देवराज चौहान और जगमोहन पंजाब प्रांत के खूबसूरत शहर लुधियाना पहुँचे । उन्हें लुधियाना में खास काम नहीं था । कुछ दिन पहले ही वे जिन्न और गजाला वाले मामले से निपटे थे । इस वक्त चंद रोज की फुरसत थी और लुधियाना के जसदेव सिंह से पचपन लाख की रकम लेनी थी । पुराना हिसाब था ।
जगमोहन के कहने पर देवराज चौहान लुधियाना, उसके साथ ही आ पहुँचा था । स्टेशन से देवराज चौहान और जगमोहन टैक्सी द्वारा सीविल लाइन जा पहुँचे जहाँ जसदेव सिंह का बंगला था । वे बिना खबर दिए वहाँ पहुँचे थे । ऐसे में पक्का पता नहीं था कि जसदेव सिंह वहाँ मिलता कि नहीं ? वो लुधियाना में है भी या नहीं ?
मजेदार बात तो यह रही कि ज्योंहि वे टैक्सी पर बंगले के गेट के सामने उतरे उसी वक्त ही वो विशाल गेट खुला और जहाज जैसी शानदार कार में जसदेव सिंह बाहर निकला ।
कार में बैठे जसदेव सिंह ने देवराज चौहान और जगमोहन को फौरन पहचान लिया । उन्होंने भी जसदेव सिंह को पहचान लिया था ।
जसदेव सिंह ने ड्राइवर से कहकर जल्दी से कार रुकवाई और बाहर निकलकर देवराज चौहान और जगमोहन के पास जा पहुँचा । उसके चेहरे पर, उनके आने की वजह से खुशी थी ।
“बूढ़ा हो गया है तू ।” जगमोहन बोला ।
“कहाँ जी ।” जसदेव सिंह ने छाती फुलाई – “सिर्फ चालीस का हुआ हूँ । भला लुधियाने वाले भी कभी बूढ़े होते हैं । असी लुधियाने वाले आँ ।”
फिर वो जगमोहन और देवराज चौहान के गले लगा ।
“मैंने तो सुना है लुधियाने वालों की उम्र सोलह साल से ज्यादा नहीं बढ़ती ।” जगमोहन मुस्कराया – “वो सौ साल के हो जाते हैं, लेकिन पूछने पर उम्र सोलह की ही बताते हैं ।”
जसदेव सिंह ने जगमोहन को घूरा फिर आँखें नचाकर, फुसफुसाकर बोला – “भाई, तेरे को ये अंदर की बात कैसे पता चली ?” इसके साथ ही वो ठहाका लगाकर हँस पड़ा फिर हँसी रोकता कह उठा – “मुझे बोत शिकायत है तुमसे । लुधियाना आए, मेरे पास आए, लेकिन मेरे को खबर नहीं दी । बोत बुरी बात है । एक फोन तो मारते, जहाँ कहते वहीं पर लंबी कार लेकर हाजिर हो जाता ।”
“कितने साल बाद मिले तेरे से ?” एकाएक जगमोहन ने उसे घूरा ।
“पाँच-छ: साल हो ही गए, क्यों ?”
“तब तो हमारे पचपन लाख डबल हो गए होंगे ।”
जसदेव सिंह बरबस ही मुस्करा पड़ा ।
“मालको ।” जसदेव सिंह का स्वर कुछ भारी सा गया था – “तुम क्या समझते हो कि जसदेव सिंह पचपन लाख देगा नहीं । भूल गया होगा । या बहाना लगा देगा । ऐसा कुछ भी नहीं है । मेरा तो एक-एक बाल देवराज चौहान का कर्जदार है जो मैं आज बादशाह बना हुआ हूँ । क्या था मैं ? मामूली सा बंदा । कमा कर पेट भी नहीं भर सकता था । देवराज चौहान ने मुझे अपने साथ डकैती में लिया । हिस्सा दिया । उस पैसे से मैंने काम शुरू किया और धंधे में चार चाँद लग गए । आज चालीस-पचास करोड़ का मालिक हूँ । सब कुछ देवराज चौहान का ही तो दिया है ।”
“मेरा नहीं, माँ वैष्णों का दिया है ।” देवराज चौहान मुस्कराया – “मैं तो खुद माँ वैष्णों के भरोसे हूँ । तेरे को कहाँ से सहारा दूँगा ।”
जसदेव सिंह की आँखों में पानी चमका ।
“ठीक बोला तू । यही तो तेरी खासियत है कि तू ठीक बोलता है । कोई दिन नहीं कि जब मैंने तेरे को याद न किया हो । माना कि माँ वैष्णों देवी ने दिया है, लेकिन दिया तो तेरी आड़ लेकर ही ।”
मुस्कान चेहरे पर समेटे देवराज चौहान उसे देखता रहा ।
“ओ ।” जसदेव एकाएक संभला – “इधर कां खड़े हो । असाँ लुधियाने वाले आँ । मेहमान नूँ सिर आँखों पर बैठाते हैं । चलो-चलो, अंदर चलो । पहली बार ते मौका मिला है सेवा करने का ।”
“देख भाई ।” जगमोहन ने उसके कंधे पर हाथ रखा और गेट की तरफ बढ़ा – “मेरी आदत कुछ बिगड़ी हुई है । सेवा बाद में, पहले मेवा । पचपन लाख के नोट पहले देगा, नहीं तो खाना-पीना भी हजम नहीं होगा । बाद में माँगूँगा तो तेरे को बुरा लगेगा कि खामखाह सेवा की । ये तो फिर अपने पैसे माँग रहा है । समझदारी यही है कि तू पहले ही दे दे ।”
“ओह जगमोहन ।” जसदेव सिंह का हाथ मूँछ पर पहुँचा, लेकिन वहाँ मूँछ न थी – “असी लुधियाने वाले आँ । अंम सेवा भी करते हैं और खुशी-खुशी हिसाब भी चुकता करते हैं । पचपन देने हैं ना तेरे ?”
“पचपन नहीं, पचपन लाख ।”
“वो ही–वो ही–चल तेरे को पैंसठ दूँगा ।”
“पैंसठ ?” जगमोहन ने उसके कंधे से हाथ हटाकर उसे देखा ।
“हाँ !”
“बाद में पीछे हटा तो... ?”
“असाँ लुधियाने वाले आँ । कै दिया तो कै दिया । पैंसठ लाख दूँगा । लेकिन शर्त है ।”
“शर्त, ये तो तूने अड़ंगा डाल दिया ।”
“सीधी सी शर्त है–पूरा एक हफ्ता तेरे को और देवराज चौहान को, मेरे साथ रहना होगा । ये प्यार है मेरा ।”
“एक हफ्ता ?” जगमोहन ने गरदन घुमाकर पीछे आते देवराज चौहान को देखा ।
देवराज चौहान ने इशारे से जगमोहन को दो दिन कहा ।
“उधर क्या देखता है, तू मेरे से बात कर रहा है । देवराज चौहान कुछ नहीं कहता । वो बोत अच्छा बंदा है । तू ही है जो इधर-उधर से सुईंया चुभोता है । बता – हफ्ता रहेगा ना ?”
“दो दिन – तेरे लिए दो दिन निकाल लेंगे ।”
“मुझे पता था ।” जसदेव सिंह सिर हिलाकर कह उठा ।
वे गेट से भीतर प्रवेश कर गए । देवराज चौहान पीछे था ।
जहाज जैसी कार को ड्राइवर वापस बंगले में लेने की तैयारी करने लगा ।
“क्या पता था तेरे को ?”
“येई कि हफ्ता कहूँगा तो दो दिन रहोगे । दो दिन कहता तो तूने कहाँ रहना था । तेरे को अपने ढेरों काम याद आ जाने थे ।” जसदेव सिंह हँसता हुआ कह उठा – “लेकिन कोई बात नेई । असाँ वी लुधियाने वाले आँ । दो दिन में दो महीनों की खातिरदारी कर दाँ गें ।”
“तेरे साथ देवराज चौहान को प्यार है, वरना वो तो दो घंटे भी किसी के पास नहीं रुकता ।” जगमोहन बोला ।
“प्यार क्यों नहीं होगा । लुधियाने वालेयाँ विच प्यार पड़ जाता है । ठीक बोलया ना ?”
“भाई, कुछ भी कह तू ।” जगमोहन गहरी साँस लेकर बोला – “असल बात तो पैंसठ लाख की है । देवराज चौहान को तो नोटों की परवाह नहीं । मुझे तो है । हिसाब तो मुझे ही रखना होता है । उधार लेना हो तो हिसाब रखने में बहुत परेशानी आती है । तू पैंसठ लाख दे, तीसरा दिन भी जाते-जाते आधा तेरे यहाँ ही बिता लेंगे ।”
“तेरी सड़ी आदत को जानता हूँ मैं । इसलिए बुरा नहीं मानूँगा । लुधियाने वाले आँ । मेहमानां दी इज्जत करना आता है । चल अंदर ।” वे सदर द्वार तक आ पहुँचे थे – “तेरे को परजाई (भाभी) से मिलाता हूँ । आ भाई देवराज चौहान ।”
जसदेव ने गरदन घुमाकर पीछे आते देवराज चौहान से कहा – “तू पीछे क्यों है ? सब तेरा ई माल है । तेरा घर है । अम तो नौकर हैं तेरे ।”
“तेरा बहुत बड़ा दिल है ।” जगमोहन धीरे से बोला ।
“लुधियाने वाले आँ, दिल तो बड़ा होगा ही ।”
“तू देवराज चौहान को बोल रहा है कि तेरा घर है ।” जगमोहन की आवाज धीमी ही थी ।
“तो क्या हो... ।”
“हुआ कुछ नहीं ।” जगमोहन ने प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखा – “तू घर का मालिक देवराज चौहान को बना रहा है । खुद नौकर बन रहा है तो अंदर बैठी परजाई (भाभी) किसकी हुई ?”
जसदेव ठिठका । जगमोहन को देखा । अगले ही पल नीचे झुका और अपने पाँवों से जूता निकालता बोला ।
“ठहर तो – तेरे को बताता हूँ परजाई किसकी हुई । असाँ लुधियाने वाले आँ । हर तरह दी सेवा करनी आती है । तेरी सेवा तो मैं इससे करूँगा ।” जसदेव सिंह ने जूता हाथ में ले लिया ।
“परजाई जी ।” जगमोहन उससे बचता, पुकारता भीतर दौड़ा । जसदेव सिंह उसके पीछे आया ।
देवराज चौहान भी भीतर प्रवेश कर आया था ।
☐☐☐
जगमोहन बंगले के विशाल हॉल में भाग रहा था और जूता थामे जसदेव सिंह उसके पीछे तो जसदेव सिंह की पत्नी बिल्लो ये देखते ही समझ गई कि दोनों में पुरानी खास पहचान है ।
“ओ परजाई, बचा मुझे ।” जगमोहन भागकर बिल्लो के पीछे जा खड़ा हुआ ।
जसदेव सिंह जूता थामे चार कदम पहले खड़ा हो गया ।
“क्यों जी तुसी (आप) घर आए मेहमान दाँ इस तरह स्वागत करते हो । ऐ परजाई-परजाई कहते नहीं थक रहा और तुसी जूता पकड़कर इसके पीछे भाग रहे हो । ऐ कोई खातिरदारी होई ?” बिल्लो कह उठी ।
मुँह बनाते जसदेव सिंह ने जूता नीचे रखा । पाँवों में डालते कह उठा –
“अब तेरे को क्या बताऊँ बिल्लो – छोड़ ।”
जगमोहन, बिल्लो के पीछे से निकल आया ।
“ऐ परा जी (भाई साहब) हैं कौन – पहले तो नेई देखा इन्हें ।” बिल्लो ने जगमोहन को देखा ।
“ऐ तेरा देवर ऐ बिल्लो ।”
“देवर... ते ओ कौन है ?” बिल्लो ने कुछ दूर सोफे पर आ बैठे देवराज चौहान को देखा ।
“वो जेठ है ।”
“जेठ जी ।” बिल्लो ने तुरंत गले में ले रखी चुन्नी सिर पर ली और आगे बढ़कर देवराज चौहान के पाँव छुए ।
देवराज चौहान मुस्कराया ।
देवराज चौहान की उसी मुस्कान में दुनिया भर के सारे आशीर्वाद थे ।
बिल्लो ठेठ (पक्की) पंजाबन थी । कमीज-सलवार पहन रखा था । पाँवों में एड़ी वाले सैंडिल थे, कलाइयों में खनखनाती चूड़ियाँ ।, पाँवों में पायल, गले से सोने की माला, सिर के बालों की गुत (चुटिया) बना रखी थी । घने और लंबे बाल थे । गुत (चुटिया) कूल्हों से भी नीचे तक जा रही थी, जो कि उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे । कंधे चौड़े थे । कद लंबा था । भरा-पूरा शरीर । बिल्लो का माथा भी पंजाबियों जैसे ।
पास ही बैठ गई थी बिल्लो ।
“जेठ जी नूँ पैले कभी नहीं देखा ।”
“कभी आए हों तो तू देखे ।” जसदेव सिंह भी पास आकर बैठता कह उठा – “लेकिन नाम तूने बोत सुना है मेरे मूँ से ।”
“अच्छा... क्या नाम है जेठ जी का ।”
“देवराज चौहान ।”
“ओह ! ते ऐने, जिनकी तारीफ कर दे, तुसी थकते नहीं । हाय रम्भा ।” बिल्लो जल्दी से उठ खड़ी हुई – “मैंने जेठ जी को चाय पूछी ना पानी और बातें करने बैठ गई ।”
“चाय-पानी छोड़, दूध ला मलाई मार के । भूरी भैंस वाला दूध लाई बिल्लो ।”
“फिक्र न करो जी । मैं समझ गई कि कैसी सेवा करनी है ।” बिल्लो तेजी से एक तरफ बढ़ गई । उसकी गुत सावन के झूले की तरह, मस्ती से इधर-उधर नाच रही थी – “रामू-हरिया-सक्खू जल्दी आओ । बोत काम है । मेरे जेठ जी ते देवर जी आए हैं । बोत काम है ।”
जसदेव सिंह, बिल्लो को जाते देखता रहा फिर कह उठा ।
“बोत अच्छी है बिल्लो । मेरे से शादी करके इसने तो मेरी जिंदगी बदल दी । जैसे मुझे पैसे की जरूरत थी । वैसे ही बिल्लो की जरूरत थी । दोनों जरूरतें पूरी हो गईं ।” जसदेव सिंह भावुक को उठा था ।
“तेरी जरूरत तो पूरी हो गई ।” जगमोहन कह उठा – “लेकिन मेरी जरूरत तो वहीं की वहीं खड़ी है ।”
“क्या ?”
“पैंसठ लाख ।”
“अभी तेरे को यहाँ से जाने में दो दिन हैं... मैं... ।”
“दो दिन छोड़... मैं अभी चला जाता हूँ । नोट मेरे हवाले कर । दो दिन तो उन्हें गिनते-गिनते बीत जाने हैं । बता किधर रखे हैं ।”
“तेरी आदत नहीं बदली ।”
“नोटों के बारे में मेरी आदत-विचार नहीं बदलते ।”
जसदेव सिंह ने देवराज चौहान से कहा ।
“चल तेरे को कमरा दिखा दूँ । नहा-धोकर तू आराम कर । तब तक मैं इसे नोट गिना देता हूँ ।”
देवराज चौहान उठ खड़ा हुआ ।
☐☐☐
वो दिन बहुत मजे से बीता । कब-कैसे वक्त निकल गया, पता ही नहीं चला ।
घर का साफ-सुथरा, हँसी-मजाक भरा माहौल देवराज चौहान और जगमोहन को बहुत अच्छा लगा । बिल्लो को हर वक्त इसी बात की चिंता लगी रहती कि जेठ और देवर की सेवा में खाने-पीने को अब क्या पेश करे । रात तक जगमोहन ने पैंसठ लाख बाँधकर, मीडियम साइज के सूटकेस में रख लिया था । हजार-हजार के नोट थे । रखने और ले जाने में भी कोई समस्या नहीं थी । रात को सोते-सोते दो बज गए थे ।
अगले दिन दस बजे उनकी आँख खुली तो जसदेव सिंह ट्रे में चाय के दो प्याले लेकर आ पहुँचा ।
“तू क्यों लाया – नौकर को कह... ।” जगमोहन ने कहना चाहा ।
“असी लुधियाने वाले आँ । खास मेहमाना दी सेवा, खास ढंग से करते हाँ ।”
तभी बिल्लो ने भीतर प्रवेश करते हुए कहा ।
“मैंने तो बोत कहा इन्हें देवर जी कि मैं ले चलती हूँ । लेकिन माने नहीं ।”
“कोई बात नहीं परजाई ।” जगमोहन चाय का प्याला थामता बोला – “इसका जैसे दिल करता है, वैसे ही सेवा कर लेने दो ।”
“आप दोनों अब जल्दी से नहा-धोकर तैयार हो जाओ ।”
“क्यों परजाई ?”
“मैं अपने हाथों पूरी-छोले बना रही हूँ । गरमा-गरम खा लेना । ठण्डे हो जाएँ तो स्वाद नेई आता । साथ में दही और अम्ब दा अचार भी है । उसके बाद लस्सी । ये सब खत्म हो जाए तो उस दे बाद गरमा-गरम गुलाब जामुन । फिर आधे घंटे के बाद मलाई वाली चाय और... ।”
“बस परजाई और नहीं… ये ही ज्यादा हो गया हैं ।”
“जल्दी से तैयार हो जाओ । मैं किचन में जा रही हूँ ।” बिल्लो चली गई ।
जसदेव सिंह पास ही बैठ गया था ।
“तुम क्या काम करते हो ?” देवराज चौहान ने पूछा ।
“बहुत बढ़िया काम है । बयालीस टैक्सियाँ चलती हैं मेरी । शहर में भी, शहर से बाहर भी । टूरिस्ट स्टेशन है मेरा, बोत बड़ा । जरूरत पड़ने पर पंजाब सरकार भी मेरे से ही गाड़ियाँ लेती है । मेरे अपने दो गैराज हैं । अपनी ही गाड़ियाँ खराब हो जाती हैं, उनका काम चलता रहता है । दस ट्रैकटर हैं । उधर दुकान पर बंदे बिठा रखे हैं, वो खेत वालों को ट्रैक्टर किराए पर देते हैं । दो कपड़े के शो-रूम हैं । चार ड्राईक्लीन की दुकाने हैं । लुधियाना में खास-खास आठ-दस जगह पर पार्किंग के ठेके ले रखे हैं । लाखों रुपया रोज का तो पार्किंग के काम से आ जाता है । कभी-कभी कोई सस्ता प्लाट उठाकर, उस पर फ्लैट बनाकर भी बेचता हूँ । सब काम करता हूँ । छोटा हो, बड़ा हो, काम तो काम ही होता है । नोट आने चाहिए । बिल्लो की मेहरबानी से नोट बहुत आ जाते हैं ।”
“बिल्लो की मेहरबानी से ?” देवराज चौहान मुस्कराया ।
“वो क्या है कि कहते हैं ना कि पैसा तो औरत की किस्मत का होता है ।” जसदेव सिंह हँसा ।
“बहुत बोलने लगा है तू ।”
“मैं कहाँ बोलता हूँ । नोट होते हैं तो मुँह में बोल भी आ जाते हैं । घटिया से घटिया बात को भी लोग कहते हैं कि क्या समझदारी वाली बात की है । फक्कड़ बंदा कितनी भी बढ़िया बात कह ले, लोग उसे पागल कहते हैं ।”
“समझदारी वाली बातें भी करता है ।”
जसदेव सिंह दो पल तो दोनों को देखता रहा फिर धीमे से बोला ।
“जब तुम मेरा हिस्सा मुझे देकर चले गए तो मुझे डर ही लगा रहता था कि कहीं पुलिस न पकड़ ले । कई महीने मैंने इसी डर से बिता दिए । वो ही सूखी दाल-रोटी ढाबे से खाता रहा । पुराने कपड़े पहने रहता । जब छ: महीने निकल गए तो डर कुछ कम हुआ । फिर मैंने पैसा निकालकर इस्तेमाल करना शुरू किया था ।”
“बिल्लो को पता है कि तुम्हारे पास पैसा कहाँ से आया था ?” जगमोहन ने पूछा ।
“कुछ पता है, कुछ नहीं पता । लेकिन मैंने इतना बता रखा है इसे कि तुम दोनों की मेहरबानी से मैं बंदा बना वरना तो खाने को भी कुछ नहीं... ।”
तभी बिल्लो ने भीतर प्रवेश किया ।
“कमाल है । अभी तक बैठे हो । जल्दी करो । मेरी तो कढ़ाई भी गरम हो गई । घी वाली पूरियाँ निकलने को तैयार हैं ।”
“ये बात है ।” जगमोहन बैड से उतरता हुआ कह उठा – “तो नहाना बाद में । पहले पूरी-छोले खाएँगे ।”
“मैं गैस बंद कर रही हूँ ।”
“क्यों भाभी ?” जगमोहन अचकचाया ।
“पहले नहाना-धोना फिर नाश्ता । सुनो जी पंचम भी आ रहा है । फोन आया था उसका । वो भी पूरी-छोले खाएगा ।”
“पंचम ?”
बिल्लो बाहर निकल गई ।
“पंचम कौन ?” जगमोहन ने पूछा ।
जसदेव सिंह ने दोनों को देखा और कह उठा ।
“बिल्लो का भाई है । मेरा साला, पंचम लाल ।”
☐☐☐
पंचम लाल आया । साथ में पच्चीस बरस का एक युवक भी था । कमीज-पायजामा पहन रखा था उसने । सिर के बाल छोटे-छोटे और मूँछे थीं । ठेठ गाँव वाला लगता था वो युवक ।
पंचम लाल की उम्र पैंतीस के करीब थी । देखने में साधारण सा था । कमीज-पैंट पहन रखी थी । शेव कर रखी थी । खुद को संपन्न दिखाता था, जबकि पारखी नजरें पहचान जाती थी वो संपन्न नहीं है ।
“आ पंचम ।” जसदेव सिंह कह उठा – “ये मेरा साला है पंचम और ये है देवराज चौहान और जगमोहन ।”
वे डायनिंग टेबल पर बैठे थे । पूरी-छोले खाना शुरू करने वाले ही थे ।
पंचम लाल ने देवराज चौहान और जगमोहन से हाथ मिलाया और डायनिंग टेबल की कुर्सियों पर जा बैठा । वो युवक भी साथ ही बैठ गया । पंचम लाल की निगाह देवराज चौहान और जगमोहन पर टिक गई थी ।
जसदेव सिंह युवक की तरफ इशारा करके कह उठा –
“इसकी तारीफ भी सुन लो । मैं इसे लानती कहता हूँ ।”
“लानती ?” जगमाहन ने होंठ सिकोड़ कर जसदेव सिंह को देखा ।
“हाँ, पंचम के साथ चिपका रहता है और लानत भरे काम करता है । इसे तो कुछ कह नहीं सकता । साला है । तो इसे ही लानती कह देता हूँ । अपनी तरफ से बढ़िया काम करेगा, लेकिन लानत के अलावा इसे कुछ भी हासिल नहीं होता ।”
जवाब में कुर्सी पर बैठा लानती मुस्करा पड़ा । फिर बोला ।
“लानती कहो, कुछ भी कहो, काम-धंधा चलता रहना चाहिए ।”
“काम-धंधा ?” जगमोहन ने जसदेव से पूछा – “करता क्या है ये ?”
“पूछो मत । दिन में प्रापर्टी डीलर बनकर घूमता है और रात में कारें चुराकर बेचता है ।”
“जीजा जी, क्यों यूँ ही बदनाम करते हो ।” लानती खिसियाकर कह उठा ।
“जीजा कहता है मुझे, क्योंकि पंचम का जीजा हूँ ।” जसदेव मुस्कराया ।
“और ये, तुम्हारा साला पंचम क्या करता है ?” जगमोहन ने पंचम पर नजर मारी ।
“छोटा सा गैराज है । मैंने ही जगह लेकर दी थी । बिल्लो परेशान थी कि आवारा घूमता है ।” जसदेव सिंह ने मुँह बनाया – “मैंने इसे अपने कामों में रखा कई बार, लेकिन बेकार । ठीक से काम नहीं करता था । शिकायतें आई तो काम से निकाल दिया । अब गराज खोलकर गुल खिला रहा है ।”
“वो कैसे ?”
“गैराज पर गाड़ियाँ ठीक होने आती हैं ।” जसदेव सिंह ने धीमें स्वर में कहा – “जो गाड़ी बढ़िया होती है, उसकी डुप्लीकेट चाबियाँ बनवा लेता है और दस-बीस दिन बाद, उस कार को वहाँ से उठा लेता है, जहाँ रात को खड़ी होनी है ।”
“ये काम लानती करता होगा ।” जगमोहन ने लानती को देखा ।
“मैं ही करता हूँ और गाड़ी उठाने से पहले उसका ग्राहक भी ढूँढ़ लेता हूँ ।” लानती शान भरे स्वर में कह उठा – “और आधे दिन में गाड़ी का हुलिया बदलकर अगली पार्टी के हवाले कर देता हूँ और नोट पंचम को दे देता हूँ ।”
“बिल्लो को पता है इन दोनों की करतूतें ?” जगमोहन ने गहरी साँस ली ।
“अभी तो नहीं पता । पता हो तो इन्हें घर में न घुसने देती । माथा पीट लेती अपना । वो तो सोचती है कि उसका भाई बहुत बड़ा मैकेनिक है । जबकि इसे खिड़की और बोनट खोलने के अलावा कुछ नहीं आता । जब पुलिस के हत्थे चढ़ेगा तो भांडा फूटेगा ।”
पंचम लाल जो बारी-बारी देवराज चौहान और जगमोहन को देख रहा था वो जसदेव सिंह से कह उठा ।
“जीजा जी, ये देवराज चौहान और जगमोहन वो ही हैं ना – जिनकी आप बात करते हो... बहुत बड़े डकैती मास्टर ।”
जसदेव सिंह हिचकिचाया ।
पंचम लाल की आँखें सिकुड़ीं फिर समझने वाले ढंग में मुस्करा पड़ा ।
“मैं सब समझता हूँ जीजा जी । चुप रहने का क्या फायदा – मैं किसी को बताऊँगा थोड़े ना ।”
“मैं भी नहीं बताऊँगा ।” लानती फौरन कंधे से कंधा जोड़कर कह उठा ।
“तेरे से कुछ पूछा है किसी ने ?” जसदेव सिंह ने लानती को घूरा ।
“पूछने से पहले ही मैंने बता दिया कि मैं किसी को कुछ नहीं बताऊँगा इनके बारे में ?”
“लानत है । तू सच में लानती है ।” जसदेव सिंह ने कुढ़कर कहा ।
तभी बिल्लो वहाँ आ पहुँची । साथ में तीन नौकरों की फौज थी जिन्होंने सामान उठा रखा था । चंद पलों में ही पूरी-छोले की खुशबू से वो जगह भर उठी । टेबल सज गया । नाश्ता शुरू हो गया । बिल्लो ध्यान रख रही थी कि कोई चीज कम न पड़ जाए । नौकर किचन को दौड़ लगाते जरूरत की चीजों को ला रहे थे । बिल्लो उन्हें टिकने न दे रही थी ।
नाश्ता शुरू हो गया था ।
“आराम से खा ।” जसदेव सिंह ने लानती को घूरा ।
लानती का मुँह पूरा भरा हुआ था । उसने जसदेव सिंह को जवाब में कुछ कहना चाहा परंतु कह न सका । सिर्फ सिर हिला दिया, लेकिन वो लानती खा ढंग से ही रहा था ।
नाश्ते के बाद वे लोग ड्रॉईंग हॉल में आ बैठे थे । नौकरों ने कॉफी बनाकर उनके सामने रख दी थी । बिल्लो अकेली डायनिंग टेबल पर बैठी नाश्ता कर रही थी ।
ये जानने के बाद कि उनके सामने डकैती मास्टर और उसका साथी जगमोहन बैठा है, पंचम लाल कुछ बेचैन सा हुआ पड़ा था । नाश्ता भी उसने ठीक से नहीं किया और अब भी रह-रह कर पहलू बदल रहा था ।
लानती सोफे पर ऐसे पसरा पड़ा था, जैसे जीवन भर का खा लिया हो और अब उसे कभी भी खाने की जरूरत नहीं पड़ेगी । बार-बार वो पेट पर ऐसे हाथ फेरने लगता जैसे किसी भैंस की पीठ पर हाथ फेर रहा हो ।
वो लोग बातों में व्यस्त हो जाते थे । परंतु देवराज चौहान न तो उनकी बातों में हिस्सा ले रहा था और न ही सुन रहा था । वो तो जैसे अपने आप में ही मस्त था ।
एकाएक पंचम लाल उठा और जसदेव सिंह से बोला –
“जीजे, इधर आना ।” उसके चेहरे पर गंभीरता थी ।
“यहीं बोल जो कहना है । सब अपने ही हैं ।”
लानती ने एक आँख खोलकर पंचम लाल को देखा फिर आँख बंद कर ली ।
“आराम करने दे इन्हें । अपनी बातों से इन्हें क्यों डिस्टर्ब करता है ।” पंचम लाल ने उसे हाथ से एक तरफ आने का इशारा किया ।
जसदेव सिंह के माथे पर बल उभरे और गायब हो गए । वो उठा और एक तरफ बढ़ गया ।
दोनों ड्रॉईंगहॉल के कोने में पहुँचकर रुके ।
“क्या है, नोट मत माँगना । आजकल हाथ बहुत तंग है । लुटा बैठा हूँ मैं ।”
“जीजे – मैं भी कमाता हूँ । एक-दो बार पैसे क्या माँग लिए, तू समझता है कि... ।”
“ठीक है, ठीक है, बात कर ।”
पंचम लाल ने दूर बैठे देवराज चौहान और जगमोहन पर नजर मारी फिर धीरे से कह उठा ।
“जीजे, मेरे पास डकैती की तगड़ी योजना है ।”
“क्या बकवास करता है ।” जसदेव सिंह उखड़ा ।
“सच जीजे । छ: महीनों से योजना है । झूठ नहीं बोलता । तेरे से झूठ नहीं बोलूँगा । डेढ़ सौ करोड़ का माल हाथ आएगा । मैं तो डकैती का हौसला नहीं कर सकता । साथ तो काम कर सकता हूँ लेकिन डकैती वाला काम नहीं संभाल... ।”
“चुप कर... ।”
पंचम लाल ने होंठ बंद किए ।
“देवराज चौहान और जगमोहन मेरे पास डकैती के लिए नहीं आए । वो कुछ दिन आराम से बिताने आए हें । मेहमान हैं मेरे । मेहमानों से काम नहीं लिया जाता । दो-चार लफाड़ी इकट्ठे कर और मार ले डकैती । लेकिन मैं तो यही सलाह दूँगा कि जैसे दाल-रोटी चल रही है, चलाता रह । तेरे जैसे बच्चों के बस का काम नहीं है डकैती के बारे में सोचना भी ।”
“जीजे, तेरे पास कितना माल होगा । मान ले तेरे पास पचास करोड़ का माल है ।” पंचम लाल पर अपनी ही बात की धुन सवार थी – “मैं डेढ़ सौ करोड़ की डकैती की बात कर रहा हूँ । कभी देखी-सुनी है, इतनी बड़ी रकम ?”
जसदेव सिंह के चेहरे पर गंभीरता उभरी ।
“अब समझ में आई मेरी बात ?” उसके चेहरे के भाव देखकर पंचम लाल को आशा बँधी ।
जसदेव सिंह सिर हिलाकर कह उठा ।
“तू मुझे अपनी बातों में फँसाने की बात न कर । तेरे जैसे बच्चे मैंने बहुत पाले हैं । अपनी जीजे को अभी तू जानता नहीं ।” जसदेव सिंह ने व्यंग्य से कहा – “देवराज चौहान और जगमोहन मेरे मेहमान हैं, इनसे कोई काम नहीं लेना है ।”
“काम कहाँ ले रहे हैं हम जीजू । हम सब मिलकर काम करेंगे । बहुत आसान योजना है और... ।”
“दोबारा मुझसे ये बात न करना ।”
पंचम लाल के चेहरे पर ऐसे भाव थे कि जैसे जसदेव सिंह का सिर फाड़ देगा । परंतु अपने पर काबू रखा उसने ।
तभी बिल्लो उनके पास पहुँचती कह उठी ।
“क्या बात है आज जीजा-साले बड़े घुट-घुटकर बात कर रहे हैं । क्या बात हो रही है ।”
जसदेव सिंह ने उखड़े अंदाज में बिल्लो को देखकर कहा ।
“तेरे दो-चार भाई और होते तो मैं बहुत तरक्की करता । मेरा बेड़ा पार हो जाता ।”
“अब मुझे क्या कहते हो । ये बात तो मेरी माँ को पता होनी चाहिए थी, जिसने एक ही पैदा किया । लाखों में से एक है मेरा भाई ।”
“जब डूबेगा तो पता चलेगा ।” जसदेव सिंह ने कहा और होंठ भींचे वापस चला गया ।
“क्यों पंचम – तेरा जीजा नाराज क्यों हो रहा है ?” बिल्लो ने पंचम लाल से पूछा ।
“पैसे माँगे थे ।” पंचम लाल ने बात टालने वाले स्वर में कहा ।
“हर वक्त मत माँगा कर ।” बिल्लो समझाने वाले स्वर में बोली – “मेरे पास भी नहीं है, जो तेरे को दे देती । तेरा जीजा आटा, दाल, सब्जी सब कुछ भिजवा देता है, नौकरों के हाथों । तेरे को तो पता ही है । लेकिन मेर हाथ पर नोट नहीं रखता । उन्हें पता जो है कि मैं तेरे माँगन पर सारे नोट तेर को दे दूँगी । वैसे तेरा जीजा है बहुत समझदार । मैं चलती हूँ । किचन में बहुत काम पड़ा है । पूरी-छोले से तो जान छूटी, अब दोपहर का खाना बनाना है । जेठ जी की और देवर जी की तगड़ी सेवा करनी है । हमारा सबकुछ उन्हीं का ही दिया हुआ है । तेरे जीजा जी तो उनके लिए दिल भी निकाल कर रख दें । बहुत प्यार है इनमें । तू भी दोपहर का खाना खाकर जाना ।” कहकर बिल्लो वहाँ से चली गई ।
पंचम लाल वापस पहुँचा और सोफे पर बैठकर कॉफी का प्याला उठा लिया ।
पेट पर हाथ फेरते लानती ने पुन: एक आँख खोलकर पंचम लाल के उखड़े गंभीर चेहरे को देखा । कुछ पल देखता रहा फिर दूसरी आँख भी खोली । कमीज-पायजामा ठीक किया और उठकर पंचम लाल के पास जा बैठा ।
“नाराज-नाराज क्यों हो ?” धीमे स्वर में बोला लानती ।
पंचम लाल ने उसी अंदाज में होंठ बंद रखे ।
“बता भाई, शायद तेरी समस्या का समाधान निकाल दूँ ।”
“जीजा फिसल रहा है । बात नहीं मानता ।”
“क्या बात ?”
“मेरे पास तगड़ी डकैती की योजना है । लेकिन जीजा, देवराज चौहान से बात करने को तैयार नहीं ।”
“कौन-सी डकैती की योजना है तेरे पास – हैरानी की बात है कि मेरे को नहीं पता ।”
“बात में बताऊँगा ।”
लानती कुछ पलों तक पंचम लाल को देखता रहा फिर धीमे स्वर में बोला ।
“वो डकैती मास्टर देवराज चौहान है । छोटी चीज नहीं है । वो तेरी बातों में नहीं फँसेगा ।”
“बहुत मोटे माल का मामला है ।” पंचम लाल गंभीर स्वर में बोला – “देवराज चौहान सुनेगा तो उसके तोते उड़ जाएँगे ।”
“तोते ?”
“हाँ ।”
“मुझे तो तेरा तोता ही हिलता नजर आ रहा है ।”
“मजाक मत कर ।”
“मेरी सुन ।” लानती के चेहरे पर सोच के भाव नजर आ रहे थे – “मुझे तो लगता है कि देवराज चौहान तेरी बात ठीक से सुनेगा भी नहीं । तेरा काम बन सकता है अगर तू उसके साथी के तोते को उसकी जगह से हिला दे ।”
“जगमोहन ?”
“हाँ, उससे बात कर । तेरी बात अगर उसे जँची तो वो देवराज चौहान को संभाल लेगा । तेरा जीजा-फिर कुछ नहीं कर सकेगा ।”
पंचम लाल के होंठ सिकुड़े फिर मुस्करा पड़ा ।
“बात तो तूने ठीक कही ।” पंचम लाल बोला ।
“लानती ठीक ही कहता है । लेकिन मेरी सुनता कौन है ।”
पंचम लाल अपनी जगह से उठकर जगमोहन के पास जा बैठा था । जसदेव सिंह ने ये देखा तो उखड़े स्वर में पंचम लाल से कह उठा –
“तू मानेगा नहीं – बुलाऊँ बिल्लो को ।”
पंचम लाल पहले तो सकपकाया फिर खिसियाकर मुस्कुरा पड़ा ।
जसदेव सिंह की आवाज पर देवराज चौहान ने भी उसे देखा और पास बैठे जगमोहन ने भी ।
“तुम तो बात को यूँ ही बढ़ा रहे हो जीजे ।”
“उठ यहाँ से और जा ।” जसदेव सिंह बोला – “मैंने तेरे को मना किया है कि... ।”
“जाता हूँ...जाता हूँ... सिर्फ पाँच मिनट ।”
जसदेव सिंह कुछ कहने लगा कि जगमोहन कह उठा –
“क्या बात है ?”
“मेरे पास डकैती की योजना है ।” पंचम लाल जल्दी से बोला – “वो ही बताना चाहता हूँ ।”
जगमोहन के होंठ सिकुड़े । पंचम लाल को देखने लगा वो ।
“डेढ़-दो सौ करोड़ हाथ लग सकता है । पचास-पचास करोड़ एक-एक हिस्से में ।”
“दाना डालता है ।”
“सच कहता हूँ । मेहनत भी ज्यादा नहीं । समझो, वो सारा पैसा हमारे ही लिए है ।” पंचम लाल जल्दी से बोला – “सड़क पर से उस पैसे पर हाथ डालना है । पंद्रह मिनट से ज्यादा का वक्त नहीं लगेगा ।”
जगमोहन के चेहरे पर दिलचस्पी के भाव उभरे ।
“तो सोचता क्या है – कर ले ।”
“मैं नहीं कर सकता । हौसला नहीं है । लेकिन सब कुछ बता सकता हूँ । तुम कर सकते हो ये काम । देवराज चौहान कर सकता है । तुम लोगों के लिए मामूली काम है और मेरे लिए पहाड़ से भी ज्यादा बड़ा ।”
“बेटे ।” जगमोहन व्यंग से हँसा – “इन कामों के बारे में जब सोचा जाता है तो सबकुछ बहुत आसान लगता है । क्योंकि नोट नजर आ रहे होते हैं और हाथ डालने के बाद बंदा नोटों को भूल जाता और जान खतरे में नजर आती है । पुलिस के सपने आते हैं । नोट हाथ आने के बाद भी बंदा डर से खा नहीं पाता ।”
पंचम लाल का चेहरा लटक गया ।
“तुम मेरी बात सुनोगे तो... ।”
“सुना ।”
पंचम लाल ने जसदेव सिंह पर नजर मारी, जो खा जाने वाली नजरों से उसे देख रहा था ।
“य... यहाँ नहीं – जीजा घूरता है, उधर चलते हैं ।”
“चल ।” जगमोहन उठा ।
पंचम लाल भी जल्दी से उठ खड़ा हुआ ।
“मान जा पंचम । वरना तेरा इस घर में आना बंद करा दूँगा ।” जसदेव सिंह ने गुस्से से कहा ।
“जीजे । पाँच मिनट लगने हैं । अगर इन्हें मेरी बात पसंद आई तो ठीक, नहीं तो... ।”
“मानेगा नहीं तू ।”
“कह लेने दे, जो कहना चाहता है ।” जगमोहन मुस्कराया – “दिल हल्का हो जाएगा ।”
जसदेव सिंह होंठ भींचकर रह गया ।
जगमोहन और पंचम लाल एक तरफ चले गए ।
लानती फौरन सीधा हुआ और जसदेव सिंह से बोला –
“जीजे, तुमने गलती की पंचम को इनसे मिलाकर । तुम्हें पंचम की आदत का तो पता ही है कि वो खुराफाती है ।”
जसदेव सिंह ने खा जाने वाली नजरों से लानती को घूरा ।
“मुझे ऐसे क्यों देखते हो जीजे । मैंने थोड़े न कुछ किया है ।” कहने के साथ ही लानती उठ खड़ा हुआ ।
“तू किधर जा रहा है ? बैठ ।” जसदेव सिंह ने कठोर स्वर में कहा ।
“दीदी के पास किचन में जा रहा हूँ । देखूँ तो सही कि दोपहर के लिए क्या बन रहा है । लंच में ज्यादा टाइम तो है नहीं । वो भी करके ही जाऊँगा । रोज-रोज कहाँ आना होता है कि दीदी के हाथ का खा सकूँ ।” कहकर लानती आगे बढ़ गया ।
जसदेव सिंह ने गहरी साँस लेकर देवराज चौहान को देखा ।
“पंचम कहीं डकैती करने के लिए कह रहा था मुझे । अब जगमोहन से इसी बारे में बात करेगा ।”
देवराज चौहान ने जवाब में कुछ नहीं कहा ।
☐☐☐
जगमोहन और पंचम लाल बेडरूम में बैठे ।
“बोल, क्या कहता है ?” जगमोहन ने उसे देखा ।
“डेढ़-दो सौ करोड़ का मामला ।”
“मामला मैं देख लूँगा । तू मुझे शीशे में ज्यादा मत उतार । मामला बता कि कहाँ की सोच रहा है तू ? बात क्या है ? कारें चुराते-चुराते तेरे दिमाग में डकैती कहाँ से आ गई ?” जगमोहन ने कहा ।
पंचम लाल ने सिगरेट निकालकर सुलगा ली । कुछ पल चुप रहकर कह उठा –
“ये तो तुम्हें पता चल ही चुका है कि मेरा गैराज है । वो भी जीजे ने खोल कर दिया था । बात यूँ है कि मेरे गैराज पर रोशनी इंटरप्राइजिज की तरफ से एक बैंक वैन हर पंद्रह दिन में ठीक होने आती है । ठीक होने से मतलब है कि उसका पूरा चैकअप मुझे करना होता है कि किसी तरफ से उसमें कोई कमी तो नहीं । वैन जब सड़क पर उतरे तो छूरी में मक्खन की तरह उसे सड़क पर इशारे से दौड़ना चाहिए ।”
“रोशनी इंटरप्राइजिज की तरफ से बैंक वैन ठीक होने आती है । ये मैं समझा नहीं ।” जगमोहन बोला ।
“लुधियाना में हिंदुस्तान लीमिटेड बैंक का हैड ऑफिस है । बैंक की सौ से कहीं ज्यादा गाड़ियाँ हैं । वे खराब तो होती ही रहती हैं । ऐसे में बैंक ने रोशनी को ठेका दे रखा है, गाड़ियाँ ठीक करने का कि जो भी गाड़ी खराब हो, उसे जल्द से जल्द कम वक्त में ठीक करके, उन्हें वापस लौटाई जाए । इस काम के लिए रोशनी इंटरप्राइजिज ने आठ गैराज वालों से एग्रीमेंट कर रखा है कि उनकी भेजी गाड़ी को गैराज वालों ने तुरंत ठीक करना है । उन आठ गैराजों में से एक गैराज मेरा भी है ।”
“’समझा – ये वैन का क्या चक्कर है ?’ जगमोहन ने पूछा ।
“बैंक वैन है । आर्म्स प्रूफ । गोली-हथगोले का उस पर कोई असर नहीं होता । साउण्ड प्रूफ है । भीतर की आवाज बाहर नहीं, बाहर की आवाज भीतर नहीं आती । वैन की बॉडी स्टील की है । काटना भी कठिन है । असंभव जैसा कठिन । वैन के पहियों पर भी ऐसा बुलेट प्रूफ कवर चढ़ा रहता है कि गोली से टायरों का निशाना नहीं लिया जा सकता । वैन का ड्राइवर भीतर से सिर्फ एक बटन दबाकर वैन को ऐसा पक्का लॉक कर सकता है कि उसे फिर से नहीं खोला जा सकता । सिर्फ बॉडी को ही काटा जा सकता है, जो कि तुम्हें बता ही चुका हूँ कि ऐसा कर पाना असंभव जैसा कठिन है । इस काम के वास्ते फुरसत को कई दिन का वक्त चाहिए ।”
जगमोहन ने सिर हिलाया । निगाह पंचम लल पर ही टिकी थी ।
“वो बख्तरबंद वैन है । मीडियम साइज की । र्स्कापियो गाड़ी के साइज की । उस वैन को एक सौ पचास की स्पीड पर आसानी से दौड़ाया जा सकता है । वो वैन खासतौर से विदेश से मँगवाई थी बैंक ने । तीन साल हो गए । जिस कंपनी से मँगवाई थी, वो ऐसी बख्तरबंद वैन बनाने में मास्टर है ।”
जगमोहन उसे देखता रहा ।
“जिस वैन के बारे में तुम्हें बता रहा हूँ । खासतौर से इस वैन से बैंक बहुत मोटी-मोटी रकमें भेजता है ।”
“तुम्हें कैसे पता ?”
“उसका ड्राइवर बलवान सिंह है । ज्यादातर वो ही चलाता है उस वैन को1 उसे कहीं आना-जाना होता है तो उसकी ड्यूटी दूसरे भरोसे ड्राइवर को सौंपी जाती है । नहीं तो ड्यूटी टाइम में वैन उसके ही कब्जे में रहती है ।” पंचम लाल सोच भरे धीमे स्वर में कह रहा था – “तुम्हें बताया ही है कि हर पंद्रह दिन में वो वैन चैकअप के लिए मेरे गैराज पर आती है । मेरे यहाँ एक मैकेनिक है, वो वैसी विदेशी वैनों को भी ठीक-ठाक कर देता है । वैन को मेरे गैराज पर बलवान सिंह ही चलाकर लाता है । वो रोशनी इंटरप्राइजिज को फोन पर खबर कर देता है कि वैन को मेरे गैराज पर ला रहा है तो ऐसे रोशनी इंटरप्राइजिज वाले मेरे यहाँ फोन कर देते हैं ।”
“मतलब कि रोशनी इंटरप्राजिज वालों का आदमी वैन के साथ नहीं आता ?”
“नहीं । क्योंकि बलवान सिंह वैन को खुद ही चलाता है । किसी के हवाले नहीं करता वैन को ।”
“क्यों ?”
“बलवान सिंह कहता है कि सारी जिम्मेदारी मेरी होती है । बड़ी-बड़ी रकमें इधर से उधर ले जानी पड़ती है । बड़े-बड़े गुरू बैठे हैं । कोई पहले से ही गड़बड़ कर दे और मौके पर उनकी वैन को घेर ले तो... इसलिए वैन का बहुत खयाल रखता है ।”
“वो अकेला जाता है रकमें लेकर ।”
“एक गार्ड साथ होता है जो कि वैन के पीछे वाले हिस्से में गन के साथ बैठा होता है । तब वो दोनों एक-दूसरे को देख भी नहीं सकते । बातें भी करेंगे तो वैन में लगे इंटरकॉम जैसे रिसीवर से या वॉकी-टॉकी से । पीछे बैठा गार्ड वैन का दरवाजा भीतर से बंद कर लेता है । बलवान सिंह के बटन दबाने से भी वो दरवाजा नहीं खुलता । तभी खुलता है जब उसे सब ठीक लगता है । वो दरवाजा बंद करके एक तरफ लगा स्विच दबाकर भीतर का बल्ब रोशन कर लेता है । किसी तरह का शक होने पर, पीछे और दाएँ-बाएँ एक-एक इंच की खिड़कियों जैसे झरोखे हैं, उन्हें खेलकर बाहर झाँक लेता है । वो झरोखे सिर्फ भीतर से ही खोले जा सकते हैं । अगर बाहर किसी तरह की गड़बड़ हो तो वो आराम से भीतर बैठा रह सकता है । बाहर वाले किसी भी स्थिति में भीतर नहीं आ सकते । यानी की भीतर भरी पड़ी दौलत को नहीं ले सकते ।”
जगमोहन होंठ सिकोड़े कुछ पल उसे देखता रहा फिर बोला –
“मतलब कि ड्राइवर का केबिन अलग है और पीछे वाला बिल्कुल अलग ।”
“यूँ तो भीतर से वैन पूरी तरह जुड़ी हुई है, परंतु तुम्हारा कहना ठीक है कि ड्राइवर का केबिन अलग है और पीछे वाला हिस्सा अलग । बीच में मोटे स्टील की दीवार है ।” पंचम लाल बोला – “ऐसा इसलिए कि अगर किसी स्थिति में ड्राइवर वाली जगह पर कोई बाहरी आदमी कब्जा जमा ले तो पीछे वाला हिस्सा सुरक्षित रह सके ।”
जगमोहन सोच भरी नजरों से उसे देखता रहा ।
“चार-पाँच दिन में वो वैन फिर मेरे पास आने वाली है । हर नौ या दस तारीख को वो वैन डेढ़-दो सौ करोड़ की दौलत, पाँच-छ: जगह छोड़ने जाती है । ये तो वैन का दो साल पुराना रूटीन है । लुधियाना में हौजरी का काम बड़े पैमाने पर होता है । विदेशों में अधिकतर यहाँ का वूलन का तैयार काम जाता है । लुधियाना का बना माल देश में तो दस-पंद्रह प्रतिशत ही जा पाता है । ऐसे में त्रेहन मिल्स – मोगा वूलन वर्क्स, ऐसी और भी ढेरों बड़ा-बड़ा वूलन का, हौजरी का काम है । उनके कारीगरों की मोटी तनख्वाह बनती है । ये फैक्ट्रियों वाले जो रॉ मैटिरियल मँगाते हैं, उसकी पेमेंट भी इन्हीं दिनों में करते हैं । नौ और दस तारीख को वो बैंक वैन रूटीन के मुताबिक उनके पास पैसा पहुँचाती है और उनके साइन ले लेती है और रास्ते में पड़ने वाले कुछ बैंकों में भी रकम छोड़ती जाती है वो वैन । यानी की कुल मिलाकर डेढ़-दो सौ करोड़ का मामला बनता है । दो बैंकों के यहाँ तो पचास-पचास करोड़ छोड़ती है उस दिन वो वैन । यानी कि जो भी हो, इतनी रकम तो बैंक वैन लेकर हैड ऑफिस से चलती है तो सुबह के सवा दस बज रहे होते हैं और दोपहर ढाई बजे तक वो बैंक वैन खाली होकर वापस हैड ऑफिस लौट आती है ।”
जगमोहन, पंचम लाल को देखता रहा । फिर बोला –
“तेरे को ये सब कैसे पता ?”
“वैन जब चैकअप के लिए मेरे पास आती है, तो कभी एक घंटा लगता है तो कभी दो घंटे । इस सारे वक्त में ड्राइवर बलवान सिंह मेरे साथ बैठा बातें करता रहता है । ये जो बातें मैंने तुम्हें बताई हैं । मेरी साल भर की मेहनत है । बलवान सिंह किसी से इस बारे में कोई बात नहीं करता । सर्तक रहता है । लेकिन किसी के पास बैठा जाए तो, थोड़ी-थोड़ी करके बात निकल ही आती है । समझे... ।”
“बिल्कुल समझ गया ।”
“आज दो तारीख है ।” पंचम लाल ने सिर आगे किया और जगमोहन की आँखों में झाँककर बोला ।
तभी दरवाजे पर आहट हुई और बिल्लो ने भीतर प्रवेश किया और ठिठकी ।
“वाह भई पंचम... ये तो बोत घुट-घुटकर बातें हो रही है, सब ठीक तो है ?”
पंचम लाल ने मुस्कराने की कोशिश की ।
“काम की बात कर रहा हूँ । तू जा ।”
“अच्छा... जरा मेरे को भी पता चले कि देवर जी से काम की क्या बात हो रही है ?”
“वो साइकिल बनाने का कारखाना लगाने की सोच रहे हैं हिस्सेदारी में ।”
“ये तो बोत बढ़िया है । कारखाना तो लग जाएगा, लेकिन चलेगा नहीं ।” बिल्लो ने गहरी साँस ली ।
“क्यों ?” बरबस ही जगमोहन के होंठों से निकला ।
“क्यों क्या देवर जी । इस पंचम की सबसे बुरी आदत है मेहनत न करने की । ये तो चाहता है कि छत फटे और इतने नोट गिरे की दब जाए । उसके बाद जिंदगी भर आराम से पसर कर माल खाता रहे । देख लेना न तो साइकिल चलेगी और न कारखाना । मेरी मानो तो कोई ऐसा बिजनेस खोल लो कि ज्यादा मेहनत न करनी पड़े ।” बिल्लो ने कहा और बाहर निकल गई ।
जगमोहन और पंचम लाल की नजरें मिलीं ।
“आज दो तारीख है ।” पंचम बोला ।
जगमोहन के होंठ सिकुड़े ।
“पाँच-छ: तारीख तक वो वैन मेरे गैराज पर चैकअप के लिए आएगी ।”
जगमोहन फिर भी कुछ न बोला ।
“तुम बोलो तो कुछ किया जा सकता है ।”
“क्या ?”
दो पल चुप रहकर पंचम बोला –
“उस बख्तरबंद बैंक वैन की छत, दोनों तरफ की साइड और पीछे के दरवाजे को तो छेड़ा नहीं जा सकता । उस पर पेंट है और जरा सी गड़बड़ भी सबको नजर आ जाएगी । लेकिन उसके फर्श को बदला जा सकता है ।”
“कैसे ?”
“पीछे वैन केबिन के फर्श वाले हिस्से को वैन के भीतर से, स्टील के मोटे-मोटे नट बोल्टों के साथ फिक्स किया गया है । वो नट-बोल्ट खोलकर, वहाँ पर नया फर्श, नई चादर लग सकती है । पता नहीं चलेगा उन लोगों को । क्योंकि फर्श पर मैट बिछा होता है ।” पंचम लाल कह उठा – “ऐसा इसलिए किया जाएगा कि जब वैन को हम अपने कब्जे में करेंगे तो वैन के केबिन में रखे डेढ़-दो सौ करोड़ निकालने में परेशानी नहीं होगी ।”
जगमोहन एकाएक सतर्क सा नजर आने लगा ।
“वैन के फर्श की चादर का साइज मैंने ले रखा है । यूँ ही ले रखा है । कुछ करने का मेरा इरादा नहीं था । क्योंकि मेरी हिम्मत से बाहर की बात है ये सब कर पाना । किसी के साथ लगकर तो कर सकता हूँ ।”
“वैन को... सड़क पर दौड़ती वैन को रोका कैसे जाएगा ?”
“कोई रास्ता निकाला जा सकता है ।”
“कैसे ?”
“वैन के टायरों पर कवर चढ़े हैं । बुलेट प्रूफ कवर । उन कवर्स को बदला जा सकता है । वैसे साधारण कवर बनाए जा सकते हैं । कोई मुश्किल नहीं । उन पर जैसा पेंट हुआ पड़ा है, वैसा ही पेंट किया जा सकता है । वो पेंट कुछ पुराना है तो नए पेंट को भी हम पुराना कर सकते हैं ।” पंचम लाल धीमे स्पर में बोला – “ऐसे में सड़क पर दौड़ती उस वैन के टायरों का कवर का निशाना लेना, तुम लोगों का काम है । ले सकते हो निशाना ?”
“कोई दिक्कत नहीं ।”
“मेरे लगाए कवर को गोलियाँ भेदकर टायर पर लगेगी । टायर पंचर होगा तो वैन रुकेगी ही । तब ड्राइवर बलवान सिंह से कैसे निपटना है, वो तुम लोग देखना । वो अगर दरवाजे लॉक करके वैन में बैठा रहता है तो बैठने दो उसे । हमारा काम तो वैन रुकने के बाद पीछे वाले हिस्से में ही होगा । फर्श की चादर, बदल दी गई होगी । ऐसे में वैन के नीचे से आसानी से चादर को काटा जा सकता है । चादर के आधे से ज्यादा काटते ही करोड़ों की दौलत और गार्ड नीचे आ गिरेंगे । मेरे खयाल में एक गनमैन को संभाल लेना तुम लोगों के लिए मामूली काम होगा । ये तुम जानो कि तब उसका क्या करोगे ।”
जगमोहन समझ गया कि इसने अपनी तरफ से पूरी तैयारी कर रखी है ।
“उन दोनों के पास कुछ तो होगा ही, जिससे वे हालातों की खबर हैडक्वार्टर कर सकें ।”
“उन्हें बैंक की तरफ से मोबाइल फोन मिले हुए हैं । गड़बड़ होने की स्थिति में वो हैडक्वार्टर और पुलिस को भी फोन कर सकते हैं । वैन के साथ रवाना होने के वक्त ऑफिसर्स उनके मोबाइल फोन चैक करते हैं कि वे ठीक-ठाक चालू हालत में हैं । उनकी चार्जिंग पूरी है । उसके बाद ही उन्हें रवाना किया जाता है । वैन ड्राइवर बलवान सिंह के पास भी तब ड्यूटी पर मिली रिवॉल्वर होती है और पीछे केबिन जैसे वैन के हिस्से में बंद गनमैन के पास रिवॉल्वर के अलावा गन भी होती है ।” पंचम लाल ने कहा ।
“तुमने पूरी तैयारी कर रखी है । हर बात की जानकारी है तुम्हारे पास, वैन से वास्ता रखती ।”
“यूँ ही जरा-जरा करके सब कुछ पता कर लिया । पहले तो मेरा इरादा इन सब बातों को पता करने का नहीं था । पहले छ: महीने तो यूँ ही बातें हो जाती थी । परंतु उन्हीं दिनों कुछ लोगों ने वैन पर हाथ डालने की चेष्टा की । लेकिन वे वैन को छूने में भी कामयाब नहीं हो सके । एक बलवान सिंह के गोली से घायल होकर पकड़ा गया और बाकी के भाग गए । तब मुझे लगा कि मैं वैन पर आसानी से हाथ डाल सकता हूँ क्योंकि वैन मेरे गैराज पर आती है । चुपके से मैं वैन की सिक्योरिटी में फेर-बदल कर सकता हूँ । यही सोचकर मैंने वैन के पीछे वाले केबिन के फर्श का नाप लिया था कि अगर उसे बदला जाए तो कितने बड़े साइज का चादर का टुकड़ा चाहिए ।”
जगमोहन होंठ सिकोड़े पंचम लाल को देखे जा रहा था ।
“मैंने उस वैन की डुप्लीकेट चाबियाँ तीन महीने पहले बना ली थी ।” पंचम लाल धीमे स्वर में फुसफुसाकर कह उठा – “वैन मेरे गैराज पर आती है । पहले से तैयारी रखी जाए तो एक घंटे में आसानी से चाबी बनवाई जा सकती है । वैन आने की खबर पाकर चाबी बनाने वाले को बुलाकर पहले से ही गैराज पर बिठा लिया था । चाबी वाले ने एक घंटे में वैन की आगे की और पीछे की चाबियाँ बना दी थी । तब बातों में मैंने गेराज के केबिन में बलवान सिंह को व्यस्त रखा और बाहर लानती चाबियाँ तैयार करवाता रहा । उधर एक मैकेनिक, बलवान सिंह को दिखाने के लिए वैन का टायर खोलकर बैठ गया था ।”
जगमोहन का दिमाग तेजी से भाग रहा था । उसकी सोचें रफ्तार पर थीं ।
“तुम हाँ कहो तो तुम्हें तारीख बता दूँगा कि किस दिन वो वैन बैंक से पैसा लेकर निकलेगी और उसका रास्ता कौन सा होगा । कौन-कौन से रास्ते से वैन निकलेगी ।” पंचम लाल पुन: बोला ।
“बताऊँगा... पहले देवराज चौहान से बात तो कर लेने दे । वो हाँ करेगा तो गाड़ी आगे खिसकेगी ।”
“तेरी ‘हाँ’ नहीं चलती ?”
“डकैती के मामले में तो मेरी ‘हाँ’ जरा भी नहीं चलती ।” जगमोहन मुस्करा पड़ा – “देवराज चौहान के होते हुए मुझे सिरदर्द मोल लेने की जरूरत क्या है । मैं तो नोट गिनता हूँ और सजा-सजा के रखता हूँ ।”
लंच शुरू हो चुका था ।
सच में, बिल्लो का जवाब नहीं, मेहमानवाजी में ।
क्या खाना था । खाने की आइटमों से वे डायनिंग टेबल ही जैसे छोटा पड़ गया था । सब्जियों में से ऐसी खुश्बू उठ रही थी कि भूख डबल हो गई थी । देवराज चौहान, जगमोहन, पंचम लाल, लानती और जसदेव सिंह ने तबीयत से खाना खाया । लानती तो ऐसे खा रहा था जैसे ये उसके जीवन का आखिरी खाना हो । आज के बाद खाने ने मिलना ही न हो । मुँह भरा हुआ, हाथ भरे हुए और प्लेट की ये हालत कि जैसे इंसान न होकर कोई जानवर खाना खा रहा हो ।
बिल्लो डायनिंग टेबल के पास खड़ी, नौकरों को हुक्म दनदना रही थी । नौकर किचन से डायनिंग टेबल तक की दौड़ लगा रहे थे ।
पंचम लाल बेचैनी से बार-बार जगमोहन को देखने लगा ।
जसदेव सिंह खाना खाते-खाते पंचम लाल को न-पसंदगी भरी नजरों से देख लेता था ।
“क्यों पंचम ।” बिल्लो कह उठी – “वो तेरी साइकिलों की फैक्ट्री का क्या हुआ ?”
ये सुनते ही लानती हड़बड़ाया । मुँह से खाना निकलने को हुआ कि उसने संभाल लिया ।
“वो बात चल रही है ।” पंचम लाल दबे स्वर में बोला ।
“बात-वात छोड़ । तू काम ठीक से करेगा नहीं और देवर जी को खामखाह नुकसान हो जाएगा । कोई और धंधा सोच ले । ऐसा न हो कि बाद में देवर जी शिकायत करें और हमें शर्म से मुँह नीचा करना पड़े ।”
लानती ने कठिनता से मुँह खाली किया और बगल में बैठे पंचम लाल से कह उठा ।
“साइकिलों की फैक्ट्री लगा रहे हो और मुझे बताया नहीं ।”
“चुप कर ।” पंचम लाल उखड़े स्वर में बोला ।
“मैं तो चुप ही हूँ । सिर्फ इतना ही बोलना है कि मेरा ध्यान रखना । मैनेजर-वैनेजर रख लेना मुझे । मेरी दाल-रोटी... ।”
“तू क्यों फिक्र करता है लानती । तेरे बिना तो पंचम का दिल ही नहीं लगता । तुझे तो साथ चिपका के रखता है ये ।”
“चिपका के !”
“खा ले जल्दी से । नेई तो फिर कहेगा कि खाना कम पड़ गया ।”
लानती पुन: खाने में व्यस्त हो गया ।
“मैंने कहा जी ।” बिल्लो ने जसदेव से कहा – “देवर जी को समझा देना कि पंचम के साथ बिजनेस करने का कोई फायदा नहीं ।”
“तेरा देवर बच्चा नहीं है ।” जसदेव सिंह ने मुँह बनाकर कहा ।
“फिर भी जी । कभी-कभी अकल मारी जाती है । आपका तो फर्ज है समझाना ।”
“तेरा भाई उलटे काम करता है ।”
“वो भी क्या करे जी । शादी तो हुई नहीं । टैम भी तो बिताना होता है इसे ।” बिल्लो ने कहा फिर नौकर से बोली – “ओए, तू खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है । जा देख – हलवा ठण्डा तो नहीं हुआ ।”
नौकर फौरन किचन की तरफ भागा ।
“देवर जी ।” बिल्लो कह उठी – “पंचम की बातों में मत आना । ये तो साइकिलों की फैक्ट्री लगवाकर आपका पैसा खराब कर देगा ।”
“भाग्यवान ।” जसदेव सिंह झुंझलाने वाले अंदाज में कह उठा – “तू क्यों फिक्र करती है दूसरे की हाँडी की । आग पे पड़ी सड़ती है तो सड़ने दे ।”
“क्या बात करते हो जी – याँ तो सब अपने ही हैं । अच्छा-बुरा समझाना ही पड़ता है । फिर कल को कोई नुकसान हो गया तो ? हम तो हाथ झाड़ लेंगे कि हमने तो पैले ही समझाया था । ये भाई मेरा है तो क्या हुआ – देवर जी का नुकसान तो नहीं होना चाहिए ।”
“भाभी, तुम फिक्र न करो ।” जगमोहन बेहद शांत स्वर में कह उठा – “मैं न तो बाद में शिकायत करूँगा और न ही घाटे का सौदा करूँगा । अभी तो मैं देख-सोच रहा हूँ कि काम करूँ कि न करूँ ।”
“वो ही तो मैं कह रही हूँ कि खूब सोच लेना । पंचम के भरोसे तो कुछ करना ही नहीं ।”
तभी नौकर वापस आया ।
“हलवा गरम है ।”
“पास खड़ा रह हलवे के । ठण्डा न होने देना उसे । समझा ।”
“समझ गया ।” नौकर वापस दौड़ा ।
“तू याँ खड़ा क्या कर रहा है ? गरमा-गरम रोटियाँ ला – सलाद खत्म हो रहा है, वो भी ला । नींबू डाल के लाना सलाद पर । जल्दी ले के आ । ऐसा न हो कि तू नींबू ही डालता रहे और इधर रोटी-पानी खा के, ये सब हाथ भी झाड़ लें । जल्दी कर ।”
दूसरा नौकर तुरंत किचन की तरफ दौड़ा ।
इस तरह बिल्लो की निगरानी में दोपहर का खाना खाया गया ।
लानती सबसे पहले बैठा था और सबसे बाद में उठा । कुर्सी से उठते ही वो अपने पेट पर इस तरह हाथ फेरने लगा था जैसे कि उस भैंस की पीठ पर हाथ फेर रहा हो जिसने दो की जगह छ: किलो दूध दे दिया हो और उसे पुचकार रहा हो कि अब छ: किलो से कम दूध नहीं देना है तूने ।
“तू कहाँ जा रहा है बैठ ।” बिल्लो उसे उठते पाकर कह उठी – “अभी तो भूरी भैंस के दूध की गरमा-गरम खीर है, उसे क्या तेरा पाईया (बाप) खाएगा । पेट में जगह है कि नहीं ?”
“जगह ।” पेट पर हाथ फेरता लानती ठिठका और फौरन कुर्सी पर बैठ गया – “बोत जगह है । अभी मैंने खाया ही क्या है । बड़े वाले कटोरे को भर के देना ।”
“भैंस दे पानी वाले बरतन नूँ भर दाँ खीर नाल । सारा दिन खाता रह । दूसरा तो काम तेरे को है नहीं ।”
“काम ।” लानती ने दाँत फाड़े – “आज तो सच में कोई काम नहीं है ।”
भूरी भैंस के दूध की खीर टेबल पर आ गई ।
लंच का अंतिम चरण समाप्त करके वे उठे तो पंचम लाल जगमोहन के पास पहुँचकर धीमे से बोला ।
“देवराज चौहान से बात की क्या ?”
“अब करूँगा ।”
“मुझे बताना । यहीं पर हूँ मैं ।” पंचम लाल ने जबरदस्ती मुस्कराने की चेष्टा की ।
देवराज चौहान और जगमोहन अपने बेडरूम में चले गए ।
बिल्लो ने जल्दी से डायनिंग टेबल से बरतन उठवाए और कुरी पर बैठती हुई नौकरों से बोली –
“चलो, अब मुझे खाना खिलाओ । बोत भूख लग रही है ।” फिर पंचम लाल को देखकर बोली – “अरे तू किन सोचों में डूबा हुआ है । मेरी मान तो साइकिलों वाली फैक्ट्री मत लगा । उसमें घाटा ही घाटा है । आजकल बोत नई-नई साइकिलें आ गई हैं । तेरी फैक्ट्री उन साइकिलों का मुकाबला नहीं कर पाएगी । फेल हो जाएगी । जैसे स्कूल में फेल होता आया है ।”
पंचम लाल ने बिल्लो को देखा फिर गहरी साँस लेकर मुँह फेर लिया ।
“हाय, पता नेई मैंने ऐसा क्या कह दिया । जो लंबी-लंबी साँस लेता है, देखा जी आपने कैसे चौड़ा होता है ।”
लानती खा-पीकर एक हाथ पेट पर फेर रहा था और दूसरे हाथ की उँगली मुँह में घुमा रहा था ।
जसदेव सिंह ने पंचम लाल से कहा –
“चल उधर, तेरे से बात करनी है ।”
“अच्छी तरह करना इससे बात ।” बिल्लो खाना शुरू करते कह उठी – “अभी है कुछ नहीं और चौड़ा होता है, जब बड़ा आदमी बन जाएगा तो कुतुबमीनार पर ही जाकर बैठ जाएगा । अकड़ बोत है इसमें ।”
जसदेव सिंह, पंचम लाल के साथ ड्रॉईंग हॉल की तरफ बढ़ गया ।
“लानती और खा ले ।” बिल्लो खाना शुरू करते, कुछ दूर खड़े लानती से कह उठी ।
लानती फौरन पास पहुँचा । टेबल पर पड़े खाने को देखा फिर कह उठा –
“दाँत में पनीर फँस गया है । वो निकाल रहा हूँ ।”
“पनीर दाँत में फँस गया है । कमाल वे । कितना बड़ा टुकड़ा फँसा है ?”
“पता नहीं – निकाल के देखूँगा । दीदी, अभी तो खाने का मन नहीं है । रात के लिए पैक कर देना ।”
“पैक-वैक तो होगा नहीं । मेरे बाद नौकर खाएँगे, जो बचेगा वो भैंसों के आगे डाल दूँगी । खाना है तो बैठ के खा ले । बेशक पेट पर बाँध ले, पैक नहीं करूँगी । पिछली बार तू खाना पैक करा कर ले गया था, वो बरतन तूने अभी तक वापस नहीं दिए ।”
“नहीं दिए... । अच्छा इस बार इकट्ठे दे दूँगा ।”
“तू कुछ भी बोल – मैं खाना पैक करके नई दूँगी तेरे को । बेशक रात को आकर खा ले ।”
“सोच के बताऊँगा, पैले दाँतों में फँसा पनीर निकाल लूँ ।”
“मैंने तो पहली बार सुना है कि दाँतों में पनीर फँस गया ।” बिल्लो बड़बड़ाकर खाने में व्यस्त हो गई ।
“क्या चक्कर चला रखा है तूने जगमोहन – देवराज चौहान से ?” जसदेव सिंह ने पूछा ।
“वो... वो ।”
“मुझे बता क्या बात है ?”
“वो डकैती... ।”
“किस चीज की डकैती... कहाँ की डकैती ? जो तूने जगमोहन को बताया है, वो मुझे बता ।”
पंचम लाल ने वो सब जसदेव सिंह को बताया जो जगमोहन को बताया था ।
सुनकर जसदेव सिंह ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“तो जगमोहन क्या बोला ?”
“वो देवराज चौहान से बात करेगा ।”
“बहुत गलत कर रहा है तू – बिल्लो को पता चल गया तो समझ जा तेरा क्या बुरा हाल होगा ।”
पंचम लाल बेचैनी से पहलू बदलने लगा ।
जसदेव सिंह उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ गया ।
☐☐☐
शाम पाँच बजे बिल्लो ने आवाजें मार-मार के सबको चाय के लिए इकट्ठा किया ।
जगमाहेन आया और पंचम लाल को बेडरूम में ले गया ।
“देवराज चौहान से बात की मैंने ।”
“क्या बोला वो ?” पंचम लाल परेशान सा हो उठा ।
“वो कहता है कि अगर तुम्हारी कही सब बातें सही हैं तो ये काम कर लेने में काई हर्ज नहीं ।”
पंचम लाल को चेहरा खिल उठा ।
तभी बिल्लो ने ट्रे में चाय के दो प्याले रखे, भीतर प्रवेश किया ।
“कमाल है । मैं सबको वहाँ आवाजें मार रही हूँ और तुम दोनों यहाँ आ बैठे हो । वो तो मुझे लानती ने बता दिया वरना मैं तो तुम दोनों को ढूँढ़ती रहती और चाय ठण्डी हो जाती । लो पियो ।” बिल्लो प्यालों को टेबल पर रखती कह उठी – “क्या बात है पंचम, तू बोत खुश नजर आ रहा है । साइकिलों की फैक्ट्री के लिए देवर जी को पटा लिया क्या ?”
“अभी तो बात ही चल रही है ।” पंचम लाल बोला ।
“कब तक तेरी बात चलती रहेगी । पटा-पट के बात खत्म कर ।” फिर बिल्लो, जगमोहन से कह उठी – “देवर जी, पहले ही बता देती हूँ, इसकी बातों में आकर काम शुरू न करना । जेठ जी की सलाह तो जरूर ले लेना । वो मुझे समझदार लगते हैं ।”
“मैं समझदार नहीं लगता ?” जगमोहन सकपकाकर बोला ।
“क्या बात करते हो देवर जी” बिल्लो मुस्कराकर कह उठी – “आप समझदार क्यों नहीं हो । आप भी हो । लेकिन जेठी जी तो जेठ जी ही हैं । बड़ों की सलाह तो जरूर ले लेनी चाहिए । मैं हर काम में अपने पति की सलाह पक्का लेती हूँ । सलाह लेनी चाहिए । काम गलत हो जाए तो सबकुछ सामने वाले के ऊपर डाल दो कि सलाह तो आपसे ही ली थी ।
“ये भी ठीक है ।” जगमोहन मुस्करा पड़ा ।
“बातें मैं ठीक करती हूँ । अब सामने वाले की समझ में न आए तो मेरा क्या कसूर है । चलती हूँ मैं । बोत काम करने हैं । उधर भैंसों का दूध निकाला जा रहा है । वहाँ भी नजर मारनी है । इन दूध निकालने वालों का भरोसा नहीं रहा । निकालते-निकालते ही दूध पी जाते हैं और कहते हैं कि भैंस ने कम दिया है । भला बताओ – जो भैंस बारह किलो दूध देती है, वो एकदम छ: किलो क्यों देने लगेगी । सरकारी भैंस थोड़े ना है । प्राइवेट है – दूध तो बाल्टी में पूरा आना चाहिए ।” कहते हुए बिल्लो बाहर निकल गई ।
पंचम लाल की निगाह जगमोहन पर जा टिकी ।
“देवराज चौहान तैयार हो गया इस डकैती के लिए ।”
“अगर तुमने मुझे जो कहा है – बताया है, वो सच है तो ?” जगमोहन बोला ।
“सच कहा है । मैं तुमसे झूठ क्यों बोलूँगा ?”
“उस बैंक वैन की चाबियाँ बना रखी हैं तुमने ?”
“हाँ । बढ़िया चाबियाँ बनवाई हैं । असली चाबियों जैसा काम करती हैं । मैं चैक कर चुका हूँ ।”
“वैन के फर्श की चादर और उसके टायरों के बूलेट प्रूफ कवर बदल सकते हो ?”
“क्यों नहीं । मामूली काम है मेरे लिए ।” पंचम लाल का चेहरा खिला हुआ था ।
“और जब वैन बैंक से डेढ़-दो सौ करोड़ की रकम लेकर निकलेगी, तुम्हें रास्ता पता होगा कि वो किन रास्तों को तय करके आगे बढ़ेगी ।”
“वो तो मुझे अभी भी पता है । एक बार फिर पक्का पता कर लूँगा ।”
जगमोहन ने कुछ नहीं कहा ।
पंचम लाल ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया ।
“और भी पूछो, जो पूछना है ।”
“बैंक वैन में एक ड्राइवर और पीछे एक गनमैन होता है ?” जगमोहन बोला ।
“हाँ ।”
“उनकी संख्या बढ़ भी सकती है ।”
“मैंने सुना तो नहीं है कि ऐसा हुआ हो । बलवान सिंह ने ऐसी कोई बात कभी नहीं कही । वो हमेशा एक गनमैन के होने के बारे में ही बताता है । दूसरे गनमैन का जिक्र उसने कभी नहीं किया ।” पंचम लाल अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठा ।
“अब वैन कब तुम्हारे गैराज पर आएगी ?”
“छ: तारीख के आस-पास ।”
“हम वैन को देखना चाहते हैं ।”
“तुम और देवराज चौहान ?”
“हाँ ।”
“देख लेना । मेरे गैराज पर आ जाना । वक्त बता दूँगा । वैन वहीं खड़ी... ।”
“ऐसे नहीं । वो ड्राइवर शक खा सकता है । वो भी तो वहीं मौजूद होगा ।” जगमोहन सोच भरे स्वर में बोला – “ये बात कोई समस्या नहीं है कि हमने कैसे वैन देखनी है, वो देख लेंगे हम ।”
पंचम लाल ने सिर हिला दिया ।
“बाकी बात वैन देखने के बाद करेंगे ।”
“फर्श । वैन के फर्श का क्या करना है ?”
“फर्श और टायर कवर उसी दिन बदलने हैं जब वैन तुम्हारे गैराज पर पहुँचे ।” जगमोहन मुस्कराया ।
पंचम लाल का चेहरा तीव्रता से चमक उठा ।
“समझ गया, सब समझ गया ।” पंचम लाल के दाँत नजर आने लगे ।
“सारा काम ऐसे सफाई से हो कि कोई पहचान न पाए ।”
“चिंता मत करो । पंचम लाल बहुत बढ़िया ढंग से बात करेगा । मैं अभी से तैयारी शुरू कर देता हूँ ।”
“करो ।”
“देवराज चौहान से मेरी बात नहीं कराओगे ?”
“तुम्हारे लिए मैं ही काफी हूँ । देवराज चौहान कहता है कि उसके बात करने की जरूरत नहीं । क्योंकि सारी तैयारी तो तुमने पहले ही कर रखी है । देवराज चौहान का काम तो तुम्हारी तैयारी को अंजाम देना है ।” जगमोहन ने कहा ।
“देवराज चौहान क्या कहता है कि काम आसान है ।”
“जो काम हो जाए, वो आसान होता है । जो न हो सके वो मुश्किल ।”
“समझ गया । एक बात और बता दो ।”
“क्या ?”
“मेरा हिस्सा क्या होगा ?”
“सौ में से दस तेरे ।”
“सिर्फ दस ?” पंचम लाल के होंठों से निकला ।
“तो क्या दस हमें देगा ?”
“वो बात नहीं, हिस्सा तो... आधा-आधा होना चाहिए । मैंने इस पर बहुत मेहनत की है । सब कुछ तैयार कर रखा है । जरा भी गड़बड़ हो गई तो सबसे पहले मुझे लुधियाना से भागना पड़ेगा या फिर पुलिस ने सीधा मेरी गरदन ही पकड़नी है । तुम दोनों का क्या है । लुधियाना से तो जाना ही है तुमने । मैं तो कहीं का नहीं रहूँगा ।” पंचम लाल खुशामद भरे स्वर में कह उठा ।
“बीस दे देंगे तेरे को ।”
“पचास... आधा-आधा ।”
“नहीं, आधा तो मैं किसी को भी नहीं देता ।”
“एक रुपया कम दे देना ।”
“ठीक है, तेरे को सौ में से पच्चीस का हिस्सा देंगे ।”
“कुछ तो ख्याल कर लो, लानती भी तो है मेरे साथ । तुम्हें नहीं मालूम, वो मुँह ज्यादा फाड़ता है ।”
“पच्चीस प्रतिशत ।”
“ठीक है पैंतालीस परसेंट दे देना ।”
“पच्चीस से एक पैसा भी ज्यादा नहीं ।”
“चालीस परसेंट दे देना ।”
“तीस, अब बात खत्म ।”
“ठीक है भाई ।” पंचम लाल ने लंबी-लंबी साँस ली – “पैंतीस परसेंट दे देना । इससे कम और क्या करोगे ?”
“वैन के फर्श को चादर बढ़िया ढंग से बदलना कि... ।”
“फिक्र मत करो । वो स्टील का बुलेट प्रूफ फर्श हटा कर, साधारण लगा दूँगा कि वैन से नोट निकालने के लिए आसानी से फर्श को उधेड़ सकें । इस काम में तब ज्यादा वक्त बरबाद न हो ।” पंचम लाल मुस्कराकर बोला ।
“और वो टायरों के कवर । ऐसा न लगे कि वो बदले गए हैं और... ।”
“चिंता क्यों करते हो – मेरा कमाल देखना ।”
उसके बाद पंचम लाल, लानती के साथ वहाँ से चला गया ।
बिल्लो ने बहुत कहा कि रात का खाना खाकर जाएँ । वो राजमा-चावल भी बनाएँगी और काली-पीली दाल को असली घी का तड़का देकर, मजेदार बना देगी । ये सुनकर लानती ने रुकने का मत बना लिया था, परंतु पंचम लाल उसकी बाँह पकड़कर खींचता हुआ उसे बाहर लेता चला गया ।
जसदेव सिंह ने पंचम लाल के चेहरे पर उभरी खुशी देखी तो समझ गया कि देवराज चौहान डकैती के लिए तैयार हो गया है । ये बात महसूस करके जसदेव सिंह सोचों में डूबा गंभीर हो उठा था ।
शाम ढल चुकी थी ।
अंधेरा घिरना आरंभ हो चुका था ।
बिल्लो, नौकरों की फौज के साथ किचन में व्यस्त थी । देवर और जेठ के लिए रात का खाना तैयार किया जा रहा था और वो मेहमाननवाजी में कोई कसर न छोड़ना चाहती थी ।
जसदेव सिंह कमरे में देवराज चौहान और जगमोहन के पास पहुँचा ।
“मेरे खयाल में तुम दोनों पंचम लाल की बात मानकर डकैती करने जा रहे हो ।” बैठता हुआ जसदेव सिंह बोला ।
“तुम्हें एतराज है ?” देवराज चौहान मुस्कराया ।
“अगर हाँ कहूँ तो क्या तुम मान लोगे ?”
देवराज चौहान मुस्कराकर उसे देखता रहा फिर सिगरेट सुलगा कर कश लिया ।
“अगर हमने ये काम न किया तो पंचम लाल बहुत बुरा फँस जाएगा ।” देवराज चौहान ने कहा ।
“वो कैसे ?” जसदेव सिंह की आँखें सिकुड़ीं ।
“वो पूरी योजना बनाकर बैठा हुआ है । सारी तैयारी उसने कर रखी है । कुछ वक्त और बीत गया तो वो खुद ही इस काम को अंजाम देने की सोच लेगा । दो-चार अनाड़ियों को इकट्ठा करेगा और बैंक वैन लूटने की चेष्टा में फँस जाएगा । इस काम को करने में हाँ कहते वक्त सबसे पहले मैंने इसी बात पर गौर किया था ।”
देवराज चौहान की बात सुनकर जसदेव सिंह के होंठ सिकुड़े ।
“वो अब रुकेगा नहीं । इस पर भी तुम कहते हो कि पंचम लाल का ये काम न करूँ । उसकी बात न मानूँ तो नहीं मानता ।”
जसदेव सिंह कुछ पल खामोश रहकर कह उठा ।
“जो तुम ठीक समझो, वही करो ।”
“हम इस काम को करेंगे तो पंचम लाल के लिए खतरा कम होगा ।” देवराज चौहान ने कहा – “काम भी कठिन नहीं लगता । सारी तैयारी उसने पहले से ही कर रखी है । हमें तो चाबी घुमाकर गाड़ी स्टार्ट करने जैसा काम ही करना है ।”
जसदेव सिंह शांत भाव में मुस्कराया ।
“तुम इस काम को हाथ में ले रहे हो तो मुझे चिंता नहीं रही किसी बात की ।”
“पंचम लाल हौसले वाला है या... ।”
“हौसले वाला है । उसे तो नोट आते नजर आने चाहिए । सब काम निपटा देता है ।”
देवराज चौहान ने कश लिया ।
“क्या तुम भी हो इस काम में ?” जगमोहन जल्दी से बोला ।
“मैं ?”
“हाँ ।”
“क्या बात करता है तू – असीतां लुधियाने वाले आँ, मेहमान की सेवा करते हैं, मेहमान के कंधे पर बँदूक रखकर, नोटों की नेई कमाते । तुम यहाँ पे रहो । खाओ-पियो, ऐश करो और अपना काम करो । इस काम में मेरे लायक कोई सेवा हो तो मुझे जरूर बताना । सब काम करूँगा, लेकिन हिस्सा नेई लूँगा । वैसे भी मुझे क्या कमी है ? चालीस-पचास करोड़ का मालिक हूँ और माल क्या मुझे छाती पर रखकर ले जाना है । बोत है मेरे बिल्लो के वास्ते । लेकिन एक बात... ।”
“क्या ?” जगमोहन की निगाह जसदेव सिंह पर थी ।
“बिल्लो को मत बताना कि उसका भाई किस फेर में है । पता चलेगा तो बेचारी को बोत दुख होगा ।”
☐☐☐
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