उत्तमराव भारकर तारदेव थाने का एसएचओ था। वो कोई पचपन साल का, घाटघाट का पानी पिए, फुल करप्ट पुलिसिया था और कहीं से भी, कैसे भी रोकड़ा उगाही का कोई भी ज़रिया कभी नहीं छोड़ता था। पक्का बेवड़ा और औरतख़ोरा था, मुफ़्त के माल की जुगत में हमेशा रहता था, फिर भी बड़ी, एक्सक्लूसिव ऐश पर ख़ुद का पैसा उड़ाने से भी कभी नहीं हिचकता था। हराम का माल आया और चला गया, ये इक्वेशन उसे कभी नहीं अखरती थी। हफ्ता-हफ्ता थाने ही पड़े रहना उसे कभी नागवार नहीं गुजरता था। उसके बीवी-बच्चे – पांच, दो लड़के, तीन लड़कियाँ – अब उसके उस मिज़ाज़ के आदी हो चुके थे। मातहत एसएचओ साहब की ड्यूटी के प्रति लगन और निष्ठा की तारीफ़ करते थे।

अनिल गोरे उसका सीनियर सब-इन्स्पेक्टर था जो उस घड़ी उसके ऑफिस में उसके सामने मौजूद था।
एसएचओ भारकर ने अपलक उसे देखा।
“हुक्म, जनाब?” – एसआई गोरे सविनय बोला।
“हुक्म?”
“जो भी हो, फरमाइए। बन्दा बजा लाने को हाज़िर है।”
“अदब-आदाब तो कोई तेरे से सीखे . . . भले ही फर्जी हो।”
“अरे नहीं, जनाब।”
“हो भी तो क्या है! किसी के मन में क्या है, क्या पता लगता है!”
“सर, मेरा इन और आउट एक है।”
“बातें बनाना भी खूब जानता है। खैर। गोरे, मेरे को आज तेरे से एक बहुत ज़रूरी बात करने का।”
“कीजिए।”
“सीक्रेट करके।”
“वो भी।”
“चाय पिएगा?”
“पी लूँगा।”
एसएचओ ने घन्टी बजाकर एक हवलदार को तलब किया और उसे चाय का ऑर्डर दिया।
जो कि फौरन सर्व हुआ।
“बाहर दरवाज़े पर बैठ।” – एसएचओ ने हुक्म दिया – “जब तक मैं घन्टी न बजाऊँ, कोई भीतर न आए, भले ही कोई हो।”
“जी, साब जी।” – हवलदार सविनय बोला।
“जा।”
हवलदार चला गया, उसके पीछे एसएचओ के ऑफिस का दरवाज़ा मज़बूती से बन्द हो गया।
दरवाज़े पर से निगाह हटा कर एसएचओ अपने मातहत एसआई से मुखातिब हुआ।
“दीवारों के भी कान होते हैं।” – वो संजीदगी से बोला।
“लेकिन कान बोलते नहीं।” – एसआई गोरे बोला।
“वैरी स्मार्ट!” – एसएचओ का स्वर शुष्क हुआ – “ज्यादा पढ़ा-लिखा होना भी मुसीबत है। सुना है पीएचडी है?”
“यस, सर। लेकिन महकमे के रिकॉर्ड में ये बात दर्ज नहीं है।”
“क्या था पीएचडी का सब्जेक्ट?”
“पोलीस प्रोसीजरल।”
“फिर भी सब-इन्स्पेकटर है?”
“वो भी गनीमत है कि हूँ, सर, वर्ना पीएचडी अख़बार बेचते हैं। ऑटो चलाते हैं।”
“वो तो है! बेरोजगारी का बुरा हाल है मुल्क में हर जगह। तू पीएचडी है, ये बात तेरे रिकॉर्ड में दर्ज क्यों नहीं है?”
“हासिल कुछ नहीं है, जनाब! ख़ाली लोग-बाग कुढ़ते हैं।”
“क्यों? ओवरक्वॉलीफाइड होने की वजह से कहीं ज़्यादा तरक्की न कर जाए?”
“वो बात नहीं, जनाब। दरअसल कोई करिश्मा न हो जाए तो पुलिस के महकमे में, आप जानते ही हैं कि, भरती होने से रिटायर होने तक दो से ज़्यादा प्रोमोशन नहीं हो पातीं जो कि जैसे-तैसे हो ही जाती हैं।”
“फिर भी कुढ़ते हैं!”
“जी हां।”
“वजह?”
“आदत से मजबूर हैं।”
“जो कि तू नहीं है?”
“आपने कोई ज़रूरी बात करनी थी?”
“टोकता बहुत है!”
“सॉरी!”
“बात ज़रूरी है जो कभी तो मैंने करनी ही थी इसलिए अब कर रहा हूँ।”
“किसके लिए जरूरी है? आपके लिए या मेरे लिए?”
“दोनों के लिए।”
“मैं सुन रहा हूँ।”
“जो कि तेरा अहसान है मेरे पर!”
“अरे, नहीं, जनाब। मेरा मतलब था कि मेरी मुकम्मल तवज्जो आपकी तरफ़ है।”
“तो सुन। मेरे को तेरी बहुत शिकायतें मिल रही हैं।”
“जी!”
“खुफिया। अनऑफिशियल। जिनका ज़रिया महकमे में भेदिए होते हैं, महकमे से बाहर ख़बरी होते हैं।”
“क्या कहते हैं?”
“बहुत रोकड़ा पीट रहा है। खुफिया तरीके से। अपने इनडिविजुअल वनमैन-शो के तौर पर। कोई हिस्सा बंटाने वाला नहीं, कोई टोकने-टाकने वाला नहीं। जो हासिल सब अन्दर।”
“सर, आपको मेरे बारे में कोई ख़ामख़याली है। मैं वैसा पुलिसिया नहीं हूँ।”
“कैसा पुलिसिया नहीं? एक ही तरह के होते हैं तमाम पुलिसिए! जैसा मैं हूँ। जैसा तू है। जैसे सब हैं।”
“सर, मैं फिर कहता हूँ...”
“मत कह। जो कहेगा, गलत कहेगा या यूं लपेट के कहेगा कि मालूम ही न पड़े कि क्या लपेटा!”
“लेकिन, सर ...
“जवाब दे एक बात का। ईमानदारी से। कलेजे पर हाथ रख कर।”
“पूछिए?”
“कब से पुलिस में है?”
“नौ साल होने वाले हैं।”
“सीधा सब-इन्स्पेक्टर भरती हुआ था?”
“जी हां। आपको मालूम ही है कि . . .”
“कभी रिश्वत नहीं खाई?”
वो ख़ामोश हो गया।
“जवाब दे!”
“जवाब आपको मालूम है, सर। ऐसा दूध का धुला कोई नहीं होता। होता है तो महकमा ही ऐसा है कि कोई रहने नहीं देता।”
“क्या कहने! मैं उजला तू काला। होलियर दैन दाउ। ठीक?”
“नहीं, जनाब, नहीं ठीक।”
“तो?”
“तो ये सर, कि हो सकता है कभी मैंने अपने ज़मीर से आंख चुराई हो, लेकिन ज़मीर को बेच ही खाया हो, ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ, न होगा।”
फैंसी जवाब न दे। साफ, सिम्पल जवाब दे।”
“किसी की कोई पेशकश हुई तो नाकुबूल तो न की लेकिन अपनी तरफ से कभी कोई मांग पेश न की। न कभी ऐसी कोई मांग खड़ी करने के लिए हालात पैदा किए।”
“बंडल!”
“आप न मानें।”
“नहीं ही मान रहा हूँ। जब कुए में ही भांग पड़ी है तो तू कैसे अछूता रह सकता है?”
“नहीं रह सकता। नहीं रहा। बोला न, हाजिर को हुज्जत न की लेकिन गैर की तलाशी भी न की।”
“ये भी फैंसी जवाब है। और लपेटे वाला जवाब है। जैसे कोई बड़े गुनाह को कवर करने के लिए छोटा गुनाह कुबूल कर लेता है।”
“अब मैं क्या कहूँ!”
“तू ज़्यादा पढ़ा-लिखा है इसलिए ज्यादा चालाक है, ज्यादा काईयां है, ज़्यादा ख़बरदार-होशियार है।”
“सर, ऐसी कोई बात नहीं।”
“ऐसी ही बात है। बहुत लम्बा अरसा मैंने तेरे पर निगाह रखी है। निगाह रखी है तो जाना है कि तू मिल-बांट के खाने वाली किस्म का भीड़ नहीं। तेरी खाऊँखाऊँ ज़्यादा है, एक्सक्लूसिव है, मैं-मैं-मेरा-मेरा वाली है।”
“सर, ये बेजा इलज़ाम है।”
“जब तू दादर वैस्ट पुलिस चौकी का इंचार्ज था, जो कि सब-इन्स्पेक्टर लगने के बाद तू बना था, तो वहां की एक नई बनती कोठी में ढेर एडीशनल, इललीगल कन्स्ट्रक्शन हुई थी जिसकी वजह से कन्स्ट्रक्शन को लास्ट स्टेज में सील कर दिया गया था। वो चारमंजिला कोठी एक पुरानी कोठी को तोड़ कर बनाई गई थी जिसका नक्शा तो पासशुदा था लेकिन उसमें एक मंजिल का इज़ाफा कर लिया गया था और बेसमेंट बना ली गई थी जो कि नक्शे में नहीं थी। तूने एक सर्टिफिकेट जारी करने के लिए कोठी के मालिक से बीस लाख रुपये चार्ज किए थे कि वो कोठी नई कन्स्ट्रक्शन थी ही नहीं, बल्कि पुरानी कन्स्ट्रक्शन का रेनोवेशन का ही काम हुआ था। कह कि मैं गलत कर रहा हूँ!”
“मैं आपको झूठा करार देने की जुर्रत नहीं कर सकता लेकिन आप जो कह रहे हैं, सरासर गलत कह रहे हैं। वो कन्स्ट्रक्शन सील हुई थी लेकिन वो सीलिंग एक बड़ा जुर्माना भरने के बाद हट गई थी।”
“आठ सौ गज में थी वो कोठी। इतनी बड़ी कन्स्ट्रक्शन के दौरान बतौर चौकी इंचार्ज तेरी कोई ख़ातिर न हुई हो, ऐसा कहीं होता है!”
“नहीं होता है। नहीं हुआ था। लेकिन बतौर चौकी इंचार्ज मैंने तो कोई मांग खड़ी नहीं की थी! मालिक कन्स्ट्रक्शन के दौरान अपनी राजी से हर पहली को म्यूनीसिपल कार्पोरेशन के इन्स्पेक्टर को एक रकम देता था और चौकी में एक रकम भिजवाता था।”
“क्या रकम?”
“पचास हजार रुपए।”
“और कार्पोरेशन के इन्स्पेक्टर को?”
“ठीक से मालूम नहीं। पर मेरे ख़याल से एक लाख रुपए।”
“यानी पुलिस चौकी का इंचार्ज कमेटी के एक मामूली इन्स्पेक्टर से भी गया गुज़रा! इन्स्पेक्टर से आधी फीस के काबिल!”
“इन्स्पेक्टर की फीस में उसके बॉस सिविल इंजीनियर का भी हिस्सा होता था।”
“और चौकी इंचार्ज की फीस में?”
“चौकी के सारे मातहत स्टाफ का।”
“उस थाने के इंचार्ज इन्स्पेक्टर का क्यों नहीं जिसके अन्डर वो चौकी आती थी?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“बंडल!”
“शायद हो, लेकिन मुझे इस बावत कभी कोई खबर नहीं लगी। हो सकता है नई कन्स्ट्रक्शन के मालिक का थाने में अपना कोई सैट-अप हो।”
“गोरे, जिसका थाने में सैट-अप हो, वो चौकी को खातिर में नहीं लाता। जिसकी अफसर से सांठ-गांठ हो, वो मातहत को मुंह नहीं लगाता।”
“अब मैं क्या कहूं, सर! सिवाय इसके कि वैसा सर्टिफिकेट जारी करना चौकी इंचार्ज के अख्तियार में नहीं होता। ये काम उस थाने के एसएचओ का होता है जिसके अन्डर वो चौकी आती है।”
“ज़ाहिर है कि एसएचओ के काम को तूने अपना काम बना लिया, थाने के लैवल के काम को चौकी के लैवल का काम बना लिया, और किसी को अपनी करतूत की ख़बर न लगने दी।”
“करतूत बोला, जनाब?”
“अच्छा, भई, करतब सही। करामात सही। कारीगरी सही।”
“मैंने ऐसा कुछ नहीं किया था।”
“अब इतने सालों बाद भला तू असलियत कुबूल करेगा!”
“जब कुबूल करने को कुछ है ही नहीं ...”
“अब तेरा यही कहना बनता है।”
गोरे ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई।
एसएचओ ने कुछ क्षण अपलक उसे देखा, फिर आगे बढ़ा – “लेमिंगटन रोड पर ब्लैक ट्यूलिप नाम का एक हाई फाई बार है, मालूम?”
“मालूम।” – गोरे अनमना-सा बोला।
“तो फिर ये भी मालूम हो शायद कि उसके टॉप फ्लोर पर खुफिया तरीके से एक ब्रॉथल चलता है ...”
“ब्रॉथल!”
“रण्डीखाना। हाई क्लास। टॉप की बाइयों वाला।”
“ओह!”
“जहां कस्टमर ख़ुद भी आते हैं और जहां से कॉल गर्ल्स सप्लाई भी होती हैं। उस ठीये की खूबी ये है कि वहां कभी रेड पड़ती है तो वहां उसकी ख़बर पहले पहुंच जाती है। नतीजतन आनन-फानन, वक्त रहते, बाईयों को बार बालाएं बना दिया जाता है, ‘ब्लैक ट्यूलिप’ की होस्टेसिज़ बना दिया जाता है और ब्रॉथल को पीक आवर्स में इस्तेमाल के लिए एडिशनल डायनिंग रूम बना दिया जाता है। लिहाज़ा रेड में कुछ भी हाथ नहीं लगता। अब पूछ, रेड की ख़बर हमेशा ही पहले आगे कैसे पहुंच जाती है?”
“कैसे पहुंच जाती है?”
“हमारा नौजवान, होनहार सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे पहुंचाता है....”
“सर, आप...”
“... और इस ख़िदमत का मोटा शुकराना पाता है जिसमें उसका हिस्सा बंटाने वाला कोई नहीं होता, उसका एसएचओ उत्तमराव भारकर तो बिल्कुल नहीं।”
“सर, आप मुझ पर गलत, नाजायज़, बेबुनियाद इलज़ाम लगा रहे हैं।”
“अभी एक बात और सुन ले – इलज़ाम कहना है तो इलज़ाम जानकर सुन ले - और फिर जो कहना हो, कहना। बरोबर?”
गोरे ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“बन्दरगाह के इलाके से एक डोप डीलर का खुफिया नेटवर्क चलता है जो वहां से आधी मुम्बई में ड्रग्स सप्लाई करता है, पैडल किए जाने का इन्तज़ाम करता है। उस डोप डीलर को जिस पुलिस वाले की सरपरस्ती हासिल है, जिससे उसको बिना मांगे, बिना याद दिलाए रेगुलर गुलदस्ता मिलता है उसका नाम" -एसएचओ एक क्षण ठिठका – “सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे है।”
“सर” – गोरे आवेश से बोला – “अब तो आप हद ही कर रहे हैं – “बल्कि हर हद को लांघ रहे हैं – अब ख़ामोश बैठकर हर इलज़ाम के लिए सिर नवाना मेरे लिए मुमकिन नहीं। आप इतने ज्ञानी हैं तो उस डोप डीलर को, नोन डोप डीलर को, गिरफ्तार क्यों नहीं करते? और उस बड़ी गिरफ्तारी में मुझे, डोप डीलर के सरपरस्त बने अपने ही मातहत सब-इन्स्पेक्टर को गिरफ्तार क्यों नहीं करते?”
“और?” – एसएचओ सब्र से बोला।
“जब आपको पता है कि लेमिंगटन रोड पर ‘ब्लैक ट्यूलिप’ बार के ऊपर ब्रॉथल चलता है और ये भी पता है कि आपके ही मातहम सब-इन्स्पेक्टर की गद्दारी की वजह से उस ब्रॉथल पर पड़ी रेड कभी कामयाब नहीं होती, तो क्यों अभी भी वो सब-इन्स्पेक्टर – अनिल गोरे - लूप में है? क्या मुश्किल काम है उसको लूप से बाहर कर देना और फिर एकाएक रेड को अंजाम देना?”
“कोई मुश्किल काम नहीं।” – एसएचओ शान्ति से बोला।
“जी!”
“लेकिन मैं ऐसा नहीं चाहता।”
“आप . . . आप ऐसा नहीं चाहते?”
“हां। खुफिया तरीके से मोटा रोकड़ा पीटने के तेरे खुफिया प्रोजेक्ट को मैं लगाम नहीं लगाना चाहता .....”
“सर, मेरा कोई खुफिया प्रोजेक्ट नहीं।”
“तेरा ऐसा कहना बनता है। मुझे तेरे ऐसा कहने पर कोई ऐतराज़ नहीं!”
“कमाल है!”
“कोई कमाल नहीं। इसलिए कोई कमाल नहीं क्योंकि जो खुफिया सिस्टम तूने खड़ा किया है, मैं उसकी मुखालफ़त नहीं करना चाहता, उसमें शरीक होना चाहता हूँ।”
“जी!”
“मिल-बांट के खाने में ही गति है, मेरे भाई। अकेला ही सब हज़्म कर जाएगा तो बदहज़मी से मरेगा आखिर! जितनी खाऊँ-खाऊँ पीछे चला ली, मैं-मैं-मेरामेरा कर लिया, उतने से अब सब्र कर और मिल-बांट के खाने वाली फितरत बना अपनी ...”
“आप मुझे बिल्कुल गलत समझ रहे हैं।”
“. . . वर्ना” – एसएचओ का स्वर एकाएक हिंसक हुआ–” खता खाएगा। ये अक्लमन्द को इशारा है, इसे पकड़ा है न अक्लमन्द!”
गोरे ख़ामोश रहा।
“दरिया में रह के मगर से बैर करेगा तो अंजाम बुरा होगा।”
“मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे मेरा अंजाम बुरा हो। मेरी बाबत आपकी हर जानकारी गलत है। ‘ब्लैक ट्यूलिप’ में चलते किसी कॉलगलिंग रैकेट की मुझे कोई पक्की जानकारी नहीं। बार के बिजनेस में ऐसे शक किए ही जाते हैं लेकिन शक करने से कुछ नहीं होता।”
“तफ्तीश होती है। तफ्तीश शक की बिना पर भी होती है।”
“होती है। होती रहे। लेकिन मुझे ‘ब्लैक ट्यूलिप’ की ओट में चलते किसी ब्रॉथल की कोई जानकारी नहीं।”
“जानकारी पैदा कर।”
“जिस चीज का वजूद ही नहीं है, उसकी मैं क्या जानकारी पैदा करूँ?”
“तुझे ‘ब्लैक ट्यूलिप’ से मोटा हफ्ता नहीं मिलता?”
“नहीं मिलता।”
“तेरी वहां कोई स्पैशल खातिर नहीं होती?”
“होती है . . .”
“अब आई न असलियत जुबान पर!”
“ये स्पैशल खातिर होती है कि मैं कभी किसी शाम तफरीहन ‘ब्लैक ट्यूलिप’ में जाऊँ तो मेरे को बिल नहीं दिया जाता। मैं पेमेन्ट की ज़िद करूँ तो ख़ुद मैनेजर आके बोलता है कि सब कुछ ऑन दि हाऊस था।”
“बस!”
“जी हां। बेशक कसम उठवा लीजिए।”
“बन्दरगाह वाले डोप डीलर का क्या कहता है?”
“आप बाखूबी जानते हैं कि बन्दरगाह के इलाके में नॉरकॉटिक्स समगलिंग आम है। लोग पकड़े जाते हैं, माल पकड़ा जाता है, ये कारोबार नहीं थमता। लेकिन किसी ख़ास डोप डीलर से मेरा कोई वास्ता नहीं।”
“मोटे रोकड़े की एवज़ में उसे तेरी सरपरस्ती नहीं हासिल होती?”
“नहीं हासिल होती।”
“तो ये जवाब सोचा तूने?”
“सोचा नहीं, सर, यही सच्चा जवाब है। सच को कहीं सोच की ज़रूरत होती है!”
“यानी डेढ़ दीमाक ही बन कर दिखाएगा? दाई से पेट छुपायेगा?”
“अब मैं क्या बोलू?”
“दरिया में रह कर मगर से बैर करके दिखाएगा?”
“मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं। मैं आपका आज्ञाकारी सबॉर्डिनेट हूँ और यही मैं आपकी थानेदारी में बना रहना चाहता हूँ।”
“न बतोलेबाजी से बाज़ आएगा, न मेरे को चक्कर देने की अपनी कोशिश छोड़ेगा!”
“सर, मैंने कहा न .....”
“चुप कर! बहुत सुना मैंने तेरे को। अब देख, कैसे मैं तेरे हठेले मिज़ाज़ को ठिकाने लगाता हूँ।”
“क्या करेंगे आप?”
उसके एकाएक सर्द हो उठे लहजे पर एसएचओ सकपकाया। उसने घूर कर गोरे को देखा लेकिन गोरे विचलित न हुआ, उसने पूरी निडरता से अपने आला अफसर से निगाह मिलाई।
आखिर एसएचओ की ही निगाह भटकी। “बर्बाद कर दूंगा।” – फिर दान्त पीसता-सा बोला- “भूल जाएगा तू कि कभी पुलिस में मुलाज़िम था।”
“आप मुझे, अपने मातहत को, धमकी दे रहे हैं?”
“वार्निंग दे रहा हूँ।”
“वो भी क्यों दे रहे हैं? जब मैंने कुछ गलत नहीं किया . . .”
“तेरे कहने से क्या होता है?”
“मेरे ही कहने से होता है? आप मेरे पर बेजा इलज़ाम लगायेंगे, मुझे इंसल्ट करने की, डराने धमकाने की कोशिश करेंगे तो मैं भी... मैं भी कुछ करके रहूँगा।”
“तू क्या करेगा?”
“गान्धीगिरी नहीं करूँगा। एक थप्पड़ खाके दूसरा गाल आगे नहीं कर दूंगा।”
“अच्छा !”
“जो मेरे लिए कांटा बोएगा, मैं उसके लिए फूल नहीं, त्रिशूल बोऊँगा।”
“अब तू मुझे धमकी दे रहा है।”
“ये न भूलिएगा, भारकर साहब, कि जब किसी की इलज़ाम लगाती उंगली किसी दूसरे की तरफ उठती है तो उसकी अपनी तीन उंगलियां ख़ुद उसकी तरफ उठी होती हैं।”
“यानी तू मेरे पर इलज़ाम लगाएगा?”
“लगा सकता हूँ।”
“क्या बोला?”
“आप मेरी ज़ुबान खुलवायेंगे तो कुछ तो मेरे मुंह से भी निकलेगा ही!”
“निकाल!”
“मेरे को पंगा नहीं मांगता।”
“मेरे को मांगता है।”
“गलाटा नहीं मांगता।”
“अरे. मेरे को मांगता है न!”
“आप मुझे मजबूर कर रहे हैं ....”
“अब, कुछ कह भी चुक।”
“तो सुनिए। मजबूर कर रहे हैं तो सुनिए। जब से मैं आपके थाने में ट्रांसफर हुआ हूँ, तभी से आप मुझे मिज़ाज़ दिखा रहे हैं जिसे कि मैं झेल रहा हूँ। आपका नाजायज़ दबाव हमेशा मेरे लिए परेशानी का बायस बनता था जिसकी वजह से ये शैतानी खयाल मेरे ज़ेहन में जड़ पकड़ने लगा था कि कभी आपकी किसी दुखती रग पर मेरी उंगली हो।”
“क्या बकता है!”
“बोलता हूँ न! जब ख़ुद इजाज़त दी है तो बोलने दीजिए तो सही!”
“ठीक है, बोल।”
“फिर कोई आठ महीने पहले एक मौका मेरे सामने आया। एक नालायक, नामाकूल, गोली मार देने के काबिल लड़के पर आपके थाने के तहत बलात्कार का केस बना जिसे कि आदरणीय, प्रातः स्मरणीय, थानाप्रभारी उत्तमराव भारकर साहब ने अपनी निजी देखरेख और कोशिशों से रफा-दफा हो जाने दिया जब कि भुक्तभोगी लड़की के अगवा के दो चश्मदीद गवाह थे और बलात्कार की जामिन खुद लड़की थी। दोनों गवाहों को एसएचओ साहब ने डंडे के ज़ोर पर गवाही न देने दी, दोनों को ये कहने के लिय मजबूर किया कि हकीकतन उन्होंने कुछ नहीं देखा था। उन्होंने महज़ एक लड़की को किसी की कार में सवार होते देखा था और वो अपनी राज़ी से उन दो लड़कों की कार में सवार हुई थी जिनको वो नहीं पहचानते थे। लड़की को तो बिल्कुल ही नहीं पहचानते थे क्योंकि उसकी उनकी तरफ पीठ थी। वो मामूली हैसियत के लोग थे, कारों की कोई वाकफियत नहीं रखते थे इसलिए वो उस कार के मेक और मॉडल की बाबत कुछ नहीं जानते थे जिसमें कि वो लड़की सवार हुई थी, सिवाय इसके कि कार कर रंग सफेद था। बलात्कार की शिकार लड़की के बयान की ख़ुद हमारे काबिल, ज़हीन, मुस्तैद एसएचओ साहब ने पालिश उतार दी थी। उनके तब के रोजनामचे में दर्ज पाया गया था कि फलां तारीख को फलां वक्त पर दो नौजवानों ने अपनी कार से एक एक्सीडेंट किया था जिसमें कोई हताहत नहीं हुआ था लेकिन रैश और नैग्लीजेंट ड्राइविंग का केस बना था, जिसके तहत दोनों युवकों को गिरफ्तार कर लिया गया था और अपनी नायाब कलाकारिता से एसएचओ, स्टेशन हाउस, तारदेव, भारकर साहब ने रोजनामचे में एक्सीडेंट की वो तारीख और टाइम दर्ज दिखाया था जब कि उन दोनों की अगवा और बलात्कार की करतूत तारदेव से बीस किलोमीटर दूर जुहू बीच के एक उजाड़ हिस्से में वाकया हुई थी। विक्टिम लड़की ने अपने बलात्कारियों को साफ पहचाना था, लेकिन एसएचओ साहब का यही दावा था कि लड़की को शिनाख़्त में मुगालता लगा था, वो नौजवान तो बलात्कारी हो ही नहीं सकते थे क्योंकि वारदात में वक्त के आसपास तो वो दोनों तारदेव थाने के लॉक अप में बन्द थे। नतीजतन दोनों युवक सन्देह लाभ पा कर कोर्ट से छूट गए थे।”
“और वो एक्सीडेंट जो उन्होंने किया था?”
“बोला न, मामूली था, स्टेज्ड था और असल में अगवा और बलात्कार की वारदात से बहुत बाद में हुआ था लेकिन तारदेव थाने के रिकॉर्ड में वारदात के वाकया होने का वक्त बाकायदा मैनीपुलेट करके गलत भरा गया था और यूँ लड़कों को निर्दोष साबित करने में ख़ुद एसएचओ साहब ने पूरी-पूरी मदद की थी और उस छोटे से एक्सीडेंट में शरीक लोगों को पूरा-पूरा, उनकी उम्मीद से ज़्यादा, कम्पैंसेट करवाया था।”
“क्योंकि एसएचओ भारकर” – एसएचओ के स्वर में व्यंग्य का तीखा पुट आया – “लड़कों का मामा लगता था!”
“और गहरा रिश्ता था। क्योंकि वो रोकड़ा एसएचओ साहब को अपना भगवान लगता था जो लड़कों के अभिभावकों ने उनको चढ़ाया था।”
“कितना?”
“आप से बेहतर कौन जानता है? मेरा मुंह क्यों खुलवाते हैं?”
“ज़रूरत के मुताबिक कहानी अच्छी गढ़ लेता है। लेकिन कहानी रहती तो फिर कहानी ही है!”
“मेरे पास सबूत है।”
“क्या बोला?”
“ऐसा सबूत है जिसे आप आज या कल या कभी हरगिज़ नहीं झुठला पाएंगे।”
एसएचओ हड़बड़ाया, उसके नेत्र सिकुड़े।
“क्या सबूत है?” — फिर बोला।
“मेरे पास थाने में हुई उस मीटिंग की वीडियो रिकॉर्डिंग है जिसमें दोनों लड़कों के बाहैसियत पिता थाने में एसएचओ भारकर के रूबरू पेश हुए थे और दोनों पार्टीज़ में लम्बी सौदेबाज़ी के बाद जनाब की नज़र नकद पचास लाख रुपए किए गए थे।”
एसएचओ सन्नाटे में आ गया।
“मेरे को मालूम था ऐसी सौदेबाज़ी होने वाली थी जिसमें कि आखिर आप ही की चलनी थी क्योंकि दो नौजवान – हराम के जने – लड़कों के मुस्तकबिल का सवाल था। आजकल अगवा और बलात्कार के आरोपियों के साथ कोर्ट बहुत सख़्ती से पेश आता है, कम से कम सज़ा भी दस साल की होती है। उम्रकैद हो जाना भी कोई बड़ी बात नहीं। जहां तक लड़कों की करतूत का सवाल है तो बच्चे हैं, गलती हो ही जाती है। सॉरी बोल दिया, खुल्ली माली इमदाद कर दी, और क्या जान लोगे बच्चों की!’ सर, ये मेरा नहीं, यूपी के एक बड़े नेता का बयान है।”
एसएचओ ख़ामोश रहा।
“आप थाने में बैठे हैं, थानेदार हैं इसलिए आपसे बेहतर कौन जानता है कि बाहुबलियों की शह पर गवाह कैसे फोड़े जाते हैं, ख़रीदे जाते हैं, झुठलाए जाते हैं, जान से मार दिए जाने की धमकी के तहत डराए-धमकाए जाते हैं, उनके आश्रितों के बुरे अंजाम का हौवा खड़ा किया जाता है और थाने, कोर्ट-कचहरी के करीब भी न फटकने के लिए उन्हें तैयार किया जाता है। और अपनी इन नापाक कोशिशों में बाहुबली हमेशा नहीं तो तकरीबन हमेशा कामयाब होते हैं। एक बार अगवा और बलात्कार का केस झूठा पड़ जाता है तो छोटे-मोटे जुर्म के तहत हिरासत में लिए गए उनके नौनिहाल थाने से ही छूट जाते हैं और मूछों पर ताव देते घर पहुंच जाते हैं। आपसे बेहतर कौन जानता है कि ज़्यादातर मामलों में पुलिस डंके की चोट या बैकग्राउन्ड में रहकर मुजरिमों की मदद करती है।”
“जैसे तू नहीं जानता!”
“मैं भी जानता हूँ लेकिन थानेदार के मुकाबले में एसआई की हैसियत निहायत मामूली होती है। थानेदार अपने थाने का बादशाह होता है और फुल पावरफुल होता है - अपने अन्डर में चलने वालों सबके लिए।”
“यानी थानेदार थाने का निजाम ठीक नहीं चलाता!”
“रूटीन मामलों में ठीक चलाता है लेकिन अगवा और बलात्कार का ऐसा केस जिसमें रईसज़ादे शरीक हों, रूटीन तो नहीं होता न!”
“हूँ”
“ऐसा केस मोटे, बहुत मोटे रोकड़े का खेल होता है, जिसमें पुलिस क्या नहीं करती? पुलिस की लाइन टो करने के लिए तैयार बड़े वकील क्या नहीं करते! कितने ही ऐसे केसों में तो थाने में एफआईआर ही इरादतन ठीक नहीं बनती और अमूमन केस वहीं ख़त्म हो जाता है। मुजरिम को पुलिस की तरफ से पूरा मौका दिया जाता है कि वो अग्रिम जमानत हासिल कर ले। तीन-तीन, चार-चार महीने चार्जशीट दाखिल नहीं होती और आरोपी को ज़मानत मिल जाती है। सरकमस्टांशल ऐवीडेन्स की, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की तो बात ही छोड़िए, आम जांच पड़ताल में ही इतनी गलतियां की जाती हैं- बल्कि बनाई जाती हैं - कि आरोपी के खिलाफ सबूत ही नहीं बचते। डॉक्टर साहबान मेडिकल रिपोर्ट ठीक से नहीं बनाते। गवाहों को अव्वल तो पेश ही नहीं होने दिया जाता, पेश होते हैं तो उन्हें होस्टाइल विटनेस बन जाने का पूरा-पूरा मौका दिया जाता है। बयानों में जानबूझ कर इतना विरोधाभास पैदा किया जाता है कि उनका कोई मतलब ही नहीं रह जाता। नतीजतन आरोपी आम बैनीफिट ऑफ डाउट के चलते बरी कर दिए जाते हैं, और ये सब इसलिए होता है क्योंकि आरोपी किसी ऐसे बाहुबली का बेटा-भांजा-भतीजा होता है, थानेदार को आधा खोखा रोकड़ा पूजते जिसके माथे पर शिकन नहीं आती। ‘सदा आपके साथ पुलिस और शातिर वकीलों की सांठ-गांठ से चौबीस-पच्चीस साल के युवक को किशोर साबित करने की कोशिश की जाती है, स्कूलों के रिकॉर्ड बदलवाए जाते हैं, डेट ऑफ बर्थ के फर्जी सर्टिफिकेट जारी करवाए जाते हैं ताकि कड़क जवान, उम्रदराज आरोपी को नाबालिग साबित किया जा सके। सरेआम कई तरह के झूठे दस्तावेज थाने में, कोर्ट में दाखिल किए जाते हैं।”
“और?”
“और के खाते में एक बात का ज़िक्र करने की इजाज़त मुझे दीजिए।”
“दी। कर।”
“उम्मीद है मोतीराम अहिरे नाम के एक मवाली को आप भूले नहीं होंगे जो कि मिराजकर गैंग का शूटर था और जिस पर मुम्बई के जुदा-जुदा थानों में अट्ठारह गम्भीर केस दर्ज थे। पिछले साल जब तारदेव में उसकी गिरफ्तारी हुई थी तो तारदेव थाने के तब के थानेदार साहब ने, जो कि आप थे, जब उसे ज़मानत के तालिब के तौर पर हाईकोर्ट में पेश किया था तो आपने जानबूझ कर, इरादतन, मोतीराम अहिरे की क्रिमिनल हिस्ट्री को छुपा लिया था, उसका ज़िक्र चार्जशीट में नहीं आने दिया था जबकि वो गैंगस्टर एक्ट के तहत बुक्ड था। नतीजतन, हाईकोर्ट से उसे ज़मानत मिल गई थी जबकि माननीय जज साहब ने ख़ुद कहा था कि चार्जशीट के मुताबिक गैंगचार्ट के अलावा आरोपी की कोई क्रिमिनल हिस्ट्री स्थापित नहीं थी। आपसे बेहतर कौन जानता था कि ये बात बिल्कुल फर्जी थी और ख़तरनाक शूटर अहिरे को बचाने के लिए ख़ुद आपकी लीपापोती का नतीजा थी। अदालत इस मामले में मजबूर थी - आपने अदालत को उस मजबूरी में धकेला था क्योंकि पुलिस ने आरोपी की कोई क्रिमिनल हिस्ट्री चार्जशीट के साथ अटैच नहीं की थी- जबकि मुम्बई के थानों में उसके खिलाफ अट्ठारह गम्भीर केस दर्ज थे – कुछ था तो गैंगचार्ट था जो ज़मानत को नकारने के लिए काफी नहीं माना गया था। लिहाज़ा ऐसा मुजरिम, ऐसा दुर्दात हत्यारा ज़मानत पा गया था जिसकी ज़मानत हो ही नहीं सकती थी!”
“आगे?”
“जनाब, बात खाली आपके थाने की होती तो आप थाने में अहिरे के खिलाफ जो भी दर्ज होता, उसे हवा न लगने देते। लेकिन सत्तरह और थानों में आप का ज़ोर चलना मुमकिन नहीं था फिर भी आपने अपनी कारीगरी दिखाई थी और अहिरे की क्रिमिनल हिस्ट्री की कोर्ट को ख़बर नहीं लगने दी थी और सिर्फ आपकी इस एक कारीगरी की वजह से अहिरे को ज़मानत मिली थी। ये एक गम्भीर, डेलीब्रेट मैनीपुलेशन थी आईपीसी सैक्शन 218 के तहत, और सैक्शन 417 के तहत अगर होती तो जिसकी सज़ा भी गम्भीर ही होती। आपकी याददाश्त को तरोताज़ा करने के लिए अर्ज़ है कि सैक्शन 218 कहता है - पब्लिक सर्वेट फ्रेमिंग इनकरेक्ट रिकॉर्ड ऑर राइटिंग विद इंटेंट टु सेव ए पर्सन फ्रॉम पनिशमेंट ऑर प्रॉपर्टी फ्रॉम फोरफीचर। सैक्शन 417 चीटिंग से, धोखाधड़ी से ताल्लुक रखता है।”
“वो तो अच्छा हुआ तूने मुझे ख़बरदार कर दिया वर्ना आईपीसी के ये सैक्शन कहाँ मेरे मगज में आने वाले थे!”
“सर, आप तंज कस रहे हैं?”
“और कछ कहना है?”
“और जो कहना है, वो आपको मालूम है। अहिरे के खिलाफ जो अट्ठारह केस थे, वो आज भी खुल सकते हैं। सिर्फ एक पीआईएल एप्लीकेशन फाइल करनी होगी कोर्ट में। फिर अहिरे को बचाने के लिए, उसे ज़मानत दिलाने के लिए जो आपने किया, वो छुपा नहीं रह सकेगा। फिर आपका अंजाम, कहने की ज़रूरत नहीं, बुरा होगा, बहुत बुरा होगा।”
“तू समझता है मैंने गुलदस्ता थामा?”
“समझता नहीं हूँ...”
“शुकर।”
“. . .जानता हूँ, थामा। बड़ा गुलदस्ता थामा। बड़े केस की लीपा-पोती का हासिल बड़ा ही होता है।”
“अहिरे की औकात थी बड़ी रिश्वत चढ़ाने की?”
“मिराजकर गैंग की थी न! अपने आदमी को, अपने ख़ास शूटर को बचाने के लिए गैंग ने क्या कुछ नहीं किया होगा?”
“हूँ”
“कर सकें तो ख़ुद याद कीजिए कितनी बार एफआईआर तब्दील करने के लिए, उसमें आरोपी के मनमाफिक हेरफेर करने के लिए आपने गुलदस्ता थामा है!”
“और हर बार की तेरे को ख़बर है?”
“हर बार की तो नहीं!”
“कहता है हर बार की तो नहीं!” – भारकर एक क्षण ठिठका फिर शिकायती लहजे से बोला – “गोरे, तू मेरे साथ ऐसे पेश आएगा?”
“सर, गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज़ है, शुरूआत तो आपने की!”
“तू है किसकी तरफ? लगता है मेरी तरफ तो है ही नहीं, पुलिस की तरफ भी नहीं है।”
“सर, मैं पुलिस का मुलाज़िम हूँ, इसलिए मन, वचन, कर्म के पुलिस की तरफ हूँ और आपका आज्ञाकारी मातहत हूँ।”
“तो फिर पुलिस को बदनाम क्यों करता है? पुलिस के खिलाफ क्यों बोलता है?”
“ये गलत इलज़ाम है। आप ऐसा तब कह सकते हैं जब मैं पब्लिक में बोलूँ। मैं तो आप से बात कर रहा हूँ।”
“अच्छा कर रहा है। लेकिन ये नहीं समझ रहा कि लंका में सब बावन गज के हैं।”
“वो तो ... .हैं।”
“तू समझता है किसी मौपर्ड वीडियो रिकॉर्डिंग को तू मेरी दुखती रग बना सकता है?”
“मौफर्ड बोला, सर?”
“क्योंकि जेनुइन तो वो हो नहीं सकती! जब ऐसी कोई मीटिंग हुई ही नहीं, बड़े रोकड़े का कोई ऐसा लेन-देन हुआ ही नहीं, तो ऐसी वीडियो रिकॉर्डिंग कहां से आएगी?”
“वक्त आने दीजिए। आप मुझे बिलिटल, करना, मुझे यूमिलियेट करना, मेरी दुश्वारियां बढ़ाना बन्द नहीं करेंगे तो पेश कर दूंगा।”
“अभी कर।”
“अभी मुमकिन नहीं। अभी वो किसी ख़ास जगह महफूज़ है।”
“पुड़िया है।”
“ठीक है, पुड़िया है। आप मुझे बर्बाद करने का अपना वन-प्वॉयन्ट प्रोग्राम अमल में लाइए, फिर जो सच है वो सामने आ जाएगा।”
“वो तो . . . वो तो गुस्से से मेरे मुंह से निकल गया था!”
“फिर तो बात ही क्या है?”
“और मिल बांट के खाने का मिज़ाज़ पकड़।”
“मैं कोशिश करूँगा इस बारे में।”
“ठीक करेगा। वो क्या है कि थाने में डेढ़ सौ लोगों का स्टाफ होता है, कभी न कभी कोई न कोई झांय-झांय हो ही जाती है।”
“मैं समझता हूँ, सर।”
“जैसी वीडियो क्लिप तू कहता है वजूद में है, और मौपर्ड भी नहीं है, तो उसकी एक कॉपी मुझे फॉरवर्ड कर ताकि मैं पक्की कर सकू कि वो मौपर्ड नहीं है।”
गोरे ख़ामोश रहा।
“यानी नहीं फॉरवर्ड करेगा?”
“सर, आप बात को यूँ समझिए कि गुस्से में कुछ आपके मुंह से निकला तो कुछ मेरे मुंह से निकल गया।”
“ऐसा?”
“हां।”
“यानी वीडियो क्लिप वाली बात कोरी धमकी है?”
“यही समझ लीजिए।”
“हूँ।”
कई क्षण ख़ामोशी रही।
“गोरे” – आखिर एसएचओ बोला – “जो कहा-सुनी यहां हुई, वो सब भूल जा। और नहीं तो इसलिए भूल जा कि मैं तेरा सीनियर हूँ, तेरा ऑफिसर-इन-चार्ज हूँ और तेरे से उम्र में बड़ा हूँ। कुछ मैंने कहा जो तेरे को नागवार गुज़रा, कुछ तूने कहा, वो मुझे अच्छा न लगा; अब तू इस बात पर खाक डाल, मैं जल्दी ही इसी मुद्दे पर तेरे से ख़ुद बात करता हूँ। बोल, मंजूर?”
“मंजूर, सर।”
“नो हार्ड फीलिंग्स?”
“नो हार्ड फीलिंग्स, सर।”
“दिल से कह रहा है?”
“यस, सर।”
“तो निकल ले। जाने से पहले कुछ और कहना चाहता है तो बोला”
“खाली एक बात।”
“वो भी बोला”
“तिनका कबहूँ न निन्दिये, पांव तले जो होय, कबहुँ उड़ि आँखिन परै, पीर धनेरी होय।”
“क्या मतलब हआ भई, इसका? मेरे तो सिर के ऊपर से गुज़र गया!”
गोरे हंसा, फिर संजीदा हुआ।
“जय हिन्द, सर।” – वो बोला।
उसने फरमायशी सैल्यूट मारा और लम्बे डग भरता वहां से रुख़सत हुआ।
“मादर . . . कुत्ता!” – पीछे एसएचओ भारकर बड़बड़ाया – “पता नहीं क्या कह गया साला हरामी! इसका जल्दी ही कोई इलाज करना होगा। हड़काया हुआ कुत्ता! मेरे को हूल देता था कमीना! जैसे अभी काट खायेगा! जानता नहीं, साला, कि सांप को छेड़ने का क्या अंजाम होता है! और सांप भी कोई आम नहीं। काला नाग!”
उसने कॉल बैल बजाई।
तत्काल हवलदार भीतर दाखिल हुआ।
“कदम को बुला।” – उसने हुक्म दिया।
“अभी, साब।”
हवलदार लपकता हुआ गया और सब-इन्स्पेक्टर रवि कदम के साथ वापिस लौटा।
भारकर ने हाथ के इशारे से हवलदार को डिसमिस कर दिया।
कदम जोशीला, युवा सब-इन्स्पेक्टर था जो अपनी पुलिस की नौकरी को बहुत संजीदगी से लेता था, और अपनी निष्ठा और कर्मठता के सदके महकमें में उत्तरोत्तर उन्नति के सपने देखता था।
“फरमाइए, सर।”
“मेरे को शक है” – एसएचओ का लहजा धीमा हुआ— “मेरे ऑफिस में कोई स्नूपिंग डिवाइस परमानेंट करके या टैम्परेरी तौर पर फिक्स है।”
“जी!”
“तेरे को ऐसी गैजेटरी का तजुर्बा है। यहां तलाश कर कोई खुफिया मिनियेचर कैमरा या कोई स्पीकर, ट्रांसमीटर या दोनों।”
“अभी?”
“अभी। मेरे सामने।”
“ठीक। सर, दसरा काम?”
“पहला हो जाए तो बोलता हूँ।”
एसआई कदम ने एक सैकण्ड भी ज़ाया न किया, फौरन अपने काम में लग गया।
आधा घन्टा उसने एसएचओ के विशाल ऑफिस को और उसके साथ जुड़े उसके बैडरूम को खंगालने में लगाया।
“क्लीन, सर।” – आखिर उसने रिपोर्ट दी – “कहीं कुछ नहीं। नो बग, नो स्नूपिंग डिवाइस, नो नथिंग।”
“श्योर?”
“वन हण्डर्ड पर्सेन्ट, सर।”
“कोई ऐसा ज़रिया है कि कोई बग, कोई स्नूपिंग डिवाइस यहां न लगाई जा सके? लगाई जाए तो मुझे ख़बर हुए बिना न रहे?”
एसआई कदम ने उस बात पर विचार किया।
“सर” – फिर बोला – “सिम्पल तरीका तो यही है कि अपनी गैरहाजिरी में अपना ऑफिस खुला न छोड़ें। दूसरे, बग डिटेक्टिंग मीटर भी इलैक्ट्रॉनिक्स
मार्केट में अवेलेबल है लेकिन मिनियेचर कैमरे वाला कारोबार ज़रा टेढ़ा है।”
“बोले तो?”
“कैमरा किसी विज़िटर के साथ भी आ सकता है। आजकल तो कमीज के बटन जितना कैमरा भी मार्केट में अवेलेबल है जो तीन चार सौ गज तक भी विजुअल सिग्नल्स भेज सकता है।”
“ऐसा?”
“जी हां।”
“थाने में एसएचओ का हुक्म जारी करवाओ कि किसी भी मुलाकाती को सिक्योरिटी चैक के बिना एसएचओ के ऑफिस का रुख न करने दिया जाए। सारे स्टाफ को ख़बरदार करो कि अगर कोई मुलाकाती किसी स्नूपिंग डिवाइस के साथ, किसी खुफिया मिनियेचर कैमरे के साथ थाने के परिसर में पाया गया तो उस मुलाकाती को फरदर क्वेश्चनिंग के लिए हिरासत में लिया जाएगा और उस पुलिस वाले पर भी डिपार्टमेंटल एक्शन होगा जिसने एसएचओ के हुक्म को फॉलो करने में कोताही की।”
“यस, सर। राइट, सर।”
“अब दूसरी बात सुन। वो औरत जिसकी खोज ख़बर रखने की हिदायत मैंने तेरे को दी थी, क्या नाम था उसका?”
“कोंपल। कोंपल मेहता।”
“हां, वही। क्या जाना उसके बारे में?”
“सर, कोई जरायमपेशा औरत तो वो यकीनन नहीं है लेकिन अपनी माली ज़रूरियात को पूरा करने के लिए कुछ छोटे-मोटे ऐसे काम करती है जो बिल्कुल ही गैरकानूनी तो नहीं हैं, लेकिन फिर हैं भी...”
“मसलन?”
“पार्टी ड्रग्स की छोटी-मोटी मूवमेंट्स में उसकी शिरकत है लेकिन डीलर के तौर पर, सप्लायर के तौर पर नहीं, पैडलर के तौर पर भी नहीं।”
“यूज़र?”
“हो सकती है।”
“और?”
“छोटी मोटी पार्टियों में स्कॉच व्हिस्की पहुंचाती है जो कि सुना है एक्साइज़ ड्यूटी अनपेड होती है, लेकिन इस बाबत वक्त के तोड़े की वजह से कोई पक्की जानकारी अभी मुझे नहीं हासिल हुई।”
“अकेले ऑपरेट करती है?”
“एक आदमी उसके साथ होता तो है लेकिन हमेशा नहीं।”
“कोई दोस्त? चाहने वाला?”
“बड़ी उम्र की औरत है – तीसेक साल की – हसबैंड भी हो सकता है।”
“शक्ल सूरत? रख-रखाव?”
“उम्दा ।”
“अक्सर कहां पाई जाती है?”
“बन्दरगाह के इलाके में। ख़ास तौर में डिमेलो रोड के किसी रेस्टोबार में। रेस्टोरेंट में, डिस्को में।”
“हूँ।”
“कभी-कभार बतौर कैजुअल हैल्प बारमेड या होस्टेस भी दिखाई देती है।”
“बोले तो, बड़ी स्ट्रगल है लाइफ में!”
“सर, मुम्बई में तो हर किसी की लाइफ में स्ट्रगल है।”
“ठीक बोला। कल उस औरत को काबू में कर। मेरे को उस से अर्जेन्ट करके बात करने का।”
“यस, सर।”
“जीता रह।”
वो डिसमिसल का इशारा था, जो युवा एसआई कदम ने फौरन पकड़ा।
वो एक सूट-बूट में सज़ा-धजा चालीसेक साल का, अच्छी शक्ल-सूरत वाला, क्लीनशेव्ड शख्स था जो एक निगाह में किसी बड़ी कम्पनी का सेल्स एक्जीक्यूटिव जान पड़ता था। जो चमड़ा मंढ़ा ब्रीफकेस वो उठाए था, वो भी यही गवाही देता जान पड़ता था। उस शख्स का नाम विनायक घटके था और उस घड़ी को ऑलिव बार में मैनेजर के उस के मैज़नीन फ्लोर पर स्थित ऑफिस में मौजूद था और वो ज़ाती तौर पर जानता था कि कथित मैनेजर ही उस रेस्टोबार का आधा मालिक था जिसका नाम सर्वेश सावंत था। दूसरे पार्टनर का नाम सुबोध नायक था।
ऑलिव बार सुबह ग्यारह बजे से आधी रात के बाद तक खुलता था और दोनों पार्टनर दो शिफ्टों में - जो कि रोटेट होती रहती थीं- वहां ड्यूटी करते थे।
उस घड़ी विनायक घटके सैकण्ड शिफ्ट की ड्यूटी भरते पाटर्नर सर्वेश सावन्त के सामने मौजूद था।
सावन्त ने बड़े सब्र के साथ अपने नावाकिफ विज़िटर पर सवालिया निगाह डाली।
“मेरा नाम विनायक घटके है।” – वो सख़्त, खुरदरी आवाज में बोला – “मैं परेरा साहब का ख़ास हूँ।”
घटके के ख़ुश्क, गैरदोस्ताना लहजे ने उसके सारे अच्छे रखरखाव की पोल खोल दी थी। अब वो कुछ लग रहा था तो एक मवाली ही लग रहा था जो कि सज़ा-धजा था और जिसके बनाने वाले ने इत्तफाकन उसे अच्छी शक्ल-सूरत से नवाज़ा था।
“कौन परेरा साहब?” – सावन्त ने भावहीन ढंग से सवाल किया।
रेमंड परेरा साहब।”
“कौन रेमंड परेरा साहब?”
“आप रेमंड परेरा साहब को नहीं जानते?”
“नहीं, भई, नहीं जानते? कौन हैं? नेता हैं? अभिनेता हैं? कौन हैं?”
“कमाल है! मुम्बई में कोई ऐसा भीड़ है तो नहीं जो परेरा साहब को न जानता हो!”
“देखो, भई, ये बार का बिजी सैशन है, इसलिए इस वक्त मेरे को क्विज प्रोग्राम का टाइम नहीं।”
रेमंड परेरा साहब टोपाज़ क्लब के मालिक हैं। टोपाज़ क्लब कोलाबा में है। अभी ये भी बोलने का कोलाबा में किधर है? या कोलाबा किधर है?”
“नहीं। मालूम मेरे को। कफ परेड पर है। कोलाबा मुम्बई के साउथ एण्ड पर है। ओके?”
“शुकर।”
“और अब परेरा भी मालूम। दरअसल परेरा बहुत कामन गोवानी नाम है इसलिए तुम्हारे वाला परेरा टोपाज़ क्लब से जोड़े बिना मगज में न आया।”
“मेरे वाला परेरा?”– घटके ने अपलक उसे देखा।
“परेरा साहब, भई। रेमंड परेरा साहब। ओनर, टोपाज़ क्लब ऑफ कफ परेड, कोलाबा। अब ठीक?
घटके ने उस पर अहसान-सा करते हुए सहमति से सिर हिलाया लेकिन उसे घूरना न छोड़ा।
आगन्तुक का घूरना सावन्त को विचलित कर रहा था, वो मन ही मन उस घड़ी को कोस रहा था जब उसने घटके से, जो उसके लिए सर्वदा अपरिचित था, मिलना कुबूल किया था।
“तो” – वो बोला – “तुम टोपाज़ क्लब वाले परेरा साहब के ख़ास हो?”
“हां।”
“उनका हवाला किसलिए?”
“इसीलिए क्योंकि मैं उनका ख़ास हूँ। ख़ास बात बाजरिया ख़ास आदमी ही होती है जोकि “ वो एक क्षण ठिठका –” मैं हूँ। विनायक घटके।”
“करो ख़ास बात। लेकिन जल्दी करो क्योंकि मेरे को टाइम का तोड़ा है।”
“जल्दी करूँ?”
“या किसी फुरसत के वक्त आकर करना।”
“परेरा साहब के ख़ास को ऐसे तो कोई नहीं टालता!”
“कम टु दि प्वॉयन्ट, यार। बात को लम्बा मत घसीटो ख़ुदा के वास्ते और मेरी मसरूफियत को समझो।”
“परेरा साहब अपना बिजनेस एक्सपैंड करना मांगता है।”
“टोपाज़ जैसा एक और क्लब खोलना मांगता है?”
“उसमें टेम लगेगा। परेरा साहब की निगाह में इमीजियेट करके कुछ है। नए प्रोजेक्ट के लिए एक लोकेशन भी मार्क करके रखा परेरा साहब।”
“अच्छा! किधर?”
“ग्रांट रोड पर। इधर तारदेव पास। कमाठीपुरा पास। भायखला पास। परेरा साहब को लोकेशन पसन्द। इधर ग्रांट रोड का एक बार पसन्द . . . जिसका टेकओवर परेरा साहब मांगता है।”
“टेकओवर!”
“इमीजियेट करके। टेकओवर नहीं तो पार्टनरशिप।”
“पार्टनरशिप! किधर?”
“परेरा साहब ऑलिव बार मार्क करके रखा।”
“क्या!”
“फाइनली पसन्द कर के रखा ऑलिव बार।”
“अरे, माथा फिरेला है? कौन बोला तेरे को कि ऑलिव बार या उसकी पार्टनरशिप तेरे परेरा साहब को अवेलेबल?”
घटके ख़ामोश रहा।
“तीस करोड़ का प्रोजेक्ट है। अव्वल तो पार्टनरशिप अवेलेबल नहीं लेकिन हो भी तो खड़े पैर इनवैस्ट करेगा दस करोड़ तेरा परेरा साहब?”
“ऊपर से फोन आया न!”
“ऊपर से फोन आया! ऊपर से कहां से फोन आया?”
“समझो।”
“तू समझा, भई।”
“ऊपर से फोन आने का एकीच मतलब।”
“एकीच मतलब! दुबई से?”
“कराची से। दुबई में भाई’ कभी होता था। अब कराची में होता है।” सावन्त ने मुंह बाए उसकी तरफ देखा।
“अभी समझ में आया परेरा साहब की पीठ पर कौन है?”
“तेरा परेरा साहब ऑलिव बार में पार्टनर बनना मांगता है?”
“अभी आई बात समझ में। पार्टनर बनके अपने इस्टाइल से ऑलिव बार को चलाना मांगता है।”
“कमाल है! खड़े पैर दस करोड़ इनवेस्ट करके ...”
“इनवेस्टमेंट का कौन बोला?”
“तो इन्वेस्टमेंट बिना कैसे . . . ओह! तो ये बात है!”
“क्या बात है?”
“तेरा परेरा साहब फोकट में ऑलिव बार पर काबिज होने के सपने देख रहा है।”
“जिसकी पीठ पर ‘भाई’ का हाथ हो, वो कुछ भी कर सकता है।”
“बतोलेबाज है तेरा परेरा साहब! उसको बोल ख़्वाब देखना बन्द करे और तू भी चलता-फिरता नजर आ। साला गलत किया जो मैं तेरे को इधर आने दिया। अभी निकल ले!”
घटके न हिला।
“मैं”सावन्त ने फोन की तरफ हाथ बढ़ाया- “सिक्योरिटी को बुलाता हूँ।”
“बुलाना।” – घटके बोला – “पण एक मिनट रुकने का। खाली एक मिनट बोला मैं।”
घटके अब कोई और ही भाषा बोल रहा था। सावन्त का फोन की तरफ बढ़ता हाथ बीच रास्ते ठिठका।
“बोले तो परेरा साहब जो मांगता है, मांगता है बरोबर। और जब मांगता है तो ख़ुदीच बहुत कहर ढा सकता है। फिर उसको ‘भाई’ की शह है सीधे कराची से। परेरा साहब की मांग ठुकराने का नतीजा बुरा होगा, बाप, बहुत बुरा होगा।”
“क्या होगा?”
“सामने आएगा न! अभी खाली बोलो कि तुम्हेरा परेरा साहब के साथ पार्टनरशिप को नक्की बोलना फाइनल?”
“गैट आउट।”
“बोले तो फाइनल।” – वो उठ खड़ा हुआ— “जाता है, बाप। सलाम बोलता है। अभी तुम जानो, तुम्हेरा पार्टनर जाने और परेरा साहब जाने।”
उसने फर्जी मुस्कुराहट के साथ एक उंगली से अपनी पेशानी को छुआ और लौट पड़ा।
चिन्तित भाव से नेत्र सिकोड़े सावन्त उसे जाता देखता रहा।
पीछे उसने अपने डिप्टी नवीन गोहिल को तलब किया।
रेमंड परेरा के नाम से वाकिफ है?” – उसके संजीदगी से सवाल किया।
“हां।” – गोहिल बोला – “कोलाबा में टोपाज़ क्लब चलाता है।”
“अभी उसका एक आदमी – साफ मवाली आदमी – परेरा के नाम पर खुल्ली धमकी उछाल कर गया कि उसके बॉस परेरा को फोकट में - फोकट में बोला मैं – इधर ऑलिव बार का पार्टनर बनाया जाए वर्ना किसी गम्भीर अंजाम के लिए तैयार रहा जाए।”
“नॉनसेंस ...”
“बोला, दावा ठोक के गया, कि उसके परेरा साहब की पीठ पर ‘भाई’ का हाथ था।”
“बंडल ठोक कर गया। ऐसा कहीं होता है!”
“नहीं होता। लेकिन फिर भी कुछ करेगा तो क्या करेगा?”
“कुछ नहीं कर पाएगा।”
“अरे, मैं फिर भी’ बोला न!” – सावन्त झल्लाया।
“तो क्या करेगा? बार की क्लायन्टेल बिगाड़ने की कोशिश करेगा। पीक आवर्स में कोई गलाटा खड़ा करने की कोशिश करेगा।”
“मेरा भी यही ख़याल है। गोहिल, अब हमें भरपूर कोशिश करनी है कि इधर कभी भी कोई गलाटा न होने पाए। कैसे करेंगे?”
“आप बोलिए?”
“जो सिक्योरिटी एजेन्सी हमारे यहां गार्ड्स भेजती है, उससे कॉन्टेक्ट कर और बोल कि दस बेवर्दी हथियारबन्द सिक्योरिटी गार्ड यहां भेजे...”
“इतने!”
“कम जान पड़ें तो और भी। मेरे को कोई गलाटा नहीं मांगता। बाउन्सर्ज़ भी डबल कर।”
“वो भी डबल!”
“बरोबर।”
“बहुत खर्चा होगा, बॉस।”
“वान्दा नहीं मेरे को। मेरे को हर धमकी का सामना करने का।”
“भले ही वो खोखली हो?”
“हां, भले ही खोखली हो। फिरंगियों में ऐसे ही ही नहीं कहते कि फोरवार्ड इज़ फोरआर्ड।”
“मैं समझ गया, बॉस। सब ऐसीच होगा पर ....”
“क्या पर?”
“इस बाबत नायक साहब से भी बात कर लेते तो....”
सावन्त ने घूर कर अपने डिप्टी को देखा।
“वो क्या है कि . . . मैं इसलिए कह रहा था कि . . . कि नायक साहब की पुलिस में अच्छी वाकफियत है, शायद . . . शायद किसी काम आती।”
“जो कहा है वो कर, भई, और फौरन कर। बाकी मैं . . . देखेंगा।”
“राइट, बॉस।”
“गैट अलांग।”
नवीन गोहिल रूखसत हो गया।
पीछे सावन्त कुछ क्षण विचारपूर्ण मुद्रा बनाए मेज़ ठकठकाता रहा।
अपने पार्टनर सुबोध नायक की पुलिस में ‘अच्छी वाकफियत’ से सर्वेश सावन्त वाकिफ था। वो वाकफियत एक पुलिस इन्स्पेक्टर तक सीमित थी जिससे सुबोध नायक अपने घनिष्ठ सम्बन्ध बताता था। नायक का दोस्त इन्स्पेक्टर मुम्बई पुलिस में कहां, किस महकमे में तैनात था, इस बाबत उसे कोई ख़बर नहीं थी क्योंकि ख़बर रखने में उसने कभी दिलचस्पी ही नहीं ली थी।
‘तो क्या!’- उसने मन ही मन सोचा – ‘पार्टनर के पुलिसिए दोस्त की बाबत वो अब मालूम कर सकता था।’
उसने पार्टनर के मोबाइल पर कॉल लगाई।
जवाब न मिला।
वान्दा नहीं - उसने फोन बन्द कर दिया - अभी है टाइम।
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