कोतवाली के उस कमरे में पता नहीं मैं कब से मौजूद था । कमरे में कोई खिड़की या रोशनदान नहीं था । लाल पत्थरों की दीवारों में से एक में केवल एक लोहे का दरवाजा था और वह भी उस वक्त बन्द था । लोगों की आवाजाही की वजह से कभी वह दरवाजा खुलता था तो मुझे बाहर गलियारे के दर्शन हो जाते थे ।
कमरे के बीचोंबीच एक मेज मौजूद थी जिसके पास एक स्टूल पर बड़ी ही असुविधाजनक स्थिति में मैं बैठा हुआ था । मेज पर एक टेबल लैम्प रखा था, जिसमें एक दो सौ वॉट का बल्ब लगा हुआ था और उसका रुख सीधा मेरे चेहरे की तरह तरफ था । बल्ब की गर्मी और रोशनी दोनों से ही मेरा बुरा हाल था । मेरी आंखें चौंधिया रही थीं, सिर फिरकनी की तरह घूम रहा था और टेबल लैम्प के पीछे खड़ा वह सूरत से ही खतरनाक लगने वाला इन्स्पेक्टर मुझे भूत-सा दिखाई दे रहा था ।
“इधर मेरी तरफ देखो ।” - इन्स्पेक्टर कर्कश स्वर में बोला ।
मैंने बड़ी मेहनत से सिर उठाया और अपनी धुंधलाई-सी आंखों के सामने खड़े इन्स्पेक्टर और उसकी अगल-बगल खड़े उसके दो चमचों की सूरत देखने की कोशिश की ।
“सच-सच बोलो, क्या हुआ था ?”
मैं खामोश रहा ।
“पहले तुमने उसे पीटा, फिर उसके साथ बलात्कार किया और फिर गला घोंटकर मार डाला ।” - इन्स्पेक्टर आशापूर्ण स्वर में बोला - “ठीक ?”
“यह झूठ है ।” - मैंने चिल्लाकर कहने की कोशिश की, लेकिन आवाज मेरे गले में फंसकर रह गई । अपनी बेगुनाही की दुहाई देते-देते मेरा गला बैठ गया था । मैं भर्राए स्वर में बोला - “यह झूठ है । मैं हजार बार कह चुका हूं कि यह झूठ है । मैंने ऐसा कुछ नहीं किया । मैं इन्सान हूं । कोई वहशी दरिन्दा नहीं । मैं सपने में भी नहीं सोच सकता कि मैं किसी औरत के साथ...”
“तुम उस औरत के साथ थे । तुमने खुद कबूल किया है ।”
“हां ।”
“आधी रात को तन्हाई में ! उस कॉटेज में अकेले !”
“हां, लेकिन मैंने उसके साथ बलात्कार नहीं किया । मैंने उसका कत्ल नहीं किया ।”
“तो फिर क्या किया तुमने ? क्या कर रहे थे तुम उसके साथ वहां ?”
“मैं पहले कई बार बता चुका हूं कि...”
“पहले तुम बार-बार झूठ बोलते रहे हो । अब सच-सच बोलो । सच बोले बिना तुम्हारी खलासी नहीं होने वाली, मिस्टर ।”
“लेकिन मैं सच बोल रहा हूं ।”
“तुम झूठ बोल रहे हो ।”
एक पुलिसिया कोई निहायत घटिया सिगरेट पी रहा था जिसके धुएं से बन्द कमरा भरा हुआ था । रोशनी की वजह से पहले से ही जल रही मेरी आंखों को धुआं बुरी तरह चुभ रहा था । कई घंटों से मैं वहां मौजूद था । मुझे यह भी मालूम नहीं था कि उस वक्त अभी दिन था या रात हो चुकी थी । स्टूल पर बैठे-बैठे मेरे जिस्म का पोर-पोर दुखने लगा था । मैं उठकर खड़ा होने की कोशिश करता था तो मैं वापिस स्टूल पर धकेल दिया जाता था । मैं रोशनी की तरफ से गर्दन घुमाने की कोशिश करता था तो कोई मुझे बालों से पकड़कर मेरा सिर रोशनी की तरफ घुमा देता था । ऊपर से मैं भूखा-प्यासा था । किसी को यह ख्याल नहीं आया मालूम होता था कि मुझे भूख-प्यास भी लग सकती थी । मुझे लग रहा था कि अब मैं किसी भी क्षण बेहोश होकर फर्श पर ढेर हो जाऊंगा ।
मेरे सामने मौजूद इन्स्पेक्टर ने मुझे अपना नाम महिपाल सिंह बताया था । वह मुझसे मेरा अपराध - वह अपराध जो मैंने नहीं किया था - कुबूलवा लेने की कसम खाये मालूम होता था । अभी इतनी गनीमत थी कि किसी ने मुझ पर हाथ नहीं उठाया था लेकिन हकीकत यह थी कि उसके बिना भी मेरी हालत बड़ी सोचनीय थी ।
“यह न-न करते रहने से तुम्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला बसन्त कुमार ।” - इन्स्पेक्टर महिपाल सिंह बोला - “तुम फंस चुके हो । हमारे पास तुम्हारे खिलाफ ढेरों सबूत हैं ।”
“तो फिर मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ते हो ?” - मैं आर्तनाद करता हुआ बोला - “बार-बार वही सवाल पूछने बन्द क्यों नहीं करते हो ?”
“मैं चाहता हूं तुम अपना अपराध अपने मुंह से कबूल करो ।”
“उससे क्या फर्क पड़ता है ?”
“उससे पुलिस का काम आसान हो जाता है ।”
“मैं पुलिस का काम आसान नहीं करना चाहता । तुम मुझे फांसी पर चढ़ाने का सामान कर रहे हो और चाहते हो कि मैं इस काम में तुम्हारी मदद करूं ?”
“लेकिन अगर तुम शरीफ आदमी की तरह अपना अपराध खुद कबूल कर लोगे तो तुम फांसी पर नहीं चढ़ोगे । जो कुछ तुमने किया है वह सिर्फ एक दिमागी तौर पर बीमार आदमी का ही काम हो सकता है । तुम्हें फांसी नहीं होगी । तुम्हें इलाज के लिए हस्पताल भेज दिया जायेगा, जहां कि तुम एकदम ठीक कर दिये जाओगे ।”
“शुक्रिया । लेकिन मैंने कत्ल नहीं किया । मैंने उस लड़की को हाथ तक नहीं लगाया था ।”
“बकवास ! अभी तुम खुद कबूल करके हटे हो कि तुम उसके नग्न शरीर को अपनी बांहों से दबोचे रहे थे और अब...”
“मेरा मतलब है मैंने चोट पहुंचाने की खातिर उसे हाथ नहीं लगाया था । मैंने उस पर हाथ नहीं उठाया था । मैंने उसके साथ कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की थी । जरूरत ही नहीं थी ।”
“शुरु में नहीं रही होगी, लेकिन बाद में जब वह राजी नहीं हुई होगी तो तुम पागल हो उठे होंगे । थोड़ी देर के लिए अपने मस्तिष्क से तुम्हारा कंट्रोल उठ गया होगा और तुम हैवानी हरकतों पर उतर आये होगे । फिर जब तुम्हारा जुनून उतरा होगा तो तुम्हें मालूम हुआ होगा कि तुमने तो उसका गला घोंट दिया था और वह मर गई थी । ऐसा ही हुआ था न ?”
“नहीं । मैंने उसका गला नहीं घोंटा ।”
“तुम्हारा मतलब है कि तुम्हें याद नहीं है कि तुमने उसका गला घोंटा था या नहीं ।”
“मुझे खूब याद है कि मैंने उसका गला नहीं घोंटा ।”
“तुम उस वक्त नशे में थे ?”
“नहीं ।”
“तुम इन्कार करते हो कि तुमने लड़की के साथ विस्की पी थी ?”
“नहीं । मैं इन्कार नहीं करता । मैंने दो पैग विस्की पी थी । लेकिन दो पैग विस्की पीने से कोई नशे में नहीं हो जाता ।”
“हो सकता है ।”
“हो सकता होगा । मेरे साथ नहीं हो सकता ।”
“लेकिन...”
“और भगवान के लिए थोड़ी देर मेरा पीछा छोड़ो । तुम सात जन्म भी लगे रहोगे तो मैं वह नहीं कहूंगा जो तुम मुझसे कहलवाना चाहते हो ।”
“देखो ।” - वह कठोर स्वर में बोला - “तुम पढ़े-लिखे आदमी मालूम होते हो इसलिए मैं तुम्हारे साथ बड़े सब्र से पेश आ रहा हूं । मुझे कोई सख्त कदम उठाने के लिए मजबूर मत करो ।”
“आप खामखाह इसके साथ इतनी शराफत से पेश आ रहे हैं, साहब ।” - एकाएक इन्स्पेक्टर की बगल में खड़ा एक पुलिसिया बोल पड़ा - “ये लातों के भूत बातों से मानने वाले नहीं होते । मुझे सिर्फ आधा घंटा इसके साथ अकेला छोड़ दीजिए और फिर देखिए यह कौन-सा राग अलापता है ।”
“सुना तुमने ?” - महिपाल सिंह बोला ।
“सुना ।” - मैं बोला - “लेकिन मुझे मार-पीटकर मुझसे यहां कुछ कुबुलवा लेने से तुम्हें कोई फायदा नहीं होने वाला । मैं अदालत में पेश किया जाऊंगा तो वही बयान दूंगा जो कि सच है । और साथ में मैं मजिस्ट्रेट से पुलिस ब्रूटिलिटी की शिकायत भी करूंगा ।”
“ठहर जा, साले !” - पहले वाला पुलिसिया कहरभरे स्वर में बोला और मेरी तरफ झपटा लेकिन इन्स्पेक्टर महिपाल सिंह ने उसकी बांह पकड़कर उसे वापिस खींच लिया । वह कुछ क्षण मुझे घूरता रहा फिर बोला - “बोलो, उस लड़की के कत्ल की नौबत कैसे आई ?”
“मुझे क्या पता कैसे आई ?” - मैं बोला - “मैंने उसका कत्ल नहीं किया ।”
“तुम एक ही राग अलापना बन्द नहीं करोगे ?”
“नहीं ।”
“ठीक है । अपना नाम बोलो ।”
“मैं बीस बार बोल चुका हूं ।”
“फिर बोलो ।”
“तुम बार-बार यही सवाल पूछते रहकर मुझे तोड़ नहीं सकते ।”
“अपना नाम बोलो ।”
“बसन्त कुमार ।”
“उम्र ?”
“अट्ठाइस साल ।”
“काम धन्धा ?”
“मिर्जा इस्माइल रोड पर मेरा मोटर मैकेनिक गैरेज है ।”
“तुम्हारा अपना ? उसके मालिक तुम हो ?”
“हां ।”
“असल में कहां के रहने वाले हो ?”
“जालन्धर का ।”
“कभी कोई पुलिस केस बना है तुम्हारे साथ ?”
एक ! - मैं मन ही मन बोला - दर्जनों । अभी तुम्हें पता लग जाये कि बसन्त कुमार मोटर मैकेनिक की हकीकत क्या है तो तुम्हारी इस कमरे में मेरे इतने पास खड़े होने की हिम्मत न हो । प्रत्यक्षत: मैं बोला - “नहीं ।”
“तुमने कंचन का कत्ल क्यों किया ?”
फिर वही सवाल । बार-बार । बार-बार । मेरी कनपटियों में खून बज रहा था । मेरा दिमाग फटने को हो रहा था । शायद वह इन्स्पेक्टर अपने बेमानी सवालों को बार-बार दोहराकर मुझे इस हद तक पागल कर देना चाहता था कि मैं भूल जाता कि हकीकत क्या थी और फिर मैं खुद विश्वास करने लगता कि मैंने ही कंचन का खून किया था । वह चाहता था कि वह झूठी बात मेरे भेजे में इस कदर घर कर जाये कि मैं भूल जाऊं कि वह झूठी बात थी ।
उस मुसीबत से छुटकारे का, बकौल इन्स्पेक्टर महिपाल, केवल एक तरीका था कि मैं अपना अपराध कबूल कर लूं और इकबालिया बयान पर हस्ताक्षर कर दूं ।
“मैंने कंचन का कत्ल नहीं किया ।” - मैं लगभग रोता हुआ बोला ।
“अपना नाम बोलो ।”
दाता !
“अपना नाम बोलो ।”
“बसन्त कुमार ।”
“कंचन को कब से जानते हो ?”
“मैं नहीं जानता उसे । मैं बता चुका हूं कि इत्तफाक से ही मेरी उससे मुलाकात हो गई थी ।”
“फिर से बताओ ।”
वाहे गुरु ! सच्चे पातशाह ! मैं पापी तू बख्शनहार !
***
आरंभ में मैं यह फैसला नहीं कर सका था कि जयपुर में टिका रहकर मैंने समझदारी की थी या नादानी । बीकानेर बैंक की वैन की डकैती का लगभग अड़तालीस लाख रुपया बैंक को वापिस लौटा देने के बाद उसूलन मुझे जयपुर से खिसक जाना चाहिए था । मेरा इरादा भी यही था कि मैं जयपुर से सीधा चण्डीगढ़ जाऊंगा और दूर-दूर भटकने के स्थान पर कुछ अरसा चैन से नीलम के साथ रहूंगा ।
लेकिन मुझे लालच आ गया ।
जिन लोगों को यह मालूम था कि बैंक वैन रॉबरी के साथ मेरा भी सम्बन्ध था, वे मर चुके थे । उस अपराध में मेरे सहयोगी ठाकुर शमशेर सिंह, प्रहलाद कुमार, तीरथ सिंह, राकेश और मीना भगवान को प्यारे हो चुके थे । बैंक की बख्तरबन्द गाड़ी मैंने जयपुर से बहुत दूर फुलेरा के पास एक जोहड़ में खुद डुबोई थी । उस गाड़ी की बरामदी से भी मेरा सम्बन्ध उस डकैती के साथ जोड़ा जा सकता था क्योंकि वह गाड़ी सर्विसिंग के लिए मेरे गैरेज में आया करती थी और उसके बुलेटप्रूफ शीशे मेरे गैरेज में बदले गये थे । गाड़ी बरामद हो जाने पर उसके शीशे टूटे पाये जाने पर पुलिस अधिकारियों को यह समझने में देर न लगती कि उस डकैती में बसन्त कुमार मोटर मैकेनिक का उर्फ मेरा भी हाथ था क्योंकि वे शीशे मेरे गैरेज के अलावा और कहीं नहीं बदले जा सकते थे ।
लेकिन जोहड़ में से वैन न बरामद हुई थी और न होने वाली थी । प्रत्यक्षत: जयपुर में टिके रहने में मुझे खतरा नहीं था । वहां मिर्जा इस्माइल रोड पर मोटर मैकेनिक गैरेज का मेरा जमा-जमाया धन्धा था जिसका लालच मुझे मजबूर कर रहा था कि मैं वहीं टिका रहूं ।
मैं टिक गया ।
तूफान गुजर जाने के बाद जिन्दगी में फिर ठहराव आ गया ।
तब तक सारे देश में इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल उर्फ विमल कुमार खन्ना उर्फ गिरीश माथुर उर्फ बनवारी लाल तांगे वाला उर्फ रमेश कुमार शर्मा उर्फ कैलाश मल्होत्रा उर्फ बसन्त कुमार मोटर मैकेनिक की तलाश की सरगर्मियां भी ठण्डी पड़ चुकी थीं और हर आने वाले दिन मैं उस मोटर मैकेनिक गैरेज में अपने-आपको पहले से ज्यादा सुरक्षित पाता था ।
लेकिन मेरी जिन्दगी में सुरक्षा का क्या काम ! सुख, चैन और इत्मीनान का क्या काम ! वाहे गुरु अपने गुनहगार बन्दों को सुरक्षा, सुख, चैन और इत्मीनान का सांस कहां आने देता है !
इस बार तकदीर ने मुझे ऐसी पटखनी दी कि मेरे होश उड़ गये ।
इस बार मैं किसी जयशंकर, किसी अजीत, किसी मायाराम बावा या किसी ठाकुर शमशेर सिंह की दगाबाजी का शिकार नहीं बना । इस बार केवल मेरी तकदीर ने मेरे साथ खलनायक जैसा व्यवहार किया ।
मैं, सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल, कई डकैतियों का अपराधी, कई हत्याओं का अपराधी, देश के छ: राज्यों द्वारा घोषित इश्तिहारी मुजरिम, एक ऐसे अपराध की एवज में पकड़ा गया जो मैंने नहीं किया था ।
भाग्य की कैसी विडम्बना थी कि मेरे दर्जनों अपराधों में से हर अपराध ऐसा था कि वह मुझे फांसी के फन्दे पर पहुंचा सकता था, लेकिन मेरी हकीकत से बेखबर, मेरी गिरफ्तारी के बाद भी बेखबर पुलिस इंस्पेक्टर महिपाल सिंह मुझसे एक ऐसी हत्या का अपराध कबूलवाना चाहता था जो मैंने नहीं की थी ।
कंचन नाम की एक लड़की की हत्या हो गई थी और पुलिस मुझे पकड़कर ले गई थी । हर नगर के हर थाने में मेरा कच्चा चिट्ठा मौजूद था, लेकिन किसी भी पुलिसिये ने मुझे इश्तिहारी मुजरिम के रूप में नहीं पहचाना था ।
कैसी अजीब बात थी !
फांसी का हकदार मैं सरासर था, लेकिन उस अपराध के लिए नहीं, जिसकी वजह से इंस्पेक्टर महिपाल मुझे फांसी पर चढ़वाने को आमादा था ।
हत्या की रात से पहले मैंने कंचन की कभी सूरत तक नहीं देखी थी ।
मेरे एक पक्के ग्राहक की गाड़ी, जयपुर एयरपोर्ट के पास बिगड़ गई थी । वह टैक्सी पर सवार होकर नगर में आ गया था और मुझे मेरे गैरेज में बताता गया था कि गाड़ी कहां बिगड़ी खड़ी थी । कार की चाबियां उसने मुझे सौंप दी थीं और कहा था कि गाड़ी को दुरुस्त करने के लिए मैं फौरन कुछ करूं क्योंकि उसे उसकी सख्त जरूरत थी ।
मैं अपने औजार वगैरह के साथ एक थ्री-व्हीलर पर सवार होकर एयरपोर्ट की ओर रवाना हो गया था ।
दो घंटे के अनथक परिश्रम के बाद मैं गाड़ी ठीक कर पाया था ।
रास्ते में मैंने देखा कि गाड़ी में इतना पैट्रोल नहीं था कि मैं नगर तक पहुंच पाता ।
मैंने उसे एक पैट्रोल पम्प पर ले जाकर रोका था ।
मैं पैट्रोल डलवा रहा था कि मेरी मौजूदा मुसीबत का सामान कंचन वहां पहुंची थी ।
वह एक पुरानी-सी फियेट चला रही थी । फियेट झटके खा-खाकर चल रही थी और उसके इंजन में से ठक-ठक की आवाज आ रही थी । मैं उस आवाज को खूब पहचानता था । गाड़ी का खानाखराब होने वाला था, बल्कि हो ही चुका था, पता नहीं वह कैसे वहां पहुंच पायी थी ।
उसने अपनी फिएट एकदम मेरी कार की बगल में लाकर रोकी । वह कार से बहुत खफा लग रही थी और उसके होंठ यूं चल रहे थे जैसे वह कार को कोस रही हो ।
वह कार से बाहर निकली । उसने बड़े क्रोधित भाव में कार का दरवाजा बन्द किया ।
मैंने देखा वह लगभग छब्बीस-सत्ताईस साल की लम्बी, ऊंची, कद्दावर युवती थी । वह एक हल्के पीले रंग की शिफॉन की साड़ी पहने थी और उसके शरीर और चेहरे में वे तमाम गुण दिखाई दे रहे थे जो किसी युवती को आकर्षक, दर्शनीय और मर्द की तारीफी निगाहों का हकदार बनाते हैं । उसकी चाल में एक कैब्रे डान्सर जैसी थिरकन थी और चेहरे पर अभिसारिकाओं जैसे हाव-भाव थे ।
उसने एक उड़ती-सी निगाह मुझ पर डाली और फिर पम्प के मालिक की ओर आकर्षित हुई ।
“यहां कोई मिस्तरी है ?” - वह परेशान स्वर में बोली ।
“क्या बात हो गई है, मैडम ?” - पम्प का मालिक बोला ।
“गियर बॉक्स में कोई गड़बड़ है” - वह बोली - “गियर फंस जाता है और ब्रेक भी ठीक से नहीं लग रही ।”
“ओह ! कब से हैं ये नुक्स ?”
“अभी पैदा हुए हैं ।” - वह बोली - “एयरपोर्ट के पास जो टूरिस्ट कॉटेज हैं, मैं उनमें ठहरी हुई हूं । अभी जब मैं वहां पहुंची थी तो गाड़ी एकदम ठीक थी । कुछ शॉपिंग वगैरह करने के लिए शहर से लौट रही थी कि एकाएक ही यह गड़बड़ हो गई ।”
“च-च-च । मिस्तरी तो छुट्टी पर गया हुआ है । वह तो अब कल सुबह आयेगा ।”
“हाय राम ! मैं वापस अपनी कॉटेज में कैसे पहुंचूंगी ? इस वक्त तो यहां कोई सवारी भी नहीं मिलेगी ।”
पम्प के मालिक ने बड़े हमदर्दीभरे ढंग से सिर हिलाया ।
तभी उसका ध्यान मेरी ओर आकर्षित हुआ ।
“सुनिए ।” - वह आशापूर्ण स्वर में बोली - “क्या आप मेरी कोई मदद कर सकते हैं ?”
“मैं आपकी बहुत मदद कर सकता हूं ।” - मैं सहज भाव से बोला - “मिर्जा इस्माइल रोड पर मेरा मोटर मैकेनिक गैरेज है । मैं आपकी गाड़ी को टो करके वहां ले जा सकता हूं । वहां इसकी मरम्मत हो जायेगी ।”
“यानी कि वापस शहर जाना होगा ?”
“हां ।”
“गाड़ी यहीं ठीक नहीं हो सकती ?”
“जो नुक्स आप इसमें बता रही हैं, वह यहां ठीक होने वाला नहीं ।”
“ओह !”
मैं खामोश रहा ।
“लेकिन मैं वापस शहर नहीं जाना चाहती । खासतौर से मिर्जा इस्माइल रोड ।”
“वजह ?”
“है कोई वजह । आपकी समझ में नहीं आयेगी ।”
मैंने लापरवाही से कन्धे झटकाये ।
“आप मुझे अपनी कार पर मेरे कॉटेज पर छोड़कर आ सकते हैं ?” - वह आशापूर्ण स्वर में बोली ।
“आ सकता हूं ।” - मैं बोला ।
“शुक्रिया ।”
पम्प का मालिक ईर्ष्याभरी निगाहों से मुझे यूं देख रहा था जैसे उसे अफसोस हो रहा हो कि युवती ने वह प्रार्थना उससे क्यों नहीं की थी ।
“आप कल गाड़ी ठीक करवाकर मेरे कॉटेज में भिजवा देंगे ?” - युवती ने पम्प के मालिक से पूछा ।
“जरूर । मैं कल गाड़ी ठीक होते ही इसे लेकर आपके कॉटेज पर पहुंच जाऊंगा । आप कौन से कॉटेज में हैं ?”
“नौ नम्बर में ।” - उसने कार की चाबियां उसे सौंप दी और बोली - “शुक्रिया ।”
वह मुस्कराया ।
फिर उसने कार में से सामान से भरे दो बड़े-बड़े प्लास्टिक के झोले निकाले और मेरी कार की तरफ बढ़ी ।
मैंने आगे बढ़कर कार की ड्राइविंग सीट से परली तरफ का अगला दरवाजा खोला ।
वह सामान समेत कार में सवार हो गई ।
पम्प का मालिक लार-सी टपकाता हुआ उसे देख रहा था ।
मैंने पैट्रोल के पैसे अदा किये और कार में सवार हो गया ।
एयरपोर्ट के पास आई डी सी के कॉटेज थे जिसमें अक्सर टूरिस्ट लोग ठहरते थे । मुझे उन काटेजों की खबर थी ।
मैंने कार उस तरफ भगा दी ।
“मेरा नाम कंचन है ।” - रास्ते में एकाएक वह बोली ।
“बन्दे को बसन्त कुमार कहते हैं ।” - मैं बोला ।
“मैं आपको तकलीफ दे रही हूं लेकिन...”
“तकलीफ की कोई बात नहीं ।”
“इतनी रात गये मुझे कोई सवारी मिल भी जाती तो इस सुनसान रास्ते पर अकेले सफर करते मुझे डर लगता ।”
“मुझसे डर नहीं लग रहा आपको ?” - मैं उपहासपूर्ण स्वर में बोला ।
उसने एक बार गौर से मेरी सूरत देखी और फिर गम्भीर स्वर में बोली - “नहीं ।”
मैं खामोश रहा ।
थोड़ी देर खामोशी रही । फिर बोली - “काम क्या करते हो ?”
“अभी बताया तो था । मिर्जा इस्माइल रोड पर मेरा मोटर मैकेनिक गैरेज है ।”
“यह गाड़ी तुम्हारी है ?”
“नहीं । एक ग्राहक की है । एयरपोर्ट पर बिगड़ गई थी । ठीक करके वापस ले जा रहा था ।”
“तुम पढे-लिखे आदमी लगते हो ?”
“ठीक पहचाना आपने ।”
“खूब पढे-लिखे आदमी लगते हो ।”
“यह भी ठीक पहचाना ।”
“लेकिन तुम्हारा यह धन्धा...”
“क्या नुक्स है इसमें ? क्या इसीलिए खराब है कि यह धन्धा क्योंकि इसमें हाथ से काम करना पड़ता है ?”
“नहीं-नहीं, मेरा यह मतलब नहीं था... मेरा मतलब था कि इस धन्धे में तो अक्सर कम पढे-लिखे लोग होते हैं और मैले-कुचैले से रहते हैं ।”
“रहन-सहन का अपना-अपना सलीका होता है, मैडम । जो काम-धन्धे सोफिस्टीकेटिड समझे जाते हैं, मैंने उनमें भी मैले-कुचैले रहने वाले लोग देखे हैं ।”
वह खामोश रही ।
“और फिर मैंने अपने-आपको मोटर-मैकेनिक कहा, ऑटोमोबाइल इंजीनियर कहता तो मेरे बारे में शायद आपको कुछ अटपटा न लगता ।”
“आई एम सॉरी । आई डिड नॉट मीन एनी औफेंस ।”
“नैवर माइन्ड ।”
थोड़ी देर के लिए खामोशी छा गई ।
“आप क्या करती हैं ?”
“तुमने जयपुर की चेतक क्लब का नाम सुना है ?”
“वह जो मिर्जा इस्माइल रोड पर ही रेडियो स्टेशन के पास है ?”
“हां ।”
“सुना है ।”
“मैं उसमें होस्टेस हूं ।”
“आई सी । लेकिन फिर आप टूरिस्ट कॉटेज में क्यों रह रही हैं ?”
“है कोई वजह ।”
“जो आप बताना नहीं चाहतीं ?”
“जो तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी ।”
“ओह !”
“दरअसल मैं कभी-कभी जयपुर से बोर हो जाती हूं । तब मैं शहर से बाहर वैसा एक कॉटेज लेकर कुछ दिन तनहाई और इत्मिनान में गुजारती हूं और फिर शहर के हंगामों में शामिल होने के लिए वापस लौट जाती हूं ।”
“हूं ।”
तभी कार काटेजों के पास पहुंच गई ।
वहां एक विशाल कम्पाउण्ड में कोई दो दर्जन कॉटेज एक-दूसरे से परे-परे अर्ध-वृत्ताकार में बने हुए थे । मैंने कार को फाटक से भीतर दाखिल किया और उसे नौ नम्बर कॉटेज के सामने ले जाकर रोक दिया ।
कंचन कार से बाहर निकली । अपने झोले उसने कार में ही रहने दिये और कॉटेज की तरफ बढी । उसने चाबी लगाकर कॉटेज का ताला खोला और भीतर दाखिल हुई । अगले ही क्षण भीतर बत्ती जल उठी ।
मैं झोले लेने के लिए उसके लौटने की प्रतीक्षा करता रहा लेकिन उसे आता न पाकर मैं कार से बाहर निकला । मैंने दोनों झोले सम्भाले और कॉटेज की तरफ बढा ।
वह दो कमरों का कॉटेज था । कंचन बाहरी कमरे में नहीं थी । मैं धीरे से खांसा ।
“झोले ले आये ?” - भीतर से आवाज आई ।
“हां ।” - मैं बोला ।
“यहां ले आओ ।”
“अच्छा ।”
मैं भीतर कमरे में दाखिल हुआ । वह एक बैडरूम था जिसके बीचोंबीच डबलबैड लगी हुई थी । कंचन वहां भी नहीं थी । मैंने झोले पलंग पर रख दिये ।
तभी वह बाथरूम से बाहर निकली ।
“मैं चलता हूं ।” - मैं बोला ।
“बैठो ।” - वह बोली ।
“नहीं ।” - मैं अनिश्चित स्वर में बोला - “बहुत रात हो गई है और मुझे बड़ी दूर जाना है । जिन साहब की गाड़ी मेरे पास है, वे भी मेरा इन्तजार करते होंगे ।”
“विस्की पीते हो ?”
प्रश्न इतना अप्रत्याशित था कि मैं हड़बड़ाकर उसका मुंह देखने लगा ।
“पीता हूं लेकिन...”
“उस परले झोले में विस्की की बोतल है । निकालो ।”
मैंने झिझकते हुए झोले में हाथ डाला । मेरी उंगलियां वैट-69 की बोतल की लम्बी गरदन से लिपट गई ।
“इसे बाहर ले चलो ।” - वह बोली - “बाहर गिलास भी पड़े हैं ।”
“मैडम, मेरे ख्याल से मैं चलता हूं ।”
“अरे, चले जाना । तुमने मेरी वजह से इतनी जहमत उठाई है । क्या तुम्हें एक ड्रिंक ऑफर करने का मेरा फर्ज नहीं बनता ?”
“वह तो ठीक है लेकिन...”
“ओह, कम ऑन ।”
मैं बोतल सम्भाले बैडरूम से बाहर निकल आया ।
थोड़ी देर बाद जब वह बैडरूम से बाहर निकली तो उसके हाथ में एक पानी का जग था और दूसरे में सलामी से भरी एक प्लेट थी ।
“अरे ! ड्रिंक्स तैयार नहीं की तुमने ?” - वह बोली ।
“मुझे गिलास नहीं मिले ।” - मैं सरासर झूठ बोलता हुआ बोला ।
“वह सामने तो रखे हैं ।”
मैं खामोश रहा ।
उसने जग और प्लेट मेज पर रख दी और दो गिलास ले आई । उसने बोतल खोली और दो तगड़े जाम तैयार किये । उसने एक गिलास मेरी तरफ सरका दिया और एक खुद ले लिया । मैंने झिझकते हुए अपना गिलास उठा लिया ।
“चियर्स !” - वह अपना गिलास उठाकर उसे ऊंचा करती हुई बोली ।
“चियर्स !” - मैं धीरे से बोला ।
मैंने अपना जाम यह सोचकर जल्दी खाली किया था कि मैं वहां से जल्दी रवाना हो सकूं लेकिन उसने उसका गलत मतलब लगाया । उसने मेरे न-न करते-करते भी मेरे गिलास में विस्की डाल दी ।
दो पैग स्कॉच विस्की मेरे पेट में जाते ही मेरे कदम हवाओं के हिंडोलों पर पड़ने लगे । अब एकाएक मुझे वहां से रवाना होने की जल्दी नहीं लग रही थी । विस्की के साथ सलामी खाने से मुझे वैसे भी नशा कुछ ज्यादा होता था ।
“चेतक क्लब में तुम क्या करती हो ?” - एकाएक मैंने पूछा ।
“बताया तो था होस्टेस हूं ।” - वह बोली ।
“वह तो हुआ लेकिन वहां तुम्हारा काम क्या होता है ?”
“मेहमानों की आवभगत करना । उनकी दिलजोई करना । क्लब का मालिक नाहर सिंह कहता है कि सुन्दरी के स्वागत का क्लब के मेहमानों पर खास असर होता है, जो क्लब के धन्धे के हक में बड़ा अच्छा होता है ।”
“उस क्लब में होता क्या है ?”
“वह सभी कुछ होता है, जो किसी मनोरंजन के स्थान पर होना चाहिए । कभी आकर देखो ।”
“आऊंगा ।”
“जयपुर में बल्कि सारे राजस्थान में, वह इकलौती जगह है जहां कैब्रे होता है । स्टेण्डर्ड का कैब्रे होता है ।”
“कैब्रे तुम करती हो ?”
“नहीं-नहीं । मैं नहीं । मैं तो होस्टेस हूं ।”
“रहती भी क्लब में ही हो ?”
“नहीं । आदर्श नगर में सागर अपार्टमैंटस नामक जो एक नई इमारत बनी है, उसमें मेरा फ्लैट है ।”
“कमाल है ! फिर भी तुम यहां टूरिस्ट कॉटेज में...”
“अरे कहा न, कई बार मैं उस माहौल से बोर हो जाती हूं और तनहाई चाहने लगती हूं ।”
“तनहाई का यह दौर कब तक चलता है ?”
“मूड पर निर्भर करता है ।”
“इस दौरान क्लब का क्या होगा ?”
“कुछ भी हो । मेरी बला से ।”
तक तक नशा उस पर हावी होने लगा था । उसकी आंखों में मद के गुलाबी डोरे तैरने लगे थे । आरम्भ में जब हम सोफे पर बैठे थे तो हम दोनों में काफी फासला था, लेकिन पता नहीं कब वह एकदम मेरे पास सरक आई थी और अब वह मेरे साथ सटकर बैठी हुई थी ।
मुझे कुछ होने लगा था ।
मैंने वहां से कूच कर जाने में ही अपना कल्याण समझा ।
मैंने अपना गिलास खाली करके मेज पर रखा और उठने का उपक्रम किया लेकिन उसने मेरा हाथ पकड़कर मुझे वापिस खींच लिया । मैं सोफे पर दोबारा गिरा तो मैंने स्वयं को उसके आलिंगन में पाया । उसका उन्नत वक्ष मेरे वक्ष से टकरा रहा था और उसकी गर्म सांसें मेरे चेहरे को झुलसा रही थीं ।
फिर उसके अंगारों से दहकते होंठ मेरे होंठो को छू गये ।
मेरी रूह फना हो गई ।
“बसन्त !” - एकाएक वह मेरे कानों में फुसफसाई - “आज रात मैं यहां तनहा नहीं रहना चाहती ।”
मेरे मुंह से बोल न फूटा । मेरी जुबान सूख रही थी और मेरी सांस फंस-फसकर आ रही थी ।
एकाएक वह मुझसे अलग हटी । उसने गिलासों में फिर विस्की डाली लेकिन अपने गिलास की तरफ हाथ बढाने के स्थान पर उठाती हुई बोली - “मैं अभी आई ।”
मैंने सहमति में सिर हिला दिया ।
उसके जाते ही मैंने जेब से पैकेट निकालकर एक सिगरेट सुलगा लिया और उसके लम्बे-लम्बे कश लेने लगा ।
मेरी अक्ल कह रही थी कि मुझे फौरन यहां से कूच कर जाना चाहिए था लेकिन मेरी नीयत बद हो रही थी और वह मुझे रुकने के लिए मजबूर कर रही थी ।
“बसन्त !” - तभी उसने मुझे बैडरूम से आवाज लगाई ।
“हां ।” - मैं बोला ।
“ड्रिंक्स यहां ले आओ ।”
मैंने सिगरेट जमीन पर फेंककर जूते से मसल दिया । मैंने विस्की के दोनों गिलास उठाये और बैडरूम की तरफ बढा ।
बैडरूम के भीतर कदम रखते ही मैं थमक कर खड़ा हो गया । मेरी आंखें फट पड़ीं और मुंह खुला का खुला रह गया ।
वह सम्पूर्ण नग्नावस्था में पलंग पर चित पड़ी थी । उसके कपड़े एक ढेर की सूरत में तिरस्कृत से पलंग के पायताने फर्श पर पड़े थे । उसके पहाड़ की चोटियों जैसे उन्नत उरोज उसकी गर्म सांसों के साथ उठ-गिर रहे थे । उसकी बांहें आमन्त्रण के तौर पर मेरी तरफ फैली हुई थीं और उसका चेहरा लालसा से दहक रहा था ।
मुझे यूं लगा जैसे मुझे दिल का दौरा पड़ने वाला हो ।
फिर एकाएक दोनों गिलास मेरे हाथ से फिसले और एक झनाक की आवाज के साथ फर्श पर गिरकर टूट गये । फिर जैसे मुझे दिल का दौरा पड़ गया, मैं मर गया और मरकर उसकी अपनी तरफ फैली बांहों में ढेर हो गया ।
***
अगली सुबह पुलिस ने आकर मुझे सोते से जगाया । मैं अपने गैरेज के ऊपर ही बने एक कमरे में सोता था । आधी रात के काफी बाद मैं वहां लौटा था और आते ही पलंग पर ढेर हो गया था ।
मुझे झिंझोड़कर सोते से जगाने वाला शख्स इन्स्पेक्टर महिपाल सिंह था । उसी ने मुझे बताया कि कंचन मर चुकी थी । वह अपने कॉटेज में मरी पाई गई थी । किसी ने पहले उसका गला घोंट दिया था और फिर शराब की बोतल के प्रहार से उसकी खोपड़ी खोल दी थी ।
किसी ने पिछली रात को कंचन के कॉटेज के सामने खड़ी मेरी कार देखी थी और उसे उसका नम्बर याद रह गया था । नम्बर से पुलिस ने कार के मालिक का पता लगया था तो उन्हें मालूम हुआ था कि पिछली रात कार मेरे अधिकार में थी ।
मेरी जवाबतलबी हुई ।
मैंने पूरी ईमानदारी से सारी बात सच-सच कह सुनाई । मैंने कसम खाकर उन्हें बताया कि मैं आधी रात के बाद कंचन को सोती छोड़कर, वहां से चला आया था और जब मैं वहां से आया था तब कंचन एकदम सही-सलामत थी ।
लेकिन कौन सुनता था !
मेरी उंगलियों के निशान लिये गये ।
पुलिस ने वैट-69 की बोतल की गरदन पर से मेरी उंगलियों के निशान बरामद किये । उन्होंने बैडरूम के फर्श पर टूटकर बिखरे पड़े गिलासों पर से मेरी उंगलियों के निशान बरामद किये ।
लेकिन गनीमत थी कि किसी को मेरी उंगलियों के निशानों को पुलिस-रिकार्ड में मौजूद फरार मुजरिमों के निशानों से मिलाने का ख्याल न आया नहीं तो वे लोग मेरी जवाबतलबी करने के स्थान पर मुझे जल्दी-से-जल्दी फांसी पर लटकाने का सामान कर रहे होते और वे इनामात बटोरने की कोशिश कर रहे होते जो छ: राज्यों ने मेरी गिरफ्तारी की एवज में घोषित किये हुए थे ।
मुझे छोटी चौपड़ पर स्थित कोतवाली में लाया गया और कंचन की हत्या के अपराध में बुक कर दिया गया ।
उसके बाद निरन्तर सवालों का न खत्म होने वाला सिलसिला आरम्भ हो गया और तब तक चलता रहा जब तक मैं बेहोश होकर मेज पर औंधे मुंह न लोट गया ।
***
मुझे होश आया तो मैंने पाया कि मैं अभी भी स्टूल पर ही बैठा था, उस पर से लुढककर फर्श पर नहीं जा गिरा था ।
मैंने सिर नहीं उठाया । यूं ही मेज पर औंधे मुंह पडे़-पडे़ मैंने सामने निगाह डाली ।
कुछ भी नहीं बदला था । वही पत्थर की लाल दीवारों वाला बन्द कमरा, वही इन्स्पेक्टर महिपाल सिंह, वही उसके चमचे पुलिसिये, वही मैं ।
लेकिन एक इजाफा वहां हुआ था ।
डी एस पी की वर्दी पहने एक सफेद वर्दी वाला व्यक्ति वहां मौजूद था ।
“महिपाल सिंह !” - डी एस पी कह रहा था - “यह आदमी शुरु से एक ही राग अलाप रहा है । कभी भी इसके बयान में रत्ती भर भी अन्तर नहीं आया है । मुमकिन है यह सच बोल रहा हो ।”
“सरासर झूठ बोल रहा है, चौधरी साहब ।” - महिपाल सिंह पूरे विश्वास के साथ बोला - “सारे सबूत इसके खिलाफ हैं ।”
“तो फिर यह टूट क्यों नहीं रहा ? अभी तक तो यह अपने बयान से रत्ती-भर भी नहीं हिला है ।”
“टूटेगा, जरूर टूटेगा । घिसा हुआ आदमी मालूम होता है । इसीलिए देर लगा रहा है ।”
“लेकिन मेरे ख्याल से तो...”
“आप यह सब मुझ पर छोड़ दीजिए, चौधरी साहब । मैं इससे कुबूलवाकर छोड़ंगा कि कत्ल इसने किया है ।”
“लेकिन जोर-जबर्दस्ती से कुबूलवाने का कोई फायदा नहीं होगा । यह अदालत में मुकर जायेगा ।”
“यह अपनी राजी से अपना अपराध कबूल करेगा ।”
“अच्छा !” - डी एस पी चौधरी अनिश्चयपूर्ण स्वर में बोला - “मैं जाता हूं ।”
महिपाल सिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।
चौधरी वहां से विदा हो गया ।
मैंने सिर उठाया ।
महिपाल सिंह मेरे सामने आ खड़ा हुआ ।
टेबल लैम्प, जिसका रुख पहले छत की तरफ कर दिया गया था, फिर मेरी तरफ फेर दी गई ।
“कैसे मिजाज हैं ?” - महिपाल सिंह बोला ।
“प... पानी ।” - मैं कम्पित स्वर में बोला - “पानी ।”
महिपाल सिंह ने मुझे पानी पिलवाया, चाय भी पिलवाई और सिगरेट भी पेश किया ।
“देखो !” - महिपाल मुझे समझाता हुआ बोला - “तुम कहते हो कि तुम कंचन को उसके पलंग पर सम्पूर्ण नग्नावस्था में सोया छोड़कर वहां से विदा हुऐ थे । हमें वह उसी हालत में बैडरूम में मिली थी लेकिन वह जिन्दा नहीं थी । किसी ने उसका गला घोंट दिया था और उसके सिर पर वैट-69 की बोतल का प्रहार करके उसकी खोपड़ी खोल दी थी । डॉक्टरी रिपोर्ट के अनुसार उसकी हत्या रात बारह और एक के बीच में हुई थी । तुम्हारी कार उसके कॉटेज के सामने खड़ी देखी गई थी और तुमने खुद कबूल किया है कि तुम आधी रात के बाद वहां से लौटे थे । फिर तुम्हारी रवानगी के वक्त वह जिन्दा कैसे हो सकती थी ?”
“मेरी रवानगी के वक्त तक उसका बाल भी बांका नहीं हुआ था ।” - मैं बोला - “हालात सरासर इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि कोई कॉटेज की निगरानी कर रहा था । मेरे वहां से जाते ही वह भीतर दाखिल हुआ था और उसने कंचन का कत्ल कर दिया था ।”
“लेकिन कल रात तुम्हारे सिवाय कोई भी दूसरा आदमी कंचन के कॉटेज में दाखिल होता नहीं देखा गया था ।”
“क्या किसी ने मुझे वहां से रवाना होते देखा था ?”
“न... नहीं ।”
“बिल्कुल इसी तरह उस शख्स को दाखिल होते नहीं देखा होगा ।”
“लेकिन ऐसा आदमी कौन हो सकता है ?”
“उस पेट्रोल पम्प का मालिक जिसके यहां कंचन ने अपनी गाड़ी मरम्मत के लिए छोड़ी थी । वह कंचन को देखकर साफ-साफ लार टपका रहा था और कंचन ने उसे अपने कॉटेज का नम्बर तक बताया था । वह...”
“हमें वह सब कहानी मालूम है । हम उसे चैक कर चुके हैं । तुम्हारे पम्प से जाने के थोड़ी ही देर बाद वह पम्प बन्द कर गया था और अपनी बीवी के साथ सिनेमा देखने चला गया था । रात के डेढ बजे तक यानी कि हत्या के समय के काफी बाद तक वह अपनी बीवी के साथ मान प्रकाश सिनेमा में था ।”
“शायद वह सिनेमा में न रहा हो । शायद बीवी उसकी खातिर झूठ बोल रही हो ।”
“ऐसा मुमकिन नहीं । हमने खूब चैक किया है ।”
मैं खामोश हो गया ।
“घटनास्थल से हमने टूटे गिलासों और टूटी बोतल के टुकड़े इकट्ठे किये हैं । उनमें से कईयों पर हमें उंगलियों के निशान मिले हैं । तुम्हारी उंगलियों के निशान, मिस्टर ।”
“तो इसमें हैरानी की कया बात ? मैं क्या खुद नहीं कह चुका कि मैंने वहां कंचन के साथ विस्की पी थी ? उन कांच के टुकड़ों पर ही क्यों, मेरी उंगलियों के निशान उस कॉटेज की और सैकड़ों जगहों से बरामद हुए होंगे ।”
“नहीं हुए । गिलासों और बोतल के टुकड़ों के अलावा कहीं से भी तुम्हारी उंगलियों के निशान बरामद नहीं हुए हैं । इसलिए नहीं हुए क्योंकि तुमने कत्ल के बाद सब जगहों से उंगलियों के निशान पोंछकर साफ कर दिये थे । कांच के टुकड़ों से तुम्हें उंगलियों के निशान बरामद होने की उम्मीद नहीं थी, इसलिए इनकी ओर तुमने ध्यान नहीं दिया था । बोतल और गिलास टूटकर इतने छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरे थे कि तुम्हारा उनको नजरअंदाज कर देना कोई हैरानी की बात नहीं मालूम होती ठीक ?”
“नहीं ।”
“तुम नशे में थे । तुमने खुद कबूल किया है । नशे की वजह से ही तुम्हारी कामवासना भड़क उठी, तुम अपना विवेक खो बैठे, तुम उस पर झपट पड़े लेकिन उसने तुम्हारा विरोध किया । उसका विरोध तुमसे बर्दाश्त न हुआ । तुम क्रोध से पागल हो उठे । उस घड़ी में वह नाजुक-सा धागा टूट गया जो इन्सान के दिमाग का रिश्ता उसकी समझ-बूझ और विवेक से जोड़ता है । नशे में पागल होकर तुमने उसका गला घोंट दिया और फिर वैट-69 की बोतल उठाकर उसके सिर पर दे मारी ।”
“यह झूठ है ।” - मैं आर्तनाद करता हुआ बोला ।
“यह सच है ।” - वह गरजकर बोला - “तुम खूब जानते हो कि हकीकतन ऐसा ही हुआ था । तुम कब तक सच को नकारते रहोगे ? मिस्टर, तुम...”
तभी लोहे का दरवाजा खुला और एक आदमी ने भीतर कदम रखा । आहट सुनकर महिपाल सिंह खामोश हो गया और दरवाजे की तरफ घूमा । वह आदमी उसके समीप आया और उसके कान में धीरे-धीरे फुसफुसाने लगा । महिपाल सिंह ने गम्भीर भाव से सहमति में सिर हिलाया । उस आदमी ने एक बार फिर कुछ कहा और महिपाल सिंह से परे हटकर खड़ा हो गया । महिपाल सिंह फिर मेरी तरफ आकर्षित हुआ - “बसन्त कुमार तुम्हारा मैकिनटोश कहां गया ?”
“मै.. मैकिन... मैकिनटोश !” - मैं बड़ी मुश्किल से वह शब्द दोहरा पाया - “वह क्या होता है ?”
“इतने नादान मत बनो । यह ड्रामा मेरे सामने नहीं चलने वाला । बोलो, कहां है तुम्हारा मैकिनटोश ?”
“लेकिन वह होता क्या है ? तुम किस चीज का जिक्र कर रहे हो ?”
“मैं रबर की लाइनिंग वाले उस गर्म ओवरकोट का जिक्र कर रहा हूं जो हत्या की रात को तुम पहने हुए थे ।”
“झूठ । मैंने अपनी जिन्दगी में कभी ओवरकोट नहीं पहना ।”
“वह खास तरह का ओवरकोट होता है जो हर मौसम में पहना जा सकता है । वह बरसात में बरसाती की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है ।”
“होगा । मेरी इस चीज से वाकफियत नहीं । मैंने कभी मैकिन... ओवरकोट नहीं पहना । मैंने तो आज से पहले कभी वह शब्द तक नहीं सुना ।”
“बकवास मत करो ।” - वह मेरी बात को अनसुनी करता हुआ बोला - “अभी-अभी लेबोरेट्री रिपोर्ट आई है कि कंचन के नाखूनों के नीचे से काले रंग का खुरचा हुआ रबड़ और ऊन के रेशे बरामद हुए हैं । हमारे विशेषज्ञों का कहना है कि वह सब निश्चय ही किसी मैकिनटोश से खरोंचा गया है । इससे साफ जाहिर होता है कि हत्या के समय तुम वह विशेष प्रकार का कोट पहने हुए थे । कंचन से छीना-झपटी के दौरान उसके लम्बे नाखून तुम्हारे ओवरकोट में धंस गये और उसे खरोंचते चले गये । इस प्रकार उसके नाखूनों के नीचे रबड़ और ऊन के रेशे रह गये जिन्हें कि हमारे विशेषज्ञों ने पहचान लिया । अब बोलो, कहां है वह मैकिनटोश ?”
“ओफ्फोह, इंस्पेक्टर साहब, मेरे पास ऐसी किसी चीज का क्या काम जिसका मैं नाम तक नहीं जानता ।”
“तुम झूठ बोल रहे हो । हत्यारा निश्चय ही मैकिनटोश पहने हुए था ।”
“जरूर पहने हुए होगा । क्या इसी से साबित नहीं होता कि हत्यारा मैं नहीं, कोई और है । हत्यारा वह आदमी है जिसके पास उस प्रकार का ओवरकोट है ।”
“बको मत । तुमने वह ओवरकोट जरूर कहीं गायब कर दिया है । मुमकिन है कंचन के सिर से बहे खून के छींटे उस पर पड़ गये हों । ओवरकोट को तुमने जरूर कहीं जला दिया है या दफना दिया है या उसके साथ कोई और शरारत की है । बोला, क्या किया है तुमने उस ओवरकोट का ?”
मैंने उत्तर नहीं दिया ।
“बसन्त कुमार !” - वह दांत पीसकर बोला - “मैं तुमसे तुम्हारा अपराध कुबुलवाकर रहूंगा ।”
“जब तक मैं होश में हूं, तब तक तो नहीं कुबुलवा सकते ।” - मैं बोला - “हां, तुम्हें एक सवाल सौ-सौ बार करता पाकर मेरा दिमाग हिल गया, तब बात दूसरी है ।”
तभी उसके एक चमचे ने आगे बढकर उसके कान में कुछ कहा ।
महिपाल सिंह ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह डाली और सहमति में सिर हिलाया ।
फिर उसने मुझ पर केन्द्रित टेबल लैम्प का मुंह छत की ओर कर दिया और बोला - “इसे ले जाकर किसी कोठरी में बन्द कर दो ।”
“मैं एक टेलीफोन कॉल करना चाहता हूं ।” - एकाएक मैं बोला ।
“किसे ?” - वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “अपने किसी हिमायती को ?”
“हां ।”
“तुम्हारा कोई भी हिमायती आ जाये, वह तुम्हें कत्ल के इलजाम से नहीं बचा सकता ।”
“तो फिर कॉल कर लेने दो मुझे । तुम्हारा क्या बिगड़ जायेगा ?”
“ठीक है । कहां कॉल कहना चाहते हो ?”
“गोवा ।”
“कहां ?”
“गोवा । पंजिम । जानते नहीं क्या ?”
“तुम वहां से हिमायती बुलवाना चाहते हो ?”
“हां ।”
“ठीक है ।” - वह अपने सहयोगियों की तरफ घूमा - “इसे कॉल करा देना ।”
फिर वह कोठरी से निकल गया ।
उसके चमचे मुझे एक ऑफिसनुमा कमरे में ले आये ।
मेरे कहने पर सोल्मर नाइट क्लब, पंजिम के नम्बर पर मैगुअल अल्फांसो के नाम अर्जेन्ट परसन टू परसन ट्रंक कॉल बुक करा दी गई ।
रात का वक्त था इसलिये कॉल जल्दी लग गई ।
“अल्फांसो साहब ।” - मैं बोला - “मैं कैलाश मल्होत्रा बोल रहा हूं ।”
वह नाम सुनकर पुलिसियों के काम खड़े हो गये, लेकिन वह नाम लेना मेरी मजबूरी थी । मैगुअल अल्फांसो मुझे कैलाश मल्होत्रा के नाम से जानता था ।
“कैलाश ।” - अल्फांसो के मुंह से सिसकारी निकल गई - “कहां हो ?”
“जेल में ।”
“जेल में ? यानि कि...”
“वह बात नहीं, अल्फांसो साहब । मैं निर्दोष पकड़ा गया हूं । निर्दोष ।” - मैंने उस शब्द पर विशेष जोर दिया - “एक ऐसे अपराध की एवज में जो मैंने नहीं किया ।”
“क्या अपराध ?”
“एक औरत का कत्ल ।”
“कहां ?”
“जयपुर में ।”
“मामला संगीन है ?”
“नहीं । अगर कोई मददगार हो तो नहीं । मेरे खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं है । लेकिन अगर जल्दी मेरा छुटकारा न हुआ तो... तो...”
“मैं समझ गया । तो उन्हें मालूम हो जायेगा कि हकीकत में तुम क्या चीज हो ।”
“जी हां ।”
“क्या जयपुर के पुलिस वाले इतने अहमक हैं कि वे अभी तक तुम्हें पहचान नहीं पाये ?”
“इत्तफाक की बात है, अल्फांसो साहब । कभी-कभी जब आदमी मछली की ताक में होता है तो मगरमच्छ की तरफ उसका ध्यान नहीं जाता ।”
“तुम हो कहां ?”
“जयपुर में छोटी चौपड़ पर स्थित कोतवाली में ।”
“ओके । मैं अल्बर्टो को भेजता हूं । प्लेन से । फौरन ।”
“थैंक्यू, अल्फांसो साहब ।”
मैंने फोन रख दिया ।
अल्फांसो से बात हो जाने के बाद न जाने क्यों मुझे राहत महसूस होने लगी थी ।
सारी दुनिया में केवल दो ही शख्स थे जिनसे मैं किसी मदद को कोई उम्मीद कर सकता था ।
गोवा में मैगुअल अल्फांसो ।
और चण्डीगढ में नीलम ।
मौजूदा माहौल में मेरी मदद करना किसी औरत के बस का काम नहीं था इसलिए मैंने गोवा टेलीफोन किया था ।
मुझे मायूसी का सामना नहीं करना पड़ा था ।
***
अगली सुबह दस बजे के करीब मेरी कोठरी का दरवाजा खुला और एक हवलदार के साथ एक अधेड़ावस्था का सूट-बूटधारी आदमी भीतर दाखिल हुआ । उसके हाथ में एक ब्रीफकेस था और चेहरे पर ऐसी मुस्कराहट थी जैसे वह मुझे पहले से जानता हो ।
हवलदार उसे वहां छोड़कर कोठरी से निकल गया ।
वह आदमी मेरी बगल में बैठ गया और मुस्कराता हुआ बोला - “मेरा नाम ठाकुर कृपालसिंह है । मैं जयपुर का सबसे नामी वकील माना जाता हूं । आपके दोस्त मिस्टर अल्बर्टो ने अदालत में आपके केस की पैरवी करने के लिए मुझे चुना है ।”
“अल्बर्टो जयपुर पहुंच गया ?” - मैंने पूछा ।
“हां । अल्बर्टो साहब आपसे यहां मिलने आना चाहते थे लेकिन पुलिस ने इजाजत नहीं दी ।”
“लेकिन आपको दे दी ।”
“सरासर । मैं आपका वकील हूं । पुलिस वकील को अपने मुवक्किल से मिलने देने से कैसे रोक सकती है ?”
“आई सी ।”
“अब आप साफ-साफ बताइए कि किस्सा क्या है ?”
मैंने उसे पूरी ईमानदारी से सारी कहानी कह सुनाई । ज्यों-ज्यों मैं अपनी कहानी कहता गया, उसके चेहरे की रौनक घटती गई ।
अन्त में जब मैं खामोश हुआ तो वह चिंतित भाव से बोला - “इस कहानी पर तो, मेरे दोस्त कोई अदालत विश्वास नहीं करेगी ।”
“लेकिन यह कहानी नहीं, हकीकत है ।”
“तुम्हारे बचाव का एक ही तरीका है मेरे भाई ।”
“क्या ?”
“कि यह कहा जाये कि तुम्हें पागलपन का दौरा पड़ा गया था । अस्थाई पागलपन की दुहाई ही तुम्हें बचा सकती है ।”
“क्या ?” - मैं चौंका ।
“मैं सच कह रहा हूं ।” - उसने मुझे विश्वास दिलाया ।
“लेकिन यही बात तो पुलिस भी मुझसे जबरन कहलवाना चाहती है ।”
“मुझे मालूम है । मैं इस केस के इंचार्ज इंस्पेक्टर महिपाल सिंह से मिल चुका हूं ।”
“यानी कि आपको पुलिस पर विश्वास है, मुझ पर नहीं । आप समझ रहे हैं कि आपसे झूठ बोल रहा हूं ।”
उसके होंठों पर एक खेदपूर्ण मुस्कराहट आई - “देखो बरखुरदार, सवाल इस बात का नहीं है कि तुम झूठ बोल रहे हो कि सच । सवाल यह है कि तुम पर अदालत में कत्ल का मुकदमा चलने वाला है और तुम्हारा वकील होने के नाते मेरा काम है तुम्हें बरी कराना । अगर बरी कराना सम्भव न हो तो मेरा काम है यह कोशिश करना कि तुम्हें कम-से-कम सजा हो । मेरी राय में तुम्हारा अदालत में अपने आपको बेगुनाह कहना भारी गलती होगी और तुम्हें सख्त सजा होगी । फांसी की सजा ।”
“बन्दापरवर” - मैं वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “आप मेरे वकील हैं या पुलिस के ?”
“मैं तुम्हारा वकील हूं । बरखुरदार, मैं बीस साल से प्रैक्टिस कर रहा हूं और मैं बेहतर जानता हूं कि मेरे क्लायन्ट की भलाई किस बात में है । तुम्हारा एक ही डिफेंस है जो तुम्हें फांसी के फन्दे से बचा सकता है ।”
“कि मैं अपने आपको अस्थायी पागलपन का शिकार कबूल कर लूं और कहूं कि मैंने कत्ल किया है ?”
“हां ।”
“उससे क्या होगा ? मैं छूट जाऊंगा ?”
“नहीं ।” - वह विचलित स्वर में बोला - “तुम पागलखाने भेज दिये जाओगे और दो चार साल बाद जब डॉक्टर यह कह देगा कि तुम्हारा मानसिक विकार ठीक हो गया है तो तुम रिहा कर दिये जाओगे ।”
“आप मुझे ऐसा अपराध कबूल करने की राय दे रहे हैं जो मैंने नहीं किया है ? आप चाहते हैं कि जो सजा असली अपराधी को मिलनी चाहिए वह मुझे मिले ? मैं हत्या का अपराध कबूल करके पागलखाने पहुंच जाऊं और हत्यारा आजाद पंछी की तरह मौज मारता फिरे ?”
“मैंने आज तक कोई केस नहीं हारा । अगर तुम अदालत में अपने आपको बेकसूर बताओगे तो हम निश्चय ही केस हार जायेंगे ।”
“आप केस न हार जायें इसलिए आप मुझसे झूठ बुलवाना चाहते हैं ?”
“तुम्हारी भलाई के लिए । सिर्फ तुम्हारी भलाई के लिए ।”
“और आप फरमाते हैं कि आप जयपुर के सबसे नामी वकील हैं ।” - मैं व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“व्यंग्य की जरूरत नहीं । तुम अभी बच्चे हो, नादान हो । नहीं जानते हो कि तुम्हारी भलाई किस बात में है । अगर तुम मैं बेगुनाह हूं, मैं बेगुनाह हूं की रट लगाये रहोगे तो मैं तुम्हारा केस नहीं लूंगा । फिर तुम्हें किसी घटिया वकील के पास जाना पड़ेगा जो तुम्हारे केस का बिल्कुल बेड़ागर्क करके रख देगा । देखो, मैंने बड़ी बारीकी से तुम्हारे केस को स्टडी किया है । जिन हालात में कत्ल हुआ है, उनमें अस्थाई पागलपन का डिफेंस ही बेहतरीन रहेगा । तुम शराब के नशे में थे । ईमान खराब कर देने वाली खूबसूरती और नौजवानी से भरपूर औरत तुम्हारे सामने मौजूद थी । औरत का नशा शराब से भी ज्यादा खतरनाक होता है । उस वक्त तुम नशे में इस कदर धुत्त हो गये कि अपना विवेक खो बैठे । तुम्हारा दिमाग हिल गया । तुम पागल हो गये । तुम उस पर झपट पड़े । उसने विरोध किया तो तुम कतई आपे से बाहर हो गये । तुम भूल गये कि तुम किन हालात में थे और क्या कर रहे थे । तुम्हारे हाथ अपने-आप आगे बढे और उसकी गरदन से लिपट गये । फिर तुम्हारे हाथ में विस्की की बोतल आ गई । तुमने...”
“गैट आउट ।” - मैं दांत भींचकर बोला ।
वह खफा नहीं हुआ । वह पूर्ववत कहता रहा - “फिर जब तुम्हारा जुनून ठण्डा हुआ तो तुमने कंचन को अपने सामने मरी पाया । तुमने...”
“आई सैड, गैट आउट ।”
वह फिर भी खफा नहीं हुआ । उसने मेरा कन्धा थपथपाया और उठ खड़ा हुआ - “मैं फिर आऊंगा । तब तक तुम मेरी राय पर अच्छी तरह सोच-विचार कर लो ।”
वह चला गया ।
मैं हाथों में सिर थामे बैठा सोचता रहा ।
मैं अदालत में पेश नहीं हो सकता था । कोई वकील मुझे बरी करा देने की गारन्टी भी करता तो भी मैं अदालत में पेश नहीं हो सकता था । उस प्रकार तो मेरा किसी-न-किसी के द्वारा पहचाना जाना अनिवार्य था । फिर खेल खत्म । अदालत में पेश हो जाने पर अखबार वाले मेरी तस्वीर भी खींच सकते थे और सबसे ज्यादा चिंता मुझे इसी बात की थी कि उस नये झमेले के चक्कर में कहीं मेरी अखबार में तस्वीर न छप जाये ।
उन हालात में वकील की एक ही सेवा थी, जो मेरे काम आ सकती थी ।
मैं किसी प्रकार जमानत पर, या किसी भी और तरह एक बार रिहा हो जाता ।
फिर पुलिस को मेरी हवा भी न मिलती ।
मैं उस बारे में वकील से पूछना चाहता था लेकिन मुझे पहले ही गुस्सा आ गया था और मैंने उसे दफा हो जाने के लिए कह दिया था ।
दोपहर के करीब अपने दो चमचों के साथ इंस्पेक्टर महिपाल सिंह वहां पहुंचा । मेरा दिल डूबने लगा । शायद फिर मुझे उस लाल दीवारों वाली कोठरी में ले जाया जाने वाला था ।
“उठो ।” - वह बोला ।
मैं उठ खड़ा हुआ ।
उसके संकेत पर एक पुलिसिये ने मेरे हाथों में हथकड़ियां डाल दीं और उनसे सम्बद्ध जंजीर को अपनी पेटी के साथ जोड़ दिया ।
“चलो ।” - आदेश मिला ।
“कहां ?”
“कॉटेज नम्बर नौ में । मौकायवारदात पर ।”
“किसलिए ?”
“ताकि तुम हमें दिखा सको कि तुमने कहां क्या किया था ।”
“मेरे पास और कहने के लिए कुछ नहीं है । मैंने जो कहना है, बीसियों बार कह चुका हूं । वहां जाकर भी मैं अपना बयान नहीं बदलने वाला ।”
“कॉटेज में जाने से डर रहे हो ?”
“डर !”
“इस ख्याल से तुम्हें दहशत हो रही होगी कि तुम्हें वहां ले जाया जा रहा है, जहां तुमने इतनी बेरहमी से कत्ल किया है ।”
मैं खामोश रहा । तो वह पुलिसिया मौकायेवारदात का मुझ पर कोई मनोवैज्ञानिक प्रभाव देखना चाहता था । शायद वह सोच रहा था कि वहां ले जाये जाने पर मैं जरूर टूट जाऊंगा ।
हम कोतवाली की इमारत के बाहर निकले और एक जीप पर सवार हो गये । महिपाल सिंह का चमचा ड्राइविंग सीट पर बैठा और वह स्वयं उसकी बगल में बैठा । मैं और मेरी हथकड़ी की जंजीर सम्भाले पुलिसिया पीछे बैठा ।
जीप एयरपोर्ट की तरफ रवाना हो गई ।
जीप नगर के बाहर निकल आई और फिर पहले से तेज रफ्तार से एयरपोर्ट की तरफ जाने वाली, उस वक्त लगभग उजाड़ पड़ी, सड़क पर दौड़ने लगी ।
सफर खामोशी से कटता रहा ।
एकाएक जीप को ब्रेक लगी ।
मैंने सिर उठाकर सामने देखा ।
सामने सड़क पर एक कार तिरछी खड़ी थी । उसका ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाजा खुला था और उसके पास सड़क पर औंधे मुंह एक आदमी पड़ा था ।
“एक्सीडेंट ।” - जीप का ड्राइवर बोला ।
“लगता है कोई कार को धक्का मार गया है ।” - महिपाल सिंह बोला - “झटके से कार का दरवाजा खुल गया होगा और यह आदमी छिटककर कार से बाहर आ गिरा होगा ।”
ड्राइवर ने सहमति में सिर हिलाया । उसने जीप को कार के समीप ला रोका ।
ड्राइवर और महिपाल सिंह जीप से उतरे और कार की ओर बढे ।
तभी एकाएक सड़क पर औंधे मुंह पड़ा आदमी बिजली की फुर्ती से उछलकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया । उसने अपने चेहरे पर नकाब चढाया हुआ था और उसमें से केवल उसके आंखें बाहर झांक रही थी । उसके हाथ में एक बड़ी खतरनाक-सी लगने वाली रिवॉल्वर थी, जो उसने बड़े चौकन्ने ढंग से अपने सामने तानी हुई थी ।
पुलिसिये सन्नाटे में आ गये ।
मेरा दिल धड़कने लगा ।
कौन था वह आदमी ?
क्या अल्बर्टो ?
कद-काठ तो उसका अल्बर्टो जैसा ही लगता था ।
“कोई हिले नहीं ।” - उसने आदेश दिया ।
मेरे साथ बैठे पुलिसिये के पास रिवॉल्वर थी । उसका हाथ धीरे-धीरे रिवॉल्वर की ओर सरकने लगा । वह जीप में पीछे बैठा था इसलिए शायद उसका ख्याल था कि नकाबपोश उसे ठीक से देख नहीं पा रहा था ।
उसका ख्याल कितना गलत था ।
नकाबपोश की रिवॉल्वर से एक फायर हुआ । गोली जीप की विंड स्क्रीन को तोड़ती हुई पुलिसिये के दायें कंधे में आ घुसी । वह चीखकर दोहरा हो गया ।
“कोई और साहब जो गोली खाना चाहते हों ?” - नकाबपोश ने पूछा ।
कोई न बोला ।
“इंस्पेक्टर साहब ।” - नकाबपोश बोला - “जीप के हुड पर दोनों हाथ रखकर खड़े हो जाइए । वापस घूमे या कोई शरारत करने की कोशिश की तो भेजा खोपड़ी से बाहर होगा ।”
महिपाल ने तुरन्त आज्ञा का पालन किया । जाहिर था कि वह अभी अपना भेजा अपनी खोपड़ी के भीतर ही देखना चाहता था ।
“ए तुम ।” - नकाबपोश उस पुलिसिये से बोला जो जीप चला रहा था - “हथकड़ी की चाबी किसके पास है ?”
ड्राइवर ने गोली खाये पुलिसिये की ओर संकेत कर दिया ।
चाबी निकालकर हथकड़ी खोलो । कोई शरारत की तो मैं तुम्हारे साहब को शूट कर दूंगा ।
ड्राइवर सहमति से सिर हिलाता हुआ आगे बढा ।
अगले ही क्षण मैं आजाद था और जीप से बाहर सड़क पर खड़ा था ।
“शुक्रिया ।” - मैं नकाबपोश से बोला - “मैं...”
लेकिन वह मेरी बात नहीं सुन रहा था । वह महिपाल सिंह की वर्दी में लगे होलस्टर से उसकी रिवॉल्वर निकाल रहा था । उसने उस रिवॉल्वर के दो फायर जीप के पहियों में किये और जीप को नाकारा कर दिया । फिर उसने रिवॉल्वर पूरी शक्ति से दूर झाड़ियों में फेंक दी ।
महिपाल सिंह परे खड़ी कार की तरफ देख रहा था ।
“कार का नम्बर देख रहे हो, इंस्पेक्टर साहब ?” - नकाबपोश अट्टहास करता हुआ बोला - “ठीक है । अच्छी तरह याद कर लो नम्बर । लेकिन कार तो चोरी की है ।”
महिपाल सिंह के चेहरे पर छाई निराशा और गहरी हो गई । फिर नकाबपोश ने जीप में पड़े पुलिसिये की रिवॉल्वर भी हथियाई और उसे झाड़ियों में फेंक दिया ।
उसने जीप के ड्राइवर की जेबें थपथापाकर तसल्ली कर ली कि उसके पास रिवॉल्वर नहीं थी ।
फिर वह मेरी तरफ घूमा और आदेशपूर्ण स्वर में बोला - “कार में बैठो । स्टियरिंग के पीछे । कार तुमने चलानी है ।”
मैं कार में जा बैठा । वह मेरी बगल में आ बैठा । मैंने इंजन चालू किया ।
“चलो ।” - वह बोला ।
मैंने कार जयपुर की तरफ भगा दी ।
तब तक मुझे विश्वास हो चुका था कि वह अल्बर्टो नहीं था ।
तो क्या अल्बर्टो का कोई आदमी ?
यही बात थी ।
मुझे रिहा करवाने में किसी और की भला क्या दिलचस्पी हो सकती थी ?
लेकिन वह मुझे वापस जयपुर क्यों ले जा रहा था ?
“आगे दाईं तरफ एक सड़क है ।” - एकाएक नकाबपोश बोला - “उस पर मोड़ना है ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया और वह सड़क आने पर कार को दायें मोड़ दिया ।
तो हम वापस जयपुर नहीं जा रहे थे ।
एक बात मुझे बहुत हैरान कर रही थी ।
नकाबपोश ने अपने हाथ में थमी रिवॉल्वर पूरी मुस्तैदी से मेरी ओर तानी हुई थी ।
“तुम हो कौन, भाई ?” - मैंने पूछा ।
“शटअप ।” - वह घुड़ककर बोला - “और गाड़ी तेज चलाओ ।”
“तुम अल्बर्टो के आदमी हो ?”
“चुपचाप गाड़ी चलाओ । सुना नहीं !”
मैं खामोश हो गया । मैंने एक्सीलेटर पर अपने पांव का दबाव बढा दिया ।
नकाबपोश ने एकाएक अपने चेहरे से नकाब नोंचकर उतार दी और चलती कार में से बाहर फेंक दी ।
मैंने देखा उसका चेहरा भारी था और उस पर क्रूरता की लकीरें स्थायी रूप से अंकित थीं ।
“बायें घुमाओ ।” - वह बोला ।
जिस सड़क पर वह मुझे घुमाने के लिए कह रहा था, वह एक घने जंगल में दाखिल हो रही थी । मैंने गाड़ी उस सड़क पर डाल दी । सड़क ऊबड़-खाबड़ थी इसलिए मुझे रफ्तार कम करनी पड़ी ।
अगले पांच मिनटों में कार इतने घने जंगल में पहुंच गई कि सूरज की रोशनी उस तक नहीं पहुंच रही थी ।
“कहां जा रहे हैं हम ?” - मैंने पूछा ।
“पता नहीं । तुम कार चलाते रहो ।” - वह बोला ।
“मुझे छुड़ाने में तो तुमने कमाल कर दिया ।” - मैं उसे फूंक देने की कोशिश में बोला ।
“हां ।” - वह भावहीन स्वर में बोला - “ऐसे कमाल मैं अक्सर किया करता हूं ।”
“तुम्हें यह कैसे मालूम था कि हम उस सड़क पर आने वाले थे ?”
“मैं कोतवाली की निगरानी कर रहा था । मैंने उन लोगों को तुम्हें जीप में बिठाकर ले जाते देखा था । मैं इस कार पर जीप के पीछे लग गया । जीप नगर से बाहर निकली तो मैं समझ गया कि तुम लोग कहां जा रहे थे । मैंने कार आगे निकाल ली और फिर सड़क पर वह स्टण्ट मार दिया ।”
“लेकिन क्यों ?”
“तुम्हें नहीं मालूम ?”
“नहीं ।”
“लेकिन अन्दाजा तो लगा सकते हो ?”
“नहीं लगा सकता ।”
“मैंने आज का अखबार देखा था । उसमें छपा था तुमने कंचन का कत्ल किया था ।”
“नहीं ।”
“क्या नहीं ?”
“मैंने कंचन का कत्ल नहीं किया ।”
“गाड़ी रोको !” - एकाएक वह चिल्लाया ।
मैंने हड़बड़ाकर फौरन गाड़ी को ब्रेक लगाई ।
“बैक करो ।”
मैं गाड़ी बैक करने लगा ।
“बायें मोड़ो ।”
बाईं तरफ एक कच्ची सड़क थी ।
“इस कच्ची सड़क पर ?” - मैंने पूछा ।
“हां ।”
“गाड़ी फंस जायेगी ।”
“नहीं फंसती ।”
“तुम जाना कहां चाहते हो ?”
“बकवास मत करो । जो कह रहा हूं, वह करो ।”
मैंने गाड़ी कच्ची सड़क पर डाल दी ।
“रोको ।” - थोड़ी देर बाद वह बोला ।
मैंने गाड़ी रोक दी ।
“इंजन बन्द करो ।”
मैंने आज्ञा का पालन किया ।
वह कार से बाहर निकला । रिवॉल्वर अभी भी उसके हाथ में थी । वह कुछ क्षण चारों तरफ देखता रहा और फिर बोला - “बाहर निकलो ।”
“तुम चाहते क्या हो ?”
“अभी मालूम हो जाता है ।”
मैं कार से बाहर निकल आया ।
वह मेरे समीप पहुंचा और धीरे से बोला - “माल कहां है ?”
“कैसा माल ?” - मैं उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“इतने भोले मत बनो । बोलो, माल कहां है ?”
“भाई साहब, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा । पता नहीं तुम किस माल की बात कर रहे हो । लगता है तुम्हें कोई गलतफहमी हो रही है । तुमने मुझे कोई गलत आदमी समझकर तो नहीं छुड़ा लिया ? अगर ऐसा है तो समझो तुम्हारी सारी मेहनत बेकार हो गई । तुमने खामखाह इतना खतरा मोल लिया । तुमने...”
उसका रिवॉल्वर वाला हाथ घूमा । रिवॉल्वर की नाल मेरी कनपटी से टकराई । मुझे यूं लगा जैसे मेरी खोपड़ी में बम फटा हो । मैं रेत के बोरे की तरह जमीन पर ढेर हो गया और मेरी चेतना लुप्त हो गई ।
थोड़ी देर बाद मुझे होश तो आ गया, लेकिन मेरी खोपड़ी मुझे अपनी गर्दन पर फिरकनी की तरह घूमती मालूम हो रही थी । मैंने आंखें खोलकर सामने देखा तो मुझे सब कुछ धुंधला-धुंधला-सा दिखाई दिया । फिर मैंने उठने की कोशिश की तो पाया कि मेरे हाथ मेरी पीठ के पीछे बंधे हुए थे । मैं किसी प्रकार उठकर बैठ गया ।
“खड़े हो जाओ ।” - उसने आदेश दिया ।
मैं बड़ी मुश्किल से खड़ा हो पाया । मेरा सिर अभी भी घूम रहा था ।
“माल कहां है ?” - उसने फिर पूछा ।
“देखो ।” - मैंने उसे समझाना चाहा - “तुम किसी गलतफहमी के शिकार हो । मैं किसी माल...”
“माल कहां है, हरामजादे ?” - वह गला फाड़कर चिल्लाया - “मैं सब जानता हूं । कंचन ने वह माल तलाश कर लिया था । उसके सिवाय किसी और के हाथ माल लग ही नहीं सकता था ।”
“ओह !” - एकाएक मुझे ख्याल आया - “तो यह बात है ।”
“क्या बात है ?”
“कंचन ने तुम्हारा कोई माल हथिया लिया था इसलिए तुमने उसका कत्ल कर दिया ।”
“क्या बक रहे हो ?” - वह हैरानी से बोला - “कंचन का कत्ल मैंने नहीं, तुमने किया है और इसलिए तुम्हीं को पता है कि माल कहां है ।”
“हे भगवान ! मैं तुम्हें कैसे समझाऊं कि मैं किसी माल के बारे में कुछ नहीं जानता और मैंने कंचन का कत्ल नहीं किया ।”
उसने जोर से मेरे पेट में लात जमाई । मैं पीड़ा से दोहरा हो गया । मेरी आंखों में आंसू छलक आये ।
“मैं मार-मारकर भुर्ता बना दूंगा तुम्हारा ।” - वह कहर भरे स्वर में बोला - “अपनी सलामती चाहते हो तो बता दो माल कहां है ?”
मुझे विश्वास था कि वह मुझे मार डालने से हिचकने वाला नहीं था ।
“मुझे इतना तो बता दो, मेरे बाप, कि तुम हो कौन ?” - मैं कराहता हुआ बोला ।
“तुम्हें अभी तक नहीं सूझा कि मैं कौन हूं ?” - वह बोला ।
“नहीं ।”
“मेरा नाम दिलावर है ।” - वह गर्वभरे स्वर में बोला - “दिलावर सिंह । अब समझ में आया कुछ ?”
मेरी समझ में खाक नहीं आया ।
“वह माल मेरा है और मैं उसे छोड़ने वाला नहीं । तुम मेरे साथ चालाकी करने की कोशिश करोगे तो बहुत बुरा अन्जाम होगा ।”
“देखो ।” - मैंने याचना-सी की - “मैं तुम्हारे माल के बारे में कुछ नहीं जानता, लेकिन अगर तुम मुझे बताओ कि असल में किस्सा क्या है तो तुम्हारा माल तलाश करवाने में शायद मैं तुम्हारी मदद कर सकूं ।”
बिना किसी चेतावनी के उसने फिर मेरे चेहरे पर रिवॉल्वर की नाल का प्रहार किया । मुझे लगा जैसे मेरे चेहरे पर तलवार फिर गई हो अैर किसी ने उस पर मिर्च छिड़क दी हों । इस बार मैं बेहोश तो नहीं हुआ, लेकिन मेरी हालत ऐसी हो गई कि मैं मौत की कामना करने लगा ।
अपनी या उसकी । एक ही बात थी ।
मैं लड़खड़ाता हुआ पीछे हटा । अगर मेरी पीठ को कार का सहारा न मिल गया होता तो मैं निश्चय ही धराशायी हो गया होता । मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा । मेरा चेहरा कहीं से कट गया था और उसमें से निकलती खून की बूंदें मेरे होंठों पर गिर रही थीं ।
वह मेरे समीप आया और गला फाड़कर चिल्लाया - “बोलो ! बोलो ! बोलो वरना भवानी कसम, तुम्हारी बोटियां नोच-नोचकर चील-कौवों को खिला दूंगा ।”
मैं दर्द से बिलबिला रहा था । मुझे उस जालिम आदमी से पीछा छुड़ाने की कोई तरकीब नहीं सूझ रही थी । मुझे अपनी बेबसी पर गुस्सा आ रहा था ।
“बोलो !”
मैं गला फाड़कर चिल्लाया - “तेरी मां की...”
गाली की प्रत्याशित प्रतिक्रिया हुई । उसका रिवॉल्वर वाला हाथ फिर हवा में घूमा ।
लेकिन इस बार मैं तैयार था । मैं नीचे को झुक गया । उसकी रिवॉल्वर भड़ाक से कार की बॉडी से टकराई । मैंने नीचे झुके-झुके ही पूरी शक्ति से अपने घुटने का प्रहार उसकी टांगों के बीच में किया ।
उसके मुंह से ऐसी चीख निकली कि मैं घबरा गया । फिर उसका शरीर दोहरा हुआ और वह मुंह के बल नीचे जमीन पर गिरा । लेकिन तकदीर की मार कि रिवॉल्वर उसके हाथ से नहीं निकली । वह मुझ पर फायर करने के लिए अपना रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा करने की कोशिश करने लगा ।
मैंने अपनी लात चलाई लेकिन उसने ऐन मौक पर रिवॉल्वर वाला हाथ नीचे झुका लिया । मेरे पांव की ठोकर उसके कन्धे पर लगी । वह पीछे को पलट गया लेकिन उसने रिवॉल्वर न छोड़ी ।
मैं घूमा और जान छोड़कर भागा ।
उसकी रिवॉल्वर गरजी ।
गोली कार की साइड से कहीं टकराई ।
मेरी हाथ पीठ पीछे बंधे हुए थे । मुझे अपने जिस्म में जान नहीं लग रही थी लेकिन मैं यूं भाग रहा था जैसा मुझे पंख लग गये हों ।
फिर फायर हुआ ।
गोली मेरे कान को हवा देती हुई गुजर गई ।
मैं पेड़ों के बीच-बीच में से होकर भाग रहा था । पता नहीं मैं किधर भाग रहा था, कहां जा रहा था ।
फिर मुझे अपने पीछे भागते कदमों की आहट सुनाई दी ।
भागना बेकार था । वह मेरे पीछे आ रहा था । वह मुझसे ज्यादा शक्तिशाली था और ज्यादा तेज भाग सकता था । अगर मैं उसके कदमों की आहट सुन सकता था तो वह भी मेरे कदमों की आहट सुन सकता था और उसने मुझे पकड़ना नहीं था, मुझे शूट करना था जो वह फासले से भी कर सकता था ।
मैं रुक गया ।
मैंने व्याकुल भाव से दायें-बायें देखा ।
बाईं ओर दो पेड़ों के बीच में कुछ झाड़-झंखाड़ उगे हुए थे । मैं छलांग मारकर उनके समीप पहुंचा और उनके बीच में जाकर लेट गया ।
भागते कदम समीप होते जा रहे थे ।
फिर वह मेरे बहुत करीब से गुजरा ।
वाहे गुरु सच्चे पातशाह ? - मैं होंठों में बुदबुदाया - तू मेरा राखा सबनी थांही ।
तब तक पता नहीं कैसे मेरे हाथ खुल गये थे । मेरा जी चाहा कि मैं उसे पकड़ लूं लेकिन वह ‘आ बैल मुझे मार’ जैसी बात होती । मैं उसे पकड़कर उस पर हावी हो जाने की स्थिति में नहीं था । लेकिन चाहता मैं जरूर था कि वह किसी प्रकार मेरे काबू में आ जाता । उसकी बातों से इतना मैं समझ गया था कि कंचन उसका कोई माल हजम कर गई थी जिसकी जानकारी वह मुझे भी होने की अपेक्षा कर रहा था । क्या पता उस कथित माल का ही कंचन की मौत से कोई रिश्ता हो ।
अंधेरा होने तक मैं उन्हीं झाड़ियों में लेटा रहा ।
दिलावर सिंह फिर उस रास्ते वापस नहीं लौटा । लेकिन वह जंगल में कहीं भी हो सकता था । मेरे बहुत पास । मुझसे बहुत दूर ।
अन्त में मैं अपने स्थान से उठा । मैंने अपनी उंगलियों से अपने चेहरे को छुआ । मेरा चेहरा सूज गया था और जहां से गाल कटा था, वहां खून की पपड़ी जम गई थी । मेरी कनपटियों में अभी भी खून यूं बज रहा था जैसे लोहार का हथौड़ा चल रहा हो ।
मैं रात के अंधेरे में अन्दाजन जंगल से बाहर चलने लगा । मुझे न दिशा का ज्ञान था और न समय का । पता नहीं मैं कहां जा रहा था ।
काफी देर चलने के बाद जंगल समाप्त हो गया और मैं एक पक्की सड़क पर पहुंच गया । वह सड़क मेरी पहचानी हुई नहीं थी ।
एक बात की मुझे गारण्टी थी । अब तक जयपुर से बाहर जाने वाली तमाम सड़कों पर पुलिस की नाकाबन्दी हो चुकी होना लाजमी था । मैं नगर से बाहर जाने की कोशिश में फंस सकता था ।
नगर के भीतर मेरी एक उम्मीद थी ।
नगर में कहीं अल्बर्टो मौजूद था, जो मेरी मदद कर सकता था । वह मदद करने ही गोवा से जयपुर आया था ।
मैं उस वक्त बेहद असहाय हालत में था । मेरी जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी । गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने मेरी सारी जेबें खाली करवा ली थीं । मेरी घड़ी तक उतरवा ली थी ।
भूखा-प्यासा, थका-हारा मैं उस सड़क पर चलता रहा । सड़क पर कोई गाड़ी प्रकट होती थी तो मैं सड़क छोड़कर किसी पेड़ की ओट ले लेता था । गाड़ी के गुजरते ही मैं फिर सड़क पर आ जाता था ।
अन्त में मैं रामबाग पहुंचा ।
मैं सांस लेने के लिए रुका और अपना अगला कदम निर्धारित करने की कोशिश करने लगा ।
फिर मैंने मन-ही-मन एक फैसला किया और रामबाग पैलेस होटल की तरफ बढा ।
होटल के सामने पहुंचकर मैं एक पेड़ की ओट लेकर खड़ा हो गया और प्रतीक्षा करने लगा । पेड़ के समीप ही पार्किंग थी, जहां कई कारें खड़ी थी । लोगों की आवाजाही जारी थी । कभी कोई कार वहां आ जाती थी और उसमें से उतरकर लोग होटल में दाखिल हो जाते थे । कभी लोग होटल से निकलते थे और किसी कार में सवार होकर वहां से रवाना हो जाते थे ।
मैं बड़े सब्र के साथ प्रतीक्षा कर रहा था ।
अन्त में वह घड़ी आई जिसका कि मुझे इन्तजार था ।
एक अकेला आदमी होटल से बाहर निकला और पार्किंग में खड़ी एक नई एम्बेसेडर की तरफ बढा । उसकी चाल बता रही थी कि वह तनिक नशे में था ।
मैं पेड़ की ओट से निकला और दबे पांव आगे बढा ।
जब वह कार के दरवाजे का ताला खोल रहा था तो मैं उसके पीछे पहुंच गया । मैंने अपने दायें हाथ की उंगली अकड़ाकर उसकी पीठ के साथ सटाई और कठोर स्वर में फुसफुसाया - “खबरदार ! कोई हरकत न हो वरना शूट कर दूंगा ।”
वह एकदम ऐसा बौखलाया कि उसके घुटने कार की बॉडी से टकरा गये लेकिन वह जल्दी ही स्थिर हो गया । उसने घूमकर पीछे देखने का हौसला नहीं किया ।
“शाबाश !” - मैं बोला - “कोई गलत हरकत न करोगे तो तुम्हारी जान बच जायेगी ।”
“लेकिन भाई साहब ।” - वह घिघियाकर बोला - “मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं हैं ।”
“कोई बात नहीं । कार का पिछला दरवाजा खोलो ।”
उसने आज्ञा का पालन किया ।
“पिछली सीट के पास फर्श पर औंधे मुंह लेट जाओ । सिर उठाया तो गोली ।”
“नहीं, नहीं ।” - वह कम्पित स्वर में बोला - “मैं बाल-बच्चेदार आदमी हूं । मुझे मत मारना ।”
“तो कहना मानो ।”
वह फौरन मेरे कहे मुताबिक पिछली सीट के पस फर्श पर औंधे मुंह लेट गया ।
मैं कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया ।
“सिर मत उठाना ।” - मैं चेतावनीभरे स्वर में बोला - “मैं एक कत्ल पहले ही कर चुका हूं । कंचन का । तुमने अखबार में पढा होगा । मैं दूसरा कत्ल करने से कतई नहीं हिचकूंगा ।”
“मुझे मत मारना ।” - वह लगभग रोता हुआ बोला - “मैं सिर नहीं उठाऊंगा ।”
“शाबाश !”
मैंने कार एयरपोर्ट की तरफ दौड़ा दी ।
नगर से कोई दो मील बाहर आकर मैंने कार रोकी । मैं कार से बाहर निकला और उसका पिछला दरवाजा खोला ।
“मेरी तरफ पीठ करके बाहर निकलो ।” - मैंने आदेश दिया ।
उसने आदेश का पालन किया ।
“जेब से सारी खरीज निकालो ।”
“सिर्फ खरीज ?” - वह कम्पित स्वर में बोला ।
“हां ।”
उसने खरीज निकाली और अपना हाथ मेरी तरफ फैला दिया ।
खरीज में तीन अठन्नियां भी थीं जो कि मैंने उठा ली ।
“सड़क से उतरकर सौ गज सीधे चलो ।” - मैं बोला - “पीछे घूमकर मत देखना नहीं हो फायर कर दूंगा ।”
वह तुरन्त सामने चलने लगा । उसकी गरदन और कन्धे यूं तने हुऐ थे जैसे कि वह किसी भी क्षण गोली लगने की अपेक्षा कर राहा हो ।
मैं कार में सवार हुआ । मैंने उसे यू टर्न दिया और वापिस नगर की ओर रवाना हो गया ।
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