सुनील ने एक भरपूर दृष्टि रमाकांत के साथ आये हुए व्यक्त‍ि पर डाली । वह लगभग पैंतालीस वर्ष का अपनी आयु के अनुपात से बेहद स्वस्थ व्यक्ति था । उसके तीखे नाक नक्श, दोहरा शरीर और अच्छा स्वास्थ्य उसे एक आकर्षक व्यक्तित्व प्रदान कर रहे थे । उसका पेट जरा बढा हुआ था लेकिन सुनील के मतानुसार चालीस वर्ष और उसके बाद की आयु में तो बढा हुआ पेट भी अच्छे व्यक्तित्व का एक अंग दिखाई देने लगता था ।
वह काफी नर्वस दिखाई दे रहा था ।
“सुनील ।” - रमाकांत परिचय कराता हुआ बोला - “इनसे मिलो, यह मिस्टर भंडारी हैं । मेरे अच्छे मित्रों में से हैं । यह यूथ क्लब की स्थापना में इनका भारी सहयोग रहा है और मिस्टर भन्डारी यह सुनील है जिसका मैंने आपसे जिक्र किया था ।”
“बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर ।” - भंडारी सुनील के हाथ को थाम कर बोला ।
“मुझे भी ।” - सुनील बोला - “तशरीफ रखिए ।”
भंडारी और रमाकांत सुनील के सजे सजाये ड्राईंग रूम में बैठ गये ।
“क्या पियेंगे ?” - सुनील ने शिष्टचारपूर्ण पूछा ।
भंडारी ने प्रश्नसूचक दृष्टि से रमाकांत की ओर देखा ।
“सुनील !” - रमाकांत जल्दी से बोला - “औपचारिकता रहने दो । इस समय कुछ भी पीने की इच्छा नहीं । मैं और भंडारी दोनों ही यूथ क्लब से काफी हैवी चाय लेकर चले थे । फिलहाल तुम यहां सामने बैठ जाओ और जो मैं कहता हूं, उसे सुनो ।”
“बेहतर ।” - सुनील बोला और उसके सामने वाले सोफे पर बैठ गया ।
रमाकांत कुछ क्षण बाद रुक कर बोला - “भंडारी साहब की एक समस्या है ।”
“क्या ?” - सुनील ने निर्विकार स्वर से पूछा ।
“मैं कहूं या आप स्वयं बतायेंगे ?” - रमाकांत ने भंडारी से पूछा ।
“तुम ही कहो ।” - भंडारी बोला ।
“सुनील ।” - रमाकांत गम्भीर स्वर में बोला - “भंडारी साहब इस समय सैंतालीस वर्ष के हैं । लगभग दो वर्ष पहले इन्होंने दूसरी शादी की है । नई मिसेज भंडारी का नाम रत्ना है और आयु है लगभग पच्चीस वर्ष । इनकी पहली पत्नी आज से लगभग दस साल पहले मर गई थी । उसे कैंसर की बीमारी थी और वही उसकी मृत्यु का कारण भी बनी थी । अपनी पहली पत्नी से भंडारी साहब की एक लड़की है जो इस समय बाईस वर्ष की है । उसका नाम आरती है । पहली पत्नी किसी स्टेट की राजकुमारी थी और लाखों की सम्पत्ति की इकलौती स्वामिनी थी । भंडारी साहब से उसने प्रेम विवाह किया था । उसकी मृत्यु के बाद उसकी आधी सम्पत्ति भंडारी साहब को मिली थी और आधी आरती को । आरती को मिली सम्पत्ति नगद धन के रूप में है और उसकी मां की मृत्यु के बाद ही उसके नाम बैंक में जमा है ।”
“कितना धन है ?” - सुनील ने पूछा ।
“तीस लाख रुपये ।” - भंडारी ने उत्तर दिया ।
“पहले भंडारी साहब अपनी लड़की की सम्पत्ति के ट्रस्टी भी थे । लेकिन पिछले वर्ष से वह उसके ट्रस्टी नहीं रहे हैं । क्योंकि आरती इक्कीस वर्ष की हो गई है । अब वह उस धन को जैसे चाहे व्यय कर सकती है । भंडारी साहब उसे रोक नहीं सकते ।” - रमाकांत बोला ।
“फिर ?”
“मैंने परसों आरती का बैंक एकाउन्ट देखा था ।” - भंडारी बोला - “तीस लाख रुपये में से चालीस हजार रुपये गायब थे ।”
“कोई ब्लैकमेल कर रहा है उसे ?” - सुनील ने पूछा ।
“मुझे मालूम नहीं, सम्भव है कोई उसे ब्लैकमेल कर रहा हो । सम्भव है किसी ने उसे फुसला कर इतनी मोटी रकम उधार ले ली हो । सम्भव है उसने स्वेच्छा से किसी को इतना दे दिया हो ।”
“यह भी तो हो सकता है कि उसने खुद ही वह रुपया फिजूलखर्ची में उजाड़ दिया हो ?” - सुनील ने सुझाव दिया ।
“नहीं, यह सम्भव नहीं दिखाई दिया ।”
“क्यों ?”
“मुख्यत: दो कारण हैं । एक तो यह कि लगभग पांच महीने पहले जब मैंने आरती का एकाउन्ट देखा था तो सारा रुपया सही सलामत था । कोई लड़की पांच महीने में चालीस हजार रुपया फिजूल खर्ची में नहीं उड़ा सकती । दूसरा और अधिक तर्कपूर्ण कारण यह है कि चालीस हजार रुपये की रकम केवल दो चैकों की सूरत में बैंक से निकाली गई है । दोनों चैक बीस-बीस हजार रुपये के थे और पिछले दो महीनों में कैश करवाये गये थे । अगर आरती ने इतनी बड़ी रकम फिजूल खर्ची के लिए बैंक में से निकाली होती तो बीस-बीस हजार रुपये के दो चैकों के स्थान पर वह पांच-पांच सौ, एक-एक हजार रुपये के कई चैकों की सूरत में बैंक से निकाली गई होती ।”
“बीस-बीस हजार के वे दो चैक किसके नाम थे ?”
“किसी रोशनलाल के नाम ।”
“चैक कैसे थे - एकाउन्टस पेई या बेयरर ?”
“बेयरर ।”
“रोशनलाल कौन है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“आपने जानने की कोशिश की ?”
“बहुत, लेकिन कुछ पता नहीं लग पाया ।”
“चैक वगैरह के बारे में आपको इतनी सारी बातें कैसे पता लगीं ?”
“बैंक से । जिस बैंक में आरती का रुपया है, उसका मैनेजर मेरा मित्र है ।”
“रोशनलाल का उस बैंक में एकाउन्ट है ?”
“नहीं ।”
“बीस हजार रुपये की मोटी रकम का चैक कैश कराने में रोशनलाल को कोई दिक्कत नहीं हुई ?”
“यही सवाल बैंक के मैनेजर से मैंने भी पूछा था । उसने बताया था किसी डाक्टर जे पी कश्यप का उस बैंक में एकाउन्ट है । उसने ही रोशनलाल के लिये वाउच किया था । ऐसे मामलों में बैंक वाले तो यही चाहते हैं, कि उनका कोई एकाउन्ट होल्डर या बैंक का कोई कर्मचारी या कोई ऐसा आदमी जिसे बैंक जानता हो, चैक क्लेम करने वाले की शिनाख्त कर दे । यह सब वे तभी करते हैं जब चैक बड़ी रकम का हो वरना बेयरर चैक तो कोई भी कैश करवा सकता है ।”
“मैं इस तस्वीर में कहां फिट होता हूं ?” - सुनील ने क्षण भर रुक कर पूछा ।
उत्तर देने के स्थान पर भंडारी ने यूं रमाकांत की ओर देखा जैसे वह उससे किसी प्रकार की प्रेरणा की अपेक्षा कर रहा हो ।
“भंडारी साहब यह जानना चाहते हैं कि आरती का इतना रुपया कहां और क्यों खर्च हो रहा है ।” - रमाकांत बोला ।
“आप यह बात आरती से क्यों नहीं पूछते ?” - सुनील ने भंडारी से प्रश्न किया ।
“मैंने पूछा था लेकिन उत्तर में उसने मुझे ऐसी बात कही थी कि आगे कुछ पूछने का मेरा साहस ही नहीं हुआ ।”
“क्या उत्तर दिया था उसने ?”
“उसने कहा था कि वह बालिग है और एक स्वतन्त्र देश की नागरिक है । रुपया उसका अपना है और उस रुपये को किसी भी ढंग से व्यय कर देने का उसे पूरा अधिकार है । अगर मैं उसकी किसी प्रकार की आर्थिक स्वतन्त्रता में दखल देता हूं तो बहुत बुरा करता हूं ।”
“आप में और आरती में किसी प्रकार का मन-मुटाव है क्या ?”
“है और उस मन-मुटाव का कारण मेरी अपनी नादानी है । क्षणिक आवेश में आकर मैं अपनी बेटी की हमउम्र लड़की से शादी कर बैठा हूं । आरती मेरी बेटी है । वह खुले रूप से तो मुझे कुछ नहीं कह सकती लेकिन मेरे शादी करने के बाद उसका व्यवहार मेरे प्रति एकदम बदल गया था । मेरी शादी के बाद से ही उसकी चेष्टा यही रहती थी कि वह मुझसे कम से कम बात करे और मुझसे उसका कम से कम टकराव हो । लेकिन फिर भी प्रत्यक्ष रूप में उसने कभी मेरी भावनाओं को चोट पहुंचाने की चेष्टा नहीं की थी ।”
“रत्ना से उसके कैसे सम्बन्ध हैं ?”
“रत्ना उसे एक आंख नहीं भाती है । आरती उसे चरित्रहीन लड़की समझती है । एक बार झगड़ा हो जाने पर उसने यहां तक कह डाला था कि रत्ना ने मुझे अपने आकर्षण में फंसाकर शादी करने के लिये मजबूर कर दिया था और मिस्टर सुनील, यह बात गलत भी नहीं है । रत्ना मुझ पर इस कदर छाई हुई थी कि जब उसने मुझे शादी के लिये कहा था तो मैं इन्कार नहीं कर सका था । रत्ना को भी शायद मेरे धन से ही दिलचस्पी थी । शादी के बाद तो वह एक बार मुझसे ढंग से पेश नहीं आई । मैं स्वयं भारी विरक्ति का अनुभव कर रहा हूं उससे । लेकिन उसे छोड़ भी तो नहीं सकता मैं । गले पड़ा ढोल तो बजाना ही पड़ेगा ।”
सुनील कई क्षण चुप रहा ।
“आप चाहते हैं कि मैं यह पता लगाऊं कि आरती ने चालीस हजार रुपये कहां खर्च किए हैं ?” - वह बोला ।
“हां और उसके लिये तुम्हारा आरती के निकट सम्पर्क में आना बहुत जरूरी है इसलिए मैं चाहता हूं कि कुछ दिन तुम मेरी कोठी में आकर रहो । मैं सबको यही बताऊंगा कि तुम विशालगढ के मेरे एक मित्र के लड़के हो और छुट्टियां बिताने राजनगर आये हो ।”
“यह काम तुम क्यों नहीं करते रमाकांत ?” - सुनील ने रमाकांत से पूछा ।
“आरती मुझे अच्छी तरह जानती है ।” - रमाकांत ने उत्तर दिया ।
“तो फिर यूथ क्लब के किसी सदस्य से कहो ।”
“भंडारी साहब इस बात का प्रचार नहीं चाहते और फिर यूथ क्लब के सदस्यों से अधिक प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति के योग्य काम है यह । आरती बच्ची नहीं है । अगर उसे यह पता लग गया कि भंडारी साहब उसकी निगरानी करवा रहे हैं तो वह भड़क उठेगी और सम्भव है कोठी छोड़ कर ही चली जाये । उस मामले में तुम भी बहुत सावधान रहना । तुम्हारे कोठी में रहने का वास्तविक मन्तव्य उसकी जानकारी में नहीं आना चाहिये ।”
“लेकिन मैं चौबीस घण्टे उस पर नजर कैसे रख सकता हूं । तुमने शायद इन्हें यह नहीं बताया कि मैं ब्लास्ट की नौकरी भी करता हूं ।”
“मैंने बता दिया है । नौकरी तुम चौबीस घण्टे तो करते नहीं हो और फिर इसी कारण तो भण्डारी साहब यह चाहते हैं कि तुम उनकी कोठी में रहो ताकि आरती को समझने का तुम्हें और अच्छा अवसर मिल सके । किन्हीं प्राइवेट जासूसों के चक्कर में पड़ने से तो हर हाल में वह अच्छा है कि तुम इनकी सहायता करो ।”
“ओ के ।” - सुनील बात को समाप्त करने के से भाव से बोला - “आज शाम को मैं अपना बोरिया बिस्तर लेकर आपकी कोठी में पहुंच जाऊंगा भण्डारी साहब ।”
“थैंक्यू वैरी मच ! मैं प्रतीक्षा करूंगा ।” - भण्डारी बोला ।
“मुझे पता बता दीजिए ।”
“दो शंकर दास रोड ।”
भण्डारी और रमाकान्त उठ खड़े हुए ।
“एक बात और बताइए, भण्डारी साहब ।” - सुनील जल्दी से बोला ।
भण्डारी ने प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी ओर देखा ।
“आपने डाक्टर जे पी कश्यप के माध्यम से रोशनलाल के विषय में जानने की चेष्टा नहीं की ?”
“की थी । मैं डाक्टर कश्यप से मिला था । लेकिन उसने मुझे रोशनलाल के विषय में कुछ भी बताने से स्पष्ट इन्कार कर दिया, वैसे भी वह मेरे साथ बड़ी बदतमीजी से पेश आया था ।”
सुनील चुप रहा ।
“और कुछ ?”
“फिलहाल बस ।”
“ओ के दैन । सी यू दिस ईवनिंग ।”
भण्डारी ने बड़ी गर्मजोशी से सुनील से हाथ मिलाया और रमाकान्त के साथ सुनील के फ्लैट से बाहर निकल गया ।
***
सुनील को भण्डारी की कोठी पर रहते हुए पांच दिन गुजर चुके थे ।
भण्डारी ने अपने परिवार से उसका परिचय उसी रूप में कराया था जैसे कि उन्होंने बताया था । कोठी के सारे निवासी उसे भण्डारी के विशालगढ के किसी मित्र का लड़का ही समझते थे जो छुट्टियां बिताने के लिए राजनगर आया हुआ था । सुनील भी परिचय की पुष्टि करने के लिए कभी कभार विशालगढ निवासी अपने काल्पनिक डैडी का जिक्र कर दिया करता था ।
आरती से वह काफी हिलमिल गया था । आरती उसे छलकपट से दूर बेहद सरल चित्त लड़की लगी थी । सुनील के संसर्ग में वह किसी हद तक प्रसन्नता का अनुभव करती थी । जिस शाम को सुनील का पदार्पण कोठी में हुआ था उससे अगले रोज ही उसने सुनील को टेनिस के लिए आमन्त्रित कर लिया था । उस रोज से वह हर रोज नियमित रूप से सुबह शाम आरती के साथ टेनिस के तीन चार सैट खेल लेता था । आरती उसे अपने डैडी के मित्र के लड़के के रूप में जानती थी और इसी रूप में उस का सम्मान भी करती थी । सुनील को उसके व्यवहार से एक बार भी ऐसा अनुभव नहीं हुआ था कि उसके मन पर किसी प्रकार का बोझ है जो कि अगर उसे ब्लैकमेल किया जा रहा होता तो अपेक्षित था । चालीस हजार रुपये के मामले से उससे कोई खुल कर बात कर लेने का वातावरण वह अभी तक पैदा नहीं कर पाया था ।
वह भण्डारी की जवान पत्नी रत्ना से भी मिला था । रत्ना उसे कतई भली नहीं लगी थी । भारतीय सामाजिक फिल्मों की खलनायिकाओं जैसे हाव-भाव थे उसके । जवान तो वह थी ही सुन्दर भी थी लेकिन उसके चेहरे पर कुछ इस प्रकार की कठोरता छाई रहती थी कि मन में किसी प्रकार की कोमल भावनायें नहीं उत्पन्न होती थीं । प्रत्यक्ष में तो वह सुनील से बड़े मीठे ढंग से पेश आती थी लेकिन उसके नेत्रों में सदा एक निश्चित सन्देह की झलक दिखाई देती थी जैसे घर में परिवार का मेहमान नहीं कोई चोर घुस आया हो । उसका आरती से घुलना मिलना भी वह अच्छी निगाहों से नहीं देखती थी । एक बार तो उसने इस विषय में भण्डारी साहब से कोई बात भी की थी लेकिन भण्डारी साहब ने उसे यह कह कर उड़ा दिया था कि आरती बच्ची नहीं है अपने भले बुरे की परख वह स्वयं कर सकती है । सुनील ने रत्ना और आरती को अनौपचारिक रूप से भी कभी एक दूसरे से बात करते नहीं देखा था ।
जिस ढंग से भण्डारी रत्ना से पेश आता था उसमें अक्सर विरक्ति का ही पुट होता था । लेकिन रत्ना के भरसक प्रयत्न यही होते थे कि जब तक भण्डारी साहब घर में रहें, उनके आकर्षण का केन्द्र वही रहे ।
कभी कभार रत्ना का ब्लड-प्रेशर एकदम हाई हो उठता था, तब वह भारी बेचैनी का अनुभव किया करती थी और वर्षों पुराने मरीज की सी सूरत बना कर बिस्तर पकड़ लेती थी । फौरन डाक्टर को बुलाया जाता था । डाक्टर अपना ब्लड-प्रेशर नापने का यन्त्र निकाल कर रत्ना का ब्लड-प्रेशर देखता था । फिर बेहद गम्भीर मुद्रा बनाकर, जैसे उसके जीवन मरण का प्रश्न हो, उसे इन्जेक्शन दे देता था और फिर भण्डारी को एक एकान्त कोने में ले जाकर कहता था कि मिसेज की हालत बहुत खराब है । उनका दिल बड़ा नाजुक है । ऐसी सूरत में ब्लड-प्रेशर हाई हो जाने पर वे कभी भगवान को प्यारी हो सकती हैं । इसलिए भण्डारी को पूरी चेष्टा करनी चाहिए कि वे कोई ऐसी बात न करें जिससे मिसेज के दिल को चोट पहुंचे । भण्डारी एकदम घबरा उठता था और चिन्तातुर होकर अपनी पत्नी के सिरहाने जा बैठता था और उस पर अपनी सहानुभूति और अनुराग उंड़ेलने लगता था ।
इस मामले में आरती का विचार यह था कि रत्ना मक्कारी करती है । उसे ब्लड प्रेशर वगैरह कुछ भी नहीं है । रेस के घोड़े की तरह स्वस्थ है वह और सौ साल तक मरने वाली नहीं है । जब भी उसे डैडी को उल्लू बनाने की जरूरत महसूस होती है वह बिस्तर पकड़ कर हाय-हाय करने लगती है । डाक्टर उसका चमचा है । वह आकर ब्लड-प्रेशर नापने का और इन्जेक्शन देने का ड्रामा करता है । डैडी को एक उपदेश देता है और डैडी को रत्ना की परिचर्या के लिए उसके सिरहाने बिठा कर चलता बनता है । डैडी बेचारे सचमुच घबरा जाते हैं और अनिच्छा से ही सही, पत्नी का चित्त प्रसन्न करने के लिए जमीन आसमान एक कर देते हैं ।
इसके अतिरिक्त एक व्यक्ति और था जो भण्डारी के घर-बार का माननीय सदस्य था । वह था हरीश ! हरीश लगभग तीस वर्ष का लोमड़ी सा चालाक लगने वाला युवक था । सुनील से उसका परिचय रत्ना के मामा के लड़के रूप में कराया गया था । वह स्वयं को बहुत बड़ा बिजनेस एजेण्ट बताता था लेकिन वह क्या बिजनेस करता है, कोई नहीं जानता था । पूछे जाने पर वह ऐसा गोल-मोल उत्तर देता था कि लोग दुबारा सवाल भी नहीं पूछते थे और किसी की समझ में भी कुछ नहीं आता था । महीने में पच्चीस दिन वह भण्डारी की कोठी में रहता था । रत्ना को वह बहुत प्यारा था और वह इस बात का पूरा ख्याल रखती थी कि कोठी मैं उसे उचित आदर और सम्मान की प्राप्ति हो । लेकिन भण्डारी और आरती तो क्या नौकर-चाकर भी उसे अच्छी नजरों से नहीं देखते थे ।
“हरीश के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है ?” - एक बार सुनील ने आरती से पूछा था ।
“बेहद धूर्त आदमी है ।”
“रत्ना के मामा का लड़का है वह ।” - सुनील यूं बोला जैसे वह कोई शाश्वत सत्य दोहरा रहा हो ।
“मामा का लड़का, माई फुट ।” - आरती ने मुंह बिचकाकर उत्र दिया था - “ऐसे मामलों में रत्ना डैडी को बेवकूफ बना सकती है, मुझे नहीं ।”
“तुम्हारा मतलब है कि हरीश रत्ना का रिश्तेदार नहीं है ।”
“कहां की रिश्तेदारी । सम्बन्धित व्यक्ति मेरे डैडी हैं इसलिए मैं कोई बात कहती नहीं हूं वरना...”
“भण्डारी साहब भी हरीश और रत्ना के सम्बन्धों पर सन्देह करते हैं क्या ?”
“भगवान जाने । अगर डैडी सन्देह करते भी हों तो वे उसे व्यक्त तो कर नहीं सकते । अगर डैडी ने रत्ना पर इस प्रकार का कोई इलजाम लगाया तो जानते हो क्या होगा ? एकदम रत्ना का ब्लड-प्रेशर बढ जाएगा और वह हाथ-पांव पटकने लगेगी । डाक्टर अपनी ब्लड-प्रेशर की ट्यूब और इन्जेक्शन लिए लिए भागा चला आएगा । वही पुराना ड्रामा एक बार फिर दोहराया जाएगा और डैडी के छक्के छूट जायेंगे ।”
“तुम यह बातें भण्डारी साहब को बताती क्यों नहीं हो ?”
“उससे क्या होगा ?”
“तस्वीर का सही रुख उनके सामने आ जाएगा ।”
“फिर क्या होगा ?”
“भण्डारी साहब उस पर दुश्चरित्रता का इल्जाम लगा कर तलाक ले सकते हैं ।”
“नहीं ले सकते । वे सिद्ध तो कुछ भी नहीं कर सकते उल्टा रत्ना उन पर इल्जाम लगा देगी कि डैडी उसे मानसिक यन्त्रणा दे रहे हैं । रत्ना का डाक्टर इस बात की पुष्टि करेगा कि डैडी ने जानबूझ कर बार-बार ऐसे कार्य किए हैं जिनसे रत्ना का ब्लड प्रेशर बढ जाता है जो कभी भी उसकी मृत्यु का कारण बन सकता है । डैडी जानकर उसे कचोटते रहे हैं उसे ऐसी चोटें पहुंचाते रहे हैं जिनका उसके दिल और दिमाग पर और उसके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा है । नतीजा यह होगा कि लोग डैडी को ही झूठा कहेंगे और अगर तलाक भी हो गया तो उसका जिम्मेदार डैडी को ही ठहराया जाएगा न कि रत्ना को । रत्ना तो एक असहाय देवी कहलाएगी जो दुर्भाग्य से डैडी जैसे वृद्ध के चंगुल में फंस गई थी । अगर डैडी की गलती सिद्ध होने पर तलाक हुआ तो फिर प्रापर्टी सैटलमेंट होगा और डैडी की सम्पत्ति का आधा भाग सहज ही रत्ना को मिल जाएगा । आप नहीं जानते सुनील साहब रत्ना ने ग्राउण्ड ही ऐसी तैयार की है कि डैडी उससे जब भी भिड़ेंगे चारों खाने चित्त गिर जाएंगे । डैडी के पास इसके सिवाय कोई चारा नहीं है कि जो हो रहा है उसे वे आंखें बन्द करके देखते रहें । यह आग उन्हीं की लगाई हुई है वही भुगतेंगे भी । सैंतालीस साल की उम्र में पच्चीस साल की लड़की से शादी करने वाले को अगर अपनी पत्नी से ऐसा व्यवहार मिलता है तो इसमें हैरानी वाली कौन सी बात है ?”
बात सच थी । आरती जरूरत से ज्यादा समझदार थी ।
***
सातवें दिन शाम को सुनील को आरती का व्यवहार कुछ सन्देहास्पद लगा । वह बेहद चिन्तित दिखाई दे रही थी ।
सुनील सतर्क हो उठा ।
लगभग आठ बजे आरती ने सबके साथ डिनर लिया और फिर तबियत खराब होने का बहाना करके अपने कमरे में चली गई ।
डिनर के बाद लगभग आधा घण्टा सुनील हरीश के साथ रम्मी खेलता रहा ।
लगभग पचास रुपये हार चुकने के बाद सुनील उठ खड़ा हुआ । रम्मी में उसके हारने का बड़ा कारण यह था कि उसका ध्यान आरती की ओर लगा हुआ था ।
सुनील उठ कर बाहर कोठी के लॉन में आ गया ।
आरती का कमरा ग्राउण्ड फ्लोर पर ही था । लॉन की ओर पड़ने वाली उसकी खिड़की पर पर्दे पड़े हुए थे लेकिन फिर भी भीतर प्रकाश होने का आभास मिल रहा था ।
सुनील ने लक्की स्ट्राइक का एक सिगरेट सुलगाया और लॉन में चक्कर काटने लगा ।
आरती के कमरे की बत्ती अभी भी जल रही थी ।
लगभग पन्द्रह मिनट गुजर गए ।
सुनील ने दूसरा सिगरेट सुलगा लिया ।
लगभग बीस मिनट और गुजर गए ।
उसने एक सिगरेट और सुलगा लिया ।
उसी समय आरती के कमरे की बत्ती बुझ गयी ।
सुनील रिराश हो उठा । आरती तो सोने जा रही थी ।
सुनील ने भी अपने कमरे की ओर कदम बढाये लेकिन फिर कुछ सोच कर रुक गया ।
यह सिगरेट तो पूरी पीकर ही जाऊंगा । - वह मन ही मन बुदबुदाया ।
अभी उसने सिगरेट के चार-पांच कश ही लगाये थे कि आरती के कमरे की खिड़की खुली और उसमें उसे आरती का साया सा दिखाई दिया ।
सुनील झपट कर पेड़ के पीछे हो गया । उसने सिगरेट को पेड़ के तने के साथ रगड़कर बुझाया और घास पर फेंक दिया ।
आरती ने एक बार बड़े सतर्क नेत्रों से बाहर लॉन में झांका और फिर खिड़की की सिल पर चढकर लॉन में कूद गई । चप्पलें उसके हाथ में थीं ।
सुनील बड़ी सतर्कता से उसकी एक-एक गतिविधि को नोट करता रहा ।
आरती दबे पांव लौटी तो चारदीवारी की ओर बढी और फिर दीवार फांद कर बाहर सड़की की ओर कूद गई ।
सुनील लपक कर चारदीवारी के पास पहुंच गया ।
आरती ने चप्पलें पहन ली थीं और सड़क पर चली जा रही थी ।
वह भी दीवार फांद कर सड़क पर आ गया ।
सड़क सुनसान पड़ी थी । कोर्ई इक्का-दुक्का राहगीर ही वहां दिखाई दे रहा था । कभी कभार कोई मोटर व्हीकल वहां से गुजर जाता था । आरती रह रह कर पीछे देख लेती थी ।
सुनील स्वयं को उसकी दृष्टि से बचाये रखने में भारी कठिनाई का अनुभव कर रहा था ।
कुछ ही दूर शंकरदास रोड का टैक्सी स्टैण्ड था ।
आरती वहां पहुंच कर एक टैक्सी में बैठ गई । अगले ही क्षण वह टैक्सी पार्किंग में से निकल कर सड़क पर आ गई ।
सुनील स्टैंड की ओर भागा ।
उसने स्टैण्ड पर पहुंच कर झपट कर एक टैक्सी का पिछला द्वार खोला और उसमें बैठता हुआ बोला - “जल्दी करो, ड्राइवर साहब ।”
“जल्दी क्या है, बाऊजी ?” - ड्राइवर आराम से टैक्सी का द्वार खोल कर ड्राईविंग सीट पर बैठता हुआ बोला - वह सरदार था ।
“ओफ्फोह, जल्दी करो महाराज ।” - सुनील झुंझलाकर बोला - “और उस टैक्सी का पीछा करो जो अभी अभी यहां से गई है ।”
“जिसमें एक बीबी जी बैठी थीं ?” - ड्राइवर गाड़ी स्टार्ट करता हुआ बोला ।
“हां ।”
ड्राइवर ने इग्नीशन बन्द कर दिया और सुनील की ओर घूम कर बोला - “किस्सा की है बाऊ साब !”
सुनील को ताव तो बहुत आया । लेकिन ताव दिखाने का समय नहीं था ।
“सरदार साहब ।” - वह विनयपूर्ण स्वर में बोला - “वह मेरी बीवी थी ।”
“कौन ? वह जो पहली टैक्सी विच गई है ?”
“हां ।”
“और तुसी अपनी बीवी दा पिच्छा कर रहे हो ?”
“हां ।”
सरदार संदिग्ध नेत्रों से उसे घूरने लगा ।
“सरदार जी, अगर मेरी जगह आप होते और आपकी बीवी रात को छुप कर किसी यार से मिलने जा रही होती तो आप क्या करते ?” - सुनील बोला ।
सरदार के चेहरे से संदेह के भाव मिट गए ।
“ऐ गल्ल ए ।” - वह सहानुभूति पूर्ण स्वर में बोला ।
“जी हां ए गल्ल ए ।”
“ते फेर अभी लो ।” - उसने फुर्ती से गाड़ी स्टार्ट की और उसे गहरा मोड़ देकर सड़क पर ले आया ।
“अब क्या लो ?” - सुनील उखड़ कर बोला - “अब क्या वह हाथ आएगी आपके ? महीना तो गाड़ी स्टार्ट करने में लगा दिया आपने ।”
“ओ जायेगी कित्थे, प्यारयो ।” - सरदार एक्सीलेटर पर पांव का दबाव बढाता हुआ बोला - “जिधर तुवाडी बीवी वाली टैक्सी गई है, उधर इक मील तक ते शंकरदास रोड मोड़ भी नहीं खांदा है । फेर अगर ओ टैक्सी मेरे हत्थ न वी आई तो भी तूवाडा कम्म तो ही जायेगा ।”
“वह कैसे ?”
“ओ टैक्सी अपने यार कालू की थी । कल जदों ओ अड्डे पर आयेगा तो मैं उससे पुच्छ दूंगा कि उसने बीबी जी को कित्थे उतारा था ।”
सुनील को तनिक संतोष हुआ ।
“लेकिन काले तों पुच्छन दी जरूरत ही नहीं पड़ेगी; बाऊजी महाराज ।” - एकदम सरदार बोला - “ओ कालू की टैक्सी, छब्बी बयालीस । ओ जो ट्रैफिक सिग्नल पर खलोती है ।”
सुनील ने शान्ति की गहन निश्वास ली ।
उसी समय बत्ती हरी हो गई ।
अगली टैक्सी आगे बढ गई ।
“सरदार जी ।” - सुनील अनुनयपूर्ण स्वर से बोला - “उसे मालूम नहीं होना चाहिए कि उसका पीछा हो रहा है ।”
“फिकर न करो, मोतियां वालयो ।” - सरदार लापरवाही से बोला ।
सुनील चुप रहा ।
“बाऊ साब ।” - ड्राइवर बोला - “ऐ सब बड़े लोगों की ही गल्लां हैं । आप लोगों की औरतां आपके हत्थ के नीचे नहीं रहतीं । हमारी जनानी ऐसे अपने यार दे कोल चली तां जाए, यार दी वी ते नाल अपनी जनानी दी वी दोनां दी गर्दन न उड़ा दइए तां नां प्रीतमसिंह नहीं ।”
“लेकिन मुझे बड़ा लोग कैसे समझ लिया आपने ?”
“बड़े तो होवोगे ही बाऊ जी । शंकर रोड ते तां सब बड़े लोग ही रहंदे हैं ।”
उसी समय अगली टैक्सी रुक गई ।
सुनील ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा और फिर बोला - “यह तो लिंक रोड है न ?”
“आहो, बाऊ जी ।” - सरदार बोला ।
सुनील दे देखा, आरती टैक्सी में से बाहर निकली । उसने ड्राइवर के हाथ में एक नोट थमाया और पर्स झुलाती हुई आगे को चल दी ।
सुनील टैक्सी में ही बैठा उसे देखता रहा ।
लगभग पचास कदम चलने के बाद वह एक विशाल आठ मंजिली इमारत में घुस गई । उस इमारत पर लगा रहे रंग का नियोन साइन वहीं से पढा जा रहा था । लिखा था - “होटल इम्पीरियल ।”
“मुझे उस होटल के सामने उतार देना सरदारजी ।” - सुनील होटल की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
“बहुत अच्छा जी ।” - सरदार ने फिर गाड़ी स्टार्ट की और उसे होटल की लाबी में ला खड़ा किया ।
सुनील ने पांच का नोट उसके हाथ में थमाया और बाहर निकलता हुआ बोला - “बहुत बहुत मेहरबानी सरदार जी ।”
“मेहरबानी कैसी बदशाहओ ।” - सरदार प्रसन्न स्वर में बोला - “कोई मुफ्त थोड़े ही लाया हूं आपको ।”
सुनील भी हंस पड़ा ।
“बाऊ जी, गल सुनो ।” - सरदार एकाएक बोला ।
सुनील ठिठक गया । उसने प्रश्नसूचक दृष्टि से सरदार की ओर देखा ।
“बाऊ जी ।­” - वह धीमे स्वर में बोला - “अगर यहां अपनी बीवी नूं उसके यार दे नाल पकड़ लो ना, तो यहां तमाशा न खड़ा करना । तुवाडी ही बेस्ती (बेइज्जती) होगी उसमें । अपनी जनानी नूं ऐत्थों चुपचाप घर ले जाना । घर ले जाकर उस नूं खूब जूतियां मारना ते फिर.. ते फेर उसे माफ कर देना । वाह गुरू अकल देगा उसे । अच्छा ।”
“अच्छा ।” - सुनील तनिक भावुक स्वर से बोला । उसे अब सरदार से झूठ बोलने का अफसोस होने लगा था ।
सुनील होटल के मेन हाल में गया ।
वहां आरती नहीं थी ।
वह वापिस होटल के मुख्य द्वार पर आ गया ।
रिसेप्शन काउन्टर उस समय खाली पड़ा था । काउंटर लगभग दस फुट लम्बा था । उसके विपरीत सिरों पर दो क्लर्क काउंटर पर कोहनियां टिकाये खड़े थे । एक युवक था, दूसरी युवती थी । सुनील ने एक भरपूर दृष्टि युवक की ओर डाली और फिर सिर को एक झटका देकर युवती की ओर बढ गया ।
“यस प्लीज ?” - युवती चेहरे पर एक व्यवसायिक मुस्कराहट लाकर बोली ।
सुनील एकदम उसके सामने जा खड़ा हुआ और फिर धीमे किन्तु स्थिर स्वर से बोला - “मेरा नाम लक्ष्मी नारायण है ।”
“यस !”
“मेरे चाहने वाले मुझे नकद नारायण भी कहते हैं ।”
“बड़ी अच्छी बात है । फरमाइये ।”
“मैं भारत सरकार के उस विभाग का प्रतिनिधि हूं जिसका सम्बन्ध धन से है ।”
“तो ?” - युवती बोली । अब उसके होंठ भी मुस्कराहट के ढंग से फैले हुए थे, उसके नेत्रों में मुस्कराहट का स्थान स्वभाव सुलभ सतर्कता ने ले लिया था ।
“मेरा विभाग मेरे माध्यम से कभी-कभी उन लोगों को थोड़ा बहुत धन भेंट स्वरूप पहुंचाता रहता है, जिनकी कमाई पर्याप्त नहीं है ।”
“फिर ?”
“ऐसे लोगों के चुनाव का हक मुझे प्राप्त है ।”
“आप यह सब मुझे क्यों बता रहे हैं ?” - युवती उकता कर बोली ।
“इस बार मैंने धन के लिये तुम्हारा चुनाव किया है ।” - सुनील धीरे से बोला ।
“क्या मतलब ?” - युवती चौंक पड़ी ।
“यह ।” - सुनील बोला । उसका हाथ अपने कोट की जेब में सरक गया और जहब बाहर निकला तो उसकी हथेली के साथ चिपका हुआ एक सौ का नोट चमक रहा था - “यह हमारे विभाग का प्रमाण-पत्र है ।”
युवती के नेत्र लालच से चमक उठे ।
“इस प्रमाण-पत्र के बदले में आपका विभाग मुझ से क्या चाहेगा ?” - उसने पूछा ।
“एक बेहद मामूली सी जानकारी जिसे जाहिर करने में तुम्हें जरा भी एतराज नहीं होगा ।”
“क्या ?”
“अभी पांच मिनट पहले जो लड़की होटल में आई थी वह कौन से कमरे में गई है ?”
युवती संदिग्ध हो उठी ।
“यह प्रमाणपत्र तुम्हें मिलेगा या नहीं यह इस प्रश्न के उत्तर पर निर्भर करता है और प्रमाणपत्र केवल सही उत्तर पर दिया जाता है ।”
युवती चुप रही ।
“मुझे आदमी का चुनाव बदल लेने का भी अधिकार है ।” - सुनील बड़े अर्थपूर्ण ढंग से काउन्टर के दूसरे सिरे पर खड़े युवक क्लर्क की ओर दृष्टिपात करता हुआ बोला ।
युवती ने एक बार उस युवक की ओर देखा और फिर बोला - “कोई गड़बड़ वाली बात तो नहीं है ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।” - सुनील एकदम बोला - “यह तो सरकारी काम है ।”
युवक क्लर्क दिलचस्पी भरी निगाहों से उसी ओर देख रहा था ।
“वह लड़की चार सौ बत्तीस नम्बर में गई है ।” - युवती धीरे से बोली ।
“कौन रहता है उस कमरे में ?”
“रोशनलाल नाम का एक व्यक्ति है ।”
“क्या वह लड़की पहले भी कभी चार सौ बत्तीस में रोशनलाल से मिलने आई है ?”
“हां, पहले दो बार मैंने इसे चार सौ बत्तीस में जाते देखा है । सम्भव है वह इससे अधिक बार आई हो लेकिन काउंटर पर मेरी ड्यूटी न हो ।”
“सच कह रही हो न ?”
“शत-प्रतिशत ।” - युवती ललचाये नेत्रों से नोट की ओर देखती हुई बोली ।
“सोच लो । झूठ साबित होने पर सरकार नाराज भी हो सकती है ।”
“मैं सच ही कह रही हूं ।”
“चौथी मंजिल पर कोई कमरा खाली है ?”
“है, चार सौ आठ ।”
“और कोई ?”
“चार सौ तेंतीस लेकिन उसके साथ बाथरूम नहीं है ।”
“क्यों ?”
“चार सौ बत्तीस और चार सौ तेंतीस के बीच में दोनों कमरों को मिलाने वाला एक द्वार है । चार सौ बत्तीस में बाथरूम है । साधारणतया हम यह दोनों कमरे एक ही को देते हैं लेकिन अगर बाथरूम वाला कमरा अर्थात चार सौ बत्तीस भरा हुआ हो तो हम दूसरा कमरा अर्थात चार सौ तेंतीस केवल उसी आदमी को देते हैं जो केवल कुछ घन्टों के लिये ठहरा हो ।”
“यह कमरा तुम मुझे दे दो । क्या किराया है इसका ?”
“बीस रुपये ।”
सुनील ने सौ के नोट के साथ दस-दस के दो और नोट मिला कर उसे सौंप दिये ।
“नाम क्या लिखूं ?”
“बताया तो था ।”
“लक्ष्मी नारायण ?”
“हां ।”
युवती ने काउंटर के पीछे की दीवार पर लगे विशाल की बोर्ड पर से चार सौ तेंतीस नम्बर की चाबी निकाली और मेज पर रखी और एक घण्टी पर हाथ मार दिया ।
एक बैल ब्वाय सामने आ खड़ा हुआ ।
“साहब को चार सौ तेंतीस में ले जाओ ।” - वह चाबी बैल ब्वाय को देती हुई बोली ।
“सामान ?” - बैल ब्वाय बोला ।
“सामान नहीं है । वह स्टेशन के क्लाकरूम में रखा है । मेरी ट्रेन निकल गई थी दूसरी लगभग चार घण्टे बाद जाती है । उससे पहले ही मैं यहां से चला जाऊंगा ।”
बैल ब्वाय बिना कुछ बोले लिफ्ट की ओर चल दिया ।
“जिसने तुम्हें चाबी दी थी उस लड़की का नाम क्या है ?” - सुनील ने बैल ब्वाय से पूछा ।
बैल ब्वाय विचित्र नेत्रों से उसे घूरने लगा ।
सुनील ने एक रुपए का एक नोट निकालकर उसकी मुट्ठी में ठूंसा और फिर बड़े कुत्सित ढंग से मुस्कराकर उसे आंख मार दी ।
“नाम तो उसका सरिता है साहब ।” - बैल ब्वाय बोला - “लेकिन इन तिलों में तेल नहीं है ।”
“तुम देखना तो सही प्यारे लाल ।” - सुनील बोला ।
दोनों लिफ्ट में घुस गए ।
बैल ब्वाय उसे चार सौ तैंतीस में छोड़ गया । सुनील ने जेब से दस्ताने निकाले और अपने दोनों हाथों पर चढा लिए ।
पांच मिनट बाद सुनील अपने कमरे से बाहर निकल गया ।
गलियारा खाली पड़ा था । उसने चार सौ बत्तीस के सामने आकर बड़ी सावधानी से द्वार को धकेला । द्वार भीतर से बन्द था ।
वह वापिस अपने कमरे में आ गया ।
कमरे के एक कोने में कार्ड बोर्ड की एक तख्ती रखी थी जिस पर लिखा था - प्लीज डोंट डिस्टर्ब ।
सुनील ने वह तख्ती उठाकर अपने कमरे के द्वार के बाहर टांग दी और फिर द्वार भीतर से बन्द कर लिया ।
उसने अपने कमरे की बत्ती बुझा दी और फिर उस कमरे को चार सौ बत्तीस से मिलाने वाले द्वार के पास पहुंच गया ।
उसने अपनी जेब से एक छोटा-सा चाकू निकाला और द्वार के पल्ले के एक कोने में छोटा-सा छेद करना आरम्भ कर दिया ।
द्वार का पल्ला अधिक मोटा नहीं था । लगभग पांच मिनट बाद सुनील ने उसमें चाकू के पतले फल जितना मोटा छेद कर दिया ।
उसने छेद पर आंख लगा दी और दूसरी ओर झांका ।
आरती एक सोफे पर बैठी हुई थी । उसका मुंह सुनील की ओर था । उसके चेहरे पर क्रोध और बेबसी के गहन चिन्ह थे । उसके सामने एक लम्बा-चौड़ा आदमी बैठा था जिसकी पीठ सुनील की ओर थी । उसने काले रंग का एक गाउन पहना हुआ था ।
आरती के होंठ बड़ी तेजी से हिल रहे थे जैसे वह काले गाउन वाले से बहुत कुछ कह रही हो लेकिन काले गाउन वाला चुपचाप सिगरेट के कश लगाए जा रहा था । सुनील को आरती का कहा एक शब्द भी सुनाई नहीं दे रहा था ।
फिर काले गाउन वाले ने अपनी जेब में से एक लिफाफा निकाला और आरती को दे दिया ।
आरती ने उस लिफाफे को अपने पर्स में रख लिया और फिर पर्स में से एक बार मोड़ा हुआ मोटा-सा कागज निकाला और उसे काले गाउन वाले के हाथ मे रख दिया । काले गाउन वाले ने उसे अपने गाउन की दाईं जेब में डाल दिया ।
आरती उठ खड़ी हुई और द्वार की ओर बढ गई ।
काले गाउन वाला भी उसके साथ चल दिया ।
दोनों कमरे से बाहर निकल गये ।
सुनील ने छेद पर से अपनी आंख हटा ली ।
एकाएक उसकी दृष्टि द्वार की मूठ पर पड़ी । नाब उसे कुछ देढी लगी । उसने नाब को पकड़कर थोड़ा-सा घुमाया और फिर द्वार को हल्के-से अपनी ओर खींचा ।
चौखट और पल्ले में एक पतली-सी झिरी पैदा हो गई ।
जिसमें से दूसरे कमरे से प्रकाश की एक पलती-सी लकीर उसके कमरे में पड़ने लगी ।
सुनील हैरान रह गया । द्वार तो शुरू से ही खुला था और वह ख्वाहमख्वाह उसमें छेद करता रहा था ।
पहले तो उसने उसी समय चार सौ बत्तीस में घुस जाने का उपक्रम किया लेकिन फिर उसने अपना इरादा बदल दिया । उसने द्वार को बड़ी सावधानी से बन्द किया । नाब से सम्बन्धित हुक के चौखट के छेद में फंसते ही उसने नाब छोड़ दी । उसने द्वार को अपनी ओर से ताला लगा दिया । उसी समय द्वार की मूठ घूमने लगी ।
कोई दूसरी ओर से मूठ घुमाकर द्वार खोलने की चेष्टा कर रहा था । लेकिन द्वार टस से मस नहीं हुआ ।
एक दो बार के बाद मूठ घूमनी बन्द हो गई । सुनील ने फिर द्वार में किये छेद पर आंख लगाकर दूसरी ओर झांका ।
भीतर कोई नहीं था ।
उसी समय काले गाउन वाला कमरे में वापिस आ गया । उसने द्वार को भीतर से बन्द कर लिया ।
सुनील अपने कमरे में से बाहर निकल आया ।
उसने जाकर चार सौ बत्तीस का द्वार खटखटा दिया ।
“कौन है ?” - भीरत से आवाज आई ।
“मैनेजर ।” - सुनील बोला ।
कुछ क्षण शांति रही, फिर द्वार खुल गया ।
सुनील भीतर घुस गया ।
काले गाउन वाला सन्देह भरी आंखों से उसे घूरता रहा और फिर बोला - “तुम मैनेजर हो ?”
“तुम्हें शक है ?”
“तुम मैनेजर नहीं हो ।” - वह बोला - “मैं यहां कल नहीं आया हूं । मैं मैनेजर को पहचानता हूं । तुम मैनेजर नहीं हो ।”
“तो फिर मैं कौन हूं ?” - सुनील भोले स्वर में बोला ।
“वह तो तुम बताओगे ।”
“मैं मैनेजर ही हूं मिस्टर रोशनलाल ।” - सुनील गभ्भीर हो कर बोला - “जिस मैनेजर को तुम जानते हो वह छुट्टी पर गया हुआ है । पिछले दो दिनों से मैं उसकी जगह ड्यूटी दे रहा हूं ।”
काले गाउन वाले की आंखों में से कठोरता किसी हद तक गायब हो गई ।
“क्या बात है ?” - उसने किंचित नम्र स्वर से पूछा ।
“मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बताने आया हूं ।”
“क्या ?” - वह सशंक स्वर में बोला ।
“उमर खैयाम का नाम सुना है ?”
“मैं शराब नहीं पीता ।”
“उमर खैयाम किसी शराब का नाम नहीं ।”
“फिर ?”
“एक बहुत बड़े आदमी का नाम है ।”
“आदमी हो या गधा मुझे क्या लेना है उससे । मतलब की बात कहो तुम ।”
“महान उमर खैयाम ने कहा है कि जिस तरह एक देश की सुरक्षा के लिए एक अच्छे नेता की जरूरत होती है उसी तरह एक होटल की सुरक्षा के लिए एक अच्छे मैनेजर की जरूरत होती है । एक नालायक नेता के हाथ से तो देश शायद बच भी जाए लेकिन एक नालायक मैनेजर के हाथों होटल का बेड़ा गर्क हुए बिना नहीं रहता है ।”
“क्या बक रहे हो ?”
“मैं एक अच्छा मैनेजर हूं और बकौल उमर खैयाम एक अच्छे मैनेजर का यह भी एक गुण होता है कि वह अपने होटल में अपराध नहीं होने देता ।”
“क्या मतलब ?” - वह एकदम चौंक पड़ा ।
“तुम्हारी दाईं जेब में जो बीस हजार रुपए का चैक है, वह तुमने ब्लैकमेल से हासिल किया है । उसे तुम केवल अपनी ब्लैकमेलिंग की योग्यता के सर्टिफिकेट की तरह अपने पास रख छोड़ो । अगर उसे कैश कराने की कोशिश की तो यहां से एक ऐसे होटल में ट्रांसफर कर दिए जाओगे, जहां बोर्डिंग लाजिंग फ्री होती है ।” - सुनील ने अन्धेरे में तीर छोड़ा ।
वह खा जाने वाले नेत्रों से सुनील को देखता रहा ।
“तुम्हें चैक के बारे में कैसे मालूम है ?”
“मुझे इस चैक के बारे में ही नहीं, इससे पहले के दो चैक के बारे में भी मालूम है जिसका चालीस हजार रुपया तुम हजम कर चुके हो और मैं तुम्हारे डाक्टर जे पी कश्यप को भी जानता हूं । मैं यह भी जानता हूं...”
सुनील रुक गया । काले गाउन वाले के हाथ में एक रिवाल्वर चमक रहा था ।
“इतना कुछ जानने के बाद तुम जिन्दा नहीं नहीं रह सकते ।” - वह कठोर स्वर में बोला ।
“यह वहम है तुम्हें, प्यारेलाल ।” - सुनील शांति से बोला - “यह एक भरा पूरा होटल है, किसी फिल्म का सैट नहीं है । यहां गोली चलाने का मतलब जानते हो ?”
वह चुप रहा ।
“यहां से सीधे फांसी के फंदे में ही पहुंचोगे । गर्दन यह लम्बी हो जाएगी ।” - सुनील ने कंधे तक अपनी बांह फैलाई ।
वह कुछ क्षण सोचता रहा । फिर उसने रिवाल्वार जेब में रख लिया और एकदम सुनील के सामने आ खड़ा हुआ ।
“आऊट ।” - वह बोला ।
“फौरन आऊट हो जाऊंगा !” - सुनील ने कहा - “मेरा तो काम ही होटल में ठहरे मेहमानों की आज्ञा का पालन करना है । तुम मुझे चौथी मंजिल से नीचे कूद जाने को कहते तो मैं वह भी मान जाता । बस जरा...”
“जरा क्या ?”
“यह चैक मेरे हवाले कर दो क्योंकि उमर खैयाम ने कहा है कि मुसाफिरों को अपना कीमती सामान या तो होटल के लाकर में रख देना चाहिए या फिर होटल के मैनेजर को सौंप देना चाहिए ।”
उसने सुनील के कोट का कालर पकड़ लिया और उसे बलपूर्वक द्वार की ओर धकेलने लगा ।
“भाई साहब ।” - सुनील विनयपूर्ण स्वर में बोला - “उमर खैयाम ने कहा है...”
“ऐसी की तैसी उमर खैयाम की और साथ में तुम्हारी भी ।” - वह उसे द्वार की ओर धकेलता हुआ बोला ।
द्वार के समीप पहुंचते ही सुनील ने अपने दाएं हाथ का एक भरपूर घूंसा उसके पेट में दिया । वह दर्द से बिलबिला उठा । सुनील के कालर से उसकी पकड़ छुट गई ।
“वह चैक मुझे दे दो, प्यारेलाल !” - सुनील बोला ।
अगले ही क्षण सुनील की आंखों के आगे सितारे नाच गए । उसके जबड़े पर पड़ा घूंसा बेहद वजनी था । अभी वह संभल भी नहीं पाया था कि उतना ही वजनी एक घूंसा लोहे के लट्ठ की तरह उसकी छाती से टतकाया और सुनील खले द्वार में से बाहर गलियारे में आ गिरा । काले गाऊन वाला आंखों में खून लिए फिर सुनील की ओर बढ़ा ।
काले गाऊन वाला तो शायद कोई ट्रेंड बाक्सर था । उसका सामना करना सुनील के बस की बात नहीं थी ।
“गलती हो गई, मेरे बाप ।” - वह उसे अपनी ओर आता देखकर बोला - “मुझे तो साले उमर खैयाम ने बहका दिया था । वह कहता था कि होटल में मैनेजर सबसे बड़ा होता है चाहे होटल में कोई बाक्सर ठहरा हो चाहे सरदार पटेल ।”
काले गाऊन वाला रुक गया ।
“दफा हो जाओ फिर ।” - वह बोला ।
सुनील जबड़ा सहलाता हुआ उठा और गलियारे के कमरे से विपरीत दिशा में चल दिया ।
काले गाऊन वाला हाथ झाड़ता हुआ अपने कमरे में वापिस घुस गया और उसने भड़ाक से कमरे का द्वार बन्द कर लिया । गलियारे में आगे जाकर एक मोड़ था और उसके सिरे पर सीढियां दिखाई दे रही थीं । सीढियां चार सौ बत्तीस नम्बर कमरे के समीप लिफ्ट की बगल में भी थीं लेकिन सुनील ने वापिस जाना उचित नहीं समझा ।
अभी वह मोड़ काटकर कुछ ही कदम आगे बढा था कि उसे फायर होने की आवाज सुनीई दी ।
एक साथ तीन फायर हुए । अगले ही क्षण गलियारे की विपरीत दिशा में किसी के भागते हुए कदमों का स्वर सुनाई दिया ।
सुनील एकदम वापिस लपका ।
मोड़ घूमते ही उसकी सतर्क निगाह गलियारे में घूम गई । गलियारा खाली पड़ा था ।
चार सौ बत्तीस नम्बर का द्वार खुला हुआ था और उसमें से निकलता हुआ प्रकाश सामने की दीवार पर पड़ रहा था । लिफ्ट चौथी मंजिल पर खड़ी थी ।
जिन भागते हुए कदमों की उसे आवाज सुनीई दी थी, वे शायद सीढियों की ओर गए थे ।
सुनील झपट कर चार सौ बत्तीस में घुस गया । रक्त के तालाब में डूबा काले गाऊन वाले का मृत शरीर फर्श पर पड़ा था । उसकी टांगें घुटनों तक बाथरूम में थीं और बाकी शरीर बाहर कमरे में था । उसके दाएं हाथ में रिवाल्वर था लेकिन उंगली ट्रेगर पर नहीं थी । लगता था कि जैसे वह अपना रिवाल्वर निकाल भी नहीं पाया था कि किसी ने उसे शूट कर दिया था ।
सुनील ने उसके गाऊन की दाईं जेब में हाथ डाला और वह कागज निकाल लिया जो कुछ समय पहले उसने आरती को उसे देते देखा था । वह वास्तव में ही बीस हजार रुपए का चैक था ।
सुनील ने चैक अपनी जेब में रख लिया । उसने कमरे की बत्ती बुझा दी और झपटता हुआ कमरे से बाहर निकल आया ।
गलियारे मे मोड़ के पास एक कमरे के सामने एक वृद्ध औरत खड़ी थी ।
“आपने अभी गोली चलने की आवाज सुनी थी ?” - सुनील ने ऊंचे स्वर से पूछा ।
“हां ।” - वह बोली ।
“मेरे ख्याल से वह आवाज चार सौ तैतीस में से आई थी । मैं देखता हूं ।”
वृद्धा वही खड़ी रही ।
सुनील लम्बे डर भरता हुआ चार सौ तैतींस के सामने पहुंचा ।
“यहां तो ‘डोंट डिस्टर्ब’ की तख्ती लगी हुई है । मैं नीचे जाकर मैनेजर को सूचना देता हूं ।”
सुनील झपट कर लिफ्ट में घुस गया । उसने दूसरी मंजिल का बटन दबा दिया । उसने हाथों के दस्ताने उतारकर जेब में रख लिए ।
जब सुनील बैल ब्वाय के साथ ऊपर आया था उस समय लिफ्ट में आपरेटर था लेकिन अब आपरेटर नहीं था । सुनील ने घड़ी देखी, सवा दस बजे थे । शायद आपरेटर लिफ्ट-में दस बजे तक ही होता हो । उसने सोचा ।
दूसरी मंजिल पर वह लिफ्ट से निकल गया और फिर सीढियों के रास्ते ग्राउंड फ्लोर तक पहुंच गया ।
रिसेप्शन काउंटर पर से युवती जिसका नाम बैल ब्वाय ने सरिता बताया था । गायब थी । युवक क्लर्क वहां बैठा कोई पत्रिका पढ रहा था । उसने एक बार भी सिर नहीं उठाया ।
सुनील होटल से बाहर निकल आया ।
उसने होटल के सामने स्थित टैक्सी स्टैण्ड से टैक्सी लेने की चेष्टा नहीं की । वह पैदल ही एक ओर चल दिया ।
लगभग दो फर्लांग चलने पर उसे एक खाली टैक्सी मिल गई ।
सुनील ने घड़ी देखी - साढे दस बजे थे ।
आरती के कमरे मे अन्धकार था ।
कोठी का मुख्य द्वार नौकर ने खोला ।
सुनील अपने कमरे में आ गया । उसका कमरा कोठी की पहली मंजिल पर था । उसने कपड़े उतार कर स्लीपिंग सूट पहन लिया ।
लगभग पन्द्रह मिनट वह अपने कमरे में बैठा रहा । फिर वह चुपचाप नीचे उतरा और आरती के कमरे के सामने पहुंच गया ।
उसने दरवाजा खटखटाया ।
तीसरी बार द्वार खटखटाने पर आरती ने द्वार खोल दिया ।
“क्या बात हो गई ?” - आरती ने झुंझलाए स्वर से पूछा ।
सुनील ने देखा, आरती ने कपड़े बदल लिए थे । वह यूं आंखे मिचमिचा रही थी जैसे गहरी नींद से जागी हो लेकिन वास्तव में उसकी आंखों में नींद का नामोनिशान भी नहीं था । उसने अनायास ही दो तीन झूठी जम्माइयां ले डालीं ।
“मुझे भीतर आने दो ।” - सुनील गम्भीरता से बोला ।
“बात क्या है ?”
“बात ही बताने के लिए आया हूं । तुम रास्ता तो छोड़ो ।”
आरती बड़े असमंजसपूर्ण भाव से एक ओर हट गई ।
सुनील ने भीतर आकर द्वार बन्द कर लिया ।
आरती हड़बड़ा गई ।
“आज शाम को तुम्हारी तबियत बहुत खराब थी । डिनर के फौरन बाद ही तुम अपने बैडरूम में आकर सो गई थीं ।”
“बस यह बताने के लिए मुझे इतनी रात को डिस्टर्ब किया है ?”
“हां । और यही बात मैं एक बार फिर दोहरा रहा हूं । डिनर के बाद तुम क क्षण के लिए भी कोठी से बाहर नहीं गई हो ।”
“कमाल के आदमी हो । आखिर...”
“तुम पहली लड़की नहीं हो जिसने मुझे कमाल का आदमी बताया है ।” - सुनील भावहीन स्वर में बोला ।
“अच्छा चलो ! मैंने मान ली तुम्हारी बात । अब तुम चाहते क्या हो ?”
सुनील ने अपनी जेब से वह चैक निकाला जो आरती ने काले गाऊन वाले को दिया था और बाद में सुनील ने उसकी जेब में से निकाल लिया था ।
“तुम लखपति बाप की लखपित बेटी हो । इस चैक का अपनी चैक बुक में रिकार्ड रखना तुम्हें शोभा नहीं देता । इसलिए तुम भी इस चैक की काउन्टरफाईल का वही हाल करना जो मैं इस चैक का कर रहा हूं ।”
आरती का चेहरा राख की तरह सफेद पड़ गया था ।
सुनील ने जेब से सिगरेट लाइटर निकाला और उसकी जलती हुई लौ चैक को छुआ दी ।
क्षण भर में ही चैक जलकर राख हो गया ।
आरती हक्की-बक्की सी उसका मुंह देखता रही ।
“एक बात तुम्हें और बतानी है ।” - सुनील द्वार की ओर मुड़ता हुआ बोला - “वह यह कि तुम एक अच्छी एक्ट्रेस नहीं हो । अच्छी-खासी चेतनावस्था में गहरी नींद से जगाए जाने की झुंझलाहट का प्रदर्शन करने के लिए जिस अभिनय क्षमता की आवश्यकता होती है, वह तुम में नहीं है । एक बात फिर याद कर लो । आज रात तुम एक मिनट के लिए भी घर से बाहर नहीं निकली हो गुड नाइट ।”
सुनील ने एक झटके से द्वार खोला और कमरे से बाहर निकल गया ।
आरती के होठ हिले लेकिन मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला ।
बाहर निकलते ही सुनील ठिठक गया ।
हरीश सीढियों की रेलिंग के साथ टेक लगाए संदिग्ध नेत्रों से उसे घूर रहा था ।
“हैलो !” - सुनील स्वर को भरसक सन्तुलित रखने का प्रयास करता हुआ बोला ।
हरीश ने कलाई पर बंधी घड़ी पर दृष्टि डाली और फिर हर्षपूर्ण स्वर से बोला - “ग्यारह बजे हैं ।”
“मुझे मालूम है ।” - सुनील भावरहित स्वर से बोला - “मेरे पास घड़ी है और मेरा आई साईट भी सिक्स बाई सिक्स है ।”
“अभी तुम आरती के कमरे में क्या कर रहे थे ?”
“बताऊं ?”
“मैंनें जानने कि लिए ही सवाल पूछा है ।”
सुनील उसके समीप आकर उसके कान में बोला - “मैं उसे पटाने की कोशिश कर रहा था ।”
“क्या ?” - हरीश एकदम चिहुंककर बोला ।
“हां ।”
“जानते हो क्या बक रहे हो तुम ?” - हरीश क्रोध का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“जानता हूं क्या बक रहा हूं और यह भी जानता हूं किसके बारे मॆं किसके सामने बक रहा हूं । अगर यह बात तुमने घर में किसी को बताने की कोशिश की” - सुनील अपने बाएं हाथ के घूंसे को उसकी नाक से दो इन्च दूर हिलाता हुआ बोला - “तो तुम्हारी खोपड़ी का तरबूज बना दूंगा । अब रास्ता छोड़ो ।”
हरीश एकदम सीढियों से अगल हट गया ।
सुनील दो-दो सीढियों एक साथ फांदता हुआ ऊपर पहुंच गया । उसे पहले दिन से ही हरीश से चिढ थी ।
***
अगले दिन सुबह लगभग सात बजे ।
सुनील अभी सोकर उठा था और बिस्तर में बैठा चाय पी रहा था ।
उसी समय किसी ने द्वार खटखटाया ।
“कम इन ।” - सुनील बोला - “दरवाजा खुला है ।”
आगन्तुक आरती थी, उसके हाथ में अखबार था ।
“गुड मोर्निंग ।” - सुनील बोला ।
“नो !” - आरती बोली - “मोर्निंग इज नाट गुड ।”
“क्या हो गया है ?”
“आज का अखबार देखा है तुमने ?”
“नहीं । अभी तो सोकर उठा हूं ।”
आरती ने अपने हाथ में थामा हुआ अखबार सुनील की ओर उछाल दिया ।
सुनील ने देखा, वह ‘ब्लास्ट’ का विपक्षी अखबार ‘क्रॉनिकल’ था ।
“खबर पहले पृष्ठ पर नीचे दाईं ओर है ।” - आरती भावहीन स्वर में बोली ।
“कौन सी खबर है ?” - सुनील ने जान-बूझ कर भोला बनते हुए प्रश्न किया ।
“ऐसे सवाल मत पूछो जिनके जवाब तुम्हें मालूम है ।”- वह बोली ।
सुनील ने अखबार खोल लिया । हैड लाइन थी- इम्पीरियल होटल में हत्या
होटल में उस समय सनसनी फैल गई जब होटल के मैंनेजर ने चार सौ बत्तीस नम्बर कमरे में ठहरे हुये व्यक्ति को अपने कमरे में मृत पड़ा पाया । होटल रजिस्टर के अनुसार मृत का नाम रोशनलाल था ।
मैनेजर को पिछली रात लगभग सवा दस बजे चौथी मंजिल पर ठहरी हुई एक वृद्ध महिला ने टेलीफोन पर सूचित किया था कि उसने चौथी मंजिल पर गोली चलने की आवाज सुनी है । मैनेजर ऊपर आया और उसने चौथी मंजिल का एक-एक कमरा चैक करना शुरू कर दिया । चार सौ बत्तीस नम्बर कमरे में उसे जो लोमहर्षक दृश्य दिखाई दिया वह उसके होश उड़ा देने के लिये काफी था ।
कमरे में एक व्यक्ति की लाश पड़ी थी और सारा कमरा रक्त से भरा हुआ था ।
फौरन पुलिस को फोन किया गया ।
ज्ञात हुआ है कि हत्या से लगभग पन्द्रह मिनट पहले बड़े आकर्षक व्यक्तित्व वाले एक नवयुवक ने चार सौ तैतीस नम्बर कमरा किराये पर लिया था । उसके कथनानुसार उसका सामान रेलवे स्टेशन के क्लॉक रूम में रखा था और वह केवल अगली गाड़ी आने के बीच के समय को होटल में गुजारने चला आया था । शायद स्टेशन के वेटिंग रूम में सोना उसे पसन्द नहीं था । चार सौ तैतीस में पहुंचते ही उसने कमरे के बाहर डोंट डिस्टर्ब की तख्ती लगा दी और फिर फौरन ही चार सौ तैतीस को बत्तीस के साथ मिलाने वाले कमरे की चौखट में सुराख करना आरम्भ कर दिया । स्मरण रहे चार सौ बत्तीस नम्बर कमरा रोशनलाल का था और उसी में उसकी लाश पाई गई थी । उसने सुराख में से देखा कि रोशनलाल भीतर क्या कर रहा है । फिर उसने बीच का दरवाजा, जो शायद रोशनलाल की ओर से बन्द नहीं था, खोला और रोशनलाल के कमरे में घुस कर उसे शूट कर दिया । रोशनलाल के शरीर में तीन गोलियां लगी पाई गई थीं । रोशनलाल के प्राण फौरन निकल गये । फिर हत्यारा चार सौ तेंतीस में वापिस जाने के स्थान पर चार सौ बत्तीस के द्वार से ही बाहर निकल गया । गलियारे में एक अन्य कमरे में ठहरी वृद्धा द्वारा देखे जाने पर उसने बहाना बनाया कि वह भी आवाज सुन कर कमरे से बाहर निकला है और अब पुलिस को बुलाने जा रहा है ।
किसी ने उसे होटल से निकलते नहीं देखा है ।
होटल की रिसेप्शन क्लर्क सरिता का कथन है कि वह नवयुवक हत्यारा एक बेहद सुन्दर युवती का पीछा करता हुआ होटल में आया था । सम्भव है वह हत्यारा उस युवती का पति या प्रेमी हो और उसका रोशनलाल से इस प्रकार मिलने आना पसन्द न करता हो । क्रोध में अन्धे होकर उसने रोशनलाल को गोली मार दी हो । इसके अतिरिक्त हत्या का कोई दूसरा स्पष्ट उद्देश्य दिखाई नहीं दे रहा है ।
पुलिस रोशनलाल के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त करने की चेष्टा कर रही है । रोशनलाल पहले भी कई बार इम्पीरियल होटल में ठहर चुका है । होटल में कई कर्मचारी उसे पहचानते हैं । लेकिन कोई भी उसके विषय में विशेष जानकारी नहीं रखता है । किसी को यह मालूम नहीं है कि वह कहां का रहने वाला था और उसका धन्धा क्या था ?
पुलिस बड़ी सरगर्मी से केस की छानबीन कर रही है ।
केस से सम्बन्धित चित्रावली देखिये - छठे पृष्ठ पर ।
सुनील ने छठा पृष्ठ देखने का उपक्रम नहीं किया । उसने अखबार को लपेटा और उसे बड़ी लापरवाही से बिस्तर पर रख दिया ।
“बेचारा !” - सुनील जम्हाई लेता हुआ लापरवाही से बोला ।
“कौन ?” - आरती ने पूछा ।
“मरने वाला ।”
“तुम्हें हमदर्दी है उससे ?”
“तुम सुबह सवेरे मुझ से यही पूछने आई हो कि मरने वाले से हमदर्दी है या नहीं ?”
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“मैं तो यह पूछने आई थी कि तुमने ऐसा क्यों किया ?”
“कैसा ?”
“ज्यादा भोले बनने की कोशिश मत करो ।”
“तुम कहना क्या चाहती हो ?” - सुनील उकता कर बोला ।
“रोशनलाल की हत्या तुमने की है ।”
“क्या !” - सुनील के नेत्र फैल गये - “तुम्हारा दिमाग तो ठीक है, मैडम ?”
“जरूर तुम ही ने हत्या की उसकी, वरना वह चैक कैसे मिल गया तुम्हें । तुमने क्यों मारा उसे ? तुमने...”
“शटअप !” - सुनील चिल्लाया ।
आरती एकदम बोलती बोलती रुक गई ।
“मैं तो तुम्हें समझदार लड़की समझता था । तुम तो एकदम मूर्ख निकलीं । भली लड़की, अगर मैंने उसकी हत्या की होती तो वह चैक जो मैंने रात को तुम्हें वापिस लाकर दिया है, मैं रोशनलाल की जेब में ही पड़ा रहने देता ताकि अगले रोज जब लाश मिलती तो लोग तुम पर सन्देह करते ।”
आरती चुप रही ।
“मैं केवल तुम्हारी खातिर कल वह चैक वहां से निकाल कर लाया था । मैंने तुम्हारा नाम एक हत्या के मामले में घसीटा जाने से बचाया है और तुम मुझे ही हत्यारा समझ रही हो ।”
“लेकिन तुमने मेरे पर यह कृपा क्यों की ?”
“यह अभी तुम नहीं समझोगी । फिलहाल यह जान लो कि मैंने जो किया है, तुम्हारे हित के लिये ही किया है ।”
“तुम्हें क्या मालूम मेरा हित या अहित किसमें है । तुम मेरे डैडी के दोस्त के लड़के हो । केवल एक सप्ताह पहले मैंने तुम्हारी सूरत देखी है और एक सप्ताह में तुम मेरे हित की चिन्ता भी करने लगे हो ?”
“हां ।”
“मैं नहीं मानती ।”
“नमूना मैं तुम्हें दे ही चुका हूं वह चैक लाकर ।”
आरती चुप हो गई ।
“आरती, मैं तुम्हारा अभी भी बहुत हित कर सकता हूं और करना चाहता हूं और उसके लिये मैं तुम से बहुत सी बातें जानना चाहता हूं ।”
“लेकिन मैं तुम्हें कुछ बताना नहीं चाहती ।”
“आरती ।” - सुनील तनिक धमकी भरे स्वर में बोला - “यह मत समझो कि रोशनलाल मर गया है तो तुम्हारी सारी मुश्किलें आसान हो गई हैं । रोशनलाल जैसे लोग ग्रुप में काम करते हैं । रोशनलाल तुम्हें ब्लैकमेल कर रहा था । जिस बुनियाद पर रोशनलाल तुमसे रुपया हासिल कर रहा था वह उसके साथियों के हाथ भी लग सकती है ।”
“तुम्हें क्या मालूम कि रोशनलाल मुझे ब्लैकमेल कर रहा था ?”
“यह गलत है ?” - सुनील ने उसे घूरते हुये पूछा ।
“एकदम गलत है ।”
“तो फिर क्या रोशनलाल किसी अनाथाश्रम का मैनेजर था और तुम उसे बीस-बीस हजार रुपये के तीन चैक चन्दे की सूरत में दे आई थीं ?”
“तीन चैक ?” - वह हड़बड़ा कर बोली ।
“हां ।”
“तुम्हें कैसे मालूम, मैंने उसे तीन चैक दिये हैं ?”
“मेरे पास अलादीन का चिराग है ।”
“तो फिर उस अलादीन के चिराग की सहायता से यह भी जान लो कि मैंने रोशनलाल को यह चैक क्यों दिये थे ?”
“मैं जान लूंगा ।” - सुनील आत्मविश्वास भरे स्वर में बोला ।
आरती घबरा गई ।
“देखो आरती ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - “तुम रोशनलाल से उसकी हत्या से पहले मिली थीं । अखबार में इस बात का जिक्र भी है कि हत्या से लगभग पन्द्रह मिनट पहले एक सुन्दर युवती होटल में आई थी । इस तथ्य के पुलिस की जानकारी में आ जाने की पर्याप्त सम्भावना है । सम्भव है रोशनलाल ने कहीं डायरी वगैरह में तुम्हारे विषय में कुछ लिख रखा हो या पुलिस तुम्हारे उन दो चैकों का सुराग पा ले तो वह गोली की तेजी से तुम्हारे पर झपटेंगे । जितना आसानी से तुम मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर देने से टाल सकती हो, उतनी आसानी से पुलिस को नहीं टाल सकोगी । वे सवाल पूछ पूछ कर तुम्हारी नाक में दम कर देंगे । सम्भव है संदेह के आधार पर तुम्हें गिरफ्तार भी कर लें । इसलिये क्या यह अच्छा नहीं है कि मुझे अपना हितचिन्तक समझ कर, अपने परिवार का मित्र समझ कर, सब कुछ बता दो । शायद मैं तुम्हारी कुछ सहायता कर सकूं । आखिर रोशनलाल का तुम्हारे ऊपर क्या होल्ड था ? क्यों तुमने उसे इतना रुपया दे दिया ? देखो आरती, ब्लैकमेलर कभी पीछे नहीं हटते हैं । हर बार वे अपने शिकार को यही कहते हैं कि यह आखिरी पेमेंट है । उसके बाद वे अपनी सूरत भी नहीं दिखायेंगे, लेकिन वास्तव में कोई पेमेंट आखिरी नहीं होती । उनकी मांगें फटे हुए जूते की तरह बढती ही चली जाती हैं । ब्लैकमेलर तो तुम्हारे खून की आखिरी बूंद निचोड़ डालेंगे आरती ।”
आरती एकदम चिन्तित हो उठी ।
“मेरा तुम पर कोई अधिकार नहीं है इसलिये मैं तुम पर किसी प्रकार का दबाव नहीं डाल सकता लेकिन मान लो मेरी जगह तुम्हारा सगा भाई होता और वह जानता होता कि तुम किसी मुश्किल में हो तो क्या तुम उसकी सहायता से इन्कार कर देतीं ?”
“आल राईट ।” - आरती निर्णयपूर्ण स्वर से बोली - “बताती हूं ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“यह चार महीने पहले की बात है ।” - आरती गम्भीर स्वर से बोली - “रात के लगभग ग्यारह बजे मैं एक पार्टी से वापिस घर आ रही थी । मैं अकेली थी और अपनी गाड़ी स्वयं ड्राईव कर रही थी । पार्टी एक एम्बेसी में थी । वहां तकल्लुफ में पड़ कर मैं भी दो पैग स्काच के पी गई थी । सुनील, मैं नशे में नहीं थी । मैं अब दावा करती हूं कि मैं अपने पूरे होश-हवास में गाड़ी चला रही थी लेकिन इस बात का कि मैंने शराब पी है, मुझ पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव था । तब से पहले मैंने पांच-सात बार बियर जरूर पी थी लेकिन विस्की पीने का वह मेरा पहला अवसर था । उसी दशा में मैं एक एक्सीडेन्ट कर बैठी । एक आदमी मेरी कार से टकरा गया ।”
“कैसे ?”
“बस दिखाई ही नहीं दिया मुझे वह आदमी । मैं साधारण से भी थोड़ी कम स्पीड पर कार ड्राइव कर रही थी । मेरे से लगभग सौ मीटर पीछे एक और कार थी और एक कार सामने से आ रही थी । वह आदमी काले कपड़े पहने हुये था और भगवान जाने कहां से मेरी कार के सामने आ गया था । मुझे तो यूं लगा जैसे वह जमीन फाड़ कर निकल आया हो । मेरी हैडलाईट की रोशनी से उसकी आंखें चौंधिया गई मालूम होती थी । उस समय ब्रेक लगाने से कोई फायदा नहीं था । जब तक ब्रेकों से गाड़ी की स्पीड कम होती या गाड़ी रुकती तब तक तो उस आदमी ने कुचला जाना था । सामने की ओर वाली गाड़ी बड़ी तेज रफ्तार से मेरी ओर बढ रही थी इसलिये मैं गाड़ी को दाईं ओर मोड़ नहीं सकती थी । मैंने एकदम गाड़ी को बायें मोड़ दिया । मेरी गाड़ी के पहिये सड़क के किनारे रखे ड्रमों से टकराने ही वाले थे कि मैंने पूरी शक्ति से स्टेयरिंग को दायें घुमा दिया । मेरा ख्याल था कि मेरी गाड़ी उस आदमी के गिर्द एक अर्धवृत सा काटती हुई फिर सड़क पर आ जायेगी और वह सुरक्षित बच जायेगा । लेकिन शायद ऐसा हो नहीं पाया । उसी समय मुझे एक जोर का धमाका सुनाई दिया जैसे वह आदमी गाड़ी से टकरा गया हो । लेकिन तब तक मेरी गाड़ी उस स्थान से कोई पचास मीटर आगे निकल आई थी । मैंने गाड़ी रोकी और बाहर निकल आई । मैंने पीछे मुड़कर देखा । जो गाड़ी मेरे पीछे आ रही थी वह वहां रुक गई थी और कोई सड़क पर पड़े आदमी को उठा रहा था । जो गाड़ी मेरे सामने से आ रही थी, उसके ड्राइवर ने शायद दुर्घटना नहीं देखी थी इसलिये वह बिना रुके सीधा निकल गया था । मैं एकदम भयभीत हो उठी । सुनील, एक बात मैं तुम्हें फिर याद दिला देना चाहती हूं । मैंने स्काच पी जरूर थी लेकिन मैं कसम खाकर कहती हूं, उस समय मैं अपने पूरे होश हवास में थी ।”
“खैर फिर तुम भाग खड़ी हुई वहां से ?”
“नहीं ।” - आरती बोली - “मेरे जी में तो आया था कि भाग जाऊं लेकिन मेरी आत्मा ने गवाही नहीं दी । इसलिए मैं वापिस दुर्घटनास्थल की ओर भागी । जिस समय मैं वहां पहुंची पिछली कार वाला सड़क पर पड़े आदमी को उठा कर अपनी कार में डालने की चेष्टा कर रहा था । मैंने वहां जाकर बड़े क्षमायाचक शब्दों में उससे कहा कि यह मेरी गलती नहीं थी । यही एकदम मेरी कार के आगे आ कूदा था । उत्तर में उस आदमी ने तो मुझे एकदम बुरा-भला कहना शुरू कर दिया । वह बोला मुझे कार चलानी नहीं आती है, मैं गैरजिम्मेदार हूं, मैं शराब पिये हुए हूं, मैं गाड़ी को बहुत तेज चला रही थी और न जाने क्या क्या । वह बोला कि वह पुलिस में रिपोर्ट करेगा कि मैं शराब पीकर गाड़ी चला रही थी । मुझे गुस्सा भी आ गया लेकिन मुझे दुर्घटना के शिकार की भी चिन्ता थी कि कहीं उसे बहुत ज्यादा चोट न आ गई हो । पिछली कार वाला बोला कि वह स्वयं डाक्टर है, उसका क्लीनिक वहां से चार-पांच किलोमीटर दूर ही है और वह उसे अपने क्लीनिक में ले जाएगा ।”
“उस डाक्टर ने अपना नाम नहीं बताया ?”
“बताया था । उसने मुझे अपना बिजनेस कार्ड दिया था । उसका नाम डॉक्टर कश्यप था ।”
“जे पी कश्यप ?” - सुनील ने उत्सुकता से पूछा था ।
“हां ।” - आरती विस्मित हो उठी - “लेकिन तुम्हें कैसे मालूम ?”
“अभी सवाल मत पूछो तुम बात बताओ ।”
“डाक्टर कश्यप ने उस घायल आदमी को अपनी कार में लिटा लिया और स्वयं भी ड्राइविंग सीट पर बैठता हुआ बोला कि मैं उसके पीछे पीछे अपनी गाड़ी ड्राइव करूं । उसने कहा कि वह मुझे पुलिस में देगा । उसने वहीं से अपनी कार को मोड़ दिया और वापिस चल दिया ।”
“उसने तुम्हारा नाम वगैरह कुछ नहीं पूछा ?”
“कुछ भी नहीं । यही तो आश्चर्य की बात है । उसने मेरा ड्राइविंग का लाइसेंस भी नहीं देखा । मेरी गाड़ी का नम्बर भी नहीं नोट कर पाया वह क्योंकि उस समय गाड़ी वहां से पचास मीटर दूर खड़ी थी । मुझसे नम्बर पूछा भी नहीं उसने । उसने केवल यही कहा कि वह डाक्टर है, उस आदमी को मेडिकल सहायता देने के लिए अपने क्लीनिक में ले जा रहा है और मुझे उसके पीछे पीछे आना चाहिए । मैं वापिस अपनी कार तक चल कर आई । मैंने कार का अच्छी तरह निरीक्षण किया । कार के किसी भी भाग से यह नहीं लगता था कि वह किसी चीज से टकराई है । उसकी बॉडी कहीं से भी जरा सी भी पिचकी हुई नहीं थी । उस आदमी को कोई भारी चोटें आई हों, इस बात की संभावना ही नहीं थी । इसलिए उस समय मेरे मन में ख्याल आया कि मैं डाक्टर के पीछे क्या जाऊं ? उस आदमी को अधिक से अधिक खरोंच आई होगी । अगर मैं वहां चली गई तो वह खामखाह मेरे से रुपया ऐंठने की फिराक में लग जाएगा और फिर इस दुर्घटना में गलती उसी की थी । जब तक मुझे यह पता न लगा कि उस आदमी के कैसी चोटें लगी हैं मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा । बाद में जो होगा देखा जाएगा यह सोचकर मैंने गाड़ी स्टार्ट की और डाक्टर कश्यप के पीछे जाने के स्थान पर वापिस अपनी कोठी पर आ गई । यही मेरे से गलती हो गई । वास्तव में मुझे करना यह चाहिए था कि अपने डाक्टर को बुलाती और उसके साथ डाक्टर कश्यप के क्लीनिक में जाती । मेरा डाक्टर स्वतन्त्र रूप से घायल आदमी का एग्जामिनेशन करता और साथ ही मेरे बारे में भी यह प्रमाणित करता कि मैंने विस्की जरूर पी थी लेकिन इतनी नहीं कि मैं गाड़ी चलाने लायक होश हवास भी कायम न रख पाऊं । उसके बाद मैं निश्चिन्त हो जाती लेकिन मैं तो बदहवासी में सीधी घर भाग आई ।”
“फिर क्या किया तुमने ?”
“अगले दिन मैंने उस एरिया के पुलिस स्टेशन पर फोन कर के पूछा कि क्या कैपिटल रोड पर हुए किसी ऐसे एक्सीडैंट की रिपोर्ट लिखवाई गई है जिसमें एक आदमी एक कार की चपेट में आ गया हो । मैंने उन्हें बताया कि मैं उस समय उसी सड़क पर से गुजर रही थी और मैंने एक आदमी को एक कार से टकराते देखा था । उन्होंने रिकार्ड देखा और बताया कि ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है । मैंने सोचा कि आदमी को मामूली खरोंचें आई होंगी । या तो वह सड़क पर घबराहट में बेहोश हो गया होगा या फिर वह शराब पिये होगा । इसलिए उसने या डाक्टर कश्यप ने रिपोर्ट लिखवाना उचित नहीं समझा होगा ।”
“फिर क्या हुआ ?”
“दो तीन दिन तो कुछ भी नहीं हुआ और उसके बाद रोशनलाल ने मुझे टेलीफोन किया ।”
“क्या कहा उसने ?”
“वह चाहता था कि मैं उसे इम्पीरियल होटल में आकर मिलूं ।”
“तुमने क्या कहा ?”
“मैंने कहा उसका दिमाग खराब है । मुझे क्या जरूरत पड़ी है कि मैं किसी अजनबी से कहीं मिलूं । फिर उसने कहा कि वह कैपिटल रोड पर हुए एक्सीडैंट के विषय में मुझसे बात करना चाहता है और अगर मैं उससे न मिली तो वह पुलिस में रिपोर्ट लिखवा देगा और मैं गिरफ्तार हो जाऊंगी ।”
“तुम गईं ?”
“हां ।”
“उसने धन मांगा तुमसे ?”
“उस समय नहीं । उसने तो मुझे बताया कि चमनलाल, यह उस आदमी का नाम है जो मेरी कार से टकराया था, की रीढ की हड्डी पर कोई गहरी चोट पहुंची है और वह तभी से बिस्तर पर पड़ा है । सम्भव है कि वह मर भी जाए । डाक्टर जे पी कश्यप बिना किसी पैसे के लालच में केवल मानवता के नाते उस का उपचार कर रहा है और मैं जो इस तमाम मुसीबत की जड़ हूं, अपनी जिम्मेदारी से भाग रही हूं । वह बोला कि मैं अभी गिरफ्तार हो सकती हूं । और मुझ पर ‘हिट एण्ड रन’ का अभियोग लगाया जा सकता है और अगर कहीं चमनलाल मर गया तो मुझे कम से कम आठ दस साल की सजा होगी ।”
“उसने यह नहीं बताया कि चमनलाल से उसका क्या संबंध है ?”
“वह कहता था कि चमनलाल से उसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है । वह एक प्राइवेट डिटैक्टिव है और डाक्टर कश्यप का दोस्त है । उसके कथनानुसार उसने चमनलाल को डाक्टर के क्लीनिक में पड़ा देखा था । वह बेचारा इस संसार में अकेला है । अगर मर जाए तो कोई उस पर कफन डालने वाला भी नहीं है । मैं बहुत प्रभावित हुआ और मैंने उसकी सहायता करने का निश्चय कर लिया । वह कहता है कि वह और डाक्टर कश्यप तो केवल मानवता के नाते ही चमनलाल की सहायता के लिए तत्पर हैं ।”
“उसने तुम्हारा पता कैसे लगाया ? डाक्टर कश्यप ने तो न तुम्हारा नाम पूछा था और न ही तुम्हारी कार का नम्बर देखा था ।”
“वह कहता था कि वह जासूस है और ऐसी बातों की जानकारी हासिल कर लेना उसके लिए कोई कठिन काम नहीं है । उसने कहा था कि एक्सीडैंट के समय वहां एक और आदमी था जो फुटपाथ पर पैदल चल रहा था । उस आदमी ने मुझे एक्सीडैंट करते देखा था और केवल सावधानीवश मेरी कार का नम्बर नोट कर लिया था । कार का नम्बर मिल जाने के बाद मुझे खोज लेना कोई कठिन काम नहीं था ।”
“फिर ?”
“मैं उसकी बातों से प्रभावित हुए बिना न रह सकी । मैंने स्वयं ही कहा था कि रुपये पैसे के मामले में अगर मैं चमनलाल की कोई सहायता कर सकती हूं तो मैं तैयार हूं ।”
“तुमने खुद चमनलाल को देखा था ?”
“हां । उस समय वह डाक्टर कश्यप के क्लीनिक में था । रोशनलाल मुझे वहां ले गया था । चमनलाल बिस्तर पर सीधा लेटा हुआ था और बेहद कमजोर लग रहा था । डाक्टर कश्यप ने मुझे बताया कि उसकी रीढ की हड्डी सदा के लिए बेकार हो गई है और वह कभी चल फिर नहीं सकेगा और न ही स्वयं करवट बदल सकेगा । मैं आतंकित हो उठी । मैंने पूछा कि क्या उस का इलाज नहीं हो सकता, डाक्टर ने कहा इलाज तो हो सकता है लेकिन भारत में नहीं । अमेरिका में ले जाना पड़ेगा उसे और उसके लिए बहुत ज्यादा धन की जरूरत पड़ेगी । मेरे पास अपना तीस लाख रुपया है । डाक्टर के कहने पर अगले दिन मैंने रोशनलाल को बीस हजार रुपये का चैक दे दिया । रोशनलाल ने मुझ से यह भी लिखवा लिया कि उस मोटर दुर्घटना की जिम्मेदार मैं हूं और मैं उसके इलाज के लिए कोई भी रकम खर्च करने के लिए तैयार हूं ।”
“भारी बेवकूफी की तुमने ।”
“बेवकूफी तो थी ही लेकिन उस समय मैं इतना डर गई थी और चमनलाल की दीन दशा देखकर इतनी भावुक हो उठी थी कि मैं उस समय उचित अनुचित कुछ भी न सोच सकी ।”
“फिर ?”
“एक महीना गुजर गया, रोशनलाल ने फिर फोन किया मुझे । उसने कहा कि चमनलाल को अमेरिका ले जाकर उसका आपरेशन करवाने के लिए बीस हजार रुपये कम हैं इसलिए मैं बीस हजार रुपये और दूं । मैं भड़क उठी । लेकिन उसने मुझे चमनलाल की मौत का डर दिखा कर और फिर मेरी मिन्नत समाजत करके मुझे रुपया देने के लिए तैयार कर लिया । मैंने उसे एक चैक और दे दिया । लगभग एक महीने बाद उसने फिर फोन किया कि वह और धन चाहता है । उस बार मैं सचमुच आपे से बाहर हो गई । मैं क्रोध से भरी उसके होटल के कमरे में पहुंची ।”
“यह कल की बात है ?”
“यह उससे दो दिन पहले की बात है । मैं रोशनलाल से उस के कमरे में मिली । मैंने उससे कहा कि अगर उसने फिर कभी मुझसे रुपया मांगा तो मैं पुलिस में रिपोर्ट कर दूंगी । मैंने अपनी गलती मानकर उस आदमी को डाक्टरी सहायता दिलवाने के लिए रुपया दिया है । अगर उसने मुझसे ब्लैकमेलिंग करने की कोशिश की तो मैं अपनी परवाह किये बिना पुलिस में रिपोर्ट कर दूंगी । फिर उसने अपना रूप दिखा दिया । वह बोला कि अगर मैंने उसे बीस हजार रुपया और न दिया तो वह मेरा लिखित स्वीकृति-पत्र पुलिस को सौंप देगा जिसमें मैंने स्पष्ट शब्दों में माना है कि उस दुर्घटना की जिम्मेदार मैं हूं । नतीजा यह होगा कि मुझे जेल की सजा हो जाएगी । मैं घबरा गई लेकिन मैंने भी अपनी घबराहट प्रकट नहीं की । मैंने उससे पूछा कि वह चाहता क्या है ? वह बोला कि अगर मैं उसे बीस हजार रुपये और दे दूं तो वह मुझे मेरा स्वीकृति-पत्र भी लौटा देगा और साथ ही चमनलाल से यह भी लिखवा देगा कि वह मुझे बीस हजार रुपये के हर्जाने के बदले उस दुर्घटना की जिम्मेदारी से मुक्त करता है ।”
“बीस हजार के बदले में क्यों ? चालीस हजार तो तुम उसे पहले ही दे चुकी थीं ?”
“वह क्या कहता था कि अगर मैं चमनलाल से लिखित रिलीज चाहती हूं तो केवल बीस हजार रुपये का ही जिक्र किया जाएगा ।”
“उसने तुमसे कभी यह भी नहीं कहा कि तुम चैक की जगह नकद रुपया दो ।”
“नहीं, वह शायद इसलिए कि शुरू में अगर वह नकद रुपये की मांग करता तो मैं संदिग्ध हो उठती कि कहीं मुझे ब्लैकमेल तो नहीं किया जा रहा है । पहले दो चैक तो मैंने केवल यही सोच कर दिये थे कि मैं चमनलाल की सहायता कर रही हूं । तीसरे चैक की प्राप्ति चमनलाल खुद स्वीकारने वाला था इसलिए चैक से कोई फर्क नहीं पड़ता था ।”
“खैर फिर ?”
“अगले दिन मैं रोशनलाल के साथ डाक्टर कश्यप के क्लीनिक में चमनलाल से मिलने गयी । चमनलाल बिल्कुल उसी प्रकार बिस्तर पर लेटा हुआ था । उसने लिख दिया कि वह बीस हजार रुपये हर्जाने के बदले मुझे उस एक्सीडैंट की किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी से मुक्त करता है । गवाह के रूप में डाक्टर कश्यप ने अपने हस्ताक्षर कर दिये । रोशनलाल ने वह कागज अपनी जेब में रख लिया और कहा कि कल मैं चैक ले आऊं और कागज ले जाऊं ।”
आरती क्षण भर के लिए रुकी ।
“कल रात को ।” - वह फिर बोली - “मैं होटल में गई । उसने मुझे दोनों कागज दे दिए और मैंने चैक दे दिया ।”
“वे कागज उस लिफाफे में थे ?”
“हां ।”
“तुमने लिफाफे को खोलकर क्यों नहीं देखा ?”
“क्योंकि...” - और फिर वह एकदम बोलते बोलते रुक गई । उसके नेत्र फैल गए ।
“सु... नी... ल ।” - वह बोली ।
“क्या हुआ ?” - सुनील ने हैरानी से पूछा ।
“सुनील बगल वाले कमरे में तुम थे ?”
“मेरे से सवाल मत करो । केवल जवाब दो मेरे सवालों का ।”
“अगर तुम बगल के कमरे में न होते तो तुम्हें पता नहीं लग सकता था कि मैंने लिफाफा खोलकर नहीं देखा है । सुनील अखबार में जिस आकर्षक युवक का जिक्र है वह तुम थे ।”
“यह मेरे सवाल का जवाब नहीं है । मैंने तुमसे यह पूछा है कि तुमने लिफाफा खोलकर क्यों नहीं देखा ?”
“क्योंकि केवल पांच मिनट पहले रोशन ने वे दोनों कागज मुझे दिखाकर लिफाफे में रखे थे । मेरे चैक देते ही वही लिफाफा उसने मेरे हाथ पर रख दिया ।”
“फिर भी तुम्हें उसे खोलकर तो देखना चाहिए था ।”
“मैंने जरूरत ही नहीं समझी ।”
“रोशनलाल तुम्हारे साथ कमरे से बाहर निकला था । वह तुम्हें कहां तक छोड़ आया था ?”
“लिफ्ट तक ।”
“और फिर उसके कमरे में तो नहीं लौटी ?”
“नहीं तो ।”
“सच कह रही हो ?”
“मैं भला इस बात में झूठ क्यों बोलूंगी ?”
“क्योंकि तुम्हारे इसी प्रश्न पर यह निर्भर करता है कि तुमने उसकी हत्या की है या नहीं ?”
“मैं भला हत्या क्यों करती उसकी ? मेरा तो काम हो चुका था वह लिफाफा मेरे हाथ में आने भर की देर थी कि मेरे ब्लैकमेल किये जाने की सम्भावना समाप्त हो गई थी । एक बार फैसला हो जाने के बाद भला मैं उन लोगों से क्यों डरती ।”
“वह लिफाफा कहां है ?”
“मेरे पास है !”
“दिखाओ जरा ।”
“क्यों ?”
“मैं वह पत्र देखना चाहता हूं जिसमें चमनलाल ने लिखा है कि वह तुम्हें एक्सीडैंट की जिम्मेदारी से मुक्त करता है ।”
“तुम क्या करोगे उसे देखकर ?”
“तुम दिखाओ तो सही ।”
“मैं अभी लाती हूं ।”
आरती सुनील के कमरे से निकल गई ।
लगभग पांच मिनट बाद वह एक लिफाफा हाथ में लिए लौटी । सुनील ने देखा वह वही लिफाफा था जो पिछली रात उसने रोशनलाल को आरती को देते देखा था ।
आरती ने लिफाफा सुनील को दे दिया ।
सुनील ने देखा लिफाफा बन्द था उसने लिफाफे का कोना फाड़ा और उसमें रखे कागज निकाल लिए और उन्हें खोला ।
वे बड़ी सफाई से तह किये होटल इम्पीरियल के राइटिंग पैड से फाड़े एकदम कोरे कागज थे ।
आरती का चेहरा कागज की तरह सफेद हो उठा था । वह यूं आतंकित दिखाई दे रही थी जैसे उसे फांसी का हुक्म सुना दिया गया हो ।
***
शाम को जब सुनील आफिस से भण्डारी की कोठी पर लौटा तो उसने उसे अपने कमरे में अपनी प्रतीक्षा करते हुए पाया ।
“जी हां ।” - सुनील ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया ।
“इम्पीरियल होटल में हुई हत्या का विवरण पढ़ा था तुमने ?”
“जी हां ।”
“मरने वाले का नाम रोशनलाल था ।”
“फिर ?”
“और आरती ने जिस आदमी को बीस हजार के दो चैक काटे थे उसका भी नाम रोशनलाल था ।” - भण्डारी अर्थपूर्ण स्वर से बोला ।
“इससे क्या होता है । रोशनलाल तो बड़ा कॉमन नाम है, तलाश करने पर राजनगर में आपको दो सौ रोशलाल मिल जाएंगे ।”
“क्या यह सम्भव नहीं है कि जो रोशलाल इम्पीरियल होटल में मरा है, वह वही हो जिसे आरती ने दो चैक दिये थे ?”
“पहले तुम यह बताओ कि क्या यह सम्भव है ?”
“सम्भव तो सभी कुछ है । यह संसार विचित्रताओं का घर है भण्डारी साहब । लेकिन आप यह क्यों सोचते हैं कि वे दोनों रोशनलाल एक ही हैं ।”
भण्डारी ने उत्तर देने के स्थान पर एक और प्रश्न कर दिया - “तुम आरती की निगरानी कर रहे हो न ?”
“जी हां ।”
“डिनर के बाद क्या वह कोठी से बाहर गई थी ?”
“नहीं । आपके सामने ही तो वह कह रही थी कि उसकी तबियत खराब है और वह सोने जा रही । आपने स्वयं उसे अपने कमरे में जाते देखा था ।”
“कल शाम को तुम कहां थे ?”
“नौ बजे तक तो मैं बाहर लॉन में बैठा आरती के कमरे की निगरानी करता रहा था और जब मुझे भरोसा हो गया था कि वह सो गई है तो मैं फिल्म देखने चला गया था ।”
“फिल्म देखने ?”
“जी हां । आखिरी शो ।”
“सुनील !” - भण्डारी बेहद गम्भीर स्वर में बोला - “कल रात आरती चुपचाप अपने कमरे में से निकली थी और फिर शायद इम्पीरियल होटल गई थी ।”
“आपको कैसे मालूम ?”
भण्डारी कई क्षण चुप रहा और फिर बोला - “मुझे हरीश ने बताया है ।”
“क्या बयाया उसने ?”
“कल रात उसने आरती को इम्पीरियल होटल के पास पैदल जाते देखा था ।”
“किस समय ?”
“पुलिस ने जो हत्या का समय निर्धारित किया है, उससे थोड़ी ही देर बाद । अर्थात लगभग दस बज कर बीस मिनट पर ।”
“यह बात आपको हरीश ने बताई है ?”
“नहीं । उसने रत्ना को बताया था और रत्ना ने मुझे बताया था ।”
“हरीश ने आरती से बात नहीं की ?”
“नहीं ।”
“हरीश को धोखा हुआ था । वह किसी और लड़की को आरती समझ बैठा था ।”
भण्डारी ने नकारात्मक ढंग से सिर हिला दिया ।
“कमाल है भण्डारी साहब ! आप हरीश पर इतना विश्वास करते हैं ।”
“मैं विश्वास नहीं करता हूं उस पर । लेकिन मेरा मन कहता है कि कल रात आरती वहां थी । वह शायद इम्पीरियल होटल में रोशनलाल को एक और चैक देने गई थी ।”
“अगर आप ऐसा समझते हैं तो आप आरती के बैंक के मैंनेजर से पता कीजिए कि क्या आरती का कोई चैक बैंक में आया है । अगर ऐसा हुआ तो मैं मान जाऊंगा कि हरीश सच कह रहा है कि आरती इम्पीरियल होटल गई थी ।”
भण्डारी चुप हो गया ।
“आज दोपहर का न्यूज ब्राडकास्ट सुना था तुमने ?” - भंडारी ने कई क्षण चुप रहने के बाद पूछा ।
“नहीं । कोई विशेष बात थी उसमें ?”
“पुलिस ने रोशनलाल के कमरे से कुछ उंगलियों के निशान उठाये हैं । निशान एकदम स्पष्ट हैं । पुलिस को उससे काफी सहायता मिलने की आशा है ।”
“और ।”
“जिस महत्वपूर्ण युवक ने चार सौ तेंतीस नम्बर कमरा लिया था, उसका हुलिया प्रसारित किया गया था । और सुनील मुझे तो एकदम यूं लगा जैसे वह तुम्हारा हुलिया बयान कर रहे हों ।”
“यह मेरी बदकिस्मती है ।”
“क्या ?”
“कि मेरा हुलिया चोर उच्चकों से मिलता-जुलता है ।”
भंडारी फिर चुप हो गया ।
“भंडारी साहब ।” - सुनील बोला - “मैं आपसे एक दो बातें पूछना चाहता हूं और आशा करता हूं कि आप उनका ठीक-ठीक उत्तर देंगे ।”
“क्यों ?”
“इन बातों का, जिस केस पर मैं काम कर रहा हूं, उससे कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है । लेकिन फिर भी मैं उनके उत्तर जानना चाहता हूं ।”
“पूछो ।”
“रत्ना से शादी किये हुये आपको कितना अरसा हो गया है ?”
“दो साल !”
“मतलब यह कि रत्ना का शादी के समय आप पैंतालिस वर्ष के थे और रत्ना तेइस वर्ष की थी ।”
“हां ।”
“रत्ना की आयु आरती के बराबर है । आपने किन भावनाओं से प्रेरित होकर इतनी जवान लड़की से शादी कर ली थी ?”
भंडारी ने कोई उत्तर नहीं दिया ।
“यह सैक्स की भूख थी, इश्क का चक्कर था या बुढापे की झोंक थी ?” - भंडारी धीरे से बोला ।
“क्या मतलब ?”
“ऐसी स्थिति पैदा हो गई थी कि शादी करने के अतिरिक्त कोई चारा ही नहीं था ।”
“कैसे ?”
“रत्ना से शादी करने से लगभग चार महीने पहले मैं अपने बिजनेस के सिलसिले में श्रीनगर गया था । वहां रत्ना से पहली बार मेरी मुलाकात हुई थी । अपने यौवन और सुन्दरता के कारण रत्ना वहां बहुत मशहूर थी । जिस होटल में मैं ठहरा था वहां वह हर शाम को आया करती थी । पता नहीं किसने मेरा उसके साथ परिचय कराया था, लेकिन एक बार परिचय होते ही हमारे सम्बन्ध घनिष्ठ होते चले गये थे । मैं रत्ना से केवल मित्रता तक ही सम्बन्ध रखना चाहता था लेकिन वह मेरे से कुछ इस कदर प्रभावित हुई थी कि वह हर हद लांघ जाना चाहती थी । रत्ना की अनुपस्थिति में मैं हमेशा यह सोचा करता था कि मेरा उससे मेल-जोल बढाना ठीक नहीं है लेकिन उससे मिलते ही मुझ पर मदहोशी सी छा जाती थी । मैं अपना आपा भूल जाता था । लोग मुझे उसके संसर्ग में देखकर जलते थे । मैं और खुश होता था । धीरे-धीरे रत्ना मुझ पर हावी होने लगी । वह होटल के लाऊन्ज में या हाल में मिलने के स्थान पर मुझे मेरे कमरे में मिलने लगी । एकान्त और उसकी ओर से प्रोत्साहन पाकर मेरे भीतर का शैतान जाग उठा । उसने कोई विरोध नहीं किया । परिणाम यह हुआ कि श्रीनगर में गुजरे मेरे बाकी दिनों में वह मेरी मिस्ट्रैस की तरह मेरे साथ रही । उसने अपनी पोजीशन की कभी शिकायत भी नहीं की और फिर शुरूआत तो उसी ने की थी । अगर वह लड़की होकर अपनी फिक्र खुद नहीं करती थी तो मैं मर्द होकर उसकी फिक्र क्यों करता । उसके लगभग पन्द्रह दिन बाद मैं वापिस लौट आया । लौटने से पहले मैंने उसे कुछ धन देना चाहा लेकिन उसने लेने से इन्कार कर दिया । मैं उससे मिलने का वायदा करके लौट आया ।”
“फिर ?”
“लगभग ढाई महीने बाद मुझे फिर श्रीनगर जाना पड़ा । मैं उसी होटल में ठहरा, अगले ही दिन मुझे रत्ना मिली । मैंने उसी उत्साह से उसका स्वागत किया लेकिन वह बहुत उदास और गम्भीर थी । मैंने उसकी उदासी का कारण पूछा । उत्तर में उसने जो बात बताई उसे सुनकर मेरे पैरों के नीचे की जमीन निकल गई । वह गर्भवती थी । उसने बताया कि जवानी की उमंग में वह मेरे साथ गलती कर बैठी है और अगर मैंने उसकी सहायता न की तो वह आत्महत्या कर लेगी । मैं और घबरा गया । मैंने उससे पूछा कि मैं क्या सहायता कर सकता हूं । उसने कहा कि मैं उससे शादी कर लूं । मेरा तो दम ही निकल गया । मैं इस उम्र में शादी करने की बात सोच भी नहीं सकता था लेकिन वह बोली कि उसे बदनामी और बाद में निश्चित मौत से बचाने का एक ही ढंग है कि मैं उससे शादी कर लूं । मैंने बहुत आनाकानी की लेकिन अन्त में मुझे तैयार होना ही पड़ा । क्योंकि अगर मैं उससे शादी न करता तो वह मेरी बड़ी मिट्टी खराब करती । सम्भव है कि वह जगह-जगह मुझे बदनाम करती फिरती या फिर कोर्ट में मुझ पर मुकदमा कर देती कि उसके पेट में पलने वाले बच्चे का बाप मैं हूं और अब जिम्मेदारी से भाग रहा हूं । श्रीनगर में ऐसे बहुत लोग मिल जाते जो कसम खा-खाकर अदालत में कह देते कि मैं ही एक यौवन लोलुप की तरह रत्ना के पीछे पड़ा था और अन्त में उसे बरबाद करके ही माना था । इतने भंयकर परिणाम का तो मैं स्वप्न में भी सामना न कर सकता न कर सकता था । परिणाम स्वरूप मैंने श्रीनगर में ही कोर्ट में जाकर उससे शादी कर ली ।”
“रत्ना का बच्चा हुआ फिर ?”
“यही तो सबसे बड़ी ट्रजेडी थी । शादी के लगभग एक महीने बाद उसने मुझे खुद ही बताया था कि वह गर्भवती नहीं है । जाने कैसे उसे वहम हो गया था कि उसके पेट में बच्चा पल रहा है । प्रत्यक्ष में तो मैंने कुछ नहीं कहा, लेकिन मन ही मन मैंने बहुत बल खाये । कुछ कहने का लाभ भी नहीं था । मेरी मिट्टी पलीत हो चुकी थी । कानूनी तौर पर वह मेरी पत्नी थी । यह जानने के बाद कि वह गर्भवती नहीं है, मैं उसे छोड़ तो सकता नहीं था । रत्ना से चुपचाप शादी कर लेने के कारण आरती मुझसे उखड़ने लगी थी लेकिन मैं अपनी बेटी को कैसे यह बता सकता हूं कि मैंने किन परिस्थितियों में मजबूर होकर रत्ना से शादी की है । अब की स्थिति तुम जानते ही हो । मैं गले पड़ा ढोल बजा रहा हूं, वह मेरी छाती पर मूंग दल रही है, मैं सहन करता हूं । मेरी तो सांप छछून्दर जैसी हालत हो गई है । न उगलते बनता है और न निगलते बनता है ।”
“भंडारी साहब, आपने कभी यह नहीं सोचा कि रत्ना ने आपको फंसाने के लिये एक नपी तुली स्कीम पर काम किया था ।”
“सोचने से क्या होता है भाई । जब दोष अपना हो तो दूसरे से भी शिकायत करने का कोई लाभ नहीं होता ।”
सुनील ने फिर कुछ नहीं पूछा ।
“हरीश इस तस्वीर में कहां फिट होता है ?”
“हरीश रत्ना का ममेरा भाई है । पहले श्रीनगर में रहता ता अब राजनगर में आ गया है । कोई धन्धा करता है । मुझे तो उसके धन्धे के विषय में कुछ पता नहीं है । हर्नबी रोड पर कहीं उसने एक छोटा सा पोर्शन किराये पर लिया हुआ है लेकिन अधिकतर वह रहता मेरी ही कोठी में है ।”
सुनील ने फिर कुछ नहीं पूछा ।
“सुनील ।” - भंडारी भावुक स्वर में बोला - “मेरा बेटी तो मेरे से नैतिक सम्बन्ध रखती नहीं है । रत्ना से शादी करने के चक्कर में मैं नैतिक रूप से स्वयं अपनी नजरों से गिर गया हूं । मैं तो उसका कोई हित भी करना चाहता हूं तो वह उसे स्वीकार नहीं करती है । सौभाग्यवश मैं समय पर जान गया हूं कि कोई उसका धन लूटने की चेष्टा कर रहा है । वह तो मुझे बताती नहीं और ब्लैकमेलर आखिरी पाई तक निचोड़ जाते । मैं स्वयं तो अपनी बेटी के लिए कुछ कर नहीं सकता । जो कुछ करना है तुम ही ने करना है । तुम्हारा ही भरोसा है मुझे ।”
“भंडारी साहब ।” - सुनील बोला - “रमाकांत मेरे गिने चुने दो तीन अच्छे मित्रों में से है । आप से मेरी मुलाकात रमाकांत ने करवाई थी । जितने आदरणीय आप रमाकांत के लिए हैं उतने ही आदरणीय आप मेरे लिए हैं । इसलिये आप विश्वास रखिये कि मैं अपनी ओर से कोई कसर नहीं उठा रखूंगा । इस केस में काफी कुछ जान गया हूं और काफी कुछ शीघ्र ही जान जाऊंगा । आप भरोसा कीजिये आरती को अब और ब्लैकमेल नहीं कर सकेगा कोई ।”
“मुझे तुमसे यही आशा थी ।” - भंडारी प्यार भरे स्वर से बोला ।
***
रात को डिनर के फौरन बाद ही जिस व्यक्ति का भंडारी की कोठी में आगमन हुआ वह किसी के द्वारा भी अपेक्षित नहीं था ।
वह इंस्पेक्टर प्रभूदयाल था ।
सुनील उसके हाल में कदम रखते देखते ही डिनर टेबल से उठा और सबको वहीं बैठा छोड़कर बगल के कमरे में घुस गया ।
डिनर समाप्त हो चुका था । उस समय सब लोग बैठे काफी पी रहे थे ।
प्रभूदयाल को भी वहीं डिनर टेबल पर ही सीट आफर कर दी गई ।
वेटर ने उसके सामने भी काफी का एक कप लाकर रख दिया ।
“मेरा नाम इंस्पेक्टर प्रभूदयाल है ।” - प्रभूदयाल एक बार फिर स्वयं को सबकी जानकारी में लाता हुआ बोला ।
“इंस्पेक्टर ।” - भंडारी बोला - “मैं भंडारी हूं, वह मेरी पत्नी रत्ना है । वह उसका भाई हरीश है और वह मेरी बेटी आरती है ।”
“आप लोगों में से कोई रोशनलाल नाम के किसी व्यक्ति को जानता है ?” - और प्रभूदयाल की खोजपूर्ण दृष्टि एक-एक चेहरे पर फिरने लगी ।
“कौन रोशनलाल ?” - भंडारी ने सतर्क स्वर में पूछा ।
“कोई भी । आप रोशनलाल के नाम के किसी व्यक्ति से परिचित हैं ?”
“जी नहीं ।” - भंडारी बोला ।
“आप ?” - उसने रत्ना से पूछा ।
“नहीं ।” - उत्तर यन्त्र-चलित सा रत्ना के मुंह से निकल गया ।
“आप ?” - उसने आरती से पूछा ।
“नहीं !” - आरती धीरे से बोली ।
“और आप ?” - उसने हरीश से पूछा ।
“नहीं ।” - हरीश ने कठिन स्वर से उत्तर दिया ।
“आप लोगों ने इम्मीरियल होटल में हुई हत्या का विवरण पढा है ?” - प्रभू ने फिर प्रश्न किया ।
सबने हामी भर दी ।
“मरने वाले का नाम रोशनलाल था । क्या आप लोगों में से कोई मरने वाले को रोशनलाल के नाम से या किसी और नाम से जानता है ?”
“लेकिन इंस्पेक्टर ।” - भंडारी हैरान होकर बोला - “आपने यह सोच कैसे लिया कि हम में से कोई रोशनलाल से सम्बन्धित हो सकता है ?”
“मिस्टर भंडारी ।” - प्रभू ने गम्भीर स्वर में उत्तर दिया - “रोशनलाल की डायरी में एक टेलीफोन नम्बर लिखा हुआ था, तफतीश करने पर मालूम हुआ है कि वह टेलीफोन आपकी कोठी में है और होटल की टेलीफोन आपरेटर का कथन है कि जिस दिन रोशनलाल मरा था उससे पहले किसी दिन उसने इस नम्बर पर बात की थी ।”
“लेकिन किससे ?” - भंडारी एक गुप्त दृष्टि आरती पर डालता हुआ बोला ।
“यही तो मैं जानना चाहता हूं ।”
भंडारी चुप हो गया ।
“देखिये ।” - प्रभू लैक्चर सा देता हुआ बोला - “यह एक हत्या का मामला है । आप लोग समझदार हैं, अच्छे नागरिक हैं । पुलिस की सहायता करना आप लोगों को अपना कर्तव्य समझना चाहिए । मुझे पूरा विश्वास है आप लोगों में से कोई रोशनलाल से सम्बन्धित था । अगर इस समय आप यह बात नहीं स्वीकार करना चाहते तो आपकी इच्छा । लेकिन यह तत्य हमसे अधिक देर छिपा नहीं रह सकेगा । बाद में यह पता लग जाने पर कि आप लोगों में से कौन रोशनलाल से सम्बन्धित था, सम्बन्धित व्यक्ति का भारी अहित होने की सम्भावना है ।”
आरती ने कुर्सी पर पहलू बदला लेकिन मुंह से कुछ न बोली ।
प्रभू दयाल की खोजपूर्ण दृष्टि एक-एक आदमी के चेहरे पर घूमने लगी ।
“कल रात दस और ग्यारह बजे के बीच आप कहां थीं ?” - उसने रत्ना से पूछा ।
“अपने कमरे में ।” - रत्ना बोली ।
“इस बात का कोई सबूत दे सकती हैं आप ?”
“पौने ग्यारह बजे भंडारी साहब क्लब से लौटे थे । मैंने ही उन्हें द्वार खोला था ।”
“यह सच है ।” - भंडारी बोला ।
“और आप मिस्टर हरीश ?”
“मैं डिनर के बाद एक दो मित्रों के घर गया था । वे लोग मिले नहीं थे, फिर मैं कुछ देर मेहता रोड पर टहलता रहा था । फिर एक रेस्टोरेन्ट में काफी पीने चला गया था और फिर वापिस घर लौट आया था ।”
“आप उतने समय में इम्पीरियल होटल की दिशा में गये थे ?”
“नहीं ।”
“जो कुछ आपने कहा है, क्या उसे आप सिद्ध कर सकते हैं ?”
“रेस्टोरेंट में जिस वेटर ने मुझे काफी सर्व की थी, शायद उसे मेरी सूरत याद हो ।”
“आप वादा नहीं कर सकते ?”
“नहीं ।” - हरीश बेचैनी से बोला ।
“और आप, मिस आरती ?” - प्रभूदयाल ने आरती से पूछा ।
“कल मेरी तबियत खराब थी । मैं डिनर के फौरन बाद ही अपने कमरे में चली गई थी और बत्ती बुझा कर सो गई थी ।”
“एक बार कमरे में जाने के बाद आप फिर बाहर नहीं निकलीं ?”
“नहीं ।”
“और न ही आप कल रात इम्पीरियल होटल गईं ?”
“अपने कमरे में से बाहर निकले बिना मैं इम्पीरियल होटल कैसे जा सकती हूं, इन्स्पेक्टर साहब ?” - आरती जलकर बोली ।
“मैंने एक सीधा सवाल किया था, मिस आरती ।” - प्रभू कठोर स्वर से बोला - “इसलिये मैं उसका सीधा जवाब चाहता हूं । क्या आप कल रात इम्पीरियल होटल गई थीं ?”
“नहीं ।”
प्रभूदयाल ने भंडारी से कोई प्रश्न नहीं पूछा ।
“होटल में रोशनलाल की हत्या से पहले एक युवती और एक नवयुवक को देखा गया था । युवक उस युवती का पीछा करता हुआ होटल में पहुंचा था । मैं किसी पर कोई इल्जाम नहीं लगा रहा हूं लेकिन हो सकता है कि युवती रत्ना हो या आरती हो गया युवक हरीश हो ।”
“यह तो कोई दलील नहीं हुई इन्स्पेक्टर ।” - भंडारी विरोध पूर्ण स्वर से बोला - “इस आयु के और इस कद-काठी के तो तुम्हें राजनगर में हजारों युवक युवतियां मिल जायेंगे ।”
“लेकिन उन हजारों युवक और युवतियों के टेलीफोन नम्बर तो रोशनलाल की डायरी में नहीं लिखे हुए थे ।” - प्रभू व्यंग्यपूर्ण स्वर से बोला ।
“उस टेलीफोन नम्बर के मामले में तो जरूर कोई गड़बड़ है ।”
“क्या गड़बड़ है ?”
भंडारी ने कोई उत्तर नहीं दिया ।
“रत्ना, आरती, हरीश और आपके अतिरिक्त भी कोई इस कोठी में है ?” - प्रभूदयाल ने नया प्रश्न किया ।
“नहीं, बाकी तो केवल नौकर-चाकर हैं ।” - भंडारी ने उत्तर दिया ।
“जिस समय मैं कोठी के हाल में घुसा था, उस समय मैंने यहां से एक आदमी को उठ कर भीतर जाते देखा था, वह कौन था ?”
“वह !” - भंडारी बोला - “वह मेरे एक दोस्त का लड़का है । आजकल छुट्टियां बिताने यहां आया है ।”
“कब से रह रहा है वह यहां ?”
“लगभग एक सप्ताह हो गया है ।”
“क्या यह हो सकता है कि रोशनलाल ने उसे टेलीफोन किया हो ?”
“हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता ।”
“देखिये आपके परिवार में से ही किसी को रोशनलाल ने टेलीफोन किया था । अगर आप लोग सच बोल रहे हैं तो वह आपके दोस्त का यह लड़का ही होगा । क्या नाम है उसका ?”
भंडरी हिचकिचाया ।
“मैंने आपसे उसका नाम पूछा है ?”
“सुनील !”
“सुनील !” - प्रभू तनिक चौंका और फिर सन्तुलित स्वर से बोला - “जरा बुलाइये उसे !”
“वह आपकी क्या सहायता कर सकेगा ?”
“आप बुलाइये तो सही ।”
लेकिन बुलाने की जरूरत ही नहीं पड़ी । सुनील स्वयं ही द्वार खोल कर बाहर निकल आया ।
“यह आपके दोस्त का लड़का है ?” - प्रभूदयाल सुनील पर नजर पड़ते ही हैरान स्वर से भंडारी से बोला ।
“हां !” - भंडारी के स्वर में अधिकार का सर्वदा अभाव था ।
प्रभूदयाल के व्यवहार से प्रभावित होकर रत्ना, हरीश और आरती तीनों सुनील को संदिग्ध दृष्टि से देखने लगे थे ।
“हैलो प्रभू !” - सुनील लापरवाही से बोला ।
“तुम यहां क्या कर रहे हो ?” - प्रभू, संदिग्ध स्वर में बोला ।
“तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है ?” - सुनील बोला ।
“तुम मिस्टर भंडारी के दोस्त के लड़के हो ?”
“हां ।”
“आज से पहले तुमने कभी अपने डैडी का जिक्र नहीं किया ?”
“क्यों ऐसा भी कोई कानून है कि अगर कोई नागरिक इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल से अपने डैडी का जिक्र नहीं करेगा तो उसे सजा हो सकती है ?”
“व्यंग्य करने की जरूरत नहीं है सुनील !” - प्रभू बोला - “लगता है कि इस बार भी तुमने फिर अपनी कोई करामात दिखा डाली है । तुम्हारी घर में उपस्थिति ही इस बात को प्रकट करती है कि या तो तुम या इस घर का कोई सदस्य रोशनलाल से और उसकी हत्या से सम्बन्धित है । सुनील, कभी लोहार की एक ही पड़ेगी और तुम फांसी के फदे पर होगे ।”
“तुम लोहार हो ?”
“मजाक नहीं । जो मैं पूछूं, उसका जवाब दो ।”
“पूछो ।”
“तुम रोशनलाल को जानते हो ?”
“हां !”
“कौन है वह ?”
“मेरा नाई है वह !”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह है कि जिस नाई से मैं बाल कटवाता हूं उसका नाम रोशनलाल है ।”
“मैं उस रोशनलाल की बात नहीं कर रहा हूं ।” - प्रभू चिढकर बोला ।
“तो फिर ?” --सुनील ने भोलेपन से पूछा ।
“मैं उस रोशनलाल की बात कर रहा हूं, जिसकी कल रात इम्पीरियल होटल में हत्या हो गई हैं ।”
“अच्छा, वह रोशनलाल ! उसे तो नहीं जानता मैं ।”
“कल रात दस और ग्यारह बजे के बीच में तुम कहां थे ?”
“मैं एम्पायर थियेटर में फिल्म देख रहा था उस समय ।”
“कौन सी फिल्म ?”
“हाऊ टू स्टील ए मिलियन डालर्स एण्ड लिव हैप्पीली देयर आफ्टर ।”
“मैंने फिल्म का थीम नहीं, फिल्म का नाम पूछा था ।”
“मैंने नाम ही बताया है ।”
प्रभू हैरानी से उसका मुंह देखने लगा ।
कुछ क्षण बाद वह फिर बोला - “तुम यह सिद्ध कर सकते हो कि कल रात को तुम सिनेमा हॉल में थे ?”
“तुम यह सिद्ध कर सकते हो कि कल रात को मैं सिनेमा हॉल में नहीं था ?”
“मैंने तुमसे प्रश्न पूछा है ।”
“मैंने तुम्हें उत्तर दे दिया है ।”
“सुनील ।” - प्रभू बेबसी स्वर से बोला - “सम डे आई वुड लाईक टू सी यु हैंगड सिक्स फीट हाई फ्राम दी ग्राउन्ड (किसी दिन मैं तुम्हें जमीन से छः फुट ऊंचा लटका हुआ देखना पसन्द करूगा ) ।”
“थैंक्स, थैंक्स फार दि कम्पलीमैंटस (शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद) !” - सुनील बोला ।
प्रभू ने एक बार खा जाने वाली दृष्टि से सुनील को देखा और फिर उठ खड़ा हुआ ।
“सुनील !” - वह बोला - “मुझे तुम पर सन्देह है । मैं तुम्हें और चैक करना चाहता हूं । मैं यहां फिर आऊंगा । मेरी जानकारी के बिना तुम इस नगर से बाहर कदम नहीं रखोगे । मुझे तुम्हारी कभी भी जरूरत पड़ सकती है । दिस इज आफिशियल आर्डर फार यू ।”
“तुम्हें ऐसे आर्डर देने की अथारिटी है ?”
“अगर तुम मेरी अथारिटी की चैलेंज करना चाहते हो तो तुम बिना बताए राजनगर से बाहर कदम रख कर देखो ।” - प्रभू जलकर बोला ।
“इन्स्पेक्टर !” - एकाएक रत्ना बोल पड़ी ।
“फरमाइये ।” - प्रभू उसकी ओर मुड़ कर बोला ।
“आप सुनील को जानते हो ?”
“बड़ी अच्छी तरह से ।”
“कौन है यह ?”
“मैडम यह...”
“प्रभू !” - सुनील एकदम तीव्र स्वर में बोला ।
प्रभू बोलता-बोलता रुक गया ।
“आओ तुम्हें बाहर छोड़ आऊं ।” - सुनील बोला और उसने आगे बढकर प्रभू की बांह में अपनी बांह डाल दी ।
प्रभू ने पहले तो विरोध किया और फिर ने जाने क्या सोच कर सुनील के साथ चल दिया ।
द्वार के समीप पहुचं कर प्रभू रुका और फिर घूम कर रत्ना, आरती, हरीश और भंडारी को देखता हुआ यूं बोला जैसे घमकी दे रहा हो - “मैं फिर आऊंगा ।”
आरती के चेहरे पर भय के लक्षण परिलिक्षित होने लगे ।
सुनील को यह देख कर बड़ी हैरानी हुई कि रत्ना भी भयभीत दिखाई दे रही थी ।