"इसका मतलब कि अब हमारी योजना तैयार है और हम डकैती की तैयारी शुरू कर सकते हैं।" जगमोहन ने कहते हुए देवराज चौहान पर नज़र मारी और हरीश खुदे को भी देखा जो सोफे पर धंसा पड़ा था।

इस वक्त तीनों बंगले पर ही मौजूद थे। हरीश खुदे बीते कुछ दिनों से बंगले पर ही रह रहा था और डकैती की योजना तैयार करने में इनके साथ ही भागादौड़ी कर रहा था।

"कई दिन लगाकर, हर तरफ से तसल्ली करने के बाद हमने ये योजना तैयार की है। अब अगर किसी को योजना में कमी लगती है तो कह दे, उस कमी पर हम ध्यान दे सकते हैं। अभी वक्त हमारे हाथों में हैं।” देवराज चौहान ने जगमोहन और हरीश खुदे को देखा--- “बोलो, सब ठीक है, या कोई कमी दिखी किसी को ?”

"तुम्हें क्या लगता है?" जगमोहन ने पूछा।

"मेरी नज़र में तो ये एकदम परफैक्ट प्लॉन है।" देवराज चौहान ने कहा ।

हरीश खुदे ने सोफे पर बेचैनी से पहलू बदला।

“हाँ।" जगमोहन ने गम्भीरता से सिर हिलाया--- “योजना सही है।"

"लेकिन खतरनाक है।” हरीश खुदे कह उठा।

दोनों की निगाह हरीश खुदे की तरफ उठी ।

"खतरनाक ही नहीं, बहुत खतरनाक है योजना ।” हरीश खुदे ने व्याकुलता से कहा--- "मरने का पूरा सामान है इस डकैती में।"

"तुम्हें डर लग रहा है?" देवराज चौहान बोला।

"मैं परेशान हूं इस सारी योजना को सुनकर। तुम लोगों के साथ ही भागदौड़ करता रहा, योजना बनाने में, सब कुछ देखने में, परन्तु तुम्हारी फाइनल योजना सुनकर तो मेरे पसीने छूट रहे हैं।" हरीश खुदे ने कहा।

"तुम्हें डर लग रहा है तो तुम इस डकैती को बाहर खड़े रहकर देखो, काम हम करेंगे।" देवराज चौहान ने कहा।

"ये कैसे हो सकता है, मैं तुम लोगों के साथ काम करूँगा।" हरीश खुदे ने दृढ़ स्वर में कहा।

"फिर डर अपने मन से निकाल दो।"

"देवराज चौहान, तुम अपनी योजना में जिस तरह लिफ्ट की शाफ्ट में उतरने की सोच रहे हो, वो आत्महत्या करने जैसा है। फिर शाफ्ट में से दूसरे फ्लोर का दरवाजा ना खुला, खुल गया तो सामने बैंक के गनमैन होंगे। कहते हो कि किसी को मारना नहीं है तो गनमैनों को पार करके कैसे बैंक में प्रवेश करोगे। बैंक का वो प्रवेश गेट खुलना आसान नहीं है। पहले उसमें चाबी लगाकर वहां के कम्बीनेशन नम्बर मिलाने के बाद वहां के चंद खास चार बटन दबाने पर ही दरवाजा खुलता है और हमारे पास ना तो चाबी है, ना ही कम्बीनेशन नम्बरों का पता है और ना ही वो पता है कि कौन-से चार नम्बरों के बटन दबाने हैं उस नम्बर प्लेट पर से। फिर भीतर प्रवेश कर भी गये तो बैंक के स्ट्रांग रूम में प्रवेश करना, सिर को दीवार से मारने जैसा है। किसी एक कदम पर भी हम असफल रहे। तो डकैती खत्म और जान बचाने के लाले पड़ेंगे, वो अलग।"

"तो तुम क्या समझते हो कि हम सड़क पर पड़ी दौलत पर डकैती करते हैं।" जगमोहन बोला--- "बेटे डकैती करने के लिए जान लगानी पड़ती है। मुंह से कह देने से ही डकैती नहीं हो जाती। योजना बनानी पड़ती है। उसे प्लॉन करना पड़ता है। जरूरत के आदमियों को इकट्ठा करना और उनसे काम लेना होता है फिर डकैती में कहीं भी गड़बड़ हो गई तो मामला खत्म और जान बचाकर भागने का रास्ता भी नहीं मिलता। इस तरह हम नोट इकट्ठे करते हैं। ये आसान काम नहीं है। योजना में या योजना पर काम करते हुए कहीं भी जरा सा पांव फिसला और मामला खत्म। डकैती के नोट देखने में तो अच्छे लगते हैं, परन्तु उसे पाने के लिए जी-जान एक करनी पड़ती है। अब तेरे को समझ आना शुरू हो गया है कि ये बच्चों का खेल नहीं होता। तू खुश तो बहुत हो रहा होगा कि हम इस बार तेरे लिए डकैती कर रहे हैं लेकिन ये काम कितना खतरनाक होता है ये तेरे को अब समझ आ रहा होगा। अब तेरे को डकैती के खतरे याद आने लगे खुदे ।"

"सच में मुझे डर लग रहा...।"

"डर मत। कुछ नहीं होगा। सब ठीक रहेगा।"

"लेकिन मैंने जो कहा है, वो सही है, वहां का लॉक सिस्टम...।"

"हमारे पास जिन्न है। चिराग का जिन्न। वो हर ताला खोलेगा।" जगमोहन मुस्कराया।

"चिराग का जिन्न?" खुदे ने जगमोहन को देखा।

"सोहनलाल ।"

"वो सोहनलाल जिससे मैं मिला था।" पढ़ें पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'मैं हूं देवराज चौहान'

"वो ही।"

"वो सूखा सा, पतला सा, वो क्या करेगा तालों को?"

देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगा कर कश लिया।

खुदे की बात सुनकर जगमोहन मुस्करा पड़ा।

"वो ताले-तिजोरियां खोलने का जादूगर है। उसके हाथों की उंगलियां कमाल करती हैं।"

"हैरानी है।"

"छोड़। ये बात तेरी समझ में नहीं आने वाली।”

"सच में नहीं आयेगी कि उस पर भरोसा करके, इतनी खतरनाक प्लानिंग तैयार कर ली। वो फेल हो गया मौके पर तो?"

"खुदे अगर हम तेरी तरह सोचने लगें तो फिर जिन्दगी में एक ही डकैती कर पाते। इस बात को यहीं रहने...।"

"खुदे।" तभी देवराज चौहान कह उठा--- “तूने हमारा बहुत साथ दिया। देवेन साठी के खिलाफ साथ दिया। विलास डोगरा के खिलाफ साथ दिया। मोना चौधरी से झगड़ा खड़ा हुआ तो तूने तब भी हमारा साथ दिया। अपनी जान भी खतरे में डाली।" ये जानने के लिए पढ़ें पूर्व प्रकाशित दो उपन्यास (1) सबसे बड़ा गुण्डा (2) मैं हूं देवराज चौहान ---"हमारा साथ देने के पीछे तेरा इरादा था कि हम तेरे को साथ लेकर डकैती करें और तुझे इतना पैसा दे दें कि जिन्दगी भर तू ऐश कर सके। ये वादा हमने तेरे से किया भी था और अब उसी वादे को पूरा करने के लिए हमने तेरे लिए ये डकैती करने की तैयारी की है। ऐसे में तू सब कुछ हम पर छोड़ दे। ये डकैती होगी और हमारी पूरी कोशिश होगी कि हम सफलता से डकैती कर लें।"

"कर लोगे?"

"आशा तो है।" देवराज चौहान मुस्कराया।

"गलत मत समझना। मुझे इसलिये ज्यादा चिन्ता है कि तुम लोग मेरे लिए डकैती कर रहे हो। सोचता हूं कि कहीं असफल हो गये तो मैं खाली हाथ रह जाऊंगा।" हरीश खुदे ने गहरी सांस ली।

“तू खाली हाथ नहीं रहेगा।" देवराज चौहान ने कश लिया--- "ऐसा कुछ हुआ तो हम तेरे को अपने पास से इतना पैसा देंगे कि...।"

"अपने पास से?" जगमोहन सकपका कर बोला।

"हां?" देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।

"ये क्या बात हुई कि हम अपना पैसा निकाल कर इसे दें। बाहर का बाहर तो ठीक है, परन्तु अपने पास से ।"

“जरूरत पड़ी तो देंगे। हमने खुदे से वादा कर रखा है।" देवराज चौहान ने कहा ।

"हम आसानी से वे डकैती कर लेंगे। हमें अपने पास से नहीं देना पड़ेगा।" जगमोहन जल्दी से कह उठा ।

"ऐसा ही हो, हम पूरी कोशिश करेंगे।” देवराज चौहान बोला ।

"मैं सोहनलाल के बारे में सोच रहा...।" खुदे ने कहना चाहा।

"तू कुछ मत सोच और सोहनलाल के बारे में जरा भी मत सोच।" जगमोहन ने हाथ उठाकर कहा--- "हमें मालूम है कि हमने डकैती कैसे करनी है। खामखाह हमारी योजना में टांग मत मारता रह।"

"टांग कहां मार रहा हूं कि, मैं तो सोच रहा हूं कि ऐन मौके पर सोहनलाल काम ना कर सका तो...।"

"तू ये भी मत सोच।"

"तुम दोनों को पूरा विश्वास है कि ये डकैती हो जायेगी।"

"पक्का होगी। नहीं भी हो सकी तो तेरे को नोट मिल ही जायेंगे। तू क्यों चिन्ता करता है।"

हरीश खुदे ने पुनः पहलू बदला। बोला।

"बहुत खतरनाक योजना है। मेरे तो होश उड़े जा रहे हैं अभी से।"

"तेरे को ज्यादा डर लगे तो आराम से बैठकर...।"

"बैठूंगा नहीं। मैं भी तुम लोगों के साथ कदम से कदम मिला कर चलूंगा।" खुदे ने दृढ़ स्वर में कहा।

जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान कह उठा।

"इस काम के लिए हमें चार और लोगों की जरूरत पड़ेगी। ऐसे लोग छांटकर इकट्ठे करने होंगे जो हमारे काम के हों। परन्तु उनमें कोई सजा पाया मुजरिम ना हो तो बेहतर रहेगा। बहुत जरूरत पड़ी तो ऐसे को भी साथ ले लिया जायेगा। परन्तु साथ के लोगों को चुनने में हमें बहुत सावधानी से काम लेना होगा। बेशक वक्त ज्यादा लग जाये परन्तु चुनाव बढ़िया करना है।"

"मतलब कि कुल सात लोग इस डकैती पर काम करेंगे ?" हरीश खुदे कह उठा।

“हां।" देवराज चौहान ने उसे देखा।

"सात लोग ज्यादा नहीं हैं क्या ?"

"हम जरूरत के हिसाब से साथियों को इकट्ठा करते हैं, संख्या में हमें मतलब नहीं होता। जो काम हम करने जा रहे हैं, उस काम में कहां-कहां हमें किसी की जरूरत पड़ेगी, वो देखा जाता है। इस काम में हमें चार ऐसे लोगों की जरूरत है जो खतरों का सामना करना जानते हो। अपना काम पूरा करने की हिम्मत रखते हो। तेज दिमाग के हो और हर तरह के वक्त में ठीक से काम करने का हौसला हो। ऐसे लोगों को ढूंढने में, जांचने में बेशक वक्त ज्यादा लग जाये, परन्तु गलत लोग हमारे साथ शामिल ना हों। ये सामने रखकर चलना है।"

"ये-ये डकैती कब शुरू होगी ?” खुदे ने पूछा।

"जब हम काम के लोगों को इकट्ठा कर लेंगे तब अपनी योजना को मैदान में उतारेंगे। डकैती कब शुरू होगी, ये हम कभी नहीं सोचते। सिर्फ ये बात ध्यान में रखते हैं कि जब काम शुरू हो तो, कोई कमी ना रहे।"

तभी हरीश खुदे का मोबाइल बजने लगा ।

खुदे ने बात की, दूसरी तरफ टुन्नी थी।

"अब आ भी जाओ ना।" टुन्नी की आवाज कानों में पड़ी--- "दो महीने हो गये तुम्हें गये।"

खुदे, देवराज चौहान और जगमोहन पर नज़र मार कर बोला।

"टुन्नी है।" साथ ही वो उठा--- "मैं ज़रा उधर होकर आराम से बात कर लूं।" कहकर खुदे कुछ दूर चला गया।

देवराज चौहान ने मोबाइल निकाला और सोहनलाल को फोन किया।

"हैलो।" सोहनलाल की आवाज कानों में पड़ी।

"क्या हो रहा है सोहनलाल ?" देवराज चौहान ने पूछा।

“घर पर हूं। पहले मैं घर से अचानक गायब हो गया था अब नानिया मुझे बाहर जाने नहीं दे रही।" उधर से सोहनलाल ने कहा।

"आराम करना भी अच्छा होता है। तुमसे खास काम है।"

"क्या?"

"हम एक काम करने जा रहे हैं, उसमें तुम्हारी जरूरत पड़ेगी।"

"हाजिर हूं।"

“हमें मिलना होगा, ताकि तुम्हें मैं बता-समझा सकूं कि तुमने किस प्रकार के ताले खोलने हैं।"

"कहां मिलना है?"

"मैं तुम्हारे पास आ जाता हूं।"

"ये तो और भी बढ़िया बात है। वरना अभी मेरे बाहर निकलने पर नानिया नाराज जरूर होती।"

"एक घंटे में मैं पहुंचा।" देवराज चौहान ने कहा और फोन बंद करके जगमोहन से बोला--- "हमें इस काम के लिए कैसे लोग चाहिये तुम समझ रहे हो। उन्हें इकट्ठा करना शुरू कर दो। सोहनलाल से मिलने के बाद, मैं भी इस काम पर लग जाऊंगा।"

उधर हरीश खुदे ने टुन्नी से बात की।

"तेरे पास आने को बोत दिल करता है टुन्नी ।"

"आ जाओ ना।" उधर से टुन्नी ने आह भरकर कहा--- "पति को बुलाने के लिए भी बार-बार कहना पड़ता है।"

"समझाकर टुन्नी। इधर तेजी से काम चल रहा है।"

"काम?"

"डकैती का। तेरे को बताया तो हुआ है कि देवराज चौहान और जगमोहन मेरे लिए डकैती कर रहे हैं। वो मेरे को इतना माल देंगे टुन्नी कि पूछ मत। सारी उम्र मैं राजा बनकर रहूंगा और तू रानी। मजा आ जायेगा टुन्नी।"

"वो कहीं तेरे साथ मजाक तो नहीं कर...।"

"क्या बात करती है तू। वो दोनों जुबान वाले हैं। जो कहा है, वो ही कर रहे हैं।"

"तूने भी तो बहुत किया उनके लिए। जब तुझे घर से ले गये तो तेरी ठुकाई करते थे। तब तू मुझे बताया करता था। उसके बाद तूने उनका साथ दिया, उनके काम में। कई बार अपनी जान खतरे में डाली।"

"तेरे को तो सब याद है टुन्नी।" खुदे मुस्कराया।

"तू ही तो फोन पर बताया करता था कि तेरे को डण्डा चढ़ा हुआ है, पर तूने एक बात नहीं बताई।"

"क्या?"

"डण्डा कहां चढ़ता है।"

"ये बात मत पूछ। वो बुरे दिन बीत गये। अब हमारे अच्छे दिन शुरू हो रहे हैं।"

"वो कैसे?"

"डकैती की प्लानिंग बन गई है। अब तैयारी शुरू होने जा रही है। उसके बाद तो...।"

"कहां हो रही है डकैती ?"

"बैंक में। बहुत बड़ा बैंक है। वो मेरे को, वहां से एक हीरा निकाल कर देंगे।"

"बस एक हीरा ?" उधर से टुन्नी ने मुंह बनाया।

"समझा कर। वो हीरा ही सौ करोड़ से ज्यादा का है। वो सारा का सारा मुझे देंगे।"

"सौ करोड़ से ज्यादा का ?"

"हो गई ना हैरान।” हरीश खुदे मजे लेता कह उठा--- "बहुत खास है वो हीरा।"

“पर क्या उस बैंक में सिर्फ एक हीरा ही पड़ा है?" उधर से टुन्नी ने पूछा।

"नोट भी हैं।"

"तो मुझे नोट क्यों नहीं देते। हीरे को तू कहां-कहां बेचता फिरेगा। तू पकड़ा गया तो?"

"चिन्ता मत कर। देवराज चौहान ने कहा है कि वो हीरा बेचकर, मेरे को कैश नोट दे देगा। बात हो गई है।"

"कहीं वो हीरा बेचने के चक्कर में हेराफेरी ना कर ले। उसके साथ ही रहना।"

"चिन्ता मत कर। ऐसा कुछ नहीं होगा।"

"तू डकैती में भी साथ रहेगा ?"

“हाँ। वो तो रहना ही है। वो मेरे लिए काम कर रहे हैं।" खुदे ने कहा।

"तेरे को कुछ हो गया तो?"

हरीश खुदे से कुछ कहते ना बना ।

"तेरे को कुछ नहीं होगा।" टुन्नी की आवाज आई--- "मैंने तो मजाक किया है। देवराज चौहान है ना तेरे साथ।"

"हां। मेरे को कुछ नहीं होगा।"

"ये बातें छोड़ और आज मेरे पास आ जा।"

"अभी नहीं। मैं...।"

“जवान बीवी को ज्यादा देर अकेला नहीं छोड़ते। खूबसूरत बीवी को तो बिल्कुल भी अकेला नहीं छोड़ते।"

"मुझे तुझ पर भरोसा है।” खुदे ने गहरी सांस ली।

"ये ही कहता रहेगा या मेरे पास आयेगा भी।"

"नहीं आ सकता। इधर बहुत काम । "

“दो घंटे के लिए आ जा, समझा कर दो महीने से मैंने तेरे को देखा भी नहीं...।"

"मैं तेरे पास करोड़ों की दौलत लेकर आऊंगा। कुछ दिन की ही बात है ।" खुदे बोला।

"तब तक तो मेरी जान निकल जायेगी, तेरे बिना।" उधर से टुन्नी ने मुंह फुला कर कहा।

"कुछ दिन और सब्र कर ले फिर...।"

"तड़पायेगा अब तू मुझे। तेरे बिना दो महीने कैसे काटे हैं, ये मैं ही जानती हूं।"

"सब ठीक है। कुछ दिन और निकाल ले। अब बिल्ला तो है नहीं कि मैं चिन्ता करूं कि ।"

“सुन-सुन तो-बिल्ला फिर आया था मेरे सपने में।" उधर से एकाएक टुन्नी ने कहा।

"हरामजादे ने मरकर भी पीछा नहीं छोड़ा।" खुदे ने कड़वे स्वर में कहा।

"वो सपने में मुझे कह रहा था कि जिसका तू इन्तजार कर तू रही है, वो अब कभी तेरे पास नहीं आने वाला। उसका ख्याल छोड़ दे। तू मेरे पास आ जा। कहता था मैं किसी तरह अपनी जान दे दूं तो उसके पास आ जाऊंगी मैं।"

"ऐसा कहा कमीने ने।"

"हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ा है। जब ज़िन्दा था तब भी, मर गया तो, अब भी।"

"साले का कोई इलाज करना पड़ेगा।" हरीश खुदे ने जल-भुनकर कहा।

"इलाज ?"

"मेरे ख्याल से मरने के बाद उसकी आत्मा भटक रही है टुन्नी। उसकी इच्छाएं पूरी नहीं हुई। बस, मैं जरा डकैती के काम से निपट लूं फिर आते वक्त किसी नामी तांत्रिक को साथ लेता आऊंगा। वो झाड़-फूंक देगा तो सब ठीक हो जायेगा। फिर बिल्ला सपने में तेरे पास आना बंद कर देगा। मैं ज़रा डकैती से निपट लूं।" खुदे बोला।

“तेरे बिना मेरा दिल नहीं लगता।" उधर से टुन्नी ने मुंह फुलाकर कहा--- "मैं आ जाऊं तेरे पास।"

"तू यहां आकर क्या करेगी। इधर देवराज चौहान भी है, जगमोहन भी है। तू उधर ही रह।"

"तेरा दिल नहीं करता मेरे से मिलने को ?"

"बहुत करता है।"

"तो आ जा। अब तो तेरे बिना तबीयत भी खराब रहने लगी है। तेरे को मेरी चिन्ता नहीं है क्या ?"

“मेरी रानी, मेरी जान, मेरी जिन्दगी, मैं बहुत जल्द नोटों के साथ तेरे पास आऊंगा। अब तू फोन बंद कर।”

"फोन बंद कर दूं?"

"हां।" कहने के साथ ही खुदे ने फोन पर चुम्मी दी और फोन बंद कर दिया।

तभी खुदे को देवराज चौहान तैयार होकर बाहर जाता दिखा।

जगमोहन अभी तक सोफे पर बैठा था।

"सुनो।" कहते हुए खुदे आगे बढ़ा।

देवराज चौहान ठिठक कर खुदे की तरफ घूमा ।

“एक बात मेरे दिमाग में आई कि अगर डकैती के दौरान मुझे कुछ हो गया तो हीरे का क्या होगा?" खुदे कह उठा ।

देवराज चौहान और जगमोहन की नज़रें मिली।

"कुछ नहीं होगा।" जगमोहन खड़ा होता कह उठा--- "हम तेरे साथ हैं।"

"वो तो मुझे भी पता है कि कुछ नहीं होगा। पर तुम लोग ये डकैती मेरे लिए कर रहे हो। मुझे एक ऐसा नायाब हीरा दोगे जो सौ करोड़ से भी ऊपर का है। फिर भी अगर मुझे कुछ हो गया तो उस हीरे का क्या होगा।"

"तुम क्या चाहते हो?" देवराज चौहान ने कहा ।

"म-मुझे अगर कुछ हो जाये तो हीरा, मेरी पत्नी टुन्नी को दे देना ।" खुदे ने गम्भीर स्वर में कहा।

"ठीक है।" देवराज चौहान ने सिर हिलाया--- "उस स्थिति में हीरा बेचकर नकद रुपया तुम्हारी पत्नी टुन्नी को दे देंगे।"

"सारा पैसा। उस हीरे की जो भी कीमत मिले।"

“हां सारा ।” देवराज चौहान मुस्कराया--- "इस बारे में तुम हम पर पर भरोसा कर सकते हो।"

"मुझे पूरा भरोसा है तुम दोनों पर ।" खुदे ने गहरी सांस ली--- "वरना मेरे को दौलतमंद बनाने के लिए डकैती की तैयारी करते ही क्यों। मुझे साथ रखते ही क्यों? मेरे से वादा करते ही क्यों? और मुझे अपनी इस योजना में शामिल करते ही क्यों?"

■■■

देवराज चौहान, सोहनलाल के घर पर, फ्लैट के ड्राइंग रूम में बैठा था। सामने गर्म चाय के प्याले रखे थे। अभी-अभी नानिया उन्हें चाय बनाकर, देकर, बाजार में सामान लेने गई थी और देवराज चौहान को पक्का करके गई थी कि उसके आने तक, सोहनलाल को वहीं बिठाए रखे, बाहर ना जाने दे।

देवराज चौहान ने चाय का घूंट भरा।

सोहनलाल ने गोली वाली सिग्रेट सुलगाई और बोला ।

"कहो, क्या करने जा रहे हो तुम ?"

"वरसोवा के नैशनल बैंक में डकैती की प्लानिंग तैयार की है। वहां डकैती करनी है।"

"वरसोवा का नैशनल बैंक ?" सोहनलाल के माथे पर बल पड़े--- "जो कि दगशाही मैनशन की दूसरी मंजिल पर है?"

"वो ही।"

"वो तो नेशनल बैंक का मुख्यालय है। वहां काफी सिक्योरिटी रहती है। पहली मंजिल पर ब्रांच है और दूसरी मंजिल पर बैंक का मुख्यालय है। वो भीड़भाड़ वाली इमारत है। तीसरी और चौथी मंजिल पर दूसरी कम्पनियों के ऑफिस है। मेरे ख्याल में वो खतरे वाली जगह है। किसी दूसरी जगह को चुनते तो बेहतर रहता।"

"काम वहीं करना है।" देवराज चौहान ने चाय का घूंट भरा।

"कोई खास वजह?"

"वजह ये है कि दूसरी मंजिल के स्ट्रांग रूम में महीने भर के लिए एक नायाब हीरा रखा गया है। जिसकी कीमत सौ करोड़ रुपये से कहीं ज्यादा है। वो हीरा मैंने किसी को देना है।" देवराज चौहान ने कहा।

"तो उस हीरे का सौदा किया है।" सोहनलाल ने कश लिया।

"जुबान का सौदा।" देवराज चौहान मुस्कराया और उसे हरीश खुदे के बारे में बताता चला गया ।

सब बताया। शुरू से अंत तक बताया।

"मैं मिल चुका हूँ हरीश खुदे से।" सोहनलाल बोला--- "तो उसके लिए हीरे की डकैती कर रहे हो।"

"बुरे वक्त में उसने मेरा काफी साथ दिया।"

"हूं।” सोहनलाल ने चाय का प्याला उठाकर घूंट भरा--- "ये तुम जानो कि तुम हरीश खुदे के लिए कुछ करना चाहते हो। ये तुम्हारा मामला है। परन्तु नेशनल बैंक की दूसरी मंजिल के स्ट्रांग रूम में हर वक्त बहुत ज्यादा कैश मौजूद रहता है।"

“जानता हूँ।”

"सिक्योरिटी जबरदस्त है।"

"मालूम है।"

"आसान नहीं होगा ये काम।"

"तुम्हें वहां के ताने खोलने हैं। लॉक किस तरह के हैं, वो मैं तुम्हें बता देता हूँ।" देवराज चौहान ने कहा।

"योजना तैयार कर ली?"

"लगभग।"

“मुझे बताओ।"

देवराज चौहान, सोहनलाल को योजना बताने लगा ।

सारी योजना जानी सोहनलाल ने ।

देवराज चौहान के खामोश होते, सोहनलाल गम्भीर हो चुका था।

"इस बार तुमने ज्यादा खतरनाक काम को चुना।" सोहनलाल बोला।

“मैं इससे भी ज़्यादा खतरनाक काम कर चुका हूं और तुम मेरे साथ रहे।" देवराज चौहान ने कहा।

सोहनलाल ने कुछ नहीं कहा।

"मेरी योजना तुम पर निर्भर करती है सोहनलाल। बैंक के भीतर पहुंचने के बाद अगर तुम ताले नहीं खोल सके तो मैं कुछ नहीं कर सकूंगा। मैं तुम्हें तालों के सामने ले जाकर खड़ा कर दूंगा और आगे का रास्ता तुम पर है। तुम्हारे बिना मेरी योजना बेकार रहेगी। असल काम तो तुमने ही करना है।" देवराज चौहान बोला ।

"बैंक का लॉक सिस्टम साधारण नहीं है।" सोहनलाल ने कहा।

"तुमने देखा है वहां के लॉक सिस्टम को ?"

"ज्यादा नहीं। मतलब कि ध्यान से नहीं देखा।" सोहनलाल गम्भीर था।

“मैं तुम्हें बताता।”

“तुम कुछ मत बताओ। कल मैं खुद ही वहां जाकर देखूंगा।"

"वहां गार्ड्स होते हैं। वो तुम्हें वहां दो मिनट के लिए भी खड़ा नहीं होने देंगे।"

"मैं कुछ ऐसा इन्तजाम करके जाऊंगा कि वो मुझे खड़े होने दें। स्ट्रांग रूम के लाक्स कैसे हैं?"

"स्ट्रांग रूम का दरवाजा और सिक्योरिटी सिस्टम स्वीटजरलैंड से मंगवाया गया था। इकबाल एण्ड कम्पनी, जो कि विलेपार्ले की ज्योति जीवन बिल्डिंग की पांचवीं मंजिल पर स्थित है, उसी कम्पनी ने वहां के सारे सुरक्षा इन्तजाम तय किए थे। उसी ने स्वीटजरलैंड से वो दरवाजा मंगवाया था। इकबाल एण्ड कम्पनी फुल प्रूफ सुरक्षा देने का दावा करने वाली कम्पनी है। उस कम्पनी के इंजीनियर बराबर वहां हाजिरी लगाते हैं और सुरक्षा व्यवस्था को चैक करते रहते हैं।"

सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा।

“अब ये तुमने देखना है कि तुम कैसे इकबाल एण्ड कम्पनी से लिंक बना पाते हो। मेरी जब भी जरूरत पड़े, मुझे खबर कर देना। परन्तु पहले इकबाल एण्ड कम्पनी को चैक करो जो कि कौन स्ट्रांग रूम के दरवाजों के लॉक सिस्टम और सुरक्षा के बारे में बता सकता है हमें। किसे इस बात की पूरी जानकारी है। ये सब कुछ तुमने जानना है।"

सोहनलाल होंठ सिकोड़कर रह गया।

"कितना वक्त लोगे इस काम में?" देवराज चौहान ने पूछा ।

"तीन दिन बाद तुम्हें इस बारे में बताऊंगा।"

"तुमने ये देखना है कि वहां के लॉक सिस्टम को तुम खोल सकते हो या नहीं?"

"इस बारे में तीन दिन बाद बात करूंगा।" सोहनलाल ने गम्भीर स्वर में कहा।

"बाहरी लॉक के बारे में भी जानकारी प्राप्त कर लेना ।"

"हो जायेगी।" सोहनलाल ने सोच भरे स्वर में कहा--- "वहां पर तुमने सिक्योरिटी के बारे में बताया, जो कि बहुत तगड़ी है। काम के वक्त तुम्हें काफी परेशानी आ सकती है। सोच-समझ कर कदम उठाना।"

"मैं तुम्हें प्लानिंग बता चुका हूं कि काम कैसे किया जायेगा।" देवराज चौहान बोला !

"वो सब काफी खतरनाक है। बहुत ज्यादा सतर्कता का इस्तेमाल करना होगा। वरना जान भी जा सकती है।"

“सब ठीक रहेगा। मुझ पर भरोसा रखो ।”

"तुम पर तो हमेशा ही भरोसा रहा है।" सोहनलाल मुस्करा पड़ा।

"तुम पूरी तरह ये बात चैक कर डालो कि इकबाल एण्ड कम्पनी में वो कौन है जो नैशनल बैंक के उस स्ट्रांग रूम के बारे में जानकारी रखता है। ये सब बातें तुम्हें हर हाल में मालूम होनी चाहिये, क्योंकि तुमने वहां के लॉक्स खोलने हैं। सुरक्षा के बाकी सिस्टमों को तो हम किसी तरह संभाल ही लेंगे। सब जानकारियां इकबाल एण्ड कम्पनी से बाहर निकालो।"

"अगर मैं वहां के लॉक सिस्टम को नहीं संभाल पाया तो?"

"तो मुझे इस डकैती का ख्याल छोड़ना होगा। क्योंकि सबको वहां तक पहुंचाना और वहां से बाहर लाना मेरा काम है। परन्तु मैं वहां के मजबूत सुरक्षा लॉक्स को नहीं खोल सकता। वो काम तो तुम्हें ही करना होगा। करोगे तो काम होगा। नहीं तो नहीं होगा।"

"आजकल नये-नये तरह के सुरक्षा सिस्टम आ गये हैं।" सोहनलाल बोला--- “मैंने उन नये सिस्टमों के बारे में काफी कुछ जाना है पर नहीं जानता कि नैशनल बैंक के स्ट्रांग रूम के दरवाजे पर कैसे लॉक्स है। मुझे तीन दिन का वक्त दो। उसके बाद तुमसे मिलूंगा और तुम्हें बताऊंगा कि मैंने क्या-क्या जानकारी हासिल की है ।"

"तीन के छः दिन लग जाएं, कोई बात नहीं। परन्तु काम ठीक करना। हमें  सबकुछ पता होना चाहिए।" देवराज चौहान ने कहा।

सोहनलाल ने सिर हिला दिया।

तभी कॉलबेल बजी।

सोहनलाल ने दरवाजा खोला। नानिया वापस आ गई थी। सामान का एक थैला कंधे पर लटका हुआ था और दो थैले सामान के भरे हाथ में थे। वो कह उठी।

"थैलों को पकड़ो, अब मेरा मुंह क्या देख रहे हो?"

सोहनलाल ने उसके हाथ से थैले पकड़कर भीतर रखे।

नानिया दरवाजा बंद करते कह उठी।

"अभी तक तुम दोनों की बातें चल रही है। कमाल है, इतनी देर तो औरतें भी बातें नहीं करती।" नानिया किचन में चली गई।

सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा और मुस्करा कर बोला।

"मोना चौधरी, महाजन, पारसनाथ मुझे घर से बुलाकर ले गये थे और अपने पास कैद कर लिया था और उसके बाद बीस दिन मैं घर नहीं लौटा तो नानिया उसी बात से अभी तक नाराज चल रही है। मेरे घर से बाहर निकलने पर पाबन्दी लगा दी है। अब तो काफी ठीक हो गई है। नहीं तो ये बहुत तीखा बोलती रही मुझसे।"

"अब तुम्हें काम के लिए घर से बाहर निकलना होगा। कहो तो नानिया भाभी से मैं कह दूं कि...।" देवराज चौहान ने कहना चाहा।

"ऐसी बात नहीं, मैं संभाल लूंगा।"

■■■

“उस्मान, ओए उस्मान।" पचास बरस की औरत ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा--- "दो दिन से तू लेटा हुआ है। खाता है, पीता है, फिर सो जाता है। काम में नहीं जा रहा। बात क्या है?"

"कुछ नहीं।" उस्मान अली ने करवट बदलते हुए अपनी मां को देखा।

"शेव भी बढ़ा रखी है। तेरे को पता है घर में नोट खत्म होते जा रहे हैं।" उसके पास बैठती मां कह उठी--- "तेरे को कितनी बार कहा है कि दस बीस हजार घर में पड़ा हो तो काम में जाना मत छोड़ा कर। चल उठ, आज रात काम पे जाना। बढ़िया जगह हाथ मारना कि कम से कम लाख, दो लाख का माल तो हाथ लगे। देखी है ऐसी कोई जगह ?"

"नहीं।"

"ले, कहता है नहीं देखी।" मां ने मुंह बनाकर कहा--- "तू तो बहुत ढीला है, तेरा बाप बहुत शानदार हुआ करता था। दस बजे रात को जाता था और सुबह होने से पहले ही माल लेकर घर आ जाता था। तेरे बाप ने ही तेरे को चोरी करना और आसामी को पहचानना सिखाया। वो होते तो मुझे कोई चिन्ता नहीं होती थी। महीने भर में दो-तीन लाख का माल तो चोरी कर ही लाते थे। फिर भी वो कभी बैठकर नहीं खाते थे। पूरी जिम्मेदारी की तरह काम करते थे। वो तो वक्त बुरा था कि चार साल पहले पांचवी मंजिल से भागते समय पांव फिसल गया और गिरकर जान गवां बैठे।" उसने गहरी सांस ली।

उस्मान अली ने कुछ नहीं कहा।

"घर बैठना छोड़ दे।" मां पुन बोली--- "काम के लिए रात को बाहर निकला कर। ललित का फोन आया था? वो तेरा अच्छा जोड़ीदार है। उसके साथ मिलकर ही चोरी किया कर। उठ जा, शाम हो गई है, तैयार हो और घर से निकल जा।"

"आजकल लोगों ने तरह-तरह के सुरक्षा के इन्तजाम कर रखे है।" उस्मान अली बोला।

"तो तू क्या कम है। एक मिनट में तो ताला खोल लेता है।" मां ने मुस्करा कर कहा ।

“पता ही नहीं चलता कहां-कहां C.C.T.V. कैमरा लगा...।"

"तेरे को कितनी बार समझाया है कि काम शुरू करने से पहले मुंह पर कपड़ा बांध लिया कर। कैमरों की फिक्र करेगा तो काम कैसे होगा। घर का खर्चा तो अब तेरे ही भरोसे है। मैं तो तेरी शादी का भी सोच रही हूं। लड़की देखी है मैंने।"

"कौन-सी?"

"ललित की बहन। सुन्दर है। रंग सांवला है, नैन-नक्श तीखे है। मेरे को तो वो पसन्द आई।"

"अभी शादी नहीं करनी...।"

"क्यों? कमाऊँ हो गया है तू। शादी क्यों नहीं करनी। ललित से बात करूंगी कभी मौका देखकर।"

"अभी शादी का मन नहीं है।"

"मन-वन सब ठीक हो जायेगा। जिम्मेवारी सिर पर पड़ेगी तो रोज रात को काम पर जाया करेगा। बता रात के लिए क्या बनाऊं, क्या खाकर काम पे जायेगा?" मां ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा--- "आज ज्यादा माल लेकर लौटना।"

"कोई जगह तो तय की नहीं, फिर चोरी कहां करूंगा।”

“ऐसी जगह को चुनना तेरा काम है, मेरा नहीं। तेरा बाप तो सब तैयारी रखा करता था। कहां-कहां चोरी करनी है, सब कुछ उसके पेट में छिपा रहता था। तेरी तरह सुस्त नहीं था। चोरी नहीं कर सकता आज तो किसी को लूट के आ। कुछ रुपया-पैसा तो घर में आये। मैं तेरे को इस तरह घर में पड़े नहीं देखना चाहती। काम करता रहा कर।"

“इस काम से मेरा मन खराब होता जा रहा है।" उस्मान अली ने कहा।

"क्यों?" मां के माथे पर बल पड़े।

“रोज-रोज खतरा उठाना कहां की अकलमंदी है। पुलिस के हाथ लग गया तो।"

"तो क्या हो गया। तेरा बाप छः बार जेल गया था पर उसके माथे पर शिकन नहीं आई। जेल से बाहर आता था और फिर चोरी करना शुरू कर देता था। जिम्मेवारी थी उस पर कि घर चलाना है। तू तो अभी से हिम्मत हारने लगा। अभी तेरी उम्र ही क्या है। तूने तो बड़े-बड़े हाथ मारने हैं अभी। बड़ी-बड़ी चोरियां करके घर को नोटों से भर देना है। अपने बाप से दो कदम आगे जायेगा। ललित को फोन कर दे कि आज रात चलने का प्रोग्राम है।"

"ललित सहारनपुर गया है।"

“क्यों?"

“मौसी के लड़के की शादी है।"

“फिर तू अकेला ही जा। चोरी नहीं तो लूटमार कर। घर पर नोट ला ।"

"आज मेरा मन नहीं है, कल...।"

"आज तू जायेगा और कल दिन में कहीं पर बढ़िया सा घर छांट जहां रात को चोरी करनी है। तेरा बाप इसी तरह काम किया करता था। सब पता तो है मुझे। उठ जा अब, मैं तेरे लिए खाना तैयार करती हूं। आठ बजे तक निकल जाना घर से। क्या खायेगा आज भी आलू गोबी खायेगा या दाल बना दूं।”

"जो मन करे, बना दे ।"

मां उठकर किचन में चली गई।

अट्ठाईस बरस के उस्मान अली ने गहरी सांस ली और उठ बैठा। वो जानता था कि मां अब उसे घर नहीं बैठने देगी। काम पर जाना ही होगा और शिकार करके नोट लाने ही पड़ेंगे।

■■■

उस्मान अली ने शाम आठ बजे ऐसे दारूखाने में प्रवेश किया जो कि अवैध ढंग से, पुलिस को पैसा देकर चलाया जा रहा था। सब बढ़िया था। चार सालों से ये दारूखाना अपनी जगह पर खड़ा था। सड़क पर, सामने से तेज ट्रेफिक निकलता रहता था और सड़क किनारे दो मंजिला मकान में दारूखाने का काम रात के दो बजे तक चलता रहता था। यहां पर मीटिंग करने के लिए, प्राइवेट बातचीत के लिए कमरे भी हाजिर रहते और इन कमरों में भाई लोग अपनी योजनाएं तैयार करते और शराब भी चलती रहती। शराब भी लोकल नहीं, विदेशी। मंहगी से महंगी बोतलें, विदेशी शराब हाजिर थी। पैसा दो और दुनिया का हर नामी ब्रांड लो।

उस्मान अली यहां अक्सर आया करता था यूं उसके साथ ललित होता था, परन्तु वो सहारनपुर गया होने की वजह से, आज अकेले ही इधर पहुंचा था। वो सीधे बॉर काउंटर पर पहुंचा। दो लोग काउंटर के पीछे थे। दोनों उसे जानते थे।

"कैसे हो उस्मान भाई?" एक ने मुस्करा कर पूछा ।

“बढ़िया।” उस्मान अली मुस्कराया--- “आज भीड़ कम दिखाई दे रही है।"

"घंटा भर ठहर जाओ। यहां लोग ही लोग दिखाई देंगे। क्या पिलाऊं आज?" बारमैन ने पूछा।

“आज नोट नहीं हैं।" उस्मान अली मुस्करा पड़ा।

"नोट किसने मांगे हैं। फिर दे देना।"

"तो बढ़िया सा पैग बना दे। डायरी में मेरा हिसाब लिख लेना।" उस्मान अली ने आसपास देखते हुए कहा।

लार्ज पैग थामे उस्मान अली वहां से पलटा तो सामने उमेश आता दिखा। वो पास पहुंचा।

“तू यहां है ।" उस्मान अली उसे देखते ही बोला ।

"उधर, टेबल पर बैठा हूं। अकेला है?" उमेश ने पूछा।

"हां।"

"मेरी टेबल पर आ।"

उस्मान अली, उमेश के साथ एक टेबल पर जा बैठा। उस टेबल पर पहले से ही बोतल खुली पड़ी थी और एक गिलास भरा रखा था। उमेश ने गिलास उठाकर घूंट भरा और बोला ।

“ललित कहां है?"

"मुम्बई से बाहर गया है।" उस्मान अली ने अपने गिलास से घूंट भरा।

"अकोला गया है। तू साथ नहीं गया?"

"वो रिश्तेदारी में शादी पर गया है। मेरा क्या काम ?”

"ओह। मैं समझा काम पर गया है।" उमेश ने सिर हिलाकर घूंट भरा--- "कोई काम नहीं कर रहा?"

"काम का मूड तो है, पर कोई आसामी नहीं ढूंढ रखी। दो-तीन दिन घर से नहीं निकला।"

“आसामी मैं बता देता हूँ। करेगा काम?"

उस्मान अली ने उमेश को देखा।

उमेश मुस्कराया। घूंट भरा।

“आसामी के बारे में बता। जब आसामी है तो तू क्यों नहीं कर लेता ये काम ?" उस्मान अली बोला।

"मुझे समस्या है। वहां मुझे पहचाना जा सकता है। मेरी पहचान का घर है वो।"

"किसका?"

"मामा का। अमीर है। बिजनेस चलता है। पैसे वाली पार्टी है।"

"मामा के घर पर?"

"क्या फर्क पड़ता है। मामा से कभी पटी नहीं। उसे पैसे का घमण्ड रहा। जब तक मेरी मां जिन्दा थी, वो कभी घर नहीं आया। मरने पर ही आया था या अब अपनी बेटी की शादी का कार्ड देने आया था।" उमेश गम्भीर हो गया--- "मैं आज चोर ना होता। पढ़-लिखकर नौकरी कर रहा होता अगर पैंतालिस हजार रुपये की फीस मामा ने दे दी होती। तब बोला कि उसके पास पैसे नहीं हैं और दो-दो कारें रखी हुई थी अब वो तीन कारें हैं। अब वो अपनी बेटी की शादी कर रहा है। कल दो घंटे हाजिरी लगा कर वहां से आया हूं। वर्ली में है उसका घर। सब बता देता हूं कि माल कहां रखा है, वहां किस बहाने से जाना है, वो भी बता दूंगा। तेरे को घर में घुसने की कोई दिक्कत नहीं आयेगी। माल उड़ा के खिसक आना।"

"कैसे घुसूंगा घर में?" उस्मान अली सोच भरे स्वर में बोला।

"मेरा छोटा मामा, मतलब कि मामा का छोटा भाई जो कि अजमेर में रहता है, वो अपने भाई से किसी बात पर नाराज है और शादी में नहीं आ रहा। तू छोटे मामा की तरफ से शगुन का लिफाफा लेकर जायेगा। बीच में इक्यावन सौ रुपया होगा, समझे। रात का वक्त है वो तुझे वापस नहीं आने देंगे। तू ये ही कहेगा कि अजमेर से आया है और।"

"समझ गया-समझ गया।"

"मेरे को जो देना हो माल में से दे देना।" उमेश बोला।

"इक्यावन सौ रुपया कहां से आयेगा शगुन का?"

"वो मैं दे दूंगा। परसों ही मैंने एक जगह चोरी की। अस्सी हजार नकद हाथ लग गया था।"

■■■

कल शादी होनी थी। आज रिश्तेदारी के पच्चीस-तीस लोग आये हुए थे। कुछ पड़ौसी थे। घर के लोग थे। घर पर लाइटें लगी थी और हर तरफ खुशी का माहौल था। साढ़े दस बजे उस्मान अली वहां पहुंचा था। उमेश के मामा अजय सिंह को पूछने लगा तो फौरन ही उसे घर से भीतर अजय सिंह के पास पहुंचा दिया गया। वो अपनी सतावन वर्षीय पत्नी दीपा के साथ घर के भीतरी कमरे में शादी ब्याह की किसी बातचीत पर व्यस्त थे कि उन्होंने उस्मान अली को देखा ।

"आप अजय सिंह जी हैं।" उस्मान अली ने हाथ जोड़कर पूछा।

"हां, मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।" अजय सिंह ने कहा ।

"मुझे अजमेर से विजय सिंह जी ने भेजा...।"

"विजय ने ।" अजय सिंह कह उठा--- “वो तो मेरा फोन भी नहीं उठा रहा। कितनी बार फोन किया है उसे।"

"पहले पूछो तो इन साहब को क्यों भेजा है आपके भाई ने ।" औरत कह उठी।

"ओह हां, बैठो-बैठो बेटा ।"

उस्मान अली बैठा और जेब से रबड़ लगे सौ-सौ के नोट निकाल कर अजय सिंह की तरफ बढ़ाये ।

"ये विजय जी ने भेजा है शगुन आपकी बेटी लक्ष्मी के लिए।"

"तो वो खुद शादी में नहीं आ रहा।" अजय सिंह नाराज सा कह उठा ।

"अब मैं क्या कहूं जी, उन्होंने तो मुझे कहा कि ये शगुन आपको दे दूं। सीधा अजमेर से आ रहा हूं और अब रात की बस पकड़कर वापस अजमेर चला जाऊंगा। थका पड़ा हूँ, रात कहीं रुकने की जगह भी तो नहीं है मेरे पास।"

नोट अभी भी उस्मान अली के हाथ में थे।

“विजय शादी में नहीं आ रहा तो मुझे उसका शगुन भी नहीं चाहिये। वो अपने को समझता क्या... ।”

"ये क्या कह रहे हैं आप। शगुन क्या वापस लौटाते हैं।" औरत बोली--- "ले लीजिये। आपका भाई नाराज है आपकी हरकतों की वजह से। उसने शगुन भेजा ये ही बहुत है। ये नहीं लेंगे तो बचा-खुचा रिश्ता भी टूट जायेगा ।"

अजय सिंह ने अनमने ढंग से उस्मान अली के हाथ से शगुन ले लिया।

“अब मुझे इजाजत दीजिये। बस पकड़कर वापस अजमेर जाना...।"

"ऐसे कैसे जा सकते हैं आप। शादी वाला घर है। हाथ-मुंह धोइये। खाना खाइये। थके हुए हैं तो आराम...।"

"मां जी।" उस्मान अली हाथ जोड़कर बोला--- “अगर खाना खाने रुक गया तो देर हो जायेगी और फिर अजमेर की बस भी नहीं मिलेगी। बात कल पर चली जायेगी और मेरे पास मुम्बई में रात बिताने की जगह भी नहीं है, मैं तो।"

"क्या नाम है तुम्हारा?" अजय सिंह ने पूछा।

"राजू ।"

"रात तुम यहीं रहो राजू। खाना खाओ। आराम करो। आखिर तुम्हें विजय ने भेजा है। सुबह चले जाना।"

"जैसी आपकी मर्जी ।" उस्मान अली ने कहा--- "मैं इसी कमरे में रात रह लूं तो कोई हर्ज तो नहीं?"

"कोई हर्ज नहीं। यहीं रहो।"

उमेश ने उसे जिस कमरे के बारे में समझाया था, वो ये ही कमरा था। कमरे के कोने में खड़ी गोदरेज की अलमारी को वो पहचान गया था, जो हुलिया उसे बताया था उमेश ने। कितनी आसानी से उसे घर में जगह मिल गई थी।

■■■

रात के तीन बज रहे थे। उस्मान अली की आंखों में नींद नहीं थी। वो उसी कमरे में बैड पर लेटा हुआ था। कमरे में रोशनी थी। घंटा भर पहले ही सब सोने गये थे, दो-चार लोग तो अभी भी जाग रहे थे। उस्मान अली ने बैड पर सोये दूसरे आदमी को देखा। बैड के पास ही नीचे गद्दे बिछाकर एक औरत दो बच्चों के साथ सोई थीं। उसने अलमारी पर निगाह मारी। वो बंद थी। परन्तु उस्मान अली को उसके बंद होने की कोई चिन्ता नहीं थी, उसे खोलना उसके लिए मामूली काम था और उसके औजार उसके पास पैंट की पिछली जेब में थे। उस्मान अली कुछ और वक्त बीत जाने का इन्तजार करता रहा।

दीवार पर लगी घड़ी ने जब साढ़े तीन बजाये तो उठ बैठा वो। घर के सब लोग सो चुके थे। कभी-कभाद अवश्य किसी एक आध के चलने-फिरने की आहट आ जाती थी। उसने कमरे में सोये अन्य लोगों पर निगाह मारी फिर खिसक कर बैड से उतरा और नीचे पड़े जूते पहनने लगा। जूते पहनने के बाद खड़ा हुआ और नीचे सोई औरत और दो बच्चों से बचकर पांव रखता, कोने में खड़ी अलमारी के पास पहुंचा और कमरे के दरवाजे पर नज़र मारी। वहां कोई नहीं था। उसने पैंट की पिछली जेब से औजारों वाला लिफाफा निकाला और उसमें से नुकीली, तीखी पत्ती और लोहे की पतली सलाख के साथ अलमारी को खोलने में लग गया। कभी की-होल में सलाख को डाल कर घुमाता और हैंडिल को दबाता तो कभी पत्ती से ऐसा करता ।

महज चार-पांच मिनट लगे और अलमारी खोल ली उसने ।

फिर उस्मान अली ने सतर्कता से बे-आवाज अलमारी के पल्ले खोले। मध्यम सी आवाज जरूर हुई परन्तु उस आवाज से कमरे में सोये लोगों की नींद नहीं टूटी। अलमारी के पल्ले खुलते ही, उस्मान अली की आंखों में चमक भर आई। सामने ही अल्मारी के ऊपर के खाने में, सोने के सैटों के छः बक्से पड़े दिखे उसे। उस्मान अली ने जल्दी से छः के छः बक्से खोले और उनमें रखे सारे सोने के सैट निकालकर जेबों में भर लिए। वो छः सोने के सैट थे और जानता था कि लाखों का माल है ये। दो मिनट में ही ये काम करके फारिग हुआ और अलमारी के पल्लों की ओट से निकला कि दिल उछलकर गले में आ फंसा।

दो कदमों की दूरी पर अजय सिंह की पत्नी खड़ी उसे देख रही थी।

वो कब कमरें में आई, पता ही नहीं चल सका था।

उस्मान अली हक्का-बक्का रह गया। रंगे हाथ पकड़ा गया था वो।

दोनों कई पलों तक एक-दूसरे को देखते रहे।

उस्मान अली के चेहरे पर से कई रंग आकर गुजर गये।

"मेरी बेटी की शादी है।" औरत ने दोनों हाथ जोड़कर गम्भीर स्वर में कहा--- "हमारी खुशियां बरबाद मत करो।"

उस्मान अली का दिमाग तेजी से दौड़ रहा था।

"मैं शोर डालूंगी तो तुम पकड़े जाओगे और मैं नहीं चाहती कि शादी के मौके पर ऐसा अपशगुन हो। पुलिस यहां आये।" वो पुनः बोली।

उस्मान अली सोच रहा था कि कोशिश करे तो भागा जा सकता है।

"तुम अजमेर से नहीं आये?" वो बोली ।

"नहीं--।" उस्मान अली के होंठों से निकला ।

"तुम्हारी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि इक्यावन सौ का शगुन लेकर घर में घुस आये।" औरत बेहद गम्भीर थी--- “अब तुम सारे सैट निकालकर रख दो और चले जाओ। नहीं तो मैं शोर मचा दूंगी।"

“खाली हाथ घर पर लौटा तो मां नाराज होगी।" उस्मान अली ने गम्भीर स्वर में कहा।

औरत कुछ पल उसे देखती रही फिर कहा ।

"क्या चाहते हो?"

"कम से कम पच्चीस हजार और शगुन का इक्यावन सौ वापस---।" उस्मान अली ने कहा।

"मतलब कि तीस हजार रुपया तुम्हें मिले तो तुम सोना रखकर जाने को तैयार हो?" औरत ने कहा ।

“हां।"

"अलमारी के नीचे वाले खाने में पीले रंग का साफा पड़ा है। उसमें से तीस हजार निकाल लो।" औरत ने कहा।

उस्मान अली ने दो पल औरत को देखा और नीचे झुककर पीला वाला लिफाफा तलाश करने लगा जो कि उसे मिल गया। वो वहां से जल्दी निकल जाना चाहता था। अगर कोई और आ गया तो फिर नहीं बच सकेगा। लिफाफे में नोटों की गड्डियां भरी पड़ी थी। उसने पांच सौ की गड्डी निकाली और उसमें से अन्दाजे से बीस हजार के नोट निकालकर लिफाफे में वापस डाले और बाकी के नोट जेब में रखकर, जेबों से सोने के सैटों को एक-एक करके बाहर निकालने लगा।

सारा सीना बाहर निकालकर बैड पर रख दिया।

औरत गम्भीर निगाहों से ये सब देख रही थी।

"अब तो तुम्हारी मां नाराज नहीं होगी?" औरत ने पूछा।

"नहीं।" उस्मान अली दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

"मेरी बेटी सुखी रहे, ऊपर वाले से ये जरूर मांगना।" पीछे से औरत ने कहा ।

उस्मान अली बाहर निकलता चला गया।

सुबह के पौने चार बज रहे थे।

साढ़े चार बजे घर पहुंचा तो मां लगभग जाग ही रही थी उसके इन्तजार में वो दरवाजा खोलते ही बोली।

"सब ठीक रहा ना?"

"हां।" उस्मान अली घर में प्रवेश कर आया ।

"क्या लाया?" मां दरवाजा बंद करते हुए बोली।

"पच्चीस हजार।"

"अच्छा हाथ मारा है।" मां खुश हो गई--- "चोरी की ?"

उस्मान अभी सोचने लगा कि अगर मां को सारा किस्सा पता चल जाये तो उसे छोड़ेगी नहीं कि लाखों के जेवरात हाथ आने के बाद निकल जाने दिए। जबाब में उसने मुस्कराकर कहा।

"किसी को लूटा। कार वाले को।"

"ये भी ठीक है।" मां ने कहा--- "माल आता रहना चाहिये। ला मुझे दे पच्चीस हजार।"

उस्मान अली ने जेब से नोट निकाले और पांच हजार रखकर, बाकी मां को दे दिए।

"तूने क्यों रखे?" मां बोली।

"वो मेरे नहीं हैं। पांच हजार उमेश को देने हैं। वो दारू के अड्डे पर मिला था। उससे लिए थे।"

"उमेश भी काम-काज में ठीक है। उससे बना के रख। खाना लगाऊं, कुछ खाया है या नहीं?"

"खा लिया था।"

"एक-दो पैग लगा ले और सो जा। कल काम पे जाने की जरूरत नहीं है।"

■■■

अगले दिन दोपहर बाद उस्मान अली, उमेश के घर पहुंचा। वो एक कमरे में अकेला ही रहता था।

"रात काम किया?" दरवाजा खोलते उमेश ने उसे देखा तो पूछा।

"नहीं। कोई और काम पड़ गया। वहां नहीं जा सका। तेरे इक्यावन सौ लौटाने आया हूं।"

"इस काम में तेरे को बढ़िया माल मिल जाता ।"

उस्मान अली, उमेश को पैसे देकर अपने स्कूटर पर वहां से चल दिया। मन में ये ही सोच रहा था कि रात फंसते-फंसते बचा है अगर उस औरत ने शोर डाल दिया होता तो पकड़ा जाता। भला हो उस औरत का कि उसने शोर भी नहीं डाला और तीस हजार देकर भेजा। अपने घर में हो रही शादी के मजे को खराब नहीं करना चाहती थी शोर मचाकर ।

पर ऐसा कब तक चलेगा?

पकड़ा जायेगा तो सीधा जेल में छः महीने, साल से पहले नहीं छूटेगा। ये रोज-रोज का चोरी करना उसे कभी ना कभी तो बुरा फंसा देगा। ये सोच अक्सर आती कि उस्मान अली और आगे ना सोच पाता कि क्या करे? कभी-कभी ये भी सोचता कि कहीं पर एक ही बड़ा हाथ मार ले परन्तु बड़ा काम करना उसके बस का नहीं था। उसे तो बस चोरी करना ही आता था। फिर मन ही मन सोचा कि दो-तीन दिन में ललित लौट आयेगा तो उससे इस बारे में सलाह-मशवरा करेगा। एक साथ ज्यादा नोट कमाने के लिए कोई जुगाड़ तो करना ही पड़ेगा।

वापस घर पहुंचा। आते वक्त समथिंग स्पेशल की बोतल लेता आया था कि रात को जमकर पिएगा और खायेगा फिर सो जायेगा। अभी कई दिन का खर्चा पास में था। दो-चार दिन तो काम नहीं करेगा। घर पहुंचा तो दरवाजा खुला ही पाया। शाम के साढ़े पांच बज रहे थे। मां उसे कमरे में ही बैठी दिखी। वो बोतल थामे कमरे में गया कि ठिठक गया।

सामने कुर्सी पर देवराज चौहान बैठा था।

दोनों की नज़रें मिली।

“ये अभी आये हैं।” मां खड़े होकर कह उठी--- "कह रहे थे ललित ने भेजा है। कुछ काम है।"

"ललित ने--।" उस्मान अली ने बोतल मां को देते कहा--- "इसे भीतर रख दे।"

मां बोतल लेकर गई फिर तुरन्त ही लौट आई रखकर ।

"तुम उस्मान अली हो?" देवराज चौहान बोला।

“हाँ। ललित तुम्हें कहां मिला?" उस्मान अली संभला-संभला सा दिखा।

"मैं ललित को नहीं जानता।" देवराज चौहान ने कहा।

"फिर उसने तुम्हें कैसे भेज दिया मेरे पास कि तुम उसे जानते तक नहीं। पुलिस वाले हो ?"

"नहीं।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "स्वरूप पांडे को जानते हो?"

“नहीं।”

"मैं स्वरूप पांडे को जानता हूं और स्वरूप पांडे, ललित को जानता है। उससे मुझे तुम्हारा पता मिला। उसी ने कहा कि मैं ललित का नाम लूं तो बात करने में आसानी होगी। समझे अब सारी बात।"

उस्मान अली ने सिर हिलाया और कुर्सी पर बैठते कह उठा।

"मेरे से क्या काम है?"

“बेहतर होगा कि एक बार मेरे बारे में ललित से बात कर लो।" देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगाई--- "स्वरूप पांडे ने कहा था कि तुम्हें ललित से बात करने को कह जरूर दूं। जरूर इस बात का कोई मतलब होगा ।"

"तुम्हारा नाम क्या है?" उस्मान अली जेब से मोबाइल निकालता कह उठा।

“देवराज चौहान ।"

मां खामोशी से खड़ी उनकी बातें सुन रही थी। उन्हें देख रही थी। बीच में नहीं बोली वो।

उस्मान अली ने ललित को फोन किया। बात हुई ।

“कहां है तू?" उस्मान अली बोला--- "कब लौटेगा ?”

"कल तक तो आ जाता, परन्तु अब महीना लगेगा।" उधर से झल्लाया सा स्वर कानों में पड़ा।

"डेढ़ महीना, क्या कहता...।"

"टांग टूट गई है मेरी। शादी में पीकर, सीढ़ियों से गिर गया। छः हफ्तों का प्लास्टर चढ़ा है।"

“ओह। बुरा हुआ।" उस्मान अली ने देवराज चौहान पर नज़र मारी--- “ये स्वरूप पांडे कौन...।"

"ओह, अपने चक्कर में तेरे को, बताना भूल गया। तेरे पास कोई मिलने आया?"

"सामने बैठा है, घर पर। तभी फोन किया।"

"स्वरूप मेरी पुरानी पहचान का है। इस आदमी को किसी बड़े काम के लिए बंदे की जरूरत है। स्वरूप ने मुझे फोन किया, पर मेरी टांग पर तो कल रात को पलास्टर चढ़ गया था तो मैंने तेरे बारे में बता दिया उसे। तू अपना मामला पटा इससे। बात करके देख।"

"तू जानता है इसे?"

"नहीं। मुझे तो इसका नाम तक नहीं पता।" उधर से ललित की आवाज आई।

“ठीक है। मैं तेरे को बाद में फोन करता हूं।" कहकर उस्मान अली ने फोन बंद किया।

"क्या कहता है ललित ?” मां ने पूछा।

“इसने जो कहा, वो सही है।" उस्मान अली ने देवराज चौहान को देखा--- "मेरे से क्या काम है?"

देवराज चौहान ने उसकी मां को देखा फिर उसे देखा ।

उसकी नजरों का मतलब समझकर उस्मान अली बोला।

"मां से कोई पर्दा नहीं है। जो कहना है कह दे ।”

"मैं देवराज चौहान और डकैतियां करते रहना मेरी पुरानी आदत है।"

उस्मान अली ने होंठ सिकोड़े। उसे देखता रहा।

तभी मां तेज स्वर में कह उठी।

"उस्मान। सोचता क्या है, तूने सुना नहीं, ये डकैती मास्टर देवराज चौहान है। पांव पकड़ ले इसके। इसका आशीर्वाद तेरे को मिल गया तो तेरी जिन्दगी बदल जायेगी। जल्दी कर, जल्दी कर, पांव पकड़ ले।" मां की आवाज और चेहरे पर जहान भर की खुशी थी।

सारी बात समझने में उस्मान अली को आधा मिनट लगा।

वो तो सामने वाले को यूं ही साधारण सा इन्सान समझ रहा था।

ये डकैती मास्टर देवराज चौहान है? उस्मान अली के कान खड़े हो गये।

“क्या बोला तुमने ?" उस्मान अली के होंठों से निकला--- "तुम ही डकैती मास्टर देवराज चौहान हो?"

"हां।"

"झूठ तो नहीं कह रहे ?"

"मैं झूठ नहीं बोलता ।" देवराज चौहान ने उसकी मां को देखा--- "मैं सिग्रेट पी लूं तो आपको एतराज...।"

"ना-ना। मुझे भला क्यों एतराज होने लगा। सिग्रेट पी। शराब पी। पकौड़े मैं तेरे को बनाकर खिलाती हूं। मेरे तो भाग्य खुल गये जो डकैती मास्टर देवराज चौहान के कदम, मेरे घर पर पड़े हैं। तू मेरा बेटा होता तो कितना अच्छा होता। मैं तो...।"

तभी उस्मान अली का फोन बज उठा।

देवराज चौहान पर उलझन भरी नजरें टिकाये उसने फोन पर बात की।

"हैलो।"

“उस्मान ।" उधर से ललित का तेज स्वर कानों में पड़ा--- "मैंने अभी स्वरूप पांडे से बात की। वो कहता है तेरे से जो मिलने आया है वो डकैती मास्टर देवराज चौहान है। सत्यानाश हो मेरी टांग का, इसने अभी टूटना था। वरना देवराज चौहान मेरे से बात करता। वो जरूर कोई बड़ी बात करने आया...।"

"मैं तेरे को बाद में फोन करता हूं।" उस्मान अली ने कहकर फोन बंद कर दिया।

तब तक देवराज चौहान ने सिग्रेट का कश ले लिया था। वो बोला ।

"बड़ा काम करना चाहता है?"

"लो जी, नेकी और पूछ-पूछ।" मां कह उठी--- "मेरा बेटा आपके हवाले, जो कहोगे, वो ही करेगा, बस नोट देते रहना।"

"तुम चुप करोगी मां?" उस्मान अली ने गम्भीर स्वर में कहा ।

"ठीक है। नहीं बोलती।”

"तू चाय बना।"

"नहीं। मैं तो बातें सुनूंगी।" मां ने खुशी के मारे, मुस्कराकर कहा।

उस्मान अली ने देवराज चौहान को देखकर पूछा।

“बड़ा काम करूंगा देवराज चौहान। लेकिन करना क्या है?"

"डकैती ।"

"खतरा कितना है?" उस्मान अली ने पूछा।

"खतरे-वतरे को छोड़।" मां कह उठी--- "देवराज चौहान तेरे घर पर आया है तेरे को पूछने। माना हुआ डकैती मास्टर है। तेरे तो भाग खुल गये। पैर पकड़ ले जल्दी से मौज करेगा जिन्दगी भर।"

"जहां दौलत होती है, वहां खतरा भी होता ।" देवराज चौहान ने कहा--- "हम सब काम करेंगे। खतरा होगा तो सबके लिए होगा। एक के लिए नहीं। रोज-रोज खतरे में पड़ने से अच्छा है कि एक ही बार खतरा उठा लो।"

"ठीक ही तो कहता है देवराज चौहान।" मां कह उठी।

"जान जायेगी?" उस्मान अली ने गम्भीर स्वर में पूछा।

"कम चांसिस है।" देवराज चौहान ने कहा।

"मिलेगा क्या?"

“जितने नोट साथ ले जा सकोगे, ले जाना। ये तुम पर होगा ।"

"मैं समझा नहीं।"

"तुम्हें मैं ऐसी जगह पहुंचा दूंगा जहां करोड़ों के नोट पड़े होंगे। उसमें तुम कितने उठाकर ला सकते हो, ये तुम पर है।"

उस्मान अली ने गहरी सांस ली।

“ये सारे ले आयेगा। मेरा शेर है शेर।" मां जल्दी से बोली।

"मजाक तो नहीं कर रहे?"

"मैं गम्भीर हूं।"

"तुम्हें कैसे पता कि मैं तुम्हारे काम का हूं। डकैती में तुम्हारे काम आ सकता हूं।"

"सुबह मुझे स्वरूप पांडे ने तुम्हारे बारे में बताया था। उसके बाद मैंने तुम्हारे बारे में पता किया। स्वरूप ने ललित से बात की। सब कुछ मिलाकर तुम मुझे काम के लगे।" देवराज चौहान बोला।

"कहां करनी है डकैती ?"

"ये बात और डकैती की प्लानिंग सबको एक साथ ही बताई जायेगी।" देवराज चौहान ने कश लिया--- “कुछ दिन तुम इन्तजार करोगे और अब कोई भी काम नहीं करोगे। ऐसा ना हो कि तुम पुलिस के हाथों में पड़ जाओ और वक्त पर मेरे साथ काम ना कर सको ।"

उस्मान अली ने सिर हिलाया।

"लेकिन देवराज चौहान बेटा।" मां तुरन्त कह उठी--- "आजकल हाथ तंग चल रहा है। घर में पैसा नहीं है। काम नहीं करेगा तो खर्चा कैसे चलेगा। इसका काम तो मजदूरी वाला...।"

देवराज चौहान उठा और जेब से पांच सौ की दो गड्डियां निकालकर उस्मान अली को दी।

"खर्चे के लिए लाख रुपया काफी होगा। ये बात बाहर नहीं निकलनी चाहिये कि तुम मेरे साथ काम करने जा रहे हो। या हम मिले थे। ललित को भी पता ना चले कि तुम मेरे साथ डकैती में शामिल हो रहे हो।"

"ठीक है।" उस्मान अली उठते हुए बोला--- "तुम क्या जा रहे हो?"

"हां क्यों ?"

"मैंने इस डकैती के बारे में कई बातें पूछनी है। कई ऐसी बातें हैं जो...।"

"वक्त आने पर तुम्हें पूछने का मौका मिलेगा और हर सवाल का जवाब मिलेगा।" देवराज चौहान ने कहा।

“और कितने लोग इस काम में शामिल हैं?" उस्मान अली ने पूछा।

"जल्दी मत करो। कुछ दिन बाद सबसे मिल लोगे। अपना फोन नम्बर दो।"

देवराज चौहान उसका फोन नम्बर लेकर जाने लगा तो मां कह उठी।

"तुमने तो ठण्डा-गर्म कुछ भी नहीं लिया। नई बोतल लाया है उस्मान । मैं पकौड़े निकाल देती हूं, दो चार पैग लगा के...।"

“मैं चलूंगा।” देवराज चौहान मुस्कुराया--- "मेरे बदले उस्मान पकौड़े खा लेगा और मेरे हिस्से की भी पी लेगा। मुझे अभी कई काम करने हैं। बेहतर होगा कि मेरा फोन आने तक ये घर पर रहे। बाहर कम से कम निकले। मैं नहीं चाहता कि अब ये किसी भी तरह की मुसीबत में फंसे। मेरे साथ काम करने का मतलब कुछ खास ही होता है। मुझे अपने साथी की चिन्ता रहती है।"

“हां-हां, क्यों नहीं, तुम्हारे छोटे भाई जैसा तो है ये।" मां दांत फाड़कर कह उठी।

देवराज चौहान बाहर निकल गया।

■■■

दोपहर के 2 बज रहे थे। अड़तीस वर्षीय सतीश बारू सोया उठा और बाथरूम में जाकर हाथ मुंह धोने के बाद किचन में कॉफी बनाने पहुंच गया। वो साधारण कद-काठी का व्यक्ति था। उसके चेहरे से ही व्यस्तता झलक रही थी। इस वक्त वो नाइट सूट पहने था। कॉफी तैयार करते समय वो बीती रात के बारे में सोचने लगा। जॉनी को ठीक करना पड़ेगा। साले ने खामख्वाह का पंगा खड़ा कर रखा है। कल उसके आदमी को पीट दिया, जब वो ड्रग्स के पैसे लेने लगा। तीन महीने से जॉनी उधार ड्रग्स ले रहा था उससे और हमेशा पैसे देने के लम्बे-लम्बे वादे करता रहता है, परन्तु दे नहीं रहा। ठीक करना पड़ेगा जॉनी को। वो तो हमेशा नकद पर ही पुड़िया बेचता था, परन्तु जॉनी इसका पुराना ग्राहक था तो उसे उधार दे दी ड्रग्स। अब पैसे देने पर नहीं आ रहा था।

कॉफी बनाकर सतीश बारू छोटे से ड्राइंग रूम में आ बैठा। घूंट भरते हुए सोचों में डूबा रहा। वो जानता था कि इस धंधे में खतरा है। जॉनी जैसा कोई ड्रग एडिक्ट पैसे मांगने पर गोली मार देगा। इस धंधे में जीवन की गारंटी कभी नहीं रहती। साल भर में उस जैसे ड्रग्स की पुड़िया बेचने वाले दो लोगों को गोली मार दी गई। पता चला कि उन्हें शूट करने वाले उनसे ड्रग्स खरीदने वाले लोग ही थे। एक तो जॉनी जैसा उधारी था कि पैसे मांगने पर गोली मारी, दूसरे की उसे पता नहीं कि क्या बात हुई थी। उसने कई बार सोचा कि धंधा बदल ले, परन्तु दूसरा कोई काम ऐसा था नहीं कि जिसमें अच्छा पैसा आता हो। काम था तो उसे करने में समस्या थी। मन ही मन उसने हिसाब लगाया कि बीस-पच्चीस लाख रुपया उसके पास जमा हो चुका है। परन्तु ये कम था। उसे ज्यादा पैसा इकट्ठा करना था कि आराम से बैठकर जिन्दगी काटी जा सके। अपने काम में वो हमेशा ही इतना व्यस्त रहता था कि अपने बारे में सोचने का उसे वक्त ही नहीं मिला था। मां और छोटे भाई-बहन गांव में रहते थे। उन्हें हर महीने खर्चा भेजता था। गांव में खेती-बाड़ी भी थी उससे वो अलग से कमा लेते थे। बहन शादी के लायक हो चुकी थी। उसकी मां अक्सर उसे फोन पर कहती कि छोटी अब बड़ी हो गई है। उसकी शादी करनी है। पढ़ी-लिखी है, शहर में ही कोई लड़का देख के ब्याह कर दे। पिछली बार तो मां ने फोन पर कहा कि छोटी को तुम्हारे पास मुम्बई भेज दूं क्या? यहां पर छोटी बहन का आना ठीक नहीं था। उसका धंधा ही ऐसा था कि परिवार जितना दूर रहे, वो ही बेहतर। परन्तु बहन की शादी करनी थी और कितना पैसा उसने जमा किया था, वो शादी में लग जाना था। उसके बाद वो फिर खाली।

गहरी सांस लेकर सतीश बारू ने कॉफी का प्याला टेबल पर रखा और बड़बड़ाया।

"नोटों की किल्लत खत्म ही नहीं होती। खर्चे मुंह फाड़े सामने खड़े हैं।"

तभी उसका मोबाइल बजा। उठकर मोबाइल के पास पहुंचा और बात की।

"बारू, मैं हूं जॉनी।" दूसरी तरफ से जॉनी की आवाज आई।

"तेरा दिमाग ठीक करने के लिए मैं तेरे से जल्दी मिलने वाला हूं।" सतीश बारू गुस्से से कह उठा।

"नाराज हो गया।" जॉनी के हंसने की आवाज आई--- "मैंने तो तेरे को पैसे देने को फोन किया है।"

“रात तूने मेरे आदमी को मारा।"

“उस वक्त मैं नशे में था। हो गया ऐसा। ये बता मैं पैसे देने कहां आऊं?"

"शाम को ठिकाने पर आ जाना।"

“शाम को तो मैं मुम्बई से बाहर जा रहा हूं। बीस दिन बाद लौटूंगा।"

"तो ठिकाने पर जो भी हो, उसे पैसे दे देना। मुझ तक पहुंच जायेंगे।"

"मैं तेरे को देना चाहता हूं। तू नहीं मिल सकता तो फिर कभी...।"

“ठीक है। मेरे फ्लैट पर आ जा। रकम मालूम है कितनी है ?"

"तेरा आदमी रात को अड़तीस हजार बता रहा था।"

"बता नहीं रहा था। इतनी ही है।"

"कोई बात नहीं। अभी मेरे पास पैसा आया है तो सबसे पहले तेरे पैसे दे रहा हूं। एक घंटे में आता हूं।"

सतीश बारू ने फोन बंद कर दिया। जॉनी पैसे लेकर आ रहा है। इस विचार के साथ उसका गुस्सा शांत हुआ। उसके बाद नहाकर, नाश्ता बनाया। खाया। इतने में ही घंटा बीत गया। दरवाजा खोल दिया उसने कि जॉनी आने वाला है।

कुछ देर बाद जॉनी आ भी गया।

वो तीस साल का बदमाश सा व्यक्ति था। उसकी आंखें नशे में हमेशा चढ़ी रहती थी। सुर्ख रहती थी। शेव बढ़ी रहती, सिर के बाल बेतरकीबी से बिखरे रहते। कपड़ों को भी वो दस-दस दिन डाले रहता। पक्का नशेड़ी था। छीना-झपटी, राहजनी जैसे काम करता था। सतीश बारू उसे छः सालों से जानता था। ड्रग्स का पुड़िया खरीदने वाले, उसके हर तरह के ग्राहक थे।

खुले दरवाजे से जॉनी सीधा भीतर आया और सोफे पर बैठे सतीश बारू को देखा।

सतीश बारू की निगाह उस पर टिक गई।

"क्या हाल है बारू?" जॉनी ने दांत फाड़े।

“रात तूने बोत गलत किया।" सतीश बारू ने सख्त स्वर में कहा--- "मेरे आदमी पर हाथ उठाया।"

"गलत किया तो तभी तेरे पास आया।"

"नोट दे और चलता बन---।"

जॉनी आगे बढकर सोफे पर आ बैठा और बोला ।

"चाय-पानी नहीं पूछेगा। तेरे घर पर आया हूं।"

"नोट दे और जा।" सतीश बारू का स्वर तीखा था।

जॉनी ने सिर हिलाया और कहा।

"रात जो हुआ, उसके बाद मैंने सोचा कि अब तू चुप नहीं बैठेगा और मुझे घेरकर मेरे को खूब पीटेगा। लेकिन ऐसी नौबत आये, उससे पहले ही मैंने तेरे को मिल लेना ठीक समझा। मैं पिटाई नहीं सह सकता। पीटे जाने से मुझे बहुत डर लगता है। पुलिस जब कभी मुझे पकड़ लेती है तो साफ कह देता हूं जो इल्जाम लगाना है लगा दो, सब कबूल करूंगा, परन्तु मुझे पीटना मत। समझा मेरी बात बारू। पीटे जाने से मुझे बहुत डर लगता है और तू मुझे छोड़ने वाला नहीं था। मैं ही आ गया तेरे पास। कितना पैसा है तेरा, अड़तीस हजार ।"

"कितनी बार पूछेगा।" सतीश बारू ने सख्त स्वर में कहा।

"तेरे को पता है कि अड़तीस हजार मेरे लिए बड़ी रकम है। गलती तेरी है जो तूने उधार को इतना बड़ा होने दिया। मेरे पास तो पैसे हैं नहीं।"

"क्या?” सतीश बारू सतर्क हुआ।

"सच में नहीं है। फोन पर तो मैंने तेरे से झूठ ही कहा था कि मेरे पास पैसे हैं।" जॉनी हंसा।

"अच्छा।" सतीश बारू उठा और दूसरे कमरे की तरफ बढ़ा--- "मैं तेरे लिए चाय बनाता हूं।"

"रुक जा ।" एकाएक जॉनी गुर्राया ।

सतीश बारू ठिठककर पलटा ।

जॉनी के हाथ में लम्बे फल वाला खुला चाकू चमक रहा था। चेहरे पर खतरनाक भाव आ गये थे और आंखों में वहशी चमक नाच रही थी। वो उसी प्रकार सोफे पर बैठा रहा। उसे देखता रहा।

सतीश बारू ने सतर्कता भरे अन्दाज में उसे घूरा।

"रिवॉल्वर लेने जा रहा था---है ना?" जॉनी ने मौत भरे स्वर में कहा।

सतीश बारू उसे उसी तरह से देखता रहा।

"मैंने तेरे से सही कहा था कि मैं पिटाई नहीं सह सकता। इसलिये तेरे पास पहले ही चला आया। अब समझ में आई बात कि मैं क्यों तेरे पास आया हूं।” जॉनी उठ खड़ा हुआ--- "सारी गलती तेरी है। तेरे को इतना बड़ा उधार मेरे को नहीं देना चाहिये था। ना तू उधार देता, ना ये नौबत आती। तेरी रिवॉल्वर ढूंढकर मैं ले जाऊंगा। अब चाकू से काम नहीं होता। रिवॉल्वर की जरूरत मैं कब से महसूस कर रहा---।"

"तेरा दिमाग खराब हो गया है जॉनी।" सतीश बारू कठोर स्वर में गुर्रा उठा ।

"दिमाग खराब हो गया है तभी तो तुझे मारने आ गया।”

"बेवकूफी वाली बातें मत कर।" सतीश बारू ने कहा--- “पैसे देने में देर-सवेर हो जाती है। कोई बात नहीं। तेरे को और वक्त चाहिये तो तब भी कोई बात नहीं। चाकू जेब में रख ले और चाय पीकर जाना।"

"बारू।" जॉनी हंसा--- "सच बात तो ये है कि मैं पैसे देना ही नहीं चाहता।"

सतीश बारू सतर्क सा खड़ा उसे देखता रहा फिर बोला।

"मैंने पैसे छोड़े। जा तू ।”

“वाह बारू। तू क्या समझता है जॉनी तेरी बातों में आ जायेगा। तू पैसे छोड़ने वाला नहीं। इस चाकू को निकालने के बाद तो बिल्कुल भी नहीं। अब तू अपने आदमी मुझ पर दौड़ा देगा। कि मुझे मार दिया जाये। इसलिये तेरा मर जाना ही ठीक रहेगा।" जॉनी, बारू की तरफ बढ़ा। दरिन्दगी टपक रही थी उसके हाव-भाव में--- “साले, मैं तेरे को खत्म करने आया हूं।”

"पागल मत बन, मैं---।"

जॉनी चाकू के साथ बारू पर झपट पड़ा।

सतीश बारू ने फुर्ती से एक तरफ छलांग लगा दी और नीचे लुढ़कता चला गया। परन्तु संभल नहीं पाया कि जॉनी उसके सिर पर आ गया। जॉनी के होंठों से गुर्राहटें निकल रही थी। वो उसकी छाती पर चाकू मारने के लिए झुका कि बारू ने फौरन करवट ले ली। चाकू की नोक फर्श पर लगी कि तभी बारू ने उसे हाथों से धक्का दिया तो जॉनी संभल ना सका और नीचे जा लुढ़का। चाकू उसके हाथ में ही रहा। बारू जल्दी से उठा और नीचे पड़े जॉनी पर छलांग लगा दी। सबसे पहले उसकी चाकू वाली कलाई पकड़ी। दूसरे हाथ से जॉनी का गला पकड़ना चाहा परन्तु जॉनी ने घुटने की ठोकर उसकी कमर में दे मारी। बारू कराहकर पीछे हटा तो, जानी ने जूते की ठोकर उसके पेट में मारी। बारू पीछे जा गिरा। जॉनी फुर्ती से खड़ा हो गया और बारू पर झपटा। बारू के चेहरे पर अब मौत के भाव नाच रहे थे क्योंकि जॉनी पास आया, नीचे बैठ बारू ने दोनों टांगों की जोरदार ठोकर, जॉनी की टांगों पर मारी। जॉनी की टांगों ने दो पलो के लिए फर्श छोड़ा और वो पास ही में नीचे आ गिरा। चाकू वाला हाथ फर्श पर लगा तो चाकू हाथ से छूट गया। बारू ने जॉनी की गर्दन पर दांये हाथ का पंजा टिका दिया।

जॉनी गुर्रा उठा ।

सतीश बारू की आंखों में दरिन्दगी नाच रही थी।

“साले कुत्ते---।" जॉनी दांत किटकिटा उठा।

"तूने बहुत गलत किया जॉनी ।" बारू ने सर्द स्वर में कहा--- "मेरी जान लेने के चक्कर में था।"

जानी ने तड़पकर उठना चाहा।

परन्तु बारू ने उसे जकड़ रखा था। हाथ गर्दन पर दबाव बनाए हुए था।

“तेरे को मौका दे रहा हूं जान बचाने का। बचा सकता है तो अपनी जान बचा ले।" कहने के साथ ही बारू ने उसकी गर्दन छोड़ी और उठते हुए पास पड़ा चाकू उठाकर अपनी जेब में रखा। चेहरे पर खतरनाक भाव थे।

जॉनी उछलकर खड़ा हो गया।

“बारू मैं तुझे मार दूंगा।” जॉनी ने पागलों की तरह कहा।

"चला जा नशेड़ी। तेरे में इतनी जान नहीं कि तू मुझे मार सके।" बारू ने एक-एक शब्द चबाकर कहा--- "जब तक चाकू तेरे हाथ में था तभी तक ही हिम्मत तेरे में थी। तेरे को पिटाई से बहुत डर लगता है ना। मैं वादा करता हूं तेरी पिटाई नहीं कराऊंगा। बचा ले अपनी जान और भाग जा इधर से। मेरे से पंगा खड़ा करने का मतलब जानता है ना तू---।"

"मैं फिर आऊंगा।" जॉनी दरवाजे की तरफ बढ़ता गुर्राया--- "इस बार तेरे को जिन्दा नहीं छोडूंगा।"

जॉनी बाहर निकलता चला गया।

चेहरे पर कठोरता समेटे आगे बढ़कर सतीश बारू ने दरवाजा बंद किया और जेब से जॉनी का चाकू निकालकर एक तरफ रखा। दांत भिंचे होने की वजह से गालों की हड्डियां बाहर को उभर रही थी। वो वापस सोफे पर आ बैठा। आंख बंद कर ली। दस-बीस मिनट तक वो यूं ही बैठा रहा फिर आंखें खोली तो चेहरा काफी हद तक सामान्य हो चुका था। उसने मोबाइल उठाया और नम्बर मिलाकर फोन कान से लगा लिया। अब चेहरे पर गम्भीरता दिख रही थी।

“हैलो ।” दूसरी तरफ से उसके आदमी राजन जाघव की आवाज कानों में पड़ी।

"जाघव ।"

"कहिये।"

“जॉनी मेरे घर पर आया था। वो पैसे देने से बेहतर समझता है कि मेरी जान ले ले।"

"हुआ क्या?"

"चाकू से मुझे मारना चाहा।"

"हरामी कहीं का। किधर है वो। पकड़ रखा है उसे क्या ?"

"मैंने उसे जाने दिया। ये मेरा घर था, समझा ।"

"जी।"

"वो ज़िन्दा रहा तो फिर मुझे मारने की कोशिश करेगा। उसे खत्म कर दे। काम इस तरह करना कि किसी को ये ना लगे कि ये काम हमारा है। हमें अपने धंधे की तरफ ध्यान देना है। सिर्फ ड्रग्स की तरफ। परन्तु जॉनी को खत्म करना भी अब जरूरी हो गया है।"

"मैं ये काम कर दूंगा।"

सतीश बारू ने फोन बंद करके रखा और किचन में जाकर कॉफी बनाने लगा। चेहरे पर गम्भीरता थी। इसी बीच उसका फोन बजा तो कमरे से फोन उठा लाया और बात की। दूसरी तरफ उसकी मां गांव से बात कर रही थी।

"कैसी हो मां?" सतीश बारू ने कॉफी को प्याले में डालते कहा।

“मैं तो ठीक हूं पर तूने छोटी के बारे में क्या सोचा? पन्द्रह दिन से तूने कोई जवाब नहीं दिया। मुम्बई में उसके लिए कोई लड़का है तो बता, मैं उसे लेकर तेरे पास आ जाती हूँ। उसका ब्याह करना है कि नहीं। तू अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं समझता ?" उधर से मां ने कहा।

"मां, मेरे इधर कोई अच्छा लड़का नहीं मिल रहा।" सतीश बारू ने कहा।

"मुम्बई में अच्छे लड़के मर गये क्या ?"

"ये बात नहीं, मैं---।"

"इधर चौधरी के बेटे का रिश्ता आया है। उसका क्या करूं?"

"कौन-सा चौधरी ?"

"चौधरी लालसिंह का बेटा, जो कि शहर से पढ़कर आया है। वहां नौकरी भी कर रहा है। खाता-पीता घर है। छोटी के लिए ठीक रहेगा। पर वो दस लाख शादी में मांगते हैं, दहेज अलग से। बारात भी तीन-चार सौ से कम क्या होगी। कहते हैं खाना बढ़िया चाहिये बारात को। ये तो खर्चा बहुत बैठ जायेगा। इतना पैसा हम कहां से लायेंगे?" उधर से मां ने कहा।

"खर्चा हो जायेगा, तू हां कर दे।"

"हां तो मैं कर दूंगी, पर जब तक तू नहीं आयेगा, तब तक काम कैसे होगा ?"

"मैं जल्दी आऊंगा। तू बात को आगे बढ़ा---।"

"बीस-पच्चीस लाख का खर्चा बैठेगा।"

“इतना कर दूंगा मां। पैसा हो जायेगा। वो जब की भी शादी तय करें, तू हां कर देना और मुझे बताती रहना ।"

"शादी भी वो जल्दी की कह रहे थे।"

"कोई बात नहीं। तू बात करके मुझे बता तो।" सतीश बारू फोन कान से लगाये, कॉफी का प्याला उठाये ड्राइंग रूम में आ गया--- "एक बार छोटी से पूछ लेना कि उसे चौधरी का लड़का पसन्द है ना?"

"उसे क्यों ना पसन्द आयेगा। पढ़ा लिखा है। हाथ-पांव सलामत है। नौकरी करता है। गांव में इतना बड़ा घर है। चौधरी से बात करके, तुझे फोन करूंगी। उसे कह देती हूं कि लड़का-लड़की देखने की रसम तो पूरी कर लेते हैं और रिश्ता पक्का कर लेते हैं।"

■■■

शाम साढ़े चार बजे सतीश बारू अपने ठिकाने पर पहुंचा।

ये दो कमरों में जगह थी। यहां बारू ड्रग्स को बड़े पैकिटों में लाकर, उसकी पुड़ियों में पैकिंग कराता था। ये स्लम एरिया था और ऐसे काम करने के लिए सस्ते में छोटे बच्चे मिल जाते थे। कई बार तो ड्रग्स सप्लाई का काम भी बच्चों से ही करा लेता था। यूं उसने चार आदमी रखे हुए थे जो कि पुड़ियों में ड्रग्स बेचने का काम करते थे। ज्यादातर खपत कॉलेजों के आस-पास होती थी या अमीर घरानों के लड़के-लड़कियां फोन पर ड्रग्स मंगाते थे। हर तरह के लोग थे ड्रग्स मंगाने वाले। बारू को काफी बचत हो जाती थी। हालांकि पुलिस को भी हर हफ्ते बंधी रकम पहुंचानी पड़ती थी। सब काम ठीक से चल रहा था।

एक कमरे में चार-पांच लड़के सफेद से पाऊडर को छोटी पुड़ियों में पैक कर रहे थे।

"जाघव कहां है?” उसने पूछा ।

"वो इधर नेई आया आज ?" चौदह-पन्द्रह साल के एक लड़के ने कहा ।

सतीश बारू दूसरे कमरे में आया और कुर्सी पर बैठकर जाघव का नम्बर मिलाया, बात हो गई।

"किधर है तू ?" उसने पूछा ।

"जॉनी को ढूंढ रहा हूं।"

"अकेला ?"

"शिंदे है साथ में।"

“छोड़ना मत उसे। पर ये काम खुले में मत करना। उसे खाली जगह पर ले जाना, समझे।" बारू ने कहा।

“चिन्ता मत करो बारू भाई। किसी को पता नहीं चलेगा कि ये काम हमने किया है।" उधर से जाघव ने कहा।

बारू ने फोन बंद किया और छोटी के रिश्ते के बारे में सोचने लगा। सही रिश्ता था। लड़के वाले खाते-पीते घर से है। लड़का पढ़ा-लिखा है, मां ठीक कहती है कि सब ठीक रहेगा।

तभी फोन बजा ।

"हैलो।" बारू ने बात की।

"हैलो बारू कैसे हो?" उधर से एक लड़के की आवाज आई, “मुझे फौरन ड्रग्स की सख्त जरूरत है। दस पुड़िया एक साथ। मरा जा रहा हूं। जल्दी से मुझे दो। कहां हो। मैं अभी आ जाता हूं। वक्त खराब मत ?"

“सुधीर जी बोल रहे हैं।"

"हां। जल्दी से ड्रग्स...।"

"दस पुड़िये के पांच हजार नकद---।"

"पैसा हाथ में लिए बैठा हूँ। तुम जल्दी से किसी को भेजो कि...।"

"आज आदमी बिजी हैं। मुझे खुद ही आना होगा। कहां आऊं?" बारू ने कहा।

जगह तय हो गई।

बारू ने फोन बंद किया और भीतर से दस पुड़िया उठाकर लिफाफे में डाली और बाहर खड़ी अपनी कार में जा बैठा और स्टार्ट करके कार आगे बढ़ा दी। जब उसके आदमी व्यस्त होते तो वो खुद भी माल सप्लाई करने जाता था। आज जाघव और शिंदे, जॉनी का बैंड बजाने गये थे। ऐसे में उसे कई जगह ड्रग्स देने जाना होगा। अभी और भी फोन आयेंगे। ड्रग्स का काम वो अवश्य करता था परन्तु उसने कभी भी ड्रग्स का स्वाद नहीं देखा था। किसी भी तरह का नशा हो, इन कामों से वो दूर रहता था। इस धंधे के अलावा वो बेहद साधारण जिन्दगी जीता था।

बारू अपनी सोचों में डूबा कार चला रहा था और उसे जरा भी पता नहीं चला कि जब वो ठिकाने से निकलकर कार पर वहाँ से चला है, तभी से एक कार उसके पीछे लग गई है। उस कार में जगमोहन था, जो कि बारू के उस ठिकाने पर पहुंचने से पहले ही वहां पर उसके आने का इन्तजार कर रहा था। उसके आने के कुछ देर बाद जगमोहन बारू के पास जाने की सोच रहा था कि तभी उसने बारू को बाहर निकलकर, कार पर जाते देखा तो उसके पीछे चल पड़ा।