूवाला की आँखें सिकुड़ी। गन को कंधे पर लटकाया और सूटकेस खोला।
सूटकेस खोलते ही वो हक्का-बक्का रह गया। बदन में चीटियां रेंगती चली गईं।
सूटकेस में ठसाठस डॉलरों की गड्डियाँ भरी पड़ी थीं। उसके ऊपर एक काली जिल्द वाली डॉयरी रखी थी। आँखें फाड़े देर तक वो सूटकेस में भरी डॉलरों की गड्डियों को देखता रह गया।
"हे भगवान!" मोहनलाल दारूवाला अजीब से स्वर में बड़बड़ा उठा--- "ये तू मेरे से मजाक तो नहीं कर रहा...।"
अब ऊपरवाला भला क्या जवाब देता!
"मेरे नसीब में इतनी बड़ी दौलत? यकीन नहीं आता।" मोहनलाल दारूवाला बड़बड़ाया और एक गड्डी उठाकर फुरेरी दी। हवा का मध्यम सा झोंका उसके चेहरे से टकराया और गड्डी उसने वापस सूटकेस में रख दी। काली जिल्द वाली डॉयरी को उठाया, फिर तुरन्त ही उसे डॉलरों के ऊपर रखकर सूटकेस बंद किया और बायें हाथ में गन पकड़कर, दायें हाथ से सूटकेस उठाकर डिग्गी से बाहर निकाला।
"भारी है।" मोहनलाल दारूवाला बड़बड़ाया--- "दौलत ज्यादा हो तो, वो भारी तो होगी ही।" उसने आसपास नजर मारी। लाशें बिखरी हुई थीं। शांत-वीरानी हर तरफ महसूस हो रही थी--- "मोहनलाल दारूवाला! इस सूटकेस के साथ निकल ले यहां से। कोई आ गया तो नसीब के पत्ते फिर पलट जायेंगे। चल बेटा---।" वो बड़बड़ाया और डॉलरों से भरा भारी सूटकेस उठाकर एक तरफ बढ़ता चला गया।
■■■
शाम के छः बज रहे थे।
मोहनलाल दारूवाला ने कार को मध्यमवर्गीय कॉलोनी के एक मकान के सामने ले जाकर रोका। उसकी आँखों में चमक उभरी हुई थीं और चेहरा खुश था। आँखों के सामने डॉलरों की गड्डियाँ घूम रही थीं अब वो सब उसकी थीं। जिंदगी भर नसीब से उसे शिकायत रही थी। परन्तु आज वो सारी शिकायत दूर हो गई थी। अपने नसीब को वो लाख-लाख धन्यवाद दे रहा था कि उसे इतनी बड़ी दौलत का मालिक बना दिया। वो कार से बाहर निकला और पीछे का दरवाजा खोलकर बैग बाहर निकाला, फिर दरवाजा बंद किया और चोर निगाहों से डिग्गी की तरफ देखा, जहां डॉलरों से भरा सूटकेस मौजूद था। वो नहीं जानता था कि उसमें कितने डॉलर हैं, परन्तु इतना अवश्य जानता था कि उसकी जिंदगी अब मजे से कटेगी।
पलटकर घर के भीतर जाने लगा कि तभी सामने से आते आदमी ने मुस्कुरा कर पुकारा---
"दारूवाला साहब! नमस्कार।"
"नमस्कार चोपड़ा साहब।" मोहनलाल दारूवाला दो कदम बढ़कर उस व्यक्ति से मिला--- "कैसे हैं आप?"
"आपका पड़ोसी हूँ। बढ़िया हूँ। कभी दारू-वारु का दौर भी चला लिया करो जनाब...।" चोपड़ा ने हँसकर कहा।
"मुझे पीने का शौक नहीं है।" दारूवाला मुस्कुराया।
"क्या फर्क पड़ता है! कभी बिना शौक के ही दौर हो जाये।" फिर उसके कंधे पर बैग लटका पाकर चोपड़ा ने कहा--- "ये बैग लेकर आप कहाँ जाते हैं? कई बार आपको बैग लेकर आते-जाते देखा...।"
"ये...गोल्फ खेलने जाता हूँ।"
"बढ़िया शौक पाल रखे हैं। लेकिन ये गोल्फ कैसे खेलते हैं? मुझे नहीं मालूम, इसलिए पूछ रहा हूँ---।"
"कभी फुर्सत में बताऊँगा। आपको साथ ले चलूंगा, खुद ही देख लेना।"
"ये ठीक रहेगा, कल मैं तैयार रहूंगा।"
"मैं बता दूँगा चोपड़ा साहब, जब मुझे जाना होगा।"
"मेरा फोन नंबर ले लीजिए--- मैं---।"
"आप मेरे पड़ोसी हैं, मैं आपके घर आकर बता दूंगा।"
"एक दिन पहले बताना। याद से---।"
"जरूर।" मोहनलाल दारूवाला ने हाथ हिलाकर कहा और पलटकर घर के छोटे से गेट को खोलकर दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
दरवाजा खुला ही था।
मोहनलाल दारूवाला ने भीतर प्रवेश किया और दरवाजा बंद कर दिया।
सामने उसकी बत्तीस बरस की पत्नी लक्ष्मी सोफे पर बैठी टी.वी. देख रही थी। वो खूबसूरत थी। खुद को बनाकर रखने में यकीन करती थी। बाल पीछे सिर के ऊपर करके बांध रखे थे। पायजामा और टी शर्ट पहन रखी थी। गोरा रंग था। जबकि मोहनलाल दारूवाला की उम्र चालीस साल की थी और शरीर गठा हुआ था। टी.वी. पर कृषि दर्शन आ रहा था और उसमें बताया जा रहा था की सब्जियां कैसे उगाई जाती हैं और उसका रख-रखाव कैसे किया जाता है।
उसे आया पाकर लक्ष्मी ने रिमोट उठाकर टी.वी. बंद कर दिया और तीखे स्वर में कह उठी---
"क्यों तीसमारखां, कितने हिरण मारे? एक ही गोली से सब मर गए होंगे?"
मोहनलाल दारूवाला ने बैग नीचे रखा और कुर्सी पर बैठता कह उठा---
"जब भी मैं घर आता हूं तो तुम चिढ़ती बहुत हो...।"
"तुम्हारे जैसा आदमी जिस औरत के पल्ले पड़ेगा, वो तो मेरी तरह अपने बाल नोचती रहेगी।" लक्ष्मी ने उखड़े स्वर में कहा।
"तुम अपने बाल नोचती हो?"
"तुम्हें अब तक पता नहीं चली ये बात?"
"लेकिन तुम गंजी तो हुई नहीं, जो मुझे तुम्हारे बाल नोचने का पता चले।"
"चुप रहो! मुझे गुस्सा मत दिलाओ।"
"बाहर से आया हूं, चाय-पानी तो पिला---।"
"खुद ले लो पानी। तुम्हारे हाथ सलामत हैं। चाय बनाओ तो मुझे भी देना। सिर दर्द हो रहा है। जब से तुम्हारे साथ शादी हुई है, जिंदगी थम सी गई है। समझ में नहीं आता कि करूं तो क्या करूं!"
मोहनलाल दारूवाला मुस्कुरा पड़ा। उठा और दूसरे कमरे में रखे फ्रिज से पानी की ठंडी बोतल निकाल कर लाया और वापस बैठता हुआ बोतल से पानी पीने के बाद बोला---
"शुक्रिया।"
"बोतल को कह रहे हो?"
"नहीं, तुम्हें। तुमने पानी भर के ना रखा होता तो मुझे ठंडा पानी कैसे मिलता?"
"मुझे खींचने की कोशिश मत करो--- वरना रात का खाना नहीं बनाऊंगी।" लक्ष्मी ने कहा।
"तुम मुझसे चिढ़ती क्यों हो? मैंने कौन से तुम्हारे घोड़े खोल रखे हैं? मैंने तो तुम्हारे साथ वही किया जो हर पति अपनी पत्नी के साथ करता है। खाना-पीना तुम्हें पूरा मिलता है। घर है। फिर तुम क्यों...?"
"मेरी शादी गलत आदमी के साथ हो गई।"
"मैं गलत हूं--- हैरानी है!"
"तुम काम-धाम कुछ नहीं करते।"
"मैं लेखक हूं, उपन्यास लिख रहा...।"
"बहुत देखे हैं तुम जैसे उपन्यासकार। क्या तुम्हारे बाप ने भी तोता-मैना की कहानी लिखी है--- जो तुम उपन्यास लिखोगे?" लक्ष्मी ने मुंह टेढ़ा करके कहा--- "पहले तुम फ़ौज में थे। शादी के बाद मुझे मेरे मां-बाप के घर छोड़ दिया और खुद चले गए फौज की नौकरी करने। साल में महीने भर के लिए आते थे छुट्टी पर मेरा मन तभी से खट्टा हो गया। फिर पैंतीस साल की उम्र में रिटायरमेंट ले ली और फौज से वापस आकर मेरे सिर पर आ बैठे। सुबह-शाम मेरा बुरा हाल करने लगे, जैसे तुम्हें कोई काम ही नहीं रह गया जिंदगी में। फिर छोले-भटूरे की दुकान खोल ली। दो लाख का नुकसान उठाकर दुकान बंद कर दी। उसके बाद एल.आई.सी. एजेंट बने। लोगों का बीमा करने लगे। जब लोगों ने घास नहीं डाली तो फिर घर पर बैठ गए। तो फिर तुमने बिल्डिंग मैटीरियल का काम शुरू कर दिया। चार महीने करके फिर घर बैठ गये। अब कुछ नहीं दिखा तो कागज-कलम लेकर बैठ गये कि मैं बहुत बड़ा उपन्यासकार बनूंगा। साथ ही शिकारी बन गये। यहां-वहां जंगल में जाते हो और हिरण मारने की बेकार कोशिश करके वापस लौट आते हो। क्या तुम्हारे खानदान में भी किसी ने कुत्ता मारा था जो तुम हिरन मारोगे?"
"एक बार तो हिरन मार के लाया...।"
"छोड़ो-छोड़ो। रहने दो। मरा पड़ा मिल गया होगा, उठा लाये होगे।" लक्ष्मी हाथ नचाकर कह उठी।
मोहनलाल दारूवाला मुस्कुराया।
मेरे पास ग्यारह लाख रुपया पड़ा है बैंक में। उसका ब्याज आता है। पेंशन मिलती है, छः हजार रुपये महीना और...।"
"मेरी छोटी बहन को देखो, वैल्डिंग का काम करता है उसका आदमी और उसे पांच-पांच हजार की साड़ी ले कर देता है और हजार-हजार के सूट लाकर देता है। उसके पास कार भी है चाहे पुरानी ही सही। तुम्हारी कार में तो बैठने का मन ही नहीं...।"
"तो तू पैसा चाहती है लक्ष्मी?" मोहनलाल दारूवाला के चेहरे पर मुस्कान थी।
"चाहती तो मैं बहुत कुछ हूँ--- पर तेरे बस में कहां पैसे कि तू दे सके।" लक्ष्मी ने कटे-भुने स्वर में कहा--- "मेरी मॉं ने मना नहीं किया होता तो मैं कब का तेरे से तलाक ले चुकी होती--- किसी बढ़िया आदमी से शादी करती।"
"तू ऐसा कह रही है, पर करेगी कभी नहीं।"
लक्ष्मी ने मोहनलाल दारूवाला की आंखों में देखा, फिर मुंह बिचकाकर बोली---
"तू अभी औरतों को जानता नहीं कि वो जब करने पर आ जायें तो सब कुछ कर जाती हैं।"
"पर मैं जानता हूं कि तू कुछ नहीं करेगी। तू मुझसे प्यार करती है।"
"यही तो मुसीबत है!" लक्ष्मी गहरी सांस लेकर बोली--- "घर में कुत्ता रहे तो उससे भी प्यार हो जाता है। फिर तू तो मेरा आदमी है। प्यार कैसे नहीं होगा!" उसकी आँखों में पानी चमका--- "ये ही तो मेरी किस्मत है अब।"
"हो गई तेरी बात खत्म?" मोहनलाल दारूवाला ने पूछा।
"मेरी ये बात तो हर रोज खत्म होती है और फिर शुरू हो जाती। मेरा क्या है!" लक्ष्मी बे-मन से बोली।
"ये बता कि अगर मैं तेरे सामने बहुत बड़ी दौलत रख दूँ--- तो तू उसका क्या करेगी?"
लक्ष्मी ने व्यंग्य भरी निगाहों से उसे देखा, फिर कह उठी---
"ऐसी बातें करके क्यों मेरे मुँह से कुछ और सुनना है। आलू-मेथी बन रही है, जब खाना हो तो बता देना।"
"मेरी कार की डिग्गी में बहुत बड़ी दौलत पड़ी है लक्ष्मी।"
"लगता है तू आज हिरण मार कर लाया है। कार की डिग्गी में रखा है उसे।" लक्ष्मी सिर हिलाकर कह उठी।
"मेरी कार की डिग्गी में एक सूटकेस पड़ा है, जो कि अमेरिकी डॉलरों से भरा है।" मोहनलाल दारूवाला शांत स्वर में बोला।
लक्ष्मी उसे देखने लगी।
"सुना तूने!" मोहनलाल गंभीर था।
"ऐसी झूठी बातें करके मेरा मन बहलाने की कोशिश क्यों कर---।"
"वो सूटकेस मुझे जंगल में मिला।"
लक्ष्मी कुछ सीधी हुई। आंखें सिकुड़ी। बोली---
"ये मजाक है?"
"नहीं।" मोहनलाल दारूवाला ने अपना गंभीर चेहरा हिलाया।
"खा मेरी कसम।"
"तेरी कसम लक्ष्मी।"
लक्ष्मी मोहनलाल दारूवाला को घूरने लगी।
"तेरे मन की मुराद उस दौलत से पूरी हो जाएगी।" वो गंभीर था।
"सूटकेस में अमेरिकी डॉलर हैं?" लक्ष्मी के चेहरे पर अविश्वास के भाव थे। उसे यकीन नहीं आ रहा था।
"हां। तेरी कसम खा ली, सच मान ले अब तो।"
"सूटकेस कितना बड़ा है?"
"जितना बड़ा होता है।"
"भीतर कितने डॉलर हैं?"
"डॉलरों की गड्डियों से ठसाठस भरा पड़ा है।"
"ठसाठस?"
"हाँ। ठसाठस।'
"म--- मैं उसे देखना चाहती हूं। ऐसा है तो उसे भीतर क्यों नहीं लाया?" लक्ष्मी अजीब से हाल में थी। सच बात तो ये थी कि उसे यकीन ही नहीं आ रहा था कि उसका पति सच बात कह रहा है।
"जब बाहर कार रोकी तो चोपड़ा मिल गया। इसलिए उसे नहीं लाया। नहीं तो वह दस बार पूछता कि सूटकेस में क्या है।"
"चल, उसे भीतर लाते हैं।" लक्ष्मी एकाएक उठ खड़ी हुई।
"पहले देख ले, चोपड़ा बाहर गली में तो नहीं टहल रहा है।"
लक्ष्मी फौरन बाहर गई और फौरन वापस आ गई।
"चोपड़ा नहीं है गली में। चल वो सूटकेस...।"
"तू भीतर ही रह। हम दोनों उस भारी सूटकेस को उठाकर लायेंगे तो देखने वाले कहीं शक न कर बैठें।"
"तू सच कह रहा है उसमें डॉलर भरे पड़े हैं?" लक्ष्मी ने सतर्क स्वर में पूछा।
"अभी देख लेना।" मोहनलाल दारूवाला उठकर बाहर की तरफ बढ़ा--- "तुम बाहर मत आना, मैं सूटकेस लेकर यहीं आता हूँ।"
अगले दो मिनटों में मोहनलाल दारूवाला सूटकेस के साथ वापस कमरे में था।
लक्ष्मी जो बेचैनी से खड़ी थी, सूटकेस को देखते ही उसकी आंखें खुल गईं।
"दरवाजा बंद कर।" मोहनलाल बोला।
लक्ष्मी ने तुरंत आगे बढ़कर दरवाजा बंद कर दिया।
मोहनलाल दारूवाला तब तक सूटकेस नीचे रखकर उसे खोल रहा था।
सूटकेस खुलते ही लक्ष्मी की आंखें हड़बड़ाहट में फैल गईं।
मोहनलाल दारूवाला ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर सूटकेस को देखा, फिर लक्ष्मी को।
सूटकेस लबालब डॉलरों से भरा था और ऊपर काली जिल्द वाली डॉयरी रखी थी।
लक्ष्मी तो जैसे सांस लेना भूल गई थी।
"लक्ष्मी लक्ष्मी!" मोहनलाल दारूवाला ने हाथ बढ़ाकर, उसका हाथ पकड़कर हिलाया।
लक्ष्मी होश में आ गई।
"मोहनलाल!" लक्ष्मी के होंठों से हक्का-बक्का स्वर निकला--- "ये डॉलर हैं?"
"अमेरिकी डॉलर, दुनियाँ की सबसे मजबूत मुद्रा।"
"अ-असली हैं?"
"एकदम असली।" मोहनलाल दारूवाला खुद बेचैन था।
लक्ष्मी कांपती टांगों से झुकी और सूटकेस के पीछे बैठ गई।
मोहनलाल दारूवाला भी सूटकेस पास ही बैठ गया।
लक्ष्मी ने हाथ आगे बढ़ाया और डॉलरों की गड्डियों को छू-छू कर देखने लगी।
"य-ये कितने हैं मोहनलाल।" लक्ष्मी की आवाज में थरथराहट थी।
"बहुत हैं। इतने कि तू जिंदगी भर ऐश करती रह और खत्म ना हों।" कहते हुए उसने डॉलरों के ऊपर रखी काली जिल्द वाली डायरी उठाई और उसे खोलकर देखने लगा।
प्लेन कागजों की खुद की बनाई डॉयरी थी। परंतु बहुत अच्छे ढंग से बनाया गया था। कागजों पर स्याही से लिखा हुआ था। पूरी डायरी मोटा-मोटा लिख कर भरी हुई थी। परंतु क्या लिखा था, मोहनलाल दारूवाला को समझ नहीं आया, क्योंकि वो भाषा उर्दू-अरबी या फारसी जैसी थी। डायरी के अंत में, डायरी के भीतर ही एक तह किया कागज था, जो कि जिल्द के भीतरी हिस्से के साथ चिपका हुआ था। मोहनलाल दारूवाला ने उस कागज को सावधानी से खोला, जो कि दो फीट बाई तीन फीट की लंबाई-चौड़ाई में खुलता चला गया।
वो कोई नक्शा था।
परन्तु वो किसी प्लेन कागज पर हाथ से बनाया गया नक्शा था। जगह-जगह पर उसी अंजानी भाषा में कुछ-कुछ लिखा हुआ था। वो डॉयरी और नक्शा कुछ भी समझ नहीं आया मोहनलाल दारूवाला को।
उसने नक्शा वैसे ही तह लगाकर बंद किया और डॉयरी बंद करके डॉलरों पर रखी।
लक्ष्मी अभी भी डॉलरों पर हाथ फेर रही थी, परन्तु अब उसकी आंखों में तीव्र चमक लहरा रही थी। उसे महसूस होने लगा था कि उसके पास बहुत बड़ी दौलत आ चुकी है।
"मोहनलाल...।" लक्ष्मी की आवाज में जैसे दौलत का नशा आ चुका था।
"बोलो---।"
"हमारे देश में तो हिन्दुस्तानी रुपए खर्चे जाते हैं--- ये तो डॉलर हैं...।"
"तू फिक्र नहीं कर। आजकल जगह-जगह बोर्ड लगे होते हैं कि विदेशी मुद्रा बदलवाएं। वो लोग डॉलर लेकर नोट दे देते हैं और कोई पूछताछ भी नहीं करते। वो मैं सब संभाल लूंगा।" मोहनलाल दारूवाला ने गम्भीर स्वर में कहा।
"तो इन सबको बदलवाने के बाद में हिन्दुस्तानी रुपयों को देखना---।"
"पागल मत बन।"
"क्या मतलब?" लक्ष्मी ने पहली बार डॉलरों से नजर हटाकर मोहनलाल दारूवाला को देखा।
"इतने डॉलर बदलवाने पहुंच गए तो पुलिस हमें पकड़ लेगी। थोड़े-थोड़े करके बदलवाते रहेंगे। परन्तु अभी हमें सतर्क रहने की जरूरत है। ये जिसके हैं, वो इन्हें जरूर ढूंढेगा।" मोहनलाल दारूवाला गम्भीर था। पूरी तरह होश में था।
लक्ष्मी के सिर से भी डॉलरों का नशा थोड़ा सा उतरा।
"किसके हैं ये?"
"मुझे क्या पता!"
"कहाँ से मिले तुम्हें? क्या तूने चोरी...।"
"तेरे को बताया तो था कि जंगल में मिले।" मोहनलाल दारूवाला ने गहरी सांस ली--- "वहां एक कार खड़ी थी। एक आदमी उसके भीतर मरने की हालत में पड़ा था और मुझसे पानी मांग रहा था। परन्तु मेरे पास पानी खत्म हो चुका था। उसके अलावा चार लाशें इधर-उधर पड़ी थीं। और कोई भी वहां नहीं था। मैं वहां पर गोलियां चलने की आवाजें सुनकर पहुंचा था।
"सूटकेस वहीं पड़ा था?"
"कार की डिग्गी में था। मैंने यूँ ही कार की डिग्गी खोली। शायद मैं उन लोगों के बारे में जानना चाहता था कि वो लोग कौन हैं और क्या हुआ उनमें। परन्तु डिग्गी में से ये सूटकेस मिला। इनमें डॉलर देखकर मैं इसे साथ ले आया।"
"अच्छा किया जो---।"
"लेकिन ये खतरनाक मामला है। वहाँ चार लाशें थीं और पांचवा मरने वाला था।" मोहनलाल दारूवाला ने बेचैन स्वर में कहा--- "वहां के हालातों को मैं भूल नहीं सकता। ऐसा नजारा मैंने पहले कभी नहीं देखा।"
"फौज में तो देखा होगा।"
"नहीं। वहां भी नहीं। मैं फौज में रहा जरूर, परन्तु जंग नहीं लड़ी मैंने।"
लक्ष्मी का दिमाग अब तेजी से चलने लगा था।
"वहां जो भी हुआ हो, उससे हमें क्या! तुम्हें किसी ने सूटकेस लाते देखा तो नहीं?"
"नहीं, देखा होता तो वो मेरे को रोकता, मेरे से सूटकेस छीनता।"
"ना ही किसी ने तुम्हारा पीछा किया?"
"शायद नहीं।"
"तो फिर हमें तो कोई खतरा नहीं आ सकता।" लक्ष्मी जैसे इस बात की तसल्ली कर लेना चाहती थी।
"शायद हमें कोई खतरा नहीं आएगा। परंतु इतनी बड़ी दौलत को वो जरूर ढूंढेंगे।"
"तुम तो कह रहे थे कि वो सारे मर गए थे---।"
मोहनलाल दारूवाला ने लक्ष्मी को देखा।
"मर गए थे ना वो सब?"
"हाँ। चार मरे पड़े थे पांचवा भी अब तक मर गया होगा।" मोहनलाल दारूवाला ने गंभीर स्वर में कहा।
"जब वो सब मर गए तो, इन डॉलरों को ढूंढने वाला कोई जिंदा ही नहीं बचा।"
मोहनलाल चेहरे पर सोचें समेटे लक्ष्मी को देखने लगा।
"क्या सोचता है?" लक्ष्मी के चेहरे के भाव गुड़मुड़ हो रहे थे।
"अभी कुछ पता नहीं। हमें सावधान रहना होगा।"
"किससे?"
"पता नहीं किससे! परन्तु अभी हमें सावधान रहना होगा।"
"हम इन डॉलरों को पीछे वाले कमरे में बेड के भीतर छिपा...।"
"नहीं। इन्हें घर में रखना ठीक नहीं होगा।"
"तो मैं अपनी बहन के घर---।"
"उसकी बात मत करो। वो चोर है। एक बार मेरी घड़ी उठाकर ले गई थी।"
"उसके पीछे क्यों पड़े हो? वो घड़ी तुम कहीं बाहर गिरा आए होगे। मेरी बहन चोर नहीं है।"
"चुप रहो। क्या तुम इस बात का ढोल पीटना चाहती हो कि हमारे पास कहीं से इतना पैसा आ गया है?"
लक्ष्मी चुप कर गई।
दोनों डॉलरों के खुले सूटकेस के पास बैठे थे।
डॉयरी मोहनलाल ने पुनः डॉलरों के ऊपर रख दी थी।
"ये डॉयरी में क्या लिखा है?" लक्ष्मी ने पूछा।
"पता नहीं। इसमें लिखी भाषा मेरे समझ में नहीं आ रही। लाइट जला दे। अंधेरा हो रहा है। पहले पर्दे लगा देना कि कोई घर के भीतर ना झांक सके।" मोहनलाल दारूवाला ने सोच भरे स्वर में कहा।
लक्ष्मी ने पर्दे लगाकर लाइट ऑन कर दी।
मोहनलाल ने सूटकेस में से डॉलरों की एक गड्डी निकाली और उसने बंद कर दिया।
"ये क्या कर रहे हो?"
"हमें इन डॉलरों को छुपा कर रखना होगा।" मोहनलाल दारूवाला ने कहा--- "तू दो छोटे वाले सूटकेस स्टोर के भीतर से निकाल। इन डॉलरों को अलग-अलग सूटकेसों में भरकर रेलवे स्टेशन के क्लॉक रूम में जमा कराकर, वहां से रसीद ले लेंगे।"
"वहां से किसी ने डॉलर निकाल लिए तो?"
"वहम में मत पड़। दुनियां सामान रखती है वहां। फिर हम दो सूटकेसों में अलग-अलग डॉलर रखकर क्लॉक रूम में जमा करा देंगे। एक सूटकेस तू जमा कराना। एक मैं। क्लॉक रूम वाले को शक भी नहीं होगा। एक की रसीद तू अपने पास रखना और एक की मेरे पास रहेगी... कि अगर रसीद खो भी जाए तो दूसरे सूटकेस की दौलत हमारे पास रहे।"
"तुम ये क्यों सोचते हो कि रसीद खो जाये? तो क्यों खोएगी रसीद?"
"मैंने यूं ही, ये बात कही है कि किसी भी हालत में दौलत हमारे पास ही रहेगी। दो सूटकेस, दो रसीदें। जैसे दो जेब में पैसे डाले जाते हैं कि एक जेब कट जाए तो दूसरी जेब के पैसों से काम चलाया जा सके।"
"लेकिन हमारी दोनों रसीदें सलामत रहेंगी।" लक्ष्मी तुनक कर बोली।
"मैंने कब कहा कि एक रसीद खो जाएगी। तुम स्टोर से छोटे वाले दोनों सूटकेस खाली करके ले आओ।"
"ये एक गड्डी क्यों तुमने बाहर निकाल ली है?"
"इससे हम थोड़ी-बहुत ऐश करेंगे।" मोहनलाल दारूवाला ने मुस्कुराने की चेष्टा की--- "ये एक लाख डॉलर की गड्डी है। दस-बारह अलग-अलग जगहों से इसे कैश करा लूंगा हिन्दुस्तानी रुपए में।"
"मुझे तो लंबी कार लेनी है और बड़ा वाला घर...मैं तो---।"
"जल्दी मत कर लक्ष्मी। सब कुछ लेंगे। परन्तु अभी हमें सावधानी से चलना है। मेरी फौज की ट्रेनिंग अब काम आएगी। फौज से ही मैंने जाना है कि कैसे सतर्क रहा जाता है। तू जल्दी से वो दोनों सूटकेस लेकर आ।"
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उपन्यास पढ़ने वाले दोस्तों से दो शब्द...
दोस्तों जुगल किशोर के उपन्यास आप पहले भी पढ़ चुके हैं और जानते ही हैं कि यह क्या आइटम है। इसे जितने भी तमगे दिए जायें, वो ही कम हैं। वैसे ये महा हरामी, महा मक्कार, महा कमीना, मह कुत्ता, महा नीच जैसा इंसान है। ऐसे ही इंसान हमें अक्सर कहीं ना कहीं मिल जाते हैं, जो सिर्फ अपने बारे में, अपनी बेहतरी, अपना फायदा, अपने लालच के ही बारे में सोचते हैं, जिसे हासिल करने के लिए दूसरों का क्या नुकसान होता है, उन्हें परवाह नहीं। यूं तो जुगल किशोर पहले ठगी के ही, उठाईगिरे के ही काम किया करता था, परंतु जब उसे लगा कि इस काम में नोट कम है और जूतियां ज्यादा हैं तो तो उसने बड़े कामों में हाथ डालना शुरू कर दिया। अब बड़े काम उसके बस के हैं या नहीं, ये तो आप देख ही लेंगे। परन्तु इंसान का लालच उसे ले डूबता है, जब थोड़े से सब्र नहीं होता और ज्यादा कि चाह पूरी नहीं होती। जुगल किशोर अक्सर ऐसे ही लालच में फंसता रहता है। इससे पहले कि उपन्यास की कहानी आगे बढ़े, मैं कहानी में पहले घटी घटनाएं बता देना चाहता हूं। इससे कहानी का मजा और बढ़ जाएगा। आइए पड़ते हैं कि कहानी की शुरुआत कहां से हुई...। उस दिन जुगल किशोर फुर्सत में था कि उसकी पहचान वाले राजन ने उसे फोन करके एक जगह बुलाया था--- वहीं से ये मामला शुरू हुआ...।
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जुगल किशोर ने कार पार्किंग में लगाई और जेबों में हाथ डाले आगे बढ़ आया। यहां पास ही में सिनेमा हॉल और कुछ मॉल बने हुए थे, जिसकी वजह से इधर हर वक्त भीड़ रहती थी। परन्तु जुगल किशोर की निगाह तो किसी को ढूंढ रही थी। भीड़ के बीच टहलता वो उसे ढूंढ रहा था, इसलिए उसे यहां बुलाया था।
पन्द्रह मिनट बाद उसके पीछे से उसकी कोहनी किसी ने पकड़ी।
जुगल किशोर फौरन घूमा और पीछे वाले को देखते ही शांत हो गया।
वो राजन था--- जिसने उसे यहां मिलने को कहा था।
"तेरी कार किधर है?" राजन ने पूछा।
"पार्किंग में।"
"वहीं चलते हैं। उधर ही बात करेंगे।"
दोनों उस भीड़ से निकलकर पार्किंग की तरफ बढ़ गए।
"ऐसी क्या खास बात है जो तू खुद नहीं आ सका और मुझे बुलाया?" चलते-चलते जुगल किशोर बोला।
"मैं किसी के साथ था और तेरे से फौरन बात करना चाहता था। इसलिए तुझे बुलाया।"
"बात बता।"
"कार में बैठ कर आराम से बात करते हैं।" राजन ने सोच भरे स्वर में कहा।
"खास बात है?"
"हाँ।"
"कितनी खास?"
"बहुत ज्यादा खास।"
दोनों कार के पास जा पहुंचे। बाकी जगह के हिसाब से यहां शांति थी।
वे कार में बैठे। राजन ने सिगरेट सुलगाई, पैकिट जुगल किशोर की तरफ बढ़ाया।
"नहीं।" जुगल किशोर ने सिगरेट को मना कर दिया।
राजन पैकिट जेब में डालता कह उठा---
"मैं तुझे करोड़ों का मोटा काम दिलाऊँ तो मुझे क्या देगा?"
"तू मुझसे सौदा कर रहा है?" जुगल किशोर ने उसे घूरा।
"नोट बहुत हैं इस काम में। करोड़ों का काम है।"
"कितने करोड़?" जुगल किशोर की आंखें सिकुड़ी।
"दस-बीस करोड़ भी हो सकते हैं। ये तेरे पर है कि तू पार्टी की जेब में कहां तक हाथ डालता है।"
"काम क्या है?"
"सिर्फ एक बंदे को उठाना है।"
"किसे?"
"ये पार्टी से बात करना।"
"तेरे को पार्टी कहां से मिली?"
"मेरा काम ही मोटा मुर्गा तलाश करते रहना है। मैं तेरे को पहले भी कई बड़े काम दिला चुका हूं। लेकिन ये काम उन कामों से बड़ा है। माल भी बहुत है। तीन सौदा पार्टी से पट गया तो मुझे क्या देगा?"
"जो तेरे को हमेशा देता आया हूं...।"
"पाँच परसेंट कम हैं। इस बार दस परसेंट लूंगा। रकम ज्यादा है इस मामले में।"
"ठीक है।"
"एडवांस में लूंगा।"
"मुझ पर भरोसा नहीं रहा तेरे को?" जुगल किशोर मुस्कुराया।
"वो बात नहीं।" राजन मुस्कुरा पड़ा--- "जेबें खाली हैं। नोटों की किल्लत चल रही है। पैसा मिल जाये तो मेरा काम चल जायेगा।"
"पार्टी के बारे में बता---कौन है वो?"
"विदेशी पार्टी है।"
"विदेशी?"
"हाँ। उससे तू ज्यादा नोट मांग सकता है। समझदारी से सौदा करना। चल, तेरे को उसके पास ले चलता हूँ।"
"उठाना किसे है?"
"ये उन्होंने मुझे नहीं बताया।"
■■■
राजन, जुगल किशोर को एक फाइव स्टार होटल की आखिरी मंजिल के एक सुइट में ले गया।
वहाँ चार लोग थे।
जुगल किशोर चारों से मुस्कुरा कर मिला।
फिर सब कुर्सियों पर बैठे। उनके चेहरे देखकर ही जुगल किशोर समझ गया कि वो ईराकी लोग हैं। तभी राजन उन चारों से कह उठा---
"यही है जुगल किशोर। मैं इसी की बात आपसे कह रहा था।"
"चारों की निगाह जुगल किशोर पर जा टिकी।
"तुम अपना पता-ठिकाना बताओ।" एक ने कहा।
"लेकिन पहले मामला तो पता चले...।" जुगल किशोर बोला।
"वो भी पता चल जाएगा। पहले अपना पता-ठिकाना बताओ।"
जुगल किशोर ने पता-ठिकाना बताया।
उसने मोबाइल निकाल कर किसी को फोन किया। उसका पता-ठिकाना बताया, फिर कहा---
"इस आदमी के बारे में एक घंटे में पूरी पूरी जानकारी दो।" इसके साथ ही उसने फोन बंद कर दिया।
"कमाल है। मेरे सामने ही किसी को कह रहे हो कि मेरे बारे में जानकारी इकट्ठी करे।" जुगल किशोर बोला।
"ये सतर्कता के नाते हो रहा है।" वो बोला--- "हम किसी गलत आदमी के साथ नहीं जुड़ना चाहते।"
"गलत आदमी?"
"जो काम हम लेना चाहते हैं, उस बारे में तसल्ली कर लेना चाहते हैं कि क्या हम सही आदमी से बात कर रहे हैं। बेकार के आदमी के साथ बातचीत करके हम अपना वक्त बर्बाद नहीं करना चाहते।"
"ठीक है।" जुगल किशोर शांत स्वर में बोला--- "मेरे बारे में तुम्हें कब तक जानकारी मिल जाएगी?"
"शायद एक घंटे में।"
"तब तक हम काम की बात कर लें तो कैसा रहे?"
जुगल किशोर ने राजन को देखा तो राजन उस आदमी से कह उठा---
"मैं तुम लोगों के पास सही आदमी लाया हूं।"
"मुझे इस बात का पूरा विश्वास है। परन्तु हमें भी तो अपनी तसल्ली करनी है।" उसने कहा।
"इन्हें तसल्ली कर लेने दे जुगल किशोर...।"
जुगल किशोर गहरी सांस लेकर रह गया।
"चाय कॉफी या खाना खाना पसंद करोगे?" दूसरे ने पूछा।
"कॉफी मंगवा लो...।"
■■■
दो घंटे बाद उस व्यक्ति के मोबाइल पर फोन आया।
उसने बात की। मिनट भर बात करने के बाद फोन बंद किया और मुस्कुराकर जुगल किशोर से बोला---
"तुम्हारे बारे में तसल्ली कर ली है। तुम हमारे काम के लिए ठीक आदमी हो। तुमसे बात की जा सकती है।"
"शुक्र है कि तुम्हारी तसल्ली हो गई। इस तरह दो घंटे खाली बैठना मेरे बस का नहीं था।"
"तकलीफ के लिए हम माफी चाहते हैं।"
वो चारों पुनः जुगल किशोर के सामने कुर्सियों पर आ बैठे।
"मैं तुम लोगों के पास सही आदमी लाया हूं।" राजन बोला।
"तुम्हारा काम खत्म हो गया।" उस आदमी ने कहा और हजार-हजार के नोटों की दो गड्डियां राजन की तरफ बढ़ाईं--- "ये तुम्हारा मेहनताना है। दो लाख रुपया। अब तुम जा सकते हो...।"
गड्डियां थामते राजन मुस्कुराता हुआ बोला---
"क्या मैं बातचीत में बैठा नहीं रह सकता?"
"नहीं।" उसने शांत स्वर में कहा।
राजन ने जुगल किशोर को देखा।
"दो लाख मिल गया तेरे को। अब खिसक ले...।" जुगल किशोर ने कहा।
राजन चला गया।
जुगल किशोर ने बारी-बारी उन चारों को देख कर कहा---
"मैं सबसे पहले आप लोगों के नाम जानना चाहूंगा।"
"मैं जाकिर हूँ। ये शेख है। ये हुसैन और ये मौला...।"
"बताओ, मुझसे क्या काम करवाना चाहते हो?" जुगल किशोर का स्वर गंभीर हो उठा---
"दिल्ली में, अमेरिकी दूतावास से रिचर्ड जैक्सन नाम के आदमी का अपहरण करके उसे हमारे हवाले करना है।" जाकिर बोला।
"रिचर्ड जैक्सन?" जुगल किशोर ने नाम दोहराया।
"हां।"
"ये काम तो तुम लोग आराम से कर सकते हो। इसमें खासतौर से मेरी क्या जरूरत है?" जुगल किशोर बोला।
चारों ने एक-दूसरे को देखा। फिर मौला कह उठा।
"ये काम इतना आसान नहीं है जितना कि तुम्हें लग रहा है।"
जुगल किशोर ने सोच भरी नजरों से उन्हें देखा, फिर बोला---
"मेरे ख्याल में बात शुरू से शुरू की जाए तो मुझे समझने में आसानी होगी। अगर तुम लोग अपने बारे में मुझे बताना चाहो तो जरूर बताओ। रिचर्ड जैक्सन तुम लोगों को मिल जाएगा। सब कुछ मुझे पता होगा तो मुझे काम करने में आसानी होगी।"
चारों ने एक-दूसरे को देखा।
कुछ पल खामोशी रही, फिर शेख कह उठा---
"हमें अपने बारे में बताने में कोई परहेज नहीं। अगर तुम सारा मामला जानकर, काम शुरू करना चाहते हो तो उस पर भी हमें परहेज नहीं। हम लोग ईराक के एक संगठन से वास्ता रखते हैं, ऐसा संगठन जो कि अमेरिका के खिलाफ है। अमेरिका ने ईराक में जो भी किया, उसकी हम पोल खोलना चाहते हैं और दुश्मनों को बताना चाहते हैं कि अमेरिका ने जो भी किया गलत किया। सद्दाम हुसैन की हत्या की गई कानून की आड़ लेकर। इस बात के हम सबूत इकट्ठा कर रहे हैं।"
जुगल किशोर का पूरा ध्यान उसकी बातों पर था।
"रिचर्ड जैक्सन ने अमेरिका की तरफ से तीन साल तक ईराक में काम किया। उन्हीं तीन सालों के दौरान अमेरिका ने ईराक पर हमला किया और सद्दाम हुसैन की फांसी के रूप में हत्या की गई। इन सब कामों में रिचर्ड जैक्सन का बहुत बड़ा हाथ था। वो मात्र दूतावास कर्मचारी नहीं है। रिचर्ड जैक्सन जबरदस्त जासूस है। खतरनाक हत्यारा है। सियासी चालों का मास्टर है। ईराक में हुए सब कामों के बारे में वो अमेरिका की हरकतों की पोल पट्टी खोल सकता है। इस बात का पता हमें कुछ ही दिन पहले चला और हमें रिचर्ड जैक्सन की जरूरत महसूस होने लगी। वो हमारे हाथ लग जाए तो हम उसका मुंह खुलवा सकते हैं और उसे इस बात के बारे में तैयार करेंगे कि ईराक पर किए गए हमले की सच्चाई दुनियां को बताये कि किस तरह अमेरिका ने सद्दाम हुसैन की हत्या की... उसको नामो-निशान मिटा दिया।"
"मान लो, अगर रिचर्ड जैक्सन ये सब बातें कहता भी है तो दुनिया उसका भरोसा कर लेगी?" जुगल किशोर ने पूछा।
"जरूर करेगी---क्योंकि रिचर्ड जैक्सन अमेरिका का विश्वासी जासूस माना जाता है।"
जुगल किशोर ने सिर हिलाया, फिर कह उठा---
"मतलब कि तुम लोगों को रिचर्ड जैक्सन हर हाल में चाहिए।"
"सही कहा।"
"वो इस वक्त दिल्ली की अमेरिकन एम्बेसी में है?"
"हां...। कहने को तो वो हमेशा ही दूतावास का कर्मचारी होता है, परन्तु करता वो जासूसी के कार्य है। सूचनाएं इकट्ठी करने, दुश्मनों की हत्या करने, खोजबीन करने में वो माहिर इंसान है। उम्र पैंतालीस बरस। पतला, लंबा, परन्तु बेहद खतरनाक दूतावास कर्मचारी है वो। उस पर हाथ डालना आसान काम नहीं होगा।" हुसैन ने कहा।
"ये देखना मेरा काम है।" जुगल किशोर मुस्कुरा पड़ा।
"तुम कर लोगे ये काम?"
"हर हाल में। परन्तु थोड़ा वक्त लग सकता है।"
"हमारे पास वक्त बहुत है। छः महीने भी लग जायें तो परवाह नहीं। परन्तु रिचर्ड जैक्सन हमें चाहिए।"
"वो अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति है?"
"बहुत ज्यादा। उसके सीने में अमेरिका के ढेरों राज दफन हैं। अमेरिका को हमेशा उसकी चिंता रहेगी।"
"तो उसे पाने के लिए कितना खर्चा कर सकते हो?" जुगल किशोर बोला।
"तुम क्या चाहते हो?"
"कीमत मैं तुम लोगों के मुंह से सुनना चाहता हूं।"
"तुम्हें हम इस काम के लिए एक करोड़ रुपए देंगे।"
जुगल किशोर ने बुरा-सा मुंह बनाया।
"क्या हुआ?" हुसैन कह उठा।
"तुम तो बच्चों की तरह मुझसे खेल रहे हो।" जुगल किशोर कह उठा।
"कैसा खेल?"
"तुम लोगों ने बताया कि रिचर्ड जैक्सन अमेरिका का दक्ष जासूस है। खतरनाक है।" जुगल किशोर बोला।
"तो?"
"ऐसे बंदे के अपहरण की कीमत एक करोड़ नहीं होती। एक करोड़ तो आजकल यूं ही किसी को उठाकर मिल जाता है। ये आजकल छोटी रकम मानी जाती है।" जुगल किशोर ने स्पष्ट स्वर में कहा--- "सोच समझकर रकम बोलो।"
"हम तुम्हें पांच करोड़ देंगे।"
"पांच करोड़?" जुगल किशोर मुस्कुराया।
"हां। आधा पहले, आधा तब, जब तुम रिचर्ड जैक्सन को हमारे हवाले करोगे।"
"मेरे ख्याल में पैंतालीस करोड़ तुम लोग कमा लोगे।"
"वो कैसे?"
"रिचर्ड जैक्सन अमेरिकी सरकार का महत्वपूर्ण बंदा है।" जुगल किशोर ने कहा।
"हाँ।"
"अमेरिकी सरकार उसे वापस पाने के बदले 50 करोड़ दे सकती है।"
"क्यों नहीं।" मौला बोला--- "लेकिन तुम कहना...।"
"मुझसे रिचर्ड जैक्सन को पांच करोड़ में लेकर, तुम उसे पचास करोड़ में अमेरिकी सरकार को लौटाकर पैंतालीस करोड़ कमा लोगे। मैं बिजनेसमैन हूं। कोई भी काम हाथ में लेने से पहले नफा-नुकसान देख लेता हूं। मेरे से काम लेना है तो काम की कीमत ठीक लगाओ या किसी और से काम ले लो। पांच करोड़ में कोई भी ये काम कर देगा। परन्तु मैं गारंटी दूंगा कि रिचर्ड जैक्सन को तुम लोगों के हवाले कर दूंगा। मुझमें और दूसरों में कुछ तो फर्क है।"
"हम रिचर्ड जैक्सन को अमेरिकी सरकार के हवाले नहीं करने वाले।" जाकिर ने कहा--- "तुम्हें बता ही चुके हैं कि रिचर्ड जैक्सन का हम क्या इस्तेमाल करना चाहते हैं। ये काम हम पैसा कमाने के लिए नहीं कर रहे।"
"पर मैं तो ये काम पैसा कमाने के लिए कर रहा हूं। जिस बंदे को वापस करने की कीमत पचास करोड़ हो सकती है, उसे उठाने के लिए पांच करोड़ लेना गलत बात है। बेहतर है ये काम मैं अपने लिए करूं और पचास करोड़ कमा लूँ।"
"ये तो हमारे साथ दगाबाजी होगी।"
"पचास करोड़...।"
"बहुत ज्यादा हैं।"
"तुम लोगों के संगठन के पास पैसा नहीं है क्या...?"
"सारा तुम्हें देने के लिए नहीं है। हम तुम्हें बीस करोड़ देंगे।"
"चालीस करोड़ से मैं कम में काम नहीं करूंगा।" जुगल किशोर ने स्पष्ट कहा।
"हम पच्चीस करोड़ से ज्यादा नहीं दे सकते।" मौला बोला।
जुगल किशोर कुछ पल खामोश रहकर कह उठा---
"तीस करोड़ में मैं इस डील को फाइनल कर सकता हूं।" जुगल किशोर अब ये बात खत्म कर देना चाहता था।
चारों ने एक-दूसरे को देखा।
"ठीक है। तीस करोड़ मैं सौदा पक्का।" शेख ने हाथ उठाकर कहा।
"आधा पहले, आधा बाद में...।" जुगल किशोर बोला।
"रकम बड़ी है।" हुसैन ने सिर हिलाया--- "दस करोड़ पहले, बीस करोड़ तब, जब तुम अमेरिकी जासूस को हमारे हवाले करोगे।"
"मंजूर।" जुगल किशोर ने कहा--- "जब दस करोड़ दोगे, तब काम शुरू करूंगा।"
"कल तुम्हें पैसा मिल जाएगा। लेकिन एक बात हम बता देना चाहते हैं कि हमारे साथ धोखेबाजी मत करना।
"मैं ऐसा काम नहीं करता। धोखेबाजी वाला काम होता तो राजन मुझे लेकर नहीं आता।"
जवाब में हुसैन मुस्कुरा दिया।
"मुझे रिचर्ड जैक्सन की तस्वीर चाहिए...।"
मौला उठा और एक तरफ रखे ब्रीफकेस में से तस्वीर निकाल कर जुगल किशोर को दी।
"ये आदमी इस वक्त दिल्ली स्थित अमेरिकन एम्बेसी में मौजूद है।"
"तुम्हारे आदमी उस पर नजर रख रहे हैं?"
"हां...।"
"ठीक है। जब मैं कहूंगा, तब तुम लोग उस पर नजर हटवा लोगे।"
"क्यों?"
"क्योंकि तब मैं अपना काम शुरू कर दूंगा और नहीं चाहूंगा कि तुम लोगों के आदमी आसपास रहें।"
"ठीक है।"
"रिचर्ड जैक्सन को ईराक लेकर जाओगे?" जुगल किशोर ने पूछा।
"हाँ।"
"कहो तो उसे ईराक तक पहुंचाने की भी तैयारी...।"
"ये काम हमारा है।" मौला ने कहा।
"हूं।" जुगल किशोर उठ खड़ा हुआ--- "तुम लोगों ने कोशिश नहीं की रिचर्ड जैक्सन पर हाथ डालने की?"
"हम चाहते हैं कि यह काम स्थानीय व्यक्ति ही करे तो ठीक होगा। वो काम को ठीक से करेगा। जैसे कि तुम...।"
"ठीक है। मेरा मोबाइल नंबर नोट कर लो और अपना दे दो। कल मुझे नोट भिजवा देना।"
"हिन्दुस्तानी करेंसी में दस करोड़ चाहिए या डॉलरों में? डॉलरों में होंगे तो संभालने में आसानी होगी।"
"जो भी करेंसी हो, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। रकम असली और पूरी होनी चाहिए।"
■■■
अगले दिन जुगल किशोर को दस करोड़ मिल गये।
10 करोड़ रुपये, 1000-1000 रुपये की हजार गड्डियों के रूप में थे।
पैसे देने मौला, दो आदमियों के साथ उसके घर पर ही आया था।
10 करोड़ आसानी से उसे मिल गए थे।
"काम के बारे में कुछ बताओ कि कैसे करोगे?" मौला ने पूछा।
जुगल किशोर ने मौला के साथ के दोनों आदमियों पर निगाह मारकर कहा---
"तुम्हारे आदमी रिचर्ड जैक्सन पर नजर रखे हैं?"
"हां...।"
"अभी उन्हें नजर रखने दो। परसों मैं दिल्ली पहुंच जाऊंगा। उसके बाद इस मामले को मैं देखूंगा।"
"परसों? कल क्यों नहीं दिल्ली चले जाते?"
"जल्दी मत करो। मुझे यहां के कामों को भी सेट करके जाना है। मुझे खुला वक्त दो, तुम्हारा काम पक्का हो जाएगा।"
"पक्का ही होना चाहिए।" मौला ने शांत स्वर में कहा, फिर दोनों आदमियों के साथ वहां से चला गया।
पैसा दो सूटकेसों में था।
जुगल किशोर सारा दिन 10 करोड़ को ठिकाने लगाने में लगा रहा।
शाम तक उसने दस करोड़ को ठिकाने लगा कर चैन की सांस ली। इसके साथ ही उसका दिमाग तेजी से दौड़ता रहा था। वो जानता था कि दस करोड़ देने के बाद वो उस पर नजर जरूर रखवा रहे होंगे। जो कि उसके लिए ठीक बात नहीं थी। रात आठ बजे जुगल किशोर ने उनके दिए नंबर पर फोन किया तो हुसैन की आवाज कानों में पड़ी।
"हैलो...।"
"हुसैन। मैं जुगल किशोर हूं।"
"पहचाना। कहो।"
"मुझ पर कोई नजर रख रहा है, क्या वो तुम्हारा आदमी है?" जुगल किशोर ने कहा--- "मैं उसे शूट करने जा रहा हूं। परन्तु सोचा कि पहले तुमसे पूछ लूँ। कह दो कि तुम्हारा आदमी नहीं है। इस वक्त मैं उसे आसानी से गोली मार सकता हूं।"
"वो हमारा ही आदमी है।" हुसैन की आवाज कानों में पड़ी।
"मुझ पर नजर रखी जायेगी, ये तो हमारे सौदे में शामिल नहीं है? तुम अपने दस करोड़ वापस ले लो।"
"हम देखते रहना चाहते हैं कि तुम क्या कर रहे थे?"
"ये बात तुम मुझसे फोन पर पूछ सकते हो।"
"हमारे आदमी तुम पर नजर रखेंगे तो इसमें तुम्हारा ही फायदा है। तुम कभी मुसीबत में पड़े तो वो...।"
"10 करोड़ वापस ले लो। मैं तुम्हारा काम नहीं करूंगा।" जुगल किशोर ने शांत स्वर में कहा।
"ये क्या कह रहे हो?"
"मैं ऐसे लोगों का काम नहीं करता जो एडवांस देने के बाद मुझ पर नजर रखें।"
"ठीक है। हम अपने आदमी को वापस बुला लेते हैं।" उधर से हुसैन ने कहा।
"दोबारा फिर मैंने किसी को अपने पीछे देखा, इस बात का मुझे शक भी हुआ तो मैं उसी वक्त तुम्हारा काम छोड़ दूंगा और 10 करोड़ भी वापस नहीं दूंगा। सारी गलती तुम्हारी होगी। इस बात को भी सौदे में शामिल कर लो।"
जुगल किशोर ने फोन बंद किया और एक नम्बर मिलाया।
"हैलो...।" फौरन ही मर्दाना आवाज कानों में पड़ी।
"वीरा।" जुगल किशोर मुस्कुराया--- "हमें एक साथ काम किए लंबा वक्त हो गया।"
"अभी तक ऐसा काम नहीं दिखा कि हम फिर एक साथ काम कर सकें।"
"मुझे काम दिख गया है।" जुगल किशोर मुस्कुरा रहा था।
"क्या?"
"कल मिलना। ग्यारह बजे। उसी पुरानी जगह पर।"
■■■
अगले दिन ग्यारह बजे जुगल किशोर, वीरा से मिला। उसका पूरा नाम वीरा त्यागी था। जुगल किशोर और वीरा पुरानी पहचान के थे और जब कोई बड़ा काम हाथ में आता तो दोनों मिलकर करते थे।
दस महीने बाद दोनों की मुलाकात हुई थी। वे गले मिले।
"हम काफी देर बाद मिले।" वीरा बैठते हुए मुस्कुराकर कह उठा।
"शायद दस महीने बाद। पिछले काम में हमें मुसीबतें बहुत आई थीं।" जुगल किशोर मुस्कुरा रहा था।
"हाँ। मैं तो मरते-मरते बचा था। लेकिन फिर सब ठीक हो गया।"
दोनों इस वक्त रेस्टोरेंट में बैठे थे।
जुगल किशोर ने कॉफी के साथ सैंडविच का आर्डर दिया।
"तूने फोन पर किसी काम के लिए कहा था।" वीरा त्यागी कह उठा।
"हाँ। हम दस करोड़ डॉलर कमा सकते हैं।"
"दस करोड़ डॉलर?" वीरा अचकचाया।
"असली वाले!" जुगल किशोर हौले से हँसा।
"वो कैसे?"
"मेरे पास पक्की खबर हाथ लगी है। रिचर्ड जैक्सन दिल्ली की अमेरिकन एम्बेसी में काम करता है। जो कि दिखावा है। हकीकत में वह अमेरिका का जासूस है। अमेरिकी सरकार का खास है। उसके सीने में अमेरिका के ढेरों राज दफन हैं। अमेरिका उसे किसी हाल में हाथ से नहीं जाने देना चाहेगा।"
"तुम उसके अपहरण की सोच रहे हो?" वीरा गंभीर हुआ।
"हाँ। दस करोड़ डॉलर फिरौती के रूप में हमें आसानी से मिल जायेंगे।" जुगल किशोर बोला।
"वो अमेरिकी जासूस है। खतरनाक भी होगा।"
"हमने उसका अपहरण करना है। उससे जंग नहीं जीतनी और अपहरण जाल फेंककर करना है। ताकि उसे कुछ करने का मौका ही नहीं मिले। वो फँस जाये।" जुगल किशोर ने कहा।
"ये काम हम कर सकेंगे?" वीरा ने पूछा।
"बिल्कुल कर सकेंगे।" जुगल किशोर विश्वास से बोला।
"दस करोड़ डॉलर का क्या होगा?"
"आधे-आधे। हमेशा की तरह रकम हमारे बीच आधी होती है।"
"क्या पता हमें वो दस करोड़ डॉलर की फिरौती देने से इंकार कर दें। रिचर्ड जैक्सन उनके लिए कीमती न हो।"
"वो कीमती है। मैंने पूरी तसल्ली कर ली है इस बारे में।" जुगल किशोर ने गंभीर स्वर में कहा।
तभी कॉफी और सैंडविच वेटर रख गया। दोनों नाश्ता करने लगे।
"तेरे को इस काम की तसल्ली है तो मुझे क्या एतराज हो सकता है।" वीरा खाते-खाते कह उठा।
"लेकिन यह काम हम सीधे ढंग से नहीं करेंगे।" जुगल किशोर ने सोच भरे स्वर में कहा।
"क्या मतलब?"
"मैं कुछ लोगों को इकट्ठा करुंगा। उनके साथ रिचर्ड जैक्सन का अपरहण करूंगा।"
"लेकिन...।"
"सुनते रहो। अपहरण करने के बाद मैं एम्बेसी वालों से सौदेबाजी करूंगा। वो मुझे दस करोड़ डॉलर देने को तैयार हो जायेंगे। और जब वह मुझे डॉलर देने जा रहे होंगे--- तो रास्ते में से तू उनसे डॉलर झपट लेगा।"
वीरा के माथे पर बल आ ठहरे।
"ये सब क्यों?"
"मेरी अपनी कोई समस्या है। तभी ऐसा प्रोग्राम मैंने बनाया है।"
"मुझे नहीं बताएगा कि क्या समस्या है?"
"इस बारे में तुझे कुछ बताने की जरूरत नहीं है। तेरे को जितना बताया है, काम उतना ही है।" जुगल किशोर मुस्कुराया--- "पांच करोड़ डॉलर तेरे को मिल रहे हैं--- जबकि रिचर्ड जैक्सन के अपहरण का काम मैंने ही करना है। तूने तो बस मेरा साथ देना है।"
"ठीक है। मुझे विश्वास है कि तेरी समस्या इस मामले को खराब नहीं करेंगी।"
"ऐसा कुछ नहीं होगा।"
"तेरी योजना के मुताबिक फिरौती देने जा रहे एम्बेसी के लोगों से दस करोड़ डॉलर मैंने ले लिए--- तो उसके बाद तेरे पास रिचर्ड जैक्सन रह जाएगा। उसका क्या करेगा? क्या फिर से फिरौती ली जाएगी?"
"नहीं। ऐसा कुछ नहीं होगा। फिरौती देने वाले समझ जायेंगे कि ये सब मैंने ही किया है।"
"मेरी समझ में नहीं आ रहा जुगल किशोर कि जब वो आसानी से फिरौती देने आ रहे हैं तो रास्ते में उनसे क्यों...।"
"ताकि मेरे साथ जो लोग ये काम करेंगे, उन्हें हिस्सा न देना पड़े। उन्हें कह दूंगा कि सारा मामला गड़बड़ हो गया।"
"ओह...।"
जुगल किशोर ने कॉफी का घूंट भरा।
"और रिचर्ड जैक्सन का क्या करेगा?"
"तू मत सोच।" जुगल किशोर मुस्कुरा पड़ा--- "उसके बारे में सोचना मेरा काम है।"
"तू कुछ छुपा रहा है।"
"मैं तेरे को सिर्फ उतना ही बता रहा हूं, जितना बताने की जरूरत है।"
"सब कुछ नहीं बता सकता?"
"तेरे काम की बात तेरे को बता दी।"
वीरा ने जुगल किशोर को देखते हुए सिर हिलाया, फिर कहा---
"तो इस काम के लिए दिल्ली कब जाना है?"
"एक काम होते हुए भी हम लोगों के काम अलग हैं।" जुगल किशोर ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैंने कुछ लोग इकट्ठे करने हैं जिससे कि रिचर्ड जैक्सन का अपहरण कर सकूं। तुमने कुछ लोग इकट्ठे करने हैं जिससे कि जब एम्बेसी वाले मुझे फिरौती देने के लिए निकलें तो तुम लोग उनके पास मौजूद दस करोड़ डॉलर ले सको। तेरे को एक ही मौका मिलेगा। तब तुझे चूकना नहीं है वीरा। बेहतर होगा कि इस काम के लिए बढ़िया से बढ़िया साथी चुन। मोटा लालच दे उन्हें। ताकि वो हर हाल में इस काम को कर सकें।"
"मैं ऐसा ही करूंगा।"
"अगर इस बार चूक गया तो समझ ले कि दस करोड़ डॉलर हाथ से गए।"
"मैं ऐसा नहीं होने दूंगा।"
"हम दोनों के नंबर एक-दूसरे के पास हैं। दिल्ली में हम एक दूसरे से बात करते रहेंगे।"
"अपहरण का काम तू कब तक पूरा कर लेगा?"
"कह नहीं सकता। मुझे सब्र के साथ काम लेना होगा। दिल्ली में पहुंचकर रिचर्ड जैक्सन के हालात देखने हैं कि वो कब कहां हाथ लग सकता है। ये काम जल्दी भी पूरा हो सकता है और देर भी लग सकती है। अभी कुछ पता नहीं।"
"मेरी पहचान के कुछ लोग दिल्ली में हैं। मैं अपने साथियों का इंतजाम कर लूंगा जुगल। तेरे जाने के बाद मैं दिल्ली आऊंगा।" वीरा ने कहा--- "तेरे से फोन पर बात करूंगा। तू दिल्ली कब जाएगा?"
"कल...।"
"ये काम जितना आसान लगता है, उतना है नहीं।" वीरा बोला।
"ये काम आसान नहीं है। इसमें कई मुसीबतें सामने आयेंगी।" जुगल किशोर मुस्कुरा पड़ा।
"मेरे हिस्से का जो काम है उसमें तो मुसीबतें नजर नहीं आ रहीं मुझे।"
"मुसीबत मेरे लिए है। क्योंकि ये सब करके मैं किसी के साथ गड़बड़ कर रहा हूं।"
"गड़बड़--- किसके साथ?"
"ये बात तेरे जानने लायक नहीं है।" जुगल किशोर ने सिर हिलाया--- "तू सिर्फ अपने काम की तरफ ध्यान दे।"
"तो अब दिल्ली में मुलाकात होगी।" वीरा ने कहा।
"हां...। तू अपने साथी तय कर ले। मैं देखता हूं कि इस काम के लिए किन लोगों को लेना है। आज ही ये इंतजाम करना है।"
"अपने साथी मुंबई से लेकर जाएगा?"
"हां। कुछ हैं मेरी नजर में। उन्हीं में से चुन लूंगा।" जुगल किशोर उठ खड़ा हुआ--- "दिल्ली पहुंचने में तू देर मत करना। कुछ पता नहीं कि काम जल्दी शुरू हो जाये। तुझे हर वक्त तैयार रहना है।"
■■■
जुगल किशोर हाथ में ब्रीफकेस थामे सोहनलाल के फ्लैट पर पहुंचा और कॉलबेल बजाई। दोपहर हो रही थी, तुरन्त ही दरवाजा खुला। सोहनलाल दिखा। जुगल किशोर को देखते ही सोहनलाल के चेहरे पर सख्ती आ गई।
"तू कमीना-कुत्ता है।" सोहनलाल ने दांत भींचकर कहा--- "मैं तुझे हमेशा याद रखता हूँ...।"
"नाराज क्यों होता है?" जुगल किशोर ने मीठे स्वर में कहा।
"छः महीने पहले मैंने तेरे साथ काम किया और तूने मेरा तीस लाख दबा लिया।"
"ऐसा मत कह सोहनलाल। मेरी नियत कभी भी खराब नहीं हुई। लाने में देर जरूर हुई--- लेकिन ले तो आया।"
सोहनलाल ने उसके हाथ में दबे ब्रीफकेस को देखा।
जुगल किशोर ने ब्रीफकेस हिलाकर कहा---
"इसमें तेरा वो तीस लाख है, जिसके लिए तू मुझे गालियां दे रहा है।"
"पक्का?" सोहनलाल के चेहरे पर शंका के भाव थे।
"तो क्या मैं मजाक कर रहा हूं...।"
तभी फ्लैट के भीतर से नानिया की आवाज आई।
"कौन है?"
"दोस्त है।" सोहनलाल ने गर्दन घुमा कर कहा।
"तू औरतें कब से लाने लगा?" जुगल किशोर ने अजीब से स्वर में कहा।
"वो मेरी पत्नी है हरामी के...।"
"ओह, तूने शादी कर ली बताया नहीं। बुलाया नहीं...।" जुगल किशोर कह उठा।
"तूने मेरा तीस लाख ना दबाया होता तो जरूर बुलाता तुझे। ला ब्रीफकेस दे।"
"भीतर तो आने दे।"
"अब मैं अपने घर में किसी को नहीं आने देता। यहां मेरी पत्नी भी रहती है।"
"वो तो ठीक है। मैंने तेरे से कुछ बात भी करनी है।"
"तू ब्रीफकेस दे। इसमें तीस लाख पूरे हुए तो मैं बाहर आ जाऊंगा।"
जुगल किशोर ने उसे ब्रीफकेस दिया।
सोहनलाल ब्रीफकेस थामे भीतर हुआ दरवाजा बंद कर दिया।
जुगल किशोर मुंह बनाकर वहीं खड़ा रहा।
पांच मिनट बाद दरवाजा खुला और सोहनलाल बाहर निकला।
"चल...।" सोहनलाल बोला।
"कहां?"
"जहां भी तुमने बात करनी हो। कार नहीं लाया?"
"टैक्सी से आया हूं...।"
"मेरी कार खराब है।"
दोनों पैदल ही आगे बढ़ गए।
"गाड़ी कहां फंस गई तेरी?" सोहनलाल ने पूछा।
"गाड़ी?"
"कहीं तो तेरे को समस्या आई ही है जो तुझे तीस लाख लेकर मेरे पास आना पड़ा। बात क्या है?"
"ऐसा कुछ नहीं है। तीस लाख तो मैंने तुझे देना ही था। दो महीने से बैग में डाल कर रखा था तुझे देने को।"
"छः महीने पहले मेरा हिस्सा मुझे क्यों नहीं दिया?"
"तब मैंने किसी का उधार चुकता करना था। वो ज्यादा जरूरी था।" जुगल किशोर ने शांत स्वर में कहा।
"कब मेरे से क्या चाहिए?"
"मुझे विश्वासी आदमी की जरूरत है किसी काम के लिए। इसलिए तेरे पास आया।"
"किसी वजह से भी--- तूने तीस लाख तो दिए...।"
"गलत मत कह। वो तो मैंने वैसे भी तुझे देने ही थे...।"
"अब क्या करने जा रहा है?"
"दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के कर्मचारी का अपरहण करना है। वो कर्मचारी अमेरिका के लिए खास है। रकम अच्छी मिल सकती है।"
"कितनी रकम?"
"दस करोड़ डॉलर...।"
"एक के बदले अमेरिका वाले दस करोड़ डॉलर नहीं देंगे।" सोहनलाल ने कहा।
"वो महत्वपूर्ण आदमी है अमेरिका के लिए। दस करोड़ डॉलर आसानी से हमें मिल जाएंगे।"
"दस करोड़ डॉलर बड़ी रकम है।"
"अमेरिका के लिए नहीं।"
सोहनलाल ने गर्दन घुमाकर जुगल किशोर को देखा।
"अमेरिका से वास्ता रखता काम है ये। खतरा खड़ा हो सकता है।" सोहनलाल ने जेब से गोली वाली सिगरेट निकाली।
"कोई खतरा नहीं होगा। मैंने रिचर्ड जैक्सन नाम के उस अमरीकी के बारे में जानकारी हासिल करने के बाद ही, ये कदम उठाने की सोची है। मेरी बातें खोखली नहीं होतीं। तुम पहले भी कई बार मेरे साथ काम कर चुके हो।"
"दस करोड़ डॉलर बड़ी रकम है।"
"अमेरिकी सरकार के लिए यह मामूली रकम है। सब कुछ भूल कर तुम मेरे साथ काम पर लग जाओ। सब बुरे अंदेशों की जिम्मेवारी मेरी है। मुझे सिर्फ विश्वासी लोगों की जरूरत है।"
"मैं तेरे साथ हूं।" सोहनलाल बोला--- "रकम का बंटवारा कैसे होगा।"
"जैसे हमेशा होता आया है। माल बराबर के हिस्सों में बंटेगा।"
"कितने लोग होंगे इस काम में?"
"कम से कम चार तो चाहिए ही...।"
"बाकी दो कौन हैं?"
"उनके बारे में भी सोचना है।"
"जितेंद्र को साथ ले ले। परसों वो मिला था। उसे नोटों की जरूरत है।"
"जितेंद्र...! यानि कि जैकी, जो पिछली बार हमारे साथ था?" जुगल किशोर ने कहा।
"हाँ। वो हिम्मती है। मेहनत से काम करता है।" सोहनलाल बोला--- "विश्वासी भी है।"
"तेरी जिम्मेवारी पर उसे साथ ले सकता हूं...।"
"ले ले। मेरी जिम्मेवारी पर। जैकी को फोन लगाऊं?" सोहनलाल ने जेब में हाथ डाला।
"उससे शाम का मिलने का वक्त तय कर ले...।"
सोहनलाल ने जैकी को फोन करके शाम का वक्त तय किया।
इस बीच जुगल किशोर के चेहरे पर सोच के भाव छाये रहे।
"इस काम के लिए दिल्ली जाना है या पार्टी मुंबई आ रही है?" सोहनलाल बोला।
"दिल्ली जाना पड़ेगा। मैं चौथे साथी के बारे में सोच रहा हूं।"
"है कोई नजर में?"
"मेनन...।"
"अजहर मेनन...?" सोहनलाल ने जुगल किशोर को देखा।
"वो ही...।" जुगल किशोर ने सिर हिलाया।
सोहनलाल चंद पल चुप रह कर कह उठा---
"मेनन का फैसला तेरा है। तू जान।"
"मेरे ख्याल में वो ठीक रहेगा। एक बार उसने मेरी जान बचाई थी।" जुगल किशोर ने मोबाइल निकाला और अजहर मेनन के नम्बर मिलाने लगा।
■■■
अगले दिन जुगल किशोर, अजहर मेनन, जैकी और सोहनलाल दिल्ली पहुंच गए।
पहाड़गंज के होटल में जा ठहरे।
जुगल किशोर होटल के बाहर आया और उन चारों के नंबर मिलाया।
"हैलो...।" जाकिर की आवाज कानों में पड़ी।
"तुम्हारा कोई आदमी मुझ पर नजर रख रहा है?" जुगल किशोर ने पूछा।
"नहीं।"
"अगर ऐसा कोई शक हुआ तो मैं उसी वक्त काम छोड़ दूंगा और पैसे भी वापस नहीं दूंगा।"
"ये नौबत नहीं आएगी।"
"मैं दिल्ली पहुंच गया हूं।"
"अकेले?"
"मेरे तीन साथी मेरे साथ हैं। तुम्हारे आदमी रिचर्ड जैक्सन पर नजर रखे हुए हैं?"
"हाँ।"
"मैं उनसे मिलना चाहता हूं...।"
"कहां मिलोगे, मैं वहीं पर भेज देता हूं...।"
"कनाट प्लेस के रीगल सिनेमा हॉल के बाहर मैं मिलूंगा। कब तक तुम्हारा आदमी वहां आएगा?"
"एक घंटे में।"
"उसे कहना कि हाथ में गुलाब का फूल पकड़े रहे। तब मैं उसे आसानी से पहचान जाऊंगा।"
"ठीक है।"
■■■
जुगल किशोर एक घंटे बाद कनाट प्लेस के रीगल हॉल के बाहर मौजूद था। दोपहर हो चुकी थी, परन्तु वहां भीड़ बहुत थी। आने-जाने वाले लोग किसी भीड़ की तरह वहां से निकल रहे थे। ऐसे में गुलाब का फूल थामे आदमी को ढूंढना आसान काम नहीं था। बीस मिनट लग गये उसे तलाश करने में। वो काले सूट में लाल गुलाब थामे, सामने की दीवार के साथ आते-जाते लोगों पर नजरें मार रहा था। वो भी कोई ईराकी ही था।
जुगल किशोर उसके पास जा पहुंचा।
"हैलो।" जुगल किशोर ने कहा--- "तुम मेरा ही इंतजार कर रहे हो, गुलाब का फूल पकड़कर।"
"कौन हो तुम?" वो बोला।
"जुगल किशोर...।"
"हां। मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था।"
"भीड़ से एक तरफ आ जाओ। यहां हम बातें नहीं कर सकते।" जुगल किशोर कह उठा।
दोनों वहां से हटे और सड़क की तरफ की रेलिंग के पास आ खड़े हुए।
"नाम क्या है तुम्हारा?" जुगल किशोर कह उठा।
"वजीर खान।"
"तुम भी ईराकी हो...।" जुगल किशोर ने उसके चेहरे पर निगाह मारी।
"हां...।"
जुगल किशोर ने सिगरेट सुलगाई और कह उठा।
"तुम लोगे?" पैकेट उसकी तरफ बढ़ाया।
"शुक्रिया...।" जुगल किशोर ने पैकेट जेब में रखकर कश लिया और बोला---
"रिचर्ड जैक्सन पर तुम अकेले नजर रख रहे हो?"
"तीन और हैं मेरे साथ...।"
"कितने लोग आए हो ईराक से?"
"दस।"
"कब से हो हिन्दुस्तान में?"
"तीन महीने हो गये।"
"काम दिल्ली में करना था तो हुसैन, शेख, मौला जाकिर मुंबई में क्या कर रहे हैं?"
"यहां हमें कोई काम का बंदा नहीं मिला। मुंबई में हमारी पहचान का कोई है, उसने मुंबई बुला लिया उन चारों को--- कि वहां पर वो काम का बंदा दिला देगा। मुंबई में राजन नाम के आदमी ने तुमसे मिला दिया।"
"सब खबरें हैं तुम्हारे पास।"
"हम सब एक ही संगठन के हैं और इस काम के लिए इकठ्ठे हिन्दुस्तान आए हैं। हममें कोई छोटा-बड़ा नहीं है जो भी काम हम करते हैं, सबकी सहमति से करते हैं।" वजीर खान बोला--- "तुम हमारे बारे में बातें बहुत पूछ रहे हो।"
"मुझे मालूम होना चाहिए कि मैं कैसे लोगों के लिए काम कर रहा हूं। इस तरह मैं बढ़िया काम कर लूंगा।"
वजीर खान खामोश रहा।
"तुम कब से रिचर्ड जैक्सन पर नजर रख रहे हो?"
"पन्द्रह दिन से।"
"तो क्या जाना उसके बारे में?"
"वो सतर्क रहने वाला इंसान है। कभी भी अकेला बाहर नहीं निकलता जब वो बाहर निकलता है तो उसके साथ छः हथियारबंद लोग होते हैं, जो उसे सुरक्षा देते हैं। वो किसी को मौका नहीं देना चाहता कि कोई उसका अपहरण करे या उसे गोली मारे।"
"तो उसे पता है कि कोई उस पर हाथ डाल सकता है?"
"हां। उसे पता है कि वह कितना कमीन आदमी है और अमेरिका के इशारे पर उसने क्या-क्या गुल खिलाए हैं दूसरे देशों में। वो खतरनाक जासूस है। उसे हर समय खतरा रहता है कि कोई उस पर हाथ डाल देगा। अपनी सुरक्षा का वह पूरा ध्यान रखता है।"
"अमेरिका के लिए वो जरूरी आदमी है?" जुगल किशोर ने पूछा।
"ये क्यों पूछ रहे हो?"
"मैं जब कोई काम करता हूं तो शिकार के बारे में हर तरह की जानकारी ले लेना पसंद करता हूं।" जुगल किशोर ने शांत स्वर में कहा।
"रिचर्ड जैक्सन अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति है, क्योंकि अपने देश के लिए उसने जाने कितने देशों में जाकर गंदगी फैलाई है। हमारे ईराक का तो सत्यानाश करने में रिचर्ड जैक्सन का बहुत बड़ा हाथ रहा। इसके द्वारा दी गई सूचनाओं के आधार पर ही अमेरिका ने ईराक पर कार्यवाही की। ये अमेरिका का सगा है और अमेरिका इसका।"
"हिन्दुस्तान में अब क्या कर रहा है?"
"हमें खबर नहीं है।"
"बीते पन्द्रह दिनों में, निगरानी के दौरान तुमने उसका अपहरण करने की सोची?"
वजीर खान कुछ खामोश रहा, फिर सामने सड़क पर से निकलते ट्रैफिक को देखते कह उठा---
"पन्द्रह दिनों में रिचर्ड जैक्सन एम्बेसी से छः बार बाहर निकला। हर बार सुरक्षाकर्मियों का घेरा था उसके इर्द-गिर्द। सच बात तो ये है कि हम उसका अपहरण करने की चेष्टा करते भी तो सफल नहीं हो पाते।"
"तभी तुम लोगों ने सोचा कि किसी स्थानीय बंदे से काम कराया जाए तो पूरा हो सकता है।"
"ऐसा ही समझो।" वजीर खान ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैं तुम्हें सावधान कर देना चाहता हूं कि रिचर्ड जैक्सन को हल्के में मत लेना। सोच समझकर कदम उठाना। वो आदमी हमें हर हाल में चाहिए। तभी तो तुम्हें तीस करोड़ जैसी बड़ी रकम दी जा रही है।"
"फ़िक्र मत करो। मैं अपहरण कर लूंगा उसका।" जुगल किशोर मुस्कुराया--- "ये बताओ कि एम्बेसी से निकलकर वो अब तक कहां गया? किस रास्ते से गया। सब कुछ बताओ। जो बात तुम्हें बेकार लगे वह भी बताओ।"
वजीर खान बताने लगा।
जुगल किशोर ज्यादा से ज्यादा सवाल पूछने लगा।
पूछताछ और बताना आधे घंटे तक चला। उसके बाद जुगल किशोर ने कहा---
"अभी तुम कल तक नजर रखो। उसके बाद मेरे आदमी तुम्हारे लोगों की जगह ले लेंगे।"
"कर लोगे ये काम?"
"पक्की तरह।" जुगुल किशोर ने गहरी सांस लेकर कहा--- "हां कह दी है तो काम पूरा करना ही पड़ेगा।"
"मेरी सलाह है कि काम करने में जल्दी मत करना। पहले हालातों को समझ लेना। दस-बारह दिन में महसूस होने लगेगा कि रिचर्ड जैक्सन पर हाथ डालना आसान काम नहीं है। उसके बाद कोई प्लानिंग करना।"
"सलाह के लिए शुक्रिया...।"
■■■
"तुम कहां लेकर गये थे?" जुगल किशोर के होटल के कमरे में प्रवेश करते ही जैकी कह उठा।
"काम के ही सिलसिले में गया था।"
"कोई खास बात पता चली?"
"यही कि यह काम आसान नहीं है। रिचर्ड जैक्सन अपनी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखता है और एम्बेसी से बहुत कम बाहर निकलता है। कुछ दिन हम नजर रखेंगे ताकि हमें और भी अच्छी तरह हालातों का पता चल सके।"
"मेहनत का काम है।" अजहर मेनन ने कहा।
"दस करोड़ डॉलर भी तो हैं फिरौती में मिलने वाले।"
"क्या पता वो दस करोड़ डॉलर देंगे भी या नहीं।" मेनन कह उठा।
"देंगे। मैंने बहुत सोच-समझकर ये काम करने की सोची है। वह अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण है।"
"पता चल जाएगा।" सोहनलाल ने कहा--- "पहले उस पर हाथ तो डाला जाये। वो पिंजरे में तो फंसे।"
जुगल किशोर ने जैकी से कहा---
"मेरे लिए कॉफी के लिए कहो...।"
"मैं भी लूंगा।" मेनन बोला।
जैकी ने इंटरकॉम से रूम सर्विस पर कॉफी लाने को कहा।
"ये काम एकदम हो जाने वाला काम नहीं है। रिचर्ड जैक्सन सुरक्षा में रहता है। एम्बेसी का महत्वपूर्ण शख्स है वो। हमें बहुत शांति से उस खास वक्त का इंतजार करना होगा, जब हम उस पर हाथ डाल सकें।" जुगल किशोर ने गंभीर स्वर में कहा।
"वो खास वक्त कब आएगा?"
"उस खास वक्त का चुनाव हमें करना है।" जुगल किशोर ने मेनन को देखकर कहा--- "कल हम एम्बेसी पर नजर रखना शुरू कर देंगे और देखेंगे कि कब-कब बाहर निकलता है, कहां जाता है, किससे मिलता है। उसके बाद ही कोई प्लानिंग की जायेगी।"
"ये काम हम पूरा कर लेंगे?" जैकी ने पूछा।
उसी पल मेनन, जैकी को देखकर कह उठा---
"पहले कभी कोई काम अधूरा छोड़ा है जो ये काम छूट जाएगा!"
■■■
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