मंगलवार : 19 मई
मोबाइल की घण्टी बजी।
जीतसिंह ने मोबाइल निकाल कर स्क्रीन पर निगाह डाली तो उस पर फ्लैश करता नम्बर उसकी पहचान में न आया। उसने नोट किया कि नम्बर लैण्डलाइन का था।
कौन होगा!
होगा कोई! अभी हाल ही में तो उसने मोबाइल पकड़ा था, कैसे कोई उस पर काल लगा सकता था! जरूर रांग नम्बर लग गया था।
उस घड़ी वो चिंचपोकली में अपनी खोली में था और उस के सामने खोली को झाड़ने बुहारने का, फिर से रहने लायक बनाने का, बड़ा प्रोजेक्ट था।
‘खोली’ नौ गुणा चौदह फुट का एक ही लम्बा कमरा था और उसी में माचिस जैसा बाथरूम था और किचन थी। कभी वो खोली उसकी सालों पनाहगाह रही थी, मुम्बई जैसे महँगे शहर में ऐसी रिहायश हासिल होना बड़ी नियामत थी बावजूद इसके कि चिंचपोकली का वो इलाका झौंपड़पट्टे से जरा ही बेहतर था। उसकी जरूरत के लिहाज से वो ऐन फिट जगह थी लेकिन फिर सुष्मिता नाम की एक युवती से—जो कभी वहीं उसके पड़ोस में कुछ ही घर दूर रहती थी—एकतरफा आशनाई का ऐसा झक्खड़ चला था कि वो तिनके की तरह कहां कहां उड़ता फिरा था! अब वो जहाज के पंछी की तरह फिर वहां था।
आइन्दा जिन्दगी में ठहराव की उम्मीद करता, बल्कि दुआ मांगता।
घण्टी बजनी बन्द हो गयी।
बढ़िया!
जीतसिंह तीस के पेटे में पहँुचा, रंगत में गोरा, क्लीनशेव्ड हिमाचली नौजवान था जो कि रोजगार की तलाश में छ: साल पहले धर्मशाला से मुम्बई आया था। उसकी शक्ल सूरत मामूली थी, जिस्म दुबला था, होंठ पतले थे, नाक बिना जरा भी खम एकदम सीधी थी, बाल घने थे, और भवें भी बालों जैसी ही घनी और भारी थीं। कहने को ताले-चाबी का मिस्त्री था लेकिन नौजवानी की एकतरफा आशिकी के हवाले कई डकैतियों में शरीक हो चुका था, कई बार खून से अपने हाथ रंग चुका था। जुर्म की दुनिया उसके लिये ऐसा कम्बल बन गया था जिसे वो तो छोड़ता था लेकिन कम्बल उसे नहीं छोड़ता था।
मोबाइल की घण्टी फिर बजी।
उसने फिर स्क्रीन पर निगाह डाली।
वही नम्बर।
इस बार उसने काल रिसीव की।
‘‘हल्लो!’’—वो बोला।
‘‘बद्री!’’—दूसरी ओर से सुसंयत आवाज आयी।
‘‘कौन पूछता है?’’
‘‘बोलूंगा न! फोन किया है तो बोलूंगा न! पहले तसदीक तो कर, बिरादर, कि बद्रीनाथ ही है!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘मशहूर-ओ-मअरूफ...’’
‘‘फारसी नहीं बोलने का ।’’
‘‘...कारीगर! हुनरमन्द!’’
‘‘नम्बर कैसे जाना?’’
‘‘भई, जब मोबाइल है, उस पर काल रिसीव करता है, उससे काल जनरेट करता है तो किसी से तो जाना!’’
‘‘क्या मांगता है?’’
‘‘तेरे लिये काम है ।’’
‘‘क्या काम है?’’
‘‘वही, जिसका तू उस्ताद है। जिसमें तेरा कोई सानी नहीं। समझ गया?’’
‘‘आगे बोलो ।’’
‘‘कुछ खोलना है। खोलने के अलावा तेरी कोई जिम्मेदारी नहीं। तेरे लिये चुटकियों का काम होगा। नजराना पचास हजार ।’’
‘‘किधर?’’
‘‘हाँ बोलने पर मालूम पड़ेगा ।’’
‘‘नाम बोलो!’’
‘‘वो भी हां बोलने पर। मुलाकात फिक्स करेंगे न! तब तआरुफ भी हो जायेगा ।’’
‘‘नहीं मांगता ।’’
‘‘उजरत कम है? ठीक है, साठ ।’’
‘‘नहीं मांगता ।’’
‘‘भई, तो अपनी मँुहमांगी फीस बोल!’’
‘‘नहीं...’’
‘‘ठीक है, एक लाख। अब खुश!’’
‘‘...नहीं मांगता ।’’
‘‘अरे, क्या एक ही रट लगाये है!’’
‘‘बोले तो मैं वो भीड़ू हैइच नहीं जो तू मेरे को समझ रयेला है ।’’
‘‘खामखाह! मैंने तसदीक करके फोन किया है ।’’
‘‘तुम्हेरी तसदीक में लोचा ।’’
‘‘तू....तू बद्रीनाथ तालातोड़ नहीं है?’’
‘‘नहीं है ।’’
‘‘तो कौन है?’’
‘‘जीतसिंह तालाजोड़! ताले चाबी का मिस्त्री। क्राफोर्ड मार्केट में एक हार्डवेयर के शोरूम के बाहर ठीया है। किसी ताले का चाबी खो गया हो, किसी चाबी का डुप्लीकेट मांगता हो तो उधर आना। किसी से भी पता करना जीतसिंह ताला-चाबी किधर मिलता है। बरोबर!’’
‘‘यार, तू मसखरी तो नहीं मार रहा?’’
‘‘नक्को!’’
‘‘तेरी कोई खास डिमाण्ड है?’’
‘‘नक्को। कैसे होयेंगा! जब मैं उस लाइन में हैइच नहीं तो...कैसे होयेंगा!’’
‘‘कोई मुगालता है। मैं रूबरू बात करना चाहता हूँ ।’’
‘‘वान्दा नहीं। आना उधर। क्राफोर्ड मार्केट ।’’
‘‘रहता कहां है?’’
‘‘चिल्लाक भीड़ू है, मोबाइल नम्बर पता किया न! ये भी पता करना ।’’
‘‘अरे, यार, तू समझता क्यों नहीं! मुश्किल से दस या पन्द्रह मिनट के काम का एक लाख...’’
‘‘नहीं मांगता ।’’
‘‘तो जो मांगता है, वो तो बोल!’’
‘‘मांगता हैइच नहीं ।’’
‘‘लेकिन...’’
‘‘अभी एक बात और सुनने का ।’’
‘‘कौन सी बात?’’
‘‘खास बात ।’’
‘‘क्या खास बात?’’
‘‘ये खास बात कि मैं पक्की करता है कि तू चिल्लाक भीड़ू बरोबर। इसी वास्ते हर टेम ऐसे काल लगाता है जैसे फस्र्ट टेम लगाया...’’
‘‘क्या!’’
‘‘नवें फोन से नवां भीड़ू बन के फोन लगाता है। ये थर्ड टेम काल किया मेरे को...’’
‘‘अरे, नहीं! मैं तो पहली बार...’’
‘‘कैसे नहीं! तेरी आवाज मेरी पकड़ में आयी न! तेरे बात करने के स्टाइल ने मेरे मगज में घण्टी बजाई न! पहले दस देता था, फिर पच्चीस, अभी पचास, साठ के रास्ते लाख पर पहँुच गया। अभी चौथी बार फोन करेगा तो क्या देने को बोलेगा? डेढ़ या दो?’’
लाइन पर खामोशी छा गयी।
‘‘अभी मगज से जाला निकाल और मेरी बात को काबू में कर कि जो मैं बोला वो फाइनल। नहीं मांगता। अभी भी और बाद में भी। इस वास्ते बोले तो भोला बाबू बन के चौथी, पांचवी, छटी बार ट्राई नहीं करने का। फिर फोन नहीं लगाने का। लगायेगा तो टेम खोटी करेगा। जवाब नहीं मिलेगा। क्या!’’
‘‘बहुत कड़क बोलता है, भई ।’’
‘‘कट करता है ।’’
जीतसिंह ने लाइन काट दी।
कुछ क्षण बाद उसने उत्सुकतावश वो नम्बर बजाया तो घण्टी बजती रही, कोई जवाब न मिला।
इतनी उसको समझ थी कि आठ अंकों का वो फोन महानगर टेलीफोन निगम का था। उसने डायरेक्ट्री इक्वायरी से उस नम्बर की बाबत दरयाफ्त किया तो मालूम पड़ा कि वो चर्चगेट स्टेशन पर चलता एक पीसीओ था।
‘साला चिल्लाक भीड़ू!’—वो बड़बड़ाया—‘खबरदार भीड़ू! पीसीओ से काल लगाता था।’
तभी मोबाइल फिर बजा।
साला फिर!
उसने स्क्रीन पर निगाह डाली तो ‘साला फिर’ नहीं था, वालपोई गोवा से एडुआर्डो का फोन था।
बिग डैडी!
एडुआर्डो वो शख्स था जिस की वजह से वो आजाद था वर्ना तारदेव के सुपर सैल्फसर्विस स्टोर की डकैती के केस में, जिसमें कि वो गिरफ्तार था, उसका पांच से सात साल तक नप जाना महज वक्त की बात था। एडुआर्डो वो शख्स था जो उसकी एक गुहार पर वालपोई से मुम्बई दौड़ा चला आया था और न सिर्फ पल्ले से पचास हजार रुपये भर कर उसकी जमानत कराई थी बल्कि गाइलो नाम के पुलिस के उसके खिलाफ उस मजबूत चश्मदीद गवाह के भी अपने बयान से पलटी खाने के हालात पैदा किये थे जिसने चार महीने पहले, जनवरी में, जेकब सर्कल के पुलिस लॉकअप में हुई शिनाख्ती परेड में निसंकोच उसे सुपर स्टोर की डकैती में शामिल भीड़ू के तौर पर पहचाना था लेकिन जो बाद में गवाही के लिये पेश होने पर अदालत के कठघरे में खड़ा हो कर अपनी मजबूत शिनाख्त से मुकर गया था—इसलिये मुकर गया था क्योंकि एडुआर्डो के बताये वक्त रहते उसे मालूम पड़ा था कि मुजरिम जीतसिंह उसके फस्र्ट कजन ऐंजो का जिगरी था। ऐंजो तब उस दुनिया में नहीं था और एडुआर्डो ने उसे ‘डिपार्टिड सोल’ का सदका दिया था कि वो किसी भी तरह से जीतसिंह को बचाये। गाइलों के अपनी गवाही से फिरने की वजह से ही मंगलवार, छ: जनवरी को जीतसिंह जमानत पर रिहा हुआ था और फिर तदोपरान्त करिश्मा हुआ था, किस्मत का ऐसा नाकाबिलेएतबार खेल हुआ था कि आखिर सोमवार बीस अप्रैल को उसे सन्देह लाभ दे कर कोर्ट द्वारा बरी कर दिया गया था। तब तक जनवरी के महीने में ही सारे फसाद की जड़ तारदेव थाने का एसएचओ इन्स्पेक्टर गोविलकर जीतसिंह के ही हाथों जान से जा चुका था और इरादतन खून से हाथ रंगने के बावजूद उस पर आंच इसलिये नहीं आयी थी क्योंकि गोविलकर का डीसीपी प्रधान किन्हीं वजुहात से वक्ती तौर पर उसका तरफदार बन गया था। उसी की सक्रिय मदद से जीतसिंह को एलीबाई हासिल हुई थी कि गुरुवार उनतीस जनवरी को टिम्बर बन्दर, सिवरी में इन्स्पेक्टर गोविलकर के कत्ल के वक्त ‘प्राइम मर्डर सस्पैक्ट’ जीतसिंह तारदेव थाने के लॉकअप में बन्द था क्योंकि कोर्ट के हुक्म के मुताबिक थाने की रोजाना हाजिरी भरने में उसने कोताही की थी।
एडुआर्डो ही वो शख्स था जिसके अण्डर में जीतसिंह ने मुम्बई से बाहर अपने पहले बड़े कारनामे को अंजाम दिया था—पणजी, गोवा में डबलबुल कैसीनो के अभेद्य वाल्ट को खोलने के असम्भव काम को सम्भव कर के दिखाया था। एडुआर्डो का वो आखिरी मुजरिमाना कारनामा था जबकि जीतसिंह का घोर पतन ही उस कारनामे के बाद होना शुरू हुआ था।
एडुआर्डो तब से उसका जिगरी दोस्त था, रहनुमा था, खैरख्वाह था, सरपरस्त था, साठ साल का था इसलिये जीतसिंह के लिये पितातुल्य था।
उसने काल रिसीव की।
‘‘बिग डैडी को फर्शी सलाम पहँुचे ।’’—जीतसिंह प्रसन्न भाव से बोला।
‘‘पहँुच गया ।’’—एडुआर्डो की आवाज आयी—‘‘गॉड ब्लैस यू, माई डियर। कैसा है?’’
‘‘आजाद है ।’’
‘‘वो तो है ही। आलमाइटी मर्सी किया तो है ही। वैसे कैसा है?’’
‘‘ठीक। अपना बोलो!’’
‘‘अभी थोड़ा प्राब्लम है ।’’
‘‘बोले तो?’’
‘‘चोटें खरोंचें सब ठीक हैं, चारों टूटी पसलियां जुड़ गयी हैं, तीन में से दो उंगलियां भी जुड़ गयी हैं, पण कलाई पर अभी प्लास्टर कास्ट है। उधर दो बोंस होता है न! दोनों टूटीं। डबल फैक्चर ! कम्पाउन्ड कर के जो बोलते हैं। इधर का डाक्टर बोलता है टेम लगेगा ।’’
‘‘वो तो लगेगा ही! अभी तीन हफ्ता ही तो हुआ मार लगे!’’
‘‘ज्यास्ती। वन मंथ। पण वो तो है ।’’
‘‘अभी बोले तो फोन कैसे किया?’’
‘‘वो तो मैं बोलता है। पण कल ये छापे में क्या पढ़ा मैं?’’
‘‘क्या पढ़ा?’’
‘‘वो सिन्धी स्टोर वाला...पुरसूमल चंगुलानी...जिस से सुष्मिता तेरे को डिच कर के शादी बनाया...खल्लास! कोई मर्डर किया...’’
‘‘हाँ। तीन दिन पहले का, शनिवार शाम का, वाकया है। कहते हैं लेमिंगटन रोड पर के अपने डिपार्टमेंट स्टोर को बन्द करा के कोलाबा अपने घर लौट रहा था कि रास्ते में लुटेरे पड़ गये। आजकल हाई एण्ड नयी कारें झपटने की वारदात बहुत हो रही हैं। उसके पास नयी खरीदी होंडा थी। कोई छापे वाला बोलता है कार छीनने की कोशिश में गया, कोई बोलता है स्टोर की डेली सेल वाला जो कैश उसके पास था, उसको लूटने की कोशिश में गया, कोई बोलता है दोनों बातें, उसने रिजिस्ट किया, टपका दिया! पेट में स्टैब किया। कई बार ।’’
‘‘पुअर मैन। आजकल पैसेवाला, हैसियतवाला होना भी प्राब्लम! छापे में लिखा है कोई लुटेरा पकड़ में नहीं आया!’’
‘‘अभी तक तो नहीं आया ।’’
‘‘कोई चश्मदीद?’’
‘‘नक्को!’’
‘‘पुअर मैन। एज कितना था?’’
‘‘साठ के पेटे में था। एकाध साल कम होगा!’’
‘‘टू बैड। तू गया उधर?’’
‘‘किधर?’’
‘‘कोलाबा! उसके घर पर! बेवा को अफसोस करने!’’
जीतसिंह खामोश हो गया। उसके जेहन पर पुरसूमल के ऐंगेज किये प्राइवेट डिटेक्टिव शेखर नवलानी का अक्स उबरा, उसके तब के अल्फाज उसके कानों में गूंजे जब कि वो बुरी तरह से जला हुआ नर्सिंग होम में पड़ा था :
‘‘अगर जरा सी भी गैरत बाकी हो तो दोबारा कभी तुलसी चैम्बर्स का रुख न करना। पुरसू की गैरहाजिरी में ही नहीं, उसकी हाजिरी में भी। किसी की माशूक किसी और की बीवी बन जाये, ये बड़ा हादसा है लेकिन किसी की बीवी किसी की माशूक कहलाये, यह ज्यादा बड़ा हादसा है। कोई गैरत बाकी हो तो ज्यादा बड़े हादसे से बच के रहना ।’’
‘‘हल्लो!—उसके कान में एडुआर्डो की व्यग्र आवाज गूंजी—‘‘जीते! लाइन पर है?’’
‘‘हं-हां ।’’—जीतसिंह फंसे कण्ठ से बोला।
‘‘तो बोलता काहे नहीं?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘क्या नहीं?’’
‘‘मैं अफसोस करने नहीं गया ।’’
‘‘क्या बोला! नहीं गया?’’
‘‘हां ।’’
‘‘ईवन आफ्टर थ्री डेज...’’
‘‘ऐसीच है ।’’
‘‘पण काहे?’’
‘‘मैं उधर वैलकम नहीं है ।’’
‘‘क्या! वैलकम नहीं है! कौन बोला ऐसा?’’
‘‘बोला कोई ।’’
‘‘कौन?’’
‘‘लम्बी कहानी है, तुम नहीं समझोगे ।’’
‘‘जीते, किसी ने ऐसा बोला भी होगा तो अण्डर नार्मल सरकमस्टांसिज बोला होगा। अभी सरकमस्टांसिज नार्मल किधर है! एक भीड़ू जिससे तू वाकिफ था, जिसने तेरी बाबत झूठ बोल कर तेरी जान बचाई; तुझे—एक हिस्ट्रीशीटर को, वाल्टबस्टर को, बैड कैरेक्टर को—अपना मुलाजिम बताकर, जो रोकड़ा तूने खुदकुशी के लिये, जल मरने के लिये लिफ्ट में फँूका, उसे अपना बताकर तेरे को उस डेविल इनकार्नेशन इन्स्पेक्टर गोविलकर के कहर से बचाया, वो जान से गया तेरे को कोई अफसोस नहीं, कोई हमदर्दी नहीं! जीते, किसी की खुशी में शरीक होना नजरअन्दाज किया जा सकता है लेकिन किसी के गम में...’’
‘‘नक्की करने का, डैडी। अभी बोलो, फोन क्यों किया?’’
‘‘फोन क्यों किया!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘बोलता है, भई, बोलता है ।’’
‘‘मैं सुनता है ।’’
‘‘कोई, पूछ रहा है तेरे को ।’’
‘‘कौन?’’
‘‘जिसके पास तेरे मतलब का काम है ।’’
‘‘कैसा काम?’’
‘‘पूछता है, कैसा काम! तेरे को नहीं मालूम?’’
‘‘कोई वाल्ट खोलना है?’’
‘‘या वाल्ट जैसा कुछ खोलना है ।’’
‘‘और ये काम मैं ही कर सकता है!’’
‘‘परफेक्ट कर के तू ही कर सकता है। जीते, फोन करने वाले को वहीच लॉकमैन मांगता है जिसने पणजी में डबल बुल कैसीनो का वाल्ट खोला, जिसने कनाट रोड, पूना के होटल ब्लू स्टार का वाल्ट खोला और कायन कनवेंशन को हिट किया। वहीच भीड़ू मांगता है उसको ।’’
‘‘उसको मालूम वो भीड़ू मैं?’’
‘‘हां। बाई नेम पूछा तेरे को। एस लॉकमैन बद्रीनाथ बोल के पूछा। मेरे को पूछा तो बोले तो ये भी मालूम कि मैं तेरा पोस्ट आफिस। बीच की कड़ी। कान्टैक्ट सोर्स। तू किसी को डायरेक्ट कर के न मिले तो वालपोई में बिग डैडी एडुआर्डो को फोन लगाने का ।’’
‘‘बोले तो वो कोई पुराना पापी है!’’
‘‘या किसी पुराने पापी से ये सब जानकारी निकाला ।’’
‘‘हूँ। नाम क्या बोला?’’
‘‘नहीं बोला। फोन नम्बर बोला। मोबाइल। तू उसको फोन लगायेगा तो वो सब कुछ बोलेगा। नम्बर नोट कर ।’’
‘‘वो तो मैं करता है पण और क्या बोला?’’
‘‘और तेरे को आप्शन दिया ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘चाहे तो उन का हाइस्ट में पार्टनर बन के शामिल हो सकता है, चाहे तो खाली वाल्ट खोलने का काम कर सकता है। पहला काम करेगा तो उनका बराबर का हिस्सेदार होगा, दूसरा करेगा तो खाली वाल्ट खोलने की फीस मिलेगी ।’’
‘‘हाइस्ट बोले तो!’’
‘‘लूट! झपट्टा!’’
‘‘किधर? इधर मुम्बई में?’’
‘‘मालूम नहीं। नहीं बोला। पूछने पर भी न बोला। बोला, ऐसी बातें बद्रीनाथ के काम की। वो कान्टैक्ट करेगा तो उसको बोलेगा। अब बोल, करेगा?’’
‘‘डैडी, मेरी जगह तुम होते तो क्या करते?’’
लाइन पर खामोशी छा गयी।
जाहिर था कि बिग डैडी सोचता था, विचार करता था।
‘‘मैं नक्की करता ।’’—आखिर एडुआर्डो की आवाज आयी।
‘‘ऐसा?’’
‘‘जीते, इधर मैं तेरा पोस्ट आफिस। कोई पोस्ट मैं रिसीव करे तो तेरे को फारवर्ड करने का न!’’
‘‘बरोबर ।’’
‘‘वो मैं किया पण ये टेम तेरे को नक्की करने का। कुछ टेम कोई नया पंगा नहीं लेने का...’’
जीतसिंह के जेहन में अपने वकील विनोद रावल की वार्निंग गूंजी :
‘‘तुम्हारी रिहाई पुलिस के मुंह पर तमाचा है। अच्छा हुआ तुम्हारे हक में कि इन्स्पेक्टर गोविलकर के कत्ल के बाद उसकी जगह लेने वाला इन्स्पेक्टर—एसएचओ तारदेव—उस जैसा कड़क न निकला वर्ना पुलिस तुम्हारे खिलाफ दस नये केस खड़े कर देती। इसलिये आइन्दा कुछ अरसा पुलिस की लाइन क्रॉस नहीं करने का। जिस केस में बरी हुए हो, उस में भी पुलिस तुम्हें फिर गिरफ्तार कर सकती है। नये सबूत, एडीशनल ईवीडेंस, हाथ आने का दावा कर सकती है। तुम्हे गिरफ्तार करके रीट्रायल के लिये कोर्ट में पेश कर सकती है ।’’
‘‘वो वकील भीड़ू’’—प्रत्यक्षत: वो बोला—‘‘विनोद रावल भी मेरे को ऐसीच बोला था ।’’
‘‘ठीक बोला था ।’’—एडुआर्डो बोला—‘‘ऐन परफेक्ट कर के बोला था। जीते, आई रिपीट, कुछ टेम कोई नया पंगा नहीं लेने का, इस्ट्रेट लाइफ पर जोर रखने का। इसी में तेरी भलाई है। नहीं?’’
‘‘हां ।’’
‘‘अभी लास्ट मंथ मिरेकल हुआ कि तेरे को कोर्ट ने उस रॉबरी के तेरे खिलाफ बोले तो ओपन एण्ड शट केस में बैनिफिट आफ डाउट दे कर बरी किया...’’
‘‘पण बरी होते ही बड़ा पंगा किया। मिडनाइट क्लब्स करके गैरकानूनी ठीये चलाने वालों से, पुलिस की फुल सरपरस्ती में ऐसे ठीये चलाने वालों से, जिनमें से एक में—नोबल हाउस करके मिडनाइट क्लब में—तुम्हेरे को लूट लिया, लाख रुपया निकाल लिया, एतराज किया, गलाटा किया तो कचरा कर दिया साला फुल। सरकारी हस्पताल में पड़ा मरता था और मैं अक्खी मुम्बई में गोवा से आये अपने मेहमान, मेहरबान मेहमान, को तलाश करता मारा मारा फिरता था ।’’
‘‘वो सब तूने मेरी खातिर किया। जो किया वो करना जबरन तेरे गले पड़ा, इसलिये किया। अपनी मर्जी से कुछ न किया। लाइक ए गुड सन अपने बिग डैडी की दुरगत का बदला लिया। कौन करता है इतना किसी गैर की खातिर!’’
‘‘गैर बोला, डैडी! तुम कोरट में मेरा जमानत कराया, पल्ले से रोकड़ा भरा, गैर के लिये किया! मेरी हर दुश्वारी में मेरे बाजू में खड़ा दिखाई दिया, गैर के लिये! मेरी रिहाई का जश्न मनाता था, वो क्या बोलता था...यस...‘पेंट दि डाउन रैड’ करके कुछ—गैर के लिये! गैर के साथ! मेरी खुशी से खुश होता था। काहे! क्योंकि मैं गैर!’’
‘‘अरे, नहीं रे! यू आर लाइक माई ओन सन ।’’
‘‘तो सन ने बिग डैडी की दुरगत पर तड़प कर दिखाया, गलत किया! उसकी दुरगत का बदला उतारने की ठानी, जिम्मेदार भीड़ूओं का वैसीच कचरा करने की ठानी जैसा उन्होंने तुम्हेरा किया, गलत किया! सन ने अपना फर्ज समझ कर कुछ किया तो क्या बिग डैडी पर अहसान किया!’’
‘‘अरे, नहीं रे, पण एक्सपोज हो जाता तो साला प्राब्लम तो होता न तेरे वास्ते! साला फिर अन्दर होता ।’’
‘‘हुआ तो नहीं!’’
‘‘गॉड आलमाइटी सेव किया। मैं साला इसी संडे जाता है इस्पेशल कर के सेंट फ्रंासिस चर्च में बड़े वाला कैंडल जलाने तेरे वास्ते ।’’
‘‘जाना। मेरे जैसी खोटी तकदीर वाले भीड़ू को दुआओं की सख्त जरूरत है ।’’
‘‘अब खोटी काहे! आजाद है न!’’
‘‘पता नहीं कब तक!’’
‘‘जब तक आसमानी बाप है, उस की रहमत की छतरी सिर पर है, तब तक। उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिये, जीते, उम्मीद पर दुनिया कायम है। कोई दुश्वारी आन खड़ी होती है तो समझ आसमानी बाप इम्तहान लेता है। कोई प्राब्लम साला फार ऐवर नहीं होता। नो?’’
‘‘यस ।’’
‘‘तो फिर क्या फैसला है तेरा? उस फोन करने वाले का फिर फोन आयेगा, क्या जवाब देने का?’’
‘‘नक्की बोलने का। नहीं मांगता। ऐन फाइनल करके बोलने का ।’’
‘‘वो तो बोलेगा। उसका मोबाइल नम्बर तो नोट कर ले!’’
‘‘काहे कू! जब काम को नक्की बोला तो क्या मेरे को फिरेंड बनाने का उस भीड़ू को!’’
एडुआर्डो जोर से हँसा।
‘‘कट करता है, जीते ।’’—फिर बोला।
‘‘अपना खयाल रखना, डैडी ।’’
‘‘बरोबर ।’’
गाइलो ने जीतसिंह की खोली में कदम रखा।
गाइलो कुछ दुबला लग रहा था लेकिन चहक रहा था। चार महीने पहले जनवरी में दो बार वो बुरी तरह ठुका था और दोनों बार ठुकाई की वजह जीतसिंह था। पहले बड़ा बटाटा नाम के एक मवाली ने जीतसिंह का कोई पता निकलवाने के लिये उसे धुन दिया था, उस धुनाई से अभी वो उबरा नहीं था कि—जीतसिंह की दरख्वास्त पर—फरार होने की कोशिश कर रहा था तो पुलिस ने थाम लिया था और फिर इन्स्पेक्टर गोविलकर ने अपने तारदेव थाने में उसे ऐसी मार लगायी थी कि वो त्राहि-त्राहि कर उठा था, इस हद तक कि लिखत में ये बयान देने को तैयार हो गया था कि उसने कोर्ट में झूठी गवाही दी थी, किसी मुलाहजे में जीतसिंह को बचाने के लिये शिनाख्ती लाइन अप में निसंकोच उसकी शिनाख्त कर चुकने के बाद कोर्ट में उस शिनाख्त से मुकर गया था। वो ऐसा बयान दर्ज न कराने की जिद बरकरार रखता तो जरूर इन्स्पेक्टर गोविलकर उसे थाने में ही मार डालता। बाद में करिश्मा ही हुआ था कि इन्स्पेक्टर गोविलकर के आला अफसर डीसीपी प्रधान ने खुद उस का वो बयान नष्ट कर दिया था और यूं झूठे गवाह गाइलो की जान छूटी थी और जीतसिंह आखिर डकैती के केस में सन्देहलाभ पा कर रिहा हुआ था।
गाइलो टैक्सी ड्राइवर था और अपने जैसे ही चन्द और टैक्सी ड्राइवर दोस्तों के साथ जम्बूवाडी, धोबी तलाव के इलाके में एक चाल में रहता था।
‘‘गाइलो!’’—जीतसिंह हर्षित भाव से बोला—‘‘अरे, आ न! चौखट पर काहे खड़ेला है?’’
‘‘आता है ।’’—गाइलो मुस्कराता हुआ बोला।
‘‘आ, बैठ ।’’
‘‘बैठता है ।’’
‘‘इधर कैसे आ गया?’’
‘‘तेरे से मिलना मांगता था। उधर विट्ठलवाडी, कालबा देवी वाले तेरे नये ठीये पर पहुंचा तो फिलेट को ताला लगा पाया। पड़ोस से मालूम किया तो कोई बोला ‘पुराने घर जाता था’ बोल के गया, लौटने का कुछ बोल के न गया। तब मेरे को फीलिंग आया कि मेरे को इधर टिराई करने का था ।’’
‘‘ऐन फिट फीलिंग आया। मैं है न इधर! नहीं?’’
‘‘हां। बरोबर ।’’
‘‘अब बोल, चाय पियेगा?’’
‘‘पियेगा, पण तेरे को कुछ नहीं करने का ।’’
‘‘बोले तो?’’
‘‘नुक्कड़ पर जो चायवाला है, मैं उसको बोल के आया दो चाय इस्पेशल कर के इधर भेजने का था। आता होयेंगा ।’’
‘‘पण काहे...’’
‘‘पैसा तू देना न छोकरे को!’’
‘‘ओह! फिर ठीक है। अभी बोल कैसा है?’’
‘‘फिट है बाई दि ग्रेस आफ गॉड आलमाइटी एण्ड एक्टिव हैल्प आफ जीतसिंह ताला-चाबी वाला ।’’
‘‘फिट ही होना मांगता है। पण तू बहुत टेम से, बोले तो दो हफ्ते से, मुम्बई में नहीं था! मैंने आजू बाजू बहुत पूछा, तेरा डिरेवर दोस्त शम्सी मिला, अबदी मिला सभी बोला तू किधर बाहर। पण किधर, क्यों, किसी को मालूम नहीं था ।’’
‘‘डिकोस्टा को मालूम था ।’’
‘‘वो तो मिला नहीं!’’
‘‘तभी ।’’
‘‘पण तू था किधर?’’
‘‘लॉग हॉल पर था ।’’—गाइलो शान से बोला—‘‘आल इन्डिया परमिट वाली टैक्सी चलाता था, एक फॉरेन टूरिस्ट कपल को महाराष्ट्र दर्शन कराता था। टू वीक्स तो नक्को, पण ट्वैल्व डेज बाहर था ।’’
‘‘अरे, गाइलो, आल इंडिया परमिट वाला टैक्सी तेरे पास किधर है ।’’
‘‘किधर है! नहीं है। दूसरे डिरेवर भीड़ू का पकड़ा। उसको अपना लोकल टैक्सी पकड़ा कर। साला फिरकी टूर। साला डे एण्ड नाइट एकीच। ट्वैल्व डेज में साला फाइव थाउजेंट केएम गाड़ी चलाया। पैट्रोल निकाल कर, टैक्सी के मालिक को भी थोड़ा थैक्यू रोकड़ा देकर साला ट्वेंटी सब से बड़े वाला गान्धी कमाया। ऊपर से जानता है पार्टिंग टेम में फिरंगी लोग मेरे को कितना टिप दिया?’’
‘‘कितना?’’
‘‘तू बोल, जीते, गैस कर ।’’
‘‘पांच सौ! हजार!’’
‘‘अरे, पांच हज्जार! फाइव थाउ!’’
‘‘कमाल है! तो अभी अपने गाइलो की अंटी में पच्चीस हजार रुपिया!’’
‘‘नहीं ।’’—वो संजीदा हुआ।
‘‘नहीं?—जीतसिंह की भवें उठीं।
‘‘नहीं। जीते, यही तो वो सैड इस्टोरी है जो मैं तेरे से शेयर करने का वास्ते इधर आया ।’’
‘‘ओह! बोले तो...’’
तभी छोकरा चाय ले कर आया।
जीतसिंह ने उसे दस का नोट देकर विदा किया। पीछे दोनों दोस्तों ने चाय के गिलास थामे।
‘‘साला कितना महँगाई है!’’—गाइलो बड़बड़ाया—‘‘एक तो एक ठो चाय का पांच रुपिया। दूसरा साला क्वांटिटी में इतना कम...’’
‘‘पण बनी बढ़िया है ।’’—जीतसिंह बोला—‘‘ऐन चखाचख। शिकायत छोड़। पी के देख ।’’
गाइलो ने चाय का एक घूंट भरा और फिर तृप्तिपूर्ण भाव से सहमति में सिर हिलाया।
‘‘अभी बोल’’—जीतसिंह बोला—‘‘क्या सैड स्टोरी है?’’
‘‘बोलता है। बोलने का वास्ते ही आया। पण पहले तू बोल, इधर चिंचपोकली में क्या करता है? इधर काहे बैठेला है?’’
‘‘क्योंकि अब मैं इधरीच रहने का ।’’
‘‘क्या! क्या बोला?’’
‘‘यही घर है मेरा। जैसे पहले सालों से था, वैसे अब आगे भी होगा ।’’
‘‘क्या बात करता है! और वो कालबा देवी का फैंसी फिलेट...’’
‘‘किराये का है। ये खोली मेरा अपना है। उस फ्लैट का इस महीने का किराया चुकता है इसलिये अभी उधर आता जाता रहने का, महीने के आखिर में उधर से नक्की करने का ।’’
‘‘पण काहे?’’
‘‘भाड़ा बाइस हजार। नहीं भरना मांगता। मेरे को सेंविग करना मांगता है ।’’
‘‘फट्टा है ।’’
‘‘मेरे को इधर कोई प्राब्लम नहीं ।’’
‘‘फेंक रहा है ।’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘रोकड़े का पिराब्लम तेरे को?’’
‘‘अभी नहीं है। आगे होयेंगा ।’’
‘‘काहे?’’
‘‘देखना। तू भी इधर है, गाइलो, मैं भी इधर है, देखना ।’’
‘‘पण...’’
‘‘नक्की कर न! अभी बोल, सैड स्टोरी बोल अपना ।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘हां। वो जो पच्चीस सब से बड़े वाला गान्धी खड़ा किया, किधर गया वो?’’
‘‘जीते, लम्बी कहानी है ।’’
‘‘टेम है न मेरे पास! तेरे पास भी होयेंगा ही, तभी तो इधर आया!’’
‘‘वो तो है बरोबर!’’
‘‘तो बोल!’’
‘‘बोलता है। सुन ।’’—उसने चाय का गिलास एक तरफ रखा, कुछ क्षण खामोश रहा—जैसे सोचता हो किधर से शुरू करे—फिर तनिक नर्वस, तनिक धीमे, लेकिन सुसंयत स्वर में बोला—‘‘वो डिकोस्टा—मेरा फिरेंड, मेरा फैलो टैक्सी डिरेवर, मेरा जात भाई—परसों रात मेरे को एक जुए की फड़ में ले के गया...’’
‘‘क्या! तू जुआ खेलता है!’’
‘‘अरे नहीं, बाप। नहीं खेलता। पण नवें कमाये रोकड़े का जोश! पॉकेट में साला ट्वेंटी फाइव थाउ का हीट! फिर आइडिया सरकाने वाला अपना करीबी डिकोस्टा! सोचा, हाफ दि अमाउन्ट का रिस्क लेता है ।’’
‘‘लिया?’’
‘‘लिया न! तभी तो सैड इस्टोरी बना ।’’
‘‘आधा रोकड़ा गया न!’’
‘‘सारा गया ।’’
‘‘पण अभी तो तू बोला तेरे को आधी रकम का, साढ़े बाहर हजार रुपये का रिस्क लेने का था!’’
‘‘अरे, सेफ तो क्या हाफ, क्या फुल, टोटल अमाउन्ट था, पण पंगा, बहुत बड़ा पंगा, तो कोई और ही पड़ा ।’’
‘‘तू पहेलियां बुझाता है ।’’
‘‘तू टोकता ज्यास्ती है ।’’
‘‘सारी। अभी टोकाटाकी नक्को। पण एकाध बात फिर भी बोल, पहले बोल ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘फड़ किधर थी?’’
‘‘पनवेल में। उधर एक मोटर गैराज था जो शाम को छ: बजे तक बन्द हो जाता था। उस गैराज के ऊपर फस्र्ट फिलोर पर एक रूम था, पहुंचने के लिये बैक से लोहे की गोल सीढ़ी थीं फायर एस्केप का माफिक। काफी बड़ा रूम था। नाइस एण्ड कम्फर्टेबल। फर्श पर ये मोटा कार्पेट, ए सी, दि वक्र्स ।’’
‘‘कितने भीड़ू?’’
‘‘सात उधर पहले से थे पण फड़ में शामिल खाली छ:। बाद में मालूम पड़ा सातवां भीड़ू फड़ का आर्गेनाइजर था, जीत का टैन पर्सेंट कलैक्ट करता था जो कि फड़ की और उधर की सिकोटरी की फीस थी ।’’
‘‘सिकोटरी क्या?’’
‘‘भई, उधर कोई पंगा नहीं होयेंगा, पुलिस का रेड नहीं होयेंगा, वगैरह ।’’
‘‘ओह! सिक्योरिटी ।’’
‘‘वही तो मैं बोला!’’
‘‘ठीक! ठीक! आगे?’’
‘‘आगे! हां। मैं बोला न, फड़ में छ: भीड़ू उधर पहले से थे, दो मैं और डिकोस्टा पहुंच गये तो आठ हो गये ।’’
‘‘डिकोस्टा भी फड़ में शामिल? जुए में शामिल?’’
‘‘खाली टैन मिनट्स। फिर नक्की किया ।’’
‘‘किधर गया?’’
‘‘मालूम नहीं। मेरे को तो टैन मिनट्स के बाद वो उधर न दिखाई दिया ।’’
‘‘दलाल था? फड़ के लिये, उधर ऐसे भीड़ू खींचकर लाता था जिन की अंटी में रोकड़ा और जिनको टोपी पहनाना इजी!’’
‘‘जीते, वो मेरा फिरेंड, मेरा जातभाई, ये सब न होता तो मैं यही समझता पण वो मेरे साथ ऐसा कैसे करना सकता! कैसे मेरे को—अपने फिरेंड को, अपने जातभाई को—मूंडने का वास्ते बकरा बनाना सकता!’’
‘‘कलयुग है। क्या पता चलता है!’’
‘‘बरोबर बोला तू। पण मैं मुंडा किधर! मैं तो साला तीन लाख जीत गया!’’
‘‘क्या!’’
‘‘बाई दि ग्रेस आफ गॉड ऐसा पत्ता पड़ा, ऐसा अगेन एण्ड अगेन एण्ड अगेन पत्ता पड़ा कि मैं साला जीता, फिर जीता, फिर जीतता ही चला गया ।’’
‘‘कमाल है! फिर तो अपना डिकोस्टा स्ट्रेट भीड़ू!’’
‘‘टोटल इस्ट्रेट भीड़ू। नहीं भी तो अपुन का वास्ते बरोबर ।’’
‘‘गेम कौन सा था?’’
‘‘तीन पत्ती ।’’
‘‘कब तक चला?’’
‘‘मालूम नक्को। मैं दो बजे नक्की किया। वन थर्टी पर ही उठ खड़ा हुआ था जब कि मैं साला तीन पेटी अप था पण फड़ वाले भीड़ू बोले यूं एकाएक उठ के चल देना गलत ।’’
‘‘क्या करने का था? पहले नोटिस देने का था?’’
‘‘यहीच बोले वो लोग। सब बोले सडनली नक्की करना गलत। मेरे को उन को रिकवरी का चांस देने का था ।’’
‘‘फिर?’’
‘‘मैं दिया। साला हाफ एन आवर का नोटिस भी दिया कि टू एएम पर मेरे को उधर से आउट मांगता था ।’’
‘‘फिर?’’
‘‘हाफ एन आवर में सेवेंटी फाइव थाउ और जीत गया ।’’
‘‘अरे!’’
‘‘प्लस ट्वेंटी फाइव थाउ मेरा अपना। दो बजे मैं चार पेटी के साथ उधर से नक्की किया। पीछे फड़ मेरे कू नहीं मालूम कब तक चलने का था, कब तक चला ।’’
‘‘ठीक! ठीक! पण गाइलो, तूने उधर चार लाख रुपया बनाया, ये सैड स्टोरी है या ग्लैड स्टोरी है?’’
‘‘सैड इस्टोरी है। अभी आगे आता है। वो क्या है कि टैक्सी में मेरा एक सूटकेस था जिस में मेरे कपड़े थे पण वो हार्डली हाफ फुल का। मैंने रोकड़ा सूटकेस में बन्द किया, सूटकेस को डिकी में बन्द किया और उधर से निकल पड़ा। वापिसी में मैंने सायन पनवेल हाइवे पकड़ा क्योंकि आया भी उधरीच से था, ठाणे क्रीक क्रॉस किया तो आगे एक बिल्कुल उजाड़ स्ट्रेच, जहां कि मेरे को डाकू पड़ गये ।’’
‘‘क्या!’’
‘‘बड़ा गाड़ी था, दो भीड़ू थे, दोनों सिर पर हैट पहने थे और मुंह पर आंखों के ऐन नीचे तक काला रूमाल बाँधे थे। पहले उन्होंने मेरे को एक फायर कर के डराया फिर अपनी गाड़ी आगे लाकर मेरा टैक्सी को इंटरसेप्ट किया। मेरा को गाड़ी रोकना पड़ा। फिर लाइक ए फ्लैश मैं उन दोनों के कब्जे में। गन वाले की गन की नाल मेरी कनपटी पर। बोला, माल किधर बोल वर्ना बुलेट डालता है मगज में। मेरे को बोलना पड़ा। उसके साथी दूसरे भीड़ू ने मेरा सूटकेस डिकी से निकाल के काबू में कर लिया। फिर दोनों अपनी गाड़ी में सवार हुए और निकल लिये। मैं साला ईडियट का माफिक उधर अपना टैक्सी में बैठा सोचता था कि सपना था अभी टूट जायेगा। पण साला सपना किधर था! सपना तो थाईच नहीं ।’’
‘‘तो ये है अपने गाइलो की सैड स्टोरी?’’
‘‘हां ।’’
‘‘थे कौन वो लोग?’’
‘‘लुटेरे थे ।’’
‘‘वो तो थे पण उन्हें कैसे खबर थी कि तेरे पास रोकड़ा था?’’
‘‘क्या पता कैसे थी, पण थी बरोबर। उनके इस्टाइल से ही साफ पता लगता था कि मेरे पास के रोकड़े की उन्हें इस्पेशल करके खबर थी ।’’
‘‘लूट की कोई आम वारदात होती तो वो तेरी जेबें टटोलते, तेरा पर्स काबू में करते। गले में क्रॉस पर क्राइस्ट के इमेज वाली सोने की जंजीर पहनता है, हाथ में सोने की अंगूठी पहनता है, वो काबू में करते और फिर पूछते टैक्सी में और क्या माल था!’’
‘‘ऐग्जैक्टली! जीते, जब मेरे को मालूम पड़ा कि मैं कोई सपना नहीं देख रयेला था तो ऐग्जैक्टली यहीच फीलिंग साला मेरा मगज में आया। मैं साला उधर फड़ से उठ के खड़ा हुआ, उधर से नक्की किया कि डाकू पड़ गये ।’’
‘‘फड़ से किसी ने किसी को फोन किया कि तेरे पास चार पेटी रोकड़ा, तेरे को रास्ते में थामने का था!’’
गाइलो पहले ही इंकार में सिर हिलाने लगा।
‘‘ऐसा नहीं हो सकता?’’
‘‘हो सकता। बरोबर हो सकता। सौ टंका बरोबर हो सकता पण हुआ नहीं ।’’
‘‘हुआ नहीं!’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘तेरे को क्या मालूम!’’
‘‘मेरे को ही मालूम बाई दि ग्रेस आफ गॉड आलमाइटी ।’’
‘‘क्या? क्या मालूम?’’
‘‘जीते, मैंने गन वाले को पहचाना ।’’
‘‘तू बोलता है उसके सिर पर हैट था, मुंह पर नकाब था...’’
‘‘फिर भी पहचाना ।’’
‘‘कमाल है! कैसे?’’
‘‘साला थोबड़े से ही पहचान नहीं होता, पहचान के और भी जरिये होते हैं ।’’
‘‘बोले तो!’’
‘‘गन वाले के राइट हैण्ड की मिडल फिंगर का एक पोर गायब था ।’’
‘‘पण उस हाथ में तो गन...’’
‘‘लैफ्ट हैण्ड में था। साफ मालूम पड़ता था कि लेफ्टी था। राइट हैण्ड को मुट्ठी में बन्द कर के रखे था, जरूर इसी वास्ते कि मेरे को उसकी मिडल फिंगर न दिखाई दे। पण जब मेरा टैक्सी से बाहर निकलने को हैंडल पकड़ कर डोर को ओपन करता था तो मैं देखा न उस का ओपन राइट हैंड! साला वन थर्ड मिडल फिंगर थाइच नहीं ।’’
‘‘वो खब्बू था, उसके दायें हाथ की बीच की उंगली का एक पोर नहीं था, इससे तूने सूरत देखे बिना भी गन वाले को पहचाना?’’
‘‘और मैं क्या बोलना मांगता है!’’
‘‘कौन था?’’
‘‘जुए की फड़ का आर्गेनाइजर!’’
‘‘ओह! और दूसरा?’’
‘‘दूसरा साला काला चोर हो। वो तो डिरेवर था, फड़ के आर्गेनाइजर भीड़ू का गाड़ी ड्राइव करता था ।’’
‘‘हूं। तो तेरे को आर्गेनाइजर ने लूटा!’’
‘‘बरोबर। और किसी को इतनी जल्दी मालूम होइच नहीं सकता था कि मेरे पास चार पेटी रोकड़ा था ।’’
‘‘क्यों किया उसने ऐसा?’’
‘‘जैलसी में किया, खुन्नस में किया और क्यों किया? एक नवां भीड़ू फड़ में आया, मोटा माल खड़ा करके नक्की कर गया, साले को हजम न हुआ। हजम न हुआ कि एक मामूली टपोरी टैक्सी डिरेवर इतना रोकड़ा पीट के ले गया। उसको लगा वापिस छीन लेना ईजी। और साला ठीक लगा ।’’
‘‘हूं। तो ये है तेरी सैड स्टोरी!’’
‘‘बोले तो हां। मेरा साला चार पेटी...’’
‘‘तेरा साला पच्चीस हजार ।’’—जीतसिंह के स्वर में विनोद का पुट आया।
‘‘क्या बोला?’’
‘‘गाइलो, तेरा तो उसमें पच्चीस हजार ही था न! बाकी समझ जैसे एकाएक आया, वैसे एकाएक चला गया ।’’
‘‘वो तो तू बरोबर बोला पण...’’
‘‘बाकी रही पच्चीस हजार की बात तो वो मैं देता है तेरे को ।’’
‘‘तू काहे कू?’’
‘‘अरे, तेरा ब्रदर जैसा फिरेंड तेरे नुकसान की भरपाई करता है न!’’
‘‘वो तो मैं थैंक्यू बोलता है फ्राॅम दि कोर आफ माई हार्ट पण, जीते, मैं क्या इस वास्ते इधर आया!’’
जीतसिंह हड़बड़ाया, कुछ क्षण उसने अवाक् गाइलो का मुंह देखा।
गाइलो ने भावहीन ढंग से उससे निगाह मिलाई।
‘‘कुछ और है तेरे मगज में?’’—आखिर जीतसिंह बोला।
‘‘है न!’’
‘‘फिर तो सॉरी बोलता है। बोल, मैं सुनता है ।’’
‘‘जीते, कल अक्खा दिन मैंने उस फड़ के आर्गेनाइजर करके भीड़ू का जानकारी निकालने में लगाया। टैक्सी डिरेवर्स से कॉन्टैक्ट किया, भाई लोगों के प्यादों से कॉन्टैक्ट किया, यहां तक कि पनवेल थाने के एक हवलदार को भी सैट किया। मेरा टेम और एफर्ट वेस्ट न गया, आखिर मेरे को मालूम पड़ा कि वो भीड़ू कौन था!’’
‘‘कौन था?’’
‘‘उस का नाम मंगेश गाबले है और जुए की फड़ आर्गेनाइज करना उस का असल धन्धा नहीं है। उसका खास जानकार जो मेरे को मिला—जिस के जरिये कि मैंने आगे पुलिस वाले को सैट किया था—वो बोलता है कि वो कभी कभार का सिलसिला है जो वो खास फिरेंड्स के लिये, उनके कहने पर आर्गेनाइज करता है ।’’
‘‘असल धन्धा क्या है?’’
‘‘बोलता है। पण पहले ये सुन कि उस फड़ वाले ठीये का कल शाम को मैंने फिर चक्कर लगाया था ।’’
‘‘गाइलो, बहुत हौसला किया!’’
‘‘डिकोस्टा और अबदी के साथ। इस इन्तजाम के साथ कि कोई पंगा पड़े तो फौरन थाने खबर हो ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘कल उधर लोहे की सीढ़ियों पर एक गन वाला भीड़ू बैठेला था जो साफ मालूम पड़ता था कि उधर का रखवाली करता था। मैं बोला फड़ में जाने का तो बोला वाट फड़। डिकोस्टा जवाब दिया, बताया वाट फड़, ये भी बोला कि पिछले रोज शाम आठ बजे भी हम उधर आयेले थे। साला हरामी फिर बोला वाट फड़! मैं बोला जो मंगेश गाबले आर्गेनाइज करता था, बोला उधर इस नाम का कोई भीड़ू थाइच नहीं। मैं बोला ऊपर तो जाने दे, देख के तो आने दे, बोला ऊपर ताला था। डिकोस्टा उसको बोला फिर तू उधर क्या करता था, साला घौंचू बोला तुम्हेरे को क्या!’’
‘‘बोले तो उस भीड़ू को उम्मीद थी कि तू उधर चक्कर लगायेगा ।’’
‘‘यहीच मेरे मगज में भी आया ।’’
‘‘फड़ टैम्परेरी करके हटा दी गयी थी या चालू थी और तेरे को पास नहीं फटकने देने का था?’’
‘‘काहे! मेरे को मालूम था कि मेरे को लूटने वाला कौन था, उस को तो नहीं मालूम था कि मेरे को मालूम था!’’
‘‘ये बात भी ठीक है। बोले तो उसने एहतियात बरती!’’
‘‘क्या पता क्या किया पण हुआ यूँ कि उधर जाना किसी काम न आया ।’’
‘‘आता भी तो किस काम आता? जा के उस आर्गेनाइजर भीड़ू को मुंडी से थाम लेता और बोलता मेरा रोकड़ा निकाल?’’
‘‘जीते, मैं ऐसा डेयिंरग भीड़ू होता तो लुटता ही नहीं ।’’
‘‘तो फड़ में जा के तेरे को क्या हासिल होता?’’
‘‘मेरे को उसका रियेक्शन देखना मांगता था। मैं देखना मांगता था कि मेरे को उधर पहुंचा देख कर वो कैसे रियेक्ट करता था!’’
‘‘क्या फायदा होता?’’
‘‘कनफर्म होता कि मेरे को लूटने वाला वही भीड़ू था ।’’
‘‘कैसे? कैसे कनफर्म होता?’’
‘‘एक पिलान था न मेरे मगज में!’’
‘‘क्या? क्या प्लान था?’’
‘‘वो मिल जाता तो मैं उसको हिन्ट ड्रॉप करता ।’’
‘‘क्या? कि तेरे को मालूम था कि वोहीच भीड़ू था तेरे को लूटने वाला?’’
‘‘और ये कि मैं उसके असल धन्धे से भी वाकिफ था ।’’
‘‘असल धन्धा!’’
‘‘फैंस जैसा ।’’
‘‘फेंस जैसा, फेंस वाला नहीं?’’
‘‘नक्को ।’’
‘‘असल धन्धा क्या?’’
‘‘जीते, ये भीड़ू स्मगलिंग के माल की खरीद फरोख्त करने वालों के बीच में...बोले तो...बि...बि...बिचौलिये का काम करता है ।’’
‘‘फेंस ही हुआ न!’’
‘‘नहीं। फेंस का काम होता है चोरी का माल औने पौने में खरीदना और फिर गिराहक तलाश कर के उसे फैंसी प्राइस पर बेचना और मोटा रोकड़ा खड़ा करना। ये भीड़ू आर्गेनाइजर है, आर्गेनाइज करता है। ये माल को हैंडल नहीं करता, टच भी नहीं करता, उस की शक्ल भी नहीं देखता, खाली उसके बदले के रोकड़े की ये बाजू से वो बाजू, वो बाजू से ये बाजू टिरांस्फर आर्गेनाइज करता है। रोकड़े को भी न हैंडल करता है, न उस का शक्ल देखता है ।’’
‘‘गाइलो, पल्ले तो मेरे कुछ भी नहीं पड़ रहा पण इतना फिर भी मेरे मगज में आ रहा है कि जो कहता है करना मांगता था, सच्ची में कर चुकता तो डिकोस्टा तेरी लाश ही उधर से कलैक्ट करता। या वो भी लाश बना होता ।’’
‘‘मैं प्रीकाशन लिया न!’’
‘‘क्या? क्या प्रीकाशन लिया?’’
‘‘तेरे मगज से निकल गया कि अबदी भी हमारे साथ। अगर उधर कोई गलाटा होता तो वो इमीजियेट कर के उधर पुलिस को काल करता और वो जो हवलदार मैं बोला मैं सैट किया—दया खडसे नाम है—ये काम में अबदी का हैल्प करता ।’’
‘‘खता खाता ।’’
‘‘क्या खाता?’’
‘‘बोले तो अच्छा हुआ तेरे वास्ते कि तेरा उधर उस फड़ के आर्गेनाइजर भीड़ू...क्या नाम बोला था?’’
‘‘मंगेश गाबले ।’’
‘‘हां, मंगेश गाबले, उससे आमना सामना न हुआ। वर्ना, गाइलो, तेरा अंजाम बुरा होता। साथ में डिकोस्टा और अबदी का भी ।’’
‘‘तू मेरे को डरा रहा है ।’’
‘‘जब टेम खराब हो तो डर के ही रहना चाहिये ।’’
‘‘किधर है टेम खराब! टेम खराब तो जनवरी में था जब इन्स्पेक्टर गोविलकर करके राक्षस तारदेव थाने में बैठेला था। जब नेता लोगों का भड़वा बड़ा बटाटा चौतरफा कहर ढाता था ।’’
‘‘वो डर फिनिश तो अभी तू शेर! बब्बर शेर!’’
‘‘अरे, जीते, छोड न वो किस्सा! मेरा फिरेंड्स है न मेरा साथ! इस्पेशल करके फिरेंड जीतसिंह ताला-चाबी है न मेरा साथ! जीसस सेव करता है न! नो?’’
‘‘यस ।’’
‘‘गुड। अभी तू मेरे कू आगे बोलने दे ।’’
‘‘बोल। मैं सुनता है बरोबर ।’’
‘‘पहले मैं, जैसा कि मैं जानकारी निकाला, उस मंगेश गाबले भीड़ू का बिचौलिये वाला फैंसी, इस्पेशल, काम एक्सप्लेन करता है। जीते, जो सैट अप मेरा पकड़ में आया, उससे मालूम पड़ता है कि उसके जरिये उन्हीं आइटम्स का टिरेड आर्गेनाइज होता है जो बल्क में कम होती हैं पण कीमत में चोखी होती हैं, जिनका एक ही बिरीफकेस भरो तो माल लाखों का, बल्कि करोड़ों का। ऐसी आइटम बोले तो कौन सा होना सकता!’’
‘‘तू ही बोल ।’’
‘‘डायमंड्स। हाई एण्ड मोबाइल फोंस। घड़ियां। नॉरकॉटिक्स!’’
‘‘नॉरकॉटिक्स भी?’’
‘‘वो तो इस्पेशल करके। जीते, नाइन्टी नाइन पर्सेंट प्योर, अनकट, नम्बर फोर, टाइगर ब्रांड हेरोइन का रिटेल प्राइस कोई एक करोड़ रुपया पर केजी बोला मेरे को। होलसेल प्राइस भी थर्टी और फॉर्टी लाख के बीच। एक बिरीफकेस में फिफ्टीन केजी रखना भी पासिबल हो तो बिरीफकेस में आलमोस्ट पांच करोड़ का माल। एस्टेसी का एक गोली साला रिटेल में छ: सौ का बिकता है। अभी सोच, एक नार्मल साइज के बिरीफकेस में कितना एस्टेसी पैक हो सकता है! फिर साला कोकीन है, फॉक्सी है, एलएसडी है, जीएचबी है, सब साला एक्सपैंसिव ड्रग्स ।’’
‘‘गाइलो, ड्रग्स का कमाल का जानकारी निकाला तूने!’’
‘‘स्मगलर्स का वास्ते ऐसा ही अट्रैक्टिव आइटम स्विस वाच है। साला वन ठो दो लाख का आता है, पांच लाख का आता है। अभी सोच, एक बिरीफकेस में कितना वाचिज आना सकता!’’
जीतसिंह ने संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया।
‘‘फिर हाई एण्ड मोबाइल! मैं सुना कोई वरतू करके एकीच मोबाइल पांच करोड़ का। चालू हाई क्लास फोन भी नो लैस दैन फॉर्टी थाउजेंट। साला एक बिरीफकेस भरो, करोड़ों का माल। ईजी टु कैरी, ईजी टु हैण्डल। और अभी टॉप का आइटम तो डायमंड्स है, साला शनील की एकीच थैली में करोड़ों का माल। एक बिरीफकेस में कितना थैली आना सकता?’’
‘‘तेरा ब्रीफकेस पर बहुत जोर है। ऐसा क्यों, गाइलो?’’
‘‘क्योंकि हर डील में मीडियम बिरीफकेस। माल बिरीफकेस में, बदले में पेमेंट भी बिरीफकेस में ।’’
‘‘करोड़ों का पेमेंट एक ब्रीफकेस में कैसे आयेगा?’’
‘‘पेमेंट ज्यास्ती तो डॉलर में। पाउन्ड में। यूरो में। वान्दा किधर! बोले तो ये भी कंडीशन कि एक टेम में इतना ही माल फारवर्ड करने का जितने का पेमेंट बिरीफकेस में रखा जा सके ।’’
‘‘कमाल है, यार! ऐसी खुफिया, ऐसी टॉप की जानकारी तू कैसे निकाल पाया, वो भी इतने थोड़े टेम में!’’
‘‘सब अभी कल और आज में ही नहीं मालूम किया। इस सिस्टम का थोड़ा बहुत हिंट मेरे को पहले से भी था पण पहले मैंने कभी उसका नोटिस न लिया ।’’
‘‘पहले से कैसे था?’’
‘‘ऐसी बातें नोटिस में आने का वास्ते बेवड़े का अड्डा बैस्ट प्लेस। भीड़ू लोग साला उधर ड्रिंक करता है, फिर कई कुछ बोलता है, लापरवाह हो के बोलता है तो कोई पतले कानों वाला करीब हो तो सुनता है। मैं है न साला पतले कानों वाला! और पहले दो तीन टेम मैं करीब भी था ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘पण इस सिस्टम को समझने का इस्पेशल करके चानस मेरा कल लगा जब मैं फिरेंडस के साथ एडवर्ड सिनेमा के बाजू के अपने फेवरेट बेवड़ा अड्डा पर बाटली मारता था ।’’
‘‘फ्रेंड्स कौन?’’
‘‘वहीच जो तेरे भी फिरेंड्स। अपना डेविड परदेसी, डिकोस्टा, शम्सी, पक्या ।’’
‘‘अबदी नहीं?’’
‘‘नहीं। हाजी है न! दारू नहीं पीता ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘उधर बाजू की टेबल पर बैठा दो भीड़ू खुसर फुसर में उसी सैट अप को, उसी सिस्टम को डिसकस करता था। जो भीड़ू ज्यास्ती बोल रहा था, वो ऐन मेरी पीठ पीछे था, इस वास्ते मैं साला सब सुना और जो मेरे को पहले नहीं मालूम था वो भी तब मालूम पड़ गया ।’’
‘‘बड़ा इत्तफाक हुआ! जो जानकारी तेरे को मांगता था वो इत्तफाक से, बिना तेरी किसी खास कोशिश के, तेरे हाथ लगी!’’
‘‘मैं इमीजियेट करके थैंक्यू बोला न गॉड आलमाइटी को!’’
‘‘पण तेरे को कोई हैरानी न हुई?’’
‘‘हैरानी काहे कू! वो साला बेवड़ा अड्डा। फेमस। रश वाला। उधर ऐसा कोई चानस लगना क्या बड़ी बात!’’
‘‘वो लोग क्यों डिसकस करता था? वजह क्या थी डिसकशन की?’’
‘‘ठीक से इस बात की तरफ ध्यान नहीं दिया था मैं। पण इतना फिर भी लगा कि कोई इस्कीम सोचता था उधर माल पर या माल की पेमेंट पर हाथ साफ करने का। विशफुल थिंकिंग करता था ।’’
‘‘नतीजा क्या निकला?’’
‘‘मालूम नक्को। एक भीड़ू दूसरा भीड़ू को सब बताता था, शायद दूसरा भीड़ू कोई इस्कीम वर्क आउट करता जिसे वो किसी नैक्स्ट मीटिंग में डिसकस करते ।’’
‘‘क्या स्कीम?’’
‘‘क्या मालूम! कैसे मालूम होयेंगा! किसी इस्कीम का कोई जिक्र तो मैं सुना नहीं!’’
‘‘ठीक। चल माना तेरे को उस खास सैट अप की, उस स्पैशल सिस्टम की जानकारी हो गयी। हो गयी तो क्या हुआ? तेरा मकसद क्या है?’’
‘‘मेरे को उस साले हरामी से बदला निकालने का जो मेरा चार पेटी लूटा ।’’
‘‘कैसे निकालेगा बदला?’’
‘‘उसके उस इस्पेशल सिस्टम को हिट करके। उस में ऐसा फच्चर डाल के कि साला सिस्टम ही कण्डम हो जाये और उसका बिचौलिये का खास रोल ही फिनिश हो जाये ।’’
‘‘सिस्टम कैसे कण्डम हो जायेगा?’’
‘‘अरे, बाप, मगज से सोच न! माल और मनी का अदला बदली का एक सिस्टम ऐन स्मूथ करके चलता है, एक बार उसमें फच्चर पड़ जाये—या माल निकल जाये या रोकड़ा निकल जाये—तो कौन ढक्कन उस सिस्टम को फिर भी फालो करता रहेगा!’’
‘‘गाइलो, तू समझता है तू उस सिस्टम में फच्चर डाल सकता है?’’
‘‘मैं नहीं ।’’
‘‘तो?’’
‘‘हम ।’’
‘‘क्या!’’
‘‘हम। गाइलो और जीतसिंह। मेरा इन्फो, तेरा एक्सपरटाइज। इसी वास्ते तो मैं इधर तेरे पास बैठेला है ।’’
‘‘मैं समझा नहीं ।’’
‘‘मैं समझाता है न सब! एक्सप्लेन करता है न कम्पलीट इन्फो जो मैं कलैक्ट किया!’’
‘‘ठीक है, कर ।’’
‘‘अभी बोले तो जौहरी बाजार में एक पिराइवेट करके वाल्ट। नाम प्रीमियर वाल्ट सर्विस। बिग वाल्ट। फाइव हण्डर्ड लाक्र्स। मालूम?’’
‘‘मालूम ।’’
‘‘उधर बिना किसी पूछ-पड़ताल के लाकर मिलता है। मालूम?’’
‘‘मेरे को तो मालूम, पण तेरे को कैसे मालूम?’’
‘‘अरे, जो कल रात बेवड़े के अड्डे पर सुना, जो मैं पहले भी बोला कि थोड़ा-बहुत औना-पौना पहले भी थ्री-फोर टाइम्स सुना, उसकी वजह से मालूम ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘अभी तू आगे सुन। मेरे को एकीच बार में सब कहने दे ।’’
‘‘ठीक है, बोल ।’’
‘‘तूने वो वाल्ट देखा?’’
‘‘नहीं। खाली खबर है। किसी वजह से वो नवलानी करके जो पीडी भीड़ू है, वो बोला मेरे को ।’’
‘‘नवलानी!’’
‘‘शेखर नवलानी। जिसको सिन्धी डिपार्टमेंट स्टोर वाला सेठ मेरे पीछू लगाया। जो दो बार मेरा लाइफ सेव किया। एक बार धारावी के एक गोदाम में मवाली लोग मेरे को चेयर से बान्ध कर और मेरी गोद में टाइम बम रख के गया, तब नवलानी, जो मेरे पर वाच रखे था, मेरे को फालो करता था, अपने क्लायंट के आर्डर पर वो बम डिफ्यूज किया और मेरा लाइफ सेव किया। दूसरी बार कोलाबा में उसी सिन्धी सेठ के फ्लैट वाले तुलसी चैम्बर्स की एक लिफ्ट में मैं करंसी नोटों की चिता जला कर उस में जलता था, तब भी करिश्मा हुआ कि ऐन टेम पर उधर पहुंच कर मेरे को जल मरने से बचाया। गाइलो, वो डिटेक्टिव भीड़ू मेरी करतूतों का तेरे से भी बड़ा गवाह, वो तो डकैती ही नहीं, मेरे हाथों हुए कत्लों का भी गवाह पण मेरा हमदर्द! खैरख्वाह! कभी कुछ न बोला ।’’
‘‘सिन्धी सेठ के जिक्र पर याद आया, उसका तो अभी सैटरडे ईवनिंग को मर्डर हुआ न!’’
‘‘हां। पण तू अभी अपनी स्टोरी पर रह ।’’
‘‘बरोबर। मैं किधर था? हां...वो क्या है कि वो वाल्ट...जौहरी बाजार वाला...पिराइवेट करके...देखा मैं आज मार्निंग में ।’’
‘‘बाहर से! बाजार में खड़े होकर!’’
‘‘भीतर जा के। बेसमेंट में जा के ।’’
‘‘क्या बात करता है! तेरे को कौन जाने देगा!’’
‘‘कस्टमर को कौन रोकेगा! मैं साला पेईंग कस्टमर!’’
‘‘तू! तू!’’
‘‘बरोबर। आज मार्निंग में एक स्माल लॉकर भाड़े पर लिया न!’’
‘‘तू ने?’’
‘‘हां, मैंने। जब किसी से बदला निकालने का तो होमवर्क तो करने का न! अभी तू हैरान होना बन्द कर और मेरे से सुन मैं उधर क्या देखा, क्या नोट किया ।’’
‘‘सॉरी! बोल!’’
‘‘लॉकर लेने का उधर साला कोई पेपरवर्क नहीं है। फ्रूफ आफ रेजीडेंस, फ्रूफ आफ आइडेन्टिटी, नहीं मांगता। रिकार्ड के लिये लॉकर होल्डर का फोटू, नहीं माँगता। माँगता है नाम और पता खाली मनी रिसीट में नोट करने का वास्ते। नाम कुछ भी बोलो, ओके। पता कुछ भी बोलो, वान्दा नही। लॉकर उधर वीकली रैंट पर मिलता है, मंथली रैंट पर मिलता है, इयरली रैंट पर मिलता है। मैं वन मंथ का वास्ते एक स्माल लॉकर बुक किया। रैंट सिक्स हण्डर्ड रूपीज ।’’
‘‘क्या बात करता है! सरकारी बैंकों में तो मैं सुना इतना रैंट साल का चार्ज होता है!’’
‘‘मैक्सीमम एट हण्डर्ड। उधर जौहरी बाजार में शार्टर दि ड्यूरेशन, बिगर दि रैंट। सेम लॉकर का वन ईयर का रैंट ट्वेन्टी फाइव हण्डर्ड। सेम लॉकर का वन वीक का रैंट टू हण्डर्ड फिफ्टी। पण बिग प्राइस, बिग सार्विस। बिग सार्विस, बिग, बिग प्राइस। नो?’’
‘‘यस ।’’
‘‘ओपन ट्वेन्टी फोर आवर्स। आपरेशन परमिटिड ट्वेंटी फोर आवर्स। टू ओ क्लाक इन दि मार्निंग उधर जा के बोलेगा लॉकर आपरेट करने का, आनसर मिलेगा, यस सर, राइट सर। लॉकर किसी इस्पैशल पोजीशन में मांगता है इस्पैशल साइज और शेप में मांगता है, यस सर। वैसा लॉकर आलरेडी अवेलेवल नहीं तो रैडी करा के देगा खास कस्टमर का वास्ते ।’’
‘‘कमाल है!’’
‘‘जीते, अभी मैं वो लाख रुपिया का बात बोलता है जो बेवड़े के अड्डे से नोटिस में आया और जिस की बाबत मैंने वाल्ट सार्विस के एक क्लर्क को रोकड़ा चढ़ा कर फरदर इंफरमेशन कलैक्ट किया ।’’
‘‘तेरे पास इतना पैसा किधर से आया?’’
‘‘वो तू छोड़, वो इम्पार्टेंट नहीं ।’’
‘‘है न इम्पार्टेंट! बोल, कहां से आया?’’
‘‘जीते, छोड़ न!’’
‘‘तू छोड़। बोल, कहां से आया?’’
‘‘लोन लिया ।’’
‘‘किससे?’’
‘‘महालक्ष्मी में एक मनीलैंडर है। टैक्सी अपना हो तो डिरेवर्स को इन्टरेस्ट पर रोकड़ा देता है ।’’
‘‘कितना लिया?’’
गाइलो परे देखने लगा।
‘‘इधर मेरी तरफ देख!’’
उसने न देखा, वो निगाह चुराता रहा।
जीतसिंह ने उसका कन्धा थाम कर जबरन उसका मुंह अपनी तरफ किया।
‘‘कितना?’’—वो जिदभरे लहजे से बोला।
‘‘थर्टी ।’’—गाइलो बिना उससे निगाह मिलाये दबे स्वर में बोला।
‘‘ब्याज?’’
‘‘बोले तो?’’
‘‘अरे, इन्टरेस्ट?’’
‘‘पांच पर्सेंट ।’’
‘‘बस! साल का खाली पांच पर्सेंट?’’
‘‘महीने का ।’’
‘‘महीने का! देवा! तेरे को हर महीना ब्याज का डेढ़ हजार रुपया उस मनीलैंडर को देने का!’’
‘‘नहीं देने का ।’’
‘‘बोले तो?’’
‘‘फस्र्ट मंथ का इन्टरेस्ट वो पहले ही चार्ज किया। थर्टी का ट्वेन्टी एट एण्ड हाफ दिया। मेरे को रोकड़ा थोड़ा टेम के वास्ते मांगता है। वो थोड़ा टेम इज लैस दैन वन मंथ। अभी बोले तो और इन्टरेस्ट देने का चानस नहीं आने का ।’’
‘‘गाइलो, तू अक्खा ईडियट! तू टैक्सी भी खोयेगा ।’’
‘‘अरे, नहीं, रे ।’’
‘‘ऐसीच होगा। ऐन...’’
‘‘अभी छोड़ न! अभी वो हो गया न! तू मेरे को मेरा बात कम्पलीट करने दे, फिर तू नहीं बोलेगा मैं अक्खा ईडियट। फिर तू नहीं बोलेगा लोन ले कर मैं कोई बड़ा रिस्क लिया ।’’
‘‘बड़ा रिस्क लिया या छोटा रिस्क लिया, गैरजरूरी लिया। नहीं लेने का था ।’’
‘‘अभी सुन तो! फिरयाद करता है। जो बात सुनाने मैं इस्पेशल करके इधर आया, वो मेरे को नक्की तो करने दे!’’
असहाय भाव से गर्दन हिलाता जीतसिंह खामोश हो गया।
‘‘उधर दो इस्पेशल करके लॉकर हैं जो उस सैट अप का, उस सिस्टम का हिस्सा हैं जो मैं बोला बिचौलिया मंगेश गाबले उधर सैट करके रखा। साइज में वो एक लॉकर चार छोटे लॉकरों के बराबर है, दोनों आजू बाजू हैं—नम्बर 243 और 244—और लॉकर कैबिनेट में आई लैबल पर हैं ।’’
‘‘बड़े लॉकर तो मैं सुना कैबिनेट के बॉटम में होते हैं!’’
‘‘ठीक सुना। पण मैं इस्पैशल अरेंजमेंट का भी तो बोला! ये भी तो बोला कि कस्टमर जैसा सार्विस मांगता है उस को मिलता है! कस्टमर बोला उसको आई लैवल पर आजू बाजू दो लॉकर मांगता था। ऐसे लॉकर आई लैवल पर नहीं होते तो बोले तो चार चार को तोड़ के दो बनाये। मैं खुद वाच किया उधर, लॉकर 243 एण्ड 244 फोर ईच का वन था ।’’
‘‘ठीक!’’
‘‘अभी जो सिस्टम मेरा नॉलेज में आया, वो बोलता है। जीते, सिस्टम ये है कि लॉकर 243 का चाबी बिचौलिया—अपना मंगेश गाबले—स्मगलर को, सैलर को, सप्लायर को, या जो भी तू बोले, उसको देता है। उससे पहले बिजनेस डील में जो होना होता है वो दोनो पार्टियों में—सैलर में और बायर में—होना होता है, हो चुका होता है। सैलर बिरीफकेस में अपना माल—ड्रग्स, डायमंड्स, वाचिज, मोबाइल, जिस आइटम का भी डील हुआ—रखता है और बिरीफकेस को जौहरी बाजार जाकर प्रीमियर वाल्ट सार्विस के लॉकर नम्बर 243 में रख देता है। ऐग्जेंक्टली फॉर्टी एट आवर्स के बाद उसको जा कर लॉकर फिर खोलने का और बिरीफकेस निकाल लेने का। किधर सेफ प्लेस पर जाकर वो बिरीफकेस खोलेगा तो उसका एक्सपैक्टिड पेमेंट उसमें ऐन चौकस कर के होयेंगा या उसका माल उस में होयेंगा ।’’
‘‘माल होगा!’’
‘‘सप्लाई सबजेक्ट टू इवैलुएशन होयेंगा न! माल चौकस नहीं पाया जायेंगा तो लौटा दिया जायेंगा। डील के मुताबिक ऐन चौकस होयेंगा तो वो पेमेंट हो जायेंगा जो कि सैटल हुआ। बोले तो बायर को टू डेज माल को चौकस करने का वास्ते ही मांगता है। माल इमीजियेट चौकस होता है तो पेमेंट बोले तो इमीजियेट होता है पण बायर को फॉर्टी एट आवर्स के बाद ही लॉकर खोलने आने का, भले ही पेमेंट विद-इन ट्वेन्टी फोर आवर्स हो जाये या विद-इन ट्वैल्व आवर्स हो जाये ।’’
‘‘वो फिक्स्ड टेम से पहले पहुंच जाये तो?’’
‘‘बोले तो यूजलैस एक्सरसाइज। उसे कैसे मालूम होयेंगा कि पेमेंट टेम से पहले हुआ, और पहले हुआ या ऐन टेम पर हुआ? फिर बायर को मालूम पड़ा कि वो टेम से पहले उधर गया तो हो सकता है नैक्स्ट टेम वो उसके साथ डीलिंग ही न करे। उसको परमानेंट करके नक्की बोल दे!’’
‘‘हो सकता है ।’’
‘‘फिर वो क्या बोलते हैं अन्डरवल्र्ड में! यस...आनेस्टी अमंग थीव्स। नो?’’
‘‘हां ।’’
‘‘टोटल सैटअप का ब्यूटी यहीच है, जीते, कि सप्लायर को बायर के, बायर को सप्लायर के, मत्थे नहीं लगना पड़ता। इस में सप्लायर का भी सेफ्टी, बायर का भी सेफ्टी ।’’
‘‘पण बिचौलिये को मालूम कि बायर कौन, सप्लायर कौन!’’
‘‘बरोबर। पण उसका कोई फीस, कोई कमीशन होगा न सर्विस का वास्ते! वो काहे कू मुंह फाड़ेगा और अपना नुकसान करेगा!’’
‘‘सप्लायर हैरान नहीं होता कि बन्द लॉकर में से, जिसकी चाबी उस के कब्जे में, ब्रीफकेस कैसे बदल गया या ब्रीफकेस न बदला तो उसका सामान कैसे बदल गया?’’
‘‘हैरान होता है तो होये, डील तो सैटिस्फैक्ट्रिली कम्पलीट हुआ न! और उस को क्या मांगता है!’’
‘‘अच्छे वाल्ट्स में एक लॉकर की दो चाबियां होना तो मुमकिन नहीं!’’
‘‘वो मेरे से नहीं मालूम। आजकल हाई टेक्नॉलोजी का टेम है, साला जो न हो जाये थोड़ा है पण इधर बाजू के दूसरे लॉकर का, लॉकर नम्बर 244 का रोल है जिसमें ऐज पर कस्टमर्स डिमांड एक इस्पेशल करके सैटिंग है। जीते, बेवड़े अड्डे पर से जो सब से इम्पार्टेंट बात मेरे को सुनने को मिला, वो यहीच था कि दोनों लॉकरों के बीच में जो पार्टीशन, वो स्लिप करता है, 244 नम्बर लॉकर खोलकर उसको बीच में से हटाया जा सकता है लेकिन उसमें ऐसी लाकिंग का इंतजाम है कि सेम काम 243 वाली साइड से नहीं किया जा सकता ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘243 में एज पर शिड्यूल बिरीफकेस आ जाने के बाद बायर या उसका कोई भीड़ू जा कर 244 को खोलता है, लाकिंग हटा कर पार्टीशन सरकाता है और बाजू के लॉकर में से उस रूट से बिरीफकेस निकालकर ले जाता है। बाद में सेम रूट से बिरीफकेस वापिस 243 में पहुंच जाता है। उस को उधर से निकालने वाला सोचता है तो सोचता रहे कि बन्द लॉकर में से बिरीफकेस साला चेंज कैसे हो गया, या उसके भीतर का माल कैसे चेंज हो गया!’’
‘‘सैटअप तो मैं समझ गया, अब उसको ले के तेरे मगज में क्या है?’’
‘‘अभी मैं फियरलैसली बोले?’’
‘‘हां। ऐसीच बोलना ठीक ।’’
‘‘उस सैटअप को हाईजैक करने का है ।’’
‘‘मेरे को इसी बात का अन्देशा था। कैसे...कैसे हाइजैक करने का है?’’
‘‘तेरे को दोनों में से एक लॉकर खोलने का और बिरीफकेस निकालने का ।’’
‘‘ये भी था मेरे मगज में बराबर कि तू मेरे को ये काम करने को बोलेगा। पण कहने से, सोचने से कुछ नहीं हो जाता ।’’
‘‘करने से होयेंगा न!’’
‘‘कौन करने देगा? ट्वेन्टी फोर आवर्स सर्विस वाला वाल्ट तो साला किसी टेम भी उजाड़ नहीं होता होगा ।’’
‘‘जीते, मेरे को मालूम तू कितना एक्सपर्ट, कितना हुनरमन्द! मेरे को पक्की कि तू विद इन टैन मिनट्स लॉकर खोल लेगा और मैं गारन्टी करता है कि टैन मिनट्स तेरे को डिस्टर्व करने वाला, तेरे को वाच करने वाला कोई नहीं होयेंगा ।’’
‘‘कैसे होगा?’’
‘‘मैं बोला न, वो पिराइवेट वाल्ट, उधर हर सर्विस अवेलेबल। यू आस्क फार इट, यू पे फार इट एण्ड यू हैव इट। मैं उधर मैनेजमैंट से बात किया कि मेरे को अपने लॉकर में कुछ नाजुक, इन्ट्रीकेट आइटम्स एक एक करके मूव करने का, ऐसा मेरे को फुल कन्सैंट्रेशन से टोटल पीसफुल्ली करने का और अपना काम का वास्ते मेरे को टैन मिनट्स कोई इन्ट्रप्शन, कोई डिस्टर्बेंस नहीं मांगता था। क्या जबाव मिला मेरे को? मैंनेजर बोला, यस सर, राइट सर, पण चार्ज होगा ।’’
‘‘कितना?’’
‘‘थ्री हण्ड्रड रूपीज ।’’
‘‘दस मिनट का?’’
‘‘हां ।’’
‘‘ऊपर जायेगा तो?’’
‘‘नहीं जान सकता। नो एक्सटेंशन। टैन मिनट्स के बाद उधर रुकना मना नहीं पण हमारी पिराइवेसी फिनिश। पण वान्दा नहीं। मेरे को पक्की तू टैन मिनट्स से पहले ही लॉकर खोल लेंगा ।’’
जीतसिंह खामोश रहा।
‘‘जो क्लर्क मैं उधर सैट किया वो जब भी नैक्स्ट टाइम लॉकर 243 ऑपरेट होगा, मेरे को खबर करेगा एक्सप्रेस करके...’’
‘‘उसको कितना दिया?’’
‘‘अभी छोड़ न! काम होता है न!’’
‘‘कितना दिया?’’
‘‘ट्वेन्टी मांगता था, टवैल्व थाउ पर फाइनल किया ।’’
‘‘रोकड़ा हज्म करके वो हाथ भी न हिलाये, तेरी शक्ल भी न पहचाने, तेरे को कुछ भी न बोले तो तू क्या करेगा?’’
‘‘ऐसा कैसे होना सकता!’’
‘‘हुआ तो?’’
‘‘नहीं होगा। अभी मैं उसको सिक्स थाउ सरकाया। बैलेंस बाद में ।’’
‘‘नाम क्या है?’’
‘‘चेराट ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘मुरली चेराट। मलयाली है ।’’
‘‘वो एकीच बार खबर करेगा?’’
‘‘हां ।’’
‘‘माल कैसे नक्की करेगा? हेरोइन या ऐस्टेसी हाथ लगी तो अक्खी मुम्बई में पुड़िया-पुड़िया, गोली-गोली बेचेगा या किसी को एक मुश्त देगा? घड़ियों का क्या करेगा? महंगे मोबाइल्स का क्या करेगा? साला डायमंड्स तो बिल्कुल ही तेरे गले का फन्दा बन जायेंगा। या तू खाली उन लोगों का नुकसान चाहता है, अपना फायदा नहीं चाहता! बिचौलिये को सबक सिखाना चाहता है जिसने तेरे को लूटा। सबक सिखाने में तू थर्टी थाउजेंट का कर्जाई, तेरे को वान्दा नक्को, परवाह नक्को ।’’
‘‘क्या बात करता है!’’
‘‘फैंस के पास जायेगा तो वो माल देखते ही भांप जायेगा किसी बड़े स्मगलर का था। तू नवां भीड़ू, उसका स्मगलर से पहले से डीलिंग्स हुआ, गुड रिलेशंस हुआ तो तेरी मुंडी उस की पकड़ में, जकड़ में। फिर तेरी लाश समन्दर में...’’
‘‘क्या लम्बी लम्बी हांक रहा है!’’—गाइलो पहली बार झल्लाया—‘‘कुछ सुनता नहीं है। समझता नहीं है। साला...सारी जीते, मैं साला एक्साइट हो गया। सॉरी बोलता है ।’’
‘‘वान्दा नहीं। पण क्या नहीं समझता मैं?’’
‘‘हमारा निशाना दूसरा बिरीफकेस! रोकड़े वाला बिरीफकेस, जो बाद में विद-इन फार्टी एट आवर्स उधर सरकाया जायेगा ।’’
‘‘ओह! यानी वो तेरे से सैट क्लर्क दूसरे, बाजू वाले, 244 नम्बर लॉकर के आपरेशन का भी तेरे को बोलेगा?’’
‘‘नहीं। मैं बोला न, वो एकीच बार खबर करेगा। जीते, उतने से भी हमारा काम ऐन बरोबर कर के बनता है। उतने से हमें मालूम होगा कि रोकड़े वाला बिरीफकेस विद-इन फॉर्टी एट ऑवर्स लॉकर में पहँुच जाने का। हमेरे को फॉर्टी एट ऑवर्स वाली लिमिट से वन ऑवर या टू ऑवर्स पहले स्ट्राइक करने का ।’’
‘‘उस टेम माल रिजेक्ट हो गया और माल वाला ब्रीफकेस ही गले पड़ गया तो?’’
‘‘तो क्या ! तो बोलेगा साला बैडलक खराब ।’’
‘‘ब्रीफकेस वापस लॉकर में!’’
‘‘नैवर। बिरीफकेस गायब—सप्लायर भीड़ू के सैकंड टाइम लॉकर खोलने से पहले ही गायब तो गारन्टी कि सैट अप में फच्चर। सैट अप हाईजैक्ड। मैं साला इतने से भी राजी ।’’
‘‘माल का क्या करेगा?’’
‘‘देखेगा। सोचेगा। अभी तो सेंट फ्रंासिस से यही दुआ मांगता है कि लोचा न पड़े, रोकड़े वाला बिरीफकेस ही हाथ लगे ।’’
‘‘ठीक!’’
‘‘तो क्या बोलता है? कर सकता हैं न ये काम? विद-इन टैन मिनट्स! मेरे को पक्की कर के मालूम तू कर सकता है, हाफ दि टेम में कर सकता है ।’’
‘‘ठीक मालूम तेरे को ।’’
‘‘गॉड ब्लैस यू, बॉस! तो करता है...’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘क्या बोला?’’
‘‘अभी टेम खराब। मैं इतना मुश्किल से कोर्ट से छूटा, सजा पाने से बचा। खुद मेरा वकील मेरे को वार्न किया कि कुछ टेम काबू में रहने का, लो प्रोफाइल रखने का, पुलिस की लाइन क्रॉस नहीं करने का। मेरा वैलविशर, पिता समान एडुआर्डो मेरे को बोला कुछ टेम कोई नया पंगा नहीं लेने का, इस्ट्रेट लाइफ पर जोर रखने का। खुद मेरा मगज में जो थोड़ा बहुत अक्कल है, वो मेरे को बोला, आइन्दा कुछ टेम एक एक कदम फूँक-फूँक कर रखने का। इस वास्ते मैंने अपने ताले-चाबी के फसादी धन्धे से भी किनारा कर लेने का फैसला किया है ।’’
‘‘क्या!’’
‘‘मैं क्राफोर्ड मार्केट का ताला-चाबी-मरम्मत का अपना ठीया छोड़ रहा है ।’’
‘‘ठीया छोड़ रहा है! धन्धा छोड़ रहा है! तो करेगा क्या?’’
‘‘सोचा है एक काम ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘तेरा माफिक टैक्सी चलाऊँगा ।’’
‘‘टैक्सी चलायेगा! टैक्सी किधर है तेरे पास?’’
‘‘भाड़े की मिलती है। बहुत टैक्सी ड्राइवर भाड़े की टैक्सी चलाता है। मैं भी यहीच करूँगा। तेरा माफिक टैक्सी चलाऊँगा ।’’
‘‘जीते, मैं बोलना नहीं मांगता पण तेरे को टैक्सी कोई नहीं देने का ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘तेरे को बुरा लगेंगा ।’’
‘‘नहीं लगेगा। बोल क्यों?’’
‘‘फोर्स करता है तो बोलता है। तू सुपर सैल्फर्सिवस स्टोर तारदेव की डकैती का मुजरिम—लकफेवर किया कि बरी हो गया—सब को मालूम। तू तिजोरीतोड़! सैफक्रैकर! वाल्टबस्टर! तकरीबन सब को मालूम...’’
‘‘बैड कैरेक्टर! घटिया इन्सान! सोसैटी का नासूर! गटर का कीड़ा! ये भी बोल!’’
‘‘मैं तेरे को पहले ही बोला तेरे को बुरा लगेंगा ।’’
‘‘नहीं लगेगा। बोल!’’
‘‘मैं कैसे बोलेंगा! पण मैं जो बोलना मांगता है वो यहीच है कि तेरा माफिक रिप्यूट वाले भीड़ू को भाड़े पर टैक्सी कोई नहीं देने का। कौन जामिन बनेगा कि तू टैक्सी ले के भाग नहीं जायेगा!’’
‘‘तू बनना न!’’
‘‘नहीं बन सकता ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मेरा टैक्सी का पेपर्स—आर.सी. इन्श्योरेन्स पालिसी वगैरह—महालक्ष्मी वाले मनीलैंडर के हवाले। तेरा जामिन बनने का वास्ते मेरे पास कुछ नहीं ।’’
‘‘तू खुद तो है!’’
‘‘मैं मामूली भीड़ू। साला न तीन में न तेरह में। मेरे में, मेरे नाम में ऐसा कोई दम नहीं ।’’
‘‘वान्दा नहीं। मैं तेरा क्लीनर। टैक्सी को रेगुलर पटका मारने को क्लीनर मांगता है कि नहीं मांगता?’’
‘‘तू...तू मजाक कर रहा है ।’’
‘‘चाय और पियेगा?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘इधरीच बनाता है ।’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘मर्जी तेरी ।’’
‘‘तो क्या जवाब है तेरा?’’
‘‘मैं दिया न जवाब! कुछ टेम कोई नया पंगा नहीं लेने का ।’’
‘‘कितना टेम?’’
जीतसिंह हिचकिचाया।
‘‘कितना टेम?’’
‘‘छ: महीना। कम से कम। उसके बाद जो बोलेगा करेगा ।’’
‘‘मैं इतना टेम वेट नहीं कर सकता ।’’
‘‘क्यों? क्या वान्दा है? छ: महीने में सेट अप नक्की तो नहीं हो जायेगा!’’
‘‘मैं वेट नहीं कर सकता। मेरे को अभी का अभी उस साले हरामी मंगेश गाबले को सैट करने का ।’’
जीतसिंह खामोश रहा।
‘‘अभी कुछ बोल तो सही!’’
‘‘क्या बोलेगा! मेरे को जो बोलना था, मैं बोल चुका ।’’
‘‘जीते, तेरा पिराब्लम के टेम में, तेरा बिग पिराब्लम के टेम में, जब मेरा गवाही से तू पाँच साल के लिये नप जाने वाला था, एडुआर्डो मेरे पास आया, आके बोला तू मेरे फस्र्ट कजन ऐंजो का फिरेंड। जिगरी। मैं बोला जो ऐजों का फिरेंड वो मेरा फिरेंड। मैं फिरेंड का खातिर कोरट में अपनी गवाही से मुकरा और तेरा बिग पिराब्लम टला। तेरा वैलफेयर का वास्ते मैं साला बड़ा बटाटा से ऐसा ठुका कि हास्पिटल केस बना...’’
‘‘मैं तेरा शुक्रगुजार है न दिल से!’’
‘‘वो तो तू है बरोबर। पण अभी तू मेरे को बोल, ये साला फिरेंडशिप का मुलाहजा वन वे टिरेफिक है?’’
‘‘क्या बोला?’’
‘‘तू ऐंजो का फिरेंड इस वास्ते तू मेरा फिरेंड। मैं ऐजों का फस्र्ट कजन इस वास्ते मैं तेरा कोई नहीं!’’
‘‘क्या बात करता है! मैं है न तेरा फिरेंड!’’
‘‘तो निभाता क्यों नहीं फिरेंडशिप?’’
‘‘निभाता है। मेरे पास ये टेम अस्सी हजार रुपया है, सब ले जा। समझना तेरा लोन भी मैंने कवर किया और जुए की फड़ के तेरे लॉस की भरपाई भी मैंने की ।’’
‘‘मैं थैंक्यू बोलता है पण तेरी आफर में लोचा ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘एक तो मैं चैरिटी नहीं मांगता। दूसरे इससे उस स्ट्रीट डॉग गाबले का क्या बिगड़ा?’’
‘‘उस को थोड़ा टेम नक्की पर। बाद में देखेंगे ।’’
‘‘नक्को। मेरे को अभी देखने का। अभी का अभी रिवेंज लेने का। रिवेंज को पोस्टपोन करना कमजोरी! बुजदिली! बाइबल बोलता है बदला ऐसी डिश जो हॉट ही सर्व होना मांगता है। कोल्ड नहीं होने देना सकता। क्या!’’
जीतसिंह खामोश रहा।
‘‘प्लस मैं इतना होमवर्क किया ।’’
‘‘बाद में काम आयेंगा न! बाद में...’’
‘‘लिप सर्विस नहीं मांगता नहीं मांगता, जीते, एक्शन मांगता है, एक्टिव पार्टीसिपेशन मांगता है ।’’
‘‘तेंरे सिर पर बदले का भूत सवार है इसलिये तू समझना ही नहीं चाहता कि थोड़ा टेम रुक जाने में कोई वान्दा नहीं ।’’
‘‘थोड़ा टेम न! पण सिक्स मंथ्स थोड़ा टेम किधर से है?’’
‘‘अभी जो है सो है। मैं फाइनल कर के बोलता है, अभी मेरे को कोई नवां पंगा नहीं मांगता। बाद में...’’
‘‘ओके’’—गाइलो उठ खड़ा हुआ—‘‘जाता है ।’’
‘‘गाइलो’’—जीतसिंह भी उठा—‘‘ऐसे नहीं जाने का ।’’
‘‘तो और कैसे जाने का?’’
‘‘बता के जा तू क्या करेगा?’’
‘‘काहे कू? तेरे कू काहे कू?’’
‘‘अरे! मैं इतने से गैर हो गया कि मैं बोला अभी आइन्दा मेरे लिये क्या ठीक!’’
‘‘मैं भी ऐसीच सोचता कि मेरे वास्ते क्या ठीक तो ये टेम तू जेल में होता। साला बिना एफर्ट के ही इस्ट्रेट भीड़ू बना होता...फाइव इयर्स के लिये बना रहता। जाता है ।’’
उसने एकाएक पीठफेरी और लम्बे डग भरता वहाँ से रुखसत हो गया।
पीछे जीतसिंह ने एक सिग्रेट सुलगाया और माथा पकड़ कर बैठ गया।
कैसी सांप छछूंदर जैसी हालत थी उसकी! साला कुछ करे तो भी पंगा, न करे तो भी पंगा। कभी मजबूरी आड़े आती थी तो कभी मुलाहजा गले पड़ता था।
खामोशी से उसने सिग्रेट के कई कश लगाये।
‘नहीं’—फिर दृढ़ता से मन ही मन बोला—‘हमेशा के लिए नहीं तो कुछ टेम के लिये बरोबर पंगे से दूर रहने का। गाइलो को फिर समझाने का। जाता है शाम को उसके बेवड़े के अड्डे पर।’
कोई दरवाजे पर हौले से खांसा।
जीतसिंह उस घड़ी लुंगी बनियान पहने, सिर पर कपड़ा बान्धे एक ऊँचे स्टूल पर चढ़ा झाड़ू से छत के जाले हटा रहा था, पंखा साफ कर रहा था। उसने गर्दन घुमा कर दरवाजे की तरफ देखा तो पाया चौखट पर सुष्मिता खड़ी थी।
उसके छक्के छूट गये।
छलांग मार कर वो स्टूल से नीचे उतरा और बगूले की तरह बाथरूम में दाखिल हुआ। वहाँ से बाहर निकला तो जींस और टी-शर्ट पहने था और उसके सिर पर कपड़ा नहीं बन्धा हुआ था।
वो झिझकता सा आगे बढ़ा, सुष्मिता से दूर ही ठिठक कर खड़ा हो गया, जबरन मुस्कराया, हड़बड़ाया, संजीदा हुआ और नर्वस भाव से पहलू बदलने लगा।
‘‘मैं अन्दर आ सकती हूँ?’’—वो धीरे से बोली।
‘‘क-क्या!’’—जीतसिंह हकलाया—‘‘हँ-हाँ। हाँ। क्यों नहीं! क्यों नहीं! बोले तो, बरोबर!’’
‘‘थैंक्यू!’’
जीतसिंह ने उसकी तरफ एक कुर्सी सरकाई।
‘‘थैंक्यू!’’
झिझकते हुए जीतसिंह ने आँख भर कर उसे देखा।
सुष्मिता! बड़ी सेठानी!
अब पुरसूमल की विधवा।
तीन दिन में क्या उजाड़हाल हुलिया बन गया था! मेकअपविहीन चेहरे पर फटकार बरस रही थी, बाल अस्तव्यस्त थे, पोशाक सिम्पल सलवार कमीज थी जिसके साथ लम्बा दुपट्टा वो गले में मफलर की तरह लटकाये थी।
ब्यूटी क्वीन!
सौन्दर्य की देवी!
क्या सच में वही थी!
वही लम्बी ऊँची गोरी चिट्टी खूबसूरत जवान लड़की। फैशन माडल्स की तरह साँचे में ढला जिस्म। संगमरमर से तराशे जान पड़ते नयन नक्श। उस घड़ी बद्हाल थी तो क्या हुआ? चाँद को ग्रहण लगा हो तो भी चाँद ही कहलाता है।
आखिरी बार कब देखा था? कब रूबरू हुआ था?
बुधवार सात जनवरी।
लिफ्ट में नोटों के अम्बार में जल कर खुदकुशी की अपनी नाकाम कोशिश से पाँच मिनट पहले।
कोलाबा! तुलसी चैम्बर्स! दसवां माला! सिन्धी सेठ पुरसूमल चंगुलानी। उस के आलीशान फ्लैट का मेन डोर। चौखट पर दोनों आमने सामने।
‘‘यहाँ कोई सुष्मिता नहीं रहती। ये मिसेज चंगुलानी का घर है। आइन्दा भी याद रखना ।’’
बिजली की कड़क की तरह वो अल्फाज एक बार फिर उसके जेहन में गूँजे।
कितनी ही यादें जिन्हें वो चाहकर भी भूल नहीं पाता था, न्यूज रील की तरह उसकी आँखों के आगे चमकीं :
‘‘मेरी बहन को कैंसर है! जर्मनी ले जाकर इमीजियेट सर्जरी कराने की जरूरत है। छ: महीना पहले वार्निंग मिली। दस लाख का खर्चा है। नहीं जुटा सकती। सिर्फ तीन महीने बाकी रह गये हैं। अस्मिता मर गयी तो मैं उसके साथ मर जाऊँगी। दस लाख रुपये का सवाल है। तुम्हारे सदके मेरी बहन बच गयी तो मैं उम्र भर तुम्हारे पाँव धो-धो के पिऊँगी ।’’
फिर चिंचपोकली में उससे कुछ ही इमारत दूर रहती सुष्मिता की मकान मालकिन का अक्स उसके जेहन में उबरा :
‘‘अरे जीते, शादी के बाद लड़कियाँ कहीं घर में रहती हैं!...दो हफ्ते पहले बहन मरी न! जिस दिन बहन का चौथा था, उसके तीन दिन बाद उस सिन्धी डिपार्टमेंट स्टोर वाले से शादी कर ली जिसके पास अस्मिता नौकरी करती थी।
‘‘बहन मर गयी तो वादा निभाना जरूरी न रहा। बहन मर गयी तो उस के इलाज के लिये दरकार दस लाख की रकम जरूरी न रही। तुम्हारी बहन का एकाएक वक्त से पहले, तुम्हारी उम्मीद से पहले, मर जाना मेरी सजा हो गया! सूखे तिनके की तरह एक वादे की बन्दिश को तोड़ कर पहले ही शादी कर ली ।’’
एडुआर्डो की हमदर्दीभरी, पुरइसरार आवाज उसकी चेतना से टकराई :
‘‘छोड़ दे वो रास्ता जो कहीं नहीं पहँुचता। छोड़ दे वो जिद जो नहीं टूटेगी तो तुझे तोड़ देगी। छोड़ दे वे ख्वाहिश जो कभी पूरी नहीं हो सकती। भूल जा उस झूठी, फरेबी, धोखेबाज, नाशुक्री औरत को ।’’
ख्वाहिश! जिद!
ख्वाहिश उसको अभी भी हासिल करने की और जिद उसकी कीमत अदा करके उसको हासिल करने की।
फिर अदायगी का सिलसिला शुरू।
पहले दस लाख।
फिर तीस लाख।
फिर पैंतीस लाख।
फिर बुधवार सात जनवरी को नयी रकम के साथ।
‘‘खैरात नहीं माँगता। जिस चीज का तमन्नाई हूँ, उस को खरीदूँगा पुरसूमल से बड़ी कीमत अदा करके। मैं आता रहूँगा। जब वो कीमत चुक जाये तो बोलना। फिर मैं अपने खरीदे माल की डिलीवरी लूँगा ।’’
सुष्मिता मँुह पर हाथ रख के बड़े अर्थपूर्ण भाव से खांसी।
जीतसिंह की तन्द्रा टूटी, अपने खयालों की भयावही दुनिया से वो वापिस लौटा खिसयाया सा तनिक हँसा, तत्काल संजीदा हुआ, फिर झिझकता सा उसके सामने एक स्टूल पर बैठा।
अक्खा ईडियट! ताजी-ताजी हुई विधवा के सामने हँसता था।
‘‘म-मेरे को’’—वो फंसे कण्ठ से बोला—‘‘पुरसूम....सेठजी की मौत का अफसोस है ।’’
‘‘खबर लग गयी!’’
‘‘इतना बड़ा भीड़ू—साला इतना बड़ा हादसा हुआ—अक्खी मुम्बई को लगी....मेरे को भी लगी आखिर। बुरा हुआ। बेइंसाफी हुआ। साला इन्साफ तो कहीं हैइच नहीं। साला किधर जा के रहे भला आदमी! सेठ जी अब ये दुनिया में नहीं, सोच के साला दिल हिलता है। कितना भला भीड़ू था! वो मेरे कू....’’
‘‘मेरे से टपोरी जुबान किस लिये?’’
‘‘क्या बोला?’’
‘‘मेरे से स्ट्रेट लैंग्वेज बोलो जो मेरे को पता है तुम बोल सकते हो। मर्जी हो तो बोलते हो। ऐसे बोलोगे तो मुझे लगेगा किसी राह चलते से मुखातिब हो ।’’
‘‘ओ! ओह! बोले तो...मैं सॉरी बोलता है....आई एम सॉरी, मिसेज चंगुलानी ।’’
उसने आहत भाव से जीतसिंह की तरफ देखा।
‘‘मेरी हादसों से भरी जिन्दगी में’’—जीतसिंह बदले लहजे से बोला—‘‘मेरे को कहीं से कोई हमदर्दी हासिल हुई थी तो सेठ जी से ही हासिल हुई थी। सच पूछो तो उन्हीं की रहमत का सदका है जो मैं जिन्दा हूँ वर्ना लिफ्ट वाले हादसे के बाद उनके भिजवाये नानावटी नर्सिंग होम पहँुचने से भी पहले मर गया होता। तब न मरता तो पुलिस जिन्दा न छोड़ती। सेठ जी ने मेरे को अपना मुलाजिम बोल कर, लिफ्ट में फंफकते रोकड़े को अपना रोकड़ा बोलकर मेरी रक्षा की। मेरे को उनकी मौत का दिली अफसोस है ।’’
उसने सिर झुका लिया, दुपट्टे का पल्लू आँखों परफेरा।
‘‘हैरानी है ऐसे मेहरबान क्यों हुए सेठ जी मेरे पर—ऐसे शख्स पर जो उन की गृहस्थी में, उन के विवाहित जीवन में सेंध लगाता था!’’
‘‘वजह बोली थी मेरे को ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘उन्हीं का कहा दोहराती हूँ, मुझे एक-एक लफ्ज याद है—‘तूने उस लड़के के साथ जो नाइन्साफी की, समझ ले उसकी तलाफी तेरे खाविन्द ने की। जिस हमदर्दी का तलबगार वो तेरे से था, समझ वो उसे मेरे से हासिल हुई ।’’
‘‘ऐसा बोला उन्होंने? ऐन ऐसा बोला?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘कमाल है!’’
‘‘एक और राज की बात सुनोगे?’’
‘‘हाँ, बोलो ।’’
‘‘वो तारदेव के सुपर स्टोर की डकैती में तुम्हारी शिरकत से वाकिफ थे ।’’
‘‘क्या!’’
‘‘अपने एंगेज किये प्राइवेट डिटेक्टिव शेखर नवलानी के बताये। सेठ जी के हुक्म पर नवलानी तुम्हारे पीछे लगा हुआ था इसलिये तुम्हारी हर मूवमेंट से वाकिफ था। वो पुलिस को तुम्हारे बारे में खबर करना चाहता था और तुम्हारे खिलाफ बतौर चश्मदीद गवाह खुद को पेश करना चाहता था। पेश हो जाता तो तुम्हारे खिलाफ खड़ा हुआ जो गवाह जैसे अदालत में मुकर गया था, वैसे नवलानी मुकरा भी न होता क्योंकि दूसरे गवाह की तरह उसका तुम्हारे से कोई मुलाहजा नहीं था। लेकिन ऐसा करने से उन्होंने उसे रोका था ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘जब तुम धारावी के गोदाम में गोद में रखे टाइम बम की वजह से मौत की कगार पर खड़े थे तो उन्हीं ने नवलानी को हुक्म दिया था कि वो बम को डिफ्यूज करे, तुम्हारी जान बचाये। इतना कुछ उन्होंने तब किया, जब कि तुम्हारी मौत या तुम्हारा लम्बा नपना उनके लिये मुफीद साबित होता। यूँ सारे फसाद की जड़ खत्म होती ।’’
‘‘फसाद!’’
‘‘तुम्हारा जुनून! उन से ज्यादा कीमत अदा कर के मेरे पर अपना क्लेम लगाने का तुम्हारा जुनून!’’
जीतसिंह चुप रहा, उसने बेचैनी से पहलू बदला।
‘‘सेठ जी खुद बोले कि इतने जुर्म करते चले जाने की जगह वो लड़का—तुम—एक ही जुर्म करता, उनका कत्ल कर देता तो उसका काम आसान हो जाता ।’’
‘‘ऐसा कहा उन्होंने!’’
‘‘खुद कहा। उसी रोज कहा जिस रोज वो लिफ्ट वाला हादसा...वाकया हुआ ।’’
‘‘देवा!’’
‘‘उन्हें सब मालूम था ।’’
‘‘सब मालूम था?’’
‘‘एक-एक बात की खबर थी। रकम के साथ तुलसी चैम्बर तुम्हारी हर विजिट की, तुम्हारे वहशी मन्सूबे की, डकैती की, उस के नतीजों के तौर पर धारावी में जो खून खराबा किया, उसकी....’’
‘‘कैसे? कैसे?’’
‘‘कुछ अपने प्राइवेट डिटेक्टिव नवलानी के जरिये और कुछ उस टेप रिकार्डिंग के इन्तजाम के जरिये जो उन्होंने फ्लैट में खुफिया तरीके से नवलानी से ही करवाया था और जिसकी फ्लैट में मौजूदगी की मेरे को कभी भनक तक नहीं लगी थी ।’’
‘‘देवा! देवा!’’
कई क्षण खामोशी से गुजरे।
‘‘इधर कैसे?’’—फिर जीतसिंह ने चुप्पी तोड़ी।
‘‘अपनी मकान मालकिन को—मौसी को—बोलने आयी थी कि पुराने घर की सफाई करा दे ।’’
‘‘काहे को?’’—जीतसिंह हैरानी से बोला।
‘‘आगे इधर ही तो रहूँगी!’’
‘‘क्या!’’
‘‘अच्छा हुआ वो घर मैंने छोड़ न दिया, मौसी को किराया भिजवाती रही, वर्ना सड़क पर होती ।’’
‘‘क्या बात करती हो!’’
‘‘अभी इधर से गुजर रही थी, तुम्हारा दरवाजा खुला देखा तो भीतर झांकने का मन कर आया। यहीं रहते हो आजकल?’’
‘‘अब रहूँगा। आज ही आया ।’’
‘‘तभी! तभी झाड़ा पोछा में लगे हो!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘पहले कहाँ थे?’’
‘‘कोई पक्का ठिकाना नहीं था। ऐसे ही इधर-उधर भटकता था ।’’
‘‘अब यही रहोगे?’’
‘‘इरादा तो है!’’
‘‘यानी हम फिर पड़ोसी!’’
‘‘लेकिन...’’
‘‘कोई फर्क है तो ये कि तुम अपनी मर्जी से लौटे, मेरे को मेरी मजबूरी लाई ।’’
‘‘कैसी मजबूरी? कैसे भी तुम्हारा इधर क्या काम?’’
उसके मुँह से कराह जैसी आह निकली, जिस्म में यूँ हरकत हुई जैसे जोर की सुबकी ली हो।
क्या माजरा था!
‘‘मेरे को देख रहे हो!’’—आखिर वो बोली।
‘‘हाँ-हाँ ।’’—जीतसिंह हड़बड़ाया—‘‘हाँ ।’’
‘‘आज की तारीख में तन के तीन कपड़ों के अलावा सेठ जी से हासिल किसी शै को अपना कहने के लिये मेरे पास कुछ नहीं ।’’
‘‘क्या!’’
‘‘गनीमत हुई कि इधर का घर अब भी मेरे कब्जे में था वर्ना ऐसी नौबत आ सकती थी कि तन पर कपड़ा, पेट में रोटी तो होती ही नहीं, सिर पर छत भी न होती ।’’
‘‘क्या कह रही हो!’’
‘‘बहन के तीन बच्चे, जो सेठ जी की कृपा से लोनावला के रेजीडेंट स्कूल में पढ़ते हैं, वो भी अब सड़क पर होंगे...’’
‘‘तौबा!’’
‘‘खुद मेरी पोजीशन चन्द महीनों की शादी से पहले के वक्त से भी खराब है, बल्कि काबिलेरहम है। तब मुलाजमत तो थी, रिजक कमाने का जरिया तो था, अब तो वो भी नहीं। अभी आगे पता नहीं क्या होगा!’’
‘कमाल है! इतने बड़े, इतने दौलतमन्द सेठ की बीवी...’’
‘‘वो भी नहीं ।’’
‘‘क्या!’’
‘‘इतवार सुबह ही इंगलैण्ड में रहते उन के दोनों बेटे और कोलकाता में रहती उनकी बेटी और दामाद कोलाबा पहँुच गये थे। इतवार देर रात को पोस्टमार्टम के बाद लाश मिली, सोमवार सुबह सवेरे मैरीन लाइन्स के इलैक्ट्रिक क्रीमेटोरियम में उन का अन्तिम संस्कार हुआ और शाम होने से पहले उन्होंने मुझे तुलसी चैम्बर्स से निकाल बाहर किया ।’’
‘‘क्या!!’’
‘‘इसी हाल में जिसमें तुम मुझे देख रहे हो। कोई सामान न उठाने दिया। चार कपड़े तक न ले जाने दिये। जिस्म पर जो जेवर थे, वो सब उतरवा लिये—वो भी जो उन्होंने दिये भी नहीं थे—जैसे नाक में एक लौंग था जो लगता हीरे का था लेकिन हीरा नहीं था, जरकॉन था और जिसे मैं सालों से पहनती आ रही थी—हाथ की चूड़ियाँ, कड़े, अँगूठियाँ, नैकलेस, कानों के टाप्स, सब। बेटी ने कुछ लिहाज किया, कुछ तरस खाया तो एक मामूली बैग और कुछ मामूली कपड़े मेरे पीछे फ्लैट से बाहर उछाल दिये। शायद इसलिये कि वो मामूली बैग, वो मामूली कपड़े मेरे शादी से पहले के थे जो कि वहाँ की शानोशौकत को दागदार करते थे। मखमल में टाट का पैबन्द जान पड़ते थे ।’’
‘‘लेकिन क्यों? क्यों?’’
‘‘क्यों कि उन का दावा था, मैं उन के पिता की बीवी नहीं थी, लिव-इन पार्टनर थी और जब पार्टनर ही न रहा तो लिव-इन पार्टनर के रहने का क्या मतलब!’’
‘‘ये तो जुल्म है, अन्धेर है, शनिवार तक तुम एक शख्स की ब्याहता बीवी थीं, धर्मपत्नी थीं, जीवनसाथी थीं, उसके इस दुनिया से रुखसत होते ही तुम कुछ भी नहीं!’’
‘‘कुछ क्यों नहीं! लिव-इन पार्टनर थी न!’’
‘‘लेकिन कैसे...कैसे एक बाकायदा शादीशुदा औरत को...’’
‘‘क्या बाकायदा! कैसी शादी! वो लोग तो मेरे को बोले ही, खुद कोलाबा थाने का एसएचओ देवताले भी मेरे को बोला कि मैं सात जन्म खुद को चंगुलानी सेठ की ब्याहता बीवी साबित नहीं कर सकती थी ।’’
‘‘एसएचओ बोला!’’
‘‘पहले से बुला के रखा न उस जुल्म वे खिलाफ मेरी कोई हाय तौबा कन्ट्रोल करने के लिये!’’
‘‘लेकिन शादी एक सार्वजनिक शुभ कारज होता है, उसके गवाह होते हैं, कोई शादी कराने वाला होता, कोई मेहमान होते हैं...मेहमान न भी हों तो कोई वर का साथी होता है, कोई वधु की सखी होती है ।’’
‘‘शादी कोलाबा के छोटे से आर्य समाज मन्दिर में चुपचाप हुई थी। शादी कराने वाला पण्डित विस्थापित कश्मीरी ब्राह्मण था जो सपरिवार अपने होमटाउन चला गया, क्यों कि आजकल विस्थापित कश्मीरियों के पुनर्वास की सरकारी योजना चल रही है, उसका होम टाउन कश्मीर में कहाँ है, कोई नहीं जानता। उन के साथ उन के स्टोर का उन्हीं की उम्र का मैनेजर तिवारी था जिसे कि सेठ जी के बेटों ने आते ही नौकरी से डिसमिस कर दिया। कहते हैं बूढ़ा हो गया था, पूरा और चौकस काम नहीं कर पाता था, खुद ही इच्छुक था रिटायर हो जाने का और बलिया लौट जाने का जहाँ उसका पुश्तैदी घर था। जो शख्स सेठ जी की हाजिरी में, गैरहाजिरी में, पूरा स्टोर सम्भालता था, जिसकी अपने काम के प्रति निष्ठा की, मुस्तैदी की सेठ जी हमेशा तारीफ करते थे, वो एकाएक खड़े पैर बुढ़या गया, निकम्मा हो गया और इस बात की खबर बेटों को इंगलैण्ड से लौटते ही लग गयी ।’’
‘‘असल में क्या हुआ होगा?’’
‘‘जो आगे हुआ उसकी रू में ये समझना क्या बहुत मुश्किल है! उसे रास्ते से हटाया गया, हटा के गायब किया गया, ताकि वो शादी का गवाह न बन सके ।’’
‘‘उन्होंने हटाया, वो हट गया?’’
‘‘चान्दी का जूता खा कर न हटा होगा तो इन्स्पेक्टर देवताले था न उसे अक्ल की बात समझाने को! कोई भला आदमी आजकल पुलिस की मुखालफत नहीं झेल सकता। कोई अड़ी करे तो एक्सीडेंट हो जाता है, एनकाउन्टर हो जाता है ।’’
‘‘उसे अन्जाम से डराया गया?’’
‘‘सेठ जी का वफादार था, पैसे से काबू में नहीं आया होगा!’’
‘‘बलिया कोई बहुत बड़ी जगह तो नहीं! उसे तलाश किया जा सकता है ।’’
‘‘बहुत छोटी भी नहीं। फिर फासला देखो। यू.पी. में उसके ऐन सिरे पर है बिहार बार्डर के करीब। फिर वो कहते ही तो हैं बलिया गया, असल में क्या पता कहाँ गया!’’
‘‘ठीक!’’
‘‘फिर भी उसको तलाश किया जा सकता है तो कौन करेगा ये काम? मैं कर सकती हूँ?’’
जीतसिंह का सिर स्वयंमेव इन्कार में हिला।
‘‘कर भी लूँ, सेठ जी का सदका देकर उसे यहाँ लौटने के लिये तैयार भी कर लूँ तो यहाँ उसे प्रोटेक्शन कौन देगा? ऐसे गवाह को प्रोटेक्शन देना पुलिस का काम होता है, लेकिन रक्षक ही तो भक्षक बने हुए हैं! प्रोटेक्ट तो क्या करेंगे, खुद ही मार गिरायेंगे। ऐसे ही तो पुलिस को गुण्डों की आर्गेनाइज्ड जमात नहीं कहा गया!’’
‘‘बरोबर बोला। आगे?’’
‘‘शादी के वक्त वधु की सखी मीरा किशनानी थी, ग्रांट रोड पर जिस चार्टर्ड एकाउन्टेट के आफिस में मैं क्लर्क थी, उसमें वो बॉस की सैक्रेट्री थी। वो मेरी फास्ट फ्रेन्ड थी—बल्कि यूँ कहो कि इकलौती फ्रेन्ड थी—इसीलिये शादी में मेरे साथ थी ।’’
‘‘वो क्या कहती है?’’
‘‘पहले बाकी बात सुन लो, फिर ये सवाल पूछना जरूरी ही नहीं रहेगा कि वो क्या कहती है!’’
‘‘सॉरी!’’
‘‘जब दिसम्बर में तुम्हारा कोलाबा में दूसराफेरा लगा था और तुम तीस लाख की रकम मेरे मँुह पर मार...मेरे पास छोड़कर गये थे, तो तब मैं बहुत डिस्टर्ब हुई थी और सोचने लगी थी कि किसी तरीके से, किसी भी तरीके से, तुम्हारे जुनून से, तुम्हारी वहशत से मेरा पीछा छूटना चाहिये था। मेरे उस माइन्ड सैट के दौरान मीरा कोलाबा मेरे से मिलने आयी थी और तब मुझे खयाल आया था कि इस सिलसिले में मीरा मेरी कोई मदद कर सकती थी ।’’
‘‘वो क्या मदद कर सकती थी?’’
‘‘उसका हसबैंड कर सकता था जो कि पुलिस में था। उसका हसबैंड हीरानन्द किशनानी क्राइम ब्रान्च में इन्स्पेक्टर था। अभी भी वहीं है ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘तब तक तुम मुझे दो किस्तों में चालीस लाख रुपया सौंप चुके थे और इतना तो मैं समझती थी बराबर कि इतने कम वक्त में इतना पैसा किसी जायज तरीके से तो कमाया नहीं जा सकता था। आगे...खुद समझो ।’’
‘‘समझा। आगे बोलो!’’
‘‘मैंने मीरा को बोला, अपनी ख्वाहिश जाहिर की, कि उसका पुलिस इन्स्पेक्टर हसबैंड बिना कोई फार्मल रपट दर्ज किये ऐसा कुछ कर सकता था। कि...कि...कहते शर्म आती है...’’
‘‘मैं कह देता हूँ। तुम चाहती थीं कि मेरे से तुम्हारा पीछा छूट जाता, मेरी तुम्हारे पास फटकने की हिम्मत न होती ।’’
‘‘अब मैं क्या कहूँ!’’
जीतसिंह खामोश रहा।
‘‘तब ऐसा ही माइन्ड सैट था मेरा। मैं परेशान थी, हर घड़ी मुझे दहशत सताती थी कि सेठ जी को उन की गैरहाजिरी में तुम्हारी मेरे पास आमद की खबर लगी कि लगी ।’’
‘‘मैं सिर्फ तीन बार आया और तीन बार में तुम्हारे करीब कुल जमा दस या बारह मिनट ठहरा। मैं चौखट से लौट जाना चाहता था, भीतर कदम रखा तो हर बार तुम्हारे इसरार पर रखा। खाली पहली बार तुम्हारे इसरार में मेरी भी मर्जी शामिल थी क्योंकि मैं ने तुम्हें शादी की बधाई देनी थी ।’’
‘‘अब...अब मैं क्या कहूँ! मैंने बोला न मेरा माइन्ड सैट...’’
‘‘इस बाबत कुछ न कहो, अपनी बात मुकम्मल करो। क्या किया मीरा ने?’’
‘‘किया तो सही कुछ लेकिन वो न किया जिसकी मैंने उससे उम्मीद की थी, जिसकी मैंने उसको दरख्वास्त लगाई थी ।’’
‘‘मतलब?’’
‘‘उसने जाकर अपने पुलिस इन्स्पेक्टर हसबैंड से बात न की, चंगुलानी साहब से बात की ।’’
‘‘क्या!’’
‘‘बाद में—तुम्हारे साथ लिफ्ट में गुजरे हादसे वाले दिन—सेठ जी ने मुझे खुद बताया था कि मेरी सखी, मेरी प्रिय सखी, मेरी बहन जैसी सखी, मीरा किशनानी को मेरी व्यथाकथा एक भारी ब्लडबाथ की स्क्रिप्ट जान पड़ी थी...’’
‘‘ब्लडबाथ बोले तो?’’
‘‘अपनी दीवानगी के बेतहाशा हवाले तुम कुछ भी कर सकते थे, पैसे से अपनी मंजिल हासिल न होती पा कर तुम चंगुलानी साहब का खून कर सकते थे और उसकी विधवा पर अपना दावा ठोक सकते थे, तुम...तुम मेरा ही खून कर सकते थे। उस खून खराबे को रोकने का उसे यही तरीका सूझा था कि चंगुलानी साहब को, उसके जातभाई को, हकीकत की खबर होनी चाहिए थी ।’’
‘‘जा कर उन्हें सब कुछ बोल दिया!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘तौबा! ऐसा धोखा दिया!’’
‘‘वो नहीं समझती कि उसने धोखा दिया, वो समझती थी उसने सेठ जी को हकीकत से वाकिफ कराकर अच्छा काम किया था। मेरा इतना लिहाज उसने जरूर किया था कि कहा था कि ‘मौहल्लेदारी की वाककियत से बरगलाया वो लड़का जीता’ ही खामखाह सुष्मिता के पीछे पड़ा था और खामखाह, कभी भी उससे मिलने आ टपकता था, रुपये का जिक्र उसने नहीं किया था ।’’
‘‘दगा तो फिर भी किया!’’
‘‘मैंने ध्यान नहीं दिया था, या मेरा ध्यान इस बात की तरफ गया नहीं था, वो पहले ही मेरे खिलाफ थी। मेरी व्यथाकथा सुन कर उसके मन में कोई हमदर्दी नहीं जागी थी, साफ बोली कि तुम्हारे साथ वादाखिलाफी करके मैंने गरीबमार की थी, साफ बोली कि इमीजियेट मैरिज के लिये चंगुलानी साहब को कोई दबाव नहीं था, मुझे ही अन्देशा था कि देर करने से मिस्टर मनीबैग्स का खयाल न बदल जाये। ये तक बोल दिया कि बहन के बच्चों के वैलफेयर के बहाने अपने जाती फायदे के लिये मैंने चंगुलानी साहब से शादी की थी। मैं बोली सेठ जी अट्ठावन साल के थे, उन के मेरे से ज्यादा उम्र के जवान बच्चे थे तो जानते हो उसने क्या जवाब दिया था!’’
‘‘क्या?’’
‘‘बोली, नोट कबूल करते वक्त कोई देखता है कि वो कौन से सन में छपा था!’’
‘‘कमाल है! इतना कुछ सुन कर भी तुमने उसे अपना राजदां बनाया!’’
‘‘तब मुझे लगा था कि वो आपसदारी की बातें थी, वो बहनापा जता कर मुझे क्रिटिसाइज कर रही थी, तब मुझे एक बार भी खयाल नहीं आया था कि वो मेरे खिलाफ जा सकती थी...जा क्या सकती थी, पहले से ही मेरे खिलाफ थी ।’’
‘‘लिहाजा उससे उम्मीद करना तो बेकार होगा कि वो तुम्हारे हक में गवाही देगी!’’
‘‘गवाही तो क्या देगी, इलजाम लगा देगी कि मैं उसको अपने हक में बरगलाने की कोशिश कर रही थी। जा के चंगुलानी साहब के लड़कों को बोल देगी, बल्कि अपने पुलिस इन्स्पेक्टर हसबैंड को बोल देगी ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘आज मैं अपने पुराने आफिस में गयी थी इस उम्मीद के साथ कि मुझे अपनी पुरानी नौकरी हासिल हो जायेगी। आखिर कुछ ही महीने तो हुए थे मुझे वहाँ से इस्तीफा दिये हुए। फर्म के प्रोप्राइटर को मेरे काम की, काम में मेरी एफीशेंसी की कद्र थी, मेरा इस्तीफा कुबूल करते वक्त उसने खुद कहा था कि मैं जब चाहती लौट सकती थी। लौटती तो मेरी पुरानी जॉब मुझे मेरा इन्तजार करती मिलती। लेकिन लौटी तो उसने हमदर्दी बहुत दिखाई, लेकिन जब नौकरी की बात आयी तो सब जुबानी जमाखर्च निकला, टका सा जवाब दे दिया कि फिलहाल वहाँ कोई वैकेंसी नहीं थी, साल छ: महीने बाद पता करूँ ।’’ वो एक क्षण ठिठकी, फिर बोली—‘‘बाद में जब मैं वहाँ से निकल पड़ी थी तो फर्म के एक पुराने, बुजुर्ग, चपरासी ने पीछे आके मुझे बताया कि बॉस तो मुझे नौकरी पर वापिस रखने को तैयार था लेकिन मीरा की—उसकी सिर चढ़ी प्राइवेट सैक्रेटी की—जिद थी कि मुझे वापिस न लिया जाये ।’’
‘‘बड़ी अच्छी सखी थी तुम्हारी!’’
‘‘अच्छे बुरे की असल परख बुरी घड़ी में ही होती है। सुख में तो सभी साथी होते हैं—चढ़ते सूरज को हर कोई सलाम करता है—लेकिन असल साथी तो वही होता है न जो दुख की घड़ी में साथ दे!’’
‘‘वो सखी—मीरा—ऐसी न निकली!’’
‘‘जाहिर है। जिस से एक बार खता खाई उससे दूसरी बार और क्या उम्मीद की जा सकती थी? तभी तो कहते हैं कि सफलतायें दोस्त बनाती हैं, विफलतायें उन्हें आजमाती हैं ।’’
‘‘ऊँचे लैवल की बात है। तो बोले तो अब तक की बात का मतलब ये हुआ कि जिस पण्डित ने शादी कराई थी, वो गायब है, शादी के दो गवाहों में से एक गायब है, दूसरा—तुम्हारी सखी मीरा किशनानी—किसी काम का नहीं क्योंकि वो तुम्हारे हक में नहीं बोलने वाली!’’
‘‘हाँ, यही मतलब हुआ ।’’
‘‘कोई फोटो वगैरह न खिंचीं शादी की?’’
‘‘ खिंचीं। वो तो इस की कोई जरूरत नहीं समझते थे लेकिन मेरी मनुहार पर वो इस बात के लिए तैयार हो गये थे और एक स्टिल फोटोग्राफर को वहाँ बुलाया गया था ।’’
‘‘वीडियोग्राफर नहीं?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘कौन था फोटोग्राफर?’’
‘‘नाम तो मुझे याद नहीं लेकिन फोर्ट से आया था। वहाँ फ्लोरा फाउन्टेन के करीब नानाभाई लेन में सन्तोष फोटो स्टूडियो के नाम से उसका ठीया है ।’’
‘‘नाम याद नहीं लेकिन पता याद है!’’
‘‘क्योंकि एलबम पर स्टिकर लगा था पते का ।’’
‘‘स्टिकर पर फोटोग्राफर का नाम नहीं था?’’
‘‘न ।’’
‘‘क्या पता नाम सन्तोष हो! लोगबाग रखते हैं अपने नाम पर ठीये का नाम!’’
‘‘बीवी के नाम पर भी रखते हैं। औलाद के नाम पर भी रखते हैं ।’’
‘‘ठीक। यानी जरूरी नहीं फोटोग्राफर का नाम सन्तोष हो!’’
‘‘जरूरी भी नहीं और बोले तो है भी नहीं। होता तो नाम मुझे याद रहता ।’’
‘‘पता सन्तोष स्टूडियो, नानाभाई लेन, फ्लोरा फाउन्टेन?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘वो एलबम अब उन्हीं लोगों के कब्जे में है?’’
‘‘किसी के कब्जे में नहीं है। उन लोगों ने मेरे सामने उसे जला के राख कर दिया और राख टायलेट में बहा दी। और ऐसा उन्होंने तब किया जब कि वहाँ लोकल थाने का एसएचओ इन्स्पेक्टर देवताले भी मौजूद था ।’’
‘‘वो फोटोग्राफर फिर भी गवाह बन सकता है। आखिर उसने फोटू निकाले थे!’’
‘‘शादी को झुठलाने के लिये जिन लोगों ने इतने इन्तजाम किये, उन लोगों ने फोटोग्राफर का कोई इन्तजाम नहीं किया होगा?’’
जीतसिंह ने संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया।
‘‘कश्मीरी पण्डित और स्टोर के मैनेजर तिवारी की तरह या तो वो ढूँढ़े नहीं मिलेगा या हरगिज कबूल नहीं करेगा कि उसने वो मैरिज कवर की थी ।’’
‘‘ठीक! तुम्हारे खिलाफ इस साजिश का मकसद क्या है?’’
‘‘ये भी कोई पूछने का बात है! मकसद मुझे, उनके पिता की चन्द महीनों की पत्नी को, विरसे से बेदखल करना है ।’’
‘‘वसीयत नहीं है?’’
‘‘होगी। मेरे खयाल से तो जरूर होगी। इतना दाना, मुम्बई में तनहा रहता लेकिन बाऔलाद, साहिबेजायदाद शख्स वसीयत करने जैसी एहतियात न बरते, ये क्या मुमकिन है?’’
‘‘नहीं। वसीयत जरूर होगी ।’’
‘‘लेकिन मेरे पास ये जानने का तो कोई जरिया नहीं कि उसमें क्या दर्ज है!’’
‘‘मैंने सुना है ऐसी वसीयत रजिस्टर्ड होती है, रजिस्ट्रार के कोर्ट में उसकी कापी होती है ।’’
‘‘होती होगी लेकिन बतौर बैनीफिशियेरी मेरा नाम तो उसमें नहीं होगा न!’’
‘‘बोले तो!’’
‘‘ऐसा तब होता जब कि शादी के बाद पिछले दिनों में उन्होंने अपनी वसीयत तब्दील की होती। उन्होंने नयी वसीयत की होती तो उसकी बाबत उन्होंने मुझे जरूर बताया होता ।’’
‘‘जरूरी तो नहीं!’’
‘‘मेरे खयाल से तो जरूरी है। जब किसी शख्स को नयी बीवी के लिये नयी वसीयत करने की जिम्मेदारी दिखाना सूझ सकता है तो अपने फर्ज के तौर पर उसका जिक्र बीवी से करना भी सूझ सकता है ।’’
‘‘बीवी हो या न हो, उसमें बतौर वारिस, या वारिसों में से एक, उसका नाम दर्ज हो या न हो, मेरे खयाल से बीवी को खाविन्द की जायदाद से बेदखल नहीं किया जा सकता ।’’
‘‘बीवी को न! लेकिन मैं तो लिव-इन पार्टनर थी!’’
‘‘कहीं कोई घुंडी है जिस की वजह से वो तुम्हें लिव-इन पार्टनर साबित करने पर तुले हैं ।’’
‘‘क्या घुंडी है?’’
‘‘क्या मालूम!’’
‘‘फिर जिक्र का क्या फायदा!’’
‘‘तुम्हारे साथ इतना बड़ा जुल्म हुआ, खड़े पैर तुम्हें अपने मरहूम खाविन्द की जिन्दगी से निकाल बाहर किया गया, तुमने थाने रपट लिखाई होती!’’
‘‘कौन से थाने? कोलाबा। जहाँ का एसएचओ देवताले। जो मेरे पर जुल्म ढाती चंगुलानी साहब की औलाद के बाजू में खड़ा था। क्या समझे?’’
‘‘थाने में एफआईआर न दर्ज किये जाने पर डिस्ट्रिक्ट ने डीसीपी के पास जाया जा सकता है...’’
‘‘देवताले ऐसा इन्तजाम करता कि मैं डीसीपी के आफिस के करीब न फटक पाती ।’’
‘‘...बोले तो कमिश्नर तक पहँुचा जा सकता है, किसी नेता को गुहार लगाई जा सकती है, मीडिया के पास पहँुचा जा सकता है। आजकल तो मीडिया—खास तौर से टीवी न्यूज चैनलों वाले—तो ऐसी बातें बहुत गौर से, बहुत हमदर्दी से सुनते हैं और फिर बात को पब्लिक में खूब उछालते हैं ।’’
‘‘जीते, उन्हें सब मालूम है...’’
पहली बार उसने मुझे इतनी आत्मीयता से पुकारा था लेकिन मेरे मन में कोई सुखद अनुभूति नहीं जागी थी, किसी खुशगवार अहसास ने मेरे जेहन पर दस्तक नहीं दी थी।
‘‘....वो लोग उन तमाम दरवाजों से वाकिफ हैं जो मेरे जैसी किसी मजलूम औरत के लिये खुले हैं। सब मालूम है, इसलिये उन्होंने इन्तजाम किया न कि मैं ऐसा कोई दरवाजा न लाँघ सकँू ।’’
‘‘क्या....क्या इन्तजाम किया?’’
‘‘बोले, मैं कातिल हूँ...’’
‘‘क्या!’’
‘‘चंगुलानी साहब की दौलत पर काबिज होने के लिये मैंने उन का कत्ल करवाया। शादी ही इस मिशन के तहत की ।’’
‘‘तौबा!’’
‘‘और कारजैक्र्स का सरगना जीतसिंह नाम का एक शख्स था जिससे मेरी पुरानी, शादी से पहले से चली आ रही, आशनाई थी और जो चिंचपोकली में पाया जाता था। क्राफोड मार्केट की एक हार्डवेयर शाप के बाहर अपने ताले-चाबी के ठीये पर पाया जाता था ।’’
‘‘सब जुबानी जमाखर्च है ।’’
‘‘कहते हैं सबूत भी है ।’’
‘‘सबूत भी है!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘आलायकत्ल—खास आलायकत्ल—चंगुलानी साहब के हाउसहोल्ड का हिस्सा है ।’’
‘‘मैं समझा नहीं ।’’
‘‘वहाँ घर में एक बेशकीमती सींग के बने फैंसी हैंडल्स वाला कटलरी सैट है। बारह छोटे चम्मच, बारह बड़े चम्मच, बारह कांटे, बारह छुरियां, छ: तीखे चाकू, तीन डबल रोटी काटने के काम आने वाले चाकू—बै्रड नाइफ—तीन गोश्त काटने के काम आने वाले चाकू जिन्हें कार्विंग नाइफ कहते हैं। उस कटलरी सैट में से एक कार्विंग नाइफ गायब है और वही आलायकत्ल निकला है ।’’
‘‘क्या मतलब हुआ इस का?’’
‘‘आलायकत्ल मैंने तुम्हें मुहैया कराया ।’’
‘‘काहे को। मुम्बई शहर में किसी का गला काटने को, पेट फाड़ने को कांटी हासिल कर लेना बहुत बड़ा काम है! मरने वाला बड़ा आदमी हो तो आम मामूली हथियार से ढेर होने को मना कर देता है! बोलता है फैंसी कटलरी का फैंसी, उसके स्टैण्डर्ड का, खंजर ले वे आने का! साला जिस शहर में चप्पल, झाड़ू, चकरी, कैसेट, कट्टा, आम मिलता है, वहाँ पेट फाड़ने को चाकू मिलना बहुत मुश्किल!’’
‘‘चप्पल, झाड़ू, चकरी, कैसेट, कट्टा क्या?’’
‘‘सारी! अन्डरवल्र्ड की जुबान बोल गया मैं। नाइन मिलामीटर सैमी आटोमेटिक स्टार पिस्टल, एके-47 असाल्ट राइफल, रिवाल्वर, पिस्तौल, देसी गन ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘तुम्हें बोलना चाहिये था कि आलायकत्ल तुम क्यों मुहैया करातीं!’’
‘‘बोला था, तुम्हारे जैसी दलील दे कर नहीं बोला था लेकिन बोला था। जवाब मिला, मैंने नहीं दिया था तो तुमने चोरी कर लिया था ।’’
‘‘मैंने! मैं तुम्हारे घर आता था?’’
‘‘अक्सर! चंगुलानी साहब की गैरहाजिरी में। जीते, ये मैं नहीं कह रही, वो लोग बोले ऐसा। बोले, वहाँ की कटलरी में से हथियार ये सोच के चुना था कि बाद में झाड़ पोंछ कर, क्लीन करके वापिस रख दिया जायेगा जिसकी कि नौबत न आयी, ऐसा माहौल बना कि कारजैक्र्स को चाकू लाश में छोड़ कर भागना पड़ा। बहरहाल चाकू मैंने दिया या तुमने चोरी किया, ये बड़ी बात नहीं, बड़ी बात ये है कि कत्ल हम दोनों की मिलीभगत का नतीजा था ।’’
‘‘देवा!’’
‘‘कहने का मतलब ये था कि अगर मैंने अपने साथ होते जुल्म के खिलाफ कोई कदम उठाया तो मेरा अगला मुकाम जेल होगा। तुम्हारा भी ।’’
‘‘हूँ ।’’
‘‘और ये सब मुझे समझाने वाला कौन था? उनके खिलाफ जाने के अन्जाम से डराने वाला कौन था? खुद पुलिस इन्स्पेक्टर देवताले। कोलाबा स्टेशन हाउस का एसएचओ वो शख्स था जिसने मुझे हर ऊँच नीच समझाई, जिन कदमों का तुमने अभी जिक्र किया, समझाया कि अगर मैंने उनमें से किसी एक को भी अपना अगला कदम उठाने के लिये चुना तो वो मुझे उसी वक्त दफा एक सौ बीस बी के तहत गिरफ्तार कर लेगा। और फिर मेरा उम्र कैद के लिये नप जाना महज वक्त की बात थी। साथ में तुम्हारा भी...’’
‘‘नहीं बात थी ।’’—जीतसिंह आवेश में बोला—‘‘पुलिस का काम मुजरिम के खिलाफ केस तैयार करना होता है, उसे सजा सुनाना नहीं होता। किसी की गिरफ्तारी के चौबीस घण्टे के अन्दर उसे चार्ज लगा कर कोर्ट में पेश किया जाना होता है जहाँ कोई काबिल वकील पुलिस के केस की धज्जियाँ उड़ा सकता है...
‘‘और वो काबिल वकील धर्मार्थ काम करता है ।’’
जीतसिंह को झटका सा लगा।
‘‘मेरे को पक्का मालूम है ऐसे काबिल वकीलों की फीस लाखों में होती है। मेरे पास तो फूटी कौड़ी नहीं है!’’
जीतसिंह मँुह बाये उसकी तरफ देखने लगा।
‘‘छोटे मोटे बेलेबल ऑफेंसिज में पकड़े गये हजारों की तादाद में ऐसे लोग हैं जो जेलों में पड़े सड़ रहे हैं क्योंकि तारीख पर कोई उनकी जमानत देने वाला पेश नहीं होता। कितने ही केसों में तो सजा भी नहीं होनी होती, या मामूली सजा होनी होती है लेकिन सालों से जेल में हैं क्योंकि जमानती कोई नहीं। क्यों कोई नहीं? क्योंकि तनहा हैं, बेयारोमददगार हैं। आज की तारीख में मैं भी वैसी ही हूँ। तनहा! लाचार! मजबूर! बेयारोमददगार!’’
वो रोने लगी।
जीतसिंह खामोश उसके सामने बैठा रहा।
रुदन सिसकियों में तब्दील हुआ, फिर सिसकियाँ भी बन्द हुर्इं तो वो बोला—‘‘यहाँ क्यों आयीं?’’
सुष्मिता ने अचकचा कर सिर उठाया।
‘‘दरवाजा खुला देखा, भीतर झांकने का मन कर आया, इसके अलावा कोई वजह बोलना ।’’
वो निगाह चुराने लगी।
‘‘कौन हूँ मैं? कोई पुलिस का आला अफसर! कोई बड़ा वकील! कोई नेता! कोई महिला आयोग में पहँुच रखने वाला सोशल सर्वेन्ट! कोई बड़ा प्राइवेट डिटेक्टिव! नहीं, कुछ नहीं। मैं एक टपोरी! तालातोड़! हिस्ट्रीशीटर! वही गटर का कीड़ा जिससे पीछा छुड़ाने के लिए कभी तुम्हें सखी के इन्स्पेक्टर खाविन्द की खुफिया मदद दरकार थी ।’’
उसका निगाह चुराना बरकरार रहा।
‘‘फिर भी आयीं तो वो सुनहरे अल्फाज, वो खून जमा देने वाली फटकार, दिल की धड़कन बन्द कर देने वाली वो लानत-मलानत क्योंकर भूल गयीं जो बर्छी की तरह लगी मेरे कलेजे में, जिससे अभी चार महीने पहले बुधवार सात जनवरी को तुमने मुझे नवाजा था—ये तारीख पत्थर पर लिखी लिखाई की तरह मेरे सारे वजूद पर दर्ज है—‘यहाँ कोई सुष्मिता नहीं रहती, ये मिसेज चंगुलानी का घर है’ इस एक फिकरे में इतना जहर था, हकारत का ऐसा सैलाब था कि मुझे ठौर मर गया होना चाहिये था, कानों में वो पिघला सीसा पड़ने के बाद अगली सांस नहीं आनी चाहिये थी, फिर तुम्हारे ऊँचे महल की लिफ्ट में अपनी चिता खुद जलाने की—पीडी नवलानी के सदके यूँ जान से जाने में नाकाम रहने की—नौबत ही न आयी होती। लेकिन मैं नालायक, ढीठ, बेशरम, तकदीर का हेठा जीता न तब मरा न बाद में। जलती चिता से उठ खड़ा हुआ प्रेत बन गया लेकिन रहा फिर भी जीता। कितना बड़ा छल किया मेरे साथ! कैसे रईस की दुल्हन बन कर गरीब के दिल को अपनी जूती के नीचे मसला! बहन की जर्मनी में सर्जरी के लिये दस लाख मुहैया कर के दिखाऊँ तो जिन्दगी भर मेरे पाँव धो-धो के पियोगी। मैंने वक्त रहते शर्त पूरी की—मेरा ईश्वर जानता है कैसे की, कितनी दुश्वारियाँ, कितनी बिपतायें झेल कर की लेकिन की—वक्त रहते दस लाख के साथ बल्लियों उछलता, हवा के हिंडोलों पर झूलता मैं यहाँ चिंचपोकली पहँुचा तो पता चला कि तुमने तो पुरसूमल से, अपनी बहन के एम्पलायर से, शादी कर भी ली हुई थी। दस लाख के साथ मियाद की आखिरी घड़ी में पहँुचने की जगह मैं पहले भी पहँुचा होता तो भी वही खबर सुनने को मिलती कि बहन सर्जरी की तारीख से पहले ही मर गयी इसलिये रकम की जरूरत न रही, इसलिये बहन की चिता की राख ठण्डी होने से पहले पुरसूमल से शादी कर ली...’’
‘‘बहन के अनाथ बच्चों की खातिर’’—वो तड़प कर बोली—‘‘वो कदम उठाना मेरी मजबूरी थी...’’
‘‘खुदगर्जी थी। दौलत की देहरी लांधने का एकाएक पेश हो आया सुनहरा मौका झपट कर कब्जा लेने की शतरंजी चाल थी। तुम्हारी सखी ने ठीक कहा था कि शादी की जल्दी पुरसूमल को नहीं, तुम्हें थी, इस अन्देशे के तहत तुम्हें थी कि कहीं पुरसूमल का खयाल न बदल जाये। वैसे भी बहन के मर जाने के बाद—और यूँ वादा निभाने की अपनी जिम्मेदारी से खुद को बरी हो गया पाने के बाद—बहन की औलाद को जीतसिंह नाम के बेहैसियत टपोरी की छत्रछाया में पलता देखना तुम्हें गवारा नहीं होने वाला था। इस काम के लिये कोई पुरसूमल जैसा बाहैसियत, बारसूख शख्स ही माकूल था जिसका कि सोसायटी में रुतबा था और रुतबे वाले शख्स के साथ तुम्हारा रुतबा था। मैं बद्बख्त तभी तक मँुह लगाने के काबिल था जब तक तुम्हें मेरे जरिये अपनी जरूरत पूरी होने की आस उम्मीद दिखाई देती थी। लेकिन ये तुम्हारी ट्रेजेडी न बनी, मेरी ट्रेजेडी बन गयी कि बहन मर गयी, वक्त से पहले मर गयी। बहन मर गयी तो तुम्हारी जरूरत खत्म हो गयी। तुम्हारी जरूरत खत्म हो गयी तो मैं खत्म हो गया, मेरा वजूद खत्म हो गया, वो वादा खत्म हो गया जो तुमने मेरे से किया था। कुछ न खत्म हुआ तो पुरसूमल की बड़ी औकात का पहाड़ न खत्म हुआ जिस की सबसे ऊँची चोटी पर जा कर तुम बैठ गयीं और सोच लिया उस बुलन्दी पर मुकाम पा चुकने के बाद अब मेरे जैसे कीड़े-मकोड़े की तुम तक पहँुच नहीं हो सकती थी। कुछ न सोचा तो ये न सोचा, कुछ न सूझा तो ये न सूझा कि है बहारेबागेदुनिया चन्द रोज। तुम्हारे लिये तो बहार चन्द रोज भी न टिकी। जहाँ से अपने सुनहरे सपनों का सफर शुरू किया था, महसूस करो तो इस घड़ी उस मुकाम से भी दो कदम पीछे हो ।’’
वो रोने लगी।
‘‘इस सदा हारे जीते की ये भी ट्रेजेडी है कि इस घड़ी मैं...मैं तुम्हें नहीं कह सकता कि यहाँ कोई शिकस्तादिल आशिक नहीं रहता, ये जीतसिंह तालातोड़ का घर है ।’’
‘‘कह लो ।’’
‘‘क्या होगा कहने से! मैं तुम्हारी पूजा करता था इसलिये जो तुमने कहा, वो मैं न झेल सका। तुम्हारे मन में तो मेरे लिये ऐसे कोई जज्बात नहीं!’’
‘‘तुम्हें क्या मालूम?’’
‘‘है न! मैं तकदीर का हेठा हूँ, अक्ल का कोरा नहीं हूँ ।’’
‘‘जो मेरे साथ बीत रही है, उसकी रू में तुम्हें मेरे से कोई हमदर्दी नहीं?’’
‘‘पूरी हमदर्दी है। इसलिये अपनी अक्ल को, दुनियादारी की हालिया हासिल सूझबूझ को ताक में रख कर जो कहोगी, करूँगा। पण...लेकिन अभी तो कुछ भी नहीं कह रही हो! ये भी नहीं कि यहाँ क्यों आयीं!’’
‘‘वो...वो...क्या है कि सोचा...सोचा कि मेरी दुश्वारी का कोई हल शायद तुम्हारे पास हो!’’
‘‘कैसा हल?’’
‘‘सोचो ।’’
‘‘मैं क्या हूँ? क्या औकात है मेरी? किस बिना पर सोचा कि इतने बड़े लोगों की इतनी बड़ी साजिश का कोई तोड़ मेरी समझ में होगा...मेरी अक्ल में होगा? कहीं गजट में छपा कि जीतसिंह ताले-चाबी वाले से ज्यादा दाना, ज्यादा आलादिमाग, ज्यादा चतुर सुजान भीड़ू अक्खी मुम्बई में कोई नहीं?’’
उसने जवाब न दिया, खाली सिर झुकाये बेचैनी से पहलू बदला।
‘‘जो वजह तुम्हें यहाँ लाई है, उसको समझ पाना कोई बड़े मगज की बात नहीं ।’’
उसने हड़बड़ा कर सिर उठाया।
‘‘जो तुम्हारे मन में है, उसे जुबान पर नहीं ला पाओगी। लाओगी तो खुद इस हकीकत को मोहरबन्द करोगी कि हद दर्जे की खुदगर्ज औरत हो। खुदगर्ज और लालची...’’
‘‘लालची?’’
‘‘बराबर। लालची उस ऐश की पुरसूमल के साथ गुजारे चन्द महीनों में ही जिस की तुम आदी हो गयी हो। कोई बड़ा सपना न पूरा हो, ये कम दुखदाई होता है, पूरा हो के चकनाचूर हो जाये तो तड़पा देता है ।’’
‘‘इतनी बातें करना तुम्हें पहले तो नहीं आता था!’’
‘‘वक्त सब सिखा देता है—बुरा वक्त और भी बड़ा उस्ताद होता है—जैसे वक्त ने तुम्हें सिखाया कि अपनी दाद फरियाद लेकर जीतसिंह नाम के चिंचपोकली के पुराने वाकिफ के पास जाओगी तो वो बिना कहे भी सब समझ जायेगा कि क्या चाहती हो!’’
‘‘क्या चाहती हूँ?’’
‘‘तुम्हें मालूम है ।’’
‘‘फिर भी...’’
‘‘नो’’
‘‘फिर भी। मैं अभी बड़ी मुश्किल से कोर्ट से डकैती के इलजाम से रिहा हो पाया हूँ। ऐसा न हुआ होता तो पाँच से सात साल तक के लिये नपता। अभी यूँ समझो कि पहली बार तकदीर को ज्यादा नहीं तो एक बार मेरे नाम को सार्थक करना सूझा। अब एक लम्बा अरसा मेरे लिये जरूरी है कि मैं अपना एक-एक कदम फँूक-फँूक कर उठाऊँ। कोई ऐसा काम न करूँ जो मेरी खोटी तकदीर का रुख वापिस उस अन्धेरी खोह की तरफ मोड़ दे जिससे, बावजूद अपने कुकर्मों के, पता नहीं कैसे मैं उबर पाया। इस खोली से कोलाबा तक सोना मंढी सड़क की तामीर के वहशी जुनून में मैंने जो-जो कुकर्म किये, उनसे तुम वाकिफ नहीं हो—हो तो मुकम्मल तौर से वाकिफ नहीं हो—लेकिन उन कुकर्मों के हासिल से वाकिफ हो क्योंकि हासिल मैंने हमेशा तुम्हारी नजर किया। क्यों कि मेरे पर एक बिकी हुई औरत को वापिस खरीदने की धुन सवार थी—पुरसूमल से ज्यादा दाम लगा कर वापिस खरीदने की धुन सवार थी। तीन किस्तें—हर किस्त पिछली किस्त से बड़ी—अदा भी कीं, चौथी ले कर पहँुचा तो तुमने पिछली भी मेरे मँुह पर मारीं और ‘यहाँ कोई सुष्मिता नहीं रहती, ये मिसेज चंगुलानी का घर है’ का तेजाब मेरे पर उंढेल कर अपने बाहैसियत, बारसूख, साहबेजायदाद खाविन्द की निगाह में अपना किरदार ऊँचा किया और मुझे मौत की राह पर धकेला...’’
‘‘मुझे क्या मालूम था कि....’’
‘‘क्यों नहीं मालूम था? तलवार से ज्यादा मारक जुबान की चोट मारी, कहती हो तुम्हें क्या मालूम था! यही करिश्मा था कि मैं बद्बख्त तब तुम्हारे सामने खड़ा-खड़ा न मर गया जब कि दुत्कार की वो बिजली मेरे पर टूटी। लेकिन क्योंकि यूँ भी न मरा, लिफ्ट में खुद बुलाई मौत ने भी बख्श दिया इसलिये वो जुदा मसला है। वैसे भी पापियों को आसान मौत कहाँ मुहैया होती है! बहरहाल किसी करिश्माई तरीके से ये जन्म का अभागा जीता बच गया तो तुम्हें अपनी मौजूदा दुश्वारी की रू में उसका कोई नया इस्तेमाल सूझ गया। दुश्वारी की बुनियाद खत्म तो दुश्वारी खत्म। न रहे बांस, न बजे बांसुरी। लेकिन तुम्हारे लिये बैड न्यूज है कि ऐसा नहीं होने वाला...खुद कर लो तो बात ही क्या है, जीतसिंह के किये ऐसा नहीं होने वाला...’’
‘‘तुम्हारी कोई बात मेरी समझ में नहीं आ रही ।’’
‘‘सब समझ में आ रहा है। इतनी नादान नहीं हो सुष्मिता देवी। देवी! हा!’’
‘‘तुम मेरी तौहीन कर रहे हो...’’
‘‘मैं दोहरा के बोलता हूँ’’—जीतसिंह ने जैसे उस को सुना ही नहीं—‘‘ऐसा नहीं होने वाला। अब जीतसिंह वाल्टबस्टर नहीं है, खूनी डकैत नहीं है, अब जीतसिंह एक आम आदमी है, स्ट्रेट भीड़ू है जो कि क्राफोर्ड मार्केट के अपने अड्डे पर ताले चाबियों की मरम्मत, डुप्लीकेशन का काम करता है, खुदा ने जो हुनर उसे बख्शा है, उससे अपनी रोजी रोटी कमाता है। कोई ताला ठीक करवाना हो तो बोलना, कोई चाबी बनवाना हो तो आना। ऐन बढ़िया, चौकस तसल्लीबख्श काम करेगा जीतसिंह तालाजोड़ ।’’
‘‘जाती हूँ ।’’
‘‘जरूर। वैसे अभी भी साफ, दो टूक बोलो क्यों आर्इं तो शायद मेरे मौजूदा खयालात में तब्दीली आ जाये, तो शायद मैं कुछ कर सकूँ ।’’
‘‘अब कोई फायदा नहीं। हमदर्दी एक सहज, स्वाभाविक चीज थी, जब वो हासिल न हुई...’’
‘‘खामखयाली है...’’
‘‘...दिल से हासिल न हुई। जुबानी जमाखर्च के तौर पर हासिल हुई। बहरहाल जब दिली हमदर्दी हासिल न हुई तो किसी और हासिल की उम्मीद करने का क्या फायदा!’’
‘‘यही अपनी जुबानी साफ-साफ बोलो कि हमदर्दी हासिल करने आयीं, सिर्फ हमदर्दी हासिल करने आयीं, और किसी वजह से न आयीं ।’’
‘‘और वजह से भी आयी ।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘आज मैं रोटी, कपड़ा, मकान तीनों की मोहताज हूँ। तीसरी आइटम का हल इधर की पुरानी खोली है जहाँ कि मेरी ज्यादातर जिन्दगी गुजरी है ।’’
‘‘पक्की है कि यहाँ रहोगी?’’
‘‘जब और कोई चारा ही नहीं तो....वैसे भी क्या प्राब्लम है? आखिर सालों रही हूँ यहाँ तुम्हारे पड़ोस में। बहन के साथ। उसके तीन बच्चों के साथ ।’’
‘‘पहले और बात थी। अब...अब रह सकोगी?’’
‘‘मजबूरी है। रहना पड़ेगा। और कहाँ जाऊँगी?’’
‘‘ठीक!’’
‘‘कुछ दिनों में फिर पहले जैसी आदत हो जायेगी। अलबत्ता पुरानी यादें कचोटेंगी। बहन की याद अक्सर आया करेगी, एक पड़ोसी हिमाचली नौजवान की याद अक्सर आया करेगी जिस की मेहरबानियाँ कभी हम दोनों बहनों को सहज ही हासिल थीं ।’’
‘‘मेहरबानियाँ?’’
‘‘हाँ। बाजार से आटा, दाल, चावल ला देता था, झप-झप करती ट्यूब ठीक कर देता था, नलके की वाशर बदल देता था, मिक्सी ठीक कर देता था ।’’—उसने आह भरी—‘‘कितने सुख थे उस हिमाचली लड़के की वजह से...’’
‘‘उस लड़के को वो सब करना अभी भी आता है, कुछ भूला नहीं है। लेकिन एक लोचा है ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘अब वो यहाँ नहीं रहता ।’’
‘‘क्या!’’
‘‘आज इत्तफाक से इधर आया। कुछ सामान रखने, कुछ सामान उठाने ।’’
‘‘झाड़ पोंछ किसी और के लिये कर रहे हो?’’
‘‘नहीं। खोली को बुरे हाल में देखा, इस वास्ते सोचा कुछ करूँ। टेम था न मेरे पास!’’
‘‘ओह! यानी ये बड़ा संयोग हुआ कि मैं यहाँ से गुजरी तो तुम यहाँ थे!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘अब कहाँ रहते हो?’’
जीतसिंह परे देखने लगा।
‘‘बताना नहीं चाहते?’’
उसने जवाब न दिया।
‘‘यही बात है न?’’
‘‘जिस शहर नहीं जाना’’—जीतसिंह कठिन स्वर में बोला—‘‘उस की राह क्या पूछना!’’
‘‘शायद जाना हो!’’
‘‘भटक जाओगी ।’’
‘‘फिर भी!’’
‘‘ये दिल एक उजड़ी सराय है। उजाड़ में कौन कदम रखता है!’’
‘‘वाकई बहुत सयाने हो गये हो! चन्द ही महीनों में कितना कुछ सीख गये हो! फैंसी बात करना ! बात को मँुह पर मारना! बात से दूसरे का मँुह बन्द करना! नहीं?’’
‘‘कोई रोकड़े की जरूरत हो तो बोलो। मेरे पास आज की तारीख की कुल जमापूँजी अस्सी हजार रुपये है। तुम चाहो तो...’’
‘‘चंगुलानी साहब के पास तुम्हारे पैंतालीस लाख रुपये थे...’’
‘‘पौने तिरतालीस लाख। बाजरिया नवलानी साहब जरूरत के वक्त डेढ़ माँग लिया था इसलिये सवा इकतालीस लाख ।’’
‘‘इतने ही सही। जो तुमने हासिल भी कर लिये थे। कहाँ गये?’’
‘‘लम्बी कहानी है। वैसे तो उसके बाद तीन लाख रुपये और भी काबू में आये थे, लेकिन ये टेम मेरे पास खाली अस्सी हजार रुपये हैं। आइन्दा शराफत से चार पैसे न कमा सका तो पता नहीं कब तक चलेंगे!’’
‘‘लिहाजा हिंट दे रहे हो कि मैं सच में ही उन में से कुछ माँग न लूँ!’’
‘‘देवा! मैंने ऐसा खयाल तक नहीं किया था। दिल से कहा था कोई रोकड़े की जरूरत हो तो बोलो। लेकिन जरूरत जो रकम मेरे पास है, उससे ऊपर न हो ।’’
‘‘तुम्हारे कहने के ढंग से लग रहा है कि मन ही मन तुम्हें अन्देशा है कि मैं सच में ही जरूरत जाहिर न कर दूँ ।’’
‘‘तौबा! ऐसा नहीं है। बिल्कुल नहीं है। मैंने तो निर्मल मन से...’’
‘‘मुझे तुम्हारी बात पर यकीन है इसलिये बोलती हूँ ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘जरूरत है ।’’
‘‘तो...’’
‘‘बोलूँगी। किसी हमदर्द को बोलूँगी। किसी करीबी को, किसी खैरख्वाह को बोलूँगी। कुछ लोग हैं मेरी निगाह में। उनसे नाउम्मीदी होगी तो तुम्हें बोलूँगी ।’’
‘‘मैं तब न मिला तो?’’
‘‘अखबार में इश्तिहार दूँगी ।’’
‘‘मजाक कर रही हो ।’’
‘‘जाती हूँ। एक आखिरी बात कह कर। इसलिये नहीं कि तुम्हें मेरे कहे से इत्तफाक होगा, बल्कि इसलिये कि अब भी न कहूँगी तो तुम्हें लेकर मेरे मन पर जो बोझ है, वही मेरी जान ले लेगा। सुन रहे हो?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘तुम मेरे कोई नहीं। न कभी थे। मेरे शादी कर लेने के बाद न कभी आइन्दा हो सकते थे। मैंने जब खुद को ये समझाया था, तब सपने में नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी विधवा हो जाऊँगी—यूँ किसी के जबरन किये विधवा हो जाऊँगी। तुम मेरे कोई नहीं थे। लेकिन हो सकते थे अगरचे कि मेरी खुदगर्जी, मेरी नालायकी, बल्कि मेरी दगाबाजी आड़े न आ गयी होती। इतना कबूल कर लेने के बाद अब मैं ये भी नहीं कह सकती कि जो कदम मैंने उठाया था, वो हालात के हवाले होकर उठाया था। मैंने तुम्हें धोखा दिया, वादाखिलाफी की, ऊपर वाले ने उस की मुझे सजा दी—देख ही रहे हो कि कितनी जल्दी दी, कितनी बड़ी दी!’’
जीतसिंह खामोश रहा।
‘‘कोई किसी की तकदीर नहीं लिखता। शादी को जस्टीफाई करने के लिये मैंने बहन के जिन तीन बच्चों का हवाला दिया, वो अब फिर सड़क पर होंगे, फौरन तो न होंगे क्योंकि उन्होंने उनकी सालाना फीस भरी थी, लेकिन आखिर तो होंगे! खुद मेरी मौजूदा स्थिति शादी से पहले के वक्त से भी खराब है। तब नौकरी तो थी, रिजक कमाने का एक जरिया तो था, अब तो वो भी नहीं। यहाँ की खोली अभी मेरे कब्जे में है, ये इत्तफाक न हुआ होता तो तन पर कपड़ा, पेट में रोटी तो होती ही नहीं, सिर पर छत भी न होती। ये सब सजायें इसलिये हैं क्योंकि मैंने तुम्हारे साथ धोखा किया, वादाखिलाफी की, उस बात पर खरा उतर कर न दिखाया जो जैसे एक ब्रह्म वाक्य की तरह मैंने तुम्हें कही थी। बहरहाल अब अगर तुम मुझे माफ कर दो तो हो सकता है ऊपर वाला भी मुझे माफ कर दे। फौरन नहीं तो देर सबेर माफ कर दे ।’’
उसने आशापूर्ण निगाह से जीतसिंह की तरफ देखा।
जीतसिंह परे देखने लगा, बेचैनी से पहलू बदलने लगा।
उसने एक आह भरी और फिर बोली—‘‘एक बात जोश में, वक्ती जज्बात के हवाले मेरे मँुह से निकली क्योंकि मैं बहन के अंजाम से त्रस्त थी लेकिन एक शर्त की तरह न निकली एक सौदे की तरह निकली, हैरान, परेशान, हलकान दिल की एक कराह की तरह निकली जिस की बाबत मैंने बाद में सोचा तो उसे एक वक्ती प्रलाप का दर्जा दिया। मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि तुम उस बात को इतनी संजीदगी से लोगे। मेरे हिले हुए, बेकाबू दिल ने महज एक हसरत जाहिर की थी कि काश ऐसा हो जाता। लेकिन क्योंकर हो जाता! ख्वाहिश करने भर से तो कुछ नहीं हो जाता। यूँ ख्वाहिशें पूरी होती होतीं तो मैं बहन की लम्बी जिन्दगी की ख्वाहिश करती। नहीं?’’
जीतसिंह का सिर स्वयमेव सहमति में हिला।
‘‘फिर तुम गायब हो गये, एकाएक गायब हो गये, यूँ कि अभी थे, अभी नहीं थे। जिस बात को कहने के तकरीबन फौरन बाद मैं भूल भी चुकी थी, सेठ जी से शादी की नौबत आने पर कैसे मैं उस बात को अपने पर आयद बन्दिश महसूस करती! यकीन जानो, मुझे तो तुम्हारे लौटने की भी खबर नहीं थी, तभी लगी जब तुम कोलाबा पहँुच गये। दस लाख मेरे मँुह पर मारने। ये जताने कि तुमने शर्त पर खरा उतर कर दिखाया। और मैं! मैं वादाशिकन निकली थी। वादाशिकन! धोखेबाज! फरेबी! हरजाई! बेगैरत! बेज़मीर! एक बात...एक बात मेरी मुकम्मल जिन्दगी की सबसे बड़ी खता बन गयी। जब तीसरेफेरे पैंतीस लाख के साथ आये थे तो तुम्हारी दीवानगी को अंकुश लगाने को, तुम्हारी आइन्दा आमद को रोक लगाने को मैंने बोल दिया, बेगैरत बनके बोल दिया कि समझो मेरी कीमत चुक गयी। तब तुमने नया हुक्म नादिर कर दिया कि मैं उठूँ और चलूँ तुम्हारे साथ। मैं किसी भले, नेक, मेहरबान आदमी की ब्याहता बीवी थी, कैसे उसे छोड़ कर खड़े पैर तुम्हारे साथ चल देती! मेरे पैरों में जो बेड़ी पड़ी थी, कैसे मैं खड़े पैर उससे निजात पाती! लेकिन तुम्हारा काम ये बातें सोचना तो नहीं था! तुम्हारा काम तो हुक्म जारी करना था, भले ही वो गलत हो, वाहियात हो, नाजायज हो। यूँ चल भी देती तो क्या भला होता तुम्हारा! मैं अपना जिक्र नहीं कर रही, तुम्हारा पूछ रही हूँ। कैसे किसी की ब्याहता बीवी तुम्हारी बन जाती? चंगुलानी साहब तुम्हें गिरफ्तार करा देते। कैसे तुम मुकर कर दिखा पाते कि तुम किसी की ब्याहता बीवी को ले कर भाग गये थे? फिर मेरी तो फजीहत होती, तुम्हारा सारा भविष्य अन्धेरा हो जाता ।’’
‘‘किसे परवाह थी!’’—जीतसिंह होंठों में बुदबुदाया—‘‘अन्धेरे में तो मैं पहले से था, अन्धेरे को कोई और अन्धेरा कैसे कर देता!’’
‘‘मुझे परवाह थी। तुम मानो या न मानो, मैं हमेशा तुम्हारी खैर मांगती थी ।’’
जीतसिंह खामोश रहा।
‘‘क्या जिन्दगी थी मेरी!’’—उसने आह भरी—‘‘तुम से रुसवा, खाविन्द से शर्मिन्दा मैं फटकार के काबिल ही रह गयी जिससे तुमने तो हमेशा मुझे बिना किसी लिहाज के नवाजा। हमेशा मेरी छीछालेदारी की, मुझे धो देने की कोशिश की। हर कोई मुझे गलत ठहराने पर आमादा था। तुम्हारे समेत हर किसी ने अपनी कही, मेरी किसी ने न सुनी। तुमने तो हद ही कर दी। मेरे को आइटम बोला, सरेराह नीलाम होने वाली शै करार दिया। मैं शर्मिन्दा थी—तुम से ही नहीं, अपने आप से भी। जिस हाल में थी उसमें मेरी हालत सांप छछूंदर जैसी थी—न उगलते बनता था, न निगलते बनता था। तुम्हारे आखिरीफेरे से पहले मैं उन पर पूरी तरह से एक्सपोज हो चुकी थी। उन्हें घर में मौजूद तीन किस्तों में तुम्हारे लाये पिचहत्तर लाख रुपयों की खबर थी, तुम्हारे हरफेरे की खबर थी, हरफेरे पर हमारे बीच हुए हर डायलॉग की खबर थी, बमय पुख्ता सबूत खबर थी। चाहते तो मुझे चरित्रहीन औरत करार देते और वैसे ही निकाल बाहर करते। बावजूद इसके बिना मुझे जलील किये, बिना शर्मिन्दा किये वो मुझे आजाद करने को तैयार थे। तुम दरवाजे पर खड़े घन्टी बजा रहे थे और वो मुझे आजाद कर रहे थे तुम्हारे साथ जाने के लिये। पिचहत्तर लाख रुपयों से भरा ब्रीफकेस और सूटकेस साथ ले के जाने के लिये, और भी मैं जो चाहूँ, साथ ले के जाने के लिये। बोले, तलाक की कार्यवाही बाद में होती रहेगी, मैं खुशी-खुशी तुम्हारे साथ जा सकती थी। क्या करती! एक देवता पुरुष के मँुह पर कालिख पोत के चल देती! उस वक्त मेरा यही कहना बनता था—‘यहाँ कोई सुष्मिता नहीं रहती, ये मिसेज चंगुलानी का घर है’ ।’’
वो एक क्षण ठिठकी, फिर बोली—‘‘बावजूद इसके मुझे तुम्हारी परवाह थी। मैं हमेशा दुआ माँगती थी कि किसी करिश्माई तरीके से तुम्हें अपने जुनून से निजात मिले ।’’
‘‘और वो करिश्माई तरीका’’—जीतसिंह धीर से बोला—‘‘सखी के पुलिस इन्स्पेक्टर पति के काबू में था ।’’
‘‘वो कुछ करता—जिसकी कि नौबत ही न आयी—तो उसमें तुम्हारी ही भलाई थी। वैसे भी वो तुम्हें मुझ से दूर रखता तो तुम्हारा गुस्सा वक्त के साथ-साथ ठण्डा होता चला जाता ।’’
‘‘वहम था तुम्हारा ।’’
‘‘चलो, ऐसे ही सही लेकिन वो जुदा मसला था जिस पर अमल की नौबत ही न आयी। मैं खाली ये कहना चाहती थी कि कुछ बातें कहना आसान होता है, उन पर अमल करना बहुत मुश्किल होता है। ‘उठो और मेरे साथ चलो’ कहना आसान था, भुगतना मुश्किल था...’’
‘‘वो किस्सा अब खत्म है, उसका जिक्र बेमानी है ।’’
‘‘तो मैं वो बात करती हूँ जिसका जिक्र बेमानी नहीं है। तुमने घुमा फिरा कर जो इलजाम मेरे सिर थोपा, वो नाजायज है। मेरी ‘दुश्वारी के हल’ का जो अन्दाजा तुमने लगाया, वो गलत है। जो वजह तुमने सोची मुझे यहाँ लायी थी, उसको समझ पाना तुमने कहा कि बड़े मगज की बात नहीं लेकिन जो समझा सरासर गलत समझा, गलत समझा कि मैं कोई फौजदारी का इशारा सरकाने आयी थी। और जो गलत समझा उस को भी मेरे खिलाफ हथियार बना कर मेरे मँुह पर मारा। तुम्हारा इस बात पर बहुत जोर था कि अब तुम जुर्म के टेढ़े रास्तों के मुसाफिर नहीं, सीधी तरह के राही हो। मेरे को खुशी हुई जानकर। मैं दुआ करूँगी कि उस राह से अब तुम कभी न भटको। कोई ताला ठीक करवाना होगा, कोई चाबी बनवानी होगी तो जरूर पहँुचूँगी तुम्हारे पास क्योंकि मुझे यकीन है कि तुम काम चौकस और तसल्लीबख्श करोगे और मेरे को ओवरचार्ज भी नहीं करोगे ।’’
‘‘मैं...’’
‘‘जीते’’—वो उठ खड़ी हुई—‘‘अब जाती हूँ ।’’
पीछे हकबकाये जीतसिंह को छोड़ कर वो ये जा वो जा।
पुरसूमल मरहूम के बड़े साहबजादे का नाम आलोक था और दूसरे, उससे सिर्फ डेढ़ साल छोटे, का नाम अशोक था। छ: साल पहले जब उन की माँ टाइफायड से मरी थी, वो तब भी विलायती बाबू थे, छोटा लन्दन में और बड़ा मानचेस्टर में रहता था। माँ के मरने के बाद उन्होंने भरपूर कोशिश की थी कि पिता अपने डिपार्टमेन्ट स्टोर को बेच-बाच दे और चल कर उन दोनों में से किसी के साथ रहे लेकिन पिता को बच्चों की जिद कुबूल नहीं हुई थी। मुम्बई से उसे लगाव था, वहाँ की तरक्की का उसे अभिमान था—आखिर किरयाने की एक छोटी सी दुकान से उसने इतना बड़ा डिपार्टमेन्ट स्टोर खड़ा किया था, तुलसी चैम्बर्स में दो आलीशान फ्लैट खरीदे थे—ऊपर से मुम्बई की फास्ट लाइफ का वो आदी बन चुका था। ये बात दीगर थी कि मुम्बई की वही फास्ट लाइफ उसकी अकाल मृत्यु की वजह बनी थी।
छ: साल पहले अपनी माँ की मौत पर मुम्बई लौटे दोनों भाइयों का पिछले छ: साल में इण्डिया का वो तीसराफेरा था जब एकाएक उन्हें अपने पिता की मौत की—असामयिक, नृशंस मौत की—खबर लगी थी। बहन उनकी तो इण्डिया में ही कोलकाता में रहती थी लेकिन बकौल उसके अपने चार बच्चों के साथ ऐसी मसरूफ रहती थी कि उसका पिता के पास मुम्बई आना जाना नहीं हो पाता था। औलाद आती नहीं थी और पिता का लाइफ स्टाइल ऐसा था कि पिता को उनकी कमी कभी खलती नहीं थी। फिर शादी कर ली तो जिन्दगी ने, जिन्दगी की मसरूफियात ने, कोई और ही रुख अख्तियार कर लिया जिसको फुल स्टाप कत्ल जैसी अप्रत्याशित घटना ने लगाया।
उनकी उनसे बड़ी बहन का नाम शोभा अटलानी था जो बच्चों को नानी के हवाले कर के पति के साथ मुम्बई पहँुची थी। पति का नाम लेखूमल अटलानी था जो उस पुराने जमाने के नाम से बाकायदा चिढ़ता था। इसलिये पूछे जाने पर अपना नाम हमेशा लेख अटलानी बताता था, कोलकाता में उसका होजियरी का बड़ा बिजनेस था जिसके ‘बड़ा’ विशेषण को सार्थक ससुरे की माली इमदाद ने ही किया था।
बड़े भाई की बीवी उस ट्रेजेडी में शरीक होने के लिये नहीं आयी थी क्योंकि बच्चों को साथ लाना मुमकिन नहीं था और उन्हें पीछे छोड़ना भी मुमकिन नहीं था। छोटे की न बीवी थी, न बच्चे थे।
मुम्बई पहँुचते ही पहली फुरसत में उन चारों ने—खास तौर से दोनों भाइयों ने—पुरसुमल की चन्द महीनों की बीवी को दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर फेंका था और इस काम को कामयाबी से अन्जाम देने में लोकल स्टेशन हाउस के स्टेशन हाउस आफिसर इन्स्पेक्टर चन्द्रकान्त देवताले का उन्हें पूरा-पूरा सहयोग प्राप्त था जिसके द्वारे कि वो उस घड़ी मौजूद थे।
इन्स्पेक्टर देवताले ने थाने में उन्हें यूँ रिसीव किया जैसे चींटी के घर भगवान आये हों।
‘‘कैसे आये?’’—वो प्रेमभाव से बोला।
‘‘फिक्र लायी ।’’—बड़ा भाई आलोक चंगुलानी चिन्तित भाव से बोला।
‘‘अरे, मेरे होते कैसी फिक्र! सब काबू में तो है!’’
‘‘सब नहीं ।’’—छोटा, अशोक चंगुलानी, बोला।
‘‘बोले तो?’’
‘‘वो फोटोग्राफर....वो कमजोर कड़ी है ।’’
‘‘अभी भी बोले तो?’’
‘‘शादी के बाकी गवाहों को जैसे खारिज किया गया, वैसे उसे न किया गया। मन्दिर का पण्डित गायब है, ढूँढ़े नहीं मिलने वाला। सेम पोजीशन स्टोर के मैनेजर तिवारी की है। मीरा किशनानी हमारी जात बहन है, हमें गारन्टी है हमारे से बाहर नहीं जाने वाली। लेकिन फोटोग्राफर सन्तोष बाजपेयी अभी भी मुम्बई में अवेलेबल है ।’’
‘‘उसकी जुबान खोलने की मजाल नहीं हो सकती। ऐन फिट सैट किया है मैंने उसको ।’’
‘‘वो कमजोर कड़ी है ।’’—आलोक पुरजोर लहजे से बोला।
‘‘अरे, काहे को? हमने उसकी बनायी एलबम को राख का ढेर बना दिया, सीडी का वजूद खत्म कर दिया, पूरी गारन्टी कर ली कि उन पिक्चर्स का उसके पास कोई रिकार्ड नहीं था—किसी पिक्चर की कोई एक्स्ट्रा कापी नहीं थी, कोई एक्स्ट्रा सीडी उसने नहीं बनायी थी, कैमरे से, कम्प्यूटर से शादी की कवरेज को पूरी तरह से इरेज किया जा चुका है। वो डरपोक आदमी है, मँुह फाड़ने के अंजाम की बाबत मैंने उसे धमकाया था तो लगता था एक ही घुड़की में उसके प्राण निकल जायेंगे। फिर भी मँुह फाड़ने की जुर्रत करेगा तो कैसे साबित करेगा कि शादी हुई थी?’’
‘‘शायद कोई जरिया हो! तुमने कितनी भी होशियारी दिखाई हो, हर बात को डबल चैक किया हो, ट्रिपल चैक किया हो, फिर भी हो सकता है कोई जरिया हो!’’
‘‘नहीं हो सकता। नाहक फिक्र करते हो, बड़े भाई, कोई जरिया मुमकिन नहीं है। और उसकी मँुह फाड़ने की भी मजाल नहीं हो सकती ।’’
‘‘फिर भी...’’
‘‘मँुह फाड़ेगा तो किस के सामने? उस औरत के सामने? काहे को? क्या मुलाहजा है उसका उस औरत से? फिर मेरी धमकी की तलवार फोटोग्राफर के सिर पर है, उस की मँुह खोलने की मजाल नहीं हो सकती। फिर भी कुछ बका तो मेरे से छुपा रहेगा! साले के स्टूडियो से अफीम बरामद करा दूँगा। असलाह बरामद करा दूँगा। फिर मारा-मारा फिरेगा तमाम जिन्दगी सफाईयाँ दुहाईयाँ देता कि वो नॉरकॉटिक्स स्मगलर नहीं, टैरेरिस्ट या टैरेरिस्ट्स का सप्लायर नहीं ।’’
दोनों भाइयों के चेहरे पर आश्वासन के भाव न आये।
‘‘आल थिंग्स सैड एण्ड डन’’—आलोक बोला—‘‘ही इज ए वीक िंलक ।’’
‘‘वो’’—अशोक बोला—‘‘पण्डित और तिवारी की तरह अनअवेलेबल नहीं है इसलिये कमजोर कड़ी है ।’’
‘‘ये आप लोगों को अब सूझी?’’
‘‘कुछ खटकता पहले से था। ठण्डे दिमाग से गौर किया तो सूझा क्या खटकता था ।’’
‘‘अब आप चाहते क्या हैं?’’
‘‘हमारी निगाह में वो एक बड़ा लूपहोल है जो फौरन प्लग होना चाहिये ।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘इस काम की’’—आलोक बोला—‘‘आप की अलग से खातिर की जायेगी ।’’
‘‘ये बात?’’—एसएचओ के चेहरे पर रौनक आयी।
‘‘हाँ, ये बात ।’’
‘‘ठीक है, मैं करता हूँ कुछ ।’’
‘‘कुछ?’’
‘‘सब कुछ ।’’
‘‘दैट्स बैटर ।’’
‘‘और शाम से पहले इस बाबत गुड न्यूज के साथ तुलसी चैम्बर्स पहँुचता हूँ ।’’
‘‘थैक्यू ।’’
जीतसिंह फ्लोरा फाउन्टेन पहँुचा।
आगे नानाभाई लेन और सन्तोष स्टूडियो तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई। वो एक छोटी सी दुकान निकली जिसके शीशे के प्रवेश द्वार के बाजू की दरवाजे जितनी ही विशाल शो विन्डो में उस की कलाकारिता के नमूने लगे दिखाई दे रहे थे।
वो दरवाजा ठेल कर भीतर दाखिल हुआ।
दरवाजे पर ऐसा इन्तजाम था कि उसे ठेला जाते ही ऊपर लगी पीतल की छोटी-छोटी दो घन्टियों को धक्का लगता था और वो बज उठती थीं।
भीतर बाजू में एक बन्द दरवाजा था जिस पर डार्करूम लिखा था। उसके भीतर कदम रखते ही वो दरवाजा खुला और एक कोई चालीस साल के व्यक्ति ने बाहर कदम रखा।
‘‘यस!’’—वो बोला।
‘‘मालिक से मिलना है ।’’—जीतसिंह बोला।
‘‘मैं हूँ मालिक ।’’
‘‘जरा इधर आ के बात सुनो ।’’
वहां एक शीशे के टॉप वाला लम्बा शो केस था सहमति में सिर हिलाता जिस के परली तरफ वो पहँुचा। उधर वो एक कुर्सी पर बैठा, उसने शो केस के पास की एक कुर्सी की तरफ इशारा किया, जीतसिंह बैठ गया तो वो बोला—‘‘बोलो ।’’
‘‘बोलता है ।’’—जीतसिंह बोला—‘‘अभी पहले नाम बोले तो!’’
‘‘काम क्या है?’’
‘‘बोलूँगा न! बोलने के वास्ते ही आया। टेम खोटी करने के वास्ते नहीं आया—न अपना, न तुम्हेरा—क्या!’’
‘‘सन्तोष। सन्तोष बाजपेयी। अभी बोले तो...’’
‘‘शादी ब्याह की फोटू निकालता है?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘स्टिल और वीडियो दोनों?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘अक्खा काम खुद करता है?’’
‘‘स्टिल फोटोग्राफी खुद करता हूँ। साथ में वीडियोग्राफी का भी आर्डर हो तो बाहर से दो असिस्टेंट बुलाता हूँ ।’’
‘‘दो?’’
‘‘एक वीडियो कैमरा हैण्डल करने के लिये, दूसरा लाइट्स हैण्डल करने के लिये ।’’
‘‘खाली स्टिल फोटोग्राफी का आर्डर हो तो अक्खा काम खुदीच करता है?’’
‘हाँ ।’’
‘‘बिजी रहता है फील्ड में?’’
‘‘खाली शादी ब्याहों के सीजन में। आगे पीछे फील्ड का काम कभी कभार ही मिलता है ।’’
‘‘काम के लिहाज से पिछले साल अक्टूबर का महीना कैसा था?’’
‘‘इतने सवालों का मकसद क्या है?’’
‘‘अभी जवाब दे न! मकसद आगे आता है ।’’
‘‘लेकिन...’’
‘‘प्लीज बोलता है, यार ।’’
‘‘वो शादी ब्याहों का महीना नहीं था इसलिये काम का तोड़ा था ।’’
‘‘फिर भी एक शादी तो कवर किया!’’
‘‘मैंने?’’
‘‘हाँ। कोलाबा के आर्य समाज मन्दिर में। छोटा सा मन्दिर है। इतना छोटा कि तकरीबन इलाके वालों को तो उसकी खबर ही नहीं। वहाँ एक शादी को कवर किया। फोटू निकाली। वीडियो नक्को। खाली स्टिल कैमरे से फोटू। सिम्पल मैरिज। कोई भीड़ भाड़ नहीं, कोई आडम्बर नहीं। वर, वधु और पण्डित के अलावा खाली दो जने और। एक जना वर का करीबी, दूसरी वधु की सखी। और एक ठो फोटोग्राफर। तू। वर साठ के पेटे में। बड़ी औकात वाला रौबदार भीड़ू, वधु बाइस तेइस साल की। फिल्म स्टार जैसी बनी हुई। कुछ याद आया?’’
उसने इन्कार में सिर हिलाया।
‘‘याद में लोचा या ऐसी कोई शादी कवर ही नहीं की थी?’’
‘‘मेरे को ठीक से याद है, पिछले साल अक्टूबर में मैंने कोई शादी कवर नहीं की थी ।’’
‘‘जो फोटू निकाले थे, उनकी एलबम बनायी थी। एलबम पर तेरे स्टूडियो का स्टिकर था। सन्तोष फोटो स्टूडियो करके। साथ में इधर का पता था। नानाभाई लेन, फ्लोरा फाउन्टेन, फोर्ट, मुम्बई। क्या!’’
‘‘मैंने बोला न, मैंने ऐसी कोई मैरिज कवर नहीं की थी, ऐसी कोई एलबम नहीं बनाई थी ।’’
‘‘वो बोला जो कोई तेरे को बोलने को बोला...’’
‘‘क्या!’’
‘‘अभी वो बोल जो किसी ने तोता न पढ़ाया होता तो बोलता ।’’
‘‘मैंने जो बोलना था बोल दिया, अभी नक्की करो ।’’
जीतसिंह ने हाथ बढ़ा कर उस का गिरहबान दबोच लिया और उसे इतनी जोर से उमेठा कि फोटोग्राफर की आँखें बाहर निकल आयीं।
‘‘छ...छो-छोड़ो!’’—बुरी तरह छटपटाता वो बड़ी मुश्किल से बोल पाया।
‘‘छोड़ता है ।’’—जीतसिंह ने पकड़ ढीली की—‘‘पण झूठ बोलना बन्द नहीं करेगा तो इधरीच मरा पड़ा होयेंगा। क्या!’’
उसके मँुह से आवाज न निकली लेकिन शक्ल फरियाद की मूरत बन गयी।
जीतसिंह ने हाथ वापिस खींच लिया।
‘‘ये...ये’’—हाँफता, गला मसलता फोटोग्राफर बद्हवास लहजे से बोला—‘‘ये जुल्म है ।’’
‘‘है न!’’—जीतसिंह सहज भाव से बोला।
‘‘तुम दिन दहाड़े...मेरे स्टूडियो में घुसकर...मैं...मैं पुलिस को फोन लगाता हूँ ।’’
जीतसिंह ने करीब पड़े फोन पर निगाह डाली।
‘‘ये फोन से?’’—फिर बोला।
वो व्याकुलभाव से आजू बाजू देखने लगा।
जीतसिंह ने फोन उठा कर डायल की तरफ से उसके सामने रखा।
‘‘लगा ।’’—वो बोला।
फोटोग्राफर ने फोन की तरफ हाथ न बढ़ाया, उसने अपने सूखे होंठों पर जुबानफेरी।
‘‘अरे, लगा न! साथ में एम्बूलेंस के वास्ते भी बोलना ।’’
‘‘क्या!’’
‘‘जल्दी हस्पताल पहँुचेगा तो लाइफ सेव होने का चानस होगा न!’’
‘‘ह-ह-हस्पताल!’’
‘‘लगायेगा तो फोन किस को लगायेगा? लोकल थाने को या कोलाबा, इन्स्पेक्टर चन्द्रकान्त देवताले को जो कि उधर का एसएचओ है! जिस का पढ़ाया तू तोता है!’’
उसके चेहरे पर हवाईयाँ उड़नें लगीं।
‘‘क-कैसे मालूम?—बड़ी मुश्किल से वो बोल पाया।
‘‘छापे में छपा। टीवी में न्यूज आया ।’’
‘‘बण्डल!’’
‘‘बरोबर। अभी बोलता है या मैं अपना पिरोगराम शुरू करे?’’
‘‘तु-तुम्हारा प्रोग्राम! तुम्हारा क्या प्रोग्राम?’’
‘‘सब फोड़ देगा। तेरे को भी। कचरा का माकिफ कचरा कर देगा। सैम्पल पेश करता है ।’’
जीतसिंह ने फोन उठाया, उस को एक झटका दिया तो उस की डोरी सॉकेट पर से उखड़ गयी। उसने फोन को खींच कर डार्करूम के दरवाजे पर मारा।
फोन के परखच्चे उड़ गये। इतनी जोर की आवाज हुई कि फोटोग्राफर घबरा कर उठ खड़ा हुआ।
‘‘नीचे बैठ!’’—जीतसिंह घुड़क कर बोला।
‘‘हजार रुपये का फोन!’’—वो रुँआसे स्वर में बोला।
‘‘बैठ!’’
वो धम्म से वापिस कुर्सी पर बैठा।
‘‘अरे, क्यों जुल्म ढाते हो?’’—फिर रोता कलपता बोला।
‘‘साले, हलकट! खुल्ला झूठ बोलता है, फिर जुल्म की दुहाई देता है! अभी सच बोल, वर्ना फोड़ता है ।’’
‘‘अरे, कुछ न करना। मैं बहुत गरीब आदमी हूँ ।’’
‘‘इधर भी ऐसीच है। गरीब गरीब का हैल्प नहीं करेगा तो कौन करेगा?’’
‘‘कौन करेगा?’’
‘‘तू करेगा। अभी कर ।’’
‘‘क-क्या करूँ?’’
‘‘पहले तो शादी की बात कबूल कर। कबूल कर कि पिछले अक्टूबर में कोलाबा के आर्य समाज मन्दिर में उस शादी का फोटू निकाला था जिसकी बाबत मैं अभी बोला ।’’
‘‘दारोगा मेरे प्राण खींच लेगा ।’’
‘‘दारोगा कौन?’’
‘‘तुम्हें मालूम है कौन! अभी जिस का नाम लिया था ।’’
‘‘इन्स्पेक्टर देवताले? एसएचओ कोलाबा?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘मैं उसको बोलने को जाऊँगा तू मेरे को क्या बोला?’’
‘‘वो तो नहीं पर...’’
‘‘एक बात को भाव दे। खास बात है, इस वास्ते। दारोगा तेरे प्राण खींचते-खींचते खींचेगा, मैं ये काम अभी करूँगा। यहीच टेम! मैं जब इधर से नक्की करेगा तो मेरा पीठ पीछे तू मरा पड़ा होगा ।’’
उसके शरीर ने जोर की झुरझुरी ली।
‘‘अभी बोल, क्या बोलता है?’’
वो सोचने लगा।
‘‘टेम खोटी कर रहा है ।’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘क्या हाँ? टेम खोटी कर रहा है?’’
‘‘अरे, नहीं, भाई। मैंने उस शादी की स्टिल फोटोग्राफी की थी, इस बात को हाँ बोल रहा हूँ ।’’
‘‘बढ़िया। फोटोग्राफी की एलबम बना के कस्टमर को दी?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘एक ही बनाई?’’
‘‘हाँ। एक ही का आर्डर था ।’’
‘‘नैगेटिव किधर हैं?’’
‘‘मैंने डिजिटल कैमरे से काम किया था ।’’
‘‘बोले तो?’’
‘‘डिजिटल कैमरा कम्प्यूटर की तरह इमेजि़ज रिकार्ड करता है, उसमें फिल्म नहीं डाली जाती ।’’
‘‘फोटू कैसे छपती हैं?’’
‘‘कैमरे में एक मैमरी कार्ड होता है। उसको निकाल कर एक रिसीवर में डालो, उसे कम्प्यूटर से क्नैक्ट करो तो तमाम तसवीरें कम्प्यूटर में आ जाती हैं और फिर सीडी पर उतारी जा सकती हैं ।’’
‘‘कैमरा किधर है?’’
वो उठ कर डार्करूम में गया और निकॉन के एक डिजिटल कैमरे के साथ वापिस लौटा। उसने उसमें से कार्ड निकाल कर जीतसिंह को दिखाया और बाकी जो कुछ बोला था, उसे अमली तौर पर दोहराया।
‘‘हूँ ।’’—जीतसिंह बोला—‘‘सीडी किधर है?’’
‘‘सीडी!’’—फोटोग्राफर की भवें उठीं।
‘‘जिस पर शादी की फोटू उतारीं ।’’
‘‘वो तो एलबम के साथ गयी ।’’
‘‘बोले तो?’’
‘‘सीडी कस्टमर को देना होता है। एलबम में ही राइट इनर कवर में एक पॉकेट होती है जो सीडी को महफूज करके रखने के ही काम आती है। तुम ने एलबम देखी थी तो ये बात तुम्हें मालूम होनी चाहिये ।’’
‘‘पॉकेट की तरफ मेरा ध्यान नहीं गया था ।’’
‘‘तभी ।’’
‘‘तो वो फोटू कैमरे में हैं?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘कम्प्यूटर में हैं, क्योंकि ट्रान्सफर कर दीं?’’
‘‘नहीं, भई ।’’
‘‘कहाँ गयीं?’’
‘‘इरेज कर दीं ।’’
‘‘इरेज बोले तो?’’
‘‘मिटा दीं ।’’
‘‘दोनों जगह से?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘तो सीडी पास रखी?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘वो भी नहीं! अरे, भीड़ू, अपने रिकार्ड के वास्ते कुछ तो किया कि नहीं किया?’’
‘‘रिकार्ड की जरूरत नहीं थी ।’’
‘‘काहे को? कस्टमर को एक्स्ट्रा करके फोटू माँगता हो तो? किसी खास फोटू को बड़ा करा के घर में टांगना माँगता हो तो?’’
‘‘तो सीडी है न उसके पास!’’
‘‘पण तू कोई रिकार्ड नहीं रखता? न कैमरे में, न कम्प्यूटर में, न सीडी पर?’’
‘‘यही बोला मैं ।’’
‘‘तेरी ऐसी कारीगरी का कोई रिकार्ड होता है तो कस्टमर के पास होता है?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘सच बोल रहा है?’’
‘‘जिस की मर्जी कसम उठवा लो। कैमरा तुम्हारे सामने हैं, कम्प्यूटर तुम्हारे सामने हैं, खुद चैक कर लो। स्टूडियो तुम्हारे सामने है, यहाँ मौजूद एक-एक सीडी चैक कर लो ।’’
‘‘एक ही कैमरा है तेरे पास?’’
‘‘डिजिल एक ही है। दूसरा नैगेटिव फिल्म वाला है जो अब शायद ही कभी इस्तेमाल होता है। इतना आउटडेटिड, आउट आफ फैशन हो गया है कि बेचना चाहो तो कोई ग्राहक नहीं मिलता ।’’
‘‘कम्प्यूटर भी एक ही है?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘और सीडी हैइच नहीं?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘पण तू है बरोबर ।’’
जवाब न मिला।
जीतसिंह को फौरन महसूस हुआ कि उसकी तवज्जो भटक गयी थी। उसकी निगाह उस की पीठ पीछे बाहर कहीं पड़ रही थी। उसने घूमकर उसकी निगाह का अनुसरण किया तो पाया कि बाहर एक पुलिस की जीप आकर खड़ी हुई थी जिस में हवलदार ड्राइवर के साथ एक तीन सितारों वाला बावर्दी पुलिस इन्स्पेक्टर बैठा हुआ था।
जीतसिंह फोटोग्राफर की तरफ वापिस घूमा।
‘‘शक्ल से लगता है पहचानता है!’’—उसने अपलक उसकी तरफ देखा।
फोटोग्राफर ने जल्दी से सहमति में सिर हिलाया।
‘‘कौन है?’’
‘‘देवताले ।’’
‘‘थानेदार! कोलाबा थाने का!’’
‘‘वही। घौंसपट्टी में खाली जिक्र किया उसका, लगता है जानते पहचानते नहीं हो ।’’
‘‘श्याना है काफी। तेरे से ही मिलने आया जान पड़ता है। भीड़ू, कोई श्यानपंती की, मेरी बाबत या मेरी पूछताछ की बाबत कुछ बोला तो हलक में बाँह दे के कलेजा निकाल लूँगा। समझा?’’
उसने भयभीत भाव से सहमति में सिर हिलाया।
‘‘अगर’’—फिर बोला—‘‘तुम्हारे बारे में पूछा तो...’’
‘‘कस्टमर। कस्टमर बोलने का। वीडियोग्राफी का रेट पूछने आया। क्या!’’
उस का सिर फिर जल्दी-जल्दी सहमति में हिला।
‘‘बाद में आता है ।’’—जीतसिंह उठ खड़ा हुआ।
तभी हवलदार ने भीतर कदम रखा।
बाहर जाने को जीतसिंह उसकी बगल से गुजरा तो हवलदार ने संदिग्ध भाव से उसकी तरफ देखा। जीतसिंह ने उससे निगाह न मिलाई, वो दरवाजे पर था जब कि उसे सुनाई दिया—‘‘साहब आयेला है। बुलाता है तेरे को। पहँुच ।’’
‘‘अभी ।’’—फोटोग्राफर उठता हुआ बोला।
‘‘ये कौन था?’’
‘‘कस्टमर था कोई राह चलता ।’’
‘‘क्या माँगता था?’’
‘‘वीडियोग्राफी का रेट पूछता था ।’’
‘‘हूँ। चल ।’’
जीतसिंह धोबी तलाव और आगे जम्बूवाडी पहँुचा।
गाइलो की चाल में उस की खोली को ताला लगा हुआ था।
उसका कोई दोस्त भी उस घड़ी वहाँ नहीं था। सब कामकाजी थे—डिकोस्टा, शम्सी और अबदी उसकी तरह टैक्सी ड्राईवर थे और पक्या गोदी कर्मचारी था—रिजक कमाने के नाम पर निकले हुए थे।
वो नागपाडा पहँुचा।
वहाँ अलैग्जेन्ड्रा सिनेमा का टैक्सी स्टैण्ड उसका पक्का अड्डा था।
गाइलो वहाँ नहीं था, जो कि कोई हैरानी की बात नहीं थी। आखिर वो टैक्सी ड्राइवर था, टैक्सी की सवारी न मिले तो घण्टों न मिले, मिले तो एक के बाद एक मिलती चली जाये।
उस घड़ी उसे अपने पर मेहरबान प्राइवेट डिटेक्टिव शेखर नवलानी का खयाल आया। हिचकिचाते हुए उसने उसके फोन पर काल लगाई।
घन्टी बजने लगी।
धीरज से मोबाइल कान से लगाये वो प्रतीक्षा करता रहा।
वो फोन बन्द करने ही लगा था कि आखिर जवाब मिला।
‘‘जीतसिंह बोलता हूँ, साहब ।’’—वो अदब से बोला।
‘‘कैसे हो, जीतसिंह?’’—जवाब मिला।
‘‘खैरियत है, साहब, आप की दुआ से ।’’
‘‘ऊपर वाले की दुआ से ।’’
‘‘मेरे लिये आप ऊपर वाले से कम नहीं, साहब ।’’
‘‘कैसे फोन किया?’’
‘‘साहब, आप से मिलने का ।’’
‘‘फिर कोई पंगा किया?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘पक्की बात?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘फिर भी मिलने का?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘वजह?’’
‘‘बोलेगा न! मिलेगा तो बोलेगा न!’’
‘‘हूँ। चंगुलानी साहब के कत्ल की खबर लगी?’’
‘‘लगी। बोले तो वो भी वजह है जो मेरे को आप से मिलना मांगता है ।’’
‘‘ऐसा?’’
‘‘हाँ, साहब ।’’
‘‘हूँ। मैं अभी फील्ड में हूँ। शाम तक फ्री हो पाऊँगा। सात बजे के बाद कभी आफिस पहँुचूँगा। तुम...आठ बजे आना ।’’
‘‘आता है, साहब। थैंक्यू बोलता है, साहब ।’’
वो वापिस फ्लोरा फाउन्टेन पहँुचा।
सन्तोष फोटो स्टूडियो का शटर डाउन था और उस पर आजू बाजू लगे गोदरेज के दो बड़े ताले बताते थे कि टैम्परेरी बन्द नहीं था, फोटोग्राफर वक्ती तौर पर कहीं इधर-उधर नहीं चला गया हुआ था।
शटर पर एक फुलस्केप कागज चिपका हुआ था।
वो करीब पहँुचा तो उसने उस पर एक इबारत दर्ज पायी। बडे-बड़े अक्षरों में लिखा था :
घर में मातम हो जाने के कारण
स्टूडियो अनिश्चित काल के लिये बन्द
िंपजरा खाली था।
पंछी उड़ गया था।
थानेदार यूँ ही उधर नहीं चला आया था, खास मकसद से आया था, मकसद पूरा करके गया था।
उससे चूक हुई थी।
उसे वहाँ से हिलना नहीं चाहिये था।
जीतसिंह अन्धेरी पहँुचा।
वहाँ खुशालदास लखानी का मारुति कारों का शोरूम था। लखानी पुरसूमल चंगुलानी का जातभाई था, जिगरी दोस्त था।
वहाँ वह औकात बना कर गया था—नयी, काली पतलून और झक सफेद कमीज पहने था और तरीके से बाल संवारे था—क्योंकि जानता था अपने चालू, टपोरी हुलिये में वहाँ पहँुचता तो कोई उसे कार डीलर बड़े सेठ के पास भी न फटकने देता, कोई बड़ी बात नहीं थी कि शोरूम में ही न घुसने देता।
इन्तजार उसे फिर भी करवाया गया।
आखिर एक सजे हुए एयरकंडीशंड ग्लास केबिन में वो शोरूम के मालिक के रूबरू हुआ।
‘‘साह...सर’’—जीतसिंह अदब से बोला—‘‘मेरा नाम जीतसिंह है ।’’
‘‘जीतसिंह!’’—लखानी के माथे पर बल पड़े—‘‘नाम कुछ सुना हुआ जान पड़ता है।’’
‘‘कभी चंगुलानी साहब ने जिक्र किया होगा!’’
‘‘हाँ, याद आया। तू वो छोकरा है जो सुष्मिता से पहले से वाकिफ था! क्योंकि जहाँ वो पहले रहती थी, वहाँ उसके पड़ोस में रहता था!’’
‘‘जी हाँ, वही हूँ मैं ।’’
‘‘हूँ। अभी क्या माँगता है?’’
‘‘सर, मुझे चंगुलानी साहब की बेवक्त मौत का दिली अफसोस है लेकिन साथ ही उस जुल्म का भी भारी अफसोस है जो सेठ जी की मौत होते ही सुष्मिता पर होना शुरू हो गया ।’’
‘‘भई, कुछ खबर तो लगी है मुझे कि पुरसू के पुटड़ों ने उसे निकाल बाहर किया ।’’
‘‘सर, इससे ज्यादा किया। ये नाजायज इलजाम भी लगाया कि सुष्मिता सेठ जी की ब्याहता बीवी नहीं, लिव-इन पार्टनर थी ।’’
‘‘हूँ ।’’
‘‘आप सेठ जी के बचपन के दोस्त हैं, बचपन के दोस्तों में बहुत कुछ सांझा होता है। आपसे तो क्या छुपा होगा कि सेठ जी ने कोलाबा के आर्य समाज मन्दिर में सुष्मिता से विधिवत् ब्याह किया था!’’
‘‘इतना कुछ मेरे को नहीं मालूम ।’’
‘‘लेकिन ये तो मालूम है सेठ जी ने फिर शादी कर ली थी?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘जी!’’
‘‘एक बार फोन पर ये जरूर बोला था कि मैं कभी तुलसी चैम्बर्स आऊँगा तो मेरे को एक सरपराइज मिलेगा लेकिन ये नहीं बोला था कि उसने शादी कर ली थी ।’’
‘‘आप कभी गये थे?’’
‘‘एक बार। ड्रिंक डिनर के लिये। चार हमउम्र दोस्त और भी थे जो इनवाइटिड थे। सब बीवियों के साथ पहँुचे थे। मैं और मेरी बीवी आखिर में पहँुचे थे। तब मैंने सजी धजी सुष्मिता को वहाँ पुरसू के साथ बैठे देखा था। पुरसू ने बाकी मेहमानों को उसका क्या परिचय दिया था, मेरे को नहीं मालूम लेकिन मेरे को उसने उस पुटड़ी से इन्ट्रोड्यूस कराने की कोई कोशिश नहीं की थी ।’’
‘‘ये हैरानी की बात नहीं?’’
‘‘भई, ड्रिंक्स का दौर चल रहा था, इस तकल्लुफ की तरफ तवज्जो नहीं गयी होगी ।’’—लखानी एक क्षण खामोश रहा, फिर बोला—‘‘वैसे पुरसू की ‘सरपराइज’ वाली बात के बाद से ये बात उड़ती-उड़ती मेरे तक तब तक पहँुच चुकी थी कि पुरसू ने चुपचाप शादी कर ली थी। घर में, घर की पार्टी में, मेहमानों के साथ बैठी वो पुटड़ी वो नयी बीवी ही हो सकती थी, इतना मेरे को पुरसू के बताये बिना भी सूझ रहा था इसलिये फार्मल इन्ट्रोडक्शन पर मेरा ही कोई जोर नहीं था। बाद में जब पार्टी वाइन्ड अप हो गयी थी, सब मेहमान रुखसत हो गये थे तो पीछे वो तब भी पुरसू के साथ थी तो उसकी बाबत मैं क्या समझता! कोई क्या समझता!’’
‘‘सेठ जी के साहबजादे सुष्मिता को लिव-इन पार्टनर बताते हैं, इस बारे में आप क्या कहते हैं?’’
‘‘कुछ नही। इस बारे में मैं कुछ कहना नहीं चाहता। ऐसा तो कतई कुछ नहीं कहना चाहता जो मेरे जातभाई के पुटड़ों के खिलाफ जा सकता हो ।’’
‘‘भले ही वो गलत हो?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘यानी आप को उस औरत से कोई हमदर्दी नहीं जिस के साथ उन की वजह से जुल्म हो रहा है?’’
‘‘देखो भई, कोई बड़ी हैसियत वाला सार्इं एकाएक मर जाता है तो ऐसे बखेड़े उसके पीछे खड़े होते ही हैं। लेकिन ये घरेलू झगड़े बखेड़े होते हैं जिनमें किसी बाहरी शख्स के दखलअन्दाज होने का कोई मतलब नहीं होता। मैं आलोक को, अशोक को, शोभा को तब से जानता हूँ जब कि वो पैदा हुए थे। मैं नहीं जानता सुष्मिता कौन है! मेरे को पुरसू की दूसरी शादी की कोई फस्र्ट हैण्ड नॉलेज नहीं। पुटड़े सुष्मिता को लिव-इन पार्टनर बोलते हैं तो ऐसा बोलने की कोई वजह होगी...’’
‘‘कोई वजह नहीं...सिवाय इसके कि वो यूँ सुष्मिता को सेठ जी के विरसे से बेदखल करना चाहते हैं ।’’
‘‘मैं बहस में नहीं पड़ना चाहता। मेरा जोर इस बात पर था कि पुरसू के पुटड़ों की किसी दुश्वारी की घड़ी में मैं उनकी बगल में खड़ा मिलूँगा ।’’
‘‘और इन्साफ का जनाजा निकलता देखेंगे ।’’
‘‘क्यों, भई, इन्साफ करना मेरा काम है?’’
‘‘नहीं, लेकिन...’’
‘‘किसी के साथ कोई नाइन्साफी हुई है तो वो वहाँ जाये अपनी फरियाद लेकर जहाँ इन्साफ मिलता है। कौन रोकता है उसे!’’
‘‘सब रोकते हैं ।’’
‘‘वो न रुके ।’’
‘‘कहना आसान है ।’’
‘‘पुटड़े, सिस्टम में कोई खराबी है तो उसको दुरुस्त करना मेरा काम नहीं है। लेकिन दुनियादारी निभाना मेरा काम है।...बल्कि मेरा फर्ज है। और अपना फर्ज मैं बराबर निभाऊँगा। इसी वास्ते बोला कि जरूरत पड़ने पर मैं पुरसू के पुटड़ों के साथ खड़ा दिखाई दूँगा ।’’
‘‘भले ही वो गलत हों!’’
‘‘भले ही वो गलत हों। जब वो बोलेंगे कि वो गलत नहीं हैं तो उनकी बात पर एतबार करना मेरा फर्ज होगा। किसी गैर के लिये मैं अपने बचपन के दोस्त की, भाइयों जैसे दोस्त की— अब जबकि वो इस दुनिया में भी नहीं है—औलाद को गलत नहीं ठहरा सकता ।’’
‘‘गैर!’’
‘‘भई, जब वो पुटड़ी शादी का कोई सबूत पेश नहीं कर सकती तो गैर ही हुई!’’
‘‘कर सके तो?’’
‘‘क्या तो?’’
‘‘तो आप क्या करेंगे?’’
‘‘तो मैं क्या करूँगा? तो जो करना होगा वो खुद करेगी ।’’
‘‘लेकिन...’’
‘‘अब इस बात को यहीं पर छोड़। मैं बहुत बिजी आदमी हूँ, कोई और बात है तो बोल नहीं तो...तू खुद समझदार है ।’’
‘‘एक बात और कहने की इजाजत दीजिये ।’’
‘‘दी। बोल ।’’
‘‘वसीयत के बारे में क्या कहते हैं?’’
‘‘क्या कहूँ?’’
‘‘चंगुलानी साहब की किसी वसीयत की कोई जानकारी आप को है?’’
उसने तुरन्त उत्तर न दिया, मेज पर उंगलियाँ ठकठकाते उसने उस बात पर विचार किया।
‘‘किसी हालिया वसीयत की मेरे को कोई खबर नहीं है’’—आखिर वो बोला—‘‘लेकिन कोई दस साल पहले की एक वसीयत की खबर है मेरे को क्योंकि गवाह के तौर पर मैंने उस पर साइन किये थे ।’’
‘‘वसीयत पर एक ही गवाह के साइन होते हैं?’’
‘‘नहीं, दो के। लेकिन दूसरा गवाह वो वकील खुद था न जिसने वो वसीयत ड्राफ्ट की थी और रजिस्टर कराई थी!’’
‘‘कौन?’’
‘‘कोई नाम पुरसू ने बोला तो था लेकिन अब याद नहीं ।’’
‘‘वसीयत में क्या था?’’
‘‘क्या पता क्या था!’’
‘‘वो भी याद नहीं!’’
‘‘अरे, भई, पता ही नहीं। मैंने वसीयत पढ़ी थोड़े ही थी!’’
‘‘ऐसे ही साइन कर दिये थे?’’
‘‘तू नादान है। ऐसे ही होते हैं। किसी डाकूमेंट को एंडोर्स करने के वास्ते उसे पढ़ना जरूरी नहीं होता ।’’
‘‘ऐसा?’’
‘‘हाँ, ऐसा। वसीयत पर तो एंडोर्समेंट असल में इस बात की होती है कि वसीयत करने वाले ने उस पर साइन गवाहों के सामने किये थे, उसी ने किये थे, उसके थे ।’’
‘‘आप को बिल्कुल भी कोई अन्दाजा नहीं उसमें क्या दर्ज था?’’
‘‘न, कोई अन्दाजा नहीं ।’’
‘‘शादी के बाद उन्हें नयी वसीयत करना जरूरी लगा हो!’’
‘‘अरे पुटड़े, जब मेरे को शादी की ही खबर नहीं तो नयी वसीयत की कैसे खबर होगी!’’
‘‘सही कहा आपने ।’’
‘‘अब खत्म कर ।’’
‘‘जो हुक्म, सर ।’’
निर्धारित समय पर जीतसिंह खार पहँुचा।
शेखर नवलानी, प्राइवेट डिटेक्टिव, का आफिस वहाँ टेलीफोन एक्सचेंज के करीब के एक आफिस कम्पलैक्स में मैजनीन फ्लोर पर था और जीतसिंह का देखा भाला था।
उसने आफिस में कदम रखा तो पाया सैकेट्री छुट्टी करके जा चुकी थी और बाहरी आफिस और बॉस के निजी कक्ष के बीच का दरवाजा खुला था। बाहरी आफिस को लाँघ कर जीतसिंह खुले दरवाजे की चौखट पर पहँुचा।
नवलानी अपने लैपटॉप के साथ बिजी था।
जीतसिंह अदब से खांसा।
नवलानी ने सिर उठाया।
‘‘सलाम बोलता है, साहब ।’’
‘‘जीतसिंह! आओ, भई ।’’
जीतसिंह ने भीतर कदम रखा।
‘‘बैठो ।’’
‘‘थैंक्यू बोलता है, साहब ।’’—वो उसके सामने एक विजिटर्स चेयर पर बैठ गया।
नवलानी ने वाल क्लॉक पर निगाह डाली।
‘‘आठ बजे! ठीक!’’—फिर बोला—‘‘वक्त के बड़े पाबन्द हो ।’’
जीतसिंह अदब से, संकोच से मुस्कराया।
‘‘मैं भी अभी दस मिनट पहले ही पहँुचा ।’’
‘‘बहुत काम करता है, साहब ।’’
‘‘अरे, नहीं। ऐसे भी भागा फिरता है। सच पूछो तो चंगुलानी साहब के काम के बाद से कोई हैवी पेमेन्ट वाला काम हाथ नहीं आया ।’’
‘‘ऐसा?’’
‘‘हाँ ।’’—उसने मेज पर से सिग्रेट का पैकेट उठाया, उसमें से एक सिग्रेट निकाल कर अपने होंठों की तरफ बढ़ाया, फिर हाथ रास्ते में यूँ ठिठका जैसे उसे कोई भूली बात याद आ गयी हो। उसने वही सिग्रेट जीतसिंह की तरफ बढ़ाया और बोला—‘‘लो ।’’
‘‘अरे, नहीं, साहब ।’’—जीतसिंह हड़बड़ाया सा बोला।
‘‘अरे, लो न! इस वक्त चाय का इन्तजाम नहीं हो सकता, इसलिये लो ।’’
‘‘आप बोलता है, साहब, तो...’’
‘‘हाँ, बोलता है साहब’’—नवलानी के स्वर में विनोद का पुट आया।
जीतसिंह ने झिझकते हुए सिग्रेट थामा और कृतज्ञ भाव से बोला—‘‘बहुत मान देता है, साहब। तुम इतना बड़ा भीड़ू, मैं साला टपोरी, सड़क छाप...’’
‘‘बस, बस ।’’
नवलानी ने एक सिग्रेट खुद लिया, फिर पहले जीतसिंह का और फिर अपना सिग्रेट सुलगाया।
शेखर नवलानी, पीडी, उम्र में कोई चालीस साल का, इकहरे बदन वाला, अच्छी शक्ल सूरत वाला आदमी था। क्लीनशेव्ड था और निगाह का चश्मा लगाता था। अमूमन वो ऐसा थका-थका, झोलझाल सा आदमी लगता था जैसे कि सचिवालय का कोई क्लर्क हो लेकिन पलक झपकते ही यूँ तना हुआ और चौकन्ना लगने लगता था जैसे कि फ्रंट पर तैनात कोई फौजी अधिकारी हो। जीतसिंह को पहले नहीं मालूम था लेकिन अब बराबर मालूम था कि बतौर प्राइवेट डिटेक्टिव मुम्बई में उसकी बड़ी साख थी, बड़ी पूछ थी, क्योंकि वो टॉप सीक्रेसी की गारण्टी के साथ उम्दा, चौकस, बढ़िया और मुस्तैद काम करता था।
जैसे कि पहले एक बार जीतसिंह के खिलाफ—पुरसूमल के एंगेज किये—और दो बार उसके लिये खुद उसके एंगेज किये—काम कर चुका था।
नवलानी ने सिग्रेट का लम्बा कश लगाया, फिर बोला—‘अब बोलो, क्यों मिलना चाहते थे?’’
‘‘बोलता है, साहब ।’’—उसने सिग्रेट होंठों तक पहँुचाया और तत्काल हाथ नीचे कर लिया—नवलानी के सामने बैठ कर सिग्रेट पीता वो खुद को सहज महसूस नहीं कर रहा था—‘‘साहब, वो चंगुलानी सेठ...बोले तो, बहुत बुरा हुआ ।’’
‘‘हाँ, भई’’—नवलानी संजीदा लहजे से बोला—‘‘सच में बहुत बुरा हुआ। इतना भला, परहितअभिलाषी, सज्जन पुरुष...किसी कारजैकर की करतूत का शिकार हो गया। दुख की बात है। दारुण दुख की बात है ।’’
‘‘साहब, वो जो परहितअभिलाषी करके तुम बोला, वो मैं बरोबर समझा तो बोले तो मेरा कितना भला किया!’’
‘‘बहुत ज्यादा। किसी की भी उम्मीद से ज्यादा। कोई मुलाहजा नहीं था, कोई मजबूरी नहीं थी, फिर भी किया। बड़े लोगों का बड़प्पन ऐसे ही उजागर होता है। इसे कहते हैं नेकी कर दरिया में डाल ।’’
‘‘बरोबर बोला, साहब ।’’
‘‘उस घड़ी कैसे चुटकियों में कम्प्यूटर की तरह काम किया चंगुलानी सेठ के आला दिमाग ने! लिफ्ट में जले नोट अपने बताये। वो ऐसा न करते तो जलने से बच गये अड़तालीस लाख के नोटों की कोई जवाबदारी करना ही तुम्हारे लिये मुमकिन न होता। जान से जाने से बच गये इसलिये खुदकुशी का इलजाम आता। हादसा हुआ बताते तो उसके लिये भी तुम्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाता—आरसन, आगजनी भी बड़ा गुनाह है। मालूम!’’
जीतसिंह ने इन्कार में सिर हिलाया।
‘‘फिर खड़े पैर तुम्हें उसी दिन से काम पर लगा अपना वो मुलाजिम बताया जिसको उन्होंने एक करोड़ की रकम अपने सिन्धी दोस्त और बिजनेसमैन खुशालदास लखानी को अन्धेरी पहँुचाने का पहला काम सौंपा था जब कि लिफ्ट में वो हादसा हो गया था। यही नहीं, उन्होंने इस बाबत दोस्त को भी अन्धेरी फोन कर के साउन्ड आफ किया कि पूछे जाने पर उसने इस बात की तसदीक करनी थी कि चंगुलानी सेठ एक करोड़ की उधारी उसके पास भेज रहे थे। मुझे नैगोशियेटर बना कर मौके पर पहँुचे इन्स्पेक्टर गोविलकर को पाँच लाख की रिश्वत खास इस बात की दी कि वो तुम्हारा पीछा छोड़े, नोटों की वजह से, लिफ्ट में हुए हादसे की वजह से वो तुम पर कोई केस बनाने की कोशिश न करे। और सौ बातों की एक बात, खुद जिम्मेदारी ले कर तुम्हें फोर्ट के नानावटी जैसे एक्सपेंसिव और टॉप के नर्सिंग होम में भिजवाया और यूँ न सिर्फ तुम्हारी जान बची, बुरी तरह से जले भुने होने के बाद महज दस दिन में उठ कर अपने पैरों पर खड़े हो गये ।’’
‘‘बरोबर बोला, साहब। जो सेठ जी ने मेरे साथ किया वो आज के जमाने में कोई किसी सगे वाले के साथ नहीं करता। बोले तो भला ही न किया, करिश्मा किया ।’’
‘‘मुझे खुशी है, जीतसिंह, कि तुम्हें इस बात का अहसास है। इसीलिये मैंने हमेशा कहा तुम गलत नहीं, गुमराह हो। मैंने आँखों से देखा कि कैसे अपने दोस्त केकी मिस्त्री के साथ हुए जुल्म ने तुम्हारे में आदमियत जगाई, उसकी अपाहिज बीवी, बिनब्याही नौजवान बहन का खयाल करके तुम्हारे भीतर का गॉड का गुड सन जैसे सोते से जागा और तुम्हारी ही मेहनत से, तुम्हारी ही मशक्कत से आखिर केकी का इन्साफ हुआ, जिन्होंने उस पर जुल्म ढाया वो या मारे गये या लम्बी सजायें पा कर जेल गये। जब तुम नानावटी नर्सिंग होम में पड़े जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहे थे तो ऐसे ही तो मैंने तुम्हें नहीं कहा था। कि लाख जौहर हों आदमी में, आदमियत नहीं तो कुछ भी नहीं। तब मैंने ऐसा इसलिये कहा था कि तब मैं तुम्हें ललकार के, शर्मिन्दा करके, तुम्हारे में आदमियत जगाना चाहता था, अब इसलिये कहना चाहता हूँ कि तुम्हारे में आदमियत जाग गयी मुझे साफ दिखाई देती है। लगता है एक परहितअभिलाषी सज्जन पुरुष के अहसान तले दबे तुम खुद परहितअभिलाषी होते जा रहे हो...’’
‘‘अभी बोलोगे, साहब, कि सज्जन करके पुरुष भी होता जा रहा हूँ ।’’
‘‘मैं ऐन यही कहने वाला था ।’’
‘‘सपना है, साहब। हालात के हवाले हो कर, हालात की रौ में बह कर मैं कोई अच्छा काम किया, तो बोले तो चानस लगा कि हो गया। बोले तो इस वास्ते हो गया कि गलत घड़ी भी दिन में दो बार ठीक टेम देती है। पण इतने से मेरी औकात नहीं बदलने वाली। किधर भी जाके बोलो, जीतसिंह कौन! बोलेगा, तालातोड़! सेफक्रैकर! वाल्टबस्टर! डकैत! हिस्ट्रीशीटर! नोन बैड कैरेक्टर! कौन बोलेगा सज्जन कर के पुरुष!’’
‘‘सैल्फक्रिटिसिज्म अच्छी बात होती है लेकिन तभी जब कि उसका उपयोग आत्मा की शुद्धि के लिये हो, उसको ओढ़ना बिछाना गलत है...’’
‘‘मैं मैट्रिक फेल भीड़ू, फैंसी बातें नहीं समझता, साहब। साहब, आप का टेम कीमती। अभी वो बात बोलो न जो समझ में आये! या मेरे को बोलने दो ।’’
‘‘सॉरी! क्या कहना चाहते हो?’’
‘‘साहब चंगुलानी सेठ के बच्चों ने सुष्मिता को निकाल बाहर किया। मालूम?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘बोले, वो सेठ जी की ब्याहता बीवी हैइच नहीं ।’’
‘‘भई, सुना तो ऐसा ही है। कहते हैं लिव-इन पार्टनर थी ।’’
‘‘पण तुम्हेरे को तो मालूम वो सेठ जी की ब्याहता बीवी!’’
‘‘कैसे मालूम! मैं शादी में तो शामिल नहीं हुआ था!’’
‘‘साहब, तुम सेठ जी का करीबी था...’’
‘‘नहीं था। बतौर क्लायंट किसी का किसी से बिजनेस कान्टैक्ट उसे उसका करीबी नहीं बना देता ।’’
‘‘...तुम सेठ जी से मिलता था, उनके घर जाता था, सेठ जी कभी तो बोला होगा कि घर में जो औरत, वो उनकी बीवी!’’
‘‘न, कभी न बोला ।’’
‘‘पण...’’
‘‘देखो, बात को समझने की कोशिश करो। चंगुलानी साहब बड़ी हैसियत वाला बड़ा सेठ था, मैं मामूली पीडी उसकी निगाह में जिस की हैसियत हायर्ड हैण्ड जैसी थी...’’
‘‘हायर...हायर्ड हैण्ड बोले तो?’’
‘‘एम्पलाई! मुलाजिम!’’
‘‘ओह!’’
‘‘ऐसा शख्स ऐसे सेठ के घर में जाये तो सेठ क्यों भला उसे अपनी बीवी से इन्ड्रोड्यूस करायेगा! उस को उधर कोई सजी धजी, सेठ जी पर बलिहार जाती औरत दिखाई दे तो वो सेठ जी के बिना बताये भी तो यही समझेगा कि बीवी थी!’’
‘‘ठीक!’’
‘‘मेरे साथ यही पोजीशन थी। चंगुलानी सेठ ने सुष्मिता से मेरे को कभी बाकायदा इन्ड्रोड्यूस नहीं कराया था, लेकिन मैं जब अपनी रिपोर्ट के तहत उसका जिक्र उन की बीवी के तौर पर करता था तो कभी मेरा मँुह भी नहीं पकड़ा था ।’’
‘‘अपनी जुबानी सेठ जी कभी न बोला कि सुष्मिता उन की बीवी थी?’’
‘‘बोला, कई बार बोला, बोलना जरूरी था, इसलिए बोला ।’’
‘‘जरूरी था?’’
‘‘हाँ। बतौर पीडी जिस खुफिया काम के लिये उन्होंने मुझे रिटेन किया था, वो तुम्हारी पड़ताल था और तुम्हारे हवाले से सुष्मिता की, उसके चिंचपोकली में तुम्हारे साथ किन्हीं ताल्लुकात की पड़ताल था। और मेरी पड़ताल ये कहती थी कि तुम्हारे सुष्मिता से, उसकी उससे नौ साल बड़ी और सेठ जी की मुलाजिम बहन अस्मिता से अच्छे ताल्लुकात थे लेकिन चिंचपोकली में कोई—कोई भी—ये न बोला कि तुम्हारी सुष्मिता से आशनाई थी। जवाब में सेठ जी की जिद थी कि मेरी पड़ताल गलत थी क्योंकि उन्हें यकीनी तौर पर मालूम था कि उन की घर से गैरहाजिरी में तुम उनकी बीवी से मिलने आते थे ।’’
‘‘एसीच बोला! बीवी से...बीवी से मिलने आता था!’’
‘‘हाँ। और भी कुछ बार ऐसे बोला ।’’
‘‘फिर भी तुम बोलता है, साहब, कि तुम्हेरे को पक्की करके नहीं मालूम कि सुष्मिता सेठ जी की बीवी थी, क्योंकि तुम उसकी शादी में शामिल नहीं हुआ था!’’
‘‘भई, तब नहीं कहता था, अब कहता हूँ। अब कहता हूँ जब कि लिव-इन पार्टनर वाली बात उठी है ।’’
‘‘लिव-इन पार्टनर से किसी का क्या मुलाहजा, साहब? अगर किसी को ऐसे पार्टनर की किसी पुरानी आशनाई से पिराब्लम तो वो उस से ताल्लुकात खत्म करता है, उसको चलता करता है या आशनाई की खुफिया तसदीक के लिये पीडी अप्वायंट करता है?’’
‘‘तुम्हारी बात में दम है जीतसिंह, लेकिन कुछ लिव-इन रिलेशंस भी सीरियस हो जाते हैं, उन की कमिटमेंट भी बड़ी, संजीदा और मजबूत हो जाती है। कोई लिव-इन रिलेशन उस लैवल तक पहँुच चुका हो और मेल पार्टनर को फीमेल पार्टनर की किसी पुरानी आशनाई की भनक लगे, ये भी भनक लगे कि वो आशनाई अभी भी चालू थी तो उस बात की खुफिया कनफर्मेशन की मेल पार्टनर की ख्वाहिश हो सकती है ।’’
‘‘तो लिव-इन पार्टनर को बीवी बोलने का क्या मतलब! बोलता कि उसको अपने लिव-इन पार्टनर की पिछली जिन्दगी के बखिये उधेड़ने का था। पीडी से असलियत छुपा के रखना तो दाई से पेट छुपाने जैसा हुआ!’’
‘‘बहुत सयानी बात कही, जीतसिंह!’’
‘‘मैं किधर का सयाना, साहब! वो तो हमारे देहात में ऐसा बोलते हैं इस वास्ते मेरे को याद ।’’
‘‘बहरहाल तुम्हारी बात में दम है। दमदार बात का जवाब सेठ जी और सुष्मिता की उम्र में बहुत बड़े फर्क में छुपा है। अट्ठावन साल का आदमी अपने साथ रहती बाइस साल की लड़की को लिव-इन पार्टनर बोलता तो अपनी एय्याश, लम्पट, लारटपकाऊ फितरत को मोहरबन्द करता और साथ में लड़की के किरदार को भी दागदार करता, क्योंकि बूढ़े की जवान माशूक तो गोल्ड-डिगर ही कहलाती है ।’’
‘‘गोल्ड-डिगर बोले तो!’’
‘‘धनदीवानी ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘लिहाजा सुष्मिता को बीवी बोल कर सेठ जी ने अपनी और उसकी दोनों की इज्जत रखी ।’’
‘‘खाली बोल कर! असल में बीवी नहीं थी?’’
‘‘अब मैं क्या बोलूँ!’’
‘‘मैं बोलता है न!’’
‘‘क्या?’’
‘‘आप सेठ जी के हुक्म पर चिंचपोकली जा के जीतसिंह करके भीड़ू का पड़ताल किया, सुष्मिता करके उसी इलाके में उसके पड़ोस में रहती लड़की का पड़ताल किया तो कोई न बोला कि सुष्मिता ने उधर से इसलिये नक्की किया क्योंकि शादी बनाया, क्योंकि घरवाले के घर गयी?’’
‘‘बोला। कई लोग बोला ।’’
‘‘तो...’’
‘‘बोलने वालों में से कोई शादी में शरीक तो नहीं था! कनफम्र्ड न्यूज किसके पास थी कि सुष्मिता ने शादी कर ली थी?’’
‘‘उसकी मकान मालकिन के पास थी जिसे वो मौसी कहती थी। उसी ने मेरे को सुष्मिता की शादी की बाबत बोला था। मुझे अभी तक उसका कहा याद है ‘जीते, शादी के बाद क्या लड़कियाँ अपने घर पर रहती हैं’!’’
‘‘उस मौसी से फिर मिलना और पता करना कि शादी की बात खुद सुष्मिता ने उसको बोली थी या उसने किसी से सुनी थी। सुनी थी और आगे सरकाई थी!’’
जीतसिंह मँुह बाये नवलानी को देखने लगा।
‘‘अफवायें ऐसे ही फैलती हैं और जितनी दोहराई जाती हैं उतनी मजबूत होती हैं। आखिर इतनी मजबूत हो जाती हैं कि हकीकत जान पड़ती हैं ।’’
‘‘देवा! क्यों हर कोई साबित करने पर तुला है कि सुष्मिता सेठ जी की ब्याहता बीवी नहीं थी!’’
‘‘मैं ऐसा नहीं कर रहा, मैं महज तुम्हारी बातों का जवाब दे रहा हूँ, उन से ताल्लुक रखती सम्भावनाओं को एक्सप्लेन कर रहा हूँ ।’’
‘‘साहब, एक बात बोलो, अपने आला दिमाग से एक फैसला कर के बोलो, सुष्मिता चंगुलानी सेठ की ब्याहता बीवी थी या नहीं!’’
‘‘मेरे खयाल से तो थी...’’
‘‘शुकर ।’’
‘‘...लेकिन मेरा खयाल गलत भी तो हो सकता है!’’
‘‘देवा! साहब ये फैसला किया कि हरूफ मेम किया!’’
नवलानी खामोश रहा, उसने सिग्रेट का एक लम्बा कश लगा कर उसे ऐश ट्रे में झोंका।
जीतसिंह तो सिग्रेट महज मुलाहजे में थामे था, उसने भी उसे ऐश ट्रे में डाल दिया।
‘‘साहब’’—फिर वो बोला—‘‘अभी मैं कुछ बोलता है ।’’
नवलानी की भवें उठीं।
‘‘पण पहले एक सवाल पूछता है ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘अभी तुम बोला तुम्हेरे को मालूम कि उन लोगों ने सुष्मिता को निकाल बाहर किया क्योंकि सुष्मिता लिव-इन पार्टनर, ब्याहता बीवी नक्को। मेरा सवाल ये है, साहब कि नतीजा ही मालूम या उस नतीजे को ताकत देने के लिये उन लोगों ने क्या किया, वो भी मालूम? नहीं मालूम तो मैं बोलता है ।’’
‘‘तुम बोलते हो! तुम्हें कैसे मालूम है?’’
‘‘खुद सुष्मिता के बताये मालूम है ।’’
‘‘वो मिली तुम से?’’
‘‘हाँ। और सब बोला मेरे को। साहब, समरथ के जुल्म का तो कोई ओर छोर ही नहीं है। चौतरफा होता है। लगता है अब सोसैटी में दो ही जमात हैं—एक जालिमों की, दूसरी मजलूमों की; एक जुल्म करने वालों की, दूसरी जुल्म सहने वालों की ।’’
‘‘और तुम जुल्म सहने वालों के साथ हो!’’
‘‘क्योंकि मैं भी मजलूम है ।’’
‘‘सुष्मिता भी?’’
‘‘बरोबर ।’’
‘‘इसलिये तुम उसके साथ!’’
जीतसिंह ने जवाब न दिया, वो कुछ क्षण खामोश रहा।
‘‘सीक्रेट कर के बोलता है, साहब’’—फिर बोला—‘‘उसको नहीं बोला—उसको तो बोला मेरे से कोई उम्मीद न रखे—पण तुम्हेरे वो बोलता है, साहब। है तो ऐसीच!’’
‘‘पुरानी आशिकी जोर मार रही है?’’
‘‘पता नहीं क्या हो रहा है! वो बोलते हैं न, नाई नाई बाल कितने? जजमान, आगे आ जायेंगे। जो होगा, आगे आ जायेगा ।’’
‘‘ठीक!’’
‘‘अभी जो मैं बोलना माँगता है वो ये है कि एक जगह से मेरे को पक्की करके मालूम हुआ कि शादी हुई थी बरोबर। जैसे सुष्मिता बोली, ऐन वैसीच हुई थी ।’’
‘‘कहाँ से मालूम हुआ है?’’
जीतसिंह ने अपनी फोटोग्राफर से मुलाकात का किस्सा सविस्तार बयान किया।
‘‘ओह!’’—नवलानी बोला।
‘‘वो शादी का चश्मदीद गवाह था, हाथ से निकल गया। खामखाह हाथ से निकल गया। मैं सोचा जैसे उन्होंने शादी कराने वाले पण्डित को गायब कर दिया, दूसरे गवाह सेठ जी के मैनेजर तिवारी को गायब कर दिया, वैसे उसको न किया तो वो कहीं नहीं जाने वाला था। अभी गायब है, भीड़ू ।’’
‘‘न गायब होता तो क्या करते?’’
‘‘उस से उसका सच्ची वाला बयान जबरन लिखवाता ।’’
‘‘जीतसिंह, ऐसे बयान की बयान देने वाले की फिजीकल अपीयरेंस से एन्र्डोसिमेंट बिना कोई कीमत नहीं होती। बयान देने वाला वक्त आने पर अपने तहरीरी बयान की तसदीक न कर पाया तो दूसरी पार्टी का दावा होगा कि बयान तुमने खुद लिख लिया ।’’
‘‘देवा!’’
‘‘जब तुम्हें मालूम है कि पुलिस भी उन लोगों के साथ है तो नौबत आने पर उस फोटोग्राफर का यही बयान होगा कि वो तहरीर उससे जबरन लिखवाई गयी थी और पुलिस के हुक्म पर अमल करता वो बड़े आराम से बयान से मुकर जायेगा ।’’
‘‘तो मैं क्या करे? साहब, तुम काबिल, तजुर्बेकार भीड़ू है तुम बोलो न मैं क्या करे? बोले तो इसी वास्ते तो मैं तुम्हेरे पास आया कि तुम कोई रास्ता सुझायेगा ।’’
नवलानी सोचने लगा।
‘‘पुलिस उनके साथ न मिली होती’’—फिर बोला—‘तो ये काम कोई बहुत मुश्किल नहीं था। मिली होने पर भी एसएचओ कोई बहुत बड़ी ताकत नहीं होता, हर जगह दीवार बनकर खड़ा नहीं हो सकता। लेकिन ये जो ‘कत्ल सुष्मिता ने कराया और तुमने किया’ वाली घुंडी उन लोगों ने डाली है, ये परेशान कर सकती है। सुष्मिता के कोई हाल दुहाई मचाना शुरू करते ही पुलिस तुम दोनों को गिरफ्तार कर सकती है। पुलिस के रिकार्ड में तुम नोन क्रिमिनल हो, भले ही कभी सजा पाने की हद तक नहीं फँसे लेकिन तुम्हारा पुलिस रिकार्ड ऐसा है कि उनके लिये तुम्हारे खिलाफ केस खड़ा करना आसान होगा ।’’
‘‘मैं चंगुलानी सेठ का कातिल! मैं कारजैकर!’’
‘‘जब इतना कुछ खुद कुबूल करते हो कि पहले से हो तो कारजैकर होने में क्या प्राब्लम है! अभी खुद तुमने अपनी जुबानी बोला कि किधर भी जाकर पूछो जीतसिंह कौन? जवाब मिलेगा तालातोड़! वाल्टबस्टर! सेफक्रेकर! हिस्ट्रीशीटर! नोन बैड कैरेक्टर! शुक्र है अभी मर्डरर नहीं बोला जो कि खुद अपनी जुबानी कबूल कर चुके हो कि हो। फिर डकैती के इलजाम में गिरफ्तार हो चुके हो, जेल काट चुके हो, खुशकिस्मत निकले कि कोर्ट में तुम्हारे खिलाफ केस डिसमिस हो गया और तुम बेनीफिट ऑफ डाउट पा कर छूट गये। अब खुद सोचो, ऐसे रिकार्ड वाले शख्स के खिलाफ कोई नया केस खड़ा करना पुलिस के लिये क्या मुश्किल काम होगा! तुम्हारी इतनी खसूसियात सुनते ही मैजिस्ट्रेट गोली की तरह, केस की सुनवाई से भी पहले, तुम्हारे खिलाफ ओपीनियन बना लेगा ।’’
‘‘पण जब मैं कुछ किया नहीं...’’
‘‘कोर्ट में सरकारी वकील साबित करके दिखायेगा न कि किया, सब किया। जरा सोचो, जब पुलिस गवाहों को कोई बयान न देने के लिये तैयार कर सकती है—जैसे कि मीरा किशनानी को किया—तो कोई बयान जरूर देने के लिये भी तो तैयार कर सकती है! गवाह गायब कर सकती है—जैसे शादी कराने वाले पण्डित को किया, मैनेजर तिवारी को किया, अब फोटोग्राफर को किया—तो गवाह पैदा भी तो कर सकती है! ऐसे करतब पुलिस के लिये रोजमर्रा का काम है। कोर्ट में फर्जी, सिखाये पढ़ाये गवाह पेश किये जाना आम बात है! आम गवाह तो क्या, वक्त आने पर वो चश्मदीद गवाह पेश कर देंगे जिसने कि तुम्हें वारदात को अन्जाम देते आँखों से देखा ।’’
‘‘फौरन क्यों न बोला?’’
‘‘डर गया था। एक कातिल के खिलाफ जुबान खोलने के खयाल से ही खौफजदा था ।’’
‘‘तो पेश क्यों हो गया?’’
‘‘अन्तरात्मा ने झकझोरा, ललकारा, धिक्कारा। अपनी खामोशी से शर्मिन्दा आखिर अपने अन्जाम की परवाह छोड़ कर, दिलेर बन कर, जिम्मेदार शहरी बन कर असलियत बयान करने थाने पहँुच गया ।’’
‘‘दाता! इतना अन्धेर!’’
‘‘रोज होता है। फर्जी केस चल जाये तो बात ही क्या, ढेर हो जाये तो इस वजह से आजतक किसी पुलिस वाले पर कोई एक्शन नहीं हुआ, क्योंकि बंगलिंग का ठीकरा गवाह के सिर फूटता है जिसने कि पुलिस को गुमराह किया। ऐसा भी हमारी कानून व्यवस्था में शायद ही कभी होता है कि किसी को कोर्ट में झूठी गवाही देने की—कानूनी जुबान में जिसे परजुरी कहते हैं—कभी सजा भुगतनी पड़ी हो ।’’
‘‘कमाल है!’’
‘‘कोई कमाल नहीं। शिनाख्त में गलती किसी से भी हो सकती है। मुगालता लगा, पहले कातिल को ठीक से पहचाना था, अब पता लगा कि पहचान में लोचा। बस! छुट्टी!’’
‘‘मैं कातिल तो करजैकर किस लिये?’’
‘‘कत्ल की वजह पर, उद्देश्य पर—जो कि सेठ जी की दौलत पर काबिज होना था—पर्दा डालने के लिये। पुलिस को गुमराह करने के लिये कि वारदात का मकसद कार छीनना ही था। कार वाले ने रिजिस्ट किया, इसलिये स्टैब करना पड़ा ।’’
‘‘दौलत...कितनी होगी, साहब?’’
‘‘मेरा अन्दाजा सौ करोड़ का तो खुल्ला है। असल में चंगुलानी साहब की औकात इससे कहीं ज्यादा हो सकती है ।’’
‘‘ऐसा?’’
‘‘हाँ, भई। मुम्बई में, खास तौर से साउथएण्ड पर, जानते हो जमीन कितनी महँगी है! सत्तर-अस्सी करोड़ का तो उनका डिपार्टमेन्ट स्टोर ही होगा। तुलसी चैम्बर के दो फ्लैट बीस करोड़ से कम क्या होंगे! प्रापर्टी में कहीं और भी इनवेस्ट किया हो सकता है। और इनवैस्टमेन्ट्स भी हो सकती हैं, डिक्लेयर्ड बड़ी सेविंग्स हो सकती हैं, बड़ा व्यापारी था, दो नम्बर का भी ढ़ेर रोकड़ा हो तो कोई बड़ी बात नहीं ।’’
‘‘माल पर काबिज होने के लिये बीवी ने कत्ल करा दिया?’’
‘‘बीवी चुप नहीं बैठेगी तो वो दावा कर सकते हैं। पहले भी बोला ।’’
‘‘यूँ बीवी माल पर काबिज हो सकती है?’’
‘‘वो ऐसा समझती होगी—या किसी ने’’—नवलानी ने अर्थपूर्ण भाव से जीतसिंह की तरफ देखा—‘‘समझाया होगा कि बीवी खाविन्द की नेचुरल वारिस होती है ।’’
‘‘होती है?’’
‘‘वसीयत न हो तो होती है ।’’
‘‘वसीयत हो तो?’’
‘‘तो इस बात पर मुनहसर होता है कि वसीयत में क्या लिखा है! वसीयत करने वाला अपनी सम्पत्ति का मालिक होता है, वो पूरे होशोहवास में वसीयत करता है, उसको सब-रजिस्ट्रार के कोर्ट में रजिस्टर कराता है तो वसीयत में दर्ज प्रावधान किसी को भी विरसे का मालिक बना सकते हैं, किसी को भी विरसे से बेदखल कर सकते हैं ।’’
‘‘ब्याहता बीवी को यूँ बेदखल किया जा सकता है?’’
‘‘भई, इस बारे में कोई एक राय स्थापित नहीं है। कई कानून के बड़े ज्ञाता कहते हैं कि बीवी का खाविन्द की जिन्दगी में स्पैशल दर्जा होता है इसलिये नहीं किया जा सकता, कई कहते हैं कि वसीयतकर्ता की मर्जी सर्वोपरि है, वो जो चाहे कर सकता है। चाहे तो सारी सम्पत्ति किसी धर्मार्थ संस्थान को दान कर सकता है ।’’
‘‘वारिसों का—औलाद का, बीवी का—एतराज नहीं चलता?’’
‘‘नहीं ही चलता। फिर भी एक सूरत में चल सकता है ।’’
‘‘बोले तो!’’
‘‘वो वसीयतकर्ता को पागल करार दें और ऐसा साबित कर दिखायें। दावा करें कि उसे बहकाया गया था, बरगलाया गया था, वसीयत करते वक्त उसकी दिमागी कूवत, उसका बैटर जजमेंट, उसकी ऊँच नीच विचारने की क्षमता उसके काबू में नहीं थी ।’’
‘‘ओह!’’
‘‘लेकिन मौजूदा केस में इन बातों का अभी कोई दखल नहीं, क्योंकि अभी तो ये ही सामने नहीं आया कि सेठ जी की वसीयत है या नहीं है ।’’
‘‘साहब, बोले तो बात ये हो रही थी कि मैं कत्ल की साजिश में शामिल! मैं कारजैकर!’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘मेरे पास कार किधर है?’’
‘‘असल कारजैकर के पास भी किधर होती है! यूँ झपटी हुई कीमती कार ओवरनाइट नेपाल पहँुच जाती हैं। कत्ल किया, कवर अप के लिये कारजैक की और आगे प्रोफेशनल को सौंप के रोकड़ा खड़ा कर लिया ।’’
‘‘रोकड़ा किधर है मेरे पास!’’
‘‘डकैती का हासिल पौने तिरतालीस लाख रुपया—जो तुम्हारी अमानत के तौर पर चंगुलानी साहब के पास था—वो भी तुम्हारे पास किधर था!’’
जीतसिंह खामोश रहा।
‘‘फिर जौहरी बाजार के प्राइवेट वाल्ट वाला जो आइडिया मैंने तुम्हें सरकाया था, को क्या तुम्हें भूल गया होगा! जो जगह चंगुलानी साहब के पास मौजूद रकम छुपाने के लिये फिट थी, वो कारजैकिंग से हासिल रकम छुपाने के लिये भी तो फिट ही होगी!’’
‘‘ये बातें उन लोगों को तो नहीं मालूम!’’
‘‘तुम्हें क्या पता! क्या पता मालूम हों या हो गयी हों!’’
‘‘मैंने कभी उस पिराइवेट वाल्ट का रुख नहीं किया था ।’’
‘‘रुख कर तो सकते थे!’’
‘‘जरूरत ही नहीं थी ।’’
‘‘वो जुदा मसला है। मेरा फिर वही जवाब है, रुख कर तो सकते थे!’’
‘‘साहब, तुम तो मेरा दम निकालता है ।’’
नवलानी हँसा।
‘‘असलियत बयान करता है’’—फिर बोला—‘‘तुम्हें हकीकत समझाता है ।’’
‘‘पण मैं तो कुछ और ही समझने आया था ।’’
‘‘और क्या? सुष्मिता के साथ होती ज्यादती का कोई हल?’’
‘‘बोले तो, हाँ। पण लगता है मजलूम के वास्ते कोई हल हैइच नहीं। क्या!’’
नवलानी ने उत्तर न दिया। उसने—इस बार बिना जीतसिंह को आफर किये—एक सिग्रेट सुलगाया और विचारपूर्ण मुद्रा बनाये उसने कश लगाने लगा।
‘‘साहब’’—जीतसिंह व्यग्र भाव से बोला—‘‘आप कुछ करो न!’’
‘‘मैं! मैं क्या करूँ?’’
‘‘साहब, इतना बड़ा जासूस है पिराइवेट कर के, मेरे से काहे पूछता है! कोई जासूसी करो, कोई खोज करो, कोई हल निकालो ।’’
‘‘कहना आसान है ।’’
‘‘साहब, हाँ बोलेगा तो करना भी आसान होगा ।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘हाँ, साहब!’’
नवलानी ने नये सिग्रेट का लम्बा कश लगाया।
‘‘साहब’’—जीतसिंह याचनापूर्ण स्वर में बोला—‘‘तुम हमेशा मेरा हैल्प किया है, ये टेम नहीं करेगा?’’
नवलानी सकपकाया।
‘‘साहब, मेरे को तुम्हेरा बड़ा मान हैं, मेरे को तुम्हेरे से बहुत उम्मीदें हैं। मैं पहले भी बोला, अभी फिर बोलता है, चंगुलानी सेठ के बाद तुम दूसरा भीड़ू है जिसको इस शहर में मेरे से कोई हमदर्दी है। अभी चंगुलानी सेठ इस दुनिया से नक्की किया तो बोले तो तुम एकीच भीड़ू है जिसको इस शहर में मेरे से कोई हमदर्दी है। साहब, कुछ करो न, फिरयाद करता है ।’’
‘‘क्या करूँ?‘‘
‘‘साहब, ये मैं बोले!’’
‘‘अरे, समझो पीडी लाउड थिंकिंग करता हैं। देखते हैं जो तुम्हारी सोच समझ में आता है, वो मेरी थिंकिंग से मैच करता है या नहीं!’’
‘‘साहब, जो गवाह गायब हो गये हैं, या कर दिये गये हैं, आप उन को ढूंढ़ निकाल सकता है। फिर हो सकता है वो लोग झूठ बोलते न रह सके। कोई एक भी गवाह सच्चाई बयान करने के लिये तैयार हो गया तो तमाम पोल पट्टी खुल कर सामने आ जायेगी ।’’
‘‘ठीक। लेकिन ये तुम्हारी हसरत ही है कि ऐसा हो जाये, असल में तुम्हें इसका अन्दाजा नहीं है कि ये कितना मुश्किल काम है। कश्मीरी पण्डित अपने होम टाउन गया। क्या पता कश्मीर में उसका होम टाउन कहाँ है!’’
‘‘साहब, वो सालों से इधर बसा बताया जाता है, किसी को तो मालूम होगा कि पीछे कहाँ से था!’’
‘‘हूँ ।’’
‘‘मैनेजर तिवारी नौकरी छोड़ के किधर गया, वो तो मालूम ही है कि बलिया गया। इतने साल से वो सेठ जी का मुलाजिम था, कहीं तो रिकार्ड में दर्ज होगा कि वो मुम्बई में कहाँ रहता था और बलिया में उसका पता क्या था!’’
‘‘ठीक!’’
‘‘वो फोटोग्राफर भीड़ू तो शायद अभी मुम्बई में ही हो!’’
‘‘मैं पड़ताल करवाऊँगा उसकी ।’’
‘‘करवायेंगे?’’
‘‘हाँ, भई। मैं अकेला आदमी सारे काम तो नहीं कर सकता! हर जगह तो नहीं पहँुच सकता! लैग वर्क के लिये बाहर से आदमी बुलाने पड़ते हैं ।’’
‘‘बाहर से कहाँ से?’’
‘‘बहुत ठिकाने हैं। इन मामलों में मेरा टाई-अप कोबरा इनवैस्टिगेशन एण्ड सिक्योरिटीज सर्विसिज से है। इस एजेन्सी से और उसके पार्टनर आदिनाथ धनेकर से तुम्हारा वास्ता पड़ चुका है ।’’
‘‘हाँ, साहब। बहुत बढ़िया आदमी हैं। मेरे पिता जैसे दोस्त एडुआर्डो के साथ इधर गणेश महाडिक करके मवाली की मिडनाइट क्लब में जो फौजदारी हुई थी, उसके सिलसिले में धनेकर साहब ने बहुत बढ़िया काम करवाया ही नहीं था, आखिर में खुद भी किया था ।’’
‘‘मुस्तैद आदमी है, एफीशेंट एडमिनिस्ट्रेटर है ।’’
‘‘साहब अभी एक गवाह मीरा किशनानी है जो कि गायब भी नहीं है। वो उन लोगों की तरफ है इसलिये सुष्मिता के हक में बयान नहीं देने वाली, शादी की हकीकत अपनी जुबानी कबूल नहीं करने वाली लेकिन कोई तो तरीका होगा उस से सच कबुलवाने का!’’
‘‘देखेंगे ।’’
‘‘साहब, मैं छोटा आदमी, मेरी छोटी अक्ल, पण मेरे मगज में कुछ और भी आया जो बोले तो मैं बोलूँ?’’
‘‘किस बारे में?’’
‘‘जो साजिश हो रयेला है, उसी के बारे में ।’’
‘‘बोलो ।’’
‘‘साहब, सुष्मिता का मँुह बन्द करने के वास्ते वो लोग कत्ल की जो स्टोरी तैयार किया, वो उन पर भी तो लागू हो सकती है!’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘वो लोग भी तो सेठ जी के मर्डर का वास्ते सुपारी लगाया हो सकता है!’’
‘‘क्या!’’
‘‘वो लोग—स्पेशल करके वो विलायती छोकरा लोग—भी तो सुपारी लगाया हो सकता है! आखिर सौ करोड़ का—ऊपर का—मामला है ।’’
‘‘अरे, सगे बेटे बाप का कत्ल करवायेंगे?’’
‘‘कलयुग है, साहब, क्या पता चलता है!’’
‘‘अरे, भई, वो बाप के वारिस हैं। जो पैसा अन्त पन्त उनका है...’’
‘‘अभी तो नहीं है न! अन्त पन्त क्या पता कब होता! सेठ जी ऐन चौकस, ऐन फिट, ऐन तन्दुरुस्त भीड़ू, क्या पता सौ साल जीता!’’
‘‘बड़ी खतरनाक बात सुझा रहे हो, जीतसिंह!’’
‘‘साहब, मेरे मगज में आयी, मैंने बोल दी। क्या पता दोनों छोकरों में से किसी को या दामाद को कोई रोकड़े की पिराब्लम हो जिसका हल उसको इमीजियेट कर के माँगता हो, वो सेठ जी के सीधे-सीधे मरने का इन्तजार न कर सकता हो!’’
‘‘इसलिये सुपारी! उन्हें जबरन ऊपर भेजने का इन्तजाम!’’
‘‘क्यों नहीं?‘‘
‘‘लड़के इंगलैण्ड में, दामाद कोलकाता में, सुपारी उठाने वाला मुम्बई में?’’
जीतसिंह सकपकाया।
‘‘आलायकत्ल सेठ जी के अपने कटलरी सैट का हिस्सा काा\वग नाइफ! गोश्त काटने वाली छुरी! यानी जिसने सुपारी उठाई वो अपना हथियार अफोर्ड नहीं कर सकता था, माँगे के हथियार से काम चलाता था जब कि कत्ल की सुपारी लाखों की होती है ।’’
‘‘साहब, उन लोगों ने सुष्मिता को फँसाने का भी तो इन्तजाम रखना था!’’
‘‘कान्ट्रेक्ट किलर तक—सुपारी उठाने वाले तक—वो छुरी पहँुची कैसे? किसने पहँुचाई? इस बाबत इंगलैण्ड से या कोलकाता से फोन पर हिदायत हुई तो किसको हुई? कौन था वो शख्स जिस ने आलायकत्ल फ्लैट में से निकाला—कैसे निकाला, वो जुदा मसला है—और कान्ट्रैक्ट किलर को पहँुचाया?’’
‘‘साहब, तुम तो मेरा हवा निकालता है ।’’
नवलानी हँसा।
‘‘अभी वसीयत का ही बात करो न!’’
‘‘ठीक है ।’’
‘‘साहब, अभी आप वसीयत के बारे में, वसीयत करने वाले की मर्जी के बारे में इतना कुछ बोला, क्या मालूम सेठ जी ने कोई नया वसीयत निकाला हो, जिसमें उन्होंने किसी को बेदखल किया हो!’’
‘‘मालूम कैसे पड़ेगा?’’
‘‘वसीयत बोले तो कोई वकील ही तैयार करता होयेंगा?’’
‘‘अमूमन हाँ ।’’
‘‘साहब, जो बात अपने से बाहर, वो क्या पता किधर पहँुची!’’
‘‘बहुत दूर की कौड़ी है, जीतसिंह लेकिन मुझे कबूल करना पड़ रहा है कि है ।’’
‘‘तो फिर क्या बोलता है, साहब?’’
‘‘क्या बोलूँ?’’
‘‘मेरे से पूछता है, साहब?’’
‘‘मैं पता करूँगा सेठ जी के विल ड्राफ्ट करने जैसे छोटे मोटे काम कौन सा वकील करता था, फिर उससे कोई जानकारी निकलवाने की कोशिश करूँगा ।’’
‘‘साहब, कोई वसीयत पहले से हो तो उसका भी तो पता करना ।’’
‘‘उससे क्या होगा?’’
‘‘मालूम पड़ेगा कि वो अभी चालू या बाद में नवीं की ।’’
‘‘पुरानी वसीयत से ये बात नहीं मालूम हो सकती। इस बात की तरफ इशारा नयी वसीयत में होता है जिसकी तहरीर की शुरुआत ही वसीयतकर्ता ये लिख के करता है कि वो अपनी पुरानी वसीयत रद्द करता है ।’’
‘‘साहब, आप बोला वसीयत सब-रजिस्ट्रार के पास रजिस्टर्ड होती है। जब ऐसा बोलती नवीं वसीयत उधर पहँुचती होगी तो हो सकता है कि उधर रिकार्ड में भी पुरानी वसीयत फैसल करने का कोई सिस्टम हो ।’’
‘‘मुझे इस बात की खबर नहीं। मैं मालूम करूँगा। रजिस्टर्ड विल का सब-रजिस्ट्रार के ऑफिस में रिकार्ड होता है। अगर कोई पुरानी विल है तो मैं उसकी कापी निकलवाने की कोशिश करूँगा ।’’
‘‘बरोबर है, साहब ।’’
‘‘तुम्हें क्या मालूम!’’
‘‘दस साल पहले की है ।’’
‘‘ये भी मालूम! कैसे जाना?’’
जीतसिंह ने बताया।
‘‘कमाल है!’’—नवलानी मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला—‘‘लखानी के पास पहँुच गये! मुलाकात भी कर ली! भई, तुम क्या कम जासूस हो!’’
‘‘मैं कुछ नहीं है, साहब ।’’
‘‘पुरानी वसीयत की कापी मुहैया हो भी गयी तो हाथ क्या आयेगा?’’
‘‘मेरे को अन्दर से फीलिंग आता है कि सुष्मिता को लिव-इन पार्टनर बोल कर निकाल बाहर करने की कोई वजह उस वसीयत में छुपी हो सकती है ।’’
‘‘बहुत सयानी, बहुत पते की बातें कर रहे हो, जीतसिंह!’’
‘‘साहब जरूरत है न! जरूरत बहुत कुछ सिखा देती है ।’’
‘‘ठीक!’’
‘‘सेठ जी के लड़के तो विलायत में बसे हैं, उनको, उनकी बैकगिराउन्ड को चैक कराना तो बोले तो इधर बैठे मुमकिन नहीं होगा!’’
‘‘सब मुमकिन है। खर्चा होता है—बड़े काम के लिये बड़ा खर्चा होता है—लेकिन सब मुमकिन है। मैं प्राइवेट डिटेक्टिव्स की इन्टरनेशनल एसोसियेशन का मेम्बर हूँ। दुनिया के किसी भी कोने से अपने जैसे पीडी की हैल्प हासिल कर सकता हूँ ।’’
‘‘ये बड़ा काम! बड़ा खर्चा!’’
‘‘ऐसा ही है, जीतसिंह, आज तक मैंने तुमसे कभी फीस चार्ज नहीं की—तुमने जिद की तो भी चार्ज नहीं की लेकिन इस बार ऐसा मुमकिन नहीं हो पायेगा ।’’
‘‘मैं समझता है, साहब ।’’
‘‘सच में बड़ा खर्चा होगा। इस बार फीस भी चार्ज होगी क्योंकि वो बोलते है न कि घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या!’’
जीतसिंह ने गहरी साँस ली।
‘‘क्या हुआ?’’—नवलानी तनिक उलझनपूर्ण भाव से बोला—‘‘कुछ गलत कहा मैंने?’’
‘‘नहीं, साहब, जो कहा, ऐन फिट कहा, ऐन बरोबर बोला ।’’
‘‘तो?’’
‘‘अभी क्या बोलेगा!’’
‘‘कोई खास बात है?’’
‘‘बैडलक खराब तो बात अपने आप खास ।’’
‘‘क्या कहना चाहते हो, साफ बोलो!’’
‘‘साहब, पहले जब मैं जिद करता था कि मेरे को फीस जरूर देने का तो तुम लेता नहीं था, अभी लेता है तो मैं साला दे नहीं सकता ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘हैइच नहीं ।’’
‘‘क्या बात करते हो! अरे, इतनी बड़ी रकम थी तुम्हारे पास! पौने तिरतालीस लाख रुपये! किधर गयी?’’
‘‘दान कर दी ।’’
‘‘क्या!’’
‘‘सच्ची बोलता है, साहब ।’’
‘‘कहाँ दान कर दी?’’
‘‘चैम्बूर में तुकाराम चैरिटेबल ट्रस्ट कर के एक ठीया है, वहाँ ।’’
‘‘तुकाराम चैरिटेबल ट्रस्ट! जिसे कोई चैम्बूर का दाता कर के भीड़ू चलाता है?’’
‘‘खुद नहीं चलाता, लेकिन उधर सब काम उसके इशारे पर, उसके हुक्म पर होता है, जो अक्खी मुम्बई के गरीब गुरबा में दीनबन्धु दीनानाथ, दुखभन्जन, गरीबनवाज, सखी हातिम कहलाता है, जो अन्धे की आँख, लंगड़े की लाठी, बेसहारे का सहारा, अनाथ का नाथ है। साहब, उस भीड़ू से मैं इतना मुतासिर है कि मेरे को अन्दर से फीलिंग आया कि मेरे को उसके चैरिटी के काम में शरीक होने का था। नतीजतन मैं चैम्बूर गया और उस घड़ी तक जो कुछ मेरे पास था, मैंने सब उसके कदमों में डाल दिया। खुद को भी ।’’
‘‘कमाल है!’’
‘‘बहुत अच्छा लगा मेरे को, साहब! बहुत चैन मिला ।’’
‘‘मैंने तो सुना है ऐसा कोई शख्स है ही नहीं। वो तो महज एक अफवाह है जो जोर पकड़ती चली गयी। इसी वास्ते वो दीनबन्धु, दीनानाथ कहलाने के साथ-साथ चलता फिरता प्रेत भी कहलाता है ।’’
‘‘तुम गलत सुना, साहब, मैं मिला न बरोबर!’’
‘‘बहरहाल मतलब ये हुआ कि दूसरों की जरूरतों की पूर्ति में योगदान देते तुम खुद जरूरतमन्द बन गये ।’’
‘‘वान्दा नहीं, साहब ।’’
‘‘अरे भई, पहले अपने घर के अन्धेरे की फिक्र करते हैं, फिर मसजिद में चिराग जलाने निकलते हैं ।’’
‘‘साहब, मैं आपका फीस बरोबर भरेगा, पण थोड़ा टेम माँगता है ।’’
‘‘थोड़े टाइम में पैसा किधर से आयेगा?’’
‘‘साहब, लम्बी कहानी है। खामखाह टेम खोटी करेगा सुनके ।’’
‘‘मर्जी तुम्हारी। ठीक है, मेरे से जो बन पड़ेगा मैं करूँगा लेकिन, जीतसिंह सिर्फ मेरे किये से कुछ नहीं होने वाला ।’’
‘‘बोले तो?’’
‘‘मैं जासूस हूँ, फैक्ट्स फाईडिंग इंस्ट्रूमेन्ट हूँ लेकिन जो जानकारी मैं निकालूँगा, उस को वाजिब तौर से, फोर्सफुल, इफेक्टिव तरीके से इस्तेमाल में लाना मेरा काम नहीं ।’’
‘‘वो किस का काम है?’’
‘‘किसी बड़े वकील का। जो हालात सामने हैं, उन में कोई बड़ा वकील ही सुष्मिता की कोई मदद कर सकता है। मैं तो अपनी खोजबीन से सिर्फ उसके हाथ मजबूत कर सकता हूँ ।’’
‘‘बड़ा वकील!’’
‘‘हाँ। बड़े वकील का दबदबा कोर्ट कचहरी में स्थापित होता है, जज मैजिस्ट्रेट तक उसकी काबलियत का, जेहनियत का, कानून की आला जानकारी का रोब खाते हैं, थाने वालों की तो उस के सामने कोई बिसात ही नहीं। ऐसा कोई बड़ा वकील सुष्मिता का केस पकड़ेगा तो वो थाने नहीं जायेगा, सुष्मिता को लेकर सीधे पुलिस कमिश्नर के पास पहँुचेगा जहाँ वो दरख्वास्त नहीं करेगा, माँग करेगा कि सुष्मिता की एफआईआर दर्ज की जाये और उस पर फौरन कार्यवाही की जाये। वो सैशन में नहीं जायेगा, हाईकोर्ट में केस डालेगा जहाँ वो षड़यन्त्र की और षड़यन्त्रकारियों की धज्जियाँ उड़ा देगा ।’’
‘‘बहुत सुहाना सपना दिखा रहे हो, साहब, पण ये सपना सच कैसे होगा?’’
‘‘होगा। बड़ा वकील करके दिखायेगा ।’’
‘‘ऐसा कोई वकील है तुम्हेरी निगाह में?’’
‘‘है। इत्तफाक से मेरी उस से छोटी-मोटी वाकफियत भी है ।’’
‘‘ओह! वाकफियत भी है बोला! कौन है वो भीड़ू...बड़ा वकील साहब?’’
‘‘गुंजन शाह नाम है। उम्रदराज शख्स है। तमाम जिन्दगी वकालत करते बीती है। ज्यूडीशियरी में उसका बहुत दबदबा है। कई बार हाईकोर्ट की जजशिप की आफर हो चुकी है लेकिन उसे कबूल नहीं। मजाक में बोलता है बैंच के पीछे बैठकर सारा दिन बकवास सुनने के मुकाबले में बैंच के सामने खड़े होकर थोड़ी देर बकवास करना बेहतर काम है ।’’
जीतसिंह के चेहरे पर ऐसे भाव न आये जैसे बात उसकी समझ में आयी हो।
‘‘बान्द्रा वैस्ट में आफिस है। टर्नर रोड पर। हैरीटेज कर्मशियल कम्पलैक्स में ।’’
‘‘फीस!’’—जीतसिंह फंसे कण्ठ से बोला—‘‘फीस क्या?’’
‘‘एक पेशी का एक लाख रुपया। दस लाख एडवांस मिनिमम। भले ही केस पहली पेशी में डिसाइड हो जाये या डिसमिस हो जाये ।’’
जीतसिंह का दिल जूते में पहँुच गया।
‘‘देवा!’’—उसके मँुह से निकला—‘‘इतना फीस!’’
‘‘इससे भी बड़ी फीस चार्ज करने वाले वकील हैं इस शहर में ।’’
‘‘देवा!’’
‘‘गुंजन शाह ही सुष्मिता का कोई भला कर सकता है। क्या करोगे? कैसे करोगे?’’
जीतसिंह कुछ क्षण स्तब्ध बैठा रहा फिर एकाएक उठ खड़ा हुआ।
‘‘क्या हुआ?’’—नवलानी बोला।
‘‘जाता है, साहब ।’’
‘‘जवाब तो तुमने दिया नहीं! क्या करोगे? कोई और वकील जो कम फीस चार्ज करता हो...’’
‘‘नहीं। टॉप का भीड़ू ही माँगता है ।’’
‘‘कैसे करोगे?’’
‘‘ये टेम तो जाता है, साहब, पण...बोलेगा। बोलेगा बरोबर। सलाम बोलता है, साहब ।’’
जितना पशेमान वो वहाँ पहँुचा था, उससे कहीं ज्यादा पशेमान वो वहाँ से रुखसत हुआ।
सड़क पर आकर जीतसिंह ने वालपोई एडुआर्डो को फोन लगाया।
तुरन्त उत्तर मिला।
‘‘जीतसिंह बोलता है, बिग डैडी ।’’
‘‘मालूम। कैसा है, जीते?’’
‘‘बढ़िया ।’’
‘‘कैसे फोन किया? कोई खास बात?’’
‘‘है तो सही कुछ-कुछ ।’’
‘‘क्या? बोल तो!’’
‘‘वो भीड़ू...जो मेरे को किसी हाइस्ट में पार्टनर बनाना माँगता था...जो कोई वाल्ट खुलवाना माँगता था...उसका फिर फोन आया?’’
‘‘नहीं तो! काहे को पूछता है?’’
‘‘पण फोन आयेगा तो सही! क्योंकि उसको मेरा जवाब माँगता है! नहीं?’’
‘‘हाँ। पण क्या पता कब आयेगा! जब नक्की बोलने का, तेरा फाइनल जवाब देने का कि नहीं माँगता तो कभी भी आये, क्या फर्क पड़ता है! न भी आये तो क्या फर्क पड़ता है!’’
‘‘वो अपना जो मोबाइल नम्बर तुम्हेरे को दिया, वो मेरे को माँगता है ।’’
‘‘काहे को? जब मार्निंग में मैं तेरे को बोला नोट कर ले तो किया नहीं तो अब काहे को माँगता है? ट्वैल्व आवर्स में खयाल बदल गया!’’
‘‘अरे, क्यों बहस करता है, डैडी? मेरे को वो नम्बर मांगता है तो मांगता है ।’’
‘‘मार्निंग में जब तू बोला कि तेरे को नम्बर नहीं माँगता था तो मैंने तो वो नोट पैड का कागज तभी फाड़ के फेंक दिया था जिस पर वो नम्बर मैंने नोट किया था ।’’
‘‘किधर फेंका?’’
‘‘खिड़की से बाहर। गली में। उड़ के पता नहीं किधर पहँुचा होगा!’’
‘‘ओह!’’
‘‘पण तेरे को अभी वो नम्बर माँगता काहे को है?’’
‘‘बोलेगा, डैडी, बोलेगा। अभी जो बोलता है वो सुनो ।’’
‘‘सुना ।’’
‘‘उस भीड़ू का फोन एक बार तो फिर जरूर आयेगा क्योंकि उसको मेरा जवाब माँगता है। नहीं?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘फोन आये तो उस को बोलने का कि मेरे को—बद्रीनाथ को—उससे डायरेक्ट बात करने का। बोलने का कि जवाब मेरे को खुद देने का और उसको मेरा मोबाइल नम्बर देने का या उसका मोबाइल नम्बर फिर माँगने का और मेरे को खबर करने का। बरोबर?’’
‘‘वो सब तो मैं करता है...करेंगा पण तू है किस फिराक में? मेरे को तो लगता है तेरा कुछ टेम खामोश बैठने का इरादा अभी से डावांडोल है। ऐसा है तो साफ बोल मेरे को। और वजह भी बोल इतनी जल्दी पलटी खाने की ।’’
‘‘सब बोलेगा, डैडी। अभी मेरा काम जैसे मैं बोला, करो। मेहरबानी होगी ।’’
‘‘पण...’’
‘‘कट करता है। गुडनाइट ।’’
साढ़े नौ बजने को थे जब कि जीतसिंह जम्बूवाडी पहँुचा।
एडवर्ड सिनेमा के करीब का वो बेवड़ा अड्डा तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई जो कि बकौल गाइलो उसका फेवरेट था।
एक फ्रेंड के साथ बाटली मारता गाइलो वहाँ मौजूद था।
फ्रेंड जीतसिंह के लिये सर्वदा अपरिचित था।
वो उन की टेबल पर पहँुचा।
गाइलो ने सिर उठा कर उसकी तरफ देखा। तत्काल उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आये।
हैरानी के। खुशी के नहीं कि दोस्त आया था।
‘‘अरे, जीते!’’—वो बोला—‘‘वाट ए सरपराइज! इधर कैसे पहँुच गया!’’
‘‘तेरे से बात करने का ।’’—जीतसिंह संजीदगी से बोला।
‘‘तेरे को मालूम मैं इधर था ।’’
‘‘नहीं। पण तू बोला न ये तेरा फेवरेट अड्डा! तो चांस लिया ।’’
‘‘ओह! बैठ!’’
जीतसिंह एक खाली कुर्सी पर बैठा।
‘‘अभी बोल, क्या बात करने का?’’
‘‘तेरे से’’—जीतसिंह ने एक अर्थपूर्ण निगाह जोड़ीदार पर डाली—‘‘तेरे से बात करने का ।’’
‘‘ओह! जानी, माई डियर!’’
जोड़ीदार ने गिलास पर से सिर उठाया।
‘‘थोड़ा टेम के वास्ते किधर और जा के बैठ। प्लीज कर के बोलता है ।’’
‘‘नो प्राब्लम, ब्रदर ।’’
जानी और उसका गिलास वहाँ से रुखसत हो गये।
‘‘अभी बोल’’—पीछे गाइलो तनिक नर्वस भाव से बोला—‘‘क्या बात करने का। नहीं...पहले मैं डिरिंक आर्डर करता है तेरे वास्ते ।’’
‘‘अभी नहीं। अभी नहीं। बाद में ।’’
‘‘पहले बात करेगा?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘ओके ।’’
‘‘मैं दिन में तेरी खोली पर भी गया था ।’’
‘‘डे टाइम में मैं उधर किधर होता है!’’
‘‘चांस लिया। सोचा शायद हो। फिर तेरे अलैग्जेन्ड्रा सिनेमा वाले रेगुलर टैक्सी स्टैण्ड का भी चक्कर लगाया ।’’
‘‘पैंसेंजर का पता लगता है कब मिल जाये!’’
‘‘मालूम। मालूम। पण...चांस लिया न!’’
‘‘काहे कू ढूँढ़ता था?’’
‘‘मेरा फ्रेंड—भाइयों जैसा फ्रेंड—नाराज होकर मेरे पास से गया, मैं गिल्टी फील करता था। मेरे को उस को राजी करने का था, इस वास्ते ढूँढ़ता था ।’’
‘‘थप्पड़ मार के गाल सहलाना माँगता था ।’’
‘‘अरे, नहीं रे ।’’
‘‘मैं मिला न अभी इधर! कैसे राजी करेगा मेरे को?’’
‘‘सोच ।’’
‘‘तू बोल ।’’
‘‘ठीक है, मैं बोलता है। गाइलो, तू बाइबल में जो बोला लिखा है, वो मेरे को मन्जूर ।’’
‘‘बोले तो?’’
‘‘बदला लेना है तो लो और नक्की करो, देर नहीं करने का ।’’
‘‘जीते, ये तू ही बोल रहा है?’’
‘‘और कौन है तेरे पास यहाँ?’’
‘‘सुबह तो तू मेरे को सिक्स मंथ्स आगे का डेट थमाता था!’’
‘‘बाद में मेरे को फीलिंग आया न कि मेरे को ऐसा नहीं बोलने का था ।’’
गाइलो ने सन्दिग्ध भाव से उसकी तरफ देखा।
‘‘अभी इधर न मिलता’’—जीतसिंह बोला—‘‘तो फिर तेरी खोली पर पहँुचता और उधर ही टिकता। तू कभी तो लौटता!’’
‘‘सच कह रहा है?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘कोई गोली तो नहीं दे रहा?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘तू उस जौहरी बाजार के वाल्ट वाले काम में मेरा साथ देने को तैयार?’’
‘‘बरोबर ।’’
‘‘वो जो मार्निंग में बोला कि लो प्रोफाइल रखने का, पुलिस की लाइन नहीं क्रॉस करने का, कोई नया पंगा नहीं लेने का, इस्ट्रेट लाइफ पर जोर रखने का, एक-एक कदम फँूक-फँूक कर रखने का, सब साला फट्टा!’’
‘‘नहीं। जो मैंने पहले कहा था, वो भी दिल से कहा था, जो मैं अभी बोला, वो भी दिल से बोला। गाइलो, तू मेरे वास्ते बहुत कुछ किया, बड़ा...बड़ा कुर्बानी दिया, ऐसे मेहरबान दोस्त की बात न मानना, उसके किसी काम न आना मेरी नालायकी। तेरे चिंचपोकली से जाने के बाद जब मेरे को ये फीलिंग आया, मैं तभी से तेरे को ढूँढ़ता है। अब तू बहस करना छोड़, मेरी नीयत पर शक करना छोड़, सुबह की मेरी बातों के लिये मेरे को माफ कर और अपने जौहरी बाजार के वाल्ट वाले खास काम में मेरा साथ, मेरी शिरकत मन्जूर कर ।’’
गाइलो मँुह बाये उसे देखने लगा।
‘‘मैं कितना सीरियस है’’—जीतसिंह बोला—‘‘उसको साबित करने को बोलता है....पूछता है, मेरा हिस्सा क्या होगा?’’
‘‘जो तू बोले। सब बोले तो सब ।’’
‘‘सब!’’
‘‘बरोबर। मेरे को रिवेंज माँगता है, उस भीड़ू मंगेश गाबले को सैट करना मांगता है जो मेरा रोकड़ा लूटा, मेरा कचरा किया, मेरे को उन के नाइस, स्मूथ, इस्पेशल सिस्टम को हिट करना माँगता है, सिस्टम को कण्डम करना माँगता है, फार ऐवर फिनिश करना माँगता है। इसी वास्ते बोला तू अपना शेयर हण्ड्रड पर्सेंट बोले तो हण्ड्रड पर्सेंट मन्जूर मेरे को ।’’
‘‘डिस्ट्रीब्यूशनफेयर होना चाहिये ।’’
‘‘अरे, तू बोल न, क्या हैफेयर डिस्ट्रीब्यूशन!’’
‘‘फिफ्टी फिफ्टी ।’’
‘‘डन! शेक!’’
उसने बड़ी गर्मजोशी से जीतसिंह से हाथ मिलाया।
‘‘अब मैं तेरा वास्ते डिरिंक मँगाता है। नहीं, पहले असल बात बोल क्यों तेरा माइन्ड चेंज हुआ! जीते, गोली नहीं देने का। पुड़िया नहीं सरकाने का। टैल मी गॉड्स ट्रुथ। ये तेरा फिरेंड नहीं, तेरा ब्रदर तेरे को पूछता है ।’’
‘‘मेरे को बड़ा रोकड़ा माँगता है ।’’—जीतसिंह धीरे से बोला—‘‘इमीजियेट करके माँगता है ।’’
‘‘मार्निंग में नहीं माँगता था?’’
‘‘नहीं माँगता था ।’’
‘‘मेरे उधर से नक्की करने के बाद कुछ हुआ?’’
‘‘हाँ ।’’
‘‘क्या?’’
जीतसिंह ने बताया।
‘‘जीसस!’’—वो खामोश हुआ तो गाइलो के मँुह से निकला—‘‘जीसस मेरी एण्ड जोसेफ! अरे, तू कैसा आदमी है!’’
‘‘जैसा दिल के हाथों मजबूर आदमी होता है ।’’
‘‘तू जानता है तेरी हर मुसीबत की जड़ वो औरत है, फिर भी...’’
‘‘हाँ, फिर भी ।’’
‘‘उसको बोल दिया तू उसके वास्ते कुछ नहीं करना सकता। फिर भी करता है। साला चोरी-चोरी चुपके-चुपके करता है। जीते, तेरा अन्जाम बुरा होगा ।’’
‘‘हो तो चुका!’’
‘‘उससे ज्यादा बुरा होगा ।’’
‘‘परवाह नहीं ।’’
‘‘मेरे को है। मेरे को मार्निंग में तेरे से गिला शिकवा था, अब नहीं है। अब मैं तेरे को मेरा साथ देने की जिम्मेदारी से आजाद करता है ।’’
‘‘मैं आजाद नहीं होना चाहता ।’’
‘‘तू समझता नहीं है ।’’
‘‘तू नहीं समझता। मेरे को रोकड़े का तोड़ा है, खर्चा बचाने के लिये मैं कालबा देवी का बाइस हजार किराये का फ्लैट छोड़ना माँगता था और वापिस चिंचपोकली में आकर रहना माँगता था। सुबह तेरे जाने के बाद मेरी सुष्मिता से मुलाकात हुई तो पता चला कि वो भी उधरीच लौट रही थी। इस वास्ते अब मेरे को उधर रहना नहीं माँगता। इसी वजह से मेरे को क्राफोर्ड मार्केट वाला अपना ठीया भी छोड़ना माँगता है। भाड़े की टैक्सी चलाने वाली बात सुबह मैंने इतना सीरियस करके नहीं की थी पण अब कहता हूँ। कवर अप के लिये मेरे को कोई न कोई काम होना जरूरी वर्ना पुलिस का लफड़ा गले पड़ेगा। कभी भी उन के चक्कर में आ गया तो पहला सवाल होगा क्या करता है! क्या जरिया है रोजी रोटी का! क्या बोलेगा मैं? इस वास्ते कवर अप के लिये मेरे को कोई रोजगार माँगता है। ताले चाबी वाला हुनर है मेरे पास। उसके अलावा और क्या आता है मेरे को! गाड़ी चलाना आता है, बस ।’’
गाइलो खामोश रहा।
‘‘ये तेरे वाला काम ठीक से हो गया तो उम्मीद है कि बहुत टेम तक रोकड़े की प्राब्लम नहीं रहेगी ।’’
‘‘पण वो काम तू अपना पिराब्लम साल्व करने का वास्ते किधर करना माँगता है!’’
‘‘एक साथ दो प्राब्लम साल्व होती जान पड़ें तो कोई वान्दा है?’’
‘‘अब क्या बोलेगा मैं! जीते, तू मेरे को नहीं समझा रहा, अपने आप को समझा रहा है ।’’
‘‘तू वो किस्सा छोड़। अपनी स्कीम की तरफ ध्यान दे, अपने प्रोजेक्ट पर काम कर, मैं तेरे साथ है, और मैं अपना काम ऐन फिट, ऐन चौकस करेगा, हम कामयाब हो के दिखायेंगे ।’’
‘‘और जो तू इतना पक्की करके बोला कुछ टेम नया पंगा नहीं लेने का?’’
‘‘इस टेम के बाद, तेरा काम हो जाने के बाद नहीं लेने का। अगर मोटा माल हाथ लगा तो वैसे ही बहुत टेम तक कुछ करना जरूरी नहीं रह जायेगा ।’’
‘‘पण...’’
‘‘अब अण-पण छोड़ और अपने काम की तरफ, अपनी स्कीम की तरफ वही तवज्जो दे जो मार्निंग में देता था। खाली बारह घन्टे मैं अपना जवाब मुल्तवी किया, इतनी सी देरी से तेरा होमवर्क नहीं बिगड़ जाने वाला। अब मेरी सुबह की खता माफ कर और चियर्स के साथ कामयाबी की—हमारी कामयाबी की—दुआ कर। ठीक?’’
गाइलो ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
और वेटर को इशारा किया।
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