पार्वती की नींद खुल गई ।
नींद खुलने का कारण उसकी समझ सें नहीं आया था लेकिन एकाएक उसका मन एक विचित्र प्रकार की बेचैनी से भर उठा था ।
खुली खिड़की के रास्ते से पूरे चांद की रोशनी उसके बिस्तर पर पड़ रही थी ।
उसने गर्दन घुमाकर अपने पलंग से केवल चार फुट दूर बिछे हुए पलंग की ओर देखा और फिर वह एकदम अपने बिस्तर में उठ कर बैठ गई ।
उसने हाथ बढाकर टेबल लैम्प का स्विच आन किया और लैम्प की बगल मे रखा चश्मा उठा कर अपनी नाक पर लगा लिया ।
उसके चेहरे पर गहरी चिन्ता के भाव उभर आए थे ।
मंजुला आपने बिस्तर पर नहीं था ।
पार्वती एक धनाढ्य विधवा थी और मंजुला उसकी इकलौती बेटी थी । अपने जीवनकाल में पार्वती के पति ने मंजुला को इतनी आजादी दे रखी थी कि पार्वती के लिए मंजुला को किन्हीं बन्धनों में बांध कर पाना असम्भव था । इतनी आजादी के कारण बचपन से ही मंजुला को अपने रहन-सहन में और कार्य-कलापों में किसी का दखल या किसी प्रकार की रोक-टोक पसन्द नहीं थी और विशेष रूप से अब, जब कि वह बाईस साल की एक आकर्षक लेकिन जिम्मेदार युवती बन चुकी थी, वह यह कतई सहन नहीं कर पाती थी कि कोई उसे यह समझाये कि उसके लिए भला क्या था और बुरा क्या था, चाहे समझाने वाली उसकी मां ही क्यो न हो । पार्वती को अपनी बेटी की सूझ-बूझ और चरित्र पर पूरा भरोसा था । लेकिन एक अज्ञात सा डर हमेशा उसके मन को कचोटता रहता था । कहीं मंजुला ज्यादा होशियारी दिखाती-दिखती धोखा न खा जाए । कहीं कोई ऊंच-नीच न हो जाए ।
पार्वती बिस्तर से उठा खड़ी हुई और सोचने लगी ।
मंजुला कहां हो सकती हैं ?
सम्भव है अभी वह महेश कुमार के काटेज से लौटी ही न हो और उसकी प्रतीक्षा करती-करती वह खुद न जाने कब सो गई हो ।
महेश कुमार का काटेज उनके काटेज से लगभग दो फर्लांग दूर झील के किनारे पर स्थित था । महेश कुमार एक बहुत बड़े उद्योगपति का बेटा था और वह काटेज वे लोग साल भर में एक डेढ महीना ही इस्तेमाल किया करते थे । साधारणतया वे लोग तभी उस काटेज को आबाद किया करते थे जब वे जीवन की एकरूपता से बहुत तंग आ जाते थे और एकान्त की जरूरत महसूस करने लगते थे ।
आजकल काटेज में महेश कुमार अकेला रहता था ।
झील में मंजुला को एक दुर्घटना से बचाने के चक्कर में उसकी टांग टूट गई थी । उसकी टांग पर प्लास्टर चढा हुआ था और वह अपना अधिकतर समय काटेज में ही गुजारता था ।
मजुला स्वयं को उसका अहसानमंद महसूस करती थी इसलिए कभी-कभार उसका हालचाल पूछने के लिए उसके काटेज में चली जाया करती थी ।
पार्वती को इसमें कोई एतराज की बात दिखाई नहीं दी थी । और अगर उसे कोई एतराज होता, तो भी वह उसे प्रकट न करती । मंजुला से सम्बन्धित किसी भी मामले में मंजुला का ही फैसला महत्वपूर्ण और सर्वोपरि होता था । मानवता के नाते महेश कुमार के स्वास्थ्य के प्रति दिलचस्पी दिखाना मंजुला अपना कर्तव्य समझती थी ।
दो दिन बाद महेश कुमार वापिस राजनगर स्थित कोठी में अपने परिवार के साथ रहने के लिए चला जाने वाला था । उस रात को उसने मंजुला को डिनर के लिए बुलाया था । महेश कुमार के पास आठ मिलीमीटर का प्रोजेक्टर था जिस पर वह बाद में मंजुला को कुछ फिल्मे दिखाने वाला था । मंजुला ने उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया था ।
वह पार्वती को ग्यारह बजे तक लौट आने के लिए कह गई थी ।
लेकिन आधी रात के बाद तक भी मंजुला का पलंग खाली था ।
पार्वती ने अपने शरीर को एक गर्म शाल से लपेटा और बैडरूम से बाहर निकल आई ।
उसने स्लीपर उतारकर सैंडिल पहनी लीं और काटेज से बाहर निकल आई ।
वह काटेज के बगल में बने हुए गैराज की ओर बढी, उसने गैराज की लकड़ी का द्वार खोलकर चांद की रोशनी में ही भीतर झांका ।
भीतर कार नहीं थी ।
इसका मतलब था मंजुला अभी महेश कुमार के काटेज से ही नहीं लौटी था । वह कार साय लेकर गई थी ।
झील के किनारे-किनारे पगडण्डी के रास्ते से महेश कुमार का काटेज केवल दो फर्लांग दूर था लेकिन उनके और महेश कुमार के काटेज में सम्पर्क स्थापित करने वाली सड़क चक्कर काट कर आती थी । इसलिए उस रास्ते से महेश कुमार का काटेज लगभग आधा मील दूर पड़ता था ।
पार्वती कुछ क्षण अनिश्चित सी चांद की रोशनी में अपने काटेज के सामने खड़ी रही ।
वातावरण में गहरा सन्नाटा छाया हुआ था । पेड़ों के झुरमुट में से महेश कुमार के काटेज का साया सा दिखाई दे रहा था । आसपास और भी दस-पन्द्रह काटेज थे जिनकी ढलुवां छत चांद की रोशनी में चमक रही थी ।
पार्वती की समझ में नहीं आ रहा था कि उसे महेश कुमार के काटेज पर जाना चाहिए था या नहीं ।
उसी क्षण किसी नारी कण्ठ से निकली हुई एक चीख उसके कानों में पड़ी ।
आवाज निश्चय ही महेश कुमार के काटेज की ओर से आई थी ।
केवल एक क्षण के लिए पार्वती रात के सन्नाटे में बुत सी बनी खड़ी रही । फिर उसके शरीर में नौजवानों जैसी फुर्ती आ गई और वह तेज कदमों से महेश कुमार के काटेज की ओर जाने वाली पगडण्डी की ओर चल दी ।
रास्ता भीगा पड़ा था । लगता था थोड़ी देर पहले किसी समय बारिश हुई थी । अभी भी बेहद ठण्डी हवा में नमी की मौजूदगी महसूस हो रही थी । पार्वती के जबड़े कस गए । उसने शाल और अच्छी तरह अपने शरीर के साथ लपेट ली और दृढता से गीली पगडंडी पर चलती रही ।
तीन चार साल पहले झील के आसपास की जमीन खेती-बाड़ी के लिए इस्तेमाल की जाती थी और वह इलाका राजनगर के जीवन और आधुनिकता से एकदम कटा हुआ था । तब झील के किनारे केवल तीन चार ही काटेज थे जिनमें से एक काटेज पार्वती का था और बाकी सब किसानों के झोंपड़े थे । लेकिन बाद में धीरे-धीरे ऐसे परिवर्तन हुए थे कि वहां खेती-बाड़ी का सिलसिला घट गया था । शहर के लोग उस स्थान में पिकनिक स्पाट के रूप में दिलचस्पी लेने थे और फिर कुछ अमीर लोगों ने अपने आराम के लिए काटेज बनवा लिए थे और अब तो सुना गया था कि वहां पर एक बहुत बड़ा होटल और बोटिंग क्लब बनने वाला था ।
पार्वती महेश कुमार के विशाल काटेज के सामने जा पहुंची ।
काटेज के दरवाजे बन्द थे और लगभग सभी खिड़कियों पर मोटी टेपस्ट्री के पर्दे पड़े हुए थे । केवल साइड की एक खिड़की में से प्रकाश की किरणें बाहर फूट रही थीं ।
पार्वती जल्दी से मुख्य द्वार के सामने पहुंची और उसने घंटी के बटन पर उंगली रख दी ।
भीतर कहीं घण्टी बजने की आवाज सुनाई दी ।
पार्वती धड़कते दिल से प्रतीक्षा करने लगी । उसके मानस पटल पर मंजुला की सूरत उभर रही थी, कानों में बार-बार वह चीख गूंज रही थी और दिल में बड़े भयानक विचार उभर रहे थे ।
घण्टी की आवाज की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई ।
उसने एक बार फिर घण्टी का बटन दबाया ।
इस बार कम से कम आधे मिनट तक घण्टी बजती रही ।
कोई उत्तर न मिला ।
पार्वती के दिल में आशंकाएं और प्रबल हो उठीं ।
वह द्वार से हट गई और उसने एक खोजपूर्ण दृष्टि अपने चारों ओर घुमाई ।
मंजुला की कार उसे कहीं दिखाई नहीं दी ।
सम्भव था कि मंजुला तब तक अपने काटेज पर पहुंच चुकी हो ।
लेकिन वह चीख...
उसने सावधानी से काटेज का चक्कर लगाना आरम्भ कर दिया ।
बगल की खिड़की के समाप पहुंचकर वह ठिठक गई ।
खिड़की के शीशे बुरी तरह टूटे हुए थे और बाहर राहदारी में कांच ही कांच फैला हुआ था । कांच के टुकड़े चांद कमरे के भीतर से फूटने वाले कृत्रिम प्रकाश में चमक रहे थे । उन शीशों के ऊपर से कार के टायरों के गुजरने के ताजा बने निशान दिखाई दे रहे थे । कोई कार बारिश बन्द होने के बाद किसी समय वहां से गुजरकर काटेज के बाहर की ओर गई थी ।
पार्वती सावधानी से खिड़की के समीप पहुंची ।
उसने देखा जमीन पर फैले कांच के टुकड़ों के बीच में ही खिड़की के टूटे शीशे के साथ-साथ कई टुकड़े मुंह देखने वाले शीशे के भी थे ।
पार्वती दहल गई । उसका मन किसी अनहोनी घटना के घटित होने की गवाही देने लगा ।
खिड़की बहुत ऊंची थी । उसमें से भीतर झांक पाना पार्वती को असम्भव लगा ।
वह वापिस मुख्य द्वार के सामने पहुंची और फिर घण्टी बजाने लगी । साथ ही उसने द्वार भी भड़भड़ाना आरंभ किया ।
लेकिन भीतर से कोई उत्तर न मिला ।
वह लपक कर काटेज के पिछवाड़े पहुंची और पिछला दरवाजा भड़भड़ाने लगी ।
पिछला दरवाजा भड़ाक से खुल गया । वह भीतर से बन्द नहीं था ।
पार्वती क्षण भर हिचकिचाई और फिर भीतर घुस गई ।
“मंजुला ! मंजुला !” - उसने आवाज लगाई - “महेश बाबू... मंजुला...”
सन्नाटे में उसकी आवाज की गूंज के अलावा और किसी प्रकार की ध्वनि उत्पन्न नहीं हुई ।
पार्वती आगे बढ़ी । किचन, पैन्ट्री और एक अन्य कमरे में से होती हुई वह उस कमरे में जा पहुंची जिसकी खिड़की की के टूटे हुए शीशे वह बाहर से देख चुकी थी ।
कमरे के बीच में पहियों वाली कुर्सी पर महेश कुमार निश्चेष्ट शरीर पड़ा था । उसकी सफेद कमीज पर एक बहुत बड़ा खून का धब्बा था जिसके बीच मे एक ऐसा सुराख दिखाई दे रहा था जो केवल रिवाल्वर की गोली द्वारा ही बन पाना संभव था । कुर्सी के आसपास का सारा फर्श भी कांच और शीशे के टुकड़ों से भरा पड़ा था । दीवार से एक बड़ी-सी तस्वीर फर्श पर गिर कर टूट गयी थी और उसके शीशे के टुकड़े भी फर्श पर पहले से फैल हुए टुकड़ों में वृद्धि कर रहे थे । कुर्सी के पास एक ओर खून के धब्बे दिखाई दे रहे थे ।
कांच के टुकड़ों के बीच में, मृत के पैरों के पास, एक टूटा हुआ कम्पैक्ट (पाउडर का एक ऐसा छोटा सा गोल डिब्बा जिस के ढक्कन में भीतर की ओर शीशा लगा होता है) पड़ा था ।
पार्वती उस कम्पैक्ट को खूब पहचानती थी । वह कम्पैक्ट मंजुला का था । उसके राजकुमार नामक एक वकील मित्र ने वह उसे उसके पिछले जन्म दिन पर भेंट स्वरूप दिया था ।
कितनी ही देर पार्वती हुत सी बनी लाश के सामने खड़ी रही ।
लेकिन पार्वती का शरीर ही बुत की तरह जड़ था उसकी आंखें फिरकनी की तरह सारे कमरे में घूम रही थीं ।
फिर उसने स्वयं को नियन्त्रित किया और काम में जुट गई ।
बड़ी शांति और मेहनत से उसने उस कमरे में से हर वह चीज गायब करनी शुरू की जो मंजुला का सम्बन्ध महेश कुमार की मृत्यु से जोड़ सकती थी ।
***
प्रताप चन्द ने झिंझोड़ कर अपनी बीवी को जगाया ।
“उ हू... क्या है !” - इन्द्रा बिना आंखें खोले तिक्त स्वर में बोली ।
“अभी तुमने सुना कुछ ?” - प्रताप चन्द ने पूछा ।
उत्तर देने के स्थान पर इन्द्रा ने करवट बदली और फिर सो गई ।
प्रताप चन्द ने उसे फिर झिंझोड़ा ।
इन्द्रा बेहद गहरी नींद सोती थी । एक बार से जाने के बाद उसके कानों के पास नगाड़े भी बजते रहें तो भी वह जागती नहीं थी ।
इन्द्रा मुंह ही मुंह में कुछ बुदबुदाई लेकिन उसमें नींद से जागने के कोई लक्षण प्रकट नहीं हुए ।
प्रताप चन्द ने उसे झिंझोड़ना बन्द नहीं किया ।
अन्त में उसने आंखें खोल दीं ।
“क्या है, बाबा ?” - वह खीज भरे स्वर में बोली ।
“अभी तुमने कुछ शोर नहीं सुना ?” - प्रताप चन्द ने पूछा ।
“कैसा शोर ?” - इन्द्रा आंखें मलती हुई बोली ।
“अभी मुझे गोली चलने की और झनाक से शीशे टूटने की आवाजें आई थीं । लगता है कहीं कोई गड़बड़ है ।”
इन्द्रा की स्त्री-सुलभ जिज्ञासा एकदम जाग उठी । वह एकदम पलंग पर उठकर बैठ गई और उत्सुकता पूर्ण स्वर में बोली - “कहां से आई थीं ये आवाजें ?”
“मेरे ख्याल से महेश कुमार के काटेज से ।” - प्रताप चन्द बोला - “वहीं अभी तक भी एक कमरे में बत्तियां जल रहीं हैं । मैंने अभी खिड़की से बाहर झांक कर देखा था । मुझे काटेज में प्रकाश दिखाई दिया था लेकिन और कुछ नहीं दिखाई दिया था ।”
“दूरबीन से देखें ?” - इन्द्रा बोली ।
“हमें क्या जरूरत है ?” - प्रताप चन्द बोला ।
“तुम कह रहे थे न कि तुमने गोली चलने की आवाज भी सुनी थी ? शायद कोई भारी गड़बड़ हो ।”
“अच्छा ।” - प्रताप चन्द बेमन से बोला - “कहां रखी है मेरी दूरबीन ?”
“मैं देखती हूं ।” - इन्द्रा बोली और उठकर अलमारी टटोलने लगो ।
“जब से महेश कुमार इस काटेज में आया है, कोई न कोई हंगामा होता ही रहता है ।” - प्रताप चन्द बोला - “उसकी टांग टूट जाने के बाद कुछ शान्ति हुई थी लेकिन अब लगता है कि फिर वही सिलसिला शुरू हो गया है ।”
इन्द्रा चुप रही । अलमारी के बाद अब वह मेज के दराजों में दूरबीन ढूंढ रही थी ।
“मैं तो, भगवान कसम, उस घड़ी को कोसता हूं जब महेश कुमार ने इस इलाके में कदम रखा था । इसी के चक्कर में फंस कर मैंने झील के किनारे की दो सौ एकड़ जमान इसे बेच दी थी ।”
“तो इसमें शिकायत या एतराज की कौन सी बात है ?” - इन्द्रा बोली - “आपने जमीन की जितनी कीमत मांगी उसने अदा कर दी । अब यह तो आपकी गलती है कि आपने ज्यादा कीमत नहीं मांगी ।”
“लेकिन उस समय मुझे यह थोड़ी ही मालूम था कि वह झील के किनारे होटल बनाने के लिए जमीन खरीद रहा था । मैं तो समझा था कि वह खेती वगैरह करवाने के लिए जमीन खरीद रहा था । उस समय तो मैं खुश था कि मैंने महेश कुमार को जमीन चौगुनी कीमत में बेचकर उसे बेवकूफ बना लिया था ।”
“जबकि वास्तव में उसने आपको बेवकूफ बनाया था ।” - इन्द्रा व्यंग्यपूर्ण स्वर से बोली - “सारा इलाका आप पर हंसता है ।”
“हंसने वाली बात ही है ।” - प्रताप चन्द बोला - “अगर मुझे यह भनक मिल जाती कि महेश कुमार मेरी जमीन होटल बनवाने के लिए खरीद रहा था तो मैं उससे जमीन की कम से कम बीस गुना अधिक कीमत वसूल करता ।”
“खैर छोड़िये ।” - इन्द्रा बोली - “अब तो वे लोग हमारे पड़ोसी हैं !”
इससे पहले कि प्रताप चन्द कोई उत्तर दे पाता, नारी कण्ठ की एक तेज चीख रात की निस्तब्धता को चीरती हुई उसके कानों में पड़ी ।
इन्द्रा क्षण भर के लिए सकते में आ गई और फिर अगले ही क्षण बड़ी तेजी से मेज के दराज टटोलने लगी !
प्रताप चन्द लपक कर खिड़की के पास जा खड़ा हुआ ।
अन्त में दूरबीन इन्द्रा को मिल गई ।
वह भी खिड़की की ओर झपटी ।
वह दूरबीन आंखों पर लगाकर बाहर झांकने लगी ।
“मुझे दो ।” - प्रताप चन्द उतावले स्वर में दूरबीन की ओर हाथ बढाता हुआ बोला ।
“ठहरिये, थोड़ी देर ।” - इन्द्रा उसका हाथ झटकती हुई बोली वह दूरबीन में बदस्तूर देखती रही -“पार्वती के काटेज में भी रोशनी दिखाई दे रही है ।”
“शायद उन लोगों ने भी चीख सुनी हो ।” - प्रताप चन्द बोला ।
“हो सकता है ।”
“जरा दूरबीन मुझे दो न ।”
“थोड़ी देर ठहरो, बाबा ।” - इन्द्रा बोली - “मुझे महेश कुमार का काटेज ढूंढने दो ।”
“तुम्हारे ख्याल से क्या हुआ होगा ?” - प्रताप चन्द ने पूछा ।
“होना क्या है ? वही पुराना किस्सा दोहराया जा रहा होगा । महेश कुमार की कोई नई प्रेमिका काटेज में आई होगी और महेश कुमार की किसी बात पर या उसकी जोर जबरदस्ती पर भड़क उठी होगी ।”
“कुछ दिखाई दे रहा है ?”
“अभी नहीं । थोड़ी देर ठहरिये ।”
प्रताप चन्द चुप हो गया ।
इन्द्रा कितनी ही देर यूं ही दूरबीन से आंख सटाये खड़ी रही और फिर एकाएक बोल पड़ी - “हे भगवान, महेश कुमार के काटेज में उसके कमरे की खिड़की टूटी पड़ी है और.. और भीतर कोई घूम रहा है ।”
इन्द्रा एकदम उत्तेजित हो उठी थी । उसने दूरबीन से दृष्टि हटाये बिना प्रताप चन्द से पूछा - “अभी आप क्या कह रहे थे ? कैसा शोर सुना था आपने ?”
प्रताप चन्द ने जमहाई ली और नींद भरे स्वर में बोला - “मुझे लगा था जैसे गोली चली हो और कहीं शीशे टूट रहे हों । उन्हीं आवाजों के कारण मेरी नींद खुल गई थी लेकिन सम्भव है मुझे वहम ही हुआ हो । सम्भव है कोई कार ठीक से स्टार्ट न हो रही हो और बैक फायर कर रही हो और मैं उसे गोली और शीशे टूटने की आवाज समझ बैठा होऊं ।”
उसी क्षण इन्द्रा एकदम बोल उठी - “हे भगवान ! यह तो मंजुला की मां है । महेश कुमार के कमरे में तो मंजुला की मां घूम रही है ।”
प्रताप चन्द ने इन्द्रा के हाथ से दूरबीन झपट ली और उसे अपनी आंखों पर लगाकर बाहर देखने लगा । इन्द्रा ने विरोध करने का उपक्रम किया लेकिन फिर विचार त्याग दिया और उत्कंठापूर्ण भाव से पति की बगल में खड़ी होकर नंगी आंखों से ही बाहर झांकती हुई सोचने लगी कि इतनी रात गए पार्वती महेश कुमार के काटेज में क्या कर रही थी ।
“पार्वती ही है ।” - प्रताप चन्द अपने बैडरूम की खिड़की से तीन सौ फुट दूर महेश कुमार के काटेज पर दूरबीन फोकस करता हुआ बोला - “वह बड़ी तत्परता से सारे कमरे में घूम रही है ।”
“महेश कुमार भी है ?” - इन्द्रा ने व्यग्र स्वर में पूछा ।
“नहीं ।” - प्रताप चन्द बोला - “महेश कुमार तो दिखाई नहीं दे रहा । मेरे ख्याल से तो वह कमरे में अकेली ही है । लेकिन वह कर क्या रही है... जमीन से कुछ उठा रही है । तुम्हारे ख्याल से खिड़की कैसे टूटी होगी ?”
“मुझे तो कोई भारी गड़बड़ मालूम होती है ।” - इन्द्रा ने राय दी ।
“क्या गड़बड़ ?”
“शायद महेश कुमार की अपनी किसी प्रेमिका से मार कुटाई हो गई है ।”
“लेकिन लड़की तो कोई है नहीं वहां । वहां तो केवल पार्वती दिखाई दे रही है ।”
“तो फिर चीख इसी की होगी ।”
“लेकिन वह इतनी रात गए वहां क्या कर रही है ?”
“भगवान जाने ।” - इन्द्रा ने कन्धे उचकाए । फिर एकाएक वह बोली - “हो सकता है मंजुला भी वहीं हो और मंजुला के साथ ही महेश कुमार कुछ गड़बड़...”
“शटअप । मंजुला ऐसी लड़की नहीं है ।”
“तो फिर आखिर उसकी मां क्या कर रही है वहां ?”
प्रताप चन्द चुप रहा । एकाएक उसने दूरबीन अपने नेत्रों से हटा दी और बोला - “मैं वहां जा रहा हूं ।”
“कहां ?” - इन्द्रा आश्चर्यपूर्ण स्वर में बोली ।
“महेश कुमार के काटेज में ।”
“क्यों ? तुम्हें क्या जरूरत पड़ी है ?”
“शायद वहां कोई चोर घुस आया हो और उसी ने यह सब हंगामा मचाया हो । सम्भव है महेश कुमार को भी शारीरिक रूप से कोई नुक्सान पहुंचाया हो उसने । सम्भव है, पार्वती केवल सहायता करने की भावना से ही वहां पहुंचे गई जैसे मैं अभी जाने की सोच रहा हूं । टाइम क्या हुआ है ?”
इन्द्रा ने द्वार के पास पहुंच कर दूसरे कमरे में रखी घड़ी की ओर झांका ।
“ढाई बजे हैं ।” - वह बोली ।
“मैं बाहर जा रहा हूं ।” - प्रताप चन्द वार्डरोब में से ओवरकोट निकाल कर पहनता हुआ बोला - “और भगवान के लिए पार्वती के बारे में अभी जबान बन्द ही रखना । तुम बोलती बहुत हो ।”
“क्या मतलब ?” - इन्द्रा नाराज स्वर में बोली ।
“मतलब यह कि किसी को यह मत कहना कि रात के ढाई बजे तुमने पार्वती को महेश कुमार के फ्लैट में देखा था ।”
“क्यों न कहूं ?”
“खामखाह उनकी बदनामी होगी । लोग मंजुला और महेश कुमार के बारे में उल्टी-सीधी अटकलें लगाने लगेंगे ।”
“लेकिन अगर कोई वाकई गम्भीर बात हुई तो ?”
“मंजुला और उसकी मां जैसे लोग कभी कोई गम्भीर बात कर सकते हैं ?”
“आप कहते थे कि आपने गोली चलने की आवाज सुनी थी ।” - इन्द्रा संदिग्ध स्वर में बोली ।
“मुझे वहम हुआ होगा । मैं सोते से उठा था । मैं किसी कार की बैक फायरिंग की आवाज गोली की आवाज समझ बैठा होऊंगा । इन्द्रा, अगर सच ही कोई भारी गडबड़ हुई होती तो पार्वती इतनी लापरवाही से वहां न घूम रही होती । लगता है कोई मामूली सी बात है ।”
“मामूली सी बात नहीं है ।” - इन्द्रा विरोधपूर्ण स्वर में बोली ।
“अगर मामूली बात नही भी है तो भी हमें इस बारे में जिक्र नहीं करना चाहिए । वे बड़े लोग हैं, हमें उन्हें सहयोग देना चाहिए । पड़ोसी के नाते हमें इतनी शराफत तो दिखानी ही चाहिए ।”
इन्द्रा चुप हो गई । प्रत्यक्ष था वह अपने पति के विचारों से सहमत नहीं थी ।
प्रताप चन्द चुपचाप बाहर निकला ।
इन्द्रा ने दूरबीन आंखों से लगा ली और फिर महेश कुमार के काटेज की ओर झांकने लगी ।
पार्वती वहां से जा चुकी थी ।
इन्द्रा निराश हो गई । वह खिड़की से हट गई । उसने दूरबीन मेज पर रख दी और फिर बिस्तर में घुस गई उसकी दिलचस्पी समाप्त हो चुकी थी ।
***
धड़कते दिल से पार्वती वापिस अपने काटेज के सामने पहुंची ।
गैरेज अभी भी खाली था ।
मंजुला कहां गायब हो गई थी ?
यह सवाल हथौड़े की तरह उसके दिमाग में बज रहा था ।
कहीं मंजुला डर कर भाग तो नहीं खड़ी हुई थी । अगर उसने ऐसा किया था तो उसने भारी मूर्खता भरी हरकत की थी । भागना तो एक प्रकार से अपना अपराध स्वीकार करने जैसा होता है ।
पुलिस को यह जानते देर नहीं लगने वाली थी कि पिछली रात महेश कुमार ने मंजुला को डिनर के लिए आमन्त्रित किया था । पुलिस मंजुला से पूछताछ जरूर करेगी और जब उन्हें यह मालूम होगा कि मंजुला गायब थी तो सबसे पहले वह उसे ही हत्यारी समझेगी और फिर पकड़े जाने पर मंजुला को अपने उस एक्शन की कोई भी सफाई देना कठिन हो जाएगा । पार्वती का दिमाग तेजी से काम करने लगा । उसे पुलिस से पहले मंजुला को तलाश करना ही था । मंजुला कहां हो सकती है ?
वह वापिस काटेज में घुस गई । मंजुला के जानकारी के दायरे में हर किसी को फोन करके पूछना चाहिए कि मंजुला उनके यहां तो नहीं आई ।
उसने बैडरूम का द्वार खोला ।
एकाएक उसकी आंखो की पुतलियां फैल गई ।
मंजुला अपने पलंग पर मौजुद थी ।
“तुम !” - अनायास ही पार्वती के मुंह से निकल गया ।
“हां, हां, मैं ।” - मंजुला आश्चर्य पूर्ण स्वर से बोली - “इसमें हैरानी की कौन सी बात है, मम्मी ।”
“तुम कब आई ?” - पार्वती ने स्वयं को नियन्त्रित करते हुए पूछा ।
“ध्यान नहीं, काफी देर हो गई है । क्यों ?”
“कार तो गैरेज में नहीं है ?”
“रास्ते में पंचर हो गया था । मैं कार को सड़क पर छोड़कर पैदल आ गई हूं । और मम्मी...” - मंजुला संदिग्ध स्वर में बोली - “तुम कहां गई थी ?”
पार्वती ने उत्तर नहीं दिया । उसने देखा मंजुला ने कपड़े बदल लिए थे और जो साड़ी और ब्लाउज वह पहन कर गई थी वे एक कुर्सी की पीठ पर पड़े थे ।
पार्वती ने देखा ब्लाउज फटा हुआ था ।
उसने दोनों कपड़े उठा लिए और उनका निरीक्षण करने लगी । साड़ी भी दो एक स्थान से फटी हुई थी ।
पार्वती मंजुला के पलंग पर उसके सामने बैठ गई और बोली - “क्या हुआ था ?”
मंजुला नजरें चुराने लगी ।
“क्या हुआ था ?” - पार्वती ने कठोर स्वर में पूछा ।
मंजुला एक क्षण चुप रही और फिर एकाएक अपने स्वर में अधिकार का पुट देती हुई बोली - “मम्मी, मैं बच्ची नहीं हूं । मैं अपना भला-बुरा सोच सकती हूं । ऐसी बातें पूछकर तुम मेरी स्वतंत्रता पर आघात कर रही हो...”
“भाड़ में गई ऐसी स्वतंत्रता ।” - पार्वती एकदम भड़क कर बोली - “मैं जो पूछ रही हूं, उसका जवाब दो । महेश कुमार के काटेज में क्या हुआ था ?”
मंजुला के शरीर में सिहरन सी दौड़ गई । लापरवाही का अभिनय कर पाना उसके लिए असम्भव हो उठा । वह एकदम फफककर रो पड़ी ।
पार्वती उसके चुप होने की प्रतीक्षा करने लगी ।
“वह... वह मुझसे जबरदस्ती करने लगा था ।” - मंजुला सिसकियां लेती हुई बोली ।
“वह क्या करने लगा था, तुम उसे छोड़ो ।” - पार्वती बोली - “तुमने क्या किया था ?”
“मैं अपने आपको किसी प्रकार उसके बन्धन में से छुड़ाने में सफल हो गई थी । उसकी एक टांग पर प्लास्टर चढा हुआ था लेकिन फिर भी वह शैतान जैसी फुर्ती दिखा रहा था । मैंने पूरा जोर लगाकर उसे वापिस उसकी पहियों वाली कुर्सी पर धकेल दिया था और वहां से भाग खड़ी हुई थी । रास्ते में गाड़ी में पंचर हो गया । मैं गाड़ी रास्ते में ही छोड़कर वापिस पैदल आ गई ।”
पार्वती ने अपने वस्त्रों में से टूटा हुआ कम्पैक्ट निकाला और उसे मंजुला के सामने रखती हुई बोली - “यह तुम वहां छोड़ आई थीं ।”
मंजुला ने झपट कर कम्पैक्ट उठा लिया ।
“यह तुम्हें कहां मिला, मम्मी ?” - उसने पूछा ।
“महेश कुमार के काटेज में उसके कमरे में ।” - पावर्ती शान्तिपूर्ण स्वर में बोली ।
मंजुला के चेहरे का रंग उड़ गया । उसकी आंखों की पुतलियां फैल गई ।
“तो... तो...” - वह हकलाती हुई बोली - “मम्मी, तुम वहां गई थीं ?”
पार्वती ने स्वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“महेश ने तुम्हें देखा था ?”
“उसने मुझे नहीं देखा, मैंने उसे देखा था ।”
“क्या मतलब ?”
“वह अपनी पहियों वाली कुर्सी पर मरा पड़ा था । किसी ने उसे गोली मार दी थी । कमरे की खिड़की टूटी पड़ी थी । और कांच के टुकड़ों में तुम्हारा कम्पैक्ट पड़ा था ।”
“हे भगवान !”
पार्वती अपनी बेटी के बदलते चेहरे की बदलती रंगत को देखती रही ।
“और तुम्हारी जानकारी के लिए मैंने वहां से ऐसे सारे सूत्र हटा दिए हैं जिनसे यह प्रकट होता कि तुम वहां गई थीं ।अब तुम बड़ी आसानी से झूठ बोल सकती हो कि तुम वहां गई ही नहीं थीं । तुम कह सकती हो कि महेश कुमार ने तुम्हें डिनर के लिए बुलाया था लेकिन आखिरी क्षण पर तुमने वहां जाने का इरादा छोड़ दिया था या फिर तुम वहां गई तो थीं लेकिन जल्दी ही लौट आई थीं ।”
मंजुला के मुंह से शांति की एक दीर्घ निश्वास निकल गई ।
“मम्मी !” - वह गहरी सांस लेती हुई बोली - “अब भगवान के लिए बत्ती बुझाओ और सो जाओ ।”
“एक आखिरी बात और बताओ ।” - पार्वती बोली ।
“पूछो ।”
“तुमने उसे मारा है ?”
“नहीं ।” - मंजुला बोली ।
पार्वती ने और प्रश्न नहीं पूछा । वह चुपचाप उठी और अपने बिस्तर पर पहुंच गई । उसने बत्ती बुझाई और फिर लेट गई ।
उसे मंजुला सच बोलती नहीं लगी थी ।
लगभग दो मिनट बाद उसके कान में मंजुला की आवाज पड़ी ।
“मम्मी !”
“हां ।” उसने उत्तर दिया ।
“अभी जाग रही हो ?”
“हां ।”
“तुम्हें किसी ने महेश कुमार के काटेज में जाते या लौट कर आते देखा तो नहीं ?”
“नहीं ।”
मंजुला चुप हो गई ।
***
वातावरण में धुंध छाई हुई थी और भोर का हल्का सा प्रकाश फैला हुआ था ।
अपने काटेज की निरन्तर बजती हुई कालबेल की आवाज सुनकर पार्वती की नींद खुल गई ।
वह बिस्तर पर उठकर बैठ गई ।
उसने अपनी दृष्टि मंजुला के बिस्तर की दिशा में दौड़ाई ।
मंजुला पहले ही जाग चुकी थी । उसके चेहरे पर भय के चिन्ह विद्यमान थे ।
“इतनी सवेरे कौन आया होगा ?” - पार्वती बड़बड़ाई ।
“पुलिस ।” - मंजुला उत्कण्ठापूर्ण स्वर में बोली ।
“पुलिस !”
शब्द बम के गोले की तरह पार्वती की चेतना से टकराया । वह हड़बड़ाकर बिस्तर से निकल पड़ी और बिस्तर के पास कुर्सी की पीठ पर रखी शाल उठाकर अपने शरीर पर लपेटने लगी ।
घण्टी फिर बजने लगी ।
“मंजुला !” - वह तेज स्वर में बोली - “याद रखना तुम्हें पुलिस को क्या कहना है । तुम्हें महेश कुमार ने डिनर पर बुलाया था । डिनर के बाद सारे नौकर चले गए थे । फिर महेश कुमार ने तुम्हारे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की थी और तुम उससे झगड़ कर वहां से वापिस चल पड़ी थीं । रास्ते में तुम्हारी कार में पंचर हो गया था इसलिए कार को वहीं छोड़ कर बाकी रास्ता तुमने पैदल ही तय किया था । तुमने घर आकर घड़ी तो नहीं देखी लेकिन बारह बजने से बहुत पहले तुम वापिस घर पहुंच चुकी थीं । समझी ?”
मंजुला ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
पार्वती जल्दी से कमरे से बाहर निकली और लकड़ी की सीढियां उतरने लगी ।
“कौन !” - उसने सीढियां उतरते हुए आवाज देकर पूछा ।
उत्तर में घण्टी फिर बज उठी ।
पार्वती ने जल्दी से आगे बढकर द्वार खोल दिया ।
चौखट पर प्रताप चन्द खड़ा था ।
“आप !” - पार्वती के मुंह से निकला ।
“पार्वती देवीजी, नमस्ते ।” - प्रताप चन्द शिष्ट स्वर में बोला - “आप से बहुत जरूरी बात करनी है ।”
“इस समय ?”
“जी हां । अगर बात बहुत महत्वपूर्ण न होती तो मैं हरगिज भी आपको इस समय परेशान करने न आता ।”
“अच्छा !” - पार्वती अनिच्छापूर्ण स्वर में बोली - “आइए । भीतर आइए ।”
प्रताप चन्द काटेज के भीतर घुस गया ।
पार्वती उसे ड्राइंग रूम में ले आई ।
“फरमाइये ।” - वह उसके सामने के एक सोफे पर बैठती हुई बोली ।
“पार्वती जी !” - प्रताप चन्द उलझनपूर्ण स्वर से बोला - “समझ में नहीं आ रहा कैसे बात शुरू करूं ?”
“देखिए ।” - पार्वती बोर होती हुई बोली - “अगर आप वाकई कोई महत्वपूर्ण बात करने वाले हैं तो उसी बात से शुरू कीजिये ।”
प्रताप चन्द कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला - “आपने मेरा काटेज देखा है न ?”
“देखा है ।”
“और महेश कुमार का ?”
“वह भी देखा है ।”
“महेश कुमार के काटेज के उसके कमरे की खिड़की एकदम हमारे बैडरूम की खिड़की के सामने पड़ती है । महेश कुमार कभी उस खिड़की पर पर्दा डाल कर नहीं रखता इसलिए हम उस खिड़की के रास्ते एकदम उसके कमरे में झांक सकते हैं ।”
“क्या कह रहे हैं आप ?” - पार्वती अविश्वासपूर्ण स्वर में बोली - “दोनों काटेजों में कम से कम सौ गज का फासला है ।”
“जी हां ।” - प्रताप चन्द स्वीकार करता हुआ बोला - “लेकिन मेरे पास एक शक्तिशाली दूरबीन है ।”
“दूरबीन !” - पार्वती हड़बड़ाकर बोली । उसका दिल किसी भावी आशंका से कांप उठा ।
“जी हां ।”- प्रताप चन्द बोला - “मैंने महेश कुमार की बड़ी गन्दी गन्दी हरकतें देखी हैं ।”
“लेकिन यूं दूरबीन लेकर किसी के निजी जीवन पर निगरानी करते रहना तो कोई शराफत नहीं है ।”
“मैं मानता हूं जी । लेकिन मेरा इरादा बुरा नहीं था । दूरबीन द्वारा कभी-कभार महेश कुमार के काटेज में झांक लेने का मेरा मतलब यही होता था कि अगर महेश कुमार हमारे ही इलाके की किसी लड़की के साथ कोई ज्यादती कर रहा हो तो मैं पुलिस को रिपोर्ट कर सकूं ।”
“आपने कभी अपने इलाके की कोई लड़की वहां देखी है ?” - पार्वती ने अपने स्वर में लापरवाही का पुट देते हुए पूछा ।
“कल मैंने मंजुला को देखा था ।” - प्रताप चन्द बोला ।
पार्वती इस उत्तर के लिए तैयार नहीं थी । वह एकदम घबरा गई ।
“तो फिर क्या हो गया ?” - प्रत्यक्ष में वह कठोर स्वर में बोली - “मंजुला कोई ऐसी वैसी लड़की नहीं है ।”
“जी हां, जी हां । मैं जानता हूं । मंजुला पढी लिखी और चरित्रवान लड़की है ।”
“फिर भी आप ऐसे सन्दर्भ से मंजुला का जिक्र कर रहे हैं ।”
“जी हां । केवल इसलिए क्योंकि पिछली रात महेश कुमार की उसके काटेज में हत्या हो गई थी ।”
पहले क्षण में इस सूचना की पार्वती पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई लेकिन फिर एकाएक उसे ख्याल आया कि प्रताप चन्द की नजर में पार्वती के लिए यह कदम ताजी और सनसनीखेज खबर थी । अगले ही क्षण वह एकदम चौंकने का अभिनय करती हुई बोली - “अच्छा ! यह तो बड़ी दुख की बात है ।”
प्रताप चन्द चुप रहा ।
“पिछली रात मंजुला महेश कुमार के काटेज में गई थी ।” - पार्वती बोली - “महेश कुमार ने उसे डिनर पर इनवाइट किया था । डिनर के फौरन बाद ही वह वापस आ गई थी ।”
“मुझे सफाई देने की जरूरत नहीं है, पार्वती जी ।” - प्रताप चन्द उसकी बात काटता हुआ बोला - “मैं आपकी स्थिति समझता हूं । ऐसी स्थिति में आपकी जगह अगर मैं होता तो मैं भी यही कहता... मेरी बेटी आधी रात से पहले ही आ गई थी । और फिर इसमें मंजुला का कोई दोष भी तो नहीं हैं । महेश कुमार आदमी ही ऐसा था । अगर यह काम मंजुला ने न किया होता तो मंजुला जैसी कोई भी शरीफ लड़की कर देती ।”
“आप क्या कह रहे हैं ?” - पार्वती रुक्ष स्वर में बोली - “आप किस काम का जिक्र कर रहे हैं ?”
“आप यह अप्रिय बात मेरे मुंह से ही कहलवाना चाहती हैं ?”
“कौन सी अप्रिय बात ?”
प्रताप चन्द कुछ क्षण चुप रहा और फिर फट पड़ा - “मंजुला को हमने महेश कुमार के काटेज में देखा था । उसके बाद हम लोग सो गए थे । फिर गोली चलने, शीशे टूटने और एक चीख की आवाज से मेरी नींद खुल गई थी । वह चीख शायद मंजुला की थी और गोली भी शायद उसी ने चलाई थी । वे आवाजें आप ने भी सुनीं । आप भी अपनी बेटी की सहायता के लिए महेश कुमार के काटेज पर जा पहुंचीं । वहां आपने वे सारे सूत्र हटा दिये जो मंजुला का सम्बन्ध हत्या के साथ जोड़ सकते थे ।”
“लेकिन वहां मैं नहीं मंजुला गई थी और जो कुछ आप कह रहे हैं, ऐसी कोई बात नहीं हुई है । मंजुला बहुत पहले घर लौट आई थी ।”
“इस ढंग से आप पुलिस को बयान दीजिएगा, पार्वती जी । मुझे यह सब बताने की जरूरत नहीं है । मैं स्थिति समझता हूं । मैंने आपको महेश कुमार के काटेज में देखा था ।” - प्रताप चन्द सहानुभूतिपूर्ण स्वर से बोला ।
पार्वती ने विरोध करने के लिए मुंह खोला लेकिन फिर उस ने अपना प्रश्न बदल दिया - “पुलिस को महेश कुमार की हत्या का पता लग गया है ?”
“हां । मैंने ही पुलिस चौकी पर जाकर सूचना दी थी ।”
“आपने ?”
“जी हां । ढाई बजे के करीब मैं स्थिति का पता लगाने के लिए महेश कुमार के काटेज में गया था । तभी मैंने वहां महेश कुमार की लाश देखी थी । एक कर्तव्यपरायण नागरिक की तरह मैंने हत्या की सूचना पुलिस को दे दी थी ।”
“और आपने ।” - पार्वती ने डरते हुए पूछा - “पुलिस को यह भी बता दिया था कि मैं और मंजुला वहां गई थीं ?”
“नहीं ।” - प्रताप चन्द दृढ स्वर में बोला - “मैंने इस विषय में पुलिस को कुछ नहीं बताया है । मंजुला वहां गई थी, यह बात तो पुलिस से छुपी नहीं रह सकती । क्योंकि मंजुला का वहां जाना बहुत लोगों की जानकारी में था जैसे काटेज के नौकर लेकिन पार्वती जी आपके वहां जाने के विषय में केवल हम जानते हैं क्योंकि हमने आपको वहां देखा था ।”
“हम से आपका क्या मतलब है ?”
“मैं और इन्द्रा । मेरी पत्नी । और सच पूछिये तो, पार्वती जी, इतनी सुबह मैं आपको यही बताने आया था कि आप हमारा पूरा भरोसा कर सकती हैं । पुलिस को आपके विषय में नहीं बताया है । अगर आप भी अपनी जबान न खोलें तो पुलिस तो क्या किसी को भी हरगिज यह पता नहीं चल सकता कि आप वहां गई थीं । मेरी बीवी बहुत बोलती है । उसे अपनी जबान पर काबू नहीं है लेकिन इस बार मैंने उसे बड़ी सख्ती से कह दिया है कि वह इस बात को जबान पर न लाए । आप लोग भले लोग हैं, हमारे बड़े पुराने पड़ोसी हैं, हमें आपकी सहायता करनी चाहिए ।”
“लेकिन प्रताप चन्द जी, मंजुला के बारे में आपको भारी गलतफहमी हो रही है । वह बारह बजे से पहले घर आ गई थी जबकि आपके अपने कथनानुसार हत्या दो ढाई बजे के करीब हुई थी ।”
“मुझे विश्वास दिलाने की कोई जरूरत नहीं है, जी । मैं तो आप जो कहेंगी मान लूंगा ।”
“लेकिन फिर भी आप मन ही मन यही सोचते रहेंगे कि मंजुला ने महेश कुमार की हत्या की है ।”
“आप भी तो मन ही मन यही सोचती हैं ।”
प्रताप चन्द ने यह वाक्य इतने अप्रत्याशित और सरल भाव से कहा कि पार्वती का प्रतिवाद करने का या उससे आंख मिलाने का हौसला नहीं हुआ ।
प्रताप चन्द उठ खड़ा हुआ ।
“पुलिस आज किसी समय आपके काटेज में तफ्तीश के लिए जरूर आएगी क्योंकि उन्हें यह मालूम होने में देर नहीं लगेगी कि पिछली रात मंजुला महेश कुमार के काटेज में मेहमान थी । आप पुलिस को यही बताइएगा कि मंजुला बारह बजे से पहले वापिस आ गई थी और आप अपने काटेज पर जाने का जिक्र ही मत कीजिएगा । पुलिस आप लोगों के बयान को कभी झुठला नहीं सकेगी । और पुलिस से यह मत छुपाइएगा कि मैं आपके यहां आया था और मैंने ही आपको बताया था कि महेश कुमार की हत्या हो गई है ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मेरे ख्याल से पुलिस के सामने जितना कम झूठ बोला जाए उतना ही अच्छा है । पुलिस वाले कोई बेवकूफ तो होते नहीं । सम्भव है आपके किसी एक्शन से वे भांप जायें कि आपको हत्या की जानकारी पहले से ही है और आप केवल चौंकने और हैरानी जाहिर करने का अभिनय कर रही हैं । फिर उन्हें यह बता देने में कि महेश कुमार की हत्या की सूचना मैंने आपको दी है कोई हर्ज भी तो नहीं है । यह कोई छोटी-मोटी बात तो है नहीं । इस छोटे से इलाके में ऐसे बात का एक आदमी का जिक्र करना स्वाभाविक ही है । मैं सुबह सैर करता हुआ इधर से गुजर रहा था । मुझे आप दिखाई दीं और मैंने आपको बता दिया कि महेश कुमार की हत्या हो गई है ।”
पार्वती चुप रही ।
“अगर आपको किसी भी समय मेरी सहायता की जरूरत हो तो मुझे बताने से हिचकियेगा नहीं ।”
पार्वती ने स्वीकृति सूचक ढंक से सिर हिला दिया ।
प्रताप चन्द द्वार के पास पहुंचकर क्षण भर के लिए रुका और फिर बोला - “आपकी बेटी से नादानी हो गई है । उसने एक वक्ती जोश में आकर महेश कुमार की हत्या कर दी है हालांकि उस गन्दे आदमी को मरना ही चाहिए था । वह बेचारी बहुत परेशान हो रही होगी । आप उससे इस विषय में सवाल पूछ-पूछ कर कुरेदने की कोशिश मत कीजिएगा । उसे सहायता की जरूरत है, सहानुभूति की जरूरत है । हम लोगों को उसकी सहायता करनी ही चाहिए ।”
और फिर प्रताप चन्द काटेज से बाहर निकल आया ।
पार्वती चिन्तापूर्ण भाव से सिर हिलाती हुई वापिस बैडरूम में आ गई ।
“कौन था ?” - मंजुला ने उत्सुकतापूर्ण स्वर से पूछा ।
“प्रताप चन्द ।”
“क्या कहता था ?”
“कुछ नहीं । कहता था महेश कुमार की हत्या हो गई है ।”
“उसे कैसे मालूम हुआ ?”
“उसे गोली चलने और शीशे टूटने की आवाजें सुनाई दी थीं । और फिर बाद में वह महेश कुमार के काटेज में गया भी था ।”
“कब ?”
“कोई दो ढाई बजे के करीब ।”
“मम्मी क्या... क्या उसने किसी को देखा भी था ?”
“पागल हो गई हो ।” - पार्वती धीरे से हंसती हुई बोली - “महेश कुमार के काटेज से उसका काटेज सौ गज दूर है । इतने फासले से वह क्या देख सकता था ?”
मंजुला के चेहरे पर शांति के भाव छा गए ।
“ठीक ही तो है, मम्मी ।” - वह बोली - “इतने फासले से तो अगर वह किसी को देख भी ले तो वह उसे पहचान थोड़ी ही सकता है ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।” - पार्वती बोली ।
मंजुला चुप हो गई ।
***
प्रेस के प्रतिनिधियों में से घटनास्थल पर सबसे पहले पहुंचने वाला आदमी था ब्लास्ट का विशेष प्रतिनिधि सुनील कुमार चक्रवर्ती ।
लेकिन उसे घटनास्थल पर और लोगों से पहले पहुंचने का कोई विशेष लाभ नहीं हुआ । स्थानीय पुलिस चौकी का थानेदार बड़ा ही रूखा आदमी निकला । वह सुनील को अपनी मनमानी करने का अवसर देने के कतई मूड में नहीं था । महेश कुमार के काटेज में पहुंचना तो दूर उसने सुनील को काटेज के रास्ते की सड़क के किनारे खड़ी मंजुला की पंचर कार से भी आगे नहीं बढने दिया ।
“माई बाप ।” - सुनील विनीत भाव से बोला - “मैं प्रेस रिपोर्टर हूं ।”
“जरूर होंगे, साहब ।” - थानेदार लापरवाही से बोला ।
“तो फिर मुझे काटेज तक जाने दो न । मैं अखबार के लिए घटनास्थल के कुछ चित्र लेना चाहता हूं ।”
“फिलहाल आप काटेज में नहीं जा सकते ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि” - थानेदार बोला - “यह एक छोटा सा बेहद सरलचित्त और शान्तिप्रिय लोगों का इलाका है । पिछले चौदह साल से मैं इस चौकी का इन्चार्ज हूं और इतने लम्बे अरसे में यहां यह पहली कत्ल की वारदात हुई । इस इलाके में तो साहब, मामूली सी चोरी-चकारी की घटना भी नहीं होती । मजदूर पेशा लोगों में या किसानों में कभी कोई झड़प हो जाती है तो वे लोग उस का खुद ही निपटारा कर लेते हैं, चौकी तक आने की भी तकलीफ नहीं करते वे । साल में कभी एक आध ऐसा केस हमारे पास आ जाता है तो वह भी चौकी में ही निपट जाता है । ऐसे इलाके के लिए, एक शहर के रईस आदमी की हत्या कितनी बड़ी बात हो सकती है, इसका अन्दाजा आप खुद ही लगा सकते हैं । कोई मामूली आदमी मरा होता तो कोई बात भी थी । इतने बड़े आदमी की हत्या की तफ्तीश करना हमारे बस की बात नहीं है । मैंने तो शहर में पुलिस हैडक्वार्टर में सूचना भिजवा दी है । मुझे बताया गया है कि केस को सम्भालने के लिए शहर का कोई इन्स्पेक्टर आ रहा है । उसके आने तक मैं नहीं चाहता कि कोई घटनास्थल के पास भी फटके । इन्स्पेक्टर के आ जाने के बाद चाहे आप लाश की तस्वीर खींचें, चाहे लाश उठाकर घर ले जाएं, मेरी बला से ।”
और थानेदार ने यूं अपने जबड़े कस लिए जैसे इस विषय में और कुछ कहना बाकी न रहा हो ।
“लेकिन, थानेदार साहब ।” - सुनील बोला - “कत्ल तो, मैंने सुना है, रात को दो ढाई बजे के करीब हुआ था । तब से लेकर अब तक आपने भी तो थोड़ी बहुत तहकीकात की होगी ।”
“जी हां, की है ।” - थानेदार बेमन से बोला ।
“तो आप ही इस विषय में कुछ बताइए ।”
“क्या बताऊं ?”
“थोड़ा केस का आइडिया दीजिए । आखिर आप भी पुलिस अफसर हैं, दो आंखें रखते हैं, खोपड़ी में दिमाग रखते हैं । शहर से आने वाला इन्स्पेक्टर कोई दूसरी दुनिया का प्राणी तो नहीं है जो आते ही करिश्मा कर दिखाएगा । आप भी तो किसी नतीज पर पहुंचे होंगे । आपने भी तो इस केस के विषय में कोई धारण बनाई होगी ?”
थानेदार मुंह से कुछ नहीं बोला लेकिन उसके चेहरे के भावों से लग रहा था कि अपनी प्रशंसा सुनना उसे भला लग रहा था ।
सुनील की पुड़िया काम कर रही थी ।
“यह तो आपकी महानता है कि आप स्पष्ट शब्दों में स्वीकार कर रहे हैं कि हत्या के केस की तहकीकात करना आपके बस की बात नहीं है ।” - सुनील फिर बोला - “वरना जो कुछ इन्स्पेक्टर कर सकता है, वह आप भी कर सकते हैं ।”
“कर तो सकते हैं ।” - थानेदार नम्र स्वर में बोला - “लेकिन हमें ऊपर से यही हुक्म मिला हुआ है कि हत्या के मामलों की सूचना हमें फौरन होमीसाईड डिपार्टमेन्ट को दैनी चाहिए । और फिर यह लोकल केस भी तो नहीं है । मरने वाला राजनगर के किसी बड़े धनी आदमी का लड़का है इसलिए इस हत्या की तफ्तीश ज्यादा जिम्मेदार अफसरों द्वारा ही होगी ।”
“आपको हत्या की सूचना किसने दी ?” - सुनील बातचीत का सिलसिला चालू रखने की गरज से बोला ।
“प्रताप चन्द ने ।” - थानेदार बोला और हाथ से एक ओर संकेत करते हुए बोला - “वह उस सामने वाले काटेज में रहता है । रात को उसने गोली चलने और शीशे टूटने की आवाजें सुनी थीं । उन आवाजों से उसकी नींद खुल गई थी । आवाजें हत्प्राण के काटेज से आई थीं । थोड़ी ही देर बाद उसे एक औरत के चीखने की भी आवाज सुनी । उसने सोचा शायद काटेज में कोई चोर घुस आए थे । वह सहायता की भावना से वहां पहुंचा । महेश कुमार अपनी कुर्सी पर मरा पड़ा था, किसी ने उसके सीने में गोली मार दी थी । सारे कमरे में शीशे के टुकड़े बिखरे पड़े थे । उसने फौरन चौकी में टेलीफोन कर दिया ।”
“हत्यारे का कुछ पता लगा ?”
“नहीं ।”
“काटेज में नौकर चाकर भी तो होंगे ?”
“हैं लेकिन वे काटेज में रहते नहीं । वे काटेज में काम करने के लिए आते हैं और काम समाप्त करके चले जाते हैं । रात को ज्यादा देर तक केवल राधा नाम की नौकरानी ठहरती है जो काटेज की सफाई भी करती थी और महेश कुमार के लिए भी खाना पकाती थी । उससे पता लगा है कि कल रात मंजुला नाम की एक लोकल लड़की डिनर पर आमन्त्रित थी । डिनर सर्व कर चुकने के बाद राधा वापिस अपने घर चली गयी थी । उसे नहीं मालूम कि बाद में मंजुला किस समय गई थी ।”
“आप मंजुला से मिले ?”
“हां । वह लगभग ग्यारह बजे वापिस चली गई थी । महेश कुमार के पास आठ एम एम का प्रोजेक्टर था जिस पर महेश कुमार उसे फिल्म दिखाने वाला था । इसीलिए मंजुला खाने के बाद भी वहां रुकी थी । राधा के चले जाने के बाद महेश कुमार मंजुला को फिल्म दिखाने के स्थान पर उससे जबरदस्ती करने की कोशिश करने लगा लेकिन वह भूल गया कि मंजुला कोई शहर की काल गर्ल मार्का ऐसी लड़की नहीं थी जो अपनी इज्जत हथेली पर रखकर घूमती रहती हैं ।” - अपने इलाके की लड़की के चरित्र और बहादुरी की तारीफ करते हुए थानेदार का चेहरा दमक उठा था - “मंजुला ने महेश कुमार के चेहरे पर एक जोरदार थप्पड़ जमाया और काटेज से बाहर निकल आई । दुर्भाग्य वश रास्ते में उसकी कार बिगड़ गई इसलिए अपने काटेज तक बेचारी को पैदल ही जाना पड़ा ।”
“अगर मंजुला ग्यारह बजे के बाद ही वापिस चली गई थी तो फिर वह औरत कौन थी जिसकी चीख प्रताप चन्द ने सुनी थी ?”
“कोई भी हो, वह मंजुला नहीं थी । बाबू साहब, महेश कुमार एक बेहद गन्दा और ऐय्याश आदमी था । मंजुला के हाथ से निकल जाने के बाद उसने शहर से कोई दूसरी छोकरी बुलवा ली होगी । ये पैसे वाले लोग इन मामलों में तो बड़े सम्पन्न होते हैं ।”
“लेकिन इस बात का क्या सबूत है कि मंजुला ग्यारह बजे के बाद अपने घर चली गई थी । सम्भव है वह ढाई बजे गई हो ।”
“उसकी मां पार्वती कहती है कि वह ग्यारह बजे के करीब घर लौट आई थी ।” - थानेदार सरल स्वर में बोला ।
“और आपने उसकी बात का विश्वास कर लिया ?”
“हमारे यहां लोग उल्टे सीधे झूठ नहीं बोलते हैं साहब ।” - थानेदार तनिक नाराज स्वर से बोला ।
“जरूर नहीं बोलते होंगे ।” - सुनील जल्दी से बोला । वह थानेदार को नाराज नहीं करना चाहता था - “मेरे से गलती हुई । दरअसल मैं यहां के लोगों को अभी जानता नहीं हूं न ।”
थानेदार चुप रहा ।
“यह कार मंजुला की है ?” - सुनील सड़क के किनारे खड़ी कार की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
“हां ।”
“आपने देखा है इसमें पंचर कैसे हो गया है ?”
“आप क्या मुझे बुद्धू समझते हैं जो इतनी सी बात भी नहीं देखूंगा । टायर में शीशा घुसा हुआ है ।”
“जरा मैं टायर पर एक नजर डाल लूं ?” - सुनील याचनापूर्ण स्वर से बोला ।
“देख लो ।” - थानेदार रौब से बोला - “लेकिन कार की तस्वीर खींचने की कोशिश मत करना ।”
“कैमरा आप रख लीजिए, थानेदार साहब ।” - सुनील बोला और उसने सचमुच ही कैमरा गले से उतारकर थानेदार को थमा दिया ।
“और गीली जमीन पर मेरे बूटों के निशान तुम्हें कार तक दिखाई दे रहे हैं न ।” - थानेदार बोला ।
“हां ।”
“उन्हीं पर कदम रखते हुए चले जाओ । कोई नए निशान मत बनाना ।”
“ओके ।” - सुनील जोश से बोला । और फिर थानेदार के बताए ढंग से कार के समीप जा पहुंचा ।
उसने बड़ी बारीकी से कार का निरीक्षण करना शुरू कर दिया ।
कार का पिछला टायर बैठा हुआ था । टायर में एक स्थान पर लम्बा शीशे का टुकड़ा घुसा हुआ था । सुनील ने देखा वह टुकड़ा सादे कांच का नहीं, मुंह दखने वाले शीशे का था ।
उसने कार के भीतर दृष्टि डाली ।
कार के डैशबोर्ड में बने एक छोटे से कम्पार्टमेन्ट का ढक्कन खुला हुआ था और वह बाहर की ओर लटक रहा था ।
सुनील कार के पास से हटकर वापिस थानेदार की ओर चल दिया ।
उसी क्षण उसे दूर सड़क पर एक जीप आती हुई दिखाई दी । जीप के पीछे-पीछे कार, स्कूटरों और मोटर साइकिलों का काफला चला आ रहा था ।
सुनील जल्दी से थानेदार के पास पहुंचा । उसने थानेदार के हाथ से अपना कैमरा झपट लिया और जल्दी से सड़क से हटकर जाती हुई एक पगडण्डी की ओर बढता हुआ बोला - “अच्छा थानेदार साहब, मेहरबानी । जाती बार मैं आपकी एक शानदार तस्वीर खींचूगा जो ‘ब्लास्ट’ में केस के विवरण के साथ पहले पृष्ठ पर छपेगी ।”
थानेदार ने उत्तर में क्या कहा, सुनील ने सुनने का उपक्रम नहीं किया । शहर का इन्स्पेक्टर और बाकी अखबारों के रिपोर्टर वहां पहुंचने ही वाले थे और सुनील उन लोगों की नजर में नहीं पड़ना चाहता था ।
सुनील प्रताप चन्द के काटेज में पहुंचा ।
उसने काटेज की घन्टी बजा दी ।
द्वार इन्द्रा ने खोला ।
“नमस्ते, जी ।” - वह अपने चेहरे पर एक गोल्डन जुबली मुस्कराहट लाता हुआ बोला - “मेरा नाम सुनील है । मैं ‘ब्लास्ट’ का रिपोर्टर हूं । कत्ल के बारे में प्रताप चन्द जी से कुछ बातें करना चाहता हूं ।”
“क्या बातें करना चाहते हैं आप ?” - इन्द्रा संदिग्ध स्वर से बोली ।
“देखिए, आपके पति ने हत्या की सूचना पुलिस को दी थी । इसलिए इस मामले की वे भी महत्वपूर्ण कड़ी हैं । मैं उनसे एक छोटा-सा इन्टरव्यू लेना चाहता हूं ।”
“लेकिन जो कुछ उन्हें मालूम है, वे पुलिस को बता चुके हैं ।”
“देवी जी, मुझे विश्वास है, उन्हीं बातों को प्रेस के सामने फिर दोहराने में उन्हें कोई विशेष असुविधा नहीं होगी ।”
“इन्द्रा, कौन है ?” - भीतर के किसी कमरे में से एक पुरुष स्वर सुनाई दिया ।
उत्तर देने के स्थान पर इन्द्रा द्वार से एक ओर हट गई और सुनील से बोली - “आइए ।”
सुनील भीतर घुस गया ।
इन्द्रा उसे ड्राइंगरूम में ले आई जहां प्रताप चन्द बैठा अखबार पढ रहा था ।
“ये ‘ब्लास्ट’ के रिपोर्टर हैं ।” - इन्द्रा पति से बोली - “आपसे बातें करना चाहते हैं ।”
“बैठिए ।” - प्रताप चन्द अखबार एक ओर रखकर बोला ।
“मेरा नाम सुनील है ।” - सुनील बैठता हुआ बोला ।
इन्द्रा दोनों से थोड़ी दूर हटकर कोने की एक कुर्सी पर बैठ गई ।
“फरमाइए ।” - प्रताप चन्द बोला - “मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ?”
“मैं आपसे हत्या के बारे में एक दो प्रश्न पूछना चाहता हूं ।” - सुनील बोला ।
“पूछिए ।”
“आधी रात को आपकी नींद कैसे खुल गई ?”
“सुनील साहब, आपने देखा ही है कि यह एक बहुत थोड़ी सी आबादी वाला शांत इलाका है । रात के सन्नाटे में हल्की सी आवाज भी तोप के गोले की तरह सुनाई देती है । मैं बड़ी कच्ची नींद सोने का आदी हूं । महेश कुमार के काटेज की खिड़की के शीशे टूटने और फिर गोली चलने जैसी आवाज से मेरी नींद खुल गई थी । बाद में मुझे एक औरत की चीख भी सुनाई दी थी ।”
“ये आवाजें आपने भी सुनी थीं ?” - सुनील इन्द्रा की ओर घूमकर बोला ।
“ये तो घोड़े बेचकर सोती हैं ।” - इन्द्रा के मुंह खोलने से पहले ही प्रताप चन्द बोल पड़ा - “इनके कान के पास तो नगाड़े बजाए जायें तो तब जागती हैं ये । इन्हें तो मैंने ही जगाया था ।”
इन्द्रा के चेहरे पर असन्तुष्टि के भाव उभर आए ।
“आप बाद में महेश कुमार के काटेज पर गए थे ?”
“जी हां ।”
“वहां क्या देखा आपने ?”
“महेश अपनी कुर्सी पर मरा पड़ा था । खिड़की की ओर उसकी पीठ थी । खिड़की का शीशा टूटा पड़ा था । सारा कमरा कांच के टुकड़ों से भरा पड़ा था ।”
“केवल खिड़की के शीशों से ही सारा कमरा भर गया था ?”
“नहीं, साहब । शीशे की कई चीजें टूटी थीं । दीवार पर लगी हुई तस्वीर जमीन पर आ गिरी थी । उसका कांच भी सारे कमरे में फैला हुआ था । फिर एक बड़ा सा मुंह देखने वाला शीशा भी टूटा पड़ा था । मेज पर एक शीशे का गिलास भी गिरकर टूट गया था ।”
“आपने एक औरत की चीख की आवाज सुनी थी ?”
“जी हां ।”
“आप पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि वह आवाज किसी औरत की ही थी ?”
“जी हां ।”
“क्या वह औरत मंजुला हो सकती है ?”
“जी नहीं । मजुंला ग्यारह बजे अपने काटेज में लौट आई थी जबकि वह चीख मैंने दो बजे के बाद सुनी थी ।”
“सम्भव है मंजुला एक बार घर लौट कर वापिस महेश कुमार के काटेज पर गई हो ।”
“यह सम्भव नहीं है ।” - प्रताप चन्द जोर से सिर हिलाता हुआ बोला - “मंजुला ग्यारह बजे घर पहुंच गई थी और पार्वती इस बात की गवाह है कि ग्यारह बजे के बाद वह कहीं नहीं गई ।”
“या फिर मंजुला के जाने के बाद वहां कोई दूसरी लड़की आई होगी ।”
“यह हो सकता है ।”
सुनील बातचीत के दौरान में समय समय पर एक सरसरी निगाह इन्द्रा पर डाल लेता था । उसके चेहरे पर एक विचित्र प्रकार की उत्कंठा के भाव उभर रहे थे । लगता था जैसे वह अपने पति की बातों से सहमत न हो लेकिन विरोध करने से डरती हो ।
“आपने वहां कोई ऐसी बात देखी जिससे यह जाहिर होता हो कि वहां कोई लड़की मौजूद थी ?”
प्रताप चन्द कुछ सोचता रहा और फिर बोला - “मुझे अच्छी तरह याद नहीं लेकिन शायद मेज पर एक गिलास पड़ा था जिस के किनारे पर लिपिस्टिक के निशान थे ।”
“हूं ।” - सुनील बोला - “अच्छा अब आप महेश कुमार के विषय में कुछ बताइये ।”
“क्या बताऊं, साहब ?”
“उसका चरित्र कैसा था ?”
“हमें हत्प्राण के बारे में बुरी बात कहनी तो नहीं चाहिए लेकिन जो कुछ हमने देखा है, उससे तो यही लगता है कि वह बड़ा चरित्रहीन आदमी था । शहर से बड़ी माड्रन लड़कियां उस से मिलने आया करती थीं । कई तो पूरी पूरी रात यहीं ठहर जाती थीं । दुर्भाग्य से हमारी खिड़की उसके कमरे की खिड़की के एकदम सामने पड़ती है । हमने बहुत तमाशे देखे हैं, साहब ।”
“इतनी दूर से कुछ दिखाई तो नहीं देता है ।”
“दूरबीन से दिखाई देता है ।”
“आप दूरबीन से उसके घर में झांकते रहते हैं ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
“हमेशा नहीं ।” - प्रताप चन्द ने जल्दी से उत्तर दिया - “हम तभी दूरबीन इस्तेमाल करते हैं जब हमें किसी प्रकार की गड़बड़ का अन्देशा होता है ।”
“जैसे ?”
“जैसे एक बार हमें उसके काटेज में से एक लड़की के चीखने की आवाज सुनाई दी, मैंने इन्द्रा को जगाया । हमने दूरबीन से देखा, महेश कुमार एक लड़की के साथ जबरदस्ती करने का प्रयत्न कर रहा था । इन्द्रा कहती थी कि मैं या तो खुद जाकर दखल दूं या पुलिस को फोन कर दूं लेकिन इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी ।”
“क्यों ?”
“लड़की ने एक बार अपने आपको उसके बन्धन से छुड़ाया और मेज से एक पीतल का फूलदान उठाकर उसके सिर पर दे मारा । महेश कुमार बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा और वह लड़की ठाठ से काटेज से बाहर निकल गई ।”
“यह कब की बात है ?”
“दो तीन महीने हो गए हैं ।”
“अच्छा ।”
“अब इससे एकदम उल्टी कहानी सुनिए ।”
“क्या ?”
“एक बार ऐसी ही एक घटना एक अन्य लड़की के साथ हुई । वह लड़की भी पहले तो महेश कुमार के बन्धन से छूटने के लिए तड़फड़ाती रही । फिर उसने अपना विरोध छोड़ दिया । अगले ही क्षण दोनों एक दूसरे के आलिंगन में बंधे हुए एक दूसरे का चुम्बन ले रहे थे ।”
“मतलब यह कि लड़की का विरोध एकदम बनावटी था ।”
“जी हां । और महेश कुमार के पास तकरीबन ऐसी ही लड़कियां आती थी जो या तो विरोध करती ही नहीं थी और अगर करती थीं तो केवल एक दो मिनट का, अपनी वेल्यु बढाने के लिए । मैं तो घृणा करता हूं ऐसी लड़कियों से । लड़की हो तो मंजुला जैसी । महेश कुमार ने जरा सी शरारत करने की कोशिश की और उसने एक थप्पड़ में उसके होश ठिकाने लगा दिए और उठ कर घर चली आई ।”
“महेश कुमार यहां कब से रह रहा है ?”
“काफी अरसा हो गया है ।”
“लेकिन शहर छोड़कर यहां काटेज लेने का इन्हें ख्याल कैसे आया ?”
“ये पैसे वाले लोग हैं, साहब । जहां इन लोगों को और कमाई होने की गुंजाइश हो, वहां तो ये लोग सबसे पहले पहुंचते हैं ।”
“क्या मतलब ?”
“महेश कुमार यहां पर झील के किनारे एक शानदार होटल और बोटिंग क्लब बनवाने जा रहा था ।”
“लेकिन यह तो खेती बाड़ी के काम आने वाली जमीन है, किसान तैयार हो गए अपनी जमीन बेचने के लिए ?”
प्रताप चन्द चुप रहा ।
सुनील उत्तर की प्रतीक्षा में उसका मुंह देखने लगा ।
“सुनील साहब !” - अन्त में प्रताप चन्द बोला - “दरअसल झील के किनारे की पांच सौ एकड़ जमीन का मैं अकेला मालिक था । महेश कुमार के एक दलाल ने मुझे उल्लू बना कर जमीन मुझसे झटक ली । उस समय मुझे मालूम नहीं था कि जमीन होटल बनाने के लिए खरीदी जा रही है । मैंने दो सौ एकड़ जमीन तो फौरन बेच दी और दो सौ एकड़ पर उसी कीमत पर महेश कुमार को आप्शन दे दी ।”
“आप्शन क्या ?”
“एक साल तक मैं अपनी जमीन बेच नहीं सकता । वह इतने समय में जब चाहे पुरानी कीमत पर ही जमीन मुझसे खरीद सकता है ।”
“आपको तो बहुत घाटा हुआ होगा ।”
“घाटा तो नहीं हुआ है लेकिन बहुत अधिक फायदा हो सकता था । मैंने पहले ही जमीन चौगुनी कीमत पर बेची है । अगर होटल वाली बात मेरे कान में पड़ गई होती तो मैं पहली दो सौ एकड़ जमीन बीस गुना अधिक दामों पर बेचता और बाकी दो सौ एकड़ जमीन पर उसे आप्शन हरगिज नहीं देता ।”
“कोई और महत्वपूर्ण बात आपकी नजर से गुजरी हो तो बताइए ?”
“जो कुछ मैं जानता हूं, मैंने आपको बता दिया है ।”
“और आप ?” - सुनील इन्द्रा से सम्बोधित हुआ ।
“मुझे कुछ नहीं मालूम ।” - इन्द्रा गुस्से भरे स्वर से बोली और फिर उसने एक भारी असन्तुष्टिपूर्ण दृष्टि अपने पति पर डाल कर दृष्टि झुका ली ।
“क्या मैं आपसे फिर कभी मिल सकता हूं ?” - सुनील ने उठते हुए पूछा ।
“क्यों नहीं, जब मर्जी आइए ।” - प्रताप चन्द भी उठ खड़ा हुआ ।
इन्द्रा बैठी रही ।
सुनील ने दोनों का अभिवादन किया और काटेज से बाहर आ गया ।
सुनील पार्वती के काटेज के समीप पहुंचा ।
काटेज के कम्पाउंड में काफी लोग मौजूद थे । भीड़ में कुछ पुलिस के आदमी थे, प्रेस रिपोर्टर थे लेकिन अधिकतर स्थानीय लोग थे जो केवल उत्सुकतावश वहां इकट्ठे हुए थे । कुछ लोग कम्पाउण्ड में पड़ी केन की कुर्सियों पर बैठे हुए थे, बाकी लोग कुर्सियों को घेरकर खड़े थे ।
बैठे हुए लोगों में इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल और पार्वती देवी भी थीं ।
सुनील चुपचाप भीड़ में पीछे जा खड़ा हुआ । किसी ने उस की ओर ध्यान नहीं दिया ।
पार्वती के चेहरे से परेशानी टपक रही थी ।
“पार्वती देवी जी ।” - प्रभूदयाल अपनी व्यवसाय सुलभ रौब भरी आवाज से पूछ रहा था - “आपकी बेटी आज अचानक इतनी सुबह शहर कैसे चली गई ?”
“इन्स्पेक्टर साहब ।” - पार्वती तिक्त स्वर से बोली - “मंजुला अचानक शहर नहीं गई है । आज उसे शहर जाना ही था, महेश कुमार मरता चाहे न मरता और दिन के दस बजे आपकी कथित ‘इतनी सुबह’ नहीं होती है ।”
“मंजुला शहर में कहां गई है ?”
“14-महात्मा गांधी रोड पर । वहां उसका राजकुमार नाम का एक वकील मित्र रहता है ।”
“वह लौट कर कब आयेगी ?”
“शाम को आ जाएगी ।”
“उसे इस प्रकार शहर नहीं जाना चाहिए था ।”
“आप अभी यह बात और कितनी बार कहेंगे, इन्स्पेक्टर साहब ।” - पार्वती चिढ कर बोली - “आखिर उसे क्यों शहर नहीं जाना चाहिए था । लोकल थानेदार ने उस पर ऐसा कोई बन्धन नहीं लगाया था कि उसे इलाका छोड़कर नहीं जाना चाहिए था ।”
“यह उसकी गलती थी ।”
“तो फिर उसे दोष दीजिए ।”
सुनील ने देखा प्रभूदयाल के पीछे ही थानेदार खड़ा था । उसके चेहरे की रंगत बिगड़ी हुई थी ।
प्रभूदयाल ने एक कहर भरी दृष्टि थानेदार पर डाली और फिर पार्वती से बोला - “मंजुला घर कितने बजे पहुंची थी ?”
“लगभग ग्यारह बजे ।”
“घर लौटने के बाद क्या वह फिर दुबारा महेश कुमार के काटेज पर गई थी ?”
“दुबारा ! दुबारा क्यों जाती भला वह ?” - पार्वती बोली ।
“सवाल मैंने पूछा था ।” - प्रभूदयाल रुक्ष स्वर से बोला ।
“नहीं । दुबारा नहीं गई वह ।”
“आप महेश कुमार के काटेज पर गई थीं ?”
“मैं भला काहे को जाती वहां ?”
“पार्वती देवी जी ।” - प्रभूदयाल एकदम कठोर स्वर से बोला - “जो बात मैं पूछता हूं, उसका सीधा सरल उत्तर देने की कोशिश कीजिए । यह पुलिस की तफ्तीश है कोई तमाशा नहीं । बराय मेहरबानी मेरे सवाल के बदले में सवाल मत कीजिये ।”
पार्वती चुप रही ।
“आप महेश कुमार के काटेज पर गई थीं ?”
“नहीं ।”
“और न आपकी बेटी ग्यारह बजे के बाद दुबारा वहां गई ?”
“हां ।”
“आप यह बात दावे के साथ कह सकती हैं ?”
“हां । मैं और मेरी बेटी एक ही बैडरूम में सोते हैं । मैं बड़ी कच्ची नींद सोने की आदी हूं । अगर मंजुला दुबारा काटेज से बाहर गई होती तो मुझे जरूर पता रह जाता ।”
“महेश कुमार के काटेज में मंजुला की उससे झड़प हो गई थी ?”
“हां । महेश कुमार उससे जबरदस्ती करने लगा था ।”
“और मंजुला ने उसे थप्पड़ मारा था ?”
“हां ।”
“क्या उस झड़प के दौरान मंजुला ने महेश कुमार को कोई शीशा फेंक कर मारा था ?”
“शीशा ?”
“जी हां ! मुंह देखने वाला चांदी के फ्रेम का भारी शीशा ?”
“नहीं ।”
“या महेश कुमार ने मंजुला पर वह शीशा फेंका हो ?”
“नहीं । मंजुला तो महेश कुमार की नीयत समझते ही फौरन वहां से चली आई थी ।”
“शीशे का क्या किस्सा है, इन्स्पेक्टर साहब ?” - क्रानिकल का रिपोर्टर ललित बोल पड़ा ।
प्रभूदयाल कुछ क्षण यूं चुप रहा जैसे सोच रहा हो कि उसे उस प्रश्न का उत्तर देना चाहिए था या नहीं । अन्त में वह बोला - “महेश कुमार के काटेज में किसी ने किसी को एक चांदी के फ्रेम वाला भारी शीशा फेंक कर मारा था । वह भारी शीशा कमरे की खिड़की से जा टकराया था और खिड़की के कांच के और खुद शीशे के परखच्चे उड़ गए थे । कमरे के भीतर और बाहर राहदारी में भी कांच और शीशे के टुकड़े फैले हुए थे ।”
सुनील के कान खड़े हो गए । शीशे वाली बात उसके लिए नई थी । उसे मंजुला की कार के पिछले टायर में घुसा शीशे का टुकड़ा याद आने लगा ।
प्रभूदयाल फिर पार्वती की ओर आकर्षित हुआ - “आपको कैसे मालूम है महेश कुमार ने मंजुला से जबरदस्ती करने की कोशिश की थी ?”
“मैंने उससे पूछा था ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि जब वह घर लौटी थी तो वह बुरी तरह घबराई हुई थी और उसके कपड़े फटे हुए थे । पूछने पर उसने मुझे महेश कुमार की बदमाशी की सारी बात कह सुनाई थी ।”
“फिर ?”
“फिर मैंने मंजुला को सांत्वना दी, उसकी बहादुरी की तारीफ की और फिर हम लोग सो गए । लेकिन...”
“लेकिन क्या ?”
“रात को लगभग सवा दो बजे मेरी नींद खुल गई थी । मैंने महेश कुमार के काटेज की ओर से आती हुई एक चीख सुनी थी ।”
“किसकी ?”
“मुझे नहीं मालूम । स्वर किसी औरत का था ।”
“फिर आपने क्या किया ?”
“मैंने उठकर खिड़की से बाहर झांका । बाहर मुझे कोई विशेष बात दिखाई नहीं दी । केवल महेश कुमार के काटेज में रोशनी दिखाई दी । मैं कुछ क्षण प्रतीक्षा करती रही लेकिन जब फिर कोई आवाज सुनाई नहीं दी और न ही मुझको कोई इन्सान दिखाई दिया तो मैं वापिस अपने बिस्तर पर आकर सो गई ।”
“उस समय मंजुला कहां थी ?”
“वह अपने बिस्तर पर पड़ी सो रही थी ।”
“चीख की आवाज सुनकर वह नहीं जागी ?”
“नहीं, मंजुला बहुत गहरी नींद सोती है ।”
“देखिए, पार्वती देवी जी ।” - प्रभूदयाल एकाएक बड़े निर्णयात्मक स्वर से बोला - “मैं आप लोगों को आपकी स्थिति के विषय में धोखे में नहीं रखना चाहता । आपके बयान की बहुत सी बातें तथ्यों से मेल नहीं खातीं । मैं...”
उसी क्षण भीड़ में हलचल सी पैदा हो गई । फिर एक सिपाही प्रभूदयाल के सामने प्रगट हुआ । वह बुरी तरह हांफ रहा था और बेहद उत्तेजित था । उसके हाथ में एक पेंसिल थी जिसका दूसरा सिरा एक रिवाल्वर की नाल में घुसा हुआ था । वह पैंसिल की सहायता से रिवाल्वर को सम्भाले हुए था ताकि उस पर अगर किसी प्रकार के उंगलियों के निशान हों तो नष्ट न होने पायें ।
रिवाल्वर पर दृष्टि पड़ते ही प्रभूदयाल एकदम उछल कर खड़ा हो गया ।
लेकिन सुनील की दृष्टि पार्वती के चेहरे पर टिकी हुई थी ।
पार्वती के चेहरे पर एकाएक न जाने क्यों हवाइयां उड़ने लगी थीं ।
“कहां मिली यह ?” - प्रभूदयाल तीव्र स्वर से बोला ।
“इन्स्पेक्टर साहब ।” - सिपाही हड़बड़ाए स्वर से बोला - “यह... यह मंजुला की कार से थोड़ी दूर झाड़ियों में पड़ी थी । लगता है जैसे इसे किसी ने कार के पास झाड़ियों में फेंक दिया हो ।”
उसी क्षण दस बारह कैमरों की क्लिक क्लिक से वातावरण गूंज उठा ।
प्रभूदयाल जल्दी से बोला - “चलो यहां से । मुझे वह जगह दिखाओ ।”
प्रभूदयाल, स्थानीय थानेदार तथा दो और सिपाही उस सिपाही के पीछे हो लिए ।
कुछ रिपोर्टर और तमाशाई भी उनके पीछे चल दिये ।
“आप लोग अपना काम कीजिये ।” - प्रभूदयाल घूमकर बोला - “हमारे पीछे मत आइए ।”
स्थानीय लोग रुक गए ।
“लेकिन इंस्पेक्टर साहब ।” - एक रिपोर्टर बोला - “हम तो आ सकते हैं न ?”
“नहीं, आप लोग भी नहीं ।” - प्रभूदयाल ने कठोरता से उत्तर दिया - “वहां कदमों के निशानों की तफ्तीश होनी है । आप लोग सब गड्डमड्ड कर देंगे ।”
“हम दूर खड़े रहेंगे ।” - एक और रिपोर्टर बोल पड़ा ।
“फिलहाल आप मुझे माफ कीजिए ।” - प्रभूदयाल बोला ।
प्रभूदयाल अपने दल के बल के साथ चला गया । लोग बिखरने लगे ।
एक दो रिपोर्टर कुछ क्षण पार्वती से प्रश्न करते रहे । फिर लोग पार्वती को अकेला छोड़ कर कम्पाउण्ड से बाहर निकल आए ।
पार्वती भीतर काटेज में घुस गईं ।
अधिकतर लोग उसी सड़क पर चल दिए जिधर प्रभूदयाल गया था ।
सुनील ने लक्की स्ट्राइक का एक सिगरेट सुलगाया और झील की ओर जाने वाली पगडंडी की ओर चल दिया ।
उस क्षण क्रानिकल का रिपोर्टर ललित उसके पास पहुंचा ।
“क्या बात है गुरुजी ?” - वह बोला - “आज बड़े चुपचाप हो ।”
“तो क्या हल्ला करूं ?” - सुनील हंसकर बोला ।
“इधर कहां जा रहे हो ?”
“जरा झील देखने जा रहा हूं ।”
“झेरी में पहले कभी नहीं आए क्या ?” - वह बोला ।
झेरी झील के आसपास के इलाके का नाम था ।
“नहीं । आओ तुम भी चलो ।”
“नहीं बाबा, मैंने बहुत बार देखी है यह झील । तुम एक मिनट मेरी बात सुनो ।”
“क्यों ?”
“मैंने तुम्हें यहां आते नहीं देखा ।”
“मैं जरा देर से आया था ।”
“या जरा जल्दी आए थे ?”
सुनील चुप हो गया ।
“गुरु जी...” - ललित शिकायत भरे स्वर में बोला - “लगता है कोई ऐसी बात जान गए हो जो हमारी नजर से नहीं गुजरी ।”
“ऐसी कोई बात नहीं है ।”
“हम भी तुम्हें बरसों से जानते हैं, गुरुजी ।” - ललित बोला - “तुम्हारी शक्ल देखकर तुम्हारे पेट की बात बता सकते हैं । गुरु जी, कोई तड़फती हुई चीज हाथ लग जाए, तो थोड़ा सा इशारा हमें देना मत भूलना ।”
“नहीं भूलूंगा ।” - सुनील उससे पीछा छुड़ाने के भाव से बोला ।
“उखड़ रहे हो उस्ताद ?”
सुनील चुप रहा ।
“अच्छा तो लो हम चले । तुम खुश रहो ।” - ललित हाथ हिलाता हुआ वहां से चला गया ।
सुनील झील की ओर बढ गया ।
एक स्थान पर उसे एक छोटी सी चाय की दुकान दिखाई दी, जिसके सामने बैंचों पर बैठे तीन चार आदमी चाय पी रहे थे ।
“चाय देना ।” - सुनील दुकानदार से बोला और एक बैंच पर बैठ गया । उसने कैमरा कन्धे से उतारकर अपनी बगल में बैंच पर रख लिया और एक नया सिगरेट सुलगा लिया ।
बाकी लोग बड़ी उत्सुकता से उसे देख रहे थे ।
“शहर से आए हो, बाबूजी ?” - एक आदमी ने उससे पूछा ।
“हां ।” - सुनील ने उत्तर दिया ।
“अखबार वाले हो ?” - वह कीमती कैमरे की ओर देखता हुआ बोला ।
“हां ।”
वह आदमी चुप हो गया ।
“आप लोग तो यहीं के रहने वाले हैं न ?” - सुनील ने पूछा ।
“जी हां ।” - पहले आदमी ने उत्तर दिया ।
“पिछली रात बारिश कितने बजे शुरू हुई थी ?”
“ठीक समय तो पता नहीं ।” - वह आदमी बोला - “लेकिन पौने बारह के बाद ही शुरू हुई होगी । कल मैं पौने बारह बजे सोया था । तब तक एक बूंद भी नहीं बरसी थी ।”
“बारिश साढे बारह बजे के समीप शुरू हुई थी ।” - दुकानदार बोला - “मैं तब सोया नहीं था । कोई पौना घण्टा पानी बरसा था ।”
एक दो अन्य आदमियों ने दुकानदार की बात का अनुमोदन किया ।
सुनील ने चुपचाप चाय पी और उठ खड़ा हुआ ।
उसने चाय के पैसे चुकाए और वापिस पार्वती के काटेज की ओर चल दिया ।
काटेज सुनसान पड़ा था ।
सुनील ने आगे बढकर द्वार की घन्टी बजा दी और प्रतीक्षा करने लगा ।
कुछ क्षण बाद द्वार खुला और उसे पार्वती दिखाई दी ।
“फरमाइये ।” - पार्वती सुनील को सिर से पांव तक घूरती हुई बोली ।
“जी ।” - सुनील बोला - “मेरा, नाम सुनील है । मैं ‘ब्लास्ट’ का प्रतिनिधि हूं ।”
“फिर ?” - पार्वती रुक्ष स्वर में बोली ।
“मैं आपसे केस के विषय में दो मिनट बात करना चाहता हूं ।”
“लेकिन मेरे पास बताने के लिए विशेष कुछ नहीं है ।”
“मेरे पास है ।” - सुनील शांति से बोला ।
पार्वती के चेहरे पर विस्मय के भाव उभर आए ।
सुनील चुपचाप खड़ा रहा ।
“मैं आपका मतलब नहीं समझी ।” - पार्वती नम्र स्वर से बोली ।
“मैं आपसे कुछ पूछने नहीं, आपको कुछ बताने आया हूं ।”
“क्या ?”
सुनील ने एक सरसरी दृष्टि अपने आसपास दौड़ाई और फिर बोला - “पार्वती देवी जी, आप या आपकी बेटी और या फिर आप दोनों ही झूठ बोल रही हैं ।”
पार्वती चिहुंक पड़ी ।
“क्या बक रहे हैं आप ?” - फिर वह क्रोधित दिखने का प्रयत्न करती हुई बोली ।
“पहले मैं जो कहना चाहता हूं उसे अच्छी तरह सुन लीजिए और फिर बाद में यह फैसला कीजिएगा कि मैं बक रहा हूं या हकीकत बयान कर रहा हूं ।”
“लेकिन मुझे आपकी बात सुनने की जरूरत क्या है ?”
“जरूरत है । क्योंकि इसमें आपका ही हित निहित है ।”
पार्वती कुछ क्षण वहीं द्वार पर खड़ी हिचकिचाती रही और फिर अनिश्चित स्वर से बोली - “क्या कहना चाहते हैं आप ?”
“मैंने आपके इलाके के लोगों से पूछा है ।” - सुनील ने कहना शुरू किया - “पानी रात के साढे बारह बजे के करीब बरसना शुरू हुआ था । इस इलाके की जमीन ऐसी है कि बरसात के पानी के साथ आसपास की ऊंचाइयों की मिट्टी बहकर सड़क तथा अन्य रास्तों पर फैल जाती है । बरसात के बाद उन रास्तों पर चलने वाले के कदमों के निशान स्पष्ट रूप से उभर आते है ।”
“फिर ?” - पार्वती ने धड़कते दिल से पूछा ।
“फिर यह कि झील के साथ-साथ जो पगडण्डी आपके काटेज से महेश कुमार के काटेज तक जाती है, उस पर किसी औरत की ऊंची एड़ी की सैंडिलों के स्पष्ट निशान दिखाई देते हैं । कोई औरत साढे बारह बजे के बाद किसी समय इस काटेज से महेश कुमार के काटेज तक गई थी और फिर यहीं लौटकर आई थी ।”
“फिर क्या...”
“जरा सुनती रहिए ।” - सुनील उसे टोकता हुआ बोला - “मैंने सड़क पर मंजुला की कार खड़ी देखी है । कार के पिछले टायर में वाकई पंचर है । पिछले टायर में लगभग डेढ इंच लम्बा शीशे का टुकड़ा घुस गया है । महेश कुमार के काटेज में शीशे वगैरह हत्या के समय रात के लगभग दो बजे टूटे थे । तभी चांदी के फ्रेम वाला शीशा खिड़की पर फेंककर मारा गया था और कांच और शीशे के टुकड़े बाहर राहदारी में फैल गए थे । उन्हीं में से शीशे का एक टुकड़ा टायर में घुस गया था । अगर आपके कथनानुसार आपकी बेटी रात के ग्यारह बजे ही घर लौट आई होती तो न टायर में उस शीशे का टुकड़ा घुस पाता जो दो बजे टूटा और न ही मिट्टी भरी सड़क पर कार के टायरों के निशान दिखाई देते क्योंकि बारिश साढे बारह बजे शुरू हुई थी । इन बातों से स्पष्ट जाहिर होता है कि आपकी बेटी वहां से ग्यारह बजे घर नहीं लौटी बल्कि वह वहां से दो बजे के बाद आई । आप किसी विशेष कारणवश झूठ बोल रही हैं कि मंजुला महेश कुमार की हत्या से बहुत पहले वापिस यहां पहुंच चुकी थी ।”
पार्वती के मुंह से बोल नहीं फूटा । उसके चेहरे से यूं लगता था जैसे किसी ने उसके शरीर का सारा खून निचोड़ लिया हो ।
“अभी और सुनिए ।” - सुनील बोला - “किसी औरत की ही सैंडिलों के निशान महेश कुमार के काटेज से सड़क पर पंचर हुई कार तक और कार से महेश कुमार के काटेज तक बने हुए हैं । और फिर वैसे ही निशान कार से आपके काटेज तक बने हुए हैं । इन निशानों से प्रकट होता है कि मंजुला कार पंचर हो जाने के बाद वापिस पैदल महेश कुमार के काटेज में गई, फिर वापिस कार तक आई और फिर पैदल ही चलती हुई वापिस यहा काटेज में पहुंच गई । आपके ख्याल से कार पंचर हो जाने के बाद मंजुला फिर महेश कुमार के काटेज में क्यों गई ?”
पार्वती उत्तर देने की स्थिति में नहीं थी ।
“रिवाल्वर देखकर आप बुरी तरह से चौंकी थीं । क्या आप उस रिवाल्वर को पहचानती हैं ?”
पार्वती चुप रही ।
“देखिए, पार्वती जी” - सुनील समझाने के भाव से बोला - “मैं कोई सरकारी आदमी नहीं हूं । मुझे आप कुछ बताएं या न बताएं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है । मैं आपको जो कछ बता रहा हूं आपके हित के लिए बता रहा हूं । आप इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल को नहीं जानती हैं । मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूं । वह एक बहुत ही योग्य पुलिस अफसर है । केस की तफ्तीश के दौरान में कोई सूत्र उसकी पैनी नजर से छुपा नहीं रहता है । जो कुछ मैं जानता हूं सब अधिक से अधिक दो घन्टे में प्रभूदयाल भी जान जाएगा । इसलिए आप अच्छी तरह से सोच लीजिए कि किसी प्रकार का झूठ बोलना आपके लिए या आपकी बेटी के लिए हितकर हो सकता है या नहीं । कहीं ऐसा न हो आपका गलत बयान आप लोगों का बचाव करने की जगह आप लोगों को और फंसा दे ।”
“हे भगवान ।” - पार्वती कांपती आवाज से बोली - “मैं तो सब कुछ बड़ा आसान समझ रही थी ।”
“क्या ?”
पार्वती कुछ क्षण चुप रही और फिर एकदम निर्णायक स्वर से बोली - “कुछ नहीं । आपकी इस शरलाक होम्ज जैसी खोजबीन का महत्व जासूसी उपन्यासों में हो सकता है, वास्तविक जीवन में नहीं । जूतों के निशान जूतों के निशान ही होते हैं, उंगलियों के निशान नहीं जो किताब की तरह पढे जा सकें । पुलिस हजार सालों में भी यह सिद्ध नहीं कर सकती कि वे निशान मेरे या मेरी बेटी के जूतों के हैं ।”
“और उस शीशे के टुकड़े के विषय में आपका क्या ख्याल है जो कार के पहिये में धंसा पाया गया है ?”
“वह कोई बहुत तगड़ा सबूत नहीं है ।”
“यह बहुत तगड़ा सबूत है ।” - सुनील बोला ।
“होगा ।” - पार्वती लापरवाही से बोली - “आपकी नजर में । मेरी नजर में नहीं ।”
“और वह रिवाल्वर ?”
पार्वती नजरें चुराने लगी ।
“अगर पुलिस यह सिद्ध करने में सफल हो गई कि हत्यारी आपकी बेटी है तो आप क्या करेंगी ?” - सुनील ने सीधा प्रश्न किया ।
“ऐसा नहीं हो सकता । मंजुला ने महेश कुमार की हत्या नहीं की है ।”
“लेकिन मान लीजिए पुलिस की तफ्तीश में ऐसा ही सिद्ध हो जाता है तो ?”
“तो भी कुछ नहीं होगा । मैं मंजुला की मां हूं । जब तक मैं जिन्दा हूं, उस पर कोई आंच नहीं आएगी । मैं मंजुला की हर बला अपने सिर पर ले लूंगी । अगर जरूरत पड़ी तो मैं कह दूंगी कि मैंने महेश कुमार की हत्या की है ।”
“आप ऐसी कहेंगी ?” - सुनील हैरान होकर बोला ।
“कहूंगी नहीं लेकिन अगर जरूरत पड़ी तो ऐसा कहने से हिचकूंगी नहीं ।”
“आप झूठ बोलेंगी ।”
“हां ।”
“जानती है इसका नतीजा क्या होगा ?”
पार्वती चुप रही ।
“आप फांसी पर लटक जाएंगी । और फिर राह चलते लोग मंजुला की ओर उंगली उठाकर कहा करेंगे कि यही वह लड़की है जिसकी मां हत्या के अपराध में फांसी पर लटका दी गई थी ।”
“नहीं ।” - पार्वती घबराकर बोली ।
“इसलिए पार्वती देवी जी ।” - सुनील शांति से बोला - “झूठ का सहारा लेने का ख्याल छोड़ दीजिए । सच का दामन थामिए । इसी में आप लोगों की भलाई है । अगर आपकी बेटी ने महेश कुमार की हत्या की है तो उसे यह तथ्य स्वीकार करने दीजिए । अपने सम्मान की रक्षा के लिए किसी राक्षस की हत्या कर देना कोई अपराध नहीं है । आप खुद सच बोलिए और उसे सच बोलने दीजिए । सब ठीक हो जाएगा । आप उसे झूठ बोलने के लिए प्रेरित करेंगी या खुद झूठ बोलेंगी तो, मैं आपको यकीन दिलाता हूं, प्रभूदयाल आपको छोड़ेगा नहीं । मुझे आपसे केवल इतना ही कहना था । अगर मेरी सहायता से आपका कुछ हित हो सकता हो तो मुझे कहने से हिचकियेगा नहीं । नमस्ते ।”
और सुनील बिना पार्वती की ओर दृष्टिपात किए वहां से चल दिया ।
पार्वती की भयभीत नजरें कितनी ही दूर तक उसका पीछा करती रहीं ।
***
लगभग साढे बारह बजे सुनील ने अपनी मोटर साइकिल यूथ क्लब के कम्पाउन्ड में ला खड़ी की ।
अपनी साढे सात हार्स पावर की मोटर साइकिल पर झेरी से लेकर राजनगर में स्थित यूथ-क्लब तक का सत्तर मील का फासला तय करने मे उसे डेढ घन्टा लगा था ।
वह क्लब के भीतर घुस गया ।
रिसेप्शन काउन्टर पर उस समय एक वेटर बैठा था । सुनील को देखते ही उसके होंठ मुस्कराहट के रूप में एक कान से दूसरे कान तक फैल गए ।
“सलाम, साब ।” - वह बोला ।
सुनील ने सिर हिलाकर अभिवादन का जवाब दिया और बोला - “रमाकान्त कहां है ?”
“ऊपर अपने बैडरूम में साब ।”
“जाग गया है ?”
“हां साब ।”
सुनील रमाकान्त के बैडरूम की ओर जाने वाली सीढियों की ओर बढ गया ।
रमाकान्त की यूथ क्लब राजनगर की सबसे रंगीन और सबसे आधुनिक क्लब थी । यूथ क्लब के रंगारंग प्रोग्राम और हंगामे राजनगर के उच्च वर्ग के लिए बहुत बड़ा आकर्षण थे । क्लब के सदस्य तो बहुत कम थे लेकिन सदस्यों से चार गुना अधिक संख्या सदस्यों के मेहमानों की हो जाती थी । रमाकांत क्लब का अकेला आर्गेनाइजर था, इसलिए कभी भी रात के तीन बजे से पहले सो नहीं पाता था और इसी कारण वह साधारणतया दोपहर हो जाने के बाद ही सोकर उठता था ।
सुनील उसके बैडरूम में पहुंच गया । रमाकांत शानदार चाइना सिल्क का गाउन पहने हुए एक कुर्सी पर बैठा हुआ था । उसके एक हाथ में अखबार था और दूसरे में चाय का कप था ।
“आओ, प्यारयो ।” - सुनील को देखते ही वह प्रसन्तापूर्ण स्वर से बोला ।
“आए ।” - सुनील बोला और उसके सामने की एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“चाय पियोगे ?” - रमाकान्त ने पूछा ।
“आमलेट भी खाऊंगा ।” - सुनील बोला ।
“मैंने चाय के लिए पूछा था ।”
“मुझे भूख लगी है ।”
“तो जरा उठकर वेटर को आवाज दो न ।”
“मैं थका हुआ भी हूं ।”
“अगर सर्विस भी मेरे से करवाओगे” - रमाकांत उठता हुआ बोला - “तो चाय और आमलेट के पैसे तुम्हारे एकाउन्ट में लिख दिए जाएंगे ।”
सुनील हंस पड़ा ।
“मैं मजाक नहीं कर रहा हूं ।” - रमाकांत बोला ।
“मजाक करने के लिए तो, प्यारेलाल, बड़ी ऊंची काबलियत की जरूरत होती है, वह कहां है तुममें ?”
“तो क्या मैं पागल हूं ?” - रमाकांत आंखें निकालकर बोला ।
“तुम्हारा अपना क्या ख्याल है इस बारे में ?” - सुनील ने पूछा ।
“माईंयवा । जुलाहे दिया मस्खरियां, मां बहन नाल ।”
सुनील हंसा ।
“अच्छी बात है ।” - रमाकांत बोला । वह कमरे से बाहर निकला और और सीढियों की रेलिंग पर लटककर नीचे आवाज देता हुआ बोला - “चन्दन, चाय और आमलेट भिजवाना और पैसे सुनील साहब के नाम लिख देना ।”
“अबे, यह क्या कर रहा है ?” - सुनील हड़बड़ा कर बोला - “अरे मेहमान से पैसे वसूल कर रहा है ?”
रमाकांत वापिस अपनी कुर्सी पर आ बैठा और बड़े दार्शनिक स्वर से बोला - “दरअसल मैं पागल हो गया हूं ।”
सुनील ने एक सिगरेट सुलगा लिया और बोला - “जब अक्ल आ जाए तो बताना । फिर मैं तुम्हें किस्सा साढे तीन यार सुनाऊंगा ।”
और वह आराम से सिगरेट के कश लेने लगा ।
“कोई केस है प्यारयो ?” - रमाकांत एकदम चौकन्ना होकर बोला ।
“हां ।”
“कैसा ?”
“हत्या ।”
“किसकी ?”
“नगर के एक बहुत बड़े उद्योगपति के लड़के की ।”
“नाम ?”
“महेश कुमार ।”
“मैं जानता हूं उसे ।” - रमाकांत एकाएक दिलचस्पी लेता हुआ बोला - “किसने मारा उसे ?”
“पता नहीं ।”
“माजरा क्या है ?”
“पहले तुम्हारे होश ठिकाने आ जाएं, फिर सुनाऊंगा ।”
“होश ठिकाने हें, तुम शुरू हो जाओ ।”
“तो सुनो...”
“एक मिनट ठहरो ।”
सुनील रुक गया ।
रमाकान्त ने अपने गाउन की जेब में से चारमीनार का पैकेट निकालकर उसमें से एक सिगरेट सुलगाया और फिर सिगरेट के लम्बे लम्बे दो चार कश लेने के बाद बोला - “अब कहो ।”
“किस्सा यूं है...”
और सुनील ने उसे शुरू से आखिर तक सारी घटना कह सुनाई ।
“इससे तो ऐसा लगता है कि बेटी ने हत्या की है और मां उसे कवर करने की कोशिश कर रही है ।” - अन्त में रमाकांत बोला ।
“हां ।” - सुनील बोला - “मेरा अपना भी यही ख्याल है कि हत्या बेटी ने की है । लेकिन मां यह दावे के साथ कहती है कि बेटी ग्यारह बजे के करीब घर लौट आई थी फिर दुबारा कहीं नहीं गई थी । अगर मां अपनी इस बात पर अड़ी रही तो बेटी तो शायद बच जाए लेकिन मां फंस जाएंगी । क्योंकि मां और बेटी में से एक तो जरूर ही बारिश हो चुकने के बाद फिर महेश कुमार के काटेज पर गई है ।”
“और तफ्तीश प्रभूदयाल कर रहा है ?”
“हां । वह विशेष रूप से यहां से भेजा गया है ।”
“फिर तो वह मां बेटी को छोड़ेगा नहीं ।”
सुनील चुप रहा ।
“तुम मुझसे क्या चाहते हो ?”
“पुलिस ने मंजुला की कार के पास की झाड़ियों में से एक रिवाल्वर बरामद की है । तुम यह पता लगाने की कोशिश करो कि क्या हत्या उसी से हुई है ? अगर हां तो वह रिवाल्वर किसकी है ?”
“और ?”
“और यह कि हत्या किस समय हुई थी । प्रभूदयाल डाक्टर साथ लेकर गया था । लाश के टैम्प्रेचर से डाक्टर ने कोई गोलमोल आइडिया तो लगा ही लिया होगा ।”
“हो जाएगा ।”
“और ?”
“मैं मंजुला की कार के आसपास कदमों के निशान वगैरह देख ही रहा था तो प्रभूदयाल आ गया था इसलिए मुझे वहां से हट जाना पड़ा था । बहुत सम्भव है जल्दबाजी में कोई बात मेरी समझ में न आई हो । तुम यह जानने की कोशिश करो कि क्या प्रभूदयाल ने वहां कोई विशेष बात देखी है ?”
“और ?”
“और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम ऐसे सब लोगों की जानकारी हासिल करने की कोशिश करो जो महेश कुमार से उसके काटेज पर मिलने आते हैं । महेश कुमार के नौकरों और स्थानीय लोगों से इस विषय में काफी जानकारी हासिल की जा सकती है । मेरे ख्याल से ऐसे लोगों में शहर की नौजवान लड़कियों की तादाद ज्यादा होगी । प्रताप चन्द का कहना है कि महेश कुमार के पास शहर से बहुत लड़कियां आया करती थीं ।”
“और ?”
सुनील कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “चौदह, महात्मा गांधी रोड पर राजकुमार नामक एक वकील रहता है । वह मंजुला का मित्र है । तुम जानने की कोशिश करो कि वह कैसा आदमी है और मंजुला से उसके कैसे सम्बन्ध हैं ?”
“अच्छा । और कुछ ?”
“फिलहाल बस ।”
“अब एक मेरे सवाल का जवाब दो ।”
“पूछो ।”
“यह सब तुम किसके लिए कर रहे हो ?”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि मां बेटी से किसी ने तुम से सहायता की मांग की है ?”
“नहीं, नहीं । मैं किसी व्यक्ति विशेष की खातिर इस केस में दिलचस्पी नहीं ले रहा हूं । मैं जो कुछ कर रहा हूं, अपने अखबार के लिए कर रहा हूं ।”
“सच कह रहे हो ?” - रमाकांत संदिग्ध स्वर से बोला ।
“हां ।”
“यानी कि नगदऊ का कोई चक्कर नहीं ?”
“कतई कोई चक्कर नहीं ।”
“फिर तो लानत है तुम पर ।”
उसी क्षण वेटर ट्रे लेकर कमरे में प्रविष्ट हुआ ।
***
मंजुला परेशान थी ।
वह 14, महात्मा गांधी रोड पर स्थित राजकुमार के छोटे से फ्लैट में बैठी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी ।
वह ग्यारह बजे ही राजकुमार के फ्लैट पर पहुंच गई थी । राजकुमार ने उसे अपने फ्लैट की चाबी दे रखी थी, इसलिए वह भीतर आ बैठी थी । चार बजने को थे लेकिन अभी तक राजकुमार वापिस नहीं लौटा था ।
राजनगर पहुंचने के बाद वह एक चक्कर कचहरी का भी लगा आई थी लेकिन राजकुमार उसे वहां भी दिखाई नहीं दिया था ।
उसकी दृष्टि भटकती हुई फिर सामने मेज की बगल में रखे छोटे से अटैची केस पर जा पड़ी और वह सोचने लगी - अन्धेरा हो जाये और फिर मैं समुद्र के किसी सुनसान किनारे पर चली जाऊंगी और...
उसी क्षण फ्लैट का द्वार खुला और दो सिपाहियों के साथ इंस्पेक्टर प्रभूदयाल भीतर प्रविष्ट हुआ ।
मंजुला घबराकर उठ खड़ी हुई ।
फिर सिपाहियों के पीछे उसे राजकुमार भी दिखाई दिया ।
मंजुला की जान में जान आई ।
“बैठिये, इंस्पेक्टर साहब ।” - राजकुमार बोला ।
प्रभूदयाल एक कुर्सी पर बैठ गया । मंजुला भी बैठ गई ।
सिपाही खड़े रहे ।
“मंजुला ।” - राजकुमार भी बैठता हुआ बोला - “ये इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल हैं । ये मुझे रास्ते में मिल गए थे । इन्होंने मुझे बताया था कि तुम यहां आई हो । मुझे महेश कुमार की हत्या का पता लगा है । इन्स्पेक्टर साहब उसी केस की तफ्तीश कर रहे हैं ।”
मंजुला ने मुस्कराते हुए सिर हिलाया लेकिन मुंह से कुछ नहीं बोली ।
“मंजुला जी ।” - प्रभूदयाल वार्ता का सूत्र अपने हाथ में लेता हुआ बोला - “अगर आप इजाजत दें तो मैं आप से कुछ प्रश्न पूछूं ।”
“पूछिये ।” - मंजुला बोली ।
“मैं काफी जानकारी पार्वती देवी जी से हासिल कर चुका हूं इसलिए मैं आप से वही प्रश्न पूछूंगा जो बहुत महत्वपूर्ण हैं ।”
“पूछिये जी ।”
“आपकी मम्मी के कथनानुसार आप रात को ग्यारह बजे घर लौट आई थीं, क्या यह सच है ?”
“जी हां ।”
“उसके बाद आप दुबारा महेश कुमार के काटेज पर नहीं गई थीं ?”
“नहीं ।”
“और आपकी मम्मी ?”
“वे भी नहीं ।”
“श्योर ?”
“श्योर ।”
“लेकिन आप तो आते ही सो गई थीं । आपको क्या मालूम पार्वती देवी आपके सो जाने के बाद कहीं गई थीं या नहीं ?”
मंजुला चुप हो गई ।
“शायद आप यह कहना चाहती थीं कि आपका अनुमान है कि पार्वती देवी कहीं नहीं गई थीं ।” - प्रभूदयाल मीठे स्वर से बोला ।
मंजुला ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“देखिये, मंजुला जी” - प्रभू बोला - “अब मैं आपको कुछ तथ्य बताता हूं जो तफ्तीश के दौरान मेरे सामने आये हैं । पिछली रात को बारिश हो चुकने के बाद शायद आप महेश कुमार के काटेज से कार पर रवाना हुईं । रास्ते में आपकी कार पंक्चर हो गई । आप कार से उतर गई और उसके बाद आप पैदल घर चली आईं ठीक है ?”
“जी हां ।”
“लेकिन कदमों के निशान जाहिर करते हैं कि कार पंक्चर हो जाने के बाद आप फिर महेश कुमार के काटेज तक वापिस गईं, फिर वहां से लौटकर कार तक आईं, और फिर अपने काटेज की ओर चल दीं ।”
“लेकिन मैं दुबारा लौटकर महेश कुमार के काटेज की ओर नहीं गई ।” - मंजुला विरोधपूर्ण स्वर से बोली - “आपका अनुमान निराधार है ।”
“मान लिया ।” - प्रभू बोला - “अब दूसरी बात सुनिये । जनाने जूतों के निशान हमें झील के किनारे-किनारे आपके और महेश कुमार के काटेज के बीच में फैली पगडण्डी पर मिले हैं । क्या आप अपने काटेज पर पहुंचने के बाद पगडण्डी के रास्ते दुबारा महेश कुमार के काटेज पर गई थीं ?”
“नहीं इन्स्पेक्टर साहब, मैं आपको पहले ही बता चुकी हूं कि मैं एक बार अपने काटेज पर पहुंचने के बाद दुबारा कहीं नहीं गई । रास्ते का सवाल ही नहीं है ।”
“तो फिर आपके सो जाने के बाद आपकी मम्मी चुपचाप महेश कुमार के काटेज पर गई होंगी । फिर वे काटेज से आपकी कार तक आई होंगी और वापिस काटेज पर गई होंगी और अन्त में फिर झील के रास्ते अपने काटेज पर लौट आई होंगी ।”
मंजुला चुप रही ।
“क्या यह सम्भव हो सकता है ?”
“मुझे क्या मालूम ?”
“आप सोचिए तो ।”
“मेरे ख्याल से ऐसा सम्भव नहीं । अगर मम्मी रात को महेश कुमार के काटेज गई होतीं तो वे इस तथ्य को छुपाती नहीं ।”
“आल राइट ।” - प्रभूदयाल बोला - “अब जरा यह देखिये ।”
और प्रभूदयाल ने एक 38 कैलीबर की रिवाल्वर निकाल कर मेज पर रख दी ।
रिवाल्वर पर नजर पड़ते ही राजकुमार चौंक पड़ा ।
“यह रिवाल्वर ।” - वह बोला - “यह रिवाल्वर आपके पास कैसे पहुंची ?”
“आप पहचानते हैं इसे ?” - प्रभूदयाल उसे घूरकर बोला ।
“क्यों नहीं ।” - राजकुमार बोला - “यह रिवाल्वर मेरी है ।”
“आपकी ?”
“जी हां । मैंने यह रिवाल्वर मंजुला को दी थी । मैं मंजुला को शूटिंग सिखा रहा था और प्रैक्टिस के लिए मैं रिवाल्वर मंजुला को दे आया था ।”
“यह रिवाल्वर आपके अधिकार में थी ?” - प्रभूदयाल ने मंजुला से पूछा ।
“हां ।” - मंजुला बोली ।
“आखिरी बार आपने इसे कहां रखा था ?”
“अपनी कार के डैशबोर्ड में बने कम्पार्टमेंट में ।”
“कार को सड़क पर छोड़ने के बाद आप रिवाल्वर वहां से निकाल लाई थीं ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“मुझे ख्याल ही नहीं आया था । आप यह रिवाल्वर मेरी कार में से क्यों निकाल लाए ?”
“मंजुला जी ।” - प्रभूदयाल एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला - “हम यह रिवाल्वर आपकी कार में से निकाल कर नहीं लाये हैं । यह रिवाल्वर हमें आपकी कार से लगभग पन्द्रह गज दूर सड़क से नीचे झाड़ियों में पड़ी मिली है, और आपकी जानकारी के लिये, बैलेस्टिक एक्सपर्ट की रिपोर्ट के अनुसार इसी रिवाल्वर की गोली से महेश कुमार की हत्या हुई है ।”
मंजुला का चेहरा राख की तरह सफेद पड़ गया ।
“आपकी मम्मी को मालूम था कि आपने रिवाल्वर कार में रखी हुई है ?”
मंजुला चुप रही ।
“जवाब दीजिए ।”
“हां ।” - मंजुला कठिन स्वर में बोली ।
“आप दोनों के अतिरिक्त किसी और को मालूम था कि रिवाल्वर कार में है ।”
मंजुला ने एक उड़ती सी दृष्टि राजकुमार पर डाली ।
प्रभूदयाल ने मंजुला की दृष्टि का अनुसरण किया । लेकिन प्रभूदयाल के जबान खोलने से पहले राजकुमार बोल पड़ा - “मुझे मालूम था ।”
“आप पिछली रात को कहां थे ?”
“यहीं अपने फ्लैट में था, और कहां था ।”
“आप यह सिद्ध कर सकते हैं कि आप पिछली रात को अपने फ्लैट पर ही थे, कहीं गए नहीं थे ?”
“आप कहना क्या चाह रहे हैं, इन्स्पेक्टर साहब ।” - राजकुमार हैरानी से बोला - “आपके ख्याल से कत्ल मैंने किया है ?”
“मेरा कोई ख्याल नहीं है और अगर होगा भी तो आपको बताऊंगा नहीं । मैं फिलहाल केवल तफ्तीश कर रहा हूं । मैंने आपसे एक सवाल किया है और उसके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं ।”
“नहीं साहब ।” - राजकुमार उखड़ कर बोला - “मैं यह सिद्ध नहीं कर सकता कि कल रात मैं अपने फ्लैट में था । मैं रात को सोते समय बैड में अपने साथ कोई गवाही लेकर तो जाता नहीं हूं । एक अकेला रहने वाला आदमी, चाहे वह कोई भी हो, इस प्रकार की शहादतें पेश नहीं कर सकता है ।”
“आपके पास कार है ?”
“जी हां, है ।”
“आपके मंजुला के कैसे सम्बन्ध हैं ?”
“क्या मतलब ?”
“मंजुला के पास आपके फ्लैट की चाबी थी जिससे जाहिर होता है कि आप लोगों के सम्बन्ध मित्रता के हद से काफी आगे बढ चुके हैं ।”
“हम दोनों शादी करने वाले हैं ।” - राजकुमार धीमे स्वर से बोला ।
“फिर तो आपको मंजुला का महेश कुमार के काटेज पर आधी रात तक रहना अच्छा नहीं लगता होगा ।”
“अच्छा साहब, नहीं लगता । तो इसका मतलब यह थोड़े ही है कि मैं जाकर महेश कुमार का खून कर दूं ।”
“सम्भावना तो होती ही है, साहब ।” - प्रभूदयाल लापरवाही से बोला - “हमारा काम तो हर सम्भावना पर विचार करना है ।”
राजकुमार चुप हो गया ।
एकाएक प्रभूदयाल की नजर मेज की बगल में पड़े छोटे से अटैची केस पर पड़ी ।
“यह अटैची केस आपका है ?” - उसने राजकुमार से पूछा ।
“नहीं ।” - राजकुमार बोला ।
“मेरा है ।” - मंजुला ने उत्तर दिया ।
“आप क्या यहां रहने के लिए आई हैं ?” - प्रभूदयाल हैरानी से बोला ।
“नहीं... हां । हां ।” - मंजुला हड़बड़ा कर बोली ।
“आप राजकुमार के फ्लैट में इस प्रकार अकेली रह जाती हैं ?”
मंजुला चुप रही ।
राजकुमार आश्चर्य से मंजुला का मुंह देख रहा ता । शायद उसे भी मंजुला से ऐसी बात सुनने की आशा नहीं थी ।
प्रभूदयाल कुछ क्षण अटैची को घूरता रहा और फिर मंजुला से बोला - “जरा खोलिये इसे ।”
“क्यों ?” - मंजुला घबराहट भरे स्वर से बोली ।
“मैं देखना चाहता हूं, इसके भीतर क्या है ?”
“इसमें मेरी निजी वस्तुएं हैं ।”
“फिर क्या हुआ ?”
“मैं आपको अपनी निजी वस्तुएं नहीं दिखाना चाहती ।”
“क्यों ?”
“आपको यूं मेरा सामान टटोलने का कोई हक नहीं है ।”
“देखिये ।” - प्रभूदयाल बोला - “आपकी आनाकानी तो मेरा सन्देह बढाये जा रही है । अगर इस अटैची में केवल आपकी निजी वस्तुओं के अतिरिक्त कोई सन्देहास्पद चीज नहीं है तो आपको इसे खोलने में क्या ऐतराज है ।”
“नहीं । आप इसे हाथ मत लगाइये ।” - मंजुला बोली और उठकर अटैची की ओर बढी ।
लेकिन प्रभूदयाल ने पहले ही झपट कर अटैची उठा ली ।
“अटैची मुझे दीजिये ।” - मंजुला प्रभूदयाल की ओर बढी ।
“मिस मंजुला ।” - प्रभूदयाल कठोर स्वर में बोला - “आप जहां हैं वहीं खड़ी रहिये ।”
मंजुला रुक गई ।
प्रभूदयाल ने देखा अटैची का ताला बन्द था ।
“चाबी दीजिए ।” - वह मंजुला से बोला ।
“चाबी नहीं है मेरे पास ।” - मंजुला ने उत्तर दिया ।
“आल राइट ।” - प्रभूदयाल बोला । उसने अपनी जेब से एक चाबी का गुच्छा निकाला । गुच्छे में एक अटैची की चाबी भी थी ।
“सब अटैचियों की चाबियां एक जैसी ही होती हैं । देखें आपकी अटैची इससे खुलती है या नहीं ।” - प्रभूदयाल अटैची की चाबी अपने हाथ में लेता हुआ बोला ।
“लेकिन, इंस्पेक्टर साहब ।” - राजकुमार विरोधपूर्ण स्वर से बोला - “आप इस प्रकार किसी दूसरे की अटैची कैसे खोल सकते हैं ?”
“मुझे कानून मत पढाइये ।”
“मैं आपकी रिपोर्ट करूंगा ।” - राजकुमार ने धमकी दी ।
“पड़े करते रहिये ।” - प्रभूदयाल बोला - “फिलहाल एक मिनट के लिए चुप कीजिये ।”
प्रभूदयाल ने अटैची खोल ली ।
अटैची के भीतर एक तौलिए में लिपटे हुए जनाने जूते थे । प्रभूदयाल ने एक सिरे से पकड़ कर दोनों जूते बाहर निकाल लिए । जूतों के तलों में सूखा हुआ कीचड़ लगा हुआ था । एक जूते में प्रभूदयाल को कुछ हिलता हुआ महसूस हुआ । प्रभूदयाल ने उस जूते को हल्का सा झटका दिया और एक टूटा हुआ कम्पैक्ट बाहर आ गया ।
“देयर यू आर ।” - प्रभूदयाल सन्तुष्टि पूर्ण स्वर से बोला ।
कोई कुछ नहीं बोला ।
“अब भी आप मेरी रिपोर्ट करना चाहते हैं ?”- प्रभूदयाल ने व्यंग्यपूर्ण स्वर से राजकुमार से कहा ।
राजकुमार चुप रहा ।
“यह कम्पैक्ट आपका है ?”
मंजुला ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
प्रभू ने कम्पैक्ट खोला । भीतर ढक्कन में लगा हुआ शीशा टूटा हुआ था और गोलाई में से शीशे के कर्ई टुकड़े गायब थे । प्रभूदयाल ने अपनी जेब में से एक लिफाफा निकाला । लिफाफे में शीशे के कुछ टुकड़े थे । प्रभूदयाल ने सावधानी से एक-एक टुकड़ा उठा कर कम्पैक्ट के शीशे के टुटे हुए भागों से मैच करना आरम्भ कर दिया । थोड़ी ही देर में उसने लिफाफे के सारे टुकड़े कम्पैक्ट के ढक्कन में लगा दिये और ढक्कन में पूरा शीशा बनकर तैयार हो गया ।
प्रभूदयाल ने सन्तुष्टि पूर्वक ढंग से सिर हिलाया और बोला - “जो शीशे के टुकड़े मैंने लिफाफे में से निकाले हैं, वे हमने महेश कुमार के काटेज में फैले कांच और बड़े शीशे के ढेर में से चुने हैं ।”
“इससे आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं ?” - राजकुमार बोला ।
“इससे मैं सिद्ध करना चाहता हूं कि यह कम्पैक्ट हत्या के समय टूटा है और उस समय मंजुला महेश कुमार के काटेज में थी ।”
“वाह साहब, यह क्या दलील हुई । सम्भव है कोई दूसरा आदमी केवल मंजुला को फंसाने के लिए कम्पैक्ट वहां फेंक आया हो ।”
“मान लिया” - प्रभूदयाल बोला - “फिर इस टूटे हुए कम्पैक्ट को वहां से उठा कर कौन लाया ? हमें तो यह मंजुला के अधिकार में मिला है और ये कहती हैं कि वे दुबारा महेश कुमार के काटेज पर गई नहीं ।”
राजकुमार चुप हो गया ।
“ये जूते आपके हैं ?” - प्रभू मंजुला को जूते दिखाता हुआ बोला - “देखिये झूठ न बोलियेगा नहीं तो आपके लिए यह बताना और भी मुश्किल हो जायेगा कि ये जूते आपकी अटैची में कैसे आये ?”
“ये जूते मम्मी के हैं ।” - मंजुला मरे स्वर से बोली ।
“आप जरा पहनिये इन्हें ।”
“पहनने की जरूरत नहीं ।” - मंजुला बोली - “मेरे और मम्मी के जूतों का एक ही साइज है । ये जूते मुझे फिट आयेंगे ।”
“क्या आप सुबह सवेरे इसलिए राजनगर से यहां आई थीं कि आप जूतों को और कम्पैक्ट को कहीं ठिकाने लगा दें ताकि ये पुलिस के हाथ न आ पायें ।”
मंजुला ने उत्तर नहीं दिया ।
उसी क्षण प्रभूदयाल की दृष्टि राजकुमार के पैरों पर पड़ी ।
“आपके पांव बहुत छोटे हैं, साहब ।” - प्रभूदयाल बोला ।
“जी !” - राजकुमार घबरा गया ।
“मैंने कहा आपके पांव बहुत छोटे हैं ।”
“जी हां, जी हां ।”
“मेरे ख्याल से तो यह जूते आपको भी फिट आ जायेंगे ।”
“सम्भव है ।” - राजकुमार लापरवाही से बोला ।
“जरा पहनिये तो ।”
“आप मजाक कर रहे हैं ?”
“मजाक नहीं । मैं आपसे प्रार्थना कर रहा हूं कि आप जरा ये जूते पहन लीजिये ।”
“मैं नहीं पहनूंगा ।”
“आपको क्या एतराज है ?”
“एतराज कुछ नहीं है लेकिन बेवकूफी भरी हरकतें मुझे पसन्द नहीं है ।”
“आल राइट, सर ।” - प्रभूदयाल हथियार डालता हुआ बोला - “मत पहनिये । लेकिन मैं अन्धा नहीं हूं । मेरा दावा है कि अगर आप ये जूते पहनें तो ऐसा लगेगा जैसे ये आप ही के लिए बने हों ।”
“आप अपने दावे अपने पास ही रखिये ।” - राजकुमार चिढकर बोला ।
“बेहतर ।” - प्रभू बोला और उठा खड़ा हुआ - “मैं जा रहा हूं, मंजुला जी लेकिन पहली बार की तरह आप बिना पूर्व सूचना के कहीं गायब मत हो जाइयेगा । आप महेश कुमार की हत्या के सन्देह से बरी नहीं हैं ।”
और प्रभूदयाल अपने सिपाहियों के साथ फ्लैट से बाहर निकल गया ।
प्रभूदयाल के दृष्टि से ओझल होते ही मंजुला ने राजकुमार की बांह पकड़ ली और कांपते स्वर में बोली - “राज ! अब तो मुझे विश्वास होने लगा है कि मम्मी ने ही महेश कुमार की हत्या की है !”
“क्या कह रही हो ?” - राजकुमार अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“हां, राज ! हर बात यही जाहिर कर रही है ।”
“तुम जूते अपनी मम्मी के कहने पर लाई थी ?” - राजकुमार ने पूछा ।
“नहीं, जूते मैं अपनी मर्जी से लाई थी । मम्मी जब रात को महेश कुमार के काटेज से लौटी थीं मुझे तभी सन्देह होने लगा था कि मम्मी ने ही कोई गड़बड़ की है । हालांकि उस समय तो वे मुझसे पूछ रही थीं कि कहीं मैंने तो महेश कुमार की हत्या नहीं की । उस समय उन्होंने इस बात का ख्याल नहीं किया था कि बारिश हो जाने के कारण सड़क पर मिट्टी फैली होगी और उसमें पैरों के निशान साफ दिखाई देंगे । मैंने तो मम्मी की थोड़ी सी सहायता करने के इरादे ये यह सोचा था कि मैं जूते ले जाकर समुद्र में फेंक दूं । ताकि ये सिद्ध न हो सके कि पगडण्डी पर फैले हुए जूतों के निशान मम्मी के हैं ।”
“तुमने भारी गलती की ।” - राजकुमार चिन्तित स्वर से बोला - “तुमने पुलिस के सन्देह का रुख अपनी ओर मोड़ लिया ।”
“फिर भी कोई हर्ज नहीं है ।” - मंजुला बोली - “अगर मम्मी ने सत्य ही महेश कुमार की हत्या की है तो मेरे ही लिए की है । ऐसी सूरत में मैं यह कैसे देख सकती हूं कि मम्मी पर कोई आंच आये ।”
“एक बात बताओ ।” - राजकुमार उसके नेत्रों में झांकता हुआ बोला ।
“क्या ?”
“क्या तुम वाकई ग्यारह बजे घर वापिस आ गई थीं ?”
“नहीं ।” - मंजुला गम्भीर स्वर में बोली - “मेरे ख्याल से मैं डेढ बजे के बाद ही घर पहुंची थी । उस समय मम्मी घर में नहीं थी । मेरे घर पहुंच जाने के काफी देर बाद मम्मी वापिस लौटी थी । मम्मी ने ही मुझे बताया था कि महेश कुमार की हत्या हो गई है और वे वहां से ऐसे सब सूत्र हटा आई हैं जिससे यह जाहिर होता था कि मैं वहां मौजूद थी । मम्मी कहती थीं कि मैं पूछे जाने पर यह कह दूं कि मैं महेश कुमार के काटेज में गई ही नहीं । यह तो अच्छा हुआ मैंने यह नहीं कहा नहीं तो झूठ फौरन पकड़ा जाता । मैंने सबको यही बताया है कि मैं ग्यारह बजे लौट आई थी ।”
राजकुमार विचारपूर्ण मुद्रा बनाये खड़ा रहा ।
“मैं तो महेश कुमार के चंगुल से छूट कर कार में बैठी थी और वहां से चल दी थी । रास्ते में पंक्चर हो जाने के बाद मैं कार वहीं छोड़कर पैदल घर आ गर्ई थी । मेरे कथन की सत्यता सिद्ध करने के लिए सड़क पर मेरी कार के और मेरे कदमों के निशान मौजूद हैं । मेरे ख्याल से तो मम्मी पगडण्डी के रास्ते वहां गई थी । वहां शायद महेश कुमार ने मेरे बारे में कोई गन्दी बातें कह दीं । मम्मी को क्रोध आ गया । उन्होंने दूर सड़क पर मेरी कार खड़ी देखी । उन्हें मालूम था कार में रिवाल्वर है । मम्मी कार तक आई, रिवाल्वर निकाला और वापिस जा कर महेश कुमार को शूट कर दिया और फिर रिवाल्वर को झाड़ियों में फेंक कर पगडण्डी के रास्ते ही वापिस आ गई ।”
“लेकिन महेश कुमार ने तुम्हारी मम्मी को आखिर ऐसी कौन सी बात कह दी होगी जिसके कारण हत्या की नौबत आ गई ।”
“भगवान जाने ।”
राजकुमार चुप रहा ।
“अब हम लोग क्या करें, राज ?”
“फिलहाल तो चुप रहो । इन्सपेक्टर के व्यवहार से लगता है कि वह तुम दोनों पर ही सन्देह कर रहा है लेकिन फिलहाल वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा है कि हत्या मां ने की या बेटी ने, इसलिए तुम्हारे विरुद्ध इतनी बात सिद्ध कर देने के बावजूद भी उसने तुम्हें गिरफ्तार नहीं किया है । मेरे ख्याल से तो फिलहाल चुप ही रहा जाए । जब मौका आयेगा तो कुछ करेंगे ।”
मंजुला ने धीरे से सिर हिलाकर सहमति प्रकट कर दी ।
0 Comments