बेला की फुसफुसाहट, देवराज चौहान के कानों में पड़ी।
"सावधान ! अब तुम तिलस्मी नगरी में कदम रखने जा रहे हो देवराज चौहान ?" देवराज चौहान पल भर के लिए ठिठका। उसने आगे देखा, सिर्फ दस-बारह सीढ़ियां ही बाकी रही थी उतरने को । उसके बाद तीव्र प्रकाश में हरी - हरी घास नजर आ रही थी। गर्दन घुमा कर उसने पीछे देखा तो चंद सीढ़ियों के पश्चात अंधेरा ही नजर आया, जहां से सीढ़ियां उतरता हुआ वो यहां तक आ पहुंचा था और अब तिलस्मी नगरी में प्रवेश का वक्त आ चुका था ।
देवराज चौहान पुनः सीढ़ियां तय करने लगा । चेहरे पर गंभीरता थी । वह जानता था कि अब मौत के मुंह में आ चुका है और तिलस्मी नगरी में जो हो जाए, वो ही काम था । लेकिन उसे बेला का सहारा था, जो तिलस्मी शक्तियों की मालिक थी और अदृश्य होकर, साये के सामान उसके साथ रहकर, उसकी सहायता कर रही थी। परंतु भविष्य के गर्भ में क्या है, क्या होगा, कोई नहीं जानता था ।
आखिरी सीढ़ी पर पांव रखने के बाद उसका दूसरा कदम हरी घास पर जा पड़ा । यह देवराज चौहान का तिलस्मी नगरी में प्रवेश का पहला कदम था । देवराज चौहान की निगाह फौरन हर तरफ घूमती चली गई ।
यह छोटा-सा बाग था।
हरे भरे पेड़ फल वाले, बिना फल वाले और फूलों की महकते पौधे नजर आ रहे थे जो कि बहुत अच्छे ढंग से क्यारियों में लगे हुए थे ।
देवराज चौहान के लिए सबसे हैरान कर देने वाली बात तो यह थी कि यहां सूर्य निकला हुआ था, जबकि मात्र आधा घंटा पहले, जब उसने तिलस्मी नगरी में प्रवेश करने के लिए सीढ़ियां उतरना शुरू किया था, तो तब ऊपर शाम का धुंधलका फैल चुका था।
वहां कोई व्यक्ति नजर नहीं आया ।
कुछ दूर लगा, एक बोर्ड दिखाई दिया तो देवराज चौहान उसके पास जा पहुंचा । बोर्ड के पास तीन रास्ते अलग-अलग दिशाओं की तरफ जा रहे थे ।
बोर्ड पर लिखा था---अगर आप मीठा पानी पीना चाहते हैं तो बाईं तरफ के रास्ते पर चले जाइए। अगर कड़वा पानी पीना चाहते हैं तो दाईं तरफ के रास्ते पर चले जाइए । अगर आप सादा पानी पीना चाहते हैं तो दाएं-बाएं के रास्तों पर न जाकर सीधे रास्ते पर चले जाइए।
देवराज चौहान ने बोर्ड पर लिखे इन शब्दों को कई बार पढ़ा । मतलब समझा भी, परंतु यह समझ नहीं समझ पाया कि इन शब्दों को बोर्ड पर लिखने का मतलब क्या है ? देवराज चौहान ने मन ही मन बेला को याद किया और बुदबुदाया ।
"इन शब्दों का मतलब क्या है ? "
"यह बताना मेरी हद में नहीं ।" बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी।
"मैं तीनों में से किस रास्ते पर जाऊं ।" देवराज चौहान पुनः बुदबुदाया ।
"मैं नहीं बता सकती।"
"तुम क्यों नहीं बता सकती ?"
"इस बारे में तुम्हें कुछ बताना तिलस्मी विद्या के साथ धोखा करना होगा। मेरे से ज्यादा सवाल मत पूछो ।"
बेला के इन शब्दों को सुनकर देवराज चौहान खामोश हो गया ।
बारी-बारी तीनों रास्तों को देखने लगा । बोर्ड पर लिखे शब्दों को पुनः पढ़ा । आखिरकार वो सामने, सीधे जा रहे रास्ते पर बढ़ गया, यानी कि बोर्ड पर लिखे शब्दों के मुताबिक, उस रास्ते पर सादा पानी था ।
वो पक्का रास्ता था । छः फीट चौड़ा था । रास्ते के दोनों तरफ कई तरह की महक वाले फूलों की कतार बराबर लगी हुई थी। दूर-दूर तक बाग और फलदार वृक्ष नजर आ रहे थे । बेहद सुखद माहौल था वहां का, परन्तु देवराज चौहान एक पल के लिए भी नहीं भूला था कि वो तिलस्मी नगरी में है ।
देवराज चौहान अभी दस मिनट ही चला होगा कि तुरंत उसके कदम रुक गए । चेहरे पर अजीब से भाव आये और आंखें सिकुड़ गई।
सामने ही हवा में, पचास वर्षीय व्यक्ति का कटा हुआ सिर लटक रहा था । कटी गर्दन वाले हिस्से से खून की बूंदे गिरकर नीचे के रास्ते को लाल सुर्ख कर रही थी । उस सिर के बाल कटी गर्दन तक झूल रहे थे । देवराज चौहान को देखते ही वो कटा सिर ठहाका लगाकर हंस पड़ा।
"आ गए तुम ।" उसके होंठ खुशी भरे अंदाज में हिले --- "तुम्हें आना ही था । मैं कब से तुम्हारे खून का प्यासा था। आज तुम्हारा खून पीकर, मेरी प्यास बुझेगी। मुझे अपना खून दो।"
देवराज चौहान होंठ भींचे, जमीन से छः फीट ऊपर, झूलते कटे सिर को घूरता रहा । देवराज चौहान को खामोश पाकर, कटे सिर के चेहरे पर गुस्सा उभरने लगा ।
"सुना नहीं तूने, मुझे अपना खून पिला ।"
देवराज चौहान ने मन ही मन बेला को याद किया ।
"अब मैं क्या करूं ? "
"इसकी कटी गर्दन से जो खून टपक रहा है, आगे बढ़कर वो खून हाथ में भरो और फिर हाथ को अपने होठों तक ले जाओ ।" बेला की फुसफुसाहट उसके कानों में पड़ी ।
"तुम्हारा मतलब कि मैं इसका खून पी लूं ।" देवराज चौहान ने अजीब से स्वर में कहा ।
"तुमसे जो कहा है, वो ही करो ।"
देवराज चौहान ने फौरन फैसला किया कि वो वही करेगा जो बेला ने कहा है। इसके साथ ही वो आगे बढ़ । उसे आगे बढ़ते पाकर कटे सिर की आंखों में तीव्र चमक उभरी।
"आ-आ। खून पिला मुझे अपना । कब से प्यासा हूं । आ।"
देवराज चौहान उस कटे सिर के ठीक सामने पहुंच कर ठिठका ।
कटा सिर ठहाका लगा उठा ।
देवराज चौहान ने हाथ आगे बढ़ाया और उसकी कटी गर्दन से टपकते खून को अपने हाथ में भरने लगा । यह देखकर कटे सिर वाला चेहरा क्रोध से भर उठा ।
"यह क्या करता है बदजात। मेरा खून ले रहा है । पिएगा तो मर जाएगा । अपना खून मुझे पिला । वरना मैं अभी तुझे भस्म कर दूंगा ।" उसकी आवाज में जहान भर का गुस्सा था।
देवराज चौहान ने उसकी बात पर ध्यान न दिया, हाथ में उसका खून भरा और उस हाथ को अपने होठों तक ले गया । इससे पहले कि उसका हाथ होठों को छूता, उसे लगा जैसे बिजली चमकी हो । कुछ ऐसा ही धोखा हुआ आंखों को ?
परंतु वो धोखा नहीं था ।
वो कटा सिर, वो बाग, वो रास्ता, वो खून, यहां तक कि उसकी हथेली में पड़ा खून भी, सब कुछ ऐसे गायब हो गया था, जैसे कुछ था ही नहीं ।
देवराज चौहान हक्का-बक्का रह रह गया ।
अब वहां पर पथरीला-सा इलाका नजर आ रहा था । चारों तरफ जैसे टूटे पहाड़ के टुकड़े बिखरे हुए थे । उन्हीं टुकड़ों के बीच पेड़-पौधे और झाड़ियां नजर आ रही थी । उजाड़ सा इलाका था यह ।
देवराज चौहान ने खुद को पहाड़ी पत्थर के करीब खड़े पाया । मन ही मन बेला को याद करके देवराज चौहान बुदबुदाया।
"यह सब कैसे हुआ ?"
"देवराज चौहान ।" बेला की फुसफुसाहट उसके कानों में पड़ी--- "जिसकी कटी गर्दन देखी, तुमने वो इंसान तिलस्मी कानून के विरुद्ध काम करते पकड़ा गया । इसलिए उसका सिर काटकर, उसे छोड़ दिया गया कि यही तेरी सजा है । तेरे को बाकी का शरीर तब मिलेगा जब तू किसी का खून पिएगा और अब वह हर पल इसी कोशिश में रहता है कि किसी का खून पीकर, बाकी का शरीर वापस हासिल कर सके । जो बाग तुमने देखा था, वो उसने नकली बनाया था । तुम्हारे आने की खुशबू उसने पा ली थी और जब तुमने उसका खून पीने की कोशिश की तो वो भाग गया।"
"वो भागा क्यों ?" देवराज चौहान ने पूछा ।
"इसलिए कि अगर उसका खून, तुम्हारी जीभ पर भी लग जाता तो वो हकीकत में मृत्यु को प्राप्त हो जाता । उसकी सजा में ये बात भी शामिल है ।" बेला की फुसफुसाहट उसके कानों में पड़ रही थी--- "मैं इस तिलस्मी बाग को पहचानती थी, इसलिए मैंने तुम्हें नहीं बताया कि तीनों में से किस रास्ते पर तुम चलो, क्योंकि हर रास्ते पर, उसी कटे सिर वाले ने ही तुम्हें मिलना था।"
"ओह।"
उनकी बीच चुप्पी छा गई ।
देवराज चौहान सिगरेट सुलगा कर बुदबुदाया ।
"अब मैं क्या करूं ?"
"तुम पूर्व की तरफ बढ़ो। मैं चाहती हूं तुम तिलस्मी नगरी के लोगों में प्रवेश कर जाओ।" "वो लोग किधर हैं ?"
"तुम्हें उसी तरफ चलने को कह रही हूं।"
देवराज चौहान बेला के कहे मुताबिक पूर्व की तरफ चल पड़ा ।
"तिलस्मी नगरी के लोग कैसे हैं ?" देवराज चौहान ने पूछा।
"ठीक पृथ्वी के लोगों की तरह । फर्क सिर्फ तिलस्मी ज्ञान का है । पृथ्वी के लोग तिलस्म के ज्ञाता नहीं हैं । तिलस्म की शिक्षा उनके पास नहीं है । लेकिन यहां के लोग तिलस्म के अच्छे ज्ञानी हैं।"
"मैं इन लोगों से खुद को कैसे स्थापित कर पाऊंगा ?"
"उसके लिए तुम्हें सावधानी इस्तेमाल करनी पड़ेगी ।" बेला की कानों में पड़ने वाली फुसफुसाहट में अब गंभीरता आ गई थी--- "तिलस्म के बड़े विद्वान इस बात से वाकिफ हो चुके हैं कि पृथ्वी के कुछ लोग, तिलस्मी ताज़ लेने के लिए, उनकी नगरी में प्रवेश कर चुके हैं । ऐसे में तुम्हारे लिए खतरा बढ़ सकता है । तुम्हें हर कदम बहुत सोच-समझकर उठाना होगा।"
"तुम्हारे साथ होते हुए, मेरे लिए खतरा कम---"
"नहीं देवराज चौहान ।" बेला की फुसफुसाहट में वहीं गंभीरता थी--- "नगरी के बीच में हर वक्त तुम्हारे साथ रहकर, तुम्हारी सहायता नहीं कर सकूंगी।"
"क्यों ?"
"यह ठीक है कि मैंने खुद को तिलस्मी-मायावी शक्ति के दम पर अदृश्य कर रखा है । लेकिन बड़ी तिलस्मी ताकतें, अपनी शक्ति से मेरी हरकत को पहचान कर मुझे सजा दे सकती हैं कि मैं तुम्हारी सहायता कर रही हूं। इसलिए बीच में मैं यदा-कदा ही तुमसे मिल पाऊंगी। कोशिश करूंगी कि ज्यादा से ज्यादा तुम्हारे काम आ सकूं । तुम्हारी सहायता कर सकूं ।"
"अभी तक तुमने बताया नहीं कि तुम कौन हो और मेरी सहायता क्यों कर रही हो ?"
"वक्त आने पर तुम्हें, तुम्हारी बात का जवाब मिल जाएगा।"
देवराज चौहान तेजी से पूर्व की तरफ बढ़ा जा रहा था ।
"तुम मेरे साथ नगरी में प्रवेश करोगी ?" देवराज चौहान ने पूछा ।
"नहीं। उधर से मैं प्रवेश नहीं कर सकती । पकड़ी जाऊंगी। वो लोग मुझे कैद कर लेंगे।"
"क्या मतलब ?" देवराज चौहान के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे--- "कौन लोग तुम्हें कैद कर लेंगे ?"
बेला की फुसफुसाहट कानों में नहीं पड़ी ।
मन ही मन देवराज चौहान ने बेला को पुकारा ।
"क्या है ?" बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी ।
"तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया कि कौन लोग तुम्हें कैद...."
"मेरे से ज्यादा सवाल मत पूछा करो देवराज चौहान । वक्त के साथ-साथ तुम्हें हर सवाल का जवाब मिलेगा ।" बेला की फुसफुसाहट में शांत भाव थे।
देवराज चौहान चुपचाप आगे बढ़ता रहा ।
"ठहरो।"
बेला की फुसफुसाहट सुनकर, देवराज चौहान ठिठका।
दो पल उनके बीच खामोशी रही ।
"वो देखो । सामने, चार फीट चौड़ी, ईटों की दीवार शुरू होकर, ऊपर जाती हुई, दूसरी तरफ जमीन पर लग रही है। "
देवराज चौहान ने दाईं तरफ देखा ।
"उल्टे U की तरह पुरानी, चार फीट चौड़ी दीवार, करीब बीस फीट ऊंची जाकर, बारह फीट का फासला रखती हुई, नीचे जमीन पर टिकी हुई थी ।
"यह क्या है ?" देवराज चौहान बुदबुदाया ।
"हमारी तिलस्मी नगरी का दरवाजा ।" बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी ।
"क्या मतलब ?"
"इस दरवाजे के बीच में से निकल जाओ । सब कुछ समझ जाओगे।" बेला की फुसफुसाहट पुनः कानों में पड़ी।
देवराज चौहान के चेहरे पर उलझन उभरी रही ।
"मैं जा रही हूं।"
"कहां ?" देवराज चौहान के होठों से निकला।
"मैं पहले ही कह चुकी हो कि, तुम्हारे साथ इस रास्ते से भीतर नहीं जा सकती । किसी की निगाहों में आ जाऊंगी। मैं दूसरे रास्ते से नगरी में प्रवेश करूंगी और फिर तुम से मिलूंगी। नगरी में होने वाले हालातों का मुकाबला, सामना तुमने खुद ही करना है । अपने पैरों के पास देखो।"
देवराज चौहान ने फौरन गर्दन घुमाकर नीचे देखा । देवराज चौहान के देखते ही देखते उसके पांवों के पास लकड़ी का एक इंच लंबा पतला-सा टुकड़ा गिरा । वह लकड़ी कालापन लिए हुए थी ।
"इस लकड़ी के टुकड़े को उठा लो।"
देवराज चौहान ने लकड़ी के उस छोटे से टुकड़े को उठाया।
"इसे अपने पास रख लो । यह तुम्हें तब तक आने वाले खतरों से बचाएगा, जब तक शक्ति इसमें शेष रहेगी ।" बेला की फुसफुसाहट बेहद शांत थी--- "इसे अपने से अलग मत करना "
"कैसे खतरों की बात तुम कर रही हो ?"
"आगे बढ़ जाओ । सब मालूम हो जाएगा ।" बेला की फुसफुसाहट में गंभीरता आई--- "याद रखना, किसी के भी सामने मेरा नाम मत लेना । वरना बहुत कुछ खराब हो जाएगा ।"
देवराज चौहान के चेहरे पर गंभीरता उभरी।
"मैं चली। फिर मिलूंगी ।" बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ती हुई, धीमी हो गई । देवराज चौहान ने मन ही मन बेला को याद किया । लेकिन बेला की आवाज कानों में नहीं पड़ी ।
देवराज चौहान समझ गया कि बेला जा चुकी है।
देवराज चौहान ने हाथ में पकड़े लकड़ी के छोटे से टुकड़े को देखा, फिर उसे जेब में डाला और आसपास देखने के बाद ईंटो के उसी द्वार की तरफ बढ़ गया । बेला के मुताबिक उसमें से उसे गुजरना था और नगरी में प्रवेश कर जाना था, जबकि उसे तो हर तरफ खाली जंगली पहाड़ी इलाका ही नजर आ रहा था ।
देवराज चौहान ने ईटों की ऊंची दीवारों से भीतर कदम रखा तो ठिठक गया ।
आंखें हैरानी से फैल गई ।
सामने का नजारा ही ऐसा था ।
उसे बिल्कुल पृथ्वी की तरह बसी नगरी, नजर आ रही थी। भरा-पूरा शहर था । वैसी ही सड़के । वैसी ही इमारतें । पक्के मकान । कोई छोटा तो कोई बड़ा । उसे यूं लग रहा था जैसे कोई पृथ्वी का ही शहर हो । वहां दिन का उजाला फैला हुआ था ।
अपनी हैरत पर काबू पाते देवराज चौहान की निगाह हर तरफ जा रही थी ।
देवराज चौहान ने पलट कर वापस देखा ।
वहां ईटों का वही रास्ता नजर आ रहा था, जिसके पास वही, उजाड़ सी जगह नजर आ रही थी । कुछ सोचकर देवराज चौहान वापस पलटा और दो कदम उठाकर उसी रास्ते से बाहर निकला ।
उसी पल नगरी का सारा नजारा उसकी निगाहों से ओझल था ।
देवराज चौहान ने दो कदम उठाकर पुनः भीतर प्रवेश किया तो नगरी का नजारा सामने था । देवराज चौहान समझ गया की नगरी को तिलस्म के प्रभाव से निगाहों से ओझल कर रखा है। नगरी को देखने के लिए, ईंटों के इसी रास्ते से प्रवेश करना जरूरी है।
अब देवराज चौहान ने अपना सारा ध्यान नगरी पर लगा दिया ।
पाठक को कहानी का पूरा मजा लेने के लिए पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'जीत का ताज' पढ़ना पड़ेगा । फिर भी मैं मोटे तौर पर आपको बता देना चाहता हूं कि फकीर बाबा की कोशिशों के बावजूद भी देवराज चौहान और मोना चौधरी झगड़े के लिए आमने-सामने खड़े हो जाते हैं और फकीर बाबा के समझाने पर भी वे नहीं मानते तो फकीर बाबा क्रोधित होकर अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए देवराज चौहान और मोना चौधरी को पाताल नगरी स्थित जादुई-मायावी और तिलस्मी नगरी में भेज देते हैं और साथ में होते हैं- जगमोहन, सोहनलाल, रूस्तम राव, बांकेलाल राठौर, कर्मपाल सिंह, महाजन, पारसनाथ, बंगाली और पाली । परंतु वे लोग मायावी नगरी में खुद को संभाल नहीं पाते और जादुई शक्तियां एक-एक करके उन्हें गायब कर देती हैं अंत में देवराज चौहान और मोना चौधरी नहीं बच पाते हैं, जो कि तिलस्मी नगरी के प्रवेश द्वार पर पहुंच जाते हैं। इस दौरान मोना चौधरी को रास्ते में मुद्रानाथ नाम का बूढ़ा व्यक्ति मिलता है, जो कि उसे तिलस्मी खंजर देता है कि खंजर मुसीबत के वक्त उसकी सहायता करेगा और देवराज चौहान को तिलस्मी शक्तियों की मालिक बेला का साथ मिल जाता है। जो अदृश्य बनकर उसके सिर पर सवार हो जाती है और रास्ते में आने वाले खतरों से आगाह करती है और उनका मुकाबला करने की तरकीबें बताती रहती है । बहरहाल फकीर बाबा के बतायेनुसार देवराज चौहान और मोना चौधरी तिलस्मी नगरी में प्रवेश कर जाते हैं, जहां से उन्हें तिलस्मी। नगरी का तिलस्मी ताज लाना है । जो ताज ले आयेगा, वो जीत जाएगा और दूसरा हमेशा के लिए उसका गुलाम बन जायेगा । पूरा मजा लेने के लिए 'जीत का ताज' अवश्य पढ़ें। तो आइये अब देखते हैं देवराज चौहान और मोना चौधरी का तिलस्मी नगरी में प्रवेश करना । 'ताज के दावेदार' में ।
वह पक्की सड़क पर खड़ा था, जो कि सीधी आगे जा रही थी । उस सड़क पर कई मकान और इमारतें थी, उस सड़क के दाएं-बाएं कई सड़कें, गलियों के रूप में मुड़ती नजर आ रही थी।
देवराज चौहान आगे बढ़ने लगा ।
धीरे-धीरे वो नगरी के लोगों में शामिल हो गया । अब वो ध्यान पूर्वक लोगों को देख रहा था । लोग बिल्कुल वैसी ही थे, जैसे पृथ्वी पर मौजूद थे। उनके कपड़े भी वैसे ही थे । कई बार तो ऐसा महसूस होता कि वो पृथ्वी के ही किसी शहर में मौजूद है।
उस जगह का जायजा लेते हुए, जेबों में हाथ डाले, धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहा । कुछ आगे जाने पर उसे दुकाने नजर आई । अधिकतर दुकानें खाने की थी । देवराज चौहान को यह बात अजीब लगी कि तिलस्मी नगरी में खाने की दुकानें क्यों, जबकि यहां लोग खाने का सामान तो अपनी शक्तियों के दम पर पैदा कर लेते हैं । इसी उलझन-सोचों में डूबा देवराज चौहान खाने की दुकान के सामने रुका । उसे भूख सी महसूस होने लगी थी। लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि यहां खाने की एवज में पैसे के रूप में क्या देते हैं ?"
क्षणिक सोच-हिचकिचाहट के बाद देवराज चौहान ने दुकान में प्रवेश किया।
दुकान पर टेबल कुर्सियों पर बैठे लोग खाना खा रहे थे । एक व्यक्ति खाना बनाने में व्यस्त था । दूसरी तरफ बड़े-बड़े बर्तन पड़े थे, जिनमें मौजूद सब्जियों की महक सांसो तक आ रही थी, किसी ने उसकी तरफ खास तवज्जो नहीं दी । देवराज चौहान आगे बढ़ा और एक कुर्सी पर बैठ गया ।
नजरें इधर-उधर दौड़ाता रहा ।
पांच मिनट बीत गए । लेकिन कोई भी उसे खाना पूछने नहीं आया । वहां बैठे लोग खाने के साथ-साथ बातों में व्यस्त थे । उनकी बातों का केंद्र तिलस्म की विद्या - खंजर फिर या वो किसी रानी की खूबसूरती का जिक्र कर रहे थे। देवराज चौहान की भूख बढ़ती जा रही थी।
तभी देवराज चौहान के देखते ही दो व्यक्तियों ने भीतर प्रवेश किया । एक तरफ रखे साफ बर्तन उठाकर बर्तनों में सब्जियां डाली और पानी का गिलास भरकर, सामान उठाए टेबल पर आ बैठे और खाना खाने लगे ।
देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े ।
वो समझ गया कि यहां खाना खुद डाला जाता है । कोई सर्व नहीं करता । देवराज चौहान अपनी जगह से उठा और उन दोनों आदमियों की ही तरह बर्तनों में खाना डालकर, पानी भर कर वापस आ बैठा और खाने लगा। दुकान वाला खाना बनाने में व्यस्त था ।
खाने के दौरान देवराज चौहान की निगाह वहां बैठे लोगों पर फिर रही थी। उनकी बातों को सुनकर, इस नगरी के हालातों को समझने की चेष्टा कर रहा था। वह चाहता था कि उसके कान में 'ताज' का जिक्र पड़े, जिसे लेने के लिए यहां आया है ।
तभी पहले बैठे व्यक्ति उठे । एक तरफ जाकर हाथ साफ किए फिर वो दुकान से बाहर निकलते चले गए । देवराज चौहान की निगाह उन पर ही थी। यह देखने के लिए कि वो खाने के बदले दुकान वाले को क्या देते हैं, परंतु उन्होंने कुछ भी नहीं दिया ।
शायद उनका उधार खाता चलता होगा ? देवराज चौहान ने सोचा ।
देवराज चौहान धीरे-धीरे खाना खाता रहा । फिर उसने तीन व्यक्तियों को खाना समाप्त करके उठते देखा। देवराज चौहान की निगाह उन पर जा टिकी । वो भी हाथ-मुंह धोकर, दुकानदार को बिना कुछ दिए, वहां से बाहर निकलते चले गए ।
देवराज चौहान को अजीब सा लगा कि खाना खाने वाले, खाकर जा रहे हैं और खाने की एवज में दुकानदार को कुछ भी नहीं दे रहे और दुकानदार अपने काम में व्यस्त हैं, वो खाना-खाने वालों से कुछ मांग भी नहीं रहा । कैसा दुकानदार वाला है यह ?
देवराज चौहान भी खाना समाप्त करके उठ खड़ा हुआ । हाथ-मुंह धोकर वो भी पहले वाले लोगों की तरह दुकान से बाहर निकला । उसे पूरा विश्वास था कि दुकान वाला पीछे से उसे पुकारेगा । परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। वो आगे बढ़ता चला गया ।
देवराज चौहान को समझ नहीं आया यहां का सिस्टम ।
कुछ आगे जाने पर उसे चाय की दुकान नजर आई । चाय वाला चाय बना रहा था और भीतर बैठे लोग चाय पी रहे थे । पल भर ठिठककर देवराज चौहान उस दुकान में प्रवेश कर गया । अन्य लोगों की देखा-देखी, उसने भी काउंटर पर पड़ा, चाय का कप उठाया और भीतर बैठ कर पीने लगा। इस दौरान उसने देखा कि यहां पर भी लोग चाय पीकर, दुकान वाले को कुछ दिए बिना बाहर जा रहे हैं ।
देवराज चौहान भी चाय समाप्त करके दुकान से बाहर आ गया।
चाय वाले ने उसे कुछ भी लेने-देने को नहीं टोका।
देवराज चौहान को यह बात अजीब सी लगी । परंतु इतना तो समझ गया कि किसी भी दुकान पर से कुछ भी खाया-पीया जाए, उसकी कोई कीमत नहीं देनी पड़ती ?
देवराज चौहान आगे बढ़ने लगा ।
कुछ देर बाद दुकानों के समाप्त होते ही, चौराहा आया । देवराज चौहान ठिठका । वह चार सड़कें, चार दिशाओं की तरफ जा रही थी । देवराज चौहान ने आसपास नजर मारी । हर रास्ते की तरफ मकान और इमारतें बनी नजर आ रही थी। लोगों का हर तरफ से आनाजाना जारी था ।
देवराज चौहान सोचने लगा कि किस तरफ जाए ? उसे किसी से बात करने की जरूरत महसूस होने लगी। परंतु वह तय नहीं कर पा रहा था कि किसी से बात भी करे तो क्या करें ? क्या पूछे ? अगर इन लोगों को मालूम हुआ कि वह उनकी नगरी का वासी नहीं है तो, ये लोग उसके साथ क्या सलूक करेंगे ?
तभी देवराज चौहान की निगाह चौराहे के बीच लगी सफेद रंग की मूर्ति पर जा टिकी। उस मूर्ति को देखते ही देखते देवराज चौहान की आंखें हैरानी से फैलती चली गई । चेहरे पर अजीब से भाव उभरे । जो नजर आ रहा था, उस पर यकीन नहीं किया जा सकता था । परंतु अविश्वास करने का कारण भी कोई नहीं था ।
वो मोना चौधरी की मूर्ति थी ।
"मोना चौधरी की मूर्ति तिलस्मी नगरी में ?"
अजीब सी निगाहों से वो मूर्ति को देखता रहा । बनाने वाले ने कमाल की कारीगरी दिखाई थी । मूर्ति ऐसी थी कि बिल्कुल सजीव लग रही थी । इसी दौरान देवराज चौहान ने एक खास बात नोट की कि वहां से निकलने वाले अधिकतर लोग, हाथ जोड़कर मूर्ति के आगे सिर झुकाते और आगे बढ़ जाते ।
देवराज चौहान कई पलों तक ठगा सा यह सब देखता रहा।
उसी समय उसने तीन कदमों की दूरी से गुजरते व्यक्ति को ठिठक्कर, श्रद्धा से मूर्ति को नमस्कार कर करते देखा फिर जब वो आगे बढ़ने लगा तो देवराज चौहान ने टोका । "सुनिए साहब ।"
वो आदमी ठिठककर देवराज चौहान को देखने लगा ।
देवराज चौहान उसके पास पहुंच कर बोला।
"यह मूर्ति किसकी है। यहां से गुजरने वाले लोग मूर्ति को श्रद्धा से नमस्कार क्यों कर रहे हैं?"
उस व्यक्ति ने हैरानी से देवराज चौहान को देखा । सिर से पांव तक देखा ।
"तुम नहीं जानते ?" उसके स्वर में अजीब के भाव थे ।
"नहीं। तभी तो पूछ रहा हूं।" वह, देवराज चौहान को घूरने लगा ।
"क्या हुआ ?"
"कहां के रहने वाले हो ?" उसकी आवाज में तीखापन आ गया।
"क्या मतलब ?" देवराज चौहान मन ही मन सतर्क हुआ ।
"मैंने पूछा, कहां के रहने वाले हो ?"
"मेरे सवाल से, तुम्हारे सवाल का कोई ताल्लुक है ?"
"है । बहुत ज्यादा है । क्योंकि नगरी में जब कोई बच्चा पैदा होता है तो उसे, सबसे पहले कुलदेवी के दर्शन कराए जाते हैं, पांच बरस का होते-होते बच्चा अपनी मां की तरह ही कुलदेवी को पहचानने लगता है और तुम पूछ रहे हो कि यहां मूर्ति किसकी है । इसका मतलब तुम हमारी नगरी के नहीं हो । बोलो, कौन हो तुम ?"
देवराज चौहान को अपने सवाल का जवाब मिल गया था कि मोना चौधरी की चेहरे वाली मूर्ति कुलदेवी है । तिलस्मी नगरी की कुलदेवी । परंतु सामने खड़ा व्यक्ति, अपने सवाल के जवाब के इंतजार में, उसके चेहरे को देखने जा रहा था। देवराज चौहान को लगा, जैसे मामला बिगड़ रहा है ।
"तुम हमारी नगरी के नहीं हो ना ?" इस बार उसकी आवाज में कठोरता आ गई थी ।
"तुम्हें इससे क्या मतलब कि मैं इस नगरी का हूं या नहीं ?" देवराज चौहान ने बात को संभालने की चेष्टा की--- "क्या यहां मेहमानों का आना मना है।"
"हां। हमारी नगरी में मेहमानों के आने पर पाबंदी है ।" कहने के साथ ही उसने आसपास से, राह गुजरते लोगों को पुकारा तो दस-बारह लोग फौरन वहां इकट्ठे हो गए--- "आदमी किसी दूसरी जाति का है और हमारी नगरी को नुकसान पहुंचाने यहां आ गया है। क्योंकि ये हमारी कुलदेवी की मूर्ति को भी नहीं पहचानता ।"
ये सुनते ही वहां मौजूद लोगों में हलचल मच गई।
देवराज चौहान समझ गया कि वहां कोई नई मुसीबत में फंस गया है । फौरन दो आदमियों ने आगे बढ़कर उसे दाएं बाएं से पकड़ लिया ।
"ये क्या कर रहे हो ?" देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी ।
"तुम्हें रामनाथ के पास चलना होगा।" एक ने सख्त स्वर में कहा ।
"कौन रामनाथ ?"
"जो नगरी के इस हिस्से का पहरेदार है । वही तुम्हें सजा देगा ।"
देवराज चौहान को कुछ भी कहने सुनने का मौका नहीं मिला।
देवराज चौहान को पकड़े, उसे घेरे में लिए, वे सब सामने जा रही सड़क की तरफ बढ़ गए । देवराज चौहान जानता था कि इससे बचने की कोशिश करना, कोई भी, कैसी भी हरकत करना बेकार है । क्योंकि वह इस वक्त तिलस्मी नगरी में था और यहां से बचकर भाग निकलने का कोई भी रास्ता नहीं था ।
देवराज चौहान ने खुद को हालातों के हवाले कर दिया ।
रामनाथ, कोई पचास बरस का नजर आता था । उसने कुर्ता-पायजामा पहन रखा था ।
वे लोग देवराज चौहान को उसके हवाले कर के चले गए। उस बड़े से हॉल में उन दोनों के अलावा रामनाथ के आठ सेवक मौजूद थे।
रामनाथ और देवराज चौहान एक दूसरे को देखते रहे । फिर रामनाथ शांत भाव से आगे बढ़ा और करीब पहुंचकर देवराज चौहान को सूंघा । फिर पीछे हटता हुआ मुस्कुराया। देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी ।
"इस बात की खबर मुझ तक पहुंच चुकी थी कि कुछ मनुष्य, पृथ्वीवासी लोग, पाताल नगरी में आ गए हैं। परंतु मैं यह नहीं जानता था कि मनुष्य को कैदी की अवस्था में मेरे ही सामने लाया जाएगा ।" रामनाथ शांत स्वर में कह उठा--- "बरहाल मेरे यहां तुम्हारा स्वागत है।"
"तुम कैसे कह सकते हो कि मैं मनुष्य हूं।" देवराज चौहान बोला ।
"तुम्हारे बदन से उठती महक ने यह बात मुझे बताई ।" रामनाथ ने पहले वाले स्वर में कहा--- "मुझे हैरानी है कि तुम मनुष्य हो, पृथ्वी से पाताल नगरी में कैसे आ गए और पाताल नगरी से, हमारी तिलस्मी नगरी तक आने का रास्ता तुम्हें किसने बताया।। जवाब दोगे मेरी बात का ?"
"नहीं।"
"जैसी तुम्हारी इच्छा ।" रामनाथ मुस्कुरा रहा था ।
"जरूर पूछो । अगर तुम्हारे सवाल से तिलस्म से वास्ता नहीं रखते तो जवाब जरूर मिलेगा।"
"मैं तुमसे कुछ बातें पूछना चाहता हूं।" देवराज चौहान बोला ।
"दुकानों पर लोग खा-पीकर जा रहे हैं। परंतु खाने की कोई कीमत नहीं चुका रहा । बनाने वाला खाना बना रहा है। यह सब मेरी समझ में नहीं आया ।" देवराज चौहान ने पूछा ।
रामनाथ मुस्कुराया ।
"हमारे यहां खाने-पीने जैसी चीजों की कीमत नहीं ली जाती और जो खाना बना रहे हैं या सामान्य लोगों की तरह नगरी में रह रहे हैं वो तिलस्मी विद्या में फेल है, इसलिए साधारण काम करते हैं ।"
"तिलस्मी विद्या में फेल ?"
"हां । पैदा होने वाला बच्चा जब होश संभाल लेता है तो बच्चे को तिलस्म सिखाने के लिए विद्याघर में भेज दिया जाता है । पन्द्रह साल वो तिलस्म सीखता है और वहीं रहता है । उसके बाद उसकी परीक्षा ली जाती है । तिलस्म इतना कठिन होता है कि बहुत ही कम लोग सीखने के बाद उसमें पास हो पाते हैं । जो फेल हो जाते हैं, उन्हें सामान्य कामों पर लगा दिया जाता है और उन्हें साधारण काम सौपें जाते हैं । जो पास हो जाते हैं, उन्हें काबिलियत के आधार पर ओहदे दिए जाते हैं । "
"समझा । इसका मतलब तुम तिलस्म विद्या के ज्ञाता हो ?"
"हां । लेकिन मेरी तिलस्मी शक्ति सीमित है । मैं इस विद्या का विद्वान नहीं हूं।" रामनाथ कहा फिर सिर हिलाते हुए उठा--- "अब इस बात का फैसला मुझे करना है कि तुम्हारा क्या किया जाए । क्योंकि बाहरी व्यक्ति का तिलस्मी नगरी में प्रवेश करना मना है । ऐसा करने वाले को सिर्फ मौत की सजा ही दी जाती है। परंतु हम मनुष्य जाति का सम्मान करते हैं और मनुष्य की जान नहीं लेते । इस पर भी तुम्हें सजा देनी आवश्यक है । हम भी अपने कानून से बंधे हुए हैं। "
"बेशक सजा दो ।" देवराज चौहान ने उसकी आंखों में झांका--- "लेकिन मुझे इतना बता दो कि 'ताज' कहां है ?"
"ताज ?" रामनाथ ने हैरानी से उसे देखा ।
"हां । इस नगरी का ताज । "
"हमारी तिलस्मी नगरी में एक ही ताज है । जिसे कुलदेवी का ताज कहा जाता है ।" रामनाथ ने गंभीर स्वर में कहा । "तो समझो मैं उसी 'ताज' की बात कर रहा हूं ।" देवराज चौहान ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा ।
रामनाथ तीखी नजरों से देवराज चौहान को देखा ।
"क्यों पूछ रहे हो हमारी कुलदेवी के ताज को ?"
"उसी ताज को लेने मैं पृथ्वी से यहां आया हूं।"
रामनाथ की आंखें सिकुड़ी । चेहरे पर गुस्सा आया।
"हमारी कुलदेवी के ताज पर जो निगाह रखता है, हम उसकी आंखें निकाल लेते हैं । उस ताज को ले जाने की बात कहकर, तुमने अपनी सजा में बढोत्तरी करवा ली है।" रामनाथ गुस्से से कह उठा ।
देवराज चौहान उसे घूरता रहा ।
"ले जाओ इसे और नीले पहाड़ की तरफ रवाना कर दो । तिलस्म में अपनी सजा ये खुद भुगतेगा।"
रामनाथ के शब्द पूरे होते ही वहां खड़े आदमियों में से चार आदमी आगे बढ़े और देवराज चौहान को पकड़कर, वहां से बाहर ले जाते चले गए।
चार घंटे बीत गए ।
उनका कहना माने, देवराज चौहान के पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं था । वे चारों व्यक्ति देवराज चौहान को इमारत से बाहर लाएं और एक रास्ते पर चल पड़े । उस रास्ते पर बहुत कम व्यक्ति मिले और काफी आगे जाकर लोगों का मिलना ही बंद हो गया । उसे साथ लिए, वो बिना रुके आगे बढ़ते रहे ।
उन्होंने इन चार घंटों के दौरान, देवराज चौहान से कोई बात नहीं की थी ।
आखिरकार देवराज चौहान ही बोला ।
"कहां ले जा रहे हो तुम मुझे ? "
"तुम्हें आदेशानुसार नीले पहाड़ पर भेजा जा रहा है ।" एक ने शांत स्वर में जवाब दिया।
"मतलब कि तुम लोग मुझे नीले पहाड़ पर पहुंचाकर आओगे।" देवराज चौहान ने पूछा ।
"नहीं, तुम्हें नीले पहाड़ पर जाने वाले रास्ते पर डाल दिया जाएगा ।" दूसरे ने कहा-"इस तरह तुम खुद-ब-खुद ही नीले पहाड़ पर पहुंच जाओगे।"
"अगर मैं तुम लोगों के बताए रास्ते पर न जाकर, दूसरी राह पकड़ लूं । या फिर वापस पलट जाऊं तो तुम क्या करोगे ?" देवराज चौहान ने उसे देखा।
"कोशिश कर लेना, लेकिन तुम ऐसा नहीं कर सकोगे ।" तीसरा कह उठा।
"क्यों ?"
"तुम्हारे पीछे हमारी तिलस्मी हवा होगी । जब भी तुम नीले पहाड़ की तरफ बढ़ते, गलत रास्ते पर बढ़ोगे तो वहां तिलस्मी हवा तुम्हें सही रास्ते पर डाल देगी । यानी तुम जब तक नीले पहाड़ तक नहीं पहुंच जाते और फिर से तिलस्म में नहीं फंस जाते। तिलस्मी हवा, पहरेदार की तरह तुम्हारे साथ रहेगी ।" उसने जवाब दिया ।
देवराज चौहान मन ही मन गहरी सांस लेकर रह गया ।
"नीले पहाड़ पर क्या है ?"
"तुम्हारी मौत।"
"मौत ? लेकिन तुम लोग तो कहते हो कि मनुष्य जाति की जान नहीं लेते ।" देवराज चौहान बोला ।
"हां । हम मनुष्य जाति की जान नहीं लेते। परंतु जरूरत पड़ने पर उसे मौत का रास्ता दिखा देते हैं । जहां वह खुद-ब-खुद ही हालातों में फंसकर अपनी गलती से जान गंवा बैठता है। अक्सर ऐसा होता है कि जिसे हम नीले पहाड़ पर भेजते हैं। वो वहां तक पहुंच ही नहीं पाता और रास्ते में तिलस्म में ही हादसों का शिकार हो जाता है। "
देवराज चौहान समझ गया कि आने वाला वक्त खतरों से भरा पड़ा है ।
"तुम्हारी तिलस्मी नगरी का मालिक कौन है ?" देवराज चौहान ने पूछा ।
"इस बात का जवाब तुम्हें अवश्य दे दिया जाता । परंतु अब बताने की जरूरत इसलिए नहीं समझते कि बहुत जल्द तुम अपनी गलती से मरोगे । इसलिए अब तुम्हें किसी जवाब की जरूरत नहीं ।"
"अगर मैं बच गया तो ?"
दो हंस पड़े । जबकि दो मुस्कुराए ।
"बेवकूफ मनुष्य हो जो, ऐसा सोच रहे हो । नीले पहाड़ की तरफ जाने वाला कभी भी जिंदा नहीं बचता।"
"माना कि तुम ठीक कह रहे हो।" देवराज चौहान का स्वर शांत था--- "लेकिन यह बात भी गलत नहीं है। मैं अगर बच गया तो फिर मेरा क्या होगा ?"
"हम नहीं जानते । हम तो यह भी नहीं जानते कि नीले पहाड़ की तरफ बढ़ने पर तुम्हारे सामने कैसी मुसीबतें आयेगी हम कभी भी वहां नहीं गए । रामनाथ का आदेश है कि किसी की जान लेनी हो तो उसे नीले पहाड़ की तरफ रवाना कर दें।"
देवराज चौहान ने फिर कुछ नहीं पूछा ।
वे चारों उसे लिए यूं ही चलते रहे ।
आधे घंटे बाद देवराज चौहान बोला ।
"मैं थक गया हूं । आराम करना चाहता हूं।"
"हम आ पहुंचे हैं। दस मिनट बाद, उस जगह तक पहुंच जाएंगे, जहां तुम्हें ले जाना है। देवराज चौहान सिर हिला कर उनके साथ चलता रहा ।
दस मिनट बाद ही, वे चारों देवराज चौहान के साथ, एक जगह पर ठिठके ।
ये जंगल जैसी जगह थी । सूखी झाड़ियां । पेड़-पत्थर वगैरह इधर उधर नजर आ रहे थे। हर तरफ सुनसानी का बोलबाला था ।
देवराज चौहान ने पलटकर उन चारों को देखा ।
"यहां क्या है ?"
"नीले पहाड़ का जाने का रास्ता ।" जवाब मिला ।
"कहां-किधर है रास्ता ?"
"वो देखो सामने उधर ।" उसने हाथ के इशारे से कहा--- "वो चार सीढ़ियां नजर आ रही हैं।"
देवराज चौहान ने उस तरफ देखा ।
कुछ आगे पेड़ों के तनों के बीच सीढ़ियां नजर आई, जो कि सिर्फ चार थी और वो देखने में सीढ़ियां, पुरानी और टूटी-फूटी सी लग रही थी । देवराज चौहान के चेहरे पर न समझने वाले भाव आए ।
"वो सीढियां चढ़ो और दूसरी तरफ छलांग मार दो।"
"क्यों ?"
"ऐसा करते ही तुम्हें नीले पहाड़ पर जाने का रास्ता मिल जाएगा और हम वापस चले जाएंगे।"
"अगर मैं सीढ़ियां चढ़ने से इंकार कर दूं तो ?"
"ये काम हम जबरदस्ती भी कर सकते हैं और जबरदस्ती में हमारी कोई मेहनत भी नहीं लगेगी।"
देवराज चौहान जानता था कि वो ठीक कह रहा है ।
"सीधी तरह चलते हो या हम, तुम्हें सीढ़ियों तक पहुंचाएं।"
देवराज चौहान ने सोच भरे ढंग में, सहमति में सिर हिलाया और फिर चारों पर निगाह मारकर सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया। कुछ ही पलों में सीढ़ियों के पास पहुंचकर ठिठका।
"सीढ़ियां चढ़ो।" पीछे से कहा गया ।
देवराज चौहान ने पहली सीढ़ी पर पांव रखा फिर चारों सीढ़ियां चढ़ गया । दूसरी तरफ कोई सीढ़ी नहीं थी । चार-पांव फीट नीचे ही जमीन थी ।
"कूद जाओ, दूसरी तरफ ।" पीछे से पुनः आवाज आई ।
देवराज चौहान नहीं समझ पाया कि चार-साढ़े चार फीट कूदने से क्या होगा ?
बरहाल अगले ही पल वो कूद गया ।
उसके पैर जमीन से नहीं टकराए । कूदते ही उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया । साथ ही उसे ऐसा महसूस हुआ कि वो हवा में उड़ता जा रहा है । कुछ ही सैकिंडो के बाद, उसने अपने पांवों को जमीन पर महसूस किया और इसके साथ ही आंखों के सामने छाया अंधेरा भी छंट गया।
वराज चौहान खुद को ऐसे कमरे पाया जो पहाड़ को काट-काटकर जैसे बनाया गया हो । सामान्य लंबाई-चौड़ाई का कमरा था । परंतु हर तरफ से वो बंद था। कोई दरवाजा नहीं था और वहां तीव्र प्रकाश फैला हुआ था । जर्रा-जर्रा नजर आ रहा था । हर तरफ देखते हुए देवराज चौहान ने पीछे निगाह घुमाई तो जोरों से चौंका। पीछे वही कटा सिर, पहले की तरह हवा में मौजूद था । गर्दन वाले हिस्से से खून टपककर नीचे गिर रहा था। देवराज चौहान को अपनी तरफ देखता पाकर, वो ठहाका लगा उठा ।
"मौत के रास्ते पर डाल दिया तेरे को।" वो कटा सिर ठहाका रोकते कह उठा--- "अब तेरे को कोई नहीं बचा सकता । तेरी मौत पक्की हो चुकी है। "
देवराज चौहान उसे देखता रहा ।
"लेकिन मैं तेरे को बचा सकता हूं।"
"कैसे ?"
"मुझे अपना थोड़ा सा खून पिला दे । तब मैं तेरे को बचा लूंगा।" कटे चेहरे ने कहा। देवराज चौहान मुस्कुराया ।
"पसंद आई मेरी बात ?" कटे चेहरे की आंखों में चमक उभरी ।
"हां।" देवराज चौहान के होठों पर मुस्कान थी ।
"ला । दे अपना खून । दो-चार बूंदे ही बहुत है। मेरे होठों से लगा दे"
देवराज चौहान ने अपना हाथ सीधा किया और आगे बढ़ा।
"ये क्या कर रहा है ।"
देवराज चौहान ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी गर्दन से टपकते खून को अपनी हथेली में भरने लगा, जैसे कि उसने पहले किया था ।
"पागल इंसान, होश में आ । ये काम मत कर । अपना खून मुझे दे । मैं तुझे बचा.."
देवराज चौहान ने हाथ में भरे खून को अपने होठों की तरफ बढ़ाया तो देवराज चौहान को लगा, जैसे उसकी आंखों के सामने बिजली चमकी हो । अगले ही पल उसने देखा कि, पहले की ही तरह वो कटा सिर, उससे टपकता खून, हथेली में पड़ा खून, सब कुछ गायब था ।
देवराज चौहान ने गहरी सांस ली ।
फिर वो उस बंद कमरे से बाहर निकलने का रास्ता तलाश करने लगा । वहां की दीवारों को ठोक-बजाकर चैक करने लगा । इतना तो वह जानता था कि यहां से निकलने का कोई गुप्त रास्ता अवश्य है । परंतु बड़ी मेहनत के बाद भी देवराज चौहान वहां से निकलने का रास्ता नहीं ढूंढ पाया।
आखिरकार थककर वो नीचे बैठ गया । फर्श बिल्कुल समतल था । सिगरेट सुलगाई और कश लेते हुए फर्श पर ही, नीचे लेट गया । लेटे-लेटे वो दीवारों पर निगाहें दौड़ा रहा था कि कमरे से बाहर निकलने का रास्ता किधर है ?
परंतु उसकी आंखें भी रास्ते को न समझ पाई।
देवराज चौहान ने मन ही मन बेला को याद किया ।
परंतु बेला की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला । सिगरेट समाप्त होने पर देवराज चौहान ने आंखें बंद कर ली । सोचों ही सोचों में जाने कब वह नींद में डूबता चला गया ।
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मोना चौधरी ने आखिरी सीढ़ी के बाद नीचे कदम रखा तो खुद को अंधेरे से भरी गली में पाया जिसके ऊपर भी छत थी, लेकिन कुछ आगे गली के किनारे के रूप में रोशनी चमक रही थी ।
मोना चौधरी सावधानी से आगे बढ़ने लगी ।
पन्द्रह मिनट के बाद, वो गली से बाहर आ गई । ठिठकी ।
हर तरफ उसकी नजरें घूमी ।
जहां-जहां तक भी उसकी निगाह पहुंची, पास देखा, दूर देखा, हर तरफ उसे खंडहर ही खंडहर नजर आए और देखने को मिले बड़े-बड़े विशाल घने पेड़, जो कि खंडहरों को छिपाने का प्रयत्न कर रहे हों जैसे ।
वहां सुनसानी का सनसनाता मंजर था। अगर यदा-कदा तेज हवा चलती तो पेड़ों के पत्तों की खड़खड़ाहट वातावरण को रहस्यमय बना देती । गुजरती तेज हवा की सांय-सांय दिल की धड़कन को तीव्र करने के लिए काफी थी । आसमान पर बादल छाए हुए थे और हवा में ऐसी नमी थी कि जैसे कहीं बरसात हो रही हो ।
मोना चौधरी को लगा, जैसे वो यहां अकेले ही हो ।
उस जगह को आंखों ही आंखों में अच्छी तरह भांपने के पश्चात मोना चौधरी आगे बढ़ी । उसकी सतर्क निगाह चारों तरफ घूम रही थी । पैरों के नीचे आने वाले सूखे पत्तों की चरमराहटों की आवाजें, वातावरण में अजीब से रहस्यमय भाव पैदा कर रहे थे ।
पेड़ों के नीचे पेड़ो के तनों के पास से गुजरती मोना चौधरी सामने वाले खंडहर में पहुंची। उसे देखकर ऐसा लगता था जैसे सदियों पुराना किला हो और शानदार रहा हो कभी । परंतु अब उजड़ चुका था । सावधानी से उसे किले के खंडहर में सोचकर प्रवेश किया कि शायद वहां कोई रास्ता हो ।
परंतु किले का सारा खंडहर देख लेने के पश्चात भी, उसे कोई नजर नहीं आया। मोना चौधरी को मन ही मन हैरानी हुई थी ऐसी उजाड़ खंडहर में कोई जानवर, सांप या पक्षी भी नहीं मिले देखने को, जबकि ऐसी जगहों पर तो उनका खास बसेरा होता है। मोना चौधरी खंडहर से बाहर निकली और आगे बढ़ गई।
वही खंडहर, वही खौफनाक वक्त को महसूस कराता गहरा जंगल
न कोई इंसान, न कोई जानवर । कोई आवाज नहीं । जब कभी वह सूखे पत्तों पर से गुजरती तो उन पत्तों की चरमराहटों की आवाजें, वहां की खामोशी को तोड़ने लगी। दो घंटे तक मोना चौधरी का इसी तरह चलते रहना जारी रहा । वहीं खंडहरों और पेड़ों का गहरा सिलसिला । जो कि कहीं भी खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था, जैसे उनका कहीं अंत ही न हो ।
तभी आसमान में बादलों की गड़गड़ाहट गुंजी ।
मोना चौधरी ने मन ही मन यह सोचकर सांस ली कि कहीं से तो आवाज आई । उसने ठिठककर आसमान की तरफ देखा । आसमान में काले बादलों के झुंड नजर आ रहे थे। जो कि किसी भी पल बरस सकते थे । उन काले बादलों की वजह से, दिन की रोशनी मध्यम सी पड़ गई थी।
मोना चौधरी ने कदम तेजी से आगे बढ़ने लगे ।
अब उसे भूख और प्यास भी लगने लगी थी। परंतु बरसात आने तक वह ज्यादा से ज्यादा आगे बढ़ जाना चाहती थी । आसमान पर छाए काले बादलों को देखकर स्पष्ट लग रहा था कि जब वे पानी बरसना शुरू करेंगे तो फिर देर तक रुकने का नाम नहीं लेंगे ।
आधा घंटा ही पीता होगा कि मोना चौधरी के हाथ पर पानी की मोटी बूंद पड़ी । उसके बाद बूंद गिरने की रफ्तार तेज होने लगी। बरसात शुरू हो गई थी और हर पल तेज होती जा रही थी ।
मोना चौधरी तेजी से दौड़ी।
सामने ही काफी बड़ा विशाल खंडहर नजर आ रहा था ।
मिनट भर के बाद ही उसे खंडहर में प्रवेश कर गई । घने पेड़ों की वजह से वो भीगने से बच से गई थी । खंडहर की टूटी-फूटी छत के नीचे पहुंचकर उसने राहत की सांस ली। वहां से, बाहर से पानी बरसता स्पष्ट नजर आ रहा था । अब यहीं रुकना था, जब तक की बरसात थम नहीं जाती।
मोना चौधरी ने आसपास देखकर, कुछ साफ सी जगह का चुनाव किया । अब फुर्सत थी । खाना खाने का बढ़िया-सा मौका था । उसने कमर पर बंधे खंजर पर हाथ रखा और होठों में बुदबुदाई ।
"खंजर, मेरे लिए खाने का इंतजाम कर ।"
उसी पल सामने टेबल और कुर्सी नजर आने लगी ।
टेबल पर खाने के कई तरह के बर्तन मौजूद थे । खाने की महक उसकी सांसों से टकराई । मोना चौधरी कुर्सी पर बैठी, खाना खाने में व्यस्त हो गई । वहां से जंगल और बरसात का नजारा स्पष्ट नजर आ रहा था । तुफानी बरसात की वजह से पेड़ अस्पष्ट नजर आने लगे थे । माहौल में ठंडक सी महसूस होने लगी थी। ठंडी हवा, मोना चौधरी के बदन से टकराने लगी थी।
खाना खाते-खाते मोना चौधरी की निगाह पेड़ों की तरफ उठी तो मुंह चलना बंद हो गया। आंखे सिकुड़ी और एकाएक वह सतर्क सी नजर आने लगी ।
बरसात के धुंधलके में, पेड़ों के बीच, दूर वो स्पष्ट नजर आ रहा था, जो दौड़ता हुआ इसी तरफ आ रहा था । मोना चौधरी की निगाह उस पर टिकी रही । खाना खाना तो जैसे भूल चुकी थी । वो जो कोई भी था, पहला इंसान था, जो घंटों बाद उसे अब नजर आया था ।
मोना चौधरी उसे देखती रही ।
वो पास आता जा रहा था । तेज बरसात की वजह से उसका चेहरा अभी स्पष्ट नहीं हुआ था । एक हाथ उसने आंखों की तरफ उठा रखा था, जैसे तूफान बरसात में रास्ता देखने के लिए आंखें खुली रखना चाहता हो ।
और फिर वो खंडहर में आ पहुंचा।
छत के नीचे आकर वो गहरी-गहरी सांस लेने लगा। उसकी निगाह अभी तक मोना चौधरी पर नहीं पड़ी थी । मोना चौधरी ने देखा वो बाईस-चौबीस बरस का खूबसूरत युवक था। उसके बदन पर पैंट-कमीज जूते पहन रखे थे । पैंट में बैल्ट लगी रखी थी । बाल भीगकर सिर से चिपक गए थे । माथे तक आ रहे थे उसके बाल । वहीं खड़ा, अपने गीले कपड़ों का हाल देख रहा था ।
फिर मोना चौधरी के देखते ही देखते वो अपने जूते और गीले कपड़े उतारने लगा ।
सिर से पांव तक उसने गीले कपड़े उतार लिए अब उसके शरीर पर कुछ भी नहीं था । कपड़ों को नीचे रखकर उसने आंखें बंद की और फिर मोना चौधरी ने स्पष्ट देखा कि वो कुछ बड़बड़ा रहा है। अगले ही पल उसके होंठ थम गए । उसने आंखें खोली और नीचे पड़े कपड़े उठाकर पहनने लगा ।
मोना चौधरी के चेहरे पर अजीब से भाव आ गए ।
कपड़े सूखे हुए थे और प्रेस किए हुए थे।
स्पष्ट था कि यह युवक तिलस्मी नगरी का और तिलस्म और जादुई शक्तियों का अच्छा ज्ञान रखता है । कपड़े पहनने के बाद उसने जूते पहने, जो कि अब सूखे हुए थे । पैंट से कंघा निकालकर, सिर के बालों में फिराया। बाल भी सूखे हुए थे। ।
मोना चौधरी का दिमाग तेजी से चल रहा था। उसने फौरन खंजर को छुआ और बुदबुदाई
"खंजर, एक कुर्सी और दो ।"
उसी पल टेबल के दूसरी तरफ कुर्सी नजर आने लगी ।
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