चंडीगढ़
विमल फ्लैट की बालकनी में एक आराम कुर्सी पर अधलेटा-सा बैठा अपने पाइप के छोटे-छोटे कश लगा रहा था।
वह फ्लैट सत्रह सैक्टर की एक इमारत की पहली मंजिल पर था।
नीलम सुबह से ही कहीं गयी हुई थी।
तारकपुर से चण्डीगढ़ आये हुए उसे दो महीने हो गये थे। राजनगर में सुनील की मेहरबानी से हुए उसके ऑपरेशन की कामयाबी के बावजूद पहले एक महीने में उसकी हालत काफी डावांडोल रही थी। नीलम उसका उपचार चण्डीगढ की भारत में प्रसिद्ध मैडीकल इन्स्टीच्युशन पीजीआई के सबसे बड़े डॉक्टर से करवा रही थी, लेकिन फिर भी कोई न कोई ऐसी अप्रत्याशित पेचीदगी पैदा हो जाती थी, जो न केवल उसको सम्पूर्ण स्वास्थ्यलाभ की तरफ अग्रसर होने से रोक देती थी, बल्कि ऐसा भी लगने लगता था कि वह इन्तहाई कामयाब ऑपरेशन के बाद भी बचने वाला नहीं था।
वह सारा महीना नीलम ने उसके पलंग की पट्‍टी से लगकर गुजारा था।
विमल ने जब भी आँखें खोली थीं, उसे अपने सामने मौजूद पाया था। उस पहले महीने में, दिन रहा हो या रात, नीलम को उसने अपने पास पाया था, हमेशा जागती पाया था, अपनी किसी भी सेवा के लिए तत्पर पाया था।
फिर एक महीने के बाद उसकी जान का खतरा टला था और वह थोड़ा-बहुत उठने-बैठने और चलने-फिरने के काबिल हुआ था।
तभी शायद नीलम को भी इतना अरसे में पहली बार आराम और इत्मीनान महसूस हुआ था।
विमल नीलम के बारे में सोचता था तो उसका दिल भर आता था।
वह सुनील के बारे में सोचता था तो उसकी आँखें छलछला जाती थीं, वह उन दोनों के बारे में सोचता था तो शराफत, भाईचारे और इन्सानियत पर से उसका कब से उठ चुका विश्‍वास उसके दिल में फिर से स्थापित होने लगता था। दुनिया में हर तरह के लोग होते थे। यह उसकी बद्किस्मती थी कि उसके हिस्से में बुरे लोग ही ज्यादा आये थे, लेकिन वाहेगुरु ने उसे भले लोगों की हिस्सेदारी से एकदम महरूम नहीं रखा था।
सत्रह सैक्टर वाले उस फ्लैट में वे केवल पन्द्रह दिन से थे। उससे पहले वे नीलम के बाईस सैक्टर वाले अपने मकान में रहते रहे थे, जहाँ कि वह उसे तारकपुर से सीधे लेकर आयी थी। वह मकान नीलम का अपना था, जबकि मौजूदा फ्लैट किराये का था। नीलम का कहना था कि बाईस सैक्टर के उसके फ्लैट में विमल की मौजूदगी की वजह से लोग बातें बनाने लगे थे और उससे इशारों से पूछने लगे थे कि विमल कौन था और उसका क्या लगता था। नीलम कहती तो यही थी कि वैसे असुविधापूर्ण सवालों से बचने के लिए ही उसने उस किराये के फ्लैट का इन्तजाम किया था, लेकिन विमल उसके उस जवाब से आश्‍‍वस्त नहीं था। जैसे असुविधाजनक सवाल उससे उसके अपने मकान में पूछे जा सकते थे, वैसे उस किराये के फ्लैट के गिर्द रहने वाले लोगों द्वारा भी तो पूछे जा सकते थे ! कोई और ही बात थी जो नीलम उसे बताना नहीं चाहती थी और विमल को जिद करके पूछना मुनासिब नहीं लग रहा था।
नीलम से अब तक उसकी जितनी मुलाकातें हुई थीं, बहुत ही संक्षिप्‍त हुई थीं। मौजूदा मुलाकात सबसे लम्बी साबित हुई थी। विमल अक्सर मन ही मन सोचता था कि क्या वह मुलाकात हमेशा का साथ बन सकती थी !
उसी सन्दर्भ में उसके जेहन में अपनी बीवी का भी खयाल आये बिना नहीं रहता था। और वह उस बेवफा और हरजाई औरत का मुकाबला नीलम नाम की उस लड़की से किये बिना नहीं रह पाता था, जो कभी एक गुण्डे की रखैल थी, जो कभी एक हाई प्राइस्ड काल-गर्ल थी।
विमल से अपनी पहली मुलाकात के बाद से ही नीलम ने अपने काल-गर्ल के धन्धे से किनारा कर लिया था। चण्डीगढ़ में मकान उसका अपना था ही और बैंक में इतना काफी रुपया फिक्स्ड डिपॉजिट के तौर पर मौजूद था कि उसने हासिल होने वाले ब्याज से वह ऐश की तो नहीं, लेकिन सहूलियत की जिन्दगी जरूर बसर कर सकती थी, कर रही थी।
कैसी अजीब बात थी !
एक वेश्‍या एक इश्‍तिहारी मुजरिम की सोहबत में सुधर गयी थी।
लेकिन एक शरीफजादी, एक कुलवन्ती, एक गृहिणी एक निहायत भलेमानस आदमी की बीवी बन चुकने बावजूद अपने को वेश्‍याओं से ज्यादा बद्कार साबित करके दिखा चुकी थी।
उसे फिर सुरजीत का खयाल आया।
किस हालत में होगी सुरजीत कौर ?
कहाँ होगी उसकी बेवफा बीवी ?
क्या अभी भी एरिक जॉनसन कम्पनी के मैनेजर से ही उसकी आशनाई चल रही होगी या कोई नया यार फाँस लिया होगा ?
कैसी जिन्दगी जी रही होगी ?
जो दगाबाजी उसने अपने पति के साथ की थी, क्या कभी एक क्षण के लिए भी उसके मन में उसके लिए पछतावे का भाव नहीं आया होगा ? क्या उसकी अन्तरात्मा ने, उसके विवेक ने, कभी उसे नहीं कचोटा होगा कि उसने एक इन्तहाई शरीफ आदमी, एक बेहद निष्‍ठावान पति के साथ बहुत बुरा सलूक किया था ? वह इश्‍तिहारी मुजरिम था। उसके सिर पर एक लाख रुपये का इनाम था। आये दिन अखबारों में खूब मोटी-मोटी सुर्खियों में उसके कारनामों का विवरण छपता था, चार-चार कॉलम चौड़ी उसकी तसवीर छपती थी। अपने पति की गुनाहों से पिरोई हुई जिन्दगी से वह बेखबर रही हो, यह तो कभी हो ही नहीं सकता था। तो क्या उसके मन में यह सोचकर कभी पश्‍‍चाताप की भावना आयी होगी कि एक शरीफ, नेकनीयत, खुदा का बेतहाशा खौफ खाने वाले आदमी की जिन्दगी के मुकम्मल सत्यानाश के लिए वह जिम्मेदार थी ?
तभी उसने अनुभव किया कि पाइप बुझ चुका था। अपनी पिछली जिन्दगी के खयालात में वह ऐसा डूबा था कि पाइप का कश लगाना भूल गया था।
उसने ड्रैसिंग गाउन की जेब में से माचिस निकाली और पाइप दोबारा सुलगा लिया।
फिर उसे जगमोहन का खयाल आया।
पता नहीं कहाँ होगा बेचारा !
और किस हालत में होगा !
नीलम की सूरत में विमल को कोई तो सहारा हासिल था, लेकिन जगमोहन तो इतनी बड़ी दुनिया में एकदम तनहा था। पता नहीं उसकी जिन्दगी किस हौलनाक अँजाम तक पहुँचने वाली थी—या शायद पहुँच भी चुकी थी।
सिडनी फोस्टर के अपहरण का सिलसिला ऐन मौके पर बैकफायर न कर गया होता तो आज दोनों की जिन्दगियाँ सँवर चुकी होतीं। लेकिन आखिर होना तो वही था जो वाहेगुरु को मंजूर था और वाहेगुरु को शायद अभी यही मंजूर था कि उन्हें अपने गर्दिश के दौर से निजात न मिलने पाये।
जो तुध भावे नानका—वह होंठों में बुदबुदाया—सोई भली कार।
उसने एक गहरी साँस ली और कलाई पर बँधी घड़ी पर दृष्‍टिपात किया।
एक बजने को था।
सुबह की गयी नीलम अभी तक नहीं लौटी थी।
कहाँ गयी थी वो ?
तारकपुर में डॉक्टर चतुर्वेदी के घर पहुँचने तक वह होश में था, लेकिन उसके बाद क्या कुछ हुआ था, वह सब उसे नीलम की ही जुबानी सुनने की मिला था। सुनील ने—एक ऐसे आदमी ने, जो उसकी गिरफ्तारी पर घोषित एक लाख रुपये का इनाम हासिल करने का ख्वाहिशमन्द था—उसकी जान बचाने के लिए जो कुछ किया था, वह उसके लिए एक करिश्‍मे से भी बढ़कर था। बिना किसी स्वार्थ के कोई इन्सान किसी इन्सान के इस हद तक काम आ सकता था, यह एक ऐसी बात थी जो शायद किस्से-कहानियों में भी विश्‍‍वसनीय न लगती। उस शख्स ने उसे जिन्दगी बख्शी थी। उसके इतने बड़े अहसान का बदला, उसे नहीं लगता था कि, वह अपनी आने वाली कई जिन्दगियों में भी चुका सकता था।
फोस्टर के अपहरण के सिलसिले में उसने अपनी सारी जिन्दगी की रूप-रेखा बदल दी, दौलत की खातिर बिना किसी के दबाव या बिना किसी मजबूरी के वह अपहरण और फिरौती जैसे अपराध में शरीक हुआ, लेकिन, तकदीर की मार कि, दौलत तो हाथ आयी नहीं, पल्ले जो थोड़ी-बहुत जमा पूँजी थी, जो दो-चार जरूरत की चीजें थी, वे भी हाथ से निकल गयी और जिन्दगी का दामन तो हाथों से जैसे छूट ही गया था।
अपहरण से हासिल होने वाली दौलत पर उसकी आने वाली जिन्दगी का बहुत दारोमदार था। उस दौलत से वह डॉक्टर स्लेटर से नया चेहरा हासिल होने की उम्मीद कर रहा था। फोस्टर के अपहरण वाले केस के बाद से वह बहुत ही ज्यादा मशहूर हो गया था। प्लास्टिक सर्जरी से हासिल होने वाला नया चेहरा ही उसे गली में दुर-दुर करते आवारागर्द कुत्ते जैसी अपनी जिन्दगी से निजात दिला सकता था। उसके बिना कभी भी उसके हिस्से में फाँसी का फन्दा या पुलिस की गोली आ सकती थी। अब वह एक बेहद खतरनाक इश्‍तिहारी मुजरिम मशहूर हो चुका था और सारे मुल्क की पुलिस को उसकी तलाश थी। डॉक्टर स्लेटर ने उसके चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी की एवज में उसके पाँच लाख रुपये की माँग की थी। फोस्टर के बदले में जो फिरौती मुकर्रर हुई थी, उसमें उसका हिस्सा डेढ़ करोड़ रुपये का होता। वह दौलत अगर उसके हाथ लग जाती तो डॉक्टर स्लेटर की फीस अदा करना उसके लिए मामूली बात होती। उसको डॉक्टर स्लेटर से नया चेहरा हासिल हो जाता तो उसे अपने सामने मुँह बाए खड़ी अँधेरी जिन्दगी में रोशनी और सलामती की उम्मीद का उजाला दिखाई देने लगता। उसको डॉक्टर स्लेटर से हासिल हुए नये चेहरे से उसकी गुनाहों से पिरोई जिन्दगी और उसके दुश्‍मन समाज और उसके खून की प्यासी पुलिस के बीच एक पर्दा खिंच जाता, जिसके पार झाँककर सहज ही कोई यह दुहाई न दे पाता कि वह रहा इश्‍तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल ! गोली से उड़ा दो इसे ! फाँसी पर टाँग दो इसे ! टुकड़े-टुकड़े कर दो इसके नापाक जिस्म के !
नीलम से हुई मौजूदा मुलाकात से पहले विमल उससे तभी मिला था, जब उसने जयपुर के बीकानेर बैंक की डकैती में अपने हिस्सेदार ठाकुर शमशेरसिंह से निपटने के लिए नीलम को खासतौर से चण्डीगढ़ टेलीफोन करके दिल्ली बुलाया था। तब के बाद उसे नीलम की सूरत तभी दिखाई दी थी, जब उसने तारकपुर में ऑपरेशन के बाद आँखें खोली थीं और उसे उसके अँजाम से त्रस्त, जार-जार रोती नीलम अपने सामने खड़ी दिखाई दी थी। उन दो मुलाकातों के बीच विमल के गुनाहों की फेहरिस्त में कई और गुनाह जुड़ गये थे और पिछले दो महीनों में नीलम ने बहुत जिद कर-करके उसकी गुनाहों से पिरोई जिन्दगी की मुकम्मल दास्तान कई-कई बार सुनी थी। इसी वजह से उसे यह भी मालूम था कि प्लास्टिक सर्जरी के लिए विमल को पाँच लाख रुपये चाहियें थे और उस प्रकार हासिल नया चेहरा ही उसकी आने वाली जिन्दगी में सुरक्षा की कोई छाप छोड़ सकता था।
“अगर मुझे नया चेहरा हासिल हो जाता।”—उसने बड़े अरमान से कहा था—“तो मेरे जेहन पर हर क्षण छाया रहने वाला कानून का खौफ मेरा पीछा छोड़ देता। फिर मैं भी और लोगों की तरह इत्मीनान और सुकून की जिन्दगी गुजार पाता।”
“अगर तुम्हें नया चेहरा हासिल हो जाये”—नीलम ने पूछा था—“तो तुम फिर कोई नया गुनाह नहीं करोगे ?”
“नहीं करूँगा।”—वह एक क्षण ठिठका था और फिर बोला था—“सिवाय एक गुनाह के ?”
“सिवाय एक गुनाह के ?”—नीलम ने दोहराया था।
“हाँ मैं उस हरजाई और बेवफा औरत से बदला जरूर लूँगा, जो कभी मेरी बीवी थी और जिसकी वजह से मेरी जिन्दगी तबाही और बरबादी की एक मिसाल बनकर रह गयी है, जिसकी वजह से मेरा दर्जा दर-दर की ठोकरें खाने वाले एक आवारागर्द कुत्ते से बद्तर हो गया है, जिसकी वजह से आज मैं एक खतरनाक इश्‍तिहारी मुजरिम हूँ और दुनिया की निगाहों में एक खौफनाक डाकू हूँ।”
“ऐसा क्या कर दिया था तुम्हारी बीवी ने ?”
“तुम एक औरत हो। खुद ही सोचो, मर्द के साथ सबसे बड़ा जुल्म औरत क्या कर सकती है ?”
“ओह !”
“तुम्हें जानकर हैरानी होगी कि पूरी तरह से अपनी जिन्दगी का सर्वनाश कर चुकने के बाद भी जब कभी मुझे अपनी बीवी की करतूत की याद आती थी तो मैं उसे नहीं, अपनी तकदीर को कोसता था। अपनी बीवी को मैं याद करता था तो मुझे गुस्सा नहीं आता था, बल्कि मुझे अपनी तकदीर पर रोना आता था और मेरे दिल से एक आह निकल जाती थी। लेकिन अब मैं दुनिया के इतने धक्‍के खा चुका हूँ कि किसी के कुकर्म के लिए अपनी तकदीर को कोसना मुझे हिमाकत मालूम होता है, जहालत मालूम होता है। अब मैं अपने दिल से निकलती आह को एक ऐसे सिंहनाद में परिवर्तित कर देना चाहता हूँ जो सुनने वाले के प्राण ले ले।”
“तुम क्या करोगे ?”
“मैं उसे उसकी करतूत की सजा दूँगा।”
“कैसे ?”
“वह तो आने वाला वक्त बतायेगा। इस बात का फैसला तो वाहेगुरु के हाथ में है। अगर वह मुझे जिन्दगी बख्शेगा तो वह मुझे वह भी बतायेगा कि जो कुछ मैं करना चाहता हूँ, उसे मैं कैसे अँजाम दे पाऊँगा।”
“ऐसी खतरनाक बातें बाद में सोचना। पहले पूरी तरह तन्दुरुस्त तो हो लो !”
“वह तो मैं अब हो ही जाऊँगा। लेकिन तन्दुरुस्त हो जाने के बाद मैं जिन्दा भी बचा रह पाऊँगा, इस बात की क्या गारन्टी है ? इस घर की चारदीवारी में तो मैं सुरक्षित हूँ, लेकिन यहाँ से बाहर कदम रखने के बाद मैं किसी पागल कुत्ते की तरह शूट नहीं कर दिया जाऊँगा, इस बात की क्या गारन्टी है ?”
“तुम पहले ठीक तो हो लो।”—नीलम ने बड़ी गम्भीरता से कहा था—“ईश्‍‍वर ने जब इतने करिश्‍मासाज तरीके से तुम्हें इतनी निि‍श्‍‍चत मौत से बचाया है तो आगे तुम्हारी सलामती की कोई सूरत भी वही सुझायेगा।”
विमल खामोशी से बैठा पाइप के कश लगता रहा।
अभी पिछले हफ्ते तक पीजीआई का बड़ा डॉक्टर उसे देखने आया करता था, उसने विमल से कभी यह नहीं पूछा था कि वह उस अनोखे प्रकार से कैसे घायल हुआ था और उसका उतना पेचीदा ऑपरेशन किसने किया था ? उसकी वजह भी शायद नीलम ही थी, वरना वह डॉक्टर ही उसकी पोल खोल सकता था और उसे गिरफ्तार करवा सकता था।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ था।
नीलम के साथ वह वहाँ सुरक्षित था। अपनी निि‍श्‍‍चत मौत से निजात पा चुकने के बाद फिलहाल वह सुरक्षित था और काफी हद तक स्वास्थ्यलाभ भी कर चुका था।
वाहेगुरु सच्‍चे पातशाह !—उसके मुँह से निकला—तेरे रंग न्यारे।
तभी उसे नीचे सड़क पर इमारत के सामने आकर एक स्‍कूटर रुकता दिखाई दिया। स्‍कूटर में से नीलम बाहर निकली। उसके हाथ में एक ब्रीफकेस था। उसने स्‍कूटर का भाड़ा चुकाया और ब्रीफकेस को हैंडल के सहारे हाथ में लटकाकर चलने के स्‍थान पर उसे एक नवजात शिशु की तरह मजबूती से अपनी छाती से चिपकाए वह इमारत में दाखिल हुई।
उस वक्‍त वह एक सादा शलवार-कमीज पहने थी और निहायत कमसिन, निहायत नाजुक, निहायत खूबसूरत लग रही थी।
और दो मिनट बाद वह फ्लैट में पहुँच गयी।
उसने फ्लैट का दरवाजा मजबूती से भीतर से बन्द कर दिया और बैडरूम में पहुँची।
“जरा इधर आना।”—उसने वहाँ से विमल को आवाज दी।
विमल अपने स्‍थान से उठा और बैडरूम में पहुँचा।
नीलम एक स्‍टूल पर बैठी थी। ब्रीफकेस उसने अपने सामने पलंग पर रखा हुआ था।
विमल ने नोट किया, वह बेहद गम्‍भीर थी।
“बैठो।”—वह बोली। उसका स्‍वर भी उसकी सूरत जैसा ही गम्‍भीर था।
विमल पलंग पर ब्रीफकेस के पास बैठ गया।
नीलम ने उसे यूँ निहारा, जैसे वह अपने मुद्दत से बिछुड़े किसी प्रियजन को देख रही हो।
“क्‍या बात है ?”—विमल तनिक विचलित स्‍वर में बोला।
“विमल।”—वह धीरे से बोली—“मैं तुम्‍हारी क्‍या लगती हूँ ?”
विमल हड़बड़ाया। उसने हैरानी से नीलम के गम्‍भीर चेहरे की तरफ देखा।
“बड़ा अजीब सवाल पूछ रही हो !”—वह बोला।
“शायद मुश्‍किल भी। तुम्‍हारे लिए। लेकिन इस मुश्‍किल सवाल का जवाब भी मैं खुद ही दिये देती हूँ। मैं तुम्‍हारी कुछ नहीं लगती। शायद कभी कुछ लग भी नहीं सकूँगी।”
“नीलम, तुम...”
“कोई कानूनी रिश्‍ता शायद हम दोनों में मुममिन नहीं, लेकिन इन्सानियत का जो रिश्‍ता हमें एक-दूसरे से जोड़े हुए है, वह, मैं समझती हूँ कि, किसी कानूनी रिश्‍ते से कम मजबूत नहीं। प्यार और मुहब्‍बत का जज्‍बा एक ऐसे नाजुक धागे की तरह होता है, जिसे इन्सान तोड़ना चाहे तो चुटकियों में तोड़ सकता है, न तोड़ना चाहे तो हजार हाथियों के बल से भी वह टूटने वाला नहीं।”
“बड़ी अजीब बातें कर रही हो आज तुम ! बात क्‍या है ? कहना क्‍या चाहती हो तुम ?”
“मैं तुम्‍हें एक चीज देना चाहती हूँ, लेकिन उस चीज का जिक्र भी करने से पहले मैं तुमसे वादा लेना चाहती हूँ कि तुम उसे कबूल करने से इन्कार नहीं करोगे। विमल, अगर मेरे लिए तुम्‍हारे दिल में रत्ती-भर भी अपनेपन का एहसास है, रत्ती-भर भी लगाव है, जरा भी प्यार-मुहब्‍बत का कोई जज्‍बा है तो वादा करो कि जो कुछ मैं तुम्‍हें देने जा रही हूँ, उसे लेने से तुम इंकार नहीं करोगे।”
“क्‍या देने जा रही हो तुम मुझे ?”—विमल तनिक उपहासपूर्ण स्‍वर में बोला—“कोई बर्थडे प्रेजेन्ट ? लेकिन मेरा जन्मदिन तो अभी बहुत दूर है।”
“मजाक मत करो। और जो वादा मैंने तुमसे माँगा है, वह मुझे दो।”
“नीलम, तुम पहेलियाँ बुझा रही हो।”
“यही सही। बोलो, वादा करते हो या नहीं कि जो कुछ मैं तुम्‍हें दूँगी, तुम बिना हुज्‍जत किये उसे कबूल करोगे ? बोलो !”
“नीलम, मैं पहले ही तुम्‍हारे अहसानों के नीचे दबा हूँ। तुमने मुझे जिन्दगी बख्शी है। अब और क्‍या...”
“लफ्फाजी मत झाड़ो। मेरे सीधे-सीधे सवाल का सीधा सीधा जवाब दो।”
“ठीक है।”—विमल गहरी साँस लेकर बोला—“वादा करता हूँ।”
“क्‍या वादा करते हो ?”
“कि जो कुछ तुम मुझे दोगी, मैं उसे बिना हुज्‍जत के कबूल करूँगा।”
“अपने वादे से फिरोगे तो नहीं ?”
“नहीं।”
“शुक्रिया। ब्रीफकेस खोलो।”
विमल ने ब्रीफकेस खोला।
ब्रीफकेस सौ-सौ के नोटों की गड्डियों से भरा पड़ा था।
विमल बुरी तरह चौंका। वह हक्‍का-बक्‍का-सा नीलम का मुँह देखने लगा।
“यह पाँच लाख रुपया है।”—नीलम धीरे से बोली—“यह उतनी ही रकम है, जितनी की कि तुम्‍हें नया चेहरा हासिल करने के लिए जरूरत है। तुम्‍हारे चेहरे की प्लास्‍टिक सर्जरी करके तुम्‍हें नया चेहरा दे सकने वाले तुम्‍हारे डॉक्‍टर की यह मुकम्‍मल फीस है।”
“लेकिन... लेकिन तुम्‍हारे पास इतना रुपया कहाँ से आया ?”
नीलम ने उत्तर न दिया।
विमल ने अपना पाइप एक ओर रख दिया और उसे उसके दोनों कन्धों से थाम लिया।
“मेरी तरफ देखो।”—वह उसके कन्धों को तनिक झिंझोड़ता हुआ बोला।
नीलम ने उससे निगाह न मिलाई।
“नीलम।”—विमल कठोर स्‍वर में बोला—“मेरी तरफ देखो।”
बड़ी कठिनाई से नीलम विमल से निगाह मिला पायी।
“इतना रुपया तुम्‍हारे पास कहाँ से आया ?”—विमल ने अपना प्रश्‍‍न दोहराया।
“इससे क्‍या फर्क पड़ता है कि...”
“फर्क पड़ता है। मुझे मालूम होना चाहिए कि इतना रुपया तुम्‍हारे पास कहाँ से आया ? बोलो। जवाब दो।”
“विमल, जो तुम सोच रहो हो, गलत सोच रहे हो। तुमसे पहली मुलाकात के बाद से ही मैंने अपना जिस्‍म न बेचने की कसम खा ली थी। वैसे यह बात दूसरी है कि तुम्‍हारे किसी भले की खातिर मैं अपनी वो कसम भी तोड़ने के लिए तैयार हूँ, लेकिन हकीकतन मैंने ऐसा नहीं किया है।”
“तो फिर इतनी बड़ी रकम एकाएक तुम्‍हारे पास कहाँ से आयी ?”
“मैंने”—उसकी निगाहें कमरे के फर्श पर गड़ गयीं और वह यूँ बोली, जैसे कोई गुनाह कबूल कर रही हो—“अपना बाईस सैक्‍टर वाला मकान बेच दिया है।”
“क्‍या !”
“मैंने अपना फिक्‍स्‍ड डिपॉजिट का सारा रुपया निकलवा लिया है।”
“क्‍या !!”
“अपने सारे भारी जेवर मैंने बेच दिये हैं।”
“नीलम !”
“उनका अब फैशन भी नहीं रहा था, वे मेरे किसी काम के नहीं थे।”
विमल अवाक् नीलम को देखता रहा।
“लेकिन मैंने वो कुन्दन सैट, वो कड़े, वो नथ और वो चूड़ियाँ नहीं बेचीं, जो मुझे अपनी झूठमूठ की दुल्‍हन बनाने के लिए तुमने मुझे खरीदकर दिये थे। तुम्‍हारा दिया लाल चूड़ा और जरी की लाल साड़ी भी अभी तक मेरे पास सुरक्षित है।”
विमल का दिल भर आया। न जाने क्‍यों उसका जी चाहने लगा कि वह नीलम को गले से लगा ले और जोर-जोर से रोने लगे। बड़ी मुश्‍किल से उसने अपने-आप पर जब्‍त किया।
“अपना सब कुछ तुम मुझे दे रही हो ? एक ऐसे आदमी को दे रही हो, जो तुम्‍हारा कुछ नहीं लगता ? एक ऐसे इश्‍तिहारी मुजरिम को दे रही हो, जो आज पकड़ा जाये तो कल फाँसी पर लटका दिया जायेगा ?”
“तुमने खुद ही तो कहा है कि अगर तुम प्लास्‍टिक सर्जरी से नया चेहरा हासिल कर लोगे तो ऐसा नहीं होगा !”
“नीलम, तुमने सोचा है कि मेरी जिन्दगी बचाने के लिए तुम अपने भविष्‍य का सर्वनाश किये दे रही हो ! अपना सब कुछ मुझे दे दोगी तो तुम किस सहारे जिन्दा रहोगी ?”
“मुझे नहीं मालूम कल क्‍या होगा ? लेकिन होगा तो वही जो ईश्‍‍वर की मर्जी होगी। जब मायाराम बावा अभिनेत्री बना देने का झाँसा देकर मुझे भगाकर लाया था और मेरा सब कुछ लूटकर मुझे एक काल-गर्ल बनने के लिए मजबूर बनाकर छोड़ गया था, तब भी मेरे पास क्‍या था ? तब क्‍या मैं इस घड़ी से ज्‍यादा बुरी हालत में थी ?”
“लेकिन हालात से जूझने के लिए जो कदम तुमने तब उठाया था, आज न उठा सकोगी।”
“वैसा कोई कदम उठाने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। तब मैं तनहा थी। अब मेरे पास तुम हो। विमल, अपनी आने वाली जिन्दगी में जब अपने भूखे पेट के लिए रोटी का निवाला मुहैया करोगे तो क्‍या मुझे भूखा रहने दोगे ? नया चेहरा हासिल कर चुकने के बाद जो नयी दुनिया तुम्हें हासिल होगी, उसके किसी कोने-खुदरे में मेरे लिए क्‍या कोई जगह न होगी ?”
विमल और बर्दाश्‍त न कर सका। उसने नीलम को स्‍टूल पर से घसीटकर अपने अँक में भर लिया। उसने अपनी सजल आँखों से नीलम की आँखों में देखा। उस वक्‍त उसने नीलम को आँखों में मुहब्‍बत, निष्‍ठा और अपनेपन का वो जज्‍बा देखा, जिसका एक अँश भी उसकी ब्‍याहता बीवी सुरजीत कौर में होता तो उसकी जिन्दगी का सर्वनाश न हुआ होता।
अब उसकी समझ में आया कि नीलम उसे किराये के फ्लैट में रहने के लिए क्‍यों लायी थी ?
कितनी ही देर वे एक-दूसरे से लिपटे हुए पलंग पर पड़े रहे। पाँच लाख के नोटों से भरा ब्रीफकेस उनके पहलू में पड़ा था, लेकिन दोनों में से किसी की भी तवज्‍जो उस क्षण उसकी तरफ नहीं थी।
“मैं एक बार अपनी बीवी से मिलना चाहता हूँ।”—विमल बोला।
“क्‍यों ?”—नीलम ने उसके अँक में से सिर उठाकर उससे पूछा।
वे थोड़ी ही देर पहले लंच करके हटे थे और अब बेडरूम में लेटे हुए रेडियो पर बजते फिल्‍मी गाने सुन रहे थे, जबकि विमल ने एकाएक रेडियो बन्द कर दिया था और अपनी बीवी का जिक्र ले बैठा था।
“मैं जानना चाहता हूँ कि आज की तारीख में वह किस हाल में है ! मुझे जेल भिजवा चुकने के बाद से वह सुख से रह रही है या तकलीफ में है !”
“क्‍या फायदा होगा ?”
“कुछ नहीं। लेकिन फिर भी मैं उसे तलाश करना चाहता हूँ। उत्‍सुकतावश भी और उसके किए की उसे सजा देने के लिए भी।”
“क्‍या सजा दोगे तुम उसे ?”
“मैं उसका गला काट दूँगा।”—विमल दाँत पीसता बोला।
“ऐसा कर सकोगे ?”
विमल ने जवाब न दिया। नीलम उसके साथ सटकर लेटी हुई थी और वह अपने एक हाथ से हौले-हौले उसके कपोल सहला रहा था। वही सवाल वह कई बार अपने आपसे कर चुका था। जब वह गुस्‍से में होता था तो सोचता था कि अगर सुरजीत उसके सामने पड़ जाये तो वह उसकी तिक्‍का-बोटी एक कर देगा, लेकिन जब गुस्‍से का दौर गुजर जाता था तो उसे उस सवाल का जवाब नहीं सूझता था। अगर आज उसकी बीवी उससे टकरा जाये तो वह क्‍या सलूक करेगा उसके साथ ? क्‍या वह वाकई उसे जान से मार डालेगा ? ऐसा कोई कदम क्या वह उस औरत के खिलाफ उठा सकेगा, जो कभी उसकी ब्‍याहता बीवी थी और जिसके परियों जैसे खूबसूरत चेहरे का अक्‍स उसके जेहन पर उतरते ही वह दीन-दुनिया को भूल बैठता था ? अभी कल वह जगमोहन के सामने यह नारा लगाकर हटा था कि वह उसे पाताल से भी खोज निकालेगा और उसे उसकी करतूतों की सजा देगा।
“तुमने जवाब नहीं दिया ?”—नीलम बोली—“काट सकोगे अपनी बीवी का गला ?”
विमल तब भी खामोश रहा।
“तुम्‍हारी बीवी ने तुम्‍हारे साथ जुल्‍म किया है, यह बात तुम्‍हें आज क्‍यों सूझी है ? यह बात तुम्‍हें तभी क्‍यों नहीं सूझी थी,जब वह जुल्‍म तुम्‍हारे साथ हुआ था ?”
“तब मैं मन में बदले की भावना रखने वाली किस्‍म का आदमी नहीं था। तब मैं एक निहायत कमजोर, धर्मभीरू, खुदा का खौफ खाने वाला, आदतन हर किसी से दबकर रहने वाला इन्सान था। मेरे साथ जो भी बुरा होता था, उसे वाहेगुरु की मर्जी समझकर कबूल कर लेना मेरी आदत में शुमार था। तब अपनी बीवी की बेवफाई को भी मैंने अपने किसी नामालूम गुनाह की सजा माना था। ऐसा न होता तो इलाहाबाद में जेल से निकलने के फौरन बाद सबसे पहले मैंने अपनी बीवी का ही काम तमाम किया होता, लेकिन मैंने ऐसा न किया। ऐसा करना तो दूर, मुझे तो सूझा तक नहीं था कि मुझे ऐसा करना चाहिए था। आगरे की रत्‍नाकर स्‍टील मिल की पे रोल रॉबरी तक मैं कई खून कर चुका था, कई डाके डाल चुका था, लेकिन फिर भी मेरे बुनियादी खयालात में कोई इंकलाबी तब्‍दीली नहीं आयी थी। कई खून कर चुकने के बाद भी मेरे मन में कभी यह खयाल नहीं आया था कि मैं कभी इलाहाबाद जाऊँ और जाकर अपनी बेवफा बीवी और उसके यार को गोली से उड़ा दूँ। मैंने तुम्‍हें द्वारकानाथ के बारे में बताया ही था। मेरे जिन्दगी के बारे में सोचने के बुनियादी तरीके में जो भारी तब्‍दीली आयी थी, वह द्वारकानाथ की वजह से ही आयी थी। उसी ने मुझे यह सबक सिखाया था कि जुल्म सहना जुल्‍म करने वाले के हाथ मजबूत करने के समान होता है। उसी ने मुझ ईंट का जवाब पत्‍थर से देने का सबक सिखाया था। उसकी सोहबत में मेरे जेहन में पहली बार यह खयाल आया था कि मेरी बीवी ने मेरे साथ जो सलूक किया था वह वाहेगुरु की मेरे लिए सजा नहीं थी, बल्‍कि वह मेरी बीवी की एक ऐसी जलील और नापाक करतूत थी, जिसकी सजा उसे मिलनी चाहिए थी।”
“वह तो हुआ, लेकिन वह सजा तुम उसे दे पाओगे ? अपने हाथों से उसका गला काट पाओगे ?”
“क्‍यों नहीं काट पाऊँगा ?”
“अपनी बीवी के रूप का जैसा तुम बखान करते हो, उसको ध्यान में रखते हुए तो मुझे यही लगता है कि तुम उसे अपने सामने पाकर मक्‍खन की तरह पिघल जाओगे और उसे मारने के स्‍थान पर खुद उसकी गोद में गिरकर मर जाओगे।”
विमल ने उसका सिर अपनी तरफ घुमाया और उसे घूरता हुआ बोला—“तुम मेरा मजाक उड़ा रही हो ?”
“हरगिज भी नहीं। लेकिन जैसे भावुक और नर्म दिल आदमी तुम हो, उससे अन्दाजा लगा रही हूँ कि तुम क्‍या करोगे। मेरे सामने गुस्‍से से फुनफुनाना और बात है, अपनी बीवी के सामने...”
“अब वो मेरी बीवी नहीं।”
“लेकिन तुम तो वही मर्द हो, जो कभी उस पर बलिहार जाते थे। तुम्‍हारा दिल तो वही है। रूपवती औरतें मर्दों पर जादू कर देती हैं और अपने सौ गुनाह बख्शवा लेती हैं।”
“उसका जादू अब मुझ पर नहीं चलने वाला और उसका गुनाह ऐसा नहीं जो बख्शा जा सके।”
“मैंने तुम्‍हारी बीवी देखी नहीं। इसलिऐ मैं क्‍या कह सकती हूँ इस बारे में !”
“मैं जब उसकी तलाश में निकलूँगा तो तुम्‍हें साथ लेकर जाऊँगा।”
“मुझे क्‍यों ?”
“ताकि तुम अपनी आँखों से देख सको कि उसका जादू मुझ पर नहीं चला।”
“ओह !”
“और फिर तुम्‍हारा साथ हमेशा की तरह मेरी सुरक्षा की गारण्टी होगा।”
“तुम मुझे फिर झठमूठ की दुल्‍हन बनाओगे ?”
“हाँ।”
उसके चेहरे पर उदासी की घटाएँ छा गयीं।
विमल ने कसकर उसे कलेजे से लगा लिया और उसके कान के साथ अपने होंठ सटाकर बोला—“नीलम, मैं तुमसे आज, अभी, शादी कर सकता हूँ। लेकिन मैं यह नहीं चाहता कि तुम आज शादी करो और कल विधवा हो जाओ। जिन्दगी में थोड़ा इत्‍मीनान, थोड़ा ठहराव आ जाये, सुरक्षा की कोई गारण्टी सामने आ जाये, फिर मैं तुम्‍हें सचमुच की दुल्‍हन बनाऊँगा।”
“वह सब तो तुम कहते हो कि नया चेहरा हासिल होने के बाद हो ही पायेगा।”
“ठीक कहता हूँ। लेकिन अपनी बीवी को मैं नया चेहरा हासिल करने से पहले तलाश करना चाहता हूँ।”
“क्‍यों ?”
“क्‍योंकि मेरा नया चेहरा अगर दुनिया नहीं पहचानेगी तो मेरी बीवी भी तो नहीं पहचानेगी !”
“ओह !”
विमल ने नीलम के जिस्‍म पर अपनी पकड़ तनिक ढीली पड़ जाने दी।
“अपनी बीवी को”—नीलम ने पूछा—“तुम तलाश कहाँ करोगे ?”
“इलाहाबाद।”—विमल बोला। आनन-फानन उसके मानसपटल पर उसकी इलाहाबाद की जिन्दगी के कई नक्श उभरे—“इलाहाबाद जाना होगा।”
“इस बात की क्‍या गारण्टी है कि इतने सालों बाद भी अभी वो इलाहाबाद में ही होगी ?”
“कोई गारण्टी नहीं। लेकिन शुरुआत फिर भी इलाहाबाद से ही करनी होगी। आज की तारीख में अगर वह इलाहाबाद में नहीं है तो यह बात भी इलाहाबाद से ही मालूम हो पायेगी कि वो कहाँ है।”
“मेरे खयाल से तो तुम खामखाह का रिस्‍क ले रहे हो। पहले सीधे सोनपुर डॉक्‍टर स्‍लेटर के पास जाकर प्लास्‍टिक सर्जरी ही करवाते तो अच्छा था।”
“नहीं। अपनी हरजाई बीवी से मेरी मुलाकात मेरी इसी सूरत में होनी चाहिए।”
“तुम्‍हें यह राय देना तो बेकार होगा कि तुम उसका खयाल ही छोड़ दो। जो खतरनाक इरादा तुम अपने मन में संजोए बैठे हो, उसे छोड़ने वाले तो तुम लगते नहीं !”
“ठीक पहचाना तुमने। और मुझे अपने इरादे से बाज आने के लिए कभी कहना भी नहीं।”
“नहीं कहूँगी।”
“वैसे अगर तुम्‍हें मेरे साथ चलने से डर लग रहा हो तो साफ कह दो। फिर मैं...”
नीलम ने उसके मुँह पर अपना हाथ रख दिया।
“ऐसा कभी सोचना भी नहीं।”—वह भर्राये स्‍वर में बोली—“तुम मुझे अपने साथ नहीं ले जाओगे तो मैं जबरन तुम्‍हारे साथ जाऊँगी। तुम्‍हारी सलामती के लिए मैं कुछ भी करूँगी। तुम पर कोई आँच आयी तो मैं तुमसे पहले अपनी जान दे दूँगी। मैं तुम्‍हारा कवच बनकर तुम्‍हारे साथ रहना चाहती हूँ, विमल।”
विमल ने फिर कसकर उसे अपनी बाँहों में भींच लिया।
कितनी ही देर वे खामोश एक-दूसरे की बाँहों में जकड़े पलंग पर पड़े रहे।
“नीलम”—काफी देर बाद वह बोला—“मेरी खातिर पाँच लाख रुपया इकट्ठा करने के मामले में बहुत जल्‍दबाजी दिखाई तुमने। बताया तो होता कि तुम क्‍या करने जा रही हो।”
“तुम्‍हें बताती”—वह संकोचपूर्ण स्‍वर में बोली—“तो तुम मुझे ऐसा करने देते ?”
“नहीं।”—विमल ने स्‍वीकार किया—“हरगिज भी नहीं।”
“मुझे मालूम था।”
“लेकिन”—इस बार विमल के स्‍वर में संकोच का पुट था—“पाँच लाख तो डॉक्‍टर स्‍लेटर की फीस ही है। इसके अलावा...”
“इसके अलावा तुम्‍हारे वो नब्‍बे हजार रुपये भी अभी मेरे पास सुरक्षित मौजूद हैं, जो तुमने मुझे दिल्‍ली में दिये थे।”
विमल ने हैरानी से उसकी तरफ देखा।
“और दस-बारह हजार रुपये मेरे सेविंग बैंक एकाउण्ट में भी हैं।”
“नीलम”—विमल भर्राये स्‍वर में बोला—“तुम्‍हारे अहसानों का बदला मैं कैसे चुका पाऊँगा ?”
“अगर तुम इन बातों को अहसान का दर्जा दोगे तो मैं इसे अपनी तौहीन मानूँगी।”
विमल खामोश हो गया।
काश उस कथित काल-गर्ल वाला एक भी गुण उसकी कुलवन्ती बीवी में होता !
“विमल !”
“हाँ।”
“एक सवाल मैंने तुमसे बहुत बार पूछा है, लेकिन तुम उसे हमेशा टालते आये हो।”
“कौन-सा सवाल ?”
“क्‍या किया था तुम्‍हारी बीवी ने ?”
“बता तो चुका हूँ !”
“इतना ही बता चुके हो कि उसने तुम्‍हारे साथ बेवफाई की थी और तुम्‍हें पहली बार जेल भिजवाने में उसका हाथ था। लेकिन असल में हुआ क्‍या था ?”
“सुनना चाहती हो ?”
“हाँ।”
“वह मेरी ऐसी जिल्‍लत और रुसवाई की दास्‍तान है, जिसे तुम्‍हारे अलावा किसी और के सामने दोहराने की शायद मैं ताब नहीं ला सकता।”
“क्या हुआ था ?”
“सुनो।”
विमल के जेहन पर उसकी पिछली जिन्दगी की न्यूजरील-सी चलने लगी। काल का पहिया वापस घूमता हुआ जहाँ जाकर ठिठका, वहाँ कई डकैतियों के लिए जिम्‍मेदार, कई हत्‍याओं के अपराधी इश्‍तिहारी मुजरिम विमल का कोई अस्‍तित्‍व नहीं था। एक खतरनाक अपराधी के स्‍थान पर उसे एक सीधा-सादा सिख नौजवान दिखाई दिया, जिसका नाम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल था, जो फर्स्ट डिवीजन में बी.कॉम, एल-एल.बी. पास था, जो इलाहाबाद में एरिक जॉनसन नामक कम्‍पनी में एकाउंटेन्ट की इज्‍जतदार नौकरी करता था, जिसकी सुरजीत नाम की एक गुड़िया-सी खूबसूरत बीवी थी, जिसको जिन्दगी से कोई शिकायत नहीं थी, जिसकी दुनिया में सद्भावना और मुहब्‍बत के जल से सींचे जाने वाले सुकून और इत्‍मीनान के फूल खिलते थे, जहाँ आनन्द ही आनन्द था ... आनन्द ही आनन्द था...
“ऐरिक जॉनसन हाथी दाँत और पीतल की फैन्सी आइटम्‍स एक्‍सपोर्ट करने वाली फर्म थी, जहाँ कि मैं एकाउंटेन्ट की बड़ी मुनासिब तनखाह वाली इज्‍जतदार नौकरी करता था। कम्‍पनी का दफ्तर मुट्ठीगंज के इलाके में एक किराये की इमारत में था। उसका हैड ऑफिस मुम्बई में था और इलाहाबाद के अलावा भारत के और भी कई शहरों में उसकी शाखाएँ थीं। ज्ञानप्रकाश डोगरा ब्रांच के मैनेजर का नाम था और वही ब्रांच का सर्वेसर्वा था। पैकर, चपरासी, क्‍लर्क वगैरह को मिलाकर ब्रांच में कोई चौदह कर्मचारी थे, लेकिन डोगरा मेरे साथ कुछ ज्‍यादा ही प्रेम-भाव से पेश आता था। वह एक लगभग पैंतालीस साल का बड़े अच्छे व्यक्‍तित्‍व वाला, हट्टा-कट्टा आदमी था और विधुर था। उसकी दो लड़कियाँ थीं, जो नैनीताल के किसी रेजीडेन्शल स्‍कूल में पढ़ती थी। सुरजीत मुझसे पहले से उसी कम्‍पनी में नौकरी करती थी। वह डोगरा की स्‍टेनो थी। उस वक्‍त तो मैं इस बात की कल्‍पना भी नहीं कर सकता था, लेकिन आज मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि मुझसे शादी करने से पहले से ही सुरजीत की डोगरा से अशनाई थी।
सुरजीत बेहद खूबसूरत थी, सिखनी थी, और पहली निगाह में मुझे भा गयी थी। मेरे साथ उसका व्यवहार प्रारम्‍भ से ही बहुत मीठा था। मेरे मन में उसके लिए प्यार का जो बीज जन्मा था, वह दिन-ब-दिन परवान चढ़ता जा रहा था, लेकिन तब मैं इतना संकोच करने वाला और इतना शर्मीला नौजवान था कि मेरे में इतना हौसला नहीं था कि मैं अपने दिल के भाव उसके सामने उजागर कर पाता।
यूँ ही एक साल गुजर गया।
फिर एक दिन डोगरा ने ही सुरजीत के बारे में मेरे से बात चलाई। उसने मुझे कहा कि सुरजीत मेरी जात-बिरादरी की थी, पड़ी-लिखी थी, खूबसूरत थी और हर लिहाज से एक अच्छी बीवी बनकर दिखा सकने के काबिल थी। अगर मैं हामी भरता तो वह मेरी ओर से सुरजीत के माँ-बाप से, जो कि इलाहाबाद में ही रहते थे, शादी की बात चला सकता था।
मैं भला हामी क्‍यों न भरता ! मैं तो मन ही मन पूजा करता था सुरजीत की। मैं तो इस खयाल से ही बल्‍लियों उछलने लगा कि सुरजीत से मेरी शादी हो सकती थी।
मैंने हामी भर दी।
उस वक्‍त मुझे नहीं मालूम था कि डोगरा क्‍यों सुरजीत की शादी मुझसे कराने को उत्‍सुक था, सुरजीत से शादी हो चुकने के बाद मुझे मालूम हुआ था कि उसके माँ-बाप उसकी शादी लुधियाना में—जहाँ के कि वे मूलरूप से रहने वाले थे—कहीं करने जा रहे थे। यह बात गबन के इल्‍जाम में गिरफ्तार होकर सजा पा चुकने के बाद मेरी समझ में आयी थी कि सुरजीत की शादी अगर इलाहाबाद से बाहर कहीं हो जाती तो दोनों की नापाक रिश्‍तेदारी को फुल स्‍टॉप लग जाता। सुरजीत इलाहाबाद में ही रहे और शादी के बाद भी उसका पहलू गर्म करती रहे, इसीलिए उसने सुरजीत से शादी के लिए मुझे ‘कल्‍टीवेट’ किया था, इसीलिए उसने आनन-फानन मुझे असिस्‍टेण्ट एकाउंटेंट से एकाउंटेंट भी बनवा दिया था और इसीलिए वह मेरे साथ हद से बाहरी मुहब्‍बत से पेश आता था।
मेरे परिवार में मेरे नजदीकी रिश्‍तेदार के नाम पर सिर्फ मेरी माँ थी, जो पंजाब के गुरदारपुर जिले के सोहल नाम के एक गाँव में रहती थी। सुरजीत मुझे पसन्द थी, मेरी पसन्द से मेरी माँ को इनकार नहीं होने वाला था और और किसी से इजाजत लेने की मुझे जरूरत नहीं थी। सुरजीत के माँ-बाप को डोगरा ने बड़ी सहूलियत से मना लिया, उनके न मानने वाली वैसे कोई बात तो थी नहीं। मैं एक खूबसूरत नौजवान था, सिख था, अच्छे घर का था, अच्छी नौकरी करता था, अच्छी तनख्वाह पाता था और फिर उसी शहर में रहता था। और कौन-सा कोई अनोखा गुण चाहिए था उन्हें अपने दामाद में !
मेरी सुरजीत से शादी हो गयी।
गुरुद्वारे में ग्रन्थ साहब के गिर्द उसके साथ फेरे लेकर उस हरजाई और बद्कार औरत को मैंने अपनी धर्मपत्‍नी कबूल किया, जो बाद में मेरी जिन्दगी की हौलनाक तबाही की इकलौती वजह बनी। जिस औरत को मैंने मन, वचन, कर्म से अपनी धर्मपत्‍नी माना, ग्रन्थ साहब के बाद जिसको मैंने अपनी जिन्दगी की सबसे अधिक पूजनीय चीज माना, जिससे शादी हो जाने के बाद मैंने कभी किसी गैर औरत की तरफ निगाह उठाकर नहीं देखा, किसी गैर औरत का खयाल तक आ जाने पर मैंने अपने-आपको धिक्‍कारा और वाहेगुरु से अपनी खता माफ करवाई, उसने न केवल मुझे धोखा दिया, बल्‍कि धोखा देने के लिए ही मुझसे शादी की। उसने मुझसे इसलिए शादी की ताकि उसके यार से उसकी आशनाई का जलील सिलसिला उसकी शादी के बाद भी मुतवातर चलता रहता।
मैं, सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल नाम का अक्‍ल का अन्धा, अपनी खूबसूरत बीवी की जादुई मुहब्‍बत में गिरफ्तार, कभी सपने में भी न सोच सका कि मेरे साथ इतना बड़ा धोखा हो सकता था। मैं तो उन दिनों ‘ट्रांस’ की हालत में रहता था। उन दिनों मैं अपने आपको दुनिया का सबसे ज्‍यादा खुशकिस्‍मत, दुनिया का सबसे ज्‍यादा सुखी आदमी समझता था। मेरे पाँव जमीन पर नहीं पड़ते थे। हर क्षण मेरा जी चाहा करता था कि मैं मस्‍त होकर नाचने लगूँ, झूमकर गाने लगूँ। उन दिनों दुनिया की हर चीज मुझे खूबसूरत लगती थी, और इसमें बसा हर शख्स मुझे देवता लगता था। मेरी निगाह में हर आदमी भला और गले लगाने के काबिल था। मेरा जी चाहा करता था कि जो मुझसे मीठा बोले, मैं उस पर कुर्बान हो जाऊँ। मुझे दुनिया या हालात ने धोखा नहीं दिया। मुझे मेरी मानसिक स्‍थिति ने धोखा दिया। मैंने अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा, सबसे नामुराद धोखा इसलिए नहीं खाया, क्‍योंकि मुझे धोखा देने वाले लोग बहुत बुरे थे, मैंने वह धोखा इसलिए खाया क्‍योंकि मैं बहुत भला था। ऐसा न होता तो मैं इतना अक्‍ल का अन्धा भी न होता कि मुझे डोगरा और अपनी बीवी की आशनाई की भनक न लगती।
शादी के बाद मेरी बीवी ने एरिक जॉनसन की नौकरी छोड़ दी, यह कहकर छोड़ दी कि अब वह अपना सारा ध्यान घर-गृहस्‍थी सम्‍भालने में और पति की भरपूर सेवा करने में लगाना चाहती थी। मैं बहुत खुश हुआ। कितनी समझदार, कितनी फरमाबरदार, कितनी निष्‍ठावान बीवी मिली थी मुझे ! डोगरा की मेहरबानी से कम्‍पनी में मेरी तनखाह बढ़ गयी थी, इसलिए उसके नौकरी न करने से जहाँ तक घर का निजाम चलाने का सवाल था, उसमें कोई आर्थिक कठिनाई नहीं आनी चाहिए थी। दिल से मैं यह चाहता था कि जब तक कोई बाल-बच्‍चा नहीं हो जाता था, तब तक सुरजीत नौकरी करती रहती, लेकिन अपने दिल की बात मैंने उस पर जाहिर नहीं की थी और उसका नौकरी छोड़ देने का फैसला खुशी से कबूल कर लिया था। उस वक्‍त मुझे क्‍या मालूम था कि नौकरी उसने डोगरा के कहने पर छोड़ी थी, इसलिए छोड़ी थी, ताकि जब मैं दफ्तर में बैठा रुपये-पैसे के हिसाब में सिर खपा रहा होऊँ, तब डोगरा मेरे ही घर जाकर मेरी खूबसूरत बीवी से रंगरलियाँ मना रहा हो। उस वक्‍त मुझे क्‍या मालूम था कि डोगरा क्‍यों मुझ पर कम्‍पनी चलाने की ज्‍यादा से ज्‍यादा जिम्‍मेदारी लादता रहता था। जितना ज्‍यादा मैं ऑफिस में व्यस्‍त रहता, उतने ही ज्‍यादा इत्‍मीनान से वह मेरी बीवी के पहलू में गर्क हो सकता। वह दिन में कहीं जाता था तो मुझे खास तौर से ताकीद करके जाता था कि उसके लौटने तक मैं दफ्तर से कहीं जाऊँ नहीं। मैं इस बात में अपनी इज्‍जत समझता था कि कम्‍पनी के पुराने कर्मचारियों के मुकाबले में वह मुझ पर ज्‍यादा भरोसा करता था और अपनी गैरहाजिरी में कम्‍पनी का निजाम सम्‍भालने की इज्‍जत सिर्फ मुझे बख्शता था।
काश, मेरी अक्‍ल पर पत्‍थर न पड़े होते और मैं शुरू में चेत गया होता।
मैं अनपेक्षित रूप से घर न पहुँच जाऊँ, इसका इन्तजाम मेरी धर्मपत्‍नी भी करती थी। जिस रोज उन दोनों का मेरे घर में अभिसाररत होने का प्रोग्राम होता था, उस रोज वह मेरे घर से रवाना होने पहले मुझे सुबह ही बता देती थी कि वह अपनी माँ या अपनी किसी सहेली से मिलने जाने का इरादा रखती थी, इसलिए वह दिन में घर पर नहीं होगी। अपनी शादी के शुरुआत के दिनों में मैं अपनी खूबसूरत बीवी का जुनून की हद तक दीवाना था, उसकी तौबाशिकन जवानी और बेपनाह हुस्‍न का नशा मुझ पर इस कदर हावी था कि मैं कभी दफ्तर से आधे दिन की छुट्टी लेकर या कभी लंच में बिना किसी को बताए दफ्तर से भागकर घर पहुँच जाता था और उसकी गोद में गिरकर मर जाता था। मेरी ऐसी कोई हरकत मुझे अप्रत्‍याशित रूप से घर न ले आये, इसी की दोहरी गारण्टी के तौर पर डोगरा मुझे ताकीद कर के जाता था कि उसके लौटने तक मैं दफ्तर से न उठूँ और मेरी बीवी मुझे कह देती थी कि वह दिन में घर पर नहीं होगी।
लेकिन कभी तो मेरे करम फूटने ही थे। कभी तो अपने साथ होते मुतवातर जुल्‍म की मुझे खबर लगनी ही थी।
शादी के कोई एक साल बाद वह नामुराद घटना घटी, जो मेरी तबाही और बरबादी की हौलनाक दास्‍तान का पहला अध्याय बनी।
कयामत का दिन शायद उतना नामुराद और तबाही बरपाने वाला न होगा, जितना कि वह दिन मेरे लिए था।
उस दिन सुबह से ही बड़ी ठण्डी हवा चल रही थी। वातावरण में बहार के ताजे फूलों की सोंधी-सोंधी खुशबू बसी हुई थी। दिलो-दिमाग पर किसी तरह का बोझ नहीं था। सारी दुनिया से मेरा अमन-शान्ति का रिश्‍ता कायम था। मेरी बीवी हमेशा खूबसूरत लगती थी, हर हाल में खूबसूरत लगती थी, लेकिन उस रोज तो वह विशेषरूप से सजी हुई थी और यूँ चमक रही थी, जैसे अभी ब्‍याही हुई आयी हो। मेरा जी चाह रहा था मैं भूखे बाज की तरह उस पर झपट पड़ूँ लेकिन मैंने उस रोज जरा जल्‍दी ऑफिस पहुँचना था। कोई खास काम था, जिसके लिए डोगरा ने मुझे कल ही कह दिया था कि मैं वक्‍त से थोड़ा जल्‍दी पहुँचूँ।
“सुनो।”—सुरजीत मेरी छाती से लगती हुई बोली—“आज मैं जरा माँ के घर जा रही हूँ।”
“आजकल तुम माँ के घर जरा ज्‍यादा नहीं जाने लगी हो ?”—मैं बोला।
“फिर क्‍या हो गया ?”—उसने मेरी कमीज का एक बटन खोल दिया और मेरी छाती के बालों में अपनी नाजुक, गोरी, सुडौल उँगलिया फिराती हुई बोली—“माँ आखिर माँ होती है।”
“और पति कुछ नहीं होता ?”—मैं उपहासपूर्ण स्‍वर में बोला।
वह तुरन्त मुझसे परे हट गयी और मुँह बिसूरकर बोली—“क्‍यों नहीं होता ? पति तो सबकुछ होता है। अगर तुम्‍हें मेरे माँ से मिलने जाने से एतराज है तो मैं नहीं जाती।”
“लो !”—मैं हैरानी से बोला—“खामखाह ! मैंने कब कहा कि तुम माँ से मिलने न जाओ। मेरी तरफ से तुम रोज जाओ।”
“तुम खफा तो नहीं हो जाते हो मेरे मायके ज्‍यादा जाने से।”
“कतई नहीं। यह तो अच्छा है कि तुम्‍हारा मायका इसी शहर में है और दिन में कभी-कभार तुम वहाँ चली जाती हो। यहाँ घर में अकेली बैठकर भी तो बोर ही होना होता है तुमने !”
“और नहीं तो क्‍या ?”
“मुझे भी बहुत मुद्दत हो गयी है तुम्‍हारे माँ-बाप से मिले। चलो, आज मैं भी चलता हूँ तुम्‍हारे साथ।”
“अरे, नहीं।”—वह एकदम बौखलाकर बोली।
“क्‍यों ?”—मैं सकपकाया।
“तुमने ऑफिस नहीं जाना ?”
“भाड़ में गया ऑफिस। ऑफिस तो मैं रोज ही जाता हूँ। आज मैं छुट्टी करूँगा।”
“आज कैसे छुट्टी करोगे तुम ? आज तो उल्‍टे तुमने जल्‍दी जाना है !”
मुझे, अक्‍ल के अन्धे सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल को, उस वक्‍त नहीं सूझा कि मेरी बीवी को कैसे मालूम था कि उस रोज मैंने ऑफिस जल्‍दी जाना था।
“मैं नहीं जाता।”—मैं जिदभरे स्‍वर में बोला—“मैं एक दिन ऑफिस नहीं गया तो क्‍या ऑफिस बन्द हो जायेगा ? मुर्गा बांग नहीं देगा तो क्‍या सवेरा नहीं होगा ? चलो, आज मैं भी तुम्‍हारे साथ चलता हूँ।”
“लेकिन... लेकिन ...”
“क्‍या लेकिन ?”
“लेकिन मैं अभी सीधी मायके नहीं जा रही हूँ।”
“तो और कहाँ जा रही हो ?”
“पहले मैंने एक सहेली के घर जाना है। वहाँ हो सकता है उसका और मेरा नून शो में पिक्‍चर जाने का प्रोग्राम बन जाये।”
“अरे, पिक्‍चर क्‍या तुम्‍हें मैं नहीं ले जा सकता ?”
“सरदारजी।”—वह हौले से मेरे पेट में घूँसा जमाती हुई बोली—“सीधे-सीधे दफ्तर जाओ और रिजक कमाने की सोचो। तफरीह छुट्टी वाले दिन होती है। परसों इतवार है। जहाँ कहोगे चलेंगे।”
“ठीक है। मान ली तुम्‍हारी बात। लेकिन अब एक बात तुम्‍हें मेरी भी माननी पड़ेगी।”
“क्‍या ?”—वह सशंक स्‍वर में बोली।
मैंने उसे बाँह पकड़कर समीप घसीटा और उसे अपनी छाती के साथ दबोच लिया।
“अरे छोड़ो, छोड़ो।”—वह मेरी पकड़ में छटपटाती हुई बोली।
“क्‍यों छोड़ूँ ?”—मैंने उसके होंठों पर अपने होंठ रखने का असफल प्रयत्‍न किया।
“यह कोई वक्‍त है ?”
“है।”
उसने जबरन मुझे परे धकेल दिया।
“तुम्‍हें ऑफिस को देर हो रही है। डोगरा साहब खामखाह खफा होंगे।”
“ठीक है।”—मैं असहाय भाव से बोला—“लेकिन आज शाम को तुम्‍हारी खैर नहीं।”
“ठीक है।”—वह अपने कपड़े संवारती हुई बोली।
क्‍यों न संवारती अपने कपड़े वो ! क्‍यों बिगड़ने देती वो अपना इतने यत्‍न से किया हुआ मेक-अप ! मेरी धर्मपत्‍नी कोई मेरे लिए थोड़े ही सजी-संवरी थी !
अपने भीतर एक अजीब-सी बेचैनी और खालीपन का अनुभव करता मैं घर से विदा हो गया।
वह दरवाजे तक मेरे साथ आयी।
“आज अपने टिफिन में।”—दरवाजे पर वह बोली—“तुम्‍हें वो चीज मौजूद मिलेगी, जो तुम्‍हें सबसे ज्‍यादा पसन्द है।”
“जो चीज मुझे सबसे ज्‍यादा पसन्द है”—मैं बड़े अरमानभरे स्‍वर में बोला—“वह तो पीछे घर में छूटी जा रही है !”
“वो कौन-सी चीज हुई ?”
“सुरजीत कौर।”
“पागलों जैसी बातें करते हो। अरे, मैं कीमा मटर की बात कर रही हूँ।”
“और मैं बीवी मुसल्‍लम की बात कर रहा हूँ।”
“वह शाम को आकर खा लेना। तैयार रखूँगी।”
“वादा ?”
“हाँ।”
मैं ऑफिस के लिए रवाना हो गया।
ऑफिस मैं लेट पहुँचा, लेकिन टाइम से मैं फिर भी पहले पहुँचा।
डोगरा मुझसे पहले पहुँचा हुआ था।
एकाउण्ट का एक ढाई मिनट में समझ में आ जाने वाला नुक्‍ता वह मुझसे पौना घण्टा समझता रहा।
फिर उसने मुझे कुछ पार्टियों के एकाउण्ट्स की डुप्लीकेट कापियाँ बनाने का आदेश दिया। वह काम ऐसा था कि उसके लिए रिकार्ड में से पुराने खाते भी निकलवाने पड़ते थे। सारा काम मुकम्मल होने तक शाम हो जाना मामूली बात थी।
“मैं एक्‍सपोटर्स की एक कांफ्रेंस में जा रहा हूँ।”—वह बोला—“पता नहीं वहाँ मुझे कितना टाइम लगेगा। मेरी गैरहाजिरी में ऑफिस का पूरा खयाल रखना और ऑफिस को किसी और के भरोसे छोड़कर मत जाना।”
मैंने सहमति से सिर हिला दिया। वैसा आदेश मुझे कोई पहली बार नहीं मिल रहा था।
डोगरा चला गया।
मैं अपने काम में व्यस्‍त हो गया।
साढ़े बारह बजे तक ऑफिस में इतना काम रहा कि मुझे सिर उठाने तक की फुरसत न मिली।
तभी एकाएक एक चपरासी भागता हुआ मेरे केबिन में दाखिल हुआ।
“सोहल साहब !”—वह आतंकित स्‍वर में बोला—“सोहल साहब !”
“क्‍या हो गया ?”—मैं हड़बड़ाकर बोला !
“बाहर गोली चल गयी है।”
“क्‍या ?”
“कोई दंगा-फसाद हो गया है।”
“कैसा दंगा-फसाद ?”
“हिन्दू-मुसलमानों का। वजह अभी किसी को नहीं मालूम लेकिन इलाके में सीआरपी पहुँची हुई है। आँसू गैस छोड़ी जा रही है और सुना है, किसी भी क्षण इस इलाके में कर्फ्यू लगने वाला है।”
मैं घबराकर उठ खड़ा हुआ।
मैं केबिन से बाहर निकला।
ऑफिस के सारे लोग मेरे इर्द-गिर्द जमा हो गये।
“अगर कर्फ्यू लग गया”—कोई बोला—“तो हम लोग घर कैसे जायेंगे ?”
“ऐसी नौबत आने से पहले हमें यहाँ से निकल चलना चाहिए।”—कोई और बोला।
“दफ्तर बन्द कराओ।”
“और दफ्तर भी बन्द होने लगे हैं।”
“दुकानें तो बन्द हो भी चुकी हैं।”
“हम कर्फ्यू में नहीं फँसना चाहते।”
“दफ्तर बन्द कराओ।”
“कौन कराए ?”—मैं बोला—“डोगरा साहब तो हैं नहीं ! वही आकर कोई निर्णय लेंगे।”
“वो तो पता नहीं कब आयें !”
“अगर कर्फ्यू पहले ही लग गया तो वो लौटेंगे कैसे ?”
“सोहल साहब, उनकी गैरहाजिरी में दफ्तर के इन्चार्ज आप हैं। आप दफ्तर बन्द कराइए।”
“मैं इतनी बड़ी जिम्‍मेदारी कैसे ले सकता हूँ ?”—मैं घबरा कर बोला।
“तो ठीक है। आप बैठिए दफ्तर में। हम तो जा रहे हैं।”
और ऑफिस के कर्मचारी सचमुच ही एक-एक करके वहाँ से खिसकने लगे।
मैंने एक खिड़की से बाहर झाँका।
बाहर सड़क सुनसान पड़ी थी।
आँसू गैस के गोले फूटे कहीं और थे, लेकिन उनका धुआँ वहाँ तक पहुँच रहा था।
मेरे देखते-देखते सीआरपी के सशस्‍त्र जवानों से भरा एक ट्रक सड़क पर से गुजरा।
मेरे छक्‍के छूट गये।
“साहब”—चपरासी बोला—“लोग तो भागे जा रहे हैं। हमारे लिए क्‍या हुक्‍म है ?”
मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़-सा खिड़की के पास खड़ा रहा।
काश, उस वक्‍त डोगरा वहाँ लौट आता और हालात की जिम्‍मेदारी खुद सम्‍भाल लेता।
“साहब !”
दूर कहीं से गोली चलने की आवाज आयी।
“ठीक है।”—मैं निर्णयात्‍मक स्‍वर में बोला—“ऑफिस बन्द कर दो।”
आनन-फानन ऑफिस बन्द कर दिया गया
मैने ऑफिस की चाबियाँ और अपना टिफिन सम्‍भाल लिया। टिफिन में मौजूद अपनी पसन्दीदा चीज कीमा मटर को झाँकने का भी मौका मुझे नहीं मिला था।
बाहर हंगामे के आलम से एकदम विपरीत दिशा में काफी आगे निकल आने के बाद कहीं मुझे एक रिक्‍शा मिला।
मैं रिक्शा पर सवार हो गया।
“कहाँ चलूँ ?”—रिक्शावाला बोला।
मैं सोच में पड़ गया।
अपने घर जाऊँ या अपनी ससुराल।
लेकिन सुरजीत की ससुराल में होने की कोई गारन्टी नहीं थी। वह अपनी सहेली के घर में भी बैठी हो सकती थी और किसी फिल्‍म के नून शो में भी मौजूद हो सकती थी।
मैंने घर ही जाने का फैसला किया।
अपना फैसला मैंने रिक्शा वाले को सुना दिया।
मैं अपने घर पहुँचा।
अपने फ्लैट के मुख्यद्वार पर मुझे ताला लटका नहीं दिखाई दिया।
यानी कि सुरजीत घर थी।
मैंने दरवाजे पर दस्‍तक दी।
भीतर टेप-रिकॉर्डर बज रहा था। विलायती संगीत की धीमी-धीमी आवाज मुझे बाहर सुनाई दे रही थी।
दरवाजा न खुला।
न ही भीतर से संगीत के अलावा कोई नई आवाज आयी।
मैंने बेसब्रेपन से दरवाजे पर दोबारा दस्‍तक दी।
“कौन ?”—इस बार दरवाजे के पार से मुझसे सवाल किया गया।
आवाज मेरी बीवी की थी।
वह पहला मौका था, जब फौरन दरवाजा खोलने की जगह उसने पहले यह जानना चाहा था कि बाहर कौन आया था।
“मैं !”—मैं तनिक उतावले स्‍वर में बोला।
उत्तर में वातावरण में मरघट का-सा सन्‍नाटा छा गया। टेप से निकलती संगीत की धीमी-धीमी आवाज आनी बन्द हो गयी।
एक मिनट बाद दरवाजा खुला।
एक मिनट बाद भी इसलिए खुला, क्‍योंकि दरवाजा तो उसे खोलना ही पड़ना था।
उस वक्‍त वह उस प्रकार गुड़िया-सी सजी नहीं हुई थी, जैसी मैं उसे सुबह छोड़कर गया था। उस वक्‍त उसके जिस्‍म पर बादामी रंग के किसी विदेशी कपड़े का वह शानदार सूट मौजूद नहीं था, जिसमें मैं उसे सुबह देखकर गया था। उस वक्‍त वह हैण्डलूम का ढीला-ढीला-सा गाउन पहने थी, जो वह रात को सोते वक्‍त पहना करती थी—पहना क्‍या करती थी, गले में पिरो भर लिया करती थी। गाउन का कपड़ा खूब मोटा था, लेकिन रोशनी का साधन क्‍योंकि उसके पीछे था, इसलिए मुझे ऐसा अहसास हुआ कि उसके जिस्‍म पर उस वक्‍त सिर्फ यह गाउन ही था। उसके बाल उस सलीके से संवरे हुए नहीं थे, जैसे कि सजाकर रखने की उसे आदत थी। और—
और वह बद्हवास लग रही थी।
क्‍यों बद्हवास लग रही थी, वह मुझे फ्लैट में कदम रखने के बाद मालूम हुआ।
मालूम होना ही था।
“आप”—वह नकली हैरानी जाहिर करती हुई बोली—“आज जल्‍दी कैसे आ गये ?”
“शहर में दंगा हो गया है।”—मैं किसी अनजाने खतरे से, किसी अनहोनी बात से खामखाह सहमा हुआ फ्लैट में दाखिल हुआ—“कर्फ्यू लगने वाला था, इसलिए ऑफिस बन्द हो गया।”
भीतर कदम पड़ते ही मैं थमककर खड़ा हो गया।
मेरी बैठक में मेरे सामने मेरा मैनेजर डोगरा बैठा था।
“डोगरा साहब अभी आये हैं।”—मेरी बीवी जल्‍दी से बोली—“कह रहे थे इधर से गुजर रहे थे, मुझे नमस्‍ते कहने चले आये।”
और आपने इनकी नमस्‍ते कबूल करने के लिए—मैंने मन ही मन सोचा—फ्लैट का दरवाजा भीतर से बन्द रखना जरूरी समझा। मद्धम रोशनी और रोमांटिक संगीत से नमस्‍ते का एक खास तरह का माहौल बनाना जरूरी समझा और इनके सामने उस पोशाक में पेश होना जरूरी समझा, जिसमें कोई गैरतमन्द औरत किसी गैर मर्द के सामने पड़ना गवारा नहीं कर सकती।
लेकिन वह सब मैंने मन में ही सोचा। शॉक की जिस हालत में मैं उस वक्‍त था, उसमें मेरे मुँह से बोल न फूटा। मेरी जुबान को ताला लग गया। मुझे सूझा ही नहीं कि मैं क्‍या करूँ, क्‍या कहूँ ! मैं कोई हिंसक प्रवृत्ति का आदमी होता तो उस क्षण शायद डोगरा का—और अपनी बीवी का भी—खून कर देता, लेकिन मैं यूँ बुत की तरह उनके सामने खड़ा था जैसे गुनहगार मैं था, जिसने एकाएक वहाँ पहुँचकर उनकी तनहाई में खलल डाला था।
मेरा मैनेजर मेरे घर कई बार आया था, लेकिन मेरी जानकारी में, मेरी गैरहाजिरी में कभी नहीं आया था। उस वक्‍त मेरी जुबान को ऐसा ताला लगा कि मैं उससे इतनी मामूली-सी बात न पूछ सका कि वह वहाँ कैसे आया था।
मेरा दिमाग सब कुछ समझ रहा था, मेरा दिल सब कुछ महसूस कर रहा था, लेकिन दिल और दिमाग और जुबान और हौसले की कोई रिश्‍तेदारी उस नामुराद घड़ी में पैदा नहीं हो रही थी।
फिर डोगरा ने बैठे-बैठे ही हाथ बढ़ाकर मुझसे हाथ मिलाया, यूँ हाथ मिलाया जैसे घर उस हरामजादे का था और मैं वहा मेहमान आया था। जबरन मुस्‍कराते हुए उसने मुझे बैठने के लिए भी कहा।
वहाँ बैठने के स्‍थान पर चेहरे पर एक खिसियाई-सी मुस्‍कराहट लिए मन-मन के कदम रखता मैं पिछले कमरे की तरफ बढ़ा। मैं वहाँ से यूँ खिसका था, जैसे जो कुछ मैंने देखा-सोचा था, वह मेरे वहाँ से हट जाने से अपने-आप ही मेरे जेहन से पुँछ जाने वाला था या जैसे किसी जादू के जोर से एक शाश्‍‍वत सत्‍य सपने में तब्‍दील हो जाने वाला था।
पिछला कमरा बैडरूम था।
उस कमरे में दाखिल होते ही टिफिन अपने-आप ही मेरे हाथ से गिर गया। पलंग की चादर पर फैली बेशुमार सिलवटें अपनी कहानी आप कह रही थीं। सुरजीत का बादामी रंग का सूट तिरस्‍कृत-सा ड्रेसिंग टेबल के समीप रखे स्टूल पर पड़ा था उसकी अँगिया पलंग की पीठ पर टंगी हुई थी। जो गाउन वह पहने थी, वो उसने घण्टी बजने के बाद ही पहना मालूम होता था—शलवार-कमीज पहनने में आखिर वक्‍त लगता था—गले से टखनों तक आने वाले उस गाउन को तो उसने अपने गले में पिरो भर लेना था।
डोगरा कपड़े पहनने के मामले में या तो बहुत ज्‍यादा फुर्तीला था या फिर अभिसार की वह बैठक अपने समापन पर थी, वह वहाँ से विदा लेने की ही तैयारी कर रहा था।
फिर मेरा खून खौल उठा। मेरी गैरत मुझे कुछ कर गुजरने के लिए ललकारने लगी। बैडरूम की अस्‍तव्यस्‍तता के दृश्‍य ने मेरे भीतर जैसे कोई स्‍विच ऑन कर दिया, जैसे मुझे याद दिला दिया कि मैं एक इन्सान का बच्‍चा था, मैं एक गैरतमन्द मर्द था, जिसकी गैरत को जब वैसा जूता मारा जाता था तो वह या तो जान ले लेता था या जान दे देता था।
मुटि्ठयाँ भींचे और आँखों में कहर लिए मैं वापस बैठक में लौटा।
डोगरा वहाँ नहीं था।
“कहाँ गया ?”—मैं साँप की तरह फुँफकारा।
मेरा वह रौद्र रूप देखकर सुरजीत के छक्‍के छूट गये। उसके मुँह से बोल न फूटा। वह पत्ते की तरह काँपती दीवार के साथ जा लगी।
मैं उसके सामने जा खड़ा हुआ।
उसका चेहरा कागज की तरह सफेद था और वह यूँ आतंकित लग रही थी, जैसे वह अभी मरकर गिर जाने वाली थी।
“डोगरा साहब चले गये।”—वह बड़ी मुश्‍किल से कह पायी।
“वह तो मुझे भी दिखाई दे रहा है, लेकिन एकाएक क्‍यों चले गये ?”
“उन्हें कोई जरूरी काम था।”
“जो उन्हें मेरी सूरत देखते ही याद आ गया था !”
वह खामोश रही।
“वैसे तुमने ठीक से एन्टरटेन किया था न उन्हें, उनकी मेहमाननवाजी में, उनकी खातिरदारी में कोई कसर तो नहीं छोड़ी थी तुमने ?”
उसके मुँह से बोल न फूटा।
“कब से चल रहा है यह सिलसिला ?”
“क-कौन...कौन-सा...कौन-सा सिलसिला ?”
मैने उसके गिरहबान को दोनों हाथों से पकड़ा और एक मजबूत झटके से उसके गाउन को नीचे तक फाड़ दिया। उसका फटा हुआ गाउन दरवाजे के दो पल्‍लों की तरह से सामने से खुल गया।
मेरा शक सही था।
गाउन के नीचे वह एकदम नंगी थी।
“यह सिलसिला।”—मैं बोला !
अपना नंगा जिस्‍म छुपाने के लिए वह दोहरी हो गयी, लेकिन मैंने उसे उसके बालों से पकड़ लिया और बड़ी बेरहमी से उसे सीधा कर दिया।
वह रोने लगी।
मैंने एक हसरतभरी निगाह उसके दूध जैसे गोरे जिस्‍म पर डाली। उसके वक्ष के उभार, उसकी कमर के खम, उसके कूल्‍हे के भारीपन और उसकी संगमरमर जैसी जांघों की सुडौलता को देखकर मेरे दिल से एक आह-सी निकल गयी। क्रोध और बेबसी में मेरी आँखों में आँसू आ गये। क्‍या करूँ मैं उस बद्कार औरत का !
मैंने उसे कन्धों से पकड़कर झकझोरा और फिर अपना सवाल दोहराया—“कब से चल रहा है यह सिलसिला ?”
मुझे पिघलता देखकर वह तनिक दिलेर हो गयी। उसे अपने अप्सराओं को मात कर देने वाले खूबसूरत जिस्‍म की सम्‍मोहन शक्‍ति पर कितना भरोसा था, वह इसी से साबित होता था कि रंगे हाथों पकड़ी जाने के बावजूद वह मेरी अखों में धूल झोंकने की कोशिश कर रही थी, मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रही थी।
“तुम मुझे गलत समझ रहे हो।”—वह रोती हुई बोली—“जो तुम समझ रहे हो, वो बात नहीं है।”
“तो क्‍या बात है ?”—मैं कहरभरे स्‍वर में बोला।
“मैं अभी-अभी वापस लौटी थी। मैंने अपने कपड़े उतारे थे कि दरवाजे पर दस्‍तक पड़ गयी थी। मैंने यही गाउन पहन लिया था। दरवाजा खोला था तो पाया था कि वह आया था। आखिर वह तुम्‍हारा साहब था, मैं उसे भीतर न बुलाती तो क्‍या करती ?”
“दरवाजा क्‍यों बन्द किया ?”—मैं गरजा—“भीतर से कुण्डी क्‍यों लगाई ?”
“वह सब अनजाने में हो गया। आदतन हो गया।”
“भीतर बैडरूम की दुर्गति कैसे हुई ?”
“वह तो सुबह से ही वैसी हालत में था, यहाँ से जाती बार मैं सफाई करके नहीं गयी थी।”
“रोमांटिक म्‍यूजिक बजाने की, मद्धम बत्तियाँ जलाने की क्‍य जरूरत थी ?”
“वह सब मैंने उसके लिए नहीं किया था। अपने लिये किया था। मैं आराम करने की तैयारी कर रही थी।”
“अगर कुछ बात नहीं थी तो वह भाग क्‍यों गया ?”
“इसका जवाब मैं कैसे दे सकती हूँ ? यह तो तुम उससे जाकर पूछो।”
“तुम अभी लौटी हो ?”
“हाँ।”
“कहाँ से ? अपनी माँ के घर से ?”
“हाँ...। न-नहीं। अपनी एक सहेली के घर से।”
“मुझे अपनी उस सहेली के घर लेकर चलो। अभी। इसी हालत में। अगर तुम्‍हारी वह सहेली कह देगी कि तुम उसके पास आयी थीं तो समझ लेना कुछ नहीं हुआ, लेकिन अगर यह बात झूठ निकली तो कसम है मुझे वाहेगुरु की, मैं तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा।”
वह बुरी तरह से सहम गयी, रोना भूल गयी।
“हरामजादी ! कमीनी !”—मैंने एक झन्‍नाटेदार थप्पड़ उसके चेहरे पर रसीद किया—“तू कहीं नहीं गयी थी। तू हर क्षण यहीं थी और तेरा वह यार भी हर क्षण यहाँ तेरे साथ था। यह तुम दोनों की मिलीभगत थी। तुम दोनों शुरू से ही मेरी आँखों में धूल झोंक रहे हो और मिलकर मुझे बेवकूफ बना रहे हो।”—मैंने उसके बालों से पकड़कर उसे झिंझोड़ा—“कमीनी ! कुतिया ! तूने मेरे मुँह पर थूका है। तूने मेरे विश्‍‍वास का गला घोंटा है। तूने मेरी इन्सानियत के मुँह पर कालिख पोती है। ग्रन्थ साहब के फेरे लेकर जिस मर्द को तूने अपना पति माना था, उसकी इज्‍जत और गैरत के मुँह पर तूने जूता मारा है।”—मैने उसके बालों को छोड़े बिना उसके खूबसूरत चेहरे पर एक और झांपड़ रसीद किया—“हर्राफा ! बेवफा औरत ! बोल ! बोल तूने ऐसा क्‍यों किया ?”
“मुझे माफ कर दो।”—उसने आर्तनाद किया—“मुझे माफ कर दो। मुझ पर रहम खाओ।”
“तूने मुझ पर रहम खाया ?”—मैं उसकी छाती में एक घूँसा जमाता हुआ गरजा—“तूने मुझ पर रहम खाया, बेहया औरत ?”
“दारजी।”—वह गिड़गिड़ाई—“मैं तुम्‍हारे काबिल नहीं। तुम मुझे छोड़ दो।”
“वह तो मैं करूँगा ही, लेकिन तेरी अगली मंजिल भी मैं निर्धारित करूँगा। सुरजीत कौर, आज अगर मैंने तेरी नापाक रूह को तेरे नापाक जिस्‍म से जुदा न किया तो वाहेगुरु करे जिन्दगी में कभी मुझे दरबार साहब की देहरी पर मत्‍था टेकना नसीब न हो।”
मेरा एक और वज्र प्रहार उसके शरीर पर कहीं टकराया। उसके मुँह से एक घुटी हुई चीख निकली।
फिर एकाएक वह मेरी पकड़ से छूट गयी और मुख्यद्वार की तरफ भागी। मैं भेड़िये की तरह उस पर झपटा। आधे रास्‍ते में ही मैंने उसे बालों से पकड़कर वापस घसीट लिया और उसे मुख्य द्वार से विपरीत दिशा में धकेल दिया।
उस वक्‍त मुझ पर शैतान सवार था। उस वक्‍त विवेक से मेरा नाता मुकम्‍मल तौर पर टूट चुका था।
बैठक में एक दीवान बिछा हुआ था, जिसमें एक किरपान मौजूद थी। वह वह किरपान थी, जिसको कमर से बांधकर मैंने सुरजीत कौर से शादी करवाई थी। मैंने एक झटके से दीवान का ढक्‍कन उठाया और भीतर से किरपान निकाल ली। किरपान को म्‍यान से निकालकर म्‍यान मैंने एक तरफ उछाल दी और आँखों में खून लिए वापस घूमा।
मेरी बीवी दौड़कर बैडरूम में घुस गयी थी और उसने बीच का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया था।
फ्लैट की निकासी का मुख्यद्वार के अलावा और कोई रास्‍ता नहीं था और उसकी स्‍थिति ऐसी थी कि वह गला फाड़-फाड़कर भी चिल्‍लाती तो उसकी पुकार सुनकर कोई उसकी मदद के लिए वहाँ नहीं आने वाला था।
मैं बीच के दरवाजे के पास पहुँचा और रोड़ी कूटने वाले इंजन की ठोकरों से ज्‍यादा मजबूत अपने पाँव की ठोकरें उस दरवाजे पर बरसाने लगा।
भीतर मेरी बीवी आतंकित भाव से चीख रही थी, चिल्‍ला रही थी, अपनी जानबख्शी की ऐसी फरियादें कर रही थी, जो अपने जुनून के उस आलम में मेरी समझ में भी नहीं आ रही थीं।
दरवाजा कोई खास मजबूत नहीं था। वह बुरी तरह चरमरा रहा था और मेरे पाँव की अगली किसी भी ठोकर से वह उखड़ जाने वाला था।
तभी दरवाजा टूट गया।
हाथ में किरपान लिए मैं भीतर दाखिल होने ही वाला था कि एकाएक मुझे अपने पीछे किसी की उपस्‍थिति का आभास मिला। लेकिन इससे पहले कि मैं घूमकर देख पाता कि मेरे पीछे कौन था, मेरी खोपड़ी के पृष्‍ठभाग पर किसी भारी चीज का भरपूर प्रहार पड़ा। मेरी आँखों के सामने लाल-पीले सितारे नाच गये। किरपान मेरे हाथ से निकल गयी और झनझनाती हुई फर्श पर जा गिरी। मेरे घुटने मुड़ने लगे और आँखें उलटने लगीं। फिर मेरे मुँह से कराह भी न निकली और मैं बैडरूम के टूटे दरवाजे के सामने फर्श पर ढेर हो गया।
तुरन्त मेरी चेतना लुप्त हो गयी।
जब मुझे होश आया तो मैंने अपने-आपको पुलिस की गिरफ्त में पाया।
मैंने यही समझा कि मैं इसीलिए गिरफ्तार किया गया था, क्‍योंकि मैंने अपनी बीवी पर घातक हमला करने की कोशिश की थी।
लेकिन बात तो कुछ और ही निकली।
बात ऐसी निकली जो मेरी कल्‍पना से परे थी।
मुझ पर एरिक जॉनसन कम्‍पनी से पचास हजार रुपया गबन करने का इल्‍जाम था और कम्‍पनी के मैनेजर ज्ञानप्रकाश डोगरा की शिकायत पर मैं गबन के इल्‍जाम में गिरफ्तार किया गया था।
डोगरा दरअसल मेरे फ्लैट से निकला ही था, वह वहाँ से गया नहीं था। बाहर खड़े होकर उसने भीतर फ्लैट में चलता मेरा और मेरी बीवी का सारा वार्तालाप सुना था। जब उसने मुझ पर खून सवार होता पाया था तो वह दबे-पाँव फ्लैट में वापस घुस आया था और उसने मेरी खोपड़ी पर किसी भारी चीज से प्रहार करके मुझे बेहोश कर दिया था।
उसके बाद उसने और मेरी धर्मपत्‍नी ने मेरे अचेत शरीर के सिहराने बैठकर ही शायद मुझे फँसाने की वह योजना बनाई थी, जिसकी वजह से मैं अपने आज के हौलनाक अँजाम तक पहुँचा हूँ।
पुलिस को एरिक जॉनसन का ताला टूटा हुआ मिला और भीतर से पचास हजार रुपया गायब मिला।
मुझ पर इल्‍जाम लगाया गया कि कैश मैंने गायब किया था और ताला भी मैंने तोड़ा था, ताकि यह समझा जाता कि ताला दंगा करने वालों में से किसी ने तोड़ा था और उन्होंने ही कैश लूटा था। उस रोज कर्फ्यू लगने से पहले और घटनास्‍थल पर सीआरपी के पहुँचने से पहले थोड़ी-बहुत लूटपाट हुई भी थी, इसलिए यह बात खप सकती थी कि शायद एरिक जॉनसन कम्‍पनी का ताला भी दंगा करने वालों ने ही तोड़ा था।
लेकिन मेरे खिलाफ कम्‍पनी के चपरासी की यह गवाही भी तो थी कि एक बार दफ्तर बन्द हो जाने के बाद और एक रिक्शा पर बैठकर मेरे वहाँ से कूच कर जाने के बाद उसने मुझे उस इलाके में वापस लौटते अपनी आँखों से देखा था।
कहने की जरूरत नहीं कि डोगरा ने ही चपरासी को सिखाया पढ़ाया था।
किसी ने उस चपरासी से यह नहीं पूछा कि जब उसने मुझे दोबारा उस इलाके में देखा था, उस वक्‍त खुद वह वहाँ क्‍या कर रहा था ? किसी ने उससे यह पूछना जरूरी नहीं समझा। किसी की निगाह में इस बात की कोई अहमियत नहीं थी, इसलिए नहीं थी, क्‍योंकि मेरे खिलाफ सबसे खतरनाक और सिक्‍केबन्द बयान तो मेरी बीवी ने दिया था। उसने कहा था कि उस रोज उसने मेरे पास सौ-सौ के नोटों की कई गडि्डयाँ देखी थीं और उनके बारे में पूछे जाने पर मैंने उसे बताया था कि तकदीर से ऐसा मौका हाथ आ गया था कि मैं कम्‍पनी का पचास हजार रुपया मार लाया था और किसी को मुझ पर शक नहीं होने वाला था। उसने कहा कि उसने मुझे बहुत समझाया था कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था और जैसे चुपचाप मैं कम्‍पनी का रुपया निकालकर लाया था, वैसे ही चुपचाप मुझे वह रुपया वापस रख आना चाहिए था। उसके कथनानुसार मैंने न केवल उसकी बात नहीं मानी थी, बल्‍कि मैंने झुँझलाकर उस पर हाथ भी उठा दिया था।
फिर वहाँ डोगरा पहुँच गया था।
डोगरा के कथनानुसार वह मेरे घर इसलिए आया था, क्‍योंकि दफ्तर की चाबियाँ मेरे पास थीं, जो कि उसूलन उसके अलावा किसी और के अधिकार में नहीं होनी चाहिए थीं। अपने बयान में उसने कहा कि मैंने उसके आगमन का गलत मतलब लगाया था। मैंने समझा था कि उसे मालूम हो गया था कि मैं कम्‍पनी का पचास हजार रुपया मार लाया था। इसीलिए अपने अँजाम से डरकर और आतंक के वशीभूत होकर मैं किरपान निकालकर उस पर आक्रमण कर बैठा। किरपान के पहले वार से वह बच न गया होता और उसने एक पीतल का फूलदान उठाकर मेरे सिर में न दे मारा होता तो जरूर मैंने उसका कत्‍ल कर दिया होता।
मुझ पर गबन के साथ-साथ इरादाए-कत्‍ल का चार्ज भी लगा।
मैने अपनी बेगुनाही की बहुत दुहाई दी, इस बात की ओर हर किसी का ध्यान खास तौर से आकर्षित कराने की कोशिश की कि अगर मैंने गबन किया था तो रुपया कहाँ था ?
उसका भी जवाब मेरी मेहरबान बीवी के पास था।
उसने कहा कि जब उसने मेरे पास सौ-सौ के नोटों की गडि्डयाँ देखीं थीं तो मैं जरा हड़बड़ा गया था। शायद मैं नहीं चाहता था कि मेरी बीवी को मेरी करतूत की खबर लगती—लगती तो इतनी जल्‍दी खबर लगती—इसलिए उससे तकरार होने और डोगरा के वहाँ पहुँचने से पहले मैं थोड़ी देर के लिए कहीं गया था और नोटों को कहीं छुपा आया था।
पुलिस जब मेरे फ्लैट पर पहुँची थी, किरपान तब भी मेरे हाथ में थी। पुलिस की निगाह में यह अपने-आप में अकाट्य सबूत था कि मैं डोगरा की जान लेने पर उतारू था।
जो थानेदार तफ्तीश के लिए और मेरी गिरफ्तारी के लिए मेरे फ्लैट पर पहुँचा था, कोई बड़ी बात नहीं थी कि उसे भी डोगरा ने सांठा हुआ हो।
बहरहाल मेरे खिलाफ गबन और इरादाएकत्‍ल का बड़ा मजबूत केस था।
मैंने अपनी बेगुनाही की बहुत दुहाई दी, गला फाड़-फाड़कर असलियत को दोहराया, लेकिन मेरी आवाज नक्‍कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गयी। किसी ने मेरी बात पर विश्‍‍वास न किया। बल्‍कि हर किसी ने मुझे नफरत और तिरस्‍कार की निगाहों से देखा—खासतौर से मेरे ससुराल वालों ने। उनकी निगाह में मैं चोर और खूँखार आदमी तो था ही, इतना कमीना और जलील भी था कि अपनी नापाक करतूत पर पर्दा डालने के लिए मैं अपनी देवी समान बीवी के चरित्र के उजले दामन पर बेवफाई का बद््नुमा दाग लगाने की कोशिश कर रहा था। मैं अपने देवता समान मैनेजर डोगरा साहब का अहसानमन्द होने की जगह उनकी ऊँची नाक भी गन्दी मोरी में रगड़ने की कोशिश कर रहा था। तब सभी देवी-देवता थे। उन लोगों के बीच केवल मैं ही एक राक्षस था। और मैं किसी के रहमो-करम का हकदार नहीं था। मेरी बीवी लोगों के सामने यूँ आठ-आठ आँसू रोती थी, जैसे कोई कुलवन्ती ताजी-ताजी विधवा हुई हो। हर कोई उससे हमदर्दी दिखाता था कि तकदीर फूट गयी बेचारी की जो उसकी मेरे जैसे जलील और घटिया आदमी से शादी हुई। डोगरा मुँह से तो कुछ नहीं बोलता था, लेकिन सूरत ऐसी बनाकर रखता था, जैसे वह खामखाह शहीद हुआ जा रहा हो, जैसे वह खामखाह गेहूँ के साथ घुन की तरह पिसा जा रहा हो। वे दोनों गुनाहगार थे, उन्होंने मेरे साथ विश्‍‍वासघात किया था, मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय किया था, उन्होंने मेरी इज्‍जत और गैरत के मुँह पर थूका था, लेकिन उनसे हर किसी को हमदर्दी थी, हर किसी को अफसोस था कि बेचारे इतने भले लोगों को एक जलील आदमी की वजह से—मेरी वजह से—हलकान होना पड़ रहा था और मैं—मैं जो इतने बड़े षड्यन्त्र का शिकार होकर बेगुनाह मारा जा रहा था, किसी की हमदर्दी का हकदार नहीं था। मैं एक घटिया, जलील, सलीके के लोगों की सोहबत के सरासर नाकाबिल, एक हल्‍का आदमी था, जिसे सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए थी, ताकि मेरे जैसे और लोगों को इबरत हासिल होती।
लोग मेरी खूबसूरत बीवी के खूबसूरत चेहरे पर और चेहरे से ज्‍यादा खूबसूरत जिस्‍म पर एक निगाह डालते थे और बेहिचक मुझे गुनहगार करार दे देते थे। उनकी निगाह में इतनी शानदार बीवी रख पाने की मेरी हैसियत नहीं थी, तभी तो मैं गबन पर उतारू हुआ था। अपनी औकात देखकर शादी करता तो क्‍यों ऐसी नौबत आती !
इससे मिलती-जुलती बात मेरे खिलाफ अपने बयान में मेरी बीवी ने भी अदालत में कही थी। चेहरे पर दुनिया-जहान की गम की घटायें लाकर और जोर-जोर रोते हुए उसने कहा था कि मैं उसे अक्‍सर कहा करता था कि मैं उसे बहुत सुख से रखना चाहता था, उसे जिन्दगी मैं बहुत ऐश कराना चाहता था, वह ऐश कराना चाहता था, जिसकी उस जैसी शानदार औरत हकदार होनी चाहिए थी, लेकिन मेरी मामूली आमदनी में यह सब कुछ मुमकिन नहीं था, जबकि मेरा अरमान तो यह था कि मैं किसी का गला काटकर ढेर सारी दौलत हासिल करूँ और उसे दुनिया जहान की ऐश करवाऊँ।
उसके उस बयान ने मेरी तबाही के ताबूत में एक कील और ठोक दी।
डोगरा ने भी अपने बयान में कहा कि मैं हमेशा उसे तनखाह बढ़ाने के लिए कहा करता था। असिस्‍टेण्ट एकाउंटेंट से एकाउण्टेंट बनाए जाने में मेरी तनखाह बढ़ी थी, लेकिन मेरी उससे भी तसल्‍ली नहीं थी।
कहने का मतलब यह था कि हर किसी को विश्‍‍वास आ गया कि मोटा माल किसी भी हराम या हलाल जरिए से हासिल करने के लिए मैं दिमागी तौर पर तैयार था।
मैं गबन कर सकता था।
मैंने गबन किया था।
मुझे दो साल की सजा हुई।
हर किसी की निगाह में वह सजा मेरे लिए बहुत कम थी।
दो साल की सजा पाकर मैं बहुत सस्‍ता छूट गया था।
असल में मैं इससे कहीं ज्‍यादा बड़ी सजा का हकदार था।
मैंने बहुत कोशिश की कि इलाहाबाद में मुझ पर जो बीत रही थी, उसकी खबर मेरे गाँव सोहल में मेरी माँ तक न पहुँचे। लेकिन कभी तो खबर वहाँ पहुँचनी ही थी, पहुँच गयी। मेरी बूढ़ी माँ फौरन इलाहाबाद के लिए रवाना हो गयी। जिस दिन वह इलाहाबाद पहुँची, उस दिन अदालत में मेरी पेशी थी। उसने वहाँ हर किसी की इल्‍जाम लगाती निगाहों के शिकार अपने तनहा, बेसहारा बेटे को मुजरिमों के कटघरे में खड़ा देखा तो वहीं उसने प्राण त्‍याग दिये। उसकी बूढ़ी निगाहें मुझे ठीक से देख भी न पायी, उसकी कमजोर आवाज मुझे एक बार बेटा कहकर पुकार भी न पायी कि वह मेरे सामने गिरकर मर गयी। तकदीर उसे परदेस में अपने बेटे से मिलवाने नहीं लायी थी, अजनबी, हमदर्दी से सरासर कोरे लोगों के बीच उसकी जान लेने के लिए लायी थी। वह जिन्दा रहती तो वह दुनिया की इकलौती शख्सियत होती जिसे मेरी बेगुनाही पर विश्‍‍वास होता।
मेरी माँ मेरी आँखों के सामने मर गयी, मेरे मान-सम्‍मान और इज्‍जत का जनाजा निकल गया। मैं समाज का अवांछित तत्त्व बन गया। मेरी आजादी मुझसे छिन गयी, मैं दो साल के लिए जेल की चारदीवारी में बन्द कर दिया गया और मुझ पर जुल्‍म ढाने वालों का बाल भी बांका न हुआ। जिन पचास हजार रुपयों के गबन के इल्‍जाम में मुझे जेल की सजा हुई, उन्हें भी वही लोग डकार गये। कहते हैं ऊपर वाले के घर में देर है, अन्धेर नहीं है। वाहेगुरु मेरी खता माफ करे, लेकिन मुझे तो लगता है कि गरीब और लाचार आदमी के लिए तो इस दुनिया में अन्धेर ही अन्धेर है। लोगों को उनके कुकर्मों की सजा नहीं मिलती। मुझे तो मेरे उन गुनाहों की सजा मुतवातर मिलती आ रही है, जो मैंने कभी नहीं किये।
एक बात मेरी समझ में नहीं आती। एक दब्‍बू, कमजोर, मरियल, डरपोक, आदतन हर किसी से दबकर रहने वाला, आदतन हर किसी की ज्‍यादती बर्दाश्‍त करने वाला शख्स भी क्‍यों अपनी बीवी की बेवफाई बर्दाश्‍त नहीं कर सकता ? अपनी बीवी की गैर मर्द से आशनाई क्‍यों ऐसे आदमी का भी खून खौला देती है और वह मरने-मारने पर उतारू हो जाता है ? क्‍यों वह यह नहीं सोच सकता कि वह अपनी बेवफा बीवी को अपनी जिन्दगी से धक्‍का देकर उससे निजात पा ले और किस्‍सा खत्‍म समझे ? दुनिया में क्‍या औरतों की कमी है ? लेकिन नहीं, हकीकतन ऐसा नहीं होता। हकीकतन वही होता है, जो मेरे साथ हुआ। औरत के हाथों होने वाली यही एक तौहीन है, जो दुनिया का कोई गैरतमन्द मर्द बर्दाश्‍त नहीं कर सकता।
मैं जेल में बन्द कर दिया गया।
जितना अरसा मैं जेल में बन्द रहा, उतना अरसा या तो मुझे मेरी आँखों के सामने दम तोड़ती मेरी बूढ़ी माँ याद आती रही और या फिर मुझे डोगरा की गोद में लेटी अपनी खूबसूरत बीवी याद आती रही। अब तो उनके रास्‍ते का कांटा निकल गया था। अब तो वे और भी ऐश करते होंगे।
मेरी दो साल की सजा में से जब मेरी सजा के केवल चार महीने बाकी रह गये थे तो ऐसा इत्तफाक हुआ कि मैं जेल से भाग निकला। बिजली के शॉर्ट सर्किट से जेल में भयंकर आग लग गयी थी। आग से मची आपाधापी के दौरान कई कैदियों को जेल से भाग निकलने का मौका मिल गया था। भाग निकलने वाले कैदियों में एक कैदी मैं भी था।
वह मेरी तबाही और बरबादी की दास्‍तान का दूसरा अध्याय था।
भागने वाले और कैदी तो लम्‍बी सजाएँ पाये हुए अपराधी थे, लेकिन मेरी सजा के तो सिर्फ चार महीने बाकी रह गये थे। मुझे भागने की क्‍या जरूरत थी ? मैं तो खामखाह, झोंक में, बिना सोचे-समझे, बिना अक्‍ल से काम किये, भागते कैदियों के साथ भाग निकला था और फरार अपराधी घोषित कर दिया गया था। बाद में कई कैदी फिर पकड़े गये थे, लेकिन मैं नहीं पकड़ा गया था। दोबारा पकड़े जाने पर मुझे लम्‍बी सजा हो सकती थी, इसलिए अपनी सलामती का मैंने यह तरीका निकाला कि मैंने अपनी दाढ़ी-मूँछ और केश कटवा दिये और सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल से विमल कुमार खन्‍ना बन गया। उसके बाद एक बार मेरे हाथों लेडी शान्ता गोकुलदास नामक चुड़ैल का कत्‍ल होने की देर थी कि मेरे गुनाहों की फेहरिस्‍त कयामत की रात की तरह लम्‍बी होती चली गयी। मैं पतन के गर्त में गिरता चला गया। हर बार नया नाम। हर बार नया अपराध। हर बार नया धोखा। लेकिन हासिल कुछ भी नहीं। गुनाह बेलज्‍जत। सात राज्‍यों में घोषित इश्‍तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल उर्फ विमल कुमार खन्‍ना उर्फ गिरीश माथुर उर्फ बनवारी लाल तांगेवाला उर्फ रमेश कुमार शर्मा ड्राइवर उर्फ कैलाश मल्‍होत्रा कैशि‍यर उर्फ बसन्तकुमार मोटर मैकेनिक उर्फ नितिन मेहता, जिसके पास लाखों-करोड़ों रुपयों की दौलत की उम्‍मीद की जाती है, आज भी उतना ही कंगाल है, जितना कि वह इलाहाबाद में जेल जाते वक्‍त था।
मेरी जिन्दगी की सबसे बड़ी ट्रेजेडी यह है कि जब तक मुझे बेशुमार दौलत हासिल होती रही, तब तक तो मैं हराम के माल को अपने लिए लानत समझकर उसे उनके मालिकान को लौटाता रहा, बकौल द्वारकानाथ लक्ष्मी ने बार-बार मुझे गले लगाने की कोशिश की, लेकिन मैं हमेशा उसे दुत्‍कारता रहा, लेकिन जब मैंने लक्ष्मी को गले लगाने की कोशिश की तो उसने मुझे दुत्‍कार दिया। द्वारकानाथ के साथ आगरे में मैंने अपना वो पहला अपराध किया था, जिसके लिए मुझे किसी लेडी शान्ता गोकुलदास ने या किसी जयशंकर ने या किसी अजीत ने या किसी मायाराम बावा ने या किसी ठाकुर शमशेरसिंह ने मजबूर नहीं किया था, लेकिन तकदीर की मार कि अपराध में कामयाब हो जाने के बावजूद पल्‍ले कुछ न पड़ा। फिर राजनगर में मैंने अपने ताजातरीन अपराध की सारी योजना तक खुद बनाई और खुद सरगना बनकर फोस्‍टर का अपहरण किया। करोड़ों की फिरौती हासिल होने की उम्‍मीद में। दौलत तो हाथ लगी नहीं, सुनील नाम के फरिश्‍ते से वास्‍ता न पड़ गया होता तो जिन्दगी जरूर हाथों से निकल गयी होती।
पैसे की कद्र मुझे तभी हुई, जब पैसा मेरे हाथ से निकल गया। पैसा आज की सोसायटी में किस हद तक भगवान की तरह स्‍थापित है, यह सबक मुझे द्वारकानाथ से तब मिला, जब मैं अपने हाथ आया करोड़ों रुपया अपनी मर्जी से अपने हाथों से निकल जाने दे चुका था। बकौल द्वारकानाथ, रुपया अगर मैंने अपने पास गाँठ बाँधकर रखा होता, अगर मैंने अपने दकियानूसी आदर्शों को छोड़कर, अपनी कोरी भावुकता को त्‍याग कर, जरा समझदारी और होशियारी से काम लिया होता तो आज मैं वक्‍त का बादशाह होता। आज नया चेहरा हासिल कर लेना मेरे लिए मामूली बात होती। आज मेरी निगाहों में पाँच लाख की उस रकम का दर्जा निहायत मामूली होता, जिसे मेरे लिए मुहैया करने की खातिर तुम्‍हें अपना घर-बार और जेवर बेच देने पड़े और अपनी जिन्दगी-भर की जमा पूँजी से विमुख हो जाना पड़ा।
मेरा वाहेगुरु अगर मेरे दिल की बात सुन रहा है तो मैं उससे एक ही फरियाद करता हूँ कि वह या तो मेरी जान ले ले और या मुझे किसी काबिल बनाए। अगर वाहेगुरु ने मुझे जिन्दा रखना है तो वह मुझे वह सुकून और इत्‍मीनान भी बक्‍शे, जो इलाहाबाद से भागने के बाद से मुझे कभी हासिल नहीं हो सका। मैं अपनी कुत्ते की तरह दुर-दुर करती जिन्दगी से तंग आ चुका हूँ। मैं अपनी लाचार, हर वक्‍त किसी न किसी से रहम की फरियाद करती, किसी न किसी के रहमोकरम की मोहताज जिन्दगी से तंग आ चुका हूँ। वाहेगुरु मुझे शक्‍ति दे, सामर्थ्य दे, मुझमें उन लोगों से गिन-गिनकर बदले लेने की कूवत पैदा करे, जिन्होंने हमेशा मेरे साथ ज्‍यादती की है। वाहेगुरु सच्‍चे पातशाह, अगर मेरी जिन्दगी के खाते में मेरी चन्द साँसें और लिखी हैं तो वे साँसें किसी तकदीर की मार खाए, हालात से लाचार, सारी दुनिया से हारे, अपने-आप से हारे, रहम के काबिल इंसान की न हों। वे साँसें तेरे ऐसे मुरीद की हों, ऐसे खालसा की हों, जिसकी एक हुँकार से दुश्‍मनों के कलेजे काँप जायें। अगर मैं इन्सान हूँ तो इन्सान ही बनकर रहूँ, मैं बादलों की तरह गरजूँ, बिजली बनकर चमकूँ, और आँधी-तूफान की तरह कुल जहान पर छा जाऊँ। मेरी आने वाली जिन्दगी में हार के लिए कोई जगह न हो। जगह हो तो फतह के लिए—सिर्फ फतह के लिए !”
विमल खामोश हुआ।
उसने गरदन घुमाकर नीलम की तरफ देखा तो उसने पाया कि उसका चेहरा आँसुओं से भीगा हुआ था और उसकी आँखों से अभी भी आँसू बह रहे थे।
विमल को अपनी तरफ देखता पाकर उसने बड़े कातर भाव से उसकी तरफ देखा और जबरन मुस्‍कराने की कोशिश की।
विमल ने कसकर उसे अपने साथ लगा लिया और फिर बड़े प्यार से उसके आँसू पोंछे।
“कब चलोगे ?”—नीलम ने पूछा।
“कल ही।”—विमल बोला। उसने नोटों से भरे ब्रीफकेस की तरफ इशारा किया—“बैंक अभी बन्द नहीं हुआ होगा। यह रुपया तुम बैंक में जमा करवा आओ। अभी हमें इसकी जरूरत नहीं है। बैंक में यह सुरक्षित रहेगा। इतनी बड़ी रकम को हम साथ तो लिए-लिए नहीं फिर सकते न।”
“ठीक है।”
“वैसे मैं अब भी यही कहता हूँ कि इस मामले में तुम ने जल्दबाजी की है। ऐसा कोई कदम उठाने से पहले तुम्हें मुझे बताना चाहिए था।”
“छोड़ो। तुम इस बात को खामखाह तूल दे रहे हो। मेरा कुछ बिगड़ नहीं गया है। जेवरों की मुझे जरूरत नहीं थी। रहने के लिए मकान अपना ही हो, यह कोई जरूरी नहीं होता।”
“और फिक्स्ड डिपॉजिट ? जिससे कि तुम्हारा गुजारा चलता था ?”
नीलम एकाएक उसकी गिरफ्त से निकल गयी और पलंग से नीचे उतर गयी।
“मैं बैंक होकर आती हूँ।”—वह अपार व्यस्तता जताती हुई बोली—“नहीं तो बैंक बन्द हो जायेगा।”
विमल खामोश रहा।
नीलम ने ड्रेसिंग टेबल के सामने जाकर जल्दी-जल्दी अपने बाल संवारे, चेहरे पर हल्का-सा मेकअप लगाया और ब्रीफकेस उठाकर वहाँ से निकल गयी।
अगले रोज वे दोनों इलाहाबाद के लिए रवाना हो गये।
तब उन दोनों का हुलिया, पोशाक और रख-रखाव ऐसा था, जैसे उनकी ताजी-ताजी शादी हुई हो और वे हनीमून के लिए निकले हों।
नीलम ने लाल चूड़ा पहना हुआ था और जरी के काम वाली भारी लाल साड़ी पहनी हुई थी। चूड़े के साथ उसने सोने के दो कड़े और बारह चूड़ियाँ पहनी हुई थीं, गले में जगमग-जगमग करता कुन्दन सैट पहना हुआ था और नाक में नथ डाली हुई थी। उसके कानों में कुन्दन सैट से मैच करते हुए बुन्दे थे और उँगलियों में कुन्दन सैट की अँगूठी के अलावा दो अँगूठियाँ और थीं।
विमल एक शानदार सूट पहने था। सूट के नीचे वह सिल्क की कमीज पहने था और सूट से मैच करती हुई सिल्क की टाई लगाये था। टाई में एक हीरे का टाइपिन लगा हुआ था। उसकी बायीं कलाई में सोने की चेन वाली घड़ी थी और एक उँगली में गन मैटल की अँगूठी थी।
वह सब सामान विमल ने पैंसठ लाख की डकैती वाले केस के दौरान खरीदा था और वह डकैती के माल की तलाश में दिल्ली घूमने के लिए उनके बहुरूप का हिस्सा था। उस बार उनके पास लाला हवेलीराम की फूलों से सजी नयी एम्बेसेडर गाड़ी थी, लेकिन इस बार गाड़ी वाली सुविधा उन्हें उपलब्ध नहीं थी।
दूसरी बार वह बहुरूप उसने दिल्ली में ही ठाकुर शमशेरसिंह की फिराक में इस्तेमाल किया था।
और अब वह तीसरा मौका था, जब वे नये ब्याहे जोड़े की तरह इलाहाबाद के लिए रवाना हो रहे थे।
दुल्हन के लिबास में नीलम स्वर्ग की अप्सराओं को मात कर रही थी और वह असली दुल्हन से ज्यादा लजा-सकुचा रही थी।
जब इतनी शानदार पत्‍नी साथ हो तो पति पर किसकी निगाह ठहरनी थी, उसके थोबड़े की तरफ किसने ध्यान देना था !
वही उस बहुरूप की कामयाबी थी।
खूबसूरत बीवी साथ हो तो लोग मर्द की तरफ तो सिर्फ यह तसदीक करने के लिए निगाह डालते हैं कि कहीं वह देख तो नहीं रहा कि लोग उसकी खूबसूरत बीवी को देख रहे हैं और आँखों ही आँखों में उसे हज्म कर जाने की कोशिश कर रहे हैं।
विमल का सारा व्यक्‍तिगत सामान जिस सूटकेस में था, वह नूरपुर में तब मचे हंगामे में वही रह गया था, जब उसकी छाती में सुआ लगा था। उसके तन के कपड़े तक तारकपुर में ऑपरेशन के दौरान कैंची से काटकर उसके जिस्म से अलग कर दिये गये थे। अपने सामान में से केवल दो ही चीजें अभी भी उसके अधिकार में थीं—उसके नीले कॉण्टैक्ट लैंस और तार के फ्रेम वाला, प्लेन शीशों वाला चश्‍मा। इसीलिए इलाहाबाद से रवाना होने से पहले उसे काफी सारा जाती इस्तेमाल का सामान खरीदना पड़ा था। उस सामान में एक वह हिप्पी परिधान भी—जिसका अब तक वह खूब आदी हो चुका था—और एक निगाह का चश्‍मा भी शामिल था। चश्‍मा इसलिए जरूरी था, ताकि अगर कभी कांटैक्ट लैंस उतारना जरूरी मालूम होने लगे तो उसे ठीक से दिखाई तो दे सके।
नीलम के लिए भी उसने उस प्रकार के और कपड़े खरीदे थे, जो नवविवाहिता लड़कियों को ही शोभा देते थे।
पूरी लकदक के साथ फर्स्ट क्लास में कूपे बुक कराकर वे सफर पर निकले।
उन हालात में तो नीलम वाकई उसके लिए कवच थी।
कौन कह सकता था कि शर्मोहया से दोहरी हुई जाती, लजाती, सकुचाती, हनीमून के खयाल से कभी एकदम लाल भभूका होती जाती और कभी पीली पड़ती जाती, अँगारे की तरह दहकते हुस्‍न की मलिका उस लड़की का हड़बड़ाया, बौखलाया, नातजुर्बेकार, अपनी नयी ब्याही बीवी की खूबसूरती और जवानी के रोब से थर्राया हुआ पति एक ऐसा खतरनाक इश्‍तिहारी मुजरिम था, जिसके सिर पर एक लाख रुपये का इनाम था और जो सात राज्यों में घोषित इश्‍तिहारी मुजरिम था।