प्रस्तावना
हम हर दिन एक नई कहानी जीते हैं या यूँ कहें कि हम हर दिन ज़िंदगी की किताब में किसी-न-किसी कहानी में कोई-न-कोई किरदार निभा रहे होते हैं। जब लेखक की क़लम से होते हुए ये कहानियाँ काग़ज़ पर आती हैं तो इनके मायने बदल जाते हैं क्योंकि फिर ये अपने साथ-साथ पाठकों को भी अपने अब तक के उस अनकहे एहसास में जीने को मजबूर कर देती हैं। फिर वही एहसास कहानी को जीवंत बना देते हैं।
लेखक की क़लम से काग़ज़ पर उतर जाने तक का कहानी के सफ़र आसान नहीं होता। कुछ की तो ज़िंदगी गुज़र जाती है और फिर भी सफ़र अधूरा ही रह जाता है। हर कहानी का अपना एक सच होता है जो पूरे सफ़र में लेखक को बार-बार कल्पनाओं के सागर में ग़ोते लगाने में बाधा बनता है। दूसरी ओर वही सच लेखक को कहानी की मंज़िल तक पहुँच जाने के लिए बाध्य भी करता है। लेखक का कहानी के इस सच से रिश्ता इतना गहरा होता है जो लेखक को अपने साथ हर पल जीने को मजबूर कर देता है। उठते-गिरते, सँभलते जब एक लंबे संघर्ष के बाद लेखक अपना ये रिश्ता शब्दों में पिरोकर पाठक को सौंप देता है तो फिर कहानी और लेखक के बीच का वो सच का रिश्ता एक साथ कई दिलों में धड़कने लगता है। वो कहानी एक साथ कई जीवन जीने लगती है और वही लेखक के लिए विजयी पल होता है।
‘इश्क़ एक्सप्रेस’ का सच मुझ पर कुछ ज़्यादा ही हावी रहा और अभी भी है। सफ़र इतना लंबा रहा कि आप तक पहुँचने में कुछ आठ साल तो लग ही गए। कहानी का एक सच मातृभूमि और मातृभाषा से भी जुड़ा है। मैंने न जाने क्यों इस कहानी को पहले अँग्रेज़ी में लिखा लेकिन एक बोझ हमेशा रहा और तब से लेकर अब तक यह कहानी मुझे अपने असली रूप, अपनी मातृभाषा से सरोकार कर लेने के लिए बाध्य करती रही। आख़िर कहानी के सच की जीत हुई और मैंने एक बार फिर इस कहानी को इसकी जड़ों से लेकर सिरे तक मातृभाषा के साथ जीने की कोशिश की है। पता नहीं इतना खुलकर मुझे यहाँ लिखना चाहिए या नहीं, लेकिन आज एक बोझ से मैं मुक्त हो गया हूँ। सच तो यही है कि इस कहानी को हिंदी में लिखते हुए मैंने दुबारा से इस भावनाओं के उमड़ते हुए सागर को घूँट-घूँट करके पिया है, हर पल को फिर से जिया है।
अब तक की लेखन यात्रा में बहुत से पाठकों ने मुझसे कई बार यह सवाल किया कि क्या यह उपन्यास सत्य घटना पर आधारित है? मैं इस सवाल का कभी सटीक जवाब तो नहीं देता लेकिन इस सवाल से इतना तो तय हो ही जाता है कि पाठक कहानी के कितना क़रीब पहुँचकर उसे जी पाया है। शायद अब आप लेखक की क़लम और कहानी के सच के बीच के संघर्ष को समझ ही गए होंगे।
आख़िर में आपके और कहानी के बीच नहीं आकार बस इतना ही कहूँगा कि आप कहानी को जी भर जी लेने के लिए तैयार रहिए। कहानी को जी लेने का आपका जो धुंधला-सा विश्वास होगा, वही आपको कहानी के सच तक ज़रूर ले जाएगा। और अगर कहानी को नहीं जी पाए तो कोई बात नहीं, कम-से-कम कहानी को जी लेने की ललक आपको एक और नई कहानी को जी लेने का रास्ता तो दिखा ही देगी।
लेखक कितनी ही कोशिश कर ले, कहानी का सच उसे एक मुक़ाम तक पहुँचा ही देता है। लेकिन कभी-कभी कुछ कहानियाँ अपने आप में इतना कुछ समेटे होती हैं कि कुछ पन्नों में समेटने में लेखक असफल ही रहता है। इश्क़ एक्सप्रेस भी एक ऐसी ही कहानी है। कोशिश करूँगा कि जल्द ही कहानी के अगले पड़ाव पर एक नये एहसास के साथ आपको मिलूँ और कहानी की उमड़ती हुई भावनाओं को पाठकों के साथ बाँटकर फिर से जी लूँ। बाक़ी लगने वाला समय तो लेखक की क़लम और कहानी के सच के बीच होने वाला युद्ध ही तय कर पाएगा।
उम्मीद करता हूँ कि इश्क़ एक्सप्रेस को पढ़ते हुए आपको भावनाओं के सागर में ग़ोते लगाने का मौक़ा ज़रूर मिलेगा, जो आपको सच के साथ-साथ, निश्चित ही कहानी में अपनी ख़ुद की परछाई ढूँढने को भी बाध्य कर देगा।
राइज़ ऑफ़ ए पंतनगरियन
अगस्त 2004
सुबह के पाँच बजे थे। रानीखेत एक्सप्रेस समय से चल रही थी और हल्दीरोड रेलवे स्टेशन पहुँचने वाली थी। हरियाली से भरा यह कैम्पस पंतनगर विश्वविद्यालय का था, जिसको हम भारत में हरित क्रांति की जननी के रूप में जानते हैं। किसी समय पंतनगर विश्वविद्यालय ने ही देश को खाद्यान्न संकट से उबारा था। यहाँ की बदौलत ही धान और गेहूँ की उपज बढ़ी थी और खेतों में फ़सल लहलहाने लगी थी तथा यहाँ की शिक्षा और शोध का स्तर बहुचर्चित हो गया था। इन्हीं बातों से प्रेरित होकर राजस्थान के एक होनहार विद्यार्थी ने पंतनगर विश्वविद्यालय से स्नातक करने को अपना ध्येय बनाया और अपने सपनों को पाने के दृढ़-निश्चय और आत्मविश्वास ने उसे हल्दीरोड तक पहुँचा दिया। ट्रेन रुकी और प्लेटफ़ॉर्म पर उसका स्वागत टूटे बहते नल ने किया जिसे ठीक करने का प्रयास रेलवे के ही दो लोग कर रहे थे, और एक अफ़सर-सा दिखने वाला व्यक्ति उनसे कुछ कह रहा था। प्लेटफ़ॉर्म पर इक्के-दुक्के लोग ही आते-जाते दिख रहे थे। ट्रेन के डिब्बों के दरवाज़े सभी के पहले उतरने की कोशिश को महसूस करने लगे। धक्कम-धक्का मचने लगी। टीटीई अपना काला कोट, लाल टाई और काग़ज़ इत्यादि सँभालता हुआ पहले ही आगे बढ़ चला था। स्टेशन पर आमदरफ़्त अचानक बढ़ी और फिर धीरे-धीरे कम हो चली। राजस्थान से आया वह होनहार विद्यार्थी, पलाश अपनी एक अटैची और कंधे पर बैग के साथ उतरा और एक क्षण को चुपचाप खड़ा रहा, फिर कुछ सोचता हुआ-सा आगे चल पड़ा। यह पहला मौक़ा था जब उसने अपने भविष्य की ओर पहला क़दम रखा था। हल्दीरोड स्टेशन पंतनगर विश्वविद्यालय के कैम्पस से लगा हुआ है जो कि उत्तराखंड की तराई में स्थित है। उसके स्वागत के लिए सुबह की ठंड ने कोहरे के साथ मौसम को रूमानी बना दिया था। बाहर निकलते हुए गेट पर उसने टीटीई को अपना टिकट दिखाया और बाहर निकल आया।
रिक्शे और साइकिल की ट्रिंग-ट्रिंग के बीच चलते हुए उसकी नज़र एक बस पर पड़ती है, जिस पर लिखा होता है ‘पंतनगर शटल’। बस ड्राइवर उतरकर सामने चाय पीने चला गया था। बस-कंडक्टर कुछ पाँच-सात नवयुवकों को समझाने में लगा था कि अभी इन बच्चों को कॉलेज में प्रवेश तो ले लेने दो। कुछ देर आपस में बात करने के बाद वे बच्चे भी उसी बस में चढ़ गए। उनके पीछे-पीछे पलाश भी बस की सीढ़ियाँ चढ़ता है और पाता है कि प्राय: सभी बच्चों के साथ उनके अभिभावक भी बैठे हैं, और वह मन-ही-मन सोचता है कि शायद वही एकमात्र है जिसने अपने सपनों को पाने का अकेले साहस किया है। वह मन के सवालों और चेहरे के भावों को छिपाते हुए कंडक्टर से पूछता है, “भैया! गेस्ट हाउस तो जाएगी ना बस?”
इसी बीच ड्राइवर आकर अपनी सीट पर बैठ जाता है और बस स्टार्ट कर देता है। कंडक्टर की अभ्यस्त आँखें पलाश के आत्मविश्वास को तुरंत ही पहचानते हुए बस ड्राइवर को रुकने का इशारा करती हैं और वह ज़ोर से बोलता है, “रोक के भैया, रोक के! सवारी सामान चढ़ा रही है, रोक के!”
थोड़ी देर में भारतीय बसों में बस की बाहरी सतह को थपथपाते हुए ‘चलो भाई चलो’ की चिरपरिचित एवं प्रचलित आवाज़ सुनाई पड़ती है और बस अपने गंतव्य की ओर चल पड़ती है। घर से 500 किलोमीटर से भी ज़्यादा की दूरी पर पलाश की यह पहली जीत थी। अब बस में पीछे की सीट पर बैठे पलाश का ध्यान कैम्पस की हरियाली पर केंद्रित था, इससे अनजान कि आने वाला समय-चक्र इस स्टेशन से लगभग हर हफ़्ते उसकी मुलाक़ात करवाता रहेगा। बाहर का माहौल मनोहारी था, अद्भुत था, और तो और उसके लिए सूखे रेगिस्तान की अपेक्षा अपने आप में एक चमत्कार ही था। पहली बार उसने हिमालय की तराई में क़दम रखा था। हरियाली के बीच से होती हुई बस हॉस्टल लाइन की ओर भागी जा रही थी। साल, गुलमोहर और पलाश के वृक्षों से गुज़रती हुई बस ऐसी दिख रही थी मानो पंतनगर ने उसे गले लगा लिया हो, और हो भी क्यों न, जो बच्चा अपने परिवार को छोड़ पंतनगर आना चुनता है, पंतनगर उन्हें अवश्य ही अपनाता है, आश्रय देता है और विश्व पटल पर कार्य करने एवं सफलता प्राप्त करने की ताक़त भी देता है। गेस्ट हाउस पर बस रुकी। अधिकतर लोग उतरे, पलाश भी उतरा और अचानक मन में ख़याल आया कि उसके अगले चार साल इसी हरियाली में बीतने वाले हैं।
गेस्ट-हाउस पर उतरे सभी बच्चे प्रवेश की काउंसलिंग की राह के राही ठहरे। सभी अपरिचित। दिन भर काउंसलिंग, प्रवेश और एक हफ़्ते बाद पढ़ाई शुरू होने की सूचना का क्रम चलता रहा और रात हो आई। पलाश ने पंतनगर विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्चर में प्रवेश लिया।
अधिकतर बच्चे उत्तराखंड के ही रहने वाले थे और कुछ दिन के लिए घर लौट गए, पर पलाश का घर दूर था और आज पास के बच्चों को घर जाता देख उसे अपने घर और अपने शहर जयपुर की याद हो आई जहाँ उसने अब तक की पढ़ाई की थी। उसे नेहरू हॉस्टल मिला था। इस हॉस्टल के हर कमरे में तीन छात्र, तीन खिड़कियाँ, तीन मेज़ें, तीन कुर्सियाँ, तीन लाइट्स, पर एक पंखा और एक दरवाज़ा था। ग़ज़ब की व्यवस्था, जिसे कोई भूल ही नहीं सकता। हॉस्टल की इस अद्भुत व्यवस्था ने पंतनगर में आगामी दिनों के लिए उसे अपनी स्वीकृति दर्ज कराने का मौक़ा तो दिया ही, साथ-ही-साथ एक ही कमरे में तीन लोगों के रहने की व्यवस्था ने तालमेल बैठाना भी सिखा दिया था।
कुछ तीन-चार दिनों में उसके बाक़ी दो रूम-मेट भी आ गए। बहुत ही सोच-समझकर और त्वरित निर्णय लेना तथा कुछ सीमित लोगों से ही निकटता बढ़ाना उसका स्वभाव था, पर वह सबके साथ मेलजोल रखने वाला हँसमुख स्वभाव का धनी था। रूम-मेट्स से परिचय के बाद जाने-अनजाने मित्रता ने आकार लेना शुरू कर दिया। क्लास शुरू होते ही हॉस्टल का माहौल पहले दिन तो नहीं पर दूसरे दिन से जीवंत-सा हो उठा था और साल भर तक इन्हीं बच्चों से इसी तरह गुलज़ार रहा।
हॉस्टलर्स बहुत देर से सोते, आपस में बातचीत करने का रात को ही तो समय मिलता। कभी-कभी बातचीत में सुबह ही हो जाती। अहाहा! न भुलाई जाने वाली बातों का सिलसिला! उनका मज़ा ही कुछ अलग था। बात ही इतनी सारी रहती एक-दूसरे से साझा करने के लिए! कॉलेज की लड़कियाँ, रैगिंग के अनुभव आदि-आदि। पर सुबह वही मज़ा ‘जल्दी-जल्दी’ में बदल जाता। सुबह सात बजे से हॉस्टल के गलियारों में विस्फोट-सा शुरू हो जाता जो किसी को भी गहरी नींद से उठाकर बैठा देने का दम रखता था।
सभी देर से सोकर उठते। अब सभी को फ़्रेश होने की जल्दी, नहाने की जल्दी, तैयार होकर मेस पहुँचने की जल्दी, नाश्ता करने की जल्दी, कॉलेज पहुँचने की जल्दी, बस जल्दी-जल्दी और जल्दी। एक क्षण को भी रात वाला ठहराव नहीं। इसी जल्दबाज़ी के बीच बहुत कुछ चलता रहता। फ़्रेश होने के लिए क़तार, नहाने के लिए क़तार, लाइन में लगे हॉस्टलर्स की दरवाज़ों पर पड़ती थाप और पंतनगरीय हॉस्टल की भाषा में उठती आवाज़, और प्रत्युत्तर में अंदर से आती गूँजती हुई पंतनगरीय हॉस्टल की विकट भाषा। सुबह अजब-ग़ज़ब-सा माहौल रहता। निवृत्त होने के बाद बारी आती स्नान की। साबुन, तौलिया और बाल्टी तो पक्का पड़ोस वाला ले गया होता था। किसी का टूथपेस्ट ग़ायब मिलता तो किसी का कंघा। तेल तो न जाने कौन ख़त्म कर देता। किसी के अंडरगारमेंट्स समय पर खोजे न मिलते। हॉस्टल के हर बाथरूम की एक रोचक विशेषता। कोने में पड़ा हुआ अंडरगारमेंट्स का ढेर दिनों दिन अपने मालिकों की प्रतीक्षा करता रहता, पर समय किसे था कि उनकी परवाह करे। ख़ैर, इस जंग को जीतने के बाद कमरे के मैदान में एक और जंग तैयार खड़ी मिलती जब बारी आती तैयार होने, मेस और फिर कॉलेज पहुँचने की। कमरे के मैदान में तैयार होने की जंग अधिक रोचक रहती। दुनिया के किसी हॉस्टलर्स के सामने इससे विकट समस्या शायद कभी आई भी नहीं होगी। किसी की शर्ट नहीं मिलती तो किसी की पैंट, तो किसी की बेल्ट ग़ायब। किस जींस के साथ कौन-सी टी-शर्ट पहननी है यह एक बड़ा प्रश्न रहता, कारण मनचाही टी-शर्ट या शर्ट तो दूसरों के पास से लौटी ही नहीं होती। कभी-कभी दूसरे से मारी हुई शर्ट को दूसरा कोई मार ले गया होता। सोचने की बात यह थी कि इन लड़कों को कॉलेज जाना रहता जहाँ 50 प्रतिशत लड़कियाँ पढ़ती थीं। इसीलिए तो क़ायदे से जाना लड़कों की प्राथमिकता रहती। इम्प्रेशन का सवाल जुड़ा रहता उनके साथ और फिर स्मार्ट-सी शर्ट या टी-शर्ट समय पर न मिलने से दिल में आग लगना स्वाभाविक था। प्राय: हर कमरे में दूसरों को बुरा-भला कहते हुए कोई दूसरी शर्ट पहनकर किसी तरह इस जंग को मैनेज किया जाता। पलाश अपनी चीज़ों को लेकर बहुत ही सजग रहता और ख़ासकर कपड़े। फिर भी साल भर में चार शर्ट्स की क़ुर्बानी उसे भी देनी ही पड़ी थी।
इन सब के बाद अब बारी आती मेस पहुँचकर नाश्ता करने और फिर क्लास के लिए भागम-भाग की। पंतनगर का पारंपरिक नाश्ता खुले दिल से उनका स्वागत करता- वही आलू का पराठा, मक्खन, अंडा भुर्जी, जैम या केचप तथा प्याज़ और आटे की एक छोटी लोई, पराठे से जले हुए परथन को हटाने के लिए। पलाश ठहरा खाने का शौक़ीन। चाहे जो हो जाए नाश्ता तो वह किसी भी दिन नहीं छोड़ता था। जरा रुकिए, इन्हें नाश्ता कर लेने या हाथ में उठा लेने दीजिए, फिर चलते हैं इनके साथ मॉल रोड तक। पंतनगर का एक और अद्भुत दृश्य देखने! आलू का पराठा हाथ में लिए और उसे खाते हुए मॉल रोड पर दौड़ते कुछ बच्चे। पंतनगर की संस्कृति से यह अध्याय भी जुड़ ही गया-सा लगता है। यह दृश्य न भाए तो इसे ‘समय का प्रबंधन’ नाम देकर देखिए। अच्छा महसूस होगा। कॉलेज के लिए देर होने पर यह तरीक़ा अक्सर कारगर सिद्ध हो जाता, फिर भी अक्सर देर हो ही जाया करती।
तब? तब क्या! हथियाया जाता प्रॉक्सी अटेंडेंस का रास्ता। इस मामले में सभी एक-दूसरे का सहयोग करते। आगे की कुछ कुर्सियाँ ख़ाली रखी जातीं। प्रोफ़ेसर के दूसरी ओर घूमते ही देर से आए विद्यार्थी कक्षा में प्रवेश करते। लेट कमर्स अक्सर ख़ाली हाथ होते थे। काग़ज़ और पेन का इंतज़ाम वहीं का वहीं तुरंत हो जाया करता। लड़कियों के पास अक्सर दो पेन हुआ करते थे, जो लेटकमर्स तथाकथित ‘साहसी लड़कों’ के लिए ही होते थे। पेन कहीं से, काग़ज़ कहीं से और काम बन जाता। इसी बहाने लड़कियाँ लड़कों से थोड़ी बातें कर लेतीं। इस काग़ज़ और पेन के लेन-देन ने कुछ को इतना क़रीब ला दिया कि कक्षा में शुरू हुआ वार्तालाप, हमसफ़र बनकर पूरा हुआ। पलाश के लिए बड़े सुहाने रहे पंतनगर के वो दिन।
अगले 6 महीने कैसे व्यतीत हुए पता ही नहीं चला, बस पढ़ने, क्लास और परीक्षा की तैयारी का सिलसिला ही चलता रहा। इन महीनों में पंतनगर के परिवेश ने उसे काफ़ी परिवर्तित कर दिया था। स्वभाव से वह मिलनसार था। नये लोगों और हॉस्टल लाइफ़ से तालमेल बैठाना उसने बख़ूबी सीख लिया था। और जो कुछ शेष था उसे अब हॉस्टल में बीतते हर अच्छे और बुरे पल ने सिखाना शुरू कर दिया। वह प्रतिदिन की घटनाओं को डायरी में लिखने लगा था, शायद उन्हें ताउम्र याद रखने के लिए! हालाँकि पलाश इन सब से अनजान था कि उसकी डायरी में लिखे उसके अनुभव, उसके जैसे विद्यार्थियों के लिए प्रेरणास्रोत बनेंगे। पहले दो महीने तो रैगिंग में ही बीते और फिर फ़्रेशर्स पार्टी। अब भले ही रैगिंग को बैन कर दिया गया हो पर उन दिनों पंतनगर की रैंगिंग एक अलग ही अनुभव, सीख और जीवन जीने का सलीक़ा सिखा देती थी। इन रैगिंग के दिनों ने उसे खट्टी-मीठी यादों का जो तोहफ़ा दिया वह केवल पंतनगर में ही मिल सकता था।
इस बीच बच्चों को घर की याद तो आती ही थी। एक क्षण के लिए भावुक भी हो उठते पर दूसरे ही क्षण सर झटककर आगे बढ़ जाते। उन दिनों मोबाइल फ़ोन इतना आम नहीं हुआ था। बच्चों के घर से फ़ोन हॉस्टल के लैंड-लाइन पर आते थे। वो तो अच्छा हुआ कि पलाश पंतनगर आते हुए अपने कज़िन देव की सहायता से दिल्ली से एक मोबाइल फ़ोन ले आया था। देव उससे साल भर छोटा था, पर वे दोनों अच्छे मित्र थे। दोनों के बीच में कुछ भी छुपा नहीं रहता था। वह पढ़ाई के साथ-साथ कुछ बिजनेस भी करता था, इसीलिए उसके पास एक बाइक थी और जेब में कुछ पैसे भी रहते थे। जब भी देव और पलाश मिलते वे ख़ूब मज़े करते और दोनों की ख़रीदारी भी साथ ही होती।
आज के मोबाइल की दुनिया का प्रसिद्ध ब्रांड नोकिया 3315 उसके पास था। उस समय के हिसाब से अच्छा मोबाइल! शुरू में वह अपने मोबाइल को लेकर बहुत ही उत्साहित रहता था। उसे लगता कि इस मोबाइल के कारण ही उसके पंतनगर के दिन और भी सुहाने हो गए हैं। कहीं-न-कहीं उसके मन में छुपी इच्छा भी रहती कि घर वाले आसानी से उससे बात कर पाएँगे। लेकिन ऐसा मौक़ा बहुत कम ही आया और यह कमी उसे पहले महीने से ही खलने लगी थी। ख़ुद फ़ोन करने की पहल करने का साहस वह कम ही जुटा पाता। अपने मोबाइल फ़ोन पर घर से किसी की आवाज़ सुनने की इच्छा कभी-कभी उसे बेचैन कर देती। यह कमी उसे कचोटती बहुत थी और वह उदास हो जाया करता। एक दिन उसके रूम मेट ने झिझकते हुए उसकी उदासी का कारण पूछा तो उसका गला भर आया, और उसने कहा, “तुम देखते ही हो कि प्राय: हर बच्चे के माता-पिता फ़ोन करके उनका हाल-चाल पूछते रहते हैं, यह भी जानते हो कि मेरे घर से बिरले ही फ़ोन आता है। मुझे भी लगता है कि घर से कोई फ़ोन करके मेरी पढ़ाई और मेरे हाल-चाल के बारे में पूछे।”
“बस इतनी-सी बात! और रोज़ उदास बने रहते हो। तुम ख़ुद फ़ोन कर लो। उनका हाल-चाल ले लो। पंतनगर के चीते हो। ख़ुद पहल कर डालो। उनसे कहो कि तुम्हारा हाल-चाल लिया करें।”
“नहीं! ऐसा नहीं कर सकता।”
“क्यों?”
“घर में मुझे इम्मेच्योर न समझा जाने लगे। और बस यहीं रुक जाता हूँ।”
जो भी हो पलाश धीरे-धीरे इन बातों को सकारात्मक रूप में लेना सीखने लगा। उसने मान लिया कि हो सकता है उनकी नज़र में अब वह इतना मेच्योर हो गया है कि उसे इन सब भावनात्मक बातों की ज़रूरत ही अब न हो। उसने यह भी मान लिया कि हो सकता है समय आगे आने वाली उन चुनौतियों के लिए उसे तैयार कर रहा हो, जिनका सामना उसे अकेले अपने दम पर करना है। जो भी हो!
इन सारी घटनाओं के बीच पलाश अपने माता-पिता से दूर होता चला गया। वह समझ भी नहीं पाया पर यही हुआ। ऐसा तो उसने कभी सोचा भी नहीं था। वह उनकी बहुत इज़्ज़त करता है, और आज भी उनसे प्यार भी उतना ही करता है। उसे याद है स्कूल के दिनों से ही वे उस पर पूरा भरोसा करते थे। उन्होंने उसे हमेशा तनाव रहित माहौल दिया। उनके लिए यह कभी चिंता का विषय नहीं रहा कि स्कूल की कक्षा में उसकी कौन-सी रैंक आई है, कारण वे उस पर भरोसा करते थे कि वह आगे अच्छा करेगा। उन्होंने पलाश पर कभी अपनी इच्छा नहीं थोपी। उसके हर निर्णय का सम्मान किया और उसे ऐसा माहौल दिया कि वह ख़ुद निर्णय ले सके। हाई स्कूल के बाद उसके पिता की इच्छा थी कि वह गणित विषय लेकर पढ़ाई करे पर उसकी इच्छा बायो पढ़ने की थी और पिता ने उसके ऊपर गणित को थोपा नहीं। पर न जाने इतने विश्वास के बावजूद भी कभी-कभी ऐसा होता है कि माता-पिता अपने बच्चों को समझ नहीं पाते और जाने-अनजाने विकास के पथ पर बढ़ने के लिए उन्हें अकेला कर देते हैं। उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। पलाश चला तो आया पंतनगर, पर उसे भी ऐसा लग रहा था कि आगे बढ़ने के लिए उसे एकाकी छोड़ दिया गया है, शायद उसे मेच्योर समझकर। मन को हर तरह की सांत्वना देने के बाद भी उसे लगता कि जीवन में संवेदना और मेच्योरिटी वैकल्पिक तो नहीं हो सकते। पर फिर भी वह ख़ुद फ़ोन कम ही करता कारण माता-पिता के मन में बनी अपनी इम्प्रेशन के टूटने का डर भी पीछा करता रहता। इस अनकहे इम्प्रेशन के साथ ही पंतनगर में उसके दिन बीतने लगे। खैर, समय पर लगाकर उड़ा जा रहा था, और उसे महसूस होता था कि समय के साथ उसकी समझदारी भी बढ़ गई है। अपने विचारों और निर्णयों में तो वह मेच्योर पहले से ही था अब उसे लगा कि वह औरों से थोड़ा हटकर है और पंतनगर का परिवेश उसे औरों से हट कर कुछ करने का हौसला दे रहा था।
अब एक तरफ़ कुछ ख़ास और मेच्योर होने का एहसास तो दूसरी ओर अतीत की कुछ कष्टदायक घटनाओं की यादें उसे सुकून से रहने नहीं दे रही थीं। इस नये माहौल में भी वह अपने अतीत से पीछा नहीं छुड़ा पा रहा था। कुछ पुरानी, कड़वी और न भूली जा सकने वाली यादें उसका पीछा आज भी कर रही थीं। कहते हैं ना कि समय सबसे बड़ा मरहम है जो पुराने से पुराने घाव को भर देता है। पर कुछ घाव ऐसे होते हैं जिन्हें समय भी नहीं भर पाता। इन्हीं से पीछा छुड़ाने के लिए वह घर से इतनी दूर आ गया था, इस सोच के साथ कि हो सकता है नये परिवेश में पुरानी यादें कहीं गुम हो जाएँ! पर ऐसा हो नहीं पाया। प्रतिदिन कैम्पस की सन्नाटे भरी शाम में वो यादें उसका पीछा करने ही लगती थीं। सच है कि अतीत को भूलना इतना आसान नहीं होता। चाहे हम कितनी ही दूर क्यों न निकल आएँ। ऐसे में समय ही एकमात्र इलाज है जो पुरानी यादों से छुटकारा दिला दे तो दिला दे।
पर कुछ कड़वी यादों के घाव इतने गहरे होते हैं कि समय भी उसे नहीं भर पाता। यदि इन यादों से छुटकारा पाना है तो फिर से वैसी ही परिस्थितियों से होकर गुज़रना ज़रूरी होता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे, ज़हर ही ज़हर का इलाज होता है। समय हमें कभी-कभी फिर से उन्हीं हालात में ले जाकर खड़ा कर देता है, मानो ईश्वर हमें एक मौक़ा दे रहा हो पुरानी ग़लती को सुधारने का। फ़िलहाल पलाश कुछ भी नहीं भूल पा रहा था। समय अपनी रफ़्तार से भागता रहा और पलाश अपनी पुरानी यादों को रोज़ रात को सोने के पहले व्यक्तिगत डायरी में समेटने का असफल प्रयास करता रहा। उन यादों को तो वह नहीं भूल पाया पर अतीत से भरे उन पन्नों को वह जितनी बार पढ़ता उतनी बार उसे अपने अंदर एक नई शक्ति का आभास होता और उसी शक्ति ने उसे आत्म-संतोष की ख़ातिर लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।
वो अद्भुत यात्रा
अप्रैल 2005
रविवार, 3 अप्रैल। पलाश के जीवन का एक ख़ास दिन। उसकी नियति की उस कहानी के आरंभ का दिन जिसने उसके जीवन में बदलाव की इबारत लिखनी शुरू कर दी।
पलाश इस समय हर बीतते हुए पल का आनंद लेने में डूबा हुआ था। वह कभी सोचता भी नहीं था कि आगे क्या होने वाला है या मुक़द्दर ने उसके लिए क्या निर्धारित कर रखा है। बीतते समय के साथ उसकी युवा होती सोच में एक नया विचार कौंधा कि कुछ भी हो आख़िर मनुष्य समय के हाथ का खिलौना ही है। अलबत्ता वह इस बात से पूर्ण सहमत था कि कर्म ही जीवन का सार है और कर्म में ही वह शक्ति है जो एक बार नियति को भी अपने पक्ष में घटित होने को बाध्य कर सकती है। हम अक्सर सोचते हैं कि समय आने पर हमारा काम हो जाएगा, भाग्य ने हमारे लिए जो लिखा है वह तो होकर ही रहेगा। सच है कि हमारा भाग्य हमारे लिए जो कुछ भी निर्धारित करता है, समय उस तक हमें खींचकर ले ही आता है, पर हम भूल जाते हैं कि समय हमें हमारे लक्ष्य के मुहाने तक पहुँचाकर छोड़ देता है। हमारा परिवेश लक्ष्य को प्राप्त करने की सीख दे सकता है, हमें परिस्थितियों से लड़ने की शक्ति भी दे सकता है, पर उसे पाने के लिए प्रयास और संघर्ष तो हमें ही करना पड़ता है। तभी सफलता मिलती है। संस्कृत में कहा गया है- न हि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशन्ति मृगा:। अर्थात् सोए हुए सिंह के मुख में शिकार स्वयं प्रवेश नहीं करता। उसके लिए प्रयास उसे ही करना पड़ता है। जीवन का मूल मंत्र यही है।
वास्तव में होता यह है कि हम जिस समाज या परिवेश में बड़े होते हैं उसी के अनुरूप हमारा पूरा व्यक्तित्व ढलता चला जाता है और हम जाने-अनजाने उसी परिवेश के अनुरूप अपने चारों ओर एक सीमा रेखा खींच लेते हैं, फिर वास्तविकता से दूर उसी सीमा में बँधे पड़े रहते हैं। यदि यथार्थ जीवन से तालमेल रखना है तो अपनी बनाई सीमा के बंधन को तोड़ना अनिवार्य हो जाता है और इस तोड़ने की प्रक्रिया को ही संघर्ष कहा गया है। शायद इसीलिए कहा गया है जीवन एक संघर्ष है। बिना अपनी सीमा के बंधन को तोड़े नया कुछ भी हासिल नहीं होता। लक्ष्य को पाने की कहानी लक्ष्य-साहस-प्रयास-संघर्ष की कहानी होती है। प्रयास की पृष्ठभूमि में साहस और संघर्ष गुज़रते वक़्त के साथ परिपक्व होते विचारों के बीच ज़रूर खड़े मिलते हैं।
पलाश के जीवन में कुछ नई घटनाओं ने दख़ल दी। ऐसे ही एक दिन पलाश अपने रूम मेट के साथ नेहरू हॉस्टल से दिल्ली पहुँचा। उसका रूम मेट भी ग़ज़ब का इंसान ठहरा। पंतनगर में स्नातक की पढ़ाई करते एक साल बीतने को आया था, पर अभी भी वह सीबीएसई-प्री मेडिकल के लिए इच्छुक था। परीक्षा का केंद्र दिल्ली में था, वहीं पलाश की आंटी रहती थीं और साथ-ही-साथ पलाश को दिल्ली के मशहूर बाज़ार से देव के साथ ख़रीदारी करने का मौक़ा भी मिल रहा था। इन सबके बीच उसके रूम मेट को भी रात में रुकने की जगह तो मिल ही रही थी। इस प्रकार एके साधे तीनों सधे वाला प्रस्ताव उसके सामने था और मौक़े को देखते हुए पलाश ने दिल्ली चलने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था। परीक्षा के एक दिन पहले वह अपने रूम मेट के साथ 2 अप्रैल की रात को दिल्ली पहुँचा। देव और पलाश बहुत देर तक बातें करते रहे और दूसरे दिन बाहर चलने का प्रोग्राम तय हुआ। दूसरे दिन नौ बजे के क़रीब बाइक पर सवार होकर दोनों चल पड़े ख़रीदारी करने, नहीं, नहीं पहले देव के स्टडी सेंटर की ओर। घर से बाहर निकलते ही देव ने कहा, “अपनी क्लास मेट्स, जिया और जिग्ना से मुझे कुछ काम है, उनसे मिलने के बाद आगे चलते हैं।”
पलाश को भला क्यों आपत्ति होती! बात यह थी कि देव पिछले कुछ महीनों से जिया से प्यार करने लगा था, पर प्रपोज़ करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। पलाश बड़े समय से आ गया था और देव उसी के सहयोग से अपनी उलझन को सुलझा लेना चाह रहा था। देव की नज़र में वह हिम्मती, बात को सहजता से कह देने वाला और उसका हमराज़ भी था। आज देव पलाश को साथ लेकर जिया से मिलने जा रहा था और रास्ते में उसे पूरी बात बता भी दी। उसे पूरा भरोसा था कि पलाश कोई-न-कोई रास्ता निकाल ही लेगा और इस तरह उसकी समस्या सुलझ जाएगी। पलाश की बात की जाए तो वह अपने जीवन में पहली बार इस उद्देश्य की ख़ातिर लड़कियों से मिलने जा रहा था। भले ही अक्सर युवा मन में उठने वाली सारी झिझक पंतनगर में पढ़ाई के दौरान लड़कियों से बातचीत करके मिट चुकी थी, उसे नये लोगों से मिलना अच्छा भी लगता था पर आज का मिलना कुछ अलग था, और तो और जिया के साथ जिग्ना भी आ रही थी। उसे भी एक अनजानी लड़की का संग-साथ मिलने वाला था। एक बैचलर को इससे अधिक क्या चाहिए! देखा आपने! लड़के आख़िर लड़के ही होते हैं।
10 बजे के क़रीब दोनों भाई दिलशाद गार्डन के पास सरिता विहार पहुँचे। देव का स्टडी सेंटर उसके घर से बहुत दूर नहीं था। लड़कियाँ तब तक नहीं पहुँची थीं। दोनों इंतज़ार में खड़े थे कि थोड़ी देर में देव का मोबाइल बजा। जिया का फ़ोन था, किसी PCO से। लड़कियों के पास मोबाइल फ़ोन जो नहीं थे।
थोड़ी देर में दोनों लड़कियाँ भी वहीं आ गईं। पलाश बाइक के साथ ही खड़ा रह गया और देव तपाक से लड़कियों के पास जा पहुँचा और बातों में मशग़ूल हो गया। लड़कियों को देखते ही मिलने की इतनी जल्दी कि इतना भी शिष्टाचार याद न रहा कि पलाश और लड़कियों का आपस में परिचय तो करा दे। पलाश 15-20 मिनट चुपचाप खड़ा रहा पर आख़िर कब तक? फिर वहीं से बोल पड़ा, “मैं भी तुम्हारे साथ ही हूँ भाई! तुम लोग कर क्या रहे हो मुझे यहाँ अकेला छोड़कर?” यह कहते हुए ख़ुद ही उनके बीच शामिल हो गया। अब देव ने खिसियानी हँसी हँसते हुए लड़कियों से उसका परिचय कराया। अगले 15 मिनट चारों को बात करने, हँसने, मज़ाक़ करने और एक-दूसरे को थोड़ा-बहुत जानने में बीत गए। पलाश को जिग्ना परिचित-सी, अच्छी और हँसमुख स्वभाव की लड़की लगी। बहरहाल अभी जिग्ना से मिले 20 ही मिनट हुए थे और दूसरी ओर पलाश देव के साथ आने के मक़सद को भी नहीं भूला था।
देव यहाँ खड़े-खड़े तो जिया को प्रपोज़ करता नहीं! अब देव के अनुसार परिस्थिति को ढालने का मौक़ा तलाशते हुए उसने कहा, “क्या हम ऐसे ही सड़क पर खड़े होकर बातें करते रहेंगे? अच्छा होगा कि कहीं बैठकर इत्मिनान से बातें करें।” प्रस्ताव सबको पसंद आया। सर्वसम्मति से पास के डोमिनोज़ चलने की बात तय हुई जो वहाँ से थोड़ी दूरी पर ही था।
दोनों भाई और मित्र पहुँचे बाइक से और दोनों लड़कियाँ पहुँची बस से। 11:30 बज चुके थे। पलाश ने पहली बार डोमिनोज़ में क़दम रखा। पलाश ठहरा छोटे शहर का लड़का, उसके लिए डोमिनोज़ कल्चर बिल्कुल ही नया था। पास ज़्यादा पैसे भी नहीं थे। वैसे भी उन दिनों डोमिनोज़ जाना कोई आम बात नहीं थी। उसके मन में एक झिझक-सी उठी पर अब कुछ कहने की गुंजाइश कहाँ थी। बैठने की व्यवस्था कुछ इस प्रकार हुई कि देव और जिया आमने सामने, जिग्ना और पलाश आमने सामने। बातों का सिलसिला चल पड़ा। इसी बीच पलाश ने मौक़े को न गँवाने और तुरंत निर्णय करने की क्षमता का परिचय देते हुए दो पिज़्ज़ा और कोक ऑडर्र कर दिया। देव और जिया के लिए यह करना ज़रूरी भी था। उनको बात करने और प्रपोज़ करने के लिए थोड़े समय की ज़रूरत थी। उसने मन-ही-मन ख़ुद को ही शाबाशी दे डाली कि वह एक मित्र की तरह देव की सहायता कर रहा है। हालाँकि उसकी नज़र में यह लड़कियों से मिलते वक्त किया जाने वाला एक बड़ा ख़र्चा था। बिल बना था 534 रुपये का जो कि उस समय किसी छात्र के लिए अच्छी-ख़ासी रक़म थी, पर उसे इत्मिनान था कि देव है और उसके पॉकेट में पैसे हैं।
पलाश ख़ुद जिग्ना से बात करने में ज़्यादा-से-ज़्यादा मशग़ूल होता गया। देव और जिया को थोड़े स्पेस की ज़रूरत तो थी ही। फिर जिग्ना भी पलाश की बातों को ध्यान से सुनती रही। यद्यपि आज का दिन गर्लफ़्रेंड के साथ डेट का दिन नहीं था फिर भी स्थिति वैसी ही बन गई थी। जिग्ना अच्छी लग रही थी। बिना किसी मेकअप के साधारण से सलवार-कुर्ते में वह बहुत ही मासूम लग रही थी। उसके बाल घुंघराले थे और आँखों पर फ़ोटोक्रोमिक चश्मा था, जिसके कारण धूप में जिग्ना की आँखों को पलाश समझ नहीं पाया था। अब अंदर बैठकर उसने ध्यान दिया कि उसकी आँखें अत्यंत सुंदर और आकर्षक हैं। वह जिग्ना को देखता ही रह गया। उसे कम-से-कम दिल्ली में तो इस तरह की सरल लड़की की आशा नहीं ही थी। उधर जिया ठीक इसके विपरीत थी। यद्यपि जिग्ना उसके साथ बातचीत में भाग तो ले रही थी पर पलाश में उसकी रुचि उतनी भी नहीं थी कि उसे आकर्षण का नाम दिया जा सके।
वो लोग डोमिनोज़ में क़रीब 45 मिनट रहे। इस बीच पलाश ने दोनों लड़कियों को अपना मोबाइल नंबर एक काग़ज़ के टुकड़े पर लिखकर दे दिया था कारण उनके पास अपना मोबाइल फ़ोन नहीं था। सभी ने एक-दूसरे के साथ अपना जन्मदिन भी साझा कर डाला। जिग्ना का जन्मदिन बारह दिन बाद ही 16 अप्रैल को था। पलाश ने मौक़ा तलाश कर जिग्ना से कहा, “जन्मदिन वाले रोज़ तुम्हें ही फ़ोन करना पड़ेगा जिससे मैं तुमको विश कर सकूँ। सीधे तुम्हारे घर लैंड लाइन पर तो फ़ोन कर नहीं सकता कारण तुमने बताया है कि तुम्हारे पिताजी सख़्त स्वभाव के हैं।” जिग्ना मौन रही और पलाश ने इसे मौन स्वीकृति लक्षणम् समझा। धीरे-धीरे एक-दूसरे से बाय कहने का समय आ गया। देव और पलाश दोनों लड़कियों के साथ पैदल ही बस स्टैंड तक आए। उन दिनों दिल्ली में मेट्रो निर्माणाधीन थी। लो फ़्लोर बसें भी नहीं चलती थीं। कुछ ही देर में लड़कियों की बस आ गईं और लड़कियाँ चली गईं।
पलाश अच्छी तरह जानता था कि अब दुबारा इन लड़कियों से भेंट होना मुश्किल है। उनके बीच कोई संपर्क सूत्र जो नहीं था, दोनों ही दिल्ली की जबकि वह राजस्थान का, शिक्षण संस्थान भी अलग-अलग, व्हॉट्सएप और फ़ेसबुक का ज़माना था नहीं, लड़कियों के पास अपने मोबाइल नहीं तो कोई भी ऐसे में यही सोचेगा, फिर भी न जाने क्या सोचकर पलाश ने देव से कहा, “समय हमें इन लड़कियों से फिर मिलाएगा।”
बात करते-करते पलाश को पता चला कि देव जिया को प्रपोज़ करने में सफल हो गया और मज़े की बात यह कि दूसरी ओर भी प्यार पल रहा था, पर कह कोई नहीं पा रहा था। देव ने भी जिज्ञासा प्रकट की कि वो और जिग्ना इतनी देर तक क्या बातें करते रहे। पलाश ने बताया कि कुछ ख़ास नहीं, बस इधर-उधर की। देव का सुझाव रहा कि यदि वह चाहे तो जिग्ना से फ़ोन पर बात कर सकता है। पलाश ने तुरंत उत्तर दिया, “शायद तुम भूल रहे हो कि जिग्ना के पास मोबाइल नहीं है। वह ख़ुद मुझे कॉल करेगी।” देव को यह संभव नहीं लगा पर पलाश ने उसे आश्वस्त किया, “देखना! वह करेगी।” बात करते-करते वे दोनों ख़रीदारी करने मांक स्ट्रीट मार्केट पहुँच गए। पलाश ने कुछ टी-शर्ट्स ख़रीदीं। अब तक शाम हो चुकी थी। वे दोनों घर लौटे। रात्रि-भोजन के बाद पलाश और उसके रूम मेट ने उन लोगों से विदा ली। उन्हें रानीखेत एक्सप्रेस पकड़नी थी, जो रात को दिल्ली से पंतनगर जाने वाली एकमात्र ट्रेन थी।
अब पलाश एक अनजानी, अपरिचित और मासूम लड़की से मिलने के नये अनुभव के साथ पंतनगर लौट रहा था। यदि कहा जाए कि पलाश जिग्ना की मासूमियत से प्रभावित हो गया था, तो ग़लत नहीं होगा! इस तरह का कुछ घटित हो जाएगा, उसने सोचा भी नहीं था। वह सोचने लगा कि जिग्ना के लिए उसका परिचय मात्र इतना ही न हो कि वह देव का कज़िन है!
मुझसे शादी करोगे?
मई 2005
पंतनगर की गर्मी अपने पूरे सुरूर पर थी और कॉलेज के प्रथम वर्ष का द्वितीय सेमेस्टर कुछ ही दिनों में ख़त्म होने को था। पलाश को जिग्ना से मिले हुए पूरा एक महीना हो चला था। पिछला पूरा एक महीना पलाश पूरी तरह से पंतनगर के कॉलेज जीवन में ही डूबा रहा था, और जिग्ना से मुलाक़ात की यादें उसके दिलो-दिमाग़ से लगभग मिट-सी गई थीं। इस पिछले एक महीने में पलाश देव से भी बात नहीं कर पाया था और देव ख़ुद भी अपने काम में कुछ ज़्यादा ही व्यस्त हो गया था। कुल मिलाकर कहा जाए तो जिग्ना से मुलाक़ात वाली बात आई गई-सी हो गई थी, और पलाश ने कभी नहीं सोचा था, कि वो जिग्ना से कभी दुबारा मिलेगा। हाँ, ये बात और थी कि पलाश, देव से कह चुका था कि “वक़्त हमें वापस ज़रूर मिलाएगा”।
यह नियति ही थी की उस दिन पलाश के कहे हुए वो शब्द सत्य हो गए, जब एक महीने बाद अचानक से जिग्ना का फ़ोन आया। शाम के 7.30 बजे थे, हालाँकि मौसम गर्म था, लेकिन पंतनगर की सुहावनी शाम में ताज़गी से भर देने वाली हल्की ठंडी हवा चल रही थी। पलाश, आने वाली परीक्षा के लिए नोट्स फ़ोटोकापी करवाकर बड़ी मार्केट से साइकिल पर वापस हॉस्टल की तरफ़ लौट रहा था।
यहाँ आपको बताते चलें कि विश्वविद्यालय के कैम्पस में दो मार्केट हैं, एक मुख्य बाज़ार जिसे बड़ी मार्केट कहते हैं और दूसरे को छोटी मार्केट कहा जाता। पंतनगर में पढ़ाई के लिए लगने वाली कक्षाओं और परीक्षा का प्रबंधन बहुत व्यस्त होता है। आपको जानकार हैरानी होगी की पूरे सेमेस्टर में लगभग हर दूसरे दिन कोई-न-कोई परीक्षा तो होती ही है और पूरे चार साल के कृषि स्नातक पाठ्यक्रम में 60 से ज़्यादा विषय पढ़ाए जाते हैं। यही कारण था कि पंतनगर में परीक्षा के लिए “वन नाइट फ़ाइट” वाला नियम विद्यार्थियों, मुख्यतया लड़कों में प्रचलित था, जिसमें बस परीक्षा से ठीक पहले वाली रात ही परीक्षा की तैयारी के लिए वाजिब और उपलब्ध समय हुआ करता था। कहीं-न-कहीं ये मुश्किल-सा दिखने वाला प्रबंधन, विद्यार्थियों को भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार भी करता था। लड़कों के लिए लड़कियों से मिले नोट्स ही इस ‘वन नाइट फ़ाइट’ के लिए एक मात्र सहारा होते थे, क्योंकि वो कभी भी कोई कक्षा मिस नहीं करती थी और उनके नोट्स भी पूरे होते थे।
पंतनगर विश्वविद्यालय परिसर काफ़ी बड़ा है और उस समय वहाँ 8 कॉलेज और 22 हॉस्टल हुआ करते थे। इसीलिए उस बड़े फैले हुए परिसर में साइकिल ही विद्यार्थियों की साथी थी। पलाश के पास भी उसकी अपनी पुरानी हीरो रेंजर साइकिल थी, जो उसे उसके पिताजी ने कक्षा 7 में उसे बर्थ डे गिफ़्ट के रूप में दी थी।
पलाश पंतनगर की सुहावनी शाम का मज़ा लेते हुए साइकिल पर हॉस्टल की ओर बढ़ रहा था। जैसे ही वो हॉस्टल के साइकिल पार्किंग में पहुँचा, उसका मोबाइल फ़ोन बजने लगा। उसने देखा की नंबर के आगे दिल्ली का STD कोड 011 था, जिसे वो बख़ूबी पहचानता था। बिना देर किए पलाश ने फ़ोन उठा लिया।
“हैलो! कौन?”
दूसरी तरफ़ से कोई लड़की बोल रही थी।
“हाय, मैं पलाश बोल रहा हूँ पंतनगर से।” उसने जवाब दिया।
“मैं जिग्ना बोल रही हूँ दिल्ली से।” दूसरी तरफ़ से जवाब आया।
ये तो पलाश की कही बात सच हो गई। कुछ ही क्षणों में पिछले महीने हुई जिग्ना से मुलाक़ात की सारी यादें बिजली की गति के साथ पलाश के दिलो-दिमाग़ में तरोताज़ा हो गई। तुरंत ही अगुवाई करते हुए पलाश बोला, “ओह हाँ, मैं तो सब भूल ही गया था। तुमने मेरा नंबर लेने के बाद वादा किया था कि तुम फ़ोन करोगी, लेकिन तुमने फ़ोन नहीं किया।”
जिग्ना ने जवाब दिया, “पिछले एक महीने से मैं इसी सोच में थी की तुम्हें फ़ोन करूँ या नहीं। और सुनो, अब मैंने फ़ोन कर दिया है और तुम्हें इतनी आसानी से छोड़ने वाली भी नहीं हूँ।”
“हाँ, मुझे कभी मत छोड़ना। जब मैं दिल्ली आऊँगा तो मुझे कसकर पकड़ लेना।”
यह जिग्ना की बात का जवाब भी था और समय की माँग भी। फिर क्या था, सार्थक-सी लगने वाली अप्रत्यक्ष बातों का सिलसिला चल पड़ा, जिसमें दोनों ही हँसे बिना नहीं रह पाए। दोनों पहली बार फ़ोन पर बात कर रहे थे लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे सदियों से एक-दूसरे को जानते हों। फिर, पलाश ने जिग्ना को पिछले महीने निकल चुके जन्मदिन की शुभकामनाएँ भी दी। वो पहला फ़ोन कॉल लगभग 30 मिनट लंबा रहा, और दोनों ने लगभग हर विषय पर बात की जितना कि वो एक-दूसरे को अब तक उस पहली मुलाक़ात में जान पाए थे।
आख़िरकार, दुबारा बात करने और मिलने के वादे के साथ फ़ोन बंद हुआ। लेकिन वो कब? कहाँ? और कैसे मिलेंगे? ये तो उन दोनों को ही पता नहीं था। बहरहाल पलाश को इतना तो पता था ही की जिग्ना ही उसे पहले फ़ोन करेगी, क्योंकि जिग्ना के पास मोबाइल फ़ोन जो नहीं था।
फ़ोन कट चुका था लेकिन पलाश अभी भी साइकिल पार्किंग में खड़ा, जिग्ना के बारे में ही सोच रहा था। किसी ने सच ही कहा है, “चाहे कोई कितना भी दूर हो और हम कुछ भी क्यों न सोचे, जो भी होना होता है वो कहीं-न-कहीं पहले ही नियति द्वारा निर्धारित होता है।” आज ये बात प्रत्यक्ष रूप से पलाश के साथ सच भी हो गई थी।
यह वो ज़माना था जब मोबाइल फ़ोन बिरले लोगों के ही पास हुआ करते था और कॉल दर की बात करें तो 1.99 रुपये लोकल और 2.99 रुपये STD, और ये ही दर SMS के लिए भी था, जो कि उस समय के हिसाब से बहुत महँगा था। पंतनगर शहर से दूर पहाड़ों की तराई में स्थित था, इसलिए मोबाइल नेटवर्क मुश्किल से ही कहीं उपलब्ध होता था। नेहरू हॉस्टल में सिर्फ़ एयरटेल के ही नेटवर्क हुआ करते थे, वो भी बहुत कम। इसीलिए उन ही जगहों पर ठीक से बात करना संभव था, जहाँ मोबाइल नेटवर्क साथ देता था। अब ऐसे में पलाश के पास भी एयरटेल का ही नंबर था जिसमें उसे एक बार में कम-से-कम 220 रुपये का रिचार्ज करवाना पड़ता था, और मिलते थे 110 रुपये, सिर्फ़ 20 दिनों कि वैधता के साथ।
कुल मिलाकर कहा जाए तो सीमित संसाधनों के चलते प्यार करना महँगा होने के साथ मुश्किल भी था। लेकिन किसी ने सच ही कहा है, प्यार तो अंधा, बहरा और गूँगा होता है। प्यार किसी की नहीं सुनता और न ही उसे कोई सीमाओं में बाँध सकता है। सच ही है, इसीलिए तो प्यार, प्यार होता है।
जो भी हो, पलाश की देव से कही बात उस दिन सच हो गई थी, पलाश अपने आप को एक अनोखे एहसास और आत्मविश्वास से भरा हुआ महसूस कर रहा था। शाम से लेकर रात को बिस्तर पर जाने तक, पलाश के दिलो-दिमाग़ में जिग्ना के साथ फ़ोन पर हुई बातें ही घूम रही थीं। और ऐसा होता भी क्यों नहीं, ये पहला मौक़ा था जब पलाश बाबू की किसी लड़की से इस तरह बात हुई थी। पलाश जिग्ना को अपने बहुत क़रीब महसूस कर रहा था, हालाँकि वो उस अनोखे, अजनबी से एहसास को समझ पाने में अक्षम था। उसी एहसास और जिग्ना के साथ हुई बातों को सोचते-सोचते ही पलाश न जाने कब नींद के आग़ोश में चला गया।
अगले दिन सुबह पलाश उठा और वो ही पंतनगर हॉस्टल लाइफ़, हर रोज़ की मारा-मारी, मस्ती और फिर कॉलेज। लेकिन आज कुछ अलग ही था, पलाश महसूस कर रहा था जैसे कि उसके जीवन की किताब में एक नया अध्याय जुड़ गया था। वो पूरी तरह निश्चित तो नहीं था लेकिन उसका अंतर्मन, उसका दिल उसे कह रहा था कि आज जिग्ना उसे फिर से फ़ोन करेगी। और इसीलिए वो सुबह से ही कहीं-न-कहीं जिग्ना के फ़ोन का इंतज़ार कर रहा था। अभी सिर्फ़ जिग्ना से एक बार ही फ़ोन पर बात हुई थी लेकिन पलाश जिग्ना के लिए अनोखा अजीब-सा एहसास महसूस कर रहा था। जो भी हो, जिग्ना का वो पहला फ़ोन कॉल पलाश के लिए प्रत्यक्ष मुलाक़ात से कम भी नहीं था।
दूसरी ओर पलाश को बिल्कुल भी एहसास नहीं था कि नियति ने उसके लिए क्या निश्चित किया हुआ था। जितने सरल और आसान रूप से उनकी पहली बार फ़ोन पर बात हुई थी, दोनों ने ही कभी नहीं सोचा था कि आने वाले कुछ ही दिनों में वो एक-दूसरे से इतना घुल-मिल जाएँगे, वो भी बिना मुलाक़ात के।
बहरहाल, शाम के 4.30 बजे थे और पलाश अपनी प्रायोगिक कक्षा के बाद अभी हॉस्टल पहुँचा ही था कि उसके मोबाइल फ़ोन कि घंटी बजी। फ़ोन नंबर 011 से शुरू था, मतलब साफ़ था कि दिल्ली से जिग्ना कॉल कर रही थी। पलाश ने बिना देर किए फ़ोन उठाया और अपने सारे काम छोड़, लगा जिग्ना से बात करने। हॉस्टल के गलियारे में खड़े बात करते-करते कब आधा घंटा गुज़र गया पता ही नहीं चला। जिग्ना अपने कोचिंग से वापस घर को लौटते हुए, रास्ते में पड़ने वाली STD से कॉल कर रही थी। आख़िर, आधे घंटे की लंबी बात के बात फ़ोन बंद हुआ। पलाश आश्चर्यचकित था कि वो दोनों इतनी सारी बातें कर रहे थे, वो भी सिर्फ़ एक बार की मुलाक़ात और दूसरी बार के फ़ोन कॉल में। दूसरी ओर सच बात तो यह थी कि पलाश कभी भी किसी से इतनी बात नहीं करता था, जब तक कि कोई विशेष काम न हो। और यहाँ हाल ये था कि मानो जैसे दोनों सदियों से एक-दूसरे को जानते हों।
पलाश निश्चिंत था और सोच रहा था कि अब जिग्ना का कॉल कल ही आएगा, लेकिन वो ग़लत था। उसी दिन रात 8 बजे जिग्ना का फिर से कॉल आया और फिर ढेर सारी बातों का सिलसिला। दोनों ही मासूम और भविष्य से अनभिज्ञ थे, लेकिन सच तो यह था कि वो दोनों ही नियति द्वारा पहले ही लिख दी गई कहानी में अपने-अपने पात्रों का किरदार निभा रहे थे।
समय के साथ फ़ोन कॉल और बातों का सिलसिला अब रोज़ की बात हो गई थी। दोनों ही एक-दूसरे में इस तरह घुल-मिल गए थे कि उन्हें समय का अंदाज़ा भी नहीं रहता था। वो दोनों अपनी हर बात एक-दूसरे से साझा करने लगे थे। न जाने कौन-सा रिश्ता था यह, हाँ लेकिन ये सच था कि अब पलाश अपने आप को जिग्ना के प्रति बहुत आकर्षित महसूस करने लगा था।
ये सब बहुत कम समय में ही हो गया था, पलाश ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वो एक दिन किसी लड़की से इस तरह मिलेगा और इतनी जल्दी घुल-मिल जाएगा। हालाँकि दोनों सिर्फ़ एक बार मिले थे लेकिन उनकी आपसी समझ बहुत अच्छी थी और यही कारण था कि इतने कम समय में ही दोनों एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह जान पाए थे। मज़ेदार बात ये थी की दोनों ने ही कभी एक-दूसरे से प्यार का इज़हार नहीं किया था, जिसके अंकुर कहीं-न-कहीं फूट चुके थे। सच कहा जाए तो प्यार के इज़हार की ज़रूरत भी नहीं थी, सब कुछ तो अपने आप हो ही रहा था जैसा कि नियति ने उनके लिए पहले ही निश्चित किया हुआ था।
दूसरी ओर जिग्ना की भी पलाश जैसी ही स्थिति थी। कभी-कभी तो वो छोटी-छोटी बातों पर ही पलाश के लिए बहुत चिंचित हो जाया करती थी। दिन में 3-4 बार फ़ोन कॉल तो आम बात हो गई थी, जो अमूमन आधा घंटा तो चलता ही था। अब ये बताना बहुत मुश्किल होगा कि पंतनगर की व्यस्त समय-सारिणी में पलाश अपने समय का प्रबंधन किस प्रकार कर रहा था।
इन सब के बीच पलाश ने कभी नहीं सोचा था कि कॉल दरें ज़्यादा होने के बाद भी जिग्ना उसे इतने सारे फ़ोन कॉल कैसे कर पाती है। फिर एक दिन पलाश को पता चला कि अपना सारा जेब ख़र्च बचाकर, जिग्ना उसे कॉल करती थी। पलाश से बात करने के लिए जिग्ना, न तो रुपयों की और न ही समय की परवाह करती थी। व्यस्त समय, महँगी कॉल दर, और दूरी, इतनी मुश्किलों में भी पलाश और जिग्ना के बीच जो बंधन था वो दिनों दिन मज़बूत हो रहा था, हालाँकि उस समय तक उस रिश्ते का दोस्ती के सिवा कोई दूसरा नाम न था। हाँ, लेकिन वो दोनों कभी भी एक-दूसरे से बात करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे। फिर चाहे पलाश अपने कॉलेज में हो, प्रायोगिक कक्षा में हो, हॉस्टल के मेस हॉल में हो या अपने कमरे में हो। समय के साथ-साथ सब ठीक चल रहा था।
फिर अचानक ही एक दिन, रात के 9.30 बजे जिग्ना का फ़ोन कॉल आया और फिर बातें किसी दूसरी दिशा में ही चली गई। पलाश को थोड़ा अजीब तो पहले ही महसूस हुआ, क्योंकि जिग्ना कभी भी इतनी देर से कॉल नहीं करती थी।
हालाँकि, उनकी बातें सामान्य रूप से ही शुरू हुईं, लेकिन जिग्ना कुछ परेशान लग रही थी। पलाश ने पूछा भी, लेकिन बात को टालते हुए जिग्ना ने इधर-उधर की दूसरी बातें जारी रखी। फिर अकस्मात ही बातों का विषय बदल गया और जिग्ना शादी के बारे में बात करने लगी। दोनों ने इस विषय पर कभी बात नहीं की थी और पलाश के लिए यह बहुत विचित्र-सी स्थिति थी। उसने कभी शादी के बारे में नहीं सोचा था, लेकिन जिग्ना के बात करने का तरीक़ा काफ़ी गंभीर था। देखा जाए तो एक भारतीय लड़की होने के नाते जिग्ना का इस विषय पर बात करना सही भी था, लेकिन इतना जल्दी।
पलाश की ओर देखें तो उसे शादी की बात के बारे में बस बचपन की स्मृतियाँ ही याद थीं। जब कभी माता-पिता मज़ाक़ में उसे शादी के नाम से सताते थे तो उसका एक ही जवाब होता था, “मैं तो अपने ही तरीक़े से शादी करूँगा और कोई भी पारंपरिक नियम क़ायदे नहीं मानूँगा।” हालाँकि उस उम्र में पलाश को शादी का मतलब भी नहीं पता था।
जिग्ना से बात करते-करते ही पलाश बचपन की उन मीठी और मज़ेदार यादों में चला गया था। तभी, जिग्ना ने अचानक से वो ग़ज़ब का सवाल पलाश को पूछ डाला जिसकी उसने उम्मीद नहीं की थी, “क्या तुम मुझसे शादी करोगे?”
पलाश स्तब्ध था, उसके पास उस समय उस सवाल का जवाब नहीं था। यद्यपि, दोनों एक-दूसरे के बारे में सब कुछ जानते थे और काफ़ी बातें भी कर चुके थे, लेकिन वो सिर्फ़ एक बार मिले थे, वो भी बस कुछ महीनों पहले। इन सब बातों के अलावा पलाश इतना परिपक्व तो था ही कि शादी जैसा जीवन का बड़ा निर्णय वो ऐसे नहीं ले सकता था। अभी तो उसकी कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई थी। उसने कॉलेज का प्रथम वर्ष भी पूरा नहीं किया था और उसके सामने उसका पूरा भविष्य था।
दूसरी ओर इन सब बातों से परे पलाश कहीं-न-कहीं जिग्ना से जुड़ा हुआ था और इसीलिए बाक़ी बातों को ध्यान में न रखते हुए उसने जिग्ना का ख़याल किया और उसे परिस्थितियों को समझाने की नाकाम कोशिश भी की। लेकिन जिग्ना भी कहाँ मानने वाली थी, वो स्वभाव से जितनी सरल, साफ़ थी उतनी ही अपने आप में ज़िद्दी भी थी। बहरहाल, पलाश का ये अप्रत्यक्ष जवाब उसने अस्वीकार कर दिया।
परिस्थिति को समझते हुए, एक ही बात पलाश ने जिग्ना को अलग-अलग तरीक़े से समझाने की कोशिश की।
“ठीक है, मैं शादी के लिए तैयार हूँ। लेकिन तुम्हारे माता-पिता का क्या? क्या वो इस शादी के लिए तैयार होंगे? और अगर नहीं तो, क्या तुम अपने माता-पिता के ख़िलाफ़ जाकर हमेशा के लिए मेरे साथ आने को तैयार हो?”
पलाश के सवालों ने जिग्ना को चुप रहने पर मजबूर तो कर ही दिया था।
जिग्ना द्वारा अकस्मात ही किए गए शादी के सवालों ने पलाश को भी अचंभित तो कर ही दिया था। बहरहाल, उस दिन पलाश किसी तरह जिग्ना को शांत करने में कामयाब तो हो गया था, लेकिन साथ ही वो ये भी महसूस कर चुका था कि जिग्ना उसे कितना प्यार करती है। हालाँकि, वो उस परिस्थिति को समझने में अक्षम था और समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा है? इतने कम समय में ही परिस्थितियाँ इस ओर कैसे और क्यों मुड़ गई? पलाश को नहीं पता था कि उस समय वो जो भी कर रहा था वो सही था या ग़लत।
पलाश बचपन से ही अपने विचारों और निर्णयों को लेकर बहुत सीधा और सटीक था। उसने उस दिन जिग्ना से हुई अब तक की सारी बात और उस परिस्थिति को बहुत सोचा, समझा और ठीक प्रकार विश्लेषण करने कर पाया कि अगर जिग्ना उसे प्यार करती है तो उसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। वो ख़ुद भी तो जिग्ना को चाहने लगा था। असल बात यह थी कि सब बहुत कम समय में और बहुत जल्दी हो गया था।
आख़िरकार, भावनाओं के बहुत से उतार-चढ़ावों से गुज़रने के बाद पलाश ने उस परिस्थिति को समय के भरोसे छोड़ने का निर्णय लिया। हालाँकि, उस दिन पलाश को कहीं-न-कहीं ये एहसास हो चुका था कि वो और उसकी परिस्थितियाँ दोनों ही नियति के हाथों में थी।
फ़र्स्ट डेट
जून 2005
दो महीने पहले अनजाने में एक अजनबी-सी मुलाक़ात और फिर न जाने कहाँ के बिछड़े कैसे मिले वो भी फ़ोन कॉल पर, और फिर हो गया शुरू कभी न ख़त्म होने वाला वो प्यार का सिलसिला। अभी तो ये उस नई दास्ताँ की शुरुआत मात्र थी, लेकिन पलाश और जिग्ना की बात करें तो वो दोनों फ़ोन कॉल पर ही इतना क़रीब आ चुके थे, जैसे मानो सदियों से एक-दूसरे को जानते हों।
पलाश ने कभी नहीं सोचा था कि उसके साथ भी कुछ ऐसा हो सकता है। सच ही है, हम जो सोचते हैं वो होता नहीं है, और जो होता है वो कभी हमने सोचा नहीं होता, ये ही तो जीवन को जी भर जी लेने का असली मर्म है।
अपनी मात्र 21 साल कि उम्र में पलाश प्यार के बारे में बहुत ज़्यादा तो नहीं जान पाया था लेकिन इतना तो वो समझ ही गया था कि जिग्ना के साथ जो उसका लगाव है वो बहुत गहरा है और ये एहसास उसने अपने जीवन में पहले कभी महसूस नहीं किया था। इसके अलावा बाक़ी सब तो बॉलीवुड मूवीज़, समाचार पत्र और आस-पास की सामाजिक घटनाएँ सिखा ही देती हैं।
दो लोगों में प्यार को पनपने के लिए, एक-दूसरे को अच्छी तरह जानना तो ज़रूरी है ही, साथ-ही-साथ समय-समय पर मुलाक़ातें और निरंतर बात करते रहना, एक वृक्ष को सींचते रहने के समान है। फिर जितना समय इस वृक्ष को पनपने के लिए मिलता है इसकी छाँव उतनी ही गहरी होती जाती है।
आज तकनीकी क्रांति का समय है, सब कुछ डिजिटल है लेकिन आज से दो दशक पहले इस क्रांति की शुरुआत भर थी। यही कारण था की पलाश के पास फ़ोन तो था लेकिन वो सिर्फ़ बात और SMS करने के ही काम आ सकता था। असल बात ये थी कि प्यार तो पनप चुका था और दिनों दिन गहरा भी हो ही रहा था, लेकिन पलाश के पास जिग्ना की कोई तस्वीर नहीं थी, और तो और उसे तो ठीक से जिग्ना का चेहरा भी याद नहीं था। अब सिर्फ़ कुछ घंटों की एक मुलाक़ात में और हो ही क्या सकता है। जो भी हो एक अनोखा, अजनबी, अनदेखा और अनकहा-सा रिश्ता था जो जिग्ना और पलाश के बीच बन चुका था। पलाश महसूस कर था कि मानो यह रिश्ता अटूट और अमर है, लेकिन नियति को भला कौन जान पाया है। पलाश और जिग्ना तो नियति के हाथों की कठपुतली मात्र थे।
आख़िरकार सेमेस्टर ख़त्म होने के कगार पर पहुँच ही गया। और पलाश की दिल्ली जाने की तैयारियाँ भी होने लगी थीं। आख़िर, जिग्ना से मिलने का समय आ रहा था, जिसका कि वो दोनों ही लंबे समय से इंतज़ार कर रहे थे। यूँ तो बात करते हुए अभी एक महीना ही हुआ था, लेकिन जब बात प्यार की हो तो फिर दिन भी सदी के समान लंबे लगने लगते हैं।
पंतनगर की एक सुहावनी शाम, पलाश रानीखेत एक्सप्रेस से दिल्ली जाने के लिए तैयार था। रोचक बात यह थी कि हल्दीरोड स्टेशन बिल्कुल पंतनगर विश्वविद्यालय परिसर से लगा हुआ था, और विद्यार्थियों की सुविधा के लिए विश्वविद्यालय शटल भी उपलब्ध थी, जो ट्रेन के समयानुसर सभी हॉस्टल्स से होती हुई रेलवे स्टेशन तक जाती थी। पंतनगर से दिल्ली जाना हो तो दो ही ट्रेन उपलब्ध थी, एक रानीखेत एक्सप्रेस और दूसरी संपर्क क्रांति। ट्रेन तो दो थी लेकिन सिर्फ़ रानीखेत एक्सप्रेस ही हल्दीरोड स्टेशन पर रुकती थी, जबकि संपर्क क्रांति के लिए लालकुआँ स्टेशन जाना पड़ता था, जो कि पंतनगर परिसर से लगभग 10 किलोमीटर दूर था। समय को देखें तो रानीखेत एक्सप्रेस रात के 9.45 पर हल्दीरोड से चलकर सुबह 4.45 पर दिल्ली पहुँचा देती थी, जबकि संपर्क क्रांति सुबह के 9 बजे लालकुआँ से चलकर दिन के 3.30 पर दिल्ली पहुँचती थी। कुल मिलाकर देखा जाए तो पलाश के लिए रानीखेत एक्सप्रेस से जाना ज़्यादा सुविधाजनक था, साथ-ही-साथ रातभर सफ़र करके पूरा दिन भी बचाया जा सकता था। फिर क्या था, पलाश ने रानीखेत एक्सप्रेस से ही जाना तय किया और समय के मुताबिक़ वो पहले ही जिग्ना से सुबह दिल्ली में मिलने की बात तय कर चुका था।
रात के 9.20 का समय, पलाश ने नेहरू हॉस्टल से हल्दीरोड रेलवे स्टेशन के लिए शटल ले ली। शटल ने अगले कुछ 10 मिनट में ही स्टेशन पहुँचा दिया था। अब पलाश की यह यात्रा न तो बहुत अच्छे से सोची समझी हुई थी और न ही उस ज़माने में इंटरनेट या ऑनलाइन बुकिंग का इतना चलन था। बहरहाल, पलाश को जनरल डिब्बे की टिकट लेनी थी, जो कि उस समय में 79 रुपये की हुआ करती थी। अब एक ही ट्रेन, ऊपर से सामान्य डिब्बे में यात्रा के अलावा कोई चारा नहीं, मुश्किलें तो पलाश बाबू को होनी ही थीं।
ये सब तो ठीक था, लेकिन अभी समस्या ख़त्म नहीं हुई थी, अभी तो पलाश को इस तरह रात्री ट्रेन से सामान्य डिब्बे में यात्रा करने के कुछ और विपरीत प्रभावों से भी अवगत होना बाक़ी था। ख़ैर, रानीखेत एक्सप्रेस अपने सही समय पर स्टेशन पहुँची और पलाश दौड़कर सामान्य डिब्बे की ओर लपका। लेकिन ये क्या डिब्बा तो अंदर से बंद था, और लोगों के काफ़ी कोशिश के बाद भी कोई दरवाज़ा नहीं खोल रहा था। ट्रेन का सिर्फ़ 2 ही मिनट का ठहराव था हल्दीरोड स्टेशन पर। अब करे तो क्या करे, उधर 2 मिनट कब पूरे हो गए पता ही नहीं चला, और अब ट्रेन ने रवानगी का हॉर्न भी मार दिया। तभी दरवाज़े को थोड़ा-सा खोलते हुए, रेलवे पुलिस का एक गार्ड गर्दन बाहर निकालकर बोला, “एक सीट के 20 रुपये होंगे, जिसको आना है जल्दी अंदर आओ।” अब मरता क्या न करता, पलाश तुरंत ही लपककर कुछ और यात्रियों के साथ-साथ डिब्बे में चढ़ा और तब जान में जान आई। आख़िर सात घंटे का सफ़र, वो भी जनरल डिब्बे में, इतना आसान भी न था। मामला ये था कि भ्रष्टाचार के चलते RPF पुलिस गार्ड्स ने डिब्बे को बंद कर अपना कब्ज़ा कर लिया था और 20 रुपये में एक सीट बेच रहे थे। बहरहाल, जैसे भी हो, पलाश की यात्रा शुरू हुई और 20 रुपये देकर सीट भी मिल ही गई थी।
सुबह के 5 बजे, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन। पलाश जल्दी से उतरकर, स्टेशन से बाहर आया और अपनी आंटी के घर, मयूर विहार के लिए ऑटो ले लिया। ठीक 6 बजे पलाश अपने आंटी के घर पहुँचा और देव के कमरे में जाकर सो गया। लेटते ही पलाश को नींद आ गई। अब ट्रेन में कहाँ चैन की नींद आती है, वो भी जनरल डिब्बे में, फिर घर की तो कुछ अलग ही बात होती है।
पलाश आने से पहले ही फ़ोन पर देव के साथ यह सारी बात साझा कर चुका था कि वो जिग्ना से मिलने के लिए दिल्ली आ रहा है। इसी के चलते देव ने भी माँ को बता दिया था कि पलाश कुछ ख़रीदारी करने के लिए आ रहा है। पलाश की आंटी को आने का कुछ-न-कुछ कारण बताना ज़रूरी था वरना उसके आने की ख़बर उसके माता-पिता तक पहुँच सकती थी। फिर तो पलाश बाबू की मुश्किलें और भी बढ़ जातीं।
फ़िलहाल अभी तक सब कुछ ठीक था। सुबह के 9 बजे थे, जब पलाश की नींद खुली। उसने जल्दी से देव को भी उठाया। फिर दोनों भाई तुरत-फुरत ही तैयार हुए, ब्रेकफ़ास्ट किया और पहुँच गए प्रीत विहार CBSE बिल्डिंग के पास। यह लगभग वही जगह थी, जहाँ पहली बार सबने डोमिनोज़ में पिज़्ज़ा खाया था। ठीक इसी जगह पर मिलने का निर्णय पहले ही हो चुका था, कारण सब लोग इस जगह को जानते थे और फिर बस स्टैंड पास होने की वजह से लड़कियों को आने में भी सुविधा थी। आख़िर लगभग 15 मिनट में इंतज़ार ख़त्म हुआ और जिग्ना, जिया के साथ वहाँ पहुँच गई।
सबने बड़ी गर्मजोशी से एक-दूसरे का स्वागत किया। दिखने में सब कुछ बिल्कुल वैसा ही था जैसा कि दो महीने पहले लेकिन परिस्थिति अब पूरी तरह बदल चुकी थी, कारण वो अब चार दोस्त नहीं बल्कि दो जोड़े थे। पलाश अभी भी पूरी तरह विश्वास नहीं कर पा रहा था कि वो इतनी जल्दी जिग्ना के इतना क़रीब आ चुका था। दूसरी तरफ़ देव और जिया भी एक-दूसरे के काफ़ी क़रीब थे। उस मुलाक़ात की गर्मजोशी में बात करते-करते वो लोग इतने मशग़ूल हो गए थे कि पास के पार्क में जाने का फ़ैसला लेने में ही उन्होंने काफ़ी समय लगा दिया। आख़िरकर चारों पार्क की ओर चल पड़े, पलाश के साथ जिग्ना और देव के साथ जिया। पार्क में पहुँचकर पलाश और जिग्ना एक बेंच पर बैठ गए जबकि देव और जिया ने टहलना जारी रखा। असल में देव और जिया दोनों को ही पता था कि पलाश, जिग्ना से मिलने के लिए ही दिल्ली आया था और परिस्थिति को समझते हुए दोनों अलग हो गए थे ताकि उन्हें एकांत में बात करने का कुछ वक़्त मिल सके।
पहले कुछ मिनटों तक पलाश और जिग्ना दोनों के बीच सन्नाटा छाया रहा, स्वाभाविक था दोनों की ये बस दूसरी ही तो मुलाक़ात थी, उसके ऊपर इस तरह अकेले में तो दोनों पहली बार साथ बैठे हुए थे। फिर अगले कुछ क्षणों में ही जब बात शुरू हुई तो बातों का सिलसिला बिल्कुल वैसे ही चल पड़ा जैसे फ़ोन पर पिछले एक महीने से चल रहा था।
उन्हें देखकर कोई भी नहीं कह सकता था कि दोनों पहली बार इस तरह मिलकर बात कर रहे हैं, हालाँकि पलाश मन-ही-मन अभी भी जिग्ना के उस शादी वाले सवाल को लेकर चिंचित था। वह सवाल और जिग्ना की उस सवाल को लेकर गंभीरता के कारण पलाश एक अजीब-सी उलझन भरी परिस्थिति में फँसा हुआ था और जिग्ना से उस बारे में खुलकर बात कर लेना चाहता था।
आख़िरकार, कुछ देर में ही बातों का सिलसिला शादी वाले उस सवाल पर पहुँच गया। पलाश अपनी बात को लेकर साफ़, सटीक और दृढ़निश्चयी था, इसीलिए उसने वही बात दुबारा से जिग्ना को कह डाली। इस बार पलाश की आवाज़ में बेरुख़ी थी, लेकिन जो पलाश बोल रहा था वो ही कड़वा सच भी तो था। वो अपनी बात को लेकर जारी था।
‘शादी कोई बच्चों का खेल नहीं है।’
‘क्या तुमने कभी सोचा है कि अगर तुम्हारे माता-पिता इस बात के ख़िलाफ़ हुए तो तुम क्या क़दम उठाओगी?’
‘तुम उनका विरोध कैसे करोगी?’
‘क्या तुम इतनी परिपक्व हो कि ये सब निर्णय ले सको?’
‘क्या तुम में इतना साहस है कि अपने माता-पिता से इस बारे में बात कर सको?’
‘और अगर तुम में ये सब करने का, अपने माता-पिता के ख़िलाफ़ जाकर अपने निर्णय पर अडिग रहने का साहस हुआ भी तो उस समय तुम क्या करोगी, जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे इस फ़ैसले पर आत्महत्या करने की बात कह देंगे?’
‘क्या तुम उस समय भी मेरे साथ आने के लिए तैयार रहोगी?’
पलाश का हर सवाल जीवन की सच्चाई और तर्क से भरा हुआ तो था, लेकिन वह बोलते-बोलते ये भूल गया था कि उसने ये सारे सवाल बड़े आक्रामक तरीक़े से जिग्ना से कह डाले थे। जिग्ना चुपचाप पलाश की ओर देख रही थी और उसकी आँखों में आँसू भरे हुए थे। जिग्ना रोने लगी, तब जाकर पलाश को एहसास हुआ कि शादी के विषय की सच्चाई समझाने में, उसके बात करने का तरीक़ा कितना बेरुख़ा और आक्रामक हो गया था।
वक़्त की ज़रूरत को समझते हुए पलाश ने तुरंत ही बात को सँभाल लिया, इसमें तो पलाश को महारत हासिल थी ही। उसने किसी तरह जिग्ना को शांत कर दिया था लेकिन अब बोलने की बारी जिग्ना की थी। कुछ पलों के लिए वह चुप रही, फिर उसने जो कहना शुरू किया तो पलाश के पास कोई जवाब न था। जिग्ना ने अपने व्यक्तित्व के अनुरूप सीधे और सरल शब्दों में कहा, “ये सब बड़ी-बड़ी बातें जो तुमने कही हैं, उसके बारे में तो मुझे ज़्यादा नहीं पता लेकिन मैं तुम्हें ये ज़रूर सुनिश्चित कर देती हूँ कि मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ और किसी भी परिस्थिति में किसी भी क़ीमत पर तुम्हें छोड़ने वाली नहीं हूँ।” जिग्ना पूरी तरह आत्मविश्वास से भरी हुई बोलती जा रही थी।
“मेरा तुमसे ये वादा है कि आज के बाद तुम हर गुज़रते हुए दिन, हर पल के साथ मुझे अपने आप के और ज़्यादा क़रीब पाओगे।”
पलाश स्तब्ध था। वो सिर्फ़ जिग्ना की ख़ूबसूरत आँखों में देखते हुए उसके आत्मविश्वास की गहराई को नापने की नाकाम कोशिश कर रहा था। पलाश समझ नहीं पा रहा था कि यह जिग्ना का प्रस्ताव था या स्वीकृति थी या फिर अपने प्यार का इक़बालिया बयान था। एक बात तो साफ़ थी कि जिग्ना ने बहुत ही सीधे, साफ़ और दृढ़निश्चयी तरीक़े से पलाश के प्रति अपने प्यार की घोषणा कर दी थी। यह सब बहुत जल्दी भले ही हो गया था लेकिन जिग्ना भी अपने निर्णय को लेकर निश्चित थी।
पलाश और जिग्ना दोनों ही अपने उस अनजान और अनोखे से बंधन के भविष्य के बारे में नहीं जानते थे लेकिन उस दिन इतना तो तय हो ही चुका था कि वो बंधन प्यार था जो दोनों को आज यहाँ तक खींच लाया था।
फ़ोन कॉल पर एक-दूसरे को अच्छे से जान लेने के बाद यह उनकी पहली मुलाक़ात थी। इस मुलाक़ात को यादगार बनाना तो जायज़ था, इसीलिए पलाश एक छोटा-सा की-चैन जिग्ना के लिए उपहार स्वरूप ले आया था जिस पर प्यार के कुछ शब्द अंकित थे। पलाश नियति के उस निर्णय से बिल्कुल अनभिज्ञ था जो उस दिन घटित हुआ। और सच ही है, नियति को भला कौन जान पाया है।
सच तो यह था कि, उस दिन पलाश के जीवन की कहानी में एक नया अध्याय जुड़ गया था, जिसमें मुख्य किरदार जिग्ना और पलाश थे। बहरहाल इधर एक नये अध्याय की शुरुआत हो चुकी थी और दूसरी तरफ़ पलाश के जीवन में कुछ ऐसा होने वाला था जिसने उसे और उसके पूरे परिवार को कुछ समय के लिए तनावपूर्ण स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया था।पंतनगर और पुलिस
जुलाई 2005
नेहरू हॉस्टल, पंतनगर में प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों का बसेरा। जी हाँ, पंतनगर में जूनियर लड़कों का हॉस्टल जिसके गलियारे सुबह और शाम पंतनगरीय भाषा में होते, ऊँची आवाज़ के विचार विमर्श से गुले-गुलज़ार रहते थे। अब ये पंतनगरीय भाषा क्या है? ये तो आप तब ही जान पाएँगे जबकि आप ख़ुद पंतनगर में रह चुके हों या फिर एक अच्छा-ख़ासा अंदाज़ा तो लगा ही लेंगे, अगर आपने भी अपने जीवन का कुछ समय किसी कॉलेज हॉस्टल में बिताया हो।
बहरहाल, नेहरू हॉस्टल में विंग नंबर 7 के रूम नंबर 28 में रहने वाला पलाश उन कुछ लड़कों में से था, जिनके पास उस समय मोबाइल फ़ोन था। अब उस ज़माने में मोबाइल फ़ोन इतने आम नहीं थे, इसीलिए हॉस्टल के बच्चों में पलाश की अच्छी पहचान थी। और फिर पलाश कभी भी किसी की सहायता करने में पीछे नहीं हटता था। फिर चाहे वो दूसरे बच्चों को उनके माता-पिता से फ़ोन पर बात करने के लिए अपना मोबाइल देने की बात ही क्यों न हो। आलम ये था कि हॉस्टल के कई सारे बच्चों ने पलाश का मोबाइल नंबर अपने घरों पर दे रखा था और पलाश का फ़ोन पूरे हॉस्टल में इधर से उधर घूमता रहता था। वैसे भी 200 बच्चों की क्षमता वाले हॉस्टल में एक लैंडलाइन फ़ोन के चलते कभी-कभी बात करना बहुत मुश्किल हो जाता था। फिर पलाश को इस तरह मोबाइल फ़ोन के ज़रिये ही सही, दूसरों की सहायता करने में ख़ुशी ही मिलती थी। पलाश तो अपनी जगह बिल्कुल भी ग़लत नहीं था, लेकिन उसने कभी नहीं सोचा था कि उसका ये दूसरों की मदद करने का जज़्बा ही एक दिन उसके लिए एक बड़ी परेशानी का कारण बनेगा।
प्रथम वर्ष के द्वितीय सेमेस्टर की परीक्षा समाप्त हो चुकी थी और अगले दो ही दिन में छुट्टियाँ शुरू होने वाली थीं। नज़दीकी क्षेत्र के रहने वाले अधिकतर बच्चे तो अपने घरों को जा भी चुके थे और जो बच गए थे वो जाने की तैयारी में लगे हुए थे।
सेमेस्टर समाप्त होने के ठीक एक दिन पहले, शाम के 7 बजे उस अजीब, अविश्वसनीय और पलाश को अंदर तक हिला देने वाली अप्रत्याशित घटना की शुरुआत तब हुई, जब पलाश के फ़ोन पर उसके रूम मेट के लिए घर से कॉल आया। यूँ तो पलाश के फ़ोन पर इस तरह कॉल आना बहुत ही सामान्य बात थी लेकिन लगभग 10 मिनट तक अपने घरवालों से हुई बात के बात रूम मेट ने जो बात बताई, उसने उसे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया।
पलाश पहले से ही उस दिन कुछ असहज महसूस कर रहा था। उसके रूम मेट ने उसे बताया, “आज दिन में उसके माता-पिता को एक अपरिचित फ़ोन आया था जिसने उन्हें बोला कि आपका बेटा एक दुर्घटना में ज़ख़्मी हो गया है और इसी कारण से वो हॉस्टल का पता जानना चाह रहे थे ताकि विश्वविद्यालय को ख़बर की जा सके। जब उसके माता-पिता ने संदेहवश पूछा कि कौन बोल रहा है तो जवाब मिला कि वो हल्द्वानी पुलिस स्टेशन से बोल रहे है।”
ये सारी बात बड़ी विचित्र-सी थी, क्योंकि पलाश का रूम मेट तो वहीं हॉस्टल में सुरक्षित था और फिर अगर वो सच में पुलिस वाले थे तो उनको रूम मेट के घरवालों का नंबर क्यों और कहाँ से मिल गया? आख़िर मामला क्या था?
ये सब सुनते ही अपने स्वभावानुसार पलाश के दिमाग़ी घोड़े दौड़ने लगे। उसे समझते देर न लगी कि हॉस्टल के पते की जानकारी लेकर कोई उन तक पहुँचना चाहता था। लेकिन उसके रूम मेट तक कोई क्यों पहुँचना चाहेगा? कहीं उनकी खोज में पलाश भी तो शामिल नहीं था?
पलाश और उसके रूम मेट को पंतनगर से बाहर तो कोई जानता तक नहीं था, क्योंकि दोनों ही दूसरे राज्य के रहने वाले थे और पंतनगर में उन्हें एक साल भी पूरा नहीं हुआ था। पलाश निरंतर बात की गहराई में चलता चला जा रहा था, बात आख़िर मोबाइल फ़ोन पर आकर रुक गई। एक मोबाइल फ़ोन ही उनके पास ऐसे चीज़ थी जो पूरे हॉस्टल में घूमती थी और उस पर न जाने कहाँ-कहाँ से और कितने लोगों के फ़ोन आते थे, जो कि पलाश भी ठीक से बताने में सक्षम नहीं था।
फ़िलहाल, पलाश के दिमाग़ी घोड़े मोबाइल फ़ोन पर आकर रुक गए थे और वो अपने रूम मेट के साथ इन्हीं सब बातों के बारे में बात करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश कर रहा था। वैसे तो अभी बात कुछ इतनी ख़ास नहीं थी लेकिन बाल की खाल निकालकर मामले की तह तक पहुँच जाना पलाश की आदत थी।
जब बात मोबाइल फ़ोन पर आकर रुकी तो पलाश उस फ़ोन कॉल को कैसे भूल जाता जो कुछ महीनों पहले उसे आया था। फ़ोन नंबर अपरिचित था और पूछने पर दूसरी तरफ़ से बताया गया था कि वो अल्मोड़ा पुलिस स्टेशन से बोल रहे हैं और कारण था कि पलाश के फ़ोन नंबर के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज थी, इसी मामले में उसे अल्मोड़ा आने को बाध्य किया जा रहा था।
अब पलाश बाबू जैसे तार्किक व्यक्ति को कोई ऐसा कॉल आए और वो उसे सच मान लें वो भी बिना किसी कारण और अते-पते के तो बात ही क्या। ठीक ऐसा ही हुआ था, बात को गंभीरता से लेने के बजाय उल्टा पलाश की बहस हो गई। एक तरह से देखा जाए तो सही भी था। ऐसे ही भला कैसे मान लिया जाता कि वो पुलिस वाले बोल रहे थे। इसी मद्देनज़र ज़्यादा बहस किए बिना पलाश ने कॉल कट कर दिया। हालाँकि, वो ये भी बख़ूबी समझता था कि बिना चिंगारी के कभी आग नहीं लगती। मतलब साफ़ था, कहीं-न-कहीं कुछ तो उसके मोबाइल से संबंधित ग़लत हुआ था और इसी के चलते उस फ़ोन कॉल के बाद पलाश अपने मोबाइल फ़ोन के लिए थोड़ा संजीदा हो गया था। इतना ही नहीं उस कॉल के बाद कुछ अपरिचित और धमकी भरे फ़ोन कॉल भी पलाश को आए थे, जिनका मक़सद उसका नाम और पता जानना भर था। दुर्भाग्यवश उस समय पलाश ने उन फ़ोन कॉल्स को गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन कुछ ग़लत होने के अंदेशा तो उसे हो ही गया था और अपने मोबाइल फ़ोन को हर किसी को दे देने वाली आदत पर उसने काफ़ी नियंत्रण भी कर लिया था।
हक़ीक़त यह थी कि नेहरू हॉस्टल में एक विचित्र-सा माहौल था, कारण पंतनगरीय हॉस्टल की विकट गाली-गलौज भरी भाषा। अब यह लड़कों के हॉस्टल के लिए बहुत विशेष बात तो नहीं थी लेकिन नेहरू हॉस्टल में यह माहौल अपने चरम पर था। पलाश ख़ुद भी नेहरू हॉस्टल की विकट पंतनगरीय भाषा के प्रभाव से नहीं बच पाया था, जो कि पंतनगर आने से पहले उसके लिए असहनीय थी। आलम ये था कि उसके पास जो भी अपरिचित फ़ोन कॉल्स आए थे, उन्हें उसी भाषा में जवाब देने में उसने बिल्कुल भी चूक नहीं की थी। और फिर जब बात जैसे को तैसा वाली हो तो फिर भला पलाश से कौन जीत सकता था। लेकिन इन सबके बीच वो यह भूल गया था कि बाहर की दुनिया और माहौल, दोनों ही पंतनगर हॉस्टल जैसे नहीं थे।
बहरहाल, उन फ़ोनकॉल्स की बात तो आई गई-सी हो गई थी, लेकिन अब पलाश को संदेह होने लगा था कि उन फ़ोनकॉल्स और आज उसके रूम मेट के घर आए अपरिचित पुलिस कॉल में कोई-न-कोई संबंध ज़रूर था। हो न हो, कुछ गड़बड़ तो ज़रूर थी क्योंकि दोनों घटनाओं में समानता थी, वो यह कि दोनों ही बार पलाश का या सही कहें तो उसके मोबाइल नंबर का पता जानने की कोशिश की गई थी।
अब पलाश को पूरी तरह शक हो चुका था कि हो न हो मोबाइल फ़ोन से संबंधित ही कोई बात है। चिंता का विषय ये था कि पलाश का अंतर्मन अब कुछ गड़बड़ी के संकेत देने लगा था। हालाँकि, पलाश हर परिस्थिति में सकारात्मक सोच रखने वाला दृढ़निश्चयी व्यक्ति था लेकिन साथ-ही-साथ वो इनता संवेदनशील भी था कि अपने आस-पास के माहौल और हो रही घटनाओं के बिनाह पर आने वाली परिस्थितियों का काफ़ी हद तक अनुमान लगा ही लेता था।
फ़िलहाल, वो अपने रूम मेट के साथ सारी हो चुकी घटनाओं और आगे संभावित संभावनाओं पर विचार विमर्श में व्यस्त था क्योंकि विचार विमर्श ही वो कुंजी थी जिससे आने वाली संभावित समस्या का संभव हल खोजा जा सकता था। दोनों ने मिलकर ये तो निश्चय कर ही लिया था कि सुबह ही वो पंतनगर से अपने-अपने घरों के लिए रवाना हो जाएँगे, वैसे भी सेमेस्टर लगभग ख़त्म हो ही चुका था। साथ ही पलाश ने यह भी निर्णय लिया कि कुछ भी हो, कम-से-कम वो घर जाते ही उस मोबाइल नंबर को तो हमेशा के लिए बंद कर ही देगा और नये सेमेस्टर की शुरुआत नये मोबाइल नंबर से ही होगी।
रात के लगभग 10 बजे का समय, पलाश ने घर जाने के लिए अपनी तैयारी कर ली थी। ज़्यादातर बच्चे तो सेमेस्टर ब्रेक के चलते अपने-अपने घरों को पहले ही जा चुके थे, तो अब देर रात तक जागकर बातें करने के लिए मित्रों की मंडली भी नहीं थी। हॉस्टल के गलियारे में सन्नाटा छाया हुआ था और सोने के अलावा कोई चारा न था। जुलाई का महीना था लेकिन पंतनगर के तराई क्षेत्र में बसे होने की वजह से जो उमस होती थी, उसने पसीनों से हाल-बेहाल किया हुआ था। ख़ैर, मन में उठते कुछ नकारात्मक एहसासों और विचारों के ख़याल में डूबा पलाश सोने की कोशिश कर रहा था। इस सारे मामले के चलते थोड़ा चिंचित तो वह पहले ही था और अब बेसब्री से सुबह होने का इंतज़ार कर रहा था ताकि जल्द-से-जल्द अपने घर के लिए रवाना हो जाए।
हमारे चारों ओर के वातावरण में होता ऊर्जा का प्रवाह कहीं-न-कहीं हमें आगे होने वाली घटनाओं के बारे में संकेत दे देता है, बस उन्हें समझने और महसूस करने की क्षमता होनी चाहिए। पलाश के साथ भी आज कुछ ऐसा ही हो रहा था।
जैसा कि पलाश उस दिन सुबह से ही असहज महसूस कर रहा था और फिर रूम मेट के घर अपरिचित पुलिस कॉल की घटना, ये सब नकारात्मक ऊर्जा प्रवाह के संकेत थे। आख़िर वैसा ही हुआ जैसा कि उसे अंदेशा हो रहा था। रात के लगभग 2 बजे का समय, सुरक्षाकर्मी विंग नंबर 7 में रूम नंबर 28 का दरवाज़ा पीट रहा था। जी हाँ, ये पलाश का ही रूम था। सुरक्षाकर्मी के लाठी से दरवाज़े को पीटने की तेज़ आवाज़ से पलाश हड़बड़ाकर उठा और तुरंत दरवाज़ा खोला। सुरक्षाकर्मी भी अपनी नींद ख़राब हो जाने की वजह से बिगड़ा हुआ था और दरवाज़ा खुलते ही झुँझलाकर बोला, “पलाश कौन है? उसके लिए वार्डन कॉल है, जल्दी चलो।”
अब पलाश बाबू तो शाम से ही उधेड़-बुन में लगे हुए थे और फिर इस तरह रात को 2 बजे अचानक से वार्डन कॉल लगने पर उसे सारा मसला समझ आने लगा। हालाँकि ये सब अजीब और आश्चर्यचकित कर देने वाला तो था ही लेकिन पलाश पूरे मसले और उससे जुड़ी संभावनाओं के बारे में काफ़ी चिंतन कर चुका था या ये कहें कि आने वाली समस्या को पूरी तरह जाने बिना ही उसका सामना करने के लिए वह अपने आप को तैयार कर चुका था। जो भी हो, उसे इतना आत्मविश्वास तो था ही कि जब उसने कुछ ग़लत नहीं किया है तो डरने का तो मतलब ही नहीं बनता बल्कि वो ये समझने की कोशिश में लगा था कि ये सब क्यों? कैसे? और किसलिए हो रहा था?
तब तक पलाश का रूम मेट भी जग चुका था। ख़ैर, वार्डन कॉल पलाश की लगी थी सो चल दिया सुरक्षाकर्मी के साथ वार्डन के निवास की ओर जो कि हॉस्टल की चारदीवारी के बाहर ही था। अभी भी पलाश ये ही सोच रहा था कि, ‘क्या मामला सच में इतना गंभीर है कि रात को 2 बजे वार्डन कॉल लगी?’
अगले कुछ ही मिनटों में पलाश समझ गया था कि यह मसला सच में गंभीर है। जैसे ही उसने वार्डन के आतिथि कक्ष में प्रवेश किया, आश्चर्य और डर के मिले-जुले एहसास ने उसे स्तब्ध कर दिया। अंदर एक पुलिस इंस्पेक्टर और उसके दो साथी कांस्टेबल वार्डन से विचार-विमर्श में व्यस्त थे।
उस समय पलाश मात्र 21 वर्ष का था, पंतनगर विश्वविद्यालय में स्नातक प्रथम वर्ष का छात्र। उस पर जब रात के 2 बजे हॉस्टल वार्डन की कॉल लगी हो और पहुँचे तो पाया, पुलिस वाले स्वागत करने के लिए तैयार। उस समय पलाश की मानसिक स्थिति क्या रही होगी, कोई भी बहुत आसानी से समझ सकता है। बहरहाल, पसीने छुड़ा देने वाली उस परिस्थिति में भी पलाश ने अपने आप को सँभाला हुआ था, सारी बातों के मद्देनज़र बस वो ये सोचने में लगा था कि आगे क्या होने वाला है।
पुलिस इंस्पेक्टर ने पलाश की ओर मुड़कर उसे देखते हुए सवाल पूछा, “9897405276, क्या यह तुम्हारा ही मोबाइल नंबर है?”
पलाश अच्छी तरह जानता था कि झूठ गहरे पानी में पड़ने वाले भँवर के समान होता है, जिसमें एक बार घुस जाने पर वापस निकल पाना असंभव होता है। इसीलिए समय और परिस्थिति को समझते हुए पलाश ने बिना कुछ छुपाए सब सच कहना ही उचित समझा और ‘हाँ’ में जवाब दिया। अब वो पूरी तरह निश्चित हो चुका था कि उसके मोबाइल से ही कुछ गड़बड़ हुई है लेकिन कब? कैसे? और किसने क्या किया था? इन सारे सवालों के जवाब अभी बाक़ी थे।
पुलिस इंस्पेक्टर ओर उसके दोनों साथी कांस्टेबल पलाश की ओर बड़े विचित्र और कौतूहल भरे भाव से देख रहे थे, मानो पलाश मुजरिम हो और बड़ी मशक्कत के बाद उन्होंने उसे ढूँढ लिया हो। इसमें कोई शक नहीं था कि यह पलाश के लिए बड़ी मुश्किल की घड़ी थी। आत्मविश्वास था तो बस इस बात का कि उसने कुछ ग़लत नहीं किया था। ख़ैर, अभी तो कहानी शुरू ही हुई थी और आगे देखना था कि क्या होने वाला था? दूसरी ओर, भले ही पलाश अकेला था लेकिन ये भी सच था कि वह हॉस्टल वार्डन की ज़िम्मेदारी में था।
आगे इंस्पेक्टर ने जो भी सवाल पूछे, उनका जवाब पलाश के पास नहीं था। सारे सवाल आश्चर्यचकित कर देने वाले थे और पलाश को ख़बर नहीं थी कि उससे ये सब सवाल क्यों पूछे जा रहे हैं?
पुलिस इंस्पेक्टर ने तो पलाश के विरुद्ध शिकायतों के ढेर ही लगा दिए थे।
“क्या तुम नैनीताल में किसी लड़की से फ़ोन पर बात करते हो? क्या तुमने उसे अश्लील SMS भेजे? क्या तुमने पुलिस के साथ बदतमीज़ी की?”
स्वाभाविक ही पलाश का उन सभी सवालों के लिए जवाब ‘नहीं’ था, लेकिन पुलिस वाले उसकी बात पर भरोसा करने को तैयार नहीं थे। इन सब बातों के पीछे एक ही कारण था, वो था पलाश का मोबाइल फ़ोन क्योंकि उसके मोबाइल फ़ोन से ही यह सब कुछ घटित हुआ था। असल में शिकायत भी मोबाइल नंबर के लिए ही दर्ज थी, लेकिन मोबाइल नंबर था पलाश का, तो फँसना तो उसी को था। उस पर पुलिस वाले मोबाइल नंबर के विरुद्ध पूरे सबूत भी साथ लाए थे। असल में पुलिस वालों के पास पलाश के मोबाइल नंबर की पूरी कॉल डिटेल थी, और तो और पिछले 6 महीने में उस मोबाइल नंबर से किए गए सारे SMS के प्रिंट वो अपने साथ लेकर आए थे। यह पूरे 56-60 पन्नों का बंडल था जो इस बात का सबूत था कि पलाश के मोबाइल नंबर से पिछले कुछ महीनों में ही हज़ारों की संख्या में SMS किए गए थे और वो भी ज़्यादातर रात के समय में। अब दूसरी ओर देखा जाए तो, सवाल ये था कि SMS दर इतनी ज़्यादा होने पर भी हज़ारों की संख्या में SMS कैसे संभव थे? इसकी दो ही संभावनाएँ थीं- या तो पलाश ने बहुत सारे रुपये ख़र्च किए थे या फिर उसके मोबाइल नंबर से SMS करने के रुपये नहीं लग रहे थे। अब इतने रुपये ख़र्च करना तो पलाश के लिए किसी भी तरीक़े से संभव नहीं था। फिर मोबाइल फ़ोन से मुफ़्त में SMS, भला ये बात किसे पचने वाली थी।
सच तो ये था कि पलाश के एयरटेल मोबाइल नंबर पर पिछले कई महीनों से SMS फ़्री हो रहे थे। अब ये हो कैसे रहा था? यह तो एयरटेल वाले ही बता सकते थे। लेकिन इसके चलते ही पलाश अपने मोबाइल से सभी को दिल खोलकर SMS करने लगा था, और जब ये बात बाक़ी लोगों को पता चली तो फिर बात ऐसे हो गई ‘जैसे भूखे को खाना’। पलाश के अलावा जो भी उसका मोबाइल फ़ोन इस्तेमाल करता, तो अपने दोस्तों को SMS करना तो नहीं भूलता था। फिर रुपये तो लग नहीं रहे थे, तो भला पलाश को क्या समस्या हो सकती थी। रही बात रात को SMS करने की, तो पंतनगर में पढ़ने वाले बच्चों की दिनचर्या कुछ ऐसी होती है कि उन्हें रात्री भोजन के बाद ही बाक़ी किसी काम के लिए वक़्त मिल पाता है और फिर देर रात तक चलने वाली गपशप।
बहरहाल, पलाश अपनी जगह सही था और उसके दिए तर्क जायज़ भी लग रहे थे लेकिन किसी को उसकी बात पर भरोसा नहीं हो रहा था। कारण, रात के समय में किए गए हज़ारों SMS तक तो बात ठीक थी लेकिन किसी लड़की को अश्लील SMS करने वाली बात साफ़ नहीं थी। निश्चित ही किसी ने पलाश के मोइबल फ़ोन से हो रहे फ़्री SMS का दुरुपयोग करते हुए वो अश्लील SMS किए थे। फ़िलहाल, मुसीबत का घड़ा तो उसके सिर पर ही फूटना था जिसका मोबाइल फ़ोन था। कुल मिलाकर, पलाश के नंबर से किए गए SMS के आधार पर उन सारे अश्लील SMS के लिए पुलिस ने पलाश को ही ज़िम्मेदार माना।
सच तो ये था कि हर 20 दिन में 220 रुपये का फ़ोन रिचार्ज करवाकर अपने कई साथियों को अपना मोबाइल फ़ोन उनके घरों पर बात करने के लिए उपलब्ध करवाने वाले पलाश ने किसी को भी अश्लील SMS नहीं किए थे। लेकिन मोबाइल नंबर उसका होने की वजह से ज़िम्मेदार वो बन गया था। ये SMS बार-बार होने की वजह से यह मुद्दा गंभीर बन गया था और परिणामस्वरूप उस लड़की के माता-पिता ने मोबाइल नंबर के विरुद्ध पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दी थी। वह लड़की नैनीताल की रहने वाली थी इसीलिए सारा मामला नैनीताल पुलिस स्टेशन में दर्ज हुआ था। अब सारी कहानी साफ़ थी कि क्यों पलाश को अपरिचित फ़ोन कॉल्स आ रहे थे? जो उसका नाम और पता जानने कि कोशिश कर रहे थे। इसी वजह से पुलिस पिछले कुछ महीनों से पलाश का मोबाइल नंबर ट्रेक कर रही थी। इसी सिलसिले में पता जानने के लिए पुलिस वालों ने पलाश के रूममेट के घर भी फ़ोन किया था। आख़िरकार, मोबाइल नंबर का पता सुनिश्चित हो जाने के बाद पुलिस पलाश को गिरफ़्तार करने के लिए नेहरू हॉस्टल पहुँच गई थी और अब वो पुलिस इंस्पेक्टर के सामने था।
असल में पुलिस पलाश को उसी समय गिरफ़्तार करके नैनीताल पुलिस स्टेशन ले जाना चाहती थी, जहाँ शिकायत दर्ज हुई थी। लेकिन ये संभव नहीं था या यूँ कहिए कि पलाश के सितारे अभी उसका साथ दे रहे थे। यह पंतनगर विश्वविद्यालय परिसर था जिसके अपने अलग क़ायदे-क़ानून थे और किसी भी विद्यार्थी को इस तरह गिरफ़्तार कर लेना मुमकिन नहीं था। पंतनगर विश्वविद्यालय में हर विद्यार्थी के लिए एक लोकल एडवाइज़र नियुक्त किए जाने का नियम था जो ज़रूरत पड़ने पर विद्यार्थी के सभी शैक्षिक और व्यक्तिगत मामलों में सहायता करते थे।
यह पलाश की नियति ही थी या कहिए कि वो भाग्यशाली था, कृषि महाविद्यालय के डीन स्वयं ही उसके लोकल एडवाइज़र थे। डीन होने के साथ ही वह एक प्रतिष्ठित और प्रभावशाली व्यक्ति भी थे। सारी परिस्थिति, संभावनाओं और मामले की गंभीरता के मद्देनज़र, विश्वविद्यालय के नियमों का हवाला देते हुए वार्डन ने पुलिस को सुबह तक इंतज़ार करने को कहा और बताया, “सुबह कृषि महाविद्यालय के डीन से मुलाक़ात के बाद की कुछ हो पाएगा जो कि पलाश के लोकल एडवाइज़र हैं क्योंकि उनसे बात किए बिना पलाश के बारे में कोई भी फ़ैसला नहीं लिया जा सकता।” हालाँकि पुलिस वाले वार्डन की इस बात से ख़ुश नहीं थे लेकिन उनके पास सुबह तक इंतज़ार करने के अलावा कोई दूसरा विलल्प भी नहीं था।
सुरक्षा की दृष्टि से वार्डन ख़ुद पलाश को हॉस्टल में उसके रूम तक छोड़ने आया था, ये बात और थी कि उसे वार्डन से ढेरों गालियाँ भी सुनने को मिली थीं। ख़ैर, लड़कों का हॉस्टल और पंतनगरीय भाषा, रात को 2 बजे सिर पर अचानक आ खड़ी हुई इस गंभीर समस्या की वजह से वार्डन को हुई परेशानी के बदले में पलाश और उम्मीद भी क्या कर सकता था। बहरहाल, वार्डन की गालियों को अनसुना करके वो यह सोचने में लगा था कि सुबह क्या होने वाला है?
पुलिस का अगला क़दम क्या होगा? क्या पुलिस उसे गिरफ़्तार करके जेल में डाल देगी? वह अपनी बेगुनाही कैसे साबित करेगा? इन सभी समस्याओं से वो कैसे बाहर निकलेगा?
उस भयावह स्थिति में बहुत सारे सवाल पलाश के दिमाग़ में घूम रहे थे। पलाश अकेला था, बस साथ था तो एक सकारात्मक विचार कि उसने कुछ भी ग़लत नहीं किया है। यह सिर्फ़ उसका मोबाइल नंबर था जिसका हॉस्टल में ही किसी और ने दुरुपयोग किया था।
सुबह के 4 बज चुके थे जब पलाश रूम पर वापस पहुँचा, वार्डन और पुलिस के साथ हुई बातचीत में 2 घंटे कब निकल गए थे, पता ही नहीं चला। सारे घटनाक्रम का आत्मविश्लेषण करके, सकारात्मक हल के बारे सोचते-सोचते ही पलाश न जाने कब नींद के आग़ोश में चला गया था, हालाँकि सुबह होने में कुछ ही घंटे बचे थे। दरवाज़ा पीटने के साथ-साथ वार्डन के ऊँचे स्वर में दरवाज़ा खोलने की आवाज़ से, अचानक पलाश की नींद टूटी। अपनी टेबल पर रखी छोटी अलार्म घड़ी की ओर देखा तो 5.45 मिनट हो चुके थे।
मामला गंभीर था। वार्डन सुबह तड़के ही पलाश के लोकल एडवाइज़र से बात कर चुके थे। सुबह 6.15 मिनट पर वार्डन पलाश को लेकर डीन कृषि महाविद्यालय के आवास पर पहुँच चुके थे। कुछ ही देर में पुलिस इंस्पेक्टर भी अपने साथियों के साथ वहाँ पहुँच गया था। सारे मामले को ठीक से समझने और पुलिस से विचार विमर्श करने के बाद डीन महोदय ने एक सटीक और सही निर्णय लिया और यह पलाश के पक्ष में था। यह बिल्कुल वैसा ही निर्णय था, जैसा कि एक लोकल एडवाइज़र को उसके विद्यार्थी के लिए मुश्किल की घड़ी में लिया जाना चाहिए था।
डीन ने पुलिस को बात साफ़ करते हुए कहा, “मामला चाहे जो भी हो, पलाश अपनी जगह सही है, पूरी संभावना है कि ये SMS उसके मोबाइल से किसी और ने किए हों। और फिर यह कोई पेशेवर अपराधी नहीं है जिसे आप इस तरह उसके हॉस्टल से गिरफ़्तार करके ले जाएँगे। आगे, अगर पुलिस मामले की पूरी छानबीन करना ही चाहती है तो विश्वविद्यालय के सिक्योरिटी ऑफ़िसर इसके माता-पिता को साथ लेकर नैनीताल पुलिस स्टेशन आएँगे।”
यह डीन का एक बड़ा फ़ैसला था, ये कहना भी ग़लत नहीं होगा कि डीन के उस ऐतिहासिक निर्णय ने कहीं-न-कहीं उस दिन पलाश के भविष्य और करियर को ख़राब होने से बचा लिया था। अगर पुलिस पलाश को अपने साथ एक अपराधी की तरह गिरफ़्तार करके ले जाती तो मामला और भी ज़्यादा गंभीर हो सकता था जो पलाश और उसके भविष्य दोनों के लिए ही सही नहीं था।
लेकिन क्या पुलिस वाले इतनी आसानी से मानने वाले थे? पुलिस के रूखे व्यवहार और मनमर्ज़ियों के बारे में कौन नहीं जानता। पुलिस इंस्पेक्टर डीन के निर्णय के विरुद्ध था और पलाश को उसी वक़्त गिरफ़्तार करके अपने साथ ले जाने की अपनी बात पर अड़ा हुआ था। इसी के चलते उसकी डीन के साथ थोड़ी बहस भी हो गई थी। फिर क्या था, पुलिस की ज़िद और मामले की गंभीरता को समझते हुए, इससे पहले ही मामला हाथ से निकले, डीन ने तुरंत ही विश्वविद्यालय के सिक्योरिटी ऑफ़िसर को फ़ोन कर, मामले की पूरी जानकारी दे दी।
अब यह पंतनगर विश्वविद्यालय परिसर था, कोई आम जगह नहीं, फिर मामला इस मोड़ पर आ पहुँचे तो सिक्योरिटी ऑफ़िसर का सम्मिलित होना तो जायज़ था। अगले 10 मिनट में ही चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर डीन के आवास पर पहुँच गए। चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर स्वभाव से थोड़े कठोर व्यक्तित्व वाले थे, जो कि उनके ओहदे से ठीक मेल खाता था। आने के तुरंत बाद, कुछ ही क्षणों में उनका डीन के साथ छोटा विचार-विमर्श हुआ और फिर अपनी दबंग आवाज़ में चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर ने जो पुलिस वालों को कहा वो एक चेतावनी से कम नहीं था, “जितना जल्दी हो सके, विश्वविद्यालय परिसर छोड़ दो। मेरी अनुमति के बिना के परिसर में पुलिस का प्रवेश मात्र भी वर्जित है।”
पुलिस इंस्पेक्टर चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर के लताड़ भरे लहजे से बौखला उठा और अपनी दलीलें देकर बहस करने लगा। इंस्पेक्टर ये भूल गया था कि अब वो पंतनगर विश्वविद्यालय की सुरक्षा व्यवस्था को चुनौती दे रहा था। फ़िलहाल, इसके जवाब में चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर ने जो कहा, उतना इंस्पेक्टर को उसके साथियों के साथ पंतनगर परिसर से तुरंत बाहर निकल जाने को मजबूर कर देने के लिए काफ़ी था। सिक्योरिटी ऑफ़िसर ने रौंगटे खड़े कर देने वाले अंदाज़ में बड़े आक्रामक तरीक़े से कहा, “विश्वविद्यालय परिसर में 3500 से अधिक विद्यार्थी और 5000 से ज़्यादा कर्मचारी हैं, जिन्हें मैं हर दिन अपनी उँगलियों पर नचाता हूँ, इसलिए मुझे मेरा काम समझाने के बजाय तुरंत परिसर छोड़ दें, इससे पहले कि मैं कोई अन्य सख़्त क़दम उठाऊँ।”
पुलिस इंस्पेक्टर को सिक्योरिटी ऑफ़िसर की बात समझते देर न लगी और अगले कुछ ही मिनटों में पुलिस दल वहाँ से रवाना हो गया। इतना सब होते-होते 8 बज चुके थे, सिक्योरिटी ऑफ़िसर के कहे अनुसार पलाश ने तुरंत ही अपने पिता को फ़ोन कर, पूरे मामले के बारे में बता दिया। सिक्योरिटी ऑफ़िसर ने सुरक्षा की दृष्टि से पलाश को नेहरू हॉस्टल से गाँधी हॉस्टल में स्थानांतरित होने को भी कहा। गाँधी भवन सीनियर हॉस्टल था जो कि नेहरू हॉस्टल से कुछ ही दूरी पर स्थित था। अगले कुछ ही घंटों में पलाश अपने ज़रूरत का समान लेकर गाँधी भवन में आ गया था। अब ऐसी ख़बर पर माता-पिता का चिंतित होना तो स्वाभाविक था। मामले की गंभीरता को समझते हुए पलाश के पिता और जीजा उसी दिन राजस्थान से पंतनगर के लिए रवाना हो गए। रानीखेत एक्सप्रेस दिल्ली से पंतनगर के लिए हर दिन रात में जाती थी, अगले ही दिन सुबह 6 बजे पलाश के पिता और जीजा विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में पहुँच गए। वार्डन से बात करके पलाश ने पहले ही गेस्ट हाउस में रूम बुक करवा दिया था।
सुबह 6 बजे गेस्ट हाउस पहुँचते ही पलाश को पिताजी का फ़ोन आ गया और वो तुरंत ही गेस्ट हाउस पहुँच गया। सुबह इतना जल्दी उठकर हॉस्टल से बाहर जाना, ऐसा पंतनगर हॉस्टल लाइफ़ में पलाश के साथ शायद पहली बार हुआ था। फ़िलहाल, गेस्ट हाउस जाकर पलाश ने सारे मामले की जानकारी अपने पिता को दी। चाहे जो कुछ भी हुआ हो, पिताजी को सारी बात की जानकारी होना बहुत ज़रूरी था क्योंकि अभी उन सब को चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर के साथ पुलिस कार्यवाही के लिए नैनीताल पुलिस स्टेशन भी जाना था। और ये तो वहाँ जाकर ही पता लगना था कि आगे क्या होने वाला था?
सुबह 9 बजे ही पलाश के पिताजी ने चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर से मामले के बारे में बात की और उसी दिन 10 बजे नैनीताल के लिए निकलना तय हो गया। मामले की गंभीरता को समझते हुए सिक्योरिटी ऑफ़िसर ने अपनी ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया था और सभी लोग लगभग 10 बजे ही विश्वविद्यालय वाहन से नैनीताल के लिए रवाना हो गए।
पलाश ने पंतनगर में लगभग एक साल पहले अकेले ही अपने क़दम रखे थे और कभी नहीं सोचा था कि उसके पिताजी को कभी वहाँ आने की ज़रूरत भी पड़ेगी। लेकिन समय और नियति को भला कौन जान पाया है। नैनीताल एक ख़ूबसूरत पहाड़ी शहर है जो कि पंतनगर से लगभग 65 किलोमीटर की दूरी पर है। फ़िलहाल, नैनीताल की ये यात्रा पलाश के लिए दुखद और मुश्किलों से भरी हुई थी। उस तक तो ठीक था लेकिन उसकी वजह से उसके घरवालों को भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। पलाश का अंतर्मन इन्हीं सब बातों से विचलित था, लेकिन दूसरी ओर ये भी सच था कि अब वो कम-से-कम अकेला नहीं था। कुल मिलाकर पलाश के लिए मुश्किल समय था, लेकिन उसने अपने आप को समस्या का सामना करने के लिए दृढ़ बना लिया था। उसे पूरा भरोसा था, जैसे भी हो वो इस मुश्किल से जल्दी ही बाहर निकल जाएगा, कारण, एक तो उसने को कोई ग़लत काम नहीं किया था और दूसरा कम-से-कम उसके घर वालों को उस पर भरोसा था।
पहाड़ी रास्तों में थोड़ा समय तो ज़्यादा लगता ही है। जब तक वो लोग नैनीताल पुलिस स्टेशन पहुँचे, 12.30 बज चुके थे। अभी ऑन ड्यूटी पुलिस इंस्पेक्टर के साथ विचार-विमर्श चल ही रहा था कि दूसरा पुलिस इंस्पेक्टर पलाश को अपने साथ दूसरे रूम में ले गया। अब पुलिस वालों की मनमर्ज़ी को कौन रोके, घरवालों और सिक्योरिटी ऑफ़िसर के होते हुए भी पुलिस वाले पलाश को पूछताछ के नाम पर अलग रूम में ले गए। अब यह पंतनगर विश्वविद्यालय परिसर तो था नहीं, और हालात कुछ ऐसे थे कि कोई कुछ कर भी ना पाया। बाक़ी लोग तो ऑन ड्यूटि पुलिस इंस्पेक्टर के साथ मामले के निपटाने के विचार-विमर्श में व्यस्त थे और इधर दूसरे रूम में पलाश का कठिन समय था। कुछ ही समय में तीन पुलिस वाले और आ गए, सब मिलकर पलाश को डराने धमकाने में लगे थे, जैसे कि वो एक अपराधी हो। पुलिस वाले मामले की जाँच-पड़ताल करने के बजाय, मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए पलाश से इधर-उधर के सवाल-जवाब करके अपना मनोरंजन करने में लगे हुए थे। फ़िलहाल, पुलिस वालों का ये मनोरंजन पलाश के लिए मानसिक प्रताड़ना बन रहा था।
पुलिस वालों के धमकी भरे सवाल-जवाब और जबर्दस्ती आरोप-प्रत्यारोप वाले व्यवहार के चलते पलाश अब अपने घरवालों के साथ होते हुए भी बहुत अकेला महसूस कर रहा था। पलाश सोचने को मजबूर था कि दूसरे बच्चों को अपना फ़ोन देकर उसने अवश्य ही बहुत बड़ी ग़लती की है। उधर दूसरी ओर पलाश के पिता और जीजा, चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर और पुलिस इंस्पेक्टर के साथ मिलकर उस लड़की के घरवालों से बात करने में व्यस्त थे, जिसको ये सारे SMS किए गए थे। हालाँकि, पुलिस वालों के दुर्व्यवहार से पलाश बहुत हताश था लेकिन अभी भी किसी तरह उसने जल्दी ही सब कुछ सही हो जाने की उम्मीद को ज़िंदा रखा था और हमेशा की तरह ही बस ये सोचने में लगा था कि आगे क्या होगा? बहरहाल, ये तो कोई नहीं जानता था कि पलाश की नियति ने उसके लिए क्या भविष्य तय किया हुआ था।
भले ही दुखद हों लेकिन साथ-ही-साथ यह सब कुछ पलाश के लिए एक नया अनुभव भी था और उसके जीवन में एक नया अध्याय तो जुड़ ही रहा था। अनुभव चाहे सुखद हों या दुखद, जीना तो हमें ये अनुभव ही सिखाते हैं और कहीं-ना-कहीं भविष्य के लिए तैयार कर रहे होते हैं। और ये ही तो जीवन की सच्चाई है। वैसे तो पलाश अब तक पुलिस वालों के क्रूर और अमानवीय व्यवहार के बारे में न्यूज़ पेपर्स में बहुत पढ़ चुका था और साथ ही न्यूज़ चैनल्स और बॉलीवुड मूवीज़ में देख भी चुका था लेकिन आज पहली बार प्रत्यक्ष रूप से अपने साथ वही सब होते देख रहा था। पुलिस वाले बिना गाली दिए कोई भी बात नहीं कर रहे थे। उनके लिए भावनाओं की कोई क़द्र नहीं थी, बस सब कुछ एक मज़ाक़ जैसे था। वो अपनी बेबुनियाद सवालों और अभद्र भाषा का प्रयोग करते हुए पलाश को प्रताड़ित कर रहे थे। पलाश का फ़ोन तो पहले ही पुलिस वालों ने ले लिया था, अभी उसके पास सिर्फ़ उसका वालेट था, जिसे भी पुलिस वालों ने पूरा चेक किया। इसी दौरान उन्हें एक पर्चा मिला जिसमें, कुछ लड़कियों के नाम उनकी जन्मतिथि के साथ लिखे हुए थे। फिर क्या था, पुलिस वालों को तो पलाश को प्रताड़ित करने और मज़ाक़ बनाने के लिए एक और मौक़ा मिल गया था। अब उन्हें कौन समझाता कि वो पर्चा तो पंतनगर में रैगिंग के दौरान पलाश को सीनियर्स से मिला एक असाइनमेंट था जो अब तक उसके वालेट में रखा हुआ था। यह पलाश की नियति ही थी कि हर बात उसके विपरीत हो रही थी। अब पुलिस वाले उस पर्चे को भी मोबाइल और लड़की को भेजे गए अश्लील SMS से जोड़ रहे थे। पलाश को गालियाँ देते हुए एक पुलिस वाला बोला कि इसे लड़कियों में कुछ ज़्यादा ही रुचि है और इसीलिए इसने वो सारे अश्लील SMS किए हैं।
दो महीने पहले पलाश को जो गालियों भरे अजनबी फ़ोन कॉल्स आए थे, जो कि असल में दूसरे पक्ष के लोगों ने किए थे। पंतनगर की हॉस्टल लाइफ़ का प्रभाव और उस पर पंतनगरीय भाषा, भला पलाश कैसे उनकी गालियाँ सुन लेता, सो पलाश ने भी अच्छा-ख़ासा गालियों भरा जवाब बदले में दे डाला था। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन मज़े के बात ये थी कि पलाश की पंतनगरीय भाषा में दी गई वो अनोखी गालियाँ वो अजनबी कॉल्स करने वाले ने कभी नहीं सुनी थी और पलाश के वो शब्द भी पुलिस केस की शिकायत में लिख दिए गए थे। अब पुलिस वालों ने भी वो शब्द और वैसी गालियाँ कभी नहीं सुनी थी। अब इसी के चलते पलाश को गालियों में PhD किए होने का तमग़ा पुलिस वालों ने अलग से दे दिया था। ख़ैर, पलाश के लिए उस समय यह सब मानसिक उत्पीड़न से ज़्यादा और कुछ भी नहीं था, और पुलिस वालों के लिए मज़े करने का एक अच्छा मौक़ा।
सारी जाँच-पड़ताल और खोजबीन के बाद यह बात निकलकर सामने आई कि पलाश तो उस लड़की को जानता तक नहीं था, जिसको ये सारे SMS भेजे गए थे। पलाश की बातों पर अब पुलिस और लड़की के घर वालों को भी यक़ीन हो रहा था, लेकिन अभी भी सवाल ये था कि फिर वो सारे SMS किए किसने? फ़ोन नंबर तो पलाश का ही था। इसी बीच बात निकलकर आई कि वह लड़की, पंतनगर में पलाश के ही बैच में पढ़ने वाले एक लड़के को जानती थी, जो कि पंतनगर जाने से पहले उसके साथ कोचिंग क्लासेज़ जाया करता था। उस लड़के का इस लड़की के साथ पहले ही कोई झगड़ा हो चुका था, और उसी लड़के के संदेह में लड़की के घर वालों ने ये पुलिस केस किया था। फिर जब नंबर भी पंतनगर का ही निकला तो उनका शक और गहरा हो गया था। लेकिन सारी जाँच-पड़ताल और पहचान के दौरान दूसरे पक्ष ने पलाश को पहचानने से मना कर दिया, क्योंकि असल में पलाश वो लड़का था ही नहीं जिसके संदेह में यह पुलिस केस किया गया था।
अब पूरे मामले की सारी टूटी हुई कड़ियाँ जुड़ चुकी थीं और पलाश समझ गया था कि क्या? कैसे? क्यों हुआ है? और किसने किया है? आख़िर पलाश की बात जो वो शुरू से ही कह रहा था कि किसी और ने उसके फ़ोन का ग़लत इस्तेमाल किया है, सही साबित हुई। वैसे भी पलाश को पंतनगर में अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ था और अपने बैचमेट्स के अलावा वो किसी को भी नहीं जानता था तो भला वो किसी लड़की को अश्लील SMS क्यों? और कैसे करता? जबकि वो ये तक नहीं जानता था कि उस लड़की का नंबर क्या है?
सवाल अभी भी उस लड़के तक पहुँचने का था जिसने वो सारे अश्लील SMS किए थे। इसी कारण से पूछताछ के दौरान पुलिस और लड़की के घरवालों ने संकेत देते हुए पलाश को उस लड़के का नाम लेने को कहा, ताकि पलाश के बयान के आधार पर उसे पकड़ा जा सके। लेकिन पलाश ने अपने पिता से विचार-विमर्श के बाद कहा, “वो इस बारे में और कुछ नहीं जानता कि किसने उसके मोबाइल फ़ोन से वो SMS किए थे?”
फ़िलहाल, इस मामले को वहीं पर ख़त्म करने का यही सबसे अच्छा तरीक़ा था और पलाश के भविष्य के लिए भी यही सही था, क्योंकि उसे अभी पंतनगर में अपने बैचलर डिग्री के तीन साल और बिताने थे।
आख़िरकार, पलाश पर किसी और के संदेह में शिकायत दर्ज होने और पलाश का इन सब बातों से कोई संबंध नहीं होने के आधार पर उस पर लगे सारे आरोप हटा लिए गए। सारा मामला तुरंत ही रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया, हालाँकि भ्रष्टाचार के चलते अच्छी-ख़ासी रिश्वत पलाश के पिता को पुलिस वालों को देनी पड़ी थी। फ़िलहाल इसके अलावा कोई और चारा भी नहीं था। कुल मिलाकर पलाश बाबू बड़ी समस्या में पड़ने से तो बच ही गए थे। मामला तो किसी तरह समाप्त हो गया था और कड़वी यादों के साथ ही पलाश को भविष्य के लिए एक अच्छा पाठ भी पढ़ा गया था।
पलाश का मोबाइल फ़ोन भी उसके पिता ने पुलिस वालों से वापस ले लिया, लेकिन सिम कार्ड और फ़ोन के सारे कांटैक्ट नंबर नष्ट कर दिए गए। फ़ोन वापस तो मिल गया था, लेकिन पलाश को नहीं। उसके पिता ने उसे बोला, “सिर्फ़ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो, फ़ोन की कोई आवश्यकता नहीं है।”
इसी सारे मसले की वजह से पलाश के पास अगले कुछ महीनों तक मोबाइल फ़ोन नहीं था। ये सारा मामला, कड़वी यादों और कुछ नये अनुभवों की सीख अपने साथ लिए एक नये अध्याय की तरह पलाश के जीवन में जुड़ चुका था।
ये सब तो ठीक था, लेकिन ‘जिग्ना’ नाम के उस नये अध्याय का क्या हुआ? जो पलाश की ज़िंदगी में अभी कुछ ही महीनों पहले जुड़ा था। उसकी शुरुआत भी तो कहीं-न-कहीं मोबाइल फ़ोन से ही हुई थी। सिर्फ़ मोबाइल फ़ोन ही पलाश और जिग्ना के बात करने का ज़रिया था। आख़िर, बिना मोबाइल फ़ोन के जिग्ना और पलाश ने कैसे अपने आप को एक-दूसरे से बाँधे रखा?
कैसे वो बिना बात किए हुए भी एक-दूसरे से जुड़े रहे?
या फिर ये उनकी नई-नई शुरू हुई प्रेम-कहानी का अंत था?
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