“ऐ बाराटूटी जा रहा है” - मैं जोर से चिल्ला रहा था - “चल एक सवारी बाराटूटी, सदर, कुतुब रोड ।”
तांगे में पांच सवारियां बैठी हुई थीं और मैं छठी सवारी के लिये अन्य तांगे वालों से ज्यादा ऊंची आवाज से चिल्ला रहा था । तांगा चान्दनी चौक में घंटे वाले शाही हलवाई की दुकान के सामने खड़ा था लेकिन मेरी निगाहें फव्वारी और दरीबे के मोड़ तक बाराटूटी, सदर की सम्भावित सवारी को टटोल रही थीं । मुझे दिल्ली में तांगा चलाते हुए अभी मुश्किल से छ: महीने हुए थे लेकिन सवारी पहचानने का मुझे अच्छा तजुर्बा हो गया था । मैं हमेशा फव्वारा, बाराटूटी चौक के रूट पर ही तांगा चलाता था इसलिए फतहपुरी, खारी बावली मोरी गेट, कुतुब रोड या बाराटूटी चौक उतरने वाली कई सवारियों की तो मुझे पक्की पहचान हो गयी थी ।
उसी क्षण मुझे अन्नपूर्णा की दिशा से सड़क पार करके आती हुई सुन्दर महिला दिखाई दी । उस महिला के पीछे एक झल्ली वाला बड़ा सा बण्डल उठाये चला आ रहा था ।
मैं उस महिला को पहचानता था । वह महिला बाराटूटी चौक के पास कहीं रहती थी और पहले भी कई बार मेरे तांगे में बैठ चुकी थी ।
“इधर आ जाओ, बीबी जी” - मैं पूर्ववत अन्य तांगे वालों से ऊंची आवाज में चिल्लाया - “बस तैयार खड़ा हूं । एक ही सवारी चाहिये ।”
महिला एक क्षण हिचकिचाई । उसने एक उड़ती निगाह मछली की तरह सवारी फांसने को तत्पर अन्य तांगे वालों पर डाली और फिर बड़े निर्णयात्मक ढंग से मेरे तांगे की ओर बढी ।
“बाराटूटी ?” - वह आदतन बोली ।
“हां, जी । बैठो बीबी जी, बस चल रहा हूं ।” - मैं बोला ।
“कितने पैसे ?”
“वही पचास पैसे । आप से कोई ज्यादा थोड़े ही लेने हैं ।”
महिला ने झल्ली वाले को संकेत किया । झल्ली वाले ने बंडल तांगे में रख दिया । महिला ने झल्ली वाले को पैसे दिये और स्वयं पिछली सीट पर अन्य दो सवारियों के साथ बंडल पर पैर रख कर बैठ गई ।
मैंने तांगा आगे बढाया । भीड़ में रास्ता बनाता हुआ घोड़ा अलसाये ढंग से आगे बढा ।
मैंने एक उड़ती निगाह तांगे की पिछली सीट पर बैठी सवारियों पर डाली । मैले से बुर्के पहने दो मुसलमानियों के साथ बैठी वह कटे बालों वाली महिला कितनी आकर्षक लग रही थी । महिला के चेहरे का अधिकतर भाग उसके कटे हुए घने बालों से ढंका हुआ था लेकिन फिर भी उसके चेहरे पर खूबसूरती और जवानी की चमक छुपाये नहीं छुप रही थी ।
“धन्न करतार !” - मेरे मुंह से एक गहरी सांस निकली । मैंने महिला की ओर से निगाहें फिरा लीं और खामखाह घोड़े को एक चाबुक जमा दिया ।
घोड़ा यूं हिनहिनाया जैसे उसे मेरे उस अप्रत्याशित व्यवहार पर सख्त हैरानी हो रही हो ।
मैंने धीरे से घोड़े के पुट्ठे को थपथपाया, बिल्कुल यूं जैसे मैं उससे क्षमा याचना कर रहा होऊं - घोड़ा मेरे दुलार भरे स्पर्श को अच्छी तरह पहचानता था । वह मंथर गति से मंजिल की ओर बढ गया ।
मैंने चाबुक तांगे की कैनवस की छत में खोंस दिया । मेरे बांये हाथ में घोड़े की लगाम थी, दायें हाथ से मैंने सरक कर नाक की फुंगी पर पहुंच गया हुआ मटमैले से शीशों वाला चश्मा उतारा और उसी हाथ को अपनी आंखों और तीन चार दिन की बढी हुई दाढी पर फेरा । मेरा बढिया चश्मा मेरे गांधीनगर, स्थित एक कमरे के घर में सूटकेस में बन्द था । अपना वर्तमान पन्द्रह रुपये का मामूली सा चश्मा मैंने विशेषरूप से अपने तांगे वाले के वर्तमान व्यक्तित्व के साथ मुनासिब तालमेल बिठाने के लिये बनवाया था । तकदीर कदम-कदम पर दगा दे रही थी, छोटी से छोटी बात भी मेरे बहुरूप की पोल खोल कर हकीकत का पर्दाफाश कर सकती थी ।
लोग आसमान से गिरकर खजूर में अटकते हैं । मैं खजूर में भी नहीं अटका और जमीन पर भी नहीं पहुंचा । मुकद्दर ने ऐसी मार मारी थी कि मेरी हालत गली के एक आवारागर्द कुत्ते से बद्तर हो गई थी । जो कुछ मुझ पर गुजरी थी या गुजर रही थी, उसे मैं वाहे गुरू की मर्जी समझ कर कबूल कर चुका था लेकिन फिर जब मुझे अपनी इलाहाबाद में गुजरी जिन्दगी याद आ जाती थी तो मेरी आंखें भर आती थीं और कलेजा फटने लगता था ।
वह सब क्यों हुआ ?
सिर्फ एक औरत की बेवफाई की वजह से, तांगे में बैठी कटे बालों वाली महिला को देखकर मुझे जिसकी याद आ गयी थी ।
वह औरत सुरजीत थी ।
सुरजीत मेरी बीवी थी गुरु ग्रन्थ साहब के बाद अगर मैं इस दुनिया में किसी अन्य चीज की पूजा करता था तो वह सुरजीत थी । लेकिन उस बेवफा और हरजाई औरत ने मेरे प्यार की यह कदर की कि उसने मुझे गबन के झूठे इलजाम में जेल भिजवा दिया ।
क्यों ?
क्योंकि वह एरिक जॉनसन नामक उस कम्पनी के मैनेजर से मुहब्ब्त का खेल खेल रही थी, जिसमें कि मैं असिस्टेंट अकाउंटेंट था । मैनेजर जो रुपया खुद हड़प कर मुझ पर पचास हजार की रकम के गबन का इलजाम लगाया था, उसमें ट्रेजेडी यह थी कि मुझे शत-प्रतिशत फंसवाने के लिये मेरी बीवी ने भी मेरे फिलाफ गवाही दी थी ।
सुरजीत नाम की उसी हरजाई और बेवफा औरत की वजह से - जो कि कभी मेरी बीवी थी - आज मैं नाली के कीड़े जैसा गलीज आदमी बना हुआ था, इलाहाबाद के सुख और सुविधा की जिन्दगी एक सपना बनकर रह गयी थी, मैं फर्स्ट डिवीजन में बी. काम. एल. एल. बी. पास था लेकिन पुलिस की निगाहों से बचा रहने के लिये तांगा चलाने जैसा काम कर रहा था । जिसके द्वारा मैं बड़ी मुश्किल से दो जून पेट भर पाने का सामान मुहैया कर पाता था ।
मैं इश्तिहारी मुजरिम था ।
“जरा रोकना, भाई ।”
मैंने तांगा रोका । दो सवारियां मोरी गेट उतर गयीं ।
मैंने तांगा आगे बढा दिया ।
हर क्षण दिमाग में यह ख्याल हथोड़े की तरह बजता रहता था कि आखिर इस प्रकार कब तक जिन्दगी गुजर पायेगी । कभी लोहार की एक पड़ गयी तो फांसी के तख्ते पर पहुंच कर ही होश आयेगा ।
पुलिस से आंख मिचौली शुरु होने के बाद अगर मैं पहली ही बार इलाहाबाद या बम्बई में गिरफ्तार हो जाता तो मैं शायद केवल एक-डेढ साल की सजा पा कर छूट जाता और सस्ता छूट जाता । दूसरी बार बम्बई या मद्रास में पकड़ा जाता तो उम्र कैद से कम में खलासी न होती । इस बार पकड़ा गया तो फांसी की सजा मुझे इसलिए मिलेगी क्योंकि इससे ज्यादा सख्त सजा मुमकिन नहीं थी ।
दिल्ली मैं इसलिए आया था क्योंकि मद्रास के बाद मुझे कहीं तो जाना ही था और किसी छोटी जगह के मुकाबले में महानगर मुझे ज्यादा सुरक्षित मालूम होते थे । दिल्ली की चालीस लाख से ज्यादा की आबादी में एक मामूली तांगे वाले की ओर ध्यान देने की किसे फुरसत थी । और फिर इस बात की कौन कल्पना कर सकता था कि इलाहाबाद की जेल से फरार गबन का अपराधी, बम्बई की एक धनाढ्य महिला का हत्यारा, मद्रास का बैंक लूटने वाला, दिल्ली में घोड़ा तांगा चलाने जैसा हकीर काम कर रहा होगा ।
“वाहे गुरु सच्चे पातशाह !” - मैं असहाय स्वर में बुदबुदाया और मैंने कुतुब रोड चौक पर तांगा रोका ।
कटे बालों वाली महिला के अतिरिक्त सभी सवारियां वहां उतर गयीं ।
मैंने तांगा आगे बढाया ।
एक बार मेरी निगाहें महिला से मिलीं । वह विचित्र सी निगाहों से मेरी ओर देख रही थी । निगाहें मिलते ही वह दूसरी ओर देखने लगी ।
मैं बचपन से चिराग तले अंधेरा वाली कहावत सुनता आ रहा था । क्या यही बात इस कहावत को चरितार्थ नहीं करती थी कि मैं जब से तांगा चला रहा था, मैं गुरुद्वारा शीशगंज की बगल में स्थित कोतवाली के सामने से यानी कि ऐन पुलिस की नाक के नीचे से तांगे में सवारियां बैठाता रहा था ।
मैंने तांगा बाराटूटी चौक में ला खड़ा किया ।
“लो जी, बीबी जी ।” - मैं महिला की ओर देखता हुआ बोला । तांगे वालों का व्यवसाय सुलभ रूखापन और घरघराहट मेरी आवाज में इस हद तक आ गये थे कि कोई सपने में भी नहीं सोचा सकता था कि मैं एक उच्च शिक्षा प्राप्त युवक था । राह चलते लोगों के साथ गाली-गलौज और अपने घोड़े की मां बहनों के साथ अवैध संबंधों की घोषणा तो मैं अनजाने में ही करता रहता था । वही मां बहन की गालियां अब मेरी जुबान से निकली बातों में आम पिरोई रहती थीं जिन्हें इलाहाबाद के दिनों में सुन लेने भर से मुझे ऐसा लगता था जैसे किसी ने मेरे कान में दहकती हुई सलाख घुसेड़ दी हो । वक्त-वक्त की बात है । तब मैं सभ्यता, शालीनता और शराफत का पुतला था, अब मैं एक सजायाफ्ता और फरार मुजरिम और तीसरे दर्जे के लोगों का संगी साथी था ।
महिला तांगे से उतरी और आशापूर्ण नेत्रों से इधर-उधर देखने लगी ।
शायद उसे किसी झल्ली वाले की तलाश थी ।
“स्टेशन, कौड़िया पुल, फव्वारा ।” - मैं आदतन उच्च स्वर से बोला ।
झल्ली वाला कहीं दिखाई नहीं दे रहा था ।
मैंने एक उड़ती-सी निगाह बण्डल पर डाली । बंडल काफी भारी मालूम हो रहा था ।
महिला अब व्याकुल दिखाई देने लगी थी । बंडल खुद उठाना उसके बस की बात नहीं थी ।
मेरी फिर उससे निगाहें मिलीं ।
“सुनो” - एकाएक वह व्यग्र स्वर से बोली - “मैंने तेलीवाड़े के शुरू में ही जाना है । तुम्हीं मुझे वहां तक छोड़ आओ । मैं तुम्हें चार आने और दे दूंगी ।”
“लेकिन...”
“चलो पचास पैसे सही । पूरा एक रुपया हो जायेगा । मुझ पर मेहरबानी करो । मुझे झल्ली वाला नहीं मिल रहा है ।”
“अच्छा” - मैं अनिच्छापूर्ण स्वर से बोला - “बैठो ।”
“थैंक्यू ।” - महिला कृतज्ञतापूर्ण स्वर से बोली ।
“जी ।”
“मैंने कहा, शुक्रिया, मेहरबानी, नवाजिश ।”
“ओह ! बैठो, जी ।”
महिला बैठ गयी ।
मैंने तांगा आगे बढा दिया ।
तेलीवाड़े में एक बड़े से दरवाजे वाले मकान के सामने उसने मुझे तांगा रोकने के लिए कहा ।
मैंने तांगा एकदम दरवाजे के साथ लगाकर खड़ा कर दिया ।
महिला नीचे उतरी । उसने पहले मुझे एक रुपये का नोट थमाया और फिर बंडल उठाने की कोशिश करने लगी ।
बंडल उठाना वाकई उसके बस की बात नहीं थी ।
उसकी कोशिशों से बंडल ने केवल एक करवट ही बदली, वह मेरे तांगे से अलग नहीं हुआ ।
उसने असहाय भाव से मेरी ओर देखा ।
मैं उसकी निगाहों का मूक निवेदन समझ गया । मैं तांगे से उतरा । मैंने बंडल अपनी बांहों में उठा लिया ।
“थैंक्यू, वैरी मच !” - वह हर्षित स्वर से बोली - “मेरा मतलब है, बहुत-बहुत शुक्रिया । तुम बहुत भले आदमी हो ।”
महिला लपक कर दरवाजे के आगे की दो सीढियां चढ गयी । उसने चौखट में लगी घंटी का बटन दबाया ।
लगभग फौरन दरवाजा खुला ।
मैं बंडल लिए आगे बढा ।
चौखट से भीतर कदम रखते ही मैं एकाएक यूं थम कर खड़ा हो गया जैसे मुझे लकवा मार गया हो । मेरे नेत्र फैल गये और निचला जबड़ा लटक गया । बंडल मेरे हाथों से छूटते-छूटते बचा ।
मेरे सामने एक क्रूर चेहरे वाला ह्रष्ट-पुष्ट आदमी खड़ा था । उसने ऊपर के होंठ पर कोरों से नीचे झुकी हुई फोमांचू टाइप मूछें थीं और वह बेदाग सफेद कमीज और सफेद पतलून पहने हुए था । उसके हाथ में एक रिवॉल्वर थी जिसकी नाल का रुख मेरी छाती की ओर था ।
महिला मेरे पीछे से हटकर रिवॉल्वर वाले की बगल में जा खड़ी हुई थी । वह उस समय न असहाय दिखाई दे रही थी और न कृतज्ञ । अब उसके होंठों पर एक कुटिल मुस्कराहट खेल रही थी ।
“बंडल फर्श पर रख दो और आगे बढो ।” - रिवॉल्वर वाला कठोर स्वर से बोला ।
“…ल... लेकिन... लेकिन साहब, म.. मैं... मैं गरीब आदमी हूं । मैं मैं बेहद गरीब तांगे वाला हूं.. ।”
“मुझे मालूम है । जो कहा गया है, वह करो ।”
मैंने आज्ञा का पालन किया ।
रिवॉल्वर वाले ने पांव की ठोकर से दरवाजा बंद कर दिया ।
“आगे बढो ।” - आदेश मिला ।
मैं एक गलियारे में आगे बढा । सिरे पर एक दरवाजा था । मुझे आदेश मिला कि मैं वह दरवाजा खोलकर प्रविष्ट हो जाऊं ।
मैंने ऐसा ही किया ।
वह एक सजा- सजाया ड्राईंग रूम था । फर्श पर कीमती कालीन बिछा हुआ था । बैठने के लिए बहुत उम्दा गद्देदार सोफासैट था । कोने में टेलीविजन पड़ा था । जिस दरवाजे से मैं भीतर प्रविष्ट हुआ था, उस पर, एक अन्य दरवाजे और एक खिड़की पर भारी रेशमी पर्दे पड़े हुए थे ।
“बैठो ।” - रिवॉल्वर वाला बोला ।
मैं झिझका और असमंजसपूर्ण नेत्रों से कभी रिवॉल्वर वाले की ओर और कभी महिला की ओर देखने लगा ।
“इसे अपना ही घर समझो, सुरेन्द्रसिंह” - महिला मधुर स्वर में बोली - “आराम से सोफे पर बैठो ।”
सुरेन्द्रसिंह !
मेरे कानों में खतरे की घंटियां बजने लगीं । मुझे बड़े भयंकर तूफान के आगमन के आसार दिखाई देने लगे ।
“कौन सुरेन्द्रसिंह ?” - मैं असमंजसपूर्ण स्वर से बोला ।
“अब बनने से कोई फायदा नहीं होगा, सुरेन्द्रसिंह सोहल” - रिवॉल्वर वाला कर्कश स्वर से बोला - “तुम्हारी हकीकत हम पर खुल चुकी है ।”
“ओह डार्लिंग” - महिला सख्त शिकायत भरे स्वर से बोली - “माइंड युअर लैंग्वेज । तुम क्या सचमुच किसी तांगे वाले से बात कर रहो हो ?”
रिवॉल्वर वाला चुप हो गया । फिर धीरे-धीरे उसके चेहरे से कठोरता गायब हो गयी । उसने रिवॉल्वर अपनी पतलून की पिछली जेब में खोंस ली । उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे यूं संभालकर एक सोफे पर बिठाया जैसे मैं मामूली सी ठेस लगने से टूट जाने वाली कोई नाजुक चीज था । वह स्वयं मेरी बगल में बैठ गया । महिला हम दोनों के सामने बैठ गई ।
मैंने अपनी आंखों से चश्मा उतारा और फिर बड़े नर्वस ढंग से उसी हाथ की पीठ अपनी आंखों पर फिराई । चश्मा मैंने फिर अपनी नाक पर टिका दिया ।
“यह आदत छोड़ दो” - महिला बोलो - “यह भी तुम्हारी बड़ी पेटेन्ट पहचान है ।”
“कैसी आदत ?”
“यही एक हाथ से आंखों से चश्मा उतारकर उसी हाथ की पीठ आंखों पर फेरने की आदत । किसी पुलिस वाले को तुम्हारी यह आदत याद आ गई तो वह तुम्हारी सूरत की परवाह किये बिना वहीं धर दबोचेगा ।”
वह ठीक कह रही थी लेकिन प्रत्यक्षत: मैं अनजान बनता हुआ बोला - “आप क्या कह रही हैं, बीबी जी । मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है ।”
“मेरा नाम रश्मि है ।” - वह बोली ।
“और बंदे को अजीत कहते हैं ।” - रिवॉल्वर वाला बोला ।
“तुम किस नाम से पुकारा जाना पसंद करोगे ?” - रश्मि बोली - “क्या कहकर बुलाया जाये तुम्हें ? सुरेन्द्रसिंह सोहल इलाहाबाद वाला, विमलकुमार खन्ना बम्बई वाला या गिरीश माथुर मद्रास वाला, या कोई और ? दिल्ली में कोई और नाम है तुम्हारा ?”
“बीबी जी मेरा नाम बनवारी लाल है । मैं एक निहायत मामूली तांगे वाला हूं ।”
“तुम्हारी सब बातें कबूल । तुम बनवारीलाल भी हो, मामूली भी हो, तांगे वाले भी हो लेकिन साथ ही वह सब कुछ भी हो जो मैंने तुम्हें कहा है ।”
“बीबी जी, आप क्या पहेलियां बुझा रही हैं ?”
“अब छोड़ो यह पाखण्ड” - अजीत बेसब्रेपन से बोला - “तुम्हारे से संबंधित कोई ऐसी बात नहीं जिसे हम नहीं जानते । तुम एक हौसलामंद अपराधी हो और जिन्दगी में तुमने जितने भी हाथ मारे हैं, बहुत खतरनाक और तगड़े हाथ मारे हैं, इसीलिए अब तुम्हारी हमारी बहुत तगड़ी पटने वाली है । बम्बई में सर गोकुलदास की नौजवान बीबी से मिलकर उनकी बेशुमार दौलत पर हाथ साफ करने की कोशिश करना कोई छोटी-मोटी बात नहीं । मद्रास में अन्ना स्टेडियम पर डाका डालकर सत्तर लाख रुपये ले उड़ना तो बहुत ही दिल-गुर्दे का काम है हालांकि मैं यह समझ पाने में पूर्णतया असमर्थ हूं कि इतने दिल गुर्दे वाली अपराधी आजकल एक मामूली तांगे वाला क्यों बना हुआ है ।”
“साहब” - मैं फिर गिड़गिड़ाता हुआ बोला - “आपको गलतफहमी हुई है । मैं वह आदमी नहीं जो आप मुझे समझ रहे हैं । मैं एक मामूली तांगे वाला हूं और बेहद गरीब आदमी हूं । बाहर खड़ा घोड़ा-तांगा तक मेरा नहीं है, किसी से किराये पर लिया हुआ है । बड़ी मुश्किल से अपना पेट भरता हूं, हजूर । चाहें तो आप अड्डे पर जाकर जिससे मर्जी पूछ लीजिये । गांधी नगर के बनवारीलाल तांगे वाले को हर कोई जानता है । जिसकी आप बात कर रहे हैं, वह जरूर मेरा कोई हम शक्ल होगा । माई बाप मैं बहुत गरीब आदमी हूं । मेरा किसी चोरी डकैती से कोई वास्ता नहीं ।”
अजीत की कठोर निगाहें मेरे चेहरे से नहीं हटीं ।
मैं दीनहीन मुद्रा बनाये उसकी बगल में बैठा रहा । मेरा हाथ आदतन चश्मे की ओर बढा लेकिन मैंने उसे आधे रास्ते से ही वापिस खींच लिया ।
अजीत तनिक विचलित दिखाई देने लगा । उसने उलझनपूर्ण निगाहों से रश्मि की ओर देखा ।
“मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं” - रश्मि निश्चयपूर्ण स्वर से बोली - “यह वही आदमी है । मैं एक महीने से इसको चैक कर रही हूं ।”
अजीत फिर आश्वस्त दिखाई देने लगा ।
“तुम यह नाटक करना बन्द नहीं करोगे ?” - रश्मि कठोर स्वर से बोली ।
“क्यों मजाक करती हो, बीबी जी” - मैं गिड़गिड़ाया - “मैं आपको सुरेन्द्रसिंह दिखाई देता हूं ? मैं तो आपकी मदद की खातिर आपका बंडल उठाकर यहां तक लाया और आपने मुझे इस मुसीबत में फंसा दिया । बीबी जी, भगवान कसम, मैं...”
मैं चुप हो गया । ‘बीबी जी’ मेरी बात नहीं सुन रही थी । वह अपने स्थान से उठकर कोने में स्थित एक अलमारी की ओर बढ रही थी ।
मेरी व्याकुल निगाहें चारों ओर घूम गयीं ।
भाग निकलने की कोई गुंजाइश नहीं थी । अजीत अभी भी रिवॉल्वर लिए मेरी बगल में बैठा था । रिवॉल्वर उसके हाथ में नहीं थी तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता था । वह हट्टा-कट्टा तंदरुस्त नौजवान था । उसका एकाध ही वजनी हाथ मुझे निष्क्रिय कर देने के लिए काफी था ।
रश्मि अलमारी में से एक फाइल निकाल लाई । उसने फाइल मेरी गोद में उछाल दी और बोली - “इसे देखो ।”
“लेकिन बीबी जी...” - मैंने प्रतिवाद करना चाहा ।
“इसे देखो ।” - उसने अपनी बात दोहराई ।
तीव्र अनिच्छा का प्रदर्शन करते हुए मैंने फाइल खोली । पहले ही पृष्ठ पर एक अखबार की कटिंग लगी हुई थी । उस कटिंग में तीन-तीन की कतार में बारह आदमियों की तस्वीरें छपी थीं । ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था - फरार । सब तस्वीरों के नीचे नाम छपे हुए थे । सबसे ऊपर की कतार में बीच की तसवीर एक नौजवान सिख की थी जिसके नीचे नाम लिखा हुआ था - सुरेन्द्रसिंह सोहल ।
वह मैं था ।
नीचे विस्तृत समाचार छपा हुआ था ।
समाचार पढने की मुझे जरूरत नहीं थी । मुझे मालूम था उस में क्या लिखा था ।
वह समाचार मेरी उस बुनियादी बेवकूफी का दस्तावेज था जिसकी वजह से मैं आज दरदर की ठोकरें खा रहा था । मेरी डेढ साल की सजा में केवल चार महीने बाकी रह गए थे तो एक दिन जेल में आग लग गयी थी । आग से मची आपाधापी में कई कैदियों को भाग निकलने का मौका मिल गया था । अन्य कैदियों के साथ बिना सोचे-समझे मैं भी निकला था जबकि और कैदियों की कई-कई सालों की सजा बाकी थी और मैंने केवल चार महीने और काटने थे । बाद में लगभग सभी फरार कैदी पकड़े गए थे लेकिन मैं नहीं पकड़ा गया था क्योंकिे मैंने अपनी दाढी-मूंछें सिर के बाल कटवा लिया थे और इलाहाबाद से भागकर बम्बई पहुंच गया था ।
और उसके बाद तकदीर मुझसे अपराध और करवाती चली गयी ।
मैंने जल्दी-जल्दी सफे पलटे ।
सारी फाइल में मेरा ही कच्चा चिट्ठा था बम्बई के ‘टाइम्स आफ इण्डिया’ और मद्रास के ‘दिना थान्थी’ में छपी मेरी तस्वीरों की कटिंग भी उसमें थी ।
बम्बई में लेडी शान्ता दास की हत्या ।
मद्रास में अन्ना स्टेडियम की डकैती ।
मैं खामख्वाह फाइल के सफे पलट रहा था । फाइल पर केवल मेरी निगाहें पड़ रही थी । दिमाग मेरा यह सोचने में व्यस्त था कि क्या मैं इन दोनों को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो सकता था कि मैं वह आदमी नहीं जिसकी फाइल वे मुझे दिखा रहे थे । मैं बनवारीलाल तांगे वाले का बहुरूप जारी रखूं या अपनी हकीकत कबूल करके उनसे पूछूं कि वे मुझसे क्या चाहते थे ।
अन्त में मैंने निर्णायक ढंग से फाइल बन्द की और उसे मेज पर उछाल दिया ।
“अब क्या कहते हो, सुरेन्द्रसिंह ?” - रश्मि आशापूर्ण स्वर से बोली ।
“मैंने अपनी आंखों से चश्मा उतारा, अपने उसी हाथ की पीठ अपनी आंखों पर फिराई और फिर बड़े इत्मीनान से चश्मा अपनी नाक पर टिका लिया ।”
“मैंने क्या कहना हैं” - मैं शान्ति से बोला - “आप बताइये, आप क्या कहते हैं ?”
“हम तो अपनी कहेंगे ही” - रश्मि के चेहरे से भी उद्विग्नता के भाव उड़ गये - “पहले यह तो कबूल करो कि तुम सुरेन्द्रसिंह सोहल ही हो ।”
मैंने एक उड़ती निगाह अपनी बगल में बैठे अजीत पर डाली और बोला - “अगर मैं बनवरी लाल तांगे वाला हूं; हजूर । ‘मैं बनवारी लाल तांगेवाला हूं, माई बाप’ की ही रट लगाता रहूं तो आप लोग क्या करेंगे ?”
“सुरेन्द्रसिंह साहब” - उत्तर अजीत ने दिया - “यह मत भूलो सारे देश की पुलिस को आज भी तुम्हारी बड़ी सरगर्मी से तलाश है । तुम्हारी गिरफ्तारी पर इनाम की घोषणा की जा चुकी है । तुम आज तक बचे हुए हो केवल इसलिए कि पुलिस को तुम्हारे बिना दाढ़ी मूंछ और पगड़ी वाले हुलिए की जानकारी नहीं है । मैं अधिक देर तुम्हारी ‘बनवारीलाल तांगे वाले’ वाली रट नहीं सुनूंगा । तुमने फिर यही बात दोहराई तो मैं अभी तुम्हें ‘गिरफ्तार’ करवा दूंगा और इनाम की रकम हासिल कर लूंगा ।”
मैं चुप रहा ।
“इसके विपरीत” - वह कहता रहा - “अगर तुम अपनी हकीकत कबूल कर लोगे और हमें सहयोंग देना स्वीकर कर लोगे तो हम सबका फायदा होगा ।”
“मेरा क्या फायदा होगा ?” - मैं बोला ।
“यानी कि तुम कबूल करते हो कि तुम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल हो ?”
“आप मुझे विमल के नाम से पुकारें तो ज्यादा अच्छा रहेगा ।”
“वैरी गुड ।” - अजीत बोला और उसने बड़ी गर्मजोशी से मुझ से दोबारा हाथ मिलाया ।
रश्मि भी मुस्करा रही थी ।
“मेरे दिमाग में एक स्कीम है” - अजीत बोला - “जिस पर काम करके हम यूनियन बैंक आफ इंडिया के कम से कम चालीस लाख रुपये पर हाथ साफ कर सकते हैं । मैं इस खतरनाक काम में किसी ऐरे गैरे, नौसिखिये आदमी को शामिल नहीं करना चाहता था और कोई मुनासिब चौथा आदमी मिल नहीं रहा था । इसीलिए मैं इसे कार्यरूप में परिणित नहीं कर सका । पता नहीं कैसे रश्मि तुम्हें पहचान गयी, और फिर इसी ने मुझे तुम्हारा नाम सुझाया । तुम सौ फीसदी हमारे काम के आदमी हो । मुझे रश्मि की बात जंच गयी और आज यह तुम्हें बंडल के बहाने यहां तक ले आयी ।”
“बाकी तीन आदमी कौन हैं ?”
“मैं और रश्मि तो तुम्हारे सामने ही बैठे हैं । तीसरा आदमी नासिर खां नाम का मेरा एक दोस्त है - वह अभी आता ही होगा । आज ही तुम्हारी उससे मुलाकात करवा दी जायेगी । और चौथे तुम हो । मुझे यह कहने में कोई झिझक या शर्म महसूस नहीं हो रही है कि इस अभियान में हम तुम्हारे सबसे ज्यादा कारआमद आदमी सिद्ध होने की आशा कर रहे हैं ।”
“क्यों ? कैसे ?”
“क्योंकि तुम्हें ऐसे कामों का तजुर्बा है । मैंने सुना है कि मद्रास के अन्ना स्टेडियम की डैकती की योजना के पीछे दिमाग तुम्हारा ही था ।”
“गलत सुना है तुमने । वह सारा किया-धरा जयशंकर नाम के एक आदमी का था । मैं, वीरप्पा, अब्राहम और सदाशिव राव नाम के तीन अन्य आदमी तो केवल उसके हाथों की कठपुतली साबित हुए थे । वह तो हम सबको छोड़कर स्वयं लूट का सारा माल लेकर खिसक गया था । उसी की वजह से वीरप्पा, अब्राहम और सदाशिव राव की जानें गयी थीं । मेरी तो तकदीर ही अच्छी थी जो मैं बच गया था ।”
“मैं बहस में नहीं पड़ना चाहता । मुझे नहीं मालूम वास्तव में क्या हुआ था । मैं इतना जानता हूं कि उस डकैती से सम्बन्धित तीन आदमी मारे गये थे, एक लूट के माल के साथ गिरफ्तार हो गया था और इकलौते तुम थे जो पुलिस के चंगुल से निकल भागने में कामयाब हो गये थे । मैं इसे बहुत समझदारी और तजुर्बे का काम मानता हूं ।”
“और” - रश्मि बोली - “सर गोकुलदास की नौजवान बीवी का खून करके पुलिस के घेरे से भाग निकलना भी कोई मामूली काम नहीं था ।”
जो काम मैंने ‘मरता क्या न करता’ के अंदाज से किये थे, उन्हें वे लोग मेरी बहादुरी में शुमार कर रहे थे । लेडी शान्ता गोकुल दास का खून मैंने इसलिए किया था क्योंकि वह सर गोकुलदास का खून करवाने वाली थी और उनकी पहली पत्नी की निशानी उनकी इकलौती बेटी माधुरी को एक बदमाश के बलात्कार का शिकार बनवाने वाली थी । मैं अपनी ओर से किसी की भलाई कर रहा था, लेकिन किसी की भलाई करते करते मैं अपना सर्वनाश कर बैठा था । मद्रास में मैं जयशंकर के चंगुल में इसीलिए फंसा था क्योंकि उसका चमचा वीरप्पा मुझे पहचान गया था । जयशंकर ने भी इन्हीं लोगों की तरह मुझे गिरफ्तार करवा देने की धमकी देकर मुझे अन्ना स्टेडियम की डकैती में शरीक कर लिया था ।
“अगर आप लोग” - प्रत्यक्षत: मैं बोला - “मुझे कोई हिम्मती और पेशेवर मुजारिम समझ कर मेरा कोई उपयोग सोच रहे हैं तो आपको सख्त मायूसी होगी ।”
“क्या मतलब ?”
“मैं न हिम्मती हूं और न पेशेवर मुजरिम हूं ।”
अजीत यूं हंसा जैसे उसने भारी मजाक की बात सुन ली हो ।
उसी क्षण इमारत में कहीं कॉलबैल बजी ।
अजीत ने रश्मि को संकेत किया । रश्मि उठकर बाहर चली गई । जब वह वापिस लौटी तो उसके साथ एक लगभग तीस साल का खूबसूरत नौजवान था ।
“नासिर खां” - रश्मि घोषणा सी करती हुई बोली - “और नासिर, ये हैं सुरेन्द्रसिंह सोहल उर्फ विमल कुमार खन्ना उर्फ गिरीश माथुर, उर्फ बनवारीलाल ।”
“विमल ।” - मैं बोला ।
“हां विमल ।” - रश्मि बोली - “बड़ी करामाती चीज है ।”
“ये हैं, वो साहब ?” - नासिर खां अविश्वासपूर्ण निगाहों से मुझे सिर से पांव तक घूरता हुआ बोला ।
“इनके मौजूदा लिबास और रंग-ढंग पर मत जाओ” - अजीत बोला - “इनका यह हुलिया ही यह साबित करने के लिए काफी है कि ये कितनी गहरी चीज हैं ।”
नासिर खां आश्वस्त दिखाई देने लगा । फिर उसने बड़ी गर्मजोशी के साथ मुझसे हाथ मिलाया ।
“जो योजना हमने तैयार की है” - अजीत बोला - “उसमें नासिर खां की मदद के बिना कुछ भी कर पाना संभव नहीं है । बैंक का ढेरों रुपया उड़ाने के लिए जरूरी है कि पहले हम खुद ढेरों रुपया खर्च करें और रुपया हममें से सिर्फ नासिर खां ही मुहैया कर सकता है ।”
“रुपया क्यों चाहिए ?” - मैंने तनिक उत्सुक स्वर से पूछा ।
“धीरे-धीरे सब समझ जाओगे । मोटे तौर पर इतना जान लो कि दो तो गाड़ियां ही खरीदी गई हैं । एक एम्बैसेडर और एक जीप । फिर मुलाकातों के लिए यह जगह भी मुनासिब नहीं है । मैंने सुन्दर नगर में एक फ्लैट देखा है जिसके साथ गैरेज भी उपलब्ध है । पन्द्रह सौ रुपये महीना किराया है । हमें वह फ्लैट लेना होगा । यह .45 कैलिबर की वैबले एण्ड स्काट रिवॉल्वर जो तुम देख रहे हो यह भी नासिर लाया है ।”
“और अभी कम से कम दो पिस्तौल हमें और चाहियें ।” - रश्मि बोली ।
“उसका इन्तजाम भी मैं कर आया हूं ।” - नासिर बोला ।
“किस्सा क्या है ?” - मैंने पूछा ।
“मोटे तौर पर किस्सा यह है कि हम बैंक की एक मोटी रकम लूटने की योजना बना रहे हैं” - जवाब रश्मि ने दिया - “जो काम तुम मद्रास में अन्ना स्टेडियम में कर चुके हो, उसमें और इसमें फर्क यह है कि तुम लोगों ने स्टेडियम का रुपया स्टेडियम की चारदीवारी में से उड़ाया था और हम यही काम दिन दहाड़े खुली सड़क पर करने वाले हैं ।”
“क्या मतलब ?”
रश्मि एक क्षण हिचकिचाई और फिर बोली - “यूनियन बैंक आफ इंडिया की एक गाड़ी सप्ताह में तीन-चार बार अपनी चांदनी चौक ब्रांच से पार्लियामेंट स्ट्रीट में स्थित रिजर्व बैंक तक रुपया लेकर जाती है । गाड़ी हमेशा दरियागंज, आसिफअली रोड, मिन्टो रोड और कनाट प्लेस होती हुई जाती है । आज तक उसका रूट नहीं बदला है । अगर गाड़ी दिल्ली गेट से दांये घूमने के स्थान पर सीधी आई. टी. ओ. हार्डिंग ब्रिज और सिकन्दरा रोड का रास्ता पकड़े तो आगे दो-तीन विभिन्न रूट संभव हैं लेकिन हमने हमेशा नोट किया है कि गाड़ी रिजर्व बैंक तक हमेशा मिन्टो रोड वाले रास्ते से ही जाती है ।”
“खैर, आगे ।”
“हमें विश्वस्त सूत्रों से पता लगा है कि 28 सितम्बर को सुबह दस बजे के करीब कम से कम चालीस लाख रुपया यूनियन बैंक, चांदनी चौक से रिजर्व बैंक पार्लियामेंट स्ट्रीट ले जाया जाना है । हमें उस रोज रास्ते में ही बैंक की गाड़ी रोक कर रुपया लूटना है ।”
“कहां ?”
“इसका फैसला अभी नहीं किया है । अभी हम कई रोज बैंक की गाड़ी की गतिविधि पर निगाह रखेंगे और तभी रूट में कोई उचित स्थान निर्धारित करेंगे ।”
“गाड़ियां दो क्यों ?”
“एम्बैसेडर केवल डकैती वाले दिन काम में लायी जायेगी ताकि वह कम से कम लोगों की निगाहों में आ सके । डकैती का रिहर्सल और रूट की जांच पड़ताल का सारा काम हम जीप पर करेंगे ।”
“आप लोग यूं दिन दहाड़े खुले आम इतनी बड़ी डकैती में कामयाब हो जायेंगे ?”
“हमसे पूछने के स्थान पर अच्छा है कि इस बात का फैसला तुम खुद ही करो ।” - अजीत बोला - “जल्दी ही हम लोग फिर रूट का चक्कर लगायेंगे और तुम्हें बैंक की गाड़ी के दर्शन करायेंगे । तुम्हें यह भी देखने का मौका मिलेगा कि माल की सुरक्षा के लिए बैंक वाले क्या करते हैं ।”
“कब ?”
“जल्दी ही ।”
“तब तक मैं क्या करूं ?”
“और कुछ भी करो, तांगा चलाना छोड़ दो । अपना हुलिया फौरन सुधारो । सुंदर नगर वाले फ्लैट की बात पक्की होते ही तुम उसमें रहना आरम्भ कर देना । लेकिन उस दौर में तुम दिल्ली से न भाग खड़े होवो उसके लिये हमें एक इन्तजाम करना पड़ेगा ।”
मेरा दिल डूबने लगा । मैं मन ही मन दिल्ली से सदा के लिए कूच कर जाने का ही इरादा कर रहा था । मेरा ख्याल था कि वे लोग 28 सितम्बर तक चौबीस घंटे तो मेरी निगरानी कर नहीं पायेंगे, मैं पहला मौका हाथ में आते ही उन्हें डाज दे जाऊंगा ।
मेरी उत्कंठापूर्ण निगाहें अजीत के चेहरे पर टिक गयीं ।
अजीत ने रश्मि को संकेत किया ।
रश्मि फिर कमरे से बाहर निकल गयी । उसके लौटने तक कमरे में चुप्पी छाई रही । कुछ क्षण बाद वह अपने हाथ में एक सूरत से ही कीमती लगने वाला कैमरा लटकाये लौटी । अजीत के संकेत पर उस ने कैमरा नासिर को सौंप दिया ।
नासिर ने मेरे सामने से और साइड से तीन-चार कलोज अप खींच लिये ।
“पुलिस के पास तुम्हारी दाढी मूंछ विहीन सूरत का कोई रिकार्ड नहीं है” - अजीत संतुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला - “अगर तुमने हमें धोखा देकर भाग निकलने की कोशिश की तो मैं एक गुमनाम पत्र के साथ ये तस्वीरें पुलिस को भेज दूंगा । फिर कम से कम हिन्दोस्तान में तो तुम चैन की सांस नहीं ले पाओगे ।”
अजीत सच कह रहा था । उस स्थिति में मेरा पकड़ा जाना बच्चों का खेल था ।
“मेरा भागने का कोई इरादा नहीं है ।” - मैं अपने स्वर के खोखलेपन को छुपाने का भरसक प्रयत्न करता हुआ बोला - “फायदे का सौदा छोड़कर मैं कभी नहीं भागता लेकिन अभी तक किसी ने मुझे यह नहीं बताया है कि इस अभियान की सफलता के बाद मुझे क्या मिलेगा ?”
“वैरी गुड” - अजीत बोला - “अगर तुम यह सवाल न करते तो मैं मान लेता कि तुम पेशेवर मुजरिम नहीं हो ।”
“यह मेरे सवाल का जवाब नहीं ।”
“लूट से हासिल रुपया पांच बराबर भागों में बांटा जायेगा । हम चार जने हैं । नासिर को दो भाग मिलेंगे और बाकी सब को एक एक ।”
“नासिर को दो क्यों ?”
“क्योंकि इसने इस योजना को कार्यान्वित करने के लिए दरकार रकम का इन्तजाम किया है । उस रकम के बिना हम एक कदम भी आगे नहीं बढ सकते । इसलिए नासिर की इस शर्त को कबूल करने में हमें कोई हर्ज नहीं दिखाई देता कि उसे दो हिस्से मिलें ।”
उसके बाद मैं सबसे बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिला कर वहां से विदा हुआ । किसी ने एतराज नहीं किया । केवल जाती बार अजीत ने मुझे से मेरा गांधी नगर का पता पूछा जो मैंने बड़ी शराफत से उसे बता दिया ।
उस रात बहुत देर तक मुझे नींद नहीं आई । मैं लगभग सारी रात इस उधेड़बुन में लगा रहा कि जो कुछ वे सोच रहे थे मुझे उसकी कामयाबी की कतई उम्मीद नहीं थी । वे नातजुर्बेकार नौजवान थे जो शायद अंग्रेजी के थ्रिलर उपन्यास पढ-पढ कर इतना खतरनाक कदम उठाने का इरादा कर बैठे थे । उन्होंने तो मरना ही था साथ ही वे मुझे भी मरवाने वाले थे ।
मुझे कोई तरकीब नहीं सूझी । वह ढोल मेरे गले पड़ चुका था जो कि फिलहाल तो मुझे बजाना ही पड़ना था ।
अपने मुकद्दर को कोसते हुए और वाहे गुरू से रहम की प्रार्थना करते हुए पता नहीं कब मुझे नींद आ गयी ।
***
दिन के साढे नौ बजे थे ।
मैं, अजीत, रश्मि और नासिर चांदनी चौक स्थित यूनियन बैंक आफ इण्डिया के सामने सड़क से पार एक जीप में बैठे हुए थे ।
बैंक के मुख्य द्वार के सामने वह गाड़ी खड़ी थी जो बैंक द्वारा रुपये की आवाजाही के लिये प्रयुक्त होती थी ।
मैं अपना तांगे वाले का लिबास त्याग चुका था और उस समय एक साफ सुथरी बुशर्ट और पतलून पहने हुए था । उस बेहूदे चश्मे को भी मैं तिलांजलि दे चुका था जो मैं जब से तांगा चला रहा था, इस्तेमाल कर रहा था । उसके स्थान पर अब मैं अब मैं अपना वह सुनहरे रंग के जर्मन फ्रेम वाला चश्मा लगाये हुए था जो उतने ही अरसे से मेरे सूटकेस में बन्द था ।
मैंने एक नयी सिगरेट सुलगा ली ।
रश्मि वगैरह से तेलीवाड़े वाले मकान में पहली मुलाकात के अगले दिन ही मैंने घोड़ा तांगा उसके मालिक को लौटा दिया था और गांधी नगर वाले मकान से किनारा कर लिया था । अजीत मुझे सुन्दर नगर के एक खूबसूरत फ्लैट में छोड़ गया था । उसने मुझे बताया था कि वे लोग विचार विमर्श के लिए तो वहां मिलते ही रहेंगे लेकिन फिलहाल वहां केवल मैं रहूंगा ।
उस फ्लैट के साथ मिले गैरेज में सफेद रंग की नई नकोर एम्बैसेडर बन्द थी ।
सुन्दर नगर नई दिल्ली के धनाढ्य वर्ग की ऐसी कालोनी थी जहां रहने वाले अपने पास पड़ोस के प्रति उदासीन रहना भी फैशन और स्टेटस सिम्बल समझते थे । अड़ोस-पड़ोस से अधिक वास्ता न रखना वहां स्तर और बड़प्पन की निशानी माना जाता था । इस लिहाज से मैं उस फ्लैट में स्वयं को अपेक्षाकृत सुरक्षित महसूस कर रहा था ।
उसी क्षण बैंक के भीतर से एक वर्दीधारी सिक्योरिटी गार्ड निकला और गाड़ी के पास आकर खड़ा हो गया । वह एक लगभग पैंतीस साल का रूखे से चेहरे वाला आदमी था । उसके हाथ में एक दोनाली बन्दूक थी और कमर के साथ एक कारतूसों की पेटी बंधी हुई थी ।
“इस सिक्योरिटी गार्ड का नाम बन्सीराम है ।” - जीप के स्टियरिंग व्हील पर बैठा अजीत बोला - “गाड़ी के साथ बस यही एक सिक्योरिटी गार्ड जाता है । मुझे यह कोई खास मुस्तैद आदमी नहीं दिखाई देता ।”
कोई कुछ नहीं बोला । सबकी निगाहें सड़क से पार बैंक की ओर उठी हुई थीं ।
कुछ क्षण बाद दो चपरासी एक लोहे का बक्सा उठाये हुए बैंक से बाहर निकले ।
“ऐसे ही कैश बक्सों में रुपया बन्द करके ले जाया जाता है ।” - अजीत बोला ।
चपरासी वह बक्सा गाड़ी में लाद कर वापिस बैंक के भीतर चले गये ।
लगभग उल्टे पांव वे फिर एक बक्सा उठाए हुए वापिस लौटे । वह बक्सा भी गाड़ी में लाद दिया गया । इस बार चपरासी वापिस बैंक के भीतर नहीं गए ।
फिर बैंक से एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति बाहर निकला । वह एक टैरीलीन का सूट पहने हुए था और एक मोटे शीशों का चश्मा लगाये हुए था । सूरत से ही वह कोई कैशियर या एकाउण्टेन्ट लग रहा था ।
उसके पीछे-पीछे एक अधेड़ उम्र का वर्दीधारी ड्राइवर बाहर निकला ।
“यह बैंक का बड़ा पुराना ड्राइवर है ।” - अजीत बोला - “शर्मा नाम है इसका । बैंक की यह रुपया ढोने वाली गाड़ी चलाता-चलाता बूढा हो गया है ।”
शर्मा ड्राइविंग सीट पर जा बैठा । उसकी बगल में सूटधारी व्यक्ति और फिर सिरे पर बन्दूक सम्भाले सिक्योरिटी गार्ड बन्सीराम बैठ गया । दोनों चपरासी लोहे के बक्सों के साथ गाड़ी के पृष्ठभाग में सवार हो गये । उन्होंने भीतर घुसते ही पृष्ठभाग का दरवाजा बन्द कर लिया ।
गाड़ी स्टार्ट हुई ।
अजीत ने भी जीप स्टार्ट कर दी ।
मैंनें सिगरेट फेंक दी और सम्भल कर बैठ गया ।
रश्मि मेरी बगल में बैठी थी । नासिर आगे अजीत के साथ बैठा हुआ था ।
बैंक की गाड़ी सड़क पर आ गई और लालकिले की दिशा में बढी ।
अजीत ने बड़े इत्मीनान से अपनी जीप उसके पीछे लगा दी । उसके और बैंक की गाड़ी के बीच में एक कार चल रही थी जिसे वह जानबूझ कर ओवर टेक नहीं कर रहा था ।
एकाएक मेरी निगाह रश्मि से मिली ।
वह बड़ी विचित्र निगाहों से मुझे देख रही थी ।
“क्या देख रही हो ?” - मैं नर्वस स्वर में बोला ।
रश्मि कुछ देर यूं ही मुझे देखती रही । फिर उसके होंठों पर एक कुटिल मुस्कराहट उभरी और वह दांतों में निचला होंठ दबाकर बोली - “सवेरे-सवेरे नहा धोकर तो बड़े खूबसूरत लगते हो ।”
“मुझे कुछ मत कहो ।” - मैं हड़बड़ा कर बोला ।
“बहुत उस्ताद हो । तांगे वाले बनारसी लाल की तो तुम परछाई भी नहीं मालूम होते ।”
“तुम कहना क्या चाहती हो ?”
“मैं यह कहना चाहती हूं कि अगर कोई गहरा हाथ मारने के फेर में हो तो हम लोगों को मत भूल जाना । हम भी तुम्हारे बहुत काम आ सकते हैं जैसे तुम हमारे काम आ रहे हो ।”
“यह पीछे क्या खुसर-पुसर हो रही है ।” - एकाएक अजीत बोला - “मैं तुम लोगों को चांदनी चौक की सैर कराने नहीं लाया । बैंक की गाड़ी की ओर ध्यान दो, विमल ।”
“मेरा ध्यान उधर ही है ।” - मैं बोला - “तुम लड़की को समझाओ ।”
“मैं चुप हूं ।” - रश्मि बोली ।
बैंक की गाड़ी लालकिले के सामने से मोड़ काटकर नेताजी सुभाष मार्ग पर घूम गई । फिर एडवर्ड पार्क, फिर दरियागंज, फिर दिल्ली गेट और वहां से दांये घूम कर सीधे जवाहर लाल नेहरू मार्ग ।
“दिल्ली गेट तक तो बैंक की गाड़ी रोक पाने का तो कोई सवाल ही नहीं है ।” - मैं बोला ।
“बिल्कुल ठीक बोला ।” - अजीत बोला - “दरियागंज का यह टुकड़ा दिल्ली का सबसे ज्यादा भीड़ वाला इलाका है ।”
“आगे मिन्टो रोड के मोड़ तक भी यही हाल है ।” - नासिर बोला ।
“हूं” - अजीत बोला - “लेकिन कम ।”
“ऐसी डे लाइट राबरी के लिए यह सारा इलाका ही अनुपयुक्त है ।” - मैं बोला ।
“देखते जाओ ।” - अजीत बोला - “अभी सारा, इलाका देखा कहां है तुमने ।”
मैं चुप हो गया ।
बैंक की गाड़ी मिन्टो रोड से मोड़ घूम गयी ।
उस मोड़ के ओर मिन्टो ब्रिज के बीच के टुकड़े पर मोटर ट्रैफिक काफी कम था और पैदल चलने वाला तो कोई इक्का-दुक्का ही था वहां । उस रास्ते की दूसरी विशेषता यह थी कि वहां बाई लेन बहुत थी ।
बैंक की गाड़ी कनाट प्लेस का भीतरी दायरा घूम कर पार्लियामेंट स्ट्रीट में दाखिल हो गई । उसके बाद वह सीधी रिजर्व बैंक के कम्पाउन्ड में ही जाकर रुकी ।
अजीत रुपया उतरता देखने के लिए वहां नहीं रुका । वह जीप को सीधी आगे बढ़ाकर ले गया ।
पी. टी. आई. बिल्डिंग के सामने उसने जीप रोक दी ।
“बैंक की गाड़ी के ड्राइवर शर्मा की दो आदतें नोट करने वाली हैं ।” - अजीत बोला - “एक तो वह गाड़ी को निर्धारित स्पीड लिमिट से ज्यादा तेज कभी नहीं चलाता और दूसरे वह कभी किसी अन्य गाड़ी को ओवर टेक करने की कोशिश नहीं करता ।”
“उसने चांदनी चौक से रिजर्व बैंक तक आने में पच्चीस मिनट लगाये हैं ।” - मैं बोला ।
“वैरी गुड ।” - अजीत प्रशंसात्मक निगाहों से मेरी ओर देखता हुआ बोला - “फिर तो तुमने यह भी नोट किया होगा कि उस समय में से सत्रह मिनट उसने मिन्टो रोड के मोड़ तक पहुंचने में लगाये हैं और आठ मिनट में उसने रिजर्व बैंक तक का बाकी फासला तय किया है । ऐसा क्यों ?”
“पहली वजह तो यही है कि पहले फासले में ट्रेफिक बहुत ज्यादा है और दूसरी वजह यह है कि उस फासले में चार ट्रैफिक सिग्नल आते हैं जिनमें से दो 3-3 फेज के हैं । मगर पहले से ही बत्ती हरी न हुई हो तो तीन फेज के सिग्नल पर मोटरिस्ट को अपेक्षाकृत ज्यादा रुकना पड़ता है । बाकी रास्ते में भी चार सिग्नल हैं लेकिन वे बहुत जल्दी-जल्दी रंग बदलते हैं और संयोगवश उन चार सिग्नलों में से तीन पर हमें रुकना नहीं पड़ा था । फिर बाकी रास्ते में केवल मोटर ट्रैफिक ही है जबकि चांदनी चौक से मिन्टो रोड के मोड़ तक, विशेष रूप से दिल्ली गेट तक और भी विशेष रूप से लालकिले वाले चौराहे तक रिक्शा, तांगे, रेहड़े, साइकलें और पैदल चलने वाले गाड़ी की रफ्तार से नहीं चलने देते ।”
अजीत, नासिर खां और रश्मि की आपस में निगाहें मिलीं । दोनों मुझसे बेहद प्रभावित दिखाई देने लगे थे ।
“मैंने पहले ही कहा था सुरेन्द्रसिंह बहुत करामाती चीज है ।” - रश्मि बोली ।
मैंने आंखें तरेर कर उसकी ओर देखा ।
“आई मीन, विमल साहब ।” - वह हड़बड़ा कर बोली - “सॉरी ।”
“कहने की जरूरत नहीं ।” - अजीत बोला - “अगर हम कुछ कर सकते हैं तो मिन्टो रोड पर ही कर सकते हैं ।”
“करैक्ट ।” - नासिर खां पहली बार बोला ।
“मिन्टो रोड वापिस चला जाये ।” - रश्मि बोली ।
उत्तर में अजीत ने पार्लियामेंट हाउस के आयरन गेट के सामने से जीप घुमाई और उसे वापिस उसी रास्ते पर भगा दिया जिधर से वे आये थे ।
“आज बैंक की गाड़ी में केवल दो बक्से लादे गये थे ।” - रास्ते में मैं बोला - “जाहिर है कि आज थोड़ा रुपया ले जाया गया है । अगर तुम्हारी सूचना ठीक है कि 28 सितम्बर को चालीस लाख रुपया ले जाया जाने वाला है तो उस रोज ये बक्से भी कई होंगे । लेकिन अगर छोटे नोट ज्यादा हुए तो बक्से ज्यादा भी हो सकते हैं ।”
“और रुपया भी चालीस लाख से ज्यादा हो सकता है ।” - नासिर खां बोला ।
“फिर तो सम्भव है, उस दिन हिफाजत के लिये सिर्फ बन्सीराम ही अकेला सिक्योरिटी गार्ड न हो । सम्भव है उस रोज सिक्योरिटी गार्ड दो हों या तीन हों ।”
“नहीं ।” - अजीत विश्वासपूर्ण ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला - “सिक्योरिटी गार्ड उस रोज भी केवल बन्सीराम ही होगा । मैंने इस बैंक की बहुत बड़ी-बड़ी रकमें रिर्जव बैंक तक ढोई जाती देखी हैं लेकिन आज तक गाड़ी में बन्सीराम के अलावा कोई सिक्योरिटी गार्ड नहीं देखा ।”
“क्या ड्राइवर भी सशस्त्र होता है ?”
“यह चैक करने का तो हमें ख्याल नहीं आया” - अजीत खेदपूर्ण स्वर से बोला - “लेकिन हम पता लगा लेंगे । यह कोई बड़ी बात नहीं है ।”
मैं चुप हो गया । मैं उन लोगों की योजना और तैयारी से कतई आश्वस्त नहीं था ।
अजीत ने जीप को तिकोना पार्क की बगल में मिन्टो रोड की शिवाजी की विशाल प्रतिमा से अलग करने वाली दीवार के साथ लगाकर खड़ी कर दिया ।
उसके बाद कितनी ही देर हम चारों मिन्टो रोड और उसके आसपास के इलाके के चक्कर काटते रहे । अजीत और नासिर खां ने थामसन रोड और टैगोर रोड की ओर विशेष ध्यान दिया । अजीत अपने साथ उस इलाके का एक विस्तृत नक्शा लाया था जिस पर वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद कुछ नोट करता जा रहा था ।
अन्त में हम लोग वापिस जीप की ओर लौट चले ।
जीप पर हम तेलीवाड़े वाले मकान पर पहुंचे ।
वहां कितनी ही देर अजीत के चिन्हित नक्शे के संदर्भ में योजना पर विचार विमर्श होता रहा ।
मैंने एक गहरी सांस ली । उन लोगों की अपने इरादों से बाज आने की कतई नीयत नहीं दिखाई देती थी ।
शाम को मैं एक स्कूटर में सुन्दर नगर वाले फ्लैट में लौट गया ।
मेरे पीछे-पीछे ही मकान मालकिन का नौकर मेरे पास पहुंचा ।
“बीबी जी ने किराये की रसीद भेजी है, साहब ।” - वह बोला और उसने एक दोहरा किया हुआ कागज थमा दिया ।
वह जाने के लिये मुड़ा । मैंने उसे हाथ के इशारे से रुकने के लिये कहा । वह चौखट के पास ठिठक गया । मैंने कागज खोला । वह किराये की पन्द्रह सौ रुपये की रसीद थी । किरायेदार की जगह विमल कुमार खन्ना लिखा हुआ था ।
“मैं तुम्हारी मालकिन से एक मिनट बात करना चाहता हूं” - मैं नौकर से बोला - “वे यहीं आयेंगी या मैं उनके पास चलूं ।”
“आप चलिये ।” - नौकर बोला ।
मैं नौकर के साथ मकान मालकिन के पास पहुंचा ।
“आप मुझे जानती हैं ?” - मैंने सीधा प्रश्न किया ।
“आप खन्ना साहब होंगे !” - वह सहज स्वर में बोली ।
“होंगे ?”
“जी हां । किराये की बात करने तो आपकी ऑटोमोबाइल कम्पनी का मैनेजर आया था लेकिन वह हमें तभी बता गया था कि रहना आपने है ।”
“मेरी ऑटोमोबाइल कम्पनी का मैनेजर आया था ?”
“जी हां । वही किराया एडवान्स देकर गया था । आपको मालूम ही होगा ?”
“जी हां, जी हां, मालूम है । यह रसीद” - मैंने उसे किराये की रसीद दिखाई - “उसी ने आपके मेरे नाम से काटने के लिये कहा था ?”
“जी हां ।”
“आई सी ।”
“कोई गड़बड़ है क्या, खन्ना साहब ?”
“जी नहीं, जी नहीं । कोई गड़बड़ नहीं है । नमस्ते ।”
मैं वापिस लौट आया ।
उस रसीद ने मुझे तनिक विचलित कर दिया था ।
अगले दिन मैंने रसीद की बात अजीत से की ।
“भई, किसी के नाम तो रसीद कटनी ही थी ।” - उसका जवाब बड़ा सहज और सरल था - “तुम्हें मैंने पहले कहा था कि अधिकतर तुम्हीं ने वहां रहना है । सो मैंने रसीद तुम्हारे नाम कटवा दी । ऑटोमोबाइल कम्पनी वाली बात केवल तुम्हारा रोब गांठने के लिये ही कही गयी थी । और फिर विमल कुमार खन्ना कौन सा तुम्हारा असली नाम है ।”
मुझे आश्वस्त हो जाना चाहिए था ।
मैं आश्वस्त नहीं हुआ । मेरे मस्तिष्क के किसी कोने में सन्देह का बीज पनप रहा था ।
***
28 सितम्बर 1973 ।
सफेद एम्बैसेडर जवाहरलाल नेहरु मार्ग पर मिन्टो रोड के मोड़ से थोड़ा पहले खड़ी थी । उसके आगे और पीछे लगी नम्बर प्लेटों पर मिट्टी थुपी हुई थी । ऐसा लगता था जैसे कार किसी कीचड़ वाले स्थान से गुजरी हो और मिट्टी पहियों से उछल कर नम्बर प्लेट पर छिटक गयी हो लेकिन वास्तव में नम्बर प्लेटों पर मिट्टी अजीत ने जानबूझ कर थोपी थी ताकि नम्बर न पढा जा सके । मैं ड्राइविंग सीट पर बैठा स्टियरिंग थपथपा रहा था । रश्मि मेरी बगल में बैठी थी । उसकी गिद्ध जैसी निगाहें अपने पीछे जवाहर लाल नेहरु मार्ग पर दूर-दूर तक दौड़ रही थीं ।
दस बजने में दस मिनट बाकी रह गये थे ।
ज्यों-ज्यों समय समीप आता जा रहा था, मेरे दिल की धड़कनें तेज होती जा रही थीं और मेरा मुंह सूखता जा रहा था । रह-रहकर मैं अपने सूखे-होंठों पर जबान फेर रहा था ।
रश्मि एकदम शान्त थी । उस समय वह एक बैलबाटम पतलून और एक मर्दों जैसी कालर वाली कमीज पहने हुऐ थी । उसने अपने सिर पर एक गोल्फ कैप जैसी टोपी लगाई हुई थी । जिसमें उसके कटे बाल पूरी तरह समा गये थे । उस लिबास में वह लड़की कम और लड़का ज्यादा मालूम होती थी ।
उसकी पतलून की सामने की जेब में एक आठ एम. एम. की भरी हुई पिस्तौल मौजूद थी जो उसे नासिर खां ने दी थी । नासिर खां के पास एक बिना लाइसेंस की .32 कैलिबर की रिवॉल्वर थी । अजीत के पास मैंने शुरू में ही .45 कैलिबर की वैबले एण्ड स्काट रिवॉल्वर देखी थी । केवल मैं निहत्था था । किसी ने मेरे पास कोई हथियार होना जरूरी नहीं समझा था ।
बैंक की गाड़ी किसी भी क्षण वहां प्रकट हो सकती थी ।
मुझे अच्छी तरह मालूम था, मुझे क्या करना था ।
हर किसी को अच्छी तरह मालूम था कि उसे क्या करना था ।
जीरो आवर आने से पहले डकैती के दो रिहर्सल किये जा चुके था ।
कहने को कहीं किसी प्रकार की गड़बड़ की गुंजाइश नहीं थी । सब कुछ केवल बारह मिनट में निर्विघ्न निपट जाने वाला था । रश्मि के कथनानुसार बहुत जल्दी ही मैं कम-से-कम आठ लाख रुपये की मोटी रकम का स्वामी बनने वाला था ।
“एक बात बताओगी ?” - एकाएक मैं बोला ।
“पूछो ।” - रश्मि ने केवल एक क्षण के लिए मुझ पर निगाह डाली और फिर वापिस सड़क पर देखने लगी ।
“तुम कौन हो ?”
“यह क्या सवाल हुआ ? लड़की हूं और कौन हूं ?”
“लड़की तो तुम मुझे भी दिखाई दे रही हो । मेरा मतलब है लड़की होने के अलावा तुम कौन हो, नासिर खां और अजीत कौन और इन लोगों से तुम्हारा क्या रिश्ता है ?”
“मेरा तुमसे क्या रिश्ता है ?”
“कुछ भी नहीं ।”
“एग्जैक्टली । यही रिश्ता मेरा इन लोगों के साथ है । हम तीनों भोपाल के रहने वाले हैं । मैं वहां पढती हूं । अजीत का वहां के किलोल पार्क में काफी बार है । नासिर खां वहां के एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क है ।”
“तुम तीनों एक दूसरे के सम्पर्क में कैसे आ गये ?”
“बस आ गये” - रश्मि लापरवाही से बोली - “तकदीर ने मिला दिया ।”
“यह डकैती की योजना वास्तव में किसके दिमाग की उपज है ? अजीत के ? या नासिर खां के ?”
रश्मि ने गर्दन घुमाकर मेरी ओर देखा और फिर बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से मुस्कराई ।
“ओह मार्ई गॉड !” - मेरे नेत्र फैल गये - “कहीं तुम ही तो सारे फसाद की जड़ नहीं हो ?”
“अच्छी-अच्छी, मीठी-मीठी बातें करो, नहीं तो मेरा दिल टूट जायेगा ।”
“कमाल है । लगता है तुम तो गलती से हिन्दुस्तान में पैदा हो गयी हो । तुम्हें तो शिकागो में पैदा होना चाहिए था । तुम तो...”
“गाड़ी आ रही है ।” - एकाएक रश्मि तत्पर स्वर में बोली ।
मैं संभलकर ड्राइविंग सीट पर बैठ गया । मैंने फौरन कार का इग्नीशन ऑन किया, कार को गियर में डाला और फिर रियर-व्यू मिरर में निगाह डाली ।
बैंक की रुपया ढोने वाली गाड़ी नार्मल रफ्तार से मेरी ओर बढ रही थी उसके एकदम पीछे जीप थी ड्राइविंग सीट पर अजीत मौजूद था । उस समय बैंक की गाड़ी और जीप के बीच में कोई अन्य गाड़ी नहीं थी । दोनों गाड़ियों के बीच में मुश्किल से पांच फुट का फासला था ।
ज्यों ही बैंक की गाड़ी मेरे थोड़े और समीप पहुंची, मैंने एक्सीलेटर पर पांव दबाया । एम्बैसेडर तुरन्त आगे बढ़ी । अब मेरे पीछे बैंक की गाड़ी थी और उसके पीछे अजीत की जीप थी । अजीत की बगल में नासिर खां बैठा था ।
मैंने एम्बैसेडर को मिन्टो रोड पर मोड़ा । गाड़ी मेरे पीछे मुड़ी । उसके तुरन्त पीछे मैंने जीप को मुड़ते देखा । संयोगवश उस समय उन तीनों गाड़ियों के आसपास कोई गाड़ी नहीं थी ।
रश्मि के होंठ भिंचे हुए थे और जबड़े कसे हुए थे । वह यूं सीट पर बैठी थी जैसी कोई चील उड़ने के लिए पर तोल रही हो ।
“एक दो तीन चार पांच...”
मैंने तेजी से होंठों में गिनती गिनना आरम्भ कर दिया ।
“छः सात आठ नौ दस...”
एक डी.टी.यू. की बस जीप के पीछे दिखाई दी और अगले ही क्षण वह तेजी से तीनों गाड़ियों को ओवर टेक करती हुई आगे बढ गयी ।
“ग्यारह बारह तेरह चौदह पन्द्रह....”
बैंक की गाड़ी की ड्राइविंग सीप पर ड्राईवर शर्मा की बगल में दो बाबू से लगने वाले आदमी बैठे थे जो शायद कैशियर थे । पीछे कितने आदमी थे यह साफ मालूम नहीं हो रहा था ।
“सोलह सतरह अट्ठारह उन्नीस...”
अभी भी उन तीनों गाड़ियों के आसपास कोई गाड़ी नहीं थी । एक मोटर साईकल सर्र से उनकी बगल से गुजर गयी । सड़क के किनारे-किनारे चलता इक्का-दुक्का पदयात्री दिखाई दे रहा था ।
“बीस !”
बीस गिनते ही मैंने पूरी शक्ति से ब्रेक के पैडल पर अपना पांव दबा दिया ।
पीछे तीव्र विरोधपूर्ण आवाज में बैंक की गाड़ी का हार्न बजा ।
ब्रेक की चरचराहट से वातावरण गूंज गया ।
एम्बैसेडर तब तक एकदम गति शून्य हो चुकी थी ।
बैंक की गाड़ी भी एकदम उसके पीछे आकर रुक गयी थी । उसका अगला बम्पर एकदम एम्बैसेडर के पिछले बम्पर से छू रहा था ।
जीप भी बैंक की गाड़ी के एकदम समीप आ खड़ी हुई थी ।
रश्मि ने भड़ाक से एम्बैसेडर का दरवाजा खोला और बाहर कूद गई । पिस्तौल उसके हाथ में थी ।
अजीत और नासिर खां जीप के पूरी तरह गतिशून्य होने से पहले ही सड़क पर कूद आये थे ।
किसी के भी कुछ समझ पाने से पहले अजीत ने एक झटके से बैंक की गाड़ी के पृष्ठभाग के दरवाजे के दोनों पल्ले खोले और उसने बेहिचक गाड़ी के पृष्ठभाग में तीन वर्दीधारी चपरासियों के साथ बैठे सिक्योरिटी गार्ड को शूट कर दिया । .45 कैलिबर की भारी गोली गार्ड की कनपटी से टकराई । उसके मुंह से बोल भी नहीं फूटा और वह औंधे मुंह नोटों से भरे बक्सों के ऊपर आ गिरा ।
अजीत गाड़ी की साइड से सामने को दौड़ा ।
मैंने घड़ी पर दृष्टिपात किया ।
ठीक दस बजे थे ।
नासिर खां बैंक की गाड़ी के पृष्ठभाग के फुटबोर्ड पर चढ़ गया । फिर उसकी कर्कश आवाज मेरे कानों में पड़ी - “खबरदार चुप रहो । नहीं तो गोली मार देंगे ।”
अजीत पलक झपकते ही गाड़ी की ड्राइवर वाली साइड में पहुंचा ।
दूसरी ओर के दरवाजे पर रश्मि पहुंच चुकी थी ।
बिजली की फुर्ती से अजीत ने ड्राइवर की साइड वाला दरवाजा खोला और इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, उसने उसे गाड़ी से बाहर घसीट लिया । उसने ड्राइवर को गाड़ी से बाहर फेंका और उस पर गोली चला दी ।
गोली ड्राइवर शर्मा के पेट में लगी । वह सड़क पर पड़ा । मछली की तरह तड़पने लगा ।
घटनास्थल से थोड़ी परे लोगों की भीड़ इकट्ठी होने लगी थी ।
नासिर खां ने हवा में एक फायर किया ।
गोली की आवाज तमाशाइयों के लिए पर्याप्त चेतावनी थी ।
कुछ पीछे हट गये । कुछ तितर-बितर हो गये । किसी ने आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं की ।
नासिर खां ने सिक्योरिटी गार्ड की दोनाली बन्दूक अपने अधिकार में कर ली और उसकी कमर से कारतूसों की पेटी भी उतार ली ।
पीछे बैठे चपरासी और आगे बैठा कैशियर थरथर कांप रहे थे ।
रश्मि के संकेत पर दोनों कैशियर गाड़ी से नीचे उतर आये । रश्मि ने अपनी पिस्तौल अपनी पतलून की बैल्ट में खोंस ली और लपक कर गाड़ी की खाली ड्राइविंग सीट पर पहुंच गयी । बड़ी दक्षता से उसने इंजन फिर चालू कर दिया ।
कैशियरों की देखा-देखी चपरासियों ने भी गाड़ी से बाहर निकलने का इरादा किया लेकिन नासिर खां की एक ही घुड़की से वे अपने-अपने स्थानों पर सिकुड़ गये ।
नासिर खां कूद कर गाड़ी के पिछले भाग में चढ गया । पिछला दरवाजा उसने खुला रहने दिया । उसने रश्मि को संकेत किया ।
रश्मि ने मुझे संकेत किया ।
मैंने एम्बैसेडर के ब्रेक पैडल से पांव हटा लिया । एम्बैसडर तुरन्त आगे को भागी । मैंने एम्बैसेडर को क्वार्टरों के बीचे से गुजरती एक अन्य बाई लेन पर मोड़ दिया ।
उसके एकदम पीछे-पीछे रश्मि बैंक की गाड़ी चला रही थी ।
अजीत जीप पर सवार हो चुका था और अब जीप भी उनके पीछे आ रही थी ।
पीछे सड़क पर पड़ा अपने ही खून में नहाया हुआ ड्राइवर शर्मा तड़प रहा था । उसके समीप किमकर्तव्यविमूढ से दोनों कैशियर खड़े थे । थोड़ी दूर तमाशाई जमघट लगाये खड़े थे । किसी ने एक कदम भी घायल ड्राइवर की ओर उठाने की कोशिश नहीं की थी । सड़क पर पड़े शर्मा से अधिक से अधिक पांव गज दूर से प्राइवेट कारें, टैक्सियां, स्कूटर और बसें गुजर रही थीं । किसी को भी घायल ड्राइवर की ओर ध्यान देने की फुरसत नहीं थी ।
रश्मि ने बैंक की गाड़ी थामसन रोड के समीप के झाड़ियों के झुरमुट के पीछे ला खड़ी की । मैं एम्बैसेडर के साथ पहले ही वहां पहुंच गया था । अजीत ने जीप थोड़ी दूर खड़ी की और कूदकर बाहर निकल आया । वह बैंक की गाड़ी के पृष्ठ भाग में पहुंचा । मैं भी एम्बैसेडर से बाहर निकल आया । रश्मि भी हमारे समीप पहुंच गयी । नासिर खां ने लोहे के बक्से उठाकर बैंक की गाड़ी के खुले दरवाजे के समीप रखने शुरू कर दिये । कुल सात बक्से थे । पलक झपकते ही वे एम्बैसेडर की डिकी में और उसकी पिछली सीट पर लाद दिये गये ।
मैंन जो आखिरी बक्सा उठाया, उसके एक किनारे से सिक्योरिटी गार्ड की कनपटी से निकलकर गिरा खून टपक रहा था । गहरे लाल खून की तीन चार बूंदें मेरी पतलून पर भी टपक गईं । मैंने उस बक्से को कार की पिछली सीट पर फेंका ।
रश्मि ने डिकी का ढक्कन गिराया और उसे मजबूती से बंद कर दिया ।
सरकारी क्वार्टरों की खिडंकियां पटापट खुल रही थीं । लोग उनमें से बाहर झांक रहे थे और सारा दृश्य देख रहे थे लेकिन किसी की भी हमारे काम में हस्तक्षेप करने की हिम्मत नहीं हुई ।
तीनों चपरासी पत्थर की प्रतिमाओं की तरह गाड़ी के पृष्ठभाग में सिकुड़े बैठे थे । सब अपने-अपने इष्टदेवों को याद कर रहे थे । पता नहीं उनका अंजाम, कैशियरों जैसा होने वाला था या ड्राइवर और गार्ड जैसा ।
नासिर खां ने भड़ाक से उनके मुंह पर दोनों दरवाजे बन्द कर दिये । वह और अजीत जीप की ओर लपके । दोनों के हाथों में रिवाल्वरें फिर प्रकट हो गयी थी । दोनों जीप में सवार हो गये ।
इस बार भी ड्राइविंग सीट पर अजीत था ।
मैंने कार कनाट प्लेस की ओर भगा दी ।
अपने आप ही मेरी निगाह कलाई पर बंधी घड़ी की ओर उठ गई ।
दस बजकर नौ मिनट हुए थे ।
रश्मि रह-रह कर पिछली खिड़की से अपने पीछे सड़क पर देख रही थी ।
कोई उनके पीछे नहीं लगा हुआ था ।
पीछे केवल अजीत की जीप दिखाई दे रही थी ।
कनाट प्लेस में मैंने कार बाराखम्बा रोड पर मोड़ दी ।
एक बार मेरी निगाह रश्मि से मिली । उसके चेहरे पर कामयाबी की चमक थी, होंठों पर संतोष की मुस्कराहट थी और आंखों में सुन्दर भविष्य के सपने तैर रहे थे ।
मण्डी हाउस के चौराहे से मैंने कार को भगवानदास रोड पर डाल दिया ।
फिर मथुरा रोड ।
मथुरा रोड से सुन्दरनगर ।
मैंने कार को अपने फ्लैट के सामने ला खड़ा किया ।
उस समय आस-पड़ोस के कोई आदमी नहीं दिखाई दे रहा था ।
रश्मि लपक कर कार से उतरी । उसने आगे बढकर गैरेज का दरवाजा खोल दिया । मैंने कार गैरज में घुसा दी । रश्मि ने मेरे पीछे बड़े-बड़े पल्लों वाला दरवाजा बन्द कर दिया ।
मैं भी कार से बाहर निकल आया ।
गैरेज में अंधेरा था । मैंने गैरेज की बत्ती जला दी ।
“मुबारक हो ।” - मैं रश्मि से बोला ।
“तुम्हें भी ।” - रश्मि दमकती हुई बोली ।
“इतने रुपयों का करोगी क्या ?”
“तुम क्या करोगे ?”
“पहले रुपये हाथ तो आयें ।”
“अब रुपये हाथ आने में क्या कसर रह गयी है । अपना हिस्सा तुम सौ फीसदी अपने हाथ में समझो ।”
“ठीक कह रही हो । मुझे अभी से नोटों की गर्मी पहुंच रही है ।”
“क्या करोगे रुपयों का ?”
“कोई जाली पासपोर्ट जुटाऊंगा और फिर किसी सुरक्षित तरीके से हिन्दुस्तान से कूच करने की सोचूंगा । यहां तो हर क्षण अगला कदम मौत के मुंह में पड़ता महसूस होता है ।”
“इस काम के लिये तो बहुत थोड़ा रुपया ही काफी है । बाकी का क्या करोगे ?”
“बाकी मेरे किस काम का । यहीं छोड़ जाऊंगा । तुम्हें दे दूंगा ।”
“सच !” - रश्मि हर्षित स्वर में बोली ।
“रुपया बहुत अच्छा लगता है तुम्हें ?”
“रुपया किसे अच्छा नहीं लगता, । रुपया हो तो सब कुछ है आजकल । गरीब आदमी की जिन्दगी भी कोई जिन्दगी है ।”
उसी क्षण दरवाजे पर दस्तक हुई ।
रश्मि ने पहले दरवाजे की दरार में आंख लगाकर बाहर झांका और फिर दरवाजा खोल दिया ।
बाहर अजीत और नासिर खां खड़े थे । उनके पीछे जीप खड़ी दिखाई दे रही थी ।
दोनों भीतर आ गये ।
रश्मि ने दरवाजा फिर बन्द कर दिया ।
“कैसी रही ?” -  उत्साह से अजीत का चेहरा लाल हो रहा था ।
मैं मुस्कराया ।
“माल का जलवा तो दिखवाओ ।” - नासिर खां बोला ।
“जल्दी क्या है ?” - रश्मि बोली - “पहले उससे ज्यादा जरूरी काम कर लें ।”
“अरे, कम से कम एक बक्सा तो खोलो ।” - नासिर खां बेसब्रेपन से बोला ।
मैं एम्बैसेडर की पिछली सीट पर पड़ा एक बक्सा उतार लाया ।
एक लोहे की छड़ की सहायता से उसका ताला तोड़ा गया ।
बक्सा सौ-सौ के और दस-दस के नोटों की गडि्डयों से भरा पड़ा था ।
सबके चेहरों पर हजार-हजार वाट के बल्ब जलने लगे ।
रश्मि नोटों पर यूं हाथ फेरने लगी जैसे अपने नवजात शिशु को प्यार कर रही हो ।
“बन्द करो ।” - अजीत का सम्मोहन सबसे पहले टूटा ।
बक्से का ढक्कन गिरा दिया गया ।
बाकी के छ: बक्से भी कार से बाहर निकाल लिये गये ।
एक कोने में पानी की बाल्टी और कई झाड़न पड़े थे । हम चारों ने एक-एक झाड़न उठा लिया और उसे पानी से भिगो-भिगो कर बड़ी बारीकी से कार की सफाई करने लगे । कार की दोनों नम्बर प्लेट साफ की गयी । कार के भीतर टपका खून बड़ी सावधानी से साफ किया गया । बक्सों पर से भी खून साफ किया गया ।
अन्त में सफाई अभियान समाप्त हुआ ।
अब कहीं खून दिखाई दे रहा था तो वह मेरी पतलून पर टपकी हुई चंद बूंदें - जो मैं फ्लैट में जाकर नहाते समय साफ करने वाला था ।
रश्मि ने गैरेज का दरवाजा खोला । अजीत बाहर निकल आया ।
वह जीप में जा सवार हुआ । उसने जीप को चालू किया और उसे यूं गैरेज के सामने ला खड़ा किया कि जीप पिछला भाग एकदम गैरेज के दरवाजे के साथ आ लगा ।
नोटों से भरे सातों बक्से जीप के पिछले भाग में लाद दिये गये और फिर उन्हें एक तिरपाल से बड़ी अच्छी तरह ढांप दिया गया ।
फिर नासिर खां भी जीप में जा बैठा ।
“तुम दोनों फ्लैट में ठहरो” - अजीत बोला - “हम माल किसी सुरक्षित ठिकाने पर लगा कर आते हैं ।”
रश्मि ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
जीप रवाना हो गयी ।
मैं और रश्मि गैरेज में ताला लगाकर प्लैट में आ गये ।
मैं सीधा बाथरूम में घुस गया ।
सबसे पहले मैंने कपड़े उतारे और सावधानी से पतलून से खून के धब्बे साफ करने लगा ।
एक छोटा सा धब्बा मुझे अपनी बुशशर्ट पर भी मिला । मैं उसे भी साफ करना आरम्भ कर दिया ।
“रश्मि !” - एकाएक मैं बोला ।
“हां ।” - बाथरूम के बन्द दरवाजे के बाहर से आवाज आई ।
बाथरूम का एक दरवाजा बैडरूम में खुलता था । रश्मि बैडरूम में थी ।
“क्या कर रही हो ?” - मैंने पूछा ।
“सपने देख रही हूं ।” - उत्तर मिला ।
“कैसे सपने ?”
“बहुत रंगीन । बहुत खूबसूरत । खूबसूरत पोशाकों के सपने, बीस-बीस फुट लम्बी कारों के सपने, शहजादों जैसे खूबसूरत और सलीके वाले नौजवानों के सपने ।”
“ये सपने कहीं एक ही झटके में चूर न हो जायें ।”
“तुम्हारे मुंह में खाक ।”
“अजीत और नासिर खां माल समेत रफूचक्कर हो गये हैं । तुम्हें उम्मीद है वे लौट कर आयेंगे ?”
“तुम्हें वहम की बीमारी मालूम होती है । धोखाधड़ी की जैसी सम्भावनाएं तुम सोचते हो वे केवल जासूसी उपन्यासों में ही होती हैं । वास्तविक जीवन में ऐसी नहीं होती ।”
“देखते हैं । तुम्हें कब तक उम्मीद है उनके लौट आने की ?”
“शाम तक ।”
“तब तक क्या करोगी ?”
“तब तक सपने देखूंगी ।”
“सपनों में कभी मैं दिखाई दूं तो बताना ।”
“मेरे सपनों में तुम्हारा क्या काम ?”
“क्यों ? अगर अजीत और नासिर खां की नीयत हमें धोखा देने की नहीं है तो मैं भी तो अब रईस हूं और थोड़ा-बहुत खूबसूरत भी हूं ।”
“तुम ठीक कह रहे हो, मेरे सपनों में तुम्हारी भी गुंजायश है ।”
“थैंक्यू ।”
“नैवर माइन्ड ।” - वह बड़ी दयानतदारी से बोली ।
पतलून और कमीज की मुनासिब सफाई से सन्तुष्ट होकर मैंने उन्हें एक ओर टांग दिया । मैंने अपना चश्मा उतार कर खिड़की की सिल पर रख दिया और शावर खोल दिया । पानी बरसात की तरह बाथरूम के टाइलों वाले पर्श पर गिरने लगा ।
“सुरेन्द्र जी ।” - रश्मि की मीठी आवाज आई ।
“तुम बाज नहीं आओगी !” - मैं तनिक क्रोधित स्वर में बोला ।
“ओह । सॉरी । विमल !”
“हां ।”
“क्या कर रहे हो ?”
“नहाने की तैयारी कर रहा हूं ।”
“यह आवाज कैसी है ?”
“शावर के पानी की ।”
“बड़ी मीठी आवाज है ।”
फिर चुप्पी ।
मैं शावर के नीचे खड़ा हो गया ।
“विमल !”
“हां ।”
“क्या कर रहे हो ?”
“शावर के नीचे खड़ा हूं ।”
“मैं तुम्हें एक अच्छी खबर सुनाना चाहती हूं ।”
“क्या ?”
“अभी तुम मेरे सपने में आये थे ।”
“अच्छा ।”
“हां ।”
“क्या देखा तुमने ?”
“मैंने देखा, मैं तुम्हारे साथ एक शावर के नीचे खड़ी हूं ।”
“झूठ ।”
“एकदम सच । मेरे सपने कभी झूठे नहीं होते ।”
उसी क्षण धीरे से बाथरूम का दरवाजा खुला ।
मैंने घूमकर देखा और फिर मेरा मुंह खुले का खुला रह गया और नेत्र फैल गये ।
रश्मि मेरे सामने खड़ी थी उसके पुष्ट और जवान शरीर पर कपड़े की एक धज्जी भी नहीं थी ।
वह मुझे देखकर मुस्कराई और छोटे-छोटे कदम रखती हुई मेरी ओर बढी ।
वह मेरे एकदम समीप शावर के नीचे आ खड़ी हुई ।
उसके उन्नत उरोज मेरी छाती को छूने लगे । मेरा शरीर अंगारे की तरह तप उठा । शावर का ठंडा पानी अंगारों पर पड़ रहा था लेकिन तपिश कम नहीं हो रही थी ।
मैंने हाथ बढा कर अपना चश्मा उठा लिया और उसे अपनी नाक पर लगा लिया ।
रश्मि ने हैरानी से मेरी ओर देखा ।
“मुझे तुम ठीक से दिखाई नहीं दे रही थी ।” - मैं हकलाता हुआ बोला ।
“ओह ! कैसा लग रहा है सपना ?”
“बहुत अच्छा ।”
“मैंने नहीं कहा था कि मेरे सपने कभी झूठे नहीं होते ?”
“तुमने ठीक कहा था ।”
स्त्री के सहवास के लिए मैं बरसों से तरसा हुआ था । लेडी शान्ता गोकुलदास ने अपना मतलब हल करने के लिये रिश्वत के तौर पर मुझे हर तरह की छूट देनी चाही थी । एक रात वह समर्पण के इरादे से ही मेरे क्वार्टर में आई थी लेकिन तब मुझे वह सौदा कबूल नहीं हुआ था और मुझे उसके संसर्ग का मोह छोड़ना पड़ा था । सुरजीत से अलग होने के बाद से यह पहला मौका था जब मैं किसी स्त्री के सहवास का सुख पाने जा रहा था और मेरे मन में किसी गुनाह की अनुभूति नहीं थी ।
मेरी बांहें फैलीं और मैंने उसके नग्न शरीर को इतनी जोर से अपने आलिंगन में कस लिया कि उसके मुंह से कराह निकल गयी ।
फिर वह लता की तरह मुझसे लिपट गयी ।
मैं उस पर यूं झपटा जैसे कोई कई दिनों का भूखा भोजन पर झपटता है ।
शावर के ठंडे पानी की बरसात हम दोनों पर होती रही ।