फोन चटर्जी का था चटर्जी एण्ड मुखर्जी नाम की वकीलों की फर्म के सीनियर पार्टनर चटर्जी एक लगभग पचपन वर्ष के प्रौढ व्यक्ति थे और सुनील के अच्छे मित्रों में से थे । सुनील उनका बहुत आदर करता था ।
“यस मिस्टर चटर्जी ।” - सुनील फोन में बोला ।
“सुनील ।” - दूसरी ओर चटर्जी का स्वभावगत गम्भीर स्वर सुनाई दिया - “थोड़ी देर के लिए मेरे आफिस में आ सकते हो ?”
“अभी ?” - सुनील ने पूछा ।
“हां ।”
“क्या बात है ?”
“यहां आओगे तो बताऊंगा ।”
सुनील कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “आल राईट । आई एम कमिंग ।”
“फाइन, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
उसने हैंगर पर से कोट उतार कर पहना, टाई की गांठ ठीक की और कोट के बटन बन्द करता हुआ ब्लास्ट स्थित अपने साउन्डप्रूफ केबिन से बाहर निकल आया ।
“रेणु ।” - वह रिसेप्शन काउन्टर के सामने आकर रिसेप्शनिस्ट रेणु से बोला - “मैं बाहर जा रहा हूं । मलिक साहब पूछें तो बता देना ।”
इससे पहले कि रेणु के मुंह से कोई शरारतभरी बात निकलती, वह मुख्य द्वार से बाहर निकलकर सीढियां उतर रहा था ।
लगभग पंद्रह मिनट बाद वह चटर्जी एण्ड मुखर्जी के आफिस के सामने था ।
उसने अपनी मोटर साइकल स्टैन्ड पर खड़ी की और इमारत के भीतर घुस गया ।
चटर्जी अपने निजी आफिस में एक विशाल मेज के पीछे बैठे हुए थे । उनके सामने एक लगभग बाईस साल की सुन्दर युवती बैठी थी जिसके चेहरे पर चिन्ता और निराशा के गहन चिह्न विद्यमान थे ।
“मार्निंग ।” - सुनील बोला ।
“मार्निंग ।” - चटर्जी कुर्सी पर एकदम सीधे होकर बैठ गए - “बैठो ।”
सुनील युवती के बगल की कुर्सी पर बैठ गया ।
चटर्जी ने एक विचारपूर्ण दृष्टि सुनील पर डाली और फिर बोले - “पहले मैं आप दोनों का परिचय करा दूं । शारदा, यह सुनील है । बड़ा अच्छा और समझदार लड़का है और सुनील, यह शारदा है । इसके चाचा सुन्दरदास हमारे क्लायन्ट रह चुके हैं ।”
“हल्लो ।” - सुनील बोला ।
शारदा ने दोनों हाथ जोड़ दिए लेकिन मुंह से एक शब्द नहीं बोली ! वह बेहद चिन्तित थी ।
“क्या बात थी ?” - सुनील ने एक उड़ती हुई दृष्टि शारदा पर डालते हुए पूछा ।
“पहले यह पत्र पढ लो ।” - चटर्जी उसकी ओर एक कागज सरकाते हुए बोले ।
सुनील ने कागज लेकर पढना आरम्भ कर दिया । लिखा था ।
प्रिय शारदा,
फौरन लौट आओ । राजनगर वापिस लौटते ही घर जाने से पहले मिस्टर चटर्जी से मिलो । मिस्टर चटर्जी वकील हैं और उन्हें तुम जानती भी हो । पत्र के साथ तुम्हारे नाम डेढ लाख रुपये का एक बेयरर चैक है । चटर्जी की सहायता से उसे कैश करवा लो और रुपया चटर्जी के पास ही रहने दो क्योंकि मैं नहीं चाहता कि उस रुपये की किसी को हवा लगे ।
चटर्जी से कहो कि वे मेरी वसीयत तैयार कर दें जिसका आशय यह हो कि मैं अपनी सारी सम्पत्ति तुम्हारे नाम छोड़ रहा हूं । गवाहियों वगैरह का इन्तजाम भी चटर्जी ने ही करना है । वसीयत तैयार हो जाने के बाद वे चुपचाप मेरी कोठी में आकर मेरे हस्ताक्षर करवा लें । मैं इस मामले में किसी भी प्रकार के हंगामे से बचना चाहता हूं । चटर्जी और गवाहों के अतिरिक्त यह बात हरगिज-हरगिज किसी को मालूम नहीं होनी चाहिए कि मैंने तुम्हारे नाम कोई वसीयत की है वर्ना भारी गड़बड़ हो जाने की संभावना है ।
इतना कुछ कर चुकने के बाद ही तुम्हें कोठी में कदम रखना है ।
सस्नेह ।
नीचे सुन्दरदास के हस्ताक्षर थे ।
सुनील ने प्रश्नसूचक दृष्टि से चटर्जी को देखा ।
“इस पत्र के साथ डेढ लाख रुपये का शारदा के नाम बेयरर चैक भी था ।” - चटर्जी ने बताया ।
“किस्सा क्या है ?” - सुनील तनिक बेसब्री से बोला ।
“शारदा सुन्दरदास की भतीजी है ।” - चटर्जी बड़ी सावधानी से शब्दों चयन करते हुए बोले - “लगभग तीन महीने पहले वह ऊटाकमंड चली गई थी ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि इसके कुछ रिश्तेदारों का ख्याल था कि सुन्दरदास की देखभाल के चक्कर में वह अपने स्वास्थ्य की तनिक भी परवाह नहीं कर रही है । इसलिए उन्हीं रिश्तेदारों ने सलाह दी थी कि वह कुछ दिन के लिए स्वास्थ्य लाभ के लिए ऊटी (ऊटाकमंड) चली जाए । ऊटी, तुम जानते हो, एक अच्छा हिल स्टेशन है ।”
“लेकिन हिल स्टेशन के लिए इतनी दूर जाने की क्या जरूरत थी ऊटी तो यहां से कम से कम तीन हजार किलोमीटर दूर है जबकि इससे चौथाई फासले में ऊटी से भी बढिया हिल स्टेशन मसूरी है, शिमला है, श्रीनगर है, नैनीताल है, डलहौजी है...”
“उसका भी एक कारण था ।”
“क्या ?”
चटर्जी ने प्रश्नसूचक दृष्टि से शारदा की ओर देखा ।
“पिछले दिनों में अंकल के कुछ दूर के रिश्तेदार कोठी में आ गए थे ।” - शारदा धीमे स्वर से बोली ।
“कौन ?”
“अंकल के एक भाई शंकरलाल हैं । वह उनकी पत्नी विद्या और एक अन्य व्यक्ति रामनाथ जिसके विषय में मैं केवल इतना जानती हूं कि वह शंकरलाल का मित्र है । उन्हीं लोगों ने अंकल को यह सुझाया था कि अंकल की देखभाल के चक्कर में मेरा स्वास्थ्य गिरता जा रहा है इसलिए मुझे कुछ दिन आराम करने के लिए किसी हिल स्टेशन चला जाना चाहिए । विद्या चाची कहती थी कि अंकल की देखभाल वे कर लेंगी । अंकल मान गए ।”
“और तुम ऊटी चली गईं ?” - सुनील बोला ।
“हां ।”
“तुमने यह नहीं कहा कि जब नजदीक हिल स्टेशन हैं तो इतनी दूर जाने की क्या जरूरत है ?”
“मैंने कहा था । उत्तर में शंकरलाल चाचा ने कहा था कि ऊटी जाने से मैं साउथ के मदुरा त्रिचिनापल्ली, मद्रास, महाबलीपुरम, बंगलौर मैसूर जैसे बड़े-बड़े शहर भी देख सकूंगी ।”
“और तुमने स्वीकार कर लिया ?”
“हां । अंकल भी तो चाहते थे कि मैं कुछ दिन आजादी से घूम-फिर सकूं ।”
“ऊटी कितना अरसा रहीं तुम ?”
“लगभग तीन महीने । अंकल का यह पत्र मिलने पर ही मैं लौटी हूं । आज ही मैं सुबह राजनगर में आयी हूं और पहला काम मैंने यही किया है कि मैंने मिस्टर चटर्जी से सम्बन्ध स्थापित किया है ।”
“तुम्हारे अंकल ने पहले भी कभी तुम्हे इतनी बड़ी रकम का चैक दिया है ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“तो फिर इस बार ऐसा कैसे हो गया ?”
“मैं खुद हैरान हूं ।”
“अंकल के एकाउंट में डेढ लाख रुपया है ?”
“है । जिस समय मैं ऊटी गई थी उस समय अंकल के एकाउन्ट में एक लाख अस्सी हजार रुपये थे ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“अंकल का सारा हिसाब-किताब मैं ही किया करती थी । चैक भी मैं ही बनाती थी । अंकल तो केवल जहां मैं कहती थी वहां साइन कर देते थे ।”
“इतना विश्वास था उन्हें तुम पर ?”
“हां ।”
“तुम्हारे अंकल की आयु क्या है ?”
“लगभग साठ वर्ष ।”
“तुम अपने अंकल के साथ क्यों रह रही हो ?”
“मेरे माता-पिता नहीं हैं ।” - शारदा धीरे से बोली - “जब मैं एक साल की थी तभी मेरे माता पिता एक एक्सीडेंट में मारे गये थे । तभी से मैं सुन्दरदास अंकल के साथ रह रही हूं ।”
“सुन्दरदास की बीवी जिन्दा है ?”
“नहीं । वे बहुत पहले मर चुकी हैं ।”
“घर की देखभाल कौन करता है ?”
“पहले घर में रुकमणी नाम की एक बहुत ही नेक और ईमानदार औरत रहती थी । वह मुझे मां का सा स्नेह किया करती थी, लेकिन दो वर्ष पहले वह भी स्वर्ग सिधार गई । तब से घर की देखभाल मैं ही कर रही हूं ।”
“और तुम्हारे चले जाने के बाद घर की देखभाल का काम तुम्हारी दूसरी चाची विद्या करती रही है ।”
“सम्भव है ।”
“सुन्दरदास तुम्हारे चाचा हैं या ताऊ ?”
“ताऊ । मेरे पिता उनके छोटे भाई थे लेकिन बचपन से ही मैं उन्हें अंकल कहकर पुकारती हूं ।”
सुनील कुछ क्षण चुप रही फिर चटर्जी की ओर मुड़ा ।
“अब किस्सा क्या है ?” - उसने पूछा ।
“आज सुबह बैंक खुलते ही मैं शारदा को साथ लेकर उसका चैक कैश करवाने के लिए बैंक गया था लेकिन चैक कैश नहीं हो सका ।”
“क्यों ?” - सुनील के माथे पर बल पड़ गए ।
“सुन्दरदास के एकाउन्ट में एक नया पैसा भी नहीं था ।”
“क्या ?” - सुनील एकदम हैरानी से बोल उठा ।”
“दैट्स करैक्ट ।”
“कहां गया सारा रुपया ? अभी शारदा ने बताया था कि केवल तीन महीने पहले एक लाख अस्सी हजार रुपये थे सुन्दरदास के अकाउंट में ।”
“बैंक से केवल इतना ही मालूम हो सका है कि सुन्दरदास की सारी जायदाद की हिफाजत के लिए शंकरलाल को ट्रस्टी नियुक्त कर दिया गया है । सुना गया है कि सुन्दरलाल अपना मानसिक सन्तुलन खो चुका है और अब उसमें अपने हिताहित की पहचान करने की क्षमता नहीं है । कहीं वह अपना धन इधर उधर न उजाड़ता फिरे और कहीं वह धन गलत हाथों में न पहुंच जाए इसलिए शंकरलाल ने अदालत में अपील करके स्वयं को सुन्दरदास की सम्पत्ति का टेम्परेरी ट्रस्टी नियुक्त करवा लिया है । उसने ट्रस्टी की हैसियत से सुन्दरलाल का सारा एकाउन्ट अपने नाम ट्रांसफर करवा लिया है ।”
“फिर ?”
“ऐसी सूरत में मैं शारदा को यही सलाह दे सकता था कि वह जाकर अपने अंकल से मिल ले और यही मैंने किया भी । शारदा कोठी पर गई और लगभग एक घन्टे बाद फिर रोती हुई वापिस आ गई ।”
“क्यों ?”
“सुन्दरदास कोठी में नहीं है । रिश्तेदार कहते हैं कि स्नायविक उत्तेजना के कारण वह अपना मानसिक सन्तुलन खो चुका है और इस समय अर्धविक्षिप्त अवस्था में किसी प्राईवेट नर्सिंग होम में पड़ा है ।”
“कहां ?”
“यह नहीं पता लगा । शंकरलाल और उसकी पत्नी विद्या शारदा से बहुत बुरी तरह पेश आए । शारदा...”
“शारदा को बताने दीजिए ।” - सुनील चटर्जी को टोककर बोला ।
“घर में मुझे विद्या चाचा मिली ।” - शारदा बोली - “उन्होंने बताया कि अंकल पागल हो गए हैं और किसी नर्सिंग होम में इलाज के लिए रह रहे हैं । फिर उसने मुझे कहा कि मेरा सामान जैसा मैं छोड़कर गई थी वैसा ही रखा है और मैं कल शाम तक अपना सामान कोठी से ले जाऊं क्योंकि वे लोग कोठी किराये पर देना चाहते हैं । पहले तो मैं हक्की-बक्की-सी चाची का मुंह देखती रही, फिर मैं भी गर्म हो उठी । मैंने कहा यह मेरा घर है, बचपन से मैं यहां अपने अंकल के साथ रह रही हूं, मेरा भी इस पर हक है । अंकल के अलावा किसी को भी मुझे यहां से निकाल देने का हक नहीं पहुंचता है । मैं यहीं रहूंगी ताकि मैं अंकल के विषय में सब कुछ जान सकूं ।”
“फिर ?” - सुनील एकदम दिलचस्पी लेता हुआ बोला ।
“चाची सारे तकल्लुफ छोड़कर एकदम मेरे पर बरस उठी और भड़क कर बोली कि मैं हरगिज भी कोठी में नहीं रह सकती । वह बोली कि मैं पहले ही अंकल को अपने मोह जाल में फंसाकर बहुत रुपया ऐंठ चुकी हूं लेकिन अब मुझे और गड़बड़ करने का मौका नहीं मिलेगा । चाचा को अंकल के धन की सुरक्षा के लिए नियुक्त किया गया है और अब यह उनकी जिम्मेदारी हो गई है कि वह अंकल के धन को मेरी जैसी चालबाज और बेईमान लड़कियों से बचाकर रखें ।” - शारदा का गला रुंध गया और उसकी आंखों में आंसू आ गए ।
“फिर ?”
“सुनील साहब, शंकरलाल और विद्या पहले ही दिन से अंकल को पसन्द नहीं थे ।” शारदा संभलकर बोली - “लेकिन वे जब जबरदस्ती घर में रहने आ ही गए थे तो उन्हें निकाला तो नहीं जा सकता था न । इन लोगों ने अंकल की दयानतदारी और अच्छे स्वभाव का फायदा उठाया और अंकल का माल लूटने में जुट गए । उन्होंने देखा कि मेरा अंकल पर बहुत प्रभाव है, अतः सबसे पहले उन्होंने मुझे ही तस्वीर में से बाहर निकाला । मैदान साफ होते ही ये लोग अंकल पर चढ दौड़े होंगे ? अंकल एक बेहद शान्त जीवन बिताने के आदी हैं । इन लोगों ने अंकल के आगे पीछे दौड़-दौड़कर उन्हें परेशान कर दिया होगा । परिणामस्वरूप अंकल अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठे होंगे और ये लोग उसी बात की आड़ लेकर अंकल की सम्पत्ति के स्वयं मालिक बन बैठे हैं ।”
“अब स्थिति क्या है ?”
“चाची ने मुझे यह कहा है कि अगर कल तक मैं अपना सामान कोठी में से ले नहीं गई तो वह सब कुछ उठाकर बाहर फेंक देगी ।
सुनील कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला - “ऊटी में अंकल तुम्हें खत लिखा करते थे ?”
“हां । लगभग हर सप्ताह ।”
“क्या उन पत्रों से ऐसा लगता था कि वे किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखे गए हैं जो कि अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा है ?”
“कतई नहीं । वे तो बड़े सीधे-सीधे प्यार भरे पत्र होते थे जिनका आशय होता था कि मैं खूब खुश रहूं और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखूं ।”
“घर में क्या हो रहा है, इस विषय में उन्होंने कभी कुछ नहीं लिखा ?”
“न । मिस्टर सुनील, मैं स्वास्थ्यलाभ के लिए ऊटी गई थी । मुझे परेशानी से बचाए रखने के लिए ही शायद उन्होंने कभी ऐसी कोई बात न लिखी हो पत्र में । लेकिन अंकल यह अनुभव तो कर ही रहे थे कि शंकरलाल वगैरह उन पर हावी होने की कोशिश कर रहे हैं वरना वे चैक क्या भेजते मुझे ?”
“शंकरलाल, विद्या और रामनाथ में से कोई मेडिकल नालेज भी रखता है ?”
“चाचा नर्स रह चुकी है ।” - शारदा बोली ।
“इससे क्या फर्क पड़ता है ?” - चटर्जी ने पूछा ।
“कुछ दवाइयां ऐसी भी होती हैं जो वृद्ध शरीर में भारी स्नायविक उत्तेजना पैदा कर देती हैं । उनके प्रयोग से आदमी कुछ समय के लिए और कभी-कभी सदा के लिए भी विक्षिप्तावस्था में पहुंच जाता है । लगता है तुम्हारे रिश्तेदारों ने एक नपी-तुली स्कीम का अन्तर्गत काम किया है उल्टी-सीधी दवाइयां दे-देकर तुम्हारे अंकल को विक्षिप्त कर दिया है । तुम्हारी मौजूदगी में ऐसी स्कीम को कार्यरूप में परिणित करना सम्भव नहीं था । इसलिए उन्होंने तुम्हें ऊटी जैसे हिल स्टेशन पर भेज दिया जहां तुम्हें कुछ भी मालूम न हो सके और जहां से वापिस आने में भी तुम्हें कम से कम चार दिन लग जाएं । तुम्हारे अंकल शंकरलाल वगैरह की स्कीम तो समझ रहे थे लेकिन शायद उनके हाथों बेबस थे । सम्भव है वे लोग तुम्हारे अंकल को कमरे में बन्द रखते हों । इसलिए उन्होंने तुम्हें यह डेढ लाख का चैक भेजा ताकि तुम्हारे रिश्तेदार ही सब कुछ हजम न कर जाएं । लेकिन शायद रिश्तदारों को पता लग और तुम्हारे लौटाने से पहले ही उन्होंने ऐसा इन्तजाम कर लिया कि उस चैक के बदले में तुम्हें एक नया पैसा न मिल सके ।”
“लेकिन मान लो अंकल ने मेरे नाम कोई वसीयत भी कर दी हो ?”
“उन्होंने कभी कहा था कि वे तुम्हारे नाम वसीयत करना चाहते हैं ?”
“हां ।”
“लेकिन तुम्हें जो पत्र उन्होंने भेजा है उससे लगता नहीं कि उन्होंने ऐसी कोई वसीयत की है ।”
“लेकिन मान लो उन्होंने मेरे लिए कोई वसीयत की हो और वह शंकरलाल वगैरह के हाथ लग गई हो और उन्होंने उसे जला दिया हो तो क्या किया जा सकता है ?”
सुनील ने चटर्जी की ओर देखा ।
“कुछ भी नहीं ।” - चटर्जी बोले - “जब तक कि तुम यह साबित न करो कि ऐसी कोई वसीयत थी और वह जला दी गई है ।”
“क्या अंकल नई वसीयत कर सकते हैं ?” - शारदा ने पूछा ।
“अदालत द्वारा मानसिक रूप से अयोग्य घोषित कर दिए जाने के बाद नहीं ।”
“लेकिन वे एक अच्छे-भले आदमी को मानसिक रूप से अयोग्य सिद्ध कैसे कर सकते हैं ?”
“यह तो तुम्हारे रिश्तेदारों की स्कीम का कमाल है । साठ साल की आयु का एक ऐसा व्याक्ति, जो बच्चों जैसी देखभाल का आदी है जब ऐसे उठाईगिरे, रिश्तेदारों द्वारा घेर लिया जाएगा जो हर वक्त उसे परेशान करते रहते हों, उसे मानसिक रूप से टार्चर करते रहते हों, यहां तक कि उसे गलत किस्म की दवाइयां भी खिलाते रहते हों तो वह आदमी विक्षिप्त दिखाई देने लगे तो इसमें हैरानी की कौन सी बात है ! और फिर इस पत्र और डेढ लाख रुपये के चैक ने तो स्थिति और भी खराब कर दी है ।” - सुनील ने उत्तर दिया ।
“कैसे ?”
“तुम्हारे रिश्तेदार तो अदालत में यही कहेंगे कि जो आदमी अपनी भतीजी को डेढ लाख रुपये का चैक देकर यह कहता हो कि वह रुपया ऐसी जगह छुपा दे जहां किसी को उसकी हवा न लगे, क्या उसे अपने होशोहवास में माना जा सकता है ?”
कोई कुछ नहीं बोला ।
“आप मुझसे क्या चाहते हैं ?” - सुनील ने चटर्जी से पूछा ।
“तुम शारदा की क्या मदद कर सकते हो ?”
“मैं क्या मदद कर सकता हूं, साहब ! उसमें तो एक लीगल माइन्ड की जरूरत है । आप कोर्ट में शारदा की ओर से अपील कर दीजिए कि सुन्दरलाल पागल नहीं हैं बल्कि कुछ रिश्तेदारों ने अपने स्वार्थ के लिए उसे पागल घोषित कर दिया है ताकि वे ट्रस्टी बनकर उसका धन हजम कर सकें ।”
“लेकिन यह अपील मैं किस आधार पर कर सकता हूं ?” - चटर्जी हाथ फैलकर बोले - “सबूत कहां से लाऊंगा ?”
“आप इतना भी नहीं कर सकते कि सुन्दरलाल की दुबारा डाक्टरी जांच करवाई जा सके ?”
“उसके लिए भी सबूत की जरूरत है । आखिर कानून से ऐसी मांग करने के लिए किसी आधार की भी तो आवश्यकता है ।”
“सुन्दरदास है कहां ?” - सुनील ने पूछा ।
“यही तो मालूम नहीं पड़ रहा । शंकरलाल वगैरह तो उसे हवा नहीं लगने दे रहे ।”
“अगर अदालत में नगर के कुछ सम्मानित लोग यह बयान दें कि सुन्दरदास मानसिक रूप से बिल्कुल स्वस्थ है और अपना भला बुरा विचारने की पूरी क्षमता रखता है तो क्या कुछ हो सकेगा ?”
“सम्भव है ।”
“मैं ऐसी कुछ गवाहियां तलाश करने की चेष्टा करूंगा ।”
“वैरी गुड !”
सुनील कुछ नहीं बोला ।
“मेरा क्या होगा ?” - शारदा दबे स्वर में बोली ।
“क्या मतलब ?” - सुनील ने पूछा ।
“मैं कहां जाऊं, चाची तो मुझे कोठी में घुसने देगी नहीं और अंकल के सिवाय इस दुनिया में और कोई भी नहीं है मेरा ।”
“तुम घबराओ नहीं ।” - सुनील सांत्वनापूर्ण स्वर में बोला - “तुम्हारा इन्तजाम हो जांएगा ।”
शारदा कुछ नहीं बोली लेकिन उसके चेहरे से चिन्ता के भाव नहीं मिटे ।
“सुन्दरदास, का एकाउन्ट कौन से बैंक में है ?”
“नैशनल बैंक, लिटन रोड रोड ब्रांच में ।”
“वैसे उसकी सारी चल और अचल सम्पत्ति कितनी है ?”
“लगभग बीस लाख रुपये की ।”
“तुम्हारे अंकल की कोठी कहां है ?”
“कैपिटल रोड पर, आठ नम्बर ।”
सुनील ने मेज पर रखे टेलीफोन का रिसीवर उठाया और यूथ क्लब के नम्बर डायल कर दिए । दूसरी और घन्टी जाने लगी ।
“हैलो !” - दूसरी ओर से किसी ने उत्तर दिया ।
“रमाकांत !” - सुनील अनिश्चत स्वर में बोला ।
“यस !”
“रमाकांत, सुनील बोल रहा हूं ।”
“बोलो प्यारयो ।”
“एक काम है ।”
“कैसा काम है ?”
“दो जमा दो पांच जैसा ।”
“अभी कल रात ही तो तुम क्लब में आये थे कल तो कोई ऐसा काम नहीं था ।”
“अभी हो गया है ।”
“क्या ?”
“नैशनल बैंक में तुम्हारी कोई जानकारी है ?”
“कौन सी ब्रांच में ?”
“लिटन रोड ब्रांच में ।”
“है । एजेन्ट मेरा दोस्त है ।”
“क्या वह किसी अकाउन्ट विशेष के विषय में तुम्हें कोई जानकारी दे सकता है ?”
“यह तो जानकारी की किस्म पर निर्भर करता है । कोई गुप्त बात तो वह बतायेगा नहीं, रुटीन रिकार्ड से सम्बन्धित जानकारी चाहिए तो सम्भव है ।”
“मुझे रुटीन रिकार्ड से ही सम्बन्धित जानकारी चाहिए । तुम केवल यह पता लगा दो कि सुन्दरदास नाम के एक आदमी के एकाउन्ट की क्या स्थिति है ?”
“तुम्हारी सुन्दरदास में क्या दिलचस्पी है ?”
“यह मैं बाद में बताऊंगा । मुलाकात होने पर ।”
“और कुछ ?”
“और यह कि मैं सुन्दरदास नाम के जिस आदमी का जिक्र कर रहा हूं, वह अब कैपिटल रोड पर रहता था ।”
“था ?”
“हां । कुछ दिन पहले वह विक्षिप्त घोषित कर दिया था । इस समय वह किसी पागलखाने में या नर्सिंग होम में है । रमाकांत, क्या तुम यह पता लगा सकते हो कि वह कहां है ?”
“बड़ा मुश्किल काम है ।” - रमाकांत बड़बड़ाया ।
“मुश्किल तो है लेकिन कोशिश करके देखो ।”
“अच्छा । और ?”
“फिलहाल बस लेकिन रमाकांत, इस मामले में स्पीड की जरूरत है ।”
“मैं कोशिश करूंगा कि सब कुछ जल्दी ही निपट जाए ।”
“थैंक्यू ।”
“ठीक है, ठीक है ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
“चटर्जी साहब ।” - सुनील बोला - “आप कोर्ट में शारदा की ओर से अपील कर दीजिए ।”
“किस आधार पर ?”
“इस आधार पर कि प्रथम तो सुन्दरदास पागल नहीं है । आज से तीन महीने पहले वह बिल्कुल ठीक था, यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है । सबूत शारदा है । और फिर तीन महीने पहले वह स्वयं अपने बिजनेस की देखभाल करता था, चैक साइन करता था और कभी किसी को उसके निजी काम से शिकायत नहीं हुई थी । ऐसा आदमी केवल तीन महीनों में अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठे, यह तब तक सम्भव नहीं जब तक कि उसे कोई उल्टी-सीधी दवाइयां न खिलाई गई हों । विद्या नर्स रह चुकी है और पिछले तीन महीने सुन्दरदास की कथित देखभाल करती रही है । क्या यह सम्भव नहीं है कि वह सुन्दरदास को जहरीली दवाइयां खिलाती रही हो जिनका प्रभाव सुन्दरदास पर यह पड़ा हो कि वह थोड़ी देर के लिए विक्षिप्त हो गया हो लेकिन अब वह बिल्कुल ठीक हो और उसके लालची सम्बन्धी उसे जबरदस्ती पागल करार देकर किसी पागलखाने में झोंके बैठे हों । दूसरी बात यह कि अगर वह वाकई पागल हो गया है तो उसकी जायदाद का सबसे योग्य संरक्षक शारदा हो सकती है न कि शंकरलाल । क्या ये आधार केस की री-ओपनिंग के लिए काफी नहीं है ?”
“काफी है ।” - चटर्जी बोले ।
“तो ठीक है ।” - सुनील उठता हुआ बोला - “मैं शारदा को अपने साथ ले जा रहा हूं । जल्दी ही आपसे फिर मिलूंगा ।”
“ओके !” - चटर्जी हाथ बढाते हुए बोले ।
सुनील ने हाथ मिलाया और शारदा से बोला - “चलो ।”
शारदा अनिश्चित-सी उठ खड़ी हुई ।
***
सुनील ने अपनी मोटर साइकल आफ कैपिटल रोड से थोड़ी दूर ही रोक दी ।
“यही है तुम्हारे अंकल की कोठी ?” - सुनील ने आठ नम्बर की ओर संकेत करते हुए पूछा ।
“हां ।” - पिछली सीट पर बैठी शारदा ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया ।
सुनील मोटर साइकल से उतर गया ।
“तुम यहीं ठहरो । मैं अभी आता हूं ।” - सुनील बोला ।
“कहां जाओगे ?” - शारदा ने पूछा ।
“तुम्हारे अंकल की कोठी में । तुम्हारे बाकी रिश्तेदारों से मिलने ।”
“क्यों ?” - शारदा व्यग्र स्वर में बोली ।
“लौटकर बताऊंगा ।” - सुनील बोला और शारदा को मोटर साइकल के पास खड़ी छोड़कर लम्बे डग भरता हुआ कोठी की ओर बढ गया ।
वह फाटक खोलकर भीतर घुस गया और लान को पार करके बरामदे में पहुंच गया । उसने कालबैल के पुश पर उंगली रख दी ।
द्वार एक नौकर ने खोला ।
“मुझे शंकरलाल से मिलना है ।” - सुनील स्थिर स्वर में बोला ।
“आप...”
“प्रेस रिपोर्टर ।”
नौकर कुछ हिचकिचाया और फिर बिना एक शब्द बोले उसे वहीं खड़ा छोड़कर वापिस चला गया ।
थोड़ी देर बाद वह प्रौढ से लगने वाले एक लम्बे-चौड़े व्यक्ति के साथ लौटा ।
“आप प्रेस रिपोर्टर हैं ?” - वह आदमी सुनील को ऊपर से नीचे तक घूरता हुआ बोला ।
“जी हां ।”
“फरमाइए ।”
“आप शंकरलाल हैं ?” - सुनील ने पूछा ।
“जी हां ।”
“मैं आपसे एक बड़े महत्वपूर्ण विषय पर बातें करना चाहता हूं बल्कि यूं कहिए कि मैं अपने अखबार के लिए आपका इन्टरव्यू लेना चाहता हूं ।”
“किस विषय में ?”
“यही खड़ा-खड़ा बताऊं ?” - सुनील हैरानी का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“क्या हर्ज है ?” - शंकरलाल रुक्ष स्वर में बोला ।
“मेरे डाक्टर ने मुझे अधिक देर तक एक ही स्थिति में खड़ा रहने से मना किया हुआ है । इससे मेरा मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है ।” - सुनील मानसिक सन्तुलन शब्द पर विशेष जोर देता हुआ बोला ।
शंकरलाल ने नेत्र एकदम कठोर हो गए । उसने एक भरपूर दृष्टि सुनील पर डाली । वह क्षण भर हिचकिचाया और फिर द्वार से एक ओर हटता हुआ स्थिर स्वर में बोला - “तशरीफ लाइए ।”
“थैंक्यू ।” - सुनील भीतर घूसता हुआ बोला ।
“तशरीफ लाइए !” - कहने का ढंग चेतावनी जैसा था जैसे सुनील को इस बात से आगाह किया जा रहा हो कि कभी भी उसकी कोई बात पसन्द न आने पर उसे उठाकर बाहर फेंका जा सकता था ।
शंकरलाल उसे ड्राइंग रूम में ले आया ।
ड्राइंग रूम में एक लगभग चालीस वर्ष की महिला बैठी बुनाई कर रही थी । उसके सामने एक पैंतीस वर्ष का बदमाश सा लगने वाला आदमी बैठा एक पत्रिका के पृष्ठ पलट रहा था । दोनों ने एक उचटती सी दृष्टि सुनील पर डाली और सुनील में तनिक भी दिलचस्पी लिए बिना वे अपने-अपने कामों में संलग्न हो गए ।
“तशरीफ रखिए ।” - शंकरलाल एक सोफे की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
दोनों सोफे पर बैठ गए ।
“यह मेरी पत्नी विद्या है और यह मेरा मित्र है रामनाथ ।” - शंकरलाल परिचय कराता हुआ बोला ।
रामनाथ पत्रिका से सिर उठाकर तनिक मुस्कराया लेकिन विद्या ने तनिक भी औपचारिकता दिखाने की चेष्टा नहीं की ।
कैसे बदतमीज लोग हैं ! - सुनील ने मन ही मन सोचा ।
“और ये प्रेस रिपोर्टर हैं” - शंकरलाल बोला - “मिस्टर...”
“सुनील ।” - सुनील बोला ।
रामनाथ ने पत्रिका रख दी लेकिन विद्या पर तनिक भी प्रतिक्रिया नहीं हुई ।
शंकरलाल ने एक असहाय-सी दृष्टि अपनी पत्नी पर डाली जैसे उसे उसका व्यवहार पसन्द नहीं आया हो और सुनील की ओर मुड़कर बोला - “आप किस सिलसिले में मुझसे बात करना चाहते थे ?”
“देखिए” - सुनील बड़ी सावधानी से शब्द चयन करता हुआ बोला - “मैं ब्लास्ट का प्रतिनिधि हूं । ब्लास्ट एक सम्मानित समाचार पत्र है और एक अच्छे समाचार का यह भी एक कर्त्तव्य होता है कि वह जनता की आवाज को अधिकारियों के कान तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध हो, माध्यम सिद्ध हो ।”
“फिर ?”
“लेकिन अगर कोई आदमी हमसे आकर यह कहता है कि उसके साथ इन्साफ नहीं हुआ है या उसे इंसाफ नहीं मिल रहा है और हम अपने समाचार पत्र के माध्यम से उसकी आवाज को बल देना चाहिए तो हमारा पहा कर्त्तव्य यह हो जाता है कि हम यह जानने की चेष्टा करें कि कथित व्यक्ति सच भी बोल रहा है या नहीं । कई बार सच और झूठ का विश्लेषण करने का सबसे अच्छा तरीका यह होता है कि हम दूसरी पार्टी से संपर्क स्थापित करें ताकि हमें तस्वीर का दूसरा रूख भी दिखाई दे जाए ।”
“यह सब आप मुझे क्यों बता रहे हैं ?” - शंकरलाल आश्चर्य-भरे स्वर में बोला ।
“क्योंकि संयोग से दूसरी पार्टी आप लोग हैं ।” - सुनील ने शान्ति से उत्तर दिया ।
“क्या मतलब ?”
सुनील ने एक गुप्त दृष्टि विद्या पर डाली । उसने बुनाई बंद कर दी थी लेकिन सिर अब भी उसने यूं ही झुकाया हुआ था जैसे वह कुछ भी न सुन रही हो ।
“आप शारदा को जानते हैं ?”
तीनों एकदम चौंक पड़े । विद्या ने भी भावहीन बने रहने का नाटक छोड़ दिया । उसने सलाइयां हाथ से रख दीं ।
उत्तर बड़ी देर से मिला ।
“उसका आप से क्या सम्बन्ध है ?” - शंकरलाल ने पूछा ।
“मुझसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । लेकिन मेरे समाचार-पत्र से सम्बन्ध स्थापित हो सकता है ।” - सुनील बोला ।
“कैसे ?”
“उसने हमें एक बड़ी अविश्वसनीय कहानी सुनाई है । वह कहती है कि आप लोग उसके अंकल सुन्दरदास को जबरदस्ती पागल घोषित करवा के उसकी सम्पत्ति के मालिक बन बैठे हैं और उसे आपने दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया है ।”
“वह बकती है । ऐसी कोई बात नहीं । भाई साहब हमारे लिए बहुत सम्मानित व्यक्ति हैं । वे सत्य ही अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठे हैं और शारदा उनकी कमजोरी का लाभ उठाकर उन्हें ठगने की कोशिश में थी और किसी हद तक सफल भी हो गई थी । उसने भाई साहब को न जाने क्या पट्टी पढाकर उनसे डेढ लाख का चैक भरवा लिया था । अगर मैंने समय पर कोर्ट में अपील न कर दी होती और मैं भाई भाहब की सम्पत्ति का संरक्षक न नियुक्त कर दिया गया होता तो वह डेढ लाख रुपया तो झपट कर ले ही गई थी ।”
“मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं ।” - सुनील उसकी हां में हां मिलाता हुआ बोला - “आजकल बहुत खून सफेद हो गया है ऐसे लोगों का साहब । वह लड़की सत्य ही बहुत तथ्यहीन बातें कर रही है लेकिन आप जानतें है मैं अखबार का मालिक नहीं केवल कर्मचारी हूं । मेरे एडीटर ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं आप लोगों से मिलकर, तस्वीर का दूसरा रुख भी जानने की चेष्टा करूं । मेरे एडीटर ने कहा था कि अगर आप लोग सहयोग देते हैं और हमें यह अनुभव होता है कि यह लड़की हमारे अखबार के माध्यम से एक आधारहीन बात का प्रचार करना चाहती है तो हम उसकी एक नहीं सुनेंगे और उसे कोई सहयोग नहीं देंगे । लेकिन इसके विपरीत अगर आप मुझे इन्टरव्यू नहीं देते हैं या मेरे किन्हीं प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर नहीं देते हैं तो फिर हम उस लड़की के वक्तव्य को सच मानकर उसे सहयोग देना आरम्भ कर देंगे । परिणाम आप स्वयं सोच सकते हैं ।”
सुनील ने देखा तीनों उसकी बात से बेहद प्रभावित दिखाई दे रहे थे ।
कोई कुछ नहीं बोला ।
“और प्रेस की शक्ति को तो आप पहचानते ही हैं ।” - सुनील गर्म लोहे पर चोट करता हुआ बोला ।
शंकरलाल ने पहले रामनाथ और फिर अपनी पत्नी की ओर देखा, विद्या की दोनों भवें संकेत के रूप में उठ गई ।
“पूछिए, आप क्या पूछना चाहते हैं ?” - शंकरलाल विनम्र स्वर में बोला ।
“दैट्स दि स्पिरिट ।” - सुनील उत्साहपूर्ण स्वर में बोला - “मुझे आपसे यही आशा थी । आखिर आप लोग खानदानी आदमी हैं और वह लड़की तो, सच मानिए, मुझे उठाईगिरी मालूम होती है । क्यों साहब ?” - वह रामनाथ से बोला ।
“जी हां... जी हां !” - रामनाथ हड़बड़ाकर बोला ।
“देखिए ।” - सुनील विनम्रता की प्रतिमा बनता हुआ बोला - “मेरे कुछ प्रश्न शायद आपको भले न लगें लेकिन विश्वास कीजिए उनसे मेरा इरादा आपकी किन्हीं भावनाओं को चोट पहुंचाना या आप पर इल्जाम लगाना नहीं होगा ।”
“आप पूछिए तो सही ।” - शंकरलाल बेसब्री से बोला ।
“आप सुन्दरदास के सौतेले भाई हैं न ?” - सुनील नम्र स्वर में बोला ।
“जी हां ।”
“और आप ही ने कोर्ट में अपील की थी कि आपके भाई साहब अपना मानसिक सन्तुलन खो चुके हैं इसलिए उनकी सम्पत्ति और स्वयं उनकी गलत हाथों से सुरक्षा के लिए एक संरक्षक की आवश्यकता थी ?”
“जी हां ।”
“आप इस कोठी में कब से रह रहे हैं ?”
“लगभग छः महीने से ।”
“मतलब कि शारदा के ऊटी जाने से तीन महीने पहले से ।”
“जी हां ।”
“आपको सुंदरदास ने अपने साथ रहने के लिए बुलाया था ?”
शंकरलाल क्षण भर के लिए हिचकिचाया और फिर बोला - “नहीं ।”
“तो फिर ?”
“हम राजनगर से गुजर रहे थे इसलिए भाई साहब से मिलने आ गए थे यहां आकर जब हमने भाई साहब की स्थिति देखी तो हमें अनुभव हुआ ऐसी गड़बड़ वाली हालत में उनका कोई अपना उनके पास होना चाहिए । अतः हम लोग अपने सुख साधनों की परवाह किए बिना उनकी परिचर्या के लिए यहां रुक गए ।”
“आपके मित्र मिस्टर रामनाथ भी तभी से यहां रह रहे हैं ?”
“जी हां, इस मामले में बहुत मेहरबानी की है इन्होंने हम पर । इन्होंने हमें सहयोग देने की खातिर अपने निजी काम छोड़ दिए हैं ।”
“शारदा कहती है कि आपने जबरदस्ती, एक नपी-तुली स्कीम के अनुसार उसे ऊटी भेजा था ।”
“यह आवश्यक था । हम यहां आते ही शारदा के इरादे भांप गए थे लेकिन हम उसकी तौहीन नहीं करना चाहते थे । उस लड़की ने तो पता नहीं भाई साहब पर क्या जादू किया हुआ था । भाई साहब उससे किस हद तक प्रभावित थे इसका नमूना यही है कि भाई साहब ने उसे डेढ लाख का चैक भेज दिया और साथ ही उसे चिट्ठी में यह भी लिख दिया कि वह धन किसी की भी जानकारी में नहीं आना चाहिए ।”
“शारदा ने हमें इस आशय का पत्र और वह चैक दिखाया था । आप उस पत्र के विषय में कैसे जानते हैं ?”
“डाक में जाने से पहले वह पत्र मैंने भाई साहब की मेज पर पड़ा देखा था ।”
“और आपने उसे खोलकर पढ लिया ?”
“जी हां ।”
“यह जानते हुए भी कि पत्र शारदा के नाम था ?”
“जी हां, यह जानते हुए भी कि वह पत्र शारदा के नाम था । और मैंने अच्छा ही किया कि वह पत्र पढ लिया । साथ में डेढ लाख का चैक देखकर ही मेरे दिमाग में पहली बार यह ख्याल आया था कि भाई साहब को एक संरक्षक की आवश्यकता थी । यह मेरे ही प्रयत्नों का फल है कि डेढ लाख रुपये की एक मोटी रकम एक नितान्त अजनबी के हाथों जाने से बच गई है ।”
“नितान्त अजनबी कौन ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
“शारदा ।”
“क्या मतलब ? शारदा तो सुन्दरदास की वैसी ही रिश्तेदार है जैसे कि आप लोग ।”
“वह भाई साहब की कुछ भी नहीं है” - शंकरलाल विष भरे स्वर में बोला - “शारदा का हमारे खानदान से कोई खून का रिश्ता नहीं है । वह तो जनाब, रुकमणी नाम की काम करने वाली एक नौकरानी की लड़की है जो दो साल पहले स्वर्ग सिधार चुकी है ।”
“लेकिन आपके भाई साहब तो उसे हमेशा अपनी सगी भतीजी कहा करते थे ।”
“मैं जानता हूं और यह इस बात का दूसरा सबूत था कि भाई साहब का अपने दिमाग से कन्ट्रोल उठता जा रहा था वर्ना एक इज्जतदार आदमी क्यों एक नौकरानी की लड़की को अपनी भतीजी बताएगा ।”
“आप इस सिद्ध कर सकते हैं ?”
“बिल्कुल कर सकता हूं । मैंने यह बात पहले अपनी जुबान से इसलिए नहीं निकाली थी क्योंकि मैं शारदा की सामाजिक प्रतिष्ठा को नष्ट नहीं करना चाहता था । शारदा न केवल नौकरानी की लड़की है बल्कि एक नाजायज औलाद भी है । रुकमणी न जाने कहां से राजनगर आई थी । उन दिनों भाई साहब को एक ऐसी नौकरानी की जरूरत थी जो उनकी और घर की पूरी देखभाल कर सके । रुकमणी ने वह नौकरी कर ली । बाद में भाई साहब को पता चला कि रुकमणी गर्भवती थी । पता नहीं किसके साथ और कहां मुंह काला करके वह राजनगर में आई थी और भी साहब के यहां नौकरी करने लगी थी । लेकिन भाई साहब ने अपने सुस्वभाव के कारण ने केवल रुकमणी को नौकरी से नहीं निकाला बल्कि उसे हर प्रकार का संरक्षण भी दिया । रुकमणी ने शारदा को जन्म दिया । उन्हीं दिनों भाई साहब के छोटे भाई और पत्नी की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई और भाई साहब ने शारदा पर से नाजायज औलाद होने का कलंक हटाने के लिए यह घोषित कर दिया कि शारदा उनके दिवंगत छोटे भाई और भाभी की बच्ची है । यूं शारदा को हमारा खानदानी नाम मिल गया और किसी को कुछ पता नहीं लगा ।”
“तो फिर इस बात का आपको कैसे पता लगा ?”
“उन दिनों भाई साहब ने हमें कुछ पत्र लिखे थे जिनमें इन तमाम बातों का वर्णन था । वे पत्र अभी भी मेरे पास सुरक्षित हैं ।”
“क्या शारदा भी यह बात जानती है कि वह रुकमणी की नाजायज औलाद है और सुन्दरदास से उसका कोई सम्बन्ध नहीं ?”
“जरूर जानती होगी लेकिन वह उस तथ्य को स्वीकार थोड़े ही करेगी । उसने तो भाई साहब की भतीजी बनकर उन्हें यूं अपने मोहजाल में फंसाया हुआ है कि भाई साहब को शारदा के सिवाय और कुछ सूझता ही नहीं ।”
“फिर तो आपने इस संभावना पर भी खूब विचार किया होगा कि आपके भाई साहब शारदा के प्रभाव में आकर अपनी सारी सम्पत्ति उसके नाम कर सकते हैं और परिणामस्वरूप आप उनकी सम्पत्ति में से एक नये पैसे के हकदार नहीं रह जाते हैं ।”
“यह बात तो हमने नहीं सोची ।” - शंकरलाल बोला ।
“मतलब यह हुआ कि आप केवल इसलिये सुन्दरदास में दिलचस्पी ले रहे हैं क्योंकि आप नहीं चाहते कि कोई उन्हें ठग ले । आपके दिमाग में यह भावना नहीं है कि सुन्दरदास का धन शारदा को न मिलकर आपको मिल जाए ?”
“कतई नहीं ।”
“आपके अतिरिक्त भी सुन्दरदास का कोई रिश्तेदार है ?”
“नहीं ।”
“मतलब यह हुआ कि अब सुन्दरदास की सम्पत्ति के स्वामी आप लोग ही होंगे ।”
“जाहिर है ।”
“लेकिन अगर सुन्दरदास शारदा के नाम वसीयत कर जाता तो शारदा चाहे उसकी भतीजी थी या नहीं थी, धन उसे ही मिलता और आप हाथ मलते रह जाते ।”
“मुझे आपका बात कहने का ढंग पसन्द नहीं ।” - शंकरलाल तनिक उखड़ कर बोला ।
“लेकिन यह सच है न ?”
“हां ।”
“और आप यह भी जानते हैं कि पागल घोषित कर लिए जाने के बाद सुन्दरदास नई वसीयत नहीं कर सकता ।”
“हां ।” - शंकरलाल कठिन स्वर में बोला ।
“इसलिए ज्यों ही आपको भनक मिली कि सुन्दरदास वसीयत करके अपनी सारी जायदाद शारदा के नाम छोड़ने वाला है आपने यह घपला खड़ा कर दिया ताकि सुन्दरदास शारदा के नाम वसीयत न कर सके ।”
“यह गलत है ।” - शंकरलाल उत्तेजित स्वर में बोला - “भाई साहब वाकई अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठे थे । हमें यह मालूम भी नहीं था कि वे शारदा के नाम कोई वसीयत करने वाले थे ।”
“आपको मालूम था ।” - सुनील निश्चयपूर्ण स्वर में बोला ।
“मैं झूठ बोल रहा हूं ?” - शंकरलाल भड़ककर बोला ।
“उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं है, मिस्टर शंकरलाल ।” - सुनील शांत रहा - “मैंने आपसे पहले भी कहा था कि मेरे प्रश्न शायद आपको नागवार गुजरें लेकिन विश्वास कीजिए ये प्रश्न पूछने का आशय आपकी किन्हीं भावनाओं को चोट पहुंचाना नहीं है, न ही मैं आपको झूठा करार दे रहा हूं । मैं तो आप ही की बताई बात दोहरा रहा हूं । आप ही ने तो कहा था कि आपने सुन्दरदास के चैक के साथ शारदा को भेजा हुआ पत्र पढा था । उसमें स्पष्ट रूप से लिखा है कि सुन्दरदास अपने वकील से ऐसी वसीयत बनवाना चाहता था जिसमें उसकी सम्पत्ति की स्वामिनी शारदा घोषित की गई हो । आपने स्वयं कहा था कि आपने उस पत्र को पढा था और उस पत्र के कारण आपको यह अनुभव हुआ था कि सुन्दरदास और उनकी सम्पत्त‍ि दोनों को संरक्षण की आवश्यकता थी । फिर आप कहते हैं कि आपको यह मालूम नहीं था कि सुन्दरदास शारदा के नाम सब कुछ छोड़ रहा था ।”
शंकरलाल चुप रहा, उसके चेहरे के भावों से यूं लग रहा था जैसे वह सुनील को ढील देकर पछता रहा हो ।
“एक आखिरी सवाल और पूछना, चाहता हूं मैं ।” - सुनील वातावरण में तनाव का अनुभव करता हुआ बोला ।
“पूछिए ।” - शंकरलाल मरे स्वर में बोला ।
“सुन्दरदास इस समय कहां है ?”
“एक प्राइवेट असाइलम में ।”
“क्या नाम है ?”
शंकरलाल ने उत्तर नहीं दिया । प्रत्यक्ष था कि वह नाम नहीं बताना चाहता था ।
“आपको असाइलम का नाम बताने में कोई ऐतराज है ?”
“सख्त ऐतराज है ।” - शंकरलाल का स्वर एकदम सख्ती से भर उठा ।
“आपने उसे असाइलम में क्यों भेजा ?”
“मेरी पत्नी ट्रेन्ड नर्स है । उसका ख्याल था कि भाई साहब का मानसिक सन्तुलन इतना बिगड़ चुका था कि अब घर में इलाज सम्भव नहीं था इसलिए हमने उन्हें असाइलम में दाखिल कराना उचित समझा ।”
“आप असाइलम का नाम नहीं बतायेंगे ?”
“नहीं ।” - शंकरलाल एकाएक उठता हुआ बोला - “और मेरे ख्याल से इन्टरव्यू काफी लम्बा हो चुका है अब शायद आप भी तशरीफ ले जाना पसन्द करेंगे ।”
“आपकी मर्जी ।” - सुनील भी उठ खड़ा हुआ - “वैसे मैं अभी बहुत कुछ पूछना चाहता था ।”
“लेकिन हम और कुछ नहीं बताना चाहते । लगता है आपको ढील देकर मैं पहले ही बहुत गलती कर चुका हूं । चलिए आपको बाहर का रास्ता दिखा आऊं ।”
“आप तशरीफ रखिए, बाहर का रास्ता मुझे आता है ।” - और सुनील उसे वहीं छोड़कर लम्बे डग भरता हुआ बाहर की ओर बढ गया ।
द्वार के समीप पहुंचते ही उसे यूं लगा । जैसे कोई द्वार के पीछे से निकल बाहर की ओर भागा हो । सुनील ने लात मार कर द्वार बन्द कर दिया और स्वयं भी मुख्य द्वार की ओर लपका ।
लान में चप्पल हाथ में लिए शारदा भागी जा रही थी ।
सुनील ने भागना बन्द कर दिया ।
वह लापरवाही से पैंट की जेबों की गहराई में हाथ ठूंसे बाहर निकल आया ।
शारदा मोटर साइकल के पास जा खड़ी हुई थी । उसकी सांस धौंकनी की तरह चल रही थी ।
सुनील को समीप आता देखकर वह अपनी सांस पर काबू पाने की चेष्टा करने लगी ।
“कैसा लग रहा है ?” - सुनील समीप आकर लापरवाही से बोला ।
“क्या कैसा लग रहा है ?” - शारदा ने पूछा ।
“यह जानने के बाद कि तुम सन्दरदास की भतीजी नहीं नौकरानी रुकमणी की नाजायज औलाद हो, तुम्हें दुख तो बहुत हुआ होगा ?”
शारदा कुछ क्षण पूरे नेत्र खोले सुनील को देखती रही, फिर उसके नेत्र झुक गये और फफक कर रो पड़ी ।
“शारदा !” - सुनील एकदम घबरा गया - “चुप करो भगवान की कसम मेरा यह मतलब नहीं था ।”
शारदा ने अपने होंठ काट लिये, उसके नेत्रों से अविरल आंसू बह रहे थे ।
“शारदा, प्लीज !” - सुनील उसकी पीठ थपथपाता हुआ बोला - “देखो, यह चलती सड़क है । लोग तमाशा बन लेंगे । भगवान के लिए चुप हो जाओ । तुम बच्ची नहीं हो, तुम्हें तो हर स्थिति का बहादुरी से मुकाबला करना चाहिए ।”
शारदा ने चुपचाप अपने आंसू पोंछ लिए । उसके नेत्र लाल हो रहे थे और चेहरा बेहद बुझा हुआ था ।
“तुम भीतर क्यों आई ?”
“अगर मैं भीतर न आती तो मुझे इतने बड़े तथ्य की जानकारी कैसे होती कि मैं रुकमणी की औलाद हूं ।” - शारदा रुंधे स्वर में बोली ।
“लेकिन जरूरी थोड़े ही है कि वे लोग सच कह रहे हों ।”
“मुझे अब समझ में आया है कि रुकमणी मुझे बेटी की तरह क्यों प्यार करती थी ?” - शारदा बड़बड़ाई ।
“लेकिन तुम भीतर कैसे पहुंची ?” - सुनील विषय बदलने का प्रयास करता हुआ बोला - “किसी ने टोका नहीं तुम्हें ?”
“मैं बीस वर्ष उस घर में रही हूं, मिस्टर ।” - वह बोली - “और शंकरलाल को गए हुए अभी केवल छ: महीने हुए हैं ।”
सुनील चुप रहा फिर उसने मोटर साइकल सम्भाली और उसमें किक मार दी ।
“अब कहां ?” - शारदा पिछली सीट पर बैठती हुई बोली ।
“मैं तुम्हें प्रमिला के पास ले जा रहा हूं ।” - सुनील बोला - “फिलहाल तुम ‘ब्लास्ट’ के दफ्तर में उसके पास बैठो मैं तुमसे बाद में बात करूंगा ।”
“प्रमिला कौन है ?”
“ब्लास्ट के एडीटर साहब की स्टेनोग्राफर है ।”
“और तुम्हारी क्या लगती है ?”
“मेरी !” - सुनील विचित्र स्वर से बोला - “मेरी अम्मा है वह ।”
“मैं समझ गई ।” - शारदा बोली ।
“क्या समझ गई तुम ?” - सुनील हैरान होकर बोला ।
“सुनील !” - वह बोली - “बहुत खूबसूरत है वह ?”
“बहुत !” - सुनील बोला, वह सन्तुष्ट था कि शारदा कुछ मिनट पहले की ट्रेजिडी को भूलकर हल्की-फुल्की बातें करने लगी थी - “एकदम एलिजाबेथ टेलर लगती है ।”
“और तुम क्या हो ? रिचर्ड बर्टन ?”
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“मार्क एन्टनी ।”
शारदा के और कुछ बोलने से पहले ही सुनील ने मोटरसाइकिल कोलतार की चिकनी सड़क पर दौड़ा दी ।
***
सुनील यूथ क्लब पहुंचा ।
“अच्छा हुआ तुम आ गए !” - रमाकांत उसे देखकर सन्तुष्ट स्वर में बोला - “मैं तुम्हें फोन करने ही वाला था ।”
“कुछ पता चला ?” - सुनील उसके सामने की कुर्सी पर बैठता हुआ बोला ।
“बहुत कुछ और बहुत जल्दी ।”
“शुरू हो जाओ ।” - सुनील जेब से लक्की स्ट्राइक का एक सिगरेट निकालकर सुलगाता हुआ बोला ।
रमाकांत ने भी चारमीनार की सिगरेट सुलगाई और उसका एक गहरा कश लेकर बोला - “मैं नैशनल बैंक के मैनेजर गुप्ता से मिला था और विश्वास जानो, एक बैंक मैनेजर के नाते तो उसे किसी बात से कोई एतराज नहीं है लेकिन एक इन्सान के नाते उसे सुन्दरदास और उसकी किसी शारदा नाम की भतीजी से पूरी सहानुभूति है । वह कहता है, वह शारदा को निजी रूप से जानता है और उसके ख्याल से जितना ख्याल वह सुन्दरदास का रखती थी उतना शायद सुन्दरदास की सगी बेटी न रख पाती । वह शंकरलाल को पसन्द नहीं करता है ।”
“सुन्दरदास के विषय में वह क्या कहता है ?”
“वह कहता है कि कहीं भी कभी भी इस बात का दावा कर सकता है कि सुन्दरदास इस उम्र में भी मानसिक रूप से पूर्णरूपेण स्वस्थ आदमी है । अव्वल तो उसे कुछ हुआ नहीं है, अगर कुछ हुआ है तो उसका जिम्मेदार शंकरलाल है । सुन्दरदास ने पिछले छ: महीनों में गुप्ता से कई बार टेलीफोन पर और एक-दो बार खुद आकर भी व्यापारिक बातचीत की है और सुन्दरदास हर हाल में स्वस्थ लगता था ।”
“शंकरलाल के बारे में कुछ कहा उसने ?”
“वह कहता है कि शारदा के राजनगर से कूच करते ही शंकरलाल ने बैंक के चक्कर लगाने आरम्भ कर दिए थे । वह गुप्ता को फूंक देकर यह जानने की कोशिश करता था कि सुन्दरदास के एकाउन्ट में कितना धन है लेकिन गुप्ता हर बार उसे निराश करके भगा देता था । गुप्ता कहता है उसने शंकरलाल जैसा झूठा, मक्कार और लालची आदमी नहीं देखा । उसके एक-एक एक्शन से यही जाहिर होता था कि वह किसी प्रकार सुन्दरदास का माल हड़पने की फिराक में है ।”
“हूं !” - सुनील सिगरेट का एक गहरा कश लेता हुआ बोला !
“शंकरलाल के साथ रामनाथ नाम का जो मित्र रह रहा है, संयोगवश उसके विषय में एक-दो रहस्यपूर्ण बातें पता लगी हैं ।”
“क्या ?”
“शंकरलाल ने रामनाथ से हजारों रुपया कर्ज लिया हुआ है । शंकरलाल ने रामनाथ को सुन्दरदास के धन का भरोसा दिया हुआ है । वह रामनाथ को इसलिए साथ रखे हुए है ताकि उसे भरोसा हो जाए कि शंकरलाल को वाकई बहुत बड़ी सम्पत्ति मिलने वाली है जिसकी सहायता से बड़ी आसानी से रामनाथ का कर्जा चुकाया जा सकता है ।”
“तुम्हें यह बात कैसे पता लगी ?”
“कोठी में खाना पकाने जो नौकरानी आती है, उसने बताया है । नौकरानी ने रामनाथ को शंकरलाल से कहते सुना कि वह सुन्दरदास के माध्यम से रुपया मिलने का वर्षों इन्तजार नहीं कर सकता । भगवान जाने कब सुन्दरदास मरेगा और कब शंकरलाल को रुपया मिलेगा और कब रामनाथ अपना धन वसूल करेगा । उसी समय उन्होंने नौकरानी को देख लिया था और विषय बदल दिया था ।”
“रमाकांत !” - सुनील सिगरेट का आखिरी कश लेकर उसे ऐश ट्रे में डालता हुआ बोला - “मान लो तुम पर हजारों रुपये का कर्जा है और तुम किसी धनी रिश्तेदार के मरने की प्रतीक्षा कर रहे हो जो कि तुम्हें धन प्राप्त होने की आखिरी साधन है और तुम्हें पता लगता है कि वह रिश्तेदार अपना सब कुछ अपनी भतीजी को देने की फिराक में है तो तुम क्या करोगे ?”
“मैं कोई न कोई ऐसा अड़ंगा लगाने की चेष्टा करूंगा जिससे भतीजी को कुछ न मिल सके ।”
“बिल्कुल यही हुआ है । शंकरलाल जानता है उसे सुन्दरदास के माध्यम से धन नहीं मिला तो रामनाथ उसका पुलन्दा बांध देगा । इसलिए ज्यों ही उसे पता लगता है सुन्दरदास शारदा के नाम वसीयत करने वाला है वह ऐसा इन्तजाम करता है कि सुन्दरलाल पागल घोषित कर दिया जाता है और वह स्वयं उसकी प्रॉपर्टी का संरक्षक बन जाता है । अव्वल तो उसने ऐसा इन्तजाम किया है कि शारदा बेदखल ही हो जाए लेकिन अगर मान लो वह बेदखल नहीं भी होती है तो वे लोग अब सुन्दरदास के धन के एक हिस्से के हकदार तो ही ही गए क्योंकि पागल घोषित कर दिए जाने के बाद वह अपनी मर्जी से तो किस को धन दे नहीं सकता ।”
“किस्सा क्या है ?” - रमाकांत बोला ।
सुनील ने उसे संक्षिप्त में सारी घटना कह सुनाई ।
“यह पता लगा कि सुन्दरदास कौन से पागलखाने में है ?” - फिर उसने पूछा ।
“सिल्वर जुबली असाइलम में है वो ।” - रमाकांत ने बताया ।
“इतनी जल्दी कैसे पता लग गया ?”
“संयोग ही समझ लो इसे । सिल्वर जुबली असाइलम एक प्राइवेट पागलखाना है । उसके पास अपनी एम्बुलैंस नहीं है । इसलिए सुन्दरदास के लिए सरकारी अस्पताल की एम्बुलैंस मंगवाई गई थी । मैंने एक आदमी इसी लाइन पर काम करने के लिए लगाया था । अत: पहला ही तुक्का निशाने पर लग गया कि आज से पांच दिन पहले एम्बुलैंस आठ कैपिटल रोड से पेशेन्ट को लेकर उसे वहां छोड़कर आई थी ।”
“रमाकांत !” - सुनील उठता हुआ बोला - “मैं ऑफिस वापस जा रहा हूं । लेकिन तुम रामनाथ के विषय में जितनी जानकारी हासिल कर सकते हो करो, चाहे इसके लिए तुम्हें कितने ही आदमी क्यों न लगाने पड़ें । शंकरलाल की स्कीम की वही एक कमजोर कड़ी दिखाई दे रही है मुझे । इसी की सहायता से शंकरलाल का फ्राड खुल सकता है ।”
“तुम चिन्ता न करो । मेरे आदमी रामनाथ की पैदाइश से लेकर अब तक की जिन्दगी के बखिए उधेड़कर रख देंगे ।”
“सिल्वर जुबली असाइलम का पता क्या है ?”
“यह नगर से बाहर प्रभात नगर नाम के एक उपनगर में है ।”
“तुमने पता किया है कि सुन्दरदास उसमें है भी या नहीं ?”
“सुन्दरदास वहां है ।”
“ओके !” - सुनील द्वार की ओर बढता हुआ बोला - “मुझे फोन करते रहना ।”
“अच्छा ।”
***
सुनील ब्लास्ट के आफिस में वापस लौटा ।
केवल दो घन्टे की जानकारी में ही प्रमिला और शारदा यूं हिल-मिल गई थीं जैसे वर्षों से एक दूसरे को जानती हों ।
सुनील को देखते ही शारदा की प्रश्नसूचक दृष्टि उसकी ओर उठ गई ।
“तुम्हारे अंकल इस समय प्रभात नगर के सिल्वर जुबली असाइलम में हैं ।”
“अब वे मेरे अंकल कहां हैं ?” - शारदा धीमे स्वर में बोली ।
“शारदा” - सुनील बोला - “अगर यह बात सच भी हो तो क्या बीस साल का एक आदमी से मोह-ममता का रिश्ता केवल इसलिए समाप्त हो सकता है क्योंकि तुम उस आदमी से सम्बन्धित नहीं हो ?”
“नहीं ।” - शारदा कठिन स्वर में बोली ।
“तो फिर ऐसी बातें क्यों करती हो ?”
“अब नहीं करूंगी ।”
“फाईन ।”
“क्या मैं अंकल से मिल सकती हूं ?”
“मेरे ख्याल से तो पागलखाने वाले तुम्हें उनसे मिलने नहीं देंगे । शंकरलाल ने ऐसा ही कुछ इन्तजाम किया होगा ।”
“तो फिर ?”
“तुम थोड़ी देर प्रतीक्षा करो । मुझे स्थिति को समझ लेने दो । उसके बाद मैं तुम्हें सुन्दरदास से मिलाने की चेष्टा करूंगा ।”
उसी समय प्रमिला के डेस्क पर रखे फोन की घन्टी घनघना उठी ।
प्रमिला ने रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया ।
“हल्लो !” - वह बोली ।
कुछ क्षण सुनते रहने के बाद उसने रिसीवर सुनील की ओर बढा दिया ।
“तुम्हारा फोन है ।” - वह बोली ।
“कौन है ?” - सुनील ने रिसीवर लेते हुए पूछा ।
“रमाकांत ।”
“हल्लो, रमाकांत !” - सुनील माउथपीस में बोला ।
“सुनील, एक बड़ी मजेदार बात हो गई हो ।” - दूसरी ओर से रमाकांत का स्वर सुनाई दिया ।
“क्या ?”
“अभी मुझे नैशनल बैंक के मैनेजर गुप्ता ने फोन किया था । सुन्दरदास के एकाउन्ट के सम्बन्ध में उसने मुझे एक ऐसी बात बताई हैं जिसकी अभी तक किसी को जानकारी नहीं है ।”
“क्या ?”
“तुम अभी ऑफिस में ही हो न ?”
“हां ।”
“तुम वहीं रहो । मैं गुप्ता को लेकर तुम्हारे पास आ रहा हूं । वह तुम्हें अधिक अच्छी तरह से स्थिति समझा सकेगा ।”
“कितनी देर में आओगे ?”
“दस मिनट में ।”
“ओके । मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
“शारदा ।” - वह बोला - “तुम प्रमिला के पास ही ठहरो । मेरे कुछ मित्र आ रहे हैं उनसे निपटकर मैं फिर तुमसे बात करूंगा ।”
“अच्छा ।” - शारदा बोली ।
सुनील वहां से बाहर निकला और अपने केबिन में आ बैठा ।
ठीक दस मिनट बाद रमाकांत एक लगभग चालीस वर्ष के व्यक्ति के साथ उसके केबिन में प्रविष्ट हुआ ।
“सुनील, इनसे मिलो ।” - वह परिचय कराता हुआ बोला - “ये मिस्टर गुप्ता हैं । नेशनल बैंक के एजेन्ट । और मिस्टर गुप्ता, यह सुनील है । मेरा मित्र, जिसका जिक्र थोड़ी पहले मैंने आपसे किया था ।”
“हैलो !” - सुनील उठकर हाथ मिलाता हुआ बोला - “तशरीफ रखिए ।”
गुप्ता बैठ गया । रमाकांत भी बैठ गया ।
“सुनील ।” - रमाकांत बोला - “अपना काम छोड़कर ये यहां तक आए हैं ।”
“बहुत तकलीफ की आपने ।” - सुनील शिष्ट स्वर में बोला - “मैं शुक्रगुजार हूं आपका ।”
“ओह, डोंट माइन्ड आई से ।” - गुप्ता एकदम अनौपचारिक स्वर में बोला - “रमाकांत मेरा मित्र है । आप रमाकांत के मित्र हैं इस नाते से आप मेरे भी मित्र हुए । तो फिर तकलीफ कैसी ?”
सुनील हंस पड़ा । गुप्ता उसे बहुत सरल चित्त आदमी लगा ।
सुनील ने प्रश्नसूचक दृष्टि से रमाकांत की ओर देखा ।
“आप ही बताइए, गुप्ता जी ।” - रमाकांत उसकी दृष्टि का अर्थ समझ कर बोला ।
“मिस्टर सुनील ।” - गुप्ता बोला - “कुछ भी बताने से पहले मैं आपको यह बताना चाहता हू कि आपको शारदा के हित में किसी प्रकार का सहयोग देने के लिए मैं तैयार क्यों हो गया हूं ।”
“फरमाइए ।”
“देखिए, सुन्दरदास को मैं बरसों से जानता हूं । बरसों से वह हमारा क्लायन्ट हैं, हमारे बैंक में उसका एकाउन्ट है । इस नाते हमें उसमें दिलचस्पी है और उसे हममें । सुन्दरदास हमारे लिए एक सम्मानित क्लायन्ट है जिसे हम खूब जानते हैं, खूब समझते हैं । इसके विपरीत कोर्ट द्वारा नियुक्त उसकी सम्पत्ति का संरक्षक शंकरलाल हमारे लिए एकदम अजनबी आदमी है और फिर शंकरलाल से तो मैं खास तौर से फ्रिक्शन रखता हूं ।”
“क्यों ?”
“वह ठीक आदमी नहीं है । आज से छ: महीने पहले जब वह सुन्दरदास के साथ रहने राजनगर आया था तभी उसने बैंक के चक्कर काटने आरम्भ कर दिए थे, यह जानने के लिए कि सुन्दरदास के एकाउन्ट में कितना रुपया था । एक बार उसने खुद मुझसे आकर पूछा था । लेकिन मैंने उसे बड़ी शान्ति से यह समझा दिया था कि हम किसी तीसरे आदमी को किसी के एकाउन्ट के विषय में ऐसी जानकारी नहीं दिया करते हैं लेकिन शंकरलाल फिर भी मेरे या बैंक के किन्हीं कर्मचारियों कें पीछे पड़ा रहा करता था । मजबूर होकर एक बार मुझे उसे डांट कर बैंक से भागना पड़ा था ।”
“फिर ?”
“बाद में जब वह कोर्ट द्वारा सुन्दरदास की सम्पत्त‍ि का संरक्षक नियुक्त किया गया तो वह हमसे बड़ी बुरी तरह पेश आया ।”
“क्या किया उसने ?”
“ऐसे मामलों में साधारणतया यह होता है कि कोर्ट द्वारा नियुक्त संरक्षक कोर्ट के फैसले की एक कापी । हमें सौंप देता है और हम उस कोर्ट आर्डर के आधार पर क्लायन्ट का सारा एकाउन्ट सरंक्षक के नाम ट्रांसफर कर देते है । सुन्दरदास के मामले में मैंने कोर्ट आर्डर की कापी देखी था । उसमे लिखा था कि शंकरलाल, कोर्ट द्वारा नियुक्त सुन्दरदास के संरक्षक की हैसियत से नेशनल बैंके में फैसले की तारीख तक जितना रुपया सुन्दरलाल के एकाउन्ट में है, उसे सुरक्षा के निमित्त अपने अधिकार में ले सकता है । उस फैसले की उस तारीख तक सुन्दरदास के एकाउन्ट में एक लाख अस्सी हजार दो सौ ग्यारह‍ रुपये पचास पैसे थे । हमने ‘शंकरलाल, सुन्दरदास की सम्पत्ति का संरक्षक के नाम एक नया एकाउन्ट खोल दिया और वह रकम उस एकाउन्ट में ट्रांसफर कर दी । लेकिन शंकरलाल ने जो दूसरा काम किया वह ऐसा था जैसे उसने हमारे मुंह पर तमाचा मारा हो ।”
“क्या किया उसने ?” - सुनील उत्सुक स्वर में बोला ।
“उसके नाम एकाउन्ट ट्रांसफर होते ही उसने एक लाख अस्सी हजार दो सौ ग्यारह रुपये पचास पैसे का एक चैक काट कर सारा रुपया बैंक से निकलवा लिया और किसी दूसरे बैंक में एकाउन्ट खुलवा लिया । प्रत्यक्ष था कि वह हमारी तौहीन करना चाहता था और किसी हद तक हमसे हमारे पिछले व्यवहार का बदला ले रहा था । ऐसे व्यवहार के बदले में प्रत्यक्ष है कि हम भी कम से कम सहयोग नहीं देंगे ।”
“आप अब उसका बिगाड़ क्या सकते हैं ? रुपया तो बैंक से निकल ही चुका है ।”
“शंकरलाल ने एक गलती की है ।”
“क्या ?”
“उसने कहा है कि कोर्ट के आर्डर की तारीख तक जो धन सुन्दरदास के एकाउन्ट में है, वह संरक्षक के नाम ट्रांसफर कर दिया जाए । ऐसा ही हमने किया जबकि उसे चाहिए था कि वह एकाउन्ट हमारे ही बैंक में रखता और साथ ही हमें यह भी कह देता कि उस तारीख के बाद से सुन्दरदास के एकाउन्ट के मामले में केवल शंकरलाल के हस्ताक्षर चलेंगे ।”
“इससे क्या फर्क पड़ता है ।”
“इससे फर्क पड़ता नहीं, पड़ गया है ।”
“क्या ?”
“आज ही किसी ने सुन्दरदास के एकाउन्ट में एक लाख रुपया जमा करवा दिया है ।”
“क्या !” - सुनील हैरानी से चिल्ला पड़ा ।
“जी हां । सुन्दरदास अपना बिजनेस यूं ही किया करता था । मान लीजिए उसने एक लाख रुपये की कोई जायदाद बेचनी है । वह उस जायदाद का सेल डीलर बनकर अपने वकील को सौंप देगा और खरीदार से कहेगा कि वह नेशनल बैंक में उसके नाम एक लाख रुपये जमा कर दे और रसीद ले आए । खरीदार रुपया जमा करके रसीद ले आएगा और वकील को वह रसीद दिखाकर जायदाद का क्लेम ले लेगा । इससे सुन्दरदास ढेर सारी परेशानी से बचा रहता था । इस बार जो खरीदार सुन्दरदास के हिसाब में एक लाख रुपया जमा कर आने आया था, उसे इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि सुन्दरदास का एकाउन्ट किसी संरक्षक के हाथ में पहुंचा गया है । हमने जब उसे यह बात बताई तो वह बोला कि उसे इन बातों से कोई दिलचस्पी टहीं है । वह तो केवल यह जानना चाहता है कि बैंक में सुन्दरदास का एकाउण्ट है या नहीं । एकाउन्ट तो सुन्दरदास का बैंक में है ही । अन्तर केवल इतना है कि उसमें एक नया पैसा भी जमा नहीं है खरीदार बोला है कि फिर हमें उसके एकाउन्ट में डिपाजिट लेना पड़ेगा । बात सच थी । हमने डिपाजिट ले लिया । अब स्थिति यह है कि सुन्दरदास के एकाउन्ट में एक लाख रुपये जमा है । हमें यह समझ नहीं आ रहा है कि इस बात की सूचना हमें शंकरलाल को देनी चाहिए या नहीं ?”
“मैं अभी बताता हूं ।” - सुनील उठता हुआ बोला - “आप तशरीफ रखिए, मैं आता हूं ।”
सुनील केबिन से बाहर निकल गया ।
वह सीधा ब्लास्ट के प्रोपराइटर, एडीटर मलिक साहब के कमरे में घुस गया ।
“गुड आफ्टरनून, सर ।” - वह बोला ।
मालिक साहब ने पैन हाथ से रख दिया । उन्होंने एक विचित्र दृष्टि से सुनील को सिर से पांव तक देखा और फिर बोले - “गुड आफ्टरनून । बैठो ।”
सुनील ने बैठने का उपक्रम नहीं किया ।
“मैं आपके सामने एक प्रार्थना लेकर आया हूं ।” - वह खड़े खड़े ही बोला ।
“क्या ?”
“मुझे पचास हजार रुपये की जरूरत है ।”
“क्या ?” - मलिक साहब एकदम हैरानी से चिल्ला उठे ।
“जी हां । केवल दो घन्टे के लिए । दो घन्टे बाद मैं आपका धन आपको लौटा दूंगा ।”
“तुम होश में तो हो ?”
“मैं पूरे होश में हूं । मुझे दो घन्टे के लिए पचास हजार रुपये की जरूरत है और पचास हजार रुपये आप मुझे देंगे ।” - सुनील एक एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला ।
“आखिर तुम इतनी बड़ी रकम का करोगे क्या और वह भी केवल दो घन्टे के लिए !”
“यह मैं अभी नहीं बता सकता ।” - सुनील शुष्क स्वर में बोला ।
मलिक साहब हतप्रभ से उसका मुंह देखते देखते रहे और फिर कठोर स्वर में बोले - “मैं खामखाह इतनी बड़ी रकम नहीं दे सकता ।”
“आप इन्कार कर रहे हैं ?”
“सुनो...”
“आपको मुझे पर भरोसा नहीं है ?”
“सवाल भरोसे का नहीं है ।”
“सवाल भरोसे का ही है ।” - सुनील ऊंचे स्वर में बोला - “यह मेरे लिए लानत की बात है कि अपनी छ: साल की ब्लास्ट की नौकरी में मैं आपका इतना भी विश्वास प्राप्त नहीं कर सका कि आप मेरा पचास हजार रुपये के लिए भरोसा कर सकें ।”
“क्या बेवकूफों जैसी बातें कर रहे हो ?” - मलिक साहब उखड़ कर बोले - “मैंने कब अविश्वास प्रकट किया है तुम पर ?”
“आप अभी अविश्वास प्रकट कर रहे हैं । अगर आपको मुझ पर विश्वास है तो आप मुझे पचास हजार रुपया दे क्यों नहीं देते हैं ?”
मलिक साहब सोच में पड़ गए ।
“मलिक साहब !” - सुनील बोला - “यह बात मत भूलिए अगर मैं आज ब्लास्ट की नौकरी छोड़ दूं तो क्रानिकल के सिन्हा साहब मुझे दुगना तो वेतन देंगे और दो घन्टे के लिए पचास हजार रुपये उधार देने में जरा भी हुज्जत नहीं करेंगे ।”
“तुम मुझे धमकी दे रहे हो ?” - मलिक साहब चिल्लाये ।
“जी हां ।” - सुनील बर्फ से ठन्डे स्वर में बोला ।
मलिक साहब ने जहर भरी नजरों से सुनील को घूरा, दांत पीसे, बेबसी से सिर को झटका दिया, फिर कसमसाये और फिर उन्होंने भड़ाक से मेज का दराज खोलकर चैक बुक निकाल ली । उन्होंने क्रोध से कांपती उंगलियों से चैक भरना आरम्भ कर दिया ।
“बेयरर दीजियेगा ।” - सुनील बोला ।
“जुबान बन्द रखो ।” - मलिक साहब दहाड़े ।
उन्होंने चैक पर हस्ताक्षर किए और इतनी जोर से चैक को चैक बुक में से फाड़ा कि काउन्टरफाइल भी साथ ही उखड़ती चली गई । उन्होंने चैक मेज पर सुनील की ओर धकेल दिया ।
चैक उड़ कर फर्श पर आ गिरा ।
“प्रमिला से मोहर लगवा लेना ।” - वे बोले - “नाउ टेक दि हैल आउट आफ हेयर ।”
सुनील ने चुपचाप चैक उठाया । उसकी काउन्टर फाइल फाड़ कर उसने मेज पर पेपरवेट के नीचे रख दी और बोला - “थैंक्यू सर ।”
“गेट आउट !” - मलिक साहब दहाडे़ ।
“वेरी वैल सर ।” - सुनील मुस्कराहट दबाने का प्रयत्न करता हुआ बाहर निकल आया ।
सुनील मलिक साहब के बाहर के आफिस में बैठी प्रमिला के पास पहुंचा ।
“इस पर मोहर लगा दो ।” - वह चैक प्रमिला की मेज पर रखता हुआ बोला ।
“अच्छा !” - प्रमिला सहज स्वर में बोली ।
“शारदा कहां है ?” - सुनील ने पूछा ।
“क्लाक रूम में ।” - प्रमिला बोली ।
उसने ब्लास्ट की मोहर निकाली, स्टेम्प पैड से उस पर स्याही लगाई और वह मोहर लगाने ही लगी थी कि उसे चैक पर सुनील का नाम और चैक की रकम दिखाई दी ।
“सुनील !” - वह आश्चर्यचकित स्वर में बोली ।
“धीरे बोलो । मलिक साहब पहले ही गर्म हो रहे हैं ।” - सुनील शान्ति से बोला ।
“पचास हजार रुपये का बेयरर चैक ! तुम्हारे नाम ?”
“यस मदाम !” - सुनील बड़े नाटकीय मान से सिर झुकाकर बोला ।
“बात क्या है, सुनील ! क्या चांद पर जा रहे हो ?”
“बात कुछ भी नहीं है, देवी जी । ब्लास्ट की नौकरी करते हैं आपकी तरह घास नहीं खोदते हैं । यह मामूली सी रकम मुझे छ: साल की शानदार सरविस के बदले इनाम में मिली है ।”
“तुम नहीं बताओगे ?” - प्रमिला धमकीभरे स्वर में बोली ।
“नहीं ।”
“मैं चैक पर मोहर लगाकर नहीं दूंगी ।”
“मत लगाना । मैं चैक को यूं ही ले जाऊंगा । चैक बैंक से डिसआनर होकर वापिस आ जाएगा । नतीजा यह होगा कि मलिक साहब तुम्हारा हुलिया बिगाड़ देंगे ।”
“सोनू डियर !” - प्रमिला बड़े प्यार से बोली ।
“फरमाइए ।”
“क्या चक्कर है ?”
“बता दूं ?”
“जानने के लिए ही तो पूछ रही हूं ।”
“जलोगी तो नहीं ?”
“मेरी जूती जलती है ।”
“मैं शादी कर रहा हूं ।” - सुनील रहस्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“अच्छा !” - प्रमिला की आंखें फैल गई ।
“जी हां । क्या समझती हैं आप मुझे ?”
“किससे शादी कर रहे हो, सोनू डियर ? कोई बन्दरिया मिल गई क्या ?”
“नाम सुनोगी तो कबाब हो जाओगी ।”
“कौन है ! अब कह भी चुको ।”
“प्याला सिन्हा ।”
“यह कौन है ?”
“प्याला सिन्हा को नहीं जानती ?” - सुनील हैरानी से बोला - “भारत की सबसे खूबसूरत सबसे मशहूर और सबसे आसानी से हासिल हो जाने वाली महान अभिनेत्री प्याला सिन्हा को नहीं जानती तुम ? अभी हाल ही में तो उसकी फिल्म ‘टार्जन प्याला सिन्हा की गोद में’ ने सिल्वर जुबली मनाई है ।”
“लानत है तुम पर ।” - प्रमिला भड़ाक से चैक पर मोहर ठोकती हुई मुंह बिगाड़कर बोली ।
उसने चैक सुनील की फैली हुई हथेली पर पटक दिया ।
“थैंक्यू, मदाम ।” - सुनील बोला ।
उसी समय शारदा वापिस आ गई ।
“शारदा !” - सुनील एकदम गम्भीर स्वर में बोला - “वह चैक निकालो तो ।”
“क्या बात है ?” - शारदा पर्स खोलती हुई बोली - “अब तो इस चैक की कीमत दो कौड़ी भी नहीं है ।”
“शारदा देवी, तुम केवल तेल देखो और तेल की धार देखो । भगवान की लीला को कौन समझ पाया है ? कौन जानता है कब और कैसे दो कौड़ी का कागज लाख का हो जाए ।”
“डेढ लाख का !” - शारदा ने संशोधन किया ।
“नहीं, एक लाख का ही । आज‍कल के बनस्पति भगवान भी अपनी लीलायें कन्ट्रोल रेट पर दिखाते हैं ।”
“शारदा !” - प्रमिला बीच में बोल पड़ी - “सुनील इस समय भगवान की नहीं अपनी लीला दिखाने की बात कर रहा है । इसलिए तुम तेल और तेल की धार मत देखो, काफी और काफी में आइसक्रीम देखो ।”
शारदा हंस पड़ी ।
“क्या करूं इस चैक का ?” - वह सुनील से बोली ।
“इसकी पीठ पर अपने हस्ताक्षर कर दो ।”
शारदा ने हस्ताक्षर कर दिए ।
“अब यह चैक मुझे दे दो और खुद यह सोचने का प्रयत्न करो कि अगर तुम्हारे पास एक लाख रुपया होता तो तुम उसका क्या करतीं ?”
शारदा के कुछ बोलने से पहले ही सुनील ने उसके हाथ से चैक लिया और केबिन से बाहर निकल आया ।
वह वापिस अपने केबिन में आ गया ।
गुप्ता और रमाकांत बड़ी बेचैनी से सुनील का इन्तजार कर रहे थे । रमकांत अपने प्रिय सिगरेट चारमीनार के कश लगाकर रेल के इन्जन की तरह धुआं उगल रहा था । गुप्ता शायद सिगरेट नहीं पीता था ।
“मैंने अपने वकील से बात की है, गुप्ताजी !” - सुनील बोला - “वकील का कथन है कि आप पर ऐसी कोई कानूनी जिम्मेदारी नहीं आती है कि आपको शंकरलाल को इस बात की सूचना देनी चाहिए कि हाल ही में सुन्दरदास के हिसाब में कोई रकम जमा की गई है लेकिन फिर भी ऐसे मामलों में बेहतर यही हेाता है कि आप यह सूचना शंकरलाल को भिजवा दें ।”
“उस रकम को अपने नाम में ट्रांसफर करवाने के लिए शंकरलाल को फिर बैंक में प्रार्थना पत्र देना पड़ेगा ?” - रमाकांत ने पूछा ।”
“वह तो करना पड़ेगा ही !” - गुप्ता बोला ।
“ओके, सुनील ।” - गुप्ता उठता हुआ बोला - “मैं तो यह सोचकर तुम्हारे पास आया था कि तुम इस नई रकम को किसी ढंग से शारदा को दिलवाने का प्रयत्न करोगे और हमें शंकरलाल पर चोट करने का एक मौका मिल जाएगा । लेकिन तुमने तो हमें शंकरलाल के हक में ही काम करने की सलाह दे डाली ।”
“यही उचित भी है, मिस्टर गुप्ता !” - सुनील बोला ।
“आल राइट । सी यू अगेन ।” - गुप्ता मिलाने के लिए हाथा बढाता हुआ बोला ।
“मैं भी आपके साथ ही चल रहा हूं ।” - सुनील हाथ थाम कर बोला ।
“कहां ?”
“बैंक । आप बैंक जा रहे हैं न ?”
“हां, हां शौक से चलिए । मेरी गाड़ी बाहर खड़ी है ।”
तीनों बाहर चल दिए ।
“हमारा एकाउन्ट भी तो आप की की ब्रांच में है ।”
“जी हां, कृपा है आप लोगों की ।”
“मैं कुछ रुपया निकालना चाहता हूं ।”
“जरूर ।”
तीनों गुप्ता की गाड़ी पर बैंक पहुंच गए ।
“आप मेरे कमरे में आकर बैठिए । चैक मुझे दे दीजिए । मैं रुपया वहीं मंगवा दूंगा ।”
“बहुत अच्छा ।”
सुनील गुप्ता के कमरे में बैठा था ।
उसने मलिक साहब के पचास हजार वाले चैक पर अपने साइन किए और चैक गुप्ता को दे दिया ।
गुप्ता ने एक चपरासी के हाथ चैक बाहर भिजवा दिया ।
“उस एक लाख रुपये के डिपाजिट की सूचना मैं शंकरलाल को टेलीफोन पर दे दूं ?” - गुप्ता फोन की ओर बढाता हुआ बोला ।
“आप चिट्ठी लिखिए, गुप्ता जी, ताकि आपके रिकार्ड में भी यह बात आ जाए कि एक अच्छे बैंकर के नाते आपने न्यायोचित काम किया है ।”
“बेहतर !” - गुप्ता ने फोन की ओर से हाथ खींच लिया ।
एक चपरासी तीनों को कोका कोला सर्व कर गया ।
कोका कोला समाप्त होने तक क्लर्क पचास हजार रुपये के नोट ले आया ।
“लीजिए ।” - गुप्ता नोट सुनील की ओर बढाता हुआ बोला ।
“थैंक्यू !” - सुनील ने नोट लेकर गिने और फिर बोला - “तुम यही बैठना रमाकांत, मैं पांच में मिनट आता हूं । एक्सक्यूज मी, मिस्टर गुप्ता ।”
“नैवर माइन्ड !” - गुप्ता उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
सुनील ने बाहर आाकर सुन्दरदास के नाम की एक डिपाजिट स्लिप भरी और फिर उसने वह स्लिप और पचास हाजर रुपये के नोट काउन्टर पर ले जाकर रख दिए ।
क्लर्क ने स्लिप देखी और एकदम हैरानी से बोला - “सुन्दरदास के एकाउन्ट में ?”
“हां ।” - सुनील ने उत्तर दिया ।
“लेकिन वह एकाउन्ट तो...”
“क्या हुआ है उस एकाउन्ट को ?”
“ट्रांसफर हो गया है ।”
“एकाउन्ट ट्रांसफर नहीं हुआ है, मिस्टर । एकाउन्ट की एक विशेष तारीख तक की रकम ट्रांसफर हुई है । सुन्दरदास का एकाउन्ट अब भी तुम्हारे बैंक में है । या नहीं ?”
“जी हां, जी हां, है ।”
“तो फिर यह डिपाजिट लेने में क्या ऐतराज है तुम्हें ?”
“कोई ऐतराज नहीं है । मैं एक मिनट में आया ।”
क्लर्क उठा और लपकता हुआ मैनेजर के कमरे में घुस गया । कुछ ही देर बाद गुप्ता उसके साथ लम्बे डग भरता हुआ काउन्टर पर आ पहुंचा ।
“तुम... आप, मिस्टर सुनील ?” - गुप्ता हैरानी से बोला - “आप डिपाजिट करा रहे हैं सुन्दरदास के एकाउन्ट में ?”
“जी हां ।” - सुनील बोला ।
“कमाल है ।”
“कमाल क्या है इसमें ? क्या मैं किसी के एकाउन्ट में रुपया जमा नहीं करवा सकता ?”
“बिल्कुल करवा सकते है ।”
“तो फिर देर किस बात की है ?”
“कोई देर नहीं है ।” - गुप्ता जल्दी से बोला और फिर क्लर्क की और मुड़ा - “डिपाजिट ले लो ।”
क्लर्क ने रुपया ले लिया । फिर उसने डिपाजिट स्लिप दी काउन्टरफाइल पर बैंक की मोहर लगाकर काउन्टरफाइल सुनील को सौंप दी दी ।
गुप्ता तब तक वहीं खड़ा रहा ।
“और कोई सेवा, मिस्टर सुनील ?” - गुप्ता ने पूछा ।
“है ।” - सुनील शारदा के नाम सुन्दरदास वाला डेढ लाख का चैक निकालकर काउन्टर के जंगले के ऊपर से मैनेजर को थमाता हुआ बोला - “मैं यह चैक कैश कराना चाहता हूं ।”
गुप्ता ने चैक ले लिया । उसके चेहरे पर गहरी हैरानी और उलझन के भाव प्रकट होने लगे ।
“यह डेढ लाख का चैक...”
“कोई खराबी है इसमें ?” सुन्दरदास के हस्ताक्षर नहीं मिलते या बैंक में सुन्दरदास के हिसाब में इतना रुपया नहीं है ?”
“कोई खराबी नहीं है चैक में ।” - गुप्ता बोला - “अभी पैमेंट हई जाती है ।”
गुप्ता ने चैक काउन्टर पर बैठे एक अन्य क्लर्क को दे दिया ।
“हजार-हजार के नोट दिलवाइएगा ।” - सुनील बोला ।
“बहुत अच्छा !” - गुप्ता बोला - “पैमेंट हो जाएगी । आप आफिस में आइए !”
“वैरी वैल !” - सुनील आफिस की ओर बढ गया ।
वे फिर गुप्ता के कमरे में आ बैठे ।
“मान गए आपको, सुनील साहब !” - गुप्ता प्रशंसापूर्ण स्वर में बोला ।
“अच्छा !” - सुनील सहज स्वर में बोला ।
“मुझे आपकी स्कीम जरा देर में समझ आई । सुन्दरदास के हिसाब में पचास हजार रुपया अपने पास से जमा कराने का मतलब यह था कि उसने एकाउन्ट में इतना धन हो जाए कि आप डेढ लाख का चैक कैश करा सकें ।”
सुनील चुप रहा ।
रमाकांत आश्चर्य से उसका मुंह देखता रहा ।
उसी समय एक क्लर्क रूपये ले आया । सुनील ने नोट गिने और फिर उन्हें कोट की भीतर जेब में रखता हुआ उठ खड़ा हुआ ।
“शंकरलाल को वह सूचना भिजवाना मत भूलिएगा ।” - सुनील गुप्ता से बोला ।
“बिल्कुल नहीं भूलूंगा, साहब ।” - गुप्ता मुस्कराहट दबाने की चेष्टा करता हुआ बोला - “हमारा काम तो सुन्दरदास के एकाउन्ट की स्थिति की सूचना भिजवाना है । अगर इसी बीच में कोई सुन्दरदास का सच्चा चैक दिखाकर पेमेंट ले जाता है तो हम क्या कर सकते हैं ।”
“जी हां । बिल्कुल । आप क्या कर सकते है !” - सुनील हाथ फैला कर बोला ।
गुप्ता ने सुनील और रमाकांत से हाथ मिलाया ।
दोनों बैंक से बाहर निकल आए ।
“रामनाथ के बारे में कोई नई बात पता लगी ?” - बाहर आकर सुनील ने पूछा ।
“अभी नहीं ।” - रमाकांत बोला - “यह नोटों का क्या किस्सा था ?”
सुनील ने संक्षेप से सारी बात सुना दी ।
“कोई गड़बड़ वाली बात तो नहीं है ?” - रमाकांत सशंक स्वर में बोला ।
“गड़बड़ कैसी ? मैंने बैंक में चैक दिया, मुझे रुपया मिल गया ।”
“और वे जो पचास हजार रुपये जमा कराये हैं ?”
“किसी दूसरे आदमी के एकाउन्ट में अपना रुपया जमा कराना एक मूर्खतापूर्ण हरकत तो मानी जा सकती है, रमाकांत प्यारे, गैरकानूनी नहीं ।”
रमाकांत चुप रहा ।
“तुम कहां जाओगे ?” - सुनील ने पूछा ।
“यूथ क्लब ।”
“तो फिर एक टैक्सी लो । मुझे ब्लास्ट के आफिस के सामने उतारते हुए यूथ क्लब चले जाना ।”
“टैक्सी के पैसे कौन देगा ?” - रमाकांत बोला ।
“जो टैक्सी से आखिर में उतरेगा ।”
“तो फिर ऐसा करो, तुम मुझे यूथ क्लब छोड़ते हुए ब्लास्ट चले जाना ।”
“बड़े कमीने हो, यार ! यहां से यूथ क्लब समीप है या ब्लास्ट ?”
रमाकांत कुछ नहीं बोला ।
“अगर तुम अकेले होते तो भी तुम यूथ क्लब टैक्सी पर जाते ?” - सुनील बोला ।
“तब की और बात होती ।”
“शर्म करो कुछ । साले लखपति हो तुम !”
“तो तुम ही कौन से भूखे मर रहे हो ?”
“अच्छा मेरे बाप !” - सुनील टैक्सी स्टैंड की ओर बढता हुआ बोला - “किराया मैं ही दे दूंगा ।”
“यह हुई मर्दों जैसी बात । आखिर इतना तो सोचो कि इस समय तुम्हारी जेब में डेढ लाख रुपया है ।”
“लानत है ।” - सुनील बड़बड़ाया ।
दोनों टैक्सी में आ बैठे ।
“ब्लास्ट !” - सुनील ड्राइवर से बोला ।
रास्ते में कोई नहीं बोला ।
टैक्सी ब्लास्ट के सामने आ रुकी ।
सुनील बाहर निकल आया ।
“यूथ क्लब तक कितना मीटर हो जायेगा, ड्राइवर साहब ?” - सुनील ने टैक्सी वाले से पूछा ।
“लगभग पांच रुपये ।” - ड्राइवर बोला ।
“रमाकांत, पांच रुपये मेरे एकाउन्ट में जमा कर लेना ।” - सुनील रमाकांत से बोला और फिर धड़धड़ाता हुआ ब्लास्ट की इमारत में घुस गया ।
रमाकांत चिल्लाया - “ओये, माईयंवया ।”
बाकी की बात सुनील को सुनाई नहीं दी ।
सुनील मलिक साहब के कमरे के साथ सटे प्रमिला के केबिन में घुस गया ।
“शारदा कहां है ?” - उसने पूछा ।
“वह होटल में चली गई है ।” - प्रमिला ने बताया ।
“होटल में ! कहां ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
“यहां से दो तीन ब्लाक दूर ही एक होटल है । होटल रिवर । उसने वहां कमरा ले लिया है ।”
“तुमने उसे अपने फ्लैट पर रहने की नहीं कहा ?”
“मैंने कहा था लेकिन वह बोली कि मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती ।”
“उसके पास होटल का खर्च उठाने के लिए पैसे थे ?”
“थोड़े बहुत थे । और फिर वह कहती थी कि वह जल्दी ही कहीं सस्ता-सा कमरा किराये पर लेकर रहने लगेगी । तब तक वह कोई नौकरी भी तलाश कर लेगी ।”
“अजीब लड़की है ।” - सुनील बड़बड़ाया - “सुबह चटर्जी के सामने तो वह कह रही थी कि मेरा क्या होगा ! मैं कहां जाऊं ? इस संसार में मेरा कोई ठिकाना नहीं, मेरा अपना कोई नहीं और अब ऐसी जिम्मेदारी दिखा रही है जैसे सुबह की बात कोई ड्रामा ही हो... कब गई थी वह ?”
“तुम्हारे जाने के थोड़ी देर बाद ही । वैसे वह कह गई है कि लौटकर आएगी ।”
“सुनील ने अपनी जेब से हजार-हजार के नोटों की गड्डी निकाली और उसमें से सौ नोट निकालकर प्रमिला को देता हुआ बोला - “जब वह आए तो ये नोट उसे दे देना । यह पूरा एक लाख रुपया है । उसे कहना कि उसका चैक किसी हद तक कैश हो गया है और साथ ही उसे अच्छी तरह समझा देना कि वह इस धन को बहुत ही अधिक हिफाजत से रखे । अगर किसी के कान में भनक भी पड़ गई कि उसके पास इतना धन है तो अगले दिन उसकी लाश किसी गन्दे नाले में पड़ी मिलेगी । वह राजनगर है कोई धर्म नगरी नहीं । और विशेष रूप से जबकि वह होटल में रह रही है ।”
“तुम ही क्यों नहीं कहते यह सब ?”
“पता नहीं वह कब आए ? मुझे बहुत काम है । वैसे उसके आगमन के समय अगर मैं ऑफिस में ही हुआ तो मैं बात कर लूंगा उससे ।
“ओके !” - प्रमिला ने कहा ।
“मलिक साहब हैं ?” - सुनील ने पूछा ।
“हां ।” - प्रमिला बोली ।
“भीतर कोई है ?”
“नहीं ।”
सुनील धीरे से मलिक साहब के कमरे का द्वार ठेलकर भीतर घुस गया । मलिक साहब ने सिर उठाकर सुनील को देखा और फिर कठोर स्वर में बोले - “अब क्या है ?”
सुनील ने चुपचाप बचे हुए नोट मलिक साहब के सामने मेज पर रख दिए ।
मलिक साहब ने नोटों की सूरत देखी और एकदम भड़क उठे - “ये क्या बदतमीजी है ?”
“वह मैं आपसे पचास हजार रुपये ले गया था न, वे वापस करने आया हूं ।”
“इतनी जल्दी ?”
“जी हां । इतने ही समय के लिए जरूरत थी ।”
“सुनील, तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है ? तुम तमाशा करना चाहते थे ? मेरा इम्तहान लेना चाहते थे तुम ?”
“इम्तहान नहीं, सर ।” - सुनील शांत स्वर में बोला - “मुझे वाकई पचास हजार रुपये की जरूरत थी और वह जरूरत इतने ही समय के लिए थी ।”
“बात क्या थी ?” - मलिक साहब तिनक नम्र स्वर में बोले ।
“ब्लास्ट पढने की आदत डालिए, साहब । फिर आपको ऐसी मामूली बातें मुझसे पूछने की जरूरत नहीं रहेगी ।”
जो हुआ उसकी सुनील को आशा भी नहीं थी ।
“गेट आउट ।” - मलिक साहब एकदम भड़ककर बोले ।
“थैंक्यू सर !” - सुनील सिर झुकाकर द्वार की ओर बढता हुआ बोला - “थैंक्यू वैरी मच इन्डीड । यू आर ए वैरी जनरस एम्पलायर ।”
सुनील बाहर निकल आया ।
“मलिक साहब क्यों गरज रहे थे ?” - प्रमिला ने धीमे स्वर में पूछा ।
“उनकी कुर्सी में एक चुहिया घुस गई थी ।” - सुनील बोला और बाहर निकल गया ।
***
सुनील शाम को लगभग पांच बजे दफ्तर से निकलने ही वाला था कि उसे रमाकांत का फोन आया ।
“सुनील ।” - रमाकांत बोला - “रामनाथ के बारे में कुछ बातें पता लगी हैं, सोचा तुम्हें बता दूं ।”
“कहो !”
“रामनाथ विशालगढ के एक बहुत बड़े क्लब के संचालकों में से एक है । वह क्लब नाम का ही क्लब है । वास्तव में वह एक बहुत बड़ा, बहुत ही ऊंचे पैमाने पर चलने वाला एक जुआघर है । बस यूं समझ लो कि जैसा किसी जमाने में हमारे यहां ज्यूल बॉक्स होटल एण्ड क्लब के मालिक माइक का जुआघर चला करता था । शंकरलाल को जुए की भी लत है । उस पर जुआघर का कई हजार रुपये का कर्ज है । उसने संचालकों को कई मोटी-मोटी रकमों के डिमांड नोट लिखकर दिये गए हैं । शंकरलाल रामनाथ का दोस्त है और रामनाथ के कारण ही उसे इतना कर्ज मिल भी गया था । शंकरलाल ने उन लोगों को कहा हुआ है कि उसका एक रईस रिश्तेदार मरने वाला है और उसकी लाखों की जायदाद उसे मिलने वाली है । जुआघर के संचालक काफी अरसा शंकरलाल का यह किस्सा सुनते रहे लेकिन बाद में वे बिदक गए । शंकरलाल के कारण अपने पार्टनरों के बीच में रामनाथ की स्थिति भी बड़ी खराब हो गई है । वे लोग रामनाथ के कारण शंकरलाल को कुछ कहते नहीं थे । फिर शंकरलाल जब सुन्दरदास के साथ रहने के लिए राजनगर आ गया तो रामनाथ भी उसके साथ चला आया ताकि वह यह जान सके कि रामनाथ के कथन में कुछ सत्यता है या नहीं ? रामनाथ तो इस समय वास्तव में अपने धन की वसूली के लिए शंकरलाल के साथ टिका हुआ है । सुन्दरदास की कोठी के नौकरों ने रामनाथ को कई बार शंकरलाल को धमकी देते सुना है कि अगर रुपये के भुगतान के सिलसिले में उसने जल्दी ही कुछ न किया तो उसे जेल की हवा खानी पड़ेगी ।”
“लेकिन कानूनी तौर पर जो जुए का पैसा वसूल नहीं किया जा सकता, रमाकांत ।” - सुनील बोला ।
“भई, इन प्रोफेशनल जुएबाजों के डिमांड नोट लिखवाने के कुछ अपने तरीके होते हैं । वे लोग भी इस बात पर पूरा विचार कर लेते हैं कि यह बात हरगिज जाहिर न होने पाए कि वास्तव में कर्जा जुए की रकम का है । अगर वे शंकरलाल पर मुकदमा कर दें तो शंकरलाल यह कभी साबित नहीं कर पाएगा कि उस पर जुए में हारा रुपया वसूल करने के लिए मुकदमा किया जा रहा है । उसे या तो रुपया देना पड़ेगा, या जेल की हवा खानी पड़ेगी । अभी भी शंकरलाल जेल से बाहर है तो केवल रामनाथ की खातिर । रामनाथ जब शंकरलाल के विरुद्ध हो गया, वह तभी शंकरलाल को रगड़ देगा ।”
“इसका मतलब तो यह हुआ कि सुन्दरदास को पागल घोषित करवाकर उसका माल खा जाने में रामनाथ की शंकरलाल से भी अधिक दिलचस्पी है ।”
“जाहिर है ।”
“फिर तो यह भी सम्भव है कि सुन्दरदास का धन हथियाने की सारी स्कीम रामनाथ की ही हो और शंकरलाल और विद्या केवल उसके हाथों के खिलौने ही हों ।”
“बिल्कुल सम्भव है ।”
“और कुछ ?”
“एक बात और है, लेकिन इस विषय में अभी मुझे पूरा विश्वास नहीं है ।”
“क्या ?”
“लगता है कि रामनाथ भी अपने साथियों से छुपता फिर रहा है । घर के नौकरों का कहना है कि पिछले छः महीनों में वह अधिक-से-अधिक पन्द्रह बार घर से बाहर गया है । कोई उससे मिलने नहीं आता । न ही वह कभी किसी से मिलने गया है, ना ही उसने कभी टेलीफोन इस्तेमाल किया है अगर रामनाथ अपने विशालगढ के साथियों की जानकारी में होता तो या तो रामनाथ उससे या वे रामनाथ से कभी तो सम्पर्क स्थापित करने की चेष्टा करते !”
“सम्भव है रामनाथ का अपने साथियों से सम्पर्क स्थापित करने का कोई गुप्त तरीका हो ।”
“बहुत सम्भव है । इसीलिए तो मैं कहा रहा हूं कि मैं इस बात के बारे में कोई दावा नहीं कर सकता ।”
“लेकिन तुम्हें इतना कुछ इतनी जल्दी पता कैसे लग गया ?” - सुनील बोला ।
“वाह ! अगर मैंने जानकारी हासिल करने के अपने सारे ढंग तुम्हें बता दिए तो मेरे आदमी क्या भाड़ झोंकेंगे ! फिर हमारे काम भी तुम ही नहीं करने लगोगे !”
“अच्छा बाबा, बताओ और कुछ ?”
“फिलहाल, बस ।”
“ओके दैन । थैंक्यू ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
वह कुछ क्षण विचारपूर्ण मुद्रा बनाए खड़ा रहा । फिर उसने फोन उठा लिया ।
फोन में डायल टोन मिल रही थी । शायद रेणु ने अभी बोर्ड में से उसकी लाइन का प्लग नहीं निकाला था ।
सुनील ने चटर्जी के नम्बर डायल कर दिए ।
“चटर्जी साहब, सुनील आन दिस साइड ।” - वह बोला ।
“यस, हाऊ आर यू ?”
“फाइन, आपने अदालत में अपील कर दी थी ?”
“हां, और शारदा के हक में अपील स्वीकार भी हो गई है ।”
“वैरी गुड ।”
“दरअसल जज आरम्भ से ही शंकरलाल की नीयत के विषय में संदिग्ध था । लेकिन पहली बार केस की स्थिति ऐसी ही थी कि जज को शंकरलाल के हक में फैसला देना पड़ा था । इस बार शंकरलाल ने अदालत में कुछ उल्टी-सीधी बातें कह दीं जिसके कारण जज और भी संदिग्ध हो उठा । उसने सुन्दरदास की डॉक्टरी जांच के लिए सरकारी तौर से डॉक्टर सिन्हा को नियुक्त कर दिया है । डॉक्टर सिन्हा बहुत ही योग्य मैन्टल सर्जन है । वह कल दस बजे सिल्वर जुबली असाइलम में जाकर सुन्दरदास की कम्पलीट डॉक्टरी जांच करेगा । अब तो केस की सारी स्थिति डॉक्टर सिन्हा की रिपोर्ट पर ही निर्भर है ।”
“वैसे डॉक्टर सिन्हा आदमी कैसे हैं ?”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि कोई ऐसी सम्भावना तो नहीं है न कि शंकरलाल वगैरह डाक्टर को बरगलाएं और डाक्टर को झूठी रिपोर्ट...”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।” - चटर्जी बीच में ही बोल पड़े - “सिन्हा बहुत ही ईमानदार डाक्टर है । जज उसे स्वयं जानता था, इसीलिए जज ने डाक्टर सिन्हा की नियुक्ति की है ताकि किसी प्रकार की तरफदारी की सम्भावना न रह जाए । डाक्टर सिन्हा की ईमानदारी का तुम यहीं से अन्दाज लगा सकते हो कि उसने जज से हुक्म करवा दिया है कि अब से अगली सुबह दस बजे तक सुन्दरदास को किसी भी सूरत में कोई उत्तेजक औषधि नहीं दी जानी चाहिए । डाक्टर सुन्दरदास को अब तक दी गई सारी दवाईयों का चार्ट देखेगा और चैकअप के समय वह पागलखाने के किसी भी आदमी को अपने समीप नहीं रहने देगा । वह अपनी सहायता के लिए अपनी नर्सें लाएगा । इससे अधिक और क्या सावधानी बरती जा सकती है ?”
“लेकिन मान लो डाक्टर की चेतावनी के बाद भी पागलखाने वाले सुन्दरदास को काई गलत प्रभाव डालने वाली दवा खिला देते हैं तो डाक्टर को क्या पता लगेगा ?”
“यही सवाल मैंने डाक्टर सिन्हा से पूछा था । डाक्टर करता है कि खून टैस्ट करने से पता लग सकता है कि पेशेन्ट को ऐसी कोई चीज दी गई है या नहीं । सुनील, किसी गड़बड़ की आशंका तुम अपने दिमाग से निकाल दो । पागलखाने के अधिकारी या सुन्दरदास के रिश्तेदार अगर कोई गड़बड़ करेंगे तो सारे के सारे जेल जाएंगे ।”
“फाइन !” - सुनील सन्तुष्ट स्वर में बोला - “एक बात और है, चटर्जी साहब ।”
“क्या ?”
“डाक्टरी जांच के समय क्या मैं वहां मौजूद रह सकता हूं ?”
“तुम पागलखाने में तो मौजूद रह सकते हो लेकिन जांच के समय डाक्टर अपने पास अपनी नर्सों को छोड़कर किसी को फटकने भी नहीं देगा ।”
“इतना ही काफी है । मैं कल वहां पहुंच जाऊंगा ।”
“जरूर । मैं तुम्हें वहीं मिलूंगा ।”
“ओके ।”
सुनील सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
सुनील ने घड़ी देखी, अभी सवा पांच बजे थे ।
वह अपने केबिन से बाहर निकल आया ।
प्रमिला रिसेप्शन पर रेणु के पास खड़ी थी ।
“शारदा रुपये ले गई ?” - सुनील ने पूछा ।
“हां । तुम उस समय पता नहीं कहां थे । वह तुमसे मिलने को बहुत उत्सुक थी ।” - प्रमिला बोली ।
“क्यों ?”
“वह जानना चाहती थी कि आखिर तुमने ऐसा कौन-सा करिश्मा कर दिया है जिससे वह दो कौड़ी का चैक एक लाख रुपये में बदल गया । वह रिवर होटल के चार सौ बारह नम्बर कमरे में है । वह बड़े प्यार से तुम्हें वहां आने के लिए कह गई है ।”
“प्यार से ?”
“क्यों नहीं तुम तो उसके लिए प्रिंस चार्मिंग हो इस समय ।”
“अच्छा ।”
“शारदा कौन है ?” - रेणु बीच में बोल पड़ी ।
“इसी से पूछो ।” - प्रमिला ने उत्तर दिया ।
“शारदा कौन है, प्यारेलाल जी ?” - रेणु सुनील के कन्धे पर हाथ रखकर बोली ।
“हैल विद यू कैट्स ।” - सुनील उसका हाथ झटककर बोला । दोनों खिलखिलाकर हंस पड़ीं ।
सुनील द्वार की ओर बढ गया ।
“अपना ख्याल रखना ।” - रेणु पीछे से आवाज देकर बोली - “बन्दर के हाथ उस्तरा लग जाना अच्छी बात नहीं होती ।”
सुनील चुपचाप सीढियां उतर गया ।
***
सुनील ने मोटर साइकल निकाली और प्रभात नगर की ओर उड़ चला ।
जिस समय वह सिल्वर जुबली असाइलम के सामने पहुंचा, उस समय छः बज चुके थे । अन्धकार काफी गहरा हो चुका था । पागलखाने के आसपास कोई विशेष आबादी नहीं थी पागलखाने की दुमन्जिली इमारत और उसके आसपास बिखरी छोटी-छोटी हटमैन्ट वगैरह एक कांटेदार तार की सहायता चारों ओर से घिरी हुई थी । सड़क की ओर रुख करता हुआ एक लड़की का फाटक था ।
सुनील ने मोटर साइकल एक ओर खड़ी कर दी और फाटक की ओर बढा ।
फाटक बन्द था ।
सुनील ने आसपास देखा । कोई आदमी नजर नहीं आ था । फाटक के दूसरी ओर फाटक के सटा एक स्टूल रखा था जो इस बात का द्योतक कि फाटक पर कोई चौकीदार जरूर बैठता था ।
सुनील ने एक सिगरेट सुलगा लिया और किसी के फाटक पर आने की प्रतीक्षा करने लगा ।
उसने देखा फाटक पर एक गत्ते का बोर्ड टंगा हुआ था जिस पर लिखा था - आवश्यकता है एक ऐसी युवती की जो छोटे-मोटे नर्सिंग के काम के अतिरिक्त खाना पकाना भी जानती हो । वेतन योग्यतानुसार ।
सिगरेट समाप्त हो गया लेकिन गेट पर कोई नहीं आया ।
सुनील ने सिगरेट का बचा हुआ टुकड़ा फेंक दिया और फिर दोनों हाथों से द्वार को भड़भड़ाने लगा ।
कितनी ही दर बाद चौकीदार सा दिखाई देने वाला एक आदमी मुख्य इमारत में से बाहर निकला और लम्बे डग भरता हुआ फाटक पर आ पहुंचा ।
“क्या बात है ?” - वह अवज्ञापूर्ण स्वर में बोला ।
“तुम चौकीदारी हो ?” - सुनील ने पूछा ।
“हूं ! फिर ।”
सुनील की इच्छा तो हुई कि उसकी चपटी नाक पर एक जोर दार घूंसा जमाकर उसे और चपटा कर दे लेकिन वह अपना क्रोध मन में दबाकर नम्र स्वर में बोला - “फाटक खोलिये, चौकीदार साहब ।”
“क्यों ?” - चौकीदार के स्वर की तल्खी में जरा भी अन्तर नहीं आया ।
“मुझे भीतर आना है ।”
“मुलाकात का समय चार से पांच है, साहब ।”
“मैंने किसी मरीज से नहीं मिलना है, अंग्रेज !” - सुनील सत्य ही चिढ गया ।
“तो फिर ?”
“आफिस में कोई है ?”
“कोई से क्या मतलब ?”
यहां का इन्चार्ज कोई डाक्टर या...”
“कोई नहीं है ।”
सुनील कुछ क्षण चुप रहा फिर बोला - “तो इसका मतलब यह हुआ कि तुम्हारी हैसियत यहां किसी अफसर से कम नहीं है ।”
“कम-से-कम रोगियों से मिलने आने वालों के लिए तो अफसर ही हूं मैं ।”
“ऐसा जुल्म मत करो यार ।”
“क्या मतलब !”
“मैं पांच सौ मील का फासला तय करके यहां मामा से मिलने आया हूं ।”
“यहां पागलखाने में ?”
“हां ।”
“अभी तो तुम कह रहे थे तुम्हें किसी मरीज से नहीं मिलना है !”
“वह तो गलती से मुंह से निकल गया था, बड़े भाई । उस समय मुझे यह थोड़ी मालूम था कि यहां तुम्हारी हस्ती क्या है !”
“कल चार बजे आ जाना ।”
“यार कुछ तो ख्याल करो ! मैं पांच सौ मील का सफर तय करके आ रहा हूं । कम-से-कम मुझे अपने मामा की एक बार सूरत तो देख लेने दो ।” - सुनील लगभग गिड़गिड़ा पड़ा ।
“नहीं, साहब, नहीं !” - चौकीदार तनिक नम्र स्वर में बोला - “बहुत घपला हो जाता है ।”
“कोई फर्क तो पड़ेगा नहीं चौकीदार साहब । मेरा भला हो जाएगा, तुम्हें दो महीने का बोनस मिल जाएगा और किसी को खबर भी नहीं होगी ।”
“मुझे क्या मिल जाएगा ?”
“दो महीने का बोनस ।”
“कैसे ?” - चौकीदार हैरान होकर बोला - “यह पागलखाना है । कोई कारखाना थोड़े ही है !”
“पागलखाने में तो रोज बोनस मिलने की सम्भावना होती है । यह तो तुम पर निर्भर करता है कि तुम बोनस चाहते हो या नहीं ।”
“कैसे ?”
सुनील ने अपनी जेब में से सौ का नोट निकाला और उसे अपनी उंगलियों में फड़फडाता हुआ बोला - “अगर तुम मुझे मेरे मामाजी के दर्शन करवा दो तो रिजर्व बैंक के गर्वनर का यह योग्यता प्रमाण पत्र तुम्हें मिल सकता है ।”
चौकीदार सोच में पड़ गया ।
“कोई घपले वाली बात तो नहीं है ?” - उसने धीरे से पूछा ।
“घपला कैसा ? अगर तुम मुझे मेरे मामा से मिलवा दोगे तो उसमें क्या घपला हो जाएगा ?”
“क्या नाम है तुम्हारे मामा का ?”
“सुन्दरदास । करीब साठ वर्ष की उमर है उनकी ।”
“सुन्दरदास !” - चौकीदार एकदम बोला - “उससे नहीं मिवला सकता मैं ।”
“क्यों ?”
“डॉक्टर उसके कमरे को बाहर से ताला लगाकर चाबी अपने पास रखता है ।”
सुनील निराश हो उठा ।
“उसकी सूरत भी नहीं दिखवा सकते क्या ?” - सुनील क्षणभर रुक कर बोला
चौकीदार फिर सोच में पड़ गया ।
सुनील व्यग्रता से उसका मुंह देखता रह गया ।
“कोई गड़बड़ी तो नहीं है ?” - उसने पूछा ।
“गड़बड़ कैसी ?” - वह आशन्वित हो उठा - “कोई अपने मामा से...”
“यह परमान पत्तर मुझे दो ।” - चौकीदार ने उसकी बात काटकर कहा ।
सुनील ने नोट उसे थमा दिया ।
चौकीदार ने नोट अपनी जेब में रखा और फाटक को धीरे से खोलकर कहा - “भीतर आ जाओ ।”
सुनील भीतर आ गया ।
चौकीदार ने फाटक फिर बन्द कर दिया ।
“चुपचाप मेरे साथ चले आओ ।” - चौकीदार ने कहा ।
सुनील उसके साथ चल दिया ।
चौकीदार उसे लाल बजरी की राहदारी में से होता हुआ इमारत के पिछवाड़े की ओर ले गया ।
वह एक खिड़की नीचे रुक गया ।
खिड़की खुली थी । भीतर कमरे में एक जोरी वाट का बल्ब जलता दिखाई दे रहा था । खिड़की काफी ऊंची थी इसलिए यह दिखाई दे रहा था कि भीतर कौन था ।
“सुन्दरदास इस कमरे में है ।” - चौकीदार ने खिड़की की आर संकेत करते हुए कहा - “उस ड्रम पर चढकर भीतर झांकों, लेकिन उससे बात करने की या उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने की चेष्टा मत करना ।”
“अच्छा !” - सुनील ने कहा और ड्रम पर चढ गया ।
उसने कमरे के भीतर झांका ।
भीतर एक पलग था जिस पर एक वृद्ध चित लेटा हुआ था । उसके हाथ और पांव पलंग की पट्टियों के साथ बन्धे हुए थे । मद्धम प्रकाश में उसका चेहरा बेहद डरावना लग रहा था । उसके नेत्र खुले हुए थे और वह एकटक छत को देख रहा था । उसके नेत्रों में दुख और अवसाद के इतने गहरे भाव थे जो किसी ऐसे आदमी के नेत्रों में अपेक्षित नहीं थे जो अपना मानसिक सन्तुलन इस हद तक खो बैठा हो कि उसे पलंग के साथ बांध कर रखने की जरूरत पड़े ।
“सुन्दरदास जी ।” - सुनील ने दबे स्वर में पुकारा ।
वृद्ध ने धीरे से अपना सिर घुमाकर बड़े आशापूर्ण नेत्रों से खिड़की की ओर देखा ।
उस समय चौकीदार ने सुनील को ड्रम से नीचे खींच लिया ।
“मैंने तुम्हें कहा था न कि उसे आवाज मत देना ?” - चौकीदार दबे स्वर में गुर्राया ।
“यह सुन्दरदास ही हैं न ?” - सुनील ने उसकी बात को अनसुना करके पूछा ।
“कमाल के आदमी हो ! अपने मामा जी को नहीं पहचानते हो ?”
“जो मैं पूछ रहा हूं, उसका जवाब दो ।” - सुनील ने कठोर स्वर में कहा ।
न जाने सुनील के स्वर में ऐसा क्या था कि चौकीदार घबरा कर उसका मुंह देखने लगा आर फिर बोला - “हां ।”
“चलो ।” - सुनील ने भारी स्वर में कहा ।
सुन्दरदास की हालत देखकर उसके मन में करुणा और सहानुभूति का ज्वार सा आ गया था ।
वह गेट से बाहर निकल आया और अपनी मोटर साइकल की ओर बढा ।
एक आदमी एकाएक उसके सामने आ खड़ा हुआ ।
“आप कोर्ट द्वारा नियुक्त डाक्टर हैं ?” - उसने पूछा ।
“क्या मतलब ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
“मेरा मतलब है, सुन्दरदास की डाक्टरी जांच के लिए क्या आपकी नियुक्ति हुई है ?”
“आप क्यों पूछ रहे हैं यह ?”
“आप बताइए तो सही ।”
“नहीं, मैं तो प्रेस रिपोर्टर हूं ।”
अजनबी ने सुनील की बाकी बात नहीं सुनी । वह एकदम घूमा और सुनील की मोटर साइकल से कुछ दूर खड़ी एक कार में जा बैठा । अगले ही क्षण कार सड़क पर फर्राटे भर रही थी । सुनील हैरानी से जाती हुई कार को देखता रहा ।