मेरे प्यारे पापा,

सादर नमस्ते!
अच्छी तरह जानती हूं कि इस पत्र को पढ़कर आपके दिल को धक्का पहुंचेगा, परन्तु फिर भी आपकी यह जालिम और बेरहम बेटी लिखने पर मजबूर हो गई है, सच पापा—आपकी यह नन्हीं बेटी बहुत मजबूर है—जो कुछ हो रहा है वह शायद आपकी बेटी के दुर्भाग्य के अलावा और कुछ नहीं है, वरना—आपने भला क्या कमी छोड़ी थी—खूब धूमधाम से मेरी शादी की—दहेज में वे सब चीजें तक दीं, जो आपकी हैसियत से बाहर थीं!
देखने-सुनने में रिटायर्ड जूडिशियल मजिस्ट्रेट श्री बिशम्बर गुप्ता का परिवार सारे बुलन्दशहर के लिए एक आदर्श है—जिधर निकल जाएं लोग इनके सम्मान में बिछ-बिछ जाते हैं और देखने-सुनने में हेमन्त भी योग्य हैं, छोटी ही सही, मगर 'लॉक मैन्युफैक्चरिंग' नामक फैक्टरी के मालिक हैं, परन्तु यह जानकर आपको दु:ख होगा पापा कि वास्तव में ये लोग वैसे नहीं हैं, जैसे दिखते हैं!
पिछले करीब एक महीने से ये लोग मुझ पर आपसे बीस हजार रुपये मांगने के लिए दबाव डाल रहे हैं—मैं टालती आ रही थी, क्योंकि आपकी हालत से अनजान नहीं हूं—जानती हूं कि इन जालिमों की मांग पूरी करना आपके लिए असंभव की सीमा तक कठिन है, मगर...ये लोग बात-बात पर मुझे ताने मारते हैं!
तरह-तरह से मानसिक यातनाएं दे रहे हैं। समझ में नहीं आ रहा है पापा कि मैं क्या करूं—हेमन्त कहता है कि अगर उसे रुपये नहीं मिले तो मुझे तलाक दे देगा—सोचती हूं कि खुद को फांसी लगा लूं—कोशिश की, लेकिन आपका ख्याल आने पर सफल न हो सकी—दिल में ख्याल उठे कि आप मुझे कितना प्यार करते हैं पापा, मेरी मृत्यु से आप पर क्या गुजरेगी—बस, मरने का साहस टूट गया—आपके फोटो के सामने बैठी बिलख-बिलखकर रोती रही मैं!
मैं चार तारीख को आपके पास आ रही हूं—हालांकि जानती हूं शादी के कर्ज से अभी तक आपका बाल-बाल बिंधा पड़ा है, इस मांग को पूरा करने के लिए मेरे पापा की खाल तक बिक सकती है, परन्तु फिर भी, यह लिखने पर बहुत विवश हूं पापा कि जहां से भी हो, जैसे भी हो—बीस हजार का इंतजाम करके रखना!
और हां, इन लोगों ने मुझे धमकी दी है कि अगर इस बारे में आपने इनसे कोई बात की तो मेरी खैर नहीं है—अगर आप मेरा अच्छा चाहते हैं तो इस बारे में इनसे जिक्र न कीजिएगा—बाकी बातें मिलने पर बता सकूंगी।
आपकी बेटी—सुचि।
दीनदयाल ने कम-से-कम बीसवीं बार अपनी बेटी के पत्र को पढ़ा और इस बार भी उस पर वही प्रतिक्रिया हुई, जो उन्नीस बार पहले हो चुकी थी—लगा कि कोई फौलादी शिकंजा उसके दिल को जोर से भींच रहा है!
असहनीय पीड़ा को सहने के प्रयास में जबड़े कस गए उसके, आंखें मिच गईं और उनसे फूट पड़ीं गर्म पानी की नदियां।
दर्द सहा न जा रहा था।
पीड़ा के उसी सैलाब से ग्रस्त सामने बैठी पार्वती ने जब देखा कि पति ने अपने दांतों से होंठ जख्मी कर लिए हैं तो कराह उठी—"बस कीजिए मनोज के पापा, बस कीजिए—दिल फटा जा रहा है।"
दीनदयाल कुछ बोला नहीं, शून्य में घूरते हुए उसका चेहरा एकाएक चमकने लगा—होंठ से खून रिस रहा था और जबड़ों के मसल्स फूलने-पिचकने लगे—जाने वह क्या सोच रहा था कि गुस्से की ज्यादती के कारण सारा शरीर कांपने लगा—मुट्ठियां भिंचती चली गईं, साथ ही बेटी का पत्र भी—एकाएक उसके मुंह से गुर्राहट निकली—"मैं बिशम्बर गुप्ता को कच्चा चबा जाऊंगा, खून कर दूंगा उसका।"
पार्वती घबरा गई, बोली—"यह क्या कह रहे हैं आप, होश में आइए।"
"ऐसे कुत्तों का यही इलाज है, मनोज की मां—और फिर इन हालातों में एक लड़की का गरीब बाप और कर भी क्या सकता है—दहेज के इन लोभी भेड़ियों की बोटी-बोटी काटकर चील-कौवों के सामने डाल देनी चाहिए।"
"मैं आपके हाथ जोड़ती हूं—यह हमारी बेटा का मामला है, अगर जोश में आपने कोई उल्टा-सीधा कदम उठा दिया तो अंजाम हमारी सुचि को भुगतना होगा, जाने वे उसके साथ क्या सुलूक करें?"
"क्या करेंगे वे कमीने—क्या वे हमारी बेटी को मार डालेंगे?"
"आए दिन बहुएं जलकर मर रही हैं, ऐसा करने वालों का ये समाज और कानून भला क्या बिगाड़ लेता है?"
दीनदयाल का सारा जिस्म पसीने-पसीने हो गया, बूढ़ी आंखों ने आग की लपटों से घिर बेटी का जिस्म देखा तो चीख पड़ीं—"न-नहीं—ये नहीं हो सकता, मनोज की मां, वे ऐसा नहीं कर सकते।"
"दहेज के भूखे दरिंदे कुछ भी कर सकते हैं।"
सारा क्रोध, सारी उत्तेजना जाने कहां काफूर हो गई—बड़े ही मर्मांतक अंदाज में दीनदयाल कह उठा—"वे लोग ऐसे लगते तो नहीं थे, पार्वती, सारे बुलंदशहर में यह बात कहावत की तरह प्रसिद्ध है कि अपनी सर्विस के जमाने में बिशम्बर गुप्ता ने कभी एक पैसे की रिश्वत नहीं ली।"
"भ्रष्ट आदमी पद और रुतबे में जितना बड़ा होता है उसके चेहरे पर शराफत और ईमानदारी का उतना ही साफ-सुथरा फेसमास्क होता है, मनोज के पापा।" पार्वती कहती चली गई—"हम लोगों के अलावा यह भी किसको पता होगा कि बिशम्बर गुप्ता दहेज के लोभी हैं—बात खुलने पर भी लोग शायद यकीन न कर सकें।"
रिटायर्ड जूडिशयल मजिस्ट्रेट श्री बिशम्बर गुप्ता आराम-कुर्सी पर अखबार पढ़ रहे थे कि ललितादेवी ने आंगन में कदम रखते हुए कहा—"अखबार में ऐसा क्या है, जिससे आप चिपककर रह गए?"
बिशम्बर गुप्ता ने नाक पर रखे चश्मे के अन्दर से पत्नी की तरफ देखा, अखबार की तह बनाकर गोद में रखा और चश्मे को दुरुस्त करते हुए बोले—"कल एक और बहू को उसके ससुराल वालों ने जलाकर मार डाला।"
"हे भगवान!" ललितादेवी कह उठीं—"घोर कलयुग आ गया है।"
बिशम्बर गुप्ता ने उसे ध्यानपूर्वक देखा, फिर समीप पड़े स्टूल की तरफ इशारा करके बोले—"बैठो ललिता।"
पति के चेहरे पर छाई गंभीरता ने ललिता को विवश कर दिया। वह स्टूल पर बैठती हुई बोली—"कहिए, क्या बात है?"
बिशम्बर गुप्ता ने तुरन्त कुछ न कहा। पहले रहस्यमय अंदाज में चारों तरफ देखा, फिर ललितादेवी पर झुककर अत्यंत धीमे स्वर में पूछा—"हेमन्त और बहू कहां हैं?"
"ऊपर—अपने कमरे में।"
बिशम्बर गुप्ता ने उसी अंदाज में पुनः पूछा—"रेखा और अमित?"
"अमित अपने कॉलिज के ड्राइविंग कम्पीटिशन की तैयारी हेतु ड्राइविंग करने गया है और रेखा छत पर पढ़ रही है, मगर आप इस तरह घर के हर सदस्य के बारे में क्यों पूछ रहे हैं?"
बिशम्बर गुप्ता ललितादेवी पर कुछ और ज्यादा झुक गए। पहले से कई गुना ज्यादा रहस्यमय स्वर में बोले—"खाना-बनाते वक्त अगर हमारी बहू भी किसी दिन जलकर मर जाए तो कैसा रहे?"
"क-क्या?" ललितादेवी उछल पड़ीं।
"बात को समझने की कोशिश करो, ललिता।" कहते वक्त बिशम्बर गुप्ता के बूढ़े परन्तु रौबदार चेहरे पर हिंसा नाचने लगी—"सुचि घर में भी हर वक्त रेशमी साड़ी पहने रहती है—गैस के चूल्हे से निकली आग का एक जर्रा यदि उसके पल्लू को स्पर्श कर ले तो!"
"न...नहीं!" उनकी बात पूरी होने से पहले ही ललितादेवी चीख पड़ीं, उन्होंने झपटकर दोनों हाथों से पति का गिरेबान पकड़ा और हिस्टीरियाई अंदाज में चीख पड़ीं—"आप 'वे' नहीं हो सकते या—या फिर आपका दिमाग खराब हो गया है—पागल हो गए हैं आप।''
"सोच लो ललिता, एक करोड़पति सेठ की लड़की सुचि से कहीं ज्यादा खूबसूरत है—दहेज में वह लाखों रुपये देगा, मगर इसके लिए सुचि को ठिकाने लगाना जरूरी है।"
ललितादेवी अवाक्!
बोलें भी तो कैसे?
मुंह में जुबान ही न थी—'हत्या की कल्पना' मात्र से उनके जिस्म का रोयां-रोयां खड़ा हो गया।
''बोलो, इस काम में तुम हमारी मदद करने के लिए तैयार हो या नहीं?"
ललितादेवी को जवाब देने का होश कहां! जैसे लकवा मार गया था उन्हें। चेहरा कोरे कागज-सा सफेद, हवाइयां उड़ रही थीं वहां—आंखों की जैसे रोशनी गायब हो गई—जिस्म के सभी मसामों ने एक साथ ढेर सारा पसीना उगल दिया था।
मार खौफ के पत्थर की मूर्ति में बदलकर रह गई थीं वह।
ललितादेवी की पथराई आंखें उनके चेहरे पर स्थिर थीं—और ऐसा देखकर एक बार को तो बिशम्बर गुप्ता के समूचे जिस्म में मौत की सिहरन दौड़ गई, परन्तु अगले ही पल जाने क्यों, उनके होंठों पर जीवन्त मुस्कान उभर आई। पत्नी के दोनों कंधे पकड़कर बोले—"ललिता—क्या सोचने लगीं तुम, होश में आओ।"
"न...नहीं—आप 'वे' नहीं हो सकते।'' डरे हुए अंदाज में ललितादेवी बड़बड़ाती चली गईं—"उनके रूप में मेरे सामने कोई नरपिशाच खड़ा है, मेरे पति तो ऐसी घिनौनी बातें सोच भी नहीं सकते।"
बिशम्बर गुप्ता ठहाका लगा उठे, बेसाख्ता हंस पड़े वह।
ललितादेवी के चेहरे पर मौजूद आतंक के भावों से उलझन के चिह्र भी आ मिले—कुछ कहने के प्रयास में उनके होंठ हिले जरूर थे, मगर कोई आवाज न निकल सकी, जबकि खुलकर हंस रहे बिशम्बर गुप्ता ने कहा—"खुद को संभालो, हेमन्त की मां, हम सचमुच सुचि की हत्या करने वाले नहीं हैं, बल्कि सिर्फ एक प्रयोग कर रहे थे।"
"क...कैसा प्रयोग?" ललितादेवी के मुंह से हठात् निकल पड़ा।
"यह कि वह भारतीय नारी जो अपने पैर तले दबकर मर जाने वाली चींटी तक को देखकर कांप उठती है, क्या दहेज के लोभ में सास बनते ही बहू की हत्या कर सकती है।"
"मैं...मैं समझी नहीं।"
"दरअसल जब शुरू-शुरू में दहेज की बलिवेदी पर चढ़ जाने वाली बहुओं से सम्बन्धित समाचार पढ़े तो हमें मासूम बहुओं से सहानुभूति और उनके ससुराल वालों से नफरत हुई, मगर देखते-ही-देखते यह समाचार चमत्कारिक ढंग से अखबार के हर कॉलम पर छा गए—इस कदर कि कभी-कभी तो एक अखबार में कई-कई खबरें छपने लगीं—ऐसा नजर आने लगा जैसे हर सास-ससुर, ननद-देवर और पति बहुओं को जला रहा हो—धीरे-धीरे यह सवाल हमारे जेहन में उग्र रूप धारणा करता चला गया कि क्या यह सभी समाचार सच हैं, क्या हत्या करना इतना आसान हो गया है कि उसे साधारण पारिवारिक लोग इतनी तादाद में कर सकें?"
ललितादेवी अपने पति की तरफ देखती भर रहीं।
जबकि बिशम्बर गुप्ता कहते चले गए—"हम जुडिशियल मजिस्ट्रेट रहे हैं, ललिता—हमने एक-से-एक क्रूर और जालिम मुजरिम को देखा है और अपने अनुभव के आधार पर हम यह बात दावे के साथ कह सकते हैं कि 'हत्या' जैसा संगीन जुर्म करने के नाम पर बड़े-से-बड़े मुजरिम के भी छक्के छूट जाते हैं—इसीलिए हम इन खबरों पर यकीन न कर सके—हम हरगिज नहीं मान सकते कि जिस जुर्म को करने की कल्पना मात्र से पेशेवर मुजरिमों को भी पसीने आ जाते हैं, उसे साधारण पारिवारिक लोग इतनी तादाद में कर सकते हैं।''
"म...मगर इन सब बातों का मेरे सामने सुचि की हत्या का प्रस्ताव रखने से क्या मतलब?"
"तुम भी एक साधारण भारतीय नारी हो ललिता, साथ ही 'सास' भी—वैसी ही 'सास' जैसी इस देश की निन्यानवें प्रतिशत महिलाएं हैं—हम यह देखना चाहते थे कि 'सास' का लेबल चिपकते ही क्या सचमुच भारतीय महिला इतनी क्रूर और जालिम हो उठती है?" कहने के बाद बिशम्बर गुप्ता सांस लेने के लिए रुके, फिर कह उठे—"और हमने देखा—भय से सराबोर तुम्हारा चेहरा, खौफ की ज्यादती के कारण कांपती तुम्हारी आवाज—शर्त लगाकर कह सकते हैं कि हमारे जिन शब्दों ने जो हालत तुम्हारी कर दी, वे शब्द वही हालत इस मुल्क की निन्यानवें प्रतिशत महिलाओं की कर सकते हैं—ऐसी महिलाओं को बहू की हत्यारी कैसे स्वीकार किया जा सकता है, 'हत्या की कल्पना' मात्र से ही जिनके छक्के छुट जाएं?"
"तो क्या आप मुझे सिर्फ आजमा रहे थे?" ललितादेवी का स्वर अभी तक हैरत में डूबा हुआ था—"देखना चाहते थे कि दहेज के लालच में मैं सुचि की हत्या कर सकती हूं या नहीं?"
"सिर्फ यही नहीं ललिता, बल्कि तुम्हारे माध्यम से हम तमाम भारतीय 'सासों' की मानसिकता और उनके हौसले को आजमा रहे थे—देखना चाहते थे कि क्या अखबार में छपी सभी खबरें सही होती हैं?"
"क्या आप सच कह रहे हैं?" स्वर में अभी तक शंका थी और उस शंका के कारण ही बिशम्बर गुप्ता एक बार फिर ठहाका लगाकर हंस पड़े—वे आगे बढ़े, ललिता के डरे हुए एवं पसीने से तर-बतर चेहरे को अपनी हथेलियों के बीच भरकर प्यार से कह उठे—"उफ्—तुम तो बहुत डर गई हो, ललिता। क्या तुम समझती हो कि हम सचमुच...।"
"न...नहीं, ऐसी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती, तभी तो...।" अपने शब्द स्वयं ही बीच में छोड़कर ललितादेवी उनसे लिपट गईं और जाने क्यों फफक-फफककर रो पड़ीं, बोली—"मैं बहुत डर गई थी, हेमन्त के पापा।"
"पगली!" कहकर बिशम्बर गुप्ता ने बांहों में भींच लिया और प्यार से उनके बाल सहलाने लगे।
गुनगुनाती सुचि ने बाथरूम में लगा 'फव्वारा' ऑफ कर दिया—उसके तन पर पड़ रही बारिश रुक गई—उसके दूध से गोरे, स्वस्थ एवं गदराए जिस्म पर पानी की बूंदें यूं झिलमिला रही थीं, जैसे पारदर्शी शीशे पर ढेर सारे हीरे बिखरे पड़े हों—लम्बे, घने एवं काले बालों को उसने हौले से झटका और 'हैंडिल' से बड़ा 'टॉवल' उठाकर अपने बदन पर डाल लिया।
फिर उसने टॉवल के नीचे से वे दो मात्र कपड़े निकाले, जिन्हें पहने वह नहा रही थी—इस सारी क्रिया के बीच सुचि किसी मधुर फिल्मी गाने को गुनगुनाए जा रही थी।
गर्दन के पास टॉवल में उसने गांठ लगाई।
पहले आहिस्ता से दरवाजा खोलकर अपने बेडरूम में झांका और आश्वस्त होने के बाद दरवाजा पूरी तरह खोलकर कमरे में पहुंच गई—फर्श पर नन्हें-नन्हें पदचिन्ह बनाती वह पूरी स्वच्छंदता के साथ एक कोने में रखी अलमारी की तरफ बढ़ रही थी—इस सच्चाई से बेखबर कि पीछे वाली दीवार से सटा हेमन्त उसे देख रहा था।
हेमन्त की दृष्टि उसकी नग्न लम्बी, सुडौल और केले के तने जैसे चिकनी टांगों पर स्थिर थी—होंठों पर नाच रही थी शरारत से सराबोर मुस्कान—सांस रोके वह दबे पांव सुचि के पीछे बढ़ा।
शायद वस्त्र निकालने के लिए सुचि ने अभी अलमारी खोली ही थी कि हेमन्त उसके बेहद समीप जाकर दहाड़ा—"हां...!"
"उई!" बुरी तरह डरकर सुचि चीख पड़ी।
खिलखिलाकर हंसते हुए हेमन्त ने उसे बांहों में भर लिया—सुचि की समझ में क्षण भर में अपने पति की शरारत आ गई, छिटककर अलग हटी और बनावटी क्रोध के साथ बोली—"यह क्या बदतमीजी है, हेमू?"
हेमन्त ठहाका लगाकर हंस पड़ा, बोला—"यही बदतमीजी कनरे के लिए तो पंद्रह मिनट से उस दीवार के सहारे लाठी की तरह खड़े थे, मेरी जान।"
दोनों कलाइयों को मोड़कर उसने 'पल्लू' का काम लेने की असफल कोशिश के साथ अपनी दृष्टि से उसे जख्मी करती सुचि ने कहा—''तुम अपनी बदतमीजी से बाज नहीं आओगे?"
"लानत है उस पर जो पानी से भीगी आग को देखकर भी शरीफ बना रहे।" कहने के साथ ही हेमन्त ने अपनी आंखों को एक्स-रे मशीन में बदल दिया था।
सुचि ने नखरा किया—"मुझे कपड़े चेंज करने दो हेमू।"
"कर लो चेंज....मैंने कब मना किया?"
"प...प्लीज हेमू, तुम कमरे से बाहर जाओ।"
"ओoकेo।" कहने के साथ होंठों पर चंचल मुस्कान लिए हेमन्त उसकी तरफ बढ़ गया और उसके इरादे भांपते ही पीछे हटती हुई सुचि बोली—"प...प्लीज हेमन्त, यह कोई समय नहीं है।"
"मैं अभी-अभी पंडित से पूछकर आया हूं सुचि डार्लिंग, यही समय सबसे ज्यादा उपयुक्त और शुभ है।" कहने के साथ ही वह बाज की तरह झपट पड़ा, किन्तु पहले ही से सतर्क सुचि फुदककर बेड पर चढ़ गई।
हेमन्त पुनः झपटा।
खिलखिलाती सुचि बेड के दूसरी तरफ।
और फिर सुचि हेमन्त को पलंग के चक्कर कटाने लगी—कमरे में गूंज रही थीं एक सुखी दम्पत्ति की खिलखिलाहटें।
'काला आम' नामक स्थान को बुलंदशहर का केंद्र कह सकते हैं—वहां से डी.एम. कॉलोनी, कचहरी और पुलिस लाइन आदि को सीधी सड़क जाती है—पुलिस लाइन से कटकर एक सड़क जाती है—कोठियात मौहल्ला।
इस कोठियात मोहल्ला के सत्तावन बटा चार नम्बर मकान के बाहर ही आपको एक 'नेम प्लेट' लगी नजर आएगी। इस नेम प्लेट पर लिखा है—बिशम्बर गुप्ता, रिटायर्ड जूडिशयल मजिस्ट्रेट।
यह कहानी दरअसल इसी परिवार को लक्ष्य बनाकर लिखी गई है।
अपने जमाने में बिशम्बर गुप्ता कितने ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ रहे, इसका जीता-जागता प्रमाण यह है कि रिटायमेंट तक वह कोठियात मोहल्ले में छोटा-सा मकान बनवाने से ज्यादा कुछ न कर सके—बाद में उन्होंने बैंक से 'लोन' के सहारे बड़े लड़के को एक छोटी-सी ताला फैक्टरी खुलवा दी और अब उसी फैक्टरी से इस परिवार की दाल-रोटी चलती है।
परिवार में इनकी पत्नी ललितादेवी के अलावा हेमन्त और अमित नामक दो पुत्र, रेखा नामक एक लड़की और सुचि उनके बड़े पुत्र हेमन्त की पत्नी थी।
कथानक के शुरू में मैंने उस पत्र को दर्शाया जो सुचि ने अपने पापा के नाम लिखा था, उसके बाद बिशम्बर गुप्ता परिवार की मानसिकता का चित्रण किया—तब, निश्चय ही आप इस उलझन में पड़ गए होंगे कि क्या वह पत्र सचमुच सुचि ने ही लिखा है, यदि 'हां' तो क्यों?
इस सवाल का जवाब तो कथानक में आपको मिल ही जाएगा, किन्तु यहां मेरी तरफ से आप पर शायद यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि लाखों पाठकों की तरह इस परिवार के भी एक सदस्य ने मेरी 'बहू मांगे इंसाफ' नामक कृति पढ़ी थी—उसके बाद, इस परिवार पर वह सब कुछ गुजरा जो इस उपन्यास में लिखा जाएगा—'बहू मांगे इंसाफ' को पसंद करने के बावजूद हेमन्त ने मुझे काफी सख्त भाषा में पत्र लिखा—उसने लिखा था कि तुम लेखक लोग तस्वीर के सिर्फ एक पहलू को देखते हो, दूसरे को नहीं—अगर 'दहेज' के दूसरे पहलू को देखना चाहते हो तो मुझसे मिलो—हेमन्त के पत्र में ऐसा कुछ जरूर था जो मुझे मेरठ से वहां ले गया—आंखों में आंसू, चेहरे पर वेदना और तड़पते दिल से जब उसने मुझे आपबीती सुनाई तो मेरा दिल भी रो पड़ा, रोंगटे खड़े हो गए—उसकी कहानी बड़ी ही दर्दनाक और लोमहर्षक थी—सुनाने के बाद उसने गुस्से में कहा—''अगर तुममें हिम्मत है, साहस है तो अपने किसी उपन्यास के जरिए यह कहानी भी उन्हें सुनाओ जिन्हें 'बहू मांगे इंसाफ' सुनाई थी—तस्वीर का दूसरा पहलू भी तो समाज के सामने रखो।"
मेरी उंगलियां तो स्वयं ही उसकी कहानी पर उपन्यास लिखने के लिए मचल उठी थीं, सो बोला—"क्या तुम्हारी तरफ से मुझे तुम्हारे परिवार के वास्तविक नाम प्रयोग करने की इजाजत है?"
"हमने ऐसा कोई शर्मनाक काम नहीं किया है, जिसकी वजह से हमें अपना नाम और चेहरा छुपाने की जरूरत पड़े।" हेमन्त ने पूरे रोष-भरे स्वर में कहा था—अब, मैं वही कहानी लिख रहा हूं—रोचक बनाने के लिए कल्पनाओं का सहारा जरूर लूंगा, परन्तु उस हद तक नहीं कि 'बिशम्बर परिवार' की कहानी की आत्मा ही मर जाए—यहां पर यह स्पष्ट कर देना भी मैं उपयुक्त समझता हूं कि यदि कुछ परिवारों में सच्चाईं 'बहू मांगे इंसाफ' है तो कुछ में 'दुल्हन मांगे दहेज' भी जरूर होगी।
हेमन्त फैक्टरी चला गया तो सुचि अपने कमरे की सफाई में लग गई—लिहाफ आदि की तह बनाने के बाद उसने बेडशीट दुरुस्त की और झाङ़ू संभालकर बॉलकनी में पहुंच गई। अभी उसने वहां झाङू लगानी शुरू की ही थी कि एक सिगार का टुकड़ा झाङू से उलझ गया।
जूते से पूरी बेरहमी के साथ कुचले गए सिगार के इस टुकड़े पर नजर पड़ते ही जाने क्यों चमत्कारिक ढंग से सुचि का चेहरा 'फक्क' पड़ गया—मात्र एक पल में उसके चेहरे पर पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूंदें झिलमिलाने लगीं—झाङू हाथ से छूट गई थी।
आंखों में खौफ के कुछ वैसे ही चिन्ह थे, जैसे वह सिगार के टुकड़े को नहीं, बल्कि किसी बहुत ही जहरीले सर्प को देख रही हो।
सुचि इस कदर आतंकित हो गई थी कि वहीं जड़ होकर रह गई—ठीक पत्थर की किसी मूर्ति के समान—यह वही जाने कि उस वक्त उसका मस्तिष्क दहशत की किन वादियों में भटक रहा था।
"बहू—ओ बहू!" ललितादेवी की आवाज ने उसे चौंकाया।
सुचि बौखला गई।
हड़बड़ाकर वह खड़ी हुई, अपनी तरफ बढ़ती ललितदेवी को देखकर उसने जल्दी से सिर ढांपा और उनके चरणों में झुकती हुई बोली—"प्रणाम मांजी!"
"तुम्हारा सुहाग बना रहे बेटी, चांद-सा बेटा हो।"
घबराहट पर नियंत्रण पाने की चेष्टा करती हुई सुचि सीधी खड़ी हुई ही थी कि ललितादेवी ने कहा—"आज तू फिर झाङू लगाने लगी?"
"मां...मांजी।"
"एक नहीं सुनूंगी तेरी—कल भी कहा था कि इस हालत में ऐसे काम नहीं किया करते, चल—जाकर कमरे में बैठ। झाङू मैं लगा लूंगी।"
दिल उछलकर सुचि के कण्ठ में फंस गया।
इस संभावना ने उसके छक्के छुड़ा दिए कि अगर 'मांजी' ने सिगार देख लिया तो क्या होगा, उसने जल्दी से सिगार पर पैर रखा और बोली—''अ...आप भी कमाल करती हैं मांजी, झाङू लगाना भी कहीं ऐसा काम है कि...।"
"बस—ज्यादा बातें न बना, जरा अपने चेहरे को देख—इतनी सर्दी के बावजूद पसीने से तर है—यह कमजोरी की निशानी है—कुछ खाया-पिया कर, वरना बच्चा भी कमजोर होगा।"
"ज...जी।" कहने के साथ ही अपनी घबराहट को छुपाने की कोशिश में वह सिगार ही पर बैठ गई—हाथ बढ़ाकर झाङू उठाई ही थी कि ललितादेवी ने कलाई पकड़ ली, बोली—"मुझे दे झाङू।"
"न...नहीं मांजी, मैं लगा लूंगी।"
"फिर वही जिद, मैं कहती हूं तू...।"
"प...प्लीज मांजी।" सुचि बिल्कुल गिड़गिड़ा उठी—"बस आज और लगाने दीजिए—कल से सारे काम आप ही करना।"
"तूने कल भी यही कहा था "
सुचि ने इस हद तक जिद की कि ललितादेवी को हथियार डालने पड़े—वह यह कहकर वहां से चली गईं कि कल से वे उसके हाथ-पैर बांधकर रखेंगी।
सुचि ने राहत की सांस ली।
झाड़ू से फारिग होने के बाद वह अपने नियमानुसार फ्रिज पर रखी अलार्म घड़ी में चाबी भरने हेतु बढ़ी—फ्रिज से घड़ी उठाते ही वह चौंकी।
वहां तह किया हुआ एक कागज रखा था।
कागज की स्थिति बता रही थी कि उसे कुछ ही देर पहले वहां रखा गया था, घड़ी एक तरफ रखकर उसने कागज उठाया, खोला, पढ़ा
मेरी प्राण प्यारी सुचि!
फैक्टरी के बाद मैं आज शाम को घर नहीं आऊंगा, बल्कि ठीक साढ़े पांच बजे गांधी पार्क पहुंचूंगा—तुम्हें भी वहीं पहुंचना है, आज 'इवनिंग शो' पिक्चर देखेंगे, उसके बाद 'अलका' में डिनर।
और हां, यह सब तुम्हें मम्मी-पापा या अमित-रेखा में से किसी को नहीं बताना है—घर से इस बहाने के साथ निकलोगी कि अपनी सहेली सरोज के घर जा रही हो—तुम जरूर सोच रही होगी कि मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूं या ऐसे रहस्यमय ढंग से प्रोग्राम क्यों बनाया है—जवाब यह है जानेमन कि चोरी से, सबसे छुपकर मुलाकात का मजा ही कुछ और है—मेरी कसम है तुम्हें इस मुलाकात का जिक्र घर में किसी से नहीं करोगी।
तुम्हारा गुलाम—हेमन्त
पत्र पढ़कर एक पल तो सुचि उलझन में पड़ गई—शायद यह सोचकर कि अगर हेमन्त को ऐसा कोई प्रोग्राम बनाना ही था तो पत्र की क्या जरूरत थी—स्वयं कह सकता था, परन्तु अगले पल उसे अपने पति की शरारतें याद आईं और मंद-मंद मुस्कान के साथ घड़ी में चाबी भरने लगी।
गांधी पार्क में एक पेड़ के नीचे खड़ी सुचि रह-रहकर अपनी कलाई पर बंधी रिस्टवॉच पर नजर डाल रही थी—साढ़े पांच से पांच पैंतीस तक तो उसे फिर भी सब्र था, किन्तु जब घड़ी की सुइयां उससे भी आगे बढ़ने लगीं तो उसकी बेचैनी भी बढ़ने लगी—वातावरण में अंधेरा छाने लगा।
पौने छः बज गए।
वहां से चलने के बारे में अभी उसने सोचा ही था कि पेड़ से कूदकर कोई 'धम्म' से उसके ठीक सामने गिरा और यह सब कुछ ऐसे अप्रत्याशित ढंग से हुआ कि सुचि के कण्ठ से दबी-दबी-सी चीख निकल गई।
"हैलो भाभी!" यह आवाज अमित की थी।
सामने खड़े अमित को देखकर ही सुचि चकरा गई, मुंह से स्वतः निकला—"त...तुम यहां?"
"जी, हम यहां!" अमित के होंठों पर शरारती मुस्कान।
बौखलाई हुई सुचि ने पूछा—"त...तुम यहां क्या कर रहे हो?"
"आपकी जासूसी।"
"ज...जासूसी?"
"यस—मम्मी से आप यह कहकर आई हैं न कि सरोज के यहां जा रही हैं?"
"हां—मगर वो...।"
"तो किसका इंतजार हो रहा था यहां?"
कुछ कहने के लिए सुचि ने मुंह खोला ही था कि पीछे से आवाज आई—"हर आधे मिनट बाद घड़ी देखी जा रही थी, शायद भाभी का कोई ब्वॉय-फ्रेंड आने वाला था।"
सुचि पलटते ही भौंचक्की रह गई—"र...रेखा तू?"
"तभी इतनी बन-ठनकर आई थीं—फूलदार गुलाबी साड़ी, जीनतकट हेयर स्टाइल और यह कयामत ढाता मेकअप।" अमित ने कहा।
सुचि उसकी तरफ घूमी, जबकि सामने आती हुई रेखा ने कहा—"और हम बिना वजह यहां दाल-भात में मूसलचंद बनने चले आए।"
सुचि इस कदर नर्वस हो गई थी कि मुंह से बोल न फूटा, जबकि रेखा के चुप होते ही हमला अमित ने किया—"ईवनिंग शो, अलका में डिनर।"
"वाह, क्या प्रोग्राम है?"
"ओह!" सुचि संभली—"तो तुमने वह पत्र पढ़ लिया था?"
"पढ़ा नहीं था, प्यारी भाभी।" रेखा ने कहा—"बल्कि लिखा था, खुद मैंने।"
"त...तुमने—उनकी राइटिंग में—उफ...।" सुचि ने अपना माथा पीट लिया—"तो तुमने अपनी इस आर्ट का इस्तेमाल मुझ पर भी कर दिया?"
"जीं हां।"
"क्यों?"
"आपसे फिल्म देखने और डिनर लेने के लिए।"
"क्या मतलब?"
"मतलब बिल्कुल सीधा है, आप हमें ईवनिंग शो दिखाने के साथ डिनर भी करा रही हैं, वरना...।"
"वरना?"
"मम्मी-पापा के सामने पोल खोल दी जाएगी—साबित कर दिया जाएगा कि आप सरोज के यहां नहीं, बल्कि यहां आई थीं।"
"ब्लैकमेल?"
"यकीनन—ऐसी कंजूस भाभी को ब्लैकमेल करना कोई जुर्म नहीं है, जिसने शादी से आज तक ननद-देवर को कोई फिल्म नहीं दिखाई।"
"कोई फिल्म, कोई डिनर नहीं, घर पर 'वे' इंतजार कर रहे होंगे।''
''कोई इंतजार नहीं कर रहा है, हमने फोन कर दिया था।''
''फोन?"
नजदीक आती हुई रेखा ने कहा—"हां, भाभी, फोन पर हमने कह दिया कि सरोज के यहां जाती भाभी हमें मिल गईं और वे आज हमें फिल्म दिखा रही हैं।"
"ऐसा!"
"हां।"
सुचि हंस पड़ी, बोली—"अच्छा, मैं तुम्हें फिल्म भी दिखाऊंगी और डिनर भी कराऊंगी, मगर पहले कान पकड़ो, कहो कि ऐसी शैतानी फिर कभी नहीं करोगे।"
आज्ञाकारी बच्चों की तरह दोनों ने झट कान पकड़ लिए।
सुचि उनकी इस मासूम अदा पर खिलाखिलाकर हंस पड़ी और उन पर इतना प्यार आया उसे कि रेखा को खींचकर बांहों में भर लिया।
"बन गया काम।" अमित बड़बड़ाया।
ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी तैयार हो रही सुचि को देखकर हेमन्त ने कहा—"पता नहीं तुम्हें आज ही हापुड़ जाने की क्या जिद चढ़ी है—अम्मा-पिताजी से मिलना ही तो है, एक-दो दिन बाद मैं खुद साथ चलकर मिला लाता।"
"फिर वही बात हेमू, मैं कोई बच्ची हूं क्या, जो अकेली नहीं जा सकती?" मांग भरती हुई सुचि ने कहा—"और फिर हापुड़ है कितनी दूर!"
"वह सब तो ठीक है, मगर...।"
"मगर क्या, हेमू?"
"जाने क्यों, तुम्हें अकेली भेजने पर दिल ठुक नहीं रहा है—अगर आज फैक्टरी में एक इम्पोर्टेंट पार्टी न आ रही होती तो मैं खुद चलता।"
"तुम तो बेवजह फिक्र कर रहे हो, हेमन्त।" उसके नजदीक आकर सुचि ने प्यार से कहा—"शादी से पहले मैंने सैंकड़ों बार हापुड़ और बुलंदशहर के बीच सफर किया है।"
"वह शादी से पहले की बात थी।"
उसे बांहों में भरकर सुचि ने कहा—"अब क्या बात हो गई है?"
"अब तुम किसी के दिल की धड़कन हो।"
"किसके?" अर्थपूर्ण नजर उसने हेमन्त की आंखों में गड़ा दी—उसे मुख्य मुद्दे से भटकाने के लिए सुचि ने अपनी आंखों में प्यार भरा और प्यार के उसी सागर में बहते हुए हेमन्त ने कहा—"म...मेरे...।"
"आप तो सरताज हो मेरे।"
सुचि ने उसे सचमुच मुख्य मुद्दे से भटका दिया—घर में सभी को यह जानकारी हो चुकी थी कि सुचि अपने पीहर जा रही थी, वह भी अकेली—ललितादेवी और बिशम्बर गुप्ता नाखुश थे।
बिशम्बर गुप्ता ने कुछ न कहा—हां, ललितादेवी ने समझाने की कोशिश की थी, मगर सुचि ने एक न सुनी—उसका निश्चय दृढ़ था।
हेमन्त ने एक बार को यह भी सोचा कि अमित ही उसके साथ चला जाए, मगर तभी उसे पता लगा कि आज अमित के कॉलेज में वह 'जम्पिंग' और कार 'ड्राइविंग' कम्पीटीशन था, जिसे जीतने के लिए वह महीनों से तैयारी कर रहा था।
"त...तू ठीक है न बेटी, कहीं चोट-वोट तो नहीं लगी है तुझे?" पूछने के साथ ही पार्वती ने उसके सारे जिस्म को इस तरह टटोला जैसे केवल अपनी आंखों पर विश्वास न कर पा रही हो।
सुचि ने कुछ कहने के लिए अभी मुंह खोला ही था कि दीनदयाल ने पूछा—"उन जालिमों ने तुझे मारा-पीटा तो नहीं था सुचि?"
"नहीं पापा, अभी तो ऐसा कुछ नहीं किया, मगर...।"
"मगर...?"
"अगर मैं यहां से बीस हजार रुपये लेकर न गई तो...।"
दीनदयाल के बूढ़े जिस्म का पोर-पोर कांप उठा—"तो...?"
"हेमन्त मुझे तलाक दे देगा।" कहते वक्त सुचि की आंखें भर आईं, चेहरे के जर्रे-जर्रे पर असीम वेदना नजर आ रही थीं—"वह धक्के देकर मुझे घर से निकाल देंगे।"
"किसने कहा ऐसा?"
"म...मांजी ने।" सुचि की जुबान स्वतः कांप गई।
पार्वती ने पूछा—"क्या हेमन्त से भी इस बारे में बात हुई थी?"
"हां।"
"क्या कहा उसने?"
"कहने लगे कि मेरे दो-दो लाख के रिश्ते आ रहे थे—तू अपने पीहर से लाई ही क्या है—अगर बीस हजार रुपए मुझे नहीं मिलें तो चरित्रहीन का आरोप लगाकर तलाक दे दूंगा और दूसरी शादी कर लूंगा।"
"और वह ईमानदार बनने वाला जज सब कुछ चुपचाप सुनता रहा?"
"स...सब कुछ उन्हीं की 'शह' पर तो हो रहा है, कहते हैं कि कचहरी में उनके इतने ताल्लुकात हैं कि तलाक चुटकियों में मिल जाएगा—नहीं मिला तो सैकड़ों बहुएं जलकर मर रही हैं—एक इसके मरने से हम पर पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा—बड़े से बड़ा वकील मेरे हक में बिना फीस लिए लड़ेगा।''
"अगर मेरी बेटी को हाथ भी लगाया तो कच्चा चबा जाऊंगा एक-एक को।" कहते-कहते दीनदयाल का चेहरा लाल-भभूका हो गया, बोला—"बोटी-बोटी नोंचकर कुत्तों के सामने डाल दूंगा।"
"खुद को संभालो, मनोज के पापा।"
"अरे, क्या खाक संभालूं?" दीनदयाल भड़क उठा—"वे हमारी बेटी को तलाक देने की सोचे—जलाकर मार डालने की बात करें—और तू कहती है कि मैं होश में रहूं?"
"हम बेटी वाले हैं।"
"तो क्या अपनी बेटी हमने मार डालने के लिए दी है—मैं कर्नल से बात करूंगा—उसी ने यह शादी कराई थी—पूछूंगा तो सही कि ऐसे हत्यारों को सौंपने के लिए क्या उसे मेरी ही बेटी मिली थी?"
बात बिगड़ती देख सुचि जल्दी से बोली—"न...नहीं पापा, कर्नल अंकल से इस बारे में कोई बात न करना।"
"क्यों न करूं, उसी ने तो मुझे वहां फंसवाया है!"
"अगर आपने ऐसा किया तो वैसा ही होना निश्चित हो जाएगा जैसी धमकी वे लोग दे रहे हैं—यह वे कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे कि कर्नल अंकल को इस बारे में एक लफ्ज भी पता लगे—वे उनके रिश्तेदार हैं और कर्नल अंकल की नजर में बाबूजी की बड़ी इज्जत है।"
"उसी इज्जत का तो जनाजा निकालना है मुझे।"
अजीब से आवेश में पार्वती चीख पड़ी—"उनकी इज्जत का जनाजा निकले-न-निकले, मगर अपनी बेवकूफियों से अपनी बेटी का जनाजा तुम जरूर निकलवा दोगे।"
"पार्वती!"
"मर गई पार्वती—कितनी बार कहा है कि जोश से नहीं, होश से काम लीजिए—बेटी वाले को हजार बातें सोचनी पड़ती हैं—कल अगर हमारी बेवकूफी से सुचि का बुरा हो गया तो अपने कर्मों को पकड़कर रोएंगे हम।"
"जो उन्हें करना है, वह तो करेंगे ही, मनोज की मां।"
"कुछ नहीं करेंगे, पापा।" सुचि बोली—"यकीन मानो, उतनी बड़ी बात नहीं है जितनी आप सोच रहे हैं—उन्हें सिर्फ बीस हजार की भूख है, वह पूरी हो जाए तो सारी बातें खुद-ब-खुद खत्म हो जाएंगी।"
"तू अभी नादान है, बेटी, दुनिया के अनुभवों से महरूम—इंसान नामक जानवर के मुंह अगर एक बार पैसा नामक खून लग जाए तो वह 'आदमखोर' बन जाता है—बार-बार उसी खून की प्यास लगती है उसे।''
"बस—अपनी ही कहे जाएंगे, किसी दूसरे की तो यह सुनते ही नहीं हैं।" पार्वती बोली—"जरा सुचि की भी तो सुन लो, हो सकता है कि सचमुच पैसे की जरूरत ने ही उनसे यह कदम उठवा दिया हो?"
"तू बेवकूफी की बात कर रही है, मनोज की मां। अब भी कह रहा हूं कि तू पछताएगी—इसमें ही सब्र कर कि हमारी बेटी सही-सलामत हमारे पास आ गई है, बस—अब हम इसे उस कसाई-खाने में नहीं भेजेंगे।"
"शादी-शुदा लड़की को घर बैठाने से कहीं दुनिया चलती है?"
सुचि कह उठी—"ऐसा मत कहो पापा—रहूंगी तो मैं वहीं।"
"यह तू कह रही है?"
"हां पापा, वह मेरा ससुराल है—यह तालीम आपकी ही दी हुई है कि शादी के बाद लड़की का घर ससुराल ही होता है।"
"वह घर नहीं....हत्यारों का अड्डा है।"
"प...प्लीज पापा, अगर आप मेरी कोई मदद नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं, जो होगा उसे मैं अकेली ही भुगत लूंगी, मगर प्लीज, उन्हें गाली मत दीजिए—ऐसा कोई कदम उठाने के बारे में मत सोचिए कि जिससे मेरी मुसीबतें और बढ़ जाएं।"
"क्या पागल हो गई है तू?"
"हां-हां, मैं पागल हो गई हूं।" सुचि फूट-फूटकर रो पड़ी।
"मरने के लिए उस फांसीघर में जाने की जिद कर रही है?"
"हालांकि ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन अगर मरना ही पड़ा तो मैं वहीं मरूंगी—मेरी अर्थी उसी घर से निकलेगी—आपसे मदद मांगने की भूल अब कभी न होगी।"
दीनदयाल अवाक् रह गया।
पार्वती ने तड़पकर सुचि को अपने कलेजे से चिपका लिया, बोली—"जब तक हममें सामर्थ्य है, तब तक तेरी मदद क्यों नहीं करेंगे, पगली?"
"तो कह दीजिए पापा से, मेरे ससुराल वालों को गालियां न दें—कर्नल अंकल या उनमें से किसी से बीस हजार का जिक्र तक न करें, वरना वह हो सकता है, जिसके होने की फिलहाल कोई संभावना नहीं है।"
"सुन रहा हूं, सुना था कि शादी के बाद बेटी पराई हो जाती है, मगर यह पहली बार ही समझ में आया कि इतनी ज्यादा पराई हो जाती है कि ससुराल वाले भले ही जल्लाद हों—पक्ष उन्हीं का लेगी।"
"पापा फिर उन्हें गाली दे रहे हैं, मम्मी—उस घर में मैं एक पल भी नहीं ठहर सकती, जहां मेरे पति और सास-ससुर को जल्लाद कहा जाए।"
"सुन लिया बेटी, सुन लिया—अपने होंठ सी लूंगा मैं।" कहने के साथ ही दीनदयाल अपने बूढ़े हाथों में चेहरा छुपाकर फूट-फूटकर रो पड़ा।
सुचि उसके नजदीक पहुंची, बोली—"सॉरी पापा, रोइए मत—गुस्से में मैं भी जाने क्या-क्या कह गई—दरअसल बात उतनी नहीं है, जितने आप डर गए हैं।"
"वे तेरी हत्या तक की बात करते हैं और तू कहती है कि...।"
"हत्या की बात करने और हत्या करने में बहुत फर्क होता है, पापा।"
"तूने अपने पत्र में आत्महत्या के बारे में लिखा था, वे हत्या न भी करें—लेकिन अगर उन्होंने तुझे ज्यादा परेशान किया तो...।"
"ऐसा नहीं होगा पापा, बीस हजार रुपये उन्हें मिल जाएंगे तो ऐसी नौबत ही नहीं आएगी।"
"तू सच कह रही है न?"
"बिल्कुल सच, पापा।"
"मेरे सिर पर हाथ रख और कह कि चाहे जैसे हालात हों, आत्महत्या के बारे में सोचेगी भी नहीं—हालातों के इस हद तक बिगड़ने से पहले ही तू यहां चली आएगी—मेरी कसम खाकर कह, सुचि।"
कसम खाते वक्त सुचि तड़पकर रो पड़ी।
दीनदयाल ने उसे नन्हीं-मुन्नी गुड़िया की तरह अपने अंक में भींच लिया।
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"तू अपने पापा की बातों से फिक्रमंद न हो, बेटी।" रात के वक्त अकेले कमरे में उसे पार्वती समझा रही थीं—"हर पिता अपनी लड़की के बारे में ऐसा सुनकर होश गंवा सकता है, मगर ऐसे मामलों में कुछ करने से पहले हजार बार सोचेगा—चाहे कितना गुस्सा आए, मगर तू तब तक ही चुप रहेगी जब तक पानी सिर से न गुजर जाए—और तेरे पापा तो तुझे इतना प्यार करते हैं कि वैसा कुछ कर ही नहीं सकते, जिससे कल तेरा कुछ अहित होने की संभावना हो।"
"उनके प्यार ही से तो मुझे डर है, मां।"
"कैसा डर?"
"कहीं मेरे प्यार में वे इस कदर पागल न हो जाएं कि कर्नल अंकल या मेरे ससुराल वालों से बीस हजार का जिक्र कर बैठें?"
"उसकी तू फिक्र मत कर—मैं उन्हें ऐसा नहीं करने दूंगी।"
सुचि ने राहत की सांस ली।
पार्वती ने आगे कहा—"अब तू सारी बातें मुझे साफ-साफ बता—क्या तू ऐसा समझती है कि अगर बीस हजार रुपये नहीं ले जाएगी तो वे तेरी हत्या तक कर सकते हैं?"
"नहीं।" सुचि ने बहुत संभलकर जवाब दिया।
"तू सच कह रही है न?"
"हां।"
"हेमन्त तुझे तलाक दे सकता है?"
"हां, ऐसा कर सकते हैं वे।"
कुछ देर तक पार्वती जाने क्या सोचती रही, फिर बोली—"बीस हजार का इंतजाम तो हमने कर लिया है, लेकिन अगर फिर कभी उन्होंने ऐसी मांग की तो शायद हम पूरी न कर सकें।"
"मुझे पूरी यकीन है कि ऐसा नहीं होगा।"
"भगवान न करे तो अच्छा है—मगर अगर आगे कभी ऐसा हो गया तो तू क्या करेगी?"
"उनसे साफ कह दूंगी कि यहां से कोई और मदद संभव नहीं है।"
"नहीं, तू ऐसा कभी नहीं कहेगी।"
"फिर?"
"कुछ भी हो सुचि, लेकिन जब एक बार उनके असली चेहरे सामने आ चुके हैं तो तुझे सतर्क जरूर रहना पड़ेगा—तेरा ऐसा जवाब तुझे वहां फंसा सकता है—उन हालातों में या तो फिर आत्महत्या के बारे में सोचेगी या...जैसा आजकल हो रहा है, वैसा करने की उनके दिमाग में भी आ सकती है और बेटी, उसे हममें से कोई भी सहन नहीं कर पाएगा।"
"आप कहना क्या चाहती हैं?"
"अगर भविष्य में ऐसे हालात बने तो जिस तरह आज आ गई है, उसी तरह यहां आ जाना—फिर जैसा उचित होगा हम करेंगे—हम सब कुछ सह सकते हैं, मगर तेरी जुदाई नहीं—कह कि तू होशियार रहेगी।"
"ठीक है—मैं समझ गई।"
"और सुन, तेरे पत्र या आज तेरे यहां आने की वास्तविक वजह की भनक मनोज को बिल्कुल नहीं है—अतः उसके सामने ऐसी कोई बात न आए।"
"क्यों?"
"वह जवान है, इस उम्र में खून कुछ ज्यादा ही गर्म होता है—यह सुनकर वह पागल हो उठेगा कि ससुराल में उसकी बहन को परेशान किया जा रहा है और जो कुछ तेरे पापा केवल कहकर रह जाते हैं, वह बिना आगा-पीछा सोचे वह सब कुछ कर बैठेगा—यही सोचकर हमने उसे कुछ नहीं बताया।"
सुचि ने एक बार फिर राहत की सांस ली, बोली—"मैं भी यही चाहती थी—भइया को यह बातें न ही पता लगें तो अच्छा है।"
इस तरह, रात के लगभग तीन बजे तक पार्वती उसे दुनिया की ऊंच-नीच समझाती रही—सुचि बार-बार एक ही बात पर जोर दे रही थी—यह कि इन बीस हजार का जिक्र किसी भी रूप में बुलंदशहर वालों या उनसे सम्बन्धित लोगों के सामने न आ जाए!
हेमन्त के दूध में उसने नींद की गोलियां डाल दी थीं और उन्हीं के प्रभाव स्वरूप इस वक्त वह दुनिया जहान से बेखबर लिहाफ में दुबका सो रहा था।
सुचि की आंखों में दूर-दूर तक नींद का नामोनिशान नहीं।
फ्रिज पर रखी घड़ी की टिक-टिक बिल्कुल साफ सुनाई दे रही थी—कमरे में हरे रंग के नाइट बल्ब का प्रकाश छिटका पड़ा था।
जाने किस आतंक से ग्रस्त सुचि के चेहरे पर रह-रहकर हवाइयां उड़ने लगतीं—उस वक्त फ्रिज के ऊपर रखी घड़ी में ठीक दो बजे थे, जब सुचि बेड से उठी।
तकिए के नीचे से एक टॉर्च निकाली।
दबे पांव बॉल्कनी में खुलने वाली खिड़की के समीप पहुंची—खिड़की खोलकर उसने टॉर्च का रुख बाहर की तरफ करके क्षणिक अंतराल से तीन बार ऑन-ऑफ की।
बेड के नीचे से अपनी अटैची निकालकर खोली—सौ-सौ के नोटों की दो गड्डियां गाउन की जेब में डालीं और अभी अटैची बंद करके वापिस पलंग के नीचे खिसकाई ही थी कि—
बॉल्कनी में खुलने वाले दरवाजे पर आहिस्ता से दस्तक हुई।
वह तेजी से परन्तु दबे पांव दरवाजे तक पहुंची—बिना किसी तरह की आहट उत्पन्न किए चिटकनी गिराकर उसने दरवाजा खोल दिया।
सामने एक लम्बा और बलिष्ठ साया खड़ा था।
बॉल्कनी में चांदनी छिटकी हुई थी—उसके तन पर मौजूद फैल्ट हैट, ओवरकोट, गर्म पतलून और चमकदार जूते साफ देखे जा सकते थे।
गले में उसने एक मफलर डाल रखा था।
वह बिल्ली की तरह कमरे के अन्दर आ गया।
सुचि ने धीमे से दरवाजा बंद करके चिटकनी चढ़ाई, जबकि साया बेडरूम और ड्राइंगरूम के बीच वाले दरवाजे की तरफ बढ़ गया—ठीक इस तरह जैसे सारा कार्यक्रम पूर्व-नियोजित हो।
उसके यहां आने के ढंग से जाहिर था कि वह पहली बार नहीं आया था—दरवाजा खोलकर वह ड्राइंगरूम के अंधेरे में गुम हो गया।
सुचि उसके पीछे लपकी।
ड्राइंगरूम में पहुंचकर उसने दरवाजा बंद किया, चिटकनी चढ़ाकर पलटी ही थी कि 'क्लिक' की हल्की-सी आवाज के साथ एक लाइटर जला।
लाइटर की लौ ने जिस सिगार के अग्र भाग को सुलगाया, वह काले, भद्दे और मोटे होंठों के बीच फंसा हुआ था—रोशनी में घनी दाढ़ी-मूंछों वाला चौड़ा, रौबदार और डरावना चेहरा चमका—साथ ही चमकी अफीम के नशे में धुत लाल-लाल आंखें।
लाइटर ऑफ हो गया।
सिगार का अग्र भाग जुगनू के समान चमकता रहा।
सुचि ने हाथ बढ़ाकर एक स्विच 'ऑन' कर दिया—होल्डर में फंसा जीरो वॉट का लाल बल्ब मुस्करा उठा।
उसकी लाल मुस्कान सारे कमरे में फैल गई।
एक-दूसरे को देखने के लिए रोशनी पर्याप्त थी, सिगार में गहरा कश लगाने के बाद एकाएक साया गुर्राती-सी आवाज में बोला—"शायद इंतजाम हो गया है।"
"हां।" सुचि बड़ी मुश्किल से कह पाई।
"लाओ।" उसने अपना चौड़ा और भद्दा हाथ फैला दिया।
सुचि ने थूक निगलकर अपने शुष्क पड़ गए हलक को तर करने की नाकाम चेष्टा के साथ कहा—"पहले फोटो।"
वह धीमे-से हंसा।
बाकी तो नहीं, मगर सोने का एक दांत जरूर चमका—हंसी की आवाज इतनी कर्कश थी कि सुचि की आत्मा तक में उतरती चली गई—रीढ़ की हड्डी में दौड़ गई थी मौत की सिहरन, बोला—"मेरा नाम 'मकड़ा' है और पहले भी कह चुका हूं कि मकड़ा अपने वादे से नहीं मुकरता।"
"पहले फोटो।" सुचि ने अपना वाक्य दोहरा दिया।
मकड़ा ने जेब से एक लिफाफा निकालकर सोफा सेट के बीच पड़ी सेंटर टेबल पर डाल दिया, उसे उठाने के लिए सुचि ने हाथ बढ़ाया ही था कि वह बोला—"न...न...न...सुचि डार्लिंग—यूं नहीं, तुम भी बीस हजार मेज पर डालो—मेरा हाथ उन्हें उठाएगा, तुम्हारा हाथ लिफाफा।"
सुचि ने दोनों गड़्डियां जेब से निकालकर मेज पर डाल दीं।
मकड़ा ने उन्हें उठाकर जेब में डाला और सुचि ने लिफाफे में मौजूद फोटोग्राफ्स को टटोलने के बाद कहा—“नेगेटिव।”
"वे नहीं हैं।"
"क...क्यों?" सुचि के गले में जैसे कुछ अटक गया।
"क्यों से मतलब?"
"न...नेगेटिव के बिना इन फोटुओं की क्या वैल्यू है, तुम जब चाहो, चाहे जितने पोजिटिव तैयार करा सकते हो।"
बहुत ही धूर्त एवं भयंकर मुस्कान मकड़ा के होंठों पर उभर आई, दोनों हाथ ओवरकोट की जेब में डालकर टहलते हुए उसने कहा—"काफी समझदार लड़की हो तुम, मैं सोच रहा था कि यह बात तुम्हें समझानी पड़ेगी।"
"क्या मतलब?"
"मतलब सुचि डार्लिंग ये है कि नेगेटिव फिलहाल तुम्हें नहीं मिलेंगे।"
"म...मगर तुमने वादा किया था कि...।"
"मैंने केवल पोजिटिव देने का वादा किया था, नेगेटिव नहीं—सिर्फ बीस हजार में इतने कीमती निगेटिव नहीं दिए जाते, सुचि डार्लिंग।"
सुचि के पैरों तले से जैसे जमीन खिसक गई—चेहरा फक्क पड़ गया और बुत के समान खड़ी रह गई वह। मुंह से बोल न फूटा, जबकि जेबों में हाथ डाले मकड़ा दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
"ठ..ठहरो।" वह बड़ी मुश्किल से कह पाई।
मकड़ा घूमा।
सुचि ने अपनी आवाज को कठोर एवं कर्कश बनाने की हास्यास्पद कोशिश की—"नेगेटिव तुम्हें देने होंगे, मकड़ा। तुमने वादा किया था।"
"उनकी कीमत पचास हजार है।"
"इतने पैसे कहां से लाऊंगी?" सुचि कसमसाकर चीख पड़ी।
अपनी जेब थपथपाते हुए मकड़ा ने कहा—"जहां से ये लाई हो।"
"उनके पास भी पैसे नहीं हैं, इन्हीं का इंतजाम उन्होंने जाने किस-किस तरह किया है—मेरे पापा बहुत गरीब हैं, मकड़ा।"
"बेटी के ससुरालियों की मांग पूरी करने के लिए एक बाप कुछ भी कर सकता है।"
"वे कुछ नहीं कर सकेंगे—उल्टे बात बिगड़ सकती है, उस बहाने के साथ अगर फिर उनसे मांग की गई तो वे इन लोगों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट कर सकते हैं, इनसे या कर्नल अंकल से बता सकते हैं। मैंने उन्हें बड़ी मुश्किल से रोका है।"
"तुम शायद यह भूल गई हो कि मैं क्या कर सकता हूं?"
"म...मकड़!"
"मैं ये फोटो हेमन्त, ललितादेवी और बिशम्बर गुप्ता को ही नहीं, बल्कि तुम्हारे भाई और बाप को भी दिखा सकता हूं—सारे बुलंदशहर में ही नहीं हापुड़ में भी बंटवा सकता हूं। सोचो, सुचि डार्लिंग।" मकड़ा का स्वर कठोरतम हो उठा—"जरा सोचो, अगर मैं ऐसा कर दूं तो क्या होगा—जो ससुराल वाले तुम्हें कांच की गुड़िया की तरह संभालकर रखते हैं, वे उठाकर तुम्हें गटर में फेंक देंगे—जिस बाप ने बीवी के जेवर बेच दिए, वह तुम्हारा गला दबा देगा।"
"न...नहीं—ऐसा मत कहो, मकड़ा। तुम ऐसा नहीं कर सकते—मैंने तुम्हारी हर बात मानी है। तुम्हारे कहने से तुम्हारी मांग पूरी करने के लिए झूठा पत्र लिखकर यह पैसे लाई।"
"एक पत्र और लिख सकती हो।" मकड़ा ने कहा—"क्या लिखना है, वह पहले पत्र की तरह मैं ही तुम्हें डिक्टेट करूंगा।"
"पैसे नहीं आएंगे मकड़ा, जिन तिलों में तेल ही नहीं, उन्हें बार-बार मशीन में डालकर भी एक बूंद हासिल नहीं की जा सकती।"
"तब तो नेगेटिव तुम्हें मिलने का कोई रास्ता नहीं है।"
"ऐसा मत कहो, मकड़ा। मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं—पैर पकड़ती हूं।" कहने के साथ सुचि ने झपटकर सचमुच उसके पैर पकड़ लिए—लिफाफा उसके हाथ से छूटकर फर्श पर गिर गया, फोटो बिखर गए और उन फोटुओं में जो लड़की नग्नावस्था में एक युवक के साथ नजर आ रही थी, वह मकड़ा के पैर पकड़कर गिड़गिड़ा उठी—"मुझे माफ कर दो, मुक्त कर दो, मकड़ा—मुझसे गुनाह जरूर हुआ, मगर वह इतना बड़ा नहीं था—वह सब होने से पहले मैंने और संदीप ने एक मंदिर में गंधर्व विवाह किया था—हम अपने मां-बाप को शादी के बारे में बताने ही वाले थे कि कार एक्सीडेण्ट में मेरे संदीप की मृत्यु हो गई, खबर सुनते ही मैं अवाक् रह गई—कुछ समझ न आया कि क्या करूं, क्या न करूं? अपने पति की मौत पर खुलकर मैं आंसू भी तो न बहा सकती थी—एक ही झटके में उस एक्सीडेण्ट ने मेरा सब कुछ लूट लिया।"
"अब संदीप के माता-पिता के पास जाकर उन्हें हकीकत बताने से तुम्हें कुछ हासिल होने वाला न था, वे शायद तुम्हारी बकवास पर यकीन भी न करते और अपने मां-बाप से जिक्र करने का मतलब तो खुद पर उनका कहर बरपा लेना था—सो, तुम चुप रह गईं—किसी को अपना राजदार न बनाया—संदीप की मौत पर छुप-छुपकर आंसू बहाए तुमने और फिर चुपचाप उस घर की बहू बन जाने के अलावा तुम्हारे पास कोई दूसरा रास्ता न था, जहां तुम्हारे मां-बाप ने शादी कर दी।"
"मैं और कर भी क्या सकती थी, मकड़ा, किसी से संदीप का जिक्र करने से फायदा भी क्या था?"
"तुम मर सकती थीं, अपने संदीप के लिए आत्महत्या कर सकती थीं।"
सुचि बिखलती रह गई।
व्यंग्य में ड़ूबे जहरीले स्वर में मकड़ा ने कहा—"मगर तुम ऐसा न कर सकीं, आत्महत्या करने के लिए जिस साहस की जरूरत होती है, वह साहस भी तुममें न था—गंधर्व विवाह के बाद संदीप को सब कुछ सौंप देना उतना बड़ा गुनाह नहीं था, जितना तुमने चुपचाप इस घर की बहू बनकर किया—उसकी कीमत तो तुम्हें चुकानी ही होगी, सुचि डार्लिंग—जो बीज तुमने बोये थे, उनकी फसल तो तुम्हें काटनी ही होगी।"
"अगर तुम इतना सब कुछ जानते हो तो यह भी जानते होगे कि मेरे पापा पचास हजार का इंतजाम नहीं कर सकते—मेरे पास कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं—यदि होता तो मैं तुम्हारी मांग जरूर पूरी करती।"
"रास्ता तुम्हें मैं बता सकता हूं।"
सुचि ने सवालिया नजर से उसकी तरफ देखा।
बेरहम मकड़ा ने सिगार में एक गहरा कश लगाया, बोला—"मैं होटल 'शॉर्प-वे' के रूम नम्बर दो सौ पांच में रहता हूं, कल शाम सात बजे तुम वहां आ जाओ।''
"क...किसलिए?"
"पचास हजार हासिल करने का रास्ता बताऊंगा तुम्हें।" अफीम के नशे में धुत्त सुर्ख आंखों में वहशियाना भाव लिए मकड़ा कहता चला गया—"याद रहे, सारी रात के लिए आना होगा तुम्हें?"
"स...सारी रात?"
"हां।"
"म...मगर सारी रात के लिए भला मैं कैसे आ सकती हूं?"
"वह तुम जानो।"
सुचि गिड़गिड़ा उठी—"इतने निर्दयी मत बनो मकड़ा। तुम्हारी भी कोई बहन, बेटी या मां या बीवी होगी—तरस खाओ मुझ पर, जरा सोचो—मैं इस घर की बहू हूं—सारी रात घर से बाहर रहने के लिए क्या बहाना करूंगी?"
"सम्मानित घराने की बहू के अलावा तुम्हारी एक हकीकत इन फोटुओ में भी है, सुचि डार्लिंग और इनके नेगेटिव हासिल करने तुम्हें वहां आना पड़ेगा।" कहने के बाद मकड़ा अपनी जीभ से सोने के दांत को कुरेदने लगा था, सुचि के दिलो-दिमाग में चल रही थी एक जबरदस्त आंधी।