एक मनहूस सुबह
कविता कुमावत रोज की तरह आज भी सुबह ठीक आठ बजे डॉक्टर बालकृष्ण बरनवाल के क्लिनिक पहुंची, जो साऊथ दिल्ली का पॉश एरिया माने जाने वाले वसंतकुंज के इलाके में स्थित था।
वह 24-25 साल की खूब गोरी चिट्टी और लंबे कद वाली युवती थी, जो उस वक्त पीले रंग का ऐसा सूट पहने थी जिसपर सफेद रंग के गुलाब के फूल कढ़े हुए थे। कंधे पर सूट के कलर से मैच करता एक पर्स लटका रखा था, और पैरों में भी उससे मिलते जुलते शेड की सैंडिल डाले थी।
क्लिनिक एक सिंगल स्टोरी बिल्डिंग में था। जहां ग्राउंड फ्लोर पर रिसेप्शन और वेटिंग लाउंज, जबकि पहली मंजिल पर डॉक्टर बरनवाल का केबिन था, जिसके सामने के खाली हिस्से में चार टू सिटर सोफे एक दूसरे से सटाकर रखे हुए थे और उसके ठीक दूसरी तरफ वॉटर डिस्पेंसर रखा था जिसमें बिसलेरी की 20 लीटर की बोतल हमेशा मौजूद रहती थी।
बरनवाल सायकियाट्रिस्ट था, और धंधे में खूब जाना पहचाना नाम था। ऊपर से वसंतकुंज का इलाका अमीरों का था इसलिए पेशेंट्स की कोई किल्लत नहीं थी। और ऐन उसी वजह से उसका धंधा फुल स्विंग में था।
ऑटो से उतरकर कविता ने किराया चुकता किया, फिर जैसे ही क्लिनिक की तरफ घूमी, एकदम से हैरान रह गयी। कारण कि दरवाजा खुला हुआ था और भीतर लाईटें जल रही थीं। जबकि आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ जब उसके पहुंचने से पहले क्लिनिक खोल दिया गया हो।
वह प्रशिक्षित नर्स थी, जो डॉक्टर बरनवाल के क्लिनिक में मेडिसन प्रिस्क्राईब करने के अलावा सारे काम किया करती थी। साफ सफाई भी, जिसके लिए उसे अलग से दस हजार महाना पगार मिलती थी। और उसी वजह से उसे रोज सुबह आठ बजे वहां पहुंचना पड़ता था, जबकि क्लिनिक ओपन होने के वक्त दस बजे का था। समय से पहले वहां पहुंचकर वह अपने पास मौजूद चाबी से दरवाजा खोलती और उसे अंदर से बंद कर के साफ सफाई वाले काम में जुट जाती थी।
घर से वह आम कपड़े पहनकर आती थी, जिसे झाड़ू पोंछे से फारिग होने के बाद उतार देती और नर्स की ड्रेस पहनकर रिसेप्शन पर बैठ जाती थी। आगे पूरे दिन वह पेशेंट अटैंड करती, उनकी पर्ची बनाती, फीस लेती, एक बने बनाये फॉर्मेट पर दर्ज सवालों के जवाब हासिल करती, फिर ऊपर पहली मंजिल पर डॉक्टर के केबिन में भेज देती थी।
क्लिनिक को खुला देखकर बुरी तरह हैरान होती हुई वह शीशे के दरवाजे को धकेलकर भीतर दाखिल हुई। सबकुछ पिछली रात जैसा ही था, मतलब जैसा कि साढ़े आठ बजे के करीब वह छोड़कर गयी थी।
‘क्या डॉक्टर आज जल्दी आ गया था?’ उसने सोचा फिर रिसेप्शन डेस्क के करीब पहुंचकर कंधे पर टंगा बैग काउंटर पर रखकर सीढ़ियों की तरफ बढ़ गयी।
फर्स्ट फ्लोर पर डॉक्टर के केबिन का दरवाजा बंद था लेकिन लाईट तो वहां भी बराबर जल रही थी, मतलब डॉक्टर ही वहां पहुंचा हुआ था, ना कि कोई चोर घुस आया था। फिर किसी चोर के मतलब लायक कोई चीज उस क्लिनिक में थी भी नहीं, क्योंकि फर्नीचर उठा ले जाने के लिए तो कोई उतना बड़ा रिस्क हरगिज भी नहीं लेने वाला था।
“गुड मॉर्निंग डॉक्टर।” उसने दूर से ही उच्च स्वर में कहा और उसके केबिन की तरफ बढ़ गयी। जबकि अच्छी तरह से जानती थी कि केबिन एयरटाईट था इसलिए उसकी आवाज डॉक्टर के कानों तक तब तक नहीं पहुंच सकती थी, जब तक कि वह गला फाड़कर ही चिल्ला न उठती।
इसलिए जवाब न मिलने पर उसे कोई हैरानी नहीं हुई, मगर थोड़ी बातूनी थी इसलिए केबिन तक पहुंचते पहुंचते फिर से बोल पड़ी, “लगता है डॉक्टर साहब रात को सो नहीं पाये, इसीलिए सुबह सुबह क्लिनिक पहुंच गये।”
इस बार भी जवाब नदारद ही रहा।
“या घर गये ही नहीं रात को?” वह हंसती हुई बोली और दरवाजे को भीतर की तरफ धकेल दिया। सामने एक मेज थी, जिसके उस पार रखी कुर्सी खाली पड़ी थी। तब उसकी निगाहें स्वतः ही बाईं तरफ एल आकार में रखे सोफे की तरफ चली गयी, जो पेशेंट्स के लिए वहां रखा हुआ था।
अगले ही पल उसकी आंखें फट सी पड़ीं।
डॉक्टर उस सोफे पर पड़ा था, खून से लथपथ। उसका दायां हाथ नीचे लटक रहा था, जहां शरीर से बहता खून एक बड़ा घेरा बना चुका था। मगर खून का रिसाव अब जारी नहीं था, उल्टा वह कुछ जम सा गया मालूम पड़ता था।
हत्यारे ने डॉक्टर की छाती पर वार किया था, जहां एक बड़े दस्ते वाला छुरा अभी भी घुसा पड़ा था। वह नजारा कितना भी वीभत्स क्यों न रहा हो, उसे देखकर लड़की के चेहरे पर भय के भाव तो नहीं ही आये।
वह कुछ देर जहां की तहां खड़ी लाश को घूरती रही, फिर दरवाजे से हटी और सीढ़ियां उतरकर नीचे रिसेप्शन पर पहुंची। वहां एक लैंडलाईन फोन मौजूद था, जिससे उसने 100 डॉयल किया और कॉल कनैक्ट होने का इंतजार करने लगी।
दिल्ली पुलिस कंट्रोल रूम को की गयी कॉल पर तीन सिपाहियों के साथ जो दो ऑफिसर घटनास्थल पर पहुंचे उनमें से बड़ी रैंक वाला इंस्पेक्टर सुशांत अधिकारी, जबकि दूसरा सब इंस्पेक्टर दयानंद दीक्षित था। अधिकारी 40 के पेटे में पहुंचता हैल्दी शख्स था जबकि दीक्षित 28 साल का छरहरे बदन वाला नौजवान था, जो अपने रख रखाव पर खासा ध्यान देता था। जिसके कारण अधिकारी उसे बात बात पर ‘हीरो’ कहकर संबोधित किया करता था।
दोनों का चोली दामन का साथ था, बल्कि एक दूसरे के पूरक कहें तो भी गलत नहीं होगा। एक में जो कमी थी दूसरे में उसकी अधिकता था। जैसे दीक्षित शांत स्वभाव का युवक था, लोगों से बहुत तहजीब से पेश आता था, तो वहीं अधिकारी बेहद गुस्सैल और बद्तमीज किस्म का पुलिसिया था, जो बात बात पर गाली दिया करता था। दीक्षित मुजरिमों के साथ सख्ती बहुत कम दिखाता था, जबकि अधिकारी की पूछताछ शुरू ही मारपीट कर चुकने के बाद हुआ करती थी।
मगर इस बात में कोई शक नहीं था कि दोनों में बहुत अच्छी निभ रही थी, सालों से निभ रही थी और डिपार्टमेंट में उन्हें बेहद काबिल अफसर समझा जाता था। खास कर के अधिकारी को जो सिपाही की पोस्ट पर बहाल होकर अपनी काबलियत के बूते पर तरक्की कर के इंस्पेक्टर बना था।
पांचों आगे पीछे चलते क्लिनिक में दाखिल हुए तो सबसे पहले सुशांत अधिकारी की निगाह रिसेप्शन पर बैठी कविता पर ही पड़ी, जो उस वक्त दोनों हाथों से अपना सिर थामे हुए थी। आहट पाकर उसने सामने देखा और पुलिस को पहुंचा देखकर कुर्सी से उठ खड़ी हुई।
अधिकारी उसके करीब पहुंचा।
“कैसी हैं मैडम?” कहते हुए उसने अपनी निगाहें उसके उभारों पर गड़ा दीं, ना कि चेहरे पर। ऐसा वह हमेशा करता था, और यूं करता था कि कविता को उसका एहसास होकर रहना था। शुरू में वह बात उसे परेशान कर के रख देती थी, मगर अब उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। मतलब लड़की ने उसकी आदत डाल ली थी। फिर वह कोई पहला शख्स थोड़े ही था जो उसे यूं घूरा करता था, और सबसे बचने की कोशिश करती तो सैकड़ों की आंखें फोड़नी पड़ जातीं, जो कि संभव नहीं था, इसलिए उसने ध्यान देना ही छोड़ दिया था।
“मैंने पूछा कैसी हो?” अधिकारी ने अपना सवाल दोहराया।
“ठीक हूं सर।”
“पुलिस को कॉल आपने किया था?”
जवाब में उसने मूक ढंग से गर्दन हिला दी।
“यानि खबर सच है?”
“जी हां।”
“कमाल है! डॉक्टर साहब को इतनी क्या जल्दी पड़ी थी दुनिया से जाने की, कुछ दिन ठहर कर जाते, या बुढ़ापे में निकल लेते तो क्या आफत आ जाती?”
“वह अपनी मर्जी से नहीं गये हैं।”
“अच्छा! तो क्या आपने भेज दिया?”
“मैं - वह हड़बड़ा सी गयी - मैं भला वैसा कुछ क्यों करूंगी?”
“आप बताईये।”
“मेरा मतलब है मैंने कुछ नहीं किया, हैरानी है कि आपके मन में ऐसा ख्याल आया।”
“पुलिसवाला हूं न मैडम, इसलिए शक तो सबपर करना पड़ता है।”
“मुझपर भी?”
“आप जैसी खूबसूरत और पढ़ी लिखी लड़की के कातिल होने की कल्पना मैं करना तो नहीं चाहता मैडम, लेकिन क्या करें नौकरी की मजबूरी है। हां इतना मान सकता हूं कि आप अगर किसी के कत्ल का इरादा बना लें तो हथियार की जरूरत नहीं पड़ेगी, वह काम तो आपके नैन बाण ही कर दिखायेंगे - कहकर उसने पूछा - सही कहा न मैडम?”
“सर प्लीज, मत भूलिये कि आप यहां मर्डर की इंवेस्टिगेशन करने आये हैं। और ऐसे सवाल भी मत करिये जिनका जवाब आपको पहले से पता हो।”
“नहीं मुझे नहीं पता, मैंने तो अभी लाश भी नहीं देखी।”
“तो जाकर देखिये, यहां क्यों अपना वक्त जाया कर रहे हैं?”
“क्योंकि मुझे मजाक करने की आदत है।”
“लेकिन मुझे नहीं है, सो प्लीज जाकर अपना काम कीजिए।”
सुनकर पल भर के लिए अधिकारी के चेहरे पर नाराजगी के भाव उभरे, फिर मुस्कराता हुआ बोला, “आपकी आवाज भी आपकी तरह ही सैक्सी है, बोलती हैं, तो लगता है कोयल कूंक उठी हो।”
सुनकर कविता ने बड़े ही आहत भाव से उसकी तरफ देखा।
“ओके ओके, मैं और परेशान नहीं करूंगा आपको। ये बताईये कि कत्ल कहां किया है आपने। देखिये जुबान फिर फिसल गयी। जबकि मेरा मतलब था डेडबॉडी कहां पड़ी है?”
जवाब में उसने उंगली से ऊपर की तरफ इशारा कर दिया।
“चलकर दिखाईये।”
“खुद देख लीजिए।”
इंस्पेक्टर की भौंहें तनीं।
“प्लीज, मेरे अंदर फिर से लाश देखने की हिम्मत नहीं है।”
“ठीक है रिक्वेस्ट कर रही हैं तो माने लेता हूं। लेकिन आप कहीं खिसक मत जाईयेगा, क्योंकि हमारी गुटरगूं अभी पूरी नहीं हुई है, समझ गयीं?”
“जी हां समझ गयी, मैं यहीं रहूंगी।”
“वेरी गुड।”
कहकर उसने तीनों सिपाहियों को वहीं रुकने के लिए कहा और खुद दीक्षित के साथ सीढ़ियां चढ़कर पहली मंजिल पर जा खड़ा हुआ। पल भर को उसने वहां की खाली जगह का मुआयना किया, फिर हाथों में ग्लव्स पहनकर केबिन के दरवाजे को भीतर की तरफ धकेल दिया, मगर अंदर जाने की कोई कोशिश नहीं की, उल्टा वहीं खड़े रहकर दूर से ही कमरे का मुआयना करना शुरू कर दिया।
सामने मेज पर एक खाली लिफाफा पड़ा था, जो यूं फूला हुआ था, जैसे खाली होने से पहले ठूंस ठूंसकर भरा रहा हो। लिफाफे के बगल में एक पेन रखा था, और थोड़ा दायें एक राईटिंग पैड और डॉक्टर का प्रिस्क्रिप्शन वाला पैड मौजूद था। बाकी की मेज खाली पड़ी थी। परली तरफ मौजूद रिवाल्विंग चेयर का रुख बाईं तरफ एल आकार बनाते सोफे की तरफ था, जहां लाश पड़ी थी। जबकि मेज के इस तरफ कोई कुर्सी तक मौजूद नहीं थी।
डेडबॉडी के करीब एक छोटी सी प्लास्टिक की थैली पड़ी थी, जो खून से यूं तर बतर थी कि उसके बारे में फिलहाल कुछ जान पाना संभव नहीं था, अलबत्ता पहली नजर में अधिकारी को वह किसी चॉकलेट का रैपर मालूम पड़ा था।
उसने ध्यान से लाश देखी तो इतना फौरन समझ में आ गया कि मृतक को लेटी अवस्था में स्टैब नहीं किया गया था, क्योंकि वह दाईं करवट पड़ा हुआ था और उधर का हाथ भी नीचे लटक रहा था। जरूर कातिल ने छुरा भोंकने के बाद उसे उस ढंग से सोफे पर लिटा दिया था। वरना लाश चित पड़ी मिली होती।
छुरे का हैंडल प्लास्टिक का था और दूर से ही प्लेन दिखाई दे रहा था, इसलिए उसपर से किसी के फिंगर प्रिंट्स बरामद होने की उम्मीद की जा सकती थी। वैसे आजकल अपराधी बहुत सयाने हो गये थे, इसलिए ऐसी बड़ी गलतियां अमूमन नहीं ही करते थे।
आखिरकार उसने जेब से मोबाईल निकाला और वहीं खड़े खड़े क्राईम सीन को शूट करने लगा। हर तरफ की तस्वीरें लीं, कई कोणों से लीं, फिर कैमरे को जूम कर के एक छोटी सी वीडियो भी बना ली।
मगर दरवाजे से अंदर कदम नहीं रखा।
वह बहुत क्लोज जगह थी, जहां घुसने का मतलब था क्राईम सीन का बेड़ा गर्क हो जाता, जो कि वह हरगिज भी नहीं चाहता था। फिर जो काम फॉरेंसिक डिपार्टमेंट ने कर के रहना था, उसे खुद अंजाम देने लग जाने की उसे जरूरत ही क्या थी।
आखिरकार उसने दरवाजे को पहले की तरह बंद कर दिया।
“कुछ समझ में आया सर?” दीक्षित ने पूछा।
“तुम्हारे आया?”
“मैंने लाश कहां देखी अभी?”
“देखना चाहता है?”
“नहीं, मैं कोई आपसे ज्यादा काबिल थोड़े ही हूं।”
“नहीं, इस तेरे से ज्यादा काबिल ऑफिसर की समझ में अभी कुछ नहीं आया। हां इतना साफ दिखाई दे रहा है कि कातिल जाना पहचाना था। ऐसा शख्स जिससे बात करने के लिए मकतूल अपनी कुर्सी से उठकर सोफे पर जा बैठा था।”
“फिर पेशेंट तो नहीं रहा हो सकता?”
“हो सकता है, अगर दोस्त जैसा पेशेंट हो, वैसे होने को ये नीचे मौजूद कविता का भी कारनामा रहा हो सकता, क्योंकि पिछले फेरों में मैंने ये बात कई बार नोट की थी, कि डॉक्टर को बड़ी मीठी मीठी निगाहों से देखती थी वह।”
“आपका मतलब है वैसे देखती थी जैसे आपको नहीं देखती?”
“क्यों बेइज्जती कर रहा है हीरो?”
“सॉरी।”
“लेकिन बात सच है, मैं चाहता हूं कि वह मुझे भी उसी तरह देखे। कमाल की बनी हुई है बहन..., जैसे ऊपर वाले ने अपनी सारी कारीगरी उसे गढ़ने में सर्फ कर दी हो। सच पूछ तो देखते के साथ ही दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं।”
दीक्षित हंसा।
“मजाक उड़ा रहा है?”
“अरे नहीं सर।”
“उड़ा भी रहा है तो कोई बात नहीं, इश्क में सब बर्दाश्त करना पड़ता है।”
“आपको उससे इश्क है?”
“लैला मजनूं वाला नहीं है, मैं तो बस उसके हुस्न का तलबगार हूं। कभी मौका हाथ लगा तो एक बार डुबकी जरूर लगाऊंगा।”
“बस एक बार?”
“वह चाहेगी तो बार बार, मगर मेरे लिए एक बार भी पर्याप्त होगा, अब उसके नाम के आगे अधिकारी तो मैं लगाने से रहा, लगाऊंगा तो बीवी बच्चों को क्या मुंह दिखाऊंगा, इसलिए एक बार ही काफी है।”
“बातें पहेलियों में करते हैं आप, कई बार तो समझना मुश्किल हो जाता है।”
“लेकिन फिर भी समझ जाता है तू, तभी तो तू मेरा यार है, खासुलखास है। पूरे डिपार्टमेंट में साला तेरे से ज्यादा अजीज कोई और नहीं होगा मुझे।”
“थैंक यू सर।”
“चल अब नीचे चलते हैं।” कहकर वह सीढ़ियों की तरफ बढ़ा तो दीक्षित उसके साथ हो लिया।
अधिकारी एक बार फिर रिसेप्शन पर जाकर कविता के सामने खड़ा हो गया, जबकि दीक्षित जानबूझकर दूर दूर बना रहा, क्योंकि जानता था उसका सीनियर केस के साथ साथ निजी बातें भी कर के रहने वाला था उस लड़की से।
“क्या हुआ था कविता मैडम?”
“मैं नहीं जानती, मैं तो अभी आठ बजे यहां पहुंची थी, तब दरवाजा खुला हुआ था, इसलिए हैरान होकर ऊपर ये जानने चली गयी कि डॉक्टर आज इतनी जल्दी कैसे आ गये।”
“मतलब देर से आते थे?”
“हां, दस बजे।”
“और आप?”
“रोज आठ बजे।”
“इतनी जल्दी आकर क्या करती हैं?”
“साफ सफाई।”
सुनकर अधिकारी को हैरानी हुई, “आप काम वाली हैं या नर्स?”
“दोनों हूं, छह महीने पहले इधर का सफाई वाला काम छोड़कर चला गया था। डॉक्टर कोई दूसरा लड़का ढूंढ रहे थे और मुझे पैसों की जरूरत थी, इसलिए मैंने बोल दिया कि अगर सफाई वाले की सेलरी मेरी सेलरी में जोड़ दें तो मैं उससे बढ़िया काम कर के दिखा सकती हूं।”
“डॉक्टर तैयार हो गया?”
“हां हो गये, इसीलिए मैं रोज दो घंटा पहले यहां आ जाती हूं।”
“बतौर काम वाली बाई कितनी सेलरी मिलती थी आपको?”
“दस हजार।”
“और नर्स कविता कुमावत की तनख्वाह कितनी थी?”
“थर्टी थाउजेंड।”
“ये तो बहुत कम है।”
“थोड़ा कम जरूर था, लेकिन काम भी ज्यादा नहीं था, इसलिए मुझे कबूल हो गया। किसी अस्पताल में काम करती तो चालीस पैंतालिस मिल जाते लेकिन उधर बहुत कुछ करना पड़ता। फिर डॉक्टर बरनवाल का बिहेवियर भी बहुत फ्रैंडली था, इसलिए मुझे पसंद था।”
“कौन पसंद था, डॉक्टर?”
“डॉक्टर और काम, दोनों।”
“ओके, तो आप नहीं जानतीं कि डॉक्टर का कत्ल किसने किया?”
“नहीं, कैसे जान सकती हूं?”
“ये भी नहीं जानतीं कि डॉक्टर इतनी सुबह सुबह क्लिनिक क्यों पहुंच गया?”
“मेरे ख्याल से तो बीती रात घर गये ही नहीं थे, क्योंकि मर्डर रात को ही किया गया लगता है।”
“कैसे लगता है?”
“फर्श पर फैला खून जम चुका है, विंटर में भी जम गया है, इसलिए।”
“आप लाश के करीब गयी थीं?”
“नो नैवर।”
“फिर इतनी बारीक बात कैसे दिख गयी आपको?”
“दिख गयी, आपको भी दरवाजे से ही दिखाई दे जायेगा।”
“अच्छा ये बताईये कि क्लिनिक कितने बजे बंद किया जाता है?”
“नौ बजे।”
“यानि रोजाना नौ बजे आप यहां से चली जाती हैं?”
“हां।”
“और डॉक्टर?”
“हम दोनों साथ ही जाते थे, मैं मुनिरका में रहती हूं और डॉक्टर साहब हौजखास में रहते थे, इसलिए मुझे ड्रॉप करते हुए जाते थे।”
“ओके, तो कल नौ बजे आप और डॉक्टर साहब क्लिनिक बंद कर के यहां से निकल गये थे, राईट?”
उसने इंकार में गर्दन हिला दिया।
“नहीं?”
“नहीं।”
“क्यों?”
“कल मैं साढ़े आठ बजे निकल गयी थी, और अकेली गयी थी।”
“वजह?”
“कोई उनसे मिलने आने वाला था, इसलिए मुझे पहले ही कह दिया था कि आखिरी पेशेंट को ऊपर भेजने के बाद मैं घर चली जाऊं, क्योंकि उन्हें बहुत वक्त लग जाने वाला था।”
“जाने से पहले आप उन्हें बताने तो जरूर गयी होंगी, कि जा रही हैं?”
“हां गयी थी।”
“तब जिंदा था डॉक्टर?”
“ऑफ कोर्स जिंदा थे, वरना मैंने तभी पुलिस को फोन कर दिया होता।”
“और आज सुबह आठ बजे से पहले मर चुके थे?”
“जी हां।”
“यानि कत्ल बीती रात साढ़े आठ से लेकर सुबह आठ बजे के बीच कभी भी किया गया हो सकता है?”
“पूछ रहे हैं या बता रहे हैं?”
“पूछ रहा हूं।”
“मेरे ख्याल से तो कम से कम भी पांच छह घंटे गुजर चुके हैं।”
“चलिए, अभी के लिए मान लेते हैं कि हत्या बीती रात साढ़े आठ से लेकर सुबह तीन बजे के करीब कभी की गयी हो सकती है, अब ठीक है?”
“मैं समझ नहीं पा रही इंस्पेक्टर साहब कि ऐसे सवाल आप मुझसे क्यों कर रहे हैं, मैं क्या कोई एक्सपर्ट हूं, बल्कि मैं तो डॉक्टर भी नहीं हूं।”
“लेकिन अंदाजा बढ़िया लगा लेती हैं, अब ये बताईये कि कल रात यहां से निकलकर आप कहां गयी थीं?”
“अपने घर और कहां जाना था?”
“यानि मुनिरका?”
“जी हां, जहां मैं अपने पेरेंट्स के साथ टू बीएचके के एक फ्लैट में रहती हूं।”
“कितने बजे पहुंच गयी थीं?”
“नौ, बड़ी हद सवा नौ तक।”
“आगे क्या किया आपने?”
“फ्रैश होने के बाद खाना खाया, थोड़ा वॉक किया फिर सोने चली गयी।”
“वॉक कितनी देर किया था?”
“दस मिनट।”
“कहां?”
“ड्राइंगरूम में।”
“यानि एक बार भीतर घुसने के बाद रात को किसी भी वजह से बाहर नहीं निकली थीं, आई रिपीट किसी भी वजह से नहीं निकली थीं, फिर भी निकली हों तो अभी बता दीजिए, फायदे में रहेंगी।”
“नहीं मैं रात को कहीं नहीं गयी थी।”
“ठीक है, अब ये बताईये कि बीती रात यहां बैठकर डॉक्टर किसका इंतजार कर रहा था?”
“मैं नहीं जानती, लेकिन वैसा हर महीने हुआ करता है।”
“मैं समझा नहीं।”
“महीने में कम से कम एक बार तो ऐसा जरूर होता था, जब डॉक्टर ये कहकर मुझे अकेले घर जाने को बोल देते थे कि कोई उनसे मिलने आने वाला था, जिसमें वक्त लगना था।”
“हर बार एक ही शख्स आता था?”
“ये मैं कैसे बता सकती हूं?”
“लेकिन इसकी गारंटी है कि महीने में एक बार किसी सीक्रेट विजिटर के इंतजार में डॉक्टर आपको यहां से चलता कर देता था, ठीक?”
“जी हां।”
“कब से चल रहा था ऐसा?”
“सालों से, मेरा मतलब है जब से मैं यहां जॉब कर रही हूं, तभी से वैसा देखती आ रही हूं।”
“और जॉब कब से कर रही हैं?”
“दो साल से ज्यादा हो गये होंगे।”
“फिर भी आप नहीं जानतीं कि वह कौन था?”
“नहीं जानती, एक बार पूछा तो डॉक्टर साहब कहने लगे कि वह उनका पर्सनल मामला था, जिसके बारे में मेरा जानना जरूरी नहीं था। उसके बाद दोबारा कभी उनसे सवाल करने की हिम्मत नहीं हुई।”
“आप दो सालों से यहां काम कर रही हैं, मतलब कम से कम भी चौबीस फेरे लग चुके हैं?”
“किसके?”
“सीक्रेट विजिटर के, ध्यान कहां है आपका?”
“सॉरी, लेकिन मैं पक्का नहीं कह सकती।”
“अरे जब वह हर महीने आता था, और आप दो सालों से यहां काम कर रही हैं तो चौबीस ही हुए न?”
“मे बी।”
“पक्का नहीं मालूम?”
“शुरू में कोई महीना मिस कर गया हो तो नहीं कह सकती, क्योंकि तब उस तरफ मेरा खास ध्यान नहीं गया था।”
“बीस की तो गारंटी है न?”
“जी हां।”
“बढ़िया, तो उन बीस विजिट्स के दौरान कभी आपका उससे आमना-सामना नहीं हुआ, है न?”
“नहीं हुआ, मैंने बताया तो कि डॉक्टर...”
“उसके आने वाले दिन आपको यहां से चलता कर देते थे।”
“हां ऐसा ही था।”
“कोई अंदाजा तो फिर भी लगाया होगा?”
“हां लगाया था।”
“क्या?”
“वह उनका कोई पेशेंट रहा हो सकता है, जो अकेले में मिलना चाहता होगा।”
“कोई पेशेंट अपने डॉक्टर का कत्ल क्यों करेगा?”
“मैं नहीं जानती।”
“डॉक्टर की फेमिली?”
“मैं उस बारे में नहीं जानती।”
“आपकी?”
“बताया तो मुनिरका में रहती है।”
“सॉरी याद्दाश्त साली कमजोर होती जा रही है - कहकर उसने पूछा - यार दोस्त?”
“किसके, मेरे या डॉक्टर के?”
“दोनों के बताईये।”
“मेरी दो फ्रैंड हैं, दोनों अलग अलग अस्पतालों में नर्स हैं।”
“ब्वॉयफ्रैंड नहीं है?”
“है।”
“नाम?”
“कौशल सरदाना।”
“क्या करता है?”
“पी डब्ल्यू डी में क्लर्क है, नेक्स्ट मंथ हम दोनों की शादी होने वाली है।”
“आप शादी कर रही हैं?” अधिकारी यूं तड़पकर बोला जैसा कोई उसका दिल निकाले ले जा रहा हो।
“हां इसमें हैरानी की क्या बात है?”
“यही कि आप शादी कर रही हैं, ऐसे कैसे बात बनेगी।”
“मतलब?”
“जाने दीजिए, अब डॉक्टर साहब के बारे में बताईये।”
“क्या बताऊं?”
“उनके दोस्तों और दुश्मनों के बारे में।”
“दुश्मनों का मुझे नहीं पता।”
“ठीक है दोस्तों के बारे में ही बता दीजिए।”
“सबसे खास तो उन्मेद कनौजिया साहब हैं। इधर वसंतकुंज में ही कहीं रहते हैं, एड्रेस मुझे नहीं मालूम।”
“पेशेंट का एड्रेस नोट नहीं करतीं?”
“कंप्यूटर में मौजूद है, चेक कर के बता सकती हूं।”
“उन्मेद के अलावा कोई?”
“तीन और हैं।”
“नाम बताइये।”
“भीष्म साहनी, आयशा बागची और अभिनव गोयल।”
“कनौजिया के बाद सबसे करीबी कौन था डॉक्टर के?”
“आयशा बागची।”
“आयशा बागची - उसने दोहराया - कितनी क्लोज थी?”
“मेरे ख्याल से डॉक्टर से लव करती थी।”
“डॉक्टर भी करता था?”
“आई थिंक नो।”
“यानि इकतरफा इश्क की आग में सिर्फ मैं ही नहीं जल रहा।” वह बड़बड़ाने वाले अंदाज में बोला।
“जी?” कविता की भौंहें तन सी गयीं।
“कैसे पता?”
“क्या कैसे पता?”
“यही कि बागची मैडम का लव इकतरफा था?”
“डॉक्टर साहब हमेशा उसे रिसेप्शन पर ही अटैंड करते थे, जहां प्यार मोहब्बत की बातें नहीं की जा सकतीं। लव करते होते तो क्या उन्हें अपने केबिन में नहीं बुला लेते? जहां प्राईवेसी होती इसलिए जैसी चाहे वैसी बातें कर सकते थे।”
“ये कैसे पता कि बागची मैडम डॉक्टर साहब पर फिदा थीं?”
“मेरा दिल कहता है।”
“और क्या कहता है आपका दिल?”
“सॉरी?”
“अभिनव गोयल साहब के बारे में बताईये, डॉक्टर की जिंदगी में वह कहां फिट बैठते हैं?”
“फ्रैंड थे, लेकिन यहां बहुत कम आते थे।”
“कुल मिलाकर कहें तो दोस्तों के नाम पर उन्मेद कनौजिया और आयशा बागची ही किसी गिनती में आते हैं, है न?”
“यस, आप ऐसा कह सकते हैं।”
“भीष्म साहनी की डिटेल रह गयी।”
“पिछले दो सालों में वह मुश्किल से एक या दो बार यहां आये होंगे, लेकिन डॉक्टर को पंद्रह बीस दिनों में उनके घर का चक्कर लगाना पड़ता था।”
“वजह?”
“साहनी साहब की वाईफ को एंजायटी है, लेकिन वह यहां क्लिनिक में आने को तैयार नहीं होती, इसलिए डॉक्टर को उधर बुला लिया जाता था। आखिरी बार छब्बीस जनवरी को गये थे।”
“और कोई?”
“बाकी तो आप दोनों ही बचते हैं, जो महीने में एक फेरा यहां का लगाते ही लगाते हैं, क्यों आते थे मैं नहीं जानती, लेकिन आपको तो पता ही होगा।”
सुनकर अधिकारी थोड़ा हड़बड़ाया, फिर बोला, “मुझे बहुत जल्दी और भयंकर गुस्सा आ जाता है, उसी का इलाज करा रहा था डॉक्टर से, इसलिए यहां आता था, और दीक्षित क्योंकि हमेशा मेरे साथ ही होता है इसलिए चला आता था।”
“अगर ऐसा है तो एज ए पेशेंट आपका कोई रिकॉर्ड क्यों नहीं है यहां?”
“क्योंकि मैं मुफ्त का पेशेंट था, जिससे डॉक्टर फीस नहीं लेता था। तुमने शायद नोट भी किया हो कि मुझे यहां देखकर डॉक्टर नाक भौंह सिकोड़ लिया करता था।”
“इट्स ओके, मेरा उस बात से क्या लेना देना?”
“नहीं है लेकिन जानना फिर भी जरूरी है, वरना तुम्हें लगने लगेगा कि हमारी और डॉक्टर की मुलाकात में कोई राज छिपा हुआ था, जो कि नहीं था।”
“अगर था भी तो मुझे क्या?”
“अरे कहा तो मैं उससे इलाज करा रहा था।”
“बार बार क्यों बता रहे हैं?”
“ताकि तुम्हें अच्छी तरह से याद आ जाये कि मैं यहां क्यों आता था।”
“ठीक है मैं समझ गयी।”
“गुड, अब जिन लोगों ने नाम अभी अभी बताकर हटी हो, उनके एड्रेस नोट कराओ, बल्कि प्रिंट ही मार दो।”
“सबको एक ही पेज पर कॉपी करने में टाईम लगेगा।”
“लगाओे, वैसे भी अगले कुछ घंटों तक हम यहीं रुकने वाले हैं।”
कहने के बाद अधिकारी ने अपने एसएचओ को फोन कर के तफसील से मामले की जानकारी दी, फिर फॉरेंसिक टीम को इत्तिला करने के बाद दीक्षित के साथ सामने मौजूद सोफे पर जा बैठा, क्योंकि प्रत्यक्षतः करने लायक कोई काम उसे वहां दिखाई नहीं दे रहा था।
फॉरेंसिक टीम को वहां पहुंचने में आधा घंटा से ज्यादा का वक्त लग गया, और आगे की कार्रवाई पूरी होते होते एक घंटा और गुजर गया। तब कहीं जाकर सुशांत अधिकारी को उनके इंचार्ज से बात करने का मौका हासिल हुआ।
“कुछ पता लगा कुमार साहब?” उसने पूछा।
“कुछ खास नहीं, छुरे का फल आठ इंच का है और दस्ता चार इंच का, मगर उसपर से कोई फिंगर प्रिंट बरामद नहीं हुए। अमूमन छुरे के वार से बना जख्म शॉर्प होता है जबकि यहां गोलाई लिए हुए है, मतलब कातिल ने दिल में उतारने के बाद उसे घुमा दिया था। कई बार घुमा दिया था जिसके कारण घाव को देखकर लग रहा है जैसे किसी डेढ़ इंच ब्यास वाले नुकीले और गोल हथियार से कत्ल किया गया हो। बल्कि वैपन ऑफ ऑफेंस यहां न मिल गया होता तो हम किसी गोल हथियार की ही कल्पना कर रहे होते।”
“और कुछ?”
“मेज पर जो खाली लिफाफा पड़ा है, उसे पांच सौ के नोटों की कई गड्डियां, कम से कम भी पांच रखने के लिए इस्तेमाल किया गया था।”
“कैसे जाना?”
“नोटों की गड्डियां ठूंसकर भरी गयी थीं, जिनके कारण लिफाफे पर उनका आकार सा बन आया था। हमने उसका मेजरमेंट लिया तो वह पांच सौ के नोट के साईज का निकला, ऐसे मालूम है। एक नजर में यह लूट की वारदात मालूम पड़ती है, मगर चांसेज कम हैं क्योंकि किसी लुटेरे को वार करने के बाद छुरे को घुमाने की जरूरत नहीं थी। इसलिए कातिल कोई ऐसा शख्स भी रहा हो सकता है जो मरने वाले से बुरी तरह नफरत करता हो, या जिसे क्राईम सीन का तजुर्बा हो। अगर था तो उसने छुरे को जानबूझकर भी घुमाया हो सकता है, जिससे नफरत वाली भ्रांति पैदा की जा सके।”
“यानि दोनों बातें हो सकती हैं?”
“हां, लेकिन लूट की संभावना कम है, क्योंकि मरने वाले के गले में सोने की चैन है जो बाईस ग्राम की है, घड़ी भी महंगी जान पड़ती है, और उसके पर्स में भी दस हजार रूपये मौजूद हैं, जिन्हें कातिल ने हाथ तक लगाने की कोशिश नहीं की।”
“क्या पता मौका न मिला हो?”
“हो सकता है, अगर कोई अचानक यहां पहुंच गया था तो बिल्कुल हो सकता है, मगर सवाल ये है कि जो पहुंचा था उसने बाद में पुलिस को इत्तिला क्यों नहीं किया।”
“फिर तो आपकी नफरत वाली बात ही सच जान पड़ती है - कहकर उसने पूछा - छुरे पर ना सही कहीं और से तो फिंगर प्रिंट बरामद हुए ही होंगे?”
“दरवाजे से हुए हैं, जो कि जनाना जान पड़ते हैं क्योंकि उंगलियां बहुत पतली और छोटी हैं, या फिर कोई ऐसा लड़का जो 15-16 साल से ज्यादा का न हो, मगर कातिल के इतने कमउम्र होने की कल्पना मुश्किल है इसलिए मान लो कि बरामद हुए निशान किसी औरत के ही हैं। जबकि मेज का मुआयना कहता है कि उसे रगड़ रगड़कर साफ कर दिया गया था, जो कि फिंगर प्रिंट्स मिटाने के लिए भी किया गया हो सकता है।”
“मरने वाले का मोबाईल?”
“मिल गया, मेज की दराज में रखा था। एंट्री फ्रैंडली हुई थी, और कातिल बहुत खास था, वरना अपनी कुर्सी छोड़कर उसके साथ सोफे पर नहीं जा बैठा होता।”
“और कुछ नहीं मिला?”
“नहीं लेकिन एक हैरान कर देने वाली बात बराबर दिखाई दी।”
“क्या?”
“मरने वाले के केबिन में उसका रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट टंगा हुआ है, जो ना तो लैमिनेटेड है, ना ही उसे फ्रेम कराया गया है। इतनी लापरवाही बरतते मैंने आज तक किसी डॉक्टर को नहीं देखा होगा। यूं तो वह सर्टिफिकेट किसी काम का ही नहीं रह जायेगा, बल्कि अभी भी दुनिया भर की गर्द जमी हुई है उसपर।”
“लापरवाह किस्म का तो खैर नहीं था डॉक्टर।”
“तुम जानते थे उसे?”
“हां पहले भी कुछ मुलाकातें हो चुकी थीं।”
“खैर आगे का काम तुम्हारा है, देखो कैसे हैंडल करना है।”
“नीचे एक नर्स है।”
“देखा था मैंने।”
“एक बार उसके फिंगर प्रिंट लेकर देखिये, क्या पता दरवाजे से मिले निशानों से मैच कर जायें।”
“तुम्हें उस लड़की पर शक है?”
“नहीं लेकिन निशान मैच कर गये तो कम से कम इतना तो श्योर हो जायेगा न कि वह प्रिंट्स कातिल के नहीं हैं। जिसके बाद हम उसके पीछे भटकने से बच जायेंगे।”
“ठीक है चलो।”
कहकर उसने अपने फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट को साथ लिया फिर तीनों नीचे रिसेप्शन पर पहुंचे, जहां कविता ये सुनते ही घबरा उठी कि उसकी उंगलियों के निशान मांगे जा रहे थे।
“म...मैंने क्या किया है?”
“कुछ नहीं किया तो डर क्यों रही हो?”
“मैं डर नहीं रही हूं, लेकिन कोई वजह भी तो हो मेरे फिंगर प्रिंट्स लेने की।”
“इसलिए ले रहे हैं मैडम, ताकि ऊपर बरामद फिंगर प्रिंट्स में से आपकी उंगलियों के निशान छांटकर अलग किये जा सकें।” एक्सपर्ट ने समझाने की कोशिश की जबकि बरामद बस एक ही निशान हुआ था।
“ल...लेकिन।”
“ज्यादा लेकिन वेकिन कर के मुझे थाने से लेडी कांस्टेबल बुलाने को मजबूर मत करो मैडम - अधिकारी थोड़ा गुस्से से बोला - वरना तुम्हारा ही नुकसान होगा, क्योंकि वह मेरी तरह तुम्हारे लड़की होने का लिहाज नहीं करने वाली।”
उस एक घुड़की से ही कविता कुमावत का विरोध खत्म हो गया।
तत्पश्चात उसकी उंगलियों के निशान लेकर उन्हें दरवाजे पर मिले प्रिंट्स के साथ टेली किया गया तो दोनों हू ब हू मिलते पाये गये, जो कि कोई बड़ी बात तो नहीं ही थी। फिर दरवाजा ही क्या, वे लोग तलाशने की कोशिश करते तो पूरे क्लिनिक में जगह जगह उसके फिंगर प्रिंट्स मिल जाने थे।
रिजल्ट की जानकारी अधिकारी को देकर फॉरेंसिक टीम वहां से निकल गयी, साथ ही लाश भी उठवा दी गयी। तत्पश्चात उस पुलिसिये ने कविता कुमावत को अपने साथ ऊपर चलने को कहा।
“व...वहां किसलिए?”
“चलोगी तभी तो पता लगेगा मैडम।”
“जो बात करना है यहीं कीजिए।”
“क्यों मेरे धैर्य की परीक्षा ले रही है लड़की?”
कविता उसके बदले हुए लहजे पर चौंक सी उठी, थोड़ी देर पहले तक आप और मैडम का संबोधन देता वह पुलिसिया अचानक ही तू तड़ाक की भाषा इस्तेमाल करने लगा था।
“मैं कहीं नहीं जाऊंगी।” वह अपने भीतर जबरन हिम्मत बटोरती हुई बोली।
“ज्यादा चबर चबर मत कर - अधिकारी गुर्राया - वरना घसीटता हुआ ले जाऊंगा यहां से।”
“ये..ये आप किस तरह बात कर रहे हैं?”
“उसी तरह जिस तरह से पुलिस एक मुजरिम से बात करती है, अब तू अपनी मर्जी से चलती है या मैं जबरन लेकर चलूं?”
इस बार इंकार करने की उसकी मजाल नहीं हुई।
बुरी तरह डरी सहमी कविता कुमावत सीढ़ियां चढ़ने लगी।
अधिकारी ने दीक्षित की तरफ देखा, “हीरो।”
“यस सर?” वह उठकर उसके करीब आ खड़ा हुआ।
“जब तक मैडम के साथ मेरी पूछताछ मुकम्मल नहीं हो जाती, किसी को ऊपर नहीं आने देना है, समझ गया?”
“यस सर।”
“खुद भी नहीं आना है।”
“मैं समझ गया सर।”
“और सवाल जवाब मुकम्मल हुए या नहीं उसकी जानकारी मैं फोन कर के दूंगा, या फिर वापिस नीचे लौटकर। मतलब कोई ये पूछने भी ऊपर नहीं आयेगा कि मुझे कितना वक्त लगेगा।”
“बेफिक्र रहिये सर।”
“अब ध्यान से सुन कि अब से ठीक दस मिनट बाद तूने क्या करना है।”
“क्या करना है?”
जवाब में उसने दीक्षित को कुछ समझाया, फिर सबको वहीं छोड़कर कविता के पीछे पीछे सीढ़ियां चढ़ता चला गया, जोकि ऊपर डॉक्टर के केबिन के करीब खड़ी उसका इंतजार कर रही थी।
अधिकारी ने लड़की का हाथ पकड़ा और करीब करीब खींचता हुआ डॉक्टर के केबिन में ले गया, फिर मेज के उस पार मौजूद रिवाल्विंग चेयर पर धकेलने के बाद, खुद भी उधर को टांगे लटकाकर मेज पर बैठ गया।
“अ...आप मेरे साथ बहुत गलत कर रहे हैं।” वह डरती-डरती बोली।
“अच्छा! ऐसा क्या कर दिया मैंने? तुम्हें थप्पड़ मारा, तुम्हें किस किया, तुम्हारे शरीर पर हाथ फिराया, या रेप कर दिया, बोलो क्या गलत किया है?”
“आपका इस वक्त का विहैवियर गलत लग रहा है मुझे।”
“अरे अरे, ऐसा था तो पहले बताना था, चलो मैं खुद को थोड़ा सुधारे लेता हूं - फिर क्षण भर ठहरकर बोला - अब बैठी बैठी मेरी शक्ल क्या देख रही हो शुरू क्यों नहीं करती?”
“क..क्या?”
“जुबान चलाना और क्या सैक्स करने को कह रहा हूं?”
“ये ये कैसी बातें कर रहे हैं आप? - उसकी आंखें भर आईं - मुझे अपने घर फोन करना है, और मैं यहां रुकना भी नहीं चाहती, डर लगने लगा है आपसे।”
“मुजरिमों को एक पुलिस ऑफिसर से डरना ही चाहिए, बताओ डॉक्टर का कत्ल क्यों किया तुमने?”
“अरे मैं क्यों मारूंगी?”
“तुम्हें रेप करने की कोशिश कर रहा था?”
“नहीं, डॉक्टर बहुत डीसेंट आदमी था।”
“मतलब उसके साथ सब राजी राजी होता था?”
“आपका दिमाग खराब हो गया है?”
“चुपकर साली।”
“व्हॉट! आपने मुझे गाली दी?”
“नहीं साली बोला, जो असल में एक रिश्ता होता है। और तूने तो सुना ही होगा कि साली आधी घरवाली होती है। सोचता हूं आज मौका हासिल है तो कुछ कर ही गुजरूं।”
“म...मैं जा रही हूं यहां से।” वह बुरी तरह बौखलाई उठी।
“जहां है वहीं बैठी रह बहन..., वरना वो हाल करूंगा कि किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह जायेगी - फिर उसने अपना दायां हाथ हौले से कविता के गाल पर रख दिया - बहुत दुःख हो रहा है मुझे ये सोचकर कि तेरे जैसी खूबसूरत लड़की जेल जाने वाली है। उफ्फ! एकदम नर्क है वह जगह, कैदियों को मौका मिले तो वहां रहने की बजाये आत्महत्या कर लेना ज्यादा पसंद करेंगे। फिर तू तो लड़की है, ऊपर से खूबसूरत, सैक्सी और हॉट भी है। बहुत बुरी बीतेगी, जाने कितनों को हर रात बर्दाश्त करना पड़ेगा, कैसे कर पायेगी?”
“अ...आप क्या बोल रहे हैं?”
“सच कह रहा हूं, जेल में ऐसा ही होता है। कभी जेलर का मन हुआ, तो कभी वॉर्डन का, कभी कभार तो जेल के सिपाहियों या दूसरे कैदियों को भी मौका मिल जाता है।”
“मैं जेल किसलिए जाऊंगी?”
“कत्ल के जुर्म में, और क्यों जायेगी?”
“मैंने कत्ल नहीं किया।”
“झूठ बोलेगी तो जुबान बाहर खींच लूंगा।”
“बाई गॉड, मैंने कुछ नहीं किया - वह रो पड़ी - कुछ नहीं किया मैंने, मुझे जाने दो यहां से।”
अधिकारी का हाथ गाल से सरककर कविता के कंधे पर पहुंच गया, जिसे धीरे धीरे नीचे की तरफ ले जाता हुआ वह बोला, “तूने ही किया है, तेरे फिंगर प्रिंट्स भी बरामद हो चुके हैं, अंदर बाहर दोनों जगहों से, नहीं तू बच नहीं सकती। इसलिए तेरी भलाई इसी में है कि अपनी मर्जी से गुनाह कबूल कर ले, वरना पुलिस की मार बहुत बुरी होती है, बर्दाश्त तो क्या कर पायेगी।”
“मैं क्यों मारूंगी डॉक्टर को?”
“क्योंकि तू उसकी सेवा कर कर के थक गयी थी, और अब चाहती थी कि वह तुझसे शादी कर ले, जिसके लिए डॉक्टर राजी नहीं हो रहा था। या तो उसने शादी वाली बात पर साफ इंकार कर दिया, या तुझे तेरी जात औकात दिखा दी, जिसपर तिलमिलाकर तूने उसके दिल में छुरा भोंक दिया।”
“नहीं, नहीं, और हम दोनों के बीच वैसा कुछ नहीं था जैसा आप सोच रहे हैं।”
“ये कैसे हो सकता है - इंस्पेक्टर का हाथ थोड़ा और नीचे की तरफ बढ़ा - तेरे जैसी शानदार लड़की से दूर भला कैसे रह सकता था वह? नहीं मुझे तेरे कहे पर यकीन नहीं आ रहा।”
“दो लोगों के बीच संबंध दोनों की मर्जी से बनते हैं इंस्पेक्टर साहब, ना कि किसी एक की मर्जी चल जाती है। मतलब डॉक्टर के मन में अगर वैसा कुछ था भी तो वह तब तक पूरा नहीं होने वाला था, जब तक कि मैं उसके लिए तैयार नहीं हो जाती।” कहते हुए उसने अधिकारी का हाथ अपने जिस्म से परे झटक दिया।
“शांत बैठी रह लड़की वरना इतनी ठुकाई करूंगा कि महीनों तक उठ बैठ नहीं पायेगी - वह गुर्राता हुआ बोला - अभी तक मैं बस तेरे लड़की होने का लिहाज कर रहा हूं, वरना तो कब का उठा ले गया होता थाने। जहां इतनी मार पड़ती कि तू सब बक देती। इसलिए अभी भी वक्त है कबूल कर ले कि उसे तूने ही मारा है, क्यों पुलिस के हाथों अपनी दुर्गति कराने पर तुली हुई है?”
कविता हिचकियां लेकर रोने लगी।
इंस्पेक्टर का हाथ एक बार फिर उसके जिस्म पर फिसलने लगा, इस बार वह चाहकर भी विरोध नहीं कर सकी। हां आंसुओं की रफ्तार थोड़ी बढ़ जरूर गयी, जिसकी परवाह कम से कम अधिकारी तो नहीं ही करने वाला था।
“मैं एक बार को मान भी लूं कि डॉक्टर को तूने नहीं मारा, तो भी तेरी गिरफ्तारी को टाल पाना पॉसिबल नहीं है। क्योंकि उन हालात में मामला उलझ जायेगा और डॉक्टर क्योंकि बड़ा आदमी था इसलिए उसके हत्यारे को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस पर दबाव भी खूब बनाया जायेगा। तब मेरे अफसरों को सबसे आसान शिकार तू ही दिखाई देगी, और मजबूरन ही सही तुझे गिरफ्तार कर के केस सॉल्व हुआ बता दिया जायेगा, मतलब तेरा जेल जाना तय है, चाहे जुर्म कबूल करे या न करे।”
“सिर्फ इसलिए - वो रोती हुई बोली - क्योंकि दरवाजे पर मेरी उंगलियों के निशान मिल गये हैं? जो तब बने थे जब मैंने यहां पहुंचकर केबिन के दरवाजे को दायें हाथ की हथेली से भीतर की तरफ धकेला था। फिर वैसे निशान तो यहां हर तरफ मौजूद होंगे, क्योंकि मैं दिन के 12-13 घंटे यहीं होती हूं।”
अधिकारी हड़बड़ाया, मछली फिसलती दिखाई दी।
“मैंने कहा न कि बात तेरे कातिल होने या न होने की नहीं है। बात है केस को फौरन सॉल्व कर दिखाने की, जो मैं कर के रहूंगा, क्योंकि उससे मुझे प्रमोशन हासिल होगी।”
“अपने प्रमोशन के लिए मुझे बलि का बकरा बना देंगे?”
“मजबूरी है, इतने बड़े आदमी का कत्ल हुआ है, इसलिए केस सॉल्व हुआ दिखाकर मजा ही आ जायेगा। सब मेरी पीठ ठोंक रहे होंगे, बधाईयां दे रहे होंगे। मीडिया जय जयकार करेगी सो अलग। इतना बड़ा मौका मैं अपने हाथ से कैसे जाने दे सकता हूं। रही बात एविडेंस की तो उनकी भी कोई कमी नहीं है। फॉरेंसिक टीम ने कत्ल बीती रात आठ से नौ के बीच हुआ बताया है - अधिकारी ने साफ झूठ बोला - और साढ़े आठ बजे तू यहीं थी, ये बात अपने मुंह से कबूल कर चुकी है। लाश के पास चॉकलेट का एक रैपर पड़ा मिला था, और चॉकलेट तुझे कितना पसंद है ये अपने पिछले फेरों में कई बार नोट कर चुका हूं मैं। रही बात डॉक्टर के साथ तेरे संबंधों की, जिससे तू इंकार करती है, तो उसका जवाब ये है कि वह रोज रात को तुझे तेरे फ्लैट तक छोड़ने जाता था, उतना ही काफी होगा तुम दोनों का अफेयर साबित करने के लिए। बाकी दरवाजे पर तेरे फिंगर पिं्रट्स तो हैं ही और....”
तभी उसका मोबाईल बजा, कॉल दीक्षित की थी जिसे उसने फौरन अटैंड कर लिया।
“हैलो सर।”
“मैंने डिस्टर्ब करने को मना किया था।”
“बात बहुत जरूरी है सर।”
“क्या?”
“रिसेप्शन की दराज में पांच सौ के नोटों की सूरत में तीन लाख रूपये मौजूद हैं।”
“व्हॉट!”
“सच कह रहा हूं सर।”
“अपना कहा जरा फिर से तो दोहराना।” कहते हुए उसने मोबाईल को हैंड्स फ्री मोड पर डाल दिया।
“मैं आपको ये बता रहा हूं सर कि रिसेप्शन डेस्क की दराज में पांच सौ के नोटों की सूरत में तीन लाख रूपये मौजूद हैं। मुझे लगता है ये वही रकम है जिसके बारे में फॉरेंसिक वालों ने बताया था कि मेज पर पड़े लिफाफे में रखी हुई थी।”
“बढ़िया, बहुत बढ़िया जानकारी दी हीरो, और एकदम सही वक्त पर दी।” कहकर उसने कॉल डिस्कनैक्ट कर के कविता की तरफ देखा, जो रोना भूलकर हकबकाई सी मेज पर रखे अधिकारी के मोबाईल को घूर रही थी।
“अब तो आप गयीं काम से मैडम।”
सुनकर वह जोर जोर से रोने लगी, ना कि उसकी बात के विरोध में कुछ कहने की कोशिश की। ये तक नहीं बोल पाई कि वह पैसे उसने रिसेप्शन डेस्क की दराज में नहीं रखे थे।
कुछ देर तक अधिकारी चुप बैठा रहा फिर बोला, “नहीं तुम्हारे खिलाफ जाती इतनी बातों को मैं नजरअंदाज नहीं कर सकता, फिर करूं तो क्यों करूं, तुमसे मुलाहजा क्या है मेरा? इसलिए मैं अभी के अभी तुम्हें डॉक्टर बरनवाल की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार करता हूं।”
उसके रुदन की रफ्तार बढ़ गयी।
“चलो अब नीचे चलते हैं।”
कहकर वह उठा ही था कि कविता ने एकदम से उसके पांव पकड़ लिये, “मुझपर रहम कीजिए इंस्पेक्टर साहब, भगवान के लिए मुझपर तरस खाईये।”
“मैं क्यों खाऊं?”
“क्योंकि मैं बेकसूर हूं।”
“तेरे कहने भर से क्या होता है, अदालत सबूतों को ध्यान में रखकर फैसले लेती है ना कि जज्बातों को, और तेरे खिलाफ एविडेंस की तो कोई कमी नहीं दिखाई दे रही मुझे। हां तू फेवर के बदले फेवर करने को तैयार हो जाये तो एक बार को विचार कर सकता हूं मैं।”
“क...कैसा फेवर?”
“ऐसा वाला।” कहकर उसने अपने दायें हाथ को कविता के गरेबान में घुसेड़ दिया।
लड़की ने तड़पकर उसका हाथ दूर झटका और उठकर खड़ी हो गयी, फिर गुस्से से कांपती हुई बोली, “ठीक है गिरफ्तार करना चाहते हो न मुझे कर लो, फिर मैं भी सबको बताऊंगी कि तुमने मेरे साथ कैसी कैसी घटिया हरकत की थी, वह भी बताऊंगी जो तुमने नहीं किया है। जब जेल जाना ही है तो डर किस बात का।”
सुनकर अधिकारी को गुस्सा आ गया, उसने ताबड़तोड़ दो थप्पड़ गालों पर जमाये और कसकर गला थामता हुआ बोला, “बहन... सुशांत अधिकारी को तेवर दिखाती है, अब तो तेरी खैर नहीं।”
“अरे क्यों मेरे पीछे पड़े हैं आप?”
“समझ ले अब नहीं पड़ा, तू जेल जाने को तैयार हो जा।”
सुनकर कविता फिर से रोने लगी।
“टेसुएं बहाने का कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि अपने किये की सजा सबको भुगतनी ही पड़ती है। तू भी भुगतकर रहेगी, अब देख मैं क्या करता हूं - कहने के बाद उसने दीक्षित को फोन लगाया - मोनालिसा को बुला हीरो, मुझे वह दस मिनट में यहां चाहिए। आनाकानी करे तो कहना अपने कफन दफन का इंतजाम कर ले। और यहां क्यों बुला रहा हूं वह बात तू अच्छी तरह से जानता है।”
कहकर उसने कॉल डिस्कनैक्ट की फिर कविता की तरफ देखा, “तुझे उम्रकैद से कम की सजा हो तो बेशक मेरे नाम का कुत्ता पाल लेना अपने दरवाजे पर। मैं ये भी वादा करता हूं तुझसे कि हवालात में गुजरा तेरा हर एक दिन सदियों जैसा महसूस होगा, उसके बाद जब तू जेल पहुंचेगी तो लगेगा जैसे नर्क से निकलकर स्वर्ग में आ गयी है। अब सुन कि मैं तेरे खिलाफ क्या क्या चार्ज लगाने वाला हूं, ये भी कि क्योंकर तू डॉक्टर बरनवाल की कातिल है। दम हो तो मेरी एक बात काटकर दिखा देना।”
कविता रोना भूलकर उसकी बात सुनने लगी। कभी हैरानी के साथ तो कभी सिर झुकाकर, जैसे उसके पास कहने के लिए कुछ बचा ही न हो, क्योंकि सच यही था कि अधिकारी की किसी भी बात का जवाब नहीं था उसके पास।
फिर वह घुटा हुआ पुलिसिया था, जिसके ट्रैप से, अगर वह कोई ट्रैप ही था, बच निकलना किसी नर्स के बस की बात तो हरगिज भी नहीं थी, भले ही वह कोई ऐसी नर्स ही क्यों न रही हो जिसने अपने बॉस का कत्ल कर दिया था...
मोनालिसा दस की बजाये पंद्रह मिनट में वहां पहुंची। वह चालीस साल की ठीकठाक सूरत वाली, भारी बदन की महिला थी, जो असल में कॉलगर्ल सप्लाई करती थी।
“कैसी है मोनी?”
“ठीक हूं सर, क्या बात है आपने हमारी लड़की को यहां क्यों बैठा रखा है, कुछ गलत कर दिया क्या इसने?”
कविता ने हैरानी से उस औरत की तरफ देखा।
“यानि पहचानती है इसे?”
“बिल्कुल पहचानती हूं, हालांकि थोड़ी नई है, अभी तीन चार महीने पहले ही मेरी टीम में शामिल हुई थी। और ग्राहकों के पास भी बस आठ दस बार ही गयी होगी।”
“क्या बक रही हो?”
“अरे नाराज क्यों होती है, अधिकारी साहब कोई गैर थोड़े ही हैं, अभी सब सेटल हो जायेगा, जिसके बाद तू आजाद होगी - कहकर उसने पुलिसिये की तरफ देखा - बात सिर्फ धंधे की है साहब या माल भी पकड़ा है इसके पास से।”
“यानि वह काम भी कराती है इससे?”
“छोटा मोटा, जैसे परसों रात को सौ ग्राम गांजा देकर भेजा था डिलीवरी के लिए।”
“और कल रात?”
“आई बराबर थी साहब, पौने नौ के करीब, तब बहुत घबराई हुई भी दिखाई दे रही थी। मगर बताया कुछ नहीं, बस मुझसे मिली और वापिस लौट गयी। लेकिन कुछ तो जरूर हुआ था इसके साथ क्योंकि कपड़ों पर खून लगा हुआ था।”
“ठीक है अब तू जा सकती है, जरूरत पड़ी तो बाद में बुलवा लूंगा।”
जवाब में वह अधिकारी को नमस्कार कर के वहां से निकल गयी।
“झूठ बोलकर गयी है ये औरत - कविता तड़पकर बोली - मैं वैसे गलत काम नहीं करती, आप चाहे जिससे पता कर लीजिए।”
“क्या फर्क पड़ता है, कोर्ट में उसकी गवाही तो हमारे पूरा पूरा काम आयेगी, अब चलिए कविता जी आपको लॉकअप की सैर कराते हैं। बाकी की पूछताछ थाने के इंटेरोगेशन रूम में करेंगे।”
तब तक लड़की के कस बल ढीले पड़ चुके थे। वह कुछ सोचने समझने की स्थिति में नहीं बची थी। नतीजा ये हुआ कि वह झुक गयी, और उसके झुकते के साथ ही अधिकारी की लॉटरी लग गयी। फिर वह सबकुछ हुआ जो वह चाहता था। जिसमें कविता की कोई मर्जी शामिल नहीं थी।
असल में लड़की तीन वजहों से हार मान गयी। पहली ये कि महीने भर बाद उसकी शादी होने जा रही थी। दूसरी ये कि एक बार गिरफ्तार होने के बाद वह बेकसूर साबित भी हो जाती तो उससे उसका कोई अला भला नहीं होने वाला था। और तीसरी बात थी अधिकारी की जिद, उसे लगने लगा था कि वह जो कह रहा था उसे साबित कर के भी दिखा सकता था।
इसलिए दो मुसीबतों में से जो छोटी लगी उसका चुनाव उसने कर लिया।
अपनी जीत पर इंस्पेक्टर सुशांत अधिकारी फूले नहीं समा रहा था। यही वजह रही जो अभी तक उसने एक बार भी इस बात पर विचार नहीं किया कि कातिल कविता कुमावत भी रही हो सकती थी।
बहरहाल डॉक्टर बरनवाल के कत्ल का मामला शुरू में जितना आसान दिखाई दे रहा था, आगे के दिनों में उतना ही उलझता चला गया। पुलिस के दिमाग की चूलें हिल गयीं, महीना दर महीना गुजरता चला गया और देखते ही देखते एक साल गुजर गया, मगर कातिल का कोई सुराग उनके हाथ नहीं लगा। वह तो जैसे कत्ल के बाद हवा में विलीन हो गया था, या विलीन कर दिया गया था। या पुलिस जानबूझकर उसकी तरफ से आंखें बंद कर के बैठ गयी थी।
जांच के दौरान सौ से कहीं ज्यादा लोगों से पूछताछ की गयी, कई बिंदुओं पर इंवेस्टिगेशन की गयी, जिनमें अहम थे स्ट्रीट क्राईम, ड्रग कार्टल, लव ट्रैंगल। केस में स्निफर डॉग की हैल्प ली गयी। साईंटिफिक के साथ-साथ ह्यूमन इंटेलिजेंस का सहारा लिया गया, मगर सब बेकार। कहीं से कोई लीड हासिल नहीं हुई। आखिरकार थक हारकर पुलिस ने अदालत में अनट्रेस्ड रिपोर्ट दाखिल कर दी।
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