वो २५ जून की रात थी|
कितने ही अमावस की रात उसकी जिंदगी का हिस्सा बन चुके थे पर आज जब वो अपने दफ्तर से निकला था तो उसे एहसास न था कि आज की रात उसकी जिंदगी की सबसे भयावह रात बन जाने वाली थी| जब वह अपने दफ्तर से जहाँ वह चपरासी के पद पर कार्यरत था रात नौ बजे निकला तो उसे उसके दोस्तों ने घेर लिया था और दोस्तों के साथ खाते पीते दो घंटे से ऊपर हो गए थे और अब रात के लगभग साढ़े ग्यारह होने को थे| ऑफिस के पास ही एक छोटा सा ढाबा था जहाँ उसने दोस्तों के आग्रह पर दो तीन पैग भी चढ़ा लिए थे जिसकी उसे आदत नहीं थी| ऑफिस से घर की दूरी लगभग बारह किलोमीटर की थी जिसे वह साइकिल से तय करता था|
सेवाराम एक साधारण शक्ल ओ सूरत और इकहरे बदन का चौबीस वर्षीय युवक था और उसमें कोई ऐसी खास बात न थी कि वो किसी के विशेष आकर्षण का केंद्र बने या कम से कम उसका ऐसा ही सोचना था| अपने ही ख्यालों में गुम वह धरमशाला मोड़ तक पहुँच चूका था जहाँ से उसके घर की दूरी महज तीन किलोमीटर रह जानी थी और फिलहाल वह जागरण आश्रम नाम के विशाल भवन के पिछली सड़क से गुज़र रहा था जब आश्रम के भीतर से आते तीव्र मंत्रोच्चार ने उसे साइकिल में ब्रेक लगाने पर मजबूर कर दिया| आश्रम के पिछले हिस्से में एक विशाल पार्क था जो शाम सात बजे ही बंद हो जाया करता था| पार्क में अन्दर आने के लिए सामने वाले फाटक से तो रास्ता था ही, साथ ही इस पिछली तरफ भी एक फाटक था जो ऊँची ऊँची किलेनुमा दीवारों से घिरा था जिसे शाम सात बजे अन्दर की तरफ से बंद कर दिया जाता था| बंद करने का काम केयरटेक मंगल का था जो आश्रम का ही सेवादार था जिसके रहने का कमरा इस पार्क के पिछली तरफ बना था| पार्क के बीचो-बीच एक ऊँचा चबूतरा था जिसपर शिव जी की एक आदमकद मूर्ति थी जिसके दर्शन किये बिना सेवाराम ऑफिस की ओर प्रस्थान नहीं करता था| शाम सात बजे तक बंद हो जाने वाला फाटक आज पूरी तरह खुला था और शिव जी की विशाल मूर्ति पर सामने जलती रौशनी दृष्टिगोचर हो रही थी| पिछले तीन वर्षों में पहली बार उसने ये पिछला फाटक जो धर्मशाला दरवाजा के नाम से जाना जाता था को रात के वक़्त उसने खुला देखा था| साइकिल को वहीँ साइड में खड़ी कर वो भीतर प्रविष्ट हो गया|
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वो कोई भैरवी प्रतीत हो रही थी जो हवनकुंड के सामने पद्मासन लगाये बठी थी| सफ़ेद सा, गले में रुद्राक्ष की चंद मालाएं, माथे पर नासिका तक पहुँचता हुआ सुर्ख सिन्दूर| युवती के लम्बे बाल खुले हुए थे और हलके हवा के झोंके के सहारे कभी कभी वो भी झूम उठते थे| सामने जलती हुए हवनकुंड में आग की लपटें बहती हुई हवाओं के सहारे झूम रही थी| युवती को मानों आसपास के वातावरण की कोई चिंता न थी या शायद वह निश्चिन्त थी कि कोई इस माहौल में कदम रखने की जुर्रत न करेगा|
उसके मुख से मध्यम स्वर में मन्त्रों की मानों श्रंखला बह रही थी जिसे पहचानने में सेवाराम असमर्थ था|
शायद उसे फाटक के खुले होने का एहसास न था जिससे होकर जाने किस अज्ञात भावना से वशीभूत होकर सेवाराम वही पास की झाड़ियों में छुपा युवती को निहार रहा था|
भैरवी के विषय में उसने सुन रखा था| इस इलाके में किसी भैरवी की कहानी कुछ महीनों से प्रचलित थी और कुछ लोगों ने शमशान में कुछ अजीब सी क्रियाएं करते देख रखा था।
क्या ये वही भैरवी थी?
सेवाराम अपने मोबाइल में सबकुछ रिकॉर्ड करता जा रहा था! पार्क में लगे पास में एक दो लैंप उसके रिकॉर्डिंग में सहायक थे।
कल उसके पास भी सबको कहने को कुछ स्पेशल होगा! रोमांचक! अद्भुत!
पर अभी असली रोमांच तो बाकी ही था!
सामने एक और शख्स का प्रवेश हुआ जिसे देखकर बमुश्किल सेवाराम ने अपनी चीख निकलने से रोका था।
आने वाले दिनों में भी उसके मानस पटल पर वो आकृति उभर उभर कर डराती रही थी!
ध्यान मोबाइल के स्क्रीन पर रहने के कारण वो तय नहीं कर सका था कि वो आकृति किधर से प्रकट हुई थी!
दायें से या बायें से!
या फिर हवनकुंड से एकाएक तीव्र गति से निकलते धुएं से!
लगभग सारा चबूतरा एकाएक धुएं से भर उठा था!
धुआं जब छटा तो सामने वो खड़ा था जिसकी लम्बाई साढ़े छः फुट से का प्रतीत नहीं हो रही थी।
दोनों बाँहों में सोने के से प्रतीत होते कड़े थे।
शरीर पर एक लंगोट के सिवा वस्त्र के नाम पर कुछ और नहीं था।
रंग काला था। सुर्ख काला, मानों सारे बदन पर स्याही पोत दी गयी हो!
चहरे पर कड़क मूंछें! सर पर चमचमाता हुआ दो सींगों वाला मुकुट।
कुल मिलाकर सेवाराम को कुछ ऐसा प्रतीत हुआ मानों रामलीला में पार्ट करनेवाला कोई राक्षस हो!
या धार्मिक सीरियल का कोई राक्षसी अवतार!
ये उसकी हिम्मत ही थी कि उसने कांपते हाथों से मोबाइल पकड़कर रिकॉर्डिंग करना जारी रखा। अंतर बस इतना था की अब उसकी दृष्टि मोबाइल के स्क्रीन पर न होकर सीधे मंच पर थी।
हाँ, वो मंच ही तो था जिसपर ये दो कलाकार मौजूद थे, बीच में हवनकुंड, दाईं और वो युवती और बाईं और वो राक्षस!
हाँ वो राक्षस ही तो था! कम से कम इंसान तो नहीं था।
पर उस युवती पर मानों कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था!
“तू यहाँ भी आ गया।” वो मानों गुर्राई।
“तू कहीं भी चली जा मुझे वहां पायेगीI तुझे मैं यूँ पथभ्रष्ट होने नहीं दे सकताI” राक्षस के मुंह से आवाज निकली मानों एक साथ कई भेडिये गुर्रा उठे हों!
“तेरा शुभचिंतक हूँ मैंI”
“मैं कई बार कह चुकी हूँ तुझसे कि मेरी चिंता करने की तुझे कोई आवश्यकता नहीं। हमारे रास्ते अलग हो चुके हैं।”
“मूर्खा! जिस रास्ते पर तू चल चुकी है वहां तुझे भटकन के सिवाय कुछ न मिलेगा चाहे तू जीवन भर इन मन्त्रों का पाठ करती रहे। भटका रहा है तुझे ये तेरा गुरु। बर्षों से जानता हूँ तेरे इस गुरु को। आश्रम में नाम पर पैसे कमाने का धंधा बना रखा है इसने। एक न एक दिन इसके सारे ढकोसले को दुनिया के सामने ला कर रख दूंगा।”
भैरवी हंसी, “ढकोसला तो तूने मचा रखा है भैरव। मेरे गुरु के सामने तेरी हीनता ही तुझे तकलीफ पहुंचती है इसलिए बार बार पहुँच जाता है मुझे खोजते खोजते।”
“किसी भ्रम में मत रह लड़की। किसी में इतनी हिम्मत नहीं कि मुझे तकलीफ पहुंचा सके। जानता हूँ तुझमे गुण था, कि एक सफल तंत्रिका बन सके पर उस कमबख्त ने तुझे अपने धंधे में फंसा लिया। आजा मेरे साथ, तेरे सारे भूलों को माफ़ कर दूंगा मैं।”
“चला जा यहाँ से, तेरी नग्न साधना में मेरी कोई रूचि नहीं वर्ना एक ही झटके में सारी दुनिया के आगे तुझे नंगा कर दूंगी। तू और तेरा पागल वृष्टि खाने वाला गुरु...।”
राक्षस को भड़काने के लिए इतने शब्द ज़रुरत से ज्यादा थे। हवनकुंड को एक ही झटके में लांघता हुआ युवती पर छलांग लगा चुका था।
पर युवती भी सावधान थी। उसे राक्षस से कुछ ऐसी ही उम्मीद थी। फुर्ती से खुद को बचाते हुए पास में पड़ी कटार सामने कर चुकी थी।
कटार राक्षस के दाएं पैर को चीरते हुए निकली। राक्षस को इस प्रहार की उम्मीद नहीं थी। वो लहराते हुए गिर पड़ा। युवती को अंदाज़ा था कि अगर राक्षस संभल गया तो फिर वो उसे नहीं छोड़ेगा! उसने फुर्ती से भागना चाहा।
पर राक्षस बहुत ज़ल्दी संभल चुका था। एक झटके में राक्षस दोनों हाथों से युवती को अपने सर से ऊपर उठा चुका था।
“ये ले तेरी साधना और तू, दोनों जा हवनकुंड में।” कहते हुए उसने युवती को हवनकुंड में फ़ेंक दिया।
तेज़ अग्नि और साथ में प्रस्तर का बना हवनकुंड!
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सब्र अपनी सारी सीमाए पार कर चुकी थी।
वो भी सेवाराम जैसा साधारण सा इंसान!
सेवाराम बहुत कुछ बर्दाश्त कर चुका था। हलक से तेज़ चीख निकलने से वो खुद को अब रोक नहीं सका।
जाने क्या गति हुई उस वनिता की।
पर अब सेवाराम को अपनी चिंता थी।
राक्षस के सामने वो मानों अनावृत हो चुका था!
राक्षस अब ऊँचे चबूतरे से उतर चुका था और उस निरीह युवक को निहार रहा था जिसका नाम सेवाराम था।
आंखें थी या दो जलती हुई चट्टानें!
उस के सामने वो खुद को बौना महसूस कर रहा था।
कब वो पलटकर भागा कब उसने फाटक को पार किया और कब वो अपने घर पहुंचा, बाद में पूछे जाने पर भी उसे कुछ ध्यान नहीं था।
क्या उस राक्षस ने उसका पीछा किया था?
उस राक्षस से बचकर कैसे निकल गया?
कई सारे सवाल थे जिसका उत्तर वो देने में असमर्थ था। दो दिनों तक वो बुखार में तपता रहा था।
हाँ अगर उसके पास वो रिकॉर्डिंग नहीं रहती तो उसके बात पर कोई विश्वास नहीं करने वाला था। अगले दिन सुबह उसकी हालत ऐसी नहीं थी कि वो किसी से इसका ज़िक्र कर सके न ही वो कोई जिम्मेदार शहरी था। पर उसके रूम में साथ रहने वाले साथी जगन ने एक जिम्मेदार शहरी का फ़र्ज़ निभाया।
सुबह-सुबह मोबाइल रिकॉर्डिंग के साथ दोनों पुलिस के सामने हाजरी बजा रहे थे।
जून २६ प्रातः
ऐसा नहीं था कि अल्फांसे जुर्म की दुनिया से ऊब चुका था या पिछले गुनाहों के डर ने उसे यहाँ छुपने पर मजबूर कर दिया था। किस माई के लाल में ऐसा दम था जो उसे छुपने पर मजबूर कर सके!
जुर्म की दुनिया में उसका बड़ा नाम था। छोटे-बड़े राजा प्रजा तक उसके असामी रह चुके थे। पर काम वो अपने उसूल पर करता था। एक जगह ठहरना उसके उसूलों में नहीं था।
पर सच्चाई यही थी कि यहाँ आये उसे तीन महीने से ऊपर हो चुके थे और यहाँ का माहौल उसे रास आने लगा था।
कौन यकीन करता कि नेपाल की सीमा से कुछ दूर भारत की चौहद्दी में स्थित चांदीपुर नामक कसबे में स्थित जागरण आश्रम के साधना कक्ष में श्रधालुओं के मध्य प्रतिदिन सुबह-सुबह ध्यान करता शख्स अंतर्राष्ट्रीय शातिर अल्फांसे है।
अब तक वह चैन से अपना समय यहाँ बीता रहा था और कोई ऐसी बात नहीं हुई थी कि उसके राज़ के खुलने का शक पैदा कर सके।
पर आज सुबह ...
आश्रम का दैनिक क्रियाकलाप सुबह ६ बजे शुरू होता था और अल्फांसे का सुबह ५ बजे। सुबह ५ बजे उठकर टहलते हुए पिछले हिस्से में मौजूद पार्क के अंदरूनी दरवाजे तक पहुँचता जहाँ पार्क की रखवाली करने वाले केयरटेकर के क्वार्टर तक पहुँचता और उसके साथ चाय पीकर अन्दर पार्क का एक चक्कर लगता और साढ़े पांच बजते-बजते साधना कक्ष तक पहुँच जाता। आश्रम में रहने वाले हर किसी को वहाँ पहुंचना तय होता था सिवाय चंद सिक्यूरिटी गार्ड्स के।
पर आज चाय पीने की नौबत नहीं आयी।
अन्दर केयरटेकर की क्षत-विक्षत नंग धडंग लाश पड़ी थी!
मानों किसी जानवर ने उसे भंभोर डाला हो! जगह जगह से चमड़े नुचे पड़े थे।
बहुत दिनों बाद अल्फांसे का वास्ता किसी लाश से पड़ा था।
और ये उसके लिए अच्छा संकेत नहीं था। पुनः उसका वास्ता पुलिस से पड़ने वाला था जो वह बिलकुल नहीं चाहता था।
पर यह तो शुरुआत भर थी। एक और लाश पार्क में पुलिस का इंतज़ार कर रही थी।
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करीब नौ बजे एक पुलिस जिप्सी आश्रम के मुख्य द्वार के सामने रुकी। लोकल थाने से पुलिस टीम पहले ही दल बदल के साथ पहुँचकर खाना पूर्ति में लग चुकी थी। कुछ पत्रकार पहले ही वहां पहुच चुके थे और लोकल टीवी चैनल आरोही की टीम पहले ही वहां पहुँच कर दरवाजे पर जमी थी पर किसी को अब तक अन्दर जाने नहीं दिया गया था। आश्रम के रहनुमाओं में लोकल एम एल ए भी शामिल था और उसका भी शुमार आचार्य जी के भक्तों में किया जाता था। आचार्य जी जिसका पूरा नाम ब्रह्मदेव आचार्य बताया जाता था पर आश्रम वासियों के लिए वे आचार्य जी ही थे। ज़ाहिर है, आश्रम वासियों के लिए उनका दर्ज़ा भगवान के आसपास ही था। जीप से उतरने वाला शख्स कोई पैंतालीस साल का था। पुलिस में उसका दर्ज़ा एस पी का था और उसे उसके आकाओं द्वारा इस हिदायत के साथ भेजा गया था की वो थोडा नरमी से काम ले।
जिसकी एस पी गौतम सचदेवा को आदत नहीं थी! उसे जैसी खबर मिली थी उसके मुताबिक पहली लाश साढ़े पांच बजे बरामद हो चुकी थी जबकि पुलिस को सात बजे खबर की गयी।
दूसरी लाश मिलने के बाद।
जबकि एस आई आश्रम का पहचान वाला था।
उसे बाबाओं से सख्त चिढ थी। कोई और मौका होता तो वो दो-चार को को अन्दर कर चुका होता। पर पिछले दो घंटे में ऊपर से तीन-तीन बार फ़ोन आ चुके थे।
अन्दर उसे ए एस आई दिवाकर बारी-बारी से दोनों लाशों तक ले गया।
पहली लाश आश्रम के केयरटेकर दयाल सिंह की थी जिसे अल्फांसे ने बरामद किया था।
दूसरी लाश एक अधेड़ स्त्री की थी जो आश्रम के पिछले हिस्से में चबूतरे के नीचे पायी गयी थी।
दोनों लाश देखने के बाद उसने लाश को भेजने का आदेश दे दिया।
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“लाश किसने बरामद की।”
“आश्रम का ही एक श्रद्धालू है, नाम उसका...।”
“मुझसे किताबी भाषा में बात मत करो।”
“सॉरी सर। यही रहने वाला एक बंदा है। नाम तो नरेन्द्र बताता है पर शक्ल से आधा अँगरेज़ मालूम होता है। केयरटेकर की लाश उसी ने बरामद की। उसी ने सिक्यूरिटी गार्ड्स को इकठ्ठा किया जिनमें से एक ने पहली बार उस औरत की लाश को देखा।”
साहब अच्छे मूड में मालूम होता था वर्ना अभी तक उसने एस आई सुधीर सिन्हा की बंद बजा दी होती। आदतन।
सुधीर ने यहाँ पहुंचकर होमवर्क अच्छी तरह कर लिया था। आश्रम के चीफ सिक्यूरिटी ऑफिसर से दोस्ताना सम्बन्ध होने के कारण यहाँ होने वाले छोटे-बड़े आयोजनों में वो आता ही रहता था जिस कारण उसे यहाँ के बारे में अच्छी जानकारी थी।
“जी बाहर के लोगों का यहाँ आना सुबह नौ बजे शुरू होता है और शाम की आरती के बाद सात बजे आगे और पीछे के दोनों फाटक बाहर के लोगों के लिए बंद कर दिए जाते हैं। दिन में कुछ अतिरिक्त गार्ड्स भी रहते है पर शाम में फाटक बंद होने के पहले वो भी बाहर चले जाते हैं।”
“तो चाभी रात में गार्ड के पास ही रहती है?”
“नो सर। आगे और पीछे दोनों फाटक के गार्ड्स अलग अलग हैं जो उसे लॉक करने के बाद चाभी महंत जी को सौंप देते हैं। महंत जी वो चाभी अपने डिप्टी आनंद को सौंप देते हैं या अपने पास रखते हैं।”
“अब ये महंत जी कौन हैं?”
“इनका दर्ज़ा यहाँ चीफ सिक्यूरिटी ऑफिसर का है। यहाँ आने जाने वाले सभी लोगों का रिकॉर्ड इन्हीं के पास रहता है। जो भी यहाँ आता है उसकी बाकायदा मुख्य दरवाजे जिसे यहाँ के भाषा में श्री प्रभु द्वार भी कहते हैं के पास स्थित कमरे में अस्थाई आई डी कार्ड बनाने का इंतज़ाम है।”
“एक आश्रम के लिए इतना इंतज़ाम!”
“इतना ही नहीं जिन्हें यहाँ लम्बे समय तक के लिए रहना होता है उनकी तो आधार कार्ड, पासपोर्ट की भी जांच होती है। चूँकि यहाँ विदेशी लोग भी आते रहते हैं इसलिए यहाँ जांच प्रक्रिया में कोताही नहीं बरती जाती।”
“मुख्य दरवाजे की डुप्लीकेट चाभी...।”
“मैंने महंत जी से दरयाफ्त किया था। उनके अनुसार दोनों फाटक की एक और चाभी है जो आचार्य जी के पास रहती है। तीसरी चाभी की कोई गुंजाइश नहीं क्योंकि इसके ताले और चाभी में चिप फिट किया गया है और बनाने वाली कंपनी ने इसकी गारंटी दी है। अगर ताले या चाभी से थोड़ी भी छेड़ छाड की जाती है तो इससे लिंक्ड मोबाइल में मेसेज ट्रान्सफर हो जायेगा।”
“हूँ। तो इसका मतलब ये है कि दरवाजा महंत या आचार्य जी ने खोला होगा। या फिर ये भी हो सकता है कि दरवाजा शाम के वक़्त लॉक ही नहीं किया गया!”
“जी सर। सेवाराम ने भी इसकी तस्कीद की है की रात के वक़्त दरवाजा खुला पाया।” गुप्ता परेशानी भरे स्वर में बोला, “और फिर सुबह होने से पहले किसी ने दरवाजा लॉक कर दिया।”
“या फिर तुम्हारे आचार्य जी या महंत जी ने।”
“आचार्य जी और महंत जी इस आश्रम के संस्थापक हैं। वो ऐसा क्यों करेंगे?” एस आई थोडा आवेश में बोला।
“देख रहा हूँ कि तुम इन दोनों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो। अच्छा ये बताओ कि यहाँ और कितने लोग रहते हैं।”
“महंत जी के अनुसार कुल ६१ लोग। आचार्य जी, महंत जी, आचार्य जी के दो सेवादार, चार रसोई में काम करने वाले, २ गेट की परसहित ६ परमानेंट केयरटेकर और स्थाई और अस्थाई रूप से रहने वाले ४७ लोग। इनमे से ३० लोग स्थाई रूप से यहाँ रहते हैं जो आचार्य जी के परमानेंट चेले हैं। और १७ वे गेस्ट हैं जो अस्थाई रूप से यहाँ हैं। इन्हीं १७ में से एक नरेन्द्र भी है। रही बात सरस्वती जी की, तो उनका दर्ज़ा आश्रम में नंबर दो बताया जाता है, वो तीन दिन से आश्रम में नहीं है। एक और शख्स है आनंद जो महंत का डिप्टी है ।”
“कहाँ गयी है वो?”
“एक फंक्शन के सिलसिले में दिल्ली में है। दरअसल आचार्य जी की ओर से सारे फंक्शन वही अटेंड करती है। आचार्य जी शायद ही किसी फंक्शन को अटेंड करते हैं।”
“कभी कभी आचार्य जी गहरे ध्यान में उतारते हैं तो घंटो होश में नहीं आते। उस अवस्था में सरस्वती जी ही आश्रम सम्बन्धी निर्णय लेती हैं। आश्रम के साधना कक्ष के पिछले हिस्से में उनके गुरुदेव की समाधी है। वो ही उनके ध्यान करने की जगह है।” एस आई पूरे भाव में डूबकर आचार्य कथा बांचता जा रहा था।
एस पी ने सर हिलाया। एस आई के होमवर्क से वो संतुष्ट मालूम होता था। आश्रम में बहुत सारे सीमेंट के बेंच बने थे और उन्हीं में से एक पर एस पी बैठा हुआ एस आई से इनफार्मेशन ग्रहण कर रहा था। एस आई को बैठने कहने की उसने कोई जहमत नहीं उठाई थी। जहाँ वो बैठा था उसके पीछे छोटा सा पार्क था और फिर उसके पीछे बेंचों की दूसरी लाइन थी। उसी में से एक पर २०-२२ वर्ष का एक युवक ध्यान की मुद्रा में बैठा था जो इस आश्रम के रहने वालों के लिए आम बात थी। ये अलग बात थी की वो कोई आश्रमवासी नहीं था और यहाँ बैठने का उसका एकमात्र उद्देश्य उन दोनों की बातचीत सुनना था और इतनी दूर बैठने के बाद भी एक एक शब्द उसके कानों में पड़ रहा था।
“और ये बाकी १७ लोग कौन होते हैं?” एस पी ने अगला प्रश्न दागा। स्वभानुसार अगला कदम उठाने से पहले वो सारी इनफार्मेशन कलेक्ट कर लेना चाहता था।
“ये लोग सामान्यतया स्वास्थ्य लाभ या योग वगैरह के उद्देश्य से यहाँ रह रहे हैं। ये लोग दूर दूर से यहाँ आकर रह रहे हैं। इनमें से भी तकरीबन ८ लोग विदेशी पासपोर्ट होल्डर हैं।”
“बेवकूफ लोग। पता नहीं इतनी दूर से क्या चुतियापा सिखने आते हैं। अच्छा धंधा बना रखा है इन बाबाओं ने।” एस पी बुदबुदाया।
एस आई कसमसाया। आचार्य जी का वो भक्त तो नहीं था और उसे उनकी महानता पर कोई संदेह नहीं था।
“और वो ३० चेले?”
“वो ३० लोग आश्रम के बाकी काम भी सँभालते हैं। उन्ही में से एक आनंद भी है जिसके जिम्मे ऑफिसियल लिखा-पढ़ी वाला काम है।”
“आचार्य जी ने कई लोगों की जिंदगी बदलने में मदद की है। रोज़ सैकड़ों लोगों के कदम पड़ते हैं यहाँ। उत्सव के दौरान हजारों की भीड़ होती है।” एस आई बुदबुदाया।
“अगर ऐसे ख्याल है तुम्हारे यहाँ के बारे में तो कर ली तुमने इन्वेस्टीगेशन।” एस पी गुर्राते हुए खड़ा हो गया था। “एक रात में दो क़त्ल हो चुके हैं यहाँ और ज़ाहिर हैं इसमें किसी अंदरवाले का ही हाथ है। एक एक शख्स यहाँ का शक के घेरे में है। अभी तक उस औरत की शिनाख्त करने में भी तुम असफल रहे हो। अगर भक्त बनकर खोजबीन करोगे तो कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा। अगर सेवाराम वाला विडियो हमारे सामने नहीं आता तो हम लोग बहुत कुछ अँधेरे में रह जाते।”
“जी।” गुप्ता बात आगे बढाकर अपने सीनियर को नाखुश नहीं करना चाहता था।
सचदेवा मुस्कुराया। वो जानता था की आदमी कितना भी बुद्धिमान क्यों न हो जब मामला पर्सनल धर्मगुरु का हो वहां तर्क कोई मायने नहीं रखते। ऐसे लोगों को समझाना उसके क्या किसी के भी बस की बात नहीं थी।
“खैर गुप्ता, I am very much satisfied with your homework. बहुत अच्छी जानकारी इकठ्ठा की है तुमने बहुत कम समय में। I really appreciate your effort.”
गुप्ता के लिए ये राहत की बात थी कि वो अपने सीनियर को संतुष्ट करने में सफल रहा था।
“जी सर, सेवाराम के रिकॉर्डिंग की हमने पार्क में लगे इकलौते एक्टिव सी सी टीवी फूटेज से मैच भी खाते हैं।”
“पार्क में सी सी टीवी कैमरे भी लगे थे?” एस पी चौंका।
“पार्क के चारों कोने में चार सीसी टीवी कैमरे लगे हैं पर वारदात के वक़्त केवल आश्रम के तरफ वाला एक कैमरा ही काम कर रहा था और पॉवर कट के कारण केवल दो टेम्पररी लाइट ही काम कर रहे थे। फिर भी कैमरे में जो कल रात के थोड़े बहुत दृश्य उभरे है वो सेवाराम के मोबाइल के रिकार्डिंग की तस्कीद करते हैं।”
“और इस बारे में क्या कहना है तुम्हारे इस महंत जी का, कि लाश बरामद होने के दो घंटे बाद पुलिस को खबर की गयी? ताकि घटनास्थल पर छेड़छाड़ की जा सके?”
“आश्रम में दो ही जगह लैंड लाइन है और इन लोगों के मुताबिक़ उनमे टेम्पररी खराबी थी।”
“क्यों मोबाइल से कॉल करने में क्या मुश्किल थी?”
“आश्रम में मोबाइल की इजाज़त नहीं है सर।” गुप्ता ने संक्षिप्त उत्तर दिया।”
“क्या!” एस पी चौंका।
“यही नहीं, आश्रम में जैमर भी लगे हैं ताकि कोई छुपाकर भी मोबाइल का इस्तेमाल नहीं कर सके।”
एस पी ने अपना मोबाइल निकाल कर देखा। सच में उसके मोबाइल का टावर गायब था।
“आचार्य जी का कहना है कि मोबाइल टावर से निकलने वाली किरणे मष्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।”
एस पी हंसा।
“फिर यहाँ के लोग जिंदा कैसे रह लेते हैं।”
गुप्ता कुछ सख्त जवाब देना चाहता था पर कुछ सोंचकर वह चुप रह गया। आखिर उसके सामने उसका बॉस मौजूद था।
“तो फिर आचार्य जी हम लोगों को कब दर्शन देंगें?”
“क्यों?”
“क्यों से क्या मतलब है तुम्हारा?” एस पी भड़का, “दोनों हत्या उन्हीं के छत्र छाया में हुई है। तो बिना उनसे पूछताछ के कैसे काम चलेगा?”
“मैं पता करता हूँ। अगर महंतजी से बात करना चाहे तो...”
“अगर ज़रुरत होगी तो बताऊंगा। अभी ये तस्कीद करना बाकी है की वो औरत कौन थी और उस नकाबपोश के वेश में कौन था?” कुछ ठहरकर एस पी बोला।
“नकाबपोश? कौन नकाबपोश?”
“तुम्हें क्या लगता है कि वो हत्यारा जिसे सेवाराम नकाबपोश राक्षस कहता है अपने असली वेश में था? ऐसे चेहरे वाले लोग पहले किस्से कहानियों में होते थे और अब सीरियल में पाए जाते हैं। मुझे यकीन है की इसमें अन्दर के लोग ही इन्वोल्व है। इस नरेन्द्र से मेरे मिलने का इंतज़ाम करो।”
“ओके सर। मैं अभी दिवाकर को भेजता हूँ उसे लाने को।” गुप्ता समझ गया था की ज़रूर उसके बॉस के दिमाग में कुछ चल रहा था। बातचीत समाप्त हो गयी।
उधर बैठे हुए लड़के ने झटके से मुस्कुराते हुए आंखें खोल ली। “वाह बेट्टा! बैठे बैठे इतनी सारी इनफार्मेशन मिल गयी। बोहनी तो अच्छी हुई है। उम्मीद है बिना मेहनत के इसी तरह काम चलता रहेगा। अब चलूँ इस महंत बाबू से मिलने।”
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“आनंद!”
“कहिये मैडमजी। उम्मीद है आपका दिल्ली का प्रवास अच्छा रहा होगा।”
“क्या रिपोर्ट है?”
“किस बात की?”
“अब ये भी बताना पड़ेगा?” सरस्वती ने कहा।
आनंद मुस्कुराया। वह अपने ऑफिस के कमरे में अपने कंप्यूटर के सामने आराम से बैठा था। उसके सामने एक नहीं बल्कि तीन-तीन विशाल मॉनिटर मौजूद थे। सामने वाले स्क्रीन पर सरस्वती का चेहरा मौजूद था जिससे वह बातचीत कर रहा था। बाकी दोनों स्क्रीन पर आश्रम के विभिन्न हिस्सों के दृश्य उभर रहे थे।
“अगर आप बतायेंगी नहीं मैडमजी तो आनंद ये कैसे बताएगा कि उसे बताना क्या है।” आनंद सहज भाव से बोला।
सरस्वती का पारा गर्म होने लगा। आश्रम में पहली बार ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई थी और वह वहां से दूर थी। अभी उसकी फ्लाइट एक घंटे बाद थी। वह हैरान थी कि महंतजी और आनंद के होते ऐसा कैसे हो गया। फिर भी दोनों पर उसे पूरा विश्वास था।
और फिर आनंद! एक वही था जो उसे पल पल की खबर दे सकता था। खुद को संयत करते हुए अपने लैपटॉप की स्क्रीन पर नज़र गड़ाए बोली,
“दयाल की लाश मिलने के बाद क्या-क्या हुआ? एक एक बात तफसील से मुझे बताओ।”
आनंद टेपरिकॉर्डर की भांति शुरू हो गया।
“सुबह पांच बजकर पंद्रह मिनट पर नरेन्द्र दयाल के कमरे तक पहुंचा। कमरे का दरवाजा खुला था और अन्दर दयाल की लाश पड़ी थी। बाहर निकलकर चिल्लाते हुए उसने आश्रम के लोगों को इकठ्ठा किया। दस मिनट के अन्दर वहां आश्रम के अधिकतर लोग वहां जमा हो चुके थे।”
‘और महंतजी?”
“खबर मिलते ही वो भी वहां पहुँच गए थे।”
“मतलब साढ़े पांच बजे तक वहां सभी मौजूद थे?”
“बस दो लोगों को छोड़कर। मैं वहां छह बजे पहुंचा था जबकि आपके गुरुदेव सात बजे वहां पहुंचे।”
“तब तक दूसरी लाश का पता भी चल चुका था?”
“उसकी खबर तो पांच बजकर पैंतीस मिनट पर ही लग चुकी थी। राठी की नज़र सबसे पहले उस औरत की लाश पर पड़ी थी।”
“दोनों बॉडी की जो फोटो तुमने भेजी थी उसे मैंने देखा था। शायद बहुत यातना दी गयी थी दयाल को।”
“ऐसा कहा जा सकता है।”
“ठीक है। और पुलिस कितने बजे पहुंची?”
“सात बजकर बीस मिनट पर। गुरुदेव के आदेश के बाद ही महंतजी ने पुलिस को खबर किया।”
“और वो सेवाराम?”
“वो पुलिस के पुलिस स्टेशन से निकलने के पहले ही करीब सवा छह बजे वहां पहुंचकर अपने रिकॉर्डिंग और रामकहानी सुना चुका था।”
“वो रिकॉर्डिंग देखी थी मैंने। पर एक बात मेरे समझ में नहीं आयी। सेवाराम वाली रिकॉर्डिंग तुम तक कैसे पहुंची।”
“आनंद का काम करने का अपना तरीका है मैडमजी।” आनंद ने मुस्कुराते हुए कहा।
“अच्छा ये चाभी का क्या किस्सा है। धर्मशाला गेट खुला कैसे रह गया।”
“इस बारे में कुछ कहना मेरे लिए संभव नहीं है मैडम जी। रात नौ बजे महंत जी ने चाभी मेरे हवाले की थी। तब से चाभी मेरे पास ही थी।”
“तो फिर क्या हुआ रात में?”
“अनुमान लगाना आप लोगों का काम है मैडम जी।”
“हूँ। अच्छा आनंद क्या तुम वहां के सीसीटीवी फुटेज की लाइव स्ट्रीमिंग मुझे फॉरवर्ड कर सकते हो।”
“बिलकुल नहीं मैडमजी। ये आश्रम के प्रोटोकाल के खिलाफ है। यहाँ के सीसीटीवी फुटेज को ऑनलाइन नहीं किया जा सकता।”
“इमरजेंसी में नियम बदले जा सकते हैं आनंद। और फिर तुम्हारे पास तो नेट कनेक्शन मौजूद है हीं। मुझे लगता है कि आश्रम पर बहुत बड़ा खतरा मंडरा रहा है।”
“फिर भी नहीं मैडमजी। और मेरे पास का नेट कनेक्शन प्रोटोकॉल के अन्दर आता है।”
“और अगर मैं आदेश दूं तो?”
“तो भी नहीं मैडमजी। किसी कीमत पर भी नहीं।” आनंद ने सहज स्वर में कहा।
“लगता है तुम्हें अपनी नौकरी प्यारी नहीं आनंद बेटे।” सरस्वती गुर्राई।
“मुझे अपनी नौकरी प्यारी है इसलिए ऐसा कह रहा हूँ।”
“ठीक है आनंद बेटे। वहां पहुंचकर तुम्हारी खबर लेती हूँ।”
“ओके मैडमजी। आपका इंतज़ार रहेगा।” आनंद का स्वर अभी भी सहज था।
सरस्वती ने लैपटॉप ऑफ कर दिया। उसके होंठो पर मुस्कराहट थी। वह जानती थी कि आनंद सही था। आश्रम के प्रोटोकाल के हिसाब से आश्रम में इन्टरनेट या मोबाइल सेवा पर पूर्णतया बैन था।
बस आनंद इसका अपवाद था। आश्रम के लिए इतना महत्वपूर्ण था वह।
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पार्क में बहुत सारे बेंच लगे थे। कहीं कहीं पर लकड़ी के गोल मेज भी लगे थे और उसके चारों तरफ लकड़ी की ही कुर्सियां पड़ी थी। अपने सामने पड़े एक कुर्सी पर एस पी ने नरेन्द्र को बैठने का संकेत किया। दुसरी और एस पी पहले से ही बैठा था।
नरेन्द्र उर्फ़ अल्फांसे इस वक़्त आश्रम के परंपरागत नीले ड्रेस में न होकर एक साधारण सा सफ़ेद कुरता पजामा पहने था। एस पी भी अपनी वर्दी में न होकर सिविल ड्रेस में ही आश्रम आया था।
“देखो नरेन्द्र”, अपने स्वर को मुलायम रखने की कोशिश करता हुआ बोला, मैं यहाँ का एस पी होता हूँ। गुप्ता ने तो तुमसे पूछताछ कर ही ली होगी और तुमने उसका जवाब दे ही दिया होगा। अगर कुछ और बताना चाहते हो तो बता सकते हो।”
जाने क्यों अल्फांसे को शुरू में ही ये आदमी पसंद नहीं आया था। सुबह से ही लोगों को जवाब देते देते वो तंग आ चुका था। अगर वो एक आश्रमवासी के रोल में नहीं होता तो कब का वो इन लोगों को खट्टा मीठा बता चुका होता। वो अल्फांसे था जिसके नाम से ही बड़े बड़े लोगों के पैंट गीले हो जाया करते थे। पर अपना मिशन पूरा हो जाने तक वो अपने आप पर कण्ट्रोल रखना चाहता था।
प्रत्यक्षतः वो बोला- “मुझसे जितना हो सकता था मैंने बता दिया है साहब।”
“हूँ। तुम्हारा असली नाम यही है?”
“अगर असली नाम बता दिया तो यहीं बैठे बैठे बेहोश हो जायेगा ये।”
“असली नकली जो है यही नाम है साहब।”
“दरअसल मुझे पूरा यकीन है कि इस आश्रम में रहने वाले ज़्यादातर लोग कोई कांड करके यहाँ आये होंगे और नकली पासपोर्ट बनाकर यहाँ रह रहे होंगे। इसलिए ऐसा पूछा। वरना कौन घरबार छोड़कर रहता है ऐसे।”
‘औरों का तो पता नहीं पर मैं तो बिल्कुल ऐसा ही हूँ।’ अल्फांसे मुस्कुराया।
“केयरटेकर से रोज़ मिलना जुलना था तुम्हारा। क्या क्या बातें होती थी उससे?”
“बस यूँ ही अपना दुःख सुख बांटा करता था।”
“रिकॉर्डिंग देखी होगी तुमने?”
“बहुत सारी रिकॉर्डिंग देखी है मैंने अपनी लाइफ में, कौन सी रिकॉर्डिंग की बात कर रहे है आप?” अब अल्फांसे भी थोडा मज़ा लेना चाहता था।
एस पी ने घूर कर उसे देखा। ओवर स्मार्ट बनने की कोशिश कर रहा है ये। लगता है किसी पुलिसिये से पाला नहीं पड़ा है अब तक!
बेचारे को क्या मालूम था कि जिंदगी भर उसका पाला ऐसे ही लोगों से पड़ता रहा है।
“मैं उस रिकॉर्डिंग की बात कर रहा हूँ जो गुप्ता ने तुम्हें दिखाया होगा।”
“ओह वो रिकॉर्डिंग! अल्फांसे यूँ बोला मानों कोई पुरानी बात अभी अभी याद आयी हो।” हाँ देखा था न।
“क्या ख्याल है उस रिकॉर्डिंग के बारे में?”
“क्या बताऊँ साहब दिमाग के सारे के सारे तार हिल गए। ऐसे भी कोई किसी को मारता है क्या भला। वो भी एक स्त्री को। अच्छा हुआ की मैं वहां नहीं था वरना...।”
“अगर तुम वहां होते तो क्या कर लेते?” एसपी को इस नौजवान के तेवर पसंद नहीं आ रहे थे।
“उस भैंसे को उठाकर किसी नाले में फ़ेंक देता।” अल्फांसे आराम से बोला। सच्चाई तो ये थी कि रिकॉर्डिंग में जिस तरह उसने दानव को उस स्त्री को उठाकर पटकते हुए देखा था वो अचंभित रह गया था। स्त्री को तो उसने ऐसे उठाये था मानों फूलों से भरी टोकरी को उठा रहा हो। असीम शक्ति का मालिक रहा होगा वो। वह सोच रहा था कि कहीं वो दानव उसके पल्ले पड़ गया तो किस तरह उसका मुकाबला करेगा।
“एस पी ने अभी भी अपना धैर्य बनाये रखा था,” उस हत्यारे को ध्यान से देखा तुमने?
“नहीं साहब। उसे देखने का मौका कहाँ मिला!”
“मेरा मतलब रिकॉर्डिंग से है। ये देखो।” अपना मोबाइल अल्फांसे की तरफ बढ़ाते हुए बोला, ये उस हत्यारे का क्लोज अप है।
“ये उस समय के क्लोज अप का स्क्रीन शॉट है जब हत्यारे ने सेवाराम की तरफ देखा था।”
अल्फांसे ने ध्यान से देखा। वो दानव इस तस्वीर में काफी साफ़ नज़र आ रहा था।
“क्या ख्याल है इस तस्वीर के बारे में।”
“अच्छा स्क्रीन शॉट है।”
“अब इस फोटो को सामने रखते हुए आश्रम में रहने वाले सभी लोगों की तस्वीर एक एक कर दिमाग में लाओ और फिर सोचो की अगर उन लोगों को अगर इस हत्यारे की तरह नकाब पहना दिया जाये तो सबसे ज्यादा मैच किससे करेगा!”
“किसी से नहीं!” इसकी लम्बाई छः फूट से थोडा कम नहीं और आश्रम में इस लम्बाई और डीलडोल का कोई और शख्स नहीं..। “कहते कहते अल्फांसे को समझ में आने लगा था कि ये एस पी किस और जाना चाहता है।” अब वो संभल गया था।
“अब अपनी सूरत और डीलडौल से ज़रा इसका मिलान करो। उम्मीद है अपनी सूरत से तो तुम अनजान नहीं होंगे। लम्बाई तो माशाल्लाह ६ फुट से क्या कम होगी। क्या कहते हो इस बारे में?”
“मुझे कुछ कहने की ज़रूरत ही क्या है? बहुत अच्छा बोल रहे हो। और फिर आपकी लम्बाई भी छ: फुट से क्या कम होगी।” अलफांसे लापरवाही से बोला।
एस पी हड़बड़ाया। सामने वाला शख्स अलग ही तेवर का मालूम होता था।
लगता है गुप्ता ने तेरी अच्छी तरह से क्लास नहीं ली है बेटे। मैं इस इलाके का एस पी होता हूँ।
“तेरे बोलने से तो कौड़ी के गुंडे डर जाते होंगे मैं नहीं डरने वाला।” अल्फांसे के स्वर में कड़वाहट आ गयी थी।
“तरीके से बात कर लौंडे। अगर मैं चाहूं तो एक मिनट में शक की बिना पर तुझे अन्दर कर सकता हूँ। IPC के इतने धारे लगाऊंगा की बिना किसी जुर्म के भी तू जिंदगी भर जेल में सड़ता रहेगा। तू किसी एस आई से नहीं यहाँ के एस पी से बात कर रहा है।” एस पी ताव खा गया था उसके करियर में शायद ही किसी ने इस अंदाज़ में बात की थी।
“वही तो मैं सोच रहा हूँ की तुझे किस भडवे ने एस पी बना दिया।” अल्फांसे खड़ा हो चुका था।
बात लिमिट के बहार हो चुकी थी। एस पी खड़ा होते हुए उस पर झपटा।
एस पी ने उसका कॉलर पकड़कर झटका देते हुए एक तरफ पटकने की कोशिश की थी। पर अगले ही पल क्या हुआ वो एस पी समझ नहीं पाया। अल्फांसे ने अपने बदन को इस अंदाज़ में झटका दिया कि एस पी अगले ही पल उछलते हुए लगभग पांच फीट दूर जा गिरा था।
अल्फांसे लगभग टहलते हुए बेफिक्र अंदाज़ में उसके पास पहुंचा और उसे उठाते हुए खड़ा किया, दोनों हाथों से उसके कपडे ठीक किये और मुस्कुराते हुए कहा- “मेरा नाम नरेन्द्र नहीं है। अगर असली नाम कह दिया न तो यही पखाना उतर आएगा। मुझसे जितना दूर रहो अच्छा है।” वो अंतररास्ट्रीय शातिर पलटकर दूर निकल गया था।
जाने उसकी आवाज में क्या था कि एस पी डर गया था। बहुत देर तक वो यूँ ही खड़ा रहा। कही उसे बेईज्ज़त होते किसी ने देख तो नहीं लिया था?
फिर वह बुदबुदाया,
“अभी मैं सावधान नहीं था इसलिए तेरी चल गयी। अगर तेरे हाथ पैर नहीं तोड़े तो फिर मैं यहाँ का एस पी नहीं।
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“पायं लागू महंत बाबु।” कहते हुए लड़का लगभग कमरे में अकेले बैठे शख्स के पैरों पर लगभग गिर ही पड़ा।
महंत जी का ऑफिस आश्रम के मुख्य फाटक में प्रवेश के बाद दाईं ओर स्थित था और हर आने वाले को इस कमरे के दरवाजे में प्रविष्ट होना होता था जो बाकायदा काफी चौड़ा था और जिसमे चेकिंग अलार्म का सिस्टम लगा होता था ठीक एअरपोर्ट में लगे चेकिंग गेट की तरह। यहाँ पर एक गार्ड की तैनाती रहती थी और हर आने वाले शख्स का इसमें प्रवेश करना ज़रूरी होता था। प्रवेश के बाद दाईं और एक दरवाजा था जिससे स्टाफ के लिए अन्दर जाने का रास्ता था। दरवाजे के बाद दाईं ओर ही तीन खिड़की थी जो काउंटर का काम करता था और जिसमें फोटो खींचकर अस्थाई पीले रंग का कार्ड बनाने की व्यवस्था थी जिसे लेकर भक्तजन अन्दर प्रवेश कर सकते थे। ये कार्ड उसी दिन के लिए वैध होते थे। जो यहाँ अन्दर आश्रम में कमरा बुक करना चाहते थे उसके लिए महंत जी से मिलना अनिवार्य था जो खास लाल कार्ड इशू करते थे। इसके लिए बाकायदा प्रवेश दरवाजे पर ही वेकंसी की पोजीशन एक स्क्रीन पर मेंशन रहती थी। इसकी व्यवस्था ऑनलाइन भी थी और इस कारण वेकंसी लगभग हमेशा नील ही रहती थी। ऑनलाइन बुकिंग करने वालों को भी महंत जी से लाल कार्ड प्राप्त करना होता था जिसकी फीस क्रेडिट कार्ड के द्वारा ही होती थी। जिनके पास लाल कार्ड रहता था वे उस दिखाकर दरवाजे के सामने लगे बेरिअर के नीचे से प्रवेश कर सकते थे।
ये भी इतना आसान नहीं था फाटक पर खड़ा गार्ड उसे वही पर लगे मशीन में ऊपर बने स्लॉट में उसे डालता था और कार्ड परली तरफ से निकल जाता था। इस तरह उसकी इंट्री हो जाती थी!
बहार निकलने के लिए कार्ड को एक दुसरे मशीन में डालना होता था जो दोनों फाटक के पास मौजूद थी। पिछला फाटक केवल निकास के लिए ही प्रयुक्त होता था।
महंत जी से मिलने के लिए रिसेप्शनिस्ट से परमिशन लेना जरूरी होता था जो अन्दर से कन्फर्मेशन मिलने पर ही किसी को अन्दर जाने देती थी। पर युवक अपने मोबाइल में व्यस्त रिसेप्शनिस्ट से नज़र बचाकर अन्दर पहुँच गया था और इसके लिए वो खुद को दाद दे रहा था।
कमरे के मध्य में एक विशाल टेबल था जिसके पीछे एक एग्जीक्यूटिव चेअर थी और सामने तीन चेअर लगी थी। पर आज वो कमरे के एक कोने में लगे सोफे पर बैठे थे। महंत जी के नाम से जाना जाने वाला शख्स झक्कास सफ़ेद रंग का कुरता पहना था और निचे लाल रंग की धोती थी जो कुछ अटपटा मालूम होता था। कद कोई छः इंच और इकहरे बदन का स्वामी। उम्र पचास के आसपास चेहरे पर उदासी सी छाई थी जो शायद कल रात के घटनाक्रम का परिणाम थी।
महंत जी ने नज़र उठाकर सामने खड़े युवक को देखा। लम्बाई में वो लगभग उसके बराबर ही था पर उम्र में कोई २० से ज्यादा का मालूम नहीं होता था। शरीर पर एक गंजीनुमा टीशर्ट और नीचे एक पतलून। घुंघराले बाल ललाट पर बिखरे थे।
“हुलिया तो आपने देख लिया, नाम कन्हैया है वो भी बिना राधा के।” युवक ने अपना परिचय दिया। एकाएक सामने देखकर भी महंत जी को नहीं चौंकता देख कन्हैया को थोड़ी मायूसी ज़रूर हुई थी।
“बैठिये कन्हैया जी।”
युवक जिसका नाम कन्हैया था दुसरे सोफे पर बैठ गया।
“कहिये मुझसे आपको क्या सहायता चाहिए?”
“कुछ जानकारी चाहिए।”
“हूँ।”
“पहली यह कि रिसेप्शनिस्ट ने मुझे रोका क्यूँ नहीं?”
“उसे आपके बारे में ऐसा निर्देश था। पुलिस टीम के साथ आपको भी प्रवेश करने का आदेश दे दिया गया था।” महंत जी ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
कन्हैय्या ने सर हिलाया। कम नहीं है ये! उसे लगा था कि छोरी मोबाइल में बिजी है।
“बेसिक जानकारी तो आपको एस पी और एस आई के बातचीत से मिल गयी होगी। और कुछ जानकारी चाहिए तो आप पूछ सकते हैं।”
इस बार अपने हैरत को कन्हैया छुपा नहीं पाया। बुड्ढा तो टू मच है!
“आप तो सर्वज्ञ हैं चाचा!”
“मुझे भी कुछ ऐसा ही भ्रम था कल रात तक।”
“कोई गल नहीं, गिरते हैं शहसवार ही मैदान में।”
महंत जी ने मुस्कुराने की कोशिश की।
“वैसे कुछ अंदाज़ा तो बना होगा कल के बारे में।”
“अभी कुछ कहना मुश्किल है।”
“वैसे हत्यारा आया किधर से होगा?”
“दो ही दरवाजे हैं जो हमारे आश्रम को बहार से कनेक्ट करता है। प्रभुद्वार और धरमशाला द्वार। वो भी शाम सात बजे बंद कर दिए जाते हैं।”
“और चाभी आनंद को सौंप दी जाती है।”
“हमेशा नहीं। जब मुझे बाहर जाना होता है या फिर मैं बीमार वगैरह होता हूँ तो चाभी आनंद को सौंप देता हूँ। कल चाभी मेरे पास हीं थी।”
“वैसे ये आनंद भाईजान हैं कैसे आदमी? कहीं उसी ने तो कोई गड़बड़ नहीं की?”
“इसकी कोई सम्भावना नहीं है। वो ऐसा नहीं कर सकता।”
“क्यों नहीं कर सकता? हाथ नहीं है उसके?”
“उससे मिलने के बाद आप समझ जायेंगे।”
“ओह।”
“तो चाभी आपके पास हीं थी?”
“हाँ, अभी भी चाभी मेरे पास है। केयरटेकर को सौंपने की नौबत नहीं आयी।”
“देख सकता हूँ चाभी?”
महंत जी ने कोई हुज्ज़त नहीं की। चाभी कमरे में मौजूद एक दराज से निकालकर कन्हैय्या के हवाले की।
“ये एक आम चाभी से अलग छः इंच लम्बी बेलनाकार चाभी थी जो आगे से नुकीली थी और साइज़ के हिसाब से ज्यादा वजनदार था। देखने में साधारण सा पीतल का कोई स्क्रू ड्राईवर लगता था।”
“हूं, ये तो साधारण सा स्क्रू ड्राईवर है,” कन्हैय्या ने चाभी का मुआएना करते हुए कहा, “इससे तो ताला क्या ताले का कोई स्क्रू भी नहीं खुलेगा।”
“यही चाभी है सर।” महंत जी ने मुस्कुराते हुए कहा।
“लगी शर्त?”
“आपका मतलब मैं समझा। चलिए आपको मै इसका इस्तेमाल दिखा देता हूँ।”
“बढ़िया। साथ ही आनंद से भी मिला देना।”
महंत जी ने उसे घूरकर देखा। कन्हैय्या दूसरी और देख रहा था। महंत जी अभी तक समझ नहीं पा रहे थे की इस आदमी को इतना महत्व देकर क्यों भेजा गया है। वो कन्हैय्या को लेकर आनंद के निवास की ओर बढ़ चले।
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दोनों आनंद से मिलकर पिछले फाटक की तरफ बढ़ रहे थे।
“तो आनंद आपके शक के घेरे में नहीं है न?” महंत जी ने मुस्कुराते हुए पूछा।
“नहीं जी बिलकुल नहीं। वो तो मासूम बच्चे की तरह है। वो तो बिना आदेश के मक्खी भी नहीं मार सकता जी। वैसे और क्या क्या काम करते हैं आनंद साहब?”
“बस यूँ समझ लीजिये कि उसके यहाँ होने से मेरे सारे काम आसान हो जाते हैं।”
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दिल्ली से चांदीपुर न जाकर उसे पटना आना पड़ा था।
सरस्वती बिहार सरकार के प्रधान सचिव के विशेष निमंत्रण पर पटना में थी। दरअसल ये निमंत्रण न होकर आदेश हीं था और उसे आनन फानन तलब कर लिया गया था। तय समय साढ़े नौ बजे पर वो उसके दफ्तर पहुँच चुकी थी और इस समय प्रधान सचिव के सामने मौजूद थी।
सामान्य दिनों में प्रधान सचिव राजीव वर्मा ११ बजे से पहले दफ्तर पहुँचने की गलती नहीं करता था आज ९ बजे से हीं दफ्तर में मौजूद था। उसने पुनः घडी पर नज़र डाली। आज २९ तारीख थी यानि अभी ७ दिन शेष थे। जाहिर है कि ये दस दिन उसके लिए सामान्य नहीं रहने वाला था। बोधगया में दो विशिष्ट मेहमानों के आने कि सूचना उसे पहले हीं मिल चुकी थी। पर जो खबर उसे कल रात मिली उसने उसे खास तौर पर चौंकाया था। वो समझने में असमर्थ था कि चांदीपुर का एक छोटा सा आश्रम इतना महत्वपूर्ण क्यों बन गया था।
“जाने माजरा क्या हैं?” वो बुदबुदाया।
“जी?” सरस्वती बोली।
“मेरा मतलब है कि इतने आनन फानन में आपको बुलाने के लिए माफ़ी चाहता हूँ।” राजीव वर्मा ने संयम से कहा।
“जी शुक्रिया। आप तो अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं।”
“आपकी लिखी हुई किताब पढ़ी ‘a brief history of religion in exile’
“थैंक्स।”
“लगता है तिब्बत से बहुत गहरा प्यार है आपको।”
“हर उस आदमी को होना चाहिए जिसे स्वतंत्रता से प्यार है।”
“इस मुहब्बत कि कोई खास वजह तो नहीं?”
“मोहब्बत कि कोई वजह नहीं होती सर। मोहब्बत पहले होती है वजह बाद में पैदा हो जाती है।”
“कहीं यही वजह तो नहीं कि तिब्बत से जुड़े दो खास लोगों को आपकी ओर से निमंत्रण दिया गया है।”
“हम लोग किसी को निमंत्रण नहीं देते। वैसे आमंत्रण सभी के लिए है। और अगर कोई आना चाहे तो उसके लिए हमारे आश्रम के दरवाजे खुले होते है।”
“चाहे उससे हमारे सरकार के लिए संकट पैदा हो जाये।”
“हमारा आश्रम इतना बड़ा नहीं कि वहाँ किसी के आने से सियासी संकट पैदा हो। अगर ऐसी स्थिति आती भी है तो आप उन्हें आने से रोक सकते हैं।”
“यह तो सरकार निर्णय लेगी कि किसे आना है या नहीं।”
“सी टी ए यानि सेंट्रल तिबेतन एडमिनिस्ट्रेशन से जुड़े हर शख्स के मूवमेंट पर सरकार की नज़र होती है। और अगर मामला करमापा से जुड़ा हो तो मामला ख़ास हो हीं जाता है। चीन करमापा से सम्बन्ध रखने वाले हर मामले पर अपनी नज़र रखता है। ऐसी स्थिति में दो दो शमरपाओं का एक साथ यहाँ आना चीन के साथ संबंधों में खलबली पैदा कर सकता है।”
“पर सर”, सरस्वती मुस्कुराई। “पिछले शमरपा कि मृत्यु के बाद अभी तक किसी नए शमरपा कि घोषना नहीं हुई है। बस ये उम्मीद बनी हुई है कि इन दोनों में से हीं कोई बन सकता है।”
“पर अगर इन दोनों में से मिलकर अगर किसी एक करमापा के पक्ष में घोषणा कर दी तो मामला गंभीर हो सकता है। पिछले शरमापा ओग्येंन के पक्ष में नहीं थे। ऐसी उम्मीद इसलिए व्यक्त कि जा रही है क्योंकि पिछले सप्ताह दोनों कलिम्पोंग में थे।”
“और कलिम्पोंग में उग्येन त्रिनले के प्रतिद्वंदी का निवास भी है।” सरस्वती बोलकर चुप हो गयी। प्रधान सचिव ने काफी जानकारी इकट्ठी कि थी।
“देखिये मैडम। इस डिपार्टमेंट में आये हुए मुझे केवल तीन महीने हुए हैं। यहाँ से पहले मैं सेंटर में विदेश मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव था। चीन के सम्बन्ध में मुझे विस्त्तृत जानकारी है। उग्येन त्रिनले के दो प्रतिद्वन्धी और भी हैं जिन्हें करमापा कि उपाधि मिली हुई है पर बाकी दोनों के मुकाबले उग्येन महाशय कि फैन फौलोविंग बहुत ज्यादा है। चीन कि रूचि भी इन्हीं में है। वो भी चीन से थोड़ी हमदर्दी रखते हैं। दलाई लामा के जाने के बाद चीन उग्येन महोदय को हीं सी टी ए के प्रमुख के रूप में प्रोजेक्ट करेगा। ऐसी स्थिति में दोनों शमरपा का एक साथ मिलना चीन के लिए तिब्बत मामले में। बहुत बड़े सेटबैक का कारण हो सकता है।”
“पर दोनों शमरपा में से एक तो उग्येन के समर्थक बताये जाते हैं।”
“कहा तो ऐसा हीं जाता है। पर उग्येन महाशय एक वर्ष से भारत से दूर अमेरिका में हैं। उस पर से उनकी ओर से कुछ ऐसे स्टेटमेंट जारी किये गए हैं जिससे लगता है कि उनकी रूचि सी टी ए में नहीं है। चीन तो ज़रूर उनके संपर्क में होगा।”
“हूँ। पर इस मामले में हम लोग यानी जागरण आश्रम क्या कर सकता है?”
“बस इतना कि उन दोनों के तरफ से ऐसा स्टेटमेंट जारी नहीं किया जाये जिससे चीन के साथ अनावश्यक तनाव पैदा हो।”
“ऐसा बिहार सरकार का चाहना है?”
“नहीं मैडम। ऐसे मामलों में राज्य सरकार का क्या दखल हो सकता है? मैसेज तो दिल्ली से आया है हम बस फॉरवर्ड कर रहे हैं।”
“पर केंद्र सरकार ऐसी उम्मीद क्यों कर रही है? अगर किसी गड़बड़ी की आशंका है तो वो दोनों मेहमानों को बिहार में प्रवेश से रोक सकती हैं।”
“अब ऐसा करना मुमकिन नहीं। अगर ऐसा करते हैं तो पब्लिक में गलत सन्देश जायेगा कि भारत चीन से डरता है। विशेषकर ऐसी स्थिति में जब चीन कि तरफ से अधिकारिक सन्देश आया है कि उसके विदेश मंत्री जो संजोगवश सपरिवार उस समय भारत कि प्राइवेट यात्रा पर रहेंगे, दोनों शमरपाओं के साथ भारत के महान गुरु ब्रह्मदेव आचार्य के साथ मीटिंग का आनंद लेंगे ताकि चीन के साथ भारत के सम्बन्ध प्रगाढ़ हो।”
सरस्वती सन्न रह गयी।
कुछ देर बाद वो बोली।
“पर विदेश मंत्री के एक छोटे से शहर में आने से सुरक्षा का मसला हो सकता है।”
“वो अपने साथ रेगुलर ८ लोगों के विशेष सुरक्षा दल के साथ पहुंचेगा। साथ में पत्रकारों का विशेष दल तो रहेगा हीं। छुपे रूप में कुछ जासूस वगैरह भी हो सकते हैं।”
“और हमारे लोग?”
“हमारे भी जवान होंगे। और आपको यहाँ बुला भेजने का एक कारण ये भी था कि आपके आश्रम के गिने चुने लोग हीं वहां मौजूद रहेंगे। जिन्हें आप वहां रखना चाहती है उनके डिटेल्स कल तक हमें भेज दें। कुछ दिन पहले हुई घटना का प्रभाव इस मीटिंग पर नहीं पड़ना चाहिए।”
सरस्वती का दिमाग तेजी से दौड़ रहा था। अल्फांसे का काम अब ज्यादा मुश्किल होने वाला था।
“और अगली बात, जहाँ पर ये मीटिंग्स होने वाली है उस जगह के डिटेल्स हमें दे दें। उसकी अभी से रेकी करवानी होगी ताकि सुरक्षा का कोई मसला पैदा न हो। अगर आपको कुछ और डिटेल जानना हो तो अभी पूछ सकती हैं या फिर बाद में मुझे मेरे पर्सनल नंबर पर कॉल कर सकती हैं।”
“एक बात और, चीनी विदेश मंत्री अकेले पहुंचेंगे या फिर परिवार के साथ?”
“अकेले ही। परिवार को वे दिल्ली में ही छोड़कर यहाँ के लिए निकलेंगे। इन फैक्ट वो दिल्ली पहुँच भी चुके हैं।”
सरस्वती के लिए मामला अब इतना आसान नहीं रहा था।
‘ये चपटे नाक वाली लड़की जाने क्या चाहती है!’ उसके जाने के बाद वर्माजी बुदबुदाये।
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