शाम के साढ़े तीन बज रहे थे।
देवराज चौहान ने आंखों पर लगा रखा काला चश्मा उतार के बगल की सीट पर रखा और कार के रफ्तार धीमी कर ली। इस वक्त वो खार के तीसरे रास्ते पर था। सड़क पर ट्रेफिक था। दोनों तरफ के फुटपाथों ओर भी लोग आ-जा रहे थे कुछ देर पहले तेज धूप निकली हुई थी। परन्तु अब आसमान पर बादल आ गए थे, जो कि धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे।
मुम्बई का जुलाई का महीना था।
जाने कब जोरों की बरसात होने लगे। कुछ पता नही चलता था। कुछ घंटे पहले हुई बरसात की वजह से सड़क पर गीलापन नजर आ रहा था। नजर आने वाले मकानों की दीवारें भी गीली थी।
देवराज चौहान के निगाह चारों तरफ जा रही थी।
एकाएक देवराज चौहान ने कार को सड़क के किनारे पर किया और इंजन बंद कर दिया। कुछ आगे सड़क पर सुर्ख रंग की होंडा सिटी खड़ी थी। कार की हालत ऐसी थी जैसे अभी शोरूम से निकल कर आई हो। उस कार को देखते हुए देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा कर कश लिया।
उसी पल देखते ही देखते होंडा सिटी का पीछे वाला दरवाजा खुला और साठ बरस का स्वास्थ्य सामान्य कद-काठी का व्यक्ति बाहर निकला और उसकी तरफ बढ़ने लगा। उसके रंग-ढंग में अथाह दौलत की झलक भरी पड़ी थी। चलने के ढंग में विश्वास था। आंखों पर सोने के फ्रेम का चश्मा लगा रखा था।
वो पास आया । कार का दरवाजा खोला और देवराज चौहान के बगल में सीट पर बैठ गया।
“मैं सोच रहा था कि कहीं तुम पहुंचने में देरी ना कर दो।” उस ने गंभीर स्वर में कहा।
“वक्त पर आया हूं। देवराज चौहान ने बाहर देखते हुए कश लिया-“प्रोग्राम तो नहीं बदला?”
“नहीं।”, उसने कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह मारी-“मुंबई सेंट्रल से शाम को साढ़े चार बजे दिल्ली के लिए राजधानी एक्सप्रेस रवाना होगी। वो ए.सी. चेयर कार में होगा। उसके गाल पर काला मस्सा होगा। जो कि नजर आ जाएगा। ये बात उसने मुझे फोन पर बताई थी।”
“बोगी नंबर क्या है ?”
“7441 !” बोगी नम्बर के साथ ही उसने जेब से मोबाइल फोन निकाला और नंबर मिला कर बात की-“ले आओ।” इतना कहकर उसने फोन बंद कर दिया।
तभी सामने नजर आ रही होण्डा सिटी का ड्राइविंग डोर खोलकर वर्दीधारी ड्राइवर निकला और उनकी कार की तरह बढ़ा। उसने हाथ में मीडियम साइज का सूटकेस थाम रखा था ।
“कुछ और कहा उसने ?”
“वही बात कि अगर पुलिस को खबर करने की कोशिश की। किसी भी तरह की चालाकी की तो मेरे बेटे की लाश ही देखने को मिलेगी।” कहते हुए उसकी आवाज कांप गई- “वो जो भी है खतरनाक इंसान है।”
ड्राइवर पास आया खुली खिड़की से सूटकेस भीतर सरकाकर, देकर चला गया।
“इसमें फिरौती का एक करोड़ रूपया है।” उसने सूटकेस उसकी तरफ किया।
देवराज चौहान ने सूटकेस को हाथ लगाया और पीछे वाली सीट पर रख दिया।
“रुपया किस शक्ल में है ?” देवराज चौहान ने पूछा ।
“पच्चीस लाख नगद है और पचहत्तर लाख कीमत के हीरे हैं। अपहरणकर्ता ने जैसा कहा था, मैंने वैसा ही किया है।”
“अदला-बदली की क्या बात हुई ?”
उसने परेशानी भरे ढंग से पहलु बदला और भिंचे स्वर में कह उठा।
“वो कहता है जब रकम उसे मिल जाएगी। चैक कर लेगा की रकम पूरी है तो मेरे बेटे को छोड़ देगा।”
“मतलब कि मैं एक करोड की रकम उसके हवाले कर दूं और वो तब आपका बेटा नहीं लौटएगा ?”
“नहीं । बाद में।”
“बाद में इस तरह अपहरण के मामलों में लाशे ही वापस आती देखी हैं। जिंदा नहीं आता कोई।”
उसमें भींच लिए। आंखों में आंसू चमक उठे।
“दास साहब। थापर ने मुझे ये काम करने को कहा है तो ऐसे में मैं करोड रुपए अपहरणकर्ता के हवाले करके वापस नहीं आ सकता। ये काम तो, रुपया देने का काम तो हर कोई कर लेगा। फिर इस काम में मेरी क्या जरूरत है।”
“क्या ? क्या कहना चाहते हो तुम ?”
“ऐसे अपहरण के मामलों में शिकार का जिंदा लौटना आसान नहीं रह जाता।” देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहते हुए कश लिया और सिगरेट उछाल दी-“ये मामला मेरे हवाले कर दो दास साहब। आपके बेटे राजन को जिंदा ला सका तो ठीक। नहीं तो…”
“मुझे भी मेरा बेटा जिंदा चाहिए।” वो कांप उठा-“उसके बिना हमारा परिवार टूट जाएगा । मेरी पत्नी तो…।”
आधा-आधा चांस लेकर चले दास साहब। कोई जरूरी नहीं कि आपका बेटा राजन जिंदा ही हो। अगर उसे उन लोगों ने अब तक जिंदा रखा होगा तो मैं पूरी कोशिश करूंगा कि उसे सलामत वापस ला सकूं।”
दास भीगी निगाहों से देवराज चौहान को देखने लगा।
“ये मामला मुझ पर छोड़ दो । तभी मैं ठीक तरह से अपहरणकर्ता को संभाल पाऊंगा।” देवराज चौहान ने कहा–“अगर आप चाहते हैं कि अपहरणकर्ता को पैसे ही दे कर आना है तो मैं पैसा उस तक पहुंचा दूंगा।”
दास ने अपनी आंखों से बहते आंसू को साफ किया और कार का दरवाजा खोलते हुए बोला।
“मेरे में इतनी हिम्मत नहीं बची कि इस मामले में कोई फैसला ले सकूं। तुम जो ठीक समझो वो करो। लेकिन... लेकिन मेरे बेटे का कुछ बुरा ना हो। उसे जिन्दा वापस ले आना।” कहने के साथ ही वो कार से निकला और आगे खड़ी सुर्ख हॉन्डा सिटी की तरफ बढ़ गया।
देवराज चौहान के देखते ही देखते वो कार में बैठा और हॉन्डा सिटी वहां से चली गई।
चेहरे पर गंभीरता समेटे देवराज चौहान ने मोबाइल फोन निकाला और नंबर मिलाया।
“जगमोहन ।” देवराज चौहान ने कहा- “ इस वक्त कहां हो ?
“यहां से मुझे तुम्हारी कार नजर आ रही है।” जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी-“ जहां वो होन्डा खड़ी थी, मेरी कार उससे काफी आगे खड़ी है। नजर मारो ।”
देवराज चौहान ने ठीक सामने नजर मारी।
जगमोहन की कार दूरी पर खड़ी नजर आई।
“होन्डा के पीछे कोई कार गई। किसी ने दास का पीछा किया ?”
“नहीं । ऐसा कोई भी मुझे नहीं दिखा। दास से क्या बात हुई ?”
देवराज चौहान ने दास से हुई सारी बातचीत जगमोहन को बता दी ।
“अब क्या करना है ?”
“कार में एक करोड़ के माल से भरा सूटकेस पड़ा है। मैं कार से निकल रहा हूं तुम आकर इस कार को संभाल लो। अपहरणकर्ता के बारे में तुम्हें बता दिया है। उससे कैसे बात करनी है सुन लो। जैसे हालात हो। मामला संभाल लेना।” इसके साथ ही देवराज चौहान बताने लगा कि अपहरणकर्ता को कैसे संभालना है।
सुनने के बाद जगमोहन की आवाज आई।
“तुम कहां रहोगे।”
“तुम्हारे आस-पास ही। मेरी तलाश में निगाहें मत घुमाना। अपना काम करते जाना।”
“समझा। तुम्हारा क्या ख्याल है, अपहरण करने वाले ने दास के बेटे को अब तक जिंदा रखा होगा ?”
“यकीन के साथ कुछ नहीं कह सकता। क्योंकि राजन का अपहरण हुए छः दिन बीत चुके हैं।” देवराज चौहान ने कहा- “इस काम को बहुत ही सतकर्ता से करना है। दास के बेटे को हम बचा सके तो अच्छा होगा। जिस ढंग से तुमने काम करना है। बता चुका हूं। तुम ये कार संभालो। मैं तुम्हारी कार लेने आ रहा हूं।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने फोन बंद करके जेब में डाला और कार से निकलकर आगे की तरफ बढ़ने लगा ।
उधर से जगमोहन आता दिखाई दिया ।
दोनों खामोशी से एक -दूसरे को पार करते हुए आगे बढ़ते चले गए।
देवराज चौहान,जगमोहन वाली कार के पास पहुंचा ही था कि गोली चलने की आवाज उसके कानों में पड़ी। देवराज चौहान ने फौरन पलट कर पीछे की तरफ देखा।
मामला समझते ही पलों के लिए हक्का-बक्का रह गया।
उसकी कार आंधी तूफान की तरह उसके सामने से निकल गई। वो ठीक से देख भी नहीं पाया कि उसे कौन ड्राइव कर रहा है। पीछे वाली सीट पर पड़े सूटकेस की झलक उसे मिली।
जगमोहन हाथ मे रिवॉल्वर थामे हड़बड़ाया सा दौड़ता सा आ रहा था। गोली उसी ने चलाई थी।
सब समझ गया देवराज चौहान।वो जल्दी से कार में बैठा। इंजन स्टार्ट किया। जगमोहन पास आ पहुंचा था। छलांग मारने वाले ढंग से भीतर आ पहुंचा था । देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ाई और देखते ही देखते कार ने तूफानी रफ्तार पकड़ ली थी। आगे वाली कार बहुत दूर हो चुकी थी। परन्तु नजर आ रही थी। फिर देखते ही देखते मोड पर मुड़कर निगाहों से ओझल हो गई।
दांत भींचे देवराज चौहान का पूरा ध्यान तूफानी ड्राइविंग पर था।
“क्या हुआ था ?” देवा चौहान ने भिंचे स्वर में पूछा।
“मैं कार के पास पहुंचने ही वाला था।” जगमोहन की आवाज में सख्ती थी-“कि तभी एक आदमी आया और कार में बैठते ही कार स्टार्ट करके ले भागा। पहले तो मैं समझ नहीं पाया। लेकिन जब ध्यान आया कि करोड़ रूपया भी कार में है तो रिवॉल्वर लेकर मैंने कार ड्राइव करने वाले का निशाना लेने की कोशिश की। लेकिन…”
“कार ले भागने वाले को देखा ?”
“तीस बरस का युवक रहा होगा वो। उसका चेहरा ठीक से नहीं देख पाया।” जगमोहन खा जाने वाले स्वर में कह रहा था-“मैं दावे से कह सकता हूं कि वो पहले से ही हम पर नजर रख रहा होगा। हम पर या दास के करोड़ रुपए पर।”
तभी तूफानी रफ्तार से देवराज चौहान ने मोड़ काटा।
काफी आगे वो कार दिखी। अब फासला पहले से कुछ काम था।
“दास के करोड़ पर ही नजर रख रहा होगा। हमारे पीछे कोई नहीं आया होगा। जो कार ले भागा है, वो दास के ही पीछे रहा होगा। वो ठीक मौके पर कार ले भागा है। दास की पहचान वाला होगा वो।
फासला अब पहले से और भी कम हो गया था ।
“हम उसे आसानी से पकड़ लेंगे।” जगमोहन की नजरे आगे कार पर थी- “वो कार लेकर भाग नहीं पाएगा।”
दोनों कारें रफ्तार के साथ आगे-पीछे दौड़ रही थीं। सड़क पर मौजूद ट्रेफिक की वजह से कार भगाने में उन्हें परेशानी हो रही थी। हॉर्न बराबर दबा रखा था।
तभी आगे लाल बत्ती आ गई।
वहां पहले से ही वाहन रुके थे। आगे वाली कार को आगे बढ़ने के लिए कोई रास्ता ना मिला। उसे रुकती पागल जगमोहन का दिल धड़का। देवराज चौहान का चेहरा कठोर हो गया।
“वो कार रुक गई है।” जगमोहन जैसे तड़प उठा था। उसकी निगाह सतर्क थी कि कार ड्राइव करने वाला अगर कार से निकल कर भागता है तो देख ले वो किधर भाग रहा है।
परन्तु कोई भी कार से निकल बाहर नहीं निकला।
उस कार के पीछे तीन कारें आ पहुंची थी, जब उनकी कार वहां रुकी।
“तुम इस कार को संभालो।” कहने के साथ ही देवराज चौहान दरवाजा खोलकर बाहर निकला और तेज-तेज कदमों से आगे खड़ी अपनी कार की तरफ बढ़ता चला गया।
पास पहुंचते ही कार का दरवाजा खोला और भीतर बैठते हुए रिवॉल्वर निकाली और ड्राइव करने वाले की कमर से रिवॉल्वर लगाते हुए दरवाजा बंद कर लिया ।
दोनों की निगाहें मिली ।
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी।
“तुम ?” कार ड्राइव करने वाले के होंठों से हक्का-बक्का सा स्वर निकला ।
देवराज चौहान भी उसे देखता रह गया।
वो जुगल किशोर था। अपना ठगबन्धु।
देवराज चौहान से जुगल किशोर की मुलाकात अनिल के पूर्व प्रकाशित उपन्यास धोखाधड़ी में हुई थी। पाठक बन्धु तो जुगल किशोर और उसकी पैतीस से बहुत बार मिल चुके है।
“देवराज चौहान ?” जुगल किशोर ने सकपका कर अपनी कमर से लगी रिवाल्वर को देखा-“बड़े भाई। मेरे से किस बात की दुश्मनी उतार रहे हो। रिवॉल्वर हटा लो। तुम्हारी भैंस को खोलना तो दूर मुझे तो यह भी नहीं पता कि तुम्हारे पास भैंस है भी कि नहीं।”
तभी हरी बत्ती हो गई।
ट्रेफिक आगे बढ़ने लगा।
“यहां से चल।” देवराज चौहान शब्दों को चबाकर बोला।
जुगल किशोर ने सुर्ख होंठों पर जीभ फेरते हुए कार आगे बढ़ाई।
“मेरे से गलती हो गई क्या?” जुगल किशोर की हालत बे-काबू हो रही थी।
“जुगल किशोर नाम है तुम्हारा?” देवराज चौहान का स्वर सख्त था।
“हां । बच्चा हो बड़े भाई। तुम…तुम बहुत नाराज लग रहे हो।”
“कार को सड़क के किनारे ऐसी जगह रोको, जहां ज्यादा भीड़ ना हो।”
जुगल किशोर ने पुनःसुर्ख होठों पर जीभ फेरी और कुछ आगे ले जा कर कार को रोका।
“आखिर मैंने क्या कर दिया? बड़े भाई।” जुगल किशोर जल्दी से बोला ।
देवराज चौहान ने रिवॉल्वर हटाई और अपनी जेब में रख ली ।
उसे गोली नहीं मारेगा देवराज चौहान। प्यारे जुगल, ये बात तो पक्की हो गई। बाकी बातों की परवाह नहीं। जो होगा, देख लूंगा। जान तो कहीं नहीं, जाने वाली।
“ये कार मेरी है।” एक -एक शब्द चबाकर देवराज चौहान सपाट-सख्त स्वर में कहा।
जुगल किशोर चिंहुक पड़ा। चेहरे पर हैरानी उभरी।
देवराज चौहान को उसकी हैरानी कहीं से भी निकली नहीं लगी ।
“तुम्हारी कार?” जुगल किशोर के होठों से निकला।
देवराज चौहान सख्त-सी निगाहों से उसे देखता रहा।
जुगल किशोर कुछ कहने लगा कि तभी पास ही कार आकर रुकी और जगमोहन बाहर निकलकर पास पहुंचा। चेहरे पर गुस्सा स्पष्ट नजर आ रहा था।
“सब ठीक है?” उसने देवराज चौहान को देखा।
“हां।”
जगमोहन ने पीछे वाली सीट पर पड़े सूटकेस को देखा फिर जुगल किशोर को।
“तुम…।” दूसरे ही पल उसकी आंखें सिकुड़ गई।
जुगल किशोर सकपकाया ।
“साले ठग तेरी ये हिम्मत कि तू हमारी कार ले उड़े। हमारे माल पर हाथ मारने की कोशिश करता है।”
“माल ? ” जुगल किशोर के होठों से निकला-“कैसा माल ? ”
“पीछे सूटकेस नहीं देखा।”
जुगल किशोर ने गर्दन घुमा कर सीट पर पड़े सूटकेस को देखा। सच बात तो यह थी कि जगमोहन के कहने के बाद ही उसे सूटकेस की मौजूदगी का एहसास हुआ था।
“सूटकेस तो मैं… मैंने अभी देखा है।”
“झूठ बोलता…।” जगमोहन ने कहना चाहा।
“सच कह रहा है ये।” देवराज चौहान कह उठा –“इसका चेहरा बता रहा है कि ये सच कह रहा है।”
जगमोहन दांत भींचे जुगल किशोर को देखने लगा ।
“तुम कार लेकर भागे क्यो?” देवराज चौहान ने पूछा।
“मैं …वो मेरे पीछे पड़ा था? है कोई। सालभर पहले उसकी बीवी को ले उड़ा था।” जुगल किशोर ने जल्दी से कहा- “उसने मेरे को देखा तो, पहचान कर पकड़ने को भागा। मैं भी भागा। तभी यह कार खुली मिली तो…।”
“क्या किया उस आदमी की बीवी का ?”
“कुछ नहीं। रात को होटल में ठहरे थे। जब वह नींद में थी तो उसका रुपया और जेवरात लेकर चलता बना था। मुझे क्या पता कि वह मुझे पहचान लेगा और…।”
“बाहर निकल। तेरे बाप की कार नहीं है, जो अभी तक बैठा है।”
जुगल किशोर जल्दी से बाहर आ गया।
देवराज चौहान भी बाहर निकला।
जगमोहन स्टेयरिंग सीट पर बैठा और देवराज चौहान को देखा।
“मैं जा रहा हूं। इस कमीने को देख लेना ।” इसके साथ ही जगमोहन ने कहा आगे बढ़ा दी।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और जुगल किशोर को देखा।
“जो हुआ अनजाने में हुआ। गलती से हुआ।” जुगल किशोर जल्दी से कह उठा-“बड़े भाई, जिस दिन भी तुम्हें लगे कि मैं सोच-समझ कर या जान-बूझकर तुम्हारे रास्ते में आया हूं, उस दिन सीधे-सीधे गोली मार देना।”
“बार-बार अनजाने में भी मेरे रास्ते में आता रहा तो कब तक बचेगा।” देवराज चौहान ने तीखे स्वर में कहा।
जुगल किशोर कुछ नही कह सका।
देवराज चौहान कार की तरफ बढ़ा।
“बड़े भाई ।”
देवराज चौहान ने ठिठककर जुगल किशोर को देखा।
“उस सूटकेस में क्या ?”
“एक करोड़ रूपया।” कहने के साथ ही देवराज चौहान कार के पास पहुंचा और ड्राइविंग सीट पर बैठने के पश्चात जुगल किशोर पर नजर मारी और कार आगे बढ़ा दी ।
एक करोड़ रुपया।
जुगल किशोर हक्का-बक्का रह गया।
तू कभी नहीं सुधर सकता जुगल। ऊपर वाले ने तुझे एक करोड़ ले भागने का मौका दिया। सारे दुख-दर्द दूर हो जाते, हमेशा के लिए। हाथ आया माल लुटा दिया तूने।
■■■
मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर जबरदस्त चहल-पहल थी ।
भीड़ का रेला आ रहा था । जा रहा था। लोगों का शोर । कुलियों का शोर। स्पीकरो पर होती एनाउंसमेंट। किसी को किसी का ध्यान नहीं। हर कोई तेज- तेज चलता हुआ अपनी रेस जीत लेना चाहता था।
प्लेटफार्म नम्बर दो पर राजधानी एक्सप्रेस खड़ी थी। चलने की तैयारी पर थी। प्लेटफार्म पर कुली की अधिकतर नजर आ रहे थे। मुसाफिर गाड़ी में बैठ चुके थे।
जगमोहन की निगाहें नीले रंग की उस बोगी पर जा टिकी, जिस पर मोटे -मोटे शब्दों में बोगी नम्बर 74441 लिखा था। बिना देर लगाए सूटकेस थामें जगमोहन भीतर प्रवेश कर गया। ट्रेन व्हिसल पहले से ही गूंज रही थी। जगमोहन के चलते ही ट्रेन ने सरकना शुरू कर दिया।
इस बोगी की टिकट का इंतजाम जगमोहन ने पहले ही कर लिया था।
शीशे का दरवाजा धकेलकर भीतर प्रवेश कर गया। ए.सी. की ठंडी हवा से टकराई। ट्रेन की पटरी पर चलने का एहसास हो रहा था। बीच में आगे बढ़ने की जगह थी। दोनों तरफ आरामदेह कार नजर आ रही थी। करीब आधी सीटें खाली थीं।
सूटकेस थामे जगमोहन धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा ।
तभी अटैंडेंट उसके पास पहुंचा ।
“सर टिकट-“मैं आप की सीट के बारे में…।”
“धन्यवाद ।” जगमोहन मुस्कुराया-“मुझे मालूम है, मेरी सीट कहां है।”
अटैंडेंट वहां से हट गया ।
जगमोहन वहां बैठे लोगों को देखता हुआ आगे बढ़ने लगा। एक सीट पर बैठा देवराज चौहान नजर आया। परन्तु दोनों ने ऐसे जाहिर किया जैसे वे एक -दूसरे को जानते ही ना हों।
दो कदम आगे बढ़ने पर ठिठका। एक सीट पर जो व्यक्ति बैठे नजर आया, उसके गाल पर मास्सा था । वह दोनों हाथों से अखबार खोले उस पर नजर टिकाए बैठा था ।
जगमोहन आगे बढ़ा और उसके बगल वाली सीट पर बैठा।
उसने एक बार फिर देखने की चेष्टा नहीं की कि पास में कौन आ बैठा है। जगमोहन ने सूटकेस पावों के पास ही रखा। ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली थी ।
दास ने भेजा है मुझे।” जगमोहन ने शांत स्वर में कहा ।
उसने अखबार से नजरें हटाकर जगमोहन को देखा फिर अखबार को देखने लगा ।
“दास ने बताया था कि तुम्हारे गाल पर मास्सा होगा। मास्सा ढंग से लगाया करो। नकली लग रहा है ।” जगमोहन बोला।
“नकली ही है।” उसने शांत स्वर में कहा । नजरें अखबार पर ही थी।
“करोड़ रुपया है मेरे पास-तुम्हारे कहे मुताबिक, कुछ कैश-बाकी के हीरे।”
“सूटकेस यहीं रहने देना, अगले स्टेशन पर उतर जाना। माल पुरा हुआ तो रात के बाद दास का बेटा वापस पहुंच…।”
“ऐसे सौदा नहीं होता।”
उसने अखबार से नजरें हटाकर जगमोहन को गहरी निगाहों से देखा ।
“क्या कहना चाहते हो ?”
“दास के बेटे राजन को दो और अपना करोड़ लो।”
“मैंने दास से बात कर ली थी।” उसकी धीमी आवाज में सख्ती उभरी-“पहले रकम चैक करूंगा । उसके बाद…।”
“दास गया भाड़ में।” जगमोहन ने शांत-धीमे स्वर में कहा-“इस वक्त तुम मेरे से बात कर रहे हो। करोड़ रुपया मेरे पास है। दास ने ये मामला सिरे से मेरे हवाले कर दिया है। हर बार तुम्हारी ही बात नहीं मानी जाएगी। मेरी आदत नहीं है मुफ्त में एक करोड़ जैसी रकम को बांटना। दास की औलाद वापस दो और करोड़ ले लो।”
“बकवास मत करो। मैं…।”
“ठीक तरह बात कर।” जगमोहन ने धीमे स्वर में दांत भींचकर कहा-“वरना सब कुछ भूलकर सूटकेस तेरे सिर पर मारूंगा। तब तेरे सिर का हाल डॉक्टर भी देखना पसंद नहीं करेगा।”
उसने खा जाने वाली निगाहों से जगमोहन को देखा।
“अपना अता-पता बता दे तो तेरे को करोड़ से भरा सूटकेस दे दूंगा। गारंटी के तौर पर अपना राशन कार्ड जरूर दिखाना। खाली-खालीबताए पते पर मैं विश्वास नहीं करता।” जगमोहन बोला।
”लगता है तुम दास के लड़के की लाश देखना चाहते हो।”
“मेरा क्या जाता है, मार दे साले को।” जगमोहन के होठों पर जहरीली मुस्कान उभरी-“दास से या उसके लड़के से मेरी रिश्तेदारी तो है नहीं। इस काम के मैंने दास से बीस लाख एडवांस में लिए हैं। मेरी तरफ से दास का बेटा जिंदा रहे या मरे, मुझे क्या। लेकिन करोड़ मैं तेरे को तभी दूंगा, जब तू दास का लड़का मेरे हवाले करेगा।”
“तू पागल तो नहीं है।”
“मैं पागल नहीं, तेरा बाप हूं। इस बात को हर वक्त याद रखना ।
उसने क्रुरता भरी निगाहों से जगमोहन को देखा।
जगमोहन मुस्कुराया।
“इस वक्त यह मेरे साथी भी हैं। हम तेरे से आसानी से सूटकेस छीन लेंगे। तेरी गर्दन काट देंगे। समझदारी इसी में है कि कोई झंझट खड़ा मत कर। मामला आराम से निपटा लें।”
“कितने आदमी है इस डिब्बे में ?”
उसने जगमोहन को घुरा।
“जितने आदमी तू अपने साथ लाया है, उससे ज्यादा यहां मेरे आदमी है ।” जगमोहन ने लापरवाही से कहा-“वैसे सूटकेस यहां छोड़ने में में मुझे कोई एतराज नहीं है। लेकिन इस सूटकेस को मैं खोलूंगा तो सब ठीक रहेगा । मेरे अलावा किसी और ने खोलने के लिए इसके साथ छेड़छाड़ की तो सूटकेस में लगा रखा बारूद फट जाएगा। ऐसे में सूटकेस खोलने वाला तो क्या, उसके पास मौजूद दस-बीस आदमी भी नहीं बचेंगे।”
उसने दांत भींच लिए। नजरें अखबार पर ही रही।
“लगता है तुम दास के लड़के को वापस नहीं चाहते। उसकी लाश देखना चाहते हो।”
“लाश भी मत दिखाना। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।” जगमोहन हौले से जहरीले ढंग से हंसा।
वो कुछ नहीं बोला।
“अगर तुमसे मामला पट भी गया तो पांच लाख तेरे से लूंगा।” जगमोहन बोला।
“मेरे से पांच लाख ?” पल भर के लिए वो अचकचा उठा।
“हक बनता है मेरा। नहीं देगा तो मैं ये सौदा नहीं पटाऊंगा। तेरे को करोड़ नहीं मिलेंगे। भाड़ में गया दास का लड़का-साला मरता है तो मरे। तेरे से सौदा पटेगा तो पांच लाख लूंगा ही। मौके का फायदा उठाना मेरी पुरानी आदत रही है।”
उस व्यक्ति के चेहरे के भाव बता रहे थे कि उसका बस चलता तो जगमोहन की गर्दन दबा देता।
“एक बात तो बता ।” जगमोहन उसके कान के पास मुहं ले जाकर बोला-“दास की बेटे को खत्म कर दिया ?”
“क्या ?”
“क्या मतलब है, वो जिन्दा तो नहीं होगा अब तक ? अपहरण के छः दिन कौन रखता है, शिकार को सलामत ।”
“वो-राजन…।” उसने शब्दों को चबाकर कहा –“जिन्दा है। उसे किसी तरह की भी तकलीफ नहीं दी गई।”
“मालूम हो जाएगा। बात-क्या करना है ?"
“क्या करना है ?"
“दास का बेटा दे और पैसे ले । लेन-देन एक ही वक्त में होगा। तेरी धोंस नहीं चलेगी। मंजूर है तो बोल, नहीं तो मैं चलूं। तू अचार डालता रह, दास के लड़के का। इस मामले में अब दास बीच में नहीं आएगा। तू उसे फोन करेगा तो वह फोन बंद कर देगा। ये मामला अब मेरा है, मेरा फोन नम्बर नहीं है कोई जो बातें करनी है, अभी कर ले। बना बाद में तो मुझे ढूंढता ही रह जाएगा। करोड़ रुपया सपना की बन जाएगा तेरे लिए। कहे तो अभी तेरे साथ चलता हूं। दास के लड़के को मेरे हवाले कर और अपना माल ले।”
“तू है कौन-नाम क्या है तेरा ?”
“तेरा नाम क्या है, अपने बारे में बता।” जगमोहन मुस्कुरा पड़ा ।
उसने कठोर निगाहों से जगमोहन को देखा ।
“हमारे धंधे में काम चलता है -नाम पते के फेर में जो पड़ गया, वह डूब गया।” जगमोहन ने कहा-“मेरे बाप ने मुझे बादाम नहीं खिलाया कि मैं तेरे साथ माथा मारता रहूं। काम की बात बोल, सौदा आमने-सामने मानता है ?”
“ठीक है ।” वो शब्दों को चबाकर बोला ।
“लड़का कहां है ?”
“इन बातों को छोड़ ।” उसने कहा-“कल मिलेंगे हम, मुंबई में ।”
“कहां, कितने बजे ?”
उसने बताया फिर कहा।
“अभी तक इस मामले की खबर पुलिस को नहीं दी गई। खबर देना भी नहीं, वरना…।”
“पुलिस की खबर देनी होती तो अब तक दी जा चुकी होती।” जगमोहन ने तीखे के स्वर में कहा-“करोड़ का बोझ लेकर मैं इस तरह न फिर रहा होता। कल अपनी बताई जगह पर वक्त पर आ जाना। चालाकी मत करना-मेरा पांच लाख कमीशन वाला भी देना होगा। दलाल दोनों तरफ से कमीशन लेता है। वैसे भी तू कौन-सा अपनी जेब से दे रहा है। मुफ्त का माल है करोड़ों में पांच लाख कम भी मिला तो क्या हर्ज है। मैं अगले स्टेशन पर उतर जाऊंगा। मेरे कुछ आदमी ट्रेन में ही रहेंगे और कुछ साथ ही उतरेंगे मेरे। अगर तेरा सूटकेस पर हाथ डालने का इरादा हो तो तो शोर-शराबा मत करना। इसे यहीं छोड़ जाता हूं। खोलने की कोशिश कर और मर जा।”
उसने अखबार की तह लगाते हुए धीमे स्वर में कहा ।
“काम आराम से निपट जाए तो ठीक रहता है जो जगह, जो वक्त बताया है, मुंबई में कल वहीं मिलना।”
■■
मुम्बई।
अगले दिन सुबह के छः बजे, बंगले पर देवराज चौहान, दास से फोन पर बात कर रहा था। जगमोहन पास ही सोफे पर आंखें बंद करके पसरा हुआ था ।
राजधानी एक्सप्रेस स्टेशन पर रुकी तो दोनों अलग-अलग ट्रेन से बाहर आ गए थे। अपहरणकर्ता भी वहीं उतरा था। परंतु उसने जगमोहन का रास्ता रोकने की कोशिश नहीं की जगमोहन ने स्टेशन से बाहर से टैक्सी पकड़ी और वापस मुम्बई रवाना हो गया था ।
जबकि देवराज चौहान सावधानी से अपहरणकर्ता के पीछे लग गया था। जोकि टैक्सी लेकर वापस मुंबई आया था और देवराज चौहान ने अन्य टैक्सी से उसका पीछा करके मुम्बई का ठिकाना देख लिया था। उसके बाद देवराज चौहान बंगले पर पहुंचा तो जगमोहन को वहां मौजूद पाया।
“देख लिया।” जगमोहन उसे देखते ही बोला-“दास के बेटे का अपहरण करने वाला कहां रहता है ?”
“हां।” इसके साथ ही देवराज चौहान फोन के पास पहुंचकर दास का नंबर मिलाने लगा था ।
तब जगमोहन ने आंखें बंद कर ली थी ।
“दास।” आवाज पहचानते ही देवराज चौहान गंभीर स्वर में बोला-“आज तुम्हारा बेटा तुम्हें वापस मिल जाएगा ।”
“सच।” दास कांपता स्वर कानों में पड़ा ।
देवराज चौहान ने जवाब में कुछ नहीं कहा ।
“कल...कल उससे मिले थे, जिसने मेरे बेटे का किडनैप…।”
“इस बारे में फिर पूछ लेना। मैं तुम्हें यही खबर देना चाहता था। क्योंकि रात भर तुमने नींद नहीं ली होंगी।”
“नहीं सोया, एक पल के लिए भी नहीं सो पाया।” दास की आवाज कांप-सी रही थी –“तुम्हारे फोन का, अपने बेटे का इंतजार…।”
“तुम्हारा इंतजार आज के दिन से ज्यादा नहीं चलेगा।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने रिसीवर रख दिया।
जगमोहन ने आंखें खोली। गंभीर निगाहों से देवराज चौहान को देखा।
“राजन का अपहरण करने वाला उसकी जान भी ले सकता है।” जगमोहन ने गंभीर स्वर में कहा –“जरूरी तो नहीं कि जो मैंने कहा है, वो मेरी बात माने। बाद में उसका विचार बदल भी सकता है। वो दास के बेटे की जान भी ले सकता है। तुम्हें इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए देवराज चौहान।”
“लेकिन वो चाह कर भी उसकी जान नहीं लेगा।” देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई।
“क्यों ?”
“क्योंकि वो जानता है कि दास के बेटे को ठीक-ठाक वापस करने पर उसे एक करोड़ मिलेगा।” देवराज चौहान के होठों पर मुस्कान उभर आई –“उसे मार देने से एक पैसा भी नहीं मिलेगा।”
जगमोहन व्याकुलता सा देखता रहा, देवराज चौहान को।
“तुम आराम कर लो, दो-तीन घंटे की नींद में भी लेता हूं।” देवराज चौहान ने कहा-“दोपहर डेढ़ बजे तुमने अपहरणकर्ता से उस जगह पर मिलना है। अगर तुम्हारा मामला ठीक तरह से पटता है तो मैं दूर ही रहूंगा। हमें दास का बेटा सही-सलामत चाहिए। मैं वहां तुमसे पहले पहुंच जाऊंगा-सावधानी के नाते। तुम अपना, बेफिक्र होकर अपहरणकर्ता से बात करना। मेरी नजर तुम पर रहेगी।”
होंठ भींचे जगमोहन गंभीरता भरे ढंग से सिर हिला कर रह गया ।
देवराज चौहान ने कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह मारी फिर जगमोहन को देखा ।
“मैं कुछ पहले ही निकलूंगा यहां से। अपहरणकर्ता, दास के बेटे को लेकर वहां पहुंचेगा। उसके पहुंचने से पहले ही वहां मौजूद रहकर नजर रखूंगा कि हमारे लिए वो कोई जाल तो नही बिछा रहा, जबकि ऐसा होने के चांस कम ही है।”
“मेरी निगाहों में वो कुछ भी कर सकता है।” जगमोहन बोला-“जो लोग अपहरण करते हैं, वह विश्वास के काबिल नहीं होते।”
“ठीक कहते हो।” देवराज चौहान मुस्कुराया-“हर तरह के लोग हर जगह होते हैं। किसके मन में क्या है, ये तो वक्त आने पर ही मालूम होगा। चलता हूं-तुम वक्त पर पहुंच जाना।”
■■
“हेल्प ! बचाओ-बचाओ।”
देवराज चौहान के कानों में युवती की चीख पड़ी।
देवराज चौहान इस वक्त भीड़ वाली सड़क पर तेजी से कार ड्राइव करते हुए निकल रहा था । सैकिंडो पहले उसने एक कार को ओवरटेक किया था। उसे पूरा विश्वास था कि युवती की आवाजें उसी कार में से आई थी।
देवराज चौहान ने फौरन कार की रफ्तार धीमी की।
जिस कार को ओवरटेक किया था, वो कार बराबर आ पहुंची थी। एक, उस कार को ड्राइव कर रहा था। दो व्यक्ति पीछे वाली सीट पर बैठे थे। देवराज चौहान ने उस पर नजर मारी। ऐसा कुछ भी ना देखा कि उसके शक को बल मिलता। पीछे की सीट पर बैठे व्यक्ति बातों में व्यस्त थे । उसे कोई युवती नजर नहीं आई। देवराज चौहान के चेहरे पर उलझन उभरी।
चीख तो उसने अवश्य सुनी थी। कोई युवती सहायता के लिए पुकार रही थी ।
यानी कि वो चीख किसी दूसरी गाड़ी से आई होगी। इस विचार के साथ देवराज चौहान ने आसपास देखा, परंतु हर तरफ कारें ही कारें थी। कोई फायदा नहीं था। देवराज चौहान ने अपना ध्यान ड्राइविंग पर लगा दिया था। वो कार आगे निकल चुकी थी। सुबह के ग्यारह बज रहे थे।
दस मिनट की ड्राइविंग के पश्चात देवराज चौहान ने कार धीमी की और बाएं मुड़ने का इंडिकेटर दे दिया । आसपास अन्य वाहन भी थे। वो कर को धीरे-धीरे बाई तरफ करता जा रहा था।
तभी चौंका ।
पहले देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी, फिर फैल गई।
आगे से आगे वाली कार वो ही थी, जिसमें से युवती की पुकार आने का शक हुआ था। जिसके पीछे वाली सीट पर बैठे दो व्यक्ति सामान्य ढंग से बातें करने में व्यस्त थे। एकाएक ही उस कार पर नजर पड़ी थी। उसके पीछे वाले शीशे पर भीतर की तरफ मौजूद युवती की झलक मिली। उसे शायद नीचे दबा कर रखा था जो किसी तरह उठ गई होगी। तभी दोनों व्यक्तियों ने पुनः उसे सख्ती से पकड़ा और नीचे कर दिया।
दो-तीन सैकिंडो में ये सब देखा देवराज चौहान ने।
फिर सब कुछ सामान्य नजर आने लगा।
दांत भिंच गए देवराज चौहान के ।
उसका ख्याल ठीक था कि किसी उसी कार में युवती के चीखने की आवाज आई थी। युवती को कार में बंधक बना रखा था। उसकी चीख पर किसी को शक ना हो, इसलिए बाहर के लोगों को दिखाने के लिए अपनी बातचीत का ढंग समान्य दर्शा रहे थे। कार की रफ्तार भी सामान रखी हुई थी।
देवराज चौहान ने बाएं मुड़ने का ख्याल छोड़ा और कार को मोड़ से आगे बढ़ाता चला गया, उसी कार के पीछे। ये भीड़ भाड़ वाली जगह थी। यहां पर उस युवती को बचाने की कोशिश में खुद भी कर सकता था। पुलिस की नजरों में आ सकता था। उन लोगों को बच निकलने या फिर युवती के साथ ही उन्हें भाग निकलने का मौका मिल सकता था ।
उस कार के पीछे ही रखी देवराज चौहान ने अपनी कार।
कभी कार उस कार के करीब आ जाती तो कभी दूर। कुछ वक्त बीतने के बाद आगे वाली कार ऐसे रास्ते पर पड़ गई, जोकि आगे जाकर वीरान सा था और समंदर के किनारे की तरफ जाता था। इस रास्त पर इक्का-दुक्का वाहन ही कभी-कभार आ जाते थे।
पांच मिनट बीतने के बाद रास्ता पूरी तरह से वीरान सा हो गया तो देवराज चौहान ने रिवॉल्वर निकालकर अपनी गोद में रखी और कार की रफ्तार बढ़ा दी। आगे वाली कार को ओवर टेक किया और उसके आगे अपनी कार रोक दी।
पीछे वाली कार तीव्र झटके से रुकी।
पीछे से ऊंचा बोलने की आवाज भी आई।
देवराज चौहान आराम से स्टेयरिंग सीट पर बैठा रहा । रिवॉल्वर हाथ में ले ली थी। पीछे वाली कार का दरवाजा खुलने-बंद होने की आवाज आई। फिर कानों में पास आते कदमों की आवाज पड़ने लगी।
आने वाला व्यक्ति उसकी तरफ पास आकर रुका और गुस्से में बोला।
“इस तरह हमारी कार रोकने का मतलब ?”
देवराज चौहान ने हाथ में पकड़ी रिवॉल्वर उसकी तरफ की ।
रिवॉल्वर को देखते ही उस व्यक्ति का चेहरा पीला-सा नजर आने लगा।
“य…ये क्या कर रहे हो।” उसके होठों से निकला-“क…कौन हो तुम ?”
“कार में लड़की कौन है ?” देवराज चौहान ने सपाट स्वर में पूछा।
“ल…लड़की ।”
“मेरा निशाना बहुत अच्छा है।” देवराज चौहान का स्वर सर्द हो गया-“फिर तुम तो मेरे सिर पर खड़े हो। ट्रेगर ही दबाना है। निशाना लेने का कोई भी कष्ट नहीं करना पड़ेगा मुझे।”
उसने सुर्ख होठों पर जीभ फेरी।
“लड़की कौन है ?”
“ह…हम नहीं जानते ।”
“कहां ले जा रहे हो उसे ? ” देवराज चौहान शब्दों को चबाकर बोला ।
“ख…खत्म करने।”
“क्यों ? ”
“ऐसा करने को ही फोन पर कहा गया है। लड़की के साथ लाख रुपया हमें भिजवा दिया गया और…।”
“कहां खत्म करोगे ?”
“बीच पर…बीच के कई हिस्से वीरान है। मार कर लाश को समंदर में…।
“तु यही खड़ा रहेगा। आवाज मार कर अपने साथी को बोल, लड़की को लेकर आए।” देवराज चौहान ने एकाएक कठोर स्वर में टोका।
“लेकिन…।” उससे कहना चाहा ।
देवराज चौहान ने खतरनाक अंदाज में रिवॉल्वर को हिलाया ।
वो संभला। चेहरे पर घबराहट थी ।
“आप इस मामले में क्यों आ…।”
“लड़की ।” देवराज चौहान के होंठ भिंच गए। उसने सेफ्टी वॉल्व हटा लिया।
“गोली मत चलाना ।” उसने जल्दी से कहा, फिर पीछे वाली कार की तरफ देखकर ऊंचे स्वर में लड़की को लाने को कहा ।
उसके साथी ने इसकी वजह पूछी। लड़की को कार से बाहर लाने में ऐतराज़ उठाया परंतु उस व्यक्ति जो बार-बार कहने और गुस्सा करने पर लड़की को एक आदमी वहां लाया ।
एक अभी भी कार में ही बैठा था ।
“कार में और कितने हैं ?” देवराज चौहान के स्वर में दरिंदगी आ गई।
“ए …एक है ।”
“उसे भी बुला लो।”
उसे भी बुला लिया गया।
देवराज चौहान रिवॉल्वर थामे कार से निकला । वो सतर्क था कि इन तीनों में से कोई करामात ना दिखा दे। इस बीच उसने लड़की के सिर से पांव तक देख लिया था।
वो अठारह या उन्नीस बरस की खूबसूरत सी मासूम-सी दिखने वाली युवती थी। इस वक्त सिर से पांव तक कांपी हुई थी। चेहरा फक्क-सा हुआ, घबराहट से भरा हुआ था। उसके होठों में भय भरा कम्पन बराबर हो रहा था। आंखे जाहिर कर रही थी कि वो रो-रोकर आंखों को बहुत बार गिला कर चुकी है । उसने पैंट और कमीज पहन रखी थी। गले में सोने की चैन कानों में डायमंड के टॉप्स चमक रहे थे । वो पैसे वाले घर की बेटी लग रही थी ।
“कौन हो तुम?” एक ने कठोर स्वर में कहा- “हमारे काम में क्यों दखल दे रहे हो ?”
देवराज चौहान ने भिंची निगाहों से युवती को देखा ।
“तुम्हें किसी तरह की तकलीफ तो नहीं भी इन्होंने?” देवराज चौहान ने पूछा।
उसकी आंखों से आंसू बह निकले ।
“नहीं ।” उसने थरथराते स्वर में कहा ।
“तुम कौन हो, हमारे काम में दखल देने वाले।” उसी व्यक्ति ने गुस्से से कहा और रिवॉल्वर निकाल ली।
देवराज चौहान ने रिवॉल्वर को देखा और फिर कह उठा।
“तो एक लाख की खातिर इसकी जान लेने जा रहे हो।”
“हां, तुम क्यों पूछ रहे हो?”
“किसके कहने पर इसे मार रहे हो, नहीं मालूम।”
“हमारा धंधा है ये सब करना ।”
“शरीफ और मासूमों की हत्या करना गलत बात है। थप्पड़ उसे मारो जो जवाबी थप्पड़ मारना जानता हो।” देवराज चौहान ने एक-एक शब्द चबाकर दरिन्दगी से कहा–“किसी बुरे को मारने जा रहे होते तो मुझे ऐतराज नहीं होता…।”
“तुम होते कौन हो, बिना वजह हमारे मामले में आकर ऐतराज़ करने वाले। अपना काम करो और…।”
तभी देवराज चौहान के हाथ में दबी रिवॉल्वर से एक के बाद एक तीन गोलियां चली। कोई भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं रह सका। दो तो गिरते ही मर गए। तीसरा तड़पने लगा ।
युवती के होठों से दबी-दबी चीख निकली। कांप कर उसने कार को थाम लिया।
तड़पने वाला तीसरा व्यक्ति भी शांत हो गया था।
दांत भींचे देवराज चौहान ने रिवॉल्वर जेब मे डाली और युवती को देखा।
थरथराने के से अंदाज में, सूखे होठों पर जीभ फेरती वो देवराज चौहान को देख रही थी। पास ही पड़ी तीनों लाशों की वजह से उसका बुरा हाल हो रहा था ।
“आओ।” देवराज चौहान ने कहा और ड्राइविंग सीट पर जा बैठा-“इधर कोई भी वाहन आ सकता है।”
युवती का शरीर का कांपा। वो पलटी और लड़खड़ाती टांगों से पीछे वाली कार की तरह बढ़ी।
“किधर जा रही हो।” देवराज चौहान ऊंचे स्वर में बोला- “मैं तुम्हें यहां से दूर छोड़ दूंगा। यहां खतरा है।”
वो पीछे वाली कार के पास जाकर रुकी। बोनट पर हाथ रखकर सहारा लिया । सांसे तेजी से लेने की वजह से उसका शरीर जोरों से हिल रहा था । देवराज चौहान गर्दन मोड़े उलझन भरी निगाहों से उसे देख रहा था। बोनट से आगे बढ़कर वह दरवाजे के पास पहुंची और खुली खिड़की के भीतर हाथ डालकर डैशबोर्ड खोलकर उसमें से एक लिफाफा निकाला जो कि सीलबंद जैसा था। उस पर चौड़ी टेप मजबूती वाली ढंग से लगी हुई थी ।
उस लिफाफे को थामें वो लड़खड़ाती सी वापस आई।
देवराज चौहान ने हाथ बढ़ाकर अपनी बगल की सीट का दरवाजा खोला तो वो भीतर बढ़ गई बैठ गई। थकान भरे ढंग में हाथ बढ़ाकर दरवाजा बंद कर लिया ।
देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी ।
लाशें पीछे रह गई ।
उनके कानों में इंजन की आवाज पड़ती रही । पांच मिनट तक उनके बीच खामोशी रही। लिफाफे को उसने गोद में रखा हुआ था। परेशान थी वो रह-रहकर बेचैनी से पहलू बदलने लगती तो कभी होठं भींच लेती। जब लाशों से काफी दूर आ गए। सामने समन्दर नजर आने लगा। हवा में नमी आ गई तो देवराज चौहान ने सड़क के किनारे कार रोक दी। इंजन बंद किया और सिगरेट सुलगा कर दरवाजा खोलते हुए बाहर आ गया।
समन्दर में जोड़ें खेलते नजर आ रहे थे। कुछ किनारे पर रेत पर लेटे धूप में आराम कर रहे थे। तेज हवा के झोंके स्पष्ट तौर पर चेहरे पर लग रहे थे ।
कुछ पलों बाद देवराज चौहान ने कार में बैठी युवती को देखा।
युवती सीट की पुश्त पर सिर रखें आंखें बंद किए बैठी थी ।
“ठीक हो तो बाहर आ जाओ।”
देवराज चौहान की आवाज पर युवती ने आंखें खोली। गर्दन सीधी की। देवराज चौहान को देखा फिर गोद में रखा लिफाफे का वो पैकेट उठाया और दरवाजा खोलकर बाहर आ गई।
“तुम डर क्यों रही हो?” उसके चेहरे पर घबराहट देखकर देवराज चौहान ने कहा –“अब तुम्हें कोई खतरा नहीं।”
“इस तरह मैंने लोगों को मरते देखा नहीं।” युवती सूखे स्वर में बोली –“वो तीनों मेरे सामने मरे थे।”
“वो ना मरते तो इस वक्त तुम मरने के करीब होती।” देवराज चौहान बोला –“कौन थे वे लोग।”
“मैं नहीं जानती।” उसने कंपन भरे स्वर में कहा- “उन लोगों से ये लिफाफा बचा रही थी। खुद को बचा रही थी। लेकिन बचा नहीं पाई। मुझे पकड़ ले लिया। लिफाफा मुझसे ले लिया। अब वो मुझे खत्म कर देना चाहते थे।”
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी।
“वो तो कह रहे थे कि लाख रुपए की खातिर तुम्हें मारने जा रहे हैं।”
“झूठ कह रहे थे वे। बात कुछ और है।”
“क्या?”
“मैं बता नहीं सकती।” युवती ने धीमे स्वर में कहा- “बहुत एहसानमंद हूं तुम्हारी कि तुमने मुझे बचाया। इस पैकिट को मैं फिर हासिल कर पाई। तुम साधारण इंसान नहीं हो।”
“क्या मतलब?”
“कोई भी साधारण इंसान यू तीन-तीन जानें नहीं ले सकता। रिवॉल्वर जेब में नहीं रखता। तुम्हें कैसे मेरे बारे में पता चला कि मैं कार में…।”
“तुम्हारी चीख सुनाई दी। तुम्हें कार में देखा कि उनसे बचना चाहती हो। तुम्हें बचाने के लिए पीछे आ गया।”
उसने सूखे होठों पर जीभ फेरते हुए गंभीरता से सिर हिलाया।
देवराज चौहान ने कश लेकर सिगरेट एक तरफ उछाल दी ।
“मैं तुम्हें उन लोगों के हाथों से बचाना चाहता था। तुम बच गई। अब खतरे में नहीं हो। चुपचाप यहां से निकल जाओ और इस बात की जानकारी तुम्हें ही होगी कि अपने को खतरे से कैसे बचा सकती हो। तुम किस मामले में फंसी हो। अपना रास्ता खुद कैसे तलाश कर सकती हो।”
उसके शरीर में स्पष्ट तौर पर कम्पन उभरा। चेहरा फक्क पड़ा। सूखे होठों पर जीभ फेरी।
“तुम जो भी हो, मेरी सहायता कर सकते हो। मेरे काम आ सकते हो।” उसकी आवाज में घबराहट आ गई ।
“मैं इससे ज्यादा तुम्हारे काम नहीं आ सकता।” देवराज चौहान ने बेहद शांत स्वर में कहा।”
“प्लीज । आप मेरी सहायता।”
“मैं बेहद व्यस्त हूं। अपना काम नहीं छोड़ सकता। मेरा नुकसान हो जाएगा।”
युवती ने फौरन जेब से नोटों की गड्डी निकाली।
“ये लीजिए पूरे पचास हजार है। आपका नुकसान पूरा हो जाएगा।” वो बेचैनी से, जल्दी से कह उठी।
देवराज चौहान के चेहरे पर मुस्कान उभरी ।
“नुकसान दौलत का ही नही, और भी कई तरह का होता है। तुम…।”
“सुनो।” वो तीन कदम उठाकर देवराज चौहान के करीब आ गई- “मैं तुम्हें किसी भी तरफ से निराश नहीं होने दूंगी। मैं…मैं मेरी उम्र उन्नीस साल है। आज तक किसी को मैंने मौका नहीं दिया कि वो मुझे छू सके। मेरा शरीर आज तक किसी ने नहीं देखा। तुम मेरी सहायता करो। ये पचास हजार तुम्हारा। मैं खुद को महीने भर के लिए तुम्हारे हवाले कर दूंगी। सच्चे मन से तुम्हारे साथ रहूंगी। यही नहीं, जब मैं खुद को खतरे से मुक्त पाऊंगी। तब तुम्हें दस-बीस लाख रूपया भी दूंगी। में अकेली हूं। जिस खतरे में फंसी हूं। उससे मुकाबला करना मेरे लिए कठिन हो रहा है। तुम मुझे हर तरफ से बचा सकते हो।”
देवराज चौहान की निगाहें उसके चेहरे पर जाकर स्थिर हो गईं।
“सच कह रही हूं कि मैं कुंवारी हूं। मैं अपनी जान नहीं गंवाना चाहती।” उसकी आवाज में कम्पन आकर गुजर गया-
“इस पैकिट को मैं सुरक्षित कहीं पहुंचाना चाहती हूं। तुम-तुम नहीं समझोगे। मैं…मैं…। ”
तभी देवराज चौहान उसकी तरफ बढ़ा।
“हां-हैं, आओ मैं अभी अपने कपड़े उतार देती हूं। सुनसान जगह है ये। मैं तुम्हें खुश…।”
पास पहुंचकर देवराज चौहान ने दोनों हाथ कंधे पर रखे।
उसने आगे बढ़कर देवराज चौहान से सटना चाहा।
परन्तु देवराज चौहान ने कंधों को इस तरह से पकड़ रखा था कि वो आगे ना बढ़ सकी।
“जो करना है कर लो। देखते क्या हो।” उसकी आवाज व्याकुलता से बे-काबू हो रही थी।
देवराज चौहान ने एक हाथ उसके सिर पर फेरा ।
“तुम मेरी बहन-बेटी जैसी हो।” देवराज चौहान शांत स्वर में बोला-“इसलिए मैंने तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं माना। ”
“वो चौंकी। उसके चेहरे पर अजीब से भाव आ ठहरे ।
“क्या कह रहे हो तुम?” उसके होठों से निकला- “तुमने शायद मेरी बात सुनी-समझी नहीं।”
“मैंने सब सुना। सब समझा। जिस्म सिर्फ जिस्म ही नहीं होता। इस जिस्म के साथ विश्वास जुड़ा होता है, जो तमाम उम्र औरत को कदम उठाने की हिम्मत देता है। पराए आदमी के सामने एक बार कपड़े उतर जाएं तो विश्वास खत्म हो जाता है। भीतर से ऐसी टूटन आ जाती है कि जिन्दगी भर इन्सान टूटता ही रहता है। इस भाई की बात हमेशा याद रखना कि कपड़े सिर्फ उसके सामने उतारना, जिससे ब्याह करो इससे विश्वास बढ़ेगा। इस बुरी दुनिया में हर मुसीबत का सामना तुम बहुत आसानी से कर सकोगी तब।”
“वो अविश्वास भरी निगाहों से देवराज चौहान को देखती रही।
“तुम मेरी बहन जैसी हो। बेटी जैसी हो। मेरी बात को भूलना नहीं।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने सिर पर हाथ फेरा और दो कदम पीछे हटकर सिगरेट सुलगा ली ।
वो जड़ से खड़ी थी ।
“ऐसे क्या देख रही हो बहन।”
“मैंने - मैंने सोचा भी नहीं था कि इस दुनिया में तुम जैसा आदमी भी हो सकता है जो... जो कपड़े उतारने की अपेक्षा सामने वाली को बेटी बहन बना ले। तुम…तुम इंसान नहीं, इन्सानों से कहीं ऊंचे हो।” वो फफक पड़ी।
“तुम कुछ भी कहो। मैं तो ठीक से इन्सान भी नहीं बन पाया।” देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा – “फिर भी मैं जैसा हूं ठीक हूं। मुझे और अच्छा नहीं बनना। बुरा नहीं बनना भविष्य में कैसी भी मुसीबत में फंसो। कभी भी कपड़े उतारने की बात नहीं कहना किसी से। कोई कहे तो किसी कीमत पर मानना भी नहीं। ”
उसकी आंखों से आंसू बहकर गालों पर आ रहे थे।
“जिस मुसीबत में फंसी हो। उसमें से निकलने का रास्ता खुद ही…।”
“तुम तो मुझे बहन कह रहे हो। बेटी कह…।”
“तो?”
“तो मुसीबत में मेरी सहायता नहीं करोगे?” गालों पर आंसुओं को साफ करते हुए उसने कहा।
“आज में सहायता कर दूंगा तो दोबारा कभी मुसीबत में फंसी तो फिर तुम किसी के सामने अपने कपड़े…।”
“ऐसा मत कहो । मैं ऐसी लड़की नहीं हूं। बुरी नहीं हूं।”
“जानता हूं। तभी तो अच्छे रास्ते पर चलने की सलाह दे रहा हूं। में चाहकर भी इस वक्त तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। मुझे कहीं पहुंचना है। जरूरी काम निपटाना है। वहां न पहुंचने या देर से पहुंचने का मतलब है किसी की जान चले जाना। लोग कहेंगे कि मैं जुबान देकर पीछे हट गया। काम पूरा नहीं किया। तुम्हारी वजह से मैं पहले ही लेट हो रहा हूं।” कहने के साथ ही देवराज चौहान कार की तरफ बढ़ा।
“मैं फंस जाऊंगी। वो लोग फिर मुझे…।”
“सॉरी। अपने बचने का रास्ता खुद तलाश करो। नोटों की गड्डी जेब में डाल लो। गड्डी की वजह से कोई तुम्हारी गर्दन ना काट दे। यहां मत खड़ी रहना। वीरान जगह है। बीच की तरफ निकल जाना। वहां लोग हैं।”
“तुमने मेरा नाम नहीं पूछा। अपना नाम नहीं बताया ।”
“दोबारा कभी हमारी मुलाकात नहीं होगी।” कहने के साथ ही देवराज कार की स्टेयरिंग सीट पर बैठा, कार स्टार्ट की और युवती की तरफ देखा।
वो गीली आंखों से देवराज चौहान को ही देख रही थी ।
“इस बुरे वक्त में तुम मेरी सहायता ना करके, अच्छा नहीं कर रहे हो। ” वो शिकायत भरे ढंग में चीखी।
“मजबूर हूं मैं। तुम नहीं समझोगी ।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने कार को वापस मोड़ा और तेज रफ्तार के साथ कार दौड़ता चला गया ।
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अपहरणकर्ता के साथ लेन देन में कोई परेशानी नहीं आई थी। उसने शराफत से दास के बेटे को उनके हवाले करके अपना एक करोड़ ले लिया था। तब अपहरणकर्ता के आदमी वहां फैले थे। इस बात का एहसास देवराज और जगमोहन को हो गया था। परंतु खून-खराबे की नौबत नहीं आई।
जगमोहन ने अपहरणकर्ता से भी अपनी दलाली के रूप में पांच लाख वसूल कर लिया था। उसके बाद वो दास के बेटे राजन को लेकर चला तो कार में देवराज चौहान उनका साया बना पीछे था।
जगमोहन सीधे दास के बंगले पर पहुंचा।
देवराज चौहान की कार भी पीछे आ रुकी।
राजन का चेहरा अभी भी घबराहट से भरा था। उसे विश्वास नहीं आ रहा था कि वो सही सलामत बच आया है। बंगले के सामने कार रुकते ही राजन जल्दी से बाहर निकला।
“दास को एक बार बाहर भेज दो।” जगमोहन बोला- “ताकि हम देख लें कि उसने तुम्हें अपने गले से लगा लिया।”
दरबान ने तो उसे देखते ही लोहे का बड़ा-सा गेट खोल दिया था।
राजन भीतर की तरफ भागता चला गया।
“मुझे आशा नहीं थी कि अपहरणकर्ता राजन को ठीक-ठाक हाल में वापस देगा।”
“राजन का अपहरण उसने दौलत के लिए किया था। ऐसे में राजन की हत्या में उसे कोई फायदा नहीं था। वो जान चुका था कि राजन को सही सलामत लौटाए बिना उसे पैसा नहीं मिलेगा।” देवराज चौहान ने कहा।
“मुझे तो लग रहा था अपहरण कर्ता कोई झंझट खड़ा करेगा। ” जगमोहन ने गहरी सांस ली।
तभी गाउन पहनकर बदहवास-सा दास बंगले से बाहर निकला और उनके पास पहुंचा। उसका चेहरा खुशी से भरा हुआ था। आंखों में आंसू थे। वो अपने कंपकपाते हाथ जोड़कर कह उठा ।
“तुम…तुम दोनों मेरे लिए भगवान से कम नहीं हो तुम…।”
“काम हो गया।” देवराज चौहान बोला- “बेटा मिल गया?”
“छाती से लगा लिया उसे?” जगमोहन ने कहा।
दास के होंठ हिले ।
“मैं तुम दोनों का शुक्रिया अदा नहीं कर सकता। बोलो, क्या रकम दूं तुम्हें। म…मैं…।”
“मैंने थापर के कहने पर काम किया है। तुम्हारे लिए नहीं, पैसे के लिए नहीं।” देवराज चौहान बोला।
“ये कुछ देना चाहता है तो…।” जगमोहन ने जल्दी से कहना चाहा।
परंतु देवराज चौहान के चेहरे के भावों को देखकर फौरन होंठ बंद कर लिए ।
“मैं अपनी खुशी से देखना चाहता हूं।” दास के होठों से आंसू भरा स्वर निकला-“भीतर तो आओ। चाय…।”
“जगमोहन चलो ।” देवराज चौहान बोला-“मैं अपनी मैं आ रहा हूं।”
जगमोहन ने गहरी सांस लेकर कार स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी । मन ही मन उसे तसल्ली थी कि अपहरणकर्ता से वसूल किए पांच लाख तो इस मामले में हासिल कर लिए ।
दास ने देवराज चौहान को देखकर कुछ कहना चाहा कि देवराज चौहान पलटा और अपनी कार में जा बैठा ।फिर कार स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी।
आंखों में आंसू से दास हाथ जोड़े उसकी कार को जाते देखता रहा। वो तो आशा ही छोड़ बैठा था कि उसका प्यारा बेटा राजन उसे कभी वापस मिल पाएगा। लेकिन वह मिल गया था उसका जीवन पुनः खुशियों से भर उठा था।
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भारी उदासी, दुखी और व्याकुल मन से वो तब तक कार को देखती रही थी, जब तक कि वह नजर आती रही। फिर गहरी सांस लेकर नोटों की गड्डी को जेब में डाला। लिफाफे रूपी छोटे से पैकेट को पेंट में इस तरह फंसा लिया कि नजर ना आ सके। ऊपर कमीज झूल रही थी।
फौरन ही उसने खुद को संभाल लिया था ।
उसने बीच की तरफ निगाह मारी। समन्दर का किनारा दूर था। वहां बीस-पच्चीस लोग नजर आ रहे थे । वो उसी तरफ बढ़ने लगी। मालूम था उसे कि खतरे में है, खुले में रहना ठीक नहीं उसके लिए।
कुछ और आगे बढ़ी तो बीच का ज्यादा हिस्सा दिखाई दिया और भी लोग नजर आने लगे।
वो सावधानी से बीच की तरफ धीमे-धीमे कदमों से बढ़ती रही। दस मिनट में ही बीच पर वो लोगों के करीब थी। हर कोई खुश था। मस्ती में था लेकिन वह मन ही मन बुरी तरह डरी हुई थी। कभी डर के भाव उसके चेहरे पर स्पष्ट नजर आने लगते तो कभी बहुत हद तक सामान्य दिखने लगती ।
हर किसी को वो शक की नजरों से देख रही थी।
जानती थी कि शिकारी उसके पीछे हैं। कभी भी उसे घेर सकते हैं। जब वो लोग जानेंगे कि उनके तीन आदमियों की हत्या कर दी गई है। वो लिफाफे में मौजूद सामान के साथ बच निकली है तो उसकी तलाश में जमीन-आसमान एक कर देंगे। देर-सवेर उसे ढूंढ कर खत्म कर देंगे।
मुंबई में उसकी पहचान वाले कई थे।
लेकिन उनकी जान के दुश्मन हर उस जगह से वाकिफ थे, जहां वो जा सकती है। वो हर उस जगह पर मौजूद रहकर उसके वहां आने का इंतजार करेंगे। ऐसे में उधर का रुख करने का सोचना भी खतरनाक था ।
उसे लगा इस तरह बीच पर घूमना खतरे से खाली नहीं है। ऐसे में वो उस जगह पर जा पहुंची जहां लोगों की कुछ ज्यादा भीड़ थी। वहीं रेत पर बैठ गई और धूप में चमकते सात समन्दर को देखने लगी मुम्बई के इन महीनों में सुर्य ज्यादा गर्म नहीं होता था। ऐसे में समन्दर के पानी में खेलने का मजा ही कुछ और था ।
रेत पर बैठी वो कभी समन्दर को देखती इसके नीले पानी का किनारा दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा था तो कभी जिन्दगी का मजा लेते लोगों को, जोड़ो को देखने लगती। परंतु उसका मस्तिष्क जिस तेजी से दौड़ रहा था मन ही मन खुद को बचाने का, सुरक्षित पहुंचने का रास्ता तलाश रही थी।
“हैलो !”
उसने फौरन गर्दन घुमा कर देखा ।
दो कदमों की दूरी पर आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक तीस वर्षीय युवक आ बैठा था उसने पैंट-कमीज पहन रखी थी। उंगलियों में सिगरेट सुलग रही थी ।
वो युवक कोई अजनबी नहीं, अपना पुराना यार, पैंतीस हजारी का मालिक जुगल किशोर था ।
मुस्कुरा रहा था जुगल किशोर, उसे देखते हुए ।
उसने जुगल किशोर को गहरी निगाहों से देखा फिर मुंह घुमा लिया ।
अभी बात करने के मूड में नहीं लग रही। धीरे धीरे ठीक हो जाएगी ।
“मैंने आपसे ही कहा है, हैलो ।” जुगल किशोर पुनः मीठे स्वर में बोला।
“हैलो ।” उसकी तरफ देखे बिना वो बेमन से बोली ।
“इतने बढ़िया मौसम में खूबसूरत बीच पर आप अकेली हैं। ये तो गलत बात है। ”
उसने पुनः गर्दन घुमा कर जुगल किशोर को देखा ।
जुगल किशोर के चेहरे पर जानलेवा मुस्कुरान उभरी।
“यहां ऐसा कोई बोर्ड नहीं लगा कि किसी को अकेले आना मना है।”
“हां ।” जुगल किशोर हौले से हंसा-“ऐसा बोर्ड मैंने कभी भी नहीं देखा कॉलेज में पढ़ती हैं आप ? ”
“सॉरी मिस्टर, मैं बात नहीं करना चाहती।”
जब तक विश्वास में नहीं जमाऊंगा इस पर, तब तक ठीक ढंग से बात नहीं करेगी। अमीर घर की लगती है। गले में सोने की भारी चेन, हाथ की उंगलियों में हीरे की दो अंगूठियां। पट गई तो तगड़ा माल ले लूंगा।
“आप मुझे गलत समझ रही है।” जुगल किशोर जुगलिया अंदाज़ में कह उठा-“मैं आपसे बात करने के लिए, बात नहीं कर रहा। मैंने देखा आप कुछ परेशान हैं ।”
“मेरे परेशान होने से आपको क्या दिक्कत है।” उसके माथे पर बल पड़े।
बेटे जुगल संभल जा। ये तो रस्सा तुड़वाकर भागने को तैयार बैठी है।
“सच बात है कि मुझे बहुत दिक्कत हो रही है। यूं तो मुझे किसी से बात करना पसंद नहीं।” जुगल किशोर ने धीमे स्वर में कहा– “लेकिन आप जैसी खूबसूरत युवती परेशान रहे यह मुझे सहन नहीं होता ।”
उसने तीखी निगाहों से जुगल किशोर को देखा ।
“सच कह रहा हूं । दो साल पहले आप जैसी ही एक खूबसूरत लड़की को इसी तरह परेशान पाया था। पूछने पर उसने बताया कि लोग उसे मार देना चाहते हैं तो मैंने उसे बचाया। साथ में खर्चे -पानी के पैसे भी दिए। उसके पास चाकू भी थे। लेकिन मैंने उन्हें डरा बकर भगा दिया। आज भी उस लड़की बके पत्र मुझे आते हैं लेकिन उसे जवाब देने का मुझे कभी वक्त नही मिला।”
उसने इस बार जुगल किशोर को गहरी निगाहों से देखा।
“आप अपने को बहुत ज्यादा दमदार समझते हैं?”
आ रही है लाइन पर ।
“दमदार हूं कि नहीं, ये तो मैं नहीं जानता। वैसे स्कॉटलैंड से मैंने जासूसी का प्रशिक्षण ले रखा है। प्राइवेट जासूस बनना चाहता हूं मैं। परंतु मेरे पिता नहीं चाहते कि मैं ये काम करूं। बहुत दौलत है। वो चाहते हैं मैं सारी जिन्दगी मौज मस्ती लूं। क्या करूं? सबका मन रखना पड़ता है। वक्त बिताने के लिए लोगों का खतरे वाला काम कभी-कभार हाथ में ले लेता हूं। बहुत लोगों को परेशानियों से निकाला है फीस के तौर पर जो मिल जाता है, वो वही ठीक। घर वालों से पैसा नहीं लेता। मैं अपना पैसा खाने में यकीन रखता हूं। तुम फीस की फिक्र मत करो, अगर किसी परेशानी में हो तो बताओ, मैं तो तुम्हारी खूबसूरती की वजह से तुम्हारे काम आना चाहता हूं । अगर तुम किसी परेशानी में नहीं हो तो मेरे लिए खुशी की बात है।”
वो देखती रही, जुगल किशोर को ।
""साली, बातों के झांसे में आ रही है धीरे-धीरे।"
“मेरा नाम जुगल किशोर है। तुम्हारा नाम क्या है?” वो चुप रही।
“मैं तुम्हें मजबूर नहीं करूंगा कि तुम अपना नाम बताओ। अपने बारे में बताओ।” जुगल किशोर मुस्कुराया।
“रोनिका।”
“अच्छा नाम है-क्या करती हो ?”
“पढ़ रही हूं मुम्बई में। कॉलेज के दूसरे साल के पेपर दिए हैं ।” वो शांत स्वर में बोली।
“लगता है मन उदास था। तभी चैन पाने के लिए अकेली ही समन्दर के किनारे पर आ गई।”
खामोश रही रोनिका । इसके साथ ही उसकी बेचैनी भरी निगाह हर तरफ घूमी। बीच पर मौजूद लोगों को देखा। इस दौरान चेहरे के भाव कई बार बदले।
कोई बात तो है तभी परेशान हुई पड़ी है ।
“अगर तुम्हें पसंद हो तो समन्दर में तेरे।”
“मन नहीं है।”
जुगल किशोर ने दूर तक शांत नजर आते समन्दर पर नजरें टिका दी। कहां कुछ नहीं ।
“आप ही रहते हैं मुम्बई में ?”
“नहीं, यहां तो मैं काम के सिलसिले में आया था। एक औरत को अपने पति पर शक था कि वो किसी दूसरी औरत के चक्कर में है। यही पता करने में मुम्बई आया था क्योंकि वो आदमी काम के सिलसिले में मुम्बई आया था ।”
रोनिका के होंठ सिकुड़े।
“क्या मालूम किया उस आदमी के बारे में?”
“सब ठीक है, उस आदमी में कोई खराबी नहीं खुली। एक औरत से उसकी पहचान अवश्य है। परंतु उसे बहन बना रखा है उसने। उन पर नजर रखी। कोई गलत बात नजर नहीं आई।” जुगल किशोर ने कहा।
“इन कामों को करते हुए कोई आपको गोली मार दे तो?”
“इतना आसान नहीं है।” जुगल किशोर मुस्कुराया-“मेरे पास भी रिवॉल्वर है। खतरे वाला काम करता हूं। रिवॉल्वर तो रखनी पड़ती है। हर जासूस रिवॉल्वर रखता है।”
रोनिका की निगाह जुगल किशोर के चेहरे पर टिकी रही।
मैं जानता हूं तू मेरे खूबसूरत चेहरे को नहीं देख रही। तू किसी परेशानी में है और सोच रही है कि मेरे से बात करें या नहीं ? मेरे जैसा ठग खूबसूरत चेहरों को आसानी से पढ़ लेता है। शक में घिरी हुई है तभी तो एकदम विश्वास नहीं ना करके धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है। कोई बात नहीं, मुझे भी क्या जल्दी है। आराम से फंस, उसके बाद तेरे गले में पड़ी सोने की भारी चैन मेरी, उंगलियों में पड़ी हीरे की अंगूठियां भी मेरी।
“अगर मैं किसी मुसीबत में पड़ी हो तो तुम मेरी सहायता कर सकते हो।” एकाएक रोनिका बोली ।
अब बनी बात।
“तुम सच कहती हो कि तुम कॉलेज के दूसरे साल में पढ़ती हो ।”
“क्या मतलब?”
“पूछना पड़ा मुझे तुम्हारे सवाल पर ये सवाल।” जुगल किशोर मुस्कुराया- “मैं तो कब से कह रही हूं कि लोगों की मुसीबतें दूर करता हूं। खतरों से वास्ता पड़ता रहता है। जासूसों वाला काम करता हूं इस पर भी तुम पूछ रही हो कि क्या मैं तुम्हारी मुसीबत दूर कर सकता हूं। मैंने तो पहले ही कहा है कि तुम्हारी खूबसूरती से प्रभावित हूं। तुमसे फीस भी नहीं लूंगा।”
रोनिका ने जुगल किशोर की आंखों में देखा ।
“मुझे पर इतना मेहरबान होने की जरूरत नहीं।” रोनिका बोली- “मैं फीस दूंगी।”
साली ने पक्का माल दबा रखा है कहीं ।
“वो तुम्हारी मर्जी से फीस दो या नहीं। मैं दिल से चाहता हूं कि तुम्हारी परेशानी दूर कर सकूं। बताओ, क्या बात है।”
रोनिका ने एक बार फिर बीच पर मौजूद लोगों की तरफ देखा।
“मैं तुम पर कितना भरोसा कर सकती हूं?” रोनिका ने जुगल किशोर को देखा।
तू भरोसा करके तो। दोबारा जिन्दगी में किसी पर भरोसा करने की सोचेगी भी नहीं। माल-पानी से ऐसा हल्का करूँगा कि खाली जेबों में हाथ घुमाती रह जाओगी।
“तुम आंखें बंद करके मुझ पर भरोसा कर सकती हो रोनिका। कभी-कभी मेरे जैसे पराए, बहुत सगे वाले बन जाते हैं। एक बार जिस का वास्ता मुझसे पड़ता है, वो फिर मुझे भूल नहीं पाता।” कहा जुगल किशोर ने- “बे-हिचक तुम बता दो कि क्या परेशानी है तुम्हें। मैं सब ठीक कर दूंगा।”
रोनिका उसे देखती रही फिर धीरे स्वर में कह उठी ।
“मेरी जान खतरे में है।”
“क्या?” जुगल किशोर सीधा होकर बैठ गया।
“कुछ लोग मेरी हत्या करना चाहते हैं।”
जुगल किशोर की आंखें सुकड़ी। उसने सिगरेट सुलगाकर कश लिया।
“चुप क्यों हो गए जुगल?" रोनिका का स्वर गम्भीर था।
“खामोश रहो। सोचने दो ।”
ये साली तो लंबे ही रगड़े में फंसी हुई है। कोई इसकी जान लेना चाहता है। खतरे वाला काम मढ़ रही है मेरे सिर पर । काम क्या करना है, जो माल इसके पास है, वो झाड़ो और खिसक लो ।
जुगल किशोर थोड़ा-सा उसकी तरफ खिसका ।
“रोनिका ! कौन है जो तुम्हारी जान लेना चाहती हैं?”
“तुम उनके बारे में कोई सवाल नहीं पूछोगे।”
“तो फिर उन लोगों से तुम्हें बचाऊँगा कैसे?”
“वो रास्ता मैं बताऊंगी।”
बेटे जुगल, ये तो तेरे को बोरी में बंद करने पर लगी है।
“अगर सब कुछ तुम ही बताओगी तो मैं क्या करूंगा। ”
“बदमाशों से मुझे बचाओगे ।”
जुगल किशोर कई पलों तक रोनिका को देखता रहा फिर बोला।
“जो तुम्हारी जान लेना चाहते हैं, उनके बारे में कुछ बताओगी, तभी तो उन्हें पुलिस के कब्जे में पहुंचा…।”
“पुलिस में नहीं पहुंचाना है उन्हें।” रोनिका के दांत भिंच गए।
“गोली मारनी है?”
“वो भी नहीं।”
जुगल किशोर ने आंखें सिकोड़कर उसे देखा।
“मतलब कि उन्हें पुलिस में नहीं देना। गोली नहीं मारनी। उन लोगों ने उसे सिर्फ तुम्हें बचना है।”
“अब समझे।”
“हूं।” जुगल किशोर ने सिर हिलाया- “इतना तो बता सकती हो वो तुम्हें क्यों मारना चाहते हैं।”
“मैं कुछ नहीं बताऊंगी।”
"मत बता। अपना माल-पानी मेरे हवाले कर और चलती बन।"
“तुम्हारी मर्जी ! मजबूर नहीं करूंगा तुम्हें।” जुगल किशोर ने जानबूझकर लंबी सांस ली- “अगर तुम्हारी जान खतरे में है तो तुम्हें इस तरह खुले में नहीं घूमना चाहिए।”
“मेरे पास ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां उनकी निगाहों से छिपकर रह सकूं।” रोनिका ने गंभीर स्वर में कहा- “जो लोग यहां भी यहां मेरी पहचान वाले हैं, उनके बारे में वे जानते हैं। बदमाश लोग वहां पहले से ही खड़े, मेरे वहां पहुंचने का इंतजार कर रहे होंगे। ऐसे में मैं कहीं भी जाने के काबिल नहीं हूं। होटल में रहूंगी तो वहां और भी खतरा होगा। किसी नई मुसीबत में फंस जाऊंगी। मेरे पास कोई ऐसा नहीं जो मेरी सहायता कर…।”
“ऐसा मत कहो।” जुगल किशोर ने फौरन टोका- “अपनी को अकेली मत समझो। अब मैं हूं तुम्हारे साथ। कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता। तुम्हारी तरफ आने वाली गोली मैं अपनी छाती पर ले लूंगा रोनिका। ”
जुगल किशोर को देखती रही रोनिका।”
“मुझ पर भरोसा नहीं क्या?”
“इस वक्त तो दुश्मन पर भी भरोसा करना पड़े तो करूंगी। तुमसे भला मेरी क्या दुश्मनी।” थके से स्वर में कहा रोनिका ने- “मैं ये नहीं कहती कि तुम मेरे बदले अपनी जान दो। मैं चाहती हूं सिर्फ इस वक्त मेरी जान बचा दो।”
जुगल किशोर ने कश लिया ।
“मेरे ख्याल में तुम्हें यहां से चलना चाहिए।”
“कहां?”
“देखते हैं । यहां से चलो। मुझ पर भरोसा रखो। सवाल कम पूछो।”
रोनिका ने होंठ भींचकर, जुगल किशोर को देखा ।
“कहां ठहरे हो तुम?”
“मैं तो दिल्ली में रहता हूं। उसी केस के सिलसिले में मुम्बई आया था। वो काम तो अब पूरा हो गया। तब दुश्मनों को उलझाने के लिए मैंने बेहद घटिया से होटल में कमरा लिया था। आज कल में वो कमरा खाली करके दिल्ली के लिए चल देना है मुझे। मेरे ख्याल में तुम उस घटिया कमरे में शायद ना रह सकी। तुम…।”
“मैं रह लूंगी, उस कमरे में।” रोनिका जल्दी से कह उठी।
इस मुसीबत में तो तू उस कमरे के फर्श पर भी सोने को तैयार हो जाएगी।
“ठीक कहती हो। जान है तो जहान है। आओ।” कहने की साथ ही जुगल किशोर उठ खड़ा हुआ।
रोनिका के चेहरे पर हिचकिचाहट के भाव उभरे । परंतु दूसरे ही पल उठ खड़ी हुई।
“मैं तुम पर, एक अजनबी पर विश्वास कर रही हूं। धोखा मत देना मुझे।”
ठग के पास तो धोखे के अलावा कुछ होता ही नहीं।
“मेरे बारे में कभी भी गलत मत सोचना। मेरे से बड़ा सगा, तुम्हें कभी भी, कहीं नहीं मिलेगा।”
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