जब प्रमिला सुनील के ड्रेसिंगरूम में प्रविष्ट हुई, सुनील ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ा टाई की नाट ठीक कर रहा था ।
“हैलो !” - सुनील व्यस्तता प्रकट करता हुआ बोला ।
“बाहर ड्राईंगरूम में कौन बैठा है ?” - प्रमिला ने सीधा प्रश्न किया ।
“श्री दीवानचन्द वर्मा ।” - सुनील बोला ।
“मैंने नाम नहीं पूछा है ।” - प्रमिला होंठ सिकोड़ कर बोली ।
“तो फिर ?”
“तुम्हारे पास क्या करने आया है ?”
“बेचारा इश्क का मारा है, मेरी मदद मांगने आया है ।”
“तुम क्या मदद करोगे ?”
“इसे इसकी प्रेमिका से मिलवा दूंगा ।”
“लेकिन आशिक किसका है ये ?”
“तुम्हारा ।”
“क्या ?” - प्रमिला बौखलाकर बोली ।
“सच पम्मी ।” - सुनील बड़े इत्मीनान से बोला - “यह दीवानचन्द कोई विज्ञापन देने ‘ब्लास्ट’ के दफ्तर में गया था । वहीं इसने तुम्हें पहली बार देखा था । तभी से बेचारा इश्क में उल्लू का पट्ठा होकर रह गया है ।”
“सुअर ।” - प्रमिला दांत पीसकर बोली ।
“कौन, दीवानचन्द ? नहीं वह तो उल्लू का...”
“वह, नहीं तुम ।”
“मुझे सुअर कहा तुमने ?” - सुनील इस भाव से बोला, जैसे विश्वास न हो रहा हो ।
“हां, और बेशर्म भी ।”
“मन से कह रही हो ?”
“हां ।”
“तो लो फिर ।” - सुनील बड़े इत्मीनान से प्रमिला के पास पहुंचा और उसकी चोटी पकड़कर दो तीन जोरदार झटके दे दिये ।
“ओ सोनू के बच्चे ।” - प्रमिला दर्द से बिलबिला कर चिल्लाई ।
“मैं सुअर हूं ?”
“हां, हजार बार सुअर हो ।”
सुनील ने एक और झटका दिया । लेकिन उसी क्षण उसका हाथ स्वयं ही चोटी से अलग हो गया - क्योंकि प्रमिला अपने हाथ की दोनों मुट्ठियां उसके बालों में जकड़कर झूल गई थी ।
“पम्मी प्लीज ।” - सुनील याचनापूर्ण स्वर में बोला ।
“अब प्लीज कहते हो ।” - प्रमिला चिल्ला कर बोली - “सोनू के बच्चे, मैं तुम्हें गंजा करके रख दूंगी ।”
“कम से कम दीवानचन्द को तो जा लेने दो, बाद में जो जी में आये करना ।”
“तो बको कौन है ये ?”
“पहले बालों का छोड़ो ।”
प्रमिला ने सुनील के बालों को आखिरी झटका देकर छोड़ दिया ।
“किस शैतान की नानी से पाला पड़ा है ?” - सुनील बालों में दुबारा कंघी फेरता हुआ बड़बड़ाया - “भगवान ऐसी पड़ोसिन तो दुश्मन को भी न दे ।”
“अब बकते हो या दूसरा राऊंड शुरू करूं ।”
“नहीं, नहीं ?” - सुनील घबराकर बोला - “मैं तुम्हें बिना मुकाबले के ही वाक-ओवर दिये दे रहा हूं ।”
“अब कह भी चुको ।” - प्रमिला बोर होकर बोली ।
“बात यह है प्रमिला ।” - सुनील बड़ी सज्जनता से बोला - “कि मैं अभी तक दीवानचन्द से बात नहीं कर पाया हूं । उसने लगभग एक घन्टे पहले मुझे टेलीफोन किया था कि वह किसी मामले में मेरी सहायता चाहता है । मैंने उसे यहां आने के लिये कह दिया था और तभी से वह ड्राईंगरूम में बैठा हुआ मेरी प्रतीक्षा कर रहा है ।”
“इसने फोन पर कुछ नहीं बताया ?”
“केवल इतना कि उसका नाम दीवानचन्द वर्मा है, वह एक आटो मोबाइल कम्पनी में मैनेजर है, विवाहित है, एक डेढ वर्ष का बच्चा भी है, पिछले दिनों कम्पनी के ही काम से विशालगढ गया था और वहां किसी मुसीबत में फंस गया था । उसी मुसीबत से बचने के लिए वह मेरी सहयता चाहता है और एवज में वह धन के मामले में कुछ भी करने के लिये तैयार है ।”
“उसने मुसीबत के विषय में कुछ नहीं बताया ?”
“नहीं, मैं अभी तक उससे मिला ही नहीं हूं ।”
“अभी उससे और कितनी देर प्रतीक्षा करवाओगे ?”
“बस चलते हैं ।”
सुनील प्रमिला के साथ बाहर ड्राईगरूम में आ गया ।
दीवानचन्द ने दोनों का अभिनन्दन किया ।
“ये” - वह प्रमिला की ओर संकेत करता हुआ सुनील से बोला - “आपकी पत्नी है ?”
प्रमिला का चेहरा कानों तक लाल हो गया ।
“सात जन्म नहीं हो सकती ।” - सुनील शरारत भरे स्वर में बोला ।
“जी !” - दीवानचन्द हैरान होकर बोला ।
“काम की बात कीजिए दीवानचन्द जी ।” - सुनील गम्भीरता का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“इनके सामने ही कहूं ?” - दीवानचन्द झिझकता हुआ बोला ।
“हां ।” - सुनील ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया ।
“मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं कहां से शुरु करुं ?” - दीवानचन्द उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“आप शुरु से ही शुरु कीजिए ।” - सुनील शुष्क स्वर में बोला ।
“मैं ।” - दीवान चन्द अपने विचारों में तारतम्य उत्पन्न करने की चेष्टा करता हुआ बोला - “अपनी कम्पनी के प्रतिनिधि के रूप में अपनी लाइन के व्यापारियों की कांफ्रेंस में शामिल होने के लिए विशालगढ गया था । इस कांफ्रेंस में मेरा और मेरी कम्पनी का विशिष्ट महत्व था । कारण यह था कि हमने एक ऐसी कार डिजाइन की थी जो कारों के इतिहास में एक क्रान्ति उत्पन्न कर देने वाली थी । मेरी अपनी कम्पनी के पास इतना रुपया नहीं है कि हम स्वतन्त्र रूप से उस कार का उत्पादन अपने हाथ में ले सकें । उस कॉन्फ्रेंस में उपस्थित कई व्यापारी हमारी उस कार के मैनुफैक्चर में रुपया लगाने के लिए तैयार थे । कहने का तात्पर्य यह है कि उस कांफ्रेन्स में शामिल होने का मुख्य ध्येय कम्पनी के लिए फाइनेन्सर खोजना था ।”
दीवानचन्द क्षण भर के लिए रुका ।
“फिर ?” - सुनील भाव रहित स्वर में बोला ।
“कांफ्रेंस का प्रेसीडेन्ट मगन भाई नाम का एक पारसी सेठा था । कांफ्रेस का सारा इन्तजाम भी वही कर रहा था । वह हमारी कार का पेटेन्ट खरीदने में या पार्टनरशिप में हमारे साथ काम करने में सबसे अधिक दिलचस्पी दिखा रहा था । उसी ने मेरी मुलाकात सोनिया से करवाई थी ।”
“सोनिया कौन ?” - सुनील ने पूछा ।
“यही तो वह लड़की है, सुनील साहब, जिसके कारण मैं मुसीबत में फंसा हूं ।” - दीवानचन्द दुखपूर्ण स्वर में बोला - “कांफ्रेस में ही मगन भाई ने मेरी मुलाकात सोनिया से करवाई थी ।”
“सोनिया का उस कॉन्फ्रेंस से क्या संबंध था ?”
“कुछ भी नहीं । सोनिया जैसी छः सात लड़कियां और भी थीं वहां । उनका काम तो केवल मेहमानों का मनोरंजन करना था । सोनिया पार्टी के दौरान में केवल मेरे ही आस-पास मंडराती रही । कांफ्रेंस के दौरान में ही उसने मुझे शैम्पेन की काफी मात्रा पिला दी जिसका परिणाम यह हुआ कि कांफ्रेंस समाप्त होने तक मैं अपने होशो हवास खो बैठा था । फिर मुझे याद नहीं कि कब कांफ्रेंस समाप्त हुई और कैसे मैं वहां से वापिस लौटा । लेकिन जब मुझे होश आया तो मैं अपने होटल के कमरे में नहीं था । मैं किसी और ही स्थान पर था । फिर मुझे ऐसा भी अनुभव हुआ था जैसे मेरे शरीर के साथ किसी कोमल शरीर का स्पर्श हो रहा हो । कहने का तात्पर्य यह है कि मैं अपने बिस्तर पर अकेला नहीं था । उसके बाद मुझे याद नहीं, क्या हुआ लेकिन जब मेरी नींद खुली तो सवेरा हो चुका था । मैं किसी अनजाने कमरे में पलंग पर अकेला लेटा हुआ था । मेरे शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं था । कमरे के कोने में रखे एक सोफे पर एक वस्त्रहीन महिला सो रही थी । मेरी ओर उसकी पीठ थी ।”
“वह सोनिया थी ?” - सुनील ने पूछा ।
“संभव है, वह सोनिया ही हो, मैंने उसका चेहरा नहीं देखा ।”
“फिर ?”
“मेरे कपड़े पलंग के पास ही एक कुर्सी पर पड़े थे । मैंने कपड़े पहने और उसे फ्लैट से बाहर निकल आया । वह बहुत बड़ी इमारत थी जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था । कुछ देर मैं सीढियां तलाश करने के लिए गलियारे में ही भटकता रहा फिर मुझे सीढियां मिल गईं और मैं इमारत से बाहर निकल आया बाहर से मैंने टैक्सी ली और अपने होटल में आ गयी ।”
“किसी ने तुम्हें उस फ्लैट से निकलते देखा था ?”
“हां ।” - दीवान चन्द तनिक हिचककर बोला ।
“किसने ?”
“मुझे नहीं मालूम वह कौन था । जब मैं उस फ्लैट में से निकला था तो गलियारे में ही खड़ा था । शायद वह फ्लैट की स्वामिनी को जानता था क्योंकि वह काफी देर तक मुझे घूरता रहा था । उसकी भाव-भंगिमा में सन्देह की स्पष्ट झलक थी ।”
“उसने टोका नहीं तुम्हें ?”
“नहीं ।”
“लेकिन अब तुम्हें दिक्कत है क्या ?”
“दिक्कत यह है ।” - दीवान चन्द के एक लिफाफा उसकी और बढाते हुए कहा ।
“ब्लैकमेल ?” - सुनील ने लिफाफा देते हुए पूछा ।
“हां ।”
सुनील ने लिफाफे में रखा पत्र निकाल लिया । लिखा था -
मिस्टर दीवानचन्द !
आप जैसे सैक्स के भूखे आदमी को तो गोली मार देनी चाहिये । आपने अपने क्षणिक आनन्द के लिए एक मासूम लड़की का जीवन तबाह कर दिया है । आपकी इस शैतानी हरकत के लिए आपको कभी माफ नहीं किया जा सकता । आपको इसकी सजा मिलनी ही चाहिए । मैं आपके इस कुकर्म की सूचना आपकी पत्नी को देने वाला हूं, प्रणाम स्वरूप जो चित्र आपकी पत्नी को भेजे जाने वाले हैं, उनका नमूना इस पत्र के साथ संलग्न है ।
चन्द्रशेखर
पत्र के साथ कैमरे का एक चित्र पिन किया हुआ था । चित्र में दीवान चन्द और एक युवा लड़की बड़ी ही आपत्तिजनक अवस्था में दिखाये गये थे ।
“मुझे दिखाओ ।” - प्रमिला चित्र की ओर हाथ बढाकर बोली ।
“तुम्हारे देखने योग्य नहीं है ।” - सुनील पत्र और चित्र को लिफाफे में रखते हुए बोला ।
प्रमिला ने भी दुबारा जिद नहीं की ।
“यह लड़की सोनिया है ?” - सुनील चित्र वाली लड़की का हवाला देता हुआ बोला ।
“मुझे नहीं मालूम ।” - तस्वीर में लड़की की सूरत स्पष्ट नहीं है सम्भव है सोनिया ही हो ।
“चन्द्रशेकर कौन है ?”
“मैं इस नाम के किसी आदमी को नहीं जानता । न ही मैंने अपने जीवन में कभी इसके विषय में सुना है ।”
“तुम्हें यह पत्र कब मिला ?”
“कल ।”
“और कांफ्रेंस कब हुई थी ?”
“लगभग 15 दिन पहले ।”
“तो इसका अर्थ यह हुआ, मिस्टर दीवानचन्द कि पिछले पन्द्रह दिनों से वे लोग तुम्हारी आर्थिक दशा की जांच पड़ताल कर रहे थे ताकि वे इस बात का अन्दाजा लगा सकें कि तुमसे कितना माल हथियाया जा सकता है ।”
“वे लोग कौन हैं ?” - दीवानचन्द ने पूछा ।
“सोनिया और चन्द्रशेखर । निश्चय ही ये दोनों इकट्ठे काम कर रहे होंगे ।”
दीवानचन्द चुप रहा ।
“अब तुम क्या चाहते हो ?”
“यही तो मैं तुमसे पूछना चाहता हूं ।”
“देखो, बड़े भाई ।” - सुनील गम्भीरता से बोला - “दो रास्ते हैं । या तो अपना मुंह बन्द रखने के लिए वे जितना रुपया मांगें उन्हें दे दो या फिर भिड़ जाओ । यदि तुम रुपया दे देते हो तो ब्लैकमेलर तुम से जोंक की तरह चिपक जायेंगे और तुम जीवन भर उनको रुपये देते रहोगे, और अगर तुम दूसरा रास्ता स्वीकार करते हो तो तुम्हारी करतूत सारे संसार पर जाहिर हो जायेगी और तुम्हारी मान-प्रतिष्ठा सब मिट्टी में मिल जायेगी । तुम्हें कौन सा रास्ता पसन्द है ?”
“मुझे तो दोनों ही सूरतों में निर्मला को सब कुछ मालूम हो जाने का खतरा है । और इसी बात से मैं डरता हूं ।”
“निर्मला कौन है ?”
“मेरी पत्नी ।”
“अगर उसे इस बात का पता लग जाये तो...”
“तो वह मुझे तलाक दे देगी और बच्चे को भी अपने साथ ले जाएगी ।”
“बच्चा कितना बड़ा है ?”
“डेढ वर्ष का ।”
“और तुम्हारी शादी हुए कितना समय हुआ है ?”
“एक साल ।”
“असम्भव ।” - प्रमिला एकदम बोली ।
“क्या ।” - दीवानचन्द प्रमिला की ओर घूमकर बोला ।
“अगर तुम्हारे कैलेन्डर से साल तीन सौ पैंसठ दिन का ही होता है तो एक साल की शादी में डेढ साल का बच्चा कैसे हो सकता है ?”
“वह बच्चा हमारा नहीं है । वह बच्चा निर्मला की सौतेली बहन का है । बच्चे का बाप बच्चे के पैदा होने से पहले ही मर गया था और बच्चा पैदा होने के कुछ ही दिनों बाद बच्चे की मां मर गई थी । मां मरने से पहले बच्चा निर्मला को सौप गई थी । तभी से वह बच्चा हमारे साथ है । अगर निर्मला मुझे तलाक दे देती है तो मैं तबाह हो जाऊंगा । मैं जिस आटो मोबाइल कम्पनी की मैनेजर हूं उसकी मालिक मेरी पत्नी है । अपनी सौतेली बहन के मरने के बाद मेरी पत्नी को लगभग पचास हजार रुपये विरासत में मिले थे । वही पूंजी कम्पनी में लगी है । मुझे तो दस हजार रुपए वार्षिक वेतन और लाभ का दस प्रतिशत मिलता है ।”
“देखो दीवानचन्द ।” - सुनील बात को समाप्त करने के ढंग से बोला - “यह केस तो अन्धे कुएं में ईंट भरने जैसा है । मैं इस मामले में कोई दावा नहीं कर सकता लेकिन फिर भी मैं पूरी कोशिश करूंगा कि तुम्हें रुपया भी न देना पड़े और यह सारी घटना तुम्हारी पत्नी की जानकारी में भी न आये । मुझे आज ही विशालगढ जाना पड़ेगा । शुरु के खर्च के लिए तुम मुझे पांच सौ रुपये दोगे और केस समाप्त हो जाने के बाद एक हजार रुपये और । तुम्हें मन्जूर है ?”
“हां ।” - दीवानचन्द तनिक हिचकिचाकर बोला ।
“तो निकालो रुपये ।”
दीवानचन्द ने चुपचाप पांच सौ रुपये निकालकर मेज पर रख दिये ।
***
सुनील ने विशालगढ में कदम रखते ही काम शुरु कर दिया था ।
विशालगढ में हाई सोसाइटी में सोनिया का नाम लगभग सभी जानते थे - इसलिए सुनील को उसका पता पा लेने में दिक्कत नहीं हुई । सोनिया जाफरी मेंशन की दूसरी मंजिल के एक फ्लैट में अकेली रहती थी । दीवानचन्द द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार यही वह इमारत थी जहां उसने रहस्यमय ढंग से रात गुजारी थी ।
सुनील सोनिया के फ्लैट में सामने पहुंचा और उसने कालबेल के पुश पर उंगली रख दी ।
जिस लड़की ने द्वार खोला, वह वाकई अनिद्य सुन्दरी थी ।
“फरमाइए ।” - वह अधिकारपूर्ण स्वर में बोली ।
“तुम्हारा नाम सोनिया है ?” - सुनील ने पूछा ।
लड़की ने एक बार उसे सिर से पांव तक देखा और फिर बोली - “है फिर ?”
“मुझे तुमसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं ।”
“लेकिन मैं तुम्हें नहीं जानती ।” - वह बिना झिझके बोली ।
“अब जान जाओगी ।”
“यह केवल वहम है तुम्हारा ।” - सोनिया द्वार बन्द करने की चेष्टा करती हुई बोली ।
“सुनो ।” - सुनील उसे रोककर बोला - “अगर तुम मुझे बुला लो तो मैं अपने यहां आने का कारण स्पष्ट कर सकता हूं ।”
“नो ।” - सोनिया होंठ सिकोड़कर बोली ।
“अच्छा तो फिर मैं यहां गलियारे में ही खड़ा होकर तुम्हें परिस्थिति समझाने की चेष्टा करता हूं ।” सुनील बोला - “मेरा नाम सुनील है । मैं दीवानचन्द का मित्र हूं और उसी के कहने पर यहां आया हूं ।”
“कौन दीवानचन्द ?”
“तुम नहीं जानती ?” - सुनील ने एक खोजपूर्ण दृष्टि उसके चेहरे पर गड़ाते हुए पूछा ।
“नहीं ।”
“तुम विशालगढ में हुई एक सेल प्रोमोशन कांफ्रेंस के सिलसिले में उससे मिली थी ।”
“अच्छा वह दीवानचन्द ।” - सोनिया तनिक नम्र स्वर में बोली - “क्या हुआ उसे ?”
“और चन्द्रशेखर की जानती हो ?” - सुनील ने उसके प्रश्न की तनिक भी परवाह न करते हुये पूछा ।
सोनिया के चेहरे के भाव एकदम बदल गये । वह एकदम झटके से द्वार को पूरा खोलती हुई बोली - “भीतर आओ ।”
सुनील चुपचाप फ्लैट में प्रविष्ट हो गया ।
“तशरीफ रखो ।” - वह एक कुर्सी की ओर संकेत करती हुई बोली - “क्या नाम बताया था तुमने अपना ?”
“सुनील ।” - सुनील बैठता हुआ बोला - “वैसे लड़कियां प्यार से सोनू कहती हैं ।”
“और गुस्से में क्या कहती हैं ?”
“लड़कियों को मुझ पर गुस्सा आता ही नहीं ।”
सोनिया चुप हो गई ।
“चन्द्रशेखर ने क्या किया है ?” - सोनिया ने क्षण भर बाद पूछा ।
“वह दीवानचन्द को ब्लैकमेल करने की कोशिश कर रहा है ।”
“नहीं ।” - सोनिया अविश्वासपूर्ण स्वर में बोली ।
“मैं सच कह रहा हूं और उससे तुम भी शामिल हो ।”
“मैं ?”
“हां, तुमने दीवानचन्द को फंसाकर ब्लैकमेलिंग के लिए ग्राउंड तैयार की है । दीवानचन्द रात भर तुम्हारे फ्लैट में तुम्हारे साथ बड़ी आपत्तिजनक अवस्था में रहा और तुम्हारे ही फ्लैट में किसी ने बड़ी शर्मनाक हालत में उसकी तस्वीरें खींच लीं और अब उन्हीं तस्वीरों के सहारे तुम लोग उसे ब्लैकमेल करने की चेष्टा कर रहे हो ।”
“यह झूठ है ।” - सोनिया उत्तेजित होकर चिल्लाई - “मिस्टर सुनील मैं उसे अपने फ्लैट पर लाई जरूर थी लेकिन दीवानचन्द के साथ यकीनन ऐसी कोई घटना नहीं घटी है जिसका तुम जिक्र कर रहे हो । मगन भाई ने मुझे दीवानचन्द को उलझाये रखने के लिए पांच सौ रुपये दिये । मगन भाई दीवानचन्द से कार के पेटेन्ट के बारे में कोई सौदा करना चाहता था इसलिए उसने दीवानचन्द को मेरे हवाले कर दिया था ताकि उस पर किसी और व्यापारी का रंग ही न चढ सके । रात को मैं दीवानचन्द को अपने फ्लैट पर ले आई थी ताकि कोई और व्यापारी उससे संबंध स्थापित न कर सकें । वह रात भर मेरे फ्लैट पर रहा और सुबह चला गया लेकिन विश्वास करो कि उस रात नैतिकता से गिरी हुई कोई बात नहीं हुई ।”
“और इस तस्वीर के विषय में तुम्हारा क्या ख्याल है ?” - सुनील ने वह तस्वीर जो दीवानचन्द को पत्र के साथ मिली थी, सोनिया को दिखाते हुए कहा ।
सोनिया चित्र पर दृष्टि पड़ते ही घबरा गई । उसका चेहरा लज्जा से आरक्त हो गया । कुछ क्षण बाद उसने तस्वीर सुनील को वापिस कर दी ।
“इस तस्वीर से मेरा कोई संबंध नहीं है ।” - वह धीरे से बोली ।
सुनील ने बड़ी सख्त नजरों से सोनिया की ओर देखा ।
“यह... यह तस्वीर ।” - वह हड़बड़ाकर बोली - “खींची मेरे ही फ्लैट पर गई है और यह पलंग भी मेरा ही है लेकिन मुझे न तो इस तस्वीर की जानकारी है और न ही तस्वीर वाली लड़की मैं हूं ।”
तस्वीर वाली लड़की के विषय में सुनील कोई निश्चित राय नहीं कायम कर सका था क्योंकि लड़की का चेहरा स्पष्ट नहीं था, वह सोनिया हो भी सकती थी और नहीं भी ।
“तुम चन्द्रशेखर को जानती हो ?” - सुनील ने पूछा ।
“बहुत अच्छी तरह से ।” - सोनिया बोली - “वह मेरा पति है ।”
“तो फिर तुम्हारे साथ क्यों नहीं रहता ?”
“मैं उनसे तलाक ले रही हूं । कोर्ट से सैपरेशन आर्डर है चुका है इसलिए अलग रहती हूं ।”
“चन्द्रशेखर को इस सारी घटना की जानकारी कैसे हुई कि दीवानचन्द कभी रात भर तुम्हारे फ्लैट में रहा था ?”
“इसी मंजिल पर तीसरे फ्लैट में बिहारी नाम का एक आदमी रहता है । उसकी पत्नी जानकी चन्द्रशेखर की बहन है और क्योंकि कभी चंद्रशेखर मेरा पति था इसलिए मैं भी उस परिवार से थोड़ी बहुत संबंधित हूं ही, यानि इस रिश्ते से जानकी मेरी ननद लगी । बिहारी तो कुछ अच्छा आदमी है लेकिन जानकी सख्त हरामजादी औरत है । अब तो उनसे मेरा कोई संबंध नहीं है लेकिन जब था तब भी मेरी जानकी से पटती नहीं थी । पति पत्नी की आपस में पटती नहीं है । बिहारी तस्वीरें बनाता है । मेरा मतलब है पेंटिंग करता है और जानकी को वह सब एक आंख नहीं सुहाता । लेकिन बिहारी और चन्द्रशेखर में अच्छी पटती है । उस दिन बिहारी ने दीवानचन्द को मेरे फ्लैट में से निकलते देखा था । बिहारी ने इस बात का जिक्र जानकी से किया होगा और जानकी ने बात को बढा-चढा कर चन्द्रशेखर के कान में फूंक दिया होगा कि मैं रात भर अपने कमरे में एक अंजाने आदमी का मनोरंजन करती रही हूं कि मैं बदमाश हूं और वेश्याओं से भी गई बीती हूं । वह क्रोध से लाल पीला होता यहां आ धमका और मुझसे लड़ने लगा । लेकिन मैंने उसे कह दिया कि मैं जैसी जिंदगी चाहूं वैसे बिताने की हकदार हूं और वह मुझे रोक नहीं सकता है ।”
“फिर उसने क्या कहा ?”
“मैंने उसे कुछ कहने ही नहीं दिया । मैंने उसे अपने फ्लैट से बाहर निकाल दिया ।”
“फिर ?”
“फिर एक दो दिन तो यहां आसपास मंडराता रहा और फिर वह दिखाई देना बंद हो गया । मैंने सोचा शायद उसके क्रोध का भूत उतर गया है । सुनील साहब, चन्द्रशेखर वास्तव में उतना बुरा आदमी नहीं है जितना उसकी बहन ने उसे बना रखा है ।”
“चन्द्रशेखर कहां रहता है ?”
“मैं उसका पता तुम्हें बताना नहीं चाहती ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि तुम मुझे खतरनाक आदमी मालूम होते हो । तुम जरूर उसे किसी मुसीबत में फंसा दोगे ।”
“उसने काम ही मुसीबत में फंसने वाला किया है । देखो सोनिया चन्द्रशेखर जैसे अनाड़ी ब्लैकमेलर के लिए यही अच्छा है कि वह अपना इरादा छोड़ दे । अगर फिर दीवानचन्द को कोई चिट्ठी लिखी था सारी घटना की सूचना उसकी पत्नी को देने की कोशिश की तो वह फंस जायेगा और ऐसा फंसेगा कि गरदन बचानी मुश्किल हो जायेगी । अगर तुम मुझे उसका पता नहीं बताना चाहतीं तो कम से कम खुद ही यह सूचना दे दो कि उसकी भलाई इसी में है कि वह मुझसे मिल ले । ब्लैकमेलिंग के मामले में उसका अगला कोई भी कदम उसे जेल खाने की हवा खिला देगा ।”
सोनिया चुप रही ।
“एक बात और ।” - सुनील बोला - “बिहारी मिलने जुलने में कैसा आदमी है ?”
“बिहारी बड़ा ही रिजर्व किस्म का आदमी है । अजनबियों से बात करने से वह बड़ा कतराता है । तुम उससे इस संबंध में बात करना चाहोगे तो वह तुम्हें अपने फ्लैट की चौखट भी नहीं लांघने देगा ।”
“पेन्टिंग बिहारी का शौक है या पेशा ?”
“पेशा । उसकी बनाई हुई तस्वीरें आर्ट पैलेस में बिक्री के लिए लगी हुई हैं ।”
“इस पेशे से काफी कमाई है क्या उसे ?”
“खाक भी नहीं । कोई अकल का अन्धा ही बिहारी की बनाई हुई तस्वीरें खरीदता है । उसकी कला का केवल एक प्रशंसक है, वह है चन्द्रशेखर ।”
“तो फिर उसका खर्चा कैसे चलता है ?”
“जानकी के पास बहुत रुपया है । जानकी और चन्द्रशेखर दोनों भाई बहनों को अपनें एक चाचा की वसीयत में बीस-बीस हजार रुपये मिले थे । उसी के दम पर बिहारी के परिवार की खिंच रही है ।”
“इसका अर्थ यह हुआ कि चन्द्रशेखर की आर्थिक स्थिति काफी अच्छी है ?”
“हां ।”
“तो फिर उसे किसी को ब्लैकमेल करने की क्या जरूरत है ?”
“भगवान जाने ।”
“और तुम्हारी आय का क्या साधन है ?”
सोनिया ने कोई उत्तर नहीं दिया ।
उत्तर के प्रति उसकी अनिच्छा जानकर सुनील ने उसे कुरेदा भी नहीं ।
“ओ. के. मिस सोनिया, थैंक्यू फार दी कोआपरेशन ।” - सुनील उठता हुआ बोला - “मैं फिर आऊंगा ।”
“दूसरी बार तो मैं तुम्हें अपने फ्लैट में कदम नहीं रखने दूंगी ।”
“क्यों ?” - सुनील हैरान होकर बोला ।
“तुम बहुत खतरनाक आदमी हो ।”
सुनील हंस पड़ा ।
“सोनिया” - सुनील द्वार के पास पहुंचकर बोला - “तुमने मुझे चन्द्रशेखर पता नहीं बताया लेकिन मैं उसे खोज निकालूंगा ।”
“कैसे ?”
“मुझे चन्द्रशेखर का पता बिहारी बतायेगा ।”
“इम्पासिबल ?”
“आई विल मेक इट पासिबल ।” - सुनील दृढ स्वर में बोला ।
“वह तुम्हें पास नहीं फटकने देगा ।”
“और मैं कहता हूं कि मुझे बड़े ही सम्मानित अतिथि को तरह अपने फ्लैट में बिठाकर चाय भी पिलायेगा ।”
“देखेंगे ।”
“जरूर देखना ।” - सुनील ने कहा और एक बार फिर अभिवादन करके सोनिया से विदा हो गया ।
***
अब सुनील के सामने सबसे बड़ा काम चन्द्रशेखर से संबंध स्थापित करना था ।
उसने मन ही मन बिहारी का विश्वास जीतने की एक स्कीम बनाई ।
सुनील ने एक टैक्सी ली और आर्ट पैलेस पहुंच गया ।
आर्ट पैलेस एक बहुत बड़ी गैलरी थी जिसमें आधी से अधिक तस्वीरें एब्ट्रैक्ट आर्ट की थी । सुनील को एक तस्वीर पर बिहारी का नाम दिखाई दे गया ।
चित्र का शीर्षक था - सूर्योदय । चित्र में गहरे लाल रंग का एक गोला था - जो सूर्य दिखाया गया था लेकिन वह सेब से अधिक मिलता-जुलता था । फिर नीले समुद्र की लहरों में उसकी परछाई दिखाई गई थी और ऊपर स्लेट की तरह साफ नीला आसमान था । बेहद घटिया चित्र था । ऐसा मालूम होता था जैसे तस्वीर को ब्रुश से नहीं, घोड़े की पूंछ से बनाया गया हो या किसी बच्चे ने आड़ी तिरछी लकीरें खींच दी हों और ऊपर से तुर्रा यह था कि कीमत लिखी हुई थी नब्बे रुपये ।
बिहारी कैसा आर्टिस्ट था, वह उसकी कलाकृति ही जाहिर कर रही थी ।
सुनील उस चित्र के सामने जाकर खड़ा हो गया और उसे ऐसी तल्लीनता से देखने लगा जैसे उससे सुन्दर कलाकृति उसने जीवन भर न देखी हो ।
दुकानदार का ध्यान सुनील की ओर आकृष्ट हो गया ।
सुनील धीरे से कुछ बड़बड़ाया और फिर अपना सिर एक ओर झुकाकर तस्वीर को दूसरे कोण से देखने लगा । फिर वह अपने चेहरे पर असंतुष्टि के भाव लाता हुआ तस्वीर से दो कदम पीछे हट गया और अपने दायें हाथ के अंगूठे और पहली उंगली का घेरा सा बनाकर उस घेरे को कभी आंखों के सामने ले आता और कभी उसे दूर ले जाता जैसे फोकस ठीक कर रहा हो ।
दुकानदार उसकी इस हरकत से हैरान होकर पलकें झपका रहा था ।
सुनील के कार्यकलापों में कोई अन्तर नहीं आया ।
अंत में उत्सुक दुकानदार काउन्टर के पीछे से निकलकर सुनील के पास आ खड़ा हुआ ।
“पेन्टिंग पंसद आई आपको ?” - दुकानदार ने सुनील से पूछा ।
“बहुत बढिया पेन्टिंग है ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - “कलाकार ने कमाल कर दिखाया है, लेकिन...”
सुनील ने जान बूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“लेकिन क्या ?” - दुकानदार ने उत्सुक स्वर में पूछा ।
“चित्र का फ्रेम चित्र की मूल भावना से मेल नहीं खा रहा है ।”
“जी !” - दुकानदार हैरान होकर बोला । यह उसके लिए नई बात थी । लेकिन उसने फौरन ही अपने भावों पर काबू पा लिया । दुकानदार होने के नाते वह उस स्थिति में नहीं था कि सुनील की किसी भी बात का विरोध कर सकता । सुनील तो केवल फ्रेम की ही आलोचना कर रहा था, अगर वह सूर्य को चांद भी बताता तो भी दुकानदार स्वीकार कर लेता ।
“आपके विचार से फ्रेम कैसा होना चाहिये ?”
“गोल ।” - सुनील पूरी गम्भीरता से बोला ।
“गोल फ्रेम !” - इस बार तो दुकानदार हैरान होकर चिल्ला ही उठा ।
“हां ।” - सुनील निर्विकार स्वर में बोला - “गुलाबी रंग का गोल फ्रेम । जरा अपने अंगूठे और पहली उंगली को मिलाकर गोला सा बनाओ और फिर उस गोले में से तस्वीर को फोकस करके देखो कि क्या शान पैदा हो जाती है इस पेन्टिंग में ।”
हालांकि दुकानदार को खाक भी समझ नहीं आ रहा था लेकिन फिर भी उसने सुनील के बताये ढंग से तस्वीर को देखा और स्वीकारात्मक ढंग से सिर हिला दिया ।
“सेठ !” - सुनील बोला - “गुलाबी रंग के गोल फ्रेम में जड़ी हुई यह महान कलाकृति जब कला के संसार में कदम रखेगी तो दुनिया के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक तहलका मचा देगी । कला पारखी इस तस्वीर को देखकर गश खा जायेंगे और वह चित्रकार तो शायद आत्महत्या ही कर ले । एक बार लोगों का ध्यान इस कलाकृति की ओर आकृष्ट होने भर की देर है कि लोग पिकासो को भूल जायेंगे, रेन्वांट की तस्वीरें अपने संग्रह में से निकालकर चूल्हे में झोंक देंगे, यामिनी राय चुगताई को भूल जायेंगे और याद रखेंगे केवल इस महान चित्र के उससे भी महान आर्टिस्ट को... क्या नाम है इस महान चित्र के आर्टिस्ट का ?”
“बिहारी.. बिहारी लाल ।” - दुकानदार थूक निगलता हुआ बोला ।
“आहा, बिहारी लाल । आने वाले युग का सबसे बड़ा चित्रकार ।”
“लेकिन... लेकिन गोल फ्रेम...”
“हां, गोल फ्रेम ।” - सुनील गरजकर बोला - “इस चित्र को चौकोर फ्रेम में कैद रखना इसकी आत्मा के साथ अन्याय है । सेठ तुम तस्वीर बेचते हो कि भाड़ झोंकते हो । मैं कहता हूं कि अगर बिहारीलाल को यह पता लग गया कि तुमने उसकी महान कलाकृति को एक चौकोर फ्रेम में जकड़ रखा है तो वह क्रोध में या तो तुम्हारी गर्दन मरोड़ देगा या फिर खुद आत्महत्या कर लेगा । एक महान चित्र का इतना अपमान । काश, वह अनोखा चित्रकार फ्रांस में जन्मा होता जहां लोग कला की कद्र करते हैं । सेठ तुम्हें इतना दिखाई नहीं देता कि इस चित्र का सारा आईडिया ही गोल है । गोल सूरज, गोल उसकी परछाई, गोल-गोल समुद्र की लहरें, गोल ही आसमान और इतनी सारी गोलाइयों से भरपूर चित्र को तुमने एक चौकोर फ्रेम में लगा रखा है । शर्म आनी चाहिए तुम्हें सेठ ।”
“जी हां, जी हां ।” - दुकानदार बौखलाकर बोला - “वह तो आ रही है । दरअसल गोल फ्रेम का आइडिया मेरे दिमाग में भी आया था लेकिन मैं गोल फ्रेम को हासिल करने में आने वाली दिक्कतों से परेशान था । लेकिन फिर भी गोल फ्रेम का इन्तजाम किया जा सकता है अगर आप इस चित्र को खरीद लें तो..”
“खरीद लूं ?” - सुनील नाटक की चरम सीमा पर पहुंचता हुआ बोला - “तुम खरीदने की बात कर रहे हो, मैं कहता हूं कि अगर तुम इसे बेचने से इन्कार कर दो मैं तुम्हें कत्ल करके भी तस्वीर को यहां से निकाल ले जाऊंगा । बोलो, क्या कीमत है इसकी ?”
“नब्बे रुपये ।” - दुकानदार संकोच से बोला । उसे दुख हो रहा था कि क्यों उसने उस तस्वीर पर कीमत की चिट लगाई ! ऐसे अक्ल के अन्धे से तो तस्वीर के नौ सौ रुपये ऐंठने चाहिये थे ।
“नब्बे रुपये ।” - सुनील यूं चिहुंककर बोला, जैसे किसी ने चुटकी भर ली हो - “इतनी विशाल कलाकृति के सिर्फ नब्बे रुपये । सेठ तुम गधे हो । तुम हीरे को कौड़ियों के दाम बेच रहे हो, इस तस्वीर की कीमत नब्बे हजार रुपये होनी चाहिये, नब्बे लाख होनी चाहिए ।”
“जी, वह तो ठीक है ।” - दुकानदार बोला - “लेकिन कलाकार तो प्रशंसा का भूखा होता है, धन का नहीं । आपको चित्र पसंद आ गया, यही उसकी कला की सार्थकता है ।”
“तुम ठीक कहते हो, सुनील जेब से सौ का नोट निकालकर उसकी मुठ्ठी में ठूसता हुआ बोला - “अब तुम मुझे इस शताब्दी के और अगली-पिछली सारी शताब्दियों के महान कलाकर बिहारीलाल के दर्शन करा दो ।”
“मैं बिहारीलाल से आपकी मुलाकात करवाने की चेष्टा करूंगा ।”
“क्या यह शुभ काम अभी नहीं हो सकता ?” - सुनील याचनापूर्ण स्वर में बोला ।
“देखिये...”
“बिहारीलाल के टेलीफोन है ?” - सुनील ने उसकी बात काटकर पूछा ।
“है ।”
“तो उसे फोन करके कहो कि उसका एक प्रशंसक उसकी ‘सूर्योदय’ शीर्षक पेन्टिंग के विषय में उससे बात करना चाहता है । मैं इस महान चित्र को गोल फ्रेम में जड़वाने से पहले चित्रकार की राय भी जान लेना चाहता हूं ।”
“लेकिन जनाब ।” - दुकानदार बोला - “अब आप इस तस्वीर को खरीद चुके हैं । अब तो आपको इस तस्वीर को किसी भी रूप में प्रयुक्त करने का पूरा अधिकार है ।”
“नहीं सेठ ।” - सुनील बोला - “इतनी महान कलाकृति के साथ ऐसी धांधली नहीं चल सकती । कोई आदमी तस्वीर को खरीद सकता है, उसका मालिक बन सकता है, उसे घर में टांग सकता है । लेकिन वह उसे बिगाड़ने या बर्बाद कर देने का हक हरगिज-हरगिज नहीं रखता है । इस चित्र में कोई भी परिवर्तन करने से पहले मुझे चित्रकार की आज्ञा लेनी ही पड़ेगी ।”
“लेकिन मुझे पूरा विश्वास है ।” - दुकानदार बोला - “कि जब बिहारी को पता लगेगा कि आपने नब्बे रुपये देकर ‘सूर्योदय’ खरीद लिया है तो वह इस बात की परवाह नहीं करेगा कि आपने तस्वीर को दीवार पर टांगने के लिए खरीदा है या चटाई बनाकर बैठने के लिए ।”
सुनील ने कहर भरी नजरों से दुकानदार की ओर देखा ।
“अरे... ओ... हम नहीं ।” - दुकानदार हकलाकर बोला - “मैं तो... मैं मजाक कर रहा था । मैं अभी बिहारी लाल को फोन करता हूं ।”
दुकानदार झपटता हुआ एक छोटे के केबिन में घुस गया ।
सुनील उस नब्बे रुपये की चपत के विषय में सोचने लगा जो उसे ‘सूर्योदय’ खरीदने के विषय में लग गई थी ।
साला आर्टिस्ट का बच्चा । - वह तस्वीर को घूंसा दिखाता हुआ बड़बड़ाया ।
उसी समय दुकानदार वापिस आ गया ।
“मैंने बिहारीलाल को फोन पर सब कुछ बता दिया है ।” - वह बोला - “वह भी अपने चित्र के खरीदार से मिलने के लिए बहुत उत्सुक है । वह इस समय अपने फ्लैट में आपकी प्रतीक्षा कर रहा है । वह जाफर मेंशन की दूसरी मंजिल पर रहता है ।”
सुनील ने दुकानदार को धन्यवाद किया और चित्र को बगल में दबाये आर्ट पैलेस से बाहर आया ।
जाफर मैंशन पहुंचकर सुनील बड़ी सावधानी से इमारत में प्रविष्ट हुआ । वह तस्वीर से अपने चेहरे को छुपाये दूसरी मंजिल पर पहुंच गया । उसे भय था कि कहीं उसका टकराव सोनिया से न हो जाये ।
सुनील ने बिहारी के फ्लैट का द्वार खटखटा दिया ।
“मिस्टर बिहारीलाल ?” - द्वार खुलते ही द्वार पर खड़े पुरुष ने सुनील ने पूछा ।
“जी हां ।” - बिहारी बोला - “और आप ?”
“जी मेरा नाम जगन्नाथ है । मैंने ही आपका ‘सूर्योदय’ शीर्षक चित्र खरीदा है और उसी सिलसिले में...”
“ओ हां ।” - बिहारी एक ओर हटता हुआ बोला - “तशरीफ लाइये । मैं आप ही की प्रतीक्षा कर रहा था ।”
बिहारी सुनील को भीतर ले गया । भीतर एक स्त्री भी थी जिसका बिहारी ने सुनील ने परिचय अपनी पत्नी जानकी के रूप में कराया ।
“मिस्टर जगन्नाथ ।” - उपयुक्त स्थान पर बैठे चुकने के बाद बिहारी बोला - “किसी ऐसे आदमी से मिलकर वाकई बड़ी प्रसन्नता होती है जो कला को समझता हो और उसकी कद्र कर सकता हो । मैंने सुना है आप ‘सूर्योदय’ के फ्रेम में कुछ चेंज चाहते हैं ।”
सुनील उठा । उसने तस्वीर का पैकिंग खोला और उसे उठाकर एक कुर्सी पर इस प्रकार रख दिया कि वह एकदम बिहारी के सामने पड़े । फिर उसने वैसे ही उंगली और अंगूठा मिलाकर एक दायरा बनाया और उसके भीतर से तस्वीर को देखा । बिहारी ने भी उसका अनुकरण किया ।
“क्या चौकोर फ्रेम से गोल फ्रेम अधिक अच्छा नहीं लगेगा ?” - सुनील ने आशापूर्ण स्वर से पूछा ।
“बाई गाड, जगन्नाथ, तुम ठीक कह रहे हो ।” - क्षण भर चित्र का निरीक्षण करने के बाद बिहारी बोला ।
“मिस्टर बिहारी ।” - सुनील बोला - “इस प्रकार सब्जेक्ट में एक विशेषता पैदा हो जाएगी, ओरिजिनलिटी आ जायेगी और एब्स्ट्रेक्ट आर्ट में एक नया मोड़ पैदा हो जाएगा और लोग समझने लगेंगे कि चित्र की मूल भावना के प्रतिपादन में फ्रेम का भी अपना विशिष्ट महत्व होता है । आ हा हा क्या चीज पैदा हो जाएगी । मैं कहता हूं मिस्टर बिहारी लोग तड़प उठेंगे और चित्रकला के इतिहास में तुम्हारा नाम स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा ।”
बिहारी का चेहरा प्रसन्नता से दमक उठा ।
उसी समय जानकी काफी ले आई ।
काफी के दौरान में बिहारी को अपनी कई कलाकृतियां दिखाई । सुनील ने उन वाहियात चित्रों की ऐसे भारी-भारी शब्दों में तारीफ की कि बिहारी का दिमाग आसमान पर चढ गया ।
“अगर छोटा मुंह बड़ी बात न हो, तो मैं तुम्हें एक आइडिया दूं ?” - काफी पीने के बाद सुनील बोला ।
“कहो ।” - बिहारी प्रफुल्ल स्वर में बोला ।
“तुम किसी पौराणिक घटना को एब्स्ट्रैक्ट आर्ट में क्यो नहीं पेन्ट करते ?”
“मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा ।” - बिहारी असमंजसपूर्ण स्वर में बोला ।
“उदाहरण के तौर पर मैं तुम्हें एक आइडिया देता हूं । चौदह वर्ष वन में रहने के बाद राम अयोध्या लौटे थे तो उन्होंने एक धोबी के कहने पर सीता को बनवास दे दिया था । इस घटना को हजारों बार चित्रित किया जा चुका है । कोई सीता को रथ पर बैठकर बन की ओर जाती दिखा देता है तो कोई उसे रथ पर लक्ष्मण के साथ खड़ी दिखाता है । मतलब यह है कि उसी पुराने घिसे पिटे स्टाइल में हजारों बार चित्र बनाये जा चुके हैं । लेकिन यदि तुम चेष्टा करो तो इसी घटना को एब्स्ट्रैक्ट आर्ट में चित्रित कर सकते हो ।”
“कैसे ?” - बिहारी प्रभावित होकर बोला ।
“एक छः गुणा नौ फुट का कैनवस ले लो । उस पर काले, नीले, पीले, हरे जितने भी रंग इस दुनिया में होत हैं, सब धोप दो । ऊपर लम्बाई में सफेद रंग से मोटी-मोटी समानान्तर लकीरें खींच दो और शीर्षक लिख दो - “सीता बनवास ।”
“लेकिन इस तस्वीर में सीता कहां होगी ।”
“भई सीता तो उस रथ पर बैठी हुई थी जो अभी-अभी गुजर गया है और जिसके पहियों के निशान ही कच्ची धरती पर बाकी रह गये हैं ।”
बिहारी एकदम उछला और सुनील से लिपट गया ।
“बाईगाड, मिस्टर जगन्नाथ” - वह खुश होकर बोला - “तुम ग्रेट हो । भई वाह, क्या आइडिया मारा है ? मैं आज ही से सीता बनवास पर काम शुरु कर दूंगा ।”
“तुम्हें करना ही पड़ेगा ।” - सुनील उसे और फूंक देता हुआ बोला - “क्योंकि इस आइडिये को तुम्हारे सिवाय और केनवस पर उतार ही नहीं सकता ।”
“मैं जरूर करूंगा और जब चन्द्रशेखर को अपनी सफलता के विषय में बताऊंगा । तो वह खुश हो जायेगा ।”
“यह चन्द्रशेखर कौन है ?” - सुनील ने पूछा ।
“मेरा भाई है ।” - जानकी बोली - “वह इनकी तस्वीरों की बड़ी प्रशंसा किया करता है ।”
“तो उसे अभी क्यों नहीं बताते ?” - सुनील ने बड़ी मासूमियत से सुझाव दिया ।
“यह सम्भव नहीं ।” - जानकी धीरे से बोली ।
“क्यों ?” - सुनील ने शंकित होकर पूछा ।
“क्योंकि वह आजकल विशालगढ में नहीं है ।”
“ओह !” - सुनील निराशापूर्ण स्वर में बोला ।
“मैं उसे अभी फोन करता हूं ।” - बिहारी उत्साह में बोला ।
“कहां ?” - सुनील फिर आशांवित हो उठा ।
“विश्वनगर ।”
बिहारी टेलीफोन से उलझ गया ।
“हैलो, हैलो ।” - बिहारी बोला - “मैं विश्वनगर स्थित नवीन होटल के चौबीस नम्बर कमरे के चन्द्रशेखर नामक व्यक्ति से बात करना चाहता हूं, परसन-टू-परसन ।”
“नवीन होटल-चौबीस नम्बर कमरा-विश्वनगर ।” - कितनी ही देर बिहारी होल्ड किये रहा ।
“हैलो, शेखर ।” - वह प्रसन्न स्वर में बोला - “जानते हो, बेटा, यहां क्या हो गया है ? मैंने सूर्योदय बेच दिया है । नब्बे रुपये में और तुम कहते थे कि कोई उसे मुफ्त नहीं खरीदेगा । और अब मैं एक ऐसा जबरदस्त आइडिया पेन्ट करने वाला हूं कि सुनोगे तो फड़क जाओगे... मुझे कला का एक जबरदस्त पारखी मिल गया है । है... हां, उसी ने मुझे नया आइडिया दिया है... ओफ भले आदमी सुनो तो सही... हां, मुझे मालूम है तुमने मुझे क्या कहा था । तुमने मुझे कहा था कि अगर बहुत ही सख्त जरूरत हो तो मैं तुमसे संबंध स्थापित करूं । लेकिन यार यह जरूरी बात नहीं है क्योंकि मैं इस सदी की सबसे महान कृति का सृजन करने जा रहा हूं । यह पेन्टिंग तो मेरे जीवन को बदलकर रख देने वाली है । सारा आइडिया दिमाग में दिन की तरफ साफ रहे । मैं सीता बनवास पर काम... शेखर... हैलो... हैलो ।”
उसने रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया और बड़े निराशापूर्ण स्वर से जानकी को संबोधित करता हुआ बोला - “कमबख्त ने लाइन ही काट दी ।”
सुनील ने और अधिक वहां ठहरना उचित नहीं समझा । उसका काम हो चुका था, वह चन्द्रशेखर का पता जान गया था । उसने बिहारी से विदा ली और सूर्योदय को बगल में दबाये जाफरी मेंशन से बाहर निकल आया ।
सुनील अपने होटल में वापिस आ गया ।
होटल में आकर उसने दीवानचन्द को ट्रंक काल की - “हैलो दीवानचन्द ।” - उसके लाइन पर आते ही सुनील बोला ।
“यस, स्पीकिंग ।” - दीवानचन्द का नर्वस स्वर सुनाई दिया ।
“मैंने चन्द्रशेखर का पता पा लिया है ।”
“कहां है वह ?”
“विश्वनगर में । नवीन होटल के चौबीस नम्बर करने में ।”
“देखो सुनील ।” - दीवानचन्द का अनुनयपूर्ण स्वर सुनाई दिया - “जो करना है, जल्दी कर लो । अगर उस हरामजादे ने एक चिट्ठी मेरी पत्नी को भी लिख दी तो मैं तबाह हो जाऊंगा ।”
“तुम चिन्ता न करो ।”
“बस, तुम्हारा ही भरोसा है ।”
“और सुनो ।” - सुनील बोला - “मैंने तुम्हारे ड्राइंगरूम के लिए पेन्टिंग खरीदी है । जिसका शीर्षक ‘सूर्योदय’ है ।”
“लेकिन मुझे तस्वीरों में दिलचस्पी नहीं है ।”
“जब उस तस्वीर के नब्बे रुपये दोगे तो हो जाएगी ।”
“लेकिन मैं भला नब्बे रुपये क्यों दूंगा ?”
“कारण तुम नहीं समझोगे । बहरहाल यह नब्बे रुपये भी मुझे दोगे ।”
“अच्छा ।” - दीवान अनिच्छा से बोला ।
“ओ. के. दैन ।”
“ओ. के ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
उसने घड़ी देखी, शाम के पांच बजे थे ।
उसने होटल के मैनेजर को फोन किया ।
“हैलो मैनेजर ।” - वह बोला - “अभी पांच बजे है । मैं सोने लगा हूं, मुझे सात बजे जगा देना ।”
उसने उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही रिसीवर रख दिया और बिस्तर में घुस गया ।
***
एकाएक सुनील की नींद खुल गई ।
कमरे का द्वार लगातार भड़भड़ाया जा रहा था ।
सुनील ने बड़ी अनिच्छा से आंखें खोलीं और टेबल लैंप का स्विच आन कर दिया । साढे तीन बजे थे ।
सुनील ने उठकर कमरे का द्वार खोल दिया ।
बाहर दीवानचन्द खड़ा था ।
“तुम ?” - सुनील हैरान होकर बोला ।
“कैसी नींद है, तुम्हारी यार !” - दीवानचन्द तिक्त स्वर में बोला - “मुर्दों से शर्त लगाकर सोते हो क्या ? लगातार दस मिनट से द्वार खड़खड़ा रहा हूं और तुम्हारे कान पर जूं भी नहीं रेंगी है ।”
“भीतर आओ ।” - सुनील एक लम्बी जम्हाई लेकर बोला ।
दीवानचन्द उखड़ा-सा भीतर आकर एक कुर्सी पर बैठ गया ।
सुनील ने फोन उठाया ।
“हैलो आपरेटर ।” - सुनील बोला - “मैंने मैंनेजर से कहा था कि मुझे सात बजे जगा दिया जाये । मुझे जगाया क्यों नहीं गया ?”
“जरा एक मिनट होल्ड कीजिये ।” - आपरेटर मधुर स्वर में बोली - “मैं अभी पूछती हूं ।”
“यस मिस्टर सुनील ।” - क्षण भर बाद आपरेटर का स्वर सुनाई दिया - “आपने वाकई कहा था कि आपको सात बजे जगा दिया जाए । आपको जगाया इसलिए नहीं गया था अभी सात नहीं बजे हैं । अभी तो लगभग साढे तीन बजे हैं ।”
“आल राईट थैंक्यू ।” - सुनील उखड़कर बोला ।
“तुम यहां कैसे आए ?” - सुनील ने दीवानचन्द की ओर घूमकर पूछा ।
“मुझे नींद नहीं आई ।” - दीवानचन्द बोला - “मेरे सिर पर तो तलवार लटक रही थी । बाहर बजे एक प्लेन राजनगर से चलता है, मैं उसी पर आया हूं । ...क्या कहता है चन्द्रशेखर ?”
“लेकिन मैं अभी उससे मिला कहां हूं ?”
“क्या ?” - दीवानचन्द हैरान होकर बोला - “तुम विश्वनगर नहीं गए ?”
“नहीं ।”
“लेकिन भले आदमी, तुमने तो मुझे शाम के पांच बजे फोन किया था कि तुमने चन्द्रशेखर का पता पा लिया है ।”
“ठीक कहा था ।”
“तो फिर विश्वनगर गए क्यों नहीं ?”
“भई दीवानचन्द, इन साले होटल वालों ने सब घपला कर दिया है । मैंने शाम के पांच बजे मैनेजर को कहा था कि मुझे सात बजे जगा देना क्योंकि विश्वनगर जाने से पहले दो घन्टे आराम करना चाहता था लेकिन इस गधों ने समझा कि मैं सुबह के सात बजे जागना चाहता हूं ।”
“और तुम सोते ही रह गये ?”
“हां ।”
“हद हो गई यार ।” - दीवानचन्द निराशा से सिर हिलाता हुआ बोला - “मैं समझा कि मेरे विशालगढ पहुंचने तक सब मामला ठीक कर चुके होगे ।”
सुनील चुप रहा । गलती तो हो ही गई थी ।
“लेकिन चन्द्रशेखर विश्वनगर कैसे पहुंच गया ? वह विशालगढ में नहीं रहता क्या ?”
“रहता तो यहीं है लेकिन मेरा ख्याल है कि किसी के इशारे पर वह विशालगढ छोड़कर विश्वनगर भाग गया है ।”
“किसके ?”
“पता नहीं । शायद सोनिया ने ही उसे बताया हो कि मैं उसे तलाश कर रहा हूं और उसने गुप्त रूप से कूच कर जाना ही श्रेयस्कर समझा हो ।”
“तुम्हारी नींद ने सब गड़बड़ कर दी सुनील ।” - दीवानचन्द चिंतित स्वर में बोला - “कितना अच्छा होता अगर तुम उससे तभी मिल लेते जब तुम्हें उसका पता मालूम हुआ था । भगवान न करे वह उतने अरसे में निर्मल को फोन कर दे या चिट्ठी लिख दे । सुनील, मुझे तो ऐसा मालूम होता है जैसे मैं बारुद पर बैठा हुआ हूं और चन्द्रशेखर के दियासलाई दिखाने भर की देर है कि भक्क से उड़ जाऊंगा ।”
“ओफ्फोह ।” - सुनील परेशान स्वर में बोला - “अब एक ही राग गाये जाओगे क्या ? या तो ट्यून बदलो या फिर अपना आर्केस्ट्रा बन्द कर दो ।”
“तो तुम्हीं बताओ तुम्हें कौन-सा राग पसन्द है ?”
“जैसा मैं कहता हूं वैसा करो ?”
“फरमाओ ।”
“तुमने होटल में कमरा ले लिया है ?”
“नहीं, तो मैं सीधा ऐरोड्रम से आ रहा हूं ।”
“तो कमरा ले लो ।”
“ले लूंगा ।”
“कमरा ले लो और उस कमरे को ‘सूर्योदय’ से सजा दो ।”
“क्या मतलब ?” - दीवानचन्द हैरान होकर बोला ।
“दीवानचन्द प्यारे ।” - सुनील मीठे स्वर में बोला - “मैंने तुम्हारे लिए एक पेंटिंग खरीदी है । उसके नब्बे रुपये तुम मुझे दोगे । चित्रकार का नाम है बिहारी लाल और शीर्षक है ‘सूर्योदय’।”
और सुनील ने तस्वीर निकालकर उसके सामने रख दी ।
“हे भगवान !” - दीवानचन्द तस्वीर पर नजर पड़ते ही बोला - “तुमने इस तस्वीर को नब्बे रुपये देकर खरीदा है ?”
“और क्या हराम में मिली है ! दीवानचन्द यह तो तहलका मचा देने वाली तस्वीर है ।”
“ऐसी की तैसी तस्वीर की और इसके बनाने वाली की । निकालो इस गन्द खाने को बाहर ।”
सुनील ने तस्वीर उठाकर पलंग के नीचे सरका दी ।
“अब कुछ करने का भी इरादा है या नहीं ?” - दीवानचन्द जले स्वर से बोला ।
“सोने का इरादा है ।”
“विश्वनगर नहीं चलोगे ?”
“सुबह चलेंगे ।”
“सुनील ।” - दीवानचन्द माथा ठोककर बोला - “यार, तुम बाकी लोगों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करते हो क्या ? मेरा पटड़ा हुआ जा रहा है और तुम्हें ऐश सूझ रही है ।”
“रिलैक्स ! कुछ नहीं होता ।” 
“चन्द्रशेखर मेरी पत्नी के सामने मेरा कच्चा चिट्ठी नहीं खोलेगा ?”
“नहीं खोलेगा । क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि यह ब्लैकमेलिंग तुम्हें बदनाम करके तुमसे रुपया हथियाने के लिए नहीं की जा रही है । दीवानचन्द, यह सारा जाल तुमसे तुम्हारी कार का पेटेन्ट हासिल करने के लिए फैलाया गया है । अगर उन्होंने तुमसे ब्लैकमेलिंग ही करनी होती तो वे पहले ही पत्र में तुमसे एक मोटी रकम की भी मांग कर सकते थे ।”
दीवानचन्द उलझनपूर्ण दृष्टि से उसे देखता रहा ।
“इसलिए, बड़े भाई, एक कमरा लो और जाकर सफर की थकान उतारो । सवेरे आठ बजे हम विश्वनगर चलेंगे और विश्वास रखो उतने समय में कुछ होने वाला नहीं है ।”
दीवानचन्द अनिश्चित सा वहां से विदा हो गया ।
सुनील भी दुबारा बिस्तर में घुस गया ।
***
अगले दिन लगभग दस बजे सुनील दीवानचन्द के साथ विश्वनगर पहुंच गया ।
उन्हें नवीन होटल और फिर उसका चौबीस नम्बर कमरा तलाश करने में कोई दिक्कत नहीं हुई ।
सुनील ने द्वार खटखटाया ।
कोई उत्तर नहीं मिला ।
दूसरी बार सुनील ने जरा जोर से और अधिक देर तक द्वार खटखटाया ।
कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई ।
“आओ, नीचे देखते हैं ।” - सुनील दीवानचन्द से बोला - “शायद चन्द्रशेखर ब्रेकफास्ट के लिए मेन हाल में गया हो ।”
दोनों हाल में आ गए । लेकिन चन्द्रशेखर वहां नहीं था ।
“तुम चन्द्रशेखर को पहचानते हो ?” - दीवानचन्द ने पूछा ।
“हां ।” - सुनील बोला - “मैंने बिहारी के घर में चन्द्रशेखर की एक तस्वीर देखी थी ।”
दीवानचन्द चुप हो गया ।
“थोड़ी देर और प्रतीक्षा करते हैं ।” - सुनील बोला - “वह आसपास ही कहीं होगा या शायद बाथरूम में ही हो और शावर के शोर में द्वार खटखटाए जाने की आवाज न सुन सका हो ।”
लगभग दस मिनट बाद वे फिर चौबीस नम्बर कमरे के सामने लौट आए ।
सुनील ने फिर द्वार खटखटाया ।
कोई उत्तर नहीं मिला ।
सुनील ने द्वार की नॉब को घुमाकर हल्का सा धक्का दिया । द्वार खुल गया ।
“क्या कर रहे हो ?” - दीवानचन्द आशंकापूर्ण स्वर में बोला ।
“जरा कमरे को भीतर से देखते हैं ।” - सुनील भीतर घुसने का उपक्रम करता हुआ बोला ।
“क्यों खामखाह फंसने का काम कर रहे हो ?”
“अगर तुम्हें डर लगता है तो तुम यहीं ठहरो ।” - सुनील बोला और कमरे में घुस गया ।
दीवानचन्द भयभीत सी मुद्रा बनाए गलियारे में ही खड़ा रहा ।
सुनील ने द्वार को ठोकर मारकर भीतर से बन्द कर लिया और कमरे का निरीक्षण करने लगा ।
उसकी दृष्टि बाथरूम के अधखुले द्वार पर आकर अटक गई ।
द्वार से बाहर निकले हुए हुए दो ऐंठे हुए पांव दिखाई दे रहे थे जो अपनी कहानी खुद कह रहे थे ।
सुनील झपटकर बाथरूम के पास पहुंचा और अब उसे मृतक का पूरा शरीर दखाई देने लगा ।
लाश पीठ के बल पड़ी थी । उसकी छाती में एक गोली का छेद स्पष्ट दिखाई दे रहा था जिसमें से रक्त बह-बहकर कपड़ों और फर्श पर जम गया था ।
आसपास कोई ऐसे चिन्ह नहीं थे जिससे लड़ाई झगड़े का आभास हो ।
लाश चन्द्रशेखर की थी ।
लाश की छाती पर एक चाबियों का गुच्छा पड़ा था । सुनील ने बड़ी सावधानी से उसे उठाया और अपनी जेब में रख लिया । मेज पर एक कार्ड पड़ा था जिसमें चन्द्रशेखर का विशालगढ का पता लिखा हुआ था । सुनील ने वह भी उठा लिया । सुनील ने अपनी जेब से रुमाल निकाला और उसे बड़ी सावधानी से उन स्थानों पर फेरने लगा जहां उसे अपनी उंगलियों के निशान होने का संदेह था । फिर उसने द्वार खोला और बाहर निकल आया । बाहर निकलकर उसने बाहर की नॉब पर भी रुमाल फेर दिया ।
दीवानचन्द गलियारे के कोने पर खड़ा था । सुनील लंबे डग भरता हुआ उसके समीप पहुंच गया ।
“मिला ?” - दीवानचन्द ने उत्सुकता से पूछा ।
“वह कमरे में नहीं हैं ।” - सुनील ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया ।
“कमरे में नहीं है ?” - दीवानचन्द आश्चर्यचकित स्वर में बोला ।
“हां ।”
“तो फिर तुम इतनी देर भीतर क्या करते रहे ?”
“उसे खोजता रहा ।”
“अब ?”
“अब वापिस विशालगढ चल रहे हैं ।”
“चन्द्रशेखर की तलाश नहीं करोगे ?”
“नहीं ।”
“अजीब आदमी हो । इतनी दूर सवेरे-सवेरे झक मारते हुए आए चन्द्रशेखर से बात करने और अब उससे बिना मिले ही जा रहे हो ।”
“मैंने अपनी योजना बदल दी है । अब चन्द्रशेखर से मिलने में कोई लाभ नहीं है ।”
“लेकिन मुझे भी तो कुछ समझाओ ।”
“तुम्हारा हर बात जानना जरूरी नहीं है ।”
दीवानचन्द चुप हो गया ।
“देखो, दीवानचन्द ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - “तुम मेरे साथ विशालगढ चलो । वहां होटल से अपना सामान उठाओ और जो पहला प्लेन तुम्हें राजनगर के लिए मिले उस पर वापिस उड़ जाओ ।”
“लेकिन मैं वापिस जाकर क्या करूंगा ?” - दीवानचंद ने क्षीण-सा प्रतिवाद किया ।
“और यहीं रहकर क्या करोगे ?” - सुनील रूखे स्वर में बोला ।
“ये एकाएक तुम्हारा सारा प्लान कैसे बदल गया है ?”
“तुम नहीं समझोगे ।”
दीवानचंद चुप हो गया और फिर नहीं बोला ।
***
सुनील तूफान की गति से कार चलाता हुआ विशालगढ पहुंचा । उसने अपनी जेब में से वह कार्ड निकाला जो उसे चंद्रशेखर के होटल के कमरे की मेज से मिला था । कार्ड पर माडल टाऊन की एक इमारत का पता था ।
सुनील उसी गति से माडल टाऊन पहुंच गया ।
उसने कार को इस इमारत के सामने रोका और बाहर निकल आया ।
“दीवानचंद ।” - सुनील कार में बैठे दीवानचंद से बोला - “ये कार होटल वालों ने मुझे किराए पर दिलवाई थी । अब मुझे इसकी जरूरत नहीं है । तुम अपना सामान लेने होटल जाओगे ही, इसी कार पर चले आओ । कार को होटल पर छोड़ देना और एयरोड्राम के लिए टैक्सी कर लेना ।”
“लेकिन तुम यहां क्या करोगे ?” - दीवानचंद स्टेयरिंग के पीछे सरकता हुआ बोला ।
“मैं यहां मजमा लगाऊंगा । सुना है इस आबादी में काफी बेवकूफ लोग बसते हैं ।”
दीवानचंद ने कोई उत्तर नहीं दिया । उसने चुपचाप कार बैक की और वहां से चला गया ।
सुनील झपटता हुआ इमारत में घुस गया और एक फ्लैट पर लगी नेम प्लेट पढने लगा ।
समय बहुत कम था । चंद्रशेखर की हत्या का पता लग जाने के बाद पुलिस किसी भी समय यहां उसके फ्लैट पर पहुंच सकती थी । तीसरी मंजिल के एक फ्लैट पर उसे चंद्रशेखर की नेम प्लेट दिखाई दे गई । सनील ने जेब से वो चाबियां निकाली जो उसे चंद्रशेखर की लाश के पास मिली थीं । उनमें से एक चाबी ताले को लग गई ।
सुनील भीतर घुस गया ।
सुनील ने बड़ी तेजी से फ्लैट की एक-एक चीज टटोलनी आरंभ कर दी ।
कमरे में एक ओर लिखने की मेज थी जिस पर पोर्टेबल टाइप राइटर भी रखा था । सुनील ने उसके दराज देखने आरम्भ कर दिए ।
एक दराज में बड़े व्यवस्थित ढंग से फाइलें लगी हुई थीं । सुनील ने ‘डी’ से शुरु होने वाले नामों वाली फाईल बाहर निकाली । उस फाइल में उस पत्र की प्रतिलिपि मौजूद थी जो चंद्रशेखर ने दीवानचंद को भेजा था ।
सुनील ने कुछ सफे और पलटे ।
एकाएक उसका हाथ यूं रुक गया जैसे बिजली के नंगे तार से छू गया हो ।
फाइल में निर्मला के नाम भेजे हुए पत्र की एक प्रतिलिपि भी लगी हुई थी । पत्र पर पिछले दिन की तारीख थी । लिखा था:
मिसेज दीवानचंद,
इस पत्र द्वारा मैं यह प्रकट करना चाहता हूं कि आपके पति मिस्टर दीवानचंद आपके प्रति कितना ईमानदार हैं ।
दीवानचंद पिछले दिनों अपनी कम्पनी के प्रतिनिधि के रूप में जिसकी स्वामिनी, मुझे मालूम हुआ है, आप हैं - एक सेल्ज कांफ्रेंस में शामिल होने के लिए विशालगढ आया था । लेकिन वहां उसने अपने काम से ज्यादा दिलचस्पी उन लड़कियों में ली जो अतिथियों के मनोरंजन के लिए कांफ्रेस के प्रेसीडेंटी मगन भाई द्वारा विशेष रूप से नियुक्त थीं और आपके पति ने उन्हीं लड़कियों में से सोनिया नाम की एक लड़की के साथ उसी के फ्लैट में रात को वे कुकर्म किए जो किसी भी रूप में क्षम्य नहीं है ।
साधारण परिस्थितियों में शायद मैंने इस मामले में दिलचस्पी न ली होती - लेकिन जबसे मुझे यह मालूम हुआ है कि आप पति पत्नी एक यतीम बच्चे का भरण पोषण कर रहे हैं, मैं अपने नैतिक कर्तव्य समझने लगा हूं कि मैं इस घटना की सूचना अधिकारियों को दे दूं ताकि वे उस मासूम बच्चे को एक चरित्रहीन बाप की छत्रछाया में से निकालकर किन्हीं सुयोग्य हाथों में सौंप दें ।
मैं यह भी सिद्ध कर सकता हूं कि कांफ्रेंस का प्रेसीडंट मगन भाई ग्राहकों को फंसाने के लिए जवान लड़कियों को चारे की तरह प्रयोग में लाता है । कई लड़कियां जो मगन भाई से धन पाती हैं, उसके इशारे पर ग्राहकों के सामने समर्पण कर देती हैं और अपना सब कुछ लुटा देती हैं । मैंने मग्न भाई को एक वार्निंग दे दी है, यदि उसने अपना रवैया नहीं बदला तो मैं उसके कुकर्मों की सूचना पुलिस को दे दूंगा ।
कहने का तात्पर्य यह है कि मैं एक ईमानदार नागरिक होने के नाते पर हर सूरत में अनाचार के विरुद्ध आवाज उठाऊंगा ।
मैं आपको फिर पत्र लिखूंगा ।
चन्द्रशेखर
सुनील ने दोनों पत्रों की प्रतिलिपियां तह करके जेब में रख लीं । वह तेजी से बाकी दराजों को टटोलने लगा । एक दराज में उसे चन्द्रशेखर की डायरी दिखाई दी । सुनील ने उसे भी जेब में डाल लिया ।
फिर वह कमरे से बाहर निकल आया । उसने द्वार को ताला लगाया और फिर बड़ी बेफिक्री से सीटी बजाता हुआ इमारत की सीढियां उतर गया ।
एक लैदर स्टोर से उसने एक ब्रीफकेस खरीदा । उसने डायरी, दोनों पत्रों की प्रतिलिपियां और चन्द्रशेखर के फ्लैट की चाबियां उस ब्रीफकेस में डालीं ।
फिर उसने एक टैक्सी ली और वह विशालगढ के रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया । स्टेशन वे क्लाक-रूम में उसने एक खाली लाकर ले लिया । उसने ब्रीफकेस को लाकर में रखा और लाकर की चाबी को एक मोटे से रजिस्ट्री के लिफाफे में डालकर लिफाफा अपने होटल के पते पर पोस्ट कर दिया ।
अब वह खतरे से बाहर था । अब अगर पुलिस उसकी तलाशी ले भी ले तो उसे कुछ हासिल नहीं होगा ।
सुनील ने एक टैक्सी ली और जाफरी मैंशन पहुंच गया । वह देखना चाहता था कि सोनिया पर चन्द्रशेखर की हत्या के समाचार की प्रतिक्रिया होती है ।
दूसरी मंजिल पर पहुंचकर सुनील बड़ी सावधानी से बिहारी के फ्लैट के सामने से गुजरा और फिर उसने सोनिया के फ्लैट का द्वार खटखटा दिया ।
“कौन है ?” - भीतर से सोनिया की आवाज आई ।
“सुनील !”
क्षण भर तक शांति छाई रही, जैसे वह फैसला कर रही हो कि सुनील के लिए द्वार खोलना चाहिए या नहीं । फिर द्वार खुल गया ।
सोनिया केवल एक नाइट गाउन पहने द्वार के मध्य में खड़ी थी ।
“तुम फिर आ गये ?” - वह विचित्र स्वर में बोली ।
“कोई हर्ज है क्या ?” - सुनील ने मीठे स्वर से प्रश्न किया ।
“भारी हर्ज है । तुम तो ऐसे दरवाजा खटखटाते हो जैसे एक ही मिनट में दरवाजा खुल न गया तो तुम उसे तोड़कर भीतर घुस आओगे । तुम तो किसी को कपड़े भी बदलने का मौका नहीं देते ।”
“कपड़े बदलने की जरूरत क्या है । अच्छी खासी सब जगह ढकी तो हुई हो ।”
“बदमाश !” - सोनिया होंठ सिकोड़कर प्यार भरे स्वर में बोली ।
“प्रमिला भी यही कहती है ।”
“प्रमिला कौन है ?”
“राजनगर में मेरे पड़ोस में रहती है, मेरे ही दफ्तर में काम करती है ।”
“कोई रोमान्टिक अटैचमैंट ?”
सुनील हंस पड़ा ।
“रोमान्टिक अटैचमैंट और प्रमिला से ।” - वह बोला - “मैं शहीद नहीं होना चाहता, उससे इश्क करने से तो अच्छा है कि इन्सान किसी मगरमच्छ के जबाड़े में अपना सिर रख दें ।”
सोनिया भी मुस्करा पड़ी ।
“अब मैं यहीं खड़ा होकर बातें करता रहूं या भीतर भी आने दोगी ?”
“एक रास्ता और भी है ।”
“क्या ?”
“तुम बात ही मत करो ।”
“मैं तुम्हें यह बताने के लिए आया था कि मैंने चन्द्रशेखर का पता लगा लिया है ।”
“सच कह रहे हो ?”
“सैंट परसैंट ।” सुनील बोला - “विश्व नगर नवीन होटल, कमरा नम्बर...”
“भीतर आओ ।” - सोनिया एक और हटती हुई बोली - “तुम हमेशा कोई न कोई ऐसी बात कह देते हो कि मेरी अपनी दिलचस्पी जाग उठती है और मुझे अपना इरादा बदल देना पड़ता है ।”
“लेकिन तुम एक ही बार यह फैसला क्यों नहीं कर लेती कि तुम कभी भी मुझे अपने फ्लैट में आने से नहीं रोकोगी ।” - सुनील भीतर आकर एक कुर्सी में धंसता हुआ बोला ।
“मैं ब्वायफ्रेंड्स को इतनी लिफ्ट नहीं देती कि वे मेरे घर के ही चक्कर लगाने लगें ।” - सोनिया भी द्वार बन्द करके उसकी ओर बढती हुई बोली ।
सोनिया के चलने के ढंग से स्पष्ट रूप से प्रकट होता था कि उसने गाउन के अतिरिक्त शरीर पर कुछ भी नहीं पहना हुआ था । चलते समय उसके शरीर की एक एक-एक रेखा तड़प उठती थी । सुनील एकटक उसे देखता रहा जब तक वह उसके सामने आकर बैठ न गयी ।
“क्या देख रहे हो ?” - सोनिया नर्वस होकर बोली ।
“ऊपर वाले की कलाकारी ।”
“क्या मतलब !” - सोनिया गाऊन से अपनी टांगे ढकती हुई बोली ।
“ऐसा मालूम होता है भगवान ने तुम्हारी शरीर रचना करने से पहले कई स्कैच बनाकर मिटाये होंगे ।”
“तुम तो यूं बातें कर रहे हो जैसे आज तक कोई लड़की ही न देखी हो ।”
“लड़कियां बहुत देखी हैं लेकिन तुम्हारे जैसी परफेक्ट बाडी किसी की नहीं देखी ।”
“प्रमिला की भी नहीं ।” - वह दुष्टता से बोली ।
“तुम तो गाली दे रही हो ।”
“काफी पियोगे ?” - सोनिया विषय बदलती हुई बोली ।
“पहले तो तुमने काफी के लिए नहीं पूछा था ।”
“पहले तुमने इतनी अच्छी बातें भी तो नहीं की थीं ।”
सुनील चुप रहा ।
“पहले मैं काफी का इन्तजाम कर आऊं ।” - सोनिया उठती हुई बोली ।
वह किचन में घुस गई । कुछ क्षण बाद वह वापिस आ गई ।
“मैं केतली में पानी रख आई हूं ।” - वह बोली - “मैं जरा कपड़े पहन लूं, तुम देखते रहना ।”
“क्या देखता रहूं ?” - सुनील शरारत भरे स्वर में बोला - “कि तुम कपड़े कैसे पहनती हो ?”
“बेईमान ।” - एक लज्जा भरी मुस्कराहट सोनिया के चेहरे पर खेल गई ।
“तो और क्या देखने के लिए कह रही हो ?” - सुनील ने भोले स्वर में पूछा ।
“केतली को भले आदमी, कहीं पानी उबल-उबल कर बाहर ही न गिरता रहे ।”
“अच्छा ।” - सुनील ने आश्वासन दिया ।
सोनिया अपने बैडरूम में घुस गई । उसने पांव की ठोकर से बैडरूम का द्वार बन्द किया - लेकिन द्वार अच्छी तरह बन्द न हुआ । द्वार और चौखट में एक झिरी बाकी रह गई लेकिन सोनिया ने उसे बन्द करने की चेष्टा नहीं की ।
सुनील ने गाउन सोनिया के शरीर से अलग होता दिखाई दिया और साथ ही गुलाबी शरीर की हल्की सी झलक भी ।
“सुनील ।” - सोनिया भीतर से बोली - “तुम काफी देख रहो हो न ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?” - सोनिया का आश्चर्यचकित स्वर सुनाई दिया ।
“अभी मैं काफी से ज्यादा अच्छी चीजें देख रहा हूं ।”
सोनिया चुप हो गई । फिर शायद उसे परिस्थिति का आभास मिल गया । उसने एक झटके से द्वार बन्द कर दिया ।
यह पटाक्षेप देखकर सुनील भई किचन में घुस गया ।
सोनिया के वापिस आने तक वह काफी बनाकर मेज पर रख चुका था ।
सोनिया शरीर की एक-एक रेखा को स्पष्ट करने वाले शरीर से बिल्कुल फिट कपड़े पहने उसके सामने आ खड़ी हुई ।
“शादी कर लो, सुनील ।” - सोनिया काफी देखकर बोली - “तुम बड़े अच्छे पति सिद्ध हो सकते हो ।”
“कैसे ?”
“कम से कम पत्नी के लिए काफी तो बना दिया करोगे ।”
“वहम है तुम्हारा । जिस दिन मेरी पत्नी की मौजूदगी में मुझे काफी बनानी पड़ेगी मैं या तो उसे तिमंजिले से धकेल दूंगा या खुद आत्महत्या कर लूंगा ।”
“खैर छोड़ो ।” - सोनिया काफी की एक लम्बी चुस्की लेती हुई बोली - “अब तुम चाहते क्या हो ?”
“तुम्हारे से कुछ जानकारी हासिल करना ।”
“तो करो ।”
“चन्द्रशेखर एकाएक विशालगढ छोड़कर विश्वनगर क्यों चला गया था ?”
“कल तुम्हारे आने के बाद मैंने उसे फोन किया था और कहा था कि सीक्रेट सरविस का कोई आफिसर उसको तलाश करता फिर रहा है । मैंने उसे इतना डरा दिया कि उसने शहर से कूच कर जाना ही बेहतर समझा ।”
“तुमने चन्द्रशेकर को तलाक क्यों दे दिया है ?”
“बता दूं ?” - सोनिया गम्भीर स्वर में बोली ।
“जरूर ।”
“चन्द्रशेखर मेरी आशा के विरुद्ध बड़ा भयानक आदमी सिद्ध हुआ था । उसने अपने चाचा की हत्या की थी ।”
सुनील आवाक सा सोनिया का मुंह देखने लगा ।
“मुझे तो अपनी ही जान का खतरा हो गया था, सुनील साहब ।”
“लेकिन चन्द्रशेखर ने ऐसा क्यों किया ?”
“रुपये के लिये । वह और जानकी-दो ही तो आदमी थे जिनको चाचा का सारा रुपया मिलना था । सम्भव है जानकी ने भी चाचा को जल्दी से जल्दी भगवान के घर पहुंचाने में चन्द्रशेखर का हाथ बंटाया हो ।”
“लेकिन जानकी तो ऐसी स्त्री नहीं मालूम होती ।”
“तुम्हें क्या मालूम ?”
“मैं खुद उससे मिला हूं ।” - फिर सुनील को एकदम अपनी गलती का आभास हो गया कि कोई गलत बात उसके मुंह से निकल गर्ई है । वह हकलाकर बोला - “मैं... मेरा मतलब है... मैं...”
“सु... नी... ल ।” सोनिया ताड़ना भरे स्वर में बोली - “तो वह तुम थे, चोर, धोखेबाज...”
“क्या हो गया ?” - सुनील बौखलाकर बोला ।
“कल बिहारी मुझे मिला था । वह खुशी से बल्लियों उछल रहा था । उसने कला के एक बहुत बड़े पारखी को अपनी पेन्टिंग बेची थी और सुनील, भगवान कसम, वह पारखी तुम थे ।”
“मैं ?” - सुनील आश्चर्य प्रदर्शित करता हुआ बोला ।
“हां, तुम” - सोनिया दृढ स्वर में बोली - “मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश मत करो । तुमने बिहारी को भारी धोखा दिया है । वह बेचारा कल से ही सीता-बनवास पेंट करने में लगा हुआ है । तुमने उसकी उल्टी सीधी प्रशंसा करके उसे उकसाया होगा और वह जोश में आकर चन्द्रशेखर को फोन पर बैठा होगा और इस प्रकार तुम चन्द्रशेखर का पता जान गये होगे ।”
“हां ।”
“यू बास्टर्ड ।” - सोनिया बिल्लाई ।
“वह तो हुआ लेकिन तुम मुझे यह तो बताओ कि तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि चन्द्रशेखर ने अपने चाचा की हत्या की है ।”
“मैं अब तुम्हें कुछ नहीं बताऊंगी । तुम फौरन मेरे फ्लैट में से दफा हो जाओ ।”
“सोनिया प्लीज ।” - सुनील याचनापूर्ण स्वर में बोला ।
“देखो सुनील मैं...”
उसी समय किसी ने द्वार खटखटाया ।
“अब कौन आ मरा ?” - सोनिया बड़बड़ाई और द्वार खोलने चल दी ।
“तुम्हारा कोई प्रशंसक होगा ।” - सुनील ने सुझाया ।
सोनिया ने द्वार खोला ।
“क्या आप किसी चन्द्रशेकर को जानती हैं ?” - राहदारी से एक पुरुष स्वर सुनाई दिया ।
“कौन चन्द्रशेखर ?” - सोनिया व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली - “चन्द्रशेखर आजाद ?”
“मजाक नहीं, मिस्टर ।” - पुरुष स्वर इस बार तनिक कठोर हो उठा - “मैं सीक्रेट सरविस का आदमी हूं ।”
“ओह !”
“अब बताओ चन्द्रशेखर को जानती हो ?”
“लेकिन आप यह क्यों पूछ रहे हैं ?”
“उसकी हत्या हो गयी है ।”
सोनिया का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया । उसका हाथ स्वयं ही द्वार से हट गया ।
ऑफिसर द्वार को धकेलता हुआ भीतर घुस आया ।
“ओह ।” - ऑफिसर सुनील पर दृष्टि पड़ते ही रूखे स्वर में बोला - “आपकी तारीफ जनाब ?”
“जितनी भी की जाए, कम है ।” - सुनील नाटकीय स्वर में बोला - “वैसे मेरा नाम सुनील कुमार चक्रवर्ती है । मैं राजनगर से प्रकाशित होने वाले अखबार ब्लास्ट का रिपोर्टर हूं ?”
“आप यहां क्या कर रहे हैं ?”
“चन्द्रशेखर के विषय में जानकारी हासिल करने की चेष्टा कर रहा हूं ।”
“किस सिलसिले में ?”
“अगर आप सच कहते हैं कि चन्द्रशेखर मर गया है तो कोई सिलसिला बाकी नहीं है ।”
“देखो, बड़े भाई ।” - ऑफिसर बोला - “मेरा नाम पाल है और सारा विशालगढ जानता है कि पाल अखबार वालों को बढावा नहीं देता ।”
“तो फिर मुझे क्या बता रहे हो ?” - सुनील भी तनिक ऊंचे स्वर में बोला - “मैंने तुमसे बढावा कब मांगा है ?”
“तुम कब से यहां हो ?” - पाल सुनी-अनसुनी करके बोला ।
“कल से ।”
“कहां रह रहे हो ?”
सुनील ने होटल का नाम बता दिया ।
“पिछले चौबीस घन्टों में विश्व नगर के नवीन होटल में गये हो तुम ?”
“नहीं ।”
“हमें मालूम हुआ है कि इस अरसे से कोई आदमी किराये की कार पर विश्व नगर गया है और ऐसी सम्भावना है कि उसी आदमी ने चन्द्रशेखर की हत्या की है ।”
उसी समय फ्लैट के खुले द्वार पर जानकी प्रकट हुई । उसके हाथ में चाय का एक खाली कप था । सुनील पीठ फेरकर खड़ा हो गया ।
“सोनी ।” - वह द्वार पर ही खड़ी-खड़ी बोली - “तुमसे एक कप चीनी मांगने आयी हूं । चाय बना रखी है, देखा तो चीनी नहीं थी... सोनिया, ये पीठ फेरे कौन खड़ा है... ये, ये तो जगन्नाथ हैं... क्यों मिस्टर जगन्नाथ आप यहां कैसे ?”
सुनील को लाचार होकर जानकी की ओर से मुंह फेरना पड़ा जानकी ने उसे पीठ से पहचान लिया था ।
पाल ने एक बार सुनील को घूरा और फिर जानकी की ओर देखता हुआ बोला - “जगन्नाथ ! इनका नाम जगन्नाथ है ?”
“जी हां ।” - जानकी बोली - “ये कला के बहुत बड़े पारखी है । इन्होंने मेरे पति की एक कलाकृति खरीदी है ।”
“आप जरा भीतर आ जाइये ।” - पाल बोला ।
“मिस्टर पाल ।” - सोनिया धीरे से बोली - “यह चन्द्रशेखर की बहन जानकी है ।”
पाल इस नई सूचना को सुनकर क्षण भरा रुका, फिर जानकी से बोला - “आप इन मिस्टर जगन्नाथ के विषय में और क्या जानती हैं ?”
“जानकी ।” - सोनिया जल्दी से बोली - “चन्द्रशेखर मर गया है ।”
जानकी सिर थामकर धम्म से सोफे पर बैठ गई ।
“देखो मिस सोनिया ।” - पाल कठोर स्वर में बोला - “अब तुम मेरी आज्ञा के बिना जबान नहीं खोलोगी, समझीं ?”
“अच्छा जानकी देवी ।” - वह जानकी की ओर घूमा - “इस आदमी ने आपको अपना नाम जगन्नाथ बताया है और स्वयं को कला का पारखी कहकर आपके पति की पेंटिंग भी खरीदी है, यह ठीक है ?”
“मेरे भाई को क्या हुआ है ?” - जानकी भारी स्वर में बोली ।
“वह भी बताता हूं, पहले मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो ।”
“जानकी ।” - सोनिया फिर बोली - “शेखर की हत्या हो गई है ।”
“ओह, शटअप ।” - पाल गरजा - “मैं कह रहा हूं मुझे बात करने दो ।”
“जानकी देवी ।” - पाल फिर जानकी से बोला - “जब वह जगन्नाथ आपके फ्लैट पर आया था तो क्या बातें हुई थीं ?”
“ये मेरे पति से मॉडर्न आर्ट के विषय में बातें करते रहे थे । इन्होंने मेरे पति को एक नई पेंटिंग का आइडिया भी दिया था ।”
“क्या चन्द्रशेखर का भी कोई जिक्र आया था ?”
“नहीं ।”
“क्या इसने आपके पति को चन्द्रशेखर से संबंध स्थापित करने के लिए प्रेरित किया था ?”
“नहीं । इन्होंने कुछ नहीं कहा था । मेरे पति ने स्वयं चन्द्रशेकर को फोन किया था ।”
“तुम्हारा पति जानता था कि चन्द्रशेखर कहां है ?”
“हां ।”
“वह कहां था ?”
“नवीन होटल, विश्वगर, रूम नम्बर 24 ।”
“और टेलीफोन की सारी वार्ता मिस्टर जगन्नाथ भी सुन रहे थे ?”
“हां ।”
“जानकी ।” - सोनिया जल्दी से बोली - “यह जगन्नाथ नहीं सुनील है, ब्लास्ट का रिपोर्टर ।”
“मिस सोनिया ।” - पाल गरजा - “अगर चुप नहीं रहोगी तो मुझे मजबूरन तुम्हें बाथरूम में बन्द करना पड़ेगा ।”
“तुम्हें यह अथारिटी है ?” - सुनील ने उपहासास्पद स्वर में पूछा ।
“हां, है और कम से कम कोई रिपोर्टर उसे चैलेंज नहीं कर सकता ।” - पाल अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
“सोनिया ।” - जानकी हैरान होकर बोली - “तुम्हारा मतलब है यह आदमी जगन्नाथ बनकर हमें धोखा दे रहा था ?”
सोनिया ने स्वीकारात्मक ढंग से सिर हिला दिया ।
“तुम... लुच्चे, बदमाश...”
“आप चुप रहिए ।” - पाल ऊंचे स्वर में बोला ।
“अब तुम बोलो, मिस्टर जगन्नाथ ।” - पाल सुनील की ओर घूम कर बोला ।
“तुम तो कह रहे थे कि तुम्हारे सिवा कोई नहीं बोलेगा ?” - सुनील बोला ।
“लेकिन अब तुम भी बोलोगे ।”
“मजबूर कर सकते हो मुझे ?”
“हां ।”
“तो कोशिश कर देखो ।”
पाल का चेहरा क्रोध से लाल हो गया । वह घूंसा तानकर सुनील की ओर बढा । सुनील निश्चिन्त मुद्रा में कुर्सी पर बैठा रहा । फिर न जाने क्या सोचकर पाल रुक गया ।
“तो तुम्हें शुरु से ही मालूम था कि चन्द्रशेखर कहां है ?” - पाल बोला ।
“इससे क्या होता है ? यह तथ्य बिहारीलाल को, जानकी को, सोनिया को भी मालूम था ।”
“लेकिन इन लोगों को यह बात स्वाभाविक रूप से मालूम थी और तुमने इसे जबरदस्ती जाना था ।”
“तुम कहना क्या चाहते हो ?” - सुनील उखड़े स्वर से बोला - “चन्द्रशेखर की हत्या मैंने की है ?”
“हो सकता है ।”
“तो फिर गिरफ्तार क्यों नहीं करते मुझे ? ताकि मैं तुम पर मान हानि का कम से कम दस हजार का दावा ठोंक सकूं ।”
“किसी दिन ऐसे स्थान पर मिल गए जहां गवाही देने वाला कोई न हो, तो मैं तुम्हारे सारे अरमान पूरे कर दूंगा ।” - पाल दांत पीसता हुआ बोला ।
“मुझे तुम्हारा चैलेंज मन्जूर है ।” - सुनील उठकर बोला - “मैं उस महान दिन की प्रतीक्षा करुंगा ।”
सुनील लम्बे डग भरता हुआ कमरे से बाहर निकल गया ।
पाल खा जाने वाली नजरों से उसे घूरता रहा ।
बाहर गलियारे में चलता हुआ सुनील बिहारी के फ्लैट के सामने रुक गया । उसने एक बार घूमकर सोनिया के फ्लैट की ओर देखा, लेकिन वहां से कोई बाहर नहीं निकला था । सुनील ने बिहारी के फ्लैट का द्वार खटखटा दिया ।
बिहारी ने एक हाथ में बड़ा सा ब्रुश और दूसरे हाथ में ईजल, पकड़े हुये द्वार खोला ।
“हैलो, मिस्टर जगन्नाथ ।” - बिहारी प्रसन्नता से चिल्लाकर बोला - “भगवान कसम, मैंने अभी तुम्हें याद किया था... मैं वह पेन्ट कर रहा हूं ।”
“क्या ?”
“सीता-बनवास ।” - बिहारी ऐसे स्वर में बोला जैसे लियो नार्डो डिविन्सी मोनालिज का जिक्र कर रहा हो - “इस शताब्दी का सबसे बड़ा आईडिया ।”
“बड़ी अच्छी बात है ।” - सुनील बोला - “मैं तुम्हें यह बताने आया था कि मेरा नाम जगन्नाथ नहीं है । मेरा नाम सुनील है, मैं ‘ब्लास्ट’ का रिपोर्टर हूं, कोई कला पारखी नहीं । चित्रकला की मुझे खाक भी जानकारी नहीं है । मैं चन्द्रशेखर का पता जानना चाहता था और इसीलिए मुझे यह सब प्रपंच रचना पड़ा था । चन्द्रशेखर की हत्या हो गई है ।”
बिहारी के हाथ से ईजल और ब्रुश जमीन पर गिर पड़े और वह इस प्रकार मुंह बाये सुनील को देखता रहा, जैसे लकवा मार गया हो ।
“हिम्मत हारने की बात नहीं है बिहारी लाल ।” - सुनील बोला - “तुम ‘सीता-बनवास’ पर काम करना मत छोड़ो । हालांकि मैं मॉडर्न आर्ट को समझता नहीं लेकिन फिर भी मैंने देखा है कि जिस चित्र की धूम मच जाती है उसे चित्रकार के अलावा कोई नहीं समझता और कभी-कभी तो चित्रकार स्वयं भी नहीं समझता । शायद यह सीता बनवास ही मॉडर्न आर्ट में कोई क्रांति पैदा कर दे । तुम बैकग्राउंड को ब्रुश से पेन्ट करने की जगह उस पर दस पंद्रह रंगों की शीशियां उडेल दो और फिर दो मोटी-मोटी समानान्तर रेखायें खींच दो और शीर्षक लिख दो ‘सीता बनवास’ । चन्द्रशेखर की हत्या का अभी सबको पता नहीं लगा है । पता लगते ही विभिन्न अखबारों के रिपोर्टर मैटर हंटिंग के लिए तुम्हारे फ्लैट के चक्कर लगायेंगे । ‘सीता-बनवास’ की मुफ्त में ढेर सारी पब्लिसिटी हो जाएगी । हो सकता है कोई प्रभावित होकर उसे खरीद भी ले । दुनिया में एक अक्ल का अन्धा पैदा होता है, शायद कोई तुम्हें भी टकराये... जैसे... ‘सूर्योदय’ के लिए मैं तुम्हें टकरा गया था । गुड बाई ब्रदर ।”
सुनील बिहारी को उसी दशा में छोड़कर फ्लैट से बाहर आ गया ।
***
सुनील ने एक पोस्ट आफिस से प्रमिला को राजनगर ट्रंककाल की ।
“पम्मी !” - प्रमिला के लाईन पर आने के बाद सुनील बोला - “भारी गड़बड़ हो गई है ।”
“किस सिलसिले में ?” - प्रमिला का स्वर सुनाई दिया ।
“उस दीवानचन्द के केस में ।”
“अभी तो और गड़बड़ होगी जब तुम यहां आकर मालिक साहब को एक्सप्लेनेशन दोगे कि तुम एकाएक बिना बताये विशालगढ क्यों दफा हो गए थे । वे कहते हैं... खैर पहले तुम अपनी बात कहो ।”
“चन्द्रशेखर ने दीवानचन्द की पत्नी निर्मला को पत्र लिख दिया है ।”
“बेड़ा गर्क ।”
“और चन्द्रशेखर की हत्या हो गई है ।”
“नहीं ।” - प्रमिला अविश्वासपूर्ण स्वर में बोली ।
“मैं सच कह रहा हूं प्रमिला । अभी तो और सुनो । मामले को जल्दी से जल्दी निपटाने की नीयत से दीवानचन्द पिछली रात को बारह बजे के प्लेन से यहां आ गया था । मैंने उसे वापिस भेज दिया है लेकिन फिर भी कई लोगों ने उसे विशालगढ में देखा होगा । उसने होटल में कमरा भी लिया था । होटल के काउंटर क्लर्क को उसका चेहरा खूब बाद होगा । प्रमिला चन्द्रशेखर की हत्या के सिलसिले में पुलिस दीवानचन्द को टटोल सकती है ।”
“तुम्हारे विचार से हत्या किस समय हुई होगी ?”
“शायद आधी रात के आस-पास । कम से कम लाश से तो ऐसा ही मालूम होता था ।”
“तो फिर दीवानचन्द तो बड़ी आसानी से सिद्ध कर सकता है कि हत्या के समय वह प्लेन पर था ।”
“लेकिन मैं तो प्लेन पर नहीं था ।” - सुनील धीमे स्वर से बोला ।
“क्या मतलब ?”
“मैं भी तो फंस रहा हूं इसमें ।”
“तुम ?” - प्रमिला का अचकचाहट भरा स्वर सुनाई दिया ।
“हा पम्मी ।” - सुनील व्यस्त स्वर में बोला - “तुम दीवानचंद से मिलो । उसे बता दो कि चन्द्रशेखर ने उसकी पत्नी के नाम पत्र लिख दिया है । पत्र पर कल की तारीख थी । अगर वह कल ही पोस्ट कर दिया गया होगा तो वह राजनगर आज शाम की डाक से या कल सुबह पहुंचेगा । तुम दीवानचंद को कहो कि यदि वह अपने पारिवारिक जीवन को तबाह नहीं करना चाहता तो निर्मला की डाक पर नजर रखे और उस पत्र को निर्मला के पास पहुंचने से पहले ही हथिया ले । चन्द्रशेखर मर चुका है । अगर निर्मला को दीवानचन्द की करतूत का अब पता नहीं लगा तो फिर कभी नहीं लगेगा । समझ गई ?”
“यह सब तो हो जाएगा लेकिन तुम कैसे फंस गये हो ?”
“यह मैं फिर बताऊंगा ।” - सुनील बोला और उसने संबंध-विच्छेद कर दिया ।
सुनील अपने होटल वापिस लौट आया ।
“क्या दीवानचन्द नाम के कोई सज्जन भी वहां ठहरे हुए हैं ?” - सुनील ने काउंटर क्लर्क से पूछा ।
“वे तो साहब, लगभग दो घंटे हुए होटल छोड़ गये ।” - क्लर्क आदरपूर्ण स्वर में बोला ।
“लेकिन ठहरे तो थे यहां ?”
“जी हां ।”
“वे किस समय होटल में पहुंचे थे ?”
“आप क्यों पूछ रहे हैं ?” - क्लर्क ने संशक स्वर में पूछा ।
“दस रुपये कमाना चाहते हो गुरु ?” - सुनील ने व्यवहारिक स्वर से पूछा ।
“बशर्ते कि कोई गड़बड़ वाली बात न हो ।” - क्लर्क इशारा समझ कर बोला ।
“कोई गड़बड़ नहीं है ।”
“तो फिर मैं देखकर बताता हूं ।” - क्लर्क बोला और रजिस्टर उलटने लगा ।
“कल रात लगभग सवा दस बजे ।” - वह रजिस्टर से दृष्टि उठाकर बोला ।
“क्या ?” - सुनील आश्चर्य से चिल्लाकर बोला - “सवा दस बजे ।”
“जी हां ।”
“क्या कह रहे हो ? वह तो बारह बजे के प्लेन से राजगढ से चला था और मेरे पास साढे तीन बजे...”
“यह सब मैं नहीं जानता साहब । वे वाकई सवा दस बजे होटल में आये थे ।”
“तो फिर मेरे से ही कोई गलती हो गई होगी ।” - सुनील दस का नोट उसकी मुट्ठी में ठूंसता हुआ बोला ।
सुनील अपने कमरे में आ गया ।
वह उलझ गया था । उसे समझ नहीं आ रहा था कि दीवानचन्द ने उसे झूठ क्यों बोला । अब अगर पुलिस को पता लग गया कि यह विशालगढ साढे तीन बजे नहीं, दस बजे आया था और चन्दशेखर उसे ब्लैकमेल कर रहा था तो वह बड़ी सरलता से इस नतीजे पर पहुंच सकती है कि सम्भव है दीवानचन्द ने चन्द्रशेखर की हत्या कर दी हो ।
वह कुछ क्षण चुपचाप बैठा रहा । फिर उसने डायरेक्टरी में मगन भाई आटोमोबाइल कम्पनी का फोन नम्बर देखा और वह नम्बर डायल कर दिया ।
“मगन भाई मोटर्स ।” - आपरेटर का मुधर स्वर सुनाई दिया ।
“आई वांट टू स्पीक मिस्टर मगन ।” - सुनील बोला ।
“जस्ट ए मूमेंट प्लीज !” - आपरेटर बोला - “आई विल पुट यू टु हिज सैकेट्री ।”
“हैल्लो ।” - अगले ही क्षण सैकेट्री का मधुर स्वर सुनाई दिया ।
“देखिये, मेरा नाम सुनील है । मैं मगन भाई से एक बहुत ही जरूरी विषय पर बात करना चाहता हूं ।”
“आपने एपायन्टमेंट लिया है ?” - सैक्रेट्री बोली ।
“देखो सिस्टर, तुम जानती हो कि मैंने अपायन्टमेंट नहीं लिया नहीं तो तुमने यह प्रश्न न पूछा होता ।”
“आप सेठ से किस सिलसिले में मिलना चाहते हैं ?”
“चन्द्रशेखर नाम के एक आदमी ने उन्हें एक पत्र लिखा है । उस पत्र के विषय में मुझसे बात करना मगन भाई के हक में बहुत फायदेमंद साबित हो सकता है ।”
“क्या नाम बताया आपने ?”
“चन्द्रशेखर ।”
“जरा होल्ड करो ।”
क्षण भर तक शांति छाई रही ।
“हैलो ।” - फोन पर एक पुरुष स्वर सुनाई दिया - “दिस इज मगन भाई स्पीकिंग । आप किस चन्द्रशेखर और किस पत्र की बात कर रहे हैं ?”
“मैं चन्द्रशेखर के उस पत्र की बात कर रहा हूं जिसमें आपको यह धमकी दी गई है कि अगर आपने आसामियों को फंसाने के लिए लड़कियों का इस्तेमाल करना बन्द नहीं किया तो आपके सारे काले कारनामों की सूचना पुलिस को दे दी जाएगी ।”
“क्या कह रहे हो ?” - मगन भाई उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “मैं किसी चन्द्रशेखर को नहीं जानता ।”
“जब आपसे पुलिस चन्द्रशेखर के बारे में पूछेगी तो शायद आप इतनी आसानी से इन्कार नहीं कर सकेंगे ।”
“पुलिस का इससे क्या संबंध ?”
“यह मैं फोन पर नहीं बता सकता ।”
“तुमने क्या नाम बताया था अपना ?” - मगन भाई के स्वर में परेशानी साफ टपक रही थी ।
“सुनील, सुनील कुमार चक्रवर्ती ।”
“ओ. के. सुनील, मेरा आफिस में आ जाओ, मैं तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूं ।”
“ओ. के. ।”
सुनील ने होटल से बाहर आकर टैक्सी ली और पन्द्रह मिनट बाद मगन भाई के आफिस में था ।
सैक्रेट्री ने एक अप्वायटमेंट बुक पर सुनील का नाम लिखा और फिर उसे मगन भाई के पास भेज दिया ।
मगन भाई एक लगभग चालीस वर्ष का स्वस्थ आदमी था । वह एक शानदार सूट पहने हुये सूरत से पारसी कम और पंजाबी अधिक लगता था ।
“अब बताओ, तुम क्या कहना चाहते हो ?” - मगन भाई अभिवादन के बाद बोला ।
“आप चन्द्रशेखर को जानते हैं ?”
“मुझे इस नाम के किसी व्यक्ति से मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ ।”
“और अब ऐसा सौभाग्य प्राप्त होगा भी नहीं ।”
“क्यों ?” - मगन भाई माथे पर बल डालकर बोला ।
“वह अब इस संसार में नहीं है ।” - सुनील मगन भाई के चेहरे पर इस सूचना की प्रतिक्रिया देखने के लिए रुका लेकिन उस पर कोई प्रभाव ही नहीं हुआ था ।
“क्या हुआ उसे ?”
“उसे कत्ल कर दिया गया है ।”
“तो इसमें मेरी क्या दिलचस्पी है ?”
“आप अपनी कहानी अभी से घड़ सकते हैं ताकि पुलिस के सामने झूठ बोलने में आपको दिक्कत न हो ।”
“लेकिन पुलिस से मेरा क्या संबंध ?”
“चन्द्रशेखर हर पत्र की कार्बन कापी रखता है । उसके घर की तलाशी पर पुलिस को उन पत्रों का कापियां भी मिलेंगी जो उसने आपको लिखे हैं । तब आप यह नहीं कह सकेंगे कि आप चन्द्रशेखर को नहीं जानते ।”
“अच्छा मान लो मैं चन्द्रशेखर को जानता हूं । फिर ?”
“उसने आपको धमकी भरे पत्र भी लिखे थे ।”
“लिखे थे, फिर ?”
“आप पर उन पत्रों की क्या प्रतिक्रिया हुई ?”
“कुछ भी नहीं मैंने उन्हें किसी पागल की बकवास समझकर रद्दी की टोकरी में फेंक दिया ।”
“उसने आपसे ब्लैकमेलिंग नहीं की ?”
“नहीं ।”
“न ही आप उससे मिले ?”
“न ।”
“क्या यह सच है कि आप ग्राहक फंसाने के लिए लड़कियां इस्तेमाल करते हैं ?”
“उस सैंस में नहीं जिसमें तुम कह रहे हो । देखो मिस्टर सुनील, यह बिजनेस है । इसमें हर तरह के लोगों से वास्ता पड़ता है । इसलिए हमें अपने लाभ के लिए हर किसी की दिलचस्पी का ख्याल भी पड़ता है । शराब और औरत दो ऐसी चीजें हैं जो इन्सान की अक्ल पर पर्दा डाल देती हैं । और अक्ल के अन्धे लोग हमारे लिए ज्यादा फायदेमन्द होते हैं । किसी व्यापारी से बड़ा आर्डर मारने का मेरा अपना तरीका है । मैं उसे शबाब के जरिये शराब में उलझाये रखता हूं । लेकिन इसका यह मतलब हरगिज भी नहीं कि मैं लड़कियों को कुकर्मों के लिए प्रेरित करता हूं । लड़कियों का काम तो केवल यह होता है कि वे व्यापारी का शराब का गिलास खाली न होने दें ।”
“अगर आप सत्य कह रहे हैं तो सोनिया क्यों दीवानचन्द को रात भर अपने फ्लैट पर ऐन्टरटेन करती रही ?”
“हां ।” - मगन भाई ने स्वीकार करते हुए कहा - “इस बार जरूर ऐसी बात हुई है जो कम से कम सुनने में अच्छी नहीं लगती लेकिन फिर भी उस हद तक नहीं जिसकी कल्पना तुम कर रहे हो । इस बार मामला जरा गम्भीर था दीवानचन्द मेरे लिए एकदम बहुत कीमती हो गया था । इसलिए मैं उसे और व्यापारियों की पहुंच से बचाकर रखना चाहता था । सोनिया ने खुद मुझे यह सुझाव दिया था कि वह दीवानचन्द को अपने फ्लैट पर ले जायेगी । भला मुझे उसमें क्या एतराज हो सकता था, मैं फौरन मान गया । अब यह तो सोनिया जानती है या दीवानचंद कि रात भर फ्लैट पर क्या हुआ । हालांकि कुछ हुआ हो, इसकी सम्भावना नहीं के बराबर है क्योंकि कान्फ्रेन्स में ही दीवानचन्द इतनी शराब पी चुका था कि उसे दीन दुनिया की खबर नहीं थी । मेरे ख्याल से तो उसने रात भर करवट नहीं बदली होगी । लेकिन अगर कुछ हुआ भी हो तो इसमें मेरी क्या जिम्मेदारी है ? सोनिया बालिग लड़की है, उसे अपनी मनमानी करने से कोई रोक थोड़े ही सकता है ।”
“चन्द्रशेखर रोक सकता था ।”
“किस हैसियत से ?”
“सोनिया के पति की हैसियत से ।”
“लेकिन उनका तो तलाक...”
मगन भाई ने होंठ काट लिए ।
“तो आप यह भी जानते हैं कि सोनिया चन्द्रशेखर को तलाक दे चुकी है ?”
मगन भाई चुप रहा ।
“अब भी आप कहते हैं कि आप चन्द्रशेखर को नहीं जानते ?”
मगन भाई पूर्ववत चुप रहा ।
“कल रात आप कहां थे ?”
“किस समय ?”
“बारह बजे के आसपास ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि चंद्रशेखर की हत्या इसी समय हुई थी ।”
“क्या बात कर रहे हो ?” - मगन भाई उखड़कर बोला - “तुम समझते हो उस आदमी की हत्या मैंने की है ?”
“आपने नहीं की क्या ?” - सुनील ने भोलेपन से पूछा ।
“भगवान के लिए सुनील, अक्ल की बात करो । मैं भला ऐसी आदमी की हत्या क्यों करूंगा जिसकी मैंने सूरत तक नहीं देखी ?”
“यह तो आप ही बेहतर जानते होंगे ।”
मगन भाई बल खाकर रह गया ।
“मैंने यहां आते समय देखा था कि आप की सैक्रेटरी आपसे मिलने के लिए आने वाले आदमी का नाम अप्वायन्टमैंट बुक में लिखती है ।”
“कोई हर्ज है क्या ?”
“अगर चंद्रशेखर कल विश्वनगर जाने से पहले आपसे मिलने के लिए आया हो तो उसका नाम अप्वायटमैंट बुक में से उड़ा दीजिए ।”
“तुमने कैसे सोच लिया कि वह यहां आया होगा ?”
“मेरा ख्याल है ।”
“वह यहां नहीं आया ।”
“मैंने कब दावा किया है । मैं तो कह रहा हूं कि अगर आया हो तो उसका नाम काट दीजिये ।”
“उसका नाम एप्वायन्टमैंट बुक में है ही नहीं ।”
“ये सबसे अच्छी बात है ।” - सुनील उठता हुआ बोला ।
“तुम्हारा यहां आने का क्या उद्देश्य था ? निश्चय ही तुम जन सेवा करने तो आये नहीं थे ।”
“मैं कुछ जानकारी हासिल करने आया था ।”
“हासिल हुई ?”
“नहीं ।”
सुनील ने मगन भाई से हाथ मिलाया और निकल आया ।
मगन भाई के कमरे के बाहर बैठी सैक्रेटरी को देख कर वह तनिक मुस्कराया और गलियारे में आ गया ।
लगभग एक मिनट वह वहीं खड़ा रहा और फिर दुबारा आफिस में घुस गया ।
सैक्रेटरी अपनी मेज पर नहीं थी ।
सुनील आगे बढा और एक झटके से मगन भाई के कमरे का द्वार खोलकर भीतर घुस गया ।
सैक्रेटरी मगन भाई की मेज पर झुकी हुई थी । उसके हाथ में खुली हुई एप्वायन्टमैंट बुक थी और मगन भाई बड़ी तन्मयता से उसकी एक लाइन पर रबड़ फेर रहा था । दोनों अपने काम में इतने मगन थे कि उन्हें सुनील की उपस्थिति का आभास ही नहीं हुआ ।
“अब ठीक हो गया ।” - मगन भाई मिटे हुए भाग को देखता हुआ बोला ।
“यस सर ।” - सेक्रेटरी बोली - “अब मैं इस स्थान पर कोई दूसरा नाम लिख दूंगी तो यह पता नहीं लगेगा कि यहां से कुछ मिटाया गया है ।”
“थैंक्यू मगन भाई ।” - सुनील ऊंचे स्वर में बोला - “मैं यही जानकारी हासिल करने आया था ।”
दोनों यूं उछले, जैसे अंगारों पर पांव पड़ गये हों ।
“रीता ।” - मगन भाई स्वयं को नियन्त्रित करता हुआ बोला - “इस मिटे हुए नाम पर सुनील का नाम लिख दो ।”
सेक्रेटरी ने आज्ञा का पालन किया ।
“इससे क्या होगा ?” - सुनील ने पूछा ।
“मैं कोई और नाम तलाश करने की जहमत से बच जाऊंगा ।”
“मुझे फंसवाना चाहते हैं आप ?”
“अपनी गरदन बचाने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा ।”
“खैर, कम से कम अब तो बता दो कि चन्द्रशेखर यहां क्या करने आया था ?”
“वह मुझे धमकाना चाहता था ।”
“फिर ?”
“फिर क्या ? कहानी खत्म । और अब तुमसे मालूम हुआ कि उसकी हत्या हो गई है ।”
“आप जानते हैं कि हत्या की जानकारी सबसे पहले किसे होती है ?” - सुनील जाने का उपक्रम करता हुआ बोला ।
“किसे ? पुलिस को ।”
“नहीं, हत्यारे को ।”
सुनील तेजी से बाहर निकल गया ।
मगन भाई का चेहरा फक पड़ गया था ।