"देवा!"

पेशीराम यानी फकीर बाबा की आवाज कान में पड़ते ही देवराज चौहान चौंका। उसने फौरन गरदन घुमाकर पीछे वाली सीट पर नजर मारी तो वहां फकीर बाबा को बैठे पाया। गरदन तक जाते सफेद बाल, माथे पर चंदन का तिलक, झुर्रियों से भरा चेहरा--परंतु चेहरे पर तेज था। गले में माला और जनेऊ । सफेद चमकती धोती, जिसका किनारा उसने बगल में दबा रखा था।

सुबह के आठ बज रहे थे। देवराज चौहान सामान्य गति से कार ड्राइव कर रहा था। पंद्रह मिनट पहले ही वो बंगले से निकला था। सड़कों पर अभी ज्यादा ट्रैफिक नहीं था।

"पेशीराम!" देवराज चौहान के होंठों से निकला और सामने देखने लगा।

"कैसे हो देवा ?" फकीर बाबा की आवाज में गंभीरता कूट-कूटकर भरी हुई थी।

"अच्छा हूँ, तुम यहां... कैसे ?"

"जरूरी काम था। अपना आज का दिन मेरे को दे दे देवा ।"

"क्या मतलब?" देवराज चौहान के माथे पर बल पड़े। रिव्यू मिरर से उसने फकीर बाबा पर नजर मारी।

"सीधी सी बात का कोई मतलब नहीं होता। अपना आज का दिन मेरे को दे दे। कार को अभी वापस मोड़ ले और बंगले पर पहुंचकर, पूरा दिन वहीं बिता। कल ही बाहर निकलना।" फकीर बाबा ने व्याकुल स्वर में कहा।

"ऐसा क्यों पेशीराम ?"

"आगे कुछ वक्त बाद तेरे ग्रह ऐसे केंद्रबिंदु पर इकट्ठे हो रहे हैं कि अगर तूने मेरी बात न मानी तो मौत का तूफान उठ खड़ा होगा, जो कि तेरे लिए बहुत बुरा होगा। हर तरफ मुसीबतें और बरबादी होगी और बीच में तू होगा देवा।"

चंद पलों की खामोशी के बाद देवराज चौहान बोला।

"स्पष्ट कहो पेशीराम कि तुम कहना क्या चाहते हो ?”

"तेरे ग्रह आज तेरे को ऐसे रास्ते पर डाल सकते हैं कि जहां तुझसे मिन्नो (मोना चौधरी) मिलेगी। तुम दोनों सामने होगे। एक-दूसरे के खून के प्यासे। मौत तुम दोनों में से किसी के भी भाग्य के हिस्से में आ सकती है। अगर आज का दिन टल गया तो इकट्ठे होने वाले ग्रह बिखरते चले जाएंगे। जो मौत का तूफान उठने वाला है, वो नहीं उठेगा। सब ठीक हो जाएगा।" फकीर बाबा का स्वर गंभीर था ।

देवराज चौहान का चेहरा कठोर होता चला गया।

"कार वापस मोड़ ले देवा! वापस... !"

"इसलिए कि मोना चौधरी से मेरा टकराव न हो।"

"मिन्नो के अलावा और भी ढेरों खतरें तेरे पास आ जाएंगे। एक वक्त ऐसा भी आएगा कि मिन्नो को तू भूलकर, दूसरे खतरों में व्यस्त हो जाएगा। मैं तेरा और मिन्नो का भला चाहता हूं। मौत तुम दोनों का इंतजार कर रही है। मेरी बात मानकर तुम और मिन्नो उन खतरों से बच जाओगे, जो तुम्हें नजर नहीं आ रहे, लेकिन मैं स्पष्ट देख रहा हूं।" फकीर बाबा गंभीर स्वर में बोला।

देवराज चौहान कुछ न बोला।

"वक्त कम है देवा । सारे ग्रह केंद्रबिंदु पर पहुंचने शुरू हो चुके हैं। वो कभी भी अपना असर...!"

"मैं जहां जा रहा हूं, मेरा वहां पहुंचना बहुत जरूरी....!"

"जिद न कर देवा । तेरे को... !"

"अगर कोई और बात होती तो मैं एक दिन क्या, तेरे कहने पर दस दिन बंगले में बैठ जाता। लेकिन बंगले पर मैं इसलिए बैठ जाऊं कि मोना चौधरी से आमना-सामना होने से बच जाऊंगा तो...!"

"देवा! इसके अलावा भी मौत कई रूपों में तेरे सामने...।"

"नहीं पेशीराम! मैं तेरी बात नहीं...!"

देवराज चौहान अपने शब्द पूरे न कर सका।

एकाएक चलते-चलते कार का इंजन बंद हो गया। वो अपनी रफ्तार में आगे बढ़ती जा रही थी। देवराज चौहान ने कार को स्टार्ट करने की चेष्टा की परंतु स्टार्ट नहीं हुई। होंठ भींचकर देवराज चौहान ने कार को सड़क के किनारे किया और रोकने के बाद गरदन घुमाकर पीछे देखा।

देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ीं।

पीछे वाली सीट पर फकीर बाबा नहीं था। सीट खाली पड़ी थी।

पेशीराम हवा बनकर आया था और हवा बनकर चला गया था।

देवराज चौहान ने सोचों में डूबे कार को स्टार्ट करने की चेष्टा की, परंतु वो स्टार्ट नहीं हुई तो उसने भीतर से कार का बोनट खोला और बाहर निकलकर बोनट को ऊपर उठाते हुए उसे हुक में फंसाकर इंजन चैक करने लगा कि कार बंद होने की क्या वजह हो सकती है।

मिनट भर ही हुआ होगा इंजन में हाथ की उंगलियां चलाते हुए कि...!

"ऐ-बचो...!"

देवराज चौहान के कानों में तेज आवाज पड़ी।

आवाज सुनते ही देवराज चौहान ने फुर्ती में सिर घुमाकर देखना चाहा कि.... उसी पल उसके कंधे पर हाथ रखकर किसी ने जोरों से धक्का दिया। वो नहीं समझ पाया कि क्या हुआ है परंतु उस धक्के के साथ ही उसकी टांगें फुटपाथ से टकराई और वो फुटपाथ पर लुढ़कता चला गया।

देवराज चौहान का लुढ़कना रुका ही था कि उसके कानों में टक्कर की तीव्र आवाज पड़ी।

देवराज चौहान ने जो देखा, वो देखता ही रह गया।

उसकी कार से ट्रक आ टकराया था। कार के बोनट वाले हिस्से पर ट्रक चढ़ा हुआ था। वो सारा हिस्सा ट्रक के नीचे दब गया था। अगर वो वहां खड़ा रहता, उसे किसी ने धक्का न दिया होता तो उसने इस टक्कर में जिन्दा नहीं बचना था। देवराज चौहान ने ट्रक की ड्राइविंग सीट पर नजर मारी तो वहां उसे चौदह-पंद्रह साल का नई उम्र का लड़का बैठा दिखा, जो कि घबराया हुआ था। भय के कारण उसका चेहरा सफेद पड़ा हुआ था। जाहिर था कि मौका देखकर यूँ ही उसने ट्रक को स्टार्ट करके आगे बढ़ाया होगा कि ट्रक बेकाबू हो गया होगा।

ट्रक अभी भी स्टार्ट था। उसके इंजन की आवाज देवराज चौहान के कानों में राक्षस के ठहाकों जैसी पड़ रही थी।

उसने खुद को संभाला।

देवराज चौहान उठा और इधर-उधर नजरें दौड़ाने लगा। उसे उस व्यक्ति की तलाश थी, जिसने उसे धक्का देकर ट्रक और कार के बीच पिसने से बचाया था।

धीरे-धीरे लोग इकट्ठा होने शुरू हो गए थे।

देवराज चौहान तेजी से आगे बढ़ा और ट्रक का ड्राइविंग डोर खोलकर लड़के से बोला।

"जल्दी से भाग जाओ यहां से और फिर कभी इस तरह ट्रक को चलाने की कोशिश मत करना।"

"अंकल, मुझे माफ कर....।"

"कर दिया माफ! भाग जा, पुलिस आ गई तो बुरा भुगतेगा। लेकिन दोबारा इस तरह ट्रक मत चलाना।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।

उसने घबराहट और भय से सूखे होंठों पर जीभ फेरी। वहीं बैठा रहा।

देवराज चौहान ने उसकी बांह पकड़कर ट्रक से नीचे उतारा।

"भाग।"

वो चला।

भागना क्या था उसने। डर की वजह से ठीक से चला भी नहीं जा रहा था ।

तभी एक व्यक्ति पास पहुंचा और अजीब से स्वर में बोला।

"सर जी ! उसे क्यों भगा रहे हैं। पुलिस आती ही होगी, इसे पुलिस में...।"

"ट्रक चलाने वाला तो भाग गया। वो तो यूं ही ट्रक में था।" देवराज चौहान ने कहा।

"ओह!" वो व्यक्ति एक्सीडेंट को देखने लगा--- "कितनी जबरदस्त टक्कर मारी है। आपकी कार तो गई।"

अन्य लोग भी आ गए। वो दूसरे लोगों के साथ बातों में लग गया।

तभी देवराज चौहान के पास जो व्यक्ति पहुंचा, वो पचास बरस का बेहद अमीर व्यक्ति लग रहा था। उसने कीमती सूट और सोने के फ्रेम वाली ऐनक लगा रखी थी। उसके काले-सफेद बाल पीछे की तरफ जा रहे थे। गले में सोने की भारी चेन और उससे फंसा हीरे का पैंडल नजर आ रहा था। हाथों की उंगलियों में चार हीरे की अंगूठियां नजर आ रही थीं।

"तुम बच गए। मैंने वक्त पर धक्का न दिया होता तो बहुत बुरा होता।" वो मुस्कराकर बोला।

"ओह! आपने मुझे बचाया।" देवराज चौहान ने आभार भरे स्वर में कहा।

"इत्तफाक से मेरी कार सड़क के उस पार खड़ी है। इधर कुछ काम था तो मैंने ड्राइवर को वहीं रुकने को कहा और खुद पैदल ही सड़क पार करता इस तरफ आ गया।" वो शांत स्वर में कह उठा--- "अभी आधा रास्ता ही पार किया था कि ट्रक को गलत ढंग से सड़क पर आते देखा। ये भी देखा कि उसे नई उम्र का बच्चा चला रहा है और ट्रक तुम्हारी तरफ बढ़ रहा है। तुम बोनट पर झुके ईंजन में व्यस्त थे। ऐसे में मैं तुम्हारी तरफ दौड़ा और वक्त रहते तुम्हें धक्का दे दिया।"

देवराज चौहान खुलकर मुस्कराया।

"आपने बहुत अच्छा काम किया। मैं आपका एहसानमंद हूं।" देवराज चौहान ने कहा--- "मैं आपके लिए कुछ कर सका तो मुझे बहुत खुशी होगी।"

"तुम... तुम क्या काम करते हो ?"

देवराज चौहान ने वहां इकट्ठी होती भीड़ पर नजर मारी फिर बोला।

"यहां से उधर चलते हैं। यहां बहुत भीड़...!"

"तुम्हारी कार--अभी पुलिस आती ही होगी।"

"वो बाद में देख लेंगे।" देवराज चौहान कहने के साथ वहां से आगे बढ़ गया। वो पुलिस के फेर में नहीं पड़ना चाहता था। पुलिस ने उसे देवराज चौहान के रूप में पहचान लिया तो नई मुसीबत खड़ी हो जानी थी। बच निकलने का भी रास्ता नहीं मिलना था।

वो व्यक्ति साथ ही था, देवराज चौहान के ।

"मैं क्या काम करता हूं, वो छोड़िए। आपने मेरी जान बचाई, उसके बदले में मैं आपका कैसा भी काम कर सकता हूं।"

वो व्यक्ति देवराज चौहान के चेहरे पर नजरें टिकाए गहरी सोच में दिखा।

"आपका नाम ?"

"विष्णु सहाय ! शहर के बड़े लोग मुझे जानते हैं।" वो धीमे स्वर में बोला।

"मेरे लायक कोई काम हो तो कहिए ?"

"एक बात तो है।" उसने सोच भरे स्वर में कहा--- "उसकी वजह से मैं बहुत परेशान हूं।"

"क्या ?" देवराज चौहान ने दूर भीड़ को देखते हुए सिग्रेट सुलगा ली।

विष्णु सहाय कुछ पल खामोश रहकर कह उठा।

"मुझे समझ नहीं आ रहा कि ये बात तुमसे कहूं या नहीं। मेरा व्यक्तिगत मामला है। छः महीने पहले मैंने काशीपुर गांव के पास बहुत बड़ी जमीन खरीदी थी। इतनी बड़ी कि उस जमीन को पैदल नापने में सुबह से शाम हो जाए। वहां, उस जमीन पर मिट्टी के बड़े-बड़े टीले हैं।" कहते-कहते वो रुका।

देवराज चौहान उसे ही देख रहा था ।

उधर, उसकी कार के पास भीड़ बढ़ती जा रही थी।

"तुम उधर जाओ। कार के पास।" विष्णु सहाय कह उठा--- "वहां भीड़ हो गई है। तुम्हारी कार में कीमती सामान भी होगा, कहीं कोई उठा न ले। और...!"

तभी पुलिस सायरन की आवाज सुनाई दी।

"लो पुलिस भी आ...!"

"आपकी कार किधर है ?" एकाएक देवराज चौहान कह उठा।

"मेरी कार...वो तो उधर--वो देखो, सड़क पार।"

देवराज चौहान ने विष्णु सहाय की कलाई पकड़ी और बोला ।

"आओ।"

"लेकिन उधर तुम्हारी कार... !"

"मेरे साथ चलो।" देवराज चौहान का लहजा सख्त किंतु भावहीन था--- "मेरी कार की फिक्र मत करो।"

"अजीब आदमी हो तुम। लाखों की कार पिचक गई, लेकिन तुम्हें परवाह नहीं। वहां भीड़ लगी हुई है। पुलिस भी आ पहुंची है और तुम...।"

"कार इंश्योर्ड है।" उसने टालने वाले स्वर में कहा--- "मुझे पैसा मिल जाएगा।"

"वो तो तभी मिलेगा, जब तुम पुलिस वालों से लीखित में लोगे। उनसे बात करोगे और...!"

वो सड़क के दूसरी तरफ विदेशी महंगी कार के करीब जा पहुंचे थे।

"ड्राइवर से कहिए कि वो कहीं घूम ले। हम भीतर बैठकर बात कर लेते हैं।" देवराज चौहान ने कहा।

वो देवराज चौहान को छोड़कर आगे गया और भीतर बैठे ड्राइवर से कुछ कहते हुए पीछे वाला दरवाजा खोलकर भीतर बैठ गया। ड्राइवर बाहर निकला और कार से दूर जाकर खड़ा हो गया।

ये देखकर देवराज चौहान ने कश लेकर सिग्रेट फेंकी और विष्णु सहाय के पास, भीतर आ बैठा।

"वो देखो, उधर तुम्हारी कार पुलिस के घेरे में है।" विष्णु सहाय बोला।

देवराज चौहान ने गरदन घुमाकर सड़क के पार देखा।

ट्रक चढ़े कार के पास अब पुलिस वाले भी दिखने लगे थे।

"तुमने बताया नहीं कि काम क्या करते हो?" विष्णु सहाय एकाएक कह उठा।

"बता दूंगा।" देवराज चौहान ने गरदन घुमाकर उसे देखा--- "आप जमीन के बारे में कुछ कह रहे थे।"

"हां, समझ में नहीं आता कि क्या करूं। दुखी आदमी हर किसी से बात कर बैठता है। यही हाल मेरा है।" विष्णु सहाय ने सिर हिलाकर कहा--- "मैं काशीपुर की उस जमीन पर शानदार फार्म हाउस बनाना चाहता हूं। वहां फलों के बाग लगाना चाहता हूं। एक हिस्से में अनाथ बच्चों के लिए स्कूल खोलना चाहता हूं कि उन्हें शानदार भविष्य मिले। वहां पढ़ते हुए उन्हें रोटी कपड़ा और मां-बाप की कमी न रहे। उनके लिए हर तरह के सुख का इंतजाम करना चाहता हूं। ऐसे एक-दो काम और भी हैं, लेकिन समझ नहीं आता कि क्या करूं? ओह! मैंने तो तुम्हारा नाम पूछा ही नहीं---क्या नाम है तुम्हारा ?"

देवराज चौहान ने पल भर के लिए होंठ सिकोड़े, फिर बोला।

"देवराज चौहान।"

"देवराज चौहान...हूं, अच्छा नाम है। तो मैं बता रहा था कि काशीपुर गांव की उस जमीन को बराबर करवाने और उसे समतल कराने का ठेका मैंने उमाकांत दूबे नाम के ठेकेदार को दिया। उसने उस जगह को समतल कराने के लिए काम शुरू करवा दिया। पहले दिन ही, उधर काम हो रहा था कि उसी वक्त दोपहर को खाना खाते हुए ठेकेदार को दिल का दौरा पड़ा और वो मर गया।"

देवराज चौहान विष्णु सहाय को देखे जा रहा था!

"सुन रहे हो न मेरी बात ?"

"हां।"

"कोई बात नहीं, मैंने सोचा--लोग कई बार इस तरह भी मर जाते हैं। उसके बाद मैंने जगत सिंह नाम के ठेकेदार को इस काम पर लगा दिया। पहले दिन ही जब काम शुरू हुआ तो जगत सिंह वहीं था। काम शुरू होने के तीस मिनट बाद ही उसे भी दिल का दौरा पड़ा और मजदूरों के देखते ही देखते वो नीचे गिरा और मर गया।" विष्णु सहाय परेशान सा कह उठा--- "ये भी कोई मजाक है कि एक के बाद एक, दोनों ठेकेदारों को दिल का दौरा पड़ गया। दोनों ही मर गए। मैं नहीं मानता कि ऐसा हो सकता है लेकिन ऐसा हुआ। क्यों हुआ, मैं नहीं समझ पा रहा। मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं कि मेरी इतनी महंगी जमीन और मेरे सपने डूब रहे हैं। जो काम मैं उस जमीन पर कराना चाहता था, वो शायद न हो पाए। वहां का माहौल मुझे बहुत पसंद है। मैंने उसी जमीन पर अपना काम शुरू करवाना चाहता था।"

"इसमें परेशानी क्या है?" देवराज चौहान बोला--- “जो हुआ, उसे हादसा ही कह सकते हैं। आप किसी ठेकेदार से बात करके उस काम को शुरू...।"

"मैं कोशिश करके थक गया हूं। उस पर काम करने को कोई तैयार नहीं होता। कोई तैयार होता है, वो काशीपुर गांव का फेरा लगाकर आता है और मना कर देता है काम से!"

"क्यों ?"

"गांव वाले उसे भड़का देते हैं।" विष्णु सहाय थके अंदाज में धीमे स्वर में बोला--- "जब मैं वो सारी जमीन खरीद रहा था तो गांव वालों ने मुझे बहुत मना किया था कि वो जमीन ठीक नहीं है। वहां कोई काम नहीं हो सकता। उनका कहना था कि उस जमीन पर कोई मकान बनाने की कोशिश करता है, तो मकान की दीवारें गिर जाती हैं, कोई वहां खेती करना चाहता है तो उसका हल टूट जाता है। ट्रेक्टर चलना वहां शुरू होता है तो ट्रेक्टर ऐसा खराब होता है कि फिर वो कभी भी नहीं चल पाता और कबाड़ के भाव ही बाद में बिकता है। अगर कोई बार-बार उस जमीन पर खेती करने या कोई दूसरा काम करने की चेष्टा करता है तो उसका दिल फेल हो जाता है। वो रात को लेटता है, परंतु सुबह मृत पाया जाता है। ये सब बातें गांव वाले मुझे बता चुके थे पहले। लेकिन मैं जिद पर रहा कि ऐसा कुछ नहीं होगा। मैं जमीन खरीद कर उन्हें वहां सब कुछ बनाकर दिखाऊंगा लेकिन उस जमीन पर काम करने वाले दोनों ठेकेदार बारी-बारी दिल का दौरा पड़ने से मारे गए। मुझे... मुझे लगता है कि गांव वाले ठीक कहते हैं। समझ में नहीं आता कि क्या करूं। इतनी महंगी जमीन को छोड़ भी नहीं सकता और जो वहां काम करने जाता है, गांव वाले उसे डरा देते हैं।"

देवराज चौहान सोच भरी निगाहों से विष्णु सहाय को देखता रहा।

"सच बात तो ये है कि तुम्हें सुनी-सुनाई बातें बता रहा हूं। लेकिन इन बातों पर विश्वास मुझे भी नहीं।"

देवराज चौहान जवाब में कुछ नहीं बोला।

"सुना तुमने देवराज चौहान—जो मैंने कहा।"

"हां।" देवराज चौहान के होंठ हिले ।

"अगर तुम मेरे काम आना चाहते हो तो मेरी काशीपुर वाली जमीन को समतल करा दो। इसके बदले तुम्हें कोई भी जायज रकम दे दूंगा। साथ में ढेरों मेहरबानियां और...!"

"मिस्टर सहाय।" देवराज चौहान एकाएक सिर हिलाकर बोला--- "मैंने आपकी बात सुन ली है। अभी एकदम फैसला नहीं कर सकता कि क्या कहूं। अपना फोन नंबर दे दीजिए कि...!"

विष्णु सहाय ने उसी पल उसके हाथ में कार्ड थमा दिया।

"इस पर मेरे छः फोन नंबर लिखे हैं। मुझे फोन करके बताना कि मैं क्या करूं। कैसे उस जमीन को ठीक...एक बात तो बताओ, क्या तुम इन सब बातों को मानते हो। मेरा मतलब है बुरी बलाओं की बातें... मनहूस चीजों की बातें या जो मैंने तुम्हें बताया है कि गांव वाले क्या कहते हैं--वो बातें, मानते हो ये सब ?"

"कह नहीं सकता।" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली।

"ये कोई जवाब नहीं हुआ। सीधे-सीधे हां या न कहो।"

देवराज चौहान ने विष्णु सहाय को देखा। फिर शांत स्वर में कहा।

"इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं।"

"इसका मतलब मानते हो कि ये सब होता है ?"

"मालूम नहीं, मैंने ये तो नहीं कहा।"

"यानी कि ये सब बातें नहीं होतीं ?"

"पता नहीं।"

"मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि तुम कहना क्या चाहते हो। क्या जवाब दे रहे...?" उसके चेहरे पर उलझन आ ठहरी थी।

"मैंने कोई जवाब नहीं दिया कि, जो आपको समझ आए मिस्टर सहाय।"

विष्णु सहाय गंभीर निगाहों से देवराज चौहान को देखने लगा।

"चलता हूं।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने दरवाजा खोला।

"मतलब कि तुम इस मामले में मेरी कोई सहायता नहीं कर सकते ?" विष्णु सहाय ने एकाएक कहा।

"कल फोन करके बताऊंगा।"

"मेरा फोन कार्ड संभालकर रखना। किसी भी नंबर पर मेरे से बात कर लेना।"

देवराज चौहान ने सिर हिला दिया।

उसे बाहर निकलते, पाकर दूर खड़ा ड्राइवर फौरन पास आ पहुंचा था।

"वो देखो, तुम्हारी कार और ट्रक को पुलिस ने घेर रखा...!"

"मैं वहीं जा रहा हूं।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

"तुम्हारे फोन का इंतजार करूंगा।"

देवराज चौहान ने सिर हिला दिया।

विष्णु सहाय कार पर वहां से चला गया।

देवराज चौहान ने हाथ में दबे कार्ड पर निगाह मारी और उसे जेब में डालने के पश्चात पैदल ही आगे बढ़ गया। कुछ आगे जाकर उसे टैक्सी मिल गई।

■■■

सब कुछ सुनने के बाद एकाएक जगमोहन कुछ न कह सका। वो सोच भरी नजरों से देवराज चौहान को देखता रहा। सामने पड़ा कप उठाकर घूंट भरा।

"पेशीराम की कोई भी बात आज तक झूठ नहीं निकली।" जगमोहन के गंभीर स्वर ने खामोशी को तोड़ा।

देवराज चौहान ने चाय का प्याला टेबल पर रखा।

"मैं जानता हूं कि पेशीराम झूठ नहीं बोलता।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "लेकिन उसकी बात सुनकर, ये जानकर कि आगे मोना चौधरी है, मैं वापस नहीं पलट सकता था।"

"मोना चौधरी मिली तो नहीं।" एकाएक जगमोहन ने कहा।

"हां! नहीं मिली, लेकिन पेशीराम की बात आगे कहीं भी सच हो सकती है।"

दोनों की नजरें मिलीं।

"तुम्हारा मतलब है कि मोना चौधरी मिलेगी अभी ?"

"शायद...।"

जगमोहन ने बेचैनी से पहलू बदला।

"विष्णु सहाय की जमीन के बारे में क्या कहते हो ?" जगमोहन ने पूछा।

"वो अच्छा इंसान है। उसने खुद को खतरे में डालकर मुझे बचाया। मुझे धक्का देते समय खुद भी ट्रक के नीचे आ सकता था।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैं उसके लिए कुछ करना चाहूंगा।"

"क्या-कैसे ?" जगमोहन के होंठों से निकला।

“वहां, काशीपुर गांव में उस जमीन पर जाकर देखेंगे कि क्या सच है और क्या झूठ ?"

"कोई नई मुसीबत गले पड़ गई तो काशीपुर में कोई बचाने वाला भी नहीं मिलेगा।" जगमोहन ने मुंह बनाकर कहा--- "सोच लो, मेरे खयाल में छोड़ो इस बेकार की...!"

"विष्णु सहाय ने मेरी जान बचाई है।" देवराज चौहान गंभीर था।

जगमोहन ने देवराज चौहान के चेहरे पर निगाह मारी।

"तुम्हारी मरजी, मैं तुम्हें रोक नहीं रहा। तुम्हारा फैसला, मेरा फैसला। कब चलना है ?"

"कल विष्णु सहाय से बात करूंगा। उसके बाद ही काशीपुर जाने का कोई प्रोग्राम बन सकेगा।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा और सोफे पर पसरते हुए आंखें बंद कर लीं।

जगमोहन चाय के प्याले को घूरते, सोचों में डूबा नजर आने लगा था।

■■■

"छोरे!" बांकेलाल राठौर कार के पीछे वाली सीट पर पसरा, मूंछ के बाल को तर्जनी उंगली से हिलाता हुआ कह उठा--- "यो बैलगाड़ी धकेलो हो, या कार चलायो हो।"

"कार चला रईया हूं बाप!" नीली आंखों वाले छोकरे रुस्तम राव ने जवाब दिया।

"कार यूं न चल्लो हो। म्हारे को तो लग्गो, पाछो से कोईयो कारों को धक्को मारो हो। या तो थारो ईंजन खराब होवो हो या थारी कारो...!” बांकेलाल राठौर मुंह बनाकर बोला--- "थोड़ा और तेजो से चलायो हो।"

रुस्तम राव ने एक्सीलेटर का पैडल दबा दिया।

कार तूफानी रफ्तार से दौड़ने लगी। ये शहर का बाहरी इलाका था। खुली सड़कें और कम दौड़ते वाहन। ऐसे में तेज रफ्तार कार को आगे बढ़ने में कोई परेशानी नहीं आ रही थी।

"ठीक है बाप कि रेस पैडल और दबाऊं ?"

"छोरे! म्हारे गुरदासपुर में किसी जमाने में बैलगाड़ी, कार से भी तेज दौड़ो हो।" बांकेलाल राठौर ने गहरी सांस ली--- "वो म्हारे को बैलगाड़ी के रेहड़े पर बिठाकर खेतों में दूर-दूर तक घुमायो। अम पागल था तबो तो। वो इसलिए घुमायो कि अम उसो से प्यार वाली बातों करो हो। अम बेवकूफ उसो से भूसो और डंगरी (जानवरों) की बातों करो हो। उसे बतायो कि कौणो भैंस कितना दूध दयो हो।"

रुस्तम राव मुस्करा पड़ा।

"जो होता है, बढ़िया होता है बाप। इसमें कोई भला छिपा होएला।"

"का भला होवे हो। ईब तो वो दूसरों के चार-चार बच्चों जन दयो हो। शायद मोटी भी हो गए हो। दूजे के आंगन में रोशनी बन के जलो हो और इधर अंधेरा कर दयो। उसो की बातें कर-करो के दिल की आग बुझायो हो।"

"गुरदासपुर जाने का मन बनेला क्या ?"

"का बात करो हो छोरे। गुरदासपुर जा के अम उसो के शांत घरो को फूंको ना।"

"क्यों ?" रुस्तम राव ने गरदन घुमाकर उसे देखा--- "ऐसा क्यों होएला बाप ?"

"म्हारी तरहो, उसो के मन में भी अभी तक म्हारे लिए प्यार का दियो जल रहो हो तो, वो अपणों खूटों से जंजीर तुड़ाकर म्हारे चरणों में बैठ गयो तो तबो क्या हो-उसो के बच्चों का क्या हो ? अम तो नेई जावो हो गुरदासपुर। अम ने उसको दिल में रखो हो तो दिल में ही रखो। चरणों में न बिठायो।" बांकेलाल राठौर ने पुनः मूंछ को उंगली लगाई।

रुस्तम राव ने कुछ नहीं कहा।

कार दौड़ती रही।

बांकेलाल राठौर ने कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह मारी।

"छोरे गाड़ी के संग भाग ले। टाइम होने को आवे हो। वो म्हारा ज्यादो इंतजार न करो हो।"

"दस मिनट में उसके पास पौंचेला बाप।"

बांकेलाल राठौर ने गहरी सांस लेकर सीट पर पहलू बदला और पुनः कह उठा।

"वो म्हारे को पीतलो के बड़ो गिलासों में मक्खन का गोला डाल के लस्सी पिलायो हो। कित्ता प्यार होवे, लस्सी में पड़ो मक्खनो के गोलो में जबो अम लस्सी पियो हो तो वो चारपाई पर बैठकर अमको प्यार से देखो। म्हारी मूंछो उसे को बोत पसंद आयो हो। जबो पासो में कोई न हौवो तो वो म्हारी मूंछों को उंगली लगाकर छुओ के देखो।"

ठीक उसी पल ।

रुस्तम राव ने कार के ब्रेक दबा दिए। पहियो के चीखने की आवाज दूर तक गई। ये सब तब हुआ, जब कार ने मोड़ काटा था और सामने एकाएक एक पुलिस वाला आ गया था। जो कि बदहवास सा दौड़ता आ रहा था। रुस्तम राव ने ब्रेक लगाने में चंद पलों की भी देरी की होती तो वो पुलिस वाला कार के नीचे आ जाता।

इधर कार रुकी और उधर वो पुलिस वाला दौड़ते हुए कार के बोनट से टकराया। वो पहले से ही दोनों हाथ उठाकर कार को रोकने को कह रहा था। वो पैंतीस बरस का था। इंस्पेक्टर या सब-इंस्पेक्टर की वर्दी उसके शरीर पर थी, जो कि कई जगह से फटी हुई थी। एक हाथ से खून बहकर सूख चुका था। पैंट एक घुटने से रगड़ लगने की वजह से फटी हुई थी। उसके चेहरे पर पसीना और सिर के बाल बिखरे हुए थे। वो बदहवास-सा लग रहा था। कुल मिलाकर उसके बुरे हाल थे। बोनट पर वो लुढ़क सा गया था।

"छोरे ये तो पुलिस वाला हौवे। यो उलटो गंगा क्यों बहो हो। पुलिस वाला मार खा के भागो हो।"

"गड़बड़ दिखेला बाप!" रुस्तम राव के होंठ भिंच चुके थे ।

"इसो को हटा आगो से। म्हारे को देर हो रयो।"

तभी वो पुलिस वाला बोनट के पास से हटा और कार का सहारा लेते हुए, पीछे वाले दरवाजे पर पहुंचा और दरवाजा खोलकर गिरने के से अंदाज में सीट पर आ पड़ा। दरवाजा बंद कर लिया।

"प्लीज, चलो यहां से।" वो थके कांपते स्वर में बोला।

"क्यों ?" बांकेलाल राठौर के माथे पर बल उभरे--- "तम नीचे उतरो। अम...।"

"भगवान के लिए मुझे बचा लो। कुछ लोग मेरी जान के पीछे...!" पुलिस वाले ने गहरी-गहरी सांसें लेते हुए दयनीय स्वर में कहा— “वो लोग मुझे मार देंगे। वो...वो...!"

“पैले तो रिश्वत खायो हो। अबो जूतों की बारी आयो हो तो भागो हो। अम थारो न...!"

तभी रुस्तम राव ने कार आगे बढ़ा दी।

"छोरे। इसो को बाहर निकालो। तम कार...!"

कहते-कहते बांकेलाल राठौर ठिठक गया। उसकी आंखें सिकुड़ीं। उसके देखते ही देखते एक गली से तीन व्यक्ति निकले थे। जो कि नंबरी बदमाश लग रहे थे। दो के हाथों में रिवॉल्वर और एक के हाथ में खुला चाकू थमा था। उनके रंग-ढंग से लग रहा था कि उन्हें किसी की तलाश है। पुलिस वाला उन्हें कार में इसलिए नजर नहीं आया था कि वो सीट पर अधलेटा सा पड़ा था।

"छोरे !"

"बाप।"

"मामलो तो पक्को गड़बड़ लगो हो। सीरियस बातों हो।"

"पक्का गड़बड़ होएला बाप।"

कार उन तीनों बदमाशों के सामने से ही निकलकर आगे बढ़ती चली गई।

वो तीनों जैसे गुस्से से भरे, किसी को ढूंढ रहे थे।

"लफड़ा होएला बाप!"

बांकेलाल राठौर ने सीट पर पड़े पुलिस वाले को देखा।

"भायो खाकी वर्दी!" बांकेलाल राठौर ने उसकी टांग थपथपाई--- "सीधा होके बैठो हो।"

पुलिस वाला बांकेलाल राठौर को देख रहा था।

"वो... वो लोग गए ?" पुलिस वाले के होंठों से निकला।

"गिनती में कितने थे वो ?"

"तीन !"

"उठो के बैठ जायो हो। वो पीछे रह गयो। थारी यो खाकी वर्दी, बोत मुसीबत खड़ी करो हो।"

पुलिस वाला सीधा होकर बैठ गया। उसकी सांस अभी भी नियंत्रित नहीं हुई थी।

"क्या चक्कर होएला बाप।" रुस्तम राव कार ड्राइव करता बोला--- "वो लोग तुम्हारी जान के पीछे क्यों होएला। वर्दी वाला आगे और चाकू वाला पीछे क्यों होएला ?"

पुलिस वाले ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

"वो... वो मुझे मार डालना चाहता है।"

"कौन ?"

"इंस्पेक्टर लोकनाथ। वह और मैं एक ही थाने में हैं। वो इंस्पेक्टर है। चौकी का इंचार्ज है।" उसके चेहरे पर ढेर सारी घबराहट नाच रही थी--- "मुझे मारने के लिए, उसने बदमाश मेरे पीछे लगा दिए हैं। वो...!"

"वो थारी भैंसो के पीछे क्यों पड़ो हो ?"

"वो...वो चाहता है कि मैं मुंह बंद रखूं। मैं...!"

"थारे मूं क्या है, जो वो बंद रखनो को बोलो हो ?"

"उसने छः महीने पहले भूतपूर्व नेता की बहन से बलात्कार करके, उसे जान से मार दिया। थाने में किया ये सब। रात के वक्त उसके अलावा मैं थाने में था। एक तरह से उसकी नीच हरकत का मैं गवाह हूं। तब इस मामले में भूतपूर्व नेता ने शोर डाला तो सी.बी.आई. की जांच बिठा दी गई। मुजरिम कभी भी नहीं बचता। सी.बी.आई. वाले उस इंस्पेक्टर तक पहुंच गए। साथ ही उन्हें मालूम हो गया कि मैं उस बलात्कार और हत्या का आंखों देखा गवाह हूं।"

"उन्हें कैसे मालूम होएला बाप ?"

"जिस रात थाने में इंस्पेक्टर ने बलात्कार और हत्या की, उस रात थाने के रजिस्टर के लिखे रिकॉर्ड के मुताबिक मैं ड्यूटी पर था और छ: अन्य हवलदार। वो हवलदार रात को साढ़े दस बजे ड्यूटी पर निकल गए थे। इलाके की गश्त लगाने। परंतु मैं अगले दिन के लिए वो रिपोर्ट तैयार कर रहा था, जो कि अदालत में पेश करनी थी। सी.बी.आई. वालों को मालूम हो गया कि मुझे सब पता है या मैं भी इंस्पेक्टर के साथ उस सारे मामले में हूं। इससे पहले कि सी.बी.आई. वाले मेरे तक पहुंचते, इंस्पेक्टर ने मुझसे कहा कि मैं उसके खिलाफ गवाही न दूं लेकिन मैंने कहा कि सी.बी.आई. वाले मेरे से पूछने आएंगे तो जरूर बताऊंगा। इसी बात को लेकर वो मेरे पीछे पड़ गया। पहले उसने खुद मुझे मारना चाहा। उसके हाथों बच गया तो उसने छंटे हुए बदमाश मेरे पीछे लगा दिए। दो दिन से मैं उनके हाथों से बचता भाग रहा हूं।"

"थारे को सी.बी.आई. के पास जानो चाहियो ।”

"वहां जाना खतरे से खाली नहीं।"

"क्यों ?"

"इंस्पेक्टर ने मेरे खिलाफ हवा उड़ा दी है कि छः महीने पहले थाने में मैंने बलात्कार और हत्या की थी। जब सी.बी.आई. वाले उसे आते दिखे तो भाग निकला। यहां तक कि उसने थाने के दो हवलदारों को गवाह के तौर पर भी तैयार कर लिया जो उस रात थाने में मौजूद थे। सुनने में आया है कि उसने मेरे खिलाफ रिपोर्ट तैयार की है कि उस रात मैंने थाने में मौजूद उन दोनों हवलदारों को धमकी दे दी थी कि अगर उन्होंने ये बात किसी को कही तो मैं उनके साथ-साथ उनके परिवार वालो को भी खत्म कर दूंगा।"

रुस्तम राव का हाथ मूंछ पर गया।

"का मालूम, वो ठीको ही बोलो हो। तन्ने ही यो कांड कर दयो हो।"

"म... मैंने कुछ नहीं किया। म... मैं तो इस बात का गवाह हूँ कि सब कुछ उसी इंस्पेक्टर ने किया...!"

"थारा नाम का हौवे ?"

"महेश पाल ! सब-इंस्पेक्टर महेशपाल।"

"और उसो इंस्पेक्टर का ?"

"इंस्पेक्टर लोकनाथ।"

बांकेलाल राठौर ने मूंछ को उंगली लगाई।

"छोरे।"

"बाप।"

"थारे को का लगो हो कि वर्दी पहनो यो पुलिस वाला सच बोलो हो या झूठ।"

"बाप! अपुन नेई जानता इन लोगों का मामला। ये सच कहेला तो झूठ लगेला । झूठ बोएला तो सच लगेला।"

"फिट बोलो हो तम ।"

"इसको नीचे उतारेला बाप! अपुन इस मामले में टांग नेई अड़ाईला।"

"ऐसा मत कहो।" सब-इंस्पेक्टर महेशपाल गिड़गिड़ाने वाले ढंग में कह उठा--- "मैं सच्चा इंसान हूं। मैंने कुछ नहीं किया है। इंस्पेक्टर लोकनाथ मुझे फंसा रहा है। मुसीबत में हूं। दो-तीन दिन मुझे कहीं छिपा लो। उसके बाद मैं सोच-समझ लूंगा कि मुझे क्या करना है। मैं कहीं भी नहीं छिप सकता। लोकनाथ को पता चल जाएगा कि मैं किधर हूं। वो मुझे जान से मार देगा!"

"तन्ने ही सारी गड़बड़ करी होवे तो ?"

"तो मुझे मार देना। जहर दे देना। मत छोड़ना मुझे।" सब-इंस्पेक्टर महेशपाल ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर कहा--- "मैंने कुछ नहीं किया। मैं शरीफ खानदान से हूं। पुलिस में हूं, गलत काम करना नहीं--रोकना मेरा काम है।"

"म्हारे को तो तम सिरे से झूठे लागो हो।"

"मेरा विश्वास करो। मैं तुम्हारे सामने हाथ जोड़ता हूं कि मेरा विश्वास करो। मैं सच कह रहा हूं।" उसका स्वर कांप उठा।

तभी रुस्तम राव बोला।

"बाप अपुन उधर पौंचेला।"

"बढ़ियो जगहो गाड़ी को ठिकाने लगायो।" बांकेलाल राठौर बाहर देखता कह उठा।

ये कस्बे जैसा इलाका था। वो शहर से बाहर, पास ही के कस्बे में आ चुके थे। सामने ही कच्चे-पक्के मकान और दुकानें बनी नजर आ रही थीं। लोग थे। वाहनों के नाम पर धूल से अटी एक-दो कारें या ट्रेक्टर ट्रालियां दिखाई दे रही थीं।

रुस्तम राव ने सड़क से उतारकर कार रोकी और इंजन बंद करके चाबी जेब में डाल ली।

"तम इधरो ही बैठो हो। बाहर नेई आना। अम उधर से होकर आयो तो थारे से बात करो हो।"

सब-इंस्पेक्टर महेशपाल ने सिर हिलाकर सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"मुझे कहीं छिपने की जगह... !"

"अम अभ्भी आयो हो। तब थारे से मूं मारो।"

बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव बाहर निकले और आगे बढ़ गए।

"छोरे! कार की चाबी निकाल लायो ना। वो कार लेके न भाग जायो।"

"चाबी जेब में होएला बाप। अपुन को उसका मामला भेजे में न आयो हो।"

"म्हारे को लगो कि वो सचो बोलो हो।"

"अपुन को वर्दी वालों पर भरोसा नेई होएला बाप।" रुस्तम राव ने गंभीर स्वर में कहा।

"म्हारे को क्यों लगो कि वो सचो बोलो हो।"

रुस्तम राव खामोश रहा।

दोनों गांव की तरफ बढ़ते रहे।

"भलो करो और कुओं में गिरा दो। म्हारी मां तो म्हारे को यो ही हो।"

"अब किधर होएला तुम्हारी मां ?"

"वो तो कूच कर गयो, ऊपर की तरफ !"

"तो उसकी बात भी उसके साथ चला गया बाप।"

"ऐसा मत कै छोरे। मां चलो गयो, उसो की बातों इधर ही रयो। वो बोत ठीक कहो हो।" बांकेलाल राठौर सोच भरे स्वर में कह रहा था— ''म्हारे को लगो कि यो पुलिस वाला सचो कहो हो।"

"बाप! इधर हर कोई, किसी रगड़े में फंसेला। किस-किस के बारे में सोचेला तू। अपनी खिड़की-दरवाजा बंद ही रखेला तो बोत सुखी होएला। इधर-उधर नेई देखने का।"

"वो...म्हारे को सचो बोलता लागे हो।" बांकेलाल राठौर बड़बड़ा उठा।

रुस्तम राव ने गहरी सांस लेकर मुंह फेर लिया।

एक घंटे बाद वे लौटे तो रुस्तम राव ने हाथ में पुराना सा ब्रीफकेस थाम रखा था। वो कार तक पहुंचे तो सब-इंस्पेक्टर महेशपाल को कार के पीछे वाली सीट पर वैसे ही बैठा पाया, जैसे वो छोड़कर गए थे।

वो भीतर बैठे। रुस्तम राव ने कार वापस ले ली।

"छोरे! अपणे सोहनलाल के इधर चल। ये उधर दो-चार दिन चुपके से बिता लेगा।"

"लेकिन...!" रुस्तम राव ने कहना चाहा।

"तन्ने सुन्नो नाही कि अम थारे को का कहो हो। ये म्हारे को सचो लागे हो। इसो की हैल्प करनो में अपना कछो नाही जायो हो। नेकी करो हो और कुओं में गिरा दयो। ऊपर वालो आंखें फाड़े सबको देखो हो।"

■■■

सोहनलाल नहा-धोकर बाहर जाने को तैयार था। ए.सी. चल रहा था। सारा फ्लैट बर्फ की तरह ठण्डा हो रहा था। वो शीशे के सामने खड़ा बाल संवार रहा था कि कॉलबेल की आवाज गूंजी। कंघा करते-करते पल भर के लिए ठिठका वो... सुबह के दस बज रहे थे, कौन हो सकता है?

सोहनलाल ने कंघी रखी और आगे बढ़कर दरवाजा खोला।

सामने बांकेलाल राठौर, रुस्तम राव और सब-इंस्पेक्टर महेशपाल खड़ा था ।

"तुम लोग ?" सोहनलाल के होंठों से निकला।

बांकेलाल राठौर ने सोहनलाल को सिर से पांव तक देखा।

"खूब जंचो कर बाहर जायो हो आजकलो तो!" उसने हाथ बढ़ाकर कोट को छुआ--- "बढ़िया कपड़ो है। कौन से मिलो का हौवे । रेमण्डो या ग्वालियरो का हौवे । म्हारे को तो ये बाम्बो डाइंग का लागे हो।" कहते हुए वो भीतर आ गया। पीछे रुस्तम राव और सब-इंस्पेक्टर महेशपाल भी।

रुस्तम राव ने दरवाजा बंद किया।

"ठाठो से बीत रयो जिन्दगी का वक्त। शानदारो फ्लैट । ये मौसम में भी तम ए.सी. चलायो हो ?"

"क्या फर्क पड़ता है ?" सोहनलाल मुस्करा पड़ा।

"बिजली का बिल नेई आयो क्या?"

"नहीं, तार सीधी लगा रखी है।" सोहनलाल ने कहा और सोफे पर बैठते हुए गोली वाली सिग्रेट निकाली--- "तुम लोग कैसे आए ? हाल-चाल पूछने वालों में से तुम लोग हो ही नहीं, नंबरी मतलबी हो।" सोहनलाल की निगाह सब-इंस्पेक्टर महेशपाल पर गई।

"अपुन को मालूम है कि तुम बोत समझदार होएला।" रुस्तम राव मुस्करा पड़ा, फिर बांकेलाल राठौर को देखकर कहा-- "बाप, ये पूछेला है कि हम इधर को क्यों आईला ?"

"अम थारी चाय पीने के वास्ते इधर आएला।" बांकेलाल राठौर आगे बढ़कर सोफा चेयर पर जा बैठा--- "म्हारी मूंछो की तरह कड़क चायो बनायो और...!"

"बाप!" रुस्तम राव ने टोका--- "अपुन के पास वक्त कम होएला। उधर को वक्त पर पौंचना हौवे।"

बांकेलाल राठौर ने घड़ी पर निगाह मारी, फिर तुरंत ही उठ खड़ा हुआ।

"चाय का प्रोग्रामो कैंसिलो। फिर आयो।"

सोहनलाल ने बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव को देखा। उंगलियों में दबी गोली वाली सिग्रेट सुलगा कर कश लिया। चेहरे पर सोच के भाव स्पष्ट नजर आने लगे थे।

"यो सबो इंस्पेक्टर महेशपाल होवो। थारो यां पे तीन-चार दिन रहो। इसो को बाहर की हवा न लगो। बाहरी इसो के वास्ते खतरा होवो। चौथे दिन तम इसो को बाहर का रास्ती दिखा दयो।"

सोहनलाल की निगाह सब-इंस्पेक्टर महेशपाल पर जा टिकी।

"चक्कर क्या है ?"

"अम थारे को का समझावें। चक्करों को थारे पास छोड़ो हो। पूछ लयो।"

"इसको यहां रखने में, मेरे गले मुसीबत पड़ सकती है।" सोहनलाल उठ खड़ा हुआ।

"पक्का मुसीबत होईला बाप। अगर बाहर वालों को पता लगेगा कि ये इधर टिकेला है।" रुस्तम राव सोहनलाल से गंभीर स्वर में कह उठा--- "तभ्भी तो बांके कहेला कि इसके इधर होने की किसी को हवा नेई लगेला।"

सब-इंस्पेक्टर महेशपाल के चेहरे पर अभी भी घबराहट हावी थी।

"क्या किया है तूने?" सोहनलाल ने उसे सिर से पांव तक देखते हुए पूछा।

"म.. ...मैंने कुछ नहीं किया।" सब-इंस्पेक्टर महेशपाल जल्दी से कह उठा।

"कुछ नहीं किया ?" सोहनलाल के माथे पर बल पड़े।

"नहीं, मैंने कुछ नहीं...!"

"तो निकल जा यहां से। इधर क्या करने आया है ?" सोहनलाल ने तीखे स्वर में कहा।

सब-इंस्पेक्टर महेशपाल ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव को देखा।

"इसो ने कछो न करो हो। दूसरा करो और भुगतो ये । पूछ लयो, अम चल्लो हो।"

"बाय बाप!"

"इसे रखने का मतलब है कि मैं भी इसी के साथ बंधा रहूंगा। मेरे को कई काम...!"

"म्हारी खातिर तंम ये भी नहीं करो तो का करो हो । नेकी करो और कुओं में फेंक दयो। समझो का? तीन दिनो इसो को ढांप के रख लयो । चौथे दिनो बाहर कर दयो।"

"तुम क्यों नहीं रख लेते इसे ?" सोहनलाल कह उठा ।

"बाप, अपने सोहनलाल का मूड खराब होइला ।" रुस्तमराव ने गहरी सांस लेकर बांकेलाल राठौर को देखा।

"अम अभ्भी शहर से बाहर जाईला। बोत जरूरी कामो हौवे थापर साहब का । एक या दो दिन को वापस आवे। चल छोरे ! इसे के तो भाव ही बढ़ो जाएं।" बांकेलाल राठौर पलटा और दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

"फिर मिलेगा बाप। "

बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव बाहर निकल गए।

होंठ सिकोड़ सोहनलाल सोफे पर बैठा और सब-इंस्पेक्टर महेशपाल से बोला ।

"दरवाजा बंद कर।"

महेशपाल ने फौरन दरवाजा बंद किया।

"इधर आ। यहां बैठ, मेरे सामने।"

सब-इंस्पेक्टर महेशपाल तुरंत आगे बढ़ा और सोफे पर सहमा-सिमटा बैठ गया।

"बता, क्या बात है- क्या मामला है? सब कुछ एक ही बार में बता दे, पूछना न पड़े।" सोहनलाल बोला।

वो बताने लगा।

■■■

आकाश की ऊंचाइयों से गिरते तीर की भांति वो विमान नीचे हुआ और कुछ ही मिनटों में रनवे पर उतरता चला गया। यात्री उतरकर एयरपोर्ट की इमारत की तरफ, छोटी सी, खूबसूरत बस में बैठकर पहुंचे और एयरपोर्ट के अधिकारियों से निपटकर बारी-बारी बाहर की तरफ जाने लगे।

उनमें मोना चौधरी भी थी।

वो भी बाहर निकली और टैक्सी में सवार होकर चल पड़ी। उसने जींस की पैंट और कमर तक आती सफेद रंग की कमीज नुमा टॉप पहन रखा था। उसके कंधे तक लहराते बाल, आंखों पर लगा चश्मा उसे और भी खूबसूरत बना रहा था। हाथ में लेडीज हैंडबेग साइज का ब्रीफकेस नुमा बेग था।

करीब एक घंटे बाद टैक्सी भीड़ भरे बाजार में रुकी। दिन के बारह बज रहे थे। टैक्सी ड्राइवर को किराया चुका कर वो दरवाजा खोलते हुए बाहर निकली और हैंडबेग थामे, सामने नजर आ रहे ज्वैलर्स शो-रूम की तरफ बढ़ी। ये गलियारा था दुकानों का। ढेरों लोग आ-जा रहे थे। छुट्टी का दिन होने की वजह के कारण आज भीड़ भी ज्यादा थी। मोना चौधरी ज्वैलर्स शो-रूम के दरवाजे से आठ-दस कदम दूर थी कि एक तरफ से बीस बरस के लड़के ने मोना चौधरी के हैंडबेग पर बाज की भांति झपट्टा मारा और भीड़ को चीरता हुआ भाग खड़ा हुआ।

मोना चौधरी दो पलों के लिए तो स्तब्ध रह गई।

अगले ही पल वो चीखती हुई उसके पीछे दौड़ी।

"ऐ! रुको-मेरा बैग ?"

लोगों का ध्यान उस तरफ हुआ।

दोनों गलियारे की भीड़ को चीरते हुए एक-दूसरे के पीछे भागे जा रहे थे।

"क्या हुआ ?"

"क्या हुआ ?” की आवाजें मोना चौधरी के कानों में पड़ रही थीं।

हैंडबेग लेकर भागता वो मोना चौधरी से पंद्रह कदम आगे था कि एकाएक उसने वो रास्ता छोड़ा और गलियारे से निकलकर सड़क पर आ गया।

मोना चौधरी भी सड़क पर आ गई।

सड़क से वाहन आ-जा रहे थे।

वो युवक सड़क पार करता दूसरी तरफ दौड़ा।

मोना चौधरी भी सड़क पार करती दौड़ी। सड़क से निकलते वाहनों ने ब्रेकें लगाई। कुछ कारों से मोना चौधरी ने अपना बचाव किया और सड़क के दूसरी तरफ पहुंच गई।

उस लड़के ने ज्यों ही सड़क पार की कि ठिठक गया। सामने मोटर साइकिल को स्टैण्ड पर लगाए एक हवलदार खड़ा था। जो कि उसे ही घूर रहा था। पुलिस वाले को देखकर वो सकपका गया। भागने को हुआ।

"रुक, वरना गोली मार दूंगा।" हवलदार ने कमर पर लटक रहे होलस्टर की तरफ हाथ बढ़ाया।

वो उसी पल ठिठक गया। भागने का खयाल छोड़ दिया।

"इधर आ।" हवलदार ने कड़वे स्वर में कहा।

घबराया सा युवक उसके पास आ गया। रह-रहकर वो सूखें होंठों पर जीभ फेर रहा था।

"हरामी की औलाद !" हवलदार गुर्राया--- "पर्स लेकर भागता है।"

युवक के होंठ हिले । कहा कुछ नहीं।

हवलदार ने हाथ आगे बढ़ाकर उससे हैंडबैग लिया।

"क्या है इसमें ?" हवलदार ने उसी लहजे में कहा।

"प...पता नहीं!"

"पता नहीं--सुसरी का, बेशक खाली हो। साला दौड़े जा रहा है। खड़ा रह यहीं।" कहकर हवलदार हैंडबेग खोलने लगा कि उसे लॉक पाकर ठिठक गया। वहां नन्हीं सी चाबी का 'की होल' दिखा।

तब तक दो-चार लोग भी वहां इकट्ठे हो गए थे। उसी पल मोना चौधरी पास पहुंची और गहरी-गहरी सांसें लेती कह उठी।

"मेहरबानी आपकी, जो आपने इसे पकड़ लिया। ये मेरा हैंडबैग लेकर भाग रहा था।"

"हमारा तो काम ही ऐसे लोगों को पकड़ना है।" हवलदार ने मोना चौधरी को देखकर कहा--- "ये आपका है ?"

"जी हां।" मोना चौधरी मुस्कराई।

"इस बात का क्या सबूत है कि ये आपका है।" हवलदार ने हैंडबेग थपथपाया।

"क्या मतलब ?"

"मतलब क्या--सीधी सी बात है, कोई भी औरत-लड़की कह सकती है कि ये उसका है तो क्या मैं उसे दे दूंगा। पुलिस को सबसे पहले इस बात की तसल्ली करनी पड़ती है कि चीज किसकी है। ये कोई मामूली केस नहीं है। अब आप कहेंगी कि इसमें लिपस्टिक है, रूमाल है, मोबाइल फोन है। पांच-सात सौ रुपया भी होगा। ये सब चीज तो हर औरत के हैंडबैग में होती है। ऐसे काम नहीं चलेगा।" हवलदार ने रौब भरे स्वर में कहा और हाथ में थमे हैंडबैग को थपथपाया।

"जिसे पकड़ा है, वो बता देगा कि इसने मेरे से छीना है।" मोना चौधरी ने शांत स्वर में कहा।

हवलदार ने तीखी निगाहों से उस युवक को देखा।

"क्यों बे, ये तूने इन्हीं मैडम से छीना था या किसी दूसरी मैडम से---ठीक-ठीक बताइयो, वरना...!"

हवा का रुख देखकर वो युवक कह उठा।

"मुझे क्या पता कि मैंने कौन सी मैडम से छीना था। मेरी नजर तो हैंडबैग पर थी।"

हवलदार ने टेढ़ी निगाहों से मोना चौधरी को देखा।

"सुना मैडम। ये क्या कहता है ?"

“सुना।” मोना चौधरी मुस्कराई--- "ये वही कह रहा है, जो तुम सुनना चाहते हो।"

हवलदार की आंखें सिकुड़ीं। उसने मोना चौधरी को घूरा।

"क्या मतलब?"

“मेरा पर्स मुझे दो और कहीं चाय पीनी हो तो बोलो, आराम से चाय पीते हैं। बात भी कर लेंगे।"

वहां बीस-पच्चीस लोगों की भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी। सब उनकी बातें सुन रहे थे।

मोना चौधरी के शब्दों पर हवलदार बेइज्जती महसूस करके कह उठा।

"तुम-तुम मुझे रिश्वत देने की कोशिश कर रही हो। मैं समझ गया कि ये पर्स तुम्हारा नहीं है। तुम मुझे चाय पिलाने के बहाने अकेले में ले जाकर अपने आपको मेरे हवाले करने को कह रही हो। तुम ठीक लड़की नहीं हो। कहां रहती हो, क्या काम करती हो---इस इलाके में क्या कर रही थी? पहले तुम किस-किस दफा में बंद हो चुकी हो?"

तभी भीड़ के पास पुलिस जिप्सी आकर रुकी। चार पुलिस वाले भीतर बैठे थे।

"वीरेन्द्र---क्या हुआ ?" जिप्सी में बैठे पुलिस वाले ने पूछा।

"अच्छे वक्त पर पहुंचे। इन्हें थाने ले चलो। झपटमारी का केस है लेकिन मामला ठीक नहीं लगता है मुझे। जिसका हैंडबेग छीना गया है, मेरा मतलब कि ये लड़की मुझे संदिग्ध लग रही है। इसके बात करने का ढंग ठीक नहीं है। मुझे अकेले में चाय पिलाने को कह रही है। इस लड़की की पूरी छानबीन करनी पड़ेगी। थाने जा रहे हो क्या ?"

"नहीं भी जा रहे तो क्या फर्क पड़ता है। पास ही थाना है, छोड़ देंगे इन्हें।" जिप्सी में बैठे दूसरे पुलिस वाले ने कहा--- "ले आ इन्हें इधर, बिठा दे जिप्सी में।"

उसने मोना चौधरी को घूरा।

"चलो।"

"क्यों ?" मोना चौधरी ने उसे घूरा।

"थाने में खाना पूरी करनी है। हवलदार उखड़े स्वर में बोला--- ''हैंडबेग ऐसे ही वापस नहीं मिलेगा। पहले झपटमारी की रिपोर्ट लिखानी होगी, उसके बाद छानबीन होगी। फिर झपटमार को गिरफ्तार किया जाएगा। पुलिस की मुस्तैदी भी तो दिखानी है। पुलिस वालों को बहुत काम होते हैं। देखना मैडम, थाने में हम आपको चाय पिलाएंगे।"

मोना चौधरी पुलिस के चक्कर में नहीं पड़ना चाहती थी। कोई भी पुलिस वाला उसे मोना चौधरी के रूप में पहचान गया तो उसका बच पाना कठिन हो जाएगा। आगे-पीछे के सारे मामले खोल लिए जाएंगे। लेकिन इस वक़्त लोगों की भीड़ से घिरी हुई थी और उसके पास रिवॉल्वर भी नहीं था, जबकि सामने खड़े हवलदार के पास रिवॉल्वर था। मोटर साईकिल तैयार थी। पास ही जिप्सी में चार पुलिस वाले थे और वे हथियारबंद थे।

भागना खतरनाक था।

"चलो मैडम।" हवलदार ने सख्त स्वर में कहा--- "मुझे कलाई न पकड़नी पड़े तुम्हारी। फिर बाद में कहोगी, मैंने छेड़खानी की है। बेहतर है, चुपचाप पुलिस गाड़ी में बैठ जाओ। जल्दी करो।"

उसकी बात मानने अलावा दूसरा रास्ता नहीं था।

मोना चौधरी ने गहरी सांस ली और जिप्सी की तरफ बढ़ गई।

"चल बे, तू खड़ा-खड़ा क्या मुंह देख रहा है। बैठ गाड़ी में। पीछे-पीछे आ रहा हूं मैं। थाने में तेरे से भी बात करूंगा।"

"साहब जी !" झपटमार धीमे स्वर में बोला--- "मैं रघु का आदमी...!"

"थाने में बात करूंगा।" हवलदार गुस्से से बोला फिर धीमे स्वर में बोला--- "इधर लोग हैं, बाकी बात वहीं होगी।"

*****