सुबह के साढ़े ग्यारह बजे थे जब कि रमाकान्त सुनील के आफिस में पहुंचा जो कि हैरानी की बात थी क्योंकि वो दोपहरबाद सो के उठने का आदी था।
रमाकान्त मल्होत्रा स्थानीय यूथ क्लब का मालिक था, सुनील चक्रवर्ती नेशनल डेली ‘ब्लास्ट’ में चीफ रिपोर्टर था और दोनों जिगरी दोस्त थे।
रमाकान्त के साथ एक खूबसूरत, नौजवान, जींस-स्कीवीधारी लड़की थी जिसके नयननक्श तीखे थे, रंग गोरा था और बाल बड़े आधुनिक स्टाइल से कटे हुए थे जिन में कोई कोई लट ब्राउन थी। कद पांच फुट चार इंच से किसी कदर कम नहीं था और सूरत पर संजीदगी चस्पां थी।
सुनील ने युवती पर से निगाह हटाई और रमाकान्त की तरफ आकर्षित हुआ—“हल्लो, गुड मार्निंग।”
“मेरे वल्लों की मार्निंग गुड टिका लै।”—रमाकान्त बोला।
“टिका ली। बैठो।”
“बैठूं कि तशरीफ रखूं?”
“दोनों ही काम कर लो।”
“फेर तां थैंक्यू।”
दोनों आगन्तुक अगल बगल दो विजिटर्स चेयर्स पर बैठ गये।
“आज जल्दी जाग गये!”—सुनील बोला।
“आहो, यार।”—रमाकान्त बोला—“न सिर्फ जल्दी जाग गया, सुबह सबेरे यहां भी पहुंच गया।”
“रमाकान्त, साढ़े ग्यारह बजे हैं।”
“जैसा कि मैंने कहा, सुबह सबेरे यहां पहुंच गया।”
“ठीक। कैसे आये?”
“बस, तेरे से हाड-डू-यू-डू-क्वाइट-वैल-थैंक्यू करने चला आया।”
“अहोभाग्य! वैलकम! काफी पियोगे?”
“पी लेंगे। संतां नू की स्वादां नाल।”
सुनील ने घन्टी बजा कर चपरासी मानसिंह को बुलाया और काफी का आर्डर दिया। फिर उसने सवालिया निगाह से युवती की ओर देखा।
“बीवी दा पर्चा प्रापत कर।”—रमाकान्त बोला—“बोल, भई।”
युवती तनिक हड़बड़ाई, फिर बोली—“मेरा नाम कियारा सोबती है।”
“क्या करती हैं?—सुनील ने पूंछा।
“एक पब्लिकेशन हाउस में एडीटर हूं। सिग्मा पब्लिशर्स इन्डिया, शंकर रोड।”
“मैं इस धन्धे से नावाकिफ हूं। पब्लिकेशन हाउस में एडीटर का क्या काम होता है?”
“बहुत काम होता है। उसी का काम होता है दरअसल। प्रकाशनार्थ जो स्क्रिप्ट आती हैं, उन का मूल्यांकन, कि वो प्रकाशन योग्य हैं या नहीं, एडीटर ने ही करना होता है।”
“फिर तो बहुत जिम्मेदारी का काम हुआ आप का! इंटेलीजेंस का भी!”
“है तो सही!”
“तमाम जिम्मेदारी आप की?”
“नहीं जी, मेरे जैसी चार और हैं। ऊपर सीनियर कमिशनिंग एडीटर है, और ऊपर चीफ एडीटर है।”
“बड़ा पब्लिकेशन है?”
“जी हां।”
“फिर तो आप की तनखाह अच्छी होगी!”
“है तो सही!”
“शादीशुदा हैं?”
“नहीं।”
“फिर तो पेरेंट्स के साथ रहती होंगी!”
“नहीं। अकेली रहती हूं। विवेक नगर के एक किराये के फ्लैट में। फैमिली बीकानेर में है। मैं नौकरी की वजह से यहां हूं।”
“कब से?”
“छ: साल होने को आ रहे हैं।”
“फिर तो अगर आप को नागवार न गुजरे तो आप की उम्र का मेरा अन्दाजा छब्बीस सत्ताइस का है।”
“ठीक है। मैं सत्ताइस साल की हूं।”
“रमाकान्त से वाकिफ हैं?”
“अब वाकिफ हूं।”
“यानी हालिया मुलाकात है!”
“बहुत ज्यादा हालिया। आज ही हुई।”
“अच्छा! कैसे?”
“कमाल है, भई, तेरा!”—रमाकान्त बोला—“शक्ल देखते ही इतनी बातें करना सूझ गया!”
सुनील के जवाब दे पाने से पहले मानसिंह काफी ले आया।
वो काफी सर्व कर रुखसत हुआ तो रमाकान्त बोला—“दरअसल ये सोनल की फ्रेंड है...”
सोनल—सोनल सिक्का—यूथ क्लब में रिसेप्शनिस्ट थी और सुनील उससे बाखूबी वाकिफ था।
“... विवेक नगर में उसी हाउसिंग कम्पलैक्स में रहती है जिस में सोनल रहती है।”
“इसलिये दोनों में वाकफियत है!”—सुनील बोला।
“कितना सयाना है! मार्इंयवा शरलाक होम्ज इतना तुरत फुरत नतीजा नहीं निकाल सकता था जितना तुरत फुरत कि तूने निकाला है। शावाशे!”
“रमाकान्त, प्लीज...”
“हला, हला। बात ये है कि इसकी कोई प्राब्लम है। गम्भीर किस्म की—ज्यादा ही गम्भीर किस्म की—जिसे कि इसने सोनल से डिसकस किया और राय मांगी कि ये क्या करे! सोनल ने इसे तेरा नाम सुझाया और तेरे से बात करने पर जोर दिया।”
“मेरे से क्यों?”
“क्योंकि सारे जहां का दर्द तेरे जिगर में है। तू खुद कहता है अक्सर। दूसरे ‘नकाब’ वाले केस में तू उसके और उसके छोटे भाई विशाल सिक्का के इतना काम आया था...”
“क्या काम आया था? विशाल को तो कत्ल होने से नहीं बचा सका था!”
“फिर भी बहुत काम आया था। आज तक अहसान मानती है सोनल।”
“फिर भी...”
“फिर भी लड़के का कत्ल जुदा मसला है। वो ऊपर वाले का निजाम है जिस में तू दखलअन्दाज नहीं हो सकता, भले ही कितनी वड्डी तोप है, कितना वड्डा सूरमा है।”
“हूं।”
“फिर एक तीसरी बात भी तो है!”
“वो क्या?”
“ये पुलिस से नाउम्मीद है। पुलिस इस के किसी काम नहीं आयी थी। उलटा उन्होंने ऐसा रवैया अख्तियार किया था जैसे मजलूम के नहीं—जो कि ये है—जालिम के साथ हों। फिर इसे मीडिया का खयाल आया था तो सोनल ने इसे ‘ब्लास्ट’ का नाम सुझाया था जिसकी कि तू वड्डी तोप है। और बाजरिया रमाकांत अम्बरसरिया आराम से जिस तक अप्रोच बनाई जा सकती थी ।”
“लिहाजा अप्रोच की दरख्वास्त इन्होंने की!”
“इसकी खातिर सोनल ने की। इसलिये मैं इसे साथ ले कर सुबह सबेरे तेरे द्वारे आया।”
“अपनी नींद की कुर्बानी कर के।”
“ये भी कोई कहने की बात है! ऐन यही किया है मैंने।”
“हूं।”—सुनील युवती की ओर आकर्षित हुआ—“तो आप ‘ब्लास्ट’ के साथ कोई स्टोरी शेयर करना चाहती हैं?”
“हां।”—युवती तनिक संकोचपूर्ण स्वर में बोली—“लेकिन वो स्टोरी ऐसी नहीं है, मोटे तौर पर ‘ब्लास्ट’ जिस से नावाकिफ हो। साइबर क्राइम्स की किस्म की स्टोरी है इसलिये मैं नहीं समझती कि इन जनरल ‘ब्लास्ट’ के लिये, आप के लिये, उसमें नया कुछ होगा।”
“ऐसा?”
“हां। लेकिन आप जानते ही होंगे कि इंडिविजुअल स्टोरी जनरल लाइन्स पर भी हो तो उस में नया कुछ होता ही है, निकल ही आता है। बेसिक्स जनरल होते हुए भी हालात केस टु केस जुदा होते ही हैं। आई होप यू अन्डरस्टैण्ड वाट आई वांट टु से।”
“अरे, ये तो”—रमाकान्त बोला—“वो भी अन्डरस्टैण्ड कर लेगा जो तूने ‘वांट टु से’ नहीं होना। उड़ती चिड़िया के खुर पहचानता है अपना मित्तर प्यारा।”
“पर।”
“क्या पर।”
“उड़ती चिड़िया के। सही मुहावरा ‘पर’ पहचानना होता है, ‘खुर’ नहीं। खुर जानवरों के होते हैं।”
“तुझे पक्का पता है?”
“हां।”
“फिर ठीक है।”
“तो”—सुनील फिर युवती से सम्बोधित हुआ—“बकौल आपके ऐसी हर स्टोरी में नया कुछ होता है या निकल आता है?”
“जी हां।”
“मसलन क्या?”
“मसलन मेरी अपनी आपबीती।”
“उसी लाइन पर जिसे आपने साइबर क्राइम्स की किस्म का बताया?”
“जी हां।”
“मैं सुन रहा हूं।”
“समझ में नहीं आता कहां से शुरू करूं!”
“शुरू से ही शुरू कीजिये, वही बेहतर जगह होती है।”
“शुरू से शुरू करना है तो पहले मैं अपने एक मामा का जिक्र करती हूं। मेरा एक ही मामा था जो कि छोटी मोटी जमींदारी का मालिक था इसलिये रुपये पैसे के मामले में उसकी अच्छी हैसियत थी। बद्किस्मती उसकी ये थी कि बेऔलाद था। फिर बीवी भी मर गयी। तब उसका कोई करीबी रिश्तेदार बाकी था तो वो मेरी मां थी। मुझे अपनी बेटी समान मानता था और बहुत प्यार करता था। जब एकाएक हार्ट फेल हो जाने से उसकी मौत हो गयी तो मालूम पड़ा कि बाकायदा वसीयत के जरिये वो मुझे अपना इकलौता वारिस करार दे कर मरा था। यूं विरसे में कोई बीस लाख की रकम मुझे प्राप्त हुई। मैंने वो रकम अपने मां बाप के हवाले करनी चाही वो उन्होंने लेने से इंकार कर दिया। जिद करके बोले कि अपने ही पास रखूं, मेरी शादी में काम आयेगी। मेरे पिता अच्छी सरकारी नौकरी करते थे इसलिये कतई उस रकम के मोहताज नहीं थे। वैसे भी संतोषी जीव थे। संसारी मोहमाया से ज्यादा नहीं लिपटते थे। रिटायर हुए तो पेंशन मिलने लगी थी जो कि उनके और मेरी मां के, यानी दो जनों के लिये काफी थी। इसलिये विरसे की रकम उन्हें सौंपे जाने की बात उन्होंने कुबूल न की।”
“मां बाप को अन्देशा होता है कि नौजवान औलाद कोई बड़ी रकम हैंडल करने के मामले में लापरवाह हो सकती थी!”
“मेरे से उन्हें ऐसा कोई अन्देशा नहीं था। मुझे पूरी तरह से जिम्मेदार औलाद समझते थे।”
“आपने साइबर क्राइम का हवाला दिया, ऐसी आपबीती का हवाला दिया जो ‘ब्लास्ट’ के लिये बड़ी न्यूज बन सकती थी तो इस का मतलब है कि आप माली मामलात में पूरी तरह से जिम्मेदार औलाद तो न बन कर दिखा पायीं!”
“सच पूछिये तो ऐसा ही हुआ। हैरान हूं कि कैसे मैं इमोशनल फ्रॉड के भंवरजाल में फंस गयी।”
“क्या हुआ?”
“सोशल नेटवर्क पर किसी से वाकफियत हुई, दोस्ती, हुई गहरी दोस्ती हुई, फिर खता खाई।”
“मुझे यही अन्देशा था। क्या हुआ? कैसे हुआ?”
“फेसबुक के जरिये किसी से ताल्लुकात बने, ऐसे कि रोज रात को वाट्सएप के जरिये घन्टों चैटिंग होती थी, इस हद तक कि सब कुछ सांझा हो गया, शादी तक का इरादा पुख्ता हो गया।”
“कभी बात न की?”
“वो भी की। हालांकि मुझे फोन करने से मना करता था।”
“क्यों भला?”
“कहता था अमेरिका काल करने में बहुत पैसा लगता था, जब कि अमेरिका से इन्डिया काल करने में ऐसा नहीं था क्योंकि वो मोबाइल के जिस प्लान की फीस भरता था, उसके तहत कहीं भी एण्डलैस काल्स की जा सकती थीं।”
“आई सी।”
“फिर भी मैं कभी फोन करती थी तो वो काल रिसीव करके हमेशा कहता था, ‘रख दो, मैं करता हूं’।”
“हूं। था कौन? कहां रहता था?”
“नाम आदित्य खन्ना था। अकेडमिकली हाईली क्वालीफाइड था, बोस्टन यूनीवर्सिटी का पढ़ा हुआ था, बैंकर था, न्यूयार्क में रहता था जहां कि एक बड़े बैंक में वाइस प्रेसीडेंट था।”
“कौन से बैंक में?”
“नाम उसने बताया तो था लेकिन मैं भूल गयी।”
“ओह!”
“लेकिन उस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता।”
“क्यों भला?”
“जैसा कि बाद में सामने आया, उसकी अपनी बाबत बयान की हर बात गलत थी, झूठी थी, फरेबी थी। इस सिनेरियो में बैंक के नाम की क्या अहमियत रह गयी!”
“यू आर राइट। कोई नहीं। आगे बढ़ो।”
“ही हैड ए गिफ्ट आफ गैब। ऐसा मीठा बोलता था, ऐसी कमाल की पोस्ट डालता था कि मन मोह लेता था। इसी वजह से बाजरिया चैट मेरा पूरा विश्वास जीत लिया। इस हद तक कि टोटल फिदा हो गयी मैं उस पर।”
“और वो तुम्हारे पर?”
“हां।”
“कभी मुलाकात की नौबत न आयी?”
“आई न!”
“अच्छा, आयी।”
“हां। राजनगर पहुंच गया।”
“आल दि वे फ्राम न्यूयार्क?”
“हां। लेकिन यहां मुम्बई से आया।”
“मतलब?”
“कहता था वो अपने बैंकिंग के किसी काम से मुम्बई आया था जिससे वो बहुत जल्दी फारिग हो गया था इसलिये उसके मन में मेरे से मुलाकात की ख्वाहिश करवटें बदलने लगी थी। कहता था वो धरती के दूसरे सिरे से इंडिया आया था तो कैसे वो अपने आप को मेरे से मुलाकात से रोक सकता था!”
“असल में बाशिन्दा ही मुम्बई का होगा!”
“ऐसा?”—वो सन्दिग्ध भाव से बोली।
“क्या पता लगता है! अब जब कि स्थापित है कि वो फरेबी था, पाखण्डी था, कॉनमैन था तो उसका कहीं फॉरेन में क्या काम! मुम्बई में नहीं तो कहीं और सही, ये मैं यकीनी तौर पर कह सकता हूं कि था वो इन्डिया में ही कहीं का वासी।”
“मार्इंयवा इन्डिया के किसी शहर से चैटिंग करता था”—रमाकान्त बोला—“और जाहिर करता था चैटिंग न्यूयार्क से हो रही थी!”
“ऐसा ही होगा।”—युवती बोली।
“लेकिन”—रमाकान्त फिर दखलअन्दाज हुआ—“फॉरेन से काल आये तो उस फॉरेन कन्ट्री का नाम मोबाइल की स्क्रीन पर आता है जिससे कि काल ओरीजिनेट हुई होती है।”
“वो कोई बड़ी समस्या नहीं।”—सुनील बोला—“वो भरम बनाने के लिये हमारे कॉनमैन ने सिर्फ इतना करना था कि किसी तरीके से एक सिम कार्ड अमेरिका का हासिल करना था जो कि उसने कर लिया होगा!”
“हो सकता है।”
“कभी शक न हुआ?”—सुनील ने युवती से पूछा।
“शक करने का खयाल तक न आया।”—वो बोली।
“अमेरिका के नम्बर जुदा होते हैं।
“मेरी तवज्जो ही न गयी इस बात की तरफ।”
“क्योंकि सिर पर इश्क का भूत सवार था, दिलोदिमाग पर आशिकी हावी थी!”
“अब क्या कहूं! थी तो यही बात!”
“न्यूयार्क का मोबाइल नम्बर दस डिजिट का ही होता है।”—रमाकान्त धीरे से बोला।
“ये भी वजह होगी तवज्जो न जाने की।”
युवती ने सहमति में सिर हिलाया।
“लेकिन मालको”—रमाकान्त बोला—“न्यूयार्क बात करो तो आवाज फौरन नहीं आती, थोड़ा थम कर आती है, बीच में गैप ले कर आती है, मालूम ही होगा!”
“वो कोई बड़ी बात नहीं।”—सुनील बोला—“फ्रॉड मास्टर भी ये बात जानता होगा इसलिये जब बोलता होगा, जानबूझ कर रुक कर, अटक कर, पॉज़ दे कर बोलता होगा।”
“यही बात थी।”—युवती यूं बोली जैसे कोई भूली बात याद आ गयी हो।
“ये बात तब न सूझी, अब सूझी?”
“तब ध्यान तक न गया इस बात की तरफ।”
“जाता तो क्या होता! यकीन पुख्ता हो जाता कि काल अमेरिका से थी?”
‘हं-हां।’
“पर, मालको”—रमाकान्त बोला—“मुम्बई क्यों बोला? न्यूयार्क ही क्यों न बोला जिस से कि लड़की पर ज्यादा रौब पड़ता?”
“होटल में फॉरेन से आये मेहमान को पासपोर्ट दिखाना पड़ता है। कई होटल तो ऐसे मेहमान का पासपोर्ट देखते ही नहीं, पास ही रख लेते हैं और तभी लौटाते हैं जब कि मेहमान चैक आउट करता है।”
“इस को क्या पता लगता?”
“लग तो सकता था! चाहती तो लगा तो सकती थी!”
“मैं क्यों चाहती ?”—युवती बोली—“मेरे पर तो जैसे जादू किया हुआ था उसने!”
“इसके चाहने से तो इसे ये भी पता लग सकता था कि उसने प्रूफ आफ रेजीडेंस मुम्बई दिखाया था और प्रूफ आफ आइडेंटिटी के लिये कोई देसी डाकूमेंट दिखाया था जैसे कि आधार कार्ड, वोटर आई-कार्ड।”
“कहे तो पता निकलवाऊं कि क्या दिखाया था?”
“बाद में देखेंगे। फिलहाल बात मुलाकात की हो रही थी।”—वो फिर युवती से सम्बोधित हुआ—“तो मुलाकात हुई?”
“हां, हुई।”
“कैसी?”
“कमाल की। आउट आफ दिस वर्ल्ड। नशा छा गया। उसके लौट जाने के बाद तक भी न उतरा। लगा जैसे प्रोवर्बियल सपनों का शाहजादा आ गया...”
“खाली हाथ?”
“क्या बोला?”
“कोई तोहफा न लाया?”
“तोहफा! तोहफे लाया। बहुवचन में। इतने प्रेजेंट्स उसने मुझे पहली मुलाकात में दिये कि सम्भालने भारी पड़े। सब मेड इन यूएसए।”
“कैसे मालूम?”
“उन पर दर्ज था।”
“ओह! दर्ज था।”
“चाकलेट्स, परफ्यूम्स, हैण्डबैग्स, ड्रैसिज, फुटवियर्स। खास तौर से ऊंची एड़ी की सैंडलें। ऐसी कमाल की कि पहले कभी देखी नहीं थीं।”
“मालको”—रमाकान्त बोला—“सब इन्वेस्टमेंट थी जो उसने अपने खास प्रोजेक्ट पर की थी। आखिर लड़की को मर्तबान में उतारना था।”
“शीशे में।”—सुनील ने संशोधन किया।
“आहो। वही।”—रमाकान्त एक क्षण ठिठका, फिर बोला—“मुम्बई पोर्ट सिटी है। समगलर्स पैराडाइज कहलाता है। दुनिया के कौन से कोने की ऐसी कौन सी चीज़ है जो—असली या डुप्लीकेट—वहां स्मगल्ड गुड्स के लिये मशहूर शापिंग आर्केड्स में नहीं मिलतीं।
सुनील ने सहमति में सिर हिलाया, फिर युवती से सम्बोधित हुआ—“पेश कैसे आया?”
“बहुत भद्रता से।”—युवती बोली—“लाइक ए पर्फेक्ट जन्टलमैन।”
“नो किसिंग? नो हगिंग? नो समूचिंग?”
“नो नथिंग। उंगली तक न छुई।”
“आई सी। और?”
“दो दिन वो राजनगर में ठहरा। उसके चले जाने के कई दिन बाद तक भी सोहबत का नशा न उतरा।”
“कहां गया? सीधा न्यूयार्क?”
“नहीं, मुम्बई। कहता था वहीं से न्यूयार्क की डायरेक्ट फ्लाइट थी वर्ना फ्रैंकफर्ट में जर्नी ब्रेक करनी पड़ती थी।”
“आई सी?”
“मुझे मुम्बई-न्यूयार्क डायरेक्ट फ्लाइट का अपना एयर इन्डिया का टिकट दिखाया।”
“लिहाजा हाई-फाई कॉन गेम की मुकम्मल तैयारी कर के आया था।”
“अब क्या बोलूं?”
“बहरहाल मैजिकल पर्सनैलिटी थी उसकी!”
“यू सैड इट, मिस्टर सुनील। मैजिकल ही थी। सच में जादू कर देता था। सम्मोहन में जकड़ लेता था, ट्रांस की हालत में पहुंचा देता था।”
“जब कि हकीकतन फ्रॉड था?”
“जब कि हकीकतन फ्रॉड था।”
“देखने में कैसा था?”
“फिल्म स्टार्स जैसा। बल्कि उन से भी ज्यादा आकर्षक। गोरा चिट्टा, लम्बा, ऊंचा। स्याह काले, फैशनेबल ढ़ण्ग से कटे हुए बाल। चौड़ा माथा। नशीली आंखें। फ्रेंचकट दाढ़ी मूंछ...”
सुनील सकपकाया।
“पहले मुझे भी ये बात कुछ अजीब लगी थी लेकिन एक तो फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ उसे बहुत जंचती थी, सच पूछो तो उसकी पर्सनैलिटी में इजाफा करती थी, और दूसरे वो कहता था उसकी ठोडी पर एक काफी बड़ा, काला मस्सा था जो उस की क्लीनशेव्ड सूरत पर बहुत भद्दा लगता था।”
“आई सी। और?”
“और एथलीटिक बॉडी थी, फैशन की बहुत सैंस थी, हमेशा सजा धजा रहता था, खुशमिजाज था, मधुरभाषी था, यांकी असैंट में फर्ल फर्ल अंग्रेजी बोलता था।”
“कोई खूबी जिक्र से रह गयी हो”—रमाकान्त बोला—“तो वो भी उसमें थी।”
“आप मजाक में कह रहे हैं लेकिन हकीकतन यही बात थी।”
“शहजादा गुलफाम था!”
“बिल्कुल था।”
“फिर तो, सोहनयो, तुम क्या, कोई भी लड़की उस पर मर मिटती।”
“शक्ल देख कर।”—सुनील बोला—“ये तो कह रही हैं कि शक्ल देखे बिना ही टोटल फिदा थीं!”
“यही बात थी।”—युवती बोली—“यूं समझो कि शक्ल देख कर तो हवास ही खो बैठी थी। अब मुझे क्या पता था”—वो संजीदा हुई, रुंआसी हुई—“कि उस की मैगनेटिक पर्सनैलिटी उस का स्टाक इन ट्रेड था, शिकारी का मारक हथियार था, बहेलिये का जाल था।”
“मोतियांवालयो”—रमाकान्त बोला—“भोली भाली सूरत वाले होते हैं जल्लाद भी।”
वो खामोश रही।
“बातें क्या हुर्इं?”—सुनील ने पूछा।
“बातें क्या हुर्इं क्या, बातें ही बातें हुर्इं। कुल जहान की बातें हुर्इं। उसकी लफ्फाजी भी तो उसके उम्दा रख रखाव की तरह उसका स्टाक इन ट्रेड था।”
“ये मुलाकात कब की बात है?”
“छ: महीने पहले की।”
“इतना पहले की? और अब जा कर ऐसा कुछ हुआ जो तुम्हें यहां लाया?”
“यही समझ लीजिये।”
“समझ लिया। बहरहाल वो किस्सा बाद में। पहले दो दिन की मुलाकात की कोई खास बात है तो बोलो।”
“है न!”
“क्या?”
“बोला, आठ साल से अमेरीका में था।”
“आठ साल से! उसकी मौजूदा उम्र का कोई अन्दाजा?”
“उम्र की बाबत कोई सवाल तो मैंने नहीं किया था लेकिन देखने में वो आप ही की उम्र का जान पड़ता था।”
“मैं चौंतीस साल का हूं।”
“इतना ही लगता था।”
“लगता था लेकिन ज्यादा उम्र का हो सकता था। नहीं?”
“हां।”
“शादी न की?”
“कहता था की। पांच साल पहले एक अमेरिकन लड़की के शादी की थी लेकिन शादी छ: महीने भी नहीं चली थी, तलाक हो गया था और प्रॉपर्टी सैटलमेंट में अमेरिकन बीवी ने उसे कंगाल करने में कसर नहीं छोड़ी थी।”
“ये भी बोला कि कंगाल करने में कसर नहीं छोड़ी थी?”
“मुहावरे की जुबान में। आप जानते हैं तलाकशुदा बीवी कितना ही निचोड़ ले, ऐसे कंगाल कोई नहीं हो जाता।”
“ओह!”
“हां। लेकिन साथ ही बोला कि तब के बाद से उसने बहुत पैसा फिर कमा लिया था।”
“बहरहाल डाइवोर्सी था।”
“हां। अमेरिकन सिविल कोर्ट का जारी किया डाइवोर्स का सर्टिफिकेट भी दिखाया मुझे।”
“क्या कहने!”
“और अब किसी हिन्दोस्तानी लड़की से शादी करने का तमन्नाई था।”
“ऐसा बोला वो?”
“बोला हो तो क्या वड्डी बात है!”—रमाकान्त बोला—“ब्रांडी का जला बीयर फूंक फूंक कर पीता है।”
“ये कह रहे हैं दूध का जला छाछ फूंक फूंक कर पीता है।”
“वही। हाई फाई जमूरे की बात हो रही है वो मैंने भी कहावत का हाई फाई वर्शन टिका दिया।”
“बहरहाल”—सुनील दखलअन्दाज हुआ—“आठ साल से वो अमेरिका में था। आगे?”
“बोला, वहां से दिल पूरी तरह से उचाट हो गया था। कहता था जिस मिशन को लेकर अमेरिका पहुंचा था, वो पूरा हो चुका था : जिन ख्वाहिशात का अक्स उसके जेहन में था, उन्हें वो अंजाम दे चुका था, ढ़ेर पैसा कमा चुका था, अब क्या रखा था वहां! अब तो पहला मौका हाथ आते ही हमेशा के लिये इण्डिया लौट आना चाहता था। बोला लौट आने का अब तो बड़ा इंसेंटिव भी उसके सामने था।”
“क्या?”
“मैं।”
“ओह! प्रोपोज किया आप को?”
“दो टूक तो न किया लेकिन शादी बनाने की, फैमिली रेज करने की इच्छा बराबर जाहिर की।”
“जब कहता था फिदा आप पर था, आधी दुनिया का घेरा काट कर मिलने आप से आया था तो शादी का इरादा और किस से होता?”
“मेरे से। लेकिन ऐसा उसने दो टूक नहीं कहा था। कहता तो मैं तो तभी शादी करने को तैयार हो जाती।”
“इसीलिये न कहा।”
“ऐग्जैक्टली। तब मुझे नहीं मालूम था लेकिन अब मालूम है कि इसीलिए न कहा। पर अपनी ऐसी मंशा के खुल्ले हिंट ड्रॉप किये। बोला जिन्दगी में जो कुछ वो पाना चाहता था, उसने पा लिया था; एक ही चीज बाकी थी जो उसने अब पा ली थी।”
“इशारा तुम्हारी तरफ था?”
“साफ।”
“तो उससे तुमने क्या नतीजा निकाला?”
“यही कि उसका मुझे शादी के लिये प्रोपोज करना महज वक्त की बात थी और वो वक्त बहुत जल्द, मेरी उम्मीद से कहीं पहले, आने वाला था।”
“आया?”
“हां।”
“क्या बोला?”
“जब चैटिंग का सिलसिला फिर शुरू हो गया तो कुछ अरसे बाद बोला कि अपना सर्वस्व वो उसके हवाले करना चाहता था जो अब उसकी सर्वस्व थी।”
“तुम!”
“और कौन?”
“काफी लच्छेदार बात कहीं! काफी लपेट कर बात कही!”
“ऐसी ही बातों का तो वो उस्ताद था!”
“सर्वस्व तुम्हारे हवाले क्यों? उसका अपना कोई नहीं था?”
“कहता था कोई नहीं था। मां बाप एक रेलवे एक्सीडेंट में मर गये थे। एक बड़ी बहन थी जो शादीशुदा थी, बाल बच्चेदार थी, न्यूजीलैंड में स्थायी तौर पर रहती थी और जिससे उसका कोई सम्पर्क बाकी नहीं था।”
“इसलिये सर्वस्व होने वाली शरीकेहयात के हवाले?”
“किस के हवाले?”
“भार्या के हवाले।”
“जी!”
“बीवी के हवाले। तुम्हारे हवाले।”
“ओह!”
“कर दिया?”
“हां।”
“जी! क्या फरमाया?”
“अपना सर्वस्व मेरे हवाले कर दिया।”
“कमाल है! क्या किया? कैसे किया?”
“मुझे खबर कर के एक एयर कनसाइनमेंट—ड्यूटी पेड एयर- कनसाइनमेंट—मेरे नाम भेजा जिस में उसकी आठ साल की मुकम्मल कमाई, तमाम असैट्स—जेवरात, गिल्ट ऐज्ड सिक्योरिटीज, डालर्स में नकद रकम, सोने के बिस्कुट—बन्द थीं। सारे सामान की एक अलग लिस्ट मुझे मेल से मिली थी जो कि कस्टम की एनडोर्स्ड थी और तसदीक करती थी कि उन वैल्युएबल्स पर अमेरिका में ड्यूटी पे की जा चुकी थी।”
“कमाल है!”
“कोई कमाल नहीं, जनाब, बाजीगर की बाजीगरी थी जिसे मैं समझ न सकी क्योंकि अक्ल पर आशिकी का पर्दा पड़ा हुआ था।”
“बाजीगरी कैसे? जब ड्यूटी पेड कनसाइनमेंट था, तुम्हारे नाम था, तुम्हारे पास आलीज़ से ताल्लुक रखते पेपर्स थे तो एयरपोर्ट पहुंचतीं, आगे कस्टम पर जातीं और ड्यूटी प्रीपेड कनसाइनमेंट छुड़ा लेतीं।”
“ऐसा मैं जरूर करती लेकिन करने की नौबत ही न आयी। उससे पहले कस्टम से एक फोन आ गया।”
“क्या? क्या फोन आ गया?”
“किसी ने मुझे बताया कि उस कनसाइनमेंट पर सैंडर ने जो कस्टम ड्यूटी भरी थी वो पूरी नहीं थी, शॉर्ट थी, साढ़े तेरह लाख रुपये के करीब ड्यूटी और बनती थी और कनसाइनमेंट की रिलीज के लिये उस रकम का एडवांस में जमा कराया जाना जरूरी था। उस बाबत मैंने आदित्य से सम्पर्क किया तो वो बोला ऐसा हो तो नहीं सकता था लेकिन वो मालूम करेगा कि क्या मामला था।”
“मालूम किया?”
“हां। अगले दिन बाजरिया वाट्सएप उससे सम्पर्क हुआ तो वो बोला कि मालूम हुआ था कि ड्यूटी वाकेई कम जमा कराई गयी थी लेकिन उसमें उसकी कोई गलती नहीं थी, ड्यूटी कैलकुलेशन्स में जो बंगलिंग की थी, खुद कस्टम ने की थी। उसने तो बतौर ड्यूटी जो रकम उसे बताई गयी थी, वो जमा करा दी थी। अब कस्टम अपनी गलती मानने को तैयार ही नहीं था इसलिये अतिरिक्त ड्यूटी जमा करा देने के अलावा कोई चारा नहीं था।”
“करा दी?”
“नहीं। बोला, उसके पास तो जो कुछ था वो उसने मुझे अरसाल कर दिया था, अब तो उसके पास इन्डिया के एयर टिकट और न्यूयार्क के आइन्दा चन्द दिनों के रोजमर्रा के खर्चे उठाने के इन्तजाम के अलावा कुछ भी नहीं था। और कहा कि अब उस समस्या का एक ही हल था कि अतिरिक्त कस्टम ड्यूटी का मैं इन्तजाम करती। कहा कि मैंने एक छोटी रकम का इन्तजाम करना था जिस के बाद उसका भेजा करोड़ों का माल मेरे पास होता।”
“एक वर्किंग गर्ल के लिये साढ़े तेरह लाख रुपयों को छोटी रकम तो नहीं कहा जा सकता!”
“सोहनयो”—रमाकान्त बोला—“उसने सोच ही कैसे लिया कि ऐसी कोई रकम एकमुश्त तुम्हारे पास हो सकती थी?”
“शायद...शायद उसे मेरे विरसे की खबर थी।”
“कैसे हो सकती थी?”
“दो दिन की मुलाकात में शायद विरसे की बाबत मेरे ही मुंह से कुछ निकल गया था।”
“बहरहाल”—सुनील बोला—“उसे पता था कि दरकार रकम का इन्तजाम तुम कर सकती थीं!”
“उसने साफ ऐसा नहीं कहा था—कहता तो सवाल उठता कि मेरी आर्थिक स्थिति के बारे में उसे कैसे मालूम था—लेकिन उसका पुरजोर इसरार यही जाहिर करता था।”
“तुमने क्या किया? एपरपोर्ट पर जाकर अतिरिक्त कस्टम ड्यूटी जमा कराई? पल्ले से साढ़े तेरह लाख रुपये कस्टम को अदा किये?”
“कस्टम को नहीं।”
“कस्टम को नहीं?”
उसने इंकार में सिर हिलाया।
“तो?”
“उसको।”
“क्या!”
“कैसे?”—रमाकान्त बोला।
“उसने मुझे एक एकाउन्ट नम्बर बताया, उसके कहे मुताबिक जिसमें वो रकम मैंने ट्रांसफर कर दी।”
“तौबा!”
“ऐसा क्यों किया?”—सुनील बोला।
“वो कहता था अतिरिक्त ड्यूटी कनसाइनमेंट को भेजने वाला ही जमा करा सकता था।”
“फिर? फिर क्या हुआ?”
“दो दिन कुछ न हुआ। फिर कस्टम से फिर फोन आ गया।”
“अच्छा!”
“फोन करने वाले ने तसदीक की कि साढ़े तेरह लाख रुपये, जो कि अतिरिक्त कस्टम ड्यूटी की रकम थी, जमा हो चुके थे लेकिन टोटल एप्लीकेबल कस्टम ड्यूटी अभी भी शॉर्ट थी क्योंकि अतिरिक्त ड्यूटी जमा कराने की प्रक्रिया के दौरान कुछ आइटमों का ड्यूटी रेट रिवाइज हो गया था इसलिये बढ़ गया था और इसलिये साढ़े पांच लाख रुपये अभी और जमा कराये जाने जरूरी थे।”
“तुमने वो भी उस जमूरे का नाम ट्रांसफर कर दिये?”
“जब साढ़े तेरह लाख पर हुज्जत न की—अब तो ये कहिये कि अक्ल न की—तो साढ़े पांच लाख पर क्या हुज्जत करती!”
“ब्राइटआईज, जो बीती उससे तो साफ इशारा मिलता है कि उस शख्स को तुम्हारी माली हैसियत की, तुम्हारे बैंक एकाउन्ट की पूरी पूरी खबर थी।”
“कैसे हो सकती थी।”
“तफ्तीश का मुद्दा है लेकिन जैसे उसने पहली मांग खड़ी की थी, और पहली पूरी हो जाने के बाद दूसरी—काफी छोटी—मांग खड़ी की थी, उससे तो यही जाहिर होता है कि उसे गारन्टी थी कि पहली मांग पूरी करने लायक इन्तजाम तुम्हारे पास था। फिर दूसरी, छोटी, मांग ये सोच के खड़ी की कि पूरी हो गयी तो वाह वाह, नहीं तो न सही।”
चेहरे पर गहरी संजीदगी के भाव लिये वो खामोश रही।
“आखिर क्या हुआ?”
“उस कॉनमैन की स्क्रीम कामयाब हुई और क्या हुआ?”
“फिर भी?”
“दूसरी रकम ट्रांसफर करने के बाद पहली बार की तरह मेरे पास कस्टम से कोई फोन न आया। जिस नम्बर से फोन आता था, मैंने उस पर काल लगायी तो कोई जवाब न मिला, जवाब की जगह स्टैण्डर्ड घोषणा ‘ये नम्बर मौजूद नहीं हैं’ सुनायी दी। मैंने वाट्सएप पर उससे कान्टैक्ट करने की कोशिश की तो कान्टैक्ट न हुआ। मैंने उसके मोबाइल पर काल लगाई तो अनाउंसमेंट सुनाई दी, ‘दिस नम्बर डज़ नाट एग्जिस्ट’। मैं एयरपोर्ट गयी और कस्टम पर जा कर कनसाइनमेंट की बाबत दरयाफ्त किया तो जवाब मिला कि ऐसी किसी अमरीकी कनसाइनमेंट का कोई वजूद नहीं था। मैंने वहां मेल से हासिल हुई कनसाइनमेंट की डिटेल्स वाली कापी दिखाई तो जवाब मिला वो कस्टम विभाग द्वारा जारी नहीं की गयी थी।”
“लिहाजा बहुत सूझबूझ के साथ, बहुत चतुराई के साथ, एक बड़ी इंट्रीकेट स्कीम पर अमल कर के बाकायदा तुम्हें उन्नीस लाख रुपये की थूक पूरी कामयाबी के साथ लगाई गयी!”
“जाहिर है। लेकिन अभी और सुनिये।”
“अभी और भी?”
“हां। चैटिंग के दौर के दौरान उसने मुझे अपनी कुछ तसवीरें भेजी थीं जिनसे जाहिर होता था कि वो न्यूयार्क के विभिन्न स्थानों पर खींची गयी थीं, क्योंकि ऐसे स्थान, जैसे टाइम्स स्कवायर ब्रुकलिन ब्रिज, एम्पायर स्टेट बिल्डिंग, बैकग्राउन्ड में दिखाई देते थे...”
“क्या बड़ी बात है! कम्प्यूटर के जरिये ऐसी सिंथेटिक तसवीरें बच्चा भी तैयार कर सकता है।”
“ठीक है लेकिन उस वक्त उन पर शक करने की मेरे पास कोई वजह नहीं थी। लेकिन अभी आप मेरी बात तो सुनिये!”
“सॉरी! सुनाओ।”
“जब वो राजनगर आया था और मेरे से मिला था तब अपने आई-फोन पर इसने अपनी और मेरी कई सैल्फी खींची थीं और मुझे फारवर्ड की थीं। मिस्टर सुनील, जब ये बखेड़ा शुरू हुआ तो वो तमाम तसवीरें, बमय चैंटिंग का सारा रिकार्ड, मैंने अपने फोन पर से गायब पायीं।”
“क्या! ऐसा कैसे हो सकता है?”
“मुझे नहीं पता कैसे हो सकता है, लेकिन हुआ न! हुआ न बराबर!”
“ओह!”
“इत्तफाक से उसकी एक तसवीर, सिर्फ एक तसवीर—जो कि क्लोज अप था—का मैंने अपने आफिस प्रिंटर के जरिये प्रिंट निकाल लिया था तो वो बच गयी थी वर्ना उससे ताल्लुक रखता जो कुछ भी मेरे पास था, वो सब इरेज हो चुका है। कैसे हो पाया, ये जुदा मसला है लेकिन हकीकत ये हैं कि उस से ताल्लुक रखता कुछ भी मेरे पास बाकी नहीं है।”
“सिवाय उसके लोटस फेस की...”
“फिटे मुंह फेस की।”—रमाकान्त तैश से बोला।
“...एक क्लोज अप तसवीर के?”
“हां।”
“वो तसवीर कहां है?”
“मेरे पास है।”
“दिखाओ।”
उसने अपने हैण्डबैग से निकाल कर आम कागज पर छपी पांच गुणा सात इंच की एक तसवीर पेश की।
सुनील ने गौर से तसवीर में दर्ज सूरत का मुआयना किया तो उसे कुबूल करना पड़ा कि उस शख्स की फिल्म स्टार्स जैसी पर्सनैलिटी को बयान करने में युवती ने अतिश्योक्ति से काम नहीं लिया था। उसने चेहरे पर बहुत नफासत से तराशी गयी फ्रेंच कट दाढ़ी-मूंछ थीं जो इस की खूबसूरती में बाकायदा इजाफा कर रही थीं।
“मैं इसका एक प्रिन्ट निकाल लूं?”—उसने पूछा।
“आप इसी को रख लीजिये।”—वो बोली—“मैंने अब इसे सिर मारना है!”
“प्रिंट ही ठीक है। तसवीर की आइन्दा कभी, कहीं आप को जरूरत पड़ सकती है।”
“ओके दैन।”
सुनील ने अपने प्रिंटर पर उसकी तीन कापियां निकालीं, एक दराज में रखी, एक को मोड़ कर अपने बटुवे में रखा और तीसरी रमाकान्त को सौंपी।
रमाकान्त ने सवालिया निगाह उस पर डाली।
“शक्ल पर से”—सुनील बोला—“कम्यूटर के जरिये—दाढ़ी मूंछ हटा कर प्रिंट बनवाना है।”
रमाकान्त ने सहमति में सिर हिलाया और कागज को तह करके अपने कोट की जेब के हवाले किया।
“सोहनयो”—रमाकान्त कुर्सी पर पहलू बदल कर युवती की तरफ घूमा—“एक बात तो मेरी भी लिख लो। जिस किसी ने भी ये फ्रॉड तुम्हारे साथ किया है, उसे फर्स्टहैण्ड नालेज थी कि तुम्हारे पल्ले कम से कम बीस लाख रुपये थे। अब ये न कहना कि उससे हुई मुलाकात के दौरान ये बात तुम्हारे मुंह से निकल गयी, ये बात हकीकतन उसे बहुत पहले से, ऐन शुरू से मालूम थी। पहले उसे ये बात मालूम हुई थी और फिर...फिर उसने फ्रॉड का वो जाल बुना था जिस में कि तुम आखिर फंसीं।”
“आप ये कहना चाहते हैं”—युवती चिन्तित भाव से बोली—“कि ठगी की बुनियाद पहले बनी और बाकी स्क्रिप्ट बाद में तैयार की गयी!”
“लफ्जों का हेर फेर है मोतियांवालयो, वर्ना तुम वही कह रही हो जो मैंने कहा है।”
“ओह!”
“ऐंजलफेस”—सुनील बोला—“जो कहानी छ: महीने पहले अपने ट्रेजिक अंजाम को पहुंच चुकी, उसे अब दोहराने का क्या मतलब?”
“ये मतलब”—युवती तनिक आवेश से बोली—“कि कहानी, बकौल आपके, अपने ट्रेजिक अंजाम को न पहुंची, कहानी छ: महीने पहले खत्म न हो गयी।”
“अच्छा!”
“हां।”
“नया कुछ हो गया?”
“हां।”
“कब?”
“कल शाम।”
“क्या हुआ?”
“मैंने उसे देखा।”
“किसे? किसे देखा?”
“आदित्य खन्ना को।”
“अरे! कहां? कहां देखा?”
“होटल स्टारलाइट में।”
“जो कूपर रोड पर है? नया बना? पन्द्रह मंजिला?”
“वही।”
“वो तो कोई अच्छी रिप्यूट वाला होटल नहीं है!”
“अब है।”—रमाकान्त जल्दी से बोला—“खराब रिप्यूट की वजह से ही इस हद तक बदनाम हो गया था कि मालिकान को उसे बेच देना पड़ा था। अब वो एक होटल्स चेन के कब्जे में है जिसने टेकओवर करते ही सारा पुराना स्टाफ डिसमिस कर दिया था, नया, वैल स्नेड स्टाफ भरती किया था, लॉबी को रेनोवेट कराया था और अब उस का नाम स्टारलाइट रेजीडेंसी है और उसका दर्जा अब डीसेंट फाइव स्टार होटल का है।”
“आई सी।”—सुनील फिर युवती की तरफ घूमा—“तो वो जमूरा—आदित्य खन्ना—तुम्हें स्टारलाइट रेजीडेंसी में दिखाई दिया?”
“हां।”
“जो कहना है तफसील से कहो, एक ही बार कहो और यहां से शुरू करके कहो कि कल शाम तुम वहां क्या कर रही थीं?”
“हमारा एक लेखक, जो मुम्बई से था, वहां रुका हुआ था। उस का एक नावल हमारे यहां प्रकाशनार्थ विचाराधीन था जिसके कॉन्ट्रैक्ट पर उसको कुछ ऐतराज थे। वो कान्ट्रैक्ट डिसकस करने के लिये ही मेरी कल शाम सात बजे उससे एक मीटिंग थी जो एक घन्टा चली थी। उससे रुखसत पा कर मैं बाहर निकली थी तो आदित्य खन्ना, मेरा स्विंडलर चैटमेट, मुझे रिसैप्शन पर खड़ा दिखाई दिया था। मैंने उसे पीठ पीछे से ही पहचान लिया था। मैं लपक कर उसके करीब पहुंची, उससे सम्बोधित हुई तो उसने यूं मेरी तरफ देखा जैसे मेरे आर पार देख रहा हो। मिस्टर सुनील, उसने अपनी फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ से किनारा कर लिया हुआ था लेकिन फिर भी मैंने उसे साफ पहचाना था कि वो वही था, यकीनन वही था जबकि वो हर घड़ी मुझे ऐसे देखता रहा था जैसे जिन्दगी में पहले कभी मेरी सूरत न देखी हो। दृढ़ता से उसने मुझे कहा कि वो मुझे नहीं जानता था और वो आदित्य खन्ना ही नहीं था, उसका नाम अंशुल खुराना था और मैं चाहती तो रिसैप्शन से इस बात की तसदीक कर सकती थी।”
“मार्इंयवा नटवरलाल था”—रमाकान्त बोला—“तो नया नाम रख लिया होगा!”
“यानी”—युवती संदिग्ध भाव से बोला—“अंशुल खुराना नकली नाम?”
“आदित्य खन्ना की भी क्या गारन्टी थी”—सुनील बोला—“कि असली नाम था! अगर वो प्रोफेशनल कॉनमैन था तो क्या बड़ी बात है कि हर नयी वारदात नये नाम से करता हो! लेकिन”—सुनील एक क्षण ठिठक कर बोला—“वो रेटिड होटल में ठहरा हुआ था, वहां प्रूफ आफ आइडेन्टिटी पेश करना पड़ता है।”
“तो क्या हुआ!”—रमाकान्त बोला—“ड्राईविंग लाइसेंस, वोटर आई-कार्ड, आधार कार्ड मार्इंयवे आम डुप्लीकेट बनते हैं। जब पासपोर्ट तक नकली बन जाता है तो इन कार्डों की क्या औकात है! उसने इसे नकली डाइवोर्स सर्टिफिकेट भी तो दिखाया था! अमेरिकन कोर्ट का!”
“नाम कोई भी हो”—सुनील बोला—“ब्राइटआइज, तुम कहती हो कि बन्दा वही था जिसने छ: महीने पहले एक मर्तबा दो दिन तुम्हारी दिन रात की सोहबत की थी।”
“मैं कहती हूं।”—युवती दृढ़ता से बोली—“पूरी गारन्टी से कहती हूं।”
“तुम्हारे पास उसकी तसवीर है। दिखानी थी!”
“दिखाई। साफ मुकर गया कि वो उसकी तसवीर थी। बोला, वो तसवीर तो किसी दाढ़ी मूंछ वाले की थी जब कि वो क्लीनशेव्ड था।”
“फ्रेंचकट दाढ़ी मूंछ नहीं थी?”
“नहीं थीं, लेकिन साफ कराते—या खुद कर लेते—क्या देर लगती है!”
“ठीक। और क्या बोला?”
“और पुरइसरार लहजे से बोला कि जरूर उसकी शक्ल किसी से मिलती थी जिस की वजह से मुझे धोखा हो रहा था। बोला, ऐसे किसी की शक्ल किसी से मिलना कोई बड़ी बात नहीं था क्योंकि कहते थे कि इस सृष्टि में भगवान ने कहीं न कहीं हर किसी का कोई हमशक्ल बनाया था।”
“क्या कहने! उसकी ठोड़ी पर काला मस्सा था?”
वो खामोश हो गयी।
“मस्सा ही नहीं, बकौल तुम्हारे बड़ा, काला मस्सा जिस को छुपाने के लिये दाढ़ी की सूरत में ठोड़ी पर अब बाल नहीं थे!”
“मस्सा नहीं था।”—वो धीरे से बोली।
“ऐसा?”
“हां।”
“फिर तो हो सकता है तुम्हारी शिनाख्त भ्रामक हो, गलत हो!”
“नहीं”—उसके स्वर में फिर दृढ़ता का पुट आया—“ये मैं हरगिज नहीं मान सकती। जिस शख्स के साथ दो दिन मैंने दिन रात की सोहबत की, दाढ़ी-मूंछ हो या न हो, उस को पहचानने में मेरे से भूल नहीं हो सकती। मेरी शिनाख्त एक मस्से के होने न होने पर, दाढ़ी-मूंछ होने न होने पर केन्द्रित नहीं, शिनाख्त के और भी बहुत जरिये होते हैं। मैंने उसे आवाज से पहचाना, कदकाठ से पहचाना, हाव भाव से पहचाना, अन्दाजेबयां से पहचाना।”
“मालको”—रमाकान्त बोला—“कुड़ी ठीक कह रही है। तुम बात को यूं समझो कि इस बात की क्या गारन्टी है कि मस्से की बाबत उस आदित्य खन्ना के घोड़े ने जो शुरू में इस से बोला था, वो ठीक बोला था! उसने सूरत पर फ्रेंच कट दाढ़ी-मूंछ की कोई एक्सक्यूज देनी थी, एक्सक्यूज मस्से को बना लिया। तब क्या उसे ये ये कहती कि दाढ़ी को आजू बाजू छितरा कर मस्सा दिखा?”
“नहीं।”
“ये न भूल, काकाबल्ली, कि जिस का जिक्र है, वो नटवरलाल है, कॉनमैन है, कॉनमैनशिप जिसका कारोबार है। अपने कारोबार के तहत उसका सूरत में तब्दीली लाना, लाते रहना, क्या बड़ी बात है! कभी फुल बियर्ड, कभी फ्रेंच कट, कभी क्लीनशेव्ड, क्या बड़ी बात है!”
“कोई बड़ी बात नहीं। ये सब अगर कारोबार है तो क्या बड़ी बात है कि वो राजनगर में फिर कारोबार के हवाले ही मौजूद है!”
“तेरा मतलब है जैसे छ: महीने पहले यहां इसे कल्टीवेट करने के लिये आया था वैसे अब किसी और इस जैसी लड़की की फिराक में यहां मौजूद है?”
“क्या बड़ी बात है?”
“ये न सोचा कि पिछले शिकार से, कियारा से, यहां उसका आमना सामना हो सकता था?”
“राजनगर एक करोड़ की आबादी वाला शहर है। कितने चान्सिज होते ऐसी मुलाकात होने के?”
“बहुत कम। न होने के बराबर। फिर भी हुई मुलाकात या नहीं हुई?”
“हुई। और समझो कि करिश्मा हुआ।”
“अगरचे कि इसने उसे ठीक पहचाना।”
“मैंने बिल्कुल ठीक पहचाना।”—युवती दृढ़ता से बोली।
“मुझे तुम्हारी पहचान पर एतबार है, इसलिये ऐतबार है क्योंकि ऐतबार बिना इस सिलसिले में आगे बढ़ना मुमकिन नहीं।”
“क्या करेगा?”—रमाकान्त बोला।
“अभी तो जो करेगी, ये ही करेगी।”
युवती सजग हुई, उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से सुनील की तरफ देखा।
“क्या?”—रमाकान्त बोला।
“सनशाइन”—सुनील गम्भीरता से युवती से सम्बोधित हुआ—“तुम्हें इस शख्स से फेस-टु-फेस, वन-टु-वन मिलना चाहिये था और दो टूक उसे चैलेंज करना चाहिये था कि वो कोई अंशुल खुराना नहीं जैसा कि वो कहता था, वो आदित्य खन्ना था जिसने तुम्हें उन्नीस लाख रुपये का चूना लगाया था और उसके इंकार करने पर उसे गिरफ्तार कराने की धमकी देनी चाहिये थी। फिर देखना था कि वो क्या कहता था!”
युवती खामोश रही।
“ये ऐसा अब कर सकती है।”—रमाकान्त बोला।
“कैसे?”—युवती बोली—“कल वो मुझे इत्तफाक से रिसैप्शन पर दिखाई दे गया, अब दोबारा ऐसा इत्तफाक क्योंकर होगा? वो इतना बड़ा, पन्द्रह मंजिल तक उठा होटल है, मुझे कैसे मालूम होगा कि वो वहां कहां पाया जाता है? रिसैप्शन पर पूछने पर तो गैस्ट्स की ऐसी जानकारी आउट की नहीं जाती! तो क्या करना होगा मुझे? लॉबी में मुतवातर पहरा देना होगा और इन्तजार करना होगा कि वो मुझे फिर दिखाई दे?”
“होटल में उसके रूम नम्बर का पता हम निकाल देंगे।”—सुनील बोला।
“आहो!”—रमाकान्त बोला—“वड्डा जर्नलिस्ट है, बुरे के घर का पता निकालने में महारत हासिल है इसे।”
“रमाकान्त, मैंने ‘हम’ कहा।”
“ओये, मां सदके, ‘ब्लास्ट’ में डेढ़ सौ बन्दे मुलाजिम हैं, ‘हम’ नहीं कहेगा तो और क्या कहेगा!”
“इस ‘हम’ में दो ही जने शरीक हैं। एक मैं और एक वड्डे भापा जी।”
“ओये, तेरा इशारा कहीं मेरी तरफ तो नहीं?”
“और किस की मां ने सवा सेर सोंठ खाई है जो वड्डा भापा जी होगा!”
“ये बात?”
“हां, ये बात।”
“ठीक है फिर। तेरी खातिर...”
“मैडम की खातिर।”
“...मैं दिखाता हूं बुरे के ठेके तक पहुंच कर।”
“घर तक।”
“किस के घर तक?”
“बुरे के घर तक। सही मुहावरा ‘बुरे के घर तक पहुंचना’ होता है।”
“होता होगा। जब मैं...”
“अब बात को लम्बा मत घसीटो। सच में मामूली काम है। करा के चुको।”
“हला हला।”
“ब्राइटआइज़”—सुनील फिर युवती से मुखातिब हुआ—“मेरा अभी भी सवाल है कि तुम पुलिस के पास क्यों न गयीं! तुम्हारे साथ बड़ी ठगी हुई थी और तुम्हें यकीनी तौर से मालूम था कि ठग इस शहर में मौजूद था तो तुम्हें कुछ तो करना चाहिये था!”
“कुछ तो किया मैंने।”—वो बोली।
“अच्छा, किया! क्या किया?”
“मैं एनसीडब्ल्यू (NCW) के लोकल आफिस में पहुंची।”
“एनसीडब्ल्यू! यानी नेशनल कमीशन फार वूमेन? राष्ट्रीय महिला आयोग?”
“वही। मुगलबाग में आफिस है। अपनी व्यथाकथा सुनाने की नीयत से मैं वहां गयी।”
“किसी ने सुनी?”
“न! लेकिन लोकल आफिस अध्यक्षा से मुलाकात हुई। वो कोई पचास साल की एक मैडम थी जो कि लगता था कि महज खानापूरी के लिये वहां बिठाई हुई थी। अपने आफिस में पहले से मेरे जैसी किसी युवती से बात कर रही थी, फिर भी मुझे इन्तजार करने को बोलने की जगह भीतर बुला लिया।”
“आई सी।”
“वो कोई बलात्कार पीड़िता थी। मिस्टर सुनील, मेरी मौजूदगी में उसने उस युवती को जो राय दी, वो सुनने लायक है।”
“क्या राय दी?”
“ ‘कोर्ट में जाओ तो यूं सज धज के, पर्सनैलिटी बना के न जाना जैसे यहां आयी हो। दीन हीन बन के जाना, फैशनेबल पोशाक पहनने की जगह लुटी पिटी, बेचारियों वाला पहनावा पहन के जाना। तभी जज को तुम्हारे साथ हमदर्दी होगी और उसे लगेगा कि वाकेई तुम्हारा रेप हुआ था’। क्या मतलब हुआ इसका? क्या ये कि रेप बेचारियों के साथ ही होता है? पढ़ी लिखी, हैसियत वालियों के साथ नहीं होता?”
जवाब देने की जगह सुनील और रमाकान्त एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
“क्या इस का ये मतलब न हुआ कि महिला आयोग, जिसका काम महिलाओं के मान सम्मान की रक्षा के लिये आगे आना है, खुद हमें अबला, मजलूम करार देने पर तुला है?”
“शायद हुआ।”—सुनील बोला—“लेकिन तुम अपनी बोलो, तुम्हारे साथ वहां कैसी बीती?”
“उस युवती से फारिग हो कर, उसे रुखसत कर के जब वो मैडम मेरे से मुखातिब हुई तो पहले तो उसे इसी बात का अफसोस हुआ कि में रेप का केस नहीं थी।”
“क्या बात करती हो!”
“जब मैंने ऐसा बोला था तो मैंने उस की शक्ल पर मायूसी और नाउम्मीदी साफ लिखी देखी थी।”
“कमाल है! जरूर वो कोई सैक्स-स्टार्व्ड औरत थी जिसे बलात्कार की डिटेल्स सुनकर यौन सुख की अनुभूति होती है। लेकिन वो जुदा मसला है। तुम बताओ, तुम्हें उससे क्या हासिल हुआ?”
“कुछ भी नहीं।”
“क्यों?”
“बोली, मेरा केस महिला आयोग के एक्शन की प्रीव्यू में नहीं आता था। मुझे थाने जाना चाहिये था।”
“थाने न सही, जानेजमां, लेकिन पुलिस...पुलिस के पास तो जाना चाहिये था! ऐसी कॉनमैनशिप, जैसी का तुम शिकार हुई हो, ऐसे फ्रॉड माडर्न टैक्नॉलोजी की तरक्की के साथ साथ इतने बढ़ते जा रहे हैं कि पुलिस के टॉप ब्रॉस ने खास तौर से साइबर क्राइम्स सैल की स्थापना की है जो ऐसे ही क्राइम्स को इनवैस्टिगेट करता है।”
“करता होगा। साइबर क्राइम्स सैल जैसे फैंसी नाम से जाना जाता होगा। लेकिन है तो पुलिस ही न! मेरे को पुलिस पर भरोसा नहीं, चाहे वो साइबर क्राइम्स जैसे स्पैशल केसिज़ वाली हो, चाहे थाने वाली हो।”
“ऐसा तो नहीं होना चाहिये!”
“मेरे साथ ऐसा ही है।”
“कोई खास वजह?”
“वो भी है।”
“क्या?”
“मुझे फर्स्टहैण्ड एक्सपीरियेंस है कि कैसे पुलिस बाहुबलियों के, ऐसे दबंगों के असर में आकर मामूली हैसियत वाले मजलूमों के केस को बंगल करती है, कैसे उसको यूं वाटरडाउन करती है कि केस केस ही नहीं रहता।”
“ऐसा होता तो है लेकिन छोटी जगहों पर होता है। मैट्रोपॉलिटन सिटीज़ में, जैसा कि राजनगर है, ऐसा कोई केस मीडिया की तवज्जो में आ जाये तो पुलिस वैसी बंगलिंग नहीं कर पाती जैसी का कि तुमने अन्देशा जाहिर किया।”
“मानते तो हो न कि ऐसा होता है?”
“हां, मानता हूं। कई मर्तबा जाबर का जुल्म चल भी जाता है। लगता है तुम्हारी निगाह में कोई खास, स्पैसिफिक केस है।”
“है तो सही?”
“क्या?”
वो हिचकिचाई।
“बेखौफ बयान करो, जो कहोगी, वो हम तीनों के बीच ही रहेगा।”
रमाकान्त ने सहमति में सिर हिलाया।
“बीकानेर की बात है।”—वो पूर्ववत् हिचकिचाती-सी बोली—“मेरी हमउम्र एक लड़की थी जिसकी एक बड़े घर के लड़के से आशनाई थी। लड़के का पूरा भरोसा था कि वो उससे, उसी से, शादी करेगा। वो उसकी बातों में आ गयी और जल्द होने वाली शादी के आश्वासन के तहत आत्मसमर्पण कर बैठी। नतीजतन प्रेग्नेंट हो गयी। उसने लड़के को बताया तो पहले तो उसने ये कह के पल्ला झाड़ना चाहा कि वो बालिग लड़की थी, उसने जो किया था अपनी मर्जी से किया था, आपसी रजामन्दी से किया था...”
“अगर”—रमाकान्त बोला—“उस नामोनिहाद आपसी रजामन्दगी में शादी के वादे का दखल था तो वो लड़का पल्ला नहीं झाड़ सकता था। क्यों, काकाबल्ली?”
सुनील ने सहमति में सिर हिलाया।
“जोर जबरदस्ती से ही बलात्कार नहीं होता, शादी का झांसा दे कर शारीरिक सम्बन्ध बनाना भी बलात्कार होता है।”
“लेकिन पुलिस तो नहीं सुनती!”—लड़की के स्वर में तल्खी आयी—“विक्टिम को तो क्या सुनेगी, वो तो इस सिलसिले में महिला आयोग की नहीं सुनती! और महिला आयोग ऐसी अनसुनी की बातरतीब, पुरजोर मुखालतफ तक नहीं करता।”
“ऐसा होता है?”
“बिल्कुल होता है। ये पत्रकार हैं, इनसे पूछो।”
रमाकान्त ने सुनील की तरफ देखा।
सुनील खामोश रहा।
“महिला आयोग कुछ नहीं करता।”—युवती पूर्ववत् तल्ख लहजे से बोली—“करता है तो दिखावे के लिये करता है, अपने वजूद की, अपनी जरूरत की हाजिरी लगाने के लिये करता है। इसीलिये उसकी अनसुनी की जाती है तो उसे परवाह नहीं होती। जब पुलिस दबंग की औलाद बलात्कारी के हक में दलील देती है कि मर्जी बिना कोई चाय नहीं पिला सकता, रेप कैसे कर सकता है तो महिला आयोग यूं जाहिर करता है जैसे कि उसे पुलिस की दलील से इत्तफाक हो।”
“वो सब बहस के मुद्दे हैं”—सुनील बोला—“तुम अपनी बात कहो जो कह रही थीं।”
“हां। मैं कह रही थी कि अपनी प्रेग्नेंसी के बारे में जब लड़की ने बाहुबली की औलाद लड़के को बताया तो लड़का जब इस बाबत अपनी जिम्मेदारी से पल्ला न झाड़ सका तो उसने नया पैंतरा बदला; बोला, हो सकता था प्रेग्नेंसी उसकी खामखयाली हो, उसके दिलोदिमाग पर गुनाह का बोझ था जो उसे उल्टा सीधा सोचने पर मजबूर करता था। बोला, वो एक प्रसिद्ध तान्त्रिक को जानता था जो ऐसे मनोरोगों का इलाज तान्त्रिक जल पिला कर करता था। लड़की उसकी बातों में आकर तान्त्रिक के ठीये पर चली गयी। वहां तान्त्रिक ने मन्त्र फूंके जल के नाम पर उसे पता नहीं क्या पिलाया कि वो बेहोश हो गयी। होश में आयी तो मालूम पड़ा कि सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई थी और तान्त्रिक के ठीये से दूर एक पार्क में पड़ी पायी गयी थी। उसने थाने जा कर तमाम किस्सा बयान किया और लड़के के और तान्त्रिक के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की दरख्वास्त की। लड़के के खिलाफ सबूत के तौर पर उस ने कई फोन रिकार्डिंग्स, टैक्सट मैसेजिस, एमएमएस पेश किये, पुलिस ने एफआईआर तो दर्ज कर ली, क्योंकि लड़की ने डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट के पास जाने की धमकी दी, लेकिन सबूत सब गायब कर दिये और किसी भी सबूत का जिक्र एफआईआर में दर्ज न किया। लड़के को औपचारिक तौर पर गिरफ्तार किया, तान्त्रिक को तो गिरफ्तार भी न किया, उसका मौखिक बयान लिया जिस में उसने कह दिया कि वो लड़का, अकेला या किसी लड़की के साथ, कभी उसके पास नहीं आया था। लड़के को जब ड्यूटी मैजिस्ट्रेट की अदालत में पेश किया गया तो लड़की का मूल बयान भी बदला हुआ था। नतीजतन लड़का पहली पेशी पर ही बड़े आराम से जमानत पा कर छूट गया। फिर खुद थाने का एसएचओ आकर लड़की पर दबाव डालने लगा कि वो कोई मुआवजा ले ले और केस विदड्रा कर ले। लड़की ने दबाव में आने से इन्कार कर दिया तो खुद एसएचओ ने उसे बताया कि लड़के के पास उसके बलात्कार की फिल्म थी जिसे वो किसी बैवसाइट पर पोस्ट कर देता तो लड़की की रही सही जिन्दगी भी बर्बाद हो जाती। वो फिर भी न झुकी तो उसे धमकी पहुंचाई गयी कि उसके चेहरे पर तेजाब फिंकवा दिया जायेगा। नतीजतन लड़की ने घर से निकलना ही बन्द कर दिया। फिर ये बात भी उजागर हुई कि लड़का पहले से शादीशुदा था। कोर्ट में केस लगा तो लड़के के वकील ने प्ली दी कि लड़का नपुंसक था, बलात्कार करने में अक्षम था और उसकी बीवी को ही बतौर गवाह पेश कर दिया जिसने लड़के के नपुन्सक होने की तसदीक की। मैजिस्ट्रेट ने सरकारी डाक्टर द्वारा लड़के के मैडीकल एग्जामिनेशन का हुक्म दिया। डाक्टर ने भी पुलिस की गाइडेंस में सर्टिफिकेट जारी कर दिया कि लड़का नपुन्सक था।”
“पैसा खाकर?”
“और कैसे?”
“आखिर नतीजा क्या निकला?”
“लड़का लैक आफ इवीडेंस की बिना पर ही बरी हो गया। नपुंसकता तो समझो उसके केस की ऐडिड अट्रैक्शन थी।”
“समरथ को नहीं दोष गुसाई।”
“सरकारी फैसले का मजाक ये हकीकत उड़ाती है कि आज की तारीख में वो कथित नपुन्सक लड़का दो बच्चों का बाप है।”
“तौबा!”
“सवाल”—रमाकान्त बोला—“अव्वल तो अब क्या होगा, होगा तो कह देगा कि उसकी बीवी ने औलाद की खातिर उसकी रजामन्दगी से किसी गैर से यौन सम्बन्ध बनाये थे। मालको, ऐसी हरकत को क्या कहते थे महाभारत में?”
“नियोग प्रथा।”
“हां। वही परथा, जो तू बोला। बीवी बोल देगी कि खाविन्द के इसरार पर, बल्कि हुक्म पर, उसने निरोध परथा से...”
“नियोग प्रथा से।”
“उसी से। उसी परथा से बच्चे पैदा किये थे, कुर्बानी की थी ताकि उसका खाविन्द औलाद का मुंह देख पाता, बाप कहलाने का फ़ख्र हासिल कर पाता। किस्सा खत्म। मियां बीवी पाजी तो क्या करेगा गाजी!”
“मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी। ये है सही मुहावरा।”
“होगा। पर जो मैंने कहा है अनजाने में, वो भी बेमानी नहीं है। ऐसे मियां बीवी, जिन का जिक्र है, पाजी ही तो हुए! क्या कर लेगा उनका गाजी यानी कि हाकिम? अब बोल, क्या खराबी है तेरे वड्डे भापा जी के मुहावरे में?”
“इस लिहाज से कोई नहीं!”
“तेरा सार्इं जीवे।”
कुछ क्षण खामोशी रही।
“जाबर की औलाद को बचाने की”—रमाकान्त फिर बोला—“ऐसे केसों में और जो जुगत की जाती है, वो ये है कि अगर लड़के के खिलाफ खड़ा केस ढ़ाना मुमकिन न जान पड़े तो उसे नाबालिग साबित करने की कोशिश की जाती है, भले ही वो पच्चीस साल का हो। उस सिलसिले में शातिर वकीलों की पेश न चले तो दावा किया जाता है कि लड़की लड़के के साथ लिव-इन रिलेशन में थी और उन दोनों के बीच जो कुछ हुआ था, वो लड़की ने बालिग, खुदमुख्तार औरत के तौर पर अपनी मर्जी से किया था।”
“फिर भी पेश न चले”—सुनील सहमति में सिर हिलाता संजीदगी से बोला—“और जाबर बहुत ही जबर हो तो उसका मुश्टंडा, हराम का जना, गोली मार देने के काबिल लड़का अपने दो अपने ही जैसे साथियों के साथ लड़की के घर घुसता है, साथी लड़की को जबरन काबू में कर के पैट्रोल से नहलाते हैं और लड़का माचिस दिखा देता है। सब जानते हैं वो जुल्म किसने किया फिर भी कर्मठ, मुस्तैद, सदा-आपके-साथ पुलिस को कोई गवाह नहीं मिलता। क्यों नहीं मिलता? क्योंकि गवाहों को खुल्ली वार्निंग होती है—पुलिस की भी और लड़के के बाहुबली बाप की भी—कि अगर किसी ने गवाही देने के लिये आगे आने की जुर्रत की तो उसका भी वही हश्र होगा जो लड़की का हुआ था। नतीजतन वारदात का चश्मदीद होते हुए भी किसी की मजाल नहीं होती गवाह बनने की। यूं जला डाली गयी एक लड़की तो एसडीएम को बयान दे कर मरी कि फलां लड़के ने और उसके फलां दो साथियों ने उसका वो हश्र किया था फिर भी लड़के का कुछ न बिगड़ा जब कि डार्इंग डिक्लेयरेशन को, मृत्युपूर्व बयान को आरोपी के खिलाफ निर्णायक सबूत माना जाता है। उस केस में सरकारी डाक्टर ने मोटी रिश्वत खा कर अपना करतब दिखाया, दस्तूर के तौर पर उसने अपनी रिपोर्ट में जानबूझ कर ये दर्ज करने में कोताही की कि वारदात का शिकार हुई लड़की बयान देने के लिये मानसिक रूप से स्वस्थ थी। इस मामूली टैक्नीकलिटी की ओट ले कर नगदनारायण से पूजे गये जज ने लड़की की डार्इंग डिक्लेयरेशन को वैध मानने से इंकार कर दिया। दावा किया गया कि वो सौ फीसदी जल चुकी थी, उस हालत में विक्टिम के दिमाग तक आक्सीजन नहीं पहुंचती थी, नतीजतन वो अपने पूरे होशोहवास में नहीं रहती थी, डिलीरियम (DELIRIUM) की स्थिति में पहुंची हुई होती थी और ऐसी मानसिक अवस्था में दिये गये बयान को मान्य करार नहीं दिया जा सकता था। नतीजतन केस डिसमिस्ड। मुलजिम बरी।”
आखिर तक पहुंचने तक सुनील का चेहरा तमतमा आया।
“इतने आडम्बर की भी क्या जरूरत होती है!”—रमाकान्त बोला—“लड़कों का वकील कोर्ट में आधी दर्जन गवाह पेश कर देगा कि वारदात के लिये जिम्मेदार ठहराये जा रहे बेचारे—रिपीट, बेचारे—लड़के तो वारदात के वक्त मौकायवारदात से मीलों दूर उन के साथ बियर पार्टी में मशगूल थे। डिफेंस के गवाह छाती ठोक के अदालत में इस बाबत हल्फिया बयान देंगे और प्रॉसीक्यूशन का या तो कोई गवाह नहीं होगा, होगा तो गवाही देने के लिये उसे कोर्ट के करीब भी नहीं फटकने दिया जायेगा।”
“हैरत की बात है”—युवती बोली—“कि इतना कुछ एक नेशनल डेली के दफ्तर में कहा जा रहा है।”
“माई डियर”—सुनील असहाय भाव से बोला—“अखबार मजलूम की आवाज बुलन्द कर सकता है—जो कि ‘ब्लास्ट’ हमेशा, बिना किसी अपवाद के, करता है—लेकिन जुल्म पर अंकुश नहीं लगा सकता। ऐसे जुल्मात की मुखालफत में कमिटिड जर्नलिस्ट...”
“जो कि अपना मित्तर प्यारा हण्डर्ड पर्सेंट है।”—रमाकान्त बोला।
“...सिर धड़ की बाजी लगाता है और हमेशा जीत का परचम लहराता ही नहीं दिखाई देता, कई मर्तबा अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद बाजी हारता है लेकिन सच का सितारा फिर भी बुलन्द रहता है। विकट, विपरीत परिस्थितियों के हवाले सत्य के दीपक की लौ मद्धम पड़ सकती है, बुझ नहीं सकती। ‘ब्लास्ट’ हमेशा मजलूम के साथ रहा है और रहेगा, अंजाम कुछ भी हो।”
“मैं मजलूम हूं।”—युवती कातर भाव से बोली—“‘ब्लास्ट’ मेरे साथ है?”
“यकीनन है।”
“आप मेरे साथ हैं?”
“फिगर आफ स्वीच के तौर पर मेरे और ‘ब्लास्ट’ में कोई फर्क नहीं। मैं हमेशा मजलूम के साथ हूं।”
“मॉडस्टी दिखा रहा है”—रमाकान्त बोला—“इसलिये अपनी एक खास फितरत अपनी जुबानी बयान कहीं कर रहा, इसलिये मैं बयान करता हूं। ही कैननाट सी ए डैमसेल इन डिस्ट्रेस।”
युवती ने अचरज से सुनील की तरफ देखा।
“ये किसी हसीना को मुसीबत में नहीं देख सकता। मुसीबतजदा हसीना की हिमायत के लिये ये मिल्खा सिंह से तेज दौड़ कर आगे आता है। सोहनयो, हसीनों में शुमार है न तुम्हारा?”
“अब मैं अपनी जुबानी क्या कहूं?”
“काहे को कहना है! परत्यकश को कोई परमान की जरूरत होती है?”
“प्रत्यक्ष को।”—सुनील ने संशोधन किया—“प्रमाण की।”
“वही। यार, मैं जब भी शुद्ध हिन्दी बोलने की कोशिश करता हूं, तू मुझे टोक देता है। समझता ही नहीं कि राष्टर भाषा के लिये मेरे हिरदै में कितना सथान है।”
“समझता हूं। लेकिन बात कोई और हो रही थी।”
“तो कोई और बात कर। रोका किसी ने तुझे?”
“रोजीलिप्स”—सुनील युवती से सम्बोधित हुआ—“तुमने जो वाकया, हौलनाक वाकया मिसाल के तौर पर बयान किया, उस में विलेन थाने वाले थे, साइबर क्राइम्स सैल की कोई ऐसी छवि अभी तक सामने नहीं आयी है। इसलिये तुम्हें मेरी नेक राय अभी भी यही है कि तुम्हें साइबर क्राइम्स सैल में अपनी कम्पलेंट डालनी चाहिये।”
“मैं... सोचूंगी...”
“सोचोगी?”
“...करूंगी कुछ इस बाबत। ”
“गुड। ये कागज कलम लो, इस पर अपने आफिस और घर का पता और फोन नम्बर लिखकर जाओ।”
उसने बेहतर काम किया, अपना एक विजिटिंग कार्ड पेश किया जिस पर वो सब दर्ज था।
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