मिर्जा इस्माइल रोड पर स्थित अपने गैरेज से निकलते ही विमल के मन में यह आशंका घर कर गई थी कि वह किसी की निगाहों में था ।
फुलेरा के पास से बीकानेर बैंक की बख्तरबन्द गाड़ी बरामद होने की खबर पढते ही उसने फैसला कर लिया था कि अब उसका एक क्षण के लिए भी जयपुर में ठहरे रहना खतरनाक साबित हो सकता था ।
कोतवाली से छूटते ही वह सीधा अपने गैरेज में पहुंचा था । वहां से उसने अपना निहायत जरूरी सामान एक छोटे-से सूटकेस में भरा था और अपनी तरफ से गैरेज को आखिरी सलाम करके उसे अपने पीछे लावारिस छोड़कर वह फौरन वहां से कूच कर गया था ।
उस समय वह कुत्ते के कानों जैसे कॉलरों वाली वह स्किन-फिट काली कमीज पहने था, जिसकी पीठ पर एक इस प्रकार मुट्ठीबन्द हाथ बना हुआ था कि उसकी केवल बीच की एक उंगली मुट्ठी से बाहर सीधी उठी हुई थी और नीचे अर्धवृत्ताकर शब्दों में लिखा था - ‘अप युअर्स’ ।
अपने सिर पर वह क्रिकेट के खिलाड़ियों जैसी वह टोपी लगाए था, जिसके अग्रभाग में बने एक वृत्त में धागे से कढा हुआ था - ‘पीस’ ।
अपने गले में वह पीतल का एक कण्ठा पहने था जिस पर लिखा था - ‘मेक लव नॉट वार’ । अपनी आंखों में उसने नीले रंग के कॉन्टैक्ट लैंस लगाए हुए थे और ऊपर से उसने अपना तार के फ्रेम वाला, बिना नम्बर के शीशों वाला, चश्मा पहना हुआ था ।
उसकी जेब में उस वक्त बाइस तेईस सौ रुपये मौजूद थे । उनमें सौ-सौ के नोटों की सूरत में दो हजार रुपये बीकानेर बैंक की डकैती में लूटे माल का एक अंग थे जिन्हें उस शहर में खर्चना उसके लिए खतरनाक हो सकता था । लेकिन फिलहाल उसके पास उन नोटों के अलावा और कोई रकम नहीं थी ।
उसने जो अड़तालीस हजार रुपया अलबर्टो को सौंपा था, उसे उस वक्त हासिल करना सम्भव नहीं था । अलबर्टो हस्पताल में पड़ा था और उसका उसके पास भी फटकना खतरनाक हो सकता था । वैसे भी वह रुपया उसके पास हस्पताल में तो था नहीं, वह तो उसके होटल के कमरे में था, जहां वह हस्पताल से उठकर जा नहीं सकता था ।
उसके वर्तमान हिप्पी बहुरूप ने आज तक हमेशा उसकी रक्षा की थी ।
भविष्य में भी उसे उस बहुरूप से बहुत उम्मीदें थी, लेकिन अगर उसकी आशंका निराधार नहीं थी तो उस हिप्पी बहुरूप के बावजूद भी कोई उसे पहचान गया था और उसके पीछे लग गया था ।
या शायद वह पुलिस इन्सपेक्टर महिपाल सिंह की ही कोई शरारत थी । डी एस पी चौधरी के सामने उसे विमल की वजह से जलील होना पड़ा था और इसलिए शायद अब वह उससे बदला लेने की कोई तिड़कम भिड़ा रहा था । या शायद उसकी शंका ही निराधार थी ।
वह तेजी से सड़क पर आगे बढता रहा ।
मिर्जा इस्माइल रोड और भगवानदास रोड के चौराहे पर वह जिस समय पहुंचा, उस समय वहां से लोकल बस गुजर रही थी । गोल चौराहे पर मोड़ काटती बस की रफ्तार उस वक्त बहुत कम थी ।
विमल लपककर चलती बस पर सवार हो गया ।
यह देखकर उसे बड़ी राहत महसूस हुई कि उसी तरह उसके पीछे कोई बस पर नहीं चढा था ।
लेकिन अगर कोई उसका पीछा कर रहा था तो उसे मालूम था कि वह बस में था और अब वह बस का पीछा करते रहकर भी अपना मतलब हल कर सकता था ।
उसने अपने पीछे सड़क पर निगाह दौड़ाई ।
सड़क काफी भीड़भरी थी और उस वक्त उस पर कारों, रिक्शाओं, तांगों, टैम्पुओं और साइकिलों पर सवार और पैदल चलते कई लोग मौजूद थे । उसके लिए यह जान पाना कठिन था कि क्या उन बेशुमार लोगों में से कोई उसके पीछे भी लगा हुआ था ।
“टिकट ।”
विमल चौंककर आवाज की दिशा में घूमा ।
बस का कण्डक्टर उसके सामने खड़ा था ।
“दे दो ।” - विमल हड़बड़ाकर बोला ।
“कहां जाना है ?”
विमल ने अभी इस बारे में कोई फैसला नहीं किया था ।
उसके मुंह से अनायास निकला - “यह बस कहां जाती है ?”
“अरे, साहब ! आप बोलो, आपने कहां जाना है ?”
“यह बस स्टेशन जाती है ?”
“जाती है ।”
“स्टेशन का दे दो ।” - विमल बोला । उसने उसकी तरफ एक, एक रुपये का नोट बढा दिया ।
कण्डक्टर ने टिकट और बाकी के पैसे उसको सौंप दिए और फिर तुरन्त उसकी तरफ से उदासीन हो गया ।
विमल गेट के पास खड़ा रहा ।
बस स्टेशन रोड के दहाने पर मौजूद बड़े-से चौराहे पर पहुंची ।
ज्यों ही वह बस गोल घूमी, विमल उसमें से बाहर कूद गया । वह सवाई जयसिंह रोड पर सीधा लपका ।
थोड़ा आगे जाकर वह ठिठका । उसने फौरन घूमकर पीछे देखा ।
तब भी उसे कोई ऐसा व्यक्ति अपने पीछे न दिखाई दिया जिसकी उसमें कोई विशेष दिलचस्पी रही हो या जिसे उसने पहले मिर्जा इस्माइल रोड पर भी देखा हो ।
कहीं कोई गड़बड़ जरूर थी । उसके जहन में खतरे की घण्टियां खामखाह नहीं बज रही थीं । इलाहाबाद से भागने के बाद से जैसी खतरनाक जिन्दगी वह जी रहा था, उसमें उसे किसी खतरे का इलहाम हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी ।
लेकिन अगर कोई आदमी उसके पीछे लगा भी हुआ था तो क्यों ?
उसके पीछे लगा आदमी अगर कोई पुलिसिया होता तो वह कब का उसे दबोच चुका होता ।
तो फिर कौन ?
शायद कोई ऐसा आदमी जिसको उस पर फरार अपराधी होने का सन्देह तो हो गया था लेकिन जो अभी और गारण्टी कर लेना चाहता था ।
आखिर उसकी गिरफ्तारी पर पचास हजार रुपये के इनाम की घोषणा थी ।
वह सशंक मन से तेजी से आगे बढता रहा ।
एकाएक एक कार उसकी बगल से गुजरी और उसके सामने राजस्थान स्टेट होटल के कम्पाउण्ड से बाहर ही फुटपाथ से साथ लगकर रुकी । कार में से एक महिला बाहर निकली और होटल के कम्पाउण्ड में दाखिल हो गई ।
विमल ने देखा कि उसने कार के दरवाजे को ताला नहीं लगाया था ।
वह कार के समीप पहुंचा तो उसने देखा कि कार की चाबियां इग्नीशन में ही लटक रही थीं ।
अपना अगला कदम निर्धारित करने में विमल ने एक क्षण की भी देर न लगाई ।
उसने कार का अगला दरवाजा खोला । उसने अपना सूटकेस कार की सीट पर फेंका और भीतर दाखिल होकर स्टियरिंग के पीछे बैठ गया ।
उसने इग्नीशन ऑन किया, क्लच दबाया और कार को गियर में डाला ।
फिर एक्सीलेटर के पैडल पर उसने अपने पैर का भरपूर दबाव डाला ।
कार एक झटके के साथ आगे को लपकी ।
अपने पीछे उसे चीख-पुकार की कैसी भी आवाज न सुनाई दी ।
शायद कार की मालकिन का अभी इस ओर ध्यान नहीं गया था कि कोई उसकी कार ले उड़ा था ।
विमल ने सौ ही गज आगे आने तक कार को चौथे गियर में डाल दिया और उसकी रफ्तार वह जितनी बढा सकता था, उसने बढा दी ।
इतना अरसा जयपुर में मोटर मकैनिक बने रहने की वजह से वह और कुछ नहीं तो ड्राइवर तो हो ही गया था ।
आगे मोड़ आने पर उसने कार को बिना ब्रेक लगाए इतनी रफ्तार से अजमेर रोड पर बायीं ओर मोड़ा कि दायीं ओर के दोनों पहिये उठ गए । फिर कार सीधी हुई और तोप से छूटे गोले की तरह सड़क पर भागी ।
कार नई एम्बैसेडर थी इसलिए रफ्तार से अशोक रोड पर मोड़ दिया । उसने रियर व्यू मिरर में से अपने पीछे देखा ।
अब उसे विश्वास हो गया कि कोई वाकई उसके पीछे लगा हुआ था ।
उसी जैसी भीषण रफ्तार से एक काली फियेट अशोक रोड पर मुड़ी थी ।
उसे फियेट की अगली सीट पर बैठे ड्राइवर और उसकी बगल में बैठे एक अन्य आदमी की झलक दिखाई दी ।
विमल ने कार को पहले इन्कम टैक्स ऑफिस की तरफ मोड़ा फिर उसने उसे लाजपत मार्ग से घुमाकर मालवीय मार्ग पर मोड़ दिया ।
अब वह जिस दिशा से आया था, वापस उसी दिशा में जा रहा था ।
काली फियेट उसे फिर अपने पीछे दिखाई दी ।
अब फियेट वालों की नीयत के बारे में शक की कोई गुंजायश नहीं रह गई थी । वे इन्सपेक्टर महिपाल सिंह के आदमी थे, या इनाम के लालची थे या कोई और थे, बहरहाल थे वे उसी के पीछे ।
अब उसके सामने सबसे अहम काम था काली फियेट से पीछा छुड़ाना । कार चौराहे के समीप पहुंची । वहां उसने कार को पूरी रफ्तार से सरदार पटेल मार्ग पर बायीं तरफ मोड़ा । फिर उसने एक्सीलेटर का पैडल इतनी जोर से दबाया कि वह एकदम कार के फर्श के साथ जा लगा । लेकिन उस वक्त वह खतरा मोल लेने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं था ।
वह कार को रेजिडेन्सी राजमहल की अपेक्षाकृत तंग और खाली सड़कों पर भगाता हुआ उसे भवानीसिंह मार्ग तक ले आया ।
वहां से उसने कार को दायीं तरफ मोड़ा ।
आगे रेलवे का फाटक था ।
यह देखकर उसे सख्त निराशा हुई कि फाटक उस वक्त बन्द था ।
उसने घबराकर पीछे देखा ।
पीछे चौराहे पर मोड़ काटकर काली फियेट भवानीसिंह मार्ग पर प्रकट हुई ।
तब तक विमल की कार रुकते-रुकते भी ऐन बन्द फाटक के साथ जा लगी थी ।
वापस लौटना सम्भव नहीं था ।
फाटक खुलने के अभी कोई आसार नहीं दिखाई दे रहे थे ।
वह फंस गया था ।
उसने एक बार व्याकुल भाव से पीछे देखा ।
काली फियेट उसकी तरफ बढ रही थी ।
एकाएक उसने एक झपट्टा मारकर अपने सूटकेस का हैंडल थामा, दूसरे हाथ से कार का दरवाजा खोला और पैदल चलने वालों के लिए बनी पतली-सी गलीनुमा जगह को पार करके वह आगे बढा ।
तभी उसे दायीं ओर से आती गाड़ी दिखाई दी ।
रेलवे लाइन अभी उससे दूर थी । वह गाड़ी के वहां पहुंचने से पहले लाइन पार नहीं कर सकता था ।
काली फियेट अब फाटक से कुछ ही दूर रह गई थी । गाड़ी के इंजन ने एक जोर की चीख मारी और फिर इंजन ऐन उसके सामने से गुजरा ।
ब्रेकों की भीषण चरचराहट के साथ काली फियेट एम्बैसेडर की बगल में आ खड़ी हुई ।
गाड़ी खड़खड़ करती हुई उसके सामने से गुजर रही थी ।
एकाएक विमल अंजाम की परवाह किये बिना गाड़ी के साथ-साथ भागने लगा ।
गाड़ी की रफ्तार बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन वह इतनी कम भी नहीं थी कि सहूलियत से उस पर चढा जा पाता ।
काली फियेट के अगले दोनों दरवाजे एक साथ खुले और दो आदमी कार में से बाहर निकलकर फाटक की तरफ झपटे ।
विमल ने अपने समीप से गुजरते एक डिब्बे का हैंडल थाम लिया और साथ ही उसके पायदान पर छलांग लगा दी ।
उसके सारे जिस्म को एक जोर का झटका लगा, लेकिन उसने अपने हाथ से सूटकेस निकलने न दिया ।
तभी एकाएक गाड़ी की रफ्तार तेज हो गई ।
विमल ने घूमकर पीछे देखा ।
फाटक से पार रेलवे लाइन के पास दो आदमी खडे़ थे और बड़े असहाय भाव से हाथ मसल रहे थे ।
फिर गाड़ी का आखिरी डिब्बा भी उनके पास से गुजर गया । किसी ने उसकी तरह उसके पीछे गाड़ी पर चढने की कोशिश नहीं की थी ।
वाहे गुरू सच्चे पातशाह ! - विमल के मुंह से निकला - तू मेरा राखा सबनी थाहीं ।
***
आदर्श नगर की एक सड़क पर एक स्टेशन वैगन खड़ी थी । स्टेशन वैगन में तीन आदमी मौजूद थे । तीनों अगली सीट पर बैठे थे और तीनों की निगाहें सामने मौजूद एक दोमंजिली इमारत पर टिकी हुई थीं ।
तभी पहली मंजिल की बाल्कनी पर एक आदमी प्रकट हुआ ।
“यह है वो आदमी ।” - स्टेशन वैगन की बायीं ओर की खिड़की के पास बैठा अधेड़ावस्था का भारी-भरकम व्यक्ति बोला । उसका नाम द्वारकानाथ था और वह तीन आदमियों के उस रिंग का लीडर था ।
अन्य दोनों आदमियों की निगाह बाल्कनी की तरफ उठ गई ।
“राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ ?” - ड्राइविंग सीट पर बैठा व्यक्ति बोला । उसका नाम तो पता नहीं क्या था लेकिन हर कोई उसे कूका के नाम से पुकारता था । वह तीनों में सबसे कम उम्र का था और जरायमपेशा व्यक्ति लगने के स्थान पर कोई शायर या लेखक लगता था । उसके चेहरे पर कुछ इसी प्रकार के भावुकता के भाव थे ।
“हां ।” - द्वारकानाथ बोला - “यह आगरे में रत्नाकर स्टील कम्पनी में सिक्योरिटी ऑफिसर है । इसकी मदद के बिना हमारी योजना कामयाब नहीं हो सकती । क्यों गंगाधर ?”
“हां ।” - बीच में बैठा व्यक्ति अर्थहीन भाव से बोला । उसकी निगाह बाल्कनी में मौजूद राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ पर टिकी हुई थी ।
“यह इसकी बीवी का मायका है” - द्वारकानाथ ने बताया - “जहां कि यह छुट्टी पर आया हुआ है । दो-तीन दिन में यह अपनी बीवी को साथ लेकर वापस आगरे लौट जाएगा । हमने इन्हीं दो-तीन दिनों में, यहीं, इसको अपने काबू में करना है ।”
“कैसे ?” - कूका ने पूछा - “पैसे के लालच से ?”
“तुम्हारा इशारा रिश्वत की तरफ है ?”
“हां ।”
“रिश्वत से काम नहीं बनने वाला । बुनियादी तौर पर यह एक ईमानदार आदमी है । अगर हमने इसे सीधे-सीधे रिश्वत ऑफर करने की कोशिश की तो यह हमें गिरफ्तार करवा देगा ।”
“तो फिर कैसे काबू में आयेगा यह ?”
“इस आदमी में दो कमजोरियां हैं - जुआ और बीवी ।”
“बीवी ?” - गंगाधर बोला ।
“हां । इसकी बीवी बेहद खूबसूरत है और बहुत आधुनिक है । मौज-मेले की वह जरूरत से ज्यादा शौकीन है । राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ को एक मोटी तनख्वाह मिलती है जो साधारणतया ऐसे आदमी के लिए काफी से ज्यादा समझी जाती है । लेकिन इसकी ऐशपरस्ती की बेहद शौकीन, अत्यन्त खर्चीली बीवी के लिए वह तनख्वाह कुछ भी नहीं । वह हमेशा कुलश्रेष्ठ से शिकायत करती रहती है और उसे ताने देती रहती है । अपनी बीवी की इन आदतों की वहज से यह हमेशा पैसे से परेशान रहता है ।”
“ऊपर से तुम उसे जुए की लत भी बता रहे हो ?” - कूका बोला ।
“हां” - द्वारकानाथ बोला - “लेकिन जुआ यह संयम से खेलता है और साधारणतया जीतता है । इस आदमी को फांसने के लिए हमें उसकी इन्हीं दोनों आदतों को कैश करना है ।”
“कैसे ?”
“एक स्कीम है मेरे दिमाग में । होटल वापिस चलो । बताता हूं ।”
तभी बाल्कनी एक पर अत्यन्त सुन्दर युवती प्रकट हुई । उसने कुलश्रेष्ठ के समीप आकर उसे कुछ कहा । कुलश्रेष्ठ सहमति में गरदन हिलाता हुआ उसके साथ हो लिया ।
“यह शैलजा है” - द्वारकानाथ बोला - “राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ की बीवी ।”
“चीज तो वाकई जोरदार है ।” - कूका बोला ।
“हौसला रखो ।” - द्वारकानाथ बोला - “हम पैंतालीस लाख रुपये पर हाथ साफ करने की फिराक में हैं । हम कामयाब हो गये तो इससे कहीं ज्यादा जोरदार चीजें तुम्हें खामखाह हासिल होने लगेंगी ।”
कूका खामोश रहा ।
“गाड़ी बढाओ ।”
कूका ने स्टेशन वैगन तुरन्त आगे बढा दी ।
***
राजस्थान स्टेट होटल के जिन दो कमरों के सुइट में वे ठहरे हुए थे, उसके बैडरूम में एक टेलीविजन रखा था ।
वह रविवार का दिन था । रोज दिन में भी टेलीविजन पर प्रोग्राम आता था । द्वारकानाथ ने टेलीविजन चालू किया । कुछ क्षण बाद स्क्रीन पर प्रोग्राम आने लगा ।
वह किसानों के लिए कोई खेती-बाड़ी से सम्बन्धित प्रोग्राम था ।
द्वाराकनाथ ने स्विच बन्द कर दिया । वह दूसरे कमरे में गया और वहां से एक भारी-सी मशीन ले आया, जो देखने में टेपरिकॉर्डर जैसी लगती थी लेकिन उस पर चढे स्पूल बहुत बड़े थे और उनके गिर्द लिपटा टेप कम-से-कम एक इंच मोटा था ।
“यह टेप रिकॉर्डर है ?” - कूका ने पूछा ।
“नहीं । इसे वीडियो रिकॉर्डर कहते हैं । जिस प्रकार टेप रिकॉर्डर आवाज रिकॉर्ड करता है । उसी प्रकार यह वीडियो रिकॉर्डर तस्वीरें रिकॉर्ड करता है ।”
“अच्छा ! कैसे ?”
“देखो ।”
द्वारकानाथ ने वीडियो का सम्बन्ध टेलीविजन से जोड़ दिया और टेलीविजन फिर चालू कर दिया ।
टेलीविजन की स्क्रीन पर फिर खेतीबाड़ी से सम्बन्धित प्रोग्राम प्रकट हुआ ।
द्वारकानाथ ने वीडियो रिकॉर्डर का एक स्विच चालू कर दिया ।
रिकॉर्डर पर लगे स्पूल तेजी से घूमने लगे । वीडियो टेप एक स्पूल पर से उतरने लगा और दूसरे पर चढने लगा ।
“जो कुछ भी हम इस वक्त टेलिविजन पर देख-सुन रहे हैं ।” - द्वारकानाथ बोला - “वह इस वीडियो टेप पर रिकॉर्ड हो रहा है ।”
“कमाल है !” - कूका बोला ।
“इस टेप पर कितनी देर का प्रोग्राम रिकॉर्ड हो सकता है ?” - गंगाधर ने पूछा ।
“एक घण्टे का” - द्वारकानाथ बोला - “जो कि हमारे काम के लिए काफी से ज्यादा है ।”
कोई कुछ न बोला । तीनों चुपचाप टेलीविजन देखते रहे ।
दस मिनट बाद द्वाराकनाथ ने हाथ बढाकर वीडियो रिकॉर्डर का स्विच बन्द कर दिया । स्पूल रुक गए ।
द्वारकानाथ ने टेप को वापस घुमाने वाला बटन दबाया । जब टेप वहां तक वापस पहुंच गया, जहां कि वह चालू किया गया था तो उसने एक अन्य बटन दबाकर स्पूल रोक दिया ।
टेलीविजन पर उस वक्त कोई युवती भरत नाट्यम का प्रदर्शन कर रही थी । द्वारकानाथ ने टेलिविजन का चैनल घुमाया ।
स्क्रीन पर से भरत नाट्यम करती युवती गायब हो गई । उसके स्थान पर स्क्रीन पर रोशनी की वे टूटी चमकदार लकीरें प्रकट हुई जो तब प्रकट होती हैं जब कोई प्रोग्राम न आ रहा हो । नृत्य के साथ चल रहे संगीत के स्थान पर टेलीविजन से सांय-सांय के शोर की आवाज निकलने लगी ।
“यह एक खाली चैनल है” - द्वारकानाथ ने बताया - “जो मैंने वीडियो टेप के लिए पहले से छांटी हुई है । अब देखो ।”
द्वारकानाथ ने वीडियो रिकॉर्डिंग चालू की ।
स्क्रीन पर तुरन्त खेतीबाड़ी से सम्बन्धित प्रोग्राम प्रकट हुआ । साथ ही वार्तालाप की आवाज भी आने लगी ।
गंगाधर और कूका हैरानी से स्क्रीन को देखने लगे ।
“गौर करने वाली बात यह है” - द्वारकानाथ बोला - “कि इस वक्त टेलीविजन देखकर यह कहना मुश्किल है कि प्रोग्राम सीधा टेलीविजन सेण्टर से टेलिकास्ट हो रहा है या वीडियो टेप के माध्यम से स्क्रीन पर प्रकट हो रहा है ।”
“हां ।” - कूका ने स्वीकार किया - “यह तो है ।”
“इसी बात से हमने राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ को बेवकूफ बनाकर अपने काबू में करना है ।”
“कैसे ?” - कूका और गंगाधर ने एक साथ पूछा ।
द्वारकानाथ ने वीडियो रिकॉर्डर ऑफ कर दिया और फिर धीरे-धीरे उन्हें अपनी योजना समझाने लगा ।
***
कूका होटल की लॉबी में लगे टेलीफोन बूथ में दाखिल हुआ ।
द्वारकानाथ और गंगाधर बाहर खड़े रहे ।
कूका ने पहले डायरेक्ट्री इन्क्वायरी का नम्बर मिलाया और राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ के आदर्श नगर वाले घर का पता बताकर वहां से उसका फोन नम्बर हासिल किया ।
फिर उसने सम्बन्धविच्छेद करके उस नम्बर पर फोन किया । तुरन्त सम्पर्क स्थापित हुआ ।
कूका ने जेब से अपना रुमाल निकालकर माउथपीस पर रख लिया और फिर बोला - “कुलश्रेष्ठ साहब हैं ?”
“जी हां, हैं ।” - दूसरी ओर से एक स्त्री स्वर सुनाई दिया - “आप कौन बोल रहे हैं ?”
“कृष्णकान्त” - कूका बोला - “मैं आगरे से आया हूं । मैं कुलश्रेष्ठ साहब के साथ रत्नाकर स्टील कम्पनी में काम करता हूं ।”
“होल्ड कीजिए । अभी बुलाते हैं ।”
“थैंक्यू ।”
कूका ने इशारे से द्वारकानाथ और गंगाधर को बताया कि कुलश्रेष्ठ लाइन पर आ रहा था ।
कृष्णकान्त के बारे में कूका को द्वारकानाथ ने बताया था । उसके कथनानुसार वह रत्नाकर स्टील कम्पनी में एकाउंटेंट था और कुलश्रेष्ठ का गहरा दोस्त था ।
तभी कूका के कानों में एक पुरुष स्वर पड़ा ।
“राजेन्द्र बोल रहे हो ?” - कूका पूर्ववत् रुमाल में बोला ।
“हां ।”
भैया, मैं कृष्णकान्त बोल रहा हूं ।”
“अरे ! तुम यहां कैसे पहुंच गए ?”
“बस पहुंच गया ।”
“कहां हो ?”
“राजस्थान स्टेट होटल में ।”
“वहां ठहरे हुए हो ?”
“अरे, नहीं । ठहरा हुआ तो मैं अपनी मौसी के यहां हूं, यहां तो मैं तफरीह के लिए आया हूं ।”
“कैसी तफरीह ?”
“पागल हो । समझते नहीं हो ।”
“गला तर करने ?”
“हां । और तुम फौरन यहां पहुंचो ।”
“मैं ?”
“और कौन ? मैं यहां बोर हो रहा हूं । जल्दी पहुंचो ।”
“लेकिन...”
“अमां यार, ससुराल आये हुए हो तो क्या हर वक्त भाभी के पहलू में घुसे रहोगे ?”
“नहीं, वह बात नहीं है ।”
“तो फिर क्या बात है ?”
“यार, दिन दहाड़े ! भरी दोपहरी में !”
“तुम आ रहे हो या नखरे ही झाड़ते रहोगे ?”
“अच्छा, अच्छा । आता हूं ।”
“और अकेले आना । भाभी को साथ मत ले आना नहीं तो सारा मजा किरकिरा हो जाएगा ।”
“अच्छा ।”
“मैं बार में तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूं ।”
“अच्छा । लेकिन सुनो ।”
“अब क्या है ?”
“यह तुम्हारी आवाज को क्या हो गया है ?”
“क्या हो गया है मेरी आवाज को ?”
“बड़ी अजीब-सी, भारी-भारी-सी लग रही है ।”
“ओह, वह । दरअसल मुझे जुकाम हुआ हुआ है ।”
“आई सी ।”
“मैं फोन बन्द कर रहा हूं । तुम फौरन यहां पहुंचो ।”
“अच्छा ।”
कूका ने रिसीवर को हुक पर टांग दिया और बूथ से बाहर निकल आया । उसके दोनों साथियों ने आशापूर्ण निगाहों से उसकी तरफ देखा ।
“आ रहा है ।” - कूका बोला ।
“वेरी गुड ।” - द्वारकानाथ सन्तुष्ट स्वर में बोला ।
फिर तीनों बार में दाखिल हुए । वे एकदम परले सिरे की एक मेज पर पहुंचे । कूका और गंगाधर मेज पर बैठ गए । द्वारकानाथ ने बैठने का उपक्रम नहीं किया । वेटर उनकी टेबल पर पहुंचा । कूका ने उसे बियर का आदेश दिया ।
“मैं चलता हूं ।” - द्वारकानाथ बोला ।
दोनों ने सहमति में सिर हिला दिया ।
द्वारकानाथ वहां से निकलकर होटल की लॉबी में आ गया ।
वह प्रतीक्षा करने लगा ।
उसका हाथ अपने-आप ही उसकी जेब में रखे सिगरेट के पैकेट की ओर बढा लेकिन पैकेट से उंगलियां छूते ही उसे अनुभव हो गया कि वह क्या करने जा रहा था । उसने हाथ वापस खींच लिया ।
वह दिल का मरीज था । एक दिल का दौरा उसे पड़ चुका था । डॉक्टर ने धूम्रपान कम करने की उसे खास हिदायत दी हुई थी । और वह अभी थोड़ी ही देर पहले एक सिगरेट पीकर हटा था ।
वह प्रतीक्षा करता रहा ।
थोड़ी देर बाद उसने झुंझलाकर सिगरेट का पैकेट निकाल लिया और एक सिगरेट सुलगा लिया । वह एक तरसे हुए आदमी की तरह लम्बे-लम्बे कश लेने लगा ।
सिगरेट समाप्त होने के बाद उसने अभी उसे फेंका ही था कि उसने एक रिक्शा को होटल की मारकी में आकर रुकते देखा ।
फिर उसने उसमें से राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ को उतरते देखा ।
द्वारकानाथ एक ओर सरक गया । उसकी उंगलियों ने जेब में पड़े उस बटुवे को टटोला जो सौ के नोटों से ठुंसा पड़ा था ।
राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ भीतर गया और फिर सीधा बार में दाखिल हुआ ।
बार में जाकर उसने चारों तरफ निगाह घुमाई । फिर धीरे-धीरे उसके चेहरे पर निराशा और मायूसी के भाव उभरे ।
फिर वह दरवाजे के समीप की एक मेज पर बैठ गया ।
द्वारकानाथ आगे बढा ।
उसका बटुवा उसकी जेब से आधा बाहर सरक आया ।
वह बिना कुलश्रेष्ठ पर निगाह डाले आगे बढा । ज्यों ही वह उसकी मेज से पास से गुजरा, उसने अपना बटुवा जेब से बाहर गिरा दिया ।
कुलश्रेष्ठ ने नीचे देखा । बटुवे पर निगाह पड़ते ही उसने झुककर बटुआ उठा लिया । उसने सामने देखा ।
द्वारकानाथ प्रत्यक्षत: अपने उस नुकसान से बेखबर आगे बढता जा रहा था ।
“भाई साहब !” - कुलश्रेष्ठ ने आवाज लगाई ।
द्वारकानाथ ने आवाज सुनी, लेकिन घूमकर नहीं देखा ।
कुलश्रेष्ठ अपने स्थान से उठा और बटुवा हाथ में लिये उसके पीछे लपका । तब तक द्वारकानाथ कूका और गंगाधर के पास पहुंच चुका था ।
“भाई साहब !” - कुलश्रेष्ठ ने उसके समीप पहुंचकर उसके कन्धे को छुआ ।
द्वारकानाथ ने उसकी तरफ सिर उठाया ।
“यह आपका बटुवा ।” - कुलश्रेष्ठ बटुवा उसकी तरफ बढाता हुआ बोला ।
“मेरा बटुवा ?” - द्वारकानाथ उलझनपूर्ण स्वर में बोला । फिर एकाएक उसके चेहरे पर आतंक और बौखलाहट के भाव उभरे । उसका हाथ बिजली की तरह अपनी खाली जेब में पड़ा ।
“हे भगवान !” - उसके मुंह से निकला । फिर वह उछलकर उठ खड़ा हुआ । उसने एक हाथ से उसके हाथ से बटुवा ले लिया और दूसरे से उसका हाथ थाम लिया ।
“यह आप ही का है न ?” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
“हां ।” - द्वारकानाथ कृतज्ञ स्वर में बोला - “भाई साहब, आपने तो बहुत भारी अहसान किया मुझ पर । इसमें तो बहुत पैसे थे । और मेरे बहुत जरूरी कागजात भी थे इसमें ।”
“क्या बात है द्वारका ?” - गंगाधर बोला ।
“मेरी जेब में से पता नहीं कैसे मेरा बटुवा गिर गया” - द्वारका ने बताया - “जो इन साहब को पड़ा मिला ।”
“अरे, तो इन्हें बिठाओ तो सही । कैसे नाशुक्रे आदमी हो तुम ।”
“बैठो, भाई साहब ।” - द्वारकानाथ उसे जबरन एक कुर्सी पर बिठाता हुआ बोला । फिर वह स्वंय भी उसकी बगल में बैठ गया ।
“वेटर !” - द्वारकानाथ उच्च स्वर में बोला ।
वेटर लपका हुआ उसके पास पहुंचा ।
“एक गिलास और लाओ” - द्वारकानाथ ने आदेश दिया - “और बियर भी और लाओ ।”
“सुनिये, जनाब...” - कुलश्रेष्ठ ने विरोध करना चाहा ।
“भाई साहब” - द्वारकानाथ बोला - “मुझे थोड़ा शुक्रगुजार तो होने दीजिये ।”
“लेकिन...”
“देखिये । आप बार में बैठे थे । इसलिए जाहिर है कि पीते तो जरूर होंगे । एक जाम हमारे साथ भी हो जाये ।”
“लेकिन... लेकिन मैं यहां अपने एक दोस्त से मिलने आया था ।”
“कहां हैं आपके दोस्त ?”
“वह तो मुझे यहां कहीं दिखाई नहीं दे रहा । लेकिन उसे होना यहीं चाहिए था । उसने मुझे खास तौर से फोन करके यहां बुलाया था ।”
“कहीं इधर-उधर हो गये होंगे आपके दोस्त । जब तक वे नहीं आते, तब तक तो आप हमारे साथ बैठिये ।”
कुलश्रेष्ठ हिचकिचाया । उसने एक व्याकुल निगाह सारे बार में दौड़ाई । कृष्णकान्त उसे कहीं दिखाई नहीं दिया ।
तभी वेटर बियर ले आया ।
गंगाधर ने चार गिलास बियर से भरे । उसने एक गिलास कुलश्रेष्ठ की तरफ सरका दिया ।
“चियर्स !” - वह अपना गिलास उठाता हुआ बोला ।
कुलश्रेष्ठ ने भी हिचकते हुए गिलास उठा लिया और धीरे से बोला - “चियर्स ।”
“बाई दि वे” - द्वारकानाथ बोला - “मेरा नाम द्वारकानाथ है । ये मेरे दोस्त हैं । यह कूका है और यह गंगाधर है ।”
“मुझे राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ कहते हैं ।” - कुलश्रेष्ठ संकोचपूर्ण स्वर में बोला । मन-ही-मन वह कृष्णकान्त पर बहुत ताव खा रहा था जो उसे वहां बुलाकर खुद पता नहीं कहां गायब हो गया था ।
“यह लीजिये ।” - गंगाधर ने उसकी तरफ मछली के कबाब की प्लेट बढाई ।
कुलश्रेष्ठ ने एक टुकड़ा उठा लिया ।
“आप तो कोई बहुत ही कुलीन और खानदानी आदमी हैं, साहब” - द्वारकानाथ बोला - “आपकी जानकारी के लिए उस बटुवे में बीस हजार रुपये थे ।”
“मेरी ओर से चाहे बीस लाख होते ।” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
“जी हां । जी हां । मेरा मतलब था कि अगर आपकी जगह कोई दूसरा आदमी होता तो बटुवा मुझे हरगिज वापिस न देता । मुझे कितनी देर बाद जाकर कहीं पता लगना था कि बटुवा मेरी जेब में नहीं था । तब तक मुझे यह भी नहीं सूझता कि बटुवा मैंने कहां खोया था !”
कुलश्रेष्ठ खामोश रहा ।
“आपने तो बियर का अभी तक एक भी घूंट नहीं भरा, साहब ।” - गंगाधर शिकायत-भरे स्वर मे बोला - “तकल्लुफ कर रहे हैं आप ।”
“नहीं, नहीं ।” - कुलश्रेष्ठ हड़बड़ाकर बोला - “दरअसल मेरा ध्यान अपने दोस्त की तरफ लगा हुआ है ।”
“उसने यहीं आना था न ?”
“आना क्यों, उसने मेरे से पहले यहां मौजूद होना था ।”
“शायद कोई ऐसी एमरजेन्सी आ गई हो जिसकी वजह से उसे एकाएक यहां से चला जाना पड़ा हो ।”
“हो सकता है ।”
“जनाब” - कूका बोला - “आप हमें भी अपना दोस्त समझिये । आप यह क्यों सोचते हैं कि आप दोस्तों में नहीं हैं ?”
“नहीं, नहीं । ऐसी बात नहीं ।”
“तो फिर अपना गिलास खाली कीजिए ।”
कुलश्रेष्ठ ने अपना गिलास खाली किया ।
सबने अपने गिलास खाली किये ।
द्वारकानाथ ने गिलास फिर भर दिये ।
“कुलश्रेष्ठ साहब” - वह बोला - “पराये शहर में इतना पैसा हाथ से निकल जाता तो सोचिये कितना अफसोस होता मुझे ।”
“आप जयपुर के रहने वाले नहीं हैं ?” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
“नहीं । यहां तो सैर-सपाटे के लिए आये हैं । असल में हम आगरे के रहने वाले हैं ।”
“मैं खुद आगरे का रहने वाला हूं ।”
“अच्छा । तो यहां जयपुर में आप...”
“यहां मेरी ससुराल है ।”
“ओह ! फिर तो आप हमारे शहर के हुए ।”
“आगरे में क्या करते है आप ?” - गंगाधर ने पूछा ।
“वहां मैं रत्नाकर स्टील कम्पनी में सिक्योरिटी ऑफिसर हूं ।”
“रत्नाकर स्टील कम्पनी ?” - द्वारकानाथ बोला - “वह तो नहीं जो शहर से एकदम बाहर फतेहपुर-सीकरी रोड पर है ?”
“वही ।”
“वहां तो हमारा भी एक दोस्त काम करता है । शायद आप जानते हों उसे ।”
“कौन ? ”
“कृष्णकान्त नाम है उसका । वहां एकाउंटेंट है वो । हम तीनों का ही बड़ा जिगरी दोस्त है वो ।”
“कृष्णकान्त आप लोगों का दोस्त है ?”
“हां, क्यों ?”
“कमाल है !”
“क्यों ?”
“भाई साहब, उसी से मिलने तो मैं यहां आया था ।”
“कृष्णकान्त से ? वह जयपुर में है ?”
“हां । अभी उसने मुझे फोन किया था और मुझे यहां आने को कहा था ।”
“अजीब इत्तफाक है ।”
“वैसे बड़ा खुशगवार इत्तफाक है ।” - कूका बोला - “अगर कृष्णकान्त हम सबका दोस्त है तो हम आपस में भी दोस्त हुए ।”
“सरासर हुए ।” - द्वारकानाथ बोला ।
“इस बात पर तो जश्न हो जाना चाहिए ।” - गंगाधर बोला ।
“जरूर ।”
“अपने-अपने गिलास खाली करो, साहबान ! कमरे में चलकर इत्मीनान से बैठते हैं ।”
“कमरे में ?” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
“हां” - गंगाधर बोला - “हम इसी होटल में ठहरे हुए हैं न ।”
“लेकिन मैंने तो... मुझे तो कृष्णकान्त से....”
“कुलश्रेष्ठ साहब” - द्वारकानाथ बोला - “किसी ने मजाक तो नहीं किया आपके साथ ?
“मजाक ! कैसा मजाक ?”
“शायद किसी ने आपको खामखाह तंग करने के लिए यहां बुला लिया हो । कई लोग ऐसे बेहूदे मजाक करना बहुत पसन्द करते हैं ।”
“क्या मालूम कि क्या चक्कर है ?”
“वैसे तो कृष्णकान्त यहां मिल जाये तो मजा आ जाये । आखिर हमारा भी दोस्त है वो ।”
“द्वारका” - गंगाधर बोला - “अगर कृष्णकान्त यहां ठहरा हुआ होता तो क्या हमें उसकी खबर न लगती ?”
“शायद वह ठहरा कहीं और हो” - द्वारकानाथ बोला - “और सिर्फ तफरीह के लिए यहां आया हो ।”
“सुनो” - कूका बोला - “मैं वेटर को कृष्णकान्त का हुलिया वगैरह समझा आता हूं । अगर वह यहां आयेगा तो वेटर उसे हमारे कमरे में भेज देगा ।”
“यह ठीक रहेगा ।” - द्वारकानाथ बोला - “क्यों, साहब ?”
कुलश्रेष्ठ ने हिचकिचाते हुए हामी भर दी ।
कूका ने अपना गिलास खाली किया और उठता हुआ बोला - “मैं अभी आया ।”
द्वारका ने सहमति में सिर हिला दिया ।
पिछे वे तीनों बियर पीते रहे और मछली के कबाब खाते रहे ।
थोड़ी देर बाद कूका वापस लौटा ।
“मैंने वेटर को सब समझा दिया है ।” - वह बोला - “आओ चलें ।”
तीनों ने अपने-अपने गिलास खाली किये ।
फिर वे वहां से उठे और कुलश्रेष्ठ के साथ अपने सुइट में आ गये और ड्राइंगरूम में आ बैठे ।
तब तक कुलश्रेष्ठ एक बोतल बियर पी चुका था और अब वह धीरे-धीरे उन लोगों से खुलता जा रहा था । उसका संकोच काफी हद तक खत्म हो चुका था और अब वह खुश था कि वह इतने ‘भले आदमियों’ की सोहबत में था । ससुराल में बोर होने के मुकाबले में तो उन लोगों का साथ हर हाल में अच्छा था ।
और कृष्णकान्त के मामले में अब उसे भी विश्वास होता जा रहा था कि किसी ने उसके साथ मजाक किया था ।
तभी एक वेटर चार गिलास, सोडे की कई बोतलें और कबाब की कई प्लेटें लेकर वहां पहुंचा । उसने वह सब सामान एक साइड टेबल पर रख दिया ।
द्वारकानाथ बैडरूम में गया और वहां से जानीवॉकर ब्लैक लेबल की एक बोतल ले आया । उसने बोतल गंगाधर को सौंप दी । गंगाधर ने बोतल खोली और चार पैग तैयार किये ।
सबके हाथों में फिर गिलास पहुंचे गये ।
फिर चियर्स ।
पहला पैग पन्द्रह मिनट चला ।
फिर दूसरा पैग तैयार हुआ ।
अब कुलश्रेष्ठ पूरे इत्मीनान के साथ उन लोगों की सोहबत का आनन्द ले रहा था ।
“कोई ताश-वाश का शौक रखते हैं आप ?” - एकाएक गंगाधर बोला ।
“हां” - कुलश्रेष्ठ बेहिचक बोला - “थोड़ा-बहुत ।”
“क्या खेलते हो ?”
“कुछ भी ।”
“फ्लैश ?”
“हां, हां ।”
“तो फिर हो जाए ?”
“क्या हर्ज है ?”
“लेकिन एक बात पहले बताइये ।”
“क्या ?”
“आप बहुत ज्यादा तगड़े खिलाड़ी तो नहीं हैं ?”
“क्या मतलब ?”
“कहीं ऐसा न हो कि आप हमारे कपड़े उतरवा लें ।”
कुलश्रेष्ठ ने जोर का अट्टहास किया ।
“ताश मंगवाओ ।” - द्वारकानाथ बोला ।
वेटर से नई ताश मंगवाई गई ।
ताश आते ही कूका वहां से उठकर परे बैठ गया ।
“आप नहीं खेलेंगे ?” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
“नहीं ।” - कूका बोला - “मुझे खेलना नहीं आता ।”
“और यह आप-आप छोड़ो यार ।” - द्वारकानाथ बोला - “तकल्लुफ में मजा नहीं आता ।”
कुलश्रेष्ठ हंसा । वह तरंग में था ।
ताश खोलकर फेंटी गई ।
“छोटी गेम होगी ।” - गंगाधर बोला - “बडे़-बड़े दाव नहीं चलेंगे ।”
“ओके बाई मी ।” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
और गेम शुरु हो गया ।
उस पैग के बाद द्वारकानाथ ने अपना गिलास एक ओर रख दिया ।
“यह क्या ?” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
“मैं दिल का मरीज हूं ।” - द्वारकानाथ ने बड़ी संजीदगी से बताया - “मुझे ज्यादा ड्रिंक करने की मनाही है ।”
“ओह !”
“लेकिन तुम लोग जारी रखो । मेरी जगह कूका तुम्हारा साथ दे रहा है ।”
कुलश्रेष्ठ खामोश रहा ।
एक घण्टे बाद स्थिति यह थी कि तीन चौथाई बोतल खाली हो चुकी थी और कुलश्रेष्ठ कोई पन्द्रह सौ रुपये जीत चुका था । वह अपनी जीत से खुश था, लेकिन अगर उसे यह मालूम हो जाता कि उसको जबदस्ती जिताया जा रहा था तो शायद वह इतना खुश न होता ।
“तुम तो बड़े कांटे के खिलाड़ी हो, यार ।” - द्वारकानाथ प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “ब्लफ खेलने में बहुत उस्ताद हो ।”
“ऐसे ही है ।” - कुलश्रेष्ठ लापरवाही जताता हुआ बोला ।
“यह तुम्हारी घड़ी बहुत बढिया है ।”
“हां ।” - जीत के और शराब के नशे से दमकता हुआ कुलश्रेष्ठ बोला - “राडो की है । यहां नहीं मिलती । बाहर से मंगाई है ।”
“अच्छा ! देखें जरा ।”
कुलश्रेष्ठ ने कलाई से घड़ी उतारकर उसे सौंप दी ।
द्वारकानाथ कुछ क्षण घड़ी का मुआयना करता रहा और फिर बोला - “बढिया चीज है । कितने की है ?”
“पन्द्रह सौ की ।”
“अच्छा ! थोड़ी देर तुम्हारी घड़ी मैं लगा लूं ?”
“क्यों नहीं ? शौक से ।”
द्वारकानाथ ने अपनी घड़ी उताकर कुलश्रेष्ठ को दे दी और उसकी घड़ी खुद लगा ली ।
द्वारकानाथ की घड़ी ठीक आधा घण्टा पीछे थी । कुलश्रेष्ठ जिसे कि वक्त का कोई अन्दाजा ही नहीं था, का ध्यान इस तथ्य की ओर न गया ।
गंगाधर और कूका ने भी अपनी-अपनी घड़ियां आधा घंटा पीछे की हुई थीं ।
खेल आगे बढ़ा ।
पांच मिनट बाद द्वारकानाथ ने अपनी कलाई पर बंधी कुलश्रेष्ठ की घड़ी को भी चुपचाप आधा घण्टा पीछे कर दिया ।
फिर थोड़ी देर बाद कूका अपने स्थान से उठा और बैडरूम में दाखिल हो गया । उसने बीच का दरवाजा मजबूती से बन्द कर दिया ।
द्वारकानाथ ने घड़ी पर निगाह डाली ।
घड़ी उस वक्त ठीक ढाई बजा रही थी जब कि असली टाइम तीन का था ।
उस वक्त टेलीविजन पर रेस का सीधा टेलिकास्ट आना था जिसको कूका ने वीडियो टेप पर कैसे रिकॉर्ड करना था यह द्वारकानाथ उसे पहले ही समझा चुका था ।
पौने तीन बजे तक कुलश्रेष्ठ सात-आठ सौ रुपये और जीत गया ।
तभी गंगाधर ने अपनी घड़ी पर दृष्टिपात किया और उठ खड़ा हुआ ।
“मैं अभी आया ।” - वह बोला और बैडरूम का दरवाजा खोलकर भीतर घुस गया और अपने पीछे उसने दरवाजा बन्द कर लिया ।
भीतर टेलीविजन की स्क्रीन खाली थी ।
“तीन बजे वाली रेस खत्म हो गई ?” - गंगाधर ने टेलीविजन के पास बैठे कूका से पूछा ।
“हां ।” - कूका बोला ।
“रेस टेप कर ली तुमने ?”
“हां । बराबर ।”
“कौन-सा घोड़ा जीता ?”
“शानेहिन्द ।”
“वीडियो रिकॉर्डिंग टीवी पर चलाने के लिए तैयार है ?”
“एकदम ।”
“ठीक है । लेकिन एक बात का ख्याल रखना । वीडियो रिकॉर्डर कुलश्रेष्ठ को दिखाई न दे ।”
“तुम चिन्ता मत करो ।”
“ऐन साढे तीन बजे, यानी कि घड़ी के मुताबिक तीन बजे सैट चालू करना ।”
“ओके ।”
गंगाधर वहां से बाहर निकल आया ।
पत्ते द्वारकानाथ ने बांटने थे । पत्ते बांटने के स्थान पर उसने घड़ी पर दृष्टिपात किया और तनिक घबराकर बोला - “अरे ! पौने तीन बजे पड़े है । मैं तो भूल ही गया था ।”
वह उठ खड़ा हुआ ।
कुलश्रेष्ठ ने घड़ी पर निगाह डाली और तनिक उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “अभी पौने तीन ही बजे हैं । घड़ी ठीक है तुम्हारी ? मेरे ख्याल से तो ज्यादा वक्त हुआ होना चहिये ।”
“मेरी घड़ी एकदम ठीक है ।” - द्वारकानाथ बोला । फिर उसने अपनी कलाई कुलश्रेष्ठ के सामने रख दी - “यह देखो । तुम्हारी घड़ी में भी पौने तीन ही बजे हैं ।”
“ओह ।”
गंगाधर कोने के टेलीफोन की तरफ बढा ।
“गंगाधर” - द्वारकानाथ तीखे स्वर में बोला - “यहां से नहीं । नीचे लॉबी में चले जाओ ।”
“क्यों ?” - गंगाधर के माथे पर बल पड़ गये ।
द्वारकानाथ ने मुंह से उत्तर नहीं दिया लेकिन उसने एक अर्थपूर्ण निगाह कुलश्रेष्ठ की तरफ डाली ।
“अरे, यह अपना ही आदमी है ।” - गंगाधर उसकी निगाह का मतलब समझकर बोला ।
“अरे कहा न नीचे जाकर फोन करो ।”
“हद करते हो, द्वारका !” - गंगाधर चिढकर बोला - “तुम मुझे कुलश्रेष्ठ जैसे भलेमानस और ईमानदार आदमी से परहेज करने की राय दे रहे हो । क्या इतनी जल्दी भूल गये कि अभी यह तुम्हारा बीस हजार रुपयों से भरा हुआ बटुआ लौटाकर हटा है ।”
“तुम्हीं नहीं चाहते थे कि यह बात हर कोई जाने ।”
“मैं नहीं चाहता कि यह बात हर कोई जाने । लेकिन कुलश्रेष्ठ हर कोई नहीं हैं । कृष्णकान्त का दोस्त है और अब यह हमारा भी दोस्त है ।”
“ठीक है ।” - द्वारकानाथ झुंझलाया - “जो जी में आये करो ।”
“किस्सा क्या है ?” - कुलश्रेष्ठ उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“कुछ नहीं, यार ।” - गंगाधर बोला - “अब तुमसे क्या छुपाना ? दरअसल हम लोग रेस खेलते हैं । द्वारका नहीं चाहता कि हमारे ऐब की खबर तुम्हें लगे ।”
“ओह !” - कुलश्रेष्ठ बोला - “तो मैं उठकर चला जाता हूं ।”
उसने उठने का उपक्रम किया, लेकिन द्वारकानाथ ने उसकी बांह थामकर उसे जबरन वापस बिठा दिया और बोला - “हमें गलत मत समझो, दोस्त !”
कुलश्रेष्ठ खामोश रहा ।
गंगाधर ने फोन के पास जाकर रिसीवर उठाया । उसने ऑपरेटर से डायरेक्ट लाइन मांगी और फिर एक उल्टा-सीधा नम्बर डायल कर दिया । तुरन्त उसे बिजी टोन सुनाई देने लगी लेकिन वह यूं रिसीवर कान से लगाये खड़ा रहा जैसे सम्बन्ध स्थापित होने की प्रतीक्षा कर रहा हो ।
“तुमने कभी रेस खेली है, कुलश्रेष्ठ ?” - उसने पूछा ।
“दो-तीन बार खेली है ।” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
“नतीजा क्या रहा ? जीते या हारे ?”
“हारा । हर बार हारा । दरअसल मुझे घोड़ों की समझ नहीं ।”
“हमें है । आज हम जितवाते हैं तुम्हें ।”
“मतलब ?”
गंगाधर ने उसे उत्तर नहीं दिया । तभी उसने यूं जाहिर किया जैसे टेलीफोन कॉल लग गई हो ।
“अब्राहम ?” - गंगाधर माउथपीस में बोला - “मैं गंगाधर बोल रहा हूं ।... देख लो, मैंने ऐन वक्त पर फोन किया है । अभी तीन बजे की रेस पर दांव लगाने का वक्त है... शानेहिन्द पर मेरे बीस हजार रुपये लगा दो ।... विन पर भाई ।... और हां” - गंगाधर एक उड़ती-सी निगाह कुलश्रेष्ठ पर डालता हुआ बोला - “एक छोटा-सा, सिर्फ दो हजार रुपये का, दांव मेरे एक दोस्त की तरफ से भी लगा दो... हां-हां, भई, शानेहिन्द पर ही... राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ के नाम से ।”
कुलश्रेष्ठ ने विरोध करने के इरादे से मुंह खोला लेकिन द्वारकानाथ ने उसका हाथ दबाकर उसे चुप रहने का संकेत दिया । गंगाधर ने फोन रख दिया और वापस आया ।
“तुमने मेरी ओर से इतना मोटा दांव क्यों लगा दिया ?” - कुलश्रेष्ठ तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला ।
“घबराओ नहीं, मामूली दांव है ।” - गंगाधर आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला - “एक पर आठ का दांव है । समझ लो तुमने सोलह हजार रुपये कमा लिए ।”
“लेकिन अगर घोड़ा हार गया तो ?”
“नहीं हारेगा । वह घोड़ा हार सकता ही नहीं है ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“बस, है मालूम ।”
“फिर भी...”
“अरे, हाथ कंगन को आरसी क्या । तुम अभी खुद देख लेना ।”
“फिर भी तुम ऐसा दावा कैसे कर सकते हो कि वही घोड़ा जीतेगा ?”
“हम कर सकते हैं दावा ।”
“तुम कुछ बता नहीं रहे हो ।”
“सुनो ।” - द्वारकानाथ बोला - “बड़ी हद यही होगा न कि घोड़ा नहीं जीतेगा । उस सूरत में तुम्हारे दो हजार रुपये मैं दूंगा । तुम उन दो हजार रुपयों को मेरा बटुवा लौटाने का इनाम समझ लेना ।”
“मैं उस काम के लिए कोई इनाम नहीं चाहता । वह मेरा फर्ज था ।”
“ठीक है । ठीक है । पहले रेस का फैसला देख लो । फिर अपना कोई फैसला करना ।”
“टाइम क्या हआ है ?”
“तीन बजने में अभी दो मिनट बाकी हैं ।”
“तीन बजे रेस टेलीविजन पर आयेगी । बैडरूम में टेलीविजन है । आओ देखें ।”
तीनों अपना-अपना विस्की का गिलास सम्भाले उठे और बीच के दरवाजे की तरफ बढे ।
“कूका” - गंगाधर ने आवाज लगाई - “टेलीविजन चालू कर दो ।”
“अच्छा ।” - कूका बोला ।
तीनों बैडरूम में पहुंचे और टेलीविजन के सामने बैठ गये । टेलीविजन चालू था ।
रेस किसी भी क्षण आरम्भ होने वाली थी ।
“यह अब्राहम कौन है ?” - कुलश्रेष्ठ ने पूछा ।
“बुकी है ।” - गंगाधर बोला ।
“तुमने टेलीफोन पर उसे दांव बता दिया । अगर तुम्हारा घोड़ा जीत जाये लेकिन वह तुम्हें पैसे न दे तो ?”
“ऐसा नहीं होता । बुकी का काम हमेशा विश्वास पर चलता है । ऐसा आज तक नहीं हुआ कि कोई दांव जीता हो और बुकी ने उसे पैसा न दिया हो ।”
“लेकिन दांव हार जाने की सूरत में अगर तुम उसे पैसे न दो तो ?”
“यह कैसे हो सकता है ?”
“क्यों नहीं हो सकता ? मान लो तुम मुकर जाते हो तो...”
“तो वहा अपना रुपया वसूल करने के लिए मेरा गला तक काटने से नहीं हिचकेगा ।”
कुलश्रेष्ठ के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई ।
“रेस खेलने वाला हर कोई जानता है कि बुकी को धोखा देने की कोशिश करना मौत को दावत देने जैसा होता है ।”
“ओह !”
“और फिर बुकी हर ऐेरे-गैरे का दांव तो कबूल भी नहीं करता । वह उन्हीं के दांव कबूल करता है, जिन्हें वह जाती तौर पर जानता होता है । अब्राहम हमें जानता है ।”
“आई सी ।”
तभी रेस शुरु हो गई ।
वीडियो टेप बड़ी खूबसूरती से चल रहा था । कोई यह नहीं कह सकता था कि स्क्रीन पर लाइव टेलीकास्ट नहीं आ रहा था ।
स्क्रीन पर बिजली की रफ्तार से दौड़ते घोड़े दिखाई देने लगे । साथ में रनिंग कमेण्ट्री भी आने लगी ।
“हमारा घोड़ा कौन-सा है ?” - द्वारकानाथ ने व्यग्र भाव से पूछा ।
“पांच नम्बर ।” - गंगाधर ने बताया ।
कुलश्रेष्ठ अपलक स्क्रीन पर देख रहा था ।
“तुम अपना विस्की का गिलास भूल गये मालूम होते हो !” - गंगाधर बोला ।
“ओह !” - कुलश्रेष्ठ बोला । उसने एक ही सांस में गिलास खाली किया और उसे नीचे फर्श पर रख दिया - “तुम्हें पूरा विश्वास है कि पांच नम्बर का घोड़ा जीतेगा ?”
“विश्वास ? मेरी गारन्टी है ।”
“तो फिर तुमने बीस हजार का ही दांव क्यों लगाया ? इससे बड़ा दांव क्यों नहीं लगाया ?”
“क्योंकि इससे बड़ा दांव अब्राहम टेलीफोन पर कबूल नहीं करता । इससे बड़े दांव के लिए उसके पास नगद पैसा भिजवाना पड़ता है ।”
“हूं ।”
रेस खत्म हुई । रेस में पांच नम्बर का घोड़ा शानेहिन्द जीता ।
गंगाधर ने आगे बढकर टेलीविजन का स्विच ऑफ कर दिया और एक विजेता के स्वर में बोला - “देखा !”
कुलश्रेष्ठ मन्त्रमुग्ध-सा खामोश बैठा था ।
“द्वारका इसी बात पर नयी बोतल खुल जाये ?”
“खुल जाये ।”
नयी बोतल खोली गई ।
‘शानेहिन्द’ की कामयाबी के उपलक्ष में जाम पिये गए ।
“आज का दिन तो तुम्हारे लिए बड़ा अच्छा रहा, कुलश्रेष्ठ” - गंगाधर बोला - “फ्लैश में खूब जीते हो तुम । अब ऊपर से तुम्हारा घोड़ा भी आ गया ।”
“सब आप लोगों की मेहरबानी है ।” - कुलश्रेष्ठ कृतज्ञ स्वर में बोला - “आप लोग मुझसे न टकराये होते तो कुछ भी न होता ।”
“फिर मेरा नुकसान हो जाता ।” - द्वारकानाथ बोला - “फिर बटुवा किसी और के हाथ लगता और वह मुझे लौटाता नहीं ।”
“फिर भी मेहरबानी आप ही लोगों की है ।”
“अरे, हमारी काहे की मेहरबानी !”
“हम तो यारों के यार हैं ।” - गंगाधर बोला ।
“अगर ऐसी बात है तो, यार, बताते क्यों नहीं हो कि तुम्हें कैसे गारण्टी थी कि शानेहिंद ही जीतेगा ।”
“बता दें ?” - गंगाधर द्वारकानाथ से बोला ।
द्वारकानाथ ने लापरवाही से कन्धे झटकाये ।
“दरअसल” - गंगाधर रहस्यपूर्ण स्वर में बोला - “यह रेस हमने फिक्स करवाई हुई थी ।”
“फिक्स करवाई हुई थी ?” - कुलश्रेष्ठ उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “क्या मतलब ?”
“हमने कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर एक-दो जॉकियों को रिश्वत दी हुई थी और ऐसा इन्तजाम पहले से ही किया हुआ था कि शानेहिन्द ही जीते ।”
“कमाल है ।”
“ऐसे कमाल हम आम करते हैं । दरअसल आगरे से जयपुर हम आते ही इसलिये हैं ।”
“ओह ! लेकिन... लेकिन...”
“हां-हां, बोलो ।”
“कुछ नहीं । यूं ही मन में एक ख्याल आया था ।”
“कैसा ख्याल ?”
“रेस तो कल भी है । क्या कल की भी कोई रेस आपने फिक्स की हुई है ?”
“हां । कल भी तीन बजे की रेस हमारी फिक्स की हुई है ।”
“कल कौन-सा घोड़ा जीतेगा ?”
“यह तो कल रेस से थोड़ी देर पहले ही पता लगेगा ।”
“ओह !”
“लेकिन तुम कल दिन में हमारे पास आ जाना । हम तुम्हारा दांव लगवा देंगे ।”
“आ जाऊं ?” - वह व्यग्र स्वर में बोला ।
“क्यों नहीं ? जरूर आ जाना ।”
“थैंक्यू ।”
गंगाधर, द्वारका और कूका की निगाहें आपस में मिलीं । तीनों के चेहरों पर परम सन्तुष्टि के भाव थे ।
मछली चारा निगल गई थी ।
उसके बाद कूका को जीत के एक लाख छिहत्तर हजार रुपये लेने के लिए अब्राहम के पास भेज दिया गया । कूका ब्रीफकेस साथ लेकर कमरे से निकला और बार में आ बैठा । उस ब्रीफकेस में सौ-सौ के नोटों की सूरत में बीस हजार रुपये पहले से ही मौजूद थे ।
पीछे गंगाधर, द्वारकानाथ और कुलश्रेष्ठ ने फ्लैश खेलनी आरम्भ कर दी ।
उस सैशन के दौरान द्वारकानाथ और गंगाधर ने अपनी-अपनी कलाई पर बंधी घड़ियों को आधा-आधा घंटा आगे सरका दिया ।
फिर थोड़ी देर बाद द्वारकानाथ ने कुलश्रेष्ठ की घड़ी से अपनी घड़ी बदल ली । कुलश्रेष्ठ तब काफी नशे में था । उसने द्वारकानाथ की घड़ी लौटाते समय यह नहीं देखा कि उसमें टाइम क्या हुआ था ।
उस बार उन्होंने कुलश्रेष्ठ को और न जीतने दिया ।
आधे घंटे बाद कूका ब्रीफकेस के साथ वापस लौटा । उसने ब्रीफकेस गंगाधर को सौंप दिया ।
गंगाधर ने भीतर मौजूद सौ-सौ की गड्डियां निकालीं और उसमें से एक सौ साठ नोट अलग करके कुलश्रेष्ठ को सौंप दिए ।
“बधाई ।” - द्वारकानाथ बोला ।
कुलश्रेष्ठ का चेहरा खुशी से तमतमा रहा था ।
फिर खेल बन्द कर दिया गया ।
कुलश्रेष्ठ अपनी जेब में जीत के अट्ठारह हजार रुपये लिये हवाओं पर कदम रखता हुआ वहां से विदा हो गया ।
“यह लौटकर आयेगा ?” - उसके जाते ही कूका व्यग्र स्वर में बोला ।
“जरूर आएगा ।” - द्वारकानाथ विश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“साला पांच सौ रुपये की विस्की पी गया है और अट्ठारह हजार रुपये साथ ले गया है । अगर न आया तो...”
“मेरा दावा है, वह जरूर आएगा । मैं आदमी की जात पहचानता हूं । न पहचानता होता तो क्या मैं अपने बटुवे का रिस्क लेता ? अब तो उसके हाथ अट्ठारह हजार रुपये लगे हैं, बटुवे में बीस हजार रुपये थे । अगर वह बटुवा ही लेकर चलता बना होता तो ?”
“देख लो । माल तुम्हारा है । स्कीम तुम्हारी है । अगर वह न आया तो सब गुड़-गोबर हो जाएगा । फिर तो वही मसल हो जायेगी कि चौबे गये थे छब्बे बनने, दूबे बन के आ गए ।”
“तुम देखना तो सही ।”
“वह फ्लैश वाकई अच्छी खेलता है ।” - गंगाधर तनिक चिन्ता-भरे स्वर में बोला ।
“फिर क्या हुआ ?”
“अगर कल तुम्हारा पत्ता न चला ? अगर कल तुम उससे माल वापस न जीत पाये ?”
“क्यों नहीं चलेगा पत्ता ? तुमने क्या मुझे बच्चा समझ रखा है । आज नहीं चला पत्ता ? आज वह क्या अपने बूते पर जीता है ? आज भी तो जीतने वाले पत्ते उसे मैं बांट रहा था ।”
“फिर भी...”
“यह देखो ।” - द्वारकानाथ ने ताश उठाई । उसने ताश को एक बार फेंटा और उसे गंगाधर के सामने कर दिया - “सबसे ऊपर का पत्ता देखो ।”
गंगाधर ने सबसे ऊपरवाला पत्ता उठाया । वह ईंट का बादशाह था ।
“वापस रखो ।”
गंगाधर ने पत्ता ताश के ऊपर वापस रखा दिया ।
“अब मैं पत्ते बांटने लगा हूं ।” - द्वारकानाथ बोला - “गौर से देखना ।”
गंगाधर की निगाह द्वारकानाथ के ताश थामे हाथ पर टिक गई ।
द्वारकानाथ ने पहला पत्ता गंगाधर को दिया, दूसरा खुद लिया, तीसरा गंगाधर को दिया, चौथा खुद लिया, पांचवां गंगाधर को दिया, छठा खुद लिया ।
“अब देखो तुम्हारे पत्तों में ईंट का बादशाह है ?” - द्वारकानाथ बोला ।
“क्यों नहीं होगा ?” - गंगाधर हैरानी से बोला - “अभी मेरे सामने तो तुमने मुझे ईंट का बादशाह दिया है ।”
“जरा देखो तो सही ।”
गंगाधर ने अपने पत्ते सीधे किये । उनमें ईंट का बादशाह नहीं था ।
वह भौंचक्का-सा द्वारकानाथ का मुंह देखने लगा ।
“ईंट का बादशाह कहां गया ?” - वह हैरानी से बोला ।
“मेरे पास है ।” - द्वारकानाथ बोला । उसने अपने तीन पत्तों में से एक पत्ता उठाकर सीधा किया । वह ईंट का बादशाह था ।
“लेकिन यह तो सबसे ऊपर था और पहला पत्ता तुमने मुझे दिया था । यह तुम्हारे पास कैसे पहुंच गया ?”
“तुम्हें लगा था कि सबसे ऊपरला पत्ता मैंने तुम्हें दिया था लेकिन असल में मैंने उससे अलग पत्ता तुम्हें दिया था ।”
“कमाल है !”
“यह कमाल नहीं हाथ की सफाई है जो तजुर्बे से आती है । ताश मेरे हाथ में हों तो मैं उसे ऊपर से, बीच में से, नीचे से, कहीं से भी बांट सकता हूं, लेकिन देखने वाले को खबर नहीं हो सकती । यह देखो ।” - द्वारकानाथ ने ताश की गड्डी को एक विशेष ढंग से पकड़ा - “अगर कोई खिलाड़ी तुम्हें ताश को यूं पकड़ता दिखाई दे तो उसके साथ भूल के भी फ्लैश मत खेलना । वह तुम्हारे कपड़े उतरवा लेगा । ताश को ऐसे वही लोग पकड़ते हैं जो गड्डी में से कहीं से भी पत्ता बांट देने में उस्ताद होते हैं ।
“तौबा !” - गगाधार बोला - “कल खैर नहीं उस कुलश्रेष्ठ के घोड़े की ।”
“अगर वह आ गया तो ।” - कूका बोला ।
“वह जरूर आएगा ।” - द्वारकानाथ पूरे विश्वास के साथ बोल ।
***
राजेन्द्र कुलश्रेष्ठ जरूर आया ।
वह वक्त से पहले आया और व्यग्रता की प्रतिमूर्ति बना आया ।
“घोड़े का पता लगा ?” - उसने आते ही पूछा ।
“एक बजे के करीब पता लगेगा ।” - गंगाधर बोला ।
“लेकिन लगेगा तो ?”
“जरूर लगेगा । आज रेस के इस सीजन का आखिरी दिन है । आज तो हमने मोटा माल जीतना है ।”
“हूं ।”
“तब तक फ्लैश हो जाये ?”
“हो जाये ।”
“आज तो मोटा माल लाये होगे ?”
“ठीक है ।”
“रेस में कितना बड़ा दांव लगाने का इरादा है ?”
“यही कोई बीस-पच्चीस हजार का ।”
“यानी कि आज यहां से लखपति बनकर जाओेगे ।”
कुलश्रेष्ठ हंसा ।
फ्लैश की बैठक फिर जम गई ।
साथ में विस्की और कबाब भी चले ।
शुरुआत में तो कुलश्रेष्ठ पिछले रोज की तरह फिर जीता लेकिन फिर थोड़ी ही देर बाद पता नहीं क्या होना शुरु हो गया कि उसक पत्ते पिटने लगे । और तो और उसकी गुलामों की ट्रेल तक द्वारकानाथ के बादशाहों से पिट गई । उस दौरान कुलश्रेष्ठ काफी हाथ जीता भी लेकिन जो हाथ वह जीता वे मामूली थे लेकिन जो हाथ वह हारा उनमें बहुत मोटी-मोटी चालें चली गई थी ।
दोपहर तक उसके पिछले रोज की जीत के अट्ठारह हजार रुपये निकल गये । तब द्वारकानाथ ने खेल बन्द कर देने का सुझाव भी पेश किया लेकिन कुलश्रेष्ठ ने वह सुझाव स्वीकार नहीं किया । उसके कथनानुसार उसके पास अभी बहुत पैसा था ।
पौने एक बजे तक कुलश्रेष्ठ कोई छ: हजार रुपये और हार गया ।
गंगाधर ने अन्दाजा लगाया कि अब उसके पास मुश्किल से एक हजार रुपये और बाकी थे ।
तभी कूका चुपचाप वहां से बाहर खिसक गया । उसने लॉबी में जाकर कमरे में फोन किया ।
फोन गंगाधर ने उठाया ।
“हां, वर्मा जी ।” - गंगाधर फोन में बोला - “मैं गंगाधर बोल रहा हूं । क्या खबर है तीन बजे की रेस की ?... कौन-सा घोड़ा जिता रहे हो ?... कौन-सा ?... ‘आंख का नशा’ ? अच्छा ।... क्या ?... पचास हजार से ज्यादा का दांव न लगायें ? ...लेकिन क्यों ? ...लोगों को शक हो जायेगा ? ...लेकिन यह आखिरी रेस है । हमने तो बड़े लम्बे-चौड़े प्रोग्राम बनाये हुए थे । ...अच्छा ! ...खैर, देखेंगे ।”
उसने रिसीवर रख दिया ।
“यह आंख का नशा तो” - कुलश्रेष्ठ व्यग्र स्वर में बोला - “एक पर पन्द्रह दे रहा है न ?”
“तुम्हें कैसे मालूम ?” - गंगाधर हैरानी से बोला ।
“आज सुबह” - वह यूं दबे स्वर में बोला जैसे कोई अपराध कर रहा हो - “यहां आने से पहले मैं रेसकोर्स गया था ।”
“ओह ! तुम तो बड़े होशियार हो गये हो, कुलश्रेष्ठ !”
वह खामोश रहा ।
कूका तब तक चुपचाप वापस लौट आया था ।
“यह वर्मा पाबन्दी कैसी लगा रहा था ?” - द्वारकानाथ ने पूछा ।
“कह रहा था कि पचास हजार से ज्यादा का दांव न लगायें क्योंकि किसी को यह शक हो जाने पर कि रेस फिक्स की हुई थी, रेस कैंसिल हो सकती थी ।”
“ओह !”
“लेकिन हम तीनों अलग-अलग तीन दांव लगा सकते हैं । मैं पचास लगा देता हूं । तुम तीस लगा दो । कूका बीस लगा देता है । इस प्रकार लाख का दांव हो जायेगा ।”
“और कुलश्रेष्ठ ।” - द्वारकानाथ बोला ।
“अरे ! इसे तो मैं भूल ही गया था ।” - गंगाधर कुलश्रेष्ठ की तरफ घूमा - “तुम क्या लगाना चाहते हो ?”
“प... पच्चीस हजार ।” - कुलश्रेष्ठ थूक निगलकर बोला ।
“निकालो ।”
“ल... लेकिन पैसे तो सारे मैं फ्लैश में हार गया ।”
“फिर तो मुश्किल है । मैंने तुम्हें कल ही बताया था कि अब्राहम बड़े दांव नकद मांगता है ।”
“क्या... क्या आपमें से कोई जना मुझे प... पच्चीस हजार रुपये उधार नहीं दे सकता ?”
“सॉरी, दोस्त । जुए में उधार नहीं ।”
“कल भी तो आपने मेरी तरफ से दो हजार रुपये लगाये थे ।”
“वह उधार नहीं था । वह दांव तो मैंने तुम्हारे लिए इनाम के तौर पर अपनी तरफ से लगाया था ।”
कुलश्रेष्ठ खामोश रहा ।
“जाने दो । फिर कभी सही ।” - द्वारकानाथ बोला - “अगले सीजन में हम फिर तुम्हें जीतने वाला घोड़ा बता देंगे ।”
कुलश्रेष्ठ ने थूक निगली ।
“कूका” - द्वारकानाथ बोला - “फौरन अब्राहम के पास एक लाख रुपया लेकर जाओ और जिस तरह अभी गंगाधर ने कहा है, उस तरह उस पर तीन दांव लगाकर आओ ।”
“अच्छा ।” - कूका बोला और बैडरूम में चला गया ।
“दांव कब तक लगाया जा सकता है ?” - कुलश्रेष्ठ ने परेशान भाव से पूछा ।
“रेस शुरु होने से पहले अब्राहम के पास या रेसकोर्स में विण्डो पर पैसा पहुंचाना होता है ।”
कुलश्रेष्ठ ने यन्त्रचलित ढंग से घड़ी देखी । फिर एकाएक वह उठ खड़ा हुआ ।
“मैं अभी आता हूं ।” - वह बोला ।
“कहां जा रहे हो ?” - द्वारकानाथ बोला ।
“पैसे का इन्तजाम करने ।”
“फिर तो वक्त रहते आ जाना ।”
“मैं आ जाऊंगा ।”
“ओके ।”
वह बगोले की तरह वहां से निकल गया ।
तभी कूका बैडरूम से बाहर निकल आया ।
“गया ?” - उसने पूछा ।
“हां ।” - द्वारकानाथ बोला ।
“पैसे लेने ?”
“हां ।”
“कहां से लायेगा ?”
“भगवान जाने ।”
“लेकिन लायेगा जरूर ?”
“जरूर ।”
“मुझे तो बेचारे पर तरस आ रहा है ।”
“मुझे भी ।” - गंगाधर बोला ।
द्वारकानाथ ने जोर अट्टहास किया ।
“तो फिर ऐसा करो” - वह बोला - “दौड़कर उसके पीछे जाओ और उसे समझा आओ कि उसे बेवकूफ बनाया जा रहा है ।”
दोनों खामोश रहे ।
“अभी कितना माल हारकर गया है वो ?” - थोड़ी देर बाद गंगाधर ने पूछा ।
“चौबीस हजार ।” - द्वारकानाथ ने बताया ।
“यानी कि छ: हजार रुपये उसकी गिरह से भी निकले हैं ?”
“हां ।”
“इतनी जल्दी पैसे का इन्तजाम कैसे कर लेगा वह ?” - कूका बोला ।
“कुछ तो वह करेगा ही” - द्वारकानाथ बोला - “लेकिन मुझसे लिखवा लो । वह तीन बजे से बहुत पहले यहां आयेगा और काफी माल लेकर आयेगा । उसके मुंह को कल का लहू जो लगा हुआ है । वह एक के पन्द्रह बनाने का ऐसा सिक्केबन्द मौका नहीं छोड़ने वाला ।”
“हां ।” - गंगाधर बोला - “जीत की तो उसे गारण्टी है । उसकी निगाह में तो उसे सिर्फ कुछ घण्टों के लिए एक मोटी रकम चाहिए ।”
“ठीक ।” - द्वारकानाथ बोला ।
तीनों पत्तों से जी बहलाते रहे और कुलश्रेष्ठ के आगमन की प्रतीक्षा करते रहे ।
सवा दो बजे के करीब कुलश्रेष्ठ वापस वहां पहुंच गया ।
“काम बन गया ?” - द्वारका ने पूछा ।
“हां ।” - वह बोला । उसका चेहरा बेहद गम्भीर था । फिर एकाएक वह गंगाधर की तरफ घूमा और बड़े कठिन स्वर में बोला - “यह घोड़ा - आंख का नशा - जीत तो जायेगा न ?”
“क्यों नहीं जीतेगा ?” - गंगाधर बोला - “क्या कल शानेहिन्द नहीं जीता था ?”
“और फिर यह क्यों भूलते हो” - द्वारकानाथ बोला - “कि जिस आदमी ने यह रेस फिक्स करवाई है, हमें उसी से टिप मिली है ।”
“और फिर क्या हमने ‘आंख का नशा’ पर एक लाख रुपया नहीं लगाया ?” - कूका बोला - “हम क्या पागल हैं जो यूं इतनी बड़ी रकम किसी हारने वाले घोड़े पर लगा देंगे ?”
“आंख का नशा शर्तिया जीतेगा” - गंगाधर निश्चयात्मक स्वर में बोला - “लेकिन अगर तुम्हारे मन में कोई वहम है तो तुम दांव मत लगाओ ।”
“नहीं, यह बात नहीं ।” - वह हड़बड़ाकर बोला - “मेरे मन में कोई वहम नहीं । अगर आप लोगों को तसल्ली है तो मुझे भी तसल्ली है ।”
“फिर ठीक है ।”
“आप लोगों ने अपने दांव लगा दिये ?”
“हां । कूका एक लाख रुपया अब्राहम के पास जमा कराकर तुम्हारे आगे-आगे ही लौटा है ।”
“मैं पच्चीस हजार लगाना चाहता हूं ।”
“रुपया लाये हो ?”
“हां ।”
“ठीक है । कूका तुम्हारे साथ चला जाता है ।”
“ओके ।”
“कूका, कुलश्रेष्ठ को साथ ले जाओ । और जल्दी वापस लौटना । फिर टेलीविजन पर हम अपना घोड़ा जीतता देखेंगे ।”
“चलो ।” - कूका बोला ।
कुलश्रेष्ठ कूका के साथ कमरे से बाहर निकल गया ।
“एक बात है” - उनके जाते ही गंगाधर बोला - “अगर आंख का नशा जीत गया तो ?”
“नामुमकिन ।” - द्वारकानाथ बोला - “वह घोड़ा हरगिज नहीं जीत सकता । तभी तो उस पर एक पर पन्द्रह का दांव है ।”
“फिर भी...”
“वह घोड़ा एक ही सूरत में जीत सकता है कि रेस के दौरान बाकी सारे घोड़ों पर बिजली आन गिरे और वे मर जायें ।”
“इसके पच्चीस हजार रुपये बचाने की कोई तरकीब नहीं हो सकती थी ? कोई ऐसी तरकीब जिससे सांप भी मर जाता और लाठी भी न टूटती ?”
“ऐसी कोई तरकीब नहीं हो सकती । वह आदमी लालची है लेकिन मूर्ख नहीं । आज वह रेसकोर्स का चक्कर नहीं लगाकर आया ?”
“हां ।”
“और उसने अब्राहम के बारे में भी जरूर पूछताछ की होगी । वह इस बात की खूब जांच-पड़ताल करके ही यहां आया होगा कि अब्राहम नाम का बुकी वाकई जयपुर में है । और तुमने देखा नहीं कि उसने पैसा हमें दिखाया तक नहीं । उसने यह नहीं कहा कि जैसे कूका हमारे दांव लगाकर आया था वैसे ही वह उसका दांव लगा आये । अब्राहम के पास पहुंचकर भी वह खुद उसे पैसा सौंपेगा ।”
“यानी कि उसकी यह रकम डूबनी लाजमी है ।”
“सरासर ।”
वे खामोशी से प्रतीक्षा करने लगे ।
रेस के समय से केवल पांच मिनट पहले कूका और कुलश्रेष्ठ वापस लौटे ।
वे चारों बैडरूम में आ गये ।
कूका ने टेलीविजन चला दिया ।
“अब देखो” - द्वारकानाथ बोला - “कितनी जल्दी तुम पौने चार लाख रुपये के मालिक बनते हो ।”
“और आप लोग पन्द्रह लाख रुपये के ।” - कुलश्रेष्ठ हंसता हुआ बोला ।
उसकी हंसी बहुत फीकी थी । लगता था कि वह भीतर से बहुत सस्पेंस में था ।
“आंख का नशा के लिये एक-एक जाम हो जाये ।” - गंगाधर बोला ।
“हो जाये ।” - कुलश्रेष्ठ बोला ।
कूका चार पैग तैयार कर लाया ।
चारों ने चियर्स बोला और अपने-अपने गिलास थामे टेलीविजन को देखने लगे ।
रेस शुरु हुई ।
द्वारकानाथ ने देखा कि कुलश्रेष्ठ के जबड़े कसे हुए थे और वह अपलक स्क्रीन की तरफ देख रहा था ।
“हमारा घोड़ा कहां है ?” - एकाएक गंगाधर बोला ।
“वह चौथे नम्बर पर है ।” - कुलश्रेष्ठ बोला । वह एक क्षण ठिठका और फिर कांपती आवाज में बोला - “अब पांचवें - नहीं छठे नम्बर पर है ।”
“यह हरामजादा जॉकी” - द्वारकानाथ चिल्लाया - “हमें धोखा तो नहीं दे रहा ?”
उसने देखा कुलश्रेष्ठ की आंखें आतंक से फटी पड़ रही थीं ।
और एक मिनट बाद रेस खत्म हो गई ।
आंख का नशा का दूर-दूर तक कहीं पता नहीं था ।
“हरामजादा ! कुत्ते का पिल्ला । धोखेबाज !” - गंगाधर कहरभरे स्वर में बोला । अपने हाथ में थमा विस्की का गिलास उसने एकाएक सामने दीवार पर दे मारा - “मैं साले का खून कर दूंगा ।”
कूका ने टेलीविजन ऑफ कर दिया ।
“ताव मत खाओ ।” - द्वारकानाथ बोला - “यह एक लाख रुपया खोकर भी हम घाटे में नहीं हैं ।”
“लेकिन उस जॉकी के बच्चे ने...”
“उसने ऐसा किया है तो उसकी जरूर कोई वजह होगी । हम मालूम करेंगे । फिलहाल ताव खाने से कोई फायदा नहीं होने वाला ।”
गंगाधर खामोश हो गया ।
“चलो, फ्लैश शुरु करें ।”
दोनों अपने स्थान से उठे ।
द्वारकानाथ ने कुलश्रेष्ठ की तरफ देखा । वह पत्थर की प्रतिमा बना बैठा था ।
“अरे क्या बात हो गई ?” - द्वारकानाथ बोला - “तुम्हारी सूरत से तो ऐसा लग रहा है जैसे तुमने भूत देख लिया हो ।”
कुलश्रेष्ठ मुंह से कुछ न बोला । लेकिन उसकी आंखों से आंसुओं की दो मोटी-मोटी बूंदें निकलकर उसके गालों पर बह निकलीं ।
“अरे ! तुम तो औरतों की तरह रोने लगे ।” - द्वारकानाथ वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला ।
“हार का गम कर रहे हो, यार !” - गंगाधर बोला - “मेरे भाई, जिन्दगी में हार-जीत तो चलती ही रहती है ।”
“कुलश्रेष्ठ !” - द्वारकानाथ सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोला - “अरे, तुम तो पैसे वाले आदमी हो । पच्चीस हजार रुपये की हार से कौन-सी तुम्हारी दुनिया खत्म हुई जा रही है ।”
कुलश्रेष्ठ के होंठ फड़फड़ाये । फिर बड़ी मुश्किल से उसके मुंह से आवाज निकली - “वह... वह रुपया... म... मेरा नहीं था ।”
“तो फिर किसका था ?” - द्वारकानाथ प्रत्यक्षत: हैरानी से बोला ।
“वह रुपया मैंने अपनी बीवी के जेवर गिरवी रख के वक्ती तौर पर हासिल किया था । मेरी बीवी को अभी तक पता भी नहीं है कि मैंने उसके जेवर किसी के पास गिरवी रख दिये हैं । मैंने तो सोचा था कि शाम तक मैं जेवर छुड़ा लूंगा और चुपचाप वापस भी रख आऊंगा लेकिन अब... अब...”
“च-च-च ।” - द्वारकानाथ बोला - “यह तो बहुत बुरा हुआ ।”
“भाई साहब” - वह कातर स्वर में बोला - “मेरे लिये तो डूब मरने का मुकाम हो गया । जब यह बात खुलेगी तो मेरी बीवी क्या कहेगी ? मेरे ससुराल वाले क्या कहेंगे ?”
“तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था ।” - गंगाधर बोला ।
“लेकिन आप लोगों ने गारण्टी की थी कि आंख का नशा जरूर जीतने वाला था ।”
“अब यह तो हमारी भी समझ में नहीं आ रहा कि वह घोड़ा क्यों नहीं जीता ! हम खुद परेशान हैं ।”
“और हमारा तो तुमसे चौगुना रुपया डूबा है ।” - द्वारकानाथ बोला ।
“आप की बात और है । आप वह रुपया खोना अफोर्ड कर सकते थे लेकिन मैं तो बरबाद हो गया ।”
उसकी आंखों से फिर आंसू बह निकले ।
“हौसला रखो, कुलश्रेष्ठ ।” - गंगाधर उसका कन्धा थपथपाता हुआ बोला ।
लेकिन कुलश्रेष्ठ हौसला न रख पाया ।
“तुम एक समझदार, पढे-लिखे, बालिग आदमी हो । यूं हिम्मत हार देना क्या तुम्हें शोभा देता है ?”
“आप मेरी समस्या नहीं समझते, भाई साहब ! आप मेरी बीवी को नहीं जानते । आप मेरे ससुराल वालों को नहीं जानते ।”
“हर समस्या का कोई हल होता है ।” - द्वारकानाथ गम्भीर स्वर में बोला ।
“मेरी समस्या का तो यही हल है कि मैं आत्महत्या कर लूं ।”
“पागल मत बनो । रोना-धोना बन्द करो और गम्भीरता से मेरी बात सुनो ।”
कुलश्रेष्ठ ने आंसू पोंछे । उसने आशापूर्ण नेत्रों से द्वारकानाथ की तरफ देखा ।
“इसे ड्रिंक दो ।”
कूका ने एक नया जाम तैयार करके उसे थमा दिया ।
“पियो ।” - द्वारकानाथ ने आदेश दिया ।
कुलश्रेष्ठ ने बड़ी कठिनाई से एक घूंट अपने हलक से उतारा ।
“तुम वाकई अपने-आपको बहुत मुसीबत में महसूस कर रहे हो ?” - द्वारकानाथ ने पूछा ।
“आप अन्दाजा नहीं लगा सकते कि...”
“अगर मैं तुम्हारी इस संकट की घड़ी में तुम्हारी मदद करूं तो बदले में तुम मेरे लिए कुछ करने को तैयार हो सकते हो ?”
“आप मुझे मेरी मौजूदा मुसीबत से निजात दिलाइये । बदले में मैं आपके लिये जान तक देने के लिये तैयार हूं ।”
“मुझे तुम्हारी जान नहीं चाहिये ।”
“मैं कुछ भी करने के लिये तैयार हूं ।”
“मैं तुम्हें ऐसा कोई काम नहीं बताऊंगा जिसमें तुम्हें नुकसान हो । मैं तो तुम्हें ऐसा काम बताऊंगा जिससे तुम्हारे नुकसान की भरपाई तो होगी ही, ऊपर से तुम्हें कुछ और भी मिलेगा ।”
“क्या ?”
“बीस हजार रुपया नकद ।”
“उन पच्चीस हजार रुपयों के अलावा जो मैं रेस में हार चुका हूं ?”
“हां ! और हम तुम्हें वह छ: हजार रुपये भी लौटा देंगे जो तुमने आज फ्लैश में पल्ले से हारे हैं ।”
एकाएक कुलश्रेष्ठ के नेत्र चमक उठे । उसके कागज की तरफ सफेद पड़े चेहरे पर थोड़ी सी रौनक आ गई ।
“मुझे क्या करना होगा ?” - उसने व्यग्र स्वर में पूछा ।
“सुनो ।” - द्वारकानाथ तनिक आगे को सरक आया और धीरे-से बोला - “तुमने कहा था कि तुम रत्नाकर स्टील कम्पनी में सिक्योरिटी ऑफिसर हो ?”
“हां ! क्यों ?”
“यह कम्पनी बहुत बड़ी है ?”
“हां । वह उत्तर भारत की सबसे बड़ी स्टील रोलिंग मिल है ।”
“कितने आदमी काम करते हैं वहां ?”
“छ: हजार के करीब ।”
“पे रोल तो तगड़ा बनता होगा उनका ?”
“हां कोई बाईस-तेईस लाख का बनता है ।”
“सुना है, इस महीने की तनख्वाह के साथ वहां बोनस भी बंटने वाला है ?”
“हां ।”
“बोनस मिलाकर इस बार पे रोल की रकम कितनी हो जायेगी ?”
“पैंतालीस लाख । यह सब क्यों पूछ रहे हो तुम ?”
“यूं ही । उत्सुकतावश । तुम्हें इस बारे में बात करने से एतराज है ?”
“एतराज तो नहीं है लेकिन...”
“अगर एतराज है तो तुम्हारे लिये ये बातें करना जरूरी नहीं । फिर तुम्हारे लिये यहां ठहरना भी जरूरी नहीं । दरवाजा खुला है । तुम जा सकते हो ।”
“नहीं, नहीं ।” - वह हड़बड़ाकर बोला - “मेरा यह मतलब नहीं था ।”
“सोच लो । तुम यह मत समझना कि हम तुम्हें किसी तरह के बन्धन में डाल रहे हैं ।”
“नहीं, नहीं यह बात नहीं ।”
“वैरी गुड ।”
कुलश्रेष्ठ खामोश रहा ।
“पे रोल की रकम तो तनख्वाह बंटने वाले दिन ही मिल में लाई जाती होगी ?” - द्वारकानाथ ने पूछा ।
“हां ।”
“बैंक से ?”
“हां । दयालबाग के पास कम्पनी का हैड ऑफिस है । हैड ऑफिस की बगल में ही वह बैंक है जहां से पगार की रकम निकाली जाती है । वहां से हैड ऑफिस का एकाउण्टेंट रकम कम्पनी की एक बख्तरबन्द गाड़ी में लदवा देता है और गाड़ी सीधी मिल में पहुंच जाती है ।”
“यह बख्तरबंद गाड़ी जब इस्तेमाल में नहीं होती तो कहां खड़ी की जाती है ?”
“मिल में ।”
“मिल में क्यों ?”
“क्योंकि सिक्योरिटी ऑफिस मिल में है ।”
“ओह ! यानी कि मिल का सिक्योरिटी ऑफिसर होने के नाते वह गाड़ी तुम्हारे चार्ज में रहती है ?”
“हां ।”
“उस गाड़ी में कौन-कौन रहता है ?”
“दो आदमी होते हैं उसमें । एक ड्राइवर और एक सशस्त्र गार्ड ।”
“ये सिर्फ दो आदमी इतनी बड़ी रकम की सुरक्षा के लिए काफी समझे जाते हैं ?”
“हां ।”
“क्या वह गाड़ी लुट नहीं सकती ?”
“नहीं लुट सकती ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि उसे लूट पाना असम्भव है ।”
“क्यों असम्भव है ?”
“क्योंकि विशेष रूप से मिल के लिये निर्मित उस बख्तरबंद गाड़ी में सुरक्षा के इतने इन्तजाम हैं कि यह सम्भव ही नहीं है कि वह लुट सके ।”
“मसलन क्या इन्तजाम हैं ? मेरा मतलब है, उसके भीतर मौजूद एक सशस्त्र गार्ड के अलावा ?”
“सुनो ! पहली बात तो यही है कि वह गाड़ी बुलेटप्रूफ है । बुलेट तो क्या, कहा जाता है कि छोटी-मोटी तोप का गोला तक उसकी चादर को नहीं भेद सकता । फिर उसके दरवाजे पर एक स्पैशल कम्बीनेशन लॉक लगा हुआ है जिसका कम्बीनेशन बार-बार बदला जा सकता है । हैड ऑफिस से जब गाड़ी मिल को भेजी जाती है तो दरवाजे के ताले का कम्बीनेशन ड्राइवर और गार्ड तक को नहीं मालूम होता । गाड़ी जब मिल में पहुंच जाती है तो वहां से हैड ऑफिस फोन किया जाता है और तब मुझे कम्बीनेशन बताया जाता है, यानी कि मिल में वैन का ताला मैं खोलता हूं लेकिन वैन के मिल के भीतर पहुंच जाने तक खुद मुझे कम्बीनेशन नहीं मालूम होता ।”
“और ?”
“वैन के दरवाजे का भीतर लगे एक टेप रिकॉर्डर से इस प्रकार सम्बन्ध जुड़ा हुआ है कि अगर कोई वैन के दरवाजे को खोलने की कोशिश में हैंडल से साथ छेड़खानी करता है तो भीतर टेपरिकॉर्डर से सम्बद्ध लाउडस्पीकर से जोर-जोर से ‘चोर ! चोर ! बचाओ ! बचाओ !’ की आवाजें निकलने लगती हैं । यानी कि वह गाड़ी एक तरह से चिल्ला-चिल्लाकर पुकार करने लगती है कि उसे लूटा जा रहा है ।”
“वैरी गुड । और ?”
“वैन के अन्दर वायरलैस रेडियो फिट है जिसका सीधा सम्बन्ध पुलिस कण्ट्रोल रूम से है । ड्राइवर अगर वैन को कोई खतरा महसूस करता है तो वह वायरलैस के जरिये फौरन पुलिस को खबर कर सकता है ।”
“बहुत खूब । और ?”
“हैड ऑफिस से वैन की रवानगी का कोई निर्धारित समय नहीं होता और हैड ऑफिस से लेकर मिल तक का फासला कई रास्तों से तय किया जा सकता है । वैन हर बार नये रास्ते से आती है और एडवांस में किसी को नहीं मालूम होता कि ड्राइवर कौन-सा रास्ता अख्तियार करेगा ।”
“सुरक्षा का और कोई इन्तजाम ?”
“एक और है । गाड़ी में इस प्रकार के डबल कण्ट्रोल की व्यवस्था है जैसी हवाई जहाज में होती है ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि अगर गाड़ी के ड्राइवर पर काबू कर भी लिया जाये तो गाड़ी को लेकर वहां से भागा नहीं जा सकता क्योंकि ड्राइवर पर इस प्रकार की आंच आती पाकर भीतर वैन में बैठा गार्ड वैन का कण्ट्रोल अपनी तरफ कर लेता है ।”
“कोई और इन्तजाम ?”
“क्या इतने इन्तजाम कम हैं ?”
द्वारकानाथ खामोश रहा ।
“देखो ।” - कुलश्रेष्ठ व्यग्र स्वर में बोला - “अगर तुम पगार की रकम लूटने की फिराक में हो तो यह ख्याल अपने मन से निकाल दो ।”
“ऐसा किसने कहा ?” - द्वारकानाथ बोला ।
“किसी ने नहीं कहा । लेकिन मैं बच्चा नहीं हूं । मैं जानता हूं कि तुम ये सब सवाल क्यों मुझसे पूछ रहे हो । द्वारकानाथ यह बात गिरह बांध लो । यह वैन नहीं लुट सकती ।”
“वहम है तुम्हारा । दुनिया की कोई चीज परफैक्ट नहीं होती और हर मशीन को मात देने के लिए कोई दूसरी मशीन होती है ।”
“यानी कि तुम कबूल करते हो कि तुम वैन लूटने की फिराक में हो ?”
द्वारकानाथ हंसा ।
गंगाधर और कूका भी मुस्कराये ।
“यानी कि मुझे एक पूर्वनिर्धारित योजना के मुताबिक फंसाया गया है ! मुझे तुमने जान-बूझकर इस स्थिति में डाला है कि मैं लाचार हो जाऊं और फिर वैन लूटने में तुम्हारी मदद करूं !”
“समझदार आदमी हो ।”
“लेकिन मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता ।”
“अगर ऐसी बात है तो फिर तशरीफ का टोकरा उठाओ और यहां से चलते बनो ।”
“मेरा मतलब है कि मेरी मदद के बावजूद भी तुम वैन को नहीं लूट सकते हो ।”
“इसका फैसला मैं करूंगा । तुम इस बात का फैसला करो कि तुम हमारी मदद करने को तैयार हो या नहीं ।”
“मैं तुम्हारी ऐसी कोई मदद करने के लिए तैयार नहीं हूं जिसकी वजह से मैं फंस सकता होऊं ।”
“हम तुम्हें ऐसी कोई मदद करने के लिए कहेंगे भी नहीं ।”
“तो फिर मुझे क्या करना होगा ?”
“वक्त आने पर बता दिया जायेगा ।”
“वक्त आने पर ? और वक्त कब आयेगा ?”
“बहुत जल्द आयेगा ।”
“लेकिन पच्चीस हजार रुपया तो मुझे अभी चाहिये ।”
“वह तुम्हें अभी मिल जायेगा ।”
कुलश्रेष्ठ ने छुटकारे की गहरी सांस ली ।
“गंगाधर” - द्वारकानाथ ने आदेश दिया - “इसे इकत्तीस हजार रुपये दे दो ।”
गंगाधर ने इकत्तीस हजार रुपये गिनकर उसके सामने रख दिये ।
कुलश्रेष्ठ ने नोटों की तरफ हाथ बढाया ।
“ठहरो ।” - द्वारकानाथ कर्कश स्वर में बोला - “इतनी जल्दी नहीं, मेरे भाई ।”
कुलश्रेष्ठ ने सशंक भाव से उसकी तरफ देखा ।
“इसे कागज और पैन दो ।” - द्वारकानाथ बोला ।
कूका ने एक फुलस्केप कागज और एक पैन कुलश्रेष्ठ को थमा दिया ।
“इस पर अपना हल्फिया बयान लिखो कि तुम लूट के माल में बराबर के हिस्से की एवज में रत्नाकर स्टील कम्पनी की बख्तरबन्द गाड़ी पर दिन-दहाड़े डकैती डालने की हमारी योजना में स्वेच्छा से शरीक हो ।”
कुलश्रेष्ठ हक्का-बक्का-सा उसका मुंह देखने लगा ।
“यह कागज तुम्हारे खिलाफ इस्तेमाल करने का हमारा कोई इरादा नहीं है” - द्वारकानाथ बोला - “लेकिन तुम्हारा ऐसा कोई हल्फिया बयान हमारे पास इसलिए होना चाहिए ताकि इस वक्त अपना मतलब हल कर लेने के बाद, बाद में जब हमारी मदद की बारी आये तो तुम मुकर न जाओ ।”
“लेकिन... लेकिन... फिर भी...”
“लेकिन फिर भी अगर तुम्हें एतराज है तो दरवाजा खुला है । तुम्हें यहां से जाने से कोई नहीं रोक सकता ।”
“बाद में यह कागज तुम मुझे लौटा दोगे ?”
“फौरन । जिसकी चाहे कसम उठवा लो ।”
कुलश्रेष्ठ ने बयान लिखकर हस्ताक्षर कर दिये ।
द्वारकानाथ ने वह कागज उसके हाथ से ले लिया और उसके स्थान पर उसे प्रोनोट का एक छपा हुआ फॉर्म थमा दिया ।
“यह क्या है ?” - कुलश्रेष्ठ हड़बड़ाकर बोला ।
“प्रोनोट का कागज है ।” - द्वारकानाथ बोला - “इतना रुपया हम तुम्हें ऐसे ही बिना किसी लिखा-पढी के थोड़े ही दे देंगे ।”
“ओह !”
“तुम एक लाख का प्रोनोट लिखो, रसीदी टिकट लगाओ और साइन करो ।”
“एक लाख का ? लेकिन दे तो तुम मुझे इकत्तीस हजार रुपये रहे हो ?”
“यह भी तुम्हें मुकरने से रोकने का एक तरीका है । अगर तुम बाद में मुकर जाओ और हमें अपना पैसा वसूल करने के लिए कोर्ट-कचहरी का मुंह देखना पड़ जाये तो उस जहमत का भी हमें कोई सिला मिलना चाहिये न, जो हमें तुम्हारी वजह से उठानी पड़ेगी ।”
कुलश्रेष्ठ ने मरता क्या न करता के अन्दाज से प्रोनोट लिख दिया ।
“वैरी गुड ।” - द्वारकानाथ संतुष्ट स्वर में बोला - “तुम्हारे ये दोनों कागज और बीस हजार रुपये की और रकम हमारा काम होते ही हम तुम्हें सौंप देंगे ।”
“तुम्हारा काम कभी नहीं होगा ।”
“देखेंगे । लेकिन खातिर जमा रखो । हमारा काम हो न हो, हमारी वजह से तुम पर आंच नहीं आयेगी ।”
कुलश्रेष्ठ खामोश रहा ।
“आगरे वापस कब जा रहे हो तुम ?”
“कल ।”
“वहां तुमसे सम्पर्क का तरीका ?”
कुलश्रेष्ठ ने जेब से एक विजिटिंग कार्ड निकालकर उसके हवाले कर दिया और बोला - “इस पर मेरे घर का पता और टेलीफोन नम्बर दोनों लिखे हैं ।”
“शुक्रिया ।”
“अब मुझे इजाजत है ?”
“हां, हां । शौक से ।”
कुलश्रेष्ठ ने इकत्तीस हजार के नोट उठाकर अपने काबू में किये और भारी कदमों से चलता हुआ वहां से विदा हो गया ।
***
“द्वारकानाथ” - कुलश्रेष्ठ के वहां से जाते ही गंगाधर बोला - “यह तो बड़ी टेढी खीर है ।”
“कोई टेढी खीर नहीं ।” - द्वारकानाथ विश्वासपूर्ण स्वर में बोला - “ऐसी कई वैनें पहले लुट चुकी हैं ।”
“लेकिन सिक्योरिटी के इतने बड़े इन्तजाम उन वैनों में नहीं थे, जो लुट चुकी हैं ।”
“थे । इससे बेहतर इन्तजाम थे । पिछले साल एक अक्टूबर को क्या यहीं जयपुर में बीकानेर बैंक की बख्तरबन्द वैन नहीं लुटी थी ?”
“लेकिन...”
“तुम खामखाह हिम्मत मत हारो । मेरे दिमाग में वैन लूटने की एक ऐसी स्कीम है जिसके सामने उसकी सुरक्षा के सारे इन्तजाम धरे-के-धरे रह जाएंगे । और उस स्कीम पर अमल करने में हमें इस कुलश्रेष्ठ की बहुत मामूली मदद की जरूरत पड़ेगी । यानी कि अधिकतर हमने अपने-आप पर ही निर्भर करना है ।”
“क्या स्कीम है तुम्हारे दिमाग में ?”
“पहले बताओ तुमने कभी प्यानो अकार्डियन देखी है ?”
“फिल्मों में देखी है ।” - गंगाधर बोला - “यह वही साज है न जो अमर अकबर अन्थोनी के आखिरी गाने में विनोद खन्ना बजाता था जो संगम में राजकपूर ‘हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गायेगा’ गाता हुआ बजाता है ! उसी साज को प्यानो अकार्डियन कहते हैं न ?”
“बिल्कुल उसी को ।”
“मैंने तो वह बजाया भी हुआ है ।” - कूका बोला ।
“फिर तो तुमने देखा भी होगा कि उसके दोनों सिरों को जब एक-दूसरे की तरफ दबाया जाता है तो वह कैसे दोहरी होती हुई इकट्ठी हो जाती है ।”
“देखा है ।”
“मैंने उस बख्तरबन्द गाड़ी को प्यानो अकार्डियन बना देना है ।”
“कैसे ?”
द्वारकानाथ ने उन्हें अपनी स्कीम बताई ।
सारी बात सुनकर गंगाधर और कूका दोनों के छक्के छूट गये ।
“द्वारका” - गंगाधर विस्फारित नेत्रों से बोला - “तुम क्या आत्महत्या करना चाहते हो ?”
“तुम पागल हो । कुछ नहीं होने का ।”
“हमारी धज्जियां उड़ जायेंगी ।”
“मैं गारण्टी करता हूं । कुछ नहीं होगा ।”
“कुछ होगा या न होगा, यह हमें तब पता लगेगा, जब हो चुका होगा ।”
“गगांधर” - द्वारकानाथ तीखे स्वर में बोला - “इसके अलावा इस अभियान में कामयाब होने का कोई तरीका नहीं है । तुममें से एक को यह खतरा उठाना ही पड़ेगा ।”
दोनों खामोश रहे ।
“आखिर यही खतरा मैं भी तो उठाऊंगा ।”
गंगाधर और कूका दोनों एक-दूसरे का मुंह देखने लगे ।
“मुझे नहीं मालूम था कि तुम दोनों इतने बुजदिल निकलोगे ।”
“यह बुजदिली की बात नहीं, द्वारका ।” - गंगाधर ने फरियाद की - “यह तो आत्महत्या है ।”
“लेकिन यह आत्महत्या मैं भी कर रहा हूं ।”
“अब तुम तो...”
“क्या मैं तो ?”
“द्वारका, तुम समझते क्यों नहीं ?”
“क्या नहीं समझता मैं ?”
वह खामोश रहा ।
“देखो द्वारका” - कूका बोला - “हम तुमसे बाहर नहीं । लेकिन...”
“छोड़ो ।” - द्वारकानाथ गम्भीर स्वर में बोला - “अब अगर मैं तुम्हें आश्वस्त कर भी दूं कि इस काम में कोई खतरा नहीं तो भी कोई फायदा नहीं होगा । एक बार तुम्हारे मन में घर कर चुकी यह शंका अब आसानी से रफा नहीं होने वाली । तुम दोनों में से कोई इस वक्त तो हां कर दे लेकिन बाद में ऐन मौके पर उसकी हिम्मत दगा दे जाये तो लेने के देने पड़ जायेंगे ।”
वे दोनों खामोश रहे ।
“मैं दो गाड़ियां एक साथ तो चला नहीं सकता । मैं तो एक गाड़ी चला सकता हूं । दूसरी गाड़ी तुम दोनों में से कोई चलाने को तैयार नहीं और...”
“यह बात नहीं, द्वारका ।” - गंगाधर ने कहना चाहा - “मैं तो यह कह...”
“छोड़ो । अब तुम इस काम के लिये हामी भर भी दोगे तो मैं तुम्हें नहीं करने दूंगा । वजह मैं बता चुका हूं । मौजूदा हालात में हमारे सामने मुंह बाये खड़ी इस समस्या का एक ही हल है ।”
“क्या ?”
“हमें एक पार्टनर और शामिल करना होगा ।”
“और पार्टनर ?”
“हां । और इसे तुम हमारी खुशकिस्मती समझो कि इस वक्त मेरी निगाह में एक बहुत ही सही आदमी है । उस आदमी को इस प्रकार की बैंक वैन रॉबरी का तजुर्बा भी है ।”
“कौन है वो आदमी ?”
द्वारकानाथ एक क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “उसका नाम है सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल उर्फ विमल कुमार खन्ना उर्फ गिरीश माथुर उर्फ बनवारीलाल तांगेवाला उर्फ रमेश कुमार शर्मा उर्फ कैलाश मल्होत्रा उर्फ बसन्त कुमार मोटर मैकेनिक ।”
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