मैं नेहरू प्लेस में स्थित यूनिर्सल इनवेस्टिगेशन के अपने ऑफिस में अपने केबिन में बैठा था । बैठा मैंने इसलिए कहा क्योंकि जिस चीज पर मैं विराजमान था, वह एक कुर्सी थी, वरना मेरे पोज में बैठे होने वाली कोई बात नहीं थी । मेज के एक खुले दराज पर पांव पसारे अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर मैं लगभग लेटा हुआ था । मेरे होंठों में डनहिल का एक ताजा सुलगाया सिगरेट लगा हुआ था और जेहन में पीटर स्कॉट की उस खुली बोतल का अक्स बार-बार उभर रहा था जो कि मेरी मेज के एक दराज में मौजूद थी और जिसके बारे में मैं यह निहायत मुश्किल फैसला नहीं कर पा रहा था कि मैं उसके मुंह से अभी मुंह जोड़ लूं या थोड़ा और वक्त गुजर जाने दूं ।
अपने खादिम को आप भूल न गए हों इसलिए मैं अपना परिचय आपको दोबारा दे देता हूं । बंदे को सुधीर कोहली कहते हैं । मैं प्राइवेट डिटेक्टिव के उस दुर्लभ धंधे से ताल्लुक रखता हूं जो हिंदुस्तान में अभी ढंग से जाना-पहचाना नहीं जाता लेकिन फिर भी दिल्ली शहर में मेरी पूछ है । अपने दफ्तर में मेरी मौजूदगी हमेशा इस बात का सबूत होती है कि मुझे कोई काम-धाम नहीं, जैसा कि आज था ।
बाहर वाले कमरे में मेरी सैक्रेटरी रजनी बैठी थी और काम न होने की वजह से जरूर मेरी ही तरह बोर हो रही थी । स्टेनो के लिए दिये मेरे विज्ञापन के जवाब में जो दो दर्जन लड़कियां मेरे पास आई थीं, उनमें से रजनी को मैंने इसलिए चुना था क्योंकि वह सबसे ज्यादा खूबसूरत थी और सबसे ज्यादा जवान थी । उसकी टाइप और शॉर्टहैंड दोनों कमजोर थीं लेकिन उससे क्या होता था ! टाइप तो मैं खुद भी कर सकता था ।
बाद में रजनी का एक और भी नुक्स सामने आया था - शरीफ लड़की थी ।
नहीं जानती थी कि डिक्टेशन लेने का मुनासिब तरीका यह होता है कि स्टेनो सबसे पहले आकर साहब की गोद में बैठ जाये ।
अब मेरा उससे मुलाहजे का ऐसा रिश्ता बन गया था कि उसके उस नुक्स की वजह से मैं उसे नौकरी से निकाल तो नहीं सकता था लेकिन इतनी उम्मीद मुझे जरूर थी कि देर-सबेर उसका वह नुक्स रफा करने में मैं कामयाब हो जाऊंगा ।
“रजनी !” - मैं तनिक, सिर्फ इतने कि आवाज बाहरले केबिन में पहुंच जाये, उच्च स्वर में बोला ।
“फरमाइए ?” - मुझे रजनी की खनकती हुई आवाज सुनाई दी ।
“क्या कर रही हो ?”
“वही जो आपकी मुलाजमत में करना मुमकिन है ।”
“यानी ?”
“झक मार रही हूं ।”
“यहां भीतर क्यों नहीं आ जाती हो ?”
“उससे क्या होगा ?”
“दोनों इकट्ठे मिलकर मारेंगे ।”
“नहीं मैं यहीं ठीक हूं ।”
“क्यो ?”
“क्योंकि आपकी और मेरी झक में फर्क है ।”
“लेकिन..”
“और दफ्तर में मालिक और मुलाजिम का इकट्ठे झक मारना एक गलत हरकत है । इससे दफ्तर का डैकोरम बिगड़ता है ।”
“अरे, दफ्तर मेरा है, इसे मैं...”
“नहीं ।” - रजनी ने मेरे मुंह की बात छीनी - “आप इसे जैसे चाहें नहीं चला सकते । यह आपका घर नहीं, एक पब्लिक प्लेस है ।”
“तो फिर मेरे घर चलो ।”
“दफ्तर के वक्त वह भी मुमकिन नहीं ।”
“बाद में मुमकिन है ?”
“नहीं ।”
“फिर क्या फायदा हुआ ?”
“नुकसान भी नहीं हुआ ।”
“चलो, आज कहीं पिकनिक के लिए चलते हैं ।”
“कहां ?”
“कहीं भी । बड़कल लेक । सूरज कुंड । डीयर पार्क ।”
“यह खर्चीला काम है ।”
“तो क्या हुआ ?”
“यह हुआ कि पहले इसके लायक चार पैसे तो कमा लीजिये ।”
“रजनी !” - मैं दांत पीसकर बोला ।
“फरमाइए ?”
“तुम एक नंबर की कमबख्त औरत हो ।”
“करेक्शन ! मैं एक नंबर की नहीं हूं । और औरत नहीं, लड़की हूं ।”
“अपने एम्प्लॉयर से जुबान लड़ाते शर्म नहीं आती है तुम्हें ?”
“पहले आती थी । अब नहीं आती ।”
“अब क्यों नहीं आती ?”
“इसलिए क्योंकि अब मेरी समझ में आ गया है कि जब मेरे एम्प्लॉयर को मेरे से जुबान लड़ाने से एतराज होगा तो वह खुद ही वाहियात बातों से परहेज करके दिखाएगा ।”
“मैं वाहियात बातें करता हूं ?”
“अक्सर ।”
“लानत ! लानत !”
वह हंसी ।
“जी चाहता है कि मार-मार के लाल कर दूं तुम्हें ।”
“लाल !”
“हां ।”
“हैरानी है । आम मर्दों की ख्वाहिश तो औरत को हरी करने की होती है ।”
इससे पहले कि मैं उस शानदार बात का कोई मुनासिब जवाब सोच पाता, टेलीफोन की घंटी बज उठी ।
“फोन खुद ही उठाइये” - रजनी बोली - “और भगवान से दुआ कीजिये कि भूले-भटके कोई क्लायंट आपको फोन कर रहा हो । चार पैसे कमाने का कोई जुगाड़ कीजिये ताकि मुझे पहली तारीख को अपनी तनखाह मिलने की कोई उम्मीद बन सके ।”
मैं कुर्सी पर सीधा हुआ । मैंने हाथ बढ़ाकर फोन उठाया ।
“यूनिवर्सल इन्वैस्टीगेशन ।” - मैं माउथपीस में बोला ।
“मिस्टर सुधीर कोहली !” - दूसरी तरफ से आती जो जनाना आवाज मेरे कानों में पड़ी, वह ऐसी थी कि उसे सुनकर कम-से-कम सुधीर कोहली जैसा कोई पंजाबी पुत्तर बेडरूम की कल्पना किए बिना नहीं रह सकता था ।
“वही ।” - मैं बोला ।
“आप प्राइवेट डिटेक्टिव हैं ?”
“दुरुस्त । मैं डिटेक्टिव भी हूं और प्राइवेट भी ।”
“मुझे आपकी व्यावसायिक सेवाओं की जरूरत है ।”
“नो प्रॉबलम । यहां नेहरू प्लेस में मेरा ऑफिस है । आप यहां...”
“मैं आपके ऑफिस में नहीं आ सकती ।”
“स्टिल नो प्रॉबलम । आप नहीं आ सकती तो मैं आ जाता हूं । बताइये, कहां आना होगा ?”
“आपकी फीस क्या है ?”
“तीन सौ रुपए रोज जमा खर्चे । दो हजार रुपए एडवांस ।”
फीस पर उसने कोई हुज्जत नहीं की, खर्चे से क्या मतलब था, उसने इस बाबत भी सवाल नहीं किया, इसी से मुझे अंदाजा हो गया कि वह कोई सम्पन्न वर्ग की महिला थी ।
“आपको छतरपुर आना होगा ।” - वह बोली ।
“छतरपुर !” - मैं अचकचाकर बोला ।
“घबराइए नहीं । यह जगह भी दिल्ली में ही है ।”
“दिल्ली में तो है लेकिन ....”
“यहां हमारा फार्म है ।”
“ओह !”
“बाहर फाटक पर नियोन लाइट में बड़ा-सा ग्यारह नंबर लिखा है । आज शाम आठ बजे मैं वहां आपका इंतजार करूंगी ।”
“बंदा हाजिर हो जाएगा ।”
“गुड ।”
“वहां पहुंचकर मैं किसे पूछूं ?”
“मिसेज ओबराय को ।”
तभी एकाएक संबंध विच्छेद हो गया ।
मैंने भी रिसीवर वापिस क्रेडिल पर रख दिया और डनहिल का एक ताजा कश लगाया ।
नाम और पता दोनों से रईसी की बू आ रही थी । अब मुझे लगा रहा था कि मैंने अपनी फीस कम बताई थी ।
बहरहाल काम तो मिला था ।
तभी दोनों केबिनों के बीच रजनी प्रकट हुई ।
उसके चेहरे पर संजीदगी की जगह विनोद का भाव था ।
मैंने अपलक उसकी तरफ देखा ।
निहायत खूबसूरत लड़की थी वो ।
मर्द जात की यह भी एक ट्रेजेडी है कि मर्द शरीफ लड़की की कद्र तो करता है लेकिन जब लड़की शरीफ बनी रहना चाहती है तो उसे कोसने लगता है । मैंने रजनी की शराफत से प्रभावित होकर उसे नौकरी पर रखा था और अब मुझे उसकी शराफत पर ही एतराज था ।
“काम मिला ?” - उसने पूछा ।
“काम की बात बाद में” - मैं बोला - “पहले मेरी एक बात का जवाब दो ।”
“पूछिए ।”
“कोई ऐसा तरीका है जिससे तुम मुझे हासिल हो सको ?”
“है” - वह विनोदपूर्ण स्वर में बोली - “बड़ा आसान तरीका है ।”
“कौन सा ?” - मैं आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“मुझसे शादी कर लो ।”
“ओह !” - मैंने आह-सी भरी ।
वह हंसी ।
“मैं एक बार शादी करके पछता चुका हूं, मार खा चुका हूं । दूध का जला छाछ फूंक-फूंककर पीता है ।”
“दैट इज यूअर प्रॉबलम ।”
मैं खामोश रहा ।
“अब बताइये, काम मिला ?”
“लगता है कि मिला । अब तुम भी अपनी तनखाह की हकदार बनकर दिखाओ ।”
“वो कैसे ?”
“डायरैक्ट्री में एक नंबर होता है जिस पर से पता बताकर वहां के टेलीफोन का और उसके मालिक का नंबर जाना जा सकता है ।”
“बशर्ते कि उस पते पर फोन हो ।”
“फोन होगा । तुम ग्यारह नंबर छतरपुर के बारे में पूछकर देखो । यह कोई फार्म है और इसका मालिक कोई ओबराय हो सकता है । ऐसे बात न बने तो डायरैक्ट्री निकाल लेना और उसमें दर्ज हर ओबराय के नंबर पर फोन करके मालूम करना कि छतरपुर में किसका फार्म है ।”
“कोई बताएगा ?”
“जैसे मुझे ईंट मार के बात करती हो, वैसे पूछोगी तो कोई नहीं बताएगा । आवाज में जरा मिश्री, जरा सैक्स घोलकर पूछोगी तो सुनने वाला तुम्हें यह तक बताने से गुरेज नहीं करेगा कि वह कौन-सा आफ्टर-शेव लोशन इस्तेमाल करता है, विस्की सोडे के साथ पीता है या पानी के साथ, औरत...”
“बस बस । मैं मालूम करती हूं ।”
पांच मिनट बाद ही वह वापस लौटी ।
“उस फार्म के मालिक का नाम अमरजीत ओबराय है । गोल्फ लिंक में रिहायश है । कोठी नंबर पच्चीस ।”
“कैसे जाना ?”
“बहुत आसानी से । मैंने अपने एक बॉयफ्रैंड को फोन किया । वह दौड़कर छतरपुर गया और वहां से सब-कुछ पूछ आया ।”
“इतनी जल्दी ?”
“फुर्तीला आदमी है । बहुत तेज दौड़ता है । आपकी तरह हर वक्त कुर्सी पर पसरा थोड़े ही रहता है...”
“वो शादी करने को भी तैयार होगा ?”
“हां ।”
“तो जाकर मरती क्यों नहीं उसके पास ?”
“अभी कैसे मरूं ? अभी तो शहनाई बजाने वाले छुट्टी पर गए हुए हैं । उनके बिना शादी कैसे होगी ?”
“मुझे उस बॉयफ्रैंड का नाम बताओ ।”
“क्यों ?”
“ताकि मैं अभी जाकर उसकी गर्दन मरोड़कर आऊं ।”
“फांसी हो जाएगी ।”
“ऐसे जीने से तो फांसी पर चढ़ जाना कहीं अच्छा है ।”
“अभी आपके पास वक्त भी तो नहीं । जो ताजा-ताजा काम मिला है, उसे तो किसी ठिकाने लगाइए ।”
“कैसे जाना तुमने अमरजीत ओबराय के बारे में ? और अगर तुमने फिर अपने बॉयफ्रैंड का नाम लिया तो कच्चा चबा जाऊंगा ।”
“आज मंगलवार है ।”
मैंने कहरभरी निगाहों से उसकी तरफ देखा ।
“सब कुछ डायरैक्ट्री में लिखा है” - वह बदले स्वर में बोली - “उसके घर का पता । उसके फार्म का पता । उसके धंधे का पता । मैंने फोन करके तसदीक भी कर ली है कि वह ग्यारह छतरपुर वाला ही ओबराय है ।”
“धंधे का पता क्या है ?”
“ओबराय मोटर्स, मद्रास होटल, कनॉट प्लेस ।”
“यह वो ओबराय है ?”
“वो का क्या मतलब ? आप जानते हैं उसे ?”
“जानता नहीं लेकिन उसकी सूरत और शोहरत से वाकिफ हूं । ओबराय मोटर्स का बहुत नाम है दिल्ली शहर में । वह इंपोर्टेड कारों का सबसे बड़ा डीलर बताया जाता है ।”
“और वह आपका क्लायंट बनना चाहता है !”
“वह नहीं । कोई मिसेज ओबराय, जो कि पता नहीं कि उसकी मां है, बीवी है, बेटी है या कुछ और है ।”
“बेटी हुई तो चांदी है आपकी ।”
मैंने उत्तर न दिया । अब बहस का वक्त नहीं था । मुझे काम पर लगना था । शाम आठ बजे की मुलाकात के वक्त से पहले मैंने कथित मिसेज ओबराय की बैकग्राउंड जो टटोलनी थी ।
मद्रास होटल के पीछे वह एक बहुत बड़ा अहाता था, जिसमें दो कतारों में कोई दो दर्जन विलायती कारें खड़ी थीं । पिछवाड़े में एक ऑफिस था जिसका रास्ता कारों की कतारों के बीच में से होकर था ।
मैं सड़क के पार अपनी पुरानी-सी फिएट में बैठा था और अपना कोई अगला कदम निर्धारित करने की कोशिश कर रहा था ।
आते ही मैंने वहां के एक कर्मचारी से संपर्क करके अमरजीत ओबराय के बारे में कुछ जानने की कोशिश की थी लेकिन मेरी इसलिए दाल नहीं थी क्योंकि तभी अमरजीत ओबराय वहां पहुंच गया था । उस क्षण वह भीतर ऑफिस में बैठा था और ऑफिस के शीशे की विशाल खिड़की में से मुझे दिखाई दे रहा था ।
डनहिल के कश लगाता मैं उसके वहां से टलने की प्रतीक्षा कर रहा था ।
ऑफिस के दरवाजे पर वह मर्सिडीज कार खड़ी थी, जिस पर कि वह थोड़ी देर पहले वहां पहुंचा था । उसका वर्दिधारी ड्राइवर कार के साथ ही टेक लगाए खड़ा था, इससे मुझे लग रहा था कि वह जल्दी ही वहां से विदा होने वाला था ।
दस मिनट बाद वह दो दादानुमा व्यक्तियों के साथ बाहर निकला । वे सब सैंडविच की सूरत में - पहले दादा फिर ओबराय, फिर दादा - कार में सवार हो गए । ड्राइवर भी वापिस अपनी सीट पर जा बैठा । उसने कार का इंजन स्टार्ट किया ।
उस घड़ी किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर मैंने ओबराय का पीछा करने का फैसला किया ।
मर्सिडीज वहां से रवाना हुई तो मैंने अपनी फिएट उसके पीछे लगा दी ।
ओबराय कोई पचास साल का ठिगना, मोटा, तंदरुस्त आदमी था । मुझे फोन करने वाली कथित मिसेज ओबराय से उसकी क्या रिश्तेदारी थी, इसका संकेत मुझे अभी भी हासिल नहीं था । मैं उसकी कल्पना अमरजीत ओबराय से किसी रिश्तेदार के तौर पर महज इसलिए कर रहा था कि उसने जिस जगह पर मुझे मिलने को बुलाया था, उसका मालिक अमरजीत ओबराय था । हकीकतन दोनों का एक जात का होना महज इत्तफाक हो सकता था और मुझे फार्म पर बुलाये जाने की वजह रिश्तेदारी की जगह यारी हो सकती थी ।
अगली कार राजेन्द्र प्लेस जाकर रूकी ।
ओबराय और उसके दोनों साथी कार से निकलकर एक बहुमंज़िली इमारत में दाखिल हुए । अपनी कार को पार्क करके जब मैंने उस इमारत में कदम रखा तो मैंने उन्हें लिफ्ट के सामने खड़े पाया ।
मेरे देखते-देखते लिफ्ट वहां पहुंची ।
उनके साथ ही मैं भी लिफ्ट में दाखिल हो गया ।
किसी की तवज्जो मेरी तरफ नहीं थी ।
लिफ्ट पांचवी मंजिल पर रूकी तो वे दोनों बाहर निकले ।
मैं भी बाहर निकला ।
लिफ्ट फ्लोर के मध्य में खुलती थी । वे बायीं तरफ चले तो मैं जानबूझकर विपरीत दिशा में चल पड़ा ।
एक क्षण बाद मैंने गर्दन घुमाकर पीछे देखा तो मैंने उन्हें कोने का एक दरवाजा ठेलकर भीतर दाखिल होते देखा ।
वे दृष्टि से ओझल हो गए तो मैं वापिस लौटा ।
कोने के उस दरवाजे पर पीतल के चमचमाते अक्षरों में लिखा था - जॉन पी एलैग्जेंडर एंटरप्राइसिज ।
मैं सकपकाया । तब मुझे पहली बार सूझा कि मैं कहां पहुंच गया था ।
एलैग्जेंडर शहर का बहुत बड़ा दादा था और उसकी एंटरप्राइसिज जुआ, अवैध शराब, प्रोस्टिच्युशन, स्मगलिंग और ब्लैकमेलिंग वगैरह थीं ।
और ओबराय अपने दो दादाओं के साथ वहां आया था ।
मैं वहां से टलने ही वाला था कि एकाएक मेरे कान में एक आवाज पड़ी - “क्या चाहिये ?”
मैंने चिहुंक कर पीछे देखा । मेरे पीछे एक दरवाजा निशब्द खुला था और उसकी चौखट पर उस वक्त ओबराय के दो दादाओं में से एक खड़ा मुझे अपलक देख रहा था ।
वह कंजी आंखों और चेचक से चितकबरे हुए चेहरे वाला सूरत से ही निहायत कमीना लगने वाला आदमी था ।
प्रत्यक्षत: वह दरवाजा भी एलैग्जेंडर के ऑफिस का था ।
“कुछ नहीं ।” - मैं सहज भाव से बोला ।
“तो ?”
“मैं टॉयलेट तलाश कर रहा था ।”
“वो दूसरे सिरे पर है ।”
“मुझे नहीं मालूम था ।”
“अब मालूम हो गया ?”
“हां, हो गया । शुक्रिया ।”
मैं लम्बे डग भरता हुआ दूसरे सिरे की तरफ बढ़ा ।
वहां टॉयलेट में दाखिल होने से पहले मैंने पीछे घूमकर देखा ।
वह दादा अभी भी चौखट के साथ टेक लगाये खड़ा था और मेरी ही तरफ देख रहा था ।
मैंने झूठमूठ लघुशंका का बहाना किया जो कि अच्छा ही साबित हुआ ।
मैं घूमकर वाश बेसिन की तरफ बढ़ा तो मैंने उसे टॉयलेट के दरवाजे पर खड़ा पाया ।
मैंने हाथ धोये और बालों में कंघी फिराने लगा ।
उसने भीतर कदम रखा ।
“मैंने तुम्हें मद्रास होटल के करीब भी देखा था ।” - वह बोला ।
“देखा होगा ।” - मैं लापरवाही से बोला ।
“ऐसा कैसे हो गया ?”
“इत्तफाक से हो गया और कैसे हो गया ?”
“मुझे इत्तफाक पसन्द नहीं ।”
“मुझे ऐसे लोग पसंद नहीं जिन्हें इत्तफाक पसन्द नहीं ।”
उसने घूरकर मुझे देखा ।
“मुझे खामखाह गले पड़ने वाले लोग भी पसन्द नहीं ।” - मैं बोला ।
मैंने आगे बढ़कर उसके पहलू से गुजरने की कोशिश की तो उसने मेरी बांह थाम ली ।
“बांह छोड़ो ।” - मैं सख्ती से बोला ।
“कौन हो तुम ?”- उसने पूछा ।
“मैंने कहा है, बांह छोड़ो ।”
उसने बांह छोड़ दी ।
“बांह मैंने छोड़ दी है तुम्हारी” - वह बोला - “लेकिन मेरी शक्ल अच्छी तरह से पहचान लो । वैसे ही जैसे मैंने तुम्हारी शक्ल अच्छी तरह पहचान ली है ।”
“वो किसलिए ?”
“ताकि दोबारा ऐसा इत्तफाक न हो ।”
“होगा तो तुम क्या करोगे ?”
“वह तुम्हें अगली बार मालूम होगा ।”
“मैं अगली बार का इन्तजार करूंगा ।”
“मत करना । बेवकूफी होगी ऐसा करना ।”
मैंने बहस न की । कुछ तो उस आदमी की शक्ल ही डरावनी थी, ऊपर से तभी मुझे उसकी बगल में लगे शोल्डर होल्स्टर में से एक रिवॉल्वर की मूठ झांकती दिखाई दी थी ।
मैं लिफ्ट की तरफ बढ़ा तो वह भी मेरे से केवल दो कदम पीछे था । हम दोनों इकट्ठे लिफ्ट में सवार होकर नीचे पहुंचे । मेरी कार तक भी वह मेरे साथ गया । मैं कार मैं सवार हुआ तो उसने मेरे लिए कार का दरवाजा तक बन्द किया । मैंने कार आगे बढ़ाई तो उसने पीछे हटकर यूं अपनी एक उंगली अपनी पेशानी से छूकर मुझे सैल्यूट मारा जैसे वह कोई दरबान हो और किसी मुअज्जिज मेहमान को वहां से विदा कर रहा हो ।
मैं कार को मेन रोड पर ले आया ।
जब मुझे तसल्ली हो गई कि वह किसी और वाहन पर मेरे पीछे नहीं आया था तो मैंने कार को एक गली में मोड़कर खड़ा कर दिया और वापिस सड़क पर आकर एक टैक्सी पकड़ ली ।
टैक्सी ड्राइवर एक मुश्किल से बीस साल का सिख नौजवान था ।
टैक्सी पर मैं वापिस राजेंद्रा प्लेस पहुंचा और उस इमारत के सामने से गुजरा जिसमें मैं अभी होकर आया था ।
ओबराय की मर्सिडीज अभी भी उस इमारत के सामने खड़ी थी । टैक्सी वहां से थोड़ा परे निकल आई तो मैंने उसे रुकवाया ।
“अभी थोड़ी देर बाद” - मैं टैक्सी ड्राइवर से पंजाबी में बोला - “एक काली मर्सिडीज यहां से गुजरेगी । तुमने उसके पीछे लगना है ।”
“कहां तक ?” - टैक्सी ड्राइवर ने पूछा ।
“जहां तक भी वह जाये ।”
“बाउजी यह लोकल टैक्सी है । शहर से बाहर नहीं जा सकती ।”
“तो मत जाना । शहर में तो यह काम कर सकोगे न ?”
“कोई लफड़े वाली बात तो नहीं ?”
“नहीं ।”
“बाउजी, बात क्या है ?”
“बात तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी । ऐसी बातें समझने की अभी तुम्हारी उम्र नहीं ।”
“फिर भी ?”
“फिर भी यह कि मैं इसकी बीवी का यार हूं । अगर मुझे गारण्टी हो गई कि यह अपने घर नहीं जा रहा तो इसके घर मैं जाऊंगा ।”
“इसकी बीवी के पास ?”
“हां ।”
“बल्ले !” - वह प्रशंसात्मक स्वर में बोला ।
मैं प्रतीक्षा करने लगा ।
कोई दस मिनट वाद ओबराय इमारत से बाहर निकला ।
अकेला !
उसकी मर्सिडीज उसे लेकर वहां से रवाना हो गई लेकिन उसके दादाओं के मुझे दर्शन न हुए ।
टैक्सी मर्सिडीज के पीछे लग गई ।
उसके पीछे लगा मैं नारायण विहार के इलाके में गया ।
वहां मर्सिडीज एकाएक एक गली में दाखिल हो गई ।
टैक्सी वाला फौरन टैक्सी उसके पीछे न मोड़ पाया । वह उसे आगे से घुमाकर वापिस लाया और हम गली में दाखिल हुए ।
मर्सिडीज मुझे एक बंगले के आगे खड़ी दिखाई दी ।
मैंने टैक्सी को तनिक आगे ले जाकर रुकवाया और पैदल वापिस लौटा ।
बंगले के लैटर-बॉक्स पर लिखा था - 70, नारायण विहार ।
मैंने उससे अगली इमारत की कॉलबैल बजाई ।
एक जीनधारी युवती ने दरवाजा खोला और बाहर बरामदे में कदम रखा ।
“सबरवाल साहब घर में हैं ?” -उसके पुष्ट वक्ष से जबरन निगाह परे रखता हुआ मैं बोला ।
“कौन सबरवाल साहब ?” - युवती वोली - “यहां तो कोई सबरवाल साहब नहीं रहते ।”
“लेकिन मुझे तो यही पता बताया गया था । 70, नारायण विहार ।”
“यह 71 नम्बर है । 70 नम्बर तो बगल वाला है ।”
“ओह, सॉरी !”
“लेकिन सबरवाल तो वहां भी कोई नहीं रहता ।”
“कमाल है ! वहां कौन रहता है ?”
“वहां तो जूही चावला नाम की फैशन मॉडल रहती है ।”
“सबरवाल वहां पहले रहते होंगे !”
“न । जूही चावला तो वहां बहुत अरसे से रहती है ।”
“कमाल है ! ऐसी गडबड़ कैसे हो गई पते में !”
“कहीं तुमने नारायणा तो नहीं जाना ?”
“नारायणा और नारायण विहार में फर्क है ?”
“हां ।”
“तो यही गड़बड़ हुई है । शायद मैंने नारायणा ही जाना था । बहरहाल तकलीफ का शुक्रिया ।”
वह मुस्कराई । मुस्कराई क्या, कहर ढाया उसने ।
उसके कम्पाउंड से निकलकर मैं वापिस सड़क पर जा पहुंचा ।
तभी मुझे एक सफेद एम्बैसडर गली में दिखाई दी - जो कि मेरे 71 नम्बर इमारत के कम्पाउंड में दाखिल होते समय शर्तिया वहां नहीं थी ।
मैं तनिक सकपकाया-सा आगे बढ़ा ।
एम्बैसडर का अगला एक दरवाजा खुला और चितकबरे चेहरे वाले दादा ने बाहर कदम रखा ।
फिर कार का दूसरा ड्राइविंग सीट की ओर वाला, दरवाजा भी खुला और चितकबरे के जीड़ीदार ने बाहर कदम रखा ।
मैं थमकर खड़ा हो गया ।
आसार अच्छे नहीं लग रहे थे लेकिन वहां से भाग खड़ा होना भी मेरी गैरत गवारा नहीं कर रही थी ।
मैं मन ही मन हिसाब लगाने लगा कि क्या मैं उन दोनों का मुकाबला कर सकता था ?
अगर चितकबरा रिवॉल्वर न निकाले तो - मेरे मन ने फैसला किया - कर सकता था ।
दोनों मेरे करीब पहुंचे ।
सतर्कता की प्रतिमूर्ति बना मैं बारी-बारी उनकी सूरतें देखने लगा ।
चितकबरे के चेहरे पर एक विषैली मुस्कराहट उभरी ।
“पहचाना मुझे ?” - वह बोला ।
“हां ।” - मैं सहज भाव से बोला - “पहचाना ।”
“और इसे ?” - एकाएक उसके हाथ में एक लोहे का कोई डेढ़ फुट का डण्डा प्रकट हुआ ।
मैंने जवाब देने में वक्त जाया न किया, जो कि मेरी दानाई थी । मैंने एकाएक अपने दायें हाथ का प्रचण्ड घूंसा उसके थोबड़े पर जमा दिया । वह पीछे को उलट गया । तभी उसके जोड़ीदार का घूंसा मेरी कनपटी से टकराया । मेरे घुटने मुड़ गए । एक और घूंसा मेरी खोपड़ी पर पड़ा । मैं मुंह के बल जमीन पर गिरा । बड़ी फुर्ती से गिरे-गिरे मैंने करवट बदली तो मैंने उसे अपने भारी जूते का प्रहार मेरी छाती पर करने को आमादा पाया । मैंने फिर कलाबाजी खाकर उसका वह वार बचाया और फिर लेटे-लेटे ही अपनी दोनों टांगें इकट्ठी करके एक दोलत्ती की सूरत में उन्हें उस पर चलाया । मेरी दोलत्ती उसके पेट के निचले भाग पर पड़ी । वह तड़पकर दोहरा हो गया । तब तक चितकबरा उठकर अपने पैरों पर खड़ा हो चुका था और अपने शोल्डर होल्स्टर में से रिवॉल्वर निकाल रहा था । लेकिन उसका रिवॉल्वर वाला हाथ अभी होल्स्टर से अलग भी नहीं हो पाया था कि वह दोबारा धूल चाट रहा था । खुदाई मदद के तौर पर मेरा नौजवान सिख टैक्सी ड्राइवर वहां पहुंच गया था और उसके एक दोहत्थड़ ने चितकबरे को दोबारा धूल चटा दी थी ।
मैं फुर्ती से उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ और उसके जोड़ीदार की तरफ आकर्षित हुआ जो कि मेरी दोलत्ती के वार से संभलने की कोशिश कर रहा था । मैंने उसे उसकी कोशिश में कामयाब न होने दिया । उसके सीधा हो पाने से पहले ही मैंने उसे घूंसों पर धर लिया ।
तभी 71 नम्बर का दरवाजा खुला और जीनधारी युवती फिर बरामदे में प्रकट हुई । बाहर होती लड़ाई देखकर वह फौरन वापिस भीतर दाखिल हो गई ।
“चलो ।” - मैं टैक्सी ड्राइवर से बोला - “यहां पुलिस आ सकती है ।”
उन दोनों को सड़क पर छोड़कर हम सरपट टैक्सी की तरफ भागे ।
अगले ही क्षण हम दोनों को लेकर टैक्सी वहां से यूं भागी जैसे तोप से गोला छूटा हो ।
पुलिस वहां न भी पहुंचती तो भी चितकबरा गोलियां दागनी शुरू कर सकता था ।
इस बार मैं टैक्सी में पीछे नहीं, ड्राइवर की बगल में बैठा था ।
“बरखुरदार !” - मैं प्रशंसा और कृतज्ञता मिश्रित स्वर में बोला - “तूं ता कमाल ई कर दित्ता ।”
“बाउजी” - वह तनिक शर्माया - “अब भला मैं अपनी आंखों से अपनी सवारी की दुर्गत होते कैसे देख सकता था ! ऊपर से तुसी निकले साडे पंजाबी भ्रा ।”
“लेकिन सरदार नहीं ।”
“फेर की होया !” - वह तरन्नुम में बोला - “भापा जी, असी दोवे इक देश दी धड़कन, मां दे पुत्तर सक्के भ्रा । क्यों भई रामचन्दा ?”
“हां भई रामसिंगा ।” - मैं भी तरन्नुम में बोला ।
वापिस राजेन्द्रा प्लेस पहुंचने तक हम दोनों ने दर्जनों बार वह एक लाइन का गाना आवाज में आवाज मिलाकर गाया ।
वहां किराये की एवज में मैंने उसे सौ का नोट देना चाहा जो कि उसने लेने से सरासर इंकार कर दिया । उसने केवल किराये के अड़तीस रुपए लिए और बाकी रकम मुझे वापिस कर दी ।
टैक्सी ड्राइवर के विदा होने के बाद मैं गली में खड़ी अपनी कार में जा सवार हुआ ।
कार स्टार्ट करने से पहले मैंने एक सिगरेट सुलगाया और घड़ी पर निगाह डाली ।
छ: बजने को थे ।
लगभग चार घंटे का जो वक्त मैंने ओबराय पर लगाया था, वह एकदम जाया नहीं गया था । इतने अरसे में मुझे ओबराय के बारे में यह मालूम हुआ था कि वह शहर के माने हुए गैंगस्टर एलैग्जेंडर से अपने दो दादाओं के साथ मिलने गया था, कि उसके दादा इतने चौकन्ने थे कि पीछे लगे आदमी को फौरन भांप जाते थे, कि उसकी जूही चावला नाम की एक फैशन मॉडल में दिलचस्पी थी ।
फिलहाल यह जानकारी मेरे किसी काम की नहीं थी । मुमकिन था कि इनमें से किसी भी बात से उस मिसेज ओबराय का कोई सरोकार न होता जो कि रात आठ बजे छतरपुर में मुझसे मिलने वाली थी । उसे मेरी व्यावसायिक सेवाएं किसी ऐसे काम के लिए भी दरकार हो सकती थीं जिससे कि शायद अमरजीत ओबराय की आज की गतिविधियों का दूर-दराज का भी रिश्ता नहीं था ।
***
छतरपुर महरौली रोड पर कुतुबमीनार से आगे एक गांव था । वहां और उसके रास्ते में दिल्ली के कई रईस लोगों के फार्म थे जो कि प्राय: उन लोगों की तफरीहगाह के तौर पर इस्तेमाल होते थे ।
ओबराय के फार्म का ग्यारह नंबर का नियोन साइन मुझे दो फर्लांग से ही चमकता दिखाई दे गया ।
वह कई एकड़ में फैला एक विशाल फार्म था जिसके पृष्ठभाग में एक जमीन में कोई छ: फुट ऊपर उठे प्लेटफार्म पर एक खूबसूरत बंगला यूं बना दिखाई दे रहा था जैसे प्लेट में कोई सजावट की चीज रखी हो ।
फार्म का फाटक मैंने खुला पाया ।
फार्म के एन बीच से गुजरते ड्राइव-वे पर कार चलाता मैं बंगले तक पहुंचा । वहां पार्किंग में एक नई-नकोर सफेद मारुति कार पहले से ही खड़ी थी जिससे लगता था कि मिसेज ओबराय वहां पहुंच चुकी थी । उसकी बगल में अपनी मखमल पर टाट के पेबन्द जैसी फिएट पार्क करते समय मैंने अपनी कलाई घड़ी में टाइम देखा ।
ठीक आठ बजे थे ।
मैं कार से बाहर निकला और बंगले की तरफ आकर्षित हुआ ।
बंगले के बाहर की कोई बत्ती नहीं जल रही थी । भीतर भी केवल एक कमरे में रोशनी का आभास मिल रहा था । उस कमरे की खिड़कियों-दरवाजों पर भारी पर्दे पड़े हुए थे इसलिए उसकी रोशनी बाहर नहीं आ पा रही थी, वह केवल उनके शीशों को ही थोड़ा-बहुत रोशन कर रही थी ।
वहां किसी नौकर-चाकर या फार्महैंड की गैरमौजूदगी मुझे बहुत हैरान कर रही थी ।
कई सीढ़ियां चढ़कर मैं प्लेटनुमा प्लेटफार्म पर पहुंचा ।
बड़ी मुश्किल से मुझे वहां दीवार पर कॉलबैल का पुशबटन लगा दिखाई दिया ।
मैंने उसे दबाया ।
भीतर कहीं घंटी बजी लेकिन उसकी कोई प्रतिक्रिया सामने न आई ।
थोड़ी देर बाद मैंने फिर घंटी बजाई ।
जवाब फिर नदारद ।
अब मेरा धीरज छूटने लगा ।
पता नहीं भीतर कोई था भी या नहीं ।
लेकिन बाहर खड़ी मारुति कार को मद्देनजर रखते हुए किसी को तो भीतर होना ही चाहिए था ।
मैंने तीसरी बार घंटी बजाने के लिए कॉलबैल की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि एकाएक बाहर एक तेज रोशनी जल उठी । जरूर उस रोशनी को ऑन करने का बटन इमारत के भीतर कहीं था । साथ ही शीशे का एक दरवाजा निशब्द खुला और उसकी चौखट पर एक खूबसूरत लेकिन फक, नौजवान लेकिन बदहवास चेहरा प्रकट हुआ ।
वह एक कीमती साड़ी में लिपटा एक नौजवान स्त्री का था जो इतनी डरी हुई थी कि उसकी आंखें उसकी कटोरियों से बाहर उबली पड़ रही थीं । अपने पैरों पर खड़े रहने के लिए उसे चौखट के सहारे की जरूरत दरकार थी लेकिन फिर भी वह घड़ियाल के पेंडुलम की तरह दाएं-बाएं झूल रही थी । उसकी हालत ऐसी थी कि उसी क्षण अगर वह बेहोश होकर गिर पड़ती तो मुझे हैरानी न होती ।
“क..क..कौन..कौन हो तुम ?” - वह फटी-फटी-सी आवाज में बोली ।
“यहां क्या हो गया है ?” - मैं बोला ।
“अरे !” - वह मुझ पर एकाएक चिल्लाकर पड़ी - “तुम बताओ, तुम कौन हो और क्या चाहते हो ?”
“बंदे को सुधीर कोहली कहते हैं और मिसेज ओबराय से मिलना चाहता हूं ।”
“ओह !” - उसने चैन की एक लंबी सांस ली - “शुक्र है, तुम आ गए । जल्दी भीतर आओ ।”
मैंने भीतर कदम रखा ।
उसने मेरे पीछे दरवाजा बंद कर दिया और उसके आगे से पर्दा खींच दिया ।
मैंने अपने-आपको एक विशाल और बड़े ऐश्वर्यशाली ढंग से सजे ड्राइंगरूम में पाया ।
“मैं मिसेज ओबराय हूं” - वह बोली - “कमला ओबराय । दोपहर में तुम्हें मैंने फोन किया था ।”
तब मैंने गौर से उसकी सूरत देखी ।
वह कोई सत्ताईस-अठाइस साल की, कम-से-कम साढ़े पांच फुट की, निहायत शानदार औरत थी और मेरी पसंद के तमाम कल पुर्जे ऊपर वाले ने बड़ी नफासत से उसमें फिट किए थे ।
अपनी पसंद आपका यह खादिम पहले भी आप पर जाहिर कर चुका है ।
लंबा कद । छरहरा बदन । तनी हुई सुडौल भरपूर छातियां । पतली कमर । भारी नितंब । लंबे, सुडौल, गोरे-चिट्टे हाथ-पांव । खूबसूरत नयन-नक्श । रेशम-से मुलायम बाल, जिस्म पर गिलाफ की तरह चढ़ी हुई शानदार पोशाक ।
वाह !
मेरी तो फौरन ही लार टपकने लगी ।
बड़ी कठिनाई से मैंने अपने-आपको संभाला और सवाल किया - “क्या बात है, आप इतनी बौखलाई हुई क्यों हैं ?”
“म..मेरे पति” - वह बोली - “वो...वो...”
“कहां हैं वो ?”
“भीतर अपनी स्टडी में । वो...वो...”
“क्या हुआ है उन्हें ?”
“वो...वो वहां..भीतर मरे पड़े हैं ।”
“मरे पड़े हैं !” - मैं चौंका - “कैसे मर गए ?”
“लगता है, उन्होंने अपने-आपको ग..गोली मार ली है ।”
“आत्महत्या कर ली है उन्होंने ?”
“हां ।” - वह एक क्षण ठिठकी और फिर उसने एक शब्द और जोड़ा - “शायद ।”
उस रहस्योद्घाटन के बाद मैंने पहले से ज्यादा गौर से उसकी सूरत का मुआयना किया ।
होश तो उसके शर्तिया फाख्ता थे लेकिन आखिर थी तो वह औरत ही और मेरी निगाह में कैसा भी अभिनय, सजीव अभिनय, करने की हर औरत में जन्मजात क्षमता होती थी ।
ऊपर से एक शंका भी थी मेरे मन में ।
अभी थोड़ी देर ही पहले तो मैं ओबराय को सही सलामत नारायणा छोडकर आया था । इतनी जल्दी वह वहां कैसे पहुंच गया ? पहुंच गया तो यूं आनन-फानन लाश कैसे बन गया ? बन गया तो ऐसा इत्तफाकन हुआ या किसी योजनाबद्ध तरीके से ? कहीं वह औरत किसी पूर्वनिर्धारित तरीके से मेरा कोई मुर्गा बनाने की फिराक में तो नहीं थी ?
“स्टडी का रास्ता दिखाये ।” - मैं बोला ।
“आओ ।”
पीछे एक दरवाजा था जो एक गलियारे में खुलता था । उस गलियारे के दोनों ओर कई बंद दरवाजे थे । उसने दाईं ओर का पहला दरवाजा खोला ।
हम दोनों ने भीतर कदम रखा ।
भीतर रोशनी थी । मैंने एक सरसरी निगाह कमरे में चारों तरफ दौड़ाई ।
वह कमरा ऑफिस और लाइब्रेरी के मिले-जुले रूप में बड़ी नफासत से सजा हुआ था । कमरे के सारे फर्श पर मोटा कालीन बिछा हुआ था और खिड़कियों पर भारी पर्दे पड़े हुए थे । एक ओर एक विशाल मेज लगी हुई थी जिसके पीछे वैसी ही विशाल, नकली चमड़ा मढ़ी कुर्सी मौजूद थी जिस पर कि उस शख्स की लाश पड़ी थी जिसका मैं दिन में चार घंटे तक पीछा करता रहा था । उसकी बांहें कुर्सी के हत्थों पर फैली हुई थीं और पथराई हुई शून्य में कहीं टिकी हुई थीं । उसकी दोनों आंखों के बीच में भवों के ऊपर माथे में गोली ने एक तीसरी आंख बना दी थी जो कि सामने से तो आंख जितना सुराख ही थी लेकिन पीछे से आधी खोपड़ी उड़ी पड़ी थी । कुर्सी की ऊंची पीठ पर खून के चकतों के बीच में उसका भेजा भी बिखरा पड़ा दिखाई दे रहा था ।
“निशाना तो कमाल का है आपका ।” मैं धीरे से बोला ।
“मिस्टर !” - वह सख्ती से बोली - “मजाक मत करो ।”
मैं खामोश रहा । मैं तनिक और आगे बढ़ा । एक साइड टेबल पर मुझे एक खुले मुंह वाली कट ग्लास की ऐश-ट्रे पड़ी दिखाई दी । ऐश-ट्रे में सिगरेट के दो टुकड़े पड़े दूर से ही दिखाई दे रहे थे । दोनों पर मुझे लिपस्टिक के दाग भी दिखाई दिये थे । मैंने गौर से कमला की सूरत देखी । उसके होठों पर भी मुझे उसी रंग की लिपस्टिक लगी दिखाई दी । मैंने दोनों टुकड़े ऐश-ट्रे में से उठा लिए और उन्हें अपने कोट की बाहरी जेब में डाल लिया ।
मेरे उस कृत्य से कमला के चेहरे पर कोई नया भाव न आया ।
नीचे कालीन पर कुर्सी के पहलू में हतप्राण के दायें हाथ के करीब मुझे एक रिवॉल्वर गिरी पड़ी दिखाई दी । मैंने जेब से अपना रुमाल निकालकर रिवॉल्वर पर डाला और फिर उसमें लपेटकर उसे उठाया ।
वह एक अड़तीस कैलीबर की रिवॉल्वर थी जिसके भरे हुए चैंबर में से केवल एक गोली चलाई गई थी । उसकी नाल में से जले बारूद की गंध अभी भी आ रही थी । मैंने उसका नंबर नोट किया और फिर उसे वापस यथास्थान डाल दिया ।
मैं फिर कमला की तरफ घूमा ।
वह परे दरवाजे के पास एक कुर्सी पर बैठ गई थी और अपलक मेरी तरफ देख रही थी ।
मैं उसके करीब पहुंचा । मैं उसके करीब कुर्सी घसीटकर बैठ गया । अपनी जेब से मैंने डनहिल का पैकेट निकाला और उसे एक सिगरेट पेश किया । उसने अनमने मन से एक सिगरेट ले लिया और उसे अपनी उंगलियों में नचाने लगी ।
मैंने एक सिगरेट अपने होठों से लगाया और डनहिल के ही सिगरेट लाइटर से पहले उसका और फिर अपना सिगरेट सुलगाया ।
उसके कश लगाने के अंदाज पर मैंने खास तौर से गौर किया जो कि आदी सिगरेट पीने वालों जैसा था ।
“क्या व्यावसायिक सेवा दरकार है आपको मेरी ?” - ढेर सारा धुंआ उगलते हुए मैंने सवाल किया ।
“मैं” - वह धीरे से बोली - “अपने पति की निगरानी करवाना चाहती थी ।”
“किसलिए ?”
“इनसे तलाक हासिल करने की खातिर इनके खिलाफ कोई सबूत जुटाने के लिए ।”
“आई सी ! लेकिन अब तो तलाक की जरूरत रही नहीं । ज्यादा आसान और तेज-रफ्तार तरीके से जो दुक्की पिट गई आपके पति की ।”
उसने आग्नेय नेत्रों से मेरी तरफ देखा और फिर सख्ती से बोली - “साथ ही अब मुझे तुम्हारी सेवाओं की भी जरूरत नहीं रही ।”
“वहम है आपका ।”
“क्या मतलब ?”
“सच पूछिए तो मेरी सेवाओं की सही जरूरत तो अब से शुरू होती है ।”
“क्या कहना चाहते हो ?” - वह तिक्त भाव से बोली ।
“यह कि आपके हाथ में जो पत्ते हैं, वो बहुत हल्के हैं और शर्तिया पिटने वाले हैं ।”
“हे भगवान ! तुम साफ-साफ हिन्दुस्तानी जुबान में बात नहीं कर सकते ?”
“मैं यह कहना चाहता हूं कि पुलिस आप पर शक कर सकती है ।”
“पुलिस !” - वह हड़बड़ाई - “मुझ पर शक कर सकती है ?”
“जी हां ।”
“किस बात का ?”
“कत्ल का ।”
“किसके कत्ल का ?”
“आपके पति के कत्ल का ।”
“पागल हुए हो ! इन्होंने तो आत्महत्या की है ।”
“आपके कह देने भर से इसे आमहत्या का केस थोड़े ही जान लिया जायेगा ! मैडम, हालात की नजाकत को जरा तरीके से समझने की कोशिश कीजिए और महसूस कीजिये कि आप पर अपने पति के कत्ल का इल्जाम लग सकता है महसूस कीजिए कि इस इलजाम से बचने के लिए जो मदद आपको दरकार है, वह इस वक्त आपको एक ही शख्स मुहैया करा सकता है ।”
“कौन ?”
“यूजर्स ट्रूली ।” - मैं तनिक सिर नवाकर बोला ।
“मैं नहीं समझती कि अब” -उसने “अब” शब्द पर विशेष जोर दिया - “मुझे तुम्हारी किसी मदद की जरूरत है ।”
“मेरे चन्द सवालों का जवाब देने की इनायत फरमाइये फिर अभी आपकी समझ में देखियेगा कि, कैसा करामाती इजाफा होता है !”
“क्या पूछना चाहते हो ?”
“इतने बड़े फार्म में कोई नौकर-चाकर क्यों नहीं है ?”
“फार्म आजकल उजड़ा पड़ा है । आजकल यहां कुछ नहीं उगता । कोई फूल-पत्ती तक नहीं । सब कुछ खुदा पड़ा है । इसीलिए यहां कोई नौकर-चाकर नहीं है वैसे पांच-छ: खेतिहर यहां होते हैं ।”
“कोई चौकीदार तो फिर भी होना चाहिए ।”
“चौकीदार है लेकिन वह रात को नौ बजे आता है ।”
“मेरी निगाह अपने-आप ही कुर्सी के पीछे एक शैल्फ पर रखे एक फूलदान की तरफ उठ गई जिसमें कि उस वक्त गुलाब के फूलों का एक गुलदस्ता लगा दिखाई दे रहा था ।
मैं उठकर गुलदस्ते के करीब पहुंचा ।
फूल एकदम ताजा थे ।
तभी मेरी निगाह इत्तफाक से ही शैल्फ के नीचे बने दराजों की कतार में से एक, सबसे नीचे के, दराज पर पड़ी जो कि मुकम्मल तौर से बन्द नहीं था और शायद उसी वजह से मेरी तवज्जो उसकी तरफ गई थी ।
मैंने दराज खोला ।
भीतर एक फूल-पत्तियों की कढ़ाई वाला और चैनल फाइव से महका हुआ एक जनाना रूमाल पड़ा था ।
मैंने रूमाल उठाया । उसके एक कोने में धागे से के ओ कढ़ा हुआ था और उस पर एक-दो जगह कुछ धब्बे लगे हुए थे ।
मैंने रूमाल को उठाकर धब्बों की जगह से सूंघा ।
चैनल फाइव की खुश्बू के बावजूद धब्बों से तेल की गन्ध मुझे साफ मिली ।
तब मुझे गारण्टी हो गई कि कमला ओबराय नामक उस ताजा-ताजा विधवा हुई औरत को मेरी बड़ी कीमती मदद की जरूरत पड़ने वाली थी ।
मैं वापिस कमला के करीब लौटा ।
“यह रिवॉल्वर किसकी है ?”
“मेरे पति की ।”
“आप कब से यहां हैं ?”
“यही कोई आठ-दस मिनट से । तुम्हारे आने से थोड़ी ही देर पहले मैं यहां पहुंची थी ।”
“तब यहां आसपास आपने किसी कार को या किसी शख्स को देखा था ?”
“नहीं ।”
“कोई कार आपको यहां पहुचते वक्त रास्ते में मिली हो ? बहुत पीछे नहीं, यहीं आसपास ?”
“नहीं मिली ।”
“आपने फार्म में दाखिल होकर यहां बाहर पार्किग में अपनी कार खड़ी की और यहां चली आईं ?”
“हां ।”
“कॉलबैल बजाई थी आपने ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि यहां भीतर रोशनी थी और जब मैंने बाहर का दरवाजा ट्राई किया था तो उसे खुला पाया था । बंद भी भी होता तो मेरे पास दरवाजे की चाबी थी, मैं उसे उससे खोल सकती थी ।”
“यह पक्की बात है कि भीतर रोशनी थी ?”
“हां ।”
“भीतर दाखिल होने पर आपको यहां के माहौल में कुछ नया, कुछ अजीब, कुछ गैरमामूली लगा हो ?”
“नहीं । सिवाय इसके कि यहां मुकम्मल सन्नाटा था जो कि भीतर किसी के मौजूद होने की हालत में नहीं होना चाहिए था ।”
“भीतर दाखिल होने पर आपने क्या किया ?”
“मैंने तलाश करना शुरू किया कि भीतर कौन आया हुआ था ! मुझे यहां स्टडी में रोशनी का आभास हुआ तौ मैं यहां आई । आते ही मुझे” - उसने एक बार मेज की तरफ देखकर निगाह झुका ली - यहां यह नजारा देखने को मिला ।”
“यहां आपने किसी चीज को छुआ ?”
“न ।”
“फोन को भी नहीं ?”
“नहीं ।”
“आपने किसी को, मसलन पुलिस को फोन करने की कोशिश नहीं की ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“मिस्टर कोहली, लाश देखकर मुझे जो शॉक लगा था, उसमें मुझे फोन का तो ख्याल ही नहीं आया था ।”
“फिर बाकी वक्त आपने क्या किया ?”
“कौन से बाकी वक्त ?”
“बकौल आपके, आप आठ-दस मिनट से यहीं हैं । बंगले में दाखिल होकर स्टडी में पहुंचकर यहां का नजारा देखने तक तो आपको मुश्किल से दो या तीन मिनट लगे होंगे । बाकी का वक्त यहां क्या करती रहीं आप ? इतना अरसा यहां खड़ी-खड़ी लाश ही को तो निहारती नहीं रहीं होगी आप !”
वह खामोश रही ।
“आपने मुझसे मिलने के लिये शहर से बाहर यह उजाड़ बियाबान जगह क्यों चुनी ?”
“क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि किसी को मालूम हो कि अपने पति की निगरानी करवाने के लिए मैं किसी प्राईवेट डिटेक्टिव से संपर्क स्थापित कर रही थी । आजकल यहां कोई होता नहीं इसलिए मैंने तुम्हें यहां बुलाया था ।”
“यानी कि आज यहां आपके पति का आगमन भी अनपेक्षित था ?”
“हां ।”
“अगर वे जिन्दा होते तो आप अपने यहां आगमन का उन्हें क्या जवाब देतीं ?”
“मुझे उम्मीद नहीं थी कि यहां मेरे पति आये थे । मैंने बत्तियां जली देखी थीं तो यही समझा था कि चौकीदार वक्त से पहले आ गया था और वही भीतर था ।”
“चौकीदार के पास भी यहां की चाबी है ?”
“हां ।”
“यानी कि वह बहुत भरोसे का आदमी है ?”
“हां ।”
“आपने मेरी कार के यहां पहुंचने की आवाज तो सुनी होगी ?”
“हां, सुनी थी ।”
“कॉलबैल की आवाज भी सुनी होगी आपने ?”
“हां ।”
“फिर भी आप फौरन दरवाजे पर नहीं पहुंची !”
“क्योंकि मैं यह फैसला नहीं कर पा रही थी कि मैं दरवाजा खोलूं या नहीं ।”
“क्यों ? आपकी मेरी यहां आठ बजे की अपोइंटमेंट थी । आपको सूझना चाहिए था कि मैं आया हो सकता था । क्या आप उस शख्स को भी दरवाजा नहीं खोलना चाहती थीं जिसे कि आपने खुद यहां बुलाया था ?”
“मैं भन्नाई हुई थी इसलिए मेरी अक्ल मेरा साथ नहीं दे रही थी ।”
“अब आपकी घबराहट और आपकी अक्ल का क्या हाल है ?”
“मतलब ?”
“क्या अब आप बिना खाका खींचकर समझाये यह समझ सकती हैं कि आपकी कहानी में छलनी से भी ज्यादा छेद हैं ?”
उसने तुरन्त उत्तर न दिया । उसने बड़ी गंभीरता से सिगरेट का एक गहरा कश लगाया और फिर उसे ऐश-ट्रे में मसल दिया ।
मैंने आगे बढ़कर वह टुकड़ा उठा लिया । उस पर लगी लिपस्टिक की रंगत ऐन दो टुकड़ों पर लगे रंग जैसी थी जो कि मेरे कोट की जेब में थे ।
वह मेरी हर हरकत को बड़े गौर से नोट कर रही थी ।
“तुम क्या कहना चाहते हो ?” - वह बड़ी संजीदगी से बोली ।
“आपको पुलिस की कार्यप्रणाली, उनके सोचने के तरीके का कोई तजुर्बा है ?”
“नहीं ।”
“मुझे है । मैं आपको बताता हूं कि मौजूदा हालत में पुलिस क्या सोचेगी ।”
“मैं सुन रही हूं ।”
“पुलिस यह सोचेगी कि आप अपने पति की दुक्की पीटने पर आमादा थी ।”
“क्यों ?”
“क्यों इस वक्त महत्वपूर्ण नहीं है । आपका पति दौलतमन्द आदमी था । शायद इस तरह आप उसकी दौलत हथियाना चाहती थीं । शायद आप इस तरह उससे अपनी कोई पोल, मसलन उसके साथ बेवफाई, छुपाना चाहती थीं । शायद आप उसकी बेवफाई की उसे यूं सजा देना चाहती थी । बहरहाल कोई बात थी जिसकी वजह से आपको अपने पति का कत्ल करना जरूरी लगने लगा था । लेकिन साथ ही आपको कोई ऐसा काठ का उल्लू भी दरकार था जो जरूरत पड़ने पर आपकी एलीबाई आपकी गवाही, बन सकता । काठ के उल्लू के इस रोल के लिए आपने मुझे चुना । आपने मेरे साथ यहां मुलाकात का आठ बजे का टाइम फिक्स किया और साथ ही किसी तरह अपने पति को भी यहां आने के लिए मना लिया । आपके पति को मैंने देखा है । वह लगभग आपसे दुगुनी उम्र का है और अगर आपको हूर कहा जाए, जो कि आप हैं, तो उसे लंगूर ही कहना होगा । ऐसे व्यक्ति को, खास तौर से जब कि वह आपका पति भी था, शीशे में उतार लेना आपके लिए क्या मुश्किल होगा ? वह ताजे गुलाब के दो फूलों का गुल्दस्ता भी जरूर अपनी शानदार बीवी के अच्छे मूड में इजाफा करने के लिए वही लाया होगा । आप उसे कार में अपने साथ बिठाकर यहां लाई...”
“मैं लाई ?” - वह हड़बड़ाई ।
“जाहिर है । दर्जनों कारों का मालिक आपका पति बस या टैक्सी की सवारी तो करने से रहा । जब कोई और कार यहां नहीं दिखाई दे रही तो जाहिर है कि यहां तक वह आपके साथ ही आया था ।”
“आगे बढ़ो ।”
“किसी वजह से वक्त का कोई ऐसा घोटाला हो जाता है कि आप मेरे आगमन के वक्त से थोड़ी ही देर पहले यहां पहुंच पाती हैं । आप इसे यहां स्टडी में लेकर आती हैं । आपकी राय या अपनी मर्जी से वह फूलों को गुलदस्ते में लगाता है और अपनी कुर्सी पर बैठ जाता है । तभी आप उसे शूट कर देती हैं उसी क्षण आपको मेरी कार के यहां पहुंचने की आवाज आती है । आप घबरा जाती हैं । आप जल्दी से अपने बैग में से अपना रुमाल निकालती हैं और उसकी सहायता से रिवॉल्वर पर से अपनी उंगलियों के निशान पोंछ देती हैं । फिर आप जल्दी से रुमाल को शेल्फ के निचले दराज में डाल देती हैं और...”
“वहां क्यों ? वापिस अपने बैग में क्यों नहीं ?”
“क्योंकि अभी-अभी अपने पति का कत्ल करके हटी होने की वजह से और ऊपर से एकाएक मेरे को यहां पहुंचते पाकर आप बौखला जाती हैं और बौखलाहट में इंसान से ऐसी नादानी, ऐसी लापरवाही हो सकती है ।”
“नॉनसैंस !”
“यू थिंक सो ?”
“यस । लेकिन फिर भी तुम अपनी बात कहो ।”
“आप रिवॉल्वर पर अपने पति की उंगलियों के निशान बनाती हैं और उसे उसके दायें हाथ के करीब यूं कालीन पर गिरा देती हैं जैसे उसके आत्मघात के बाद रिवॉल्वर उसकी उंगलियों में से फिसलकर वहां गिरी हो । फिर अपने आपको काबू में करने के लिये आप एक सिगरेट सुलगा लेती हैं और इसी वजह से आप मेरे घंटी बजाने पर फौरन दरवाजा नहीं खोलतीं क्योंकि अभी आपने आत्महत्या की स्टेज सेट करनी थी और अपनी हालत पर काबू पाना था । कहिए कैसी है यह कहानी ?”
“पुलिस ऐसा सोचेगी इस घटना के बारे में ?”
“जी हां । पुलिस ऐसा सोचेगी इसीलिए आपको मेरी मदद की जरूरत है ।”
“तुम्हारी मदद मुझे हासिल हो जाने पर पुलिस ऐसा सोचना छोड़ देगी ?”
“नहीं । वह फिर भी ऐसा ही सोचेगी लेकिन मेरी मदद हासिल हो जाने के बाद उनके ऐसा सोचने का आपको कोई नुकसान नहीं होगा ।”
“वो कैसे ?”
“क्योंकि तब आपका मददगार यानी कि मैं, हालात का हुलिया बदल देगा । तब सुधीर कोहली आपका गवाह बन जायेगा कि आपने अपने पति की हत्या नहीं की थी । और अगर वाकई आपने अपने पति की हत्या नहीं की, तो कहने की जरूरत नहीं कि आपका यह खादिम आपके पति के हत्यारे को खोज निकालने के भी काम आ सकता है ।”
“तुम हत्या-हत्या का राग मतवात अलाप रहे हो । आखिर उन्होंने आत्महत्या क्यों नहीं की हो सकती ?”
“क्योंकि आपके पति के माथे में जो तीसरी आंख दिखाई दे रही है उसके इर्द-गिर्द जले बारूद के कण कतई नहीं दिखाई दे रहे । यह बात साफ साबित करती है किए गोली फासले से चलाई गई थी । इन्होंने खुद रिवॉल्वर को अपने माथे के साथ सटाकर गोली चलाई होती तो गोली के सुराख के इर्द-गिर्द जले बारूद के कण चिपके शर्तिया दिखाई दे रहे होते । और फिर यूं गोली चलाने के लिए आपके पति की बांह दस-बारह फुट लम्बी होनी चाहिए थी जो कि नहीं है । वैसे भी आत्महत्या करने वाला शख्स गोली का निशाना अपनी कनपटी को, ज्यादा सुविधाजनक जगह को, बनाता है न कि माथे को ।”
अब वह साफ-साफ मुझसे प्रभावित दिखाई दे रही थी ।
“तुम” - कुछ क्षण कुर्सी पर बेचैनी से पहलू बदलते रहने के बाद वह इस बार एकदम बदले स्वर में बोली - “वाकई मुझे इस झमेले से निजात दिला सकते हो ?”
“और मेरा काम क्या है ?” - मैं बोला ।
“कैसे करोगे यह काम ?”
“आपके हाथ के कुछ हल्के पत्ते गायब करके, कुछ बदल के और कुछ के बदले में तुरुप के पत्ते पेश करके ।”
“बदले में मुझसे क्या उम्मीद करते हो ?”
“वही, जो कोई नौजवान मर्द किसी खूबसूरत औरत से कर सकता है ।”
“बस !”
“नहीं ।” - मैंने तुरन्त संशोधन किया - “जो कोई मेहरबान मर्द किसी दौलतमन्द विधवा से कर सकता है ।”
“बड़े चालाक हो ।”
“शायद ।”
“और कमीने भी ।”
“शुक्रिया !”
“किस बात का ?”
“मुझे एकदम सही पहचानने का ।”
“तुम्हारी सही पहचान तो मैंने कुछ और ही की है जिसे कि मौजूदा नाजुक हालात में मैं अभी जुबान पर नहीं लाना चाहती ।”
“आई डोंट माइंड । मैं इन्तजार कर सकता हूं । मुझे कोई जल्दी नहीं ।”
“अब बोलो, क्या कीमत चाहते हो अपनी मदद की ?”
“कारआमद मदद की । मदद कारआमद साबित न हो तो कोई कीमत नहीं ।”
“कीमत बोलो ।”
“दो लाख । बीस हजार डाउन । बाकी बाद में ।”
उसने उत्तर न दिया । वह कुर्सी से उठ खड़ी हुई और दरवाजे के पास दायें-बायें टहलने लगी ।
कुछ क्षण बाद वह मेरे सामने ठिठकी ।
“इस बात की क्या गारण्टी है” - वह बोली - कि तुम मुझे धोखा नहीं दोगे ? मुझे कैसे विश्वास हो कि तुम मुझे ब्लैकमेल के लिए कल्टीवेट नहीं कर रहे हो ?”
“कोई गारंटी नहीं । आपको ऐसा कोई विश्वास दिलाने का इस वक्त मेरे पास कोई जरिया नहीं ।”
“तो ?”
“तो क्या ? मैं अपनी खिदमात आप पर थोप नहीं रहा हूं । उनको कबूल करना या न करना आपकी मर्जी पर मुनहसर है ।”
“फिर भी मुझे कोई तसल्ली तो होनी चाहिए ।”
“ऐसी कोई तसल्ली आपको देने की स्थिति में मैं नहीं हूं ।”
“लेकिन...”
“यह न भूलिए कि आपको बचाने के लिए मुझे खुद अपने-आपको फंसाना होगा ।”
“तुम कैसे फंस सकते हो ?”
“हत्या के केस में हत्यारे का मददगार उसके बराबर का गुनहगार माना जाता है । आपको हत्यारा साबित करने वाले कई सबूत मुझे यहां से गायब करने पड़ेंगे या नष्ट करने पड़ेंगे । ऐसा मैं आप पर यह विश्वास करके करूंगा कि हत्यारी आप नहीं हैं । अगर मैं आप पर विश्वास कर सकता हूं तो आप भी मेरे पर विश्वास कर सकती हैं ।”
“तुम कौन-से सबूतों को नष्ट या गायब करने की बात कर रहे हो ?”
“मुझे आप द्वारा पिये गये सिगरेट को यहां से गायब करना होगा, ताजे गुलाब के फूलों के गुलदस्ते को नष्ट करना होगा, आपके रूमाल को भी कहीं ठिकाने लगाना होगा ।”
“मैंने तुम्हारे आगमन से पहले यहां कोई सिगरेट नहीं पिया था, फूलों के गुलदस्ते के बारे में मैं कतई नहीं जानती और मैं खुद हैरान हूं कि मेरा कोई रूमाल शैल्फ उस निचले दराज में कैसे पहुंचा !”
“यानी कि यह आपको फंसाने के लिए आपके खिलाफ कोई साजिश है ?”
“लगता तो यही है ।”
“तब तो मेरी मदद की आपको और भी ज्यादा जरूरत है ।”
वह खामोश रही ।
“बहरहाल दोनों ही हालात में एक बात निहायत जरूरी है ।”
“क्या ?”
“कि ये सबूत पुलिस के हाथ न लगें ।”
“तुम ठीक कह रहे हो ।”
“इसके बाद आपको एलीबाई देने के लिए मुझे यह भी कहना होगा कि हम दोनों एक ही वक्त यहां पहुंचे थे ।”
“तुम एक प्राइवेट डिटेक्टिव हो और यह बात पुलिस से छुपाकर नहीं रखी जा सकती । पुलिस यह भी तो पूछेगी कि मैंने तुम्हें यहां क्यों बुलाया था !”
“उसकी आप असली वजह बयान कर सकती है ।”
“यह कि मुझे अपने पति के चरित्र पर शक था इसलिए मैं उसकी निगरानी करवाना चाहती थी ?”
“हां ।”
“तुम्हारी एलीबाई की वजह से और तुम्हारे मेरे खिलाफ यहां सबूतों को गायब या नष्ट कर देने के बाद पुलिस मेरा पीछा छोड़ देगी ?”
“आसानी से तो नहीं छोड़ देगी लेकिन आपके पीछे पड़े रहने से जब उन्हें कुछ हासिल होता नहीं दिखाई देगा तो मजबूरन तो उन्हें आपका पीछा छोड़ना ही पड़ेगा ।”
वह फिर खामोश हो गई ।
चहलकदमी का जो सिलसिला बीच में बन्द हो गया था, वह फिर शुरू हो गया ।
कुछ क्षण बाद वह बड़े निर्णयात्मक भाव से फिर कुर्सी पर बैठ गई ।
“ठीक है” - वह बोली - “मुझे सौदा मंजूर है ।”
“जानकर खुशी हुई ।”
“अब बोलो, अब क्या चाहते हो ?”
“डाउन पेमण्ट ।”
“वो इस वक्त कैसे मुमकिन है ? बीस हजार की रकम क्या कोई साथ लिए फिरता है !”
“हर कोई नहीं फिरता । एक दौलतमन्द आदमी की बीवी फिरती हो सकती है ।”
“मेरे पास बीस हजार रुपए नहीं हैं इस वक्त ।”
“हजार-पांच सौ कम भी चलेंगे ।” - मैं आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“हजार-पांच सौ तो कुल हैं मेरे पास ।”
“ओके । नेवर माइण्ड । आई विल कलैक्ट लेटर ।”
वह मुस्कराई ।
मैं भी मुस्कराया ।
उस वक्त यह कह पाना मुहाल था कि कौन किसे फंसा रहा था ।
फिर मैं फोन के करीब पहुंचा ।
मैंने 100 डायल किया ।
तुरन्त उत्तर मिला ।
“मेरा नाम सुधीर कोहली है । मैं एक प्राइवेट डिटेक्टिव हूं । मैं ग्यारह छतरपुर से अमरजीत ओबराय के फार्म हाउस से बोल रहा हूं और यह रिपोर्ट करने के लिए फोन कर रहा हूं कि अभी-अभी ओबराय साहब ने अपने आपको शूट करके आत्महत्या कर ली है ।”
“कौन ओबराय साहब ?” - पूछा गया - “ओबराय मोटर्स वाले ?”
“वही ।”
“अपना नाम फिर से बोलो ।”
“सुधीर कोहली ।”
“मौकायेवारदात पर और कौन है तुम्हारे साथ ?”
“ओबराय साहब की पत्नी कमला ओबराय ।”
“ठीक है । वहीं इन्तजार करो । पुलिस पहुंचती है ।”
मैंने फोन रख दिया ।
मैंने रुमाल वापिस कमला को सौंप दिया ।
“इसे अपने बैग में रख लो ।” मैं बोला ।
“मैं इसे धो लूं ?”
“जरूरत नहीं । आपके बैग की तलाशी कोई नहीं लेने वाला । कोई लेगा तो ताजा धुला रूमाल ज्यादा शक पैदा करेगा ।”
“ओह !”
फिर मैंने फूलदान से फूलों का गुलदस्ता निकाला । कमला से रास्ता पूछकर मैं टॉयलेट में पहुंचा । सिगरेट के टुकड़े और गुलदस्ते को पुर्जा-पुर्जा करके मैं उन्हें टॉयलेट में डालने ही लगा था कि मुझे उसमें तैरता एक कागज का टुकड़ा दिखाईं दिया ।
मैंने वह टुकड़ा पानी से निकाल लिया ।
मैंने उसे खोलकर सीधा किया तो पाया कि वह एक पेपर नैपकिन था जिस पर कि उसी रंग की लिपिस्टक के निशान थे जो कि कमला लगाये हुए थी । जरूर उसने वो नैपकिन पानी में बहाने की कोशिश की थी लेकिन वह वापिस तैर आया था ।
मैंने नैपकिन समेत सब कुछ टॉयलेट में डाला और फ्लश चलाया । जब तक सब कुछ बह न गया और मुझे कमोड में साफ पानी न दिखाई देने लगा, मैं वहां से न हिला ।
वापिस लौटने से पहले मैं इमारत का जायका लेने की नीयत से एक बार सारी इमारत में फिर गया ।
हासिल कुछ न हुआ ।
मैं वापिस लौटा ।
कमला को मैंने किचन में पाया ।
वहां मैंने कमला सगे वहां पड़े एक रेफ्रिजरेटर में से बर्फ की ट्रे निकालते पाया ।
“बहुत टैंशन हो गई है ..” - वह बोली - “सोचा एक-एक ड्रिंक हो जाये ।”
वाह ! - मैं मन-ही-मन बोला - क्या औरत थी ! पति की लाश अभी ठण्डी नहीं पड़ी थी और वह अपनी टैंशन कम करने के लिए ड्रिंक बनाने की तैयारी कर रही थी ।
कितना बड़ा उल्लू का पट्ठा साबित होता था मर्द औरत की - खूबसूरत औरत, खूबसूरत नौजवान, दिलफरेब औरत की - हस्ती के सामने !
“बहुत ठीक सोचा आपने” - मैं बोला - “आप ताजी-ताजी विधवा हुई हैं । इतने चियरफुल माहौल में चियर्स तो हमें बोलना ही चाहिए ।”
मेरी बात में निहित व्यंग्य की तरफ उसने ध्यान न दिया । उसने ऊपर बने शैल्फों में से एक को खींचकर उसमें सें ब्लैक डॉग की एक बोतल निकाली और उसके दो बड़े-बड़े जाम तैयार किए । एक गिलास उसने मुझे थमा दिया । उस प्रक्रिया में यह लगभग मेरे साथ आ सटी । उसने मेरे जाम से जाम टकराया, अपने दिवंगत पति पर यह अहसान किया कि चियर्स नहीं बोला और विस्की की चुस्कियां लेने लगी ।
तभी दूर कहीं फ्लाइंग स्क्वाड के सायरन की आवाज गूंजी । मैंने विस्की का एक घूंट भरा और एक बार फिर सोचा कि क्या वह औरत हत्यारी हो सकती थी ? किसी हत्यारे का साथ देने से मुझे कोई गुरेज हो, ऐसी बात नहीं थी लेकिन उस सूरत में यह रकम कम साबित हो सकती थी, जिसकी कि अपनी सेवाओं के बदले में मैंने उससे मांग की थी ।
हालात जरूर किसी और बात की चुगली कर रहे थे लेकिन मेरी अक्ल यही कह रही थी कि उसने हत्या नहीं की थी । अगर वह हत्या के इरादे से वहां आई होती तो अपनी करतूत का खामखाह एक गवाह पैदा करने के लिए उसने मुझे न बुलाया होता । और अगर ओबराय इत्तफाक से वहां पहुंच गया था या वह कमला के वहां पहुंचने से पहले ही वहां मौजूद था और वहां उनमें एकाएक ऐसी कोई तकरार छिड़ गई थी जिससे भड़ककर कमला ने अपने पति को गोली मार दी थी तो तब वह इतनी जल्दी इतनी शान्त नहीं लग सकती थी जितनी कि वह उस वक्त लग रही थी । ऊपर से वह इतनी अहमक भी नहीं लगती थी कि वह वहां आत्महत्या की स्टेज सेट करती और फिर अपने खिलाफ इतने सारे- सूत्र वहां बने रहने देती । जरूर किसी ने उसे फंसाने की कोशिश की थी ।
“पुलिस पहुंचने ही वाली है ।” - मैं बोला - “इसलिए हमें पहले फैसला कर लेना चाहिए कि हमने पुलिस को क्या कहना है ।”
“क्या कहना है ?” - वह इठलाकर बोली ।
उस घड़ी उसका इठलाना मुझे बुरा लगा ।
“तकरीबन तो हमने वही कहना है जो हकीकत है । जो झूठ कहना है वह यह है कि हम यहां एक ही वक्त में पहुंचे थे और इकट्ठे यहां भीतर आये थे और हम दोनों ने ही लाश बरामद की थी । ओके ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया और फिर बोली - “वैसे तुम तो मानते हो न कि कत्ल मैंने नहीं किया ?”
“मानता हूं ।”
“फिर पुलिस क्यों नहीं मानेगी ?”
“क्योंकि वो पुलिस है ।”
“क्या कतलब ?”
“मेम साहब ! मेरे और पुलिस के मिजाज में जो एक भारी फर्क है, वो यह है कि उनका काम लोगों को सजा दिलाना होता है जबकि मेरा काम उन्हें सजा से बचाना होता है । उन्होंने अपनी तनखाह को जस्टीफाई करने के लिए बेगुनाह को भी मुजरिम बनाना होता है, मुझे अपनी फीस को जस्टीफाई करने के लिए मुजरिम को भी बेगुनाह साबित करके दिखाना होता है । इसीलिए मेरी फीस उनकी तनखाह से कहीं ज्यादा है ।”
“अगर मैं बेगुनाह साबित न हुई तो जानते हो कि तुम एक हत्यारे के सहयोगी माने जाओगे और फिर तुम भी नप जाओगे ।”
“जानता हूं । मेरे से बेहतर इस बात को और कौन जान सकता है ?”
तभी पुलिस के कदम वहां पड़े ।
***
पुलिस के साथ उनका जो अधिकारी वहां पहुंचा था, उस पर निगाह पड़ते ही मेरा चेहरा उतर गया । शहर से इतना परे भी मेरा मत्था सब-इंस्पेक्टर यादव से ही लगेगा, इसकी मुझे उम्मीद नहीं थी । सब-इंस्पेक्टर देवेन्द्र यादव एक लगभचा पैंतीस वर्ष का छ: फुट से भी ऊपर कद का, हट्टा कट्टा, कड़ियल जवान था और फलाइंग स्कवायड के उस दस्ते से सम्बद्ध था जो केवल कत्ल के केसों की तफ्तीश के लिए भेजा जाता था । इस लिहाज से उसके वहां पहुंचने पर हैरानी या मायूसी जाहिर करना मेरी हिमाकत थी । वैसे मेरी उससे सदा अदावत और सिर-फुड़ोवल ही रहती थी लेकिन हाल ही में मेरी पत्नी की हत्या के केस की तफ्तीश के दौरान मेरी उससे कुछ-कुछ सुलह हुई थी ।
मैं और कमला उसे इमारत के बाहर मुख्यद्वार के सामने मिले थे ।
मुझे देखकर उसके चेहरे पर कोई भाव न आये । ऐसा होना भी इस बात का सबूत था कि उसे मेरी वहां मौजूदगी पसन्द नहीं आई थी ।
“कहां ?” - वह भावहीन स्वर में बोला ।
“स्टडी में ।” - मैं बोला ।
“रास्ता दिखाओ ।”
वह, मैं, कमला और उसके साथ आये चार पुलिसिये स्टडी में पहुंचे, जहां कि वे लोग पहुंचते ही लाश के हवाले हो गए । फिंगर-प्रिंट्स उठाये जाने लगे । तस्वीरें खींची जाने लगीं । सूत्रों की तलाश होने लगी । यादव ने एक चक्कर न सिर्फ सारी इमारत का बल्कि सारे फार्म का भी लगाया ।
उसके आदेश पर उस दौरान हम बाहर ड्राइंगरूम में जा बैठे ।
तफ्तीश के दौरान पुलिस का डॉक्टर भी वहां पहुंचा । उसने इस बात की तसदीक की कि मौत साढ़े सात और आठ बजे के बीच हुई थी, उसे एक ही गोली लगी थी जिससे कि उसकी तत्काल मृत्यु हो गई थी । एक अन्य पुलिस टेक्नीशियन ने बताया कि गोली उसी रिवॉल्वर से चली थी जो कि उसकी कुर्सी के करीब कालीन पर पड़ी पाई गई थी और गोली कोई आठ या दस फुट के फासले से चलाई गई थी ।
उस आखिरी बात को सुनकर यादव के चेहरे पर बड़े संतोष के भाव प्रकट हुए ।
फिर अंत में यादव ने हमारी सुध ली ।
उसके वहां पहुंचते ही मैंने उसे बताया था कि कमला कौन थी लेकिन फिर भी उसने पृछा - “आप हत्प्राण की बीवी हैं ?”
कमला ने सहमति में सिर हिलाया ।
“मैं आपका बयान लेना चाहता हूं ।”
“लीजिए ।”
“तुम” - यादव मेरी तरफ घूमा - “जरा फार्म की ठंडी हवा खा आओ और सिगरेट-विगरेट पी आओ ।”
“लेकिन....” - मैंने कहना चाहा ।
“क्या लेकिन ?” - वह मुझे घूरता हुआ बोला ।
“कुछ नहीं ।” - मैं बोला और उठ खड़ा हुआ ।
“और हवा फार्म की ही खाना । टहलते हुए कुतुबमीनार न पहुंच जाना ।”
“नहीं पहुंचूंगा ।”
मैंने इमारत से बाहर कदम रखा ।
फार्म में उतरने के स्थान पर मैं प्लेटफार्म पर ही टहलने लगा । मैंने अपने ताबूत की एक कील सुलगा ली और सोचने लगा ।
आखिर अमरजीत ओबराय वहां तक पहुंचा तो कैसे पहुंचा ?
वह मर्सिडीज कार तो वहां कहीं दिखाई नहीं दे रही थी जिस पर कि दिन में मैंने उसे जगह-ब-जगह जाते देखा था और जिसे उसका वर्दीधारी शोफर चला रहा था । क्या यह हो सकता था कि वह वहां पहुंचा तो अपने शोफर और दादाओं के साथ ही हो लेकिन वहां पहुंचने के बाद उसने गाड़ी वापिस भिजवा दी हो ? वापिसी के लिए अपनी बीवी की कार तो उपलब्ध थी ही ।
या शायद वह यहां आया ही अपनी बीवी के साथ हो ?
वह बात मुझे न जंची । बीवी को मालूम था कि मैं वहां पहुंचने वाला था । वह अपने पति को वहां साथ क्यों लाती ?
इसलिए लाती क्योंकि उसका पहले से ही उसे वहां लाकर उसका कत्ल करने का और मुझे अपनी एलीबाई बनाने का इरादा था ।
वह ख्याल मुझे बेचैन करने लगा इसलिए मैंने नई संभावना का विचार किया ।
फर्ज करो, हत्यारा कोई और था और ओबराय हत्यारे के साथ उसकी कार पर वहां पहुंचा जो कि कमला के वहां पहुंचने से पहले ओबराय का कत्ल करके वहां से जा चुका था ।
कौन ?
कोई भी ।
मसलन जूही चावला ।
ओबराय को नहीं मालूम था कि उसकी बीवी उस रात फार्म पर जाने वाली थी इसलिए वह जूही चावला के साथ तफरीह के लिए वहां आया हो सकता था । उन दोनों में कोई तकरार छिड़ी हो सकती थी जिसका अंजाम ओबराय के कत्ल तक पहुंचा हो सकता था ।
लेकिन अभी तो इसी बात का कोई सबूत सामने नहीं आया था कि ओबराय के जूही चावला के साथ कोई ऐसे वैसे, तफरीह मार्का, ताल्लुकात थे ।
घूम फिरकर बात फिर कमला पर ही पहुंच जाती थी और मैं बौखलाने लगता था ।
पैसे का लालच कहीं इस बार मेरी दुक्की तो नहीं पिटवाने वाला था ।
तभी एक पुलिसिये ने टैरेस पर कदम रखा ।
“आपको साहब बुला रहे हैं ।” - वह बोला ।
मैं उसके साथ फिर इमारत में दाखिल हुआ ।
कमला ड्राइंगरूम में अकेली बैठी थी लेकिन पुलिसिये ने मुझे वहां न रुकने दिया । वह मुझे सीधा स्टडी में ले गया जहां दरवाजे के पास एक कुर्सी पर यादव बैठा था ।
“बैठो ।” - वह बगल में पड़ी एक अन्य कुर्सी की ओर इशारा करता हुआ बोला ।
बैठने से पहले मैंने मेज की दिशा में निगाह उठाई ।
गनीमत थी कि किसी ने लाश को चादर से ढक दिया हुआ था ।
“अब बोलो, क्या हुआ था ?” - यादव बोला - “कैसे पहुंच गए तुम यहां ? मिसेज ओबराय से कैसे वास्ता हुआ था ? शुरू से शुरू करो ।”
“आज फोन किया था मुझे मिसेज ओबराय ने ।” - मैं बोला - “उसे मेरी व्यावसायिक सेवाओं की जरूरत थी ।”
“क्या कराना चाहती थी वह तुमसे ?”
“यही बताने के लिए उसने मेरे साथ यहां की आठ बजे की अपोइंटमेंट फिक्स की थी ।”
“कुछ हिंट तो दिया होगा उसने काम का ?”
“हां, इतना हिंट दिया था कि काम का ताल्लुक उसकी शादीशुदा जिन्दगी से था ।”
“फिर ?”
“फिर क्या निर्धारित समय पर मैं यहां पहुंचा तो यहां कुछ और ही गुल खिला हुआ था ।”
“मिसेज ओबराय से कहां मुलाकात हुई तुम्हारी ?”
“बाहर ।”
“वो पहले से यहां थी ?”
“हां, लेकिन अभी पहुंची ही थी । सच पूछो तो हम दोनों आगे पीछे ही यहां तक पहुंचे थे । वह कार को पार्क करके उसमें से बाहर कदम रख रही थी कि मेरी कार फार्म में दाखिल हुई थी ।”
“तुमने उसकी कार को फार्म में दाखिल होते हुए देखा था ?”
“नहीं ।”
“बाहर सड़क पर अपनी कार के आगे-आगे देखा हो ?”
“न ।”
“फिर तुम कैसे कह सकते हो कि वह तुम्हारे आगे-आगे वहां पहुंची थी ?”
“क्योंकि मैंने उसे अपनी कार से बाहर निकलते देखा था ।”
“शायद वो अपने पति का काम तमाम करके यहां से कूच कर जाने के लिये कार में दाखिल हो रही हो और तुम्हारी कार को आता पाकर बाहर निकलने लगी हो ?”
मैं खामोश रहा । मैंने तनिक बेचैनी से पहलू बदला ।
“सिर्फ उसके कार के करीब पाये जाने से” - यादव के स्वर में जिद का पुट था - “यह कैसे साबित होता है कि वह तभी वहां पहुंची थी ? तुमने सच ही उसे कार में दाखिल होते नहीं, कार से निकलते देखा था तो भी वह कैसे साबित होता है कि वह कार तक उसका दूसरा फेरा नहीं था, यानी कि वह पहले ही इमारत के भीतर नहीं हो आई हुई थी ?”
मुझे जवाब न सूझा ।
“खैर, छोड़ो । बहरहाल तुम यहां पहुंचे । तुमने मिसेज ओबराय को अपनी कार से निकलते देखा, तुमने करीब लाकर अपनी कार खड़ी की और फिर मिसेज ओबराय से मुखातिब हुए । ठीक ?”
“ठीक ।”
“उस वक्त मूड कैसा था मिसेज ओबराय का ? क्या वह घबराई, बौखलाई हुई थी, आन्दोलित थी, किसी बात से त्रस्त लग रही थी, किसी इमोशनल स्ट्रेन में थी ?”
“ऐसी कोई बात नहीं थी । मुझे तो वह बिल्कुल ठीक-ठाक और स्वाभाविक मूड में लगी थी ।”
“फिर ?”
“फिर मैंने उसे अपना परिचय दिया । एकाध और औपचारिक बात की और फिर हम इमारत तक पहुंचने वाली सीढ़ियों की तरफ बढ़ गये । इमारत में रोशनी थी जो कि मिसेज ओबराय को हैरानी की बात लगी थी । हम इमारत में दाखिल हुए थे । हम यहां, स्टडी में पहुंचे थे तो यहां अमरजीत ओबराय की लाश पड़ी थी ।”
“वैसे ही जैसे इस वक्त भी पड़ी है ?”
“हां ।”
“इमारत का प्रवेश द्वार खुला था या उसे मिसेज ओबराय ने चाबी लगाकर खोला था ?”
“इस बात की तरफ तो मैंने ध्यान नहीं दिया था ।”
“क्यों ?”
“सच बताऊं ?”
“सच ही बताओगे तो बनेगी बात ।”
“सच यह है, यादव साहब, कि उस वक्त मेरा ध्यान मिसेज ओबराय की शानदार फिगर की तरफ था, उसके सांचे में ढले जिस्म की तरफ था, उसकी मदमाती चाल की तरफ था ।”
“भीतर बत्ती जली होने जैसी अस्वाभाविकता को नोट कर चुकने के बावजूद तुमने यह देखने की कोशिश नहीं की कि दरवाजा खुला था या उसमें ताला लगा हुआ था ?”
“नहीं की । सॉरी !”
“जब तुम लोगों ने स्टडी में लाश बरामद की थी, उस वक्त कितने बजे थे ?”
“आठ ।”
“पूरे ?”
“एक-दो मिनट ऊपर होंगे ।”
“लेकिन पुलिस को फोन तो तुमने बड़ी देर में किया था । लाश बरामद होते ही तुमने फौरन फोन क्यों नहीं किया था ?”
“फौरन नम्बर नहीं मिला था । टेलीफोन में कोई नुक्स था । कई बार डायल करने के बाद मुझे पुलिस का नम्बर मिला था ।”
“मुझे तो फोन में कोई नुक्स नहीं दिखाई दिया ।”
“अब नहीं होगा । तब था ।”
“यह विस्की जो तुम्हारी सांसों में बसी है यह तुम घर से पीकर आये थे या यहां आकर पी थी ? मैं तुम्हें अंधेरे में नहीं रखना चाहता । सवाल का जवाब इस बात को निगाह में रखकर देना कि किचन में दो गिलास और उनके करीब एक आइस-ट्रे पड़ी मैंने देखी है और” - उसने मुझे घूरा- “गिलासों पर से उंगलियों के निशान उठाये जा सकते हैं ।”
“विस्की का एक पैग मैंने यहां पिया था ।”
“जो कि मिसेज ओबराय ने पेश किया था ?”
“हां ।”
“जो कि उसने खुद भी पिया था ?”
“हां ।” - मैं विचलित स्वर में बोला ।
“ऐसी औरत के बारे में तुम क्या राय कायम करोगे जो कि अपने ताजे-ताजे मरे पति की लाश के सिरहाने खड़ी होकर विस्की पीती हो और किसी दूसरे को भी पिलाती हो ?”
“विस्की हमेशा नशे के लिए ही नहीं पी जाती इंस्पेक्टर साहब !”
“सब-इंस्पेक्टर । मैं इंस्पेक्टर नहीं हूं ।”
“विस्की ट्रांक्विलाइजर का भी काम करती है । घबराये, बौखलाये आदमी को तसकीन देने का भी काम करती है ।”
“आई सी ! तो मिसेज ओबराय विस्की के जाम में तसकीन तलाश कर रही थी ? खाविन्द की मौत के सदमे के शिकार अपने दिल को राहत पहुंचा रही थी ?”
“हां ।”
“साथ में तुम भी ?”
“मैं किसी सदमे का शिकार नहीं था । मैं, सिर्फ मिसेज ओबराय का साथ दे रहा था ।”
“बाकायदा ? चियर्स बोलकर ?”
“अब यादव साहब आप तो....”
“नैवर माइण्ड । तो फिर तुम्हारी मिसेज ओबराय से तफसील में कोई बात हुई थी कि उसे तुम्हारी क्यों खिदमत दरकार थी ?”
“तफसील से नहीं हुई । अलबत्ता इतना उसने जरूर बताया कि उसे अपने पति पर शक था कि उसके किसी गैर औरत से ताल्लुकात थे इसलिए हकीकत जानने के लिए वह अपने पति की निगरानी करवाना चाहती थी । अब जबकि पति ही नहीं रहा था इसलिये इस काम के लिये मेरी सेवाओं की जरूरत नहीं रही थी ।”
“यानी कि तुम्हारी छुट्टी ?”
“नहीं । छुट्टी नहीं । छुट्टी हो गई होती तो मैं यहां से चला न गया होता !”
“तो ?”
“वो अभी भी मेरी क्लायंट है ।”
“अब किसलिए ?”
“इसलिये कि पुलिस वाले उसके पति की हत्या के लिये उसे जिम्मेदार न ठहराने पाएं ?”
“यह हत्या का केस है ?”
“हां ।”
“तुम जानते हो इस बात को ?”
“हां । यह तो अन्धे को दिखाई दे रहा है कि..”
“फिर भी तुमने पुलिस को खबर देते वक्त टेलीफोन पर कहा था कि ओबराय साहब ने अपने-आपको शूट करके आत्महत्या कर ली थी ?”
“तब कहा था लेकिन बाद में मेरे ज्ञानचक्षु खुल गये थे ।”
“कैसे ?”
“गोली से हत्प्राण के माथे में बने सुराख के गिर्द जले बारूद के कण मुझे नहीं दिखाई दिये थे, जिससे साफ जाहिर होता था कि गोली फासले से चलाई गई थी ।”
“लेकिन मर्डर वैपन पर हत्प्राण की उंगलियों के निशान पाये गये हैं और यह बात इसे आत्महत्या का केस साबित करती है ।”
“तुम इसे आत्महत्या का केस समझ रहे हो ?”
“समझ लूं ?” - वह ऐसे स्वर में बोला जैसे मेरे साथ बिल्ली-चूहे का खेल खेल रहा हो ।
“मुझसे पूछ रहे हो ?”
“हां ।”
“समझ लो ।”
“यूं ही ? फोकट में ?”
मैंने हड़बड़ाकर यादव का मुंह देखा ।
“रोकड़े का तुमसे क्या वादा किया है विधवा ने ?”
“तुम हिस्सा चाहते उसमें ?”
“हर्ज क्या है ?”
“हर्ज तो कोई नहीं लेकिन वह हिस्सा बहुत कम होगा । तुम इस बाबत सीधे मिसेज ओबराय से बात करो ।”
“तुम करा दो ।”
“तुम मुझे घिस रहे हो ।”
वह खामोश रहा । उसके चेहरे पर बड़ी अजीब मुस्कराहट थी । उसकी आंखों में बड़ी अजीब चमक थी ।
यादव कोई दूध का धुला पुलिसिया नहीं था । एक केस के सिलसिले में उसने नगर के करोड़पति ज्वैलर, अब-दिवंगत, दामोदर गुप्ता से मेरे सामने रिश्वत ली थी जिसमें से पांच हजार रुपये उसे उसकी पोल खोल देने की धमकी देकर मैंने भी झपट लिये थे लेकिन इस बार मुझे विश्वास न हुआ कि वह रिश्वत की तरफ इशारा कर रहा था । ऐसी बात होती तो उसने मुझे हर हाल में पहले ही वहां से चलता कर दिया होता । वह सिर्फ मुझे खिजा रहा था, मुझे घिस रहा था मेरे साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेल रहा था ।
“यह एक आजाद मुल्क है ।” - एकाएक यादव बदले स्वर में बोला - “यहां के हर शहरी को हर वो काम करने की मुकम्मल आजादी है जो कि गैरकानूनी न हो । मिसेज ओबराय बाखुशी अपनी मदद के लिए प्राइवेट डिटेक्टिव की सेवायें हासिल करे । तुम बाखुशी उसके मददगार और मुहाफिज बनो लेकिन एक बात याद रहे । अगर मुझे यह मालूम हुआ कि तुमने मुझसे कोई बात छुपाई है या यहां से कोई सूत्र, कोई सबूत गायब किया है या ऐसी कोई हेरा-फेरी की है जो कि तुम अपने पैसे वाले क्लायंटों से पैसा ऐंठने के लिए कर सकते हो, करते हो, तो इस बार तुम्हें जेल का दरवाजा दिखाने की गारंटी मैं करता हूं ।”
“मैंने कुछ नहीं किया है ।”
“मेरी बात समझ में आई तुम्हारी ?”
“हां । आई ।”
“उस औरत को मैं शक की बिना पर गिरफ्तार कर सकता हूं लेकिन नहीं कर रहा । फिलहाल नहीं कर रहा । मगर उसे समझा देना कि उसकी भलाई इसी में है कि वह आने वाले दिनों में कहीं गायब हो जाने की कोशिश न करे ।”
“बेहतर ।”
“और तुम भी ।”
“मैं किसलिए ? क्या मैं भी मर्डर सस्पेक्ट हूं ?”
“तुम मैटीरियल विटनेस हो ।”
मैंने खामोशी से सहमति में सिर हिलाया ।
“अब फूटो ।”
“मैं फूटा ।”
मिसेज ओबराय मुझे एक बेडरूम में एक सोफे पर बैठी दिखाई दी । उसके साथ लगभग उससे जुड़ा हुआ एक सूट-बूटधारी व्यक्ति बैठा हुआ था जो उसके चेहरे के इतने करीब मुंह ले जाकर उससे बात कर रहा था कि उसके कान में फूंक मारता मालूम हो रहा था ।
मेरे आगमन पर दोनों की जुगलबन्दी भंग हुई ।
मिसेज ओबराय ने मेरा उससे परिचय कराया । मालूम हुआ कि उस शख्स का नाम बलराज सोनी था था और वह वकील था ।
वकील ने उठकर बड़ी फूं-फां के साथ मुझसे हाथ मिलाया ।
“आप यहां कैसे पहुंच गये ?” - मैं पूछे बिना न रह सका ।
“सोनी साहब का यहां फोन आया था” - जवाब मिसेज ओबराय ने दिया - “ओबराय साहब से बात करने के लिये । फोन मैंने सुना तो मैंने इन्हें बताया कि यहां क्या हो गया था । ये दौड़े चले आये यहां ।”
“तांगा कर लेते तो ज्यादा अच्छा रहता ।” - मैं बोला ।
“जी !” - बलराज सोनी सकपकाया ।
“कुछ नहीं ।” - मैं जल्दी से बोला - “तो सोनी साहब, आपने ओबराय साहब के लिए यहां फोन किया था ?”
“हां ।”
“आपको मालूम था वे यहां आने वाले थे ?”
“नहीं मालूम था लेकिन पहले मैंने मद्रास होटल फोन किया था, ओबराय साहब वहां से जा चुके थे । फिर मैंने गोल्फ लिंक उनकी कोठी पर फोन किया था । वे वहां पहुंचे नहीं थे । तब मुझे यहां फोन करने का ख्याल आया था । यहां फोन कमला ने उठाया । असली बात सुनकर मैं सन्नाटे में आ गया । मैं दौड़ा यहां चला आया ।”
“बहुत जल्दी पहुंचे आप यहां ।”
“मैं यहां से ज्यादा दूर जो नहीं था ।”
“कहां से तशरीफ लाये आप यहां ?”
“हौजखास से ।”
“हौजखास रहते हैं आप ?”
“नहीं । रहता तो मैं सुन्दर नगर में हूं ।”
“मैडम से सारी दास्तान तो आप सुन ही चुके होंगे ?”
“हां ।”
“आपकी क्या राय है इस बारे में ?”
“जो हुआ, बहुत बुरा हुआ । अमरजीत मेरा बचपन का दोस्त था । भाई जैसा । भाई से ज्यादा ।”
“आप वकील हैं । ओबराय साहब को अपना जिगरी दोस्त बताया आपने । फिर तो वे आपके क्लायंट होंगे ?”
“थे ।”
“अब मिसेज ओबराय की कानूनी स्थिति क्या होगी आपके ख्याल में ?”
“सब ठीक ही होगा । ओबराय साहब के तमाम कागजात कानूनी तौर पर चौकस हैं । उनकी वसीयत...”
“मैंने विरासत की कानूनी स्थिति के बारे में सवाल नहीं किया था, वकील साहब ।”
“तो ?”
“मैं तो बतौर मर्डर सस्पैक्ट इनकी कानूनी स्थिति जानना चाहता था ।”
“मर्डर !”
“जी हां । लगता है मैडम ने आपको केस का आत्महत्या वाला संस्करण ही सुनाया है । लेकिन आपकी जानकारी के लिए पुलिस की निगाह में यह कत्ल का केस है । और मैडम मर्डर सस्पैक्ट नम्बर वन हैं ।”
“नॉनसैंस ।”
“मैडम ऐसा नहीं समझती । समझती होतीं तो ये मेरी - एक प्राइवेट डिटेक्टिव की सेवाओं की - तलबगार न होतीं ।”
उसने कमला की तरफ देखा ।
कमला ने हौले से, बड़ी संजीदगी से, सहमति में सिर हिलाया ।
“आप अभी भी समझते हैं” - मैं बोला - “कि यह नॉनसैंस है ?”
“हां ।” - वकील जिदभरे स्वर में बोला ।
“ठीक है समझिये । लेकिन समझते रहेंगे नहीं आप । बहुत जल्द मैडम को फांसी नहीं तो उम्रकैद तो जरूर हो जाएगी ओर इनकी - एक हत्यारी की - मदद करने के इलजाम में आपका यह खादिम भी तीन-चार साल के लिए तो नप ही जायेगा ।”
वकील के चेहरे पर गहन गम्भीरता के भाव आये ।
तभी चौखट पर सब-इंस्पेक्टर यादव प्रकट हुआ ।
कमला ने उसका वकील से परिचय करवाया जिसकी तरफ यादव ने कोई खास तवज्जो न दी ।
“हम लोग लाश समेत यहां से जा रहे हैं ।” - यादव बोला - आपके लिए पुलिस की क्या हिदायत है, यह आपका जासूस आपको समझा चुका होगा । कोई कसर रह गई हो तो अपने वकील से समझ लीजिएगा । मुझे सिर्फ इतना बता दीजिए कि भविष्य में आप कहीं उपलबध होगीं ?”
“गोल्फ लिंक ।” - कमला बोली । उसने अपनी कोठी का पता और फोन नम्बर यादव को लिखवा दिया ।
“शुक्रिया ।”
फिर यादव अपने दलबल के साथ वहां से विदा हो गया ।
उसके बाद वकील भी ।
पीछे उजाड़ फार्म हाउस में फिर मैं और कमला ओबराय रह गए ।
“अब तुम क्या चाहते हो ?” - वह बोली ।
“जो मैं चाहता हूं” - मैं उसे नख से शिख तक निहारता हुआ बोला - “मुझे उसके हासिल हो पाने का माहौल तो मुझे इस वक्त नहीं दिखाई दे रहा ।”
“इस वक्त क्या चाहते हो ?”
“अपनी फीस ।”
“बीस हजार रुपये ?”
“डाउन पेमैंट । फिलहाल ।”
“मैं तुम्हें पहले ही नहीं बता चुकी कि इस वक्त मेरे पास हजार रुपये भी नहीं है ?”
“यहां नहीं हैं न ?”
“नकद रकम घर पर भी मुमकिन नहीं ।”
“चैक भी चलेगा ।”
“तुम कल तक इंतजार नहीं कर सकते ?”
“कल किसने देखा है, मैडम !”
“ठीक है । मेरे साथ गोल्फ लिंक चलो । मैं तुम्हें चैक लिख दूंगी ।”
“मंजूर ।”
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