आखिरी मकसद

मेरी आंख खुली ।

सबसे पहले मेरी निगाह सामने दीवार पर लगी रेडियम डायल वाली घड़ी पर पड़ी ।

डेढ़ बजा था ।

यानि कि अभी मुझे बिस्तर के हवाले हुए मुश्किल से दो घंटे हुए थे ।

मेरी दोनों आंखें अपनी कटोरियों में गोल-गोल घूमीं । यूं बिना कोई हरकत किए, बिना गर्दन हिलाए मैंने अपने बैडरूम में चारों नरफ निगाह दौड़ाई । अंधेरे में मुझे कोई दिखाई तो न दिया लेकिन मुझे यकीन था कि कोई कमरे में कोई था और किसी की वहां मौजूदगी की वजह से ही मेरी आंख खुली थी ।

रात के डेढ़ बजे बंद फ्लैट में मेरे बेडरूम मे कोई था ।

अपने आठ गुणा आठ फुट के असाधारण आकार के पलंग पर मैं कुछ क्षण स्तब्ध पड़ा रहा, फिर मैंने करवट बदली और साइड टेबल पर रखे टेबल लैम्प की तरफ हाथ बढ़ाया ।

मेरा हाथ टेबल लैंप के स्विच तक पहुंचने से पहले ही कमरे में रोशनी हो गई । अंधेरा कमरा एकाएक ट्यूब लाइट की दूधिया रोशनी से जगमगा उठा ।

तब मुझे स्विच बोर्ड के करीब खड़ा एक पहलवान जैसा आदमी दिखाई दिया जो अपलक मुझे देख रहा था और पान से बैंगनी हुए मसूढे और दांत निकालकर हंस रहा था - खामखाह हंस रहा था । उसने अपनी पीठ दीवार के साथ सटाई हुई थी और अपने हाथ में वह एक सूरत से ही निहायत खतरनाक लगने वाली रिवॉल्वर थामे था । रिवॉल्वर वह मेरी तरफ ताने हुए नहीं था लेकिन मैं जानता था कि पलक झपकते ही वो रिवॉल्वर न सिर्फ मेरी तरफ तन सकती थी बल्कि उसमें से निकली गोली मेरे जिस्म में कहीं भी झरोखा बना सकती थी ।

तभी कोई खांसा ।

तत्काल मेरी निगाह आवाज की दिशा में घूमी ।

सूरत में पहलवान जैसा ही खतरनाक लेकिन अपेक्षाकृत नौजवान एक दादा पलंग के पहलू में पिछली दीवार से टेक लगाए खडा था ।

“जाग गए ।” - पहलवान सहज स्वर में बोला ।

“तुम्हें क्या दिखाई देता है ?” - मैं भुनभुनाया ।

“जल्दी जाग गए । बिना जगाए ही जाग गए । कान बड़े पतले हैं या अभी सोए ही नहीं थे ?”

“कौन हो तुम ! क्या चाहते हो ? भीतर कैसे घुसे?”

“अल्लाह ! इतने सारे सवाल एक साथ !”

“'जवाब दो ।”

“तू तो कोतवाल की तरह जवाब तलबी कर रहा है ?” 

“उस्ताद जी” - पीछे पलंग के पहलू में खड़ा नौजवान दादा बोला - “मांरू साले को !”

“नहीं, नहीं ।” - पहलवान बोला - “मारेगा तो ये मर जायेगा ।”

“एकाध पराठा सेंक देता हूं ।”

“न खामखाह खफा हो जाएगा । हमने इसे राजी-राजी रखना है ।”

नौजवान के चेहरे पर बड़े मायूसी के भाव आये । ‘पराठा सेंकने को’ कुछ ज्यादा ही व्यग्र मालूम होता था वो ।

मैंने वापस पहलवान की तरफ निगाह उठाई ।

“राजी-राजी क्यों रखना है मुझे ?” - मैंने पूछा ।

“एकदम वाजिब सवाल पूछा ।”

“क्यों रखना है ?”

“भय्ये राजी रहेगा तो सब कुछ राजी राजी करेगा न ! राजी नहीं रहेगा तो अङी करेगा, पंगा करेगा, लफड़ा करेगा । आधी रात को लफड़ा कौन मागता है ?”

“मैं मांगता हूं । सालो, एक तो जबरन मेरे घर में घुस आये हो और ऊपर से...”

“उस्ताद जी” - नौजवान आशापूर्ण स्वर में बोला - “एकाध इसके थोबड़े पर ही जमा दूं ? कम-से-कम इसकी कतरनी तो बंद हो जाएगी ।”

“कतरनी का क्या है, लमड़े ।” पहलवान दार्शनिकतापूर्ण स्वर में बोला, “चलने दे ।”

“मैं अभी पुलिस को फोन करता हूं” मैं बोला, “और तुम दोनों को गिरफ्तार कराता हूं ।”

“लो !” नौजवान बोला, “सुन लो ।”

“अगर” मैं बोला, तुम दोनों अपनी खैरियत चाहते हो तो...”

“'यानी कि” पहलवान ने मेरी वात काटी और बिना उत्तेजित पूर्ववत् सहज स्वर में बोला “अभी जहन्नुम रसीद होना चाहता है कुछ देर बाद भी नहीं ।”

फिर उसका रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा हुआ और उसने बड़े निर्विकार भाव से रिवॉल्वर का कुत्ता खींचा ।

कुत्ता खींचा जाने की मामूली-सी आवाज गोली चलने से भी तीखी आवाज की तरह मेरे कानों में गूंजी ।

मेरे कस-बल निकल गये ।

मेरे मिजाज में आई वो तब्दीली पहलवान से छुपी न रही । “शाबाश ।” वो बोला ।

“क्या चाहते हो ?” मैं धीरे से बोला ।

“देखा !”  पहलवान अपने नौजवान साथी से बोला,  “खामखाह गले पड़ रहा था तू इसके, सब कुछ राजी-राजी तो कर रहा है । बेचारा खुद ही पूछ रहा है कि हम क्या चाहते हैं ?”

नौजवान कुछ न बोला ।

अब क्या हुआ, दही जम गई तेरे मुह में ! अबे, बता इसे हम क्या चाहते हैं ?”

“बिस्तर से निकल ।” नौजवान ने मुझे आदेश दिया - “कपड़े बदल । हमारे साथ चलने के लिए तैयार हो ।”

“कहां चलने के लिए तैयार होऊं ?” मैं सशंक स्वर में वोला ।

“उस्ताद जी, देख लो, ये फिर फालतू सवाल कर रहा है ।”

साफ जाहिर हो रहा था कि वह नौजवान मवाली मेरे से उलझने के लिए तड़प रहा था ।

“कहां फालतू सवाल कर रहा है !” पहलवान ने उसे मीठी झिड़की दी - “इतना वाजिब सवाल तो पूछ रहा है । आखिर इतना जानने का हक तो इसे पहुंचता ही है कि इसने कहां चलने के लिए तैयार होना है ।”

“लेकिन...”

“मैं बताता हूं इसे ।” पहलवान फिर मेरे से सम्बोधित हुआ- “भैय्ये, तू सीधे-सीधे कपड़े पहन ले । तूने किसी पार्टी या किसी जश्न के लिए तैयार नहीं होना इसलिए सज-धज की जरूरत नहीं । समझा !”

मैंने जवाब नहीं दिया ।

“तुझे हमने किसी के पास पहुंचाना है । जीता-जागता । सही-सलामत । बिना टूट-फूट के । सालम । तू हमारा साथ दे, भैय्ये । ज्यादा पसरेगा या हामिद को हड़कायेगा तो फिर तेरी सलामती और टूट-फूट की कोई गारंटी नहीं होगी ।जो कि मैं नहीं चाहता ।”

“क्यों नहीं चाहते ?”

“क्योंकि ठेके की एक अहम शर्त माल को ग्राहक के पास सही-सलामत पहुंचाना भी है ।”

“मैं माल हूं ?”

“हो । पचास हजार रूपये का । तुझे कुछ हो गया तो हमारा तो रोकड़ा निकल गया न अंटी से !”

“मैं पचास हजार रुपए का माल हूं ?”

“नकद ! चौकस ! सी.ओ.डी. ।”

“सी.ओ.डी. (कैश ऑन डिलीवरी)! ओहो  ! तो पहलवान जी अंग्रेजी भी जानते हैं !”

“मैं नहीं जानता । वो आदमी जानता है जिसने तेरी डिलीवरी लेनी है । वो बार-बार सी.ओ.डी.-सी.ओ.डी. बोलता था, सो मैंने बोल दिया ।”

“हूं तो बात का हिन्दोस्तानी में तजुर्मा ये हुआ कि पचास हजार रुपये की कीमत की एवज में मुझे अगवा करके किसी तक सही-सलामत पहुंचाने के लिए किसी ने तुम्हारी खिदमत हासिल की है ।”

“वाह ! मरहबा ! तजुर्मा हिन्दोस्तानी में हो तो बात कितनी जल्दी  और कितनी आसानी से समझ में  आती है ।”

“है कौन वो आदमी ?”

“है कोई ग्राहक ।”

“वो ग्राहक मेरा करेगा क्या ?”

“करेगा तो वही जो हामिद करना चाहता है लेकिन वक्त आने पर करेगा ।”

“मुझे जहन्नुम रसीद !”

“हां ।”

“यानी कि मेरी मौत महज वक्त की बात है ।”

“हां । लेकिन वक्त का वक्फा मुख़्तसर करने की कोशिश न कर, भैव्ये । तू बाज न आया और यहीं मर गया तो हमारे तो पचास हजार रुपए तो गए न महंगाई के जमाने में ! इसलिए नेकबख्त बनकर हमारे काम आ और तैयार होकर हमारे साथ चल । अल्लाह तुझे इसका अज्र देगा । चल खड़ा हो । शाबाश !”

मैं बिस्तर से निकला और बैडरूम से सम्बद्ध बाथरूम के दरवाजे की ओर बढ़ा ।

“कहां जा रहा है ? “ पहलवान तीखे  स्वर में बोला ।

“बाथरूम ।” मैं बोला, “नहाने ।”

“पागल हुआ है ये कोई वक्त है नहाने का ! सीधे-सीधे कपड़े बदल और चल ।”

“कम से कम मुंह तो धो लूं ।”

“अरे, शेरों के मुंह किसने धोए हैं ! “

“ये अंग्रेज की औलाद”  नौजवान हामिद भुनभुनाया, “समझ रहा है कि जहां इसे ले जाया जा रहा है, वहां मेमें इसका मुंह चाटने वाली हैं ।”

“हामिद !” पहलवान ने मीठी झिड़की दी, “चुप रह । नहीं तो पिट जाएगा ।”

हामिद ने यूं होंठ भींचे जैसे संदूक का ढक्कन वन्द किया हो ।

“अरे, खड़ा है अभी तक !” पहलवान हैरानी जताता हुआ मेरे से संबोधित हुआ, “बदल नहीं चुका अभी तक कपड़े ! तैयार नहीं हुआ अभी !”

मेरी राय में आदमी की जैसी जात औकात हो, वैसा ही उसका मिजाज होना चाहिए । पहलवान की शहद में लिपटी जुबान मुझे बहुत विचलित कर रही थी । वो गब्बर सिंह की तरह गरज बरस रहा होता तो आपके खादिम ने उससे कम खौफ खाया होता लेकिन वहां तो शहद मुझे घातक विष का गिलास मालूम हो रहा था इसलिए अपिका खादिम मन ही मन कहीं ज्यादा भयभीत था 

मुझे पूरी उम्मीद है कि

उन दोनों दादाओं की निगाहों के सामने मैंने कुर्त्ता-पाजामा उतारकर जींस जैकेट वाली पोशाक धारण की । कपड़ों की अलमारी में ही बने एक दराज में मेरी 38 केलीबर को लाइसेंसशुदा स्मिथ एंड वैसन रिवॉल्वर पड़ी थी लेकिन उन दोनों की घाघ निगाहों के सामने उस तक हाथ पहुंचाने का मौका मुझे न मिला ।

अन्त में मैंने डनहिल का एक सिगरेट सुलगाया और बोला - “अब क्या हुक्म है ?”

“हुक्म नहीं” पहलवान बोला, “दरखास्त है, भैय्ये ।”

“वही बोलो ।”

“नीचे सड़क पर तुम्हारे फ्लैट वाली इस इमारत के ऐन सामने हमारी कार खड़ी है तुमने हमारे साथ चल कर उस पर सवार हो जाना है और फिर कार यह जा वह जा । बस इतनी सी बात है ।”

  “बस ?”

“हां सिवाय इसके कि अगर यहां से कार तक के रास्ते में तूने कोई शोर मचाया या कोई होशियोरी दिखाने की कोशिश की तो गोली भेजे में । गोली अन्दर दम बाहर ।”

“खलीफा, मेरा दम बाहर हो गया तो तुम्हारी फीस की दुक्की तो पिट गई !”

“वो तो है ।” वो बड़ी शराफत से बोला, “लेकिन क्या किया जाए, भैय्ये ! धन्धे में नफा-नुकसान तो लगा ही रहता है ।”

“नुकसान काहे को, उस्ताद जी !” हामिद भड़का “ये करके तो दिखाए कोई हरकत मैं न इसकी...”

“रिवॉल्वर के दम पर अकड़ रहा है, साले !” मैं नफरत भरे स्वर में बोला, “इसे एक ओर रख दे और फिर अपने उस्ताद को रेफरी बनाकर यहीं मेरे से दो-दो हाथ करले, न तेरी हड्डी-पसली एक करके रख दूं तो मुझे अपने बाप की औलाद नहीं, किसी चिड़ीमार की औलाद कह देना ।”

“उस्ताद जी !” हामिद दांत किटकिटाता हुआ कहर भरे स्वर में बोला, “अब पानी सिर से ऊंचा हो गया है ...”

“तो डूब मर साले !” मैं बोला ।

“ठहर जा हरामी के पिल्ले...”

हामिद मुझ पर झपटा लेकिन तभी पहलवान बीच में आ गया ।

“लमड़े !” पहलवान सख्ती से वोला, “होश में आ । काबू में रख अपने आपको । तेरी ये हरकत तुझे पच्चीस हजार की पड़ेगी ।” 

“अब मुझे परवाह नहीं । अल्लाह कसम, मैं इसे ...”

“मुझे परवाह है समझा !”

“समझा ।” हामिद मरे स्वर में वोला ।

“ये कोई” मैं बोला, “चरस-वरस तो नहीं लगाता !”

“क्या मतलब ?”

“चरसी या स्मैकिए ही यू एकाएक भड़कते हैं । जरूर ये ....”

पहलवान के भारी हाथ का झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल से टकराया ।

“ये अकलमंद के लिए इशारा था ।” वह बोला, तब पहली बार उसके स्वर में क्रूरता का पुट आया था, “अब साबित करके दिखा कि तू अकलमंद है ।”

“वो तो मैं हूं ।” मैं कठिन स्वर में बोला 

“फिर तो तुझे अब तक याद होगा कि नीचे सड़क पर इमारत के सामने क्या है ?”

“तुम्हारी कार है ।”

“तुमने हमारे साथ नीथे चलकर क्या करना है ?”

“कार में बैठ जाना है ।”

“और ये सब कुछ कैसे होना है ?”

“चुपचाप ।”

“शाबाश !”

फिर उसके इशारे पर मैंने फ्लैट की बत्तियां बुझाई और उसके मुख्य द्वार को ताला लगाया । फिर मुझे  दायें-बायें से ब्रैकेट करके वे मुझे नीचे सड़क पर लाए जहां एक काली एम्बैसडर खड़ी थी । हामिद कार का अगला दरवाजा खोलकर ड्राइविंग सीट पर बैठ गया और मुझे कार के  भीतर अपने आगे धकेलता हुआ पहलवान पीछे सवार हो गया । कार तत्काल वहां से दौड़ चली ।

“हमने मोतीबाग जाना है ।” पहलवान बोला, “आजकल सडकों पर पुलिस की गश्त बहुत है । रात को बहुत पूछताछ होती है । हमारी गाड़ी को भी रोका जा सकता है । तब पुलिस की सूरत देखकर तुझे होशियारी आ सकती है । भैय्ये मेरी यही नेक राय है तुझे कि पुलिस के सामने कोई लफड़ा करने की कोशिश न करना । कोई बेजा हरकत की तो जो पहली जान जाएगी, वो तेरी होगी ।”

“और” मैं बोला “तुम्हारा क्या होगा ?”

“हमारा भी बुरा ही होगा लकिन जो बुरा हमारा होगा, उसको देखने के लिए तू जिन्दा नहीं होगा । हमारी ओर पुलिस की निगाह भी उठने से पहते तू जन्नत के दरवाजे पर दस्तक दे रहा होगा । समझा ?”

“समझा”

“तो फिर क्या इरादा है तेरा ?”

“इरादा नेक है ।”

“नेक ही रखना, भैय्ये । इल्तजा है ।”

“अच्छा ! धमकी नहीं ?”

“नहीं ।”

“हैरानी है । आजकल तो दादा लोग भी बड़े अदब और शऊर वाले हो गए हैं ।”

वह हंसा ।

“ठीक है न फिर ?” वह बोला, “खामोश रहेगा न ?” 

“हां !”

“शाबाश !”

मोतीबाग तक हमें दो जगह पुलिस द्वारा संचालित रोड ब्लोक के बैरियर मिले लेकिन दोनों ही जगह पुंलसियों ने कार की तरफ टार्च ही चमकाई, कहीं किसी ने कार को रुकने का इशारा न किया । ऐसा हो जाता तो कार की छोटी-मोटी तलाशी भी होती और तब मुमकिन था कि इस पंजाबी पुत्तर के खून में बहती 93-ऑकटेन भड़क उठती और मैं हथियारबंद पुलिस की मौजूदगी में हा-हल्ला मचाकर अपनी जान बचाने की जुर्रत कर बैठता लेकिन लगता था राजधानी में रात को सक्रिय हो उठने वाले वैसे बेशुमार रोड ब्लाक्स सिर्फ नेक शहरियों को हलकान करने के लिए थे, गुंडे बदमाशों को जरूर अभयदान प्राप्त था।

उस घड़ी मेरी समझ में आया कि सालों से चल रहे पुलिस के ऐसे बंदोबस्त के बावजूद आज तक कोई उग्रवादी किसी रोड ब्लोक पर क्यों नहीं पकड़ा गया था 

एक बात ऐसी थी जिसका कोई फायदा आपका ये खादिम महसूस कर रहा था कि उसे पहुंचना चाहिए था ।

मैं पहलवान को जानता था 

अलबत्ता पहलवान नहीं जानता था कि मैं उसे जानता था । पहलवान का नाम तो हबीबुल्लाह खान था लेकिन दिल्ली के अंडरवर्ल्ड में वो हबीब बकरा के नाम से बेहतर जाना जाता था ।  पहले कभी वह जामा मस्जिद के इलाके में बकरे के गोश्त की दुकान किया करता था । तब वो हबीबुल्लाह खान बकरेवाला के नाम से जाना जाता था । कल्लाल से दादा बना था तो नाम सिकुड़कर हबीब बकरा हो गया था । पहले मार-पीट और  दंगा-फसाद के जुर्म में कई बार जेल की हवा खा चुका था लेकिन जबसे वो दिल्ली के डॉन के नाम से जाने जाने वाले लेखराज मदान की छत्रछाया में गया था, तबसे कम से कम हवालात के दर्शन उसने नहीं किए थे ।

लेखराज मदान खुद कभी एक

अखबारों से ही मैंने जाना था कि लेखराज मदान का उससे उम्र में कोई बीस-बाइस साल छोटा एक भाई था जो वैसे तो मदान के हर स्याह धधे में शरीक था लेकिन प्रत्यक्षत राजेंद्रा प्लेस में  एक नाइट क्लब चलाता था ।उस छोटे भाई का नाम मैंने अखबारों में अक्सर पढ़ा था लेकिन भूल गया था और उसकी तस्वीर कभी किसी खबर के साथ छपी नहीं थी । बड़े खलीफा के दर्शन  का इत्तफाक तो एक-दो बार यूअर्स-ट्रूली को हो चुका था, लेकिन छोटे खलीफा की सूरत मैंने कभी नहीं देखी थी ।

कार एकाएक मोतीबाग की एक सुनसान अंधेरी इमारत के सामने पहुंचकर रुकी ।

हामिद ने कार से उतरकर उस अंधेरी इमारत का फाटक खोला और फिर भीतर दाखिल होकर फाटक के एन सामने मौजूद गैरेज का दरवाजा खोला !

और एक मिनट बाद कार गैरेज में थी और गैरेज का दरवाजा और बाहरी फाटक दोनों बंद हो चुके थे 

हम तीनों कार से बाहर निकले । हामिद ने एक विजली का स्विच ऑन किया तो वहां छत में लगा एक बीमार सा धुंधलाया सा, बल्ब जल उठा। उसकी रोशनी में मुझे गैरेज की पिछली दीवार में बना एक बंद दरवाजा दिखाई दिया । हामिद ने वो दरवाजा खोला और फिर हम तीनों ने उसके भीतर कदम रखा । बाहर से ही प्रतिबिंबित होती निहायत नाकाफी रोशनी में मैंने स्वयं को एक बैडरूम की तरह सजे कमरे में पाया । बैडरूम की एक दीवार में दो बड़ी-बड़ी खिड़कियां थीं जो बाहर सड़क की ओर खुलती थीं । हामिद ने पहले गैरेज की ओर का दरवाजा बन्द किया और फिर उस दरवाजे पर और दोनों खिड़कियों पर बड़े यत्न से मोटे-मोटे पर्दे खींचे । तब कहीं जाकर उसने वहां की ट्यूब जलाई तो कमरे में जगमग हुई ।

हबीब बकरा एक कुर्सी में ढेर हो गया । अपनी रिवॉल्वर निकालकर उसने अपनी गोद में रख ली और फिर जेब से एक तंबाकू की पुड़िया निकाली । पुड़िया में से कुछ तंबाकू उसने अपने मुंह में ट्रांसफर किया और फिर चेहरे पर एक अजीब-सी तृप्ति के भाव लिए गाय की तरह जुगाली-सी करने लगा 

फिर उसने हामिद को कोई गुप्त इशारा किया जिसके जवाब में हामिद ने वहीं से एक नायलॉन की डोरी बरामद की और उसकी सहायता से मेरे हाथ-पांव बांध दिये । अन्त में उसने मुझे पलंग पर धकेल दिया ।

“भैय्ये” हबीब बकरा मीठे स्वर में बोला, “बस थोड़ी देर की ही तकलीफ समझना ।”

“बड़ा ख्याल है तुम्हें मेरा !” मैं व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।

“तू तो खफा हो रहा है ।”

“बिल्कुल भी नहीं । मैं तो खुशी से फूला नहीं समा रहा । दिल कथकली नाचने को कर रहा है । झूम-झूमकर गाने की ख्वाइश हो रही है ।”

“दूसरा काम न करना । वरना तेरा मुंह भी बन्द करना पड़ेगा ।”

मैं खामोश रहा ।

बकरा कुछ क्षण मशीनी अंदाज से जबड़ा चलाता रहा । फिर उसने हामिद को टेलीफोन करीब लाने का इशारा किया । हामिद ने फोन को मेज पर से उठाकर उसके करीब एक स्टूल पर रख दिया ।

“चाय बना ला ।” हबीब बकरा बोला ।

हामिद सहमति में सिर हिलाता हुआ वहां से बाहर निकल गया ।

हबीब बकरे ने एक नंबर मिलाया और फिर दूसरी ओर से जवाब मिलने की प्रतीक्षा करूने लगा । वो इयरपीस को पूरा तरह से अपने कान के साथ जोडे हुए नहीं  था । इसलिए जब दूसरी ओर से कोई बोला तो कमरे के स्तब्ध वातावरण में उसकी आवाज मुझे साफ सुनाई दी ।

“हां । कौन है भई !”

लेखराज मदान की आवाज मैंने साफ पहचानी ।

“मालिक” बकरा चिकने-चुपड़े स्वर नें बोला “काम हो गया ।”

“पकड़ लाए ?”

“हां ।”

“कोई चूं-चपड़ तो नहीं की उसने ?”

“की । काफी उछला-कूदा भी । लेकिन मैं क्या उसकी चलने देने वाला था !”

“बढ़िया । अब कहां है वो ?”

“मोतीबाग ।”

“चौकस पकड़ के रखा है न?”

“बिल्कुल ।”

“भाग तो नहीं जाएगा ?”

“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”

“बढ़िया । आगे मुझे मालूम ही है क्या करना है ?”

“हां । रात यहीं रखेंगे उसे । कल सुबह ग्यारह बजे मैं उसे छोटे मालिक के दौलतखाने पर ले आऊंगा ।”

“खुद लाना ।”

“खुद ही लाऊंगा मालिक ।”

“और उससे अच्छे तरीके से पेश आना । ये दादागिरी दिखाने वाना मामला नहीं है । कोई ताव-वाव मत खा जाना । जोश में उससे कोई हाथापाई या मारपीट न कर बैठना समझ गया ?”

“समझ गया, मालिक ।”

“तेरे ऊपर मे नर्म और भीतर से गर्म मिजाज से वो वाकिफ नहीं होगा लेकिन मैं वाकिफ हूं ।”

“आप ख्याल ही न करो, मालिक, मैं ....”

“अपने मिजाज का कोई नमूना पहले ही पेश कर नहीं चुका है ?”

“अरे नहीं, मालिक कुछ नहीं हुआ बस सिर्फ ...”

“क्या बस सिर्फ ?”

“एक छोटा सा झापड़ रसीद किया था ।”

“गलत किया नहीं करना था ।”

“बाज ही नहीं आ रहा था ।”

“फिर भी नहीं करना था ।  अब निशान है झापड़ का उसके थोबड़े पर?”

“हबीब बकरे ने गौर से मेरी सूरत देखी और फिर फोन में बोला,  “नहीं।”

“बढ़िया, आइन्दा ध्यान रखना । डिलीवरी तक उसके चेहरे पर कहीं भी मार पीट का, चोट-वोट का कोई मामूली सा भी निशान नहीं होना चाहिए । समझ गया ?”

“हां ।”

“क्या समझ गया ?”

“निशान नहीं ।  खरोंच नहीं । कट नहीं । रगड़ नहीं । रोगदा नहीं ।”

“बढ़िया ।”

“और बोलो, मालिक ?”

“अपने शागिर्द का क्या सोचा ?”

“उसका काम हो जाएगा ।”

“कब ?”

“आज ही रात को रोशनी होने से पहले ।”

“कोताही न हो ।”

“आप निश्चित रहिए, मालिक । कहीं कोताही नहीं होगी ।”

“बढिया ।”

फिर शायद लाइन कट गई क्योंकि तभी हबीब बकरे ने रिसीवर वापस क्रेडल पर रख दिया और स्टूल  को परे सरका दिया ।

मैं बेआवाज पलंग पर पड़ा रहा ।

हालात बड़ा डरावना रुख दिखा रहे थे । अब मुझे यकीन होने लगा था कि मेरा अगवा कोई मामूली घटना नहीं थी, वो बहुत खतरनाक रुख अखतियार करने वाला था । सिलसिला इतना गंभीर था कि अगवा का कोई गवाह नहीं छोड़ा जाने वाला था । दिन चढ़ने से पहले हामिद  का कत्ल हो जाने वाला था और अगले रोज ग्यारह बजे मुझे लेखराज मदान के छोटे भाई के यहां डिलीवर कर दिया जाने वाला था ।

मोटे पहलवान की अक्ल भी मोटी थी-बकरे ही जैसी जो वो खुद अपने सिर पर मंडराती मौत की शिनाख्त नहीं कर पा रहा था । वो मूर्ख था जो इतना भी नहीं समझता था कि अपने शागिर्द जितना ही वो भी अगवा का गवाह था । गवाह न छोड़ने के लिए अगर हामिद को खलास किया जाना जरूरी था तो खुद उस्ताद का भी उसी अंजाम तक पहुंचना लाजमी था 

अब मैं और भी खौफजदा हो उठा ।

एकाएक ऐसी क्या खूबी पैदा हो गई थी मेरे में जो एक अगवा जरूरी हो गया था और इसके लिए लेखराज मदान को दो कत्लों का सामान करना भी गवारा था ।

मेरा कोई अनजाना लेकिन हौलनाक अंजाम मुझे बुरी तरह डराने लगा। अपनी मौत मुझे मुंह बाए अपने सामने खड़ी दिखाई देने लगी । तब मैंने यह फैसला किया कि अगर बाद में भी मरना ही था तो क्यों न मैं अभी उसी घड़ी रिहा होने की कोशिश करता हुआ मरूं ।

क्या पता आपके खादिम की ऐसी कोई कोशिश कामयाब ही हो जाए ।

तभी एक ट्रे उठाए हामिद वापस लौटा । ट्रे को मेज पर रखकर वह अपने उस्ताद के लिए चाय बनाने लगा । प्रत्यक्षत: मेरी कोईं ऐसी खातिरदारी वो जरूरी नहीं समझ रहा था ।

“पहलवान” मैं हिम्मत करके बोला, “तुम्हारा बाप फोन पर जैसा कड़क बोल रहा था, वो है भी ऐसा ही कड़क तो तुम्हारी खैर नहीं ।”

“क्या बकता है ।” हबीव बकरा असमंजसपूर्ण स्वर में वोला 

“वो बोला कि नहीं कि मेरे ऊपर चोट-वोट का कोई मामूली सा भी निशान नहीं होना चाहिए ?”

“कान” वो मुझे घूरता हुआ बोला “वाकई बहुत पतले हैं तेरे ।”

“बोला कि नहीं ?”

“तो क्या हुआ, तेरे गाल पर मेरी उगलियों की हल्की-सी उछाल है, वो दिन चढे तक हट जाएगी ।”

“और सारी रात हाथ-पांव बंधे रहने की वजह से मेरी कलाइयों और टखनों का जो बुरा हाल होगा, उसके बारे में क्या सोचा ?”

वो सकपकाया ।

“मेरे हाथ-पांव तो अभी से सुन्न हाते जा रहे हैं । और थोड़ी देर में सूजन उठनी शुरू हो जाएगी । कल जब मेरे बंधन खोलोगे तो देख लेना मैं हॉस्पिटल केस बना होऊंगा । हाथ-पांव ठीक होने में हफ्तों न लगें तो कहना ।”

उसका निचला जबड़ा लटक गया 

“और अभी तुम किसको क्या तसल्ली देकर हटे हो ! निशान नहीं, खरोंच नहीं । कट नहीं । रगड़ नहीं । वगैरह वगैरह ।”

वह बहुत विचलित दिखाई देने लगा ।

“और अभी तो मैं बंधन खुल जाने की उम्मीद में अपने हाथ-पांव उमेठूंगा । जिसका नतीजा ये होगा कि नायलॉन की ये डोरी चमड़ी को काटती हुई हड्डियों तक जा पहुंचेगी । फिर क्या जवाब दोगे अपने बाप को ?”  

“तमीज से बोल ।”

“बॉस को । खुश !”

हबीब बकरे ने उत्तर न दिया । वो सोच में पड़ गया । तभी हामिद ने करीब आकर चाय का कप उसकी ओर बढ़ाया ।

“इसके हाथ-पांव खोल दे ।” कप थामता हुआ हबीब बकरा एकाएक बोला – “और इसे भी चाय दे ।”

“हाथं-पांव खोल दूं ।” हामिद ने दोहराया ।

“नींद हराम करेगा ये हमारी और कोई फर्क नहीं पड़ने वाला । हमारे जागते हुए बंद कमरे से कहां भाग जाएगा ये ! खोल दे ।”

बड़े  अनिच्छापूर्ण ढंग से हामिद ने आदेश का पालन किया । आजाद होते ही मैं अपनी कलाइयां और टखने मसलने लगा । फिर मैंने एक सिगरेट सुलगा ल्रिया और हामिद की दी चाय की चुस्कियां लगाने लगा ।

“फोन की उधर की आवाज” हबीब बकरा सशंक स्वर में वोला, “कैसे सुनाई दे गई तुझे ?”

“दे गई किसी तरह ।” मैं लापरवाही से वोला, “हो जाता है कभी-कभी ऐसा ।”

“तूने सब सुना ?”

“हां ।”

“जानता है मैं किससे बात कर रहा था?”

“अपने बाप ...आई मीन बाँस से ।”'

“और वो कौन हुआ ?”

“वो मुझे क्या मालूम !”

उसके चेहरे पर राहत के भाव आए ।

“मेरे को टॉयलेट जाना है ।”

“क्या ?” वो हड़बड़ाया ।

मैने अपनी कनकी उंगली ऊंची करके उसे दिखाई ।

हबीब बकरे ने हामिद की तरफ देखा ।

हामिद चाय बना रहा था।

हबीब बकरे ने गोद में रखी अपनी रिवॉल्वर उठाकर अपने हाथ में ले ली और उठ खड़ा हुआ ।”

“'चल ।” वह बैडरूम के पिछवाड़े के दरवाजे की ओर इशारा करता हुआ वोला ।

मैं उठकर दरवाजे पर पहुंचा । मैंने उसे खोला तो पाया कि आगे एक लम्बा गलियारा था ।

पहलवान मुझे अपने से आगे चलाता हुआ गलियारे के सिरे तक लाया जहां कि टायलेट था ।

“चल ।” हबीब बकरा बोला “निपट”

मैंने टायलेट के दरवाजे को धकेला ।

“अंधेरा है” मैं बोला ।

“नखरे मत कर ।” हबीब बकरा यूं बोला जैसे मास्टर किसी बच्चे को समझा रहा हो, “भीतर दीवार के साथ स्विच है ।”

मैं भीतर दाखिल हुआ । मैंने अपने पीछे दरवाजा बन्द करने का उपक्रम किया ।

“खबरदार !” हबीब बकरा एकाएक सांप की तरह फुंफकारा ।

मैं निराश हो उठा । मेरा इरादा भीतर से दरवाजा बंद करके गला फाड़-फाड़कर चिल्लाने लगने का था ।

“यार, ये तो बड़ी ज्यादती है ।”, मैं बोला, “यूं तो...” 

“बक-बक नहीं ।” वो सख्ती से बोला, “बिजली का स्विच  ऑन कर । दरवाजे से परे हट ।”

मैंने दीवार टटोलकर स्विच तलाश किया और उसे ऑन किया । टॉयलेट में रोशनी फैल गई । जगह मेरी अपेक्षा से बड़ी निकली ।

वो भी भीतर दाखिल हुआ । उसने दरवाजा भिड़काया और उससे पीठ लगाकर खड़ा हो गया । रिवॉल्वर उसने मजबूती से थामकर अपने सामने की हुई थी और वो अपलक मुझे देख रहा था ।

“यार” मैंने कहना चाहा, “ये कोई बात हुई जो ...”

“बहस करेगा”  वो मेरी बात काटता दृढ स्वर में बोला, “तो जो करना है वो पतलून में ही करेगा ।”

मैंने आह भरी और फिर उसकी ओर पीठ फेरकर कमोड के कामने जा खड़ा हुआ । टॉयलेट के इस्तेमाल की जरूरत के बहाने को साकार करने के लिए मैंने अपने गुर्दों के साथ बलात्कार किया,  फिर पतलून की जिप खींची और वॉशबेसिन के सामने जा खड़ा हुआ ।

मैंने नल चालू किया और साबुन उठाकर उससे हाथ मलने लगा ।

वाशबेसिन के ऊपर लगे शीशे में से मुझे हबीब बकरे का प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा था । वो मेरे पीछे मेरे से मुश्किल से चार फुट परे खड़ा था । चेहरे पर आत्मविश्वास के भाव लिए वो बड़ी बेबाकी से मेरी तरफ देख रहा था 

एकाएक साबुन की टिकिया मैंने अपने हाथ से फिसल जाने दी ।

उसकी निगाह स्वयंमेव ही फर्श पर परे जा गिरे साबुन की ओर उठ गई।

मैं तनिक घूमा, एक कदम आगे बढ़ा और मैंने झुककर साबुन उठाया । फिर मैंने उठकर सीधा होना शुरू किया लेकिन सीधा होने से पहले ही मैंने सिर झुकाकर अपना सिर सांड की तरह उसके पेट से टकरा दिया। उसके मुंह से गैस निकलते गुबारे जैसी आवाज निकली और वह दोहरा हो गया । साथ ही उसने फायर किया लेकिन गोली कहीं दीवार से जा टकराई । मैंने झुके-झुके ही ताबड़ तोड़ तीन-चार घूंसे उसके पेट में रसीद किए और फिर उसके दोबारा फायर कर पाने से पहले ही उसके हाथ से उसकी रिवॉल्वर नोंच ली ।

वो फर्श पर ढेर हो गया ।

तभी गलियारे में से दौड़ते कदमों की आवाज गूंजी । जरूर हामिद ने गोली चलने की आवाज सुन ली थी और अब वो उधर ही लपका चला आ रहा था । मैंने अपने जूते की एक भरपूर ठोकर हबीब बकरे की कनपटी पर जमाई और फिर उसके ऊपर से कूदकर दरवाजे पर पहुंचा।

तभी बाहर से दरवाजे को धक्का दिया गया ।

दरवाजा भड़ाक से खुला और मुझे चौखट पर हामिद की झलक दिखाई दी ।

एक क्षण भी नष्ट किए विना मैंने रिवॉल्वर का रुख उसकी ओर किया और घोड़ा खींचना शुरू कर दिया ।

सारी रिवॉल्वर मैंने दरवाजे की दिशा में खाली कर दी । तब मैंने देखा कि हामिद गलियारे में दरवाजे के सामने धराशाई हुआ पड़ा था । डरते-डरते मैं उसके करीब पहुंचा । मैंने पांव की ठोकर से उसके चेहरे को, उसकी छाती को, उसकी पसलियों को टहोका । उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हुई । मेरी चलाई गोलियों में से पता नहीं कितनी उसे लगी थीं लेकिन निश्चय ही वो मर चुका था ।

मैंने खाली रिवॉल्वर परे फेंक दी और झुककर उसकी उंगलियों में से उसकी रिवॉल्वर निकाल ली ।

मैं फिर हबीब बकरे की ओर आकर्षित हुआ ।

वो बाथरूम के फर्श पर बेहोश पड़ा था और प्रत्यक्षत: उसके जल्दी होश में आ जाने के कोई आसार नहीं दिखाई दे रहे थे । लेकिएन उसका जल्दी होश में आना जरूरी था । मैंने उससे कई सवाल पूछने थे और फिर एक लाश के साथ वहां बने रहने का भी मेरा कोई इरादा नहीं था ।

मैंने उसके मुंह पर पानी के छींटे मारने शुरू किए 

कुछ क्षण वाद उसने कराहकर आंख खोली ।

“उठके खड़ा हो जा, पहलवान ।” मैं कर्कश स्वर में बोला ।

उसने दो-तीन बार आंखें मिचमिचाइं और हड़बड़ाकर उठ बैठा ।

चेतावानी के तौर पर मैंने रिवॉल्वर उसकी तरफ तान दी । उसके नेत्र फैले । उसने जोर से थूक निगली 

“उठ !”

वो बड़ी मेहनत से उठके खड़ा हुआ ।

“फुसफुसा पहलवान निकला ।” मैं व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला, “दो करारे हाथों में ही बोल गया । भीतर से खोखला मालूम होता है ।”

निगाहों में कहर भरकर उसने मेरी तरफ देखा लेकिन मैं अब क्या डरता ! अब तो निगाहों से ज्यादा कहर बरपाने वाला आइटम युअर्स ट्रूली के हाथ में थी ।

तभी उसकी निगाह गलियारे के फर्श पर गड़ी । उसके पहले से फैले नेत्र और फैल गए ।

“मर गया ?” वह आतंकित भाव से वोला ।

“नहीं ।” मैं बोला, “सांस रोके पड़ा है । फेफड़ों को आराम दे रहा है । सांस लिए बिना जिन्दा रहने की मश्क कर रहा है ।”

“भैय्ये ! तेरी खैर नहीं ।”

“अभी तो अपनी खैर मना मोटे भैंसे ।”

“मैं तुझे बहुत बुरी मौत मारूंगा ।”

“क्या करेगा ! मुझे बकरे की तरह जिबह करेगा और खाल उधेड़कर उल्टा टांग देगा ! भूला तो नहीं होगा अभी अपना पुराना धन्धा !”

“पुराना धन्धा !”

“कल्लाल का ! हबीबुल्लाह खान बकरेवाला । उर्फ फुसफुस पहलवान ।”

वो चौंका ।

“तू... तू मुझे जानता है ?”

“तुझे क्या, मैं तेरे बाप को भी जानता हूं ।”

“मेरा बाप !”

“लेखराज मदान । तेरे से निपट लूं, फिर उसकी भी खबर लेता हूं जाकर ।”

अब वो साफ-साफ फिक्रमंद दिखाई देने लगा ।

“बाहर निकल ।” मैंने आदेश दिया ।

उसने हामिद की लाश को लांघकर बाहर गलियारे नें कदम रखा ।

“हामिद को” मैं बोला “खुद मारता तो लाश कहां ठिकाने लगाता ?”

“क... क्या?”

“वही जो मैं बोला । मरना तो इसने था ही । अब तेरा काम मेरे हाथों हो गया है । अब बोल लाश कहां ठिकाने लगाता ?”

“यहीं ।”

“क्या मतलब ?”

“ये मकान खाली है । हमारा इससे कोई वास्ता नहीं । हमने नकली चाबियों से इसके ताले खोलकर इसे जबरन कबजाया है । इसी काम के लिए ।”

“ओह !”  मैं एक क्षण खामोश रहा और फिर बोला, “भीतर चल ।”

हम दोनों वापस बैडरूम में लौटे । वहां मैंने उसे पलंग पर धकेला और उसी नायलॉन की उसी डोरी से उसकी मुश्कें कस दीं जिससे कि उसने मेरी वह गत बनवाई थी । फिर मैं कुर्सी घसीटकर उसके सामने बैठ गया ।

“शुरू हो जा ।” मैंने आदेश दिया ।

“क... क्या शुरू हो जाऊं?” वो कठिन स्वर में बोला 

“क्या कहानी है ?”

“क..क्या कहानी है?”

“ये बढ़िया है । जो मैं कहूं उसी को तू तोते की तरह रट दे । यूं ही रात बीत जाएगी, फिर दिन में कोई नया खेल खेलेंगे । ठीक है !”

वो खामोश रहा ।

“साले मैं अगवा की कहानी पूछ रहा हूं । क्यों किया मेरा अगवा । क्यों जरूरी है मेरा मदान के छोटे भाई के घर ग्यारह वजे पहुंचाया जाना? ये कहानी बोल । समझा ?”

“मुझे कुछ नहीं मालूम ।”

“क्या !” मैं आंखें निकालकर वोला ।

“भैय्ये मैं सच कह रहा हूं । पचास हजार की फीस के बदले में मुझे एक काम सौंपा गया था जो कि मैं कर रहा था ।”

“मुझे अगवा करके आगे डिलीवर करने का काम ?”

“हां ।”

“इतने से काम की फीस पचास हजार रुपए ?”

“ज्यादा नहीं है । इस फीस में एक कत्ल भी शामिल था ।”

“हामिद का ?”

“हां ।”

“तू अपने शागिर्द का कत्ल करता!”

“वो मेरा कुछ नहीं । वो महज भाड़े का टट्टू था जो इस उम्मीद में उछल-उछलकर मेरा साथ दे रहा था कि फीस में उसकी पचास फीसदी की शिरकत थी ।”

“जबकि ऐसी फीस उसे देने का तेरा कोई इरादा नहीं था ।”

“मुर्दे” उसके चेहरे पर एक क्रूर मुस्कराहट आई, “कहीं फीस वसूल करते हैं !”

“मदान ने भी ऐन यही सोचा होगा पचास हजार रुपए की फीस मुकर्रर करते हुए ।”

“क्या ?”

“यही मुर्दे कहीं फीस वसूल करते हैं !”

वो चौंका । उसके चेहरे पर अविश्वास के भाव आए । 

“मदान साहब” फिर वह धीरे-से बोला, “मेरे साथ यूं पेश नहीं आ सकते।”

“क्यों?  तू आसमान से उतरा है ? तू उसका सगेवाला है ?”

“मैंने उनकी बहुत खिदमत की है ।”

“फीस लेकर । फोकट में भी की हो तो बोल ।”

वो खामोश रहा । उसके चेहरे पर चिंता के भाव गहराने लगे ।

“अब अगवा की कहानी बोल ।”

“मुझे कुछ नहीं मालूम ।”

“अपने अंजाम से बेखबर तो होगा नहीं तू !”

“तू मेरा भी खून करेगा ?”

“खून खराबा मेरा काम नहीं ।”

“ये तब कह रहा है जबकि अभी पांच मिनट पहले एक खून करके हटा है ।”

“बक मत । मैंने सेल्फ डिफेंस में गोली चलाई थी ।”

“वो क्या होता है ?”

“आत्मरक्षा । अपनी जान बचाने के लिए गोली चलाई थी मैंने हामिद पर। विल्कुल अनपढ़ है ?”

“खून नहीं करेगा तो क्या करेगा मेरा ?”

“मैं तुझे पुलिस के हवाले करूंगा ।”

“क्यों ? मैंने क्या किया है ! खून-खच्चर तो तूने फैलाया है ।”

“साले ! मेरा अगवा नहीं किया ? जानता नहीं आई पी सी में कितनी सजा है अगवा की ?”

”हें.. हें .. हें । तू कोई औरत है ! तुझे कोई जबर-जिना का खतरा था ! तेरी कोई इज्जत लुट रही थी !”

“साले, मसखरी करता है !”

“मौजूदा हालात में पुलिस को यकीन दिला लेगा कि तेरा अगवा हुआ है।”

“क्या हुआ है हालात को ?”

“तुझे नहीं पता ? भीतर एक लाश पड़ी है जिसे लाश तूने बनाया है । मैं बंधा हुआ हूं । तू आजाद है । फिर भी तेरा अगवा हुआ है । हा हा हा ।”

मेरा खून खौल उठा । रिवॉल्वर की नाल की एक भरपूर दस्तक मैंने उसके नाक पर दी । वो पीड़ा से बिलबिला उठा । वैसे ही मैंने उसके कत्थई दांत खटखटाए, उसकी खोपड़ी ठकठकाई ।

“अल्लाह !” वो कराहता हुआ बोला, “अल्लाह !”

“मार के आगे भूत भागते हैं ।” मैं क्रूर स्वर में बोला, “पलस्तर उधेड़ दूंगा मार-मार के ।”

“भैय्ये तू नाहक मेरे पर जुल्म ढा रहा है । अल्लाह कसम, मुझे कुछ नहीं मालूम । मैंने लेना क्या था मालूम करके ! एक काम मिला । मैंने कर दिया । उसकी गहराई में जाने की मुझे क्या जरूरत है ?”

“हां । अब सुर में बोला है ।”

वो खामोश रहा ।

“सिगरेट पिएगा ?”

“फंकी लगाऊंगा ।”

मैंने उसकी जेब से तंबाकू की पुड़िया बरामद की और उसमें से कुछ तंबाकू उसके खुले मुंह में टपकाया । खुद मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया।

“तो वाकई तुझे नहीं मालूम” मैं बोला  “कि मेरे अगवा की क्या जरूरत आन पड़ी थी ?”

“नहीं मालूम ।” वो पुरजोर ढंग से इनकार में सिर हिलाता हुआ वोला, “कसम उठवा लो ।”

“हाल कैसा है आजकल तेरे बाप का ? कारोबार कैसा चल रहा है ?”

“हाल खराब है । कारोबार मंदा है ।”

“अच्छा ! ऐसा क्यों ?”

“कई पंगों में फंसा हुआ है, मदान साहब ! मुख्तलिफ किस्म के दबाव हैं उस पर जिन्हें वो झेल नहीं पा रहा ।”

“इतने बड़े दादा की बाबत ये बात कह रहा है ?”

वो खामोश रहा ।

“जवाब दे !”

उसने तंबाकू में रची-बसी थूक की एक पिचकारी परे दीवार की ओर फेंकी और फिर धीरे-से बोला, “मदान के वारे में क्या जानता है ?”

“खास कुछ नहीं ।”

“तभी तो । खास कुछ जानता होता तो मुझे मालूम होता कि वो बड़ा दादा नहीं खुशकिस्मत दादा है ! उसकी ताकत, मेहनत या सूझ ने नहीं, उसकी तकदीर ने उसे कुछ खास बुलंदियों तक पहुंचाया था और अब उसकी तकदीर ही उसको दगा दे रही है । और तकदीर पर भैय्ये कहां जोर चलता है किसी का वो सिर्फ दिल्ली का दादा है, उन बड़े दादाओं के सामने उसकी क्या औकात है जो सारे हिन्दोस्तान पर बल्कि सारे एशिया पर छाए हुए हैं ।”

“ऐसे बड़े गैंगस्टर भी उसकी आंख में डंडा किए हैं ?”

“पूरा पूरा ।”

“क्यों ?”

“उनकी माकूल खिदमत नहीं की । उनसे बाहर जा के अपना वजूद बनाने की कोशिश की । वो खफा हो गए । नतीजतन दो नम्बर के तमाम धंधों से मदान को अपना हाथ खींचना पड़ा । न खींचता तो बड़े दादाओं के हाथों कुत्ते की मौत मरता ।”

“और ?”

“और ऊपर से सरकार से पीछे पड़ गई । टैक्स वाले पीछे पड़ गए । कुछ गलत किस्म की लीडरान की शह पर कई सरकारी महकमात में ऐसे पंगे फंसा बैठा कि दिल्ली के लाट साहब तक खफा हो गए उससे और ऐसे ऐसे हुक्म फरमा बैठे कि आइन्दा दिनों में मदान साहब को रोटी के लाले पड़ जाएं तो बड़ी बात नहीं ।”

“कमाल है ।”

उसने थूक की एक और पिचकारी छोड़ी ।

“और ?” मैं मंत्रमुग्ध सा बोला ।

“और कोढ़ में खाज जैसा काम ये किया” वो धीरे से बोला, “कि बुढौती में ऐसी कड़क नौजवान छोकरी से शादी कर ली जो हीरे-जवाहरात जड़ी पौशाकें पहनती है, सोने का निवाला खाती है ।”

“कितनी उम्र होगी मदान की ?”

“पचपन के पेटे में तो शर्तिया है ।”

“और छोकरी ? “

“वो है कोई तेईस चौबीस साल की ।”

“बहुत खूबसूरत है ?”

“ताजमहल देखा है ?”

“हां ।”

“कैसा है ?”

“ओह ! इतनी खूबसूरत है ?”

“इससे ज्यादा । इतनी ज्यादा खूबसूरत है कि देखकर ही यकीन आता है ।”

“मैं देखूंगा ।”

“बस देख ही पाएगा । और उसे भी अपनी खुशकिस्मती समझना ।”

“पहलवान ! इस पंजाबी पुत्र की” मैंने अपनी छाती ठोकी, “खुशकिस्मती का जुगराफिया बड़ा टेढ़ा है । खासतौर से खूबसूरत औरतों के मामले में ! आखों में ऐसा मिकनातीसी सुरमा लगाता हूं कि एक बार कोई आंखों में झांक ले तो कच्चे धागे से बंधी पीछे खिंची चली आए । बल्कि कच्चे धागे की भी जरूरत नहीं ।”

वो खामोश रहा । प्रत्यक्षत: मेरी वैसी किसी खूबी से उसे कोई इत्तफाक नहीं था 

“शादी क्यों की ?” मैंने नया सवाल किया, “खूबसूरत औरत को हासिल करने के लिए मदान जैसे अण्डरवर्ल्ड डान कहीं  शादी के बंधन में बंधते हैं !”

“नहीं बंधते । मदान साहब की भी ऐसी कोई मर्जी नहीं थी । लेकिन और किसी तरीके से वो छोकरी पुट्ठे पर हाथ ही नहीं रखने देती थी मदान साहब को । उसको हासिल करने की वाहिद शर्त शादी थी मदान साहब के सामने ।”

“अपना जलाल दिखाया होता ।”

“दिखाया था । काम न आया । मदान साहब उसकी पीठ पीछे गरजता था कि उठवा दूंगा, बोटी-बोटी काटकर चील कौवों को खिला दूंगा, ये कर दूंगा, वो कर दूंगा, लेकिन जब छोकरी के सामने पड़ता था तो भीगी बिल्ली की तरह मिमियाने लगता था । जादू कर दिया था अल्लामारी ने मदान साहब पर । सात फेरों के लपेटे में लेकर ही मानी कमबख्त मदान साहब को ।”

“थी कौन ? करती क्या थी ?”

“चिट्ठियां ठकठकाती थी पुनीत खेतान के दफ्तर में ।”

“टाइपिस्ट थी ?”

“यही होगी अंग्रेजी में ।”

“और ये पुनीत खेतान कौन साहब हुए ?”

“खेतान साहब मदान साहब का कोई नावें-पत्ते का सलाहकार है और कोरट कचहरी की भी कोई सलाह मदान साहब को चाहिए होती है तो मदान साहब उसी के पास जाता है ।”

“फाइनांशल एंड लीगल एडवाइजर !”

“वही होगा अंग्रेजी में ।”

“इतनी खूबसूरत लड़की उसकी मुलाजमत में थी तो उसने नहीं हाथ रखा उस पर ?”

“कोशिश तो जरूर की होगी । खीर का कटोरा सामने पाकर कोई उसमें चम्मच मारने की कोशिश से बाज आता है !”

“यानी कि कोशिश करने वाले कई थे लेकिन वो खीर खाई मदान साहब ने ही ।”

“यही समझ ले ।” वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला, “वैसे मुझे तो अफसोस ही हुआ था !”

“क्यों ?”

“अरे, इतना वड़ा दादा, इतना बड़ा साहब, गिरा तो एक चिट्ठियां ठकठकाने वाली छोकरी की जूतियों में जाकर ! और छोकरी भी कम्बख्त ऐसी खर्चीली कि देख लेना मदान साहब को नंगा करके छोड़ेगी । लाखों रुपये से कम कीमत की चीज की ख्वाहिश ही नहीं करती पट्ठी । और वो भी मदान साहब की ऐसी हालत के दिनों में जबकि न धंधा साथ दे रहा है न तकदीर !”

“विनाशकाले विपरीत बुद्धि ।”

“क्या ?”

“कुछ नहीं । तो पट्ठा बुझती चिलम में फूंके मार-मार के नौजवानी के मजे लूट रहा है । हजम हो या ना हो, खीर खा रहा है ।”

“हां । फिलहाल तो बैठा है सांप की तरह कुंडली मारकर हुस्नो-शबाब की दौलत पर ।”

“वाह, खलीफा ! बहुत उम्दा जुमला कसा । और अभी कहते हो कि अनपढ़ हूं ।”

वो दांत निकालकर एक भद्दी-सी हंसी हसा ।

“यूं तो” मैं बोला, “तेरा उम्रदराज बॉस कभी हुस्न के सैलाब में बह जाएगा, जोबन के पहलू में दम तोड़ देगा ।”

“कोई बड़ी बात नहीं ।”

“पहले तो वो देवनगर में कहीं रहता था । अब भी वहीं रहता है ?”

“नहीं । अब तो वो एक होटल में रहता है ।”

“कौन से होटल में ?”

“जो बाराखम्भा रोड पर नया बना है । उसकी सबसे ऊपरली मंजिल तमाम की तमाम मदान साहब के कब्जे में है ।”

“और कौन रहता है वहां ?”

“कोई नहीं ।”

“भाई भी नहीं ?”

“वो तो अलग कोठी में रहता है ।”

“कहां ।”

“मेटकाफ रोड । कोठी नंबर दस ।”

“जहां कि तू मुझे दिन के ग्यारह बजे पहुंचाने वाला था ?”

“हां ।”

“छोटे भाई का नाम क्या है ?”

“शशिकांत ।”

“शादीशुदा है ?' “

“नहीं ।”

“वहां मेटकाफ रोड पर अकेला रहता है ?”

“हां ।”

“भाई के पास क्यों नहीं रहता ?”

“वजह नहीं मालूम ।”

“अब साथ नहीं रहता या पहले भी साथ नहीं रहता था ?”

“जहां तक मुझे मालूम है, पहले भी साथ नहीं रहता था ।”

“मेरे अगवा का हुक्म तुझे लेखराज मदान से मिला लेकिन मुझे अगवा करके तूने मुझे उसके छोटे भाई की कोठी पर पहुंचाना है । ऐसा क्यों ? उसी के पास क्यों नहीं जिसने कि अगवा का हुक्म दिया ?”

“पता नहीं ।”

“सुर बदल रहा है, पहलवान । एकाध दांत हलक में उतर गया नहीं देखना चाहता तो पहले वाले सुर का ही रियाज रख ।”

“अल्लाह कसम, नहीं पता ।”

“मैं मालूम करूंगा ।”

 

 

“तू उससे मिलने जाएगा ?”

“ये भी कोई पूछने की बात है ! मैं तो मरा जा रहा हूं ये जानने के लिए कि क्यों वो मेरे अगवा का तलबगार है ।”

“वो बताएगा ?”

“राजी से तो नहीं बताएगा ।”

“तू तो यूं कह रहा है जैसे तू मदान साहब के साथ कोई जोर-जबरदस्ती कर सकता है ।”

“ठीक पहचाना ।”

उसके चेहरे पर विश्वास के भाव न आए ।

“जिन्दा लौट के नहीं आएगा ।” वो बोला ।

“यकीनन आऊंगा । साथ में इस बात की भी मुकम्मल जानकारी लेकर आऊंगा कि जिसको तू ताजमहल का दर्जा दे रहा है, वो ताजमहल जैसी अजीमोश्शान है भी या नहीं ।”

“भैय्ये, अगर तेरे ऐसे ही इरादे हैं तो तू मदान साहब की गोली से नहीं मरेगा, तू और तरीके से मरेगा ?”

“और तरीके से कैसे ?”

“तू मदान साहब की हुस्नपरी पर निगाह डालेगा और गश खा जाएगा । फिर पछाड़ खाकर उसके कदमों में गिरेगा और इस फानी दुनिया से रुखसत फरमा जाएगा ।”

“देखेंगे ।” मैं लापरवाही से बोला और उठ खड़ा हुआ 

“मेरा क्या होगा ?” एकाएक वो व्याकुल भाव से बोला 

“कुछ नहीं होगा । थोड़ा वक्त तुझे यहां यूं ही गुजारना पड़ेगा । मैं तेरे बॉस को तेरी खबर करूंगा, फिर आगे वो ही फैसला करेगा कि तेरा क्या होगा ।”

“वो मुझे जान से मार डालेगा ।”

“काहे को ! तूने क्या किया है ?”

“मैं काम को अंजाम जो न दे सका । मैं तेरे को उस तक पहुंचा जो न सका ।”

“तो क्या हुआ ? मैं खुद ही पहुंच रहा हूं । समझ ले तेरी खातिर मैं उसके हुजूर में खुद पेश हुआ ।”

“लेकिन...”

“तुझे इस बात पर शक है कि मैं तेरे बॉस के पास जा रहा हूं ।”

“वो बात तो नहीं है लेकिन...”

“क्या लेकिन ? तू क्या चाहता है कि मैं तेरे को आजाद कर दूं और ये रिवॉल्वर तुझे थमा दूं ताकि अपने ओरिजिनल प्रोग्राम के मुताबिक तू मुझे बकरी की तरह हांक के अपने बाप के खूटे से बांध आए और पचास हजार रुपए की फीस वसूल कर ले । यही चाहता है न ?”

“चाहता तो मैं यही हूं ।” वो बड़ी संजीदगी से बोला, लेकिन भैय्ये, ऐसा हो तो नहीं सकता न !”

“सोच कोई तरकीब ।”

वो खामोश रहा ।

“तंबाकू थूक ।” मैंने आदेश दिया ।

वो असमंजसपूर्ण ढंग से मेरी ओर देखने लगा ।

मैंने जेब से रूमाल निकालकर उसका एक गोला सा बनाया और बोला, “मुंह खोल ।”

तब मेरा इरादा उसकी समझ में आया ।

“मेरा दम घुट जाएगा ।” उसने आर्तनाद किया ।

“नहीं घुटेगा ।”

“मैं मर जाऊंगा ।”

“नहीं मरेगा ।”

“भैय्ये, रहम कर, मैं...”

“खलीफा, दिन चढे तक तेरी हालत कितनी भी बद क्यों न हो जाए, उस हालत में तू फिर भी नहीं पहुंचेगा जिसमें बाहर गलियारे में पड़ा तेरा जोड़ीदार पहुंचा हुआ है ।”

मैंने रूमाल जबरन उसके मुंह में ठूंस दिया ।

फिर मैंने उसकी जेबें  टटोली 

एक जेब से एक लंबा, रामपुरी, कमानीदार चाकू बरामद हआ । चाकू देखकर मुझे अपनी अक्ल पर बहुत अफसोस हुआ । तलाशी का वो काम मुझे तब करना चाहिए था जबकि वो टॉयलेट के फर्श बेहोश पड़ा था । वो खतरनाक चाकू उसके हक में बाजी पलट सकता था लेकिन गनीमत थी कि ऐसा हुआ नहीं था ।

यानी कि इस पंजाबी पुत्तर की फेमस लक ने अभी उसका साथ देना बंद नहीं किया था ।

उसकी एक और जेब से चौंतीस सौ रूपये के नोट बरामद हुए ।

“पहलवान ।” मैं बोला  ये उस झापड़ की एबज में कब्जा रहा हूं जो तूने मुझे मारा था ।”

उसकी ऑखें अपनी कटोरियों में बड़ी बेचैनी से घूमी ।

गैरेज में खड़ी कार की चाबियां मैंने गलियारे में जाकर हामिद की जेब से बरामद कीं । इतनी रात गए मुझे आसानी से कोई सवारी मिलने वाली जो नहीं थी 

आखिर में मैंने हर उस स्थान को रगड़-रगड़ कर पोंछा जहां से मेरी उंगलियों के निशान बरामद  होने की सम्भावना हो सकती थी ।