वो अट्ठाइस वर्ष का युवक होटल के कमरे में समाधि लगाए बैठा था। शरीर पर सिर्फ अंडरवियर था। आंखें बंद थीं उसकी। समाधि की मुद्रा में अकड़ा-सा बैठा था। सिर के बाल पीछे की तरफ करके बांध रखे थे। इंच भर की चुटिया दिख रही थी। बालों की मोटी लट बाईं तरफ वाले गाल पर झूल रही थी। उसका शरीर बलिष्ठ था। ताकतवर था। बांहों और छाती का कटाव जबर्दस्त अंदाज में झलक रहा था। रंग सांवला था परंतु चेहरा आकर्षक था। शरीर पर जगह-जगह जख्मों के निशान थे, कुछ गहरे निशान थे जो कि कभी घातक रहे होंगे। वो शानदार व्यक्तित्व का मालिक था। उसका चेहरा इस वक्त सपाट और भावहीन दिख रहा था। बंद आंखों के पीछे पुतलियां बराबर हरकत करती महसूस हो रही थीं। वो बहुत देर से समाधि की इस मुद्रा में बैठा था।

सुबह के नौ बज चुके थे।

“तुम कहां हो राजा देव?” सरसराती आवाज में वो बड़बड़ा उठा था –“मैं कब से तुम्हारी तलाश कर रहा हूं और अब तुम्हारी गंध पा ली है मैंने, ओह उस तरफ, मैं आ रहा हूं राजा देव।”

qqq

जगमोहन कॉफी का प्याला थामें किचन से बाहर निकला और सीधा देवराज चौहान के बेडरूम में जा पहुंचा। देवराज चौहान बेड पर गहरी नींद में था। ए.सी. की ठंडक कमरे में मौजूद थी।

“उठो।” जगमोहन पास पहुंचकर बोला –“कॉफी लो, मैं औरंगाबाद जा रहा हूं।”

देवराज चौहान ने आंखें खोली और उठ बैठा।

“तुम तो तैयार भी हो गए।” देवराज चौहान उससे कॉफी का प्याला लेते कह उठा।

“मैंने सोचा औरंगाबाद के लिए अभी निकल जाता हूं। वक्त क्यों खराब करूं।” जगमोहन बोला।

देवराज चौहान ने कॉफी का घूंट लेने के पश्चात कहा।

“आजम का काम जरूर पूरा करना। वो बढ़िया बंदा है, भविष्य में हमारे काम आ सकता है।”

“मैं समझता हूं।”

“काम के पैसे मत लेना। उस पर उधार रहने देना। इस तरह बातचीत का सिलसिला बना रहेगा।”

जगमोहन ने सिर हिलाकर कहा।

“मेरे ख्याल में मैं कल रात तक या परसों तक आ ही जाऊंगा।”

“जो भी हालात हों, मुझे फोन पर बता देना।”

जगमोहन बाहर निकल गया। पांच-सात मिनट बाद कार स्टार्ट होने और जाने की आवाज आई। तब तक देवराज चौहान कॉफी समाप्त कर चुका था। वो बेड से उठा और सिगरेट सुलगाकर ड्राइंग रूम में जा पहुँचा। चेहरे पर किसी भी तरह की सोच नहीं थी। वो सोफे पर बैठने जा रहा था कि एकाएक थम गया।

देवराज चौहान को लगा, वहां पर कोई है।

वो फौरन घूमा।

नजरें हर तरफ घूम गईं।

परंतु वहां कोई नहीं दिखा।

देवराज चौहान के चेहरे पर उलझन के भाव आ गए। उसे ये बात अजीब-सी लगी कि उसे यहां पर किसी और के होने का एहसास क्यों हुआ जबकि यहां कोई भी नहीं है।

वो सोफे पर जा बैठा। कश लिया। निगाह अभी भी हर तरफ घूम रही थी। आधा मिनट ही बीता होगा कि वो तेजी से उठा और पीछे की तरफ घूम गया। परंतु पीछे कोई नहीं था। लेकिन उसने स्पष्ट तौर पर सोफे के पीछे किसी के मौजूद होने का एहसास पाया था जैसे कोई बेहद पास हो।

ये क्या हो रहा है उसे?

देवराज चौहान के चेहरे पर कुछ उलझन दिखी।

अगले ही पल चिहुंककर तीन-चार कदम पीछे होता चला गया और उसके होंठों से निकला।

“कौन है?” अपने कानों के पास उसने किसी को सांस लेते सुना था। परंतु दिखाई नहीं दे रहा था कोई।

“राजा देव।” एक धीमी-सी मर्दानी आवाज उसके कानों में पड़ी।

देवराज चौहान स्तब्ध-सा रह गया। कुछ कह न सका।

“मेरी आवाज सुन रहे हो राजा देव?” वो ही धीमी आवाज पुन: देवराज चौहान के कानों में पड़ी।

“कौन हो तुम?” देवराज चौहान के माथे पर बल दिखने लगे।

“बबूसा हूँ मैं।” वो ही आवाज पुनः देवराज चौहान को सुनाई दी।

“कौन बबूसा?”

“मैं आप ही का हिस्सा हूं राजा देव। आपका ही डीएनए, आपका ही खून, आपकी ही ताकत, सब कुछ आप ही का तो है मेरे में। मेरा तो जन्म ही आपका मुकाबला करने के लिए कराया गया है।” स्पष्ट आवाज देवराज चौहान ने सुनी।

“मैं नहीं समझ पाया कि तुम कौन हो और क्या कह रहे हो?” देवराज चौहान सतर्क स्वर में बोला।

“राजा देव, मैं...।”

“तुम मुझे राजा देव क्यों कह रहे हो?”

“क्या आप नहीं जानते? सब कुछ भूल चुके हैं?” बबूसा की आवाज आई।

“क्या नहीं जानता?”

“ये ही कि आप कौन है, कहां से इस धरती पर आए हैं और तब क्या घटित हुआ था आपके साथ?”

“इस धरती पर वहाँ से आया, जहां से और लोग आए हैं। इसमें ऐसी क्या बात...।”

“नहीं राजा देव। आप सब कुछ भूल चुके हैं। आपको कुछ भी याद नहीं।”

“क्या याद नहीं मुझे?”

“ये बहुत लम्बी दास्तान है, मैं इस तरह आपसे नहीं कह पाऊंगा राजा देव।”

“तो कैसे कहोगे?”

“जब मैं आपके सामने आऊंगा।”

“तो क्या अब सामने नहीं हो?”

“नहीं। अभी मैं आपके सामने नहीं हूं। मेरे भीतर महापंडित ने जन्म के समय कुछ शक्तियां डाल दी थीं। उन्हीं शक्तियों के सहारे आपसे बात कर रहा हूं। महापंडित का कहना था कि राजा देव को ढूंढ़ने में ये शक्तियां मेरे काम आएंगी और उसने सही कहा था। महापंडित सच में ज्ञानी है। अब उन्हीं शक्तियों के दम पर मैं आपसे बात कर पा रहा हूं। उन शक्तियों ने आपकी गंध को ढूंढ़ निकाला है। आप मुझे बताएं, आप कहां पर रहते हैं राजा देव।”

“क्यों?”

“मैं आपके पास आऊंगा।”

“क्यों?”

“आपसे मिलूंगा। आपको देखूंगा। आपसे बहुत बातें करूंगा और...।”

“मैं तुम्हें नहीं जानता।”

“आपके लिए मुझे जानने को है ही क्या राजा देव। मैं आपका ही अंश हूं। आपका ही हिस्सा...।”

“मैं तुम्हें नहीं जानता कि तुम कौन हो।”

“मैं बबूसा...।”

“बबूसा कौन?”

“आप तो सब कुछ ही भूल चुके हैं राजा देव।”

देवराज चौहान खामोश रहा। चेहरे पर सख्ती के भाव थे।

“ढाई सौ साल पहले, अंतरिक्ष के एक छोटे-से ग्रह के राजा थे आप।” बबूसा की आवाज आई।

“मैं? राजा?”

“हां राजा देव। तब मैं आपका खास सेवक हुआ करता था। आप मुझ पर पूरा भरोसा करते थे।”

“फिर मैं यहां कैसे पहुंच गया?”

“रानी ताशा की वजह से।”

“रानी ताशा?”

“आपकी रानी। आपके ग्रह की सबसे खूबसूरत औरत...। याद आ रानी ताशा की?”

“नहीं।”

“रानी ताशा ने आपके साथ धोखा किया और आपको ग्रह के बाहर फिंकवा दिया।”

“ग्रह के बाहर फिंकवा दिया?” देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ीं –“कोई किसी को किसी ग्रह को बाहर कैसे फिंकवा सकता है।”

“फिंकवा सकता है। आपने बुरे लोगों को ग्रह के बाहर फेंक देने क एक रास्ता बनाया हुआ है। रानी ताशा में आपके खिलाफ षड्यंत्र रचा और आपको ग्रह के बाहर फेंक दिया।”

“तुम्हारी बातें सुनकर मुझे हैरानी हो रही है।”

“परंतु बाद में रानी ताशा अपने किए पर बहुत पछताई। अब वो

आपको वापस उसी ग्रह पर ले जाना चाहती है। वो आपको लेने आपके

बनाए पोपा (अंतरिक्ष यान) पर सवार होकर इस धरती पर कभी भी पहुंच

सकती है। वो अपने किए पर शर्मिंदा है। आपसे माफी मांगना चाहती है और वापस ले जाएगी आपको।” बबूसा की आवाज कानों में पड़ रही थी।

“तुम्हारी अजीब-सी बातें मेरी समझ से बाहर हैं।”

“राजा देव। मैं आपका विश्वासी सेवक हूं। मैं आपसे धोखा नहीं कर सकता। जो कहा है सच कहा है। रानी ताशा हर हाल में आपको वापस, आपके ग्रह पर ले जाना चाहती है। ये उसकी लम्बी योजना है। बहुत देर से वो ताने-बाने बुन रही है। अट्ठाइस साल पहले उसने मेरा जन्म कराया इस धरती पर।”

“इस धरती पर? तुम इसी धरती के हो?”

“हां राजा देव। मैं डोबू जाति से सम्बंध रखता हूं जो कि बर्फीले

पहाड़ों पर बसती है। आपके ग्रह के, रानी ताशा के डोबू जाति से रिश्ते

हैं। आपका बनाया पोपा (अंतरिक्ष यान) अक्सर हमारे ग्रह से, डोबू जाति

के लोगों के पास आता है। रानी ताशा के भेजे लोग उसमें सवार होकर

डोबू जाति से मिलने आते हैं। रानी ताशा को इस धरती के लोगों की सहायता की जरूरत पड़ेगी, इसी वजह से रानी ताशा ने डोबू जाति से

दोस्ती कर रखी है। डोबू जाति वाले पोपा (अंतरिक्ष यान) से आने वाले

लोगों से प्रभावित है कि वो आसमान से, कहां से आते हैं। रानी ताशा

आपको वापस सदूर ग्रह पर ले जाना चाहती है और आपके इंकार करने

की स्थिति में, रानी ताशा ने मेरा जन्म करवाया डोबू जाति में ताकि, मैं वक्त आने पर आपको संभाल सकूँ। दो सौ सालों से रानी ताशा ने डोबू जात से सम्बंध बना रखे हैं। महापंडित रानी ताशा की हर सम्भव सहायता कर रहा है। रानी ताशा का जीवन पूरा हो जाता है तो वो पुनः रानी ताशा क जन्म करवा देता है। रानी ताशा ने धोखेबाजी करके आपको ग्रह से बाह फिंकवा दिया, इस पर भी महापंडित रानी ताशा का साथ दे रहा है। ये बुरी बात है। मुझे देखिए, मैं आपका सच्चा सेवक हूं। डोबू जाति से बाह निकल आया हूं कि रानी ताशा की कोई ऐसी बात नहीं मानूंगा जो आपके खिलाफ हो। आप खुशी से अपने सदूर ग्रह पर वापस जाना चाहते हैं तो ठीक, नहीं तो मैं आपके साथ जबर्दस्ती नहीं होने दूंगा। रानी ताशा की एक न चलने दूंगा।”

“मेरे साथ कोई जबर्दस्ती नहीं कर सकता।” देवराज चौहान के होंठों से निकल गया।

“आप ये सोचकर भूल में हैं राजा देव।” बबूसा के स्वर में गम्भीरत थी –“रानी ताशा को डोबू जाति के लोगों का सहारा है और उस जाति में खतरनाक से खतरनाक योद्धा भरे पड़े हैं। आप उनका मुकाबला नहीं कर सकते क्योंकि आप में अब वो पहले वाली बात नहीं है। तब आप जैसा योद्धा सदूर ग्रह पर दूसरा नहीं था, वहां के बलशाली लोग, राजा बनने के लिए आपको चुनौती दिया करते थे और मैदान में फैसले के दौरान, आप उन्हें मार डालते थे आसानी से। परंतु अब आपकी ताकत कम हो चुकी है। डोबू जाति के एक योद्धा का भी आप मुकाबला नहीं कर सकते। फौरन हार जाएंगे। परंतु मैं डोबू जाति का मुकाबला कर सकता हूं। मेरे होते वो आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। रानी ताशा ने गहरी साजिश रची है आपके खिलाफ कि आपको वापस सदूर ग्रह पर ले जा सके। परंतु ये बात मुझे पसंद नहीं आई कि मेरी जानकारी में कोई राजा देव के खिलाफ साजिश रचे। मैं उस धोखेबाज रानी ताशा की एक नहीं चलने दूंगा। उसने बहुत बुरा किया था आपके साथ और वो दोबारा आपको अपना बनाना चाहती...।”

“तुम्हारी कोई बात मुझे ठीक से समझ नहीं आ रही।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।

“सब समझ में आ जाएगा राजा देव। आप ये बताइए कि आप रहते कहां हैं?” बबूसा की आवाज आई।

“क्यों?”

“ताकि आपके पास आकर मैं बातें कर सकूं। सब कुछ आपको बता...।”

“मैं तुम्हें अपने रहने की जगह नहीं बता सकता।”

“क्यों राजा देव?”

“क्योंकि मैं तुम्हारे इरादों से वाकिफ नहीं हूं।”

“राजा देव, मैं बबूसा हूं। जिस पर आप आंख मूंदकर भरोसा करते

थे। आप ये कैसे कह सकते हैं कि आपको मुझ पर भरोसा नहीं।”

“मैं तुम्हें नहीं जानता।”

“मैंने आपको बताया तो है कि आपके इर्द-गिर्द क्या साजिश चल

रही है। रानी ताशा पोपा (अंतरिक्ष यान) पर बैठकर, इस धरती पर आ रही है। आप खतरे में पड़ने वाले हैं राजा देव। परंतु मैं आपको बचाऊंगा-मैं...।”

“मुझे किसी की जरूरत नहीं है। मुझे तुम्हारी बातों का जरा भी भरोसा नहीं है।”

“ये कहकर आपने तो दिल तोड़ दिया राजा देव।”

“मैं देवराज चौहान हूं, राजा देव नहीं। मेरा कोई ग्रह नहीं है। मैं अपने पूर्व जन्मों के बारे में जानकारी रखता हूं कि पहले मैं कहां पर पैदा हुआ था। मैं अपने पूर्व जन्म में कई बार जा चुका हूं। वहां मैं किसी ग्रह का मालिक नहीं था। कोई रानी ताशा नहीं थी। कोई बबूसा नहीं था। तुम्हारी सब बातें झूठ...।”

“आपके पूर्व जन्मों की मुझे जानकारी है राजा देव। आपका पहला जन्म उस रहस्यमयी नगरी में हुआ था, जब नगरी की मालकिन मिन्नो से आपकी ठन गई थी। बहुत खून-खराबा हुआ आप दोनों में। आपके और उसके गुट बन गए। जबकि आपकी शादी मिन्नो की बहन बेला (अब नगीना) से हुई थी। परंतु मिन्नो से लड़ते आप भी मारे गए और मिन्नो भी मारी गई। इस तरह आपके पहले जन्म का अंत हुआ था परंतु उस जन्म के आपके और मिन्नो के अधूरे काम करने रह गए थे, जो आप लोगों के हाथों ही सम्पूर्ण होने हैं। ये ही कारण है कि वक्त का पहिया आप दोनों को बार-बार पूर्वजन्म में खींच ले जाता है। मैंने ठीक कहा न राजा देव।”

देवराज चौहान चुप रहा।

“पहले जन्म की धरती का वो हिस्सा समय चक्र में फंसकर, रहस्यमय बन गया और दुनिया की निगाहों से छिप गया। कोई नहीं जानता कि इस धरती में आपके पहले जन्म की जमीन कहां पर है, परंतु कुछ शक्तियां ऐसी हैं, जो आपके और मिन्नो के बार-बार वहां जाने के लिए रास्ता बना देतीं हैं।”

“तुम काफी कुछ जानते हो।”

“मैंने अट्ठाईस साल आपके बारे में ही जानने पर लगाए हैं राजा देव। आपका दूसरा जन्म पंजाब के लुधियाना शहर में हुआ और आपकी पत्नी मिन्नो ही बनी। बहुत अच्छा और सुख वाला जीवन आपने बिताया। इस जन्म के बारे में जिक करने लायक कुछ नहीं है। परंतु तीसरा जन्म अब चल रहा है। इस जन्म में आप चोर है और पहले जन्म वाली बेला (नगीना) अब आपकी पत्नी है।” बबूसा की आती आवाज एक पल के लिए रुकी, उसके बाद फिर सुनाई देने लगी –“परंतु मैं जिस वक्त की बात कर रहा हूं, वो बात इन तीनों जन्मों से पहले की है। इन तीनों जन्मों  से पहले आप सदूर ग्रह के राजा थे, रानी ताशा आपकी पत्नी थी। ग्रह की सबसे खूबसूरत औरत और आप उससे प्यार करते थे, परंतु उसने किले के सेनापति धोमरा के चक्कर में पड़कर आपसे धोखेबाजी की और आपको ग्रह से बाहर फिंकवा दिया। जब तक आप उसकी धोखेबाजी को समझ पाते, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। लेकिन उसके बाद रानी ताशा को बहुत दुख और पछतावा हुआ अपनी करनी का। वक्त हाथ से निकल चुका था और आपको वापस नहीं लाया जा सकता था। रानी ताशा ने खुद अपने हाथों से उस किले के सेनापति धोमरा को मार दिया था। रानी ताशा को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आपको खो देने के बाद क्या करे, परंतु तब महापंडित ने रानी ताशा को बताया कि आप जीवित हैं अगर वो उसके कहने के मुताबिक इंतजार करे तो राजा देव से फिर से उसका सामना हो सकता है। रानी ताशा मान गई और महापंडित के इशारों का इंतजार करने लगी। उसका जीवन बार-बार पूरा होता रहा और महापंडित उसे पुनः नया जीवन देता रहा। आपकी तरह उसने भी कई जीवन जिए। परंतु हर जीवन में रानी ताशा अकेली ही रही। किसी मर्द का साथ नहीं लिया। शायद ये उसका पश्चात्ताप था, जो उसने पहले आपके साथ किया था। अब महापंडित ने रानी ताशा को कह रखा है कि राजा देव से मिलने का समय निकट आता जा रहा है। रानी ताशा अपनी तैयारियां पूरी कर चुकी है। आज से अट्ठाईस वर्ष पहले मेरा जन्म करवा दिया था महापंडित ने मेरे में आपके ही अंश डाले गए। आपकी तरह ही मुझे ताकतवर बनाया गया। ये सब इसलिए किया गया कि जब रानी ताशा आपको लेने आए तो मैं आपको संभाल सकूँ। आप पर कब्जा कर सकूं। सदूर ग्रह पर आप सबसे ताकतवर इंसान थे राजा देव। इसी कारण मेरा जन्म कराया गया।”

देवराज चौहान लम्बे पलों तक चुप रहा फिर बोला।

“एक मिनट के लिए मैं मान लूं कि तुम्हारी बातें सही हैं तो सवाल ये पैदा होता है कि इस भरी दुनिया में, रानी ताशा ने मुझे कैसे ढूंढा। यहां किसी को ढूंढ पाना...।”

“महापंडित ने किया ये काम।” बबूसा की आवाज आई –“आपकी गंध से आपकी तलाश की, परंतु इस काम में उसे 250 वर्ष लग गए। ये ग्रह आपके सदूर ग्रह से बहुत बड़ा है। यहां पर ज्यादा लोग बसते हैं, ऐसे में आपको ढूंढ़ पाना आसान नहीं था, परंतु महापंडित ने पूरी मेहनत करके आपको ढूंढ़ निकाला। ये 28 वर्ष पहले की बात है। आपको ढूंढ़ लेने के पश्चात महापंडित ने रानी ताशा के कहने पर मेरा जन्म कराया और मुझे डोबू जाति के पास छोड़ दिया कि मैं यहां के हिसाब से पल सकूँ। पोपा मुझे डोबू जाति के पास छोड़ गया था। तब मैं कुछ ही दिन का था और डोबू जाति के बच्चों में रहकर मैं पला, बड़ा हुआ। इस दौरान रानी ताशा आपको वापस सदूर ग्रह पर ले जाने का षड्यंत्र तैयार करती रही और महापंडित आप पर नजर रखता रहा।

“कैसे नजर रखी उसने मुझ पर?”

“महापंडित ने अपनी दो शक्तियां आप पर छोड़ रखी हैं। वो आपका सारा हाल महापंडित को बताती रहती हैं।”

“फिर तुम्हें मेरा पता-ठिकाना पूछने की क्या जरूरत है। उन शक्तियों से मेरा पता पूछ...।”

“नहीं पूछ सकता।”

“क्यों?”

“वो शक्तियां महापंडित के अधिकार में हैं और मैं डोबू जाति से विद्रोह करके बाहर आ गया हूं। अब महापंडित से मेरी सीधे-सीधे बात नहीं हो सकती। अगर महापंडित चाहे तो वो मुझसे अवश्य बात कर सकता है।” बबूसा की आवाज आई।

देवराज चौहान मुस्करा पड़ा।

“इस मुस्कान का क्या मतलब हुआ राजा देव?”

“तुमने अपनी बातों में मुझे उलझा दिया था, परंतु अब मैं फिर वर्तमान स्थिति में आ गया हूं और तुम्हारी कही किसी भी बात का मुझे यकीन नहीं है। तुम जाने क्यों ऐसी बातें करके मुझे फंसाने में लगे...”

“राजा देव, मैं आपका सेवक हूं।”

“बकवास, तुम...”

“आप मुझे यहां का पता बताइए, मैं आपके सामने हाजिर होकर, आपको हर बात का यकीन दिलाऊंगा।”

“तुम जो भी हो, जाओ यहां से । मैं इन बातों में नहीं पड़ना चाहता।”

“इन बातों में तो आपको पड़ना ही पड़ेगा राजा देव। पोपा पर सवार होकर रानी ताशा कभी भी इस धरती पर, डोबू जाति तक पहुंचेगी और उसके बाद डोबू जाति के योद्धाओं को लेकर आपके पास आएगी। रानी ताशा आपको हर हाल में वापस सदूर ग्रह ले जाना चाहती है। ऐसे वक्त में मैं ही तो आपके काम आ सकता हूं। मेरी ताकत का मुकाबला कर पाना उनके लिए कठिन होगा। काफी बुरा वक्त आने वाला है राजा देव, मेरी बात का यकीन कर लीजिए।”

“चले जाओ मेरे पास से।”

“आप मुझे अपना पता क्यों नहीं बता रहे राजा देव?” बबूसा की आवाज आई।

“क्योंकि मैं तुम्हें नहीं जानता। क्योंकि मैं ये नहीं जानता कि तुम मेरे भले के लिए हो या बुरे के लिए। क्योंकि मुझे तुम्हारी कही किसी भी बात का भरोसा नहीं। बेहतर होगा चले जाओ यहां से।”

“राजा देव, मेरी जानकारी के मुताबिक रानी ताशा का इस ग्रह पर आने का वक्त करीब आ चुका है।”

“मैं किसी रानी ताशा को नहीं जानता।” देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।

“ये ही तो समस्या है कि आपको कुछ याद नहीं, परंतु आपको सब याद आ जाएगा राजा देव।”

“वो कब?”

“जब आप रानी ताशा को सामने देखेंगे। महापंडित ने ये बात मुझे तब बताई थी जब सदूर ग्रह पर आपके अनुरूप में मेरा जन्म कराने जा रहा था। उसने कहा था कि रानी ताशा के चेहरे पर ऐसी शक्तियां डाल देगा कि राजा देव जब रानी ताशा का चेहरा देखेंगे तो उन्हें सब कुछ याद आ जाएगा।” बबूसा की आवाज सुनाई दी।

“तो फिर तुम्हें उस वक्त तक का इंतजार करना होगा, जब मुझे सब कुछ याद आ जाए।”

“तब तक तो बहुत देर हो चुकी होगी राजा देव। आप रानी ताशा को नहीं जानते। वो रूप की जादूगरनी है। उसके रूप में पड़कर आप पहले भी धोखा खा चुके हैं, रानी ताशा आपके सामने पड़ गई तो तब जाने आपका क्या हाल होगा। कहीं आप फिर से उसके रूप भंवर में न खो जाएं। मैं आपको आगाह करना चाहता हूं कि... ।”

“मेरी पत्नी नगीना के बारे में जानते हो।” देवराज चौहान बोला।

“हां राजा देव।”

“मैं अपनी पत्नी के अलावा, अपना दिल कहीं पर नहीं रखता।”

“इस बात का भी मुझे ज्ञान है।”

“ऐसे में मैं रानी ताशा की तरफ आकर्षित नहीं हो सकता।”

“आप ठीक कहते हैं परंतु आप रूप की जादूगरनी रानी ताशा को भूल चुके हैं। आपको कुछ भी याद नहीं। रानी ताशा आपके ग्रह की मामूली-सी लड़की थी, परंतु आपने उसे देखा तो आप उसके दीवाने हो उठे थे। रानी ताशा के साथ ब्याह करके ही आपने दम लिया था। जब तक वो आपको हासिल नहीं हुई, तब तक आपका चैन गुम रहा। उसे पा लेने के बाद भी आप उसके दीवाने रहे और रानी ताशा ने आपकी दीवानगी का फायदा खूब उठाया। किले के कर्मचारी उसकी मुट्ठी में आ चुके थे। कोई खबर आप तक नहीं पहुंचती थी। फिर आप पोपा का निर्माण करने के लिए चले गए। लम्बे वक्त तक आप पोपा के निर्माण में लगे रहे और रानी ताशा किले के सेनापति धोमरा के साथ मौजों में लगी रही। किले के लोगों का मुंह रानी ताशा ने बंद कर दिया था तो महापंडित आपको हकीकत बता सकता था, लेकिन वो भी चुप रहा।”

“अच्छा।” देवराज चौहान ने दिलचस्पी-भरे स्वर में कहा –“तब तुम कहां थे?”

“मैं तो आपके साथ ही पोपा (अंतरिक्ष यान) के निर्माण में लगा हुआ था।” बबूसा का सुनाई देने वाला स्वर शांत था –“आप मुझे अपना पता बता दीजिए। मैं मिलकर आपको हर बात का यकीन दिला दूंगा। अगर रानी ताशा इस ग्रह पर आ पहुंची और आपने उसे देख लिया तो मुझे डर है कि आप उसके रूप के दीवाने न हो जाएं। वो आपको वापस सदूर ग्रह पर ले जाएगी।”

“और तुम चाहते हो कि मैं वापस न जाऊं।” देवराज चौहान मुस्कराया।

“नहीं राजा देव। मैं ऐसा नहीं चाहता। मुझे तो बहुत खुशी होगी कि आप वापस अपने ग्रह पर चलें और वहां की जनता को संभालें। आप जनता को खुश रखते हैं। परंतु मेरा इरादा ये है कि रानी ताशा अपनी खूबसूरती की वजह से सफल न हो सके। जो भी फैसला हो, होशो-हवास में लें। रानी ताशा अगर जबर्दस्ती आपको पोपा में बैठाकर, वापस ग्रह पर ले जाना चाहेगी तो मैं ये नहीं होने दूंगा। मैं चाहता हूं आपको सब कुछ याद आ जाए कि रानी ताशा ने आपके साथ क्या किया था। उसके बाद ही आप जो फैसला लेना चाहें, लें। मैं हर कदम पर आपके साथ हूं। बबूसा आपका सेवक है और हमेशा खास सेवक रहेगा। मुझ पर आप पूरा भरोसा...ओह...अभी मुझे जाना होगा राजा देव। कोई दरवाजे पर है। क्षमा चाहता हूं, पर मुझे जाना होगा...।”

उसके बाद बबूसा की आवाज नहीं आई।

देवराज चौहान इंतजार करता रहा, उसकी आवाज का।

परंतु दोबारा कुछ भी सुनाई नहीं दिया।

सिर घूम चुका था देवराज चौहान का उस बबूसा की बातें सुनकर। वो नजर नहीं आ रहा था। उसकी आवाज सुनाई दे रही थी। वो उसका पता पूछ रहा था, उसके पास आना चाहता था। क्या मालूम वो किस इरादे से उसको करीब आने की कोशिश में है। देवराज चौहान किसी नई मुसीबत को सिर पर लेने के पक्ष में नहीं था। वो उसके पूर्वजन्मों से भी पूर्व जन्म की बात कर रहा था कि वो किसी सदूर ग्रह का राजा था। रानी ताशा, महापंडित...देवराज चौहान ने आगे सोचना बंद कर दिया। उसे किसी भी बात पर भरोसा नहीं था, न ही बबूसा के व्यक्तित्त्व पर भरोसा था। वो इतना जानता था कि बबूसा की बातें महज बकवास थी। यकीन करने लायक कुछ भी नहीं था।

परंतु कुछ बात तो थी।

देवराज चौहान की सोचों को झटका लगा।

वो दिख नहीं रहा था। उसके कथन के मुताबिक वो कहीं और समाधि में था। परंतु वो उसके पास बातें कर रहा था। उसने कहा था कि उसकी गंध से उसने उसे ढूंढ़ लिया है।

देवराज चौहान के चेहरे पर उलझन ही उलझन दिखाई देने लगी। रानी ताशा के बारे में सोचा, लेकिन इस बारे में हर तरफ उसे कोहरा ही दिखा। रानी ताशा का नाम उसने कभी सुना ही नहीं था और बबूसा का कहना था कि वो उसके रूप का दीवाना था। वो सदूर ग्रह की सबसे खूबसूरत युवती थी। बकवास-वो ऐसी किसी बात को नहीं मानता। बबूसा बे-सिर-पैर की बातों में उलझाकर जाने क्या चाहता था। पिछले अट्ठाइस सालों से किसी महापंडित की दो शक्तियां उस पर नजर रखे हुए हैं। ऐसा कभी भी नहीं हो सकता।

देवराज चौहान ने सिर झटककर इन सोचों से अपने को दूर किया।

परंतु सोचें थी कि फिर सिर पर सवार हो गईं।

रानी ताशा पोपा पर सवार होकर आ रही है। अंतरिक्ष यान को बबूसा पोपा कहकर बुला रहा था। ये भी कहा कि पोपा उसने बनाया था। पता नहीं क्या-क्या कहा उसने। ये सब बातें देवराज चौहान ने दिमाग से निकाल फेंकने की कोशिश की, परंतु सफल होता नहीं दिखा। रानी ताशा का चेहरा देखते ही उसे अपना वो जन्म, वो वक्त याद आना शुरू हो जाएगा। वो उसे वापस अपने ग्रह पर ले जाना चाहेगी। साथ में डोबू जाति के योद्धा होंगे जो जरूरत पड़ने पर उसके साथ जोर-जबर्दस्ती भी कर सकते हैं।

“बेकार की बातें हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है और न ही होगा।” देवराज

चौहान बड़बड़ा उठा।

qqq

समाधि लगाए वो युवक और कोई नहीं बबूसा ही था।

एकाएक बबूसा ने आंखें खोल दीं। आंखों में तीव्र चमक मौजूद थी। चेहरे पर चैन के भाव थे फिर उसने समाधि की मुद्रा को तोड़ा और खड़ा हो गया।

तभी पुनः दरवाजा थपथपाया गया।

अंडरवियर पहने ही वो दरवाजे की तरफ बढ़ा और दरवाजा खोला। सामने वेटर खड़ा था।

रोज ये ही वेटर बबूसा को नाश्ता कराता था। दोनों में दोस्ताना भाव पैदा हो चुके थे। तीन महीने से बबूसा इसी होटल के कमरे में रुका हुआ था। ऐसे में स्टाफ से बढ़िया पहचान हो जाना मामूली बात थी।

“गुड मॉर्निंग साहब जी।” वेटर मुस्कराकर बोला –“आज आप नाश्ते में लेट हो गए।”

बबूसा शांत भाव में मुस्कराया, फिर बोला।

“ले आओ।”

“क्या लाऊं आज?”

“अपनी पसंद से, रोज की तरह का बढ़िया नाश्ता ले आओ।” बबूसा

ने कहा।

“ठीक है साहब जी। लाता हूं।” वेटर सिर हिलाकर चला गया।

बबूसा ने दरवाजा बंद किया। चेहरा शांत और सपाट था। आगे बढ़कर एक तरफ रखी कमीज और पैंट पहनने लगा। अब उसके चेहरे पर सोचें आ गई थीं।

“राजा देव।” बबूसा बड़बड़ा उठा –“मैं आपको ढूंढ़ निकालूंगा। आप मुझसे छिप नहीं सकते। महापंडित की दी कई शक्तियां हैं मेरे पास। मैं सब शक्तियों का इस्तेमाल करूंगा, आप तक पहुंचने के लिए। इससे पहले कि रानी ताशा आप पर अपनी खूबसूरती का जाल फेंके और आप मदहोश हो जाएं, मैं आप तक पहुंच जाऊंगा।”

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हिमाचल प्रदेश का सबसे ऊंचा इलाका –लाहौल स्पीति!

साल के बारहों महीने हर तरफ बर्फ ही बर्फ पड़ी नजर आती थी। बर्फ से ढकी पहाड़ों की चोटियां और पहाड़। बर्फ गिरने के सीजन में तो पेड़ भी बर्फ से ढक जाते थे। रास्तों पर भी बर्फ ही बर्फ दिखती थी। यातायात पूरी तरह ठप्प पड़ जाता था। अन्य शहरों से लाहुल स्पीति का इलाका कट जाता था। यूं भी लाहौल स्पीति का इलाका पहाड़ों पर बसा होने की वजह से दुनिया से कटा सा ही रहता था। इसके एक तरफ चीन, तिब्बत लगते थे तो दूसरी तरफ जम्मू और कश्मीर का इलाका लगता था। जम्मू-कश्मीर का ऐसा इलाका, जहां बसता कोई नहीं था। वहां बर्फ और सर्दी ही इतनी ज्यादा थी कि, किसी के बसने का कोई मतलब नहीं था। मीलों तक जम्मू-कश्मीर का वो इलाका वीरान ही दिखता था। हर तरफ बर्फ की सफेदी ही नजर आती थी। जम्मू-कश्मीर ही नहीं, लाहौल स्पीति की सीमा वाले इलाके का भी कुछ ऐसा ही हाल रहता था। वहां से लाहौल स्पीति की आबादी मीलों दूर थी। अलबत्ता सैलानियों के लिए, ट्रेकिंग (खेल) के लिए, वो जगह मशहूर मानी जाती थी। कोई आबादी नहीं, हर तरफ बिछी बर्फ की मोटी चादर और पहाड़ों के रास्ते, ट्रेकिंग के लिए वो जगह बेहद सफल थी। इस इलाके में आ जाने का मतलब था दुनिया से अलग हो जाना। आप पर कोई भी मुसीबत आए, कोई सहायता नहीं मिल सकती। मोबाइल काम नहीं करते। वाहन नहीं पहुंच सकते। सिर्फ हैलीकॉप्टर की पहुंच यहां तक थी।

हिमाचल रोडवेज की वो नीली और पीली बस, जो कि इस वक्त बुरी हालत में लग रही थी, वो सड़क के बीचों बीच मध्यम रफ्तार से आगे बढ़ी जा रही थी। वो नाम की ही सड़क थी। सड़क के दोनों तरफ बर्फ गिरी थी। बीच में इतनी ही जगह थी कि बस के टायर आ सकें। सड़क भी ऊबड़-खाबड़ और बुरे हाल थी। रह-रहकर खड्डों में बस उछल रही थी। ऐसा सफर करना खुद को मुसीबत में डालने जैसा था। परंतु सफर भी तो करना था लोगों को। बस किओमो नाम के कस्बे से टाकलिंग ला की तरफ जा रही थी। टाकलिंग ला, जो कि लाहौल स्पीति का सीमा के पास का आखिरी छोटा-सा कस्बा था। उसके बाद आबादी खत्म हो जाती थी। और कई मील दूर, जम्मू-कश्मीर की सीमा शुरू हो जाती थी और ये कई मील बिल्कुल वीरान थे। घने जंगल थे जो कि बर्फ से घिरे थे। अंजान रास्ते थे कि एक बार जो भटक जाए फिर उसका सीधे रास्ते पर आना असम्भव था। कई जगह तो बर्फ के ऐसे-ऐसे गहरे गड्ढे थे कि ऊपर बर्फ की सतह पड़ी रहती। उस पर पांव रखा तो सीधे गहरे गड्ढे में और खेल खत्म। इस तरफ कोई नहीं आता था। यहां तक कि स्थानीय लोग भी नहीं आते थे। यहां इन्हें एक ही काम पड़ता था, जंगल से लकड़ियां लाने का काम कि चूल्हा जला सकें। खाना बना सकें।

इस काम के लिए आठ-दस लोग दल बनाकर ही इधर आते थे ताकि

उन्हें एक-दूसरे का सहारा रहे। टाकलिंग ला कस्बे के लोगों का रोजगार धान की खेती, सब्जियां उगाना और गाय-भैंसों का दूध निकालकर, सुबह की बस से किओमो जाना और वहां बेचकर, कुछ पैसे कमा लाना। इसी तरह ये सब्जियां-चावल बेचते थे। ऐसी सर्दी में इनके लिए मांस खाना जरूरी हो जाता था तो ये बर्फीले जंगल में जाकर किसी-न-किसी जानवर का शिकार कर लाते। जैसे-तैसे टाकलिंग ला कस्बे के लोग अपना गुजारा कर रहे थे। इस तरह जीने की आदत पड़ चुकी थी इन्हें । मात्र एक हजार रुपया भी इनके लिए बड़ी अहमियत रखता था। यहां कुछ घर ही पक्के थे, नहीं तो हर तरफ झोंपड़ियां ही नजर आती थीं। परंतु झोंपड़ियां बेहद मजबूत और भीतर से गर्म रखने वाली थीं। दो-तीन-चार-चार कमरों वाली झोंपड़ियां। जिनकी दीवारें तो पहाड़ी पत्थरों की थीं और छत पर मजबूती से काम किया हुआ था कि अक्सर पड़ने वाली बर्फ और वर्षा उनका कुछ न बिगाड़ सके।

धरा पंचल हिमाचल रोडवेज की इसी नीली-पीली बस में किओमो से टाकलिंग ला के लिए बैठी थी। ढाई घंटे के इस सफर में धरा का बुरा हाल हो गया था। हाल तो उसका चार दिन से बुरा था। चार दिन से पहाड़ी सफर बसों पर तय करती वो टाकलिंग ला तक पहुंची थी।

सप्ताह-भर से वो सफर ही कर रही थी। मुम्बई से चली थी वो। तीन दिन उसे हिमाचल पहुंचने में लगे। तब वो मात्र छ: घंटों के लिए एक होटल के कमरे में सोई थी और अगले दिन सुबह उसने सफर शुरू कर दिया था उसकी मंजिल लाहौल स्पीति का ये कस्बा टाकलिंग ला था। सामान के नाम पर उसके पास नीले रंग का बड़ा-सा बैग था। जिसे हाथ में भी पकड़ा जा सकता था और पीठ पर भी लादा जा सकता था। तब उसने राहत की सांस ली जब बस के कंडक्टर को कहते सुना कि टाकलिंग ला आ गया है। फिर देर बाद बस सड़क से उतरकर छोटे-से मैदान पर जाकर रुक गई।

वहां दो दुकानें बनी हुई थीं। एक रोटी का ढाबा और चाय मिलने की दुकान थी। दूसरी पान-सिगरेट की दुकान थी। ये था टाकलिंग ला का बस अड्डा। वहां पर दूसरी कोई बस नहीं थी। इस बस में पच्चीस के करीब स्थानीय सवारियां थीं। वे सब नीचे उतरे और अपने-अपने रास्ते पर बढ़ गए। कुछ ने बस की छत पर लगे कैरियर पर बोरियों में सामान रखा हुआ था। वो लोग अपने सामान को उतारने के लिए बस की छत पर चढ़ने लगे।

धरा बैग कंधे पर फंसाए, बस से उतरी और ठिठकी-सी, हर तरफ

नजर दौड़ाने के बाद उस दुकान पर जा पहुंची जहां रोटी और चाय मिलती थी। वहां चालीस वर्ष का एक व्यक्ति मौजूद था।

“भैया।” धरा बोली –“यहां रहने की जगह और गाईड कहां पर मिलेगा?”

“बस्ती में चली जाओ।” उसने कहा।

“किस तरफ?”

“अभी-अभी जिधर लोग गए, इस तरफ।” उसने एक तरफ इशारा

किया।

“शुक्रिया।” धरा ने कहा और बैग संभाले उसी तरफ बढ़ गई। हर तरफ बर्फ से ढकी चोटियां नजर आ रही थी। आसपास भी बर्फ गिरी हुई थी। मध्यम-सी धूप निकली हुई थी। धरा को सर्दी महसूस हो रही थी। जींस की पैंट और कमीज के ऊपर तीन दिन पहले खरीदा पतला-सा काला स्वेटर पहन रखा था। जो कि यहां की ठंड को रोकने के लिए नाकाफी था। धरा 24 साल की युवती थी। सांवले रंग की खूबसूरत युवती थी। एक निगाह देखने पर महसूस हो जाता था कि उसके जीवन में भरपूर उत्साह है और वो कुछ करने की तमन्ना रखती थी। खूबसूरत वादियों के नजारों को देखती धरा, बैग को कंधे पर लादे उस पतली-सी पगडंडी पर आगे बढ़ी जा रही थी। आगे जाकर ढलान भी आई, सीढ़ियां भी आईं और चढ़ाई भी आई। पंद्रह मिनट बाद लोगों के रहने वाले मकान-झोंपड़ियां दिखने लगीं। पक्के मकान थे, कच्चे मकान थे और बड़ी-बड़ी झोंपड़ियां थीं। सब अलग-अलग बने थे। कहीं-कहीं पर कुछ झोंपड़ियां इकट्ठी भी थीं। धरा को खेत भी दिखे और वहां काम करते लोग भी नजर आए। तभी एक बहुत बड़ा बादल जमीन को छूता चला गया। आस-पास कोहरा छा गया। धरा को दिखना भी बंद हो गया तो वो ठिठक गई।

बादल रूपी कोहरा छंटा तो धरा पुनः आगे बढ़ने लगी। मजेदार मौसम था। धरा का दिल खुश हो गया था यहां आकर, परंतु वो अपने काम के सम्बंध में सोच रही थी कि वो हो पाएगा या नहीं? जिसके लिए यहां आई है। इतना लम्बा सफर तय किया है। धीरे-धीरे धरा टाकलिंग ला की बस्ती में आ पहुंची थी। रास्ते में जो भी स्थानीय व्यक्ति या महिला मिलती, उसे गहरी निगाहों से देखती। किसी बाहरी व्यक्ति का टाकलिंग ला आना नई बात नहीं थी ट्रेकिंग के लिए लोग यहां आते रहते थे। गांव में किसी के घर में पैसे देकर ठहरते। गांव वालों में से कोई पैसा कमाने की खातिर, उनका गाइड बन जाता। इससे अच्छी कमाई हो जाती थी। कई गांव वालों ने तो ऐसे लोगों के लिए अलग से झोंपड़ियां बना रखी थीं। तभी धरा ने सामने से आते एक आदमी से पूछा।

“यहां रहने के लिए जगह कहां मिलेगी?”

“जगह है, मेरे झोंपड़े में एक कमरा खाली है।” वो बोला –“पचास रुपए रोज के देने होंगे।”

“ठीक है।” धरा सिर हिलाकर बोली।

“अकेली हो?”

“हां।”

“ट्रेकिंग के लिए तो लोग दो-तीन-चार के ग्रुप में आते हैं। लाओ, बैग मुझे दे दो।”

धरा उसे बैग देते बोली।

“मैं ट्रेकिंग के लिए नहीं, घूमने आई हूं।”

“आओ मेरे साथ।” बैग थामे वो धरा से बोला –“तुम्हारा नाम क्या है?”

“धरा।”

दोनों बस्ती की तरफ बढ़ गए।

“खाना भी खाओगी।”

“हां-तो?”

“उसके पैसे अलग से देने होंगे। सौ रुपए रोज के।”

“ठीक है। मैं दूंगी।”

“खाने में मीट भी मिलेगा और रोटी-सब्जी भी। जो भी तुम चाहो, वो मिल जाएगा।”

“रोटी-सब्जी खाऊंगी।”

“मिल जाएगी। मेरा नाम संतराम है और मेरी पत्नी का नाम बीना है। बच्चे भी हैं तीन।”

“यहां कब से रह रहे हैं आप?”

“मैं तो पैदा ही यहीं पर हुआ था।” संतराम मुस्कराकर बोला।

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एकाएक आसमान पर काले बादल उमड़े और तेज हवा के साथ बरसात होने लगी। बीच-बीच में बादलों की जबर्दस्त गर्जना भी हो रही थी। कभी कभी तो धरती कांपती लगती। दिल दहल-सा जाता। परंतु बरसात शुरू होने से पहले ही धरा, संतराम के साथ उसके घर पहुंच गई थी। वह संतराम की बीवी बीना से मिली जो कि चालीस-बयालीस साल की थी। तीन बच्चे थे। दो लड़के और एक लड़की। जो कि अट्ठारह साल की थी। झोंपड़े में आराम की हर चीज मौजूद थी। बरसात होने के साथ ही वातावरण में ठंडक-सी बढ़ गई थी। बीना ने धरा को गर्म मसाले वाली चाय बनाकर दी। तब तक मिलने-मिलाने की रस्म पूरी हो गई थी। बच्चे अपने अपने कामों में व्यस्त हो गए थे। धरा ने चाय का घूंट भरा तो बीना बोली।

“कब तक रुकेगी आप?”

“कई दिन लग सकते हैं।” धरा ने कहा –“मुझे आप न कहें, अपनी

छोटी बहन समझकर बात करें।”

बीना जवाब में मुस्कराकर रह गई।

धरा ने संतराम को देखकर कहा।

“मुझे यहां घूमने के लिए गाईड की जरूरत है, जो मेरी मनचाही जगह तक मुझे ले जा सके।”

“मैं हूं।” संतराम ने कहा –“मैं आपको हर जगह घुमा दूंगा।”

“हर जगह?” धरा ने संतराम की आंखों में झांका।

“हां-हां, मैं यहां के सब रास्ते जानता हूं। यहीं का तो हूं मैं। कई लोगों के लिए गाईड का काम कर चुका हूं। एक दिन का दो सौ रुपया लूंगा। सब जगह अच्छी तरह घुमा दूंगा।”

“मैंने सुना है यहां कहीं डोबू जाति है।” धरा बोली।

संतराम बुरी तरह चौंका।

बीना ने फौरन संतराम को देखा।

धरा उन दोनों के चेहरों के भावों को महसूस कर चुकी थी।

“कौन हो तुम?” संतराम ने गम्भीर निगाहों से उसे देखा।

“मैं धरा हूं।” धरा ने मुस्कराने की चेष्टा की।

“डोबू के लोगों से तुम्हारा क्या मतलब? यहां आने वाले लोग उनके बारे में बात नहीं करते। तुम तो घूमने आई हो।”

“मैं सरकारी नौकर हूँ और पुरातत्व विभाग के ऐसे विभाग से मेरा सम्बंध है जो हिन्दुस्तान में अभी तक बसी पुरानी जनजाति पर रिसर्च करता है। उन्हें तलाश करता है। उनसे सम्पर्क बनाने की चेष्टा करता है और उसके बाद उन लोगों को किसी तरह अपनी दुनिया में शामिल करने की चेष्टा करता है।”

“तो तुम डोबू जाति के लिए यहां आई हो?”

“हां। मुझे कुछ ऐसा मिला कि पता चला इस तरफ कहीं डोबू जाति बसती है। मैं इस बारे में यकीन कर लेना चाहती हूं। जब मुझे यकीन हो जाएगा तो मेरे खबर करने पर, मेरे विभाग के और लोग भी यहां आ जाएंगे। यूं समझो कि अभी मैं जांच-पड़ताल करने आई हूं।” धरा ने संतराम और बीना को देखते हुए शांत स्वर में कहा।

संतराम ने व्याकुलता भरी निगाहों से धरा को देखा।

बीना खामोश बैठी रही।

धरा चाय का प्याला रखते हुए कह उठी।

“क्या बात है, आप इतने परेशान क्यों हो गए?”

“तुम्हारा साथ कोई नहीं देगा।” संतराम ने गम्भीर स्वर में कहा।

“क्यों?”

“डोबू जाति का नाम हमने भी सुन रखा है, परंतु कोई नहीं जानता कि वो कहां हैं। हम लोग उस तरफ कभी नहीं जाते।”

“किस तरफ?” धरा ने फौरन कहा।

“जिधर डोबू जाति के होने के बारे में सुनने में आता है। वहां से कोई जिंदा नहीं लौटता, कोई उधर पहुंच जाए तो...।”

“मैं वहां जाना चाहती हूं।”

“मैं नहीं जानता कि डोबू जाति कहां पर रहती है।”

“तुम जानते हो।”

“नहीं जानता। सच में नहीं जानता।”

“तो कौन जानता है। कोई तो यहां होगा जो डोबू जाति के बसने की जगह जानता...।”

“मुझे कुछ नहीं पता।” कहने के साथ ही संतराम उठ खड़ा हुआ।

बाहर तेज बरसात लगी थी। बादल गर्ज रहे थे। बिजली चमक रही थी।

“आप इसे जोगा भाई साहब से मिलवा दो।” खामोश बैठी बीना कह

उठी।

“तुम समझती नहीं।” संतराम ने झल्लाकर कहा –“जोगाराम भी उधर नहीं जाएगा।”

“आपने ही तो बताया था कि दो-तीन साल पहले कुछ लोगों को लेकर जोगा भाई साहब उस तरफ गए...।”

“जोगाराम उन्हें दूर से ही रास्ता बताकर वापस आ गया था, परंतु वो

लोग कभी वापस नहीं लौटे। जोगाराम जानता है कि उधर जाने में कितना खतरा है। वो-वो नहीं जाएगा उधर।”

“जोगाराम है कौन?” धरा ने पूछा।

“जोगा भाई साहब इसी बस्ती के हैं और वो डोबू जाति के बारे में काफी कुछ जानते हैं, परंतु इस बारे में किसी से बात भी नहीं करते। उनके अलावा शायद ही कोई हो जो डोबू जाति के रहने की जगह जानता हो। जोगा भाई साहब वहां तक का रास्ता जानते हैं। पर मुझे भी लगता है कि वो तुम्हारी बात मानेंगे नहीं।” बीना ने कहा।

“मुझे जोगाराम से मिलवा दो। मैं उससे बात करूंगी।” धरा ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा।

“इसे जोगा भाई साहब के घर ले चलो। बाहर से ही घर दिखा देना।” बीना ने संतराम से कहा।

“बरसात रुकने दो।” संतराम ने गम्भीर स्वर में कहा।

बीना ने धरा को देखकर कहा।

“खाओगी क्या, तुम्हारे आने तक मैं खाना तैयार कर लूंगी।”

“जो तुम लोग खाते हो, मीट मांस के अलावा, मैं सब खा लूंगी।” धरा ने कहा और जेब से दो पांच सौ के नोट निकालकर बीना को थमाते कहा –“ये हजार रखो, अभी मैं यहीं रहूंगी। हिसाब बाद में कर लेंगे।”

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आधे घंटे में बरसात रुक गई थी। काले बादल आसमान से छंट गए थे। मौसम साफ हो गया था। अब सफेद बादल आसमान में तैरते दिखाई दे रहे थे और कुछ दूर बर्फ से ढके पहाड़, चांदी की तरह नजर आ रहे थे। ठंडी हवा चल रही थी। बरसात के पानी का कहीं भी नामोनिशान नहीं था। ये कस्बा पहाड़ पर बसा था और पानी हाथों हाथ ही नीचे की तरफ बह गया था। जमीन अवश्य गीली नजर आ रही थी।

दोपहर के दो बज चुके थे।

बीना, धरा के साथ घर से निकली और पहाड़ की पगडंडियां तय करती आगे बढ़ गई।

धरा की आंखें मौसम का नजारा कर रही थीं।

“यहां रहना कितना अच्छा लगता होगा।” धरा बोली।

“बहुत मुसीबतें हैं। पहाड़ पर जीवन बिताना बहुत कठिन है।” बीना बोली –“खाने-पीने का सारा सामान तो नीचे से ही आता है। ऊपर से मौसम की मार। बर्फ पड़नी शुरू हो जाए तो और भी बुरा हाल हो जाता है। कई बार तो भूखे-प्यासे रहकर वक्त निकालना पड़ता है। सड़कें बंद हो जाती हैं। कोई पहाड़ गिर जाए तो और भी बड़ी मुसीबत। दो-चार के लिए यहां रहना बहुत अच्छा लगता है, जीवन काटना हो तो सब बुरा ही बुरा है। बीमार होने पर दवा नहीं मिलती। हाथ-पांव टूट जाएं तो किओमो दौड़ना पड़ जाता है, जबकि कमाई का यहां खास कोई साधन नहीं है। तुम जैसे लोग बस्ती में आ जाते हैं तो कुछ कमाई हो जाती है। आड़े वक्त के लिए पैसा रख लेते हैं। बच्चों को पढ़ाना हो तो स्कूल नहीं और...।”

“जोगाराम के बारे में बताओ।” धरा कह उठी।

“क्या बताऊं, भला चंगा इंसान है।”

“परिवार है उसका?”

“हां। पत्नी है, तीन बच्चे हैं, दो बच्चे तो यहां से दूर कहीं पढ़ते हैं। वहीं रहते हैं। जोगाराम के बाप के पास पैसा होता था, मुझे तो लगता है कि वो ही पैसा बैठा खा रहा है।” बीना ने बताया।

“कुछ काम तो करता होगा?”

“जो काम मिल जाता है, यहां के लोग कर लेते हैं। पर यहां तो बहुत

कम काम ही होते हैं जिससे दो पैसे मिलें।”

पांच मिनट में ही बीना एक जगह रुकती बोली।

“वो रहा जोगाराम का मकान।” उसने एक तरफ इशारा किया।

धरा ने उधर देखा।

पहाड़ी पत्थरों का बना मकान दिखा। दो-तीन कमरे पक्के थे और साथ लगी झोंपड़ियों से भी कमरे डाल रखे थे। उसके आस-पास भरपूर खुली जगह थी, वो जगह कहीं पर ऊंची थी तो कहीं ढाल के रूप में उधर कई पेड़ खड़े नजर आ रहे थे। धरा को वहां एक आदमी कुछ काम में व्यस्त दिखा।

“वो जोगा भाई साहब ही दिख रहे हैं शायद।” बीना ने कहा –“तुम बात कर लो, फिर आ जाना। तब तक खाना बन चुका होगा।” कहने के साथ ही बीना पलटी और वापसी की तरफ बढ़ गई।

धरा उसी मकान की तरफ बढ़ गई।

पास पहुंची तो उस आदमी को स्पष्ट देखा।

वो पचपन-साठ साल का रहा होगा। सिर के ज्यादातर बालों में सफेदी थी। कुछ दाढ़ी बढ़ी हुई थी। कद छः फुट का रहा होगा। शरीर पर गर्म कमीज-पायजामा और ऊपर जैकेट पहन रखी थी।

वो गठे शरीर का मालिक लग रहा था। सख्त और मजबूत आदमी। रंग कुछ सांवला था पर चेहरे पर लाली थी। एक निगाह में ही वो पहाड़ी आदमी लगता था।

धरा गेट के रास्ते से भीतर प्रवेश कर गई।

वो मोटे तने से, कुल्हाड़ी से छोटी-छोटी लकड़ियां काट रहा था कि धरा को देखकर ठिठक गया।

“नमस्कार।” पास पहुंचती धरा हाथ जोड़ती मुस्कराकर कह उठी।

वो मुस्कराया। जिससे उसके चेहरे पर उम्र की लकीरें झलक उठीं।

“लगता है यहां आज ही पहुंची हो।” उसने कुल्हाड़ी एक तरफ रख दी।

“दो घंटे पहले। संतराम के यहां ठहरी हूं। उसने बताया आप यहां के सबसे बढ़िया गाईड हैं।”

“गाईड?” वो बोला –“बस, रास्तों की जानकारी है।”

“संतराम की पत्नी ने भी कहा कि जोगा भाई साहब से बढ़िया गाई यहां पर कोई नहीं।”

“आजकल तो सब ही गाईड बनते जा रहे हैं।” जोगाराम पुनः मुस्कराया –“तुम ट्रेकिंग के लिए आई हो?”

तभी भीतर से औरत की आवाज आई और वो फिर दरवाजे पर

दिखी।

“चाय तैयार हो गई है। साथ ही औरत की निगाह धरा पर टिकी।

“इस मेहमान के लिए भी चाय...।”

“हां-हां, आप भीतर तो आओ।” कहकर वो भीतर चली गई।

जोगाराम ने धरा से कहा।

“भीतर आ जाओ। चाय पी लेना। आज मौसम में कुछ ठंडक है,

वरना इस मौसम को तो यहां की गर्मियां कहते हैं।”

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पंद्रह मिनट में ही धरा जोगाराम की पत्नी के साथ घुल-मिल गई थी। उसका नाम सुनीता था। उनकी बातों के दौरान जोगाराम के बोलने की गुंजाइश नहीं थी। ऐसे में जोगाराम उठकर बाहर निकल गया था। सुनीता ने उसे अपना सारा घर दिखाया तो जोगाराम का चौदह साल का बेटा सुनील एक कमरे में लकड़ियों से कुछ बनाता दिखा। धरा ने उससे भी बात की। सुनीता ने बताया कि उसका पास और बेटी किओमो के पास किआटो नाम की जगह में अपनी मासी के पास रहकर पढ़ते हैं और उनको पढ़ाने का खर्चा हम देते हैं। उनकी स्कूल की पढ़ाई समाप्त हो गई है और वे दोनों काजा (जगह का नाम) जाकर कॉलेज में पढ़ना चाहते हैं, परंतु पास में पैसा न होने की वजह से उन्हें आगे नहीं पढ़ा पा रहे और उन्हें इतनी पढ़ाई के दम पर ही, कोई अच्छी नौकरी कर लेने को कहा है।

“कॉलेज में पढ़ने के लिए कितना खर्चा होगा दोनों का?” धरा ने पूछा।

“कम-से-कम दस लाख। ढाई-ढाई लाख तो कॉलेज में एडमिशन के ही लग जाएंगे। इंजीनियरिंग कॉलेज है वो। उसके बाद उनकी दो-दो साल की फीस मिलाकर, दस लाख तो लगेंगे ही। हमारे पास जितना पैसा था हमने वो सब बच्चों की पढ़ाई पर लगा दिया। चाहते हुए भी हम उन्हें और नहीं पढ़ा सकते।”

धरा को पता चला कि बेटा और बेटी दोनों जुड़वा हैं।

उसके बाद धरा बाहर चली आई।

जोगाराम पेड़ के तने से कुल्हाड़ी से छोटी-छोटी लकड़ियां निकाल रहा था।

“ये लकड़ियां चूल्हा जलाने के लिए?” धरा ने पास पहुंचकर बोला।

“हां।” जोगाराम ने मुस्कराकर धरा को देखा –“छोटे-छोटे टुकड़े करके, पीछे झोंपड़े के कमरे में रख देंगे कि गीले न हो। उसके बाद ये चूल्हे में काम आती रहेंगी।”

“आपके घर आकर मुझे बहुत अच्छा लगा।”

जोगाराम मुस्कराया।

“मुझे आप जैसे गाइड की जरूरत है।” धरा मतलब की बात पर आती बोली।

“ट्रेकिंग का सारा सामान लाई हो? साथ में और कितने लोग हैं?” जोगाराम ने पूछा।

“मैं ट्रेकिंग के लिए नहीं, घूमने आई हूं।” धरा की नजर जोगाराम के चेहरे पर थी।

“कहां-कहां घूमना चाहती हो?”

“हर उस जगह, जो घूमने के काबिल हो।”

“घुमा दूंगा। जब भी चलना हो बता देना। कितने लोग हो तुम सब?”

“सिर्फ मैं। मैं अकेली हूं।”

जोगाराम की निगाह धरा पर जा टिकी।

“हैरानी है कि इतनी दूर अकेली आई हो। बता देना जब भी घूमने निकलना हो। बर्फ के पहाड़ों पर जाना है?”

धरा चुपचाप खड़ी रही फिर बेहद शांत स्वर में बोली।

“डोबू जाति के यहां जाना है।”

जोगाराम के जिस्म में हल्का-सा कम्पन उभरा फिर थम गया। नजरें धरा पर थीं।

“उन्हें करीब से देखना चाहती हूं। उन्हें समझना चाहती...।”

“ये कौन-सी जाति है?” जोगाराम के चेहरे पर अब किसी तरह का भाव नहीं था।

“डोबू जाति। प्राचीन जातियों में से बची जातियों में से एक जाति है और मेरी जानकारी के मुताबिक डोबू जाति की तरफ जाने का रास्ता यहां से, इसी तरफ से जाता है।” धरा उसे देखती बोली।

“मैंने तो इस बारे में कभी नहीं सुना।” जोगाराम ने भावहीन स्वर में कहा।

धरा कुछ पल उसे देखती रही फिर मुस्कराकर बोली।

“मैंने अच्छी तरह सुन रखा है जोगाराम जी। आपने भी जरूर सुना होगा।”

“मुझे जानकारी नहीं है इस बारे में।” जोगाराम ने कुल्हाड़ी को तने के ऊपर रखा और कमरे की तरफ जाने को हुआ।

“डोबू जाति तक मुझे पहुंचाने के लिए अगर आप तैयार हो जाते हैं तो पच्चीस हजार रुपए दूंगी।” धरा बोली।

“इतना पैसा कमाकर मुझे बहुत खुशी होती, पर मैं अभी तक नहीं समझ पाया कि तुम कहां जाना चाहती हो। किसकी बात कर रही हो। मैं तो समझा था कि तुम यहां बर्फ और यहां की वीरानी जगहों का मजा लेने आई हो। एडवेंचर शौकीन हो। परंतु तुम तो जाने किसकी बात कर रही हो।” कहकर वो कमरे की तरफ बढ़ गया।

धरा वहीं खड़ी उसे देखती रही।

जोगाराम कमरे के खुले दरवाजे से भीतर जा चुका था।

धरा चंद पल वहीं रुकी रही फिर वापस चल पड़ी। वो सब समझ रही थी कि जोगाराम डोबू जाति के बारे में बात भी नहीं करना चाहता। उसकी मौजूदगी को भी मानना नहीं चाहता। उसके सामने अंजान बन रहा है तो ये तो उसे डोबू जाति तक ले जाने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं होगा। मुम्बई से चलते वक्त उसने सोचा भी नहीं था कि यहां पर उसे इस तरह की समस्या का सामना करना पड़ेगा। धरा ने मन-ही-मन तय किया कि वो कोई दूसरा आदमी (गाईड) तलाश करेगी। संतराम से इस बारे में बात करेगी।

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धरा, संतराम के झोंपड़े पर पहुंची तो बीना ने खाना तैयार कर रखा था। धरा को भूख लगी थी। सुबह नाश्ते में भी किओमो से चलते वक्त कुछ खास नहीं खाया था। तब संतराम घर पर नहीं था। धरा ने खाना खाया, तब तक संतराम भी आ गया। खाने से फारिग हुई तो संतराम ने ही बात शुरू की।

“जोगाराम से बात हुई?”

“वो तो इस बात को ही मानने को तैयार नहीं कि कहीं डोबू जाति है।” धरा बोली।

संतराम के चेहरे पर गम्भीरता आ गई।

“तुम्हें पहले ही कहा था कि उधर कोई नहीं जाएगा।” बीना बोली।

“क्यों?”

बीना की निगाह, संतराम की तरफ उठी।

संतराम खामोश रहा।

“मैं इस काम के लिए पच्चीस हजार रुपया देने को तैयार हूं।” धरा ने कहा।

“मुझे कुछ मत कहो।” संतराम ने गम्भीर स्वर में कहा –“मैं डोबू जाति की तरफ का रास्ता नहीं जानता। मैंने उस बारे में सिर्फ किस्से-कहानियां ही सुनी हैं। इतना ही जानता हूं कि वो जगह खतरनाक है। रहस्यमय है। उस तरफ जो भी चला जाता है वो कभी भी जिंदा वापस नहीं लौटता। कभी बस्ती के छ:-सात युवक डोबू जाति को देखने गए थे। परंतु वो कभी भी वापस नहीं लौटे। मैं इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता। आकाश में अजीब-सी बिजली चमकती देखी है अपने जीवन में। ऐसा लगता था जैसे कोई चीज नीचे उतरती हो। परंतु नजर कुछ नहीं आया था। ये सब डोबू जाति के ठिकाने की ही तरफ होते देखा था। गांव के बुजुर्ग बताते थे कि उस दिशा की तरफ डोबू जाति बसती है। परंतु कुछ नहीं पता। सब सुनी-सुनाई बातें हैं। लेकिन जोगाराम इस बारे में बहुत कुछ जानता है। सिर्फ वो ही डोबू जाति के बारे में सही-सही जानकारी रखता है। एक बार वो कुछ लोगों को लेकर उधर गया था। सुना था कि उसे बहुत बड़ी रकम दी गई थी। कुछ दिनों बाद जोगाराम तो लौट आया परंतु उसके साथ जाने वालों में से कोई न लौटा। उनका क्या हुआ, कुछ पता नहीं। तब जोगाराम भी डरा-डरा सा रहता था। दो महीने तो घर से नहीं निकला, फिर काजा चला गया और सेबों के बाग में काम करने लगा। इससे पहले जब जोगाराम पच्चीस साल का रहा होगा, वो डोबू बस्ती की तरफ गया था। ये बात मुझे इसलिए पता है कि तब मैं और जोगाराम दोस्त होते थे। वो मेरे को बता के गया था। तब पच्चीस दिन बाद लौटा एकदम कमजोर हो गया था। उसने बताया कि भूखा रहना पड़ा कई दिन। खाने को कुछ नहीं मिला। कई दिन पहाड़ की खोह में छिपकर बिताए पर डोबू बस्ती के बारे में पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया था। यही कहा कि बेकार में चला गया। अब कभी उधर नहीं जाएगा।”

“लेकिन दूसरी बार वो गया-तुमने बताया।”

“हां। दो साल पहले ही कुछ लोगों को लेकर गया था। बहुत ज्यादा पैसा मिला होगा तभी तो...।”

“ये बात तो मानने में नहीं आती कि इस बस्ती में सिर्फ जोगाराम ही है जो डोबू जाति तक पहुंचने का रास्ता जानता है। और लोग भी तो होंगे जो...।”

“औरों के बारे में मैं नहीं जानता। कोई उस तरफ गया भी है तो मुझे पता नहीं। जोगाराम के बारे में तो इसलिए पता है कि उससे कभी-कभार दोस्तों की तरह बात हो जाती है, परंतु डोबू जाति के बारे में वो मेरे से भी ज्यादा बात नहीं करता।”

संतराम के चेहरे पर नजरें टिकाए, धरा कह उठी।

“डोबू जाति के लोग कभी इधर आते हैं?”

“कभी नहीं। मैंने तो अपने जीवन में उन्हें देखा नहीं। सुना भी नहीं कि डोबू जाति के लोगों को किसी ने देखा है। सिर्फ डोबू जाति का नाम ही सुना जाता है कभी-कभार कोई यूं ही बात छेड़ बैठता है, बस।”

“अगर मैंने वहां तक जाना हो तो कैसे जाऊं?”

“मेरे पास तो एक रास्ता था, जोगाराम। उससे तुम मिल आई हो। दूसरा कोई रास्ता मैं नहीं जानता।”

“तुम पता करो।”

“कोई फायदा नहीं होगा।” संतराम ने गम्भीर स्वर में कहा –“डोबू जाति के बारे में कोई बात भी नहीं करेगा। मेरे ख्याल में तो तुम्हें वापस चले जाना चाहिए। डोबू जाति तक शायद तुम कभी न पहुंच पाओ।”

“क्यों दिल तोड़ते हो बेचारी का।” बीना कह उठी –“भगवान ने चाहा तो कोई रास्ता निकल ही आएगा।”

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अगले दो दिनों तक धरा टाकलिंग ला की पहाड़ी बस्ती में घूमती रही और लोगों से मिलती रही। डोबू जाति तक जाने के लिए, किसी गाईड को पूछती रही। परंतु कोई फायदा नहीं हुआ। लोगों ने उसकी बात में दिलचस्पी ही नहीं ली। ऐसा कोई सामने नहीं आया, जो डोबू जाति तक उसे ले जाने को कहे। एक-दो अलग-अलग लोगों ने उसके सामने जोगाराम का नाम अवश्य लिया कि शायद जोगाराम डोबू जाति का रास्ता जानता है।

दूसरे दिन की रात को सोते समय धरा सोच रही थी कि जोगाराम के बिना उसका काम नहीं चलेगा। जोगाराम को किसी तरह रास्ते पर लाना होगा। इसी उधेड़बुन में लगी धरा की आंख लग गई। अगले दिन सुबह जल्दी ही उठ गई। बीना को बताया कि किसी काम से किओमो जा रही है, शाम की बस से लौट आएगी। बीना ने नाश्ता बना दिया। जल्दी-जल्दी धरा ने नाश्ता किया और बस अड्डे जाकर, किओमो जाने वाली बस ले ली। किओमो आने के पीछे उसका मतलब ये ही था कि मुम्बई फोन कर सके। टाकलिंग ला या उसके आस-पास कहीं भी फोन करने का इंतजाम नहीं था और वहां मोबाइल काम नहीं करते थे। ढाई घंटे में वो किओमो पहुंच गई और वहां से मुम्बई एसटीडी कॉल की। उसने चक्रवती साहब से बात करनी थी। उधर से चक्रवती साहब ने ही बात की। उसके मोबाइल पर ही फोन किया था धरा ने।

“हैलो।” चक्रवती की आवाज कानों में पड़ी।

“चक्रवती साहब।” मैं धरा-धरा पंचल...।”

“पहचान लिया। तुम टाकलिंग ला पहुंच गई क्या? कई दिन से तुम्हारा फोन नहीं आया। मैं चिंता में था कि...।”

“टाकलिंग ला में फोन का कोई इंतजाम नहीं है। ढाई घंटे का सफर तय करके मुझे किओमो आना पड़ा, फोन करने के लिए।”

“डोबू जाति के बारे में कुछ पता चला?”

“वो कागज सही थे। डोबू जाति टाकलिंग ला के आगे कहीं है। परंतु यहां के लोग डोबू जाति से दूर रहना पसंद करते हैं। डोबू जाति से इन लोगों का कोई वास्ता नहीं है। मुझे अभी तक एक ही आदमी मिला है जो डोबू जाति तक गया है या वहां का रास्ता जानता है। परंतु मेरे सामने वो इस बात से इंकार करता है। वो वहां जाने को तैयार नहीं।”

“क्या नाम है उसका?” उधर से चक्रवती साहब ने पूछा।

“जोगाराम।”

“उसे पैसे का लालच दो कि तुम्हें वहां तक ले जाए।”

“पच्चीस हजार कहा था, परंतु उसने परवाह नहीं की।”

“पचास हजार कहो। लाख कहो।”

“मुझे नहीं लगता कि वो इस तरह मानेगा।”

“तो?”

“उसका बेटा-बेटी किओमो में पढ़ रहे हैं और अब काजा के इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन लेना चाहते हैं। परंतु उसके पास पैसा नहीं है कि बच्चों को आगे पढ़ा सके। इसमें दस लाख का खर्चा है।”

“दस लाख?”

धरा रिसीवर थामे खामोश रही।

“तुम दो घंटे बाद फोन करना। मैं विभाग के एकाउंटेंट से पता करता हूं कि हमें इतना पैसा मिल सकता है या नहीं?”

“ठीक है।” धरा ने कहा और रिसीवर रख दिया। पैसे देकर दुकान से बाहर आ गई।

दो घंटे तक धरा घूमती रही किओमो की सड़कों पर। छोटा-सा पहाड़ी इलाका था। आस-पास दिखती बर्फ की चोटियां चमक रही थीं। वातावरण में ठंडक थी। छोटे से बाजार की एक दुकान में बैठकर समोसे खाए और चाय पी।

दो घंटे बाद चक्रवती साहब को फोन किया।

“तुम्हें दस लाख मिल जाएगा धरा, परंतु काम भी होना चाहिए। डोबू जाति के बारे में हमें पूरी जानकारी चाहिए। उनसे सम्पर्क बन जाना चाहिए। इस जाति को हम सामान्य लोगों में शामिल कर पाए तो ये बहुत बढ़िया काम होगा हमारे विभाग का।”

“चक्रवती साहब, मैं कोशिश कर रही हूं आगे क्या होता है, ये तो वक्त ही बताएगा।”

“प्रकाश को तुम्हारे पास भेज दूं?”

“अभी नहीं। प्रकाश की जब जरूरत पड़ेगी, मैं बता दूंगी। पैसा कब मिलेगा मुझे?” धरा ने पूछा।

“जब मर्जी ले लो। वहां एकाउंट खुलवा लो मैं ट्रांसफर कर देता हूं।”

“इस वक्त तो दोपहर हो रही है। बैंक बंद हो रहे होंगे। मैं पता करती हूँ, उसके बाद फोन करूंगी।”

“अब तो जोगाराम तुम्हें डोबू जाति तक ले जाने को मान जाएगा दस लाख रुपया कम नहीं होता।”

“पता नहीं, बात करने पर ही पता चलेगा कि वो मानता है कि नहीं।”

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