लाल जोड़े वाली दुल्हन
भूत, प्रेत, साया, डायन आदि पर आप चाहे विश्वास करते हों, या नहीं करते हों लेकिन उनके अस्तित्व को आप पूरी तरह नकार भी नहीं सकते हैं। यह एक ऐसा विषय है, जिस पर काफी बातचीत होती है लेकिन इसका सच केवल वही इंसान जानता है, जिनके साथ वह घटना घटित हो चुकी हो। अन्यथा बाकीयों के लिए बस यह मनोरंजन के लिए कहानी मात्र रह जाता है।
मेरा नाम आशीष ममगाईं हैं और मैं दिल्ली का रहने वाला हूँ। मैंने बचपन से ही अपने दादा से भूत और प्रेतों के बहुत किस्सों को सुनता आया था। मुझे बचपन से ही यह रोचक विषय लगता था और मैं इसके बारे और अधिक से अधिक जानना चाहता था।
एक बार मेरा डिप्लोमा की द्वितीय वर्ष में सेमेस्टर ऑफ हुआ और 20 दिन के लिए कॉलेज बन्द हुआ। मैंने निश्चय किया कि चम्पावत में भाई के पास जाऊँ। मेरा बड़ा भाई चम्पावत में इलेक्ट्रिकल इंजीनियर था।
मैंने घरवालों को किसी तरह वहाँ जाने के लिए राजी किया। उसके बाद कुछ ज़रूरी सामानों को एक छोटे से बैग में रखकर, सुबह 5 बजे की बस, कश्मीरी गेट से पकड़ ली। बड़े भाई से बात हो गयी थी, उन्होंने बताया था कि शाम ठीक 4 बजे वह बस चम्पावत बस अड्डे पर पहुँच जाती है और वे वहीं मिलने वाले थे।
मैं पहली बार दिल्ली से इतनी दूर जा रहा था। मैं बहुत उत्साहित था क्योंकि मेरी इच्छा थी कि मैं भी एक दिन पहाड़ों की हसीन वादियों में घूम के आऊँ। अक्सर टीवी और फिल्मों में देखा करता था कि पहाड़ों का मौसम बड़ा ही रूमानी होता है और यह जगह घूमने के लिए बहुत ही सुंदर होती है। यह मेरा पहला अवसर भी था तो मैं इस मौके को अच्छी तरह भुनाना चाहता था।
मैं बस में चाह कर भी नहीं सो पा रहा था क्योंकि मेरे मन में यह चल रहा था कि कहीं मुझे नींद लग गयी तो मैं अपने गंतव्य से आगे न निकल जाऊं।
मैं ठीक 4 बजे चम्पावत के बस अड्डे पर था। मैं जैसे ही बस से बाहर निकला, मुझे मेरे बड़े भाई जिनका नाम ‘सुदर्शन ममगाईं’ था, वे दिख गए। उनके साथ तीन लड़के और थे, शायद उनके दोस्त हों। उन्होंने मुझे देखा और मेरी तरफ बढ़ चले।
“यात्रा में किसी तरह की तकलीफ तो नहीं हुई?”, बड़े भाई ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा।
“नहीं...नहीं! किसी तरह की भी नहीं। लेकिन मानना पड़ेगा, आपने जैसा कहा था कि यह बस ठीक 4 बजे यहाँ पहुँच जाएगी, ठीक वैसा ही हुआ।”, मैंने उनके पाँव छूते हुए आशीर्वाद लेते हुए कहा।
“अंशू, यह तो कोई भी बता देगा, क्योंकि इस बस का यहाँ अड्डे पर पहुँचने का वक़्त ही 4 बजे का है।”
अंशू मेरे घर का नाम है, मेरे परिवार के सदस्य और मेरे करीबी मित्र या रिश्तेदार, इसी नाम से मुझे बुलाना पसंद करते थे। भइया के साथ जो तीन बन्दे आए हुए थे, उनमें से एक ने मेरे हाथ से बैग लिया।
भइया ने मेरी तरफ देखते हुए कहा, “यहाँ से डेढ़ किलोमीटर पर ही कमरा है, जहाँ हम लोग रहते हैं। ये लोग मेरे साथ ही मेरे विभाग में काम करते हैं।”
भइया ने यह कहते हुए सबसे बारी-बारी परिचय करवाया। उन्होंने बताया कि दिनेश, राजेश और सुरेश उनके नाम हैं। बातों का सिलसिला जो शुरू हुआ, वह कमरे तक पहुँचने पर ही खत्म हुआ।
“ऐसा करो, बैग अंदर वाले कमरे में रख दो और जल्दी से हाथ पांव धोकर फ्रेश हो जाओ। तब तक चाय बन जाएगी।”, उन्होंने आदेश देते हुए मुझे इशारे से अंदर जाने को कहा।
मैं अपना बैग लेकर अंदर की तरफ चल पड़ा। यहाँ कमरे अजीब थे। मतलब रेल के डब्बे की तरह लंबाई में लंबे थे, लेकिन चौड़ाई में कम थे। तीनों कमरे एक लाइन में पड़ते थे, जिनसे बाहर निकलने का मात्र एक ही रास्ता था। तीनों कमरों में खिड़कियां बड़ी-बड़ी थी। मैंने अंदर वाले कमरे में जाकर बैग रख दिया।
रात के 8 बज रहे थे। चारों ओर धुप्प अंधेरा पसरा हुआ था। झींगुर की आवाजें बहुत तेज सुनाई पड़ रही थी। मैंने भाई से टॉयलेट जाने को पूछा तो उसने बताया कि यहाँ पहाड़ों में कम जगह होने की वजह से, इस तरह एक ही दिशा में लम्बवत घर बनाते हैं। यहाँ हर किसी के घर में टॉयलेट, घर के बाहर ही बना होता है। उन्होंने मुझे टॉर्च देकर बता दिया कि मुझे कहाँ जाना है।
मैंने जैसे ही टॉयलेट का दरवाजा खोला, मेरे रोंगटे खड़े हो गए। टॉयलेट के अंदर एक जोड़ी चमकीली आँखें दिखी, जो कि मेरी तरफ ही लगातार घूरे जा रही थी। मैं इससे पहले की टॉर्च जलाकर, हालात का मुआयना करता, वह चीज़ अपनी जगह से मेरी तरफ झपटी।
मैं डरकर पीछे हटा और धरती पर नीचे जा गिरा। मैंने फटाक से टॉर्च जला दिया। जब टॉर्च की प्रकाश डाली तो देखा कि वह एक काली बिल्ली थी, जो बाहर ठंड होने की वजह से, वहाँ न जाने कब से दुबकी पड़ी थी। मेरे इस कदर अचानक दरवाजा खोलने से वह भी सहम गई थी और उछल कर बाहर की तरफ भाग पड़ी।
मैंने मन ही मन कहा कि अब अगर रात में भी टॉयलेट लगा तो सुबह ही आऊंगा। भला बार-बार रात को कौन बाहर आएगा। मैं जैसे ही टॉयलेट करके अंदर आया तो देखता हूँ कि पहले वाले कमरे का माहौल रंगीन हो चला था। मेरा भाई सुदर्शन और साथ के तीनों दोस्त बैठकर वहाँ शराब का आनंद ले रहे थे।
“आओ! आओ!! बैठो अंशू। कल रविवार का दिन है इसलिए शनिवार की रात अपनी होती है।”, मुझे अंदर आता देख दिनेश ने कहा और बोलते-बोलते एक सांस में पूरा गिलास गले से नीचे उतार लिया।
“नहीं! मैं यह सब नहीं लेता। मुझे यह सब पसंद नहीं।”, मैंने हिचकते हुए उस से मुखातिब होते हुए कहा।
“अरे! मत पीना लेकिन हमारे साथ बैठकर कोल्ड ड्रिंक तो पी सकते हो।”, राजेश ने यह बात कहते हुए मुझे वहाँ सबके साथ बैठने की ज़िद करने लगा।
“अरे नहीं! तू थक गया होगा। जा, अंदर आराम कर ले। फिर कल नई जगह घूमने भी चलना है।”, मेरे बड़े भाई ने बीच बचाव करते हुए कहा।
मैं उनकी बात को सुनकर अंदर ही आ गया। अंतिम वाले कमरे में तीन बिस्तर एक साथ चिपका कर लगे हुए थे। अंतिम वाले बिस्तर के साथ ही खिड़की थी। मैं वहीं खिड़की के पास वाले बिस्तर पर सो गया। बिस्तर पर पड़ते ही मुझे नींद आ गयी। शायद मुझ पर इतनी लंबी यात्रा की थकान हावी थी।
रात को किसी वक़्त मुझे ऐसा लगा कि जैसे किसी चीज़ के जलने की बदबू रही है। मानो जैसे किसी जानवर की जलने की गंध हो। जब यह दुर्गंध बर्दाश्त के बाहर हो गयी तो मैं अपनी जगह से उठ कर बैठ गया। मैंने देखा कि बाकी के चारों उसी जगह बराबर में सो रहे हैं।
घड़ी पर नजर पड़ी तो देखा कि ठीक डेढ़ बजे रहे थे। मैं उठकर रसोईघर से पानी पी कर आया। वहाँ से आते ही मुझे अब वह गंध नहीं आ रही थी। मैंने सोचा कि चलो, अब नींद तो ठीक से आएगी कम से कम। मैं फिर बिस्तर पर गहरी नींद में सो गया।
◆◆◆“कितना सोएगा? उठ जा अब और जल्दी से चाय खत्म करके तैयार हो जा। अगले एक घंटे में हमलोग ‘पाताल भुवनेश्वर’ जा रहे हैं।”, यह भाई की आवाज थी। वे मुझे उठाते हुए आगे के प्रोग्राम का संक्षिप्त विवरण दे रहे थे।
“इतनी जल्दी उठ गए क्या? एक तो रात को उस बदबू ने सोने नहीं दिया और ऊपर से सुबह भी जल्दी हो गयी।”, मैंने अंगड़ाइयां लेते हुए भाई को कहा।
“क...क... क्या? बदबू! कैसी बदबू?”, मेरे भाई ने हिचकते हुए पूछा।
“भइया, रात को ऐसा लग रहा था, जैसे कि किसी जानवर की जलने की गंध हो। उस दुर्गंध ने पूरी रात सोने नहीं दिया।”, मैंने मुँह बनाते हुए कहा, जैसे वह बदबू के आने के वही ज़िम्मेदार हों।
“त...त...तुमको भी वो गंध...!”
दिनेश कुछ बोलने वाला ही था कि भइया ने उनकी बातों को बीच में ही काटते हुए कहा, “अरे! यहाँ स्थानीय पहाड़ी लोग, बकरे या मुर्गे की बलि देते हैं और उसके बाद प्रसाद के रूप में उसे घर ले जाते हैं। बकरे या मुर्गे की चमड़ी उतारें बिना, पहले उसको हल्का सा जलाते हुए भुनने की कोशिश करते हैं। उसके जलने से ही अजीब सी गंध आती है और ये वही बदबू होगी।”
“हाँ! सही कहा आपने। मुझे कुछ ऐसी ही बदबू लगी थी। मानना पड़ेगा लोगों का जवाब नहीं, अच्छे स्वाद के लिए कितने जतन करते हैं।”, मैं यह कहकर हँसने लगा और मेरी हँसी में वे भी शामिल हो गए।
“अच्छा, चलो जल्दी से नहाकर आओ। हमलोगों को 10 बजे एक पौराणिक जगह घूमने चलना है।”, यह कहकर वे बाहर की तरफ चले गए।
भइया के साथ सारे दोस्त बाहर धूप में खड़े होकर, मेरा इंतज़ार कर रहे थे। बाहर निकलने पर जब धूप मेरे जिस्म पर पड़ी तो मानो जैसे रोम-रोम में बिजली सी कौंध गयी। शरीर में एक असीमित ऊर्जा का एहसास हुआ। उस धूप को छोड़कर कहीं जाने का मन नहीं हो रहा था, लग रहा था कि कुछ पल और रुक कर इसका लुत्फ लिया जाए।
“चलना है या बस यहीं खड़े-खड़े धूप ही सेंकते रहना है। चलो, हमलोगों को देर हो रही है। यहाँ सूर्यास्त जल्दी हो जाता है।”, भइया ने मेरे धूप का आनंद लेने में खलल डालते हुए कहा था।
मैं उनके साथ नीचे सड़क पर आ गया। नीचे सड़क के किनारे एक सफेद रंग की जीप खड़ी थी। उस जीप के आगे की तरफ ‘भारत सरकार’ लाल गाढ़े रंग में लिखा हुआ था। भइया वाप्कोस लिमिटेड, जो कि एक मिनी रत्न कंपनी थी, उसमें इलेक्ट्रिकल इंजीनियर के पद पर पिछले 3 साल से कार्यरत थे। उन्हें उस जिले में स्थानीय जगह या किसी गाँव में विज़िट पर जाने के लिए, यह सरकारी गाड़ी मिली हुई थी।
आज इतवार का दिन था इसलिए मेरे लिए यह फायदे का सौदा हुआ और यह जीप आज हमारे लिए उपलब्ध थी।
मैं भइया के साथ आगे वाली सीट पर बैठ गया और उनके बाकी सारे दोस्त पीछे बैठ गए।
चम्पावत से पाताल भुवनेश्वर, जो उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट नामक जगह पर स्थित था। यह चम्पावत से 106 की.मी. की दूरी पर था। हमारे साथ नीचे नदी भी ताल से ताल मिलाए मंजिल की तरफ बढ़ रही थी। मैंने इस नदी का नाम पूछा तो ड्राइवर ने बताया कि इस नदी का नाम काली नदी है, जो नेपाल से आ रही है।
लगभग डेढ़ बजे हमलोग गंगोलीहाट के पास पहुँच गए। ड्राइवर जीप को सड़क के किनारे खड़ी करने लगा और मैं, भइया के साथ सामने दुकान की तरफ बढ़ चला।
“पाताल भुवनेश्वर जाने के लिए किधर से जाना होगा?”, मेरे भाई ने सड़क के किनारे बनी एक दुकान वाले से पूछा।
दुकान वाले ने कोई भी जवाब नहीं दिया। मुझे बड़ा अजीब लगा।
तभी आस पास कहीं से एक व्यक्ति ने, शायद हमारी बात सुन ली थी, वह बोला, “बाबूजी! यह जरा ऊंचा सुनता है। बचपन में पटाखे फोड़ रहा था और आग लगने के बाद फिसल कर वहीं पास में ही गिर पड़ा। पटाखे की तेज आवाज से अपने सुनने की शक्ति को गवा बैठा है। ऐसा कीजिए कि आप सामने मुख्य सड़क से बायीं ओर एक पतली पगडंडी जा रही है न, वहाँ से सीधे चले जाइएगा। थोड़ी दूर चलने पर एक बड़ा सा गेट बना होगा। बस उस गेट से अंदर जाने पर, थोड़ी ही दूरी पर आपको वह जगह मिल जाएगा।”
मैंने दुकान वाले कि घटना पर अफसोस जताया और हाथ जोड़कर उनसे विदा होते हुए उस जगह की तरफ बढ़ चला। यह पगडंडियां बहुत कम चौड़ी थी लेकिन सीमेंट से निर्मित होने की वजह से मजबूती से यहाँ के मौसम का सामना करने के लिए सक्षम थी।
बुरांस के पेड़ पर लाल रंग के फूल शोभायमान थे, तो कहीं-कहीं देवदार और चीड़ के पेड़ भी अपनी मौजूदगी से ठंड का एहसास करवा रहे थे।
चारों तरफ बिल्कुल सन्नाटा पसरा हुआ था। लोग भी बहुत कम ही दिख रहे थे। थोड़ी दूर चलने पर ही हमें वह गेट मिला, जिसके ऊपर लिखा हुआ था, ‘पाताल भुवनेश्वर में आपका स्वागत है।’
हम वहाँ से चहलकदमी करते हुए, उस जगह पहुँच चुके थे। वहाँ एक गुफा थी, जो अंदर की तरफ जाती थी। उस गुफा के बाहर ही एक पुजारी बैठा था, जिसने हमें अंदर जाने से रोक दिया।
“हमें अंदर जाने से क्यों रोक रहे हो?”, दिनेश ने पुजारी पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
यह सुनकर पुजारी विनम्र स्वभाव में बोला, “आप सभी को इस पवित्र गुफा में चमड़े के समान से निर्मित वस्तुएँ जैसे पर्स, बेल्ट आदि ले जाने की मनाही है और मोबाइल कैमरा ले जाने पर भी प्रतिबंध है।”
“इसे यदि ले नहीं जाएंगे तो फिर रखेंगे किधर?”, मैंने झुंझलाकर उस पुजारी से कहा।
इस बार भी पुजारी ने नम्र स्वभाव में हाथ से दूसरी तरफ इशारे करते हुए जवाब दिया, “सामने लॉकर है। आप वहाँ समान जमा करके, टोकन लेकर जा सकते हैं।”
दिनेश सबसे बेल्ट, मोबाइल, बटुए को इकट्ठे करने के बाद, लॉकर की तरफ जमा करने के लिए चला गया। वह थोड़ी देर में ही हमारे सामने था और अपने साथ एक गाइड को लेकर आया था।
हमलोग गुफा के अंदर प्रवेश करने लगे। गुफा प्रवेश करते ही शुरुआत में पत्थर से निर्मित एक सीढ़ी थी, जो नीचे लगभग 50 मीटर तक थी। नीचे उतरते ही समतल जगह थी।
नीचे आते ही गाइड हमलोगों के सामने आ गया और बोलने लगा, “मेरा नाम विनीत चौधरी है। मैं यहाँ से थोड़ी दूर पर ही लोहाघाट नामक गांव से हूँ। मैं आपको इस गुफा से जुड़ी सारी आवश्यक जानकारी दूँगा।”
“पाताल भुवनेश्वर मंदिर, पिथौरागढ़ जनपद उत्तराखंड राज्य का प्रमुख पर्यटक केन्द्र है। यह गुफा प्रवेश द्वार से 160 मीटर लंबी और 90 फुट गहरी है। पाताल भुवनेश्वर देवदार के घने जंगलों के बीच अनेक भूमिगत गुफाओं का संग्रह है। यह संपूर्ण परिसर 2007 से भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा अपने कब्जे में लिया गया है।”
“हिन्दू धर्म के अनुसार, यहाँ तैंतीस कोटि के देवता विद्यमान हैं, जिसे कुछ लोग, तैंतीस कोटि को तैंतीस करोड़ भी समझने की भूल कर देते हैं। मैं यह साफ-साफ बताना चाहूँगा कि तैंतीस कोटि का अभिप्राय तैंतीस करोड़ नहीं, तैंतीस प्रकार के देवी देवता से है। पौराणिक कथा और लोकगीतों में इस भूमिगत गुफा के बारे में कहा जाता है कि यहाँ भगवान शिव और तैंतीस कोटि के देवता विद्यमान हैं।”
“यहाँ चूने के पत्थरों से कई तरह की आकृतियां बनी हुई हैं। इस गुफा में बिजली की व्यवस्था भी है। पानी के प्रवाह से बनी यह गुफा केवल एक गुफा नहीं है, बल्कि गुफाओं की एक श्रृंखला है।”
“पुराणों के मुताबिक, पाताल भुवनेश्वर के अलावा कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ एकसाथ चारों धाम के दर्शन होते हों। यह पवित्र व रहस्यमयी गुफा, अपने आप में सदियों का इतिहास समेटे हुए है।”
“पुराणों में लिखा है कि त्रेता युग में सबसे पहले इस गुफा की खोज राजा ऋतूपूर्ण ने की थी, जो त्रेता युग में अयोध्या पर शासन करते थे। द्वापर युग में पांडवों ने यहाँ शिवजी भगवान के साथ चौपड़ खेला था और कलियुग में जगत गुरु शंकराचार्य का 722 ई. के आसपास इस गुफा से साक्षात्कार हुआ, तब उन्होंने यह तांबे का एक शिवलिंग स्थापित किया। इसके बाद जाकर कही चंद राजाओं ने इस गुफा को खोजा।”
“स्कंद पुराण के ‘मानस खंड’ में वर्णित किया गया है कि आदि शंकराचार्य ने 1191 ई. में इस गुफा का पुनः दौरा किया था। यही पाताल भुवनेश्वर में आधुनिक तीर्थ इतिहास की शुरुआत हुई थी।”
“आज के समय में पाताल भुवनेश्वर गुफा, सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र है। देश विदेश से कई सैलानी इस गुफा के दर्शन करने के लिए आते रहते है।”
“इसके साथ ही यह एक शिवलिंग है, जो लगातार ऊपर की ओर बढ़ रहा है। कहा जाता है कि जब यह शिवलिंग गुफा की छत को छू लेगा, तब कलियुग का अंत हो जाएगा और यह दुनिया खत्म हो जाएगी। यह माना जाता है कि यह गुफा कैलाश पर्वत पर जाकर खुलती है। यह भी माना जाता है कि युद्ध के बाद पांडवों ने अंतिम यात्रा से पहले इसी गुफा में तप किया था।”
“क्या बात करते हो! मैं उस शिवलिंग को अवश्य देखना चाहूँगा। क्या आप भी इस ज़माने के होते हुए, इन बातों पर विश्वास करते हैं?”, मैंने गाइड की बात को बीच में ही काटते हुए कहा।
“मैं जानता हूँ शुरू में विश्वास करना इतना आसान नहीं होगा। आप यहाँ चारों तरफ अपनी नजरें दौड़ा कर देख सकते हो, यहाँ सब अपने आप निर्मित है। कहीं भी किसी तरह का कोई जोड़ मौजूद नहीं है। मैं अभी आपको उस अद्भुत शिवलिंग के दर्शन भी करवाऊंगा।”, गाइड ने मेरी बातों का धीरज से जवाब दिया।
“मैं इससे जुड़ी और भी बातें जानना चाहता हूँ। कृपया आप बताते रहिए।”, मैंने मुस्कुराकर गाइड की तरफ देखते हुए कहा और गाइड फिर हमें वहाँ की और जानकारी देने लग गया।
“हिंदू धर्म में भगवान गणेशजी को प्रथम पूज्य माना गया है। गणेशजी के जन्म के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि एक बार भगवान शिव ने क्रोध में गणेशजी का सिर धड़ से अलग कर दिया था। बाद में माता पार्वती जी के कहने पर भगवान गणेश को हाथी का मस्तक लगाया गया था। लेकिन जो मस्तक शरीर से अलग किया गया, माना जाता है कि वह मस्तक भगवान शिवजी ने पाताल भुवनेश्वर गुफा में रखा है।”
“पाताल भुवनेश्वर की गुफा में भगवान गणेश के सिर कटे शिलारूपी मूर्ति के ठीक ऊपर 108 पंखुड़ियों वाला शवाष्टक दल ब्रह्मकमल के रूप की एक चट्टान है।
इस ब्रह्मकमल से पानी भगवान गणेश के शिलारूपी मस्तक पर दिव्य बूंद टपकती है। मुख्य बूंद आदिगणेश के मुख में गिरती हुई दिखाई देती है। मान्यता है कि यह ब्रह्मकमल, भगवान शिव ने ही यहाँ स्थापित किया था।”
यह बताते-बताते वह गाइड हमें थोड़ा आगे की तरफ ले गया। गुफा संकरी होने की वजह से हमलोग झुककर आगे बढ़ रहे थे। लगभग पंद्रह फुट की दूरी चलने पर हमें एक जगह पर उसने रोक दिया।
वह ऊपर की तरफ इशारा करते हुए बोला, “ये देखिए, यह ब्रह्मकमल का रूप है, ध्यान से देखने पर आपको एहसास होगा कि उस ब्रह्मकमल से पानी की बूंदें टपक रहीं हैं, जो सीधे नीचे बने शिवलिंग पर पड़ती है।”
मुझे अपनी आँखों पर विश्वास करना मुश्किल लग रहा था क्योंकि वाकई वह ब्रह्मकमल जैसा दिखने वाला पुष्प, गुफा के ऊपरी भाग में ही बना हुआ था, जो कि पत्थर का होने के बावजूद भी एक पुष्प की आकृति का दिख रहा था। उसे देख कर साफ लग रहा था कि यह मानव निर्मित नहीं है क्योंकि उसमें किसी भी तरह का जोड़ नहीं था। वास्तव में उसी पत्थर रूपी ब्रह्मकमल से पानी की बूंदें रह-रह कर नीचे शिवलिंग पर जल से अभिषेक कर रही थी। यह बिल्कुल सटीक शिवलिंग के बिल्कुल मध्य में पड़ रही थी।
“यह देखिए, यही वह पत्थर है जिसका जिक्र मैंने थोड़ी देर पहले आप लोगों से किया था। इन गुफाओं में चारों युगों के प्रतीक रूप में चार पत्थर स्थापित हैं। लेकिन यह वाला पत्थर, जिसे कलियुग का प्रतीक माना जाता है, यह साल दर साल धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा है। माना यह जाता है कि जिस दिन यह कलियुग का प्रतीक पत्थर दीवार से टकरा जायेगा, उस दिन कलियुग का अंत हो जाएगा।”
उस जगह सच में एक पत्थर दिख रहा था, जो कि नीचे धरातल से ऊपर की तरफ बढ़ता हुआ प्रतीक हो रहा था। उस देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था की यह धीरे-धीरे वाकई बढ़ रहा होगा।
इस जगह मन को अजीब सा सुकून महसूस हो रहा था। मानो मन में कोई इच्छा ही नहीं रही हो। दिल को यह पल बहुत ही भा रहे थे।
मैं इन विचारों में खोया ही हुआ था कि फिर से गाइड ने अपने ज्ञान के पिटारे को खोलना शुरू किया।
“इस गुफा के अंदर केदारनाथ, बद्रीनाथ और अमरनाथ के भी दर्शन होते हैं। बद्रीनाथ में बद्री पंचायत की शिलारूप मूर्तियां हैं, जिनमें यम-कुबेर, वरुण, लक्ष्मी, गणेश तथा गरुड़ शामिल हैं। तक्षक नाग की आकृति भी गुफा में बनी चट्टान में नजर आती है। इस पंचायत के ऊपर बाबा अमरनाथ की गुफा है तथा पत्थर की बड़ी-बड़ी जटाएं फैली हुई हैं। इसी गुफा में कालभैरव की जीभ के दर्शन होते हैं। इसके बारे में मान्यता है कि मनुष्य कालभैरव के मुँह से गर्भ में प्रवेश कर, पूंछ तक पहुँच जाए तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।”
यह कहते हुए उसने अपने हाथ से इशारा करते हुए, एक विचित्र गुफा की तरफ इशारा किया, जो कि हल्की सी ऊपर चढ़ने पर दिखाई दे रही थी। सही में इस गुफा का दूसरा छोर तो था, जिसका मार्ग कहीं न कहीं जा ज़रूर रहा है।
उस गुफा के तरफ रुख न करते हुए वापिस उसी जगह आ गए और गाइड ने सामने की तरफ इशारा करते हुए कहा, “ये देखिए, यह शेषनाग के फनों की तरह उभरी संरचना पत्थरों पर नज़र आ रही है। मान्यता है कि धरती इसी पर टिकी है।”
“गुफाओं के अन्दर बढ़ते हुए, गुफा की छत से गाय के एक थन की आकृति नजर आती है। यह आकृति कामधेनु गाय का स्तन है। कहा जाता था कि देवताओं के समय में इस स्तन में से दुग्ध धारा बहती थी। कलियुग में अब दूध के बदले इससे पानी टपक रहा है।”
उसके ऐसा कहते ही मेरी नजरें उस ओर गयीं। यह सारा नजारा वास्तव में मेरी सारी अफवाहों को सच करता हुआ प्रतीक हो रहा था। इस जगह की पौराणिक कहानियां, इस गुफा में मौजूद साक्ष्य की वजह से अब मुझे वास्तविकता का एहसास करवा रहीं थीं।
इस जगह को देखने के बाद, कोई भी व्यक्ति विश्वास कर सकता था। इस बात को मैं दावा के साथ कह सकता हूँ कि बिना इस जगह को प्रत्यक्ष रूप से देखे, यहाँ किसी भी कहानी पर विश्वास करना असंभव था।
हमलोगों ने उस जगह का सूक्ष्म निरीक्षण किया और गाइड ने भी हमारा बखूबी साथ दिया। घड़ी में वक़्त 4 बजे का हो चला था। हमलोग वहाँ से वापसी के लिए चल पड़े।
करीब ढाई घंटे में हमलोग लोहाघाट पहुँचे और वहीं रात्रि का खाना खाने का निश्चय किया। होटल में वहाँ सभी ने भरपूर खाने का मजा लिया और तकरीबन साढ़े आठ बजे तक हमलोग चम्पावत पहुँच गए। लोहाघाट से चम्पावत मात्र 13 कि.मी. की ही दूरी पर था।
कमरे में आते ही सभी बिस्तर पर ढेर हो गए। मैं और भइया बीच वाले कमरे में सो गए। वहाँ एक डबल बेड लगा हुआ था। खिड़की से ताजी हवा आ रही थी। बिस्तर पर पड़ते ही नींद के आगोश में समा गए।
◆◆◆
अचानक रात को छन्न... छन्न... पायल की आवाज से मेरी नींद टूटी। मैं आँख बंद किए ही बिस्तर पर इस आवाज को महसूस कर रहा था। ध्यान देने से पता लगा कि धीरे-धीरे यह आवाज तेज होती जा रही थी, जिसका यही प्रतीक था कि पायल पहने कोई समीप ही आ रही है।
यह आवाज सुनते ही मेरे पूरे शरीर में जैसे करंट सा दौड़ गया। मैंने अपनी एक आँख को खोल कर अपने हाथों की तरफ देखा तो मेरा रोम-रोम खड़ा हो चुका था। मैंने हिम्मत की और चौंककर अपनी जगह उठकर बैठ गया कि तभी वह पायल की आवाज अचानक आनी बन्द हो गयी।
मैंने पास ही मेज पर रखे बोतल से पानी पिया और वापिस अपने बिस्तरे में घुस गया और चादर तान ली। मेरे चादर तानते ही वह पायल की छन्न छन्न आवाज फिर से आनी शुरू हो गयी। अब तो इस आवाज ने मेरी नींद कोसो दूर भगा दी थी। मैं फिर से अपनी जगह पर उठ खड़ा हुआ लेकिन इस बार आवाज आनी बन्द नहीं हुई। मैंने सोचा कि बगल में लेटे भाई को उठाऊं। यह सोचकर जैसे ही मैंने हाथ भाई की तरफ बढ़ाए कि तभी वह आवाज आनी बन्द हो गयी।
मैं थोड़ी देर वहीं मूरत बना बैठा रहा। ऐसा नहीं था कि आवाज आनी बन्द हो गयी। वह आवाज थोड़ी-थोड़ी देर में 4 से 5 सेकंड्स के लिए आती फिर 3-4 मिनट के बाद फिर से छन्न... छन्न...! जैसे कोई औरत भारी पायल जिसमें घुंघरू की मात्रा ज्यादा हो, वह पहन कर चली आ रही हो।
अब मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। एक वक्त तो डर मुझ पर इतना हावी हुआ कि ऐसा लगा कि दिल छाती से निकलकर मेरे मुंह में आ जाएगा। मेरे तो बिल्कुल ही समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। मैंने सोचा कि क्यों न मैं खुद दरवाजे को खोल कर देख लूँ कि यह आवाज कैसे आ रही है। कहीं किसी की शरारत तो नहीं।
मैं अपनी जगह से उठा और सबसे पहले अंदर वाले कमरे की तरफ गया। वहाँ बाकी के तीनों लोग तो घोड़े बेच कर सो रहे थे। मैंने फिर बाहर का रुख किया और दरवाजे को खोलकर बाहर जाने का दृढ़ निश्चय किया।
मैंने फटाक से दरवाजे की कुंडी को खोलते ही झटके के साथ ही दरवाजा खोल दिया और बाहर आ गया। मैं दरवाजे को खोलकर जैसे ही बाहर निकला बाहर फिर से छन्न... छन्न... छन्न...!
इस बार आवाज बिल्कुल मेरे सामने से आती हुई महसूस हुई। मानो कोई नई नवेली दुल्हन इस तरफ चली आ रही हो। लेकिन मुझे ताज्जुब हुआ कि यह आवाज केवल सुनाई दे रही थी लेकिन दिख कुछ भी नहीं रहा था। भला यह कैसे संभव हो सकता था।
मैंने उस आवाज का पीछा किया और घर के जैसे ही पीछे आया, आवाज अचानक से बन्द हो गयी। मैं जैसे ही मुड़ने को हुआ तो मुझे एहसास हुआ कि किसी ने पीछे से मेरा कंधा पकड़ा हुआ है। मेरे माथे से बहता पसीना अब कान के रास्ते होता हुआ गर्दन से नीचे की तरफ बहते हुए झुरझुरी पैदा कर रहा था। मैं जड़ मूरत बन कर वहीं खड़ा रहा, मेरे अंदर पलटकर देखने का साहस नहीं हुआ।
“अंशू... अंशू... तुम यहाँ इतनी रात गए क्या कर रहे हो?”
यह आवाज जानी पहचानी सी लग रही थी। मैं मन ही मन बजरंग बली को याद करते हुए पीछे की तरफ पलटा। मेरे पीछे पलटने के बाद आँखें खोली तो अवाक से रह गया।
“तू यहाँ इतनी रात को, वो भी घर के पीछे की तरफ, इस जगह पर क्या कर रहा है?”, मेरा भाई वहाँ खड़ा था और आश्चर्य से मुझे ताड़ते हुए पूछ रहा था।
“मुझे काफी देर से पायल की आवाज आ रही थी, मैं उसी आवाज को सुनते हुए...!”
“तूने ठेका लेकर रखा हुआ है क्या हर चीज का? इतनी रात को बाहर अकेले और बिना पूछे मत जाया करो। यहाँ जंगली जानवर भी होते हैं।”, यह कहते हुए मेरा हाथ पकड़ कर कमरे के अंदर जाकर दरवाजा बंद कर दिया और सो गए।
मैं बिस्तर पर लेटा तो था लेकिन नींद कोसो दूर थी। मेरे जेहन में कई सवाल घर कर गए थे। आखिर कौन थी वह औरत? इतनी रात को कहाँ भटक रही थी। क्या वह कोई दुल्हन थी या बस मेरा वहम। नहीं...नहीं! वहम नहीं थी, क्योंकि यह जगती आँखों से देखा था मैंने और उस आवाज को मैंने काफी करीब से महसूस किया था।
यह सोचते-सोचते कब सूर्योदय हो गया, इसका एहसास ही नहीं हुआ। मुझे किस वक़्त नींद आयी, इसका एहसास मुझे आँख खुलते ही घड़ी पर नजर पड़ने से हुई। घड़ी में ठीक 10 बज रहे थे।
“ओह! मैं इतनी देर तक सोता रह गया। यहाँ वक़्त का बिल्कुल ही पता नहीं लगता।”, यह बड़बड़ाते हुए मैं अपनी जगह से उठा।
यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि इतनी देर तक सोने वालों मैं अकेला नहीं था। सभी घोड़े बेचकर सोने में लगे हुए थे। उनमें से कुछ के खर्राटों की आवाज तो साफ-साफ सुनाई पड़ रही थी। मैं कमरे के बाहर आया तो देखा कि राजेश बाहर कुर्सी पर बैठा हुआ था और धूप का आनंद ले रहा था।
मुझे अपनी तरफ आता देख वह बोला, “शुभ प्रभात अंशू, तो उठ गए जनाब!”
“क्या बात! आज ऑफिस नहीं जाना क्या? सभी अभी तक सो रहे हैं?”, मैंने उससे जानना चाहा कि आखिर सभी अभी तक क्यों निश्चित सोए हुए हैं।
“आज बकरीद की छुट्टी है। हमलोगों को छुट्टियों के दिन देर तक सोने की आदत है। मुझे सुबह उठने की आदत है इसलिए मैं नहा धोकर धूप सेंक रहा हूँ। इसका मजा लेना भी एक सुखद एहसास होता है।”, यह कहकर वह मुस्कुराने लगा और मेरी तरफ कुर्सी खिसकाते हुए बैठने को कहा।
मैंने थोड़ी देर वहीं बैठकर इधर-उधर की बातें की, फिर मैं वहाँ से उठकर फ्रेश होने चला गया। नहाकर मैं अंदर वाले कमरे में आकर कपड़े पहनने के लिए गया। अंदर आते ही मुझे ठंड का एहसास हुआ जबकि घड़ी में दिन के साढ़े ग्यारह का वक़्त हो चला था। धूप भी आज खिली हुई थी। मैंने सोचा कि शायद नहाकर अचानक कमरे में आने से ऐसा हुआ हो।
अगले पल ही मुझे एहसास हुआ कि कमरे में मेरे सिवा किसी के बुदबुदाने की आवाज आ रही है। मैंने आईने से अपना ध्यान हटाते हुए कंघी को आहिस्ता से ऊपर रैक में रखते हुए ध्यान से सुनने की कोशिश करने लगा। ध्यान से सुनने से पता लगा कि वह फुसफुसाहट तो उस कमरे में बिस्तर के नीचे से ही आ रही है।
“क... क... कौन है वहाँ?”, मैंने सहमते हुए तेज आवाज में कहा।
मेरा ऐसा कहते ही वह आवाज आनी बिल्कुल बन्द हो गयी। मैंने सोचा शायद वह आवाज बाहर से आ रही होगी। फिर मैं कंघी से बाल संवारने में लग गया। मुश्किल से अभी कुछ पल ही हुए होंगे कि मुझे किसी छोटे बच्चे की हँसने की आवाज आई। वह आवाज उसी बिस्तर के नीचे से ही आ रही थी।
मैंने इस बार हिम्मत कर अपना रुख बिस्तर की ओर किया। मैंने झुककर देखा तो अगले ही पल पछाड़ खाकर गिर पड़ा। पलंग के नीचे एक छोटा सा बच्चा कोने में बैठा हुआ था और ना जाने किस से बातें कर रहा था। बात करने के दौरान वह कभी यूँ हँसता जैसे किसी ने उसे गुदगुदी की हो। वह बीच-बीच में खुद को उस गुदगुदी से बचाने का प्रयास भी कर रहा था।
मैं वहीं ज़मीन पर लेटे-लेटे यह सब नज़ारा देख रहा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह बच्चा कौन है और यहाँ पलंग के नीचे कहाँ से आ गया। यदि वह आ भी गया तो वह वहाँ किसके साथ खेल रहा है, जो उसे तो दिख रहा लेकिन मुझे नहीं। एक पल मुझे लगा कि यह वहम है लेकिन दुबारा जब मैंने अपनी आँखों को भिंचकर देखा तो वही दृश्य था।
खेलते-खेलते उस बच्चे की नजर मेरी तरफ गयी और मुझे बहुत गुस्से से देखने लगा, जैसे मैंने उसके किसी कार्य में विघ्न डाल दिया हो। उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया था। लगभग वह दो से ढाई साल का लग रहा था लेकिन इतने छोटे बच्चे को आखिर इतना खतरनाक गुस्सा कैसे आ सकता है।
इससे पहले कि मैं कुछ और समझ पाता, उस बच्चे ने अपनी दाहिनी हाथ को उठाते हुए मुट्ठी को बंद करने जैसी हरकत की और ऐसा करने के बाद उसने अपनी दोनों आँखों को बंद करते हुए, बायीं तरफ एकदम झटके के साथ खोपड़ी को लटका दिया, जैसे किसी को फांसी दी हो।
मैं हड़बड़ाकर उस जगह से उठकर, चीखते हुए बाहर की तरफ भाग खड़ा हुआ।, “भ...भ...भूत... भूत! बचाओ मुझे।”
बाहर मैं एक टेबल से टकरा गया, जिस पर कैरम बोर्ड रखा हुआ था, वह जमीन पर गिर गया। भइया बाहर अपने दोस्तों के साथ कैरम खेल रहे थे। मेरे इस तरह तेज दौड़कर भागने की वजह से मैं टकरा गया था। मुझे और उनके एक दोस्त को बहुत तेज चोट लगी थी।
“अरे! पागल है क्या? क्या हुआ? कहाँ है भूत?”, सभी ने एक साथ प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
मैंने कमरे के तरफ इशारा करते हुए कहा, “वो... वो आखिरी वाले कमरे में पलंग के नीचे घुसा हुआ है।”
मेरे इतना कहते ही सभी अंदर की तरफ भाग खड़े हुए। सभी अंदर गए और सब अपना पेट पकड़ते हुए हँसते हुए बाहर आए।
अचानक इस व्यवहार से मुझे बड़ा अजीब लगा। मुझे लगा कि यह सब इन्हीं में से किसी एक का खेल है। मुझे बहुत तेज गुस्सा आ रहा था।
तभी एक ने अपनी हँसी को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए कहा, “भाई! छोटे भूत को लेते आओ।”
उसका इतना कहते ही सभी और हँसने लगे। मेरी उलझने और बढ़ती जा रही थी। तभी मैंने देखा कि दिनेश उस बच्चे को गोदी में उठाता हुआ बाहर लाया और बोला, “यह कोई भूत-वूत नहीं है। इस बच्चे का नाम डुग्गू है, जो पड़ोस में ही भाभी का बच्चा है। यह अक्सर खेलते-खेलते हमारे कमरे में घुस जाता है।”
उनके ऐसा कहते ही मेरी जान में जान आयी। मैं भी उन लोगों के साथ झूठी हँसी में शामिल हो गया। जब स्थिति सामान्य हो गयी, तब मेरे मन यह प्रश्न उठा कि अगर वह बच्चा अनजाने में पलंग के नीचे आ गया था तो फिर वह इस तरह गुस्से से लाल कैसे हो गया था? फिर वह हाथ को बढ़ाते हुए अजीब सी हरकत करना छोटे बच्चे की बस की बात नहीं थी। आखिर वह बुदबुदा भी तो रहा था कुछ, जैसे किसी से सच में बात कर रहा हो। इतना ही नहीं, उसे गुदगुदी भी तो हो रही थी।
मेरा दिल यह विश्वास करने को तैयार नहीं था कि यह कोई सामान्य घटना थी। मुझे ये सब किसी को बताना भी व्यर्थ लग रहा था क्योंकि इस बात का विश्वास तो दूर की बात, किसी ने सुननी भी नहीं थी। पायल वाली घटना भी तो घटित हुई थी। हो ना हो कोई तो बात है, जो किसी अनहोनी की तरफ इशारा कर रही है। इन्हीं खयालों में खोये-खोये, न जाने कब शाम हो गयी, इसका आभास ही नहीं हुआ।
हमलोग खाना खाने के बाद सोने चले गए। मेरा बड़ा भाई और दिनेश बाहर वाले कमरे में सो गए। मैं, राजेश और सुरेश के साथ अंदर वाले कमरे में सो गया। आज मुझे नींद नहीं लग रही थी। मैं आज इस पायल की आवाज और उस अजीब सी जले हुए दुर्गंध का फिर से एहसास करने का इंतज़ार कर रहा था। मैं मोबाइल में साउथ इंडियन मूवी देखने में लग गया, राजेश भी साथ मूवी देखने लगा।
लगभग आधी मूवी देखने के बाद मेरी नजर राजेश पर गयी, वह सो चुका था। मोबाइल के प्रकाश से मेरी आँखों में चुभन का एहसास हुआ। मैंने मोबाइल को साइड में रखकर सोने का निश्चय किया।
जैसे ही मैंने मोबाइल को साइड में रखा, मुझे खिड़की बाहर किसी के जाने का एहसास हुआ। उस शख्स ने लाल रंग के कपड़े पहने थे, बस इतना ही देख पाया था। थोड़ी देर में ही छन्न...छन्न... पायल की आवाज फिर से आनी शुरु हो गयी। मैंने लेटे-लेटे खिड़की से बाहर की तरफ नजर घुमाई तो खिड़की से चाँद की रोशनी अंदर आ रही थी। मैंने इस बार हिम्मत करके पास में लेटे राजेश को उठाया। वह काफी गहरी नींद में था।
मैंने जब अपने दोनों हाथों से बलपूर्वक हिलाकर उठाया तो वह बोला, “क्या हुआ? क्यों उठा रहे हो इतनी रात को?”
अपनी आँखों को मलते हुए उसने यह बात कही। मैंने उसे बाहर खिड़की के तरफ इशारे किया। वह मेरी बात नहीं समझ पाया।
उसकी नजर मेरे माथे पर पसीने के बूंदों पर पड़ी, तो वह चौक कर बोला, “क्या बात है? कोई बुरा सपना देख लिया क्या? ऐसी ठंड में तुम्हारे माथे पर पसीना क्यों छलक रहा है?”
“व... वो...औरत बाहर घूम रही है। आज मैंने उसको देख..!”
“कौन औरत? तुम किस औरत की बात कर रहे हो?”, राजेश ने चौंकते हुए मुझसे पूछा।
“आज जब तुमलोग सुबह मेरी बातों पर हँस रहे थे, तो मैंने पूरी बात नहीं बताई। मुझे लगा कि क्या पता तुमलोग मेरी बातों पर विश्वास नहीं करोगे।”
“कौन सी बात? आखिर तुम कहना क्या चाह रहे? मेरी तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा।”
“सुबह जब मैं उस छोटे से बच्चे, जिसका नाम डुग्गू था, उसे देखकर यूँ ही नहीं भयभीत हुआ था। वह बच्चा बेड के नीचे किसी से बात कर रहा था।”
“बात करते-करते मुझे महसूस हुआ, वहाँ कोई न कोई औरत थी, जो रह-रह कर उसे गुदगुदी कर के हँसाने का प्रयास कर रही थी। उसने हँसते- हँसते अचानक मेरी देखा और हाथ उठा कर मुट्ठी बन्द करने की कोशिश की, जैसे वह मेरे गले को दबाना चाहता हो। उस वक़्त उसकी आँखें सुर्ख लाल थी। एक साधारण 3 साल का बच्चा, इस तरह नहीं कर सकता। मुझे तो लगता है, उसके साथ वही औरत थी जिसे मैंने अभी थोड़ी देर पहले खिड़की से बाहर उस तरफ जाते हुए देखा हैं।”
मेरी बात अब शायद राजेश के कुछ पल्ले पड़ रही थी। वह ध्यान से मेरी हर बात को सुन रहा था। इतना सुनते ही वह बोल पड़ा, “तुम्हें यह बात सुबह बतानी चाहिए थी। खैर छोड़ो! लेकिन तुमने बाहर किस औरत को देखा?”
“बस थोड़ी देर... थोड़ी देर रुक जाओ, तुम्हें खुद पता चल जाएगा।”, यह कहकर मैंने उसे खिड़की की तरफ नजर टिकाए रखने को कहा।
लेकिन उसने मेरी बातों की ओर ध्यान न देते हुए, प्रश्न कर डाला, “त...तुम इतने दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि वह औरत वही है, जिसे तुमने खिड़की से बाहर देखा था। चलो, मान भी लिया कि यह वही औरत है तो तुम दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि वह फिर...!”
छन्न... छन्न... छन्न...
इस आवाज के साथ ही उसकी बात बीच में ही अधूरी रह गयी। उसे शायद काफी हद तक जवाब मिल गया था और बाकी बचे सवालों का जवाब, उसे बहुत जल्द मिलने वाला था।
मेरी वह आवाज सुन कर घिग्घी बंध गयी थी। राजेश अभी भी वास्तविक और आभासी तथ्यों के बीच उलझा पड़ा था। उसे अभी मेरी बातों पर पूर्णतया विश्वास नहीं हो रहा था।
मेरे अंदर साहस नहीं था कि मैं उस दृश्य को दुबारा देख सकूं। मैंने फट से चादर तान ली और मुँह ढककर सोने का नाटक करने लग गया।
थोड़ी देर में पायल की आवाज आनी बन्द हो गयी। उसने मुझे हिलाकर उठाने का प्रयास किया लेकिन मैंने बिना कोई हलचल किए, लेटे रहने में ही गनीमत समझी।
मुश्किल से दो मिनट भी नहीं हुए थे कि उस पायल की आवाज फिर से आने लगी। अब ऐसा लग रहा था कि मानो वह आवाज बिल्कुल ही हमारे करीब से ही आ रही हो। उसने मुझे जोर से चिकोटी काटी और मैं अपने बाजू को मलता हुआ उठ बैठा।
जैसे ही मैं उठकर बैठा, तो मैंने देखा कि उसकी नज़रें उस पायल की आवाज का पीछा कर रहीं थी और वह खिड़की की तरफ टकटकी लगाकर देखे जा रहा था। अब उस पायल की छन्न...छन्न... आवाज का जैसे-जैसे करीब आने का पता लग रहा था, उसी तरह एक मदहोश करने वाली खुशबू भी तेज होती चली जा रही थी।
अचानक खिड़की के तरफ देखकर हम दोनों एक साथ चीख पड़े, “न...नहीं! बचाओ!”, इतना कहते ही हम दोनों वहाँ बैठे-बैठे बेहोश हो गए।
◆◆◆
जब आँख खुली तो देखा कि मेरे आस-पास भइया और उनके बाकी के साथी मौजूद थे। मेरे बगल में राजेश लेटा हुआ था, शायद उसे अभी तक होश नहीं आया था।
“क्या हुआ था तुम्हें रात को? तुम लोगों को ऐसा क्या हुआ कि चीख मारकर बेहोश हो गए थे? राजेश को तो अभी भी होश नहीं आया है। बताओ, आखिर क्या हुआ था?”
मेरे होश में आते ही सभी ने सवालों की झड़ी लगानी शुरू कर दिया था। मैंने घड़ी में वक़्त देखा तो सुबह के करीब आठ बजकर बीस मिनट हो रहे थे।
“क... कुछ भी तो नहीं। ऐसा कुछ भी नहीं देखा।”, मैंने सहमे हुए मन से जवाब देने की कोशिश की।
“यदि ऐसा कुछ भी नहीं था तो रात के 2 बजे चीखने के बाद बेहोश क्यों हुए?”
मैंने सोचा कि क्या पता इन लोगों को मेरी बातों पर विश्वास होगा कि नहीं।
ये लोग कहीं फिर से मेरा मजाक न बना दें। राजेश को तो मैं सबूत कल रात ही दे चुका था लेकिन इन लोगों को मैं विश्वास में नहीं ला सकता था।
मैं अभी यही सब सोच रहा था कि राजेश के शरीर में कुछ हलचल हुई, वह उठकर बैठ गया था। उसकी आँखें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह पिछले कुछ दिनों से सोया ही नहीं था, या कोई भयानक सपना देख कर अचानक उठ गया हो। उसने उठते ही मेरी तरफ देखा और मुझे देखते ही उसकी आँखें आश्चर्य से फैलती ही चली गईं। उसे मेरी मौजूदगी से ज्यादा अपने होश में आने पर ज्यादा ताज्जुब था।
दिनेश ने राजेश के जिस्म को पकड़कर, उसके कमर के पीछे तकिए को लगाकर बैठाने का प्रयास किया। उसको छूते ही उसने अपने हाथों को पीछे कर लिया,
राजेश के ललाट पर हाथ रखते हुए बोला, “इसका जिस्म तो आग की भट्टी की तरह तप रहा है, शायद इसे बुखार है।”
सुरेश दौड़कर रसोईघर की तरफ गया और कटोरे में ठंडा पानी लाकर रुमाल से ललाट पर रखने लगा। वहाँ मौजूद सभी हमें अचरज भरी निगाहों से देख रहे थे। दोपहर तक राजेश का बुखार भी कुछ कम हो चला था।
भइया और उनके बाकी के दोस्तों ने पूछा, “बताओ! आखिर कल रात तुम ऐसे क्यों चीखे? ऐसा क्या हुआ जिसके कारण तुम दोनों ही भयभीत हो गए?”
मैंने उन्हें बेहद धीमी आवाज में कहा, “मेरी बातों का आप लोग यकीन नहीं करोगे। लेकिन कल हम दोनों ने एक भटकती आत्मा को देखा, जो कि एक दुल्हन के लिबास में थी।”
“क्या बच्चों जैसी बातें कर रहे हो। यह सब मन का वहम होता है। भूत-वूत कुछ नहीं होते। तुम पढ़े-लिखे होकर, जाहिलों जैसी बात कैसे कर सकते हो?
मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। कभी-कभी आँखों का धोखा भी होता है, जिसे हम सच्चाई मान बैठते हैं।”
“बिल्कुल सही कहा भइया आपने कि कभी-कभी आँखों का धोखा हो सकता है लेकिन मैं पिछले 2-3 रातों से उस अदृश्य शक्ति का एहसास कर रहा था।”, मैंने इस बार एक सांस में ही यह सब कह दिया।
भइया बोले, “क्या कहा? पिछले 2-3 दिनों से तुमने आत्मा की मौजूदगी का एहसास किया?”
इस बार बारी राजेश की थी, वह इतना सुनते ही तपाक से बोल पड़ा, “ये बिल्कुल सच कह रहा है। पहले मैंने भी इसकी बातों पर विश्वास नहीं किया लेकिन जब कल साक्षात मैंने उस लाल जोड़े वाली दुल्हन की आत्मा को देखा तो...”
“लाल जोड़े वाली दुल्हन! कहाँ देखा तुमने उसे?”, दिनेश ने उससे सवाल किया।
“याद है, मैं परसो रात को लगभग 2 बजे के करीब इस घर के पीछे मिला था। मैं उस वक़्त एक पायल की आवाज का पीछा कर रहा था। वह लगातार इधर से उधर तो कभी उधर से इधर जा रही थी, जिसकी वजह से मेरी नींद में खलल आ गयी थी। मैंने उसी वक़्त निश्चय कर लिया था कि मैं अब देख कर रहूंगा कि वह बला आखिर है क्या? लेकिन जैसे ही मैं उसके करीब पहुँचने वाला था, आप ऐन वक्त पर न जाने कहाँ से ढूंढ़ते हुए, उस तरफ आ गए। मेरे उसतक पहुँचने से पहले ही आप मुझे अंदर लेकर चले गए।”
“हाँ, मैं ले तो गया था। लेकिन मैंने रात को अपने पास न पाकर, तुम्हें खोजने निकल पड़ा था। मैं जैसे ही बाहर आया, तुम्हें घर के पिछवाड़े में जाते हुए देखा तो मैं भी तुम्हारे पीछे हो चला था।”
भइया की इन बातों से मेरी बातों को बल मिल गया था। शायद वे आज मुझे ठीक से समझने को तैयार थे।
मैंने मौके का फायदा उठाते हुए कहा, “याद है, कल सुबह भी आपलोगों ने मेरा उस छोटे से बच्चे से डर जाने को मजाक में ले लिया था।”
“मगर वास्तविकता पर आप में से किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। बात दरअसल यह थी कि इस बच्चे के साथ बिस्तर के नीचे वही लाल जोड़े वाली दुल्हन थी, जो उस बच्चे से खेलने का प्रयास कर रही थी।”
“चलो, मान लिया कि तुम्हारी बातों में सच्चाई है लेकिन तुम इतने दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि वह लाल जोड़े वाली दुल्हन वहाँ उसके साथ थी? क्योंकि हमलोगों ने तो वहाँ उस बच्चे डुग्गू के सिवा किसी को नहीं देखा था।”, भइया मेरी बातों में अब रुचि ले चुके थे, वे अब बहुत गौर से मेरी बातों को सुन रहे थे।
“देखा तो मैंने भी नहीं था उस औरत को वहाँ लेकिन मैंने ध्यान से देखा तो यह पता लगा कि उस बच्चे को रह-रह कर कोई गुदगुदी कर हँसाने का प्रयास कर रहा था। जब उसे गुदगुदी होती, वह अपने हाथों से किसी को रोकने का प्रयास कर रहा था, जैसे उसके सामने कोई वास्तव में हो।”, मैंने उन्हें एक ही सांस में यह सारी बात कह दी, जैसे मुझे यह कंठस्थ याद हो।
मेरी बातों को सुनने के बाद दिनेश बोला, “लेकिन तुम्हें कैसे पता कि वह जो भी बन्दा या बंदी, डुग्गू के साथ थी, वह लाल जोड़े वाली कोई दुल्हन ही थी।”
उसकी बातों को सुनते ही, जैसे ही मैंने जवाब देना चाहा तभी राजेश बोल पड़ा, “मैं और अंशू रात को मोबाइल पर साउथ इंडियन मूवी देख रहे थे। देखते-देखते मुझे इसका एहसास नहीं हुआ कि मुझे कब नींद आ गयी।”
“जब मेरी नींद टूटी तो उस वक़्त घड़ी में 2 बजे का वक़्त हो रहा था और मुझे अंशू ने उठाया। उठते ही जब मेरी नजर अंशू पर पड़ी तो उसके चेहरे के तोते उड़े हुए थे। ये किसी पायल के शोर की बात कह रहा था और खिड़की से किसी लाल जोड़े वाली औरत को जाते हुए देखा है, ऐसा कहा।”
“शुरू-शुरू में तो मुझे भी इसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ लेकिन थोड़ी देर में मैंने उस पायल की छन्न... छन्न... की आवाज फिर से आनी शुरू हो गई, फिर थोड़ी देर बाद वह बन्द हो गयी। लगभग कुछ सेकंड के इंतज़ार के बाद पायल की आवाज आनी फिर से शुरू हो गयी थी।”
“इस बार उस पायल की आवाज से ऐसा लग रहा था, जैसे मानो बिल्कुल ही कहीं पास से आ रही हो। मैं और अंशू टकटकी लगाकर खिड़की की तरफ देख रहे थे। पायल की छन्न... छन्न... की आवाज जैसे-जैसे करीब सुनाई देती जा रही थी, वैसे ही हमारे दिल की धड़कनों को तेज होते हुए आसानी से महसूस किया जा सकता था।”
“अचानक खिड़की पर एक लाल जोड़ें में सजी हुई औरत दिखी, जिसे देखकर ऐसा लगा जैसे उसने आज सोलह श्रृंगार किया हो। उसके इस तरह अचानक सामने आने से मन में खौफ तो था लेकिन उसकी बला की खूबसूरती को देखते ही वह डर काफूर हो गया।”
“उसकी पलकें झुकी हुई थी। उसके गुलाब की पंखुड़ी जैसे होंठ न जाने कितने राज छिपाए बैठे थे। उसके नाक में सोने की बुलाक उसकी सुंदरता को और यौवन को निखार रहा था। उसके माथे और कुमकुम के निशान चांद सितारों की तरह झिलमिला रहे थे। उसकी सुंदरता ने हमारा मन मोह लिया था।”
“हम अपनी सारी सुध बुध खोकर, बस उसकी सुंदरता में डूब गए थे। अचानक उसने अपनी खोपड़ी उठाई और हमारी तरफ देखा। उसने जैसे ही अपना चेहरा उठाया तो मेरी नजर उसके होंठों पर गई। उन होंठों से खून रिस रहा था। आँखों की पुतलियां बिल्कुल फैली हुई थी, जैसे न जाने कितनी वक़्त से खुली की खुली रह गयी थी। उसका मोहिनी रूप देखते ही देखते बदलने लगा था।
उसकी आँखें अब सुर्ख लाल हो चली थी और उन आँखों से हमें ही निहारे जा रही थी, जैसे उसके उस रूप के हम ही कसूरवार हों।”
“उसने अपना हाथ सामने हमलोग की तरफ उठाया और अपनी बड़ी-बड़ी नाखूनों वाली उंगलियों को इकट्ठा करके पंजे को बन्द करने की कोशिश की, मानो जैसे वह उस हाथ से हमारी गर्दन को पकड़ना चाहती हो। अगले पल देखते ही देखते उसकी खोपड़ी पीछे की तरफ घूम गयी लेकिन उसका धड़ का अगला हिस्सा उसी जगह पर जस का तस था। यह देखते ही हमारी एक साथ चीखें निकल पड़ी। उसके बाद जब होश आया तो खुद को आपलोगों के बीच पाया।”
उन सभी को विश्वास नहीं हो रहा था कि जो बातें मैंने उन्हें बताई, वे किस हद तक सच है लेकिन जब राजेश ने भी मेरा इस कदर साथ दिया, जैसे उस घटना के पीछे चश्मदीद गवाह वह भी है, तो सभी उस बात को मानने को विवश हो गए।
हालांकि भूत-प्रेत के किस्सों में अक्सर विश्वास उन्हीं को होता है, जिनके साथ वह घटना घटित हुई हो, बाकियों के लिए तो वह मात्र कहानी के सिवा कुछ नहीं रहता। हम सभी ने मिलकर यह निश्चय किया कि यह कमरा छोड़ कर कहीं दूसरी जगह चले जाएंगे।
◆◆◆
हम सभी शाम को कमरा ढूंढने चले गए। शाम को उसी गांव में शिव मंदिर के पास ही एक खाली कमरा मिल गया था। हमलोगों ने एडवांस देकर कल सुबह ही शिफ्ट करने की बात करके, वापिस अपने कमरे में आ गए थे।
खाना खाकर हमलोगों ने यह निर्णय लिया कि आज रात आगे वाले कमरे में सभी एक साथ सोएंगे और आज पूरी रात बिजली का बल्ब जला कर ही सोएंगे। फटाफट अंदर वाला बिस्तरा भी वहीं लगा दिया। सभी एक साथ पहली बार सो रहे थे। हालांकि यह अवसर ज़रूर पहला था लेकिन यह डर को दूर करने का सबसे कारगर तरीका था।
अचानक रात को मैंने उस लाल जोड़े वाली दुल्हन को अपने पास देखा। वह वहाँ खड़ी हुई मुझे ही निहार रही थी। मैं हड़बड़ाकर कर उठ खड़ा हुआ।
मैंने किसी तरह हिम्मत बटोरते हुए कहा, “कौन है तू? और इस वक़्त अंदर क्या कर रही है?”
मेरे इतना बोलते ही एक तेज आवाज आई... चटाक।
वह थप्पड़ इतना जोर से लगा कि उस कमरे में जितने भी सोए थे, सभी उठकर बैठ गए।
उसने चांटा मारने के बाद कहा, “आज यह बत्ती क्यों जलाई है? मुझे यहाँ भटकने में दिक्कत होती है।”
ऐसा कहते ही वह कमरे से बाहर चली गयी। सभी ने दांतो तले उंगली दबा ली, यह देख कर कि वह लाल जोड़े वाली दुल्हन को बाहर जाने के लिए दरवाजे खोलने की ज़रूरत नहीं पड़ी। वह उस दरवाजे के आर-पार निकल गयी थी। उसके बाहर जाते ही कमरे में बिजली का बल्ब फ्यूज हो गया।
यह दृश्य देखते ही हम सभी की नींदे उड़ चुकी थीं। मेरे गाल पर पाँच उंगलियों के निशान को साफ देखा जा सकता था। सभी ने जैसे तैसे सुबह होने का इंतज़ार किया।
सूर्योदय होते ही हम सभी सबसे पहले पड़ोस में ही डुग्गू के घर गए। हमें एक साथ देखकर, वे लोग बिल्कुल भी ही नहीं घबराए। उन्हें देख कर ऐसा लगा कि जैसे उन्हें सब मालूम हो। डुग्गू के पापा जिनका नाम ‘पंकज पुनेठा’ था, उन्होंने हमें बैठाया और शांति से हमारी व्यथा सुनी।
सुनने के बाद उन्होंने कहा, “देखिए, आपलोग खुशकिस्मत हैं कि किसी के साथ कुछ भी नहीं हुआ। वह तो तुमलोग हो, जो पिछले चार महीने से इस कमरे में रह रहे हो। अन्यथा इस कमरे में पिछले सात सालों से कोई भी व्यक्ति दो महीने से ज्यादा नहीं टिक पाया है।”
“य... ये आप क्या कह रहे हैं, पुनेठा जी। आखिर इस घर में होने वाली घटनाओं के पीछे माजरा क्या है?”, भइया ने उनसे घर के छुपे राज को जानना चाहा।
“यह बात 7 साल पहले की है। इस घर में एक बड़ा ही खुशहाल परिवार रहता था। उनकी एक बेटी थी जिसका नाम शांति चौहान था। वह लड़की बला की खूबसूरत होने के साथ पढ़ाई लिखाई में भी अव्वल थी। जब उसकी उम्र शादी की हुई तो उसके लिए एक से एक बड़े घर से रिश्ते आने लगे।”
“उसकी शादी ऋषिकेश में एक आर्मी ऑफिसर से तय हुई। शादी वाले दिन की उस एक दुखद समाचार ने पूरे परिवार की ज़िन्दगी उजाड़ कर रख दी।”
“ऋषिकेश से बारात चम्पावत के लिए आ रही थी। चम्पावत से 29 कि.मी. पहले एक तीव्र मोड़ पर दूल्हे की गाड़ी खाई में गिर गयी।
दूल्हे की मौत हो गयी। उसकी लाश आज तक किसी को नहीं मिली क्योंकि वह नदी में बहती हुई पता नहीं कितनी दूर चली गई थी।”
“जब यह बात दुल्हन को पता चला तो वह यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकी और उसने कमरे को बन्द करके अपने ऊपर मिट्टी के तेल को छिड़क कर आग लगा ली। उसका परिवार इस सदमे से उबर नहीं पा रहा था इसलिए उनलोगों ने यह घर सस्ते दामों में बेचकर, यहाँ से कहीं दूर चले गए।”
“उनके जाने के बाद यहाँ उस अभागन को देखना आम बात हो गयी थी। यहाँ जितने भी लोग किराए पर आए, उनको हमेशा रात को 1 बजे के बाद इस तरह की अजीब घटनाएं होने लगीं। यहाँ कोई भी दो महीने ज्यादा नहीं टिक पाया और पिछले 7 सालों से अधिकतर इस घर में ताला ही लटका मिलता था।”
“क्या उस लड़की जिसका नाम शांति है, उसकी आत्मा की शांति के लिए कुछ किया नहीं जा सकता है, जिससे उसको मुक्ति मिल जाए?”, दिनेश ने बड़ी ही गंभीर मुद्रा बनाते हुए यह प्रश्न पूछा था।
“हाँ! बिल्कुल किया जा सकता है। लेकिन बात यह है कि करेगा कौन? उसके माँ-बाप अब यहाँ रहते नहीं और लोगों में इतनी हिम्मत नहीं, जो इस काम को करने के लिए सामने आए। वैसे भी कहते है कि इंसान के भाग्य में जितनी उम्र लिखी है, उसे काट कर ही जाना पड़ता है। यदि किसी की असामयिक मौत हो भी जाए तो उसे प्रेत योनि में भटककर उतने साल पूरे करने पड़ते ही हैं।”
हमलोगों ने पुनेठा जी को धन्यवाद किया और उनसे विदाई ली। शाम ढलने से पहले हम लोगों ने कमरा शिफ्ट कर दिया। उस दिन के बाद कभी उस पुराने भुतहा घर की तरफ भूल कर भी रुख नहीं किया। मैं भी दो दिन और रुकने के बाद, वापिस दिल्ली आ गया। मुझे घर आकर इस बात का एहसास हुआ कि अपना घर अपना ही होता है, जहाँ सुकून भरी ज़िंदगी जिया जा सकता हैं बिना किसी शिकायत के।
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