बारिश कब की थम चुकी थी, लेकिन मैंने अपनी प्लास्टिक की बरसाती उतारने का उपक्रम नहीं किया था । जब बारिश नहीं हो रही थी प्लास्टिक की पीले से रंग की घिसी-पिटी बरसाती में तब भी पहने हुए था । उस बरसाती को अपने जिस्म से अलग करते मैं डरता था । मेरी पतलून की हालत पीछे से बहुत नाजुक हो चुकी थी और कमीज भी किसी भी क्षण जिस्म का साथ छोड़ देने को तैयार थी । बरसाती की वजह से मेरे कपड़ों की खस्ता हालत ढकी रहती थी ।
मेरे सिर के बाल बढे हुए थे और बेतरतीबी से बिखरे हुए थे । मैंने शेव कब से नहीं की थी, मैं खुद भूल चुका था । इन तमाम बातों की वजह से और दो दिन से खाना न खाया होने की वजह से मेरे चेहरे से मनहूसियत तो टपक ही रही थी, साथ ही मैं कमजोरी का भी अनुभव कर रहा था । मेरे चेहरे पर लगा चश्मा बार-बार अपने स्थान से सरककर नाक के अग्रभाग पर पहुंच जाता था ।
मैं बम्बई के विक्टोरिया टरमिनस स्टेशन की लॉबी में एक बैंच पर बैठा था और अपने भूख और कमजोरी से जड़ हो चुके दिमाग से कोई ऐसी तरकीब खोज निकालने की कोशिश कर रहा था जिससे मुझे खाना भी हासिल हो जाता और मुझे कोई अपराध भी न करना पड़ता । भूख की वजह से मेरी जो हालत थी उससे ऐसा समय भी शीघ्र ही आने वाला था जब मैं अपराध न करने का विचार त्याग कर कहीं न कहीं से जबरदस्ती पेट भरने का जुगाड़ करने के बारे में सोचने लगता ।
मुझे कोई तरकीब नहीं सूझ रही थी ।
जो तरकीब - जो आसान तरकीब - बार-बार हथौड़े की तरह मेरे दिमाग में बज रही थी, वह इतना टूट चुकने के बावजूद मुझे पसन्द नहीं थी ।
अभी मैं हालात से इस हद तक समझौता करने के लिये तैयार नहीं था कि भीख मांगने लगता । अभी मैं भीख मांगने से कम गिरे हुए तरीकों पर गौर कर रहा था ।
एक सूटबूट धारी साहब मेरे सामने से गुजरा । गुजरते समय वह सिगरेट का एक टुकड़ा नीचे फेंक गया । वह टुकड़ा पूरे सिगरेट के एक तिहाई से भी अधिक था ।
मैंने होंठों पर जबान फेरी ।
खाना मैंने दो दिन से नहीं खाया था लेकिन सिगरेट मैंने एक हफ्ते से नहीं पिया था ।
मैं यूं झिझकता हुआ सिगरेट उठाने के लिए नीचे झुका जैसे अभी कोई मुझे किसी दूसरे का सिगरेट उठाने के अपराध में गिरफ्तार कर लेगा ।
मेरा चश्मा मेरी नाक से ढलककर नीचे आ गिरा ।
मेरे मुंह से एक सिसकारी निकली और मैंने जल्दी से चश्मा उठा लिया ।
चश्मा सही सलामत था ।
मेरे मुंह से शान्ति की दीर्घ निश्वास निकल गई । मैंने दूसरा हाथ बढाकर सिगरेट का जलता हुआ टुकड़ा उठा लिया । मैंने चश्मे को मजबूती से नाक पर जमाया और सिगरेट का टुकड़ा होंठों से लगा लिया ।
मैं बड़े प्यार से सिगरेट के छोटे-छोटे कश लेने लगा । सोच रहा था कि शायद सिगरेट के धुएं की गर्मी से मेरे दिमाग की मोम पिघले और मुझे पेट भरने की कोई तरकीब सूझ जाए ।
एक जमाना था जब सिगरेट पीना तो दूर, अपने धार्मिक संस्कारों की वजह से, मैं उसको छूने तक को तैयार नहीं होता था लेकिन न अब वह जमाना बाकी था और न उस जमाने का मैं बाकी था । अब मैं एक बहुरूपिये की जिन्दगी जी रहा था और इस जिन्दगी में सिगरेट जैसी मामूली चीज से परहेज की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी; विशेषरूप से तब जबकि सिगरेटनोशी मेरे बहुरूप की सलामती में मददगार थी ।
आज मैं - कथित विमल कुमार खन्ना - मुंबई वी टी की बैंच पर बैठा हुआ इतनी बड़ी दुनिया में एकदम तनहा इन्सान था जिसने दो दिन से खाना नहीं खाया था ।
“ए !” - मेरे कानों में एक अधिकारपूर्ण स्वर पड़ा ।
मैंने सिर उठाकर देखा ।
मेरे सामने एक कुर्ता-पाजामा और टोपीधारी, सूरत से गुजराती लगने वाला, लगभग पचास साल का, गोल-मटोल आदमी खड़ा था । उसकी पैनी दृष्टि मेरे चेहरे पर टिकी हुई थी ।
“फरमाइये ?” - मैं बोला । मैंने सिगरेट का आखिरी कश लगाकर उसे जमीन पर फेंक दिया ।
कई बार आदमी की जुबान से निकला एक इकलौता शब्द भी उसके दिल में झांकने का रास्ता बना देता है । शायद ऐसा ही कुछ मेरे बारे में उस गुजराती ने अनुभव किया । शायद उसे मुझसे ऐसे शिष्ट उत्तर की आशा नहीं थी । मैंने अगर उसकी ‘ए’ के बदले में ‘क्या मांगता है’ कहा होता तो सारा सिलसिला ज्यादा स्वाभाविक मालूम होता । उसके चेहरे पर थोड़ी नर्मी आ गई ।
“कौन हो तुम ?” - उसने नम्र स्वर से पूछा ।
“भूखा हूं, जनाब ।” - मैं बोला ।
“मैंने तुमसे यह नहीं पूछा है ।”
“मैं इस वक्त आपको अपना इससे बेहतर परिचय देने की स्थिति में नहीं हूं ।”
“मेरा मतलब है कोई काम-धाम करते हो ?”
“एकदम बेकार हूं, जनाब । कोई काम - कैसा भी काम - दिलवाइये न ।”
“काम कहां रखा है ?” - वह तनिक तिक्त स्वर में बोला - “मैंने किसी और वजह से तुमसे यह सवाल पूछा था ।”
वह आदमी कुछ क्षण मुझे घूरता रहा और फिर बोला - “दो रुपये कमाना चाहते हो ?”
मेरा दिल उछलने लगा । अपने सामने खड़ा आदमी मुझे दो रुपये की कीमत के भोजन से सजा हुआ थाल मालूम होने लगा । लेकिन शीघ्र ही मैंने स्वयं पर काबू पा लिया ।
“बदले में मुझे क्या करना होगा ?” - मैंने संदिग्ध स्वर में पूछा ।
“कुछ भी नहीं ।” - गुजराती बोला - “काम बहुत आसान है । अगर तुम वाकई भूखे हो तो तुम्हें उसको करने से कोई एतराज भी नहीं होगा ।”
“काम क्या है ?”
“मैंने दिल्ली के लिए थर्ड क्लास स्लीपर की बुकिंग करवानी है । जिस दिन मैंने जाना है, उस दिन की बुकिंग कल सुबह से आरम्भ होगी । लोग सुबह चार बजे से ही लाइन में आकर लगने शुरू हो जाएंगे । अभी ग्यारह बजे हैं और बुकिंग लाइन में अभी से तीन आदमी खड़े हैं । बुकिंग सुबह नौ बजे आरम्भ होगी । उस समय तक लाइन इतनी लम्बी हो जाएगी कि मुझे टिकट मिलना असम्भव हो जायेगा । मैं बूढा आदमी हूं, मुझमें इतनी हिम्मत नहीं कि मैं अब से लेकर सुबह नौ बजे तक दस घण्टे लाइन में खड़ा रह सकूं । अगर मेरी जगह सुबह तक के लिए तुम अभी लाइन में लग जाओ तो मैं तुम्हें नगद दो रुपये दूंगा ।”
“जनाब, आप लाइन में नहीं खड़े रह सकते क्योंकि आप बूढे हैं ।” - मैं धीरे से बोला - “मैं भी लाइन में खड़ा नहीं हो सकता क्योंकि मैं भूखा हूं ।”
“लेकिन दो रुपये मिलने के बाद तो तुम भूखे नहीं रहोगे !”
“जब तक सुबह के नौ बजेंगे तब तक तो दो रुपये के इन्तजार में मेरी आत्मा शरीर त्याग देगी ।”
“तुम भले आदमी हो न ?” - गुजराती झिझकता हुआ बोला ।
“कोई सर्टिफिकेट तो नहीं है मेरे पास लेकिन अगर आप मेरी जुबान पर विश्वास करें तो भला आदमी हूं ।”
“मेरे दो रुपये लेकर भाग तो नहीं जाओगे ?”
“अगर मेरा ऐसा ही कुछ करने का इरादा होगा तो मैं भला आपके दो रुपये लेकर क्यों भागूंगा, आपका टेंटुवा दबाकर आपका सारा माल नहीं साफ कर दूंगा !”
“मेरे साथ आओ ।”
मैं उठकर उसके साथ हो लिया ।
वह मुझे एक बुकिंग ऑफिस के पास ले आया ।
एक बन्द खिड़की के सामने पांच आदमी एक दूसरे के पीछे बैठे थे । गुजरती उनके पीछे जा खड़ा हुआ । उसने जेब से निकालकर एक एक के दो नोट मुझे दिये और बोला - “मैं यहां खड़ा होता हूं । तुम खाना खाकर जल्दी लौटो ।”
“अच्छा ।”
“और सुनो ।”
“फरमाइये ।”
“तुम्हारा नाम क्या है ?”
“विमल ।”
“रहते कहां हो ?”
मैं यूं हंसा जैसे मुझे गुजराती की अक्ल पर तरस आ रहा हो । जिनके घर होते हैं, उनके पेट खाली थोड़े ही होते हैं ।
शायाद उसे भी मेरी हंसी का अर्थ समझ आ गया । वह जल्दी से बोला - “ठीक है । ठीक है । जल्दी वापिस आओ ।”
“अभी गया और अभी आया ।” - मैं बोला ।
“और आना जरूर ।”
मैंने उसकी बात नहीं सुनी । पैसा हाथ में आते ही मेरी भूख दुगनी हो गई थी । मैं मुट्ठी में नोट दबाये लपकता हुआ स्टेशन से बाहर निकल आया ।
सड़क के पार ही एक सस्ता सा होटल था ।
मैं होटल में प्रविष्ट हो गया ।
होटल की बायीं ओर एक लम्बा काउन्टर था जिसके पीछे एक बड़ी-बड़ी मूछों वाला, सूरत से ही बदमाश लगने वाला, हट्टा-कट्टा आदमी बैठा था । काउन्टर के भीतरी सिरे के समीप एक टेलीफोन बूथ था ।
होटल की आधी मेजें खली थीं ।
मैं काउन्टर के समीप की एक मेज पर बैठ गया ।
एक मैला-कुचैला सा लड़का मेरे सामने आ खड़ा हुआ ।
“खाना लाओ ।” - मैं होंठों पर जुबान फेरता हुआ बोला - “जल्दी ।”
“जेब में पैसे हैं ?” - छोकरे के कुछ कहने से पहले ही काउन्टर के पीछे बैठा हुआ बदमाश-सा लगने वाला आदमी कठोर स्वर में बोल पड़ा । मेरी आवाज शायद उसके कानों तक पहुंच गई थी । उसे मेरे जैसे हुलिये के आदमी की जेब में खाने की कीमत अदा कर पाने जितना पैसा होने की उम्मीद नहीं मालूम होती थी ।
मेरी मुट्ठी में दबे एक एक रूपये के दो नोट एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड होकर एक गोली का रूप धारण कर चुके थे । मैंने वह गोली काउंटर पर उस आदमी के सामने उछाल दी ।
उसने गोली खोली, उसने एक-एक दो नोट एक-दूसरे से अलग किये, उसके होंठों पर एक मुस्कराहट उभरी और फिर वह उच्च स्वर में बोला - “ए छोकरा, बड़ा साहब के लिये फौरन खाना ला ।”
“क्या लाऊं, साहब ?” - छोकरा बोला ।
“जो कुछ भी दो रुपये में ज्यादा-से-ज्यादा हासिल हो सकता है ।” - मैं बोला ।
छोकरे ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला लेकिन फिर बिना कुछ बोले सिर हिलाता हुआ वहां से चला गया ।
मैं पीठ के साथ जा लगे पेट को दबोचे होंठों पर जुबान फेरता हुआ खाना आने की प्रतीक्षा करने लगा । होटल में मौजूद और लोगों को खाना खाते देखकर मुझे एक क्षण भी प्रतीक्षा करना दूभर लग रहा था । मैंने खाना खाते हुए लोगों की ओर से दृष्टि फिरा ली ।
मेरी निगाह एक बार काउन्टर पर बैठे देव से टकराई । वह अब भी मुझे संदिग्ध निगाहों से देख रहा था । शायद वह सोच रहा था कि कहीं मैं एक-एक के दो नोट कहीं घर से छाप कर तो नहीं लाया था । छोकरा मेरे लिए दाल, सब्जी, प्याज-चटनी और चार रोटियां ले आया ।
“बस, इतना ही ?” - मेरे मुंह से अपने-आप निकल गया ।
“अभी इतना तो खाओ ।” - छोकरा बोला - “रोटी और लाता हूं ।”
मैं यूं खाने पर झपटा जैसे जिन्दगी में पहली बार खाने की सूरत दिखाई दी हो ।
छोकरा अभी मेरी दृष्टि से ओझल नहीं हुआ था और मैं अपने सामने रखी चार रोटियां निगल चुका था ।
“एक महीने से भूखे हो क्या ?” - काउन्टर के पीछे बैठा देव बोला ।
मैंने उत्तर नहीं दिया । मैंने पानी का गिलास उठाया और गटागट पानी पी गया । मैं और रोटी आने की प्रतीक्षा करने लगा ।
छोकरा चार रोटियां और ले आया । सब्जी उसने दुबारा नहीं दी लेकिन मेरी दाल की प्लेट फिर भर गया ।
मैंने फिर खाना आरम्भ किया । इस बार भूख की वजह से जो दहशत मुझ पर सवार थी, वह काफी हद तक उतर चुकी थी । अब मैं खाना धीरे-धीरे खा रहा था ।
उसी क्षण होटल में एक युवती प्रविष्ट हुई ।
अब से दस मिनट पहले अगर जीनत अमान भी मेरे सामने से गुजर जाती तो मुझे खबर नहीं होती, लेकिन अब मेरे पेट में खाना था और निगाहों में वक्ती सन्तोष की चमक थी ।
मैंने जी भरकर उस युवती का निरीक्षण किया ।
वह एक लगभग पच्चीस साल की, छरहरे बदन की, खूबसूरत युवती थी । उसके बाल विलायती फैशन के कटे हुए थे । उसके चेहरे पर बड़े सलीके का मेकअप था और वह बड़ा कीमती परिधान पहने हुए थी । अपने दायें हाथ में एक गहरे लाल रंग का प्लास्टिक का बैग झुलाती हुई वह काउन्टर के समीप से होती हुई टेलीफोन बूथ की ओर बढ रही थी ।
काउन्टर के पीछे बैठा देव लालायित नेत्रों से उसे सिर से पैर तक नाप रहा था ।
युवती होटल में मौजूद लगभग हर किसी की तारीफ और लालसाभरी निगाहों की शिकार होती हुई टेलीफोन बूथ में प्रविष्ट हो गई । बूथ का दरवाजा उसके पीछे बन्द हो गया ।
मुझे बूथ के दरवाजे के ऊपरी भाग में लगे शीशे में से उसकी धुंधली-सी सूरत दिखाई दे रही थी ।
मैं धीरे-धीरे खाना खाता रहा ।
मेरी भूख खत्म हो चुकी थी । मेरा पेट भर चुका था लेकिन क्योंकि दुबारा खाना कब मिलेगा, मिलेगा भी या नहीं, इस बात की कोई गारन्टी नहीं थी इसलिए मैं पेट भर चुकने के बाद भी जबरदस्ती ठूंस-ठूंसकर खाना खा रहा था ।
छोकरा मुझे दो रोटियां, थोड़ी-सी दाल और थोड़ा-सा प्याज और दे गया और साथ ही नोटिस दे गया कि दो रूपये के बदले में मिलने वाले खाने की वह आखिरी किश्त थी ।
मैंने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया और खाना खाता रहा ।
जिस समय मैं आखिरी रोटी को जबरदस्ती पेट में डालने की कोशिश में लगा हुआ था उस समय टेलीफोन बूथ का दरवाजा खुला और युवती बूथ से बाहर निकली । बूथ का स्प्रिंग लगा दरवाजा उसके पीछे अपने-आप बन्द हो गया ।
वह अपनी उंची एडी की सेंडिल ठकठकाती हुई नाक की सीध में होटल से बाहर की ओर बढ रही थी ।
मैं खाना खाना भूलकर अपलक उसे बाहर की ओर जाता देख रहा था ।
उसी क्षण एक ख्याल हथौड़े की तरह मेरी चेतना से टकराया ।
लाल हैंड बैग !
युवती के हाथ में प्लास्टिक का वह लाल रंग का हैंड बैग नहीं था जो जब वह होटल में घुसी थी तो मैंने उसके हाथ में देखा था ।
युवती तब तक होटल से बाहर निकलकर निगाहों से ओझल हो चुकी थी ।
अपना हैंड बैंग वह जरूर टेलीफोन बूथ में भूल आई थी ।
मैंने अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई ।
काउन्टर पर बैठा देव अभी भी बाहर की ओर झांक रहा था ।
होटल में बैठे लोग अपना-अपना खाना खाने में मग्न थे ।
शायद मेरे सिवाय किसी ने इस बात को नोट नहीं किया था कि जब वह युवती होटल में आई थी तो उसके हाथ में लाल रंग का प्लास्टिक का हैंड बैग था और जब वह वापिस गई थी तो वह हैंड बैग उसके हाथ में नहीं था ।
मैंने रोटी का आखिरी कौर हलक में ठूंसा, ऊपर से पानी पिया और अपने हाथों को बरसाती की साइडों से रगड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ ।
मैं द्वार की ओर बढा, कुछ कदम ही चलकर ठिठका, मैंने बरसाती की जेब में हाथ डाला, हाथ बाहर निकाला और फिर विचारपूर्ण मुद्रा बनाये टेलीफोन बूथ की ओर बढा ।
काउन्टर पर बैठा देव संदिग्ध नेत्रों से मुझे देख रहा था ।
मैं टेलीफोन बूथ में घुस गया । मैंने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया ।
एक बार शीशे में से मैंने काउन्टर की ओर देखा ।
देव की निगाहें उसी ओर लगी हुई थीं ।
मैंने दरवाजे की ओर पीठ कर ली ।
कायन बाक्स की बगल में बने एक छोटे से रैक पर डायरेक्ट्री के ऊपर वह लाल हैंड बैग रखा था ।
एक बार तो मेरे मन में ख्याल आया कि मैं वह हैंड बैग उठाऊं और भागता हुआ उस युवती के पास जाऊं तो शायद अभी फुटपाथ पर ही कहीं होगी और उसे उसका हैंड बैग सौंप दूं । लेकिन वह ख्याल अधिक देर तक मेरे दिमाग में नहीं टिका ।
पता नहीं उस क्षण मेरे मन में उत्सुकता थी या बेईमानी, लेकिन मैंने पहले बैग खोलकर भीतर झांकने का निश्चय कर लिया ।
मैंने बायें हाथ से हुक पर से टेलीफोन उठाकर कान से लगा लिया । दायें हाथ में मैंने एक ऊट-पटांग नम्बर डायल कर दिया ।
दूसरी ओर से बिजी टोन आने लगी ।
मेरे दायें हाथ ने यूं एक्शन किया जैसे मैंने कायन बाक्स में सिक्के डाले हों ।
यह सब मैं इसलिए कर रहा था ताकि बाहर काउन्टर पर बैठा देव अगर अभी भी मुझे घूर रहा हो तो उसे तसल्ली हो जाये कि मैं वाकई टेलीफोन कर रहा था ।
दायें हाथ से मैंने हैंड बैग को खोला और टेलीफोन बूथ की छत पर लगी रोशनी के प्रकाश में मैंने हैंड बैग के भीतर झांका ।
मेरा मुंह सूख गया ।
किसी महिला के बैग में अपेक्षित साधारण सौन्दर्य प्रसाधनों के ऊपर सौ-सौ के नोटों की नई नकोर बैंक की अनखुली गड्डी मौजूद थी ।
मेरी सांस तेज हो गई । मेरा शरीर पसीने से नहा गया । मैंने एक गुप्त दृष्टि बूथ से बाहर काउन्टर की ओर डाली ।
काउन्टर के पीछे खड़ा देव उस समय मेरी ओर नहीं देख रहा था ।
दस हजार रुपये !
मेरे दायें हाथ की उंगलियां खुद ही पर्स में सरक गईं । इससे पहले कि मैं सारे सिलसिले के बारे में कोई विवेकपूर्ण बात सोच पाता, नोटों की गड्डी मेरी पतलून की जेब में पहुंच चुकी थी ।
मेरे दायें हाथ की उंगलियों ने बैग दोबारा बन्द कर दिया ।
मेरे मानसपटल पर भविष्य के उज्जवल स्वप्न चलचित्र की तरह चलने लगे । मेरी दरिद्रता के दिन समाप्त हो चुके थे । शायद भगवान ने ही ऐसे साधन जुटाये थे कि मैं उस होटल में दो रुपये का खाना खाने आऊं और दस हजार रुपये लेकर लौटूं ।
अपने नगाड़े की तरह बजते दिल पर काबू पाने का प्रयत्न करते हुए मैंने रिसीवर क्रेडल पर टांग दिया ।
मैं वापिस घूमा, मैंने बूथ के द्वार को धक्का देने के लिए हाथ बढ़ाया ।
मेरा हाथ द्वार को छू भी नहीं पाया कि किसी ने बाहर से खींचकर एक झटके से द्वार खोल दिया ।
मेरे सामने बैग की मालकिन खड़ी थी ।
वह मेरे लिये मौत की घड़ी थी ।
मेरा निचला जबड़ा नीचे लटक गया था । भय, उत्कंठा और आतंक के भावों से मेरी आंखें फटी पड़ रही थीं । मैं पत्थर की प्रतिमा बना उस युवती के सामने खड़ा था । उन कुछ क्षणों के लिए मेरे लिए संसार की गति रुक गई थी ।
“मेरा हैंड बैग रह गया था ।” - युवती मधुर स्वर में बोली ।
मुझे जैसे सांप सूंघ गया था । मेरे मुंह से बोल नहीं फूटा । मैं पूर्ववत् मुंह बाए जड़ सा अपने स्थान पर खड़ा रहा ।
“मैंने कहा मेरा हैंड बैग...”
जब तक मेरे दिमाग में वहां से भाग निकलने का ख्याल आया तब तक काउन्टर के पीछे खड़ा देव अपने स्थान से हटकर मेरे सामने युवती की बगल में आ खड़ा हुआ ।
“क्या बात है ?” - उसने संदिग्ध नेत्रों से मुझे घूरते हुए युवती से प्रश्न किया ।
“कुछ नहीं ।” - युवती सहज स्वर में बोली - “अभी थोड़ी देर पहले मैं यहां टेलीफोन करने आई थी । भूल से अपना हैंड बैग यहीं छोड़ गई थी । वही लेने आई हूं ।”
काउन्टर के पीछे के देव ने एक सरसरी दृष्टि बूथ में डायरेक्ट्री के ऊपर रखे बैग पर डाली । फिर उसने दुबारा मेरी ओर यूं देखा जैसे जेलर जेल का अक्सर मेहमान बनने अपने वाले चोर को देखता है और फिर क्रुद्ध स्वर में मुझसे सम्बोधित हुआ - “क्या बिजली के खम्बे की तरह बूथ में गडे खड़े हो । एक तरफ हटते क्यों नहीं हो ?”
मैं लड़खड़ाता हुआ बूथ से बाहर निकल आया । भाग निकलने के बारे में सोचना भी बेकार था । मैं अभी दस कदम भी आगे नहीं बढा होता कि देव ने मुझे दबोच लिया होता ।
युवती ने हाथ बढाकर अपना बैग उठा लिया ।
“तुम्हें कोई दौरा पड़ता है क्या ?” - देव जैसा आदमी मुझसे बोला ।
“न.. न... नहीं ।” - बड़ी कठिनाई से मैं अपने मुंह से एक शब्द निकाल पाया ।
“तो फिर तुम्हारे चेहरे का रंग क्यों उड़ा हुआ है ? अभी तो तुम ठीक थे ?”
मेरे मुंह से बोल नहीं फूटा ।
वह आदमी और संदिग्ध हो उठा ।
युवती ने अपना बैग अपनी बांह में लटका लिया था ।
“मेम साहब, जरा देख लीजिए” - वह आदमी बोला - “बैग में आपकी चीजें सही-सलामत तो हैं ! मुझे यह आदमी ठीक नहीं मालूम होता ।”
मुझे लगा कि मेरे दिल की धड़कन रुक जाएगी ।
अगले ही क्षण मैं चोरी के इलजाम में गिरफ्तार होने वाला था । युवती के बैग के दस हजार रूपये मेरी जेब में बरामद होने की देर थी कि मैं हवालात में होता । मेरे जैसा फटेहाल आदमी अपनी जेब में सौ-सौ के नोटों की चमचमाती हुई गड्डी की मौजूदगी की कोई विश्वसनीय वजह बयान नहीं कर सकता था जबकि वह युवती बड़ी आसानी से साबित कर सकती थी कि वह रकम उसकी थी ।
मैं फंस चुका था ।
“अच्छा ।” - युवती सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाती हुई बोली ।
उसने अपना बैग खोलकर भीतर झांका ।
मेरी सांस रुक गई ।
वह कुछ क्षण बैग में मौजूद अपनी चीजों का निरीक्षण करती रही और फिर बोली - “सब ठीक है । कोई चीज गुम नहीं है ।”
अब तक मैं केवल भय से जड़ था । अब मेरे आश्चर्यचकित होने की बारी थी । मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ ।
हे भगवान ! यह चमत्कार कैसे हो गया !
क्या युवती को भी मालूम नहीं था कि उसके बैग में दस हजार रूपये थे ।
“अच्छी तरह देख लीजिए ।” - देव जैसा आदमी बोला - “मुझे तो यह आदमी पक्का चोर मालूम होता है । इसकी सूरत से भी ऐसा ही लगता है जैसे इसने जरूर कोई गड़बड़ की है ।”
“यह आदमी तुम्हें चोर लगता होगा” - युवती शान्त स्वर में बोली - “मुझे नहीं लगता । मेरी कोई चीज गुम नहीं हुई है । अगर इस आदमी की नीयत खराब होती तो मेरा बैग लेकर यह कब का यहां से चम्पत हो चुका होता ।”
देव जैसे आदमी के चेहरे से निराशा झलकने लगी । वह अभी भी सन्देह और उपेक्षाभरी निगाहों से मुझे देखता हुआ वापिस काउन्टर के पीछे पहुंच गया ।
न जाने कब की अटकी हुई मेरी सांस अब बाहर निकली ।
“मेरे साथ आओ ।” - युवती धीरे से बोली और बिना मेरी ओर दुबारा दृष्टिपात किये लम्बे डग भरती हुई होटल से बाहर की ओर चल दी ।
मैं यन्त्रचालित सा होटल से बाहर निकलने के बाद वह मेरी बगल में चलने लगी ।
एक बार फिर मेरे दिमाग में भाग निकलने का ख्याल आया लेकिन फौरन ही गायब हो गया । एक तो वैसे ही मेरी बॉडी सिंगल सिलेंडर की थी दूसरे फाकाकशी करते रहने की वजह से मेरा रहा सहा दम भी निकल चुका था । मेरे मुकाबले में वह युवती काफी चुस्त और बलिष्ठ मालूम होती थी । पहले तो मुझे रोक रखने के लिये वह खुद ही काफी थी और फिर वह शोर भी मचा सकती थी । एक सुन्दरी का आर्तनाद सुनकर सुनकर सड़क पर चलते-फिरते लोग उतनी रात गये भी सैकड़ों की तादाद में मेरे पीछे पड़ जाते ।
मैं भीगी बिल्ली की तरह फुटपाथ पर युवती के साथ चलता रहा । अपनी पतलून की जेब में रखी दस हजार के नोटों की गड्डी मुझे टाइम-बम जैसी लग रही थी जो किसी भी क्षण फट सकता था ।
वह मुझे एक ऐसे रेस्टोरेन्ट में ले गई, अगर मैं अकेला होता तो जिसके भीतर घुस पाना तो दूर, अपनी वर्तमान स्थिति में कोई मुझे उसके दरवाजे के पास भी नहीं फटकने देता ।
मैं बड़े नर्वस भाव से अपना चश्मा ठीक करता हुआ और सूखे होंठों पर जुबान फेरता हुआ उसके साथ रेस्टोरेन्ट में प्रविष्ट हुआ ।
एक कोने की मेज पर हम दोनों बैठ गए । उस मेज पर और उस रेस्टोरेन्ट की हर मेज पर बहुत सीमित प्रकाश था जिसकी वजह से एक मेज पर बैठे लोगों को दूसरी मेज पर बैठे लोगों के केवल साये ही दिखाई देते थे, सूरतें नहीं ।
उसने कॉफी का आर्डर दे दिया ।
जब तक कॉफी नहीं आ गई, वह एक शब्द नहीं बोली ।
उस बीच मैंने कई बार कुछ कहने की कोशिश की लेकिन मेरे मुंह से बोल नहीं फूटा ।
“कॉफी पियो ।” - वह बोली ।
मैं यन्त्रचालित-सा कॉफी की चुस्कियां लेने लगा ।
वह भी कॉफी पीने लगी ।
“इतनी गर्मी है, तुम यह बरसाती उतार क्यों नहीं देते ?” - वह बोली ।
“नहीं उतार सकता ।” - मैं दबे स्वर में बोला ।
“क्यों ?”
“दरअसल.... दरअसल.. प.. पीछे से मेरी पतलून ..की हालत... ब.. बहुत नाजुक हो गई है ।”
“ओह !” - वह बोली ।
उस सीमित प्रकाश में भी उसके होंठों पर उभर आई मुस्कराहट मुझसे छुपी न रह सकी । मैं यह फैसला नहीं कर सका कि मेरी हालत उसके लिए मजाक का साधन थी या उसकी उस मुस्कराहट में मेरे प्रति संवेदना का पुट था ।
गर्म कॉफी की भाप से मेरे चश्मे के शीशे धुंधला गये थे । मैंने चश्मा नाक से उतार उंगलियों से ही रगड़कर शीशे साफ किये और चश्मा फिर पहन लिया ।
“तुम्हारा नाम क्या है ?” - उसने सहज स्वर में पूछा ।
“विमल ।” - मैं बोला ।
“उस होटल वाले को तुम चोर दिखाई देते थे, क्या तुम चोर हो ?”
“नहीं ।”
“अपराधी ?”
“नहीं ।”
“कभी जेल गए हो ?”
“जो आदमी चोर न हो, अपराधी न हो, वह जेल क्यों जायेगा ?”
“यह तो मेरे सवाल का जवाब नहीं ।”
मैं कुछ क्षण हिचकिचाया और फिर धीरे से बोला - “नहीं ।”
“फिर तो इसका मतलब यह हुआ कि वक्ती लालच में फंस गये थे ?”
“जी हां ।” - अब छुपाने से फायदा नहीं था । अब तक बात मेरी समझ में आ चुकी थी कि उसने मुझे बखेड़े में फंसने से बचाने के लिए मेरी खातिर झूठ बोलकर मुझ पर भारी मेहरबानी की थी ।
“क्या करते हो ?”
“कुछ भी नहीं, एकदम बेकार हूं ।”
“वजह ?”
“वजह बहुत लम्बी और पेचीदा है ।” - मैं गहरी सांस लेकर बोला - “आपकी समझ में नहीं आएगी ।”
“गुजर कैसे होती है ?”
“कहां होती है गुजर ? भूखा मरता हूं । अभी दस मिनट पहले दो दिन बाद खाना हासिल हुआ था ।”
“कैसे ?”
मैंने बता दिया ।
“तुम्हारा कोई यार-दोस्त नहीं, कोई सगा-सम्बन्धी नहीं जो तुम्हें कम-से-कम दो वक्त खाना खिला सके ?”
“मुम्बई में नहीं है ।”
“मुम्बई के बाहर ?”
“है लेकिन न होने जैसे । मैं उन लोगों की मदद नहीं चाहता ।”
“चाहे भूखे मर जाओ !”
“चाहे भूखा मर जाऊं ।” - मैंने स्वीकार किया ।
“तुम उन लोगों की मदद क्यों नहीं चाहते ?”
“है कोई वजह ।” - मैं लापरवाही से बोला । वास्तव में मैं उन लोगों के पास मदद मांगने जा ही नहीं सकता था । उनसे मदद मांगने जाने का मतलब था जेल जाना ।
युवती कॉफी पीने लगी ।
“मैडम ।” - मैं धीरे से बोला - “सच पूछो तो अभी भी मैं फाके इसलिए मार रहा हूं क्योंकि मुझमें शराफत और इन्सानियत की थोड़ी बू बाकी है । अभी मुझमें अहम का इतना अंश बाकी है कि मैं दो दिन भूखा रह लूं लेकिन कोई ऐसा काम न करूं जिसे करना मेरी आत्मा तब गवारा नहीं करती थी जबकि मैं रोटियों का मोहताज नहीं था । मेरे जिस्म में दम-खम न सही लेकिन दिमाग में इतनी अक्ल जरुर है कि मैं किसी प्रकार अपने लिए दो वक्त का खाना जुटा सकूं, लेकिन अभी मैं वैसे तरीके इस्तेमाल नहीं करना चाहता । अभी मुझमें भूखा रहने की हिम्मत है । जब हिम्मत टूट जाएगी तो सब-कुछ करूंगा । और हिम्मत हारने के मैं कितना करीब पहुंच गया हूं उसका एक नमूना वह हरकत ही है जो उस होटल में मैंने आज की है ।”
“पढे-लिखे हो ?”
मैंने सहमतिसूचक​ ढंग से सिर हिला दिया ।
“तो कोई नौकरी क्यों नहीं तलाश करते ?”
“क्योंकि अपने पढे-लिखे होने के सबूत के तौर पर मैं कोई सर्टिफिकेट पेश नहीं कर सकता ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मैं एकदम फक्कड़ आदमी हूं । इस संसार में मेरा अपना कहने लायक जो कुछ भी है, वह मेरे जिस्म पर मौजूद है ।”
“कितना पढे हुए हो ?”
“काफी ।”
“मैट्रिक हो ?”
“हां ।”
उसने एक खोजपूर्ण दृष्टि मुझ पर डाली और बोली - “ग्रेजुएट ?”
मैंने स्वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“या और भी ज्यादा ?” - वह बोली ।
“मैंने अर्ज किया है न, मैडम, मैं काफी पढा-लिखा हूं । लेकिन सड़क पर घूमने वाला आवारा, मुफलिस और सूरत से चोर दिखाई देने वाला इन्सान पढा-लिखा हो या अनपढ, इससे दुनिया को क्या फर्क पड़ता है !”
नौकरी की खातिर तुम किसी को विश्वास नहीं दिला सकते की तुम अपने सर्टिफिकेट पेश नहीं कर सकते लेकिन वास्तव में तुम पढे-लिखे हो ?”
“नहीं दिला सकता, मैडम । और उसमें सबसे बड़ी वजह मेरा हुलिया है । किसी बड़े साहब को इस बात का विश्वास तो मैं तब दिलाऊं जबकि कोई मुझे उसके पास फटकने दे । मुझे तो साहब लोगों के चपरासी ही भिखारी समझकर दुत्कार देते हैं ।”
“तुम्हें तौहीन महसूस नहीं होती ?”
“पहले होती थी । अब नहीं होती । अब आदत पड़ गई है । और सच पूछिए तो इसी हालत में पहुंचकर मुझे मालूम हुआ है कि मेरे देश में नाली में कीड़ों की तरह रेंगने वाले बेघर-बेदर भूखे-नंगे लोगों की गिनती लाखों-करोड़ों में है । मेरे देश में पैसे वाला इन्सान एक है तो ठोकरें खाने वाले इन्सान हजार हैं । हमारी सरकार समाजवाद की दुहाई देती है लेकिन तेईस साल की आजादी के बाद वह देश की जनता को दो वक्त का खाना जुटा पाने के लिए साधन पैदा नहीं कर पाई । हमारी सरकार...”
“लैक्चर मत दो ।”
मैं फौरन चुप हो गया ।
“तुम कोई ट्रेड यूनियनिस्ट तो नहीं हो ?”
“नहीं ।”
“बातें तो ऐसी ही करते हो ।”
मैंने उत्तर नहीं दिया । मैंने कॉफी का आखिरी घूंट हलक में उंडेल लिया और खाली कप नीचे रख दिया । फिर मैंने जेब से उसके बैग से चुराई सौ-सौ के नोटों की गड्डी निकाली और उसे अपने और उसके बीच में सोफे पर रख दिया ।
युवती ने लापरवाही भरी निगाह नोटों पर डाली और फिर दोबारा मेरी ओर देखने लगी । उसने नोट उठाने का उपक्रम नहीं किया ।
कई क्षण उसकी पैनी निगाहें मेरे चेहरे पर टिकी रहीं ।
मैं नर्वस हो उठा । मैं अपने कॉफी के खाली कप में झांकने लगा ।
“मेरी ओर देखो ।” - वह बोली ।
मैं झिझकता हुआ उसकी ओर देखने लगा ।
मैं तुम्हारी बातों से प्रभावित हुई हूं । तुम मुझे कामचोर नहीं लगते और पढे-लिखे और ईमानदार आदमी लगते हो ।”
“तारीफ के लिए शुक्रिया ।” - मैं सिर नवाकर बोला - “लेकिन मैडम, तारीफ से आदमी का पेट नहीं भरता ।”
“डोंट टाक नानसेंस ।” - युवती तनिक झुंझलाकर बोली - “मैं तुम्हारी तारीफ नहीं कर रही हूं मैं तुम्हें वे बातें बता रही हूं जिसकी वजह से मैं तुम्हें नौकरी दिलवाने वाली हूं ।”
“नौकरी !” - मैं भौंचक्का-सा बोला - “मुझे !”
“हां ।” - उसका स्वर एकदम भावहीन हो उठा था - “आज सुबह के अखबार में एक विज्ञापन निकला था, जिसमें एक ऐसे आदमी की जरुरत जाहिर की गई है जो कार चलाना जानता हो, मोटरबोट चलाना जानता हो और इतना पढा-लिखा हो कि हिन्दी और अंग्रेजी पढ-लिख सकता हो । पता, गोकुलदास एस्टेट, जुहू । गोकुलदास एस्टेट सारी बम्बई में मशहूर है । जुहू पहुंचकर जिससे मर्जी पूछ लेना ।”
“मुझे नौकरी मिल जाएगी ?” - मैंने अविश्वासपूर्ण स्वर में पूछा ।
“मिल जाएगी ।” - वह यूं बोली जैसे एक बेहद मामूली बात का जिक्र कर रही हो ।
“मुझे करना क्या होगा ?”
“पहले नौकरी हासिल कर लो, फिर तुम्हें सब-कुछ मालूम हो जायेगा ।”
“कोई गैरकानूनी काम तो नहीं करना होगा ?”
युवती कुछ क्षण मुझे घूरती रही और फिर अपने होंठों पर एक व्यंग्यभरी मुस्कराहट लाकर बोली - “जैसे तुम्हारी मौजूदा हालत है, उसे देखते हुए तुम्हें कोई गैरकानूनी काम भी करना पड़े तो तुम्हारी सेहत पर क्या असर पड़ेगा ? जेल भी चले जाओगे तो कम-से-कम दो वक्त की रोटी की गारन्टी तो हो जाएगी ।”
मैं चुप रहा ।
“वैसे तुम्हारी जानकारी के लिए सर गोकुलदास बम्बई के इने-गिने रइसों में से एक है ।”
मुझे शर्मिन्दगी महसूस होने लगी ।
“और अपना हुलिया सुधार कर जाना ।” - वह बोली - “वरना कोई तुम्हें एस्टेट के पास भी नहीं फटकने देगा ।”
“लेकिन...” - मैंने कहना चाहा लेकिन जो कुछ मैं कहना चाहता था उसे कहने की जरूरत नहीं पड़ी । वह पहले ही समझ गई थी कि मैं क्या कहने वाला था । उसने हम दोनों के बीच पड़ी नोटों की गड्डी उठाई, उसमें से दो नोट फाड़कर मेरे हवाले किये और बाकी की गड्डी अपने बैग में डाल ली ।
“ओके ?” - वह बोली ।
“ओके ।” - मैं कृतज्ञतापूर्ण स्वर में बोला ।
उसने वेटर को संकेत किया ।
वेटर बिल ले आया ।
सौ-सौ के दो नोट अभी भी मेरे हाथ में थे, मैंने एक नोट वेटर की ट्रे में डाल दिया ।
वेटर सख्त हैरानी जाहिर करता हुआ वहां से विदा हो गया ।
युवती भी हैरानी से मेरा मुंह देख रही थी ।
“कोई खास मजबूरी न हो ।” - मैं धीरे से बोला - “तो एटीकेट का यही तकाजा ता है कि बिल मर्द अदा करे ।”
“वाह !” - वह बोली । उसके स्वर में स्पष्ट मजाक का पुट था ।
मुझे बुरा नहीं लगा ।
वेटर सतानवे रूपये वापिस ले आया ।
मैंने सारे नोट उठा लिये । उसे टिप देने का मेरा कतई इरादा नहीं था । बिल अदा करना और बात थी, वेटर को टिप देना और बात थी । मैं बिल अदा करना जरूरी समझता था लेकिन वेटर को टिप देने में एक नया पैसा भी बर्बाद करना मूर्खता समझता था । हां, अगर मेरी जेब में सिर्फ तीन रूपये होते तो शायद में बिल भी अदा नहीं करता ।
हम दोनों उठकर रेस्टोरेंट से बाहर निकल आये ।
“कल ग्यारह बजे तक पहुंच जाना ।” - वह बोली ।
मैंने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया और फिर झिझकता हुआ बोला - “मैडम !”
“हां ।” - वह बोली ।
“क्या मैं आपका नाम पूछ सकता हूं ?”
उसी क्षण एक टैक्सी उसके सामने से गुजरी । उसने टैक्सी को रुकने का संकेत किया । टैक्सी फुटपाथ के साथ लगकर रुक गई । ड्राइवर ने बाहर निकलकर टैक्सी का पिछला दरवाजा खोल दिया ।
“लेडी शान्ता गोकुलदास ।” - वह टैक्सी में बैठती हुई बोली ।
टैक्सी ड्राइवर ने बड़ी मुस्तैदी से टैक्सी का दरवाजा बन्द किया, टैक्सी का मीटर डाउन किया और फिर ड्राइविंग सीट पर जा बैठा ।
अगले ही क्षण टैक्सी यह जा, वह जा ।
मैं भौचक्का-सा तब तक फुटपाथ पर खड़ा रहा, जब तक टैक्सी मेरी निगाहों से ओझल नहीं हो गयी ।
मैंने बायें हाथ से चश्मा उतारकर उसी हाथ से अपनी आंखों को रगड़ा और फिर चश्मा नाक पर टिकाकर विक्टोरिया टरमिनस स्टेशन की ओर बढ़ा ।
जिस गुजराती ने मुझे दो रूपये दिए थे, वह बुकिंग के सामने लाइन में खड़ा था और भट्टी पर चढ़े तेल की तरह उबल रहा था । उसके पीछे लाइन में तीन आदमी और आ बैठे थे ।
“कहां मर गए थे ?” - मुझे देखते ही वह झल्लाकर बोला - “खाना खाने पूना गए थे ?”
मैं ठाठ से उसके सामने जा खड़ा हुआ । मेरा पेट भरा हुआ था, मेरी जेब में एक सौ सतानवे रुपये थे, मेरी नौकरी पक्की हो चुकी थी । इसलिये जब मुझे दो रूपये की खातिर सारी रात बुकिंग की लाइन में खड़े होने की जरूरत नहीं थी ।
मैंने जेब से दो रूपये निकाले, बायें हाथ में उसका दायां हाथ दबोचा और उसकी हथेली पर दो रूपये ठोकता हुआ बोला - “अपुन से तुम्हेरा काम नहीं होने का, सेठ । अपुन का भेजा नहीं फिरेला है जो दो रूपये में इधर नौ घण्टे का ड्यूटी मारेंगा ।”
गुजराती का गुस्सा काफूर की तरह उड़ गया । वह हक्का-बक्का-सा मेरा मुंह देखने लगा ।
“अपना रोकड़ा चौकस करो ।” - मैं बोला ।
“तुम... तुम वही आदमी हो ।” - वह हैरानी से बोला - “जो थोड़ी देर पहले..”
“हां... हां अपुन वही आदमी है ।”
“किसी का पॉकेट मारा है क्या ?”
“काहे कू खाली-पीली बोलता है रे । बोला न अपुन को तुम्हेरा काम नहीं करने का । बस । खल्लास ।”
“और जो मेरा इतना टाइम बरबाद कर दिया तुमने ।” - वह फिर क्रोधित स्वर में बोला ।
“टेम का एक रुपया और लो ।” - मैं उससे ज्यादा क्रोधित स्वर में बोला और मैंने एक रुपये का नोट उसकी हथेली पर रख दिया ।
गुजराती उल्लू की तरह गोल-गोल आंख फिराता, कभी हथेली पर रखे तीन रुपयों को और मेरी सूरत को देख रहा था ।
मैंने उसे आंख मारी, वहां से अबाउट टर्न किया और स्टेशन से बाहर निकल गया ।
***
रात को स्टेशन के पास एक फुटपाथ पर मैं अपने हमेशा के ठिकाने पर सोया । सारी रात इस आशंका में मुझे नींद नहीं आई कि कहीं किसी को खबर न हो जाए कि मेरी जेब में एक सौ चौरानवे रुपये थे और कोई मेरी पॉकिट न मार ले ।
सुबह उठते ही सबसे पहले मैंने सिर के बाल कटवाए और शेव करवाई ।
फिर मैंने एक ईरानी के होटल में जाकर चाय, मक्खन, टोस्ट और अण्डों का ब्रेकफास्ट किया ।
दुकानें खुल चुकने के बाद मैंने बाजार से एक रेडीमेड पतलून, एक बुश्शर्ट, एक बनियान, एक अन्डरवियर, एक रूमाल, नई चप्पलें, तेल, साबुन, तौलिया, टूथपेस्ट, टूथब्रश, कंघी, शीशा और एक रेक्सीन का एयरबैग के अन्दाज का बैग खरीदा ।
सारी खरीददारी कर चुकने के बाद भी मेरी जेब में लगभग अस्सी रुपये मौजूद थे ।
फिर मैं वापिस मुम्बई वी.टी. स्टेशन पर पहुंचा ।
स्टेशन के फर्स्ट क्लास वेटिंगरूम में अटेण्डेण्ट को एक रुपया रिश्वत देकर मैं फर्स्ट क्लास वेटिंगरूम के बाथरूम में घुस गया ।
मैं मल-मलकर नहाया । न जाने कितने दिनों की मैल मेरे जिस्म से उतर रही थी ।
अन्त में मैं नये कपड़े पहनकर और बाकी का सामान एयरबैग में डालकर बाहर निकल आया ।
वेटिंगरूम के एक खम्भे के साथ एक आदमकद शीशा लगा हुआ था । मैंने उसमें अपनी सूरत देखी तो खुद मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ ।
मेरा एकदम काया-पलट हो गया था ।
कौवा हंस बन गया था ।
महीनों से अपनी मनहूस सूरत, जो मैं कभी-कभार शीशे में देखता आया था, गायब हो गई थी और उसके स्थान पर मुझे एक बड़े ही कुलीन और संभ्रान्त युवक का चेहरा दिखाई दे रहा था । मेरे होंठों पर एक मुस्कराहट उभर आई । बड़ी मुश्किल से मैं अपनी अट्टहास लगाने की इच्छा को रोक सका । एक मुद्दत के बाद मुझे महसूस हो रहा था कि इस संसार में मेरा भी कोई अस्तित्व था । मेरा जी चाह रहा था कि मैं जोर-जोर से गाऊं और झूम-झूमकर नाचूं ।
वेटिंगरूम का अटेन्डेन्ट भी चौंधियाया-सा मुझे देख रहा था ।
“सलाम, साहब ।” - वह मुझे ठोककर सलाम मारता हुआ बोला ।
मैं और खुश हो गया । और क्योंकि मैं खुश हो गया था, इसलिए मैंने उसे एक रुपया और दे दिया ।
उसने दोबारा मुझे ठोककर सलाम मारा ।
अपने पुराने कपड़ों को मैंने प्लास्टिक की बरसाती में लपेट लिया था ।
स्टेशन से बाहर आकर उस बण्डल को मैंने कूड़ेदान में फेंक दिया ।
सीटी में ‘बर्लिन मैलौडी’ की धुन बजाता हुआ मैं बसस्टैंड पर आ खड़ा हुआ ।
बस द्वारा मैं जुहू पहुंच गया ।
जुहू पहुंचकर सर गोकुलदास एस्टेट तलाश करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई । मैं वहां ग्यारह बजने से कुछ मिनट पहले ही पहुंच गया ।
एस्टेट के गेट पर खड़े गोरखे को मैंने बताया कि मैं अखबार में विज्ञापित नौकरी के लिये प्रत्याशी था ।
“सीधे चले जाओ ।” - वह भीतर की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
दोनों ओर से पेड़ों से ढकी एक लम्बी राहदारी से होता हुआ मैं आगे बढ़ा । लगभग सौ गज आगे जाकर रास्ता दायीं ओर घूम गया ।
सामने एक खूबसूरत दोमंजिला इमारत थी । इमारत के सामने विशाल बगीचा था जिसके मध्य में एक फव्वारा चल रहा था ।
मेरे पोर्च में कदम रखते ही इमारत का एक द्वार खुला और उसमें से पिछली रात वाली वह युवती प्रकट हुई जिसने अपना नाम लेडी शान्ता गोकुलदास बताया था ।
मैं लपककर आगे बढ़ा और उसके सामने जा खड़ा हुआ । मैंने हाथ जोड़कर उसका अभिवादन किया ।
“कौन हो तुम ?” - वह रुक्ष स्वर में बोली - “क्या चाहते हो ?”
“ज.. जी... जी ।” - मैं बौखला गया - “मैं विमल कुमार हूं । मैं कल रात आपसे...”
“ओह नो ।” - वह आश्चर्य से बोली - “यू कान्ट बी दि सेम मैन ।”
“बट आई एम, मैडम ।” - मैं जल्दी से बोला ।
“तुम्हारा तो एकदम कायापलट हो गया है । कल तो तुम बड़े वहशी से लग रहे थे । तुम तो अच्छे-खासे खूबसूरत नौजवान हो और तुम्हारी उमर भी कोई खास नहीं मालूम हो रही है ।”
“मैं अट्ठाइस साल का हूं ।”
“कल तो तुम मुझे पैंतालीस से कम नहीं लग रहे थे ।”
मैं मुस्कराया ।
“बगल के कमरे में बैठ जाओ ।” - वह दायीं ओर के एक कमरे की ओर संकेत करती हुई बोली - “वहां नौकरी के लिये आये प्रत्याशी बैठे हैं ।”
और वह आगे बढ़ गई ।
मैं बगल के कमरे में प्रविष्ट हो गया ।
वहां हर उम्र के कम-से-कम बीस आदमी मौजूद थे जिनमें से तीन-चार स्थानाभाव के कारण खड़े थे । लोगों की उपेक्षाभरी निगाहों का शिकार बनता मैं भी एक कोने में जा खड़ा हुआ ।
लगभग पांच मिनट बाद एक मोटी-ताजी क्रिश्चियन औरत के साथ उस कमरे में शान्ता प्रकट हुई ।
सब लोग उठकर खड़े हो गये ।
शान्ता की निगाहें बारी-बारी सबके चेहरों पर फिरने लगीं । सबको एक बार परख चुकने के बाद उसकी निगाहें फिर मुझ पर आकर टिक गई । उसने मेरी ओर संकेत करके क्रिश्चियन औरत को कुछ कहा ।
क्रिश्चियन औरत की पैनी निगाहें कुछ क्षण मुझे सिर से पैर तक घूरती रहीं फिर वो कर्कश स्वर में बोली - “ए ! तुम इधर आओ ।”
“मैं !” - मैं बोला ।
“हां, तुम । बहरे हो क्या ?”
मैं लपककर लोगों की भीड़ से अलग होकर उसके सामने आ खड़ा हुआ ।
“क्या नाम है तुम्हारा ?” - उसने पुछा ।
“विमल कुमार ।” - मैं तत्परता से बोला ।
“तुम...”
“मार्था !” - शान्ता ने आवाज लगाई ।
“ओके, ओके, मैडम ।” - मार्था बोली और चुप हो गई ।
शान्ता ने मुझे अपने पीछे आने का संकेत किया और कमरे से बाहर निकल गई ।
मैं उसके पीछे हो लिया ।
वह मुझे इमारत के भीतर के एक अन्य कमरे में लाई ।
“तुम्हारी नौकरी पक्की ।” - वह बोली ।
“थैंक्यू वैरी मच, मैडम ।” - मैं कृतज्ञ स्वर में बोला ।
“सिर्फ जबानी जमा-खर्च मत करो ।” - वह बोली - “मेरा अहसान उतारने के तुम्हें आगे चलकर बहुत मौके मिलेंगे ।”
“मैं आपका मतलब नहीं समझा ?” - मैं उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“वक्त आने दो, समझ जाओगे ।”
उसी क्षण मार्था नाम की मोटी क्रिश्चियन औरत कमरे में प्रविष्ट हुई ।
“यह आदमी ठीक है, मैडम ?” - उसने पूछा ।
“ठीक है ।” - शान्ता व्यस्त स्वर में बोली - “बाकी आदमियों को चलता करो ।”
“ओके ।”
मार्था फिर कमरे से निकल गई ।
“आओ, तुम्हें बड़े साहब से मिलाऊं ।” - शान्ता बोली ।
मैं चुपचाप शान्ता के साथ हो लिया ।
शान्ता मुझे एक विशाल बैडरूम में ले आई । बैडरूम की साज-सज्जा के हर पहलू से रईसी टपकती थी ।
पलंग पर तकियों के सहारे एक लगभग पचपन साल के वृद्ध लेटे हुये थे । उनका चेहरा राख की तरह सफेद था और स्थिर था । केवल उनके नेत्रों की ज्योति से अनुभव होता था कि वे सजीव प्राणी थे, मोम के पुतले नहीं ।
मैं और शान्ता पलंग के पांव की ओर आ खड़े हुये ।
“सर गोकुलदास !” - शान्ता बोली - “मेरे पति ।”
मैंने दोनों हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार किया ।
सर गोकुलदास की उदासीन निगाहें मेरे चेहरे से टकराईं और शून्य में कहीं टिक गईं ।
“डार्लिंग ।” - शान्ता मधुर स्वर में बोली - “बासको की जगह नया आदमी रखा है । इसका नाम विमल कुमार है और यह पढा-लिखा और समझदार नौजवान है । मुझे विश्वास है, बासको के मुकाबले में विमल कुमार डॉक्टर कश्यप को भी पसंद आयेगा ।”
वृद्ध के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया ।
उसी क्षण बगल का एक दरवाजा खुला और एक नर्स की पोशाक पहने हुये युवती ने बैडरूम में कदम रखा ।
“यह नर्स एलिस है ।” - शान्ता बोली ।
मैंने नर्स को हाथ जोड़कर नमस्कार किया ।
मेरे अभिवादन की स्वीकृति में नर्स होंठों में कुछ बुदबुदाई जिसका एक भी अक्षर मेरी समझ में नहीं आया । मुझे यह तक मालूम नहीं हुआ कि वह कौन-सी भाषा में बोली थी ।
नर्स एलिस एक साधारण शक्ल-सूरत की और साधारण कद-काठ की लगभग पच्चीस साल की युवती थी और न जाने क्यों बड़ी अभिमानभरी मालूम हो रही थी ।
“एलिस ।” - शान्ता बोली - “यह आज बासको की जगह नया आदमी रखा गया है ।”
तब तक नर्स पलंग के समीप आ चुकी थी ।
“क्या नाम है तुम्हारा ?” - वह यूं बोली जैसे कि मैं उसका निजी नौकर रखा गया था ।
“विमल कुमार, मैडम ।” - मैं शिष्ट स्वर में बोला ।
“हर काम ठीक से, जिम्मेदारी से करना वर्ना टिक नहीं पाओगे यहां । डॉक्टर कश्यप बहुत सख्त आदमी हैं । तुम्हारी एक भी गलती माफ नहीं करेंगे । बासको को उन्होंने खड़े पैर नौकरी से निकलवा दिया था ।”
''मैं हर काम बहुत ईमानदारी से और दिल लगाकर करूंगा, मैडम ।” - मैं बोला ।
“गुड ।” - नर्स बोली ।
“आओ ।” - शान्ता मुझसे बोली ।
मैं वृद्ध और नर्स का फिर से अभिवादन करके शान्ता के साथ बैडरूम से बाहर निकल आया ।
मार्था उसी ओर आ रही थी ।
शान्ता ने मुझे मार्था के हवाले कर दिया ।
मार्था मुझे किचन में ले आई ।
वह उस विशाल इमारत के अनुरूप एक विशाल किचन थी जिसके एक कोने में लोहे की मेज और दो कुर्सियां पड़ी थीं । किचन इमारत के एकदम सिरे पर थी जबकि सर गोकुलदास का बैडरूम इमारत के पिछवाड़े में था जिसकी खिड़की से बाहर लहरें मारता हुआ समुद्र साफ दिखाई देता था ।
मार्था के संकेत पर मैं एक कुर्सी पर बैठ गया । मार्था मेरे सामने दूसरी कुर्सी पर बैठ गई ।
किचन में एक नौकर काम कर रहा था ।
“चाय लाओ ।” - मार्था अधिकारपूर्ण स्वर में बोली ।
“अभी लाया ।” - नौकर बोला ।
“मैं यहां हाउसकीपर हूं ।” - मार्था गर्वपूर्ण स्वर में बोली ।
उत्तर में मुंह से मैं कुछ नहीं बोला लेकिन सूरत से मैंने प्रभावित दिखाई देने का पूरा प्रयत्न किया ।
“तुम्हारी तनख्वाह दो सौ रुपये महीना होगी ।” - मार्था बोली - “और तुम्हें खाना-पीना और रहने की जगह मुफ्त मिलेगी । तुम्हारा क्वार्टर एस्टेट के कोने में बने गैरेजों के ऊपर है । अभी मैं तुम्हें वह जगह दिखा दूंगी ।”
“थैंक्यू ।”
नौकर चाय और बिस्कुट दे गया ।
“मैडम ।” - मैं झिझकता हुआ बोला - “अगर बुरा न मानो तो एक-दो बातें मैं भी पूछ लूं ।”
“पूछो ।”
“बड़े साहब को बीमारी क्या है ?”
“सर गोकुलदास" - मार्था के चेहरे पर करूणा और वेदना के भाव उभर आये - “लगभग चार साल पहले एक मोटर एक्सीडेंट के शिकार हो गए थे । उनके सारे जिस्म को लकवा मार गया है । न वे खुद हिल सकते हैं और न बोल सकते हैं । पिछले चार सालों से वे यूं ही बिस्तर पर पड़े हैं । बिस्तर से व्हील चेयर पर और व्हील चेयर से बिस्तर पर । बस यही जिन्दगी रह गई है बेचारों की ।”
“डॉक्टर क्या कहता है ?”
“डॉक्टर कश्यप बहुत काबिल डॉक्टर है और बड़े साहब का पुराना दोस्त है । वह कहता है कि वह ठीक नहीं हो सकते । बेचारों की जिंदगी एक कच्चे धागे के सहारे लटकी हुई है । वे किसी भी क्षण इस दुनिया से कूच कर सकते हैं । चार साल तो बिस्तर पर पड़े हो गये हैं । और कब तक जीवित रह पायेंगे वे !”
मैंने देखा कि सर गोकुलदास के उस सन्दर्भ में जिक्र ने मार्था की आंखें तर कर दी थीं । शायद मार्था की कठोरता केवल दिखावे की थी । भीतर से शायद वह बहुत सह्रदय औरत थी ।
मैं चुपचाप चाय पीता रहा ।
“मेरा काम क्या है ?” - थोड़ी देर बाद मैंने पुछा ।
“मुख्यत: तुम्हारा काम है बड़े साहब की देखभाल में नर्स एलिस की मदद करना ।” - मार्था बोली - “जैसे उन्हें बिस्तर से उठाकर व्हील चेयर पर बिठाना, व्हील चेयर से उठाकर बिस्तर पर लिटाना । और इसे तुम मामूली काम मत समझो । इस काम में बड़ी सावधानी की जरूरत है । डॉक्टर कश्यप का कहना है कि तनिक भी अप्रत्याशित झटका लगने से सर गोकुलदास की जान जा सकती है । पैरेलाइसिस की वजह से उनका दिल भी बहुत कमजोर हो गया है ।”
“और क्या काम करना होगा मुझे ?”
“और तुम्हें उनकी व्हील चेयर को पीछे से चलाते हुए कभी-कभार उन्हें समुद्र की सैर करवाकर लाना होगा । और तुम्हें उनको उनकी पसन्द की पुस्तकें पढ़कर सुनानी होंगी । इसके अलावा कभी-कभी तुम्हें ड्राइवर की ड्यूटी भी देनी होगी । एस्टेट में चार कारें हैं लेकिन एक भी मुश्किल से इस्तेमाल होती है । सिर्फ शान्ता मेमसाहब कहीं आती-जाती हैं और वे या तो टैक्सी बुलवा लेती हैं और या कार खुद चलाती हैं । वैसे कार खुद चलाने से वे परहेज ही रखती हैं । वे कहती हैं कि जब से बड़े साहब का एक्सीडेंट हुआ है उन्हें कार ड्राइव करने में दहशत महसूस होने लगी है ।”
“स्वाभाविक भी है जबकि एक एक्सीडेंट का भयंकर अन्जाम सामने हो ।”
“तुम अच्छे ड्राइवर हो ?”
“जी हां ।”
“फिर शायद तुम्हें कभी-कभार शान्ता मेमसाहब की कार ड्राइव करनी पड़े । मोटरबोट चलाना जानते हो ?”
“कभी चलाई नहीं ।”
“कार चलानी आती है तो जल्दी ही सीख जाओगे ।”
“एक बात और बताइये ।”
“क्या ?”
“बासको कौन था ?”
“बासको की जगह ही तो तुम रखे गये हो । वह एक भद्दा-सा लम्बा-चौड़ा गोवानी था जो सारा दिन लॉन में बैठा चारमीनार की सिगेरट पीता रहता था । साला हलकट कोई काम सलीके से नहीं करता था । उसकी लापरवाही ने एक बार तो बड़े साहब को मार ही डाला था ।”
“क्या हुआ था ?”
“बासको उन्हें व्हील चेयर से उठाकर कुर्सी पर लिटाने लगा था कि एकाएक उनका शरीर उसके हाथ से फिसल गया था । वह तो नर्स एलिस पास खड़ी थी और उसने असाधारण फुर्ती और तत्परता का परिचय देकर बड़े साहब को सम्भाल लिया था वर्ना उस दिन साहब, भगवान न करे, परलोक सिधार गये होते । उनका शरीर तो शीशे से भी नाजुक है । जमीन पर गिरा नहीं और चकनाचूर हुआ नहीं । शाम को जब डॉक्टर कश्यप को उस घटना का पता लगा तो उन्होंने उसी क्षण बासको को निकाल बाहर किया था ।”
“मैं ऐसी अप्रिय घटना नहीं होने दूंगा ।” - मैं दृढ़ स्वर में बोला ।
“तुमसे मुझे यही उम्मीद है । तुम शक्ल से ही मुझे भले लगते हो । बासको को तो कोई मील भर से देख ले तो पहचान ले कि वह चोर और उठाईगीरा है ।”
“ऐसे आदमी को यहां रख कैसे लिया गया ?”
“आदमी की जरूरत थी । शान्ता मेमसाहब कहीं से पकड़ लायी थीं । बासको की वजह से ही तो इस बार अखबार में इश्तिहार दिया गया था और तुम्हें इतने आदमियों में से चुना गया था ?”
मैं मन-ही-मन सोचने लगा, अगर मार्था को मालूम हो जाए कि इस बार भी जो आदमी रखा गया था वह शान्ता मेमसाहब द्वारा ही पकड़कर लाया गया था, तो उसे कैसा लगेगा । मार्था की निगाहों में शान्ता ने मेरी सूरत पहले कभी नहीं देखी थी और मैं कई प्रत्याशियों में से बड़ी सावधानी से चुना गया था ।
“साहब का कोई बाल-बच्चा नहीं है ?”
“एक लड़की है । माधुरी नाम है । लगभग सोलह साल की है । वह नैनीताल में शेरवुड कॉलेज में पढ़ती है । छुट्टियों में आती है । अब कुछ ही दिनों में आने वाली है ।”
“शान्ता मेमसाहब की तो इतनी उम्र मालूम नहीं होती की उनकी सोलह साल की लड़की भी हो ।”
“माधुरी शान्ता मेमसाहब की लड़की नहीं है । माधुरी साहब की पहली बीवी से है । साहब की पहली बीवी माधुरी को छ: साल का छोड़कर मर गई थी । साहब ने माधुरी को तभी पढ़ाई के लिए नैनीताल भेज दिया था । शान्ता मेमसाब से तो साहब ने एक्सीडेंट से सिर्फ एक साल पहले शादी की थी ।”
“दोनों की उम्र में तो बहुत फर्क है ।”
“कोई खास फर्क नहीं । साहब अभी केवल पचास साल के हैं ।”
“मुझे तो उनकी उम्र ज्यादा मालूम होती है ।”
“वे पचास साल के ही हैं । बीमारी की वजह से ऐसा लगता है । अब जिस्म में जान कहां रह गई है ! जब उन्होंने शान्ता मेमसाहब से ब्याह किया था उस समय वे पैंतालीस के थे लेकिन इतनी अच्छी सेहत थी कि चालीस से भी कम के मालूम होते थे । वैसे भी पैंतालिस की उम्र में तो आदमी आम दूसरी शादी कर लेता है । और शान्ता मेमसाहब उस वक्त पच्चीस साल की थीं ।”
मैं चुप हो गया ।
“आओ तुम्हें तुम्हारा क्वार्टर दिखाऊं ।” - मार्था अपने स्थान से उठती हुई बोली ।
मैं भी उठ खड़ा हुआ ।
वह मुझे इमारत से बाहर ले गई ।
बगीचे के पार एस्टेट के सड़क की ओर के कोने पर वह इमारत थी जिसके नीचे चार गैरेज थे और ऊपर दो कमरों का सैट था जो कि गोकुलदास एस्टेट में मेरा निवास स्थान बनने वाला था ।
“तुम्हारे क्वार्टर में यह घण्टी लगी है ।” - मार्था कमरे के स्विच बोर्ड पर लगी घण्टी की ओर संकेत करते हुए बोली - “इस घण्टी का पुश बटन नर्स एलिस के कमरे में लगा हुआ है । इस घण्टी के बजने का अर्थ होगा कि नर्स एलिस को तुम्हारी जरूरत है । घण्टी बजते ही तुम्हें फौरन नर्स के पास पहुंचना होगा । समझ गये ?”
“समझ गया ।”
“मैं जाती हूं । लंच के वक्त किचन में आ जाना ।”
“ओके मैडम । एण्ड थैंक्यू वैरी मच मैडम ।”
मार्था मुझे वहां खड़ा छोड़कर मेरे क्वार्टर की सीढियां उतर गई ।
***
अगला सप्ताह बड़े मजे से गुजरा ।
खाने-पीने को अच्छा मिलता था इसलिए एक सप्ताह में ही मेरे शरीर में जान और चेहरे पर रौनक आने लगी थी । निरन्तर फाकाकशी की वजह से भीतर को पिचके हुए गाल भी अब बाहर निकलने लगे थे और अब मेरा चश्मा चेहरे से ढलककर मेरी नाक की फुंगी पर नहीं आ जाता था ।
डॉक्टर कश्यप से मेरी मुलाकात हो चुकी थी और वह मुझसे सन्तुष्ट था । उसने मुझे सर गोकुलदास को पलंग से व्हील चेयर पर और व्हील चेयर से पलंग पर पहुंचाते देखा था और मेरे काम करने के जिम्मेदारीभरे ढंग को पसन्द किया था । नर्स एलिस जो आरम्भ में मुझे सन्देह की निगाहों से देखा करती थी, अब सन्तुष्ट दिखाई देने लगी थी ।
डॉक्टर कश्यप सप्ताह में तीन बार आता था और सर गोकुलदास का जनरल चैकअप कर जाता था । डॉक्टर के निर्देशानुसार उसे दवाइयां, इन्जेक्शन और पथ्य देने का काम नर्स करती थी ।
आरम्भ में सर गोकुलदास को देखकर मुझे लगा था कि उनका शरीर एकदम जड़ था लेकिन बाद में मुझे मालूम हुआ था कि वे थोड़ी-बहुत गर्दन हिला लेते थे और उनमें तरल पदार्थों को निगल पाने और हल्की-फुल्की चीजों को चबा पाने की क्षमता थी ।
सुबह लंच के पहले, शाम को चाय के बाद और रात को सोने से पहले मैं सर गोकुलदास को उनकी पसन्द की पुस्तकें पढ़कर सुनाया करता था । एक सप्ताह में यह काम करते रहने के बाद मुझे इतना तजुर्बा हो गया था कि मैं उनके नेत्रों में झांककर ही पहचान संकू कि कौन-सी किताब उन्हें बोर करती है और कब वे किताब सुनने के मूड में नहीं होते थे ।
उस सप्ताह में यह मेरा विश्वास ढृढ़ हो गया था कि मार्था एक बहुत ही नेकदिल औरत थी ।
बाकी के अस्सी रुपयों में से मैंने एक काटन का नाइट सूट, दो बनियानें, दो अण्डरवियर और शेविंग सैट खरीद लिया था । बुश्शर्ट और पतलून मेरे पास एक ही थी जिसे मैं हर तीसरे दिन रात को धोकर खुद ही प्रैस कर लेता था और यूं किसी प्रकार एक ही पोशाक से गुजारा चला रहा था ।
कार ड्राइव करने के लिए मुझे एक बार भी नहीं कहा गया था । शान्ता कभी बाहर जाती थी तो टैक्सी बुला लेती थी और या कार खुद ड्राइव कर लेती थी ।
उस एक सप्ताह के समय में मैंने मोटरबोट चलाना सीख लिया था । सर गोकुलदास की मोटरबोट के बारे में मुझे बाद में मालूम हुआ था कि उससे तेज मोटरबोट सारी बम्बई में किसी के पास नहीं थी - पुलिस या कस्टम वालों के पास भी नहीं ।
पूरे सप्ताह में मेरे क्वार्टर की घण्टी एक बार भी नहीं बजी थी । प्रत्यक्षत: नर्स एलिस को रात में कभी भी मेरी सहायता की जरूरत नहीं पड़ी थी।
मैं शान्ता का एक बार फिर शुक्रगुजार होना चाहता था लेकिन कोई मौका हाथ नहीं आ रहा था । साथ ही मुझे शान्ता की कही वह बात भी याद आ जाती थी कि मुझे जुबानी जमा खर्च करने की जरूरत नहीं थी । उसका अहसान उतारने के लिए आगे चलकर बहुत मौके आने वाले थे । पता नहीं वे मौके कब आने वाले थे, लेकिन मैं दिल से उसकी कोई भी सेवा करने के लिए तैयार था ।
समय बड़े मजे से कट रहा था ।
और फिर आठवीं रात को -
मेरी नींद खुली ।
बाहर से कोई धीरे-से मेरे क्वार्टर का द्वार खटखटा रहा था ।
मैं कच्ची नींद सोने का आदी था इसलिए मेरा अनुमान था कि दरवाजा खटखटाये जाने की आवाज मैंने लगभग तत्काल ही सुन ली थी ।
मैंने बत्ती जलाई ।
वाल-क्लॉक डेढ़ बजा रही थी ।
मैं लगभग ग्यारह बजे सोया था । मुझे सोये हुए लगभग ढाई घण्टे हो चुके थे ।
मैं बिस्तर से निकला । मैंने आगे बढ़कर दरवाजा खोल दिया ।
बाहर शान्ता खड़ी थी ।
कमरे के साठ वाट के बल्ब का कृत्रिम प्रकाश उसके चेहरे पर पड़ रहा था । पीले प्रकाश में उसका चेहरा बेहद पीला लग रहा था । वह अपने शरीर के साथ कसकर एक रेशमी गाउन लपेटे हुए थी और वह सूरत से बेहद भयभीत दिखाई दे रही थी ।
“आप !” - मेरे मुंह से निकला ।
मैंने आंखें मिचमिचाकर अपने नेत्रों से नींद भगाने की कोशिश की और दुबारा उसकी ओर देखा ।
नहीं, मैं ख्वाब नहीं देख रहा था । वह शान्ता ही थी ।
वह मेरी बगल से होती हुई भीतर घुस आई और जाकर मेरे पलंग के समीप खड़ी हो गई ।
“दरवाजा बन्द कर दो ।” - वह कम्पित स्वर में बोली ।
मैं यन्त्रचालित-सा आगे बढ़ा और मैंने दरवाजा बन्द कर दिया ।
“क्या बात हो गई, मैडम ?” - मैं चिन्तित स्वर में बोला - “आप बहुत घबराई हुई लग रही हैं !”
“म...मैं.. मैं...” - वह पूर्ववत् कम्पित स्वर में बोली - “म... मुझे एक गिलास पानी पिलाओ ।”
मैं झपटकर किचन में गया और पानी ले आया ।
शान्ता गटागट पानी पी गई । उसने खाली गिलास मुझे थमा दिया ।
वह भयभीत थी और अपने से बेखबर थी । उसका रेशमी गाउन सामने से खुल गया था और भीतर से जाली जैसे पारदर्शक कपड़े से ढका उसका गोरा, पुष्ट शरीर झलक रहा था ।
“क्या बात हो गई, मैडम ?” - उसके लगभग नग्न शरीर से निगाहें चुराते हुए मैंने अपना प्रश्न दोहराया ।
“विमल !” - वह कम्पित स्वर में बोली और उसने सहारे के लिए अपना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया ।
किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर मैं आगे बढ़ा और मैंने उसका हाथ थाम लिया ।
अगले ही क्षण वह मेरे आलिंगन में थी । मैं बौखला गया । मैंने पीछे हटना चाहा । उसका शरीर लता की तरह मेरे शरीर से लिपट गया । उसके नेत्र बन्द थे और वह होंठों में बुदबुदा रही थी -“विमल... विमल.. म.. मुझे डर लग रहा है ।”
“लेकिन हुआ क्या है, मैडम ! आप क्यों डर रही हैं ?” - मैं उसे अपने शरीर से अलग करने का उपक्रम करता हुआ बोला ।
उसका शरीर एक बार कांपा, एक बार कसकर मेरे शरीर के साथ चिपका और फिर मुझसे अलग हो गया । वह पलंग पर जा बैठी और हांफने लगी ।
मुझे लगा कि वह धीरे-धीरे स्वयं को नियन्त्रित कर रही थी ।
मैं हक्का-बक्का-सा उसके सामने खड़ा रहा ।
थोड़ी देर बाद उसने सिर उठाया और अपने चारों ओर देखा ।
“मैं कहां हूं ?” - वह बोली ।
“मेरे क्वार्टर में ।” - मैंने जल्दी से उत्तर दिया ।
“हां, तुम्हारे क्वार्टर में । मैं खुद ही तो यहां आई थी ।”
फिर उसका ध्यान अपने खुले गाउन की ओर गया । उसके चेहरे पर शर्म की लाली दौड़ गई । उसने गाउन को अच्छी तरह अपने शरीर के गिर्द लपेट लिया ।
अब वह अपने होशोहवास में दिखाई दे रही थी ।
“सॉरी ।” - वह होंठों में बुदबुदाई ।
“क्या हो गया था, मैडम ?”
“मैंने...” - वह धीरे से बोली - “मैंने एक बहुत बुरा सपना देखा था । उस सपने ने मुझे बेहद उद्वेलित कर दिया था, बेहद डरा दिया था । ज्यों-ही मैं आंखें बन्द करती थी, उस बुरे सपने की एक एक बात मेरी आंखों के सामने घूम जाती थी । मैं इतना डर गई थी कि मेरी आंखें बन्द करने की हिम्मत नहीं हो रही थी । बैडरूम में मेरा दिल घबराने लगा था । सोचा, खुली हवा में मन को शांति मिलेगी, सो बाहर आ गई । मैं बाहर लॉन में आकर घूमने लगी और फिर अनजाने में ही इस ओर बढ़ आई । यहां आ गई तो अन्धेरी रात में वापिस लौटने में मुझे डर लगने लगा । फिर एकाएक मुझे यूं लगा जैसे कोई आदमी दीवार पर चढ़ा हुआ हो और जलती निगाहों से मुझे घूर रहा हो । मैंने चौकीदार को आवाज दी लेकिन वह मालूम नहीं कहां था ! मेरी आवाज उसके कानों तक नहीं पहुंची । फिर मुझे लगा था कि दीवार पर खड़ा आदमी दीवार से कूद पड़ा था और मेरी ओर लपका था । तब भय से मेरी घिग्घी बंध गई । तभी मुझे तुम्हारा ख्याल आया और मैं भागकर गैरेज के पास पहुंची और तुम्हारे क्वार्टर की सीढीयां चढ आई । मैंने तुम्हारा दरवाजा खटखटाया । भगवान का शुक्र है कि दरवाजा खटखटाये जाने की आवाज तुमने फौरन सुन ली । अगर तुमने फौरन दरवाजा न खोल दिया तो वह आदमी जरूर मेरे पीछे आकर मुझे दबोच लेता ।”
वह चुप हो गयी । वह हांफने लगी ।
“आपको वहम हुआ है, मैडम ।” - मैं सांत्वनापूर्ण स्वर में बोला - “आपके पीछे कोई आदमी नहीं भाग रहा था । आप सपने से डर गई हैं और उसी सपने की वजह से, और कुछ अन्धेरी रात की वजह से, आपकी कल्पनाशक्ति प्रबल हो उठी है ।”
“लेकिन मैंने अपने आंखों से उस आदमी को दीवार से कूदते देखा था ।”
“आपको वहम हुआ होगा । या फिर आपने वह आदमी भी उस बुरे सपने में देखा होगा जिसने आपको इतना उद्वेलित कर दिया है ।”
वह चुप रही लेकिन उसकी आंखों से झलकता भाव जाहिर कर रहा था कि उसे मेरी बात कोई विशेष विश्वसनीय नहीं लगी थी ।
“चलिये, मैं आपको कोठी तक छोड़ आऊं ।” - मैं बोला ।
“नहीं ।” - वह बोली - “मुझे थोड़ी देर यहां बैठने की इजाजत दो ।”
“जरूर बैठिये ।” - मैं अनिश्चित स्वर में बोला - “घर आपका है, मालकिन ।”
उसे मालकिन के नाम से मैंने जानबूझकर सम्बोधित किया था ताकि उसे याद आ जाता कि वह इतनी रात गए एक नौकर के क्वार्टर में बैठी थी । तब तक मैं अपने को व्यवस्थित कर चुका था और धीरे-धीरे मुझे यह अनुभव होने लगा था कि इतनी रात गए सर गोकुलदास की जवान बीवी का मेरे क्वार्टर में देखा जाना मेरे लिए, और उसके लिए भी, कितना खतरनाक साबित हो सकता था ।
वह पलंग पर बैठी गहरी सांसें लेती रही ।
“हे भगवान !” - कुछ क्षण बाद वह बोली - “कैसा भयानक सपना था वह ?”
“क्या देखा था आपने सपने में ?” - उत्सुकतावश मेरे मुंह से अपने-आप निकल गया ।
उसके नेत्र शून्य में कहीं टिक गए और वह होंठों में बुदबुदाती हुई बोली - “मैंने सपने में देखा कि सर गोकुलदास अपने बैडरूम में व्हील चेयर पर पड़े हैं । बैडरूम में मेरे अतिरिक्त डॉक्टर कश्यप और नर्स एलिस भी मौजूद है । डॉक्टर ने तुम्हें साहब को व्हील चेयर से उठाकर पलंग पर लिटा देने का आदेश दिया । तुम और नर्स एलिस आगे बढ़े । नर्स एलिस ने साहब की टांगें पकड़ीं । तुमने उन्हें कन्धों से थामा और व्हील चेयर से उठा लिया । तुम और नर्स एलिस उनके शरीर को उठाये पलंग की ओर बढ़े । उसी क्षण व्हील चेयर के पायदान से तुम्हारा पांव उलझा और तुम लड़खड़ा गये । डॉक्टर कश्यप चिल्लाया । मैं तुम्हारी ओर लपकी इससे पहले कि कोई कुछ कर पाता, साहब के शरीर से तुम्हारी पकड़ छूट गई और उनका सिर फर्श से जा टकराया । साहब की टांगें अभी-भी नर्स एलिस के हाथ में थीं । डॉक्टर कश्यप साहब की ओर लपके, लेकिन... लेकिन साहब के प्राण पखेरू उड़ गए थे ।”
वह चुप हो गई । उसका चेहरा आवेग से तमतमा रहा था और वह फिर जोर-जोर से हांफने लगी थी ।
“लेकिन, मैडम" - मैं सांत्वनापूर्ण स्वर में बोला - “वह केवल एक सपना था । हकीकत में ऐसा कुछ नहीं होगा । हकीकत में ऐसा कभी नहीं होगा । मुझसे वैसी असावधानी हर्गिज नहीं होगी जो आपने सपने में देखी है ।”
“लेकिन कभी-कभी सपने सच भी तो हो जाते हैं !”
“यह सपना सच नहीं होगा ।” - मैं दृढ स्वर में बोला ।
“असावधानी न सही, दुर्घटना तो हो ही सकती है ।”
“मैं ऐसी दुर्घटना कभी नहीं होने दूंगा ।”
“वैसे तुमने कभी सोचा है कि अगर ऐसी दुर्घटना वास्तव में हो जाये तो वह साहब पर एक भारी उपकार होगा ?”
“जी !” - मैं उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“पिछले चार साल से सर गोकुलदास नर्क जैसी जिन्दगी जी रहे हैं । पिछले चार साल से उनकी जिन्दगी एक कच्चे धागे के सहारे लटकी हुई है जो कभी भी टूट सकता है, लेकिन शायद ऊपर वाला चाहता है कि अभी वे और यातना सहें । मिस्टर, उन्होंने चार साल की अपाहिज जिन्दगी एक भारी सजा के तौर पर जी है और आगे भी तब तक जीवित रहेंगे, एक भारी सजा ही भुगतेंगे । सर गोकुलदास बहुत तकलीफ में हैं, मिस्टर । उनकी गति इसी में है कि अब उन्हें इस नारकीय जीवन से मुक्ति मिल जाये ।”
“इन्सान क्या कर सकता है !” - मैं दार्शनिक भाव से बोला - “जो भगवान की इच्छा होगी, वह होगा ।”
“कभी-कभी इन्सान को भी भगवान की इच्छा को कार्यरूप में परिणत करना पड़ता है ।”
मैं एकाएक बेहद गम्भीर हो उठा ।
“मैडम !” - मैं धीरे से बोला - “आप कहीं मुझे राय तो नहीं दे रही हैं कि मैं किसी दिन बड़े साहब को उठाते समय उन्हें अपनी पकड़ से फिसल जाने दूं ?”
“यह उन पर भारी उपकार होगा ।” - वह भी धीमे स्वर में बोली ।
“यह सरासर हत्या होगी ।”
“जब घोड़े की टांग टूट जाती है तो क्या हम उसे तकलीफ से छुटकारा दिलाने के लिए गोली नहीं मार देते ?”
“इन्सान और जानवर में फर्क होता है । इन्सानों के समाज में एक पुलिस नाम की संस्था भी होती है जिसकी निगाह में एक जानवर और एक इन्सान की कीमत एक जैसी नहीं होती ।”
“लेकिन पुलिस का इस सिलसिले से क्या वास्ता होगा ? वह तो एक सरासर दुर्घटना का केस होगा । साहब के शीशे से भी नाजुक जीवन के चकनाचूर हो जाने के बाद ख्वाब में भी नहीं सोचेगा के उनकी मौत किसी अस्वाभाविक ढंग से हुई थी ।”
“सॉरी मैडम, मुझसे यह पाप नहीं होगा ।”
“मुझे एक गिलास पानी और पिलाओ ।”
मैं गिलास लेकर किचन में चला गया । मैं किचन से पानी का गिलास भर लाया और उसे शान्ता के हाथों में दे दिया ।
शान्ता धीरे-धीरे पानी पीने लगी ।
गिलास खाली हो जाने पर उसने गिलास मुझे थमा दिया ।
“मिस्टर !” - वह एक खोजपूर्ण दृष्टि मेरे चेहरे पर डालती हुई बोली - “तुम्हारी जानकारी के लिए सर गोकुलदास की जायदाद के तुम भी हिस्सेदार हो । उनकी वसीयत में तुम्हारा भी जिक्र है ।”
“जी !” - मैं हैरानी से बोला - “यह कैसे हो सकता है ? मैं उनका अदना-सा नौकर हूं और नौकर की हैसियत से भी यहां काम करते हुए मुझे जुम्मा-जुम्मा आठ रोज ही तो हुए हैं ।”
“सर गोकुलदास की वसीयत के अनुसार हर उस आदमी को, जो उनकी मृत्यु के समय एस्टेट का कर्मचारी होगा, पचास हजार रुपये मिलेंगे, चाहे उस समय गोकुलदास एस्टेट में उसकी नौकरी पांच मिनट की हो । कुछ समय में आया ?”
“यानि कि अगर, भगवान न करे, आज सर गोकुलदास की मृत्यु हो जाये तो मैं पचास हजार रुपये की मोटी रकम का स्वामी बन जाऊंगा ?”
“करैक्ट । बल्कि तुम लखपति बन जाओगे । मुझसे अपने पति का दुख नहीं देखा जाता । अगर उन्हें वर्तमान नर्क जैसी जिन्दगी से तुम्हारी वजहं से निजात मिल जाये तो मैं तुम्हें अपने हिस्से में से पचास हजार रुपये और दूंगी ।”
“आपका हिस्सा ?”
“हां । साहब की मृत्यु के बाद उनकी एक करोड़ रुपये की सम्पति मुझमें और उनकी बेटी माधुरी में आधी-आधी बांटी जाने वाली है ।”
“ओह !”
“मिस्टर, जरा सोचो, कल तक तुम भूखे-नंगे, बेघर, बेदर, गन्दे गटर में कुलबुलाते हुए कीड़े से भी गई-गुजरी जिन्दगी जीने वाले इन्सान थे और आने वाले कल में तुम लखपति बन सकते हो । और तुम्हें बताने की जरूरत नहीं कि आज दुनिया में प्रतिष्ठा और सम्मान का हकदार केवल पैसे वाला ही बन सकता है । मिस्टर, जरा सोचो कि तुम क्या बन सकते हो ! और यह सब-कुछ बड़ी आसानी से हो सकता है, तुम्हें केवल एक अपने नारकीय जीवन से दुखी वृद्ध को अगले कुछ दिनों में हाथ से फिसल जाने देना होगा ।”
“सॉरी, मैडम ।” - मैं दृढ़ स्वर में बोला - “आपकी फिलासफी मेरी समझ से बाहर है । मैं एक निरीह प्राणी की जान लेकर लखपति नहीं बनना चाहता ।”
“लेकिन वैसे भी तो साहब किसी भी क्षण परलोक सिधार सकते हैं ।”
“तो फिर आप इन्तजार कीजिए । भगवान का काम भगवान को ही करने दीजिए ।”
“और एक सप्ताह पहले तुम मुझसे मेरे अहसान का बदला चुकाने की बातें कर रहे थे ।”
“आपके अहसान का बदला चुकाने के लिए मैं अपनी जान हाजिर कर सकता हूं, किसी दूसरे की जान नहीं ले सकता । मैं अपनी वजह से सर गोकुलदास की जिन्दगी पर आंच नहीं आने दूंगा ।”
“ऑल राइट ।” - वह शान्त स्वर में बोली - “साहब के जीवन के विषय में तुम्हें मेरा दृष्टिकोण पसन्द नहीं आया, इसका मुझे अफसोस नहीं है लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि तुम एक सिद्धांत के पक्के, ईमानदार और स्वामीभक्त आदमी हो । मुझे खुशी है कि मैं इस बार बासको जैसे घटिया आदमी को चुनकर नहीं लाई ।”
उस नाजुक वार्तालाप का पटाक्षेप होता देखकर मैंने शान्ति की गहरी सांस ली ।
वह अपने स्थान से उठ खड़ी हुई ।
“उस भयानक सपने ने मुझे बुरी तरह उद्वेलित कर दिया था । जो हुआ, उसे भूल जाओ ।”
मैंने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“चलो, मुझे कोठी तक छोड़ आओ ।”
मैं झिझकता हुआ उसके साथ हो लिया ।
रास्ते में पेड़ों के बीच में से गुजरते हुए मैं बोला - “एक बात पूछूं, मैडम ?”
“पूछो ।” - वह सशंक स्वर में बोली ।
“आज से पहले भी कभी आपके दिमाग में यह ख्याल आया था कि सर गोकुलदास नरक जैसी यातना भुगत रहे हैं और इस यातना से मौत ही उन्हें छुटकारा दिला सकती है ?”
“मैंने उनके यातनापूर्ण जीवन के बारे में बहुत बार सोचा है लेकिन ऐसा कभी नहीं सोचा था कि उनकी यातनायें मौत के आने पर ही समाप्त होंगी । डॉक्टर कश्यप सदा यही कहते हैं कि साहब ठीक नहीं हो सकते लेकिन मेरी आशा समाप्त नहीं होती । न जाने क्यों मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि अगर वे बिल्कुल ठीक नहीं हो पायेंगे तो भी वे इतने ठीक जरूर हो जायेंगे कि उन्हें इतनी तकलीफ नहीं भुगतनी पड़ेगी जितनी कि वे अब भुगत रहे हैं । लेकिन आज रात के सपने ने मेरा विश्वास हिला दिया है । मैंने सपने में उन्हें पलक झपकते ही मौत की गोद में समाते देखा था । अब मुझे विश्वास हो चला है कि मौत ही उन्हें उनके वर्तमान नारकीय जीवन से छुटकारा दिला सकती है । और इस भयानक सपने की वजह से ही मेरे दिल में इतने भयानक ख्याल आये ।”
मैं चुप रहा ।
हम दोनों कोठी के सामने पहूंच गए । मैं पोर्च के खम्बे के पास रुक गया । वह आगे बढ़ गई ।
कुछ क्षण बाद वह कोठी में प्रविष्ट होकर मेरी दृष्टि से ओझल हो गई ।
मैं वापिस लौट पड़ा ।
फव्वारे के समीप आकर मैंने एक बार कोठी की ओर झांका और फिर न जाने क्यों मेरा दिल धड़क गया ।
इमारत की पहली मंजिल के पर्दो के पीछे से रोशनी का आभास मिल रहा था । मुझे ऐसा लगा जैसे पर्दे के पीछे से कोई बाहर की ओर झांक रहा है ।
वह कमरा मार्था का था ।
क्या मार्था ने इतनी रात गए शान्ता और मुझे इकट्ठे कोठी की ओर वापिस आते देख लिया था !
मन और मस्तिष्क पर चिन्ता का भार लिए मैं अपने क्वार्टर में वापिस लौट आया ।
***
सुबह दस बजे के करीब मैं पोटि॔को के समीप खड़ा सिगरेट के कश लगा रहा था ।
मैं सर गोकुलदास को पूरी सावधानी से व्हील चेयर पर लिटाकर नर्स एलिस के हवाले कर आया था । आज मैंने साहब को ऐसे सम्भालकर उठाया था जैसे मैं हल्की-सी ठोकर से चकनाचूर हो जाने वाली शीशे की कोई बहुत ही नाजुक चीज उठा रहा था । शान्ता का सपना मेरे मानसपटल पर रह-रहकर यूं अंकित हो जाता था जैसे वह सपना शान्ता ने नहीं, मैंने देख हो ।
सुबह ब्रेकफास्ट के समय कोठी की विशाल किचन में मेरा मार्था से आमना-सामना हुआ था लेकिन उसकी बातों से या चेहरे के भावों से मैं फैसला नहीं कर सका था कि पिछली रात को अपने कमरे की खिड़की पर पड़़े पर्दे के पीछे से उसने मुझे और शान्ता को देखा था या नहीं ।
शान्ता उस समय कोठी में मौजूद नहीं थी । वह कार लेकर शहर में कहीं गई थी ।
उसी क्षण ड्राइव-वे से होता हुआ एक मोटा-ताजा रंगत में काला और सूरत से गोवानी लगने वाला आदमी पोर्टिको में पहुंचा । उसकी निकोटिन से पीली पड़ चुकी उंगलियों में एक सिगरेट फंसा हुआ था ।
वह मेरे पास आकर ठिठक गया ।
मैंने संदिग्ध नेत्रों से उसे सिर से पांव तक देखा और फिर पूछा - “क्या चाहिए ?”
“मुझे मालकिन से मिलना है ।” - वह आदमी ढीठ स्वर में बोला ।
“कौन मालकिन ?”
“शान्ता मेम साहब ।”
“वे कोठी में नहीं हैं ।”
“कहां गई हैं ?”
“मालूम नहीं ।”
“कब आयेंगी ?”
“मालूम नहीं ।”
“तो फिर मुझे बड़े साहब से मिलना है ।”
“क्यों ?”
“मेरी पगार बाकी है ।”
“कौन हो तुम ?”
“विमल !” - मुझे अपने पीछे से मार्था की आवाज सुनाई दी - “यह बासको है । इस साले हलकट को धक्के मारकर बाहर निकाल दो ।”
मैंने घूमकर देखा । मार्था रोडी कूटने वाले इंजन की तरह दनदनाती हुई कोठी के मुख्य द्वार से बाहर निकल रही थी । वह बासको के सामने आ खड़ी हुई और क्रोधित स्वर में बोली - “क्या करने आए हो ?”
“मैं अपनी पगार लेने आया हूं ।” - बासको बोला ।
“कौन-सी बाकी की पगार ? तुम्हारा हिसाब चुकता हो गया है ।”
“लेकिन मेरे को अभी का अभी मालूम हुआ है कि अगर मालिक मुलाजिम को नौकरी से निकाले तो एक महीने की ज्यास्ती पगार देनी पड़ती है ।”
“बकवास मत करो ।” - मार्था गरजकर बोली - “तुम्हें पहले ही एक महीने की ज्यास्ती पगार मिल चुकी है । तुमने पिछले महीने में सिर्फ पांच दिन काम किया था लेकिन फिर भी तुम्हें मैंने पूरे महीने की पगार दी थी ।”
“मेरे को तुमसे बात नहीं करने का है । मेरे को बड़ा साहब या शान्ता मेमसाहब से बात करने का है ।”
“बड़ा साहब किसी से बात नहीं करता और शान्ता मेमसाहब इधर नहीं हैं ।”
“मैं इधर ही बैठकर शान्ता मेमसाहब का इन्तजार करूंगा ।”
“तुम यहां से जाते हो या तुम्हें धक्के देकर निकलवाऊं ?”
“मैं अपनी पगार लिये बिना इधर से नहीं जाऊंगा ।”
“विमल !” - मार्था मेरी ओर घूमकर चिल्लाई - “तुम इधर खड़ा खाली-पीली मेरा मुंह क्या देखता हैं ! गोरखा को बुलाओ ।”
लेकिन तब तक शोर सुनकर गोरखा खुद ही वहां पहुंच गया था ।
“गोरखा !” - मार्था गरजकर बोली - “इस साले, उठाईगीरे, हलकट, बासको के बच्चे को उठाकर बाहर फेंक दो और अगर तुमने दोबारा इसको कोठी में कदम रखने दिया तो तुम्हारी नौकरी खलास ।”
नौकरी की धमकी गोरखे के लिए काफी थी । उसने बासको की गर्दन थाम ली ।
“छोड़ो, छोड़ो ।” - बासको उसकी पकड़ में छटपटाता हुआ बोला - “अपुन ऐसे ही जाता है ।”
गोरखे ने उसे ड्राइव वे पर बाहर की ओर धक्का दे दिया ।
बासको लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ कोठी के कम्पाउन्ड से बाहर निकल गया ।
“चश्मा मास्टर !” - मार्था मेरी ओर घूमकर बोली - “तुम किसी काम का आदमी नहीं । तुम उस मवाली को उठाकर काहे नहीं फेंका ?”
“वह मेरे से साइज में दुगना था, मैडम ।” - मैं धीमे स्वर में बोला - “मेरी सिंगल सिलेण्डर की बॉडी से तो उसकी एक टांग भी नहीं उठती ।”
तब तक मार्था का गुस्सा उतर चुका था । वह धीरे-से बोली - “तुम ठीक बोलता है रे, चश्मा मास्टर । बदमाश आदमी से फालतू नहीं उलझना चाहिए । अगर अब तुम्हें बासको का बच्चा कोठी के आस-पास दिखाई दे तो पुलिस को फोन करना ।”
मैंने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
उसी क्षण साइकिल पर सवार पोस्टमैन वहां पहुंचा । उसने साइकिल को स्टैण्ड पर खड़ा किया और बोला - “टेलीग्राम है ।”
मार्था ने मुझे संकेत किया । मैंने प्राप्ति पर हस्ताक्षर किए और टेलीग्राम ले ली ।
पोस्टमैन वापिस चला गया ।
मैंने टेलीग्राम बिना खोले मार्था की ओर बढ़ा दी ।
मार्था ने टेलीग्राम खोलकर पढ़ी और फिर लगभग तत्काल ही उसके चेहरे से हर्ष के भाव परिलक्षित होने लगे ।
“माधुरी मेमसाहब आ रही है ।” - मार्था बोली - “मैं अभी जाकर बड़े साहब को बताती हूं । बड़े साहब बहुत खुश होंगे ।”
मार्था टेलीग्राम हाथ में थामे वापिस घूमी और दनदनाती हुई कोठी में प्रविष्ट हो गयी ।
मैंने वहीं खड़े-खड़े दूसरा सिगरेट सुलगा लिया ।
पिछली रात के बारे में मार्था ने अभी भी कोई जिक्र नहीं किया था । पता नहीं वह जानबूझकर चुप थी या उसने कुछ देखा ही नहीं था ।
लगभग एक बजे शान्ता वापिस लौटी । उसने मुझे कार गैरेज में खड़ी करने का आदेश दिया और स्वयं भीतर कोठी में घुस गई ।
मैं कार को ड्राइव करता हुआ गैरेज में ले गया ।
मैंने घड़ी में टाइम देखा और फिर उल्टे पांव ही वापिस कोठी में लौट गया ।
सर गोकुलदास को व्हील चेयर से उठाकर बिस्तर में लिटाने का समय हो गया था ।
पोर्टिको में डॉक्टर कश्यप की कार खड़ी थी ।
मैं बैडरूम में पहुंचा ।
“माधुरी कब आ रही है ?” - डॉक्टर कश्यप पूछ रहा था ।
“शुक्रवार को ।” - शान्ता ने उत्तर दिया । शायद वह तब तक माधुरी का टेलीग्राम देख चुकी थी ।
“अच्छा है । इनका मन लग जायेगा ।” - डॉक्टर कश्यप बोला और उसने आशापूर्ण नेत्रों से सर गोकुलदास की ओर देखा ।
सर गोकुलदास के साधारणतया निर्जीव दिखाई देने वाले नेत्रों में खुशी की चमक थी ।
नर्स एलिस ने मुझे संकेत किया ।
मैं व्हील चेयर के पीछे पहुंच गया ।
व्हील चेयर को पीछे से धकेलकर मैं पलंग के समीप ले आया ।
पलंग के समीप खड़ी शान्ता विचित्र से नेत्रों से मुझे देख रही थी । मुझे लगा जैसे मैंने उसके चेहरे पर भारी उत्कंठा के भाव देखे हों
मेरे मानसपटल पर चलचित्र की तरह शान्ता का सपना फिर उभर आया ।
मैंने एक करुणापूर्ण दृष्टि उस असहाय वृद्ध पर डाली और फिर मेरे जबड़े कस गये ।
संसार की कोई शक्ति मुझे इस निरीह वृद्ध की हत्या करने के लिये प्रेरित नहीं कर सकती - मैंने मन-ही-मन दोहराया ।
नर्स एलिस ने आगे बढ़कर वृद्ध की टांगे थाम लीं । मैंने उसकी बगलों में हाथ डालकर उसे कुर्सी से ऊंचा कर दिया । लम्बी बीमारी से जर्जर हो चुके वृद्ध के शरीर का वजन बहुत कम था । मेरे जैसा दुबला-पतला आदमी भी उसे बड़ी सहूलियत से अकेला उठा सकता था ।
शान्ता ने आगे बढ़कर कुर्सी को रास्ते से हटाया और उसे पीछे को धक्का दे दिया । लेकिन शायद कुर्सी जरूरत से ज्यादा जोर से धकेल दी गई थी । कुर्सी पीछे पड़ी मेज से टकराई, वापिस लुढ़की और उसका पायदान उस समय मेरी दायीं टांग की पिंडली से टकराया जब मैं सर गोकुलदास को पलंग के समीप ला रहा था ।
मैं लड़खड़ा गया ।
“सम्भल के ।” - डॉक्टर कश्यप चिल्लाया ।
शान्ता सहारे के लिए लपकी ।
मेरा दायां घुटना भड़ाक से नंगे फर्श से टकराया । पीड़ा की तीव्र लहर मेरे सारे शरीर में दौड़ गई । मुझे यूं लगा जैसे मेरे घुटने की कटोरी चटक गई हो लेकिन मैंने न तो वृद्ध के शरीर से अपनी पकड़ ढीली होने दी और न ही उसके शरीर को हल्का-सा भी झटका लगने दिया । सारा झटका मैंने अपने जमीन पर टिके घुटने पर सहन कर लिया ।
अगले ही क्षण मैंने और नर्स एलिस ने मिलकर बड़ी सावधानी से वृद्ध को बिस्तर पर लिटा दिया ।
डॉक्टर कश्यप की जान में जान आ गई ।
उन कुछ क्षणों में ही मैं पसीने से नहा गया ।
“सॉरी ।” - मैं हांफता हुआ बोला ।
“गलती सरासर मेरी थी ।” - शान्ता कम्पित स्वर में बोली - “मैंने व्हील चेयर को जरूरत से ज्यादा जोर से पीछे धकेल दिया था ।”
“आपको ख्याल करना चाहिए था ।” - डॉक्टर कश्यप रुष्ट स्वर में बोला - “अगर इस नौजवान ने तत्परता न दिखाई होती तो... तो कुछ भी हो सकता था ।”
शान्ता चेहरे पर खेद के भाव लिए चुप खड़ी रही ।
“तुम ठीक हो, नौजवान ?” - डॉक्टर कश्यप मुझसे पूछ रहा था ।
“जी... जी हां । जी हां । थोड़ा-सा घुटने को झटका लगा है, बस ।” - मैं बोला । वास्तव में मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरे घुटने की कटोरी जबरदस्ती उधेड़कर मेरे जिस्म से अलग की जा रही थी ।
“मेरे देखने की जरूरत है तो...”
“जी नहीं ठीक हूं ।”
डॉक्टर कश्यप ने दुबारा शान्ता की ओर देखा । उसने कुछ कहने के लिए मुंह खोला लेकिन सकपकाकर चुप हो गया ।
शान्ता के नेत्रों से झर-झर आंसू बह रहे थे ।
“नैवर माइन्ड, लेडी मोकुलदास ।” - डॉक्टर कश्यप बौखलाए स्वर में बोला - “सर गोकुलदास एकदम सुरक्षित हैं, उन्हें कुछ नहीं हुआ है । ऐसी छोटी-मोटी दुर्घटना हो ही जाती हैं । इसमें किसी का कोर्इ कुसूर नहीं होता ।”
“डॉक्टर साहब" - शान्ता रुंधे स्वर में बोली - “अगर इन्हें मेरी वजह से कुछ हो जाता तो मैं अपने आपको कभी माफ नहीं कर पाती ।”
“आप धीरज रखिये । इन्हें कुछ नहीं हुआ है ।”
शान्ता ने एक क्षमायाचनापूर्ण दृष्टि सर गोकुलदास की ओर डाली और वहां से विदा हो गर्इ ।
द्वारा पर मार्था खड़ी थी ।
शान्ता के लिए रास्ता बनाने के लिए वह एक ओर हट गयी लेकिन उसने कमरे के भीतर आने का उपक्रम नहीं किया ।
मैं भी अपनी दायीं टांग पर कम-से-कम जोर डालता हुआ बैडरूम से बाहर की ओर चल दिया ।
मार्था द्वार पर खड़ी गलियारे में जाती हुर्इ शान्ता को देख रही थी । उसके चेहरे पर असन्तोष और संदेह के भाव स्पष्टरूप से परिलक्षित हो रहे थे ।
मैं सिर झुकाये उसकी बगल से गुजर गया ।
मार्था मेरे पीछे-पीछे चल दी ।
“किचन में चलो ।” - गलियारे में वह मेरी बगल में आकर बोली - “मैं तुम्हारी टांग सेक देती हूं ।”
“मैं ठीक हूं, मैडम ।” - मैं बोला ।
“तुम ठीक नहीं हो, बेटा ।” - मार्था स्नेहसिक्त स्वर में बोली - “मैंने तुम्हें गिरते देखा था । घुटने को सेक नहीं दोगे तो शाम तक सूजकर डबल हो जायेगा ।”
उस क्षण मार्था में मुझे एक ममतामयी मां के दर्शन हुए ।
मैं चुपचाप उसके साथ किचन की ओर चल दिया ।
मार्था ने मुझे किचन में एक कुर्सी पर बिठा दिया और हाट वाटर बॉटल ले आर्इ । उसके आदेश पर मैंने अपनी पतलून अपने दायें घुटने से ऊपर चढ़ा ली । मार्था बड़ी सावधानी से मेरे घुटने की सिकार्इ करने लगी ।
लगभग दस मिनट वह बड़े यत्न से मेरा घुटना सेकती रही, फिर उसने बोतल रख दी ।
मैंने पतलून नीचे सरका ली ।
“थैंक्यू वैरी मच मैडम ।” - मैं बोला ।
मार्था ने उत्तर नहीं दिया । वह विचित्र नेत्रों से मेरी ओर देख रही थी ।
“क्या बात है ?” - मैं पूछे बिना नहीं रह सका ।
“तुम बहुत अच्छे लड़के हो ।” - वह बोली - “मुझे यह देखकर खुशी हुर्इ है कि उस चुड़ैल जादू तुम पर चला नहीं है ।”
“आप किस चुड़ैल की बात कर रही हैं ?”
“गोकुलदास एस्टेट में एक ही तो चुड़ैल है । मैं शान्ता की बात कर रही हूं, सन । अगर आज सर गोकुलदास को कुछ हो गया होता तो मैं तुम्हें और शान्ता को जेल भिजवाने में जान लड़ा देती ।”
“मैं आपकी बात समझ नहीं पा रहा हूं ।”
“जानबूझकर नादान मत बनो ।” - मार्था के स्वर में फटकार थी - “कल शान्ता तुम्हारे क्वार्टर में नहीं गयी थी ?”
मैंने सर झुका लिया ।
“और उसने तुम्हें अपने जिस्म का या दौलत का या दोनों चीजों का लालच देकर इस बात के लिए तैयार कर लिया था कि आज तुम सर गोकुलदास को व्हील चेयर से उठाते समय इस प्रकार अपने हाथ से निकल जाने दोगे कि सारा सिलसिला केवल एक दुर्घटना मालूम होगा और सर गोकुलदास दूसरी दुनिया में पहुंच जायेंगे । लेकिन आज ऐन समय पर तुम्हारा ख्याल बदल गया था और तुमने सर गोकुलदास को गिरने से बचा लिया था ।”
“आपको गलतफहमी हुर्इ है, मैडम । शान्ता मेमसाहब ने मुझे ऐसा कुछ नहीं कहा था । अभी सर गोकुलदास के कमरे में वाकर्इ एक दुर्घटना होने जा रही थी जो भगवान की कृपा से टल गर्इ थी । उसमें न मेरी गलती थी न मेमसाहब की ।”
“तुम झूठ बोल रहे हो ।” - मार्था तीव्र स्वर में बोली - “मैंने खुद अपनी आंखों से शान्ता को इतनी जोर से व्हील चेयर पीछे धकेलते देखा था कि वह मेज से ठोकर खाकर वापस तुम्हारी टांग से आ टकरायी थी । उसने ऐसा इसलिए किया था कि तुम्हें लड़खड़ाने का बहाना मिल जाता और तुम गोकुलदास को जमीन पर गिर जाने देते ।”
“मैडम, आपको सरासर गलतफहमी हो रही है । वह महज एक इत्तफाक था ।”
“डोंट टेल मी दैट ।” - मार्था तिरस्कारभरे स्वर में बोली - “मैं शान्ता को तुमसे ज्यादा जानती हूं । जब से सर गोकुलदास का एक्सीडेंट हुआ है, वह तभी से उनकी मौत का इन्तजार कर रही है ताकि वह उनकी जायदाद की वारिस बन सके और आजादी से गुलछर्रे उड़ा सके । लेकिन चार साल के लम्बे इन्तजार के बाद भी अभी तक उसकी इच्छा पूरी नहीं हुई । अब उससे और इन्तजार नहीं हो रहा है । क्योंकि बड़े साहब स्वाभाविक मौत नहीं मर रहे हैं इसलिए अब वह उनको इस ढ़ंग से मारने का सामान कर रही है कि देखने-सुनने वालों को ऐसा लगे कि वे, तुम्हारे शब्दों में, महज एक इत्तफाक का शिकार होकर मर गए ।”
“मैडम" - मैं विनयशील स्वर में बोला - “अगर ऐसा कोई सिलसिला है तो मुझे उसकी खबर नहीं है ।”
“तुम फिर झूठ बोल रहे हो । अगर तुम सच बोल रहे हो तो कल रात शान्ता तुम्हारे क्वार्टर में क्या करने गई थी ?”
“उसको नींद नहीं आ रही थी । वह टहलती हुई उधर आ निकली थी । फिर लौटने में उसे डर लगने लगा था इसलिए वह मुझे साथ बुला लाई थी ।”
“और अब तुम चाहोगे कि मैं इस कहानी पर विश्वास कर लूं ।”
“यह हकीकत है ।”
“सच कह रहे हो ?” - मार्था संदिग्ध स्वर में बोली ।
“एकदम सच कह रहा हूं ।”
“हैरानी है । विश्वास नहीं होता ।”
“मैडम, अगर आपको ऐसा अन्देशा है कि मैं शान्ता मेम साहब के मोहजाल में फंसकर बड़े साहब की हत्या करने की कोशिश कर रहा हूं तो मैं आज ही नौकरी छोड़कर चला जाता हूं ।”
“ऐसा मत करना ।” - मार्था जल्दी से बोली - “फार क्राइस्ट सेक, ऐसा मत करना ।”
मैंने उलझनपूर्ण नेत्रों से उसकी ओर देखा ।
“आज जिस सफाई से तुमने बड़े साहब को गिरने से बचाया है उससे लगता है कि या तो तुम आदतन ईमानदार आदमी हो और या फिर शान्ता मेमसाहब का जादू तुम पर चला नहीं है । मुझे तुम पर भरोसा है । मुझे विश्वास है कि बड़े साहब को तुम्हारी वजह से कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा । लेकिन अगर तुम नौकरी छोड़कर चले गये और तुम्हारे बाद शान्ता कोई बासको जैसा हरामजादा आदमी पकड़ लाई तो सर गोकुलदास का भगवान ही मालिक है ।”
“लेकिन अगर आपको इतना ही विश्वास है कि शान्ता सर गोकुलदास की हत्या करने या करवाने का प्रयत्न कर रही है तो आप इस बारे में कुछ करती क्यों नहीं ?”
“क्या करुं ?”
“आप पुलिस में रिपोर्ट कीजिये ।”
“सबूत ! सबूत कहां है ?” - मार्था हाथ फैलाकर बोली - “मैं अपनी बात सिद्ध कैसे कर पाऊंगी ? शान्ता एक करोड़पति की पत्नी है । उसके मुकाबले में मेरी बात कौन मानेगा ? उल्टे शान्ता को यह मालूम होगा कि मैं उसके बारे में कैसे विचार रखती हूं तो वह मुझे खड़े पैर नौकरी से निकलवा देगी । आखिर वह इस घर की मालकिन है ।”
“आप अपना संदेह सर गोकुलदास पर ही क्यों नहीं प्रकट करतीं ?”
“जैसे उन्हें मालूम नहीं है ! जैसे वे अपनी जवान बीवी की नीयत के बारे में जानते नहीं ! लेकिन जानते हुए भी वे कर क्या सकते हैं । वे केवल सुन सकते हैं । वे न बोल सकते है, न लिख सकते हैं और न अपने मन के विचारों को किसी अन्य माध्यम से व्यक्त कर सकते हैं । अगर उन्हें मालूम भी है कि उनकी बीवी उनकी दौलत हथियाने के लिए उनकी हत्या की इसलिए साजिश कर रही है क्योंकि अब वह उनके स्वाभाविक मौत मरने का और इन्तजार नहीं कर सकती तो भी होनी का चुपचाप इन्तजार करते रहने के अलावा उनके पास और चारा भी क्या है ?”
“आप डॉक्टर कश्यप से बात कीजिए ।”
“मैंने एक-दो बार सोचा है लेकिन वह भी शान्ता से ज्यादा प्रभावित मालूम होता है । पता नहीं वह मेरी बात मानेगा या नहीं । बाकी रह जाती है माधुरी ! वह अभी बहुत छोटी है । मुझे उम्मीद नहीं है कि वह वर्तमान स्थिति की पेचीदगी को समझ पायेगी ।”
मैं चुप हो गया ।
“ट्रेजेडी तो यह है कि सर गोकुलदास अपनी बीवी के खिलाफ कैसा भी कोई कदम नहीं उठा सकते, चाहे वे उसके इरादों से शत-प्रतिशत परिचित क्यों न हों ? वे उसे तलाक नहीं दे सकते । वे उसे नई वसीयत लिखकर अपनी जायदाद से बेदखल नहीं कर सकते, केवल इसलिए कि वे अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति नहीं दे सकते ।”
मैं कुछ नहीं बोला । बोलने लायक कुछ था नहीं । मार्था की एक-एक बात सच थी । परिस्थति बड़ी विकट थी ।
“बेटा” - एकाएक मार्था भरे स्वर से बोली - “अगर तुम भले आदमी हो - जैसे कि तुम मुझे सूरत से दिखाई देते हो - तो एक वादा करो ।”
“फरमाइये ।” - मैं गम्भीर स्वर में बोला ।
“वादा करो कि तुम शान्ता के मोहजाल में नहीं फंसोगे । तुम उसके शरीर या उससे बाद में हासिल होने वाली दौलत के लालच में आकर कोई ऐसा काम नहीं करोगे जिससे सर गोकुलदास का अहित होता हो ।”
“मैं वादा करता हूं ।” - मैं सच्चे दिल से बोला ।
“गॉड ब्लैस यू, माई सन ।” - मार्था मेरे दोनों हाथ थामती हुई बोली । उसके नेत्रों में आंसू भर आये थे ।
मैंने सांत्वनापूर्ण ढंग से मार्था का हाथ थपथपाया और उठ खड़ा हुआ ।
मैं किचन से बाहर निकल आया ।
एक सम्भावना पर मार्था से विचार नहीं किया था ।
मैं चाहे अपनी मर्जी से नौकरी छोड़कर न जाऊं लेकिन शान्ता तो मुझसे अपना काम न बनता देखकर मुझे किसी भी क्षण नौकरी से निकाल सकती थी ।
इमारत के मुख्य द्वार के समीप मेरा डॉक्टर कश्यप से सामना हो गया । मैंने एक मुस्कराहट के साथ उसका अभिवादन किया और उसके पीछे इमारत से बाहर निकल आया ।
पोर्टिको में अपनी कार के समीप आकर वह ठिठका । वह मेरी ओर घूमा । कुछ क्षण वह मेरे चेहरे का निरीक्षण करता रहा और फिर बोला - “क्या नाम बताया था तुमने अपना ?”
“विमल ।” - मैं तत्परता से बोला ।
“आज तुमने बहुत तारीफ के काबिल काम किया है, विमल । तुम्हारी सावधानी की वजह से ही आज सर गोकुलदास एक भारी दुर्घटना का शिकार होने से बच गए हैं । सर गोकुलदास तो कृतज्ञता प्रकट करने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन उनकी ओर से मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूं ।”
“आप तो शर्मिन्दा कर रहे हैं, डॉक्टर साहब । मैंने तो केवल अपना फर्ज निभाया है ।”
“मैं लेडी गोकुलदास से तुम्हारी तनखाह बढ़ाने की सिफारिश करुंगा ।”
“बहुत मेहरबानी, साहब ।” - मैं कृतज्ञ स्वर में बोला ।
डॉक्टर कश्यप कार की ओर मुड़ा ।
“साहब !” - मैं बोला ।
डॉक्टर मेरी ओर घूमा । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से मेरी ओर देखा ।
“एक बात पूछ सकता हूं, साहब ?”
“पूछो ।”
“क्या बड़े साहब कभी ठीक नहीं हो सकते ?”
डॉक्टर कश्यप ने गहरी सांस ली और गमगीन स्वर में बोला - “बड़े साहब की बीमारी का मैडिकल साइन्स में कोई इलाज नहीं है, बरखुरदार । पिछले चार सालों में मैं संसार के बड़े-से-बड़े विशेषज्ञों से मन्त्रणा कर चुका हूं लेकिन हर किसी ने यही जवाब दिया है कि सर गोकुलदास कभी ठीक नहीं हो सकते । अधिक-से-अधिक इस बात की आशा की जा सकती है कि शायद उनकी जुबान चलने लगे । शायद वे बोलने के काबिल हो जाएं और ऐसा किसी इलाज से नहीं होगा ।”
“तो फिर ?” - मैंने उलझनपूर्ण स्वर में पूछा ।
“एक मनोवैज्ञानिक सम्भावना है । अगर उनको कोई भारी सदमा पहुंचे, या वे बेहद आतंकित हो उठें या घबरा जायें - इस हद तक कि वे अपने मन की बात किसी से कहने के लिए व्याकुल हो उठें - तो हो सकता है कि उनकी वाणी लौट आए । इस सम्भावना का अन्धेरा पक्ष भी है । यह भी हो सकता है कि जो भारी सदमा या आतंक का प्रभाव उनकी वाणी लौटा सकता है, वही उनकी जान ले बैठे । ये बातें आकस्मिक हार्ट अटैक का भी कारण बन सकती हैं । और इसीलिए यह बात मैंने आज से पहले किसी को बताई नहीं है, यहां तक कि नर्स एलिस को भी नहीं । अब क्योंकि मैं तुमसे जिक्र कर बैठा हूं इसलिए मेरी राय है कि इस बारे में तुम अपनी जुबान बन्द ही रखना । मैं नहीं चाहता कि कोई सर गोकुलदास के सामने जिक्र कर दे कि जो बात उनकी वाणी लौटा सकती है, वही उनके प्राण भी ले सकती है ।”
“मैं अपनी जुबान बन्द रखूंगा ।”
“थैंक्यू । तुम समझदार लड़के हो ।”
डॉक्टर अपनी कार में जा बैठा ।
मैं चुपचाप पोर्टिको में खड़ा रहा ।
डॉक्टर की कार वहां से रवाना हो गई ।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया ।
“हर कोई तुम्हारी तारीफ कर रहा है ।”
मैंने घूमकर देखा । शान्ता पता नहीं कब मेरे पीछे आ खड़ी हुई थी ।
“आज तुमने मुझे विधवा होने से बचा लिया ।” - वह फिर बोली ।
उसके स्वर में व्यंग्य का स्पष्ट पुट था ।
मैं चुप रहा ।
“काश तुम इतने होशियार न होते ।” - वह एक गहरी सांस लेकर बोली - “आज सर गोकुलदास को अपने नरकीय जीवन से छुटकारा मिल जाता ।”
“और आपको आपकी आजादी और पचास लाख रुपया मिल जाता ।” - मैं धीरे से बोला ।
“समझदार आदमी हो । लेकिन यह समझदारी दिखाने का वक्त नहीं है । तुम्हें अपनी मालकिन से वही बातें करनी चाहिए जो तुमसे पूछी जायें । तुम्हें अपनी राय तभी जाहिर करनी चाहिए जब तुमसे मांगी जाए । समझ गए ?”
“समझ गया, मालकिन ।” - मैं सिर नवाकर बोला - “अब मैं आपसे नहीं पूछूंगा कि व्हील चेयर आपने जानबूझकर ज्यादा जोर से पीछे धकेली थी या वह केवल संयोग था ।”
शान्ता के चेहरे ने कई रंग बदले । मुझे ऐसा लगा जैसे वह कोई बहुत कठोर बात कहने वाली हो लेकिन शीघ्र ही वह शान्त हो गई ।
“डॉक्टर कश्यप से क्या बातें हो रही थीं ?” - वह बदले स्वर में बोली ।
“मैं उनसे पूछ रहा था कि क्या बड़े साहब कभी ठीक नहीं हो सकते ?”
“उन्होंने क्या उत्तर दिया ?”
“उन्होंने कहा है कि बड़े साहब जिन्दगी भर ठीक नहीं हो सकते । वे जिन्दगी भर हाथ-पांव हिलाने के काबिल नहीं हो सकते ।”
“और उनकी आवाज ! क्या आवाज वापस लौट सकती है उनकी ?”
“नहीं ।” - मैं भावहीन स्वर में बोला - “डॉक्टर कहता है कि उनके बोल सकने की भी कोई सम्भावना नहीं है ।”
शान्ता ने शान्ति की इतनी गहरी सांस ली कि वह मीलों दूर तक सुनी जा सकती थी ।
मैं अपना सिगरेट वाला हाथ अपनी पीठ पीछे किए खड़ा रहा । अब भला मैं अपनी ‘मालकीन’ के सामने सिगरेट पीने की गुस्ताखी कैसे कर सकता था ।
“आज रात को मैं तुम्हारे क्वार्टर में आऊंगी ।” - वह धीरे से बोली ।
“जी !” - मैं चिहुंका ।
“धीरे बोलो । मेरा इन्तजार करना । सो मत जाना । और आज की मुलाकात में भला तुम्हारा ही होगा ।”
“मेरा भला होगा ?”
“हां ।”
“मेरा क्या भला होगा ?” - मैं सशंक स्वर में बोला । कहीं वह मुझे अपने शरीर का लालच तो नहीं दे रही थी ।
“तुम दोबारा जेल जाने से बचे रहोगे ।” - वह बोली और लम्बे डग भरती हुई वापिस कोठी में प्रविष्ट हो गई ।
मैं भौंचक्का-सा उसे जाता देखता रहा । जेल के जिक्र के साथ उसने दोबारा शब्द पर विशेष जोर दिया था ।
मैं भयभीत हो उठा ।
मेरे पास यह जानने का कोई साधन नहीं था कि वह ब्लफ मार रही थी या वाकई मेरे बारे में कुछ जान गई थी ।
मुझे ऐसा लगने लगा जैसे वह बम के पलीते में आग लगा गई हो और आग धीरे-धीरे उस बम की ओर बढ़ रही हो जो रात को किसी समय फटने वाला था ।
उसी क्षण मेरी निगाह इमारत के बायें विंग की ओर घूम गयी ।
किचन की खिड़की में से मार्था पोर्टिको की ओर देख रही थी । उसके चेहरे पर अंकित संदेह के भाव इतनी दूर से ही पढ़े जा सकते थे ।
मैंने सिगरेट फेंक दिया और सहमा-सा अपने क्वार्टर की ओर बढ़ गया ।