मंगलवार : सोलह मई : मुम्बई काठमाण्डू पूना दिल्ली
विमल होटल सी-व्यू की चौथी मंजिल पर उस आफिस में विराजमान था जो कि हमेशा से ‘कम्पनी’ के टॉप बॉस लोगों का आफिस रहा था ।
पहले राजबहादुर बखिया का, फिर इकबाल सिंह का, आखिर में व्यास शंकर गजरे का और अब होटल के नये मालिक राजा गजेन्द्र सिंह का ।
विमल के सामने इरफान और शोहाब मौजूद थे जो कि अपलक संजीदासूरत विमल को देख रहे थे ।
इरफान खुश था कि ‘बाप’ दिल्ली से फतह का परचम लहराता लौटा था और अब नीलम पहले से कहीं ज्यादा सुरक्षित माहौल में नन्हे सूरज के साथ होटल में मौजूद थी ।
मां बेटे की सुरक्षा के लिए जो फौरी इन्तजाम किया गया था, वो ये था कि होटल की टॉप की मंजिल पूरी तरह से सील कर दी गयी थी । होटल का रूफ टॉप रेस्टोरेंट बन्द कर दिया गया था और होटल के प्लान को यूं आर्गेनाइज किया गया था जैसे वो अट्ठारह मंजिल का नहीं, सत्रह मंजिल का था । अब केवल एक ही लिफ्ट उस मंजिल पर जाती थी और उसके इस्तेमाल की बाबत भी खास स्टाफ को खास हिदायत थीं ।
फिर भी विमल सन्तुष्ट नहीं था ।
नीलम और सूरज उसकी ऐसी दुखती रग बन गये थे जैसी पर कि कोई भी, कभी भी चोट करने में कामयाब हो जाता था ।
“क्या सोचेला है, बाप !” - इरफान बोला ।
विमल ने उत्तर न दिया, उसने गम्भीरता से पाइप का कश लगाया ।
“मैं क्या बोला था, बाप ! कि जौहर ज्वाला में तेरा बाल भी बांका न होगा । तू फतह का परचम लहराता जायेगा और फतह का परचम लहराता वापिस लौटेगा । मेरे को खुशी है कि रब्बल आलामीन को मेरी दुआ कुबूल हुई, तू अपनी बेगम के साथ सलामत वापिस लौट के आया ।”
“एक बार फिर ऊपर वाले ने अपने गुनहगार बन्दे की लाज रखी ।” - विमल धीरे से बोला - “जन की पैज रखी करतारे । लेकिन ऐसा हमेशा तो होता नहीं रह सकता ।”
“क्या बोलता है बाप ?”
“मुझे लगता है अन्त पन्त सोहल का वाटरलू उसकी बीवी और बच्चा ही बनेगा ।”
“शुभ शुभ बोल, बाप ।”
“तीन बार ऐसा हो चुका है । दुश्मनों का एक ही कामयाब वन प्वायन्ट प्रोग्राम जान पड़ता है । सोहल की नाक मोरी में रगड़नी हो तो उसकी बीवी को थाम लो, उसके बच्चे को थाम लो या दोनों को थाम लो ।”
“अब ऐसा नहीं हो सकेगा ।” - शोहाब संजीदगी से बोला ।
“पिछली बार भी यही लगता था कि ऐसा नहीं हो सकता था लेकिन हुआ, बराबर हुआ । वो लोग बच्चे को ले गये और फिर बच्चे की मां कच्चे धागे से बन्धी बन्धी उनके पीछे चल दी ।”
“अब ऐसा नहीं हो सकेगा । पिछली बार वाली खामियां अब दुरुस्त कर दी गयी हैं ।”
“हां, बाप ।” - इरफान पुरइसरार लहजे से बोला - “पिछली बार वो नामोनिहाद मिस्टर एण्ड मिसेज शाह खड़े पैर छटी मंजिल पर से अपना सुइट चेंज करा के टॉप फ्लोर पर पहुंच गये थे जहां कि तेरी बीवी और लख्तेजिगर का भी सुइट था लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता । अब तो जैसे होटल की अट्ठारहवीं मंजिल का वजूद ही खत्म कर दिया गया है । अब वहां परिन्दा भी पर नहीं मार सकता ।”
“थ्योरी में सब अच्छा अच्छा और चौकस ही लगता है लेकिन जब कुछ होने पर आता है तो यूं होता है कि हम भौंचक्के देखते रह जाते हैं ।”
“अब नहीं होगा ।”
“जरूर होगा । इतना बड़ा होटल है, इतना ज्यादा स्टाफ है, कोई भी दगाबाज निकल सकता है । हमारे जनरल मैनेजर कपिल उदैनिया ने इतनी दानिशमन्दी से, इतनी मुस्तैदी से, होटल के स्टाफ की स्क्रीनिंग की थी फिर भी जीवाने, शोलू, रामदेव और पाण्डू नाम के चार प्यादे उस स्क्रीनिंग से बच गये थे और उनकी मदद से दुश्मन चोट करने में कामयाब हो गये थे ।”
“अब ऐसा नहीं होगा, अब ऐसा नहीं हो सकता, उन चारों को मैंने खुद अपने हाथों जहन्नुमरसीद किया था । अब होटल के सिक्योरिटी चीफ तिलक मारवाड़े का भी दावा है कि होटल के स्टाफ में ऐसा एक भी शख्स नहीं है जिसके तार कभी ‘कम्पनी’ के निजाम से जुड़े हुए हों ।”
“है नहीं तो बनाया जा सकता है । आज के इंसान का ईमान बहुत ज्यादा बिकाऊ शै है, ये हमें नहीं मालूम या हमारे दुश्मन को नहीं मालूम !”
“तकरीबन दुश्मनों का तो तू, बाप, दिल्ली में सफाया कर आया ।”
“‘भाई’ बच गया । उसका बड़ा बाप रीकियो फिगुएरा बच गया ।”
“मौजूदा हालात में” - शोहाब धीरे से बोला - “उम्मीद नहीं कि ‘भाई’ पंगा लेने की कोशिश करेगा ।”
“वो खुशी से ले पंगा । उससे दो दो हाथ करने को मैं हमेशा तैयार हूं । लेकिन तैयारी में जो छेद है, वो मुझे सालना बन्द नहीं करता ।”
“छेद !” - इरफान बोला ।
“नीलम ! नन्हा सूरज ! हम कितने हो पुख्ता इंतजाम मां बेटे की सुरक्षा के क्यों न कर लें, ये हकीकत अपनी जगह कायम है और कायम रहेगी कि वो सोहल की ऐसी दुखती रग है जिसको छेड़ा जाने से वो तड़पता है ।”
“अब कोई छेड़ नहीं पायेगा ।”
“बचपन में मेरी मां मुझे एक जिन्न की कहानी सुनाया करती थी जिसकी जान एक तोते में होती थी । तोते की टांग तोड़ो, जिन्न की टांग टूट जाती थी, तोते की गर्दन मरोड़ो जिन्न की गर्दन टूट जाती थी । मुझे लगता है, मैं वो जिन्न हूं और नीलम, सूरज वो तोता है ।”
“अब उन तक कोई नहीं पहुंच सकता, बाप ।”
“जो काम तीन बार हो चुका, वो चौथी बार क्यों नहीं हो सकता ?”
“नहीं हो सकता । बोला न !”
“ये झूठी तसल्ली है ।”
“तो, बाप, तू कोई और तरकीब सोच ले । आखिर तूने इतना आला दिमाग पाया है ।”
“मैं जो भी तरकीब सोचूंगा, उसका ये अहम हिस्सा होगा कि नीलम मेरे साथ न रहे । दिल्ली में भी मेरी यही जिद थी कि वो मेरे साथ यहां न आये लेकिन उसे ये बात कुबूल नहीं हुई थी । वो तो सोहल की परछाईं बन के रहना चाहती है, बनी हुई है । अब परछाईं कभी छुपती है ।”
“बरोबर बोला, बाप ।”
“उसे तो किसी ऐसी दूरदराज जगह पर रहना चाहिये जहां कि किसी को उसकी भनक तक न लगे । लेकिन उसे नहीं मंजूर ।”
“कैसे होगा ?” - शोहाब बोला - “नाखून को मांस से कहीं अलग किया जा सकता है ?”
“किया नहीं जा सकता लेकिन वक्त की जरूरत यही है कि किया जाये ।”
“दूरदराज जगह भी किधर सेफ है, बाप !” - इरफान धीरे से बोला ।
विमल ने सकपकाकर उसकी तरफ देखा ।
“इकबाल सिंह को भूल गया ? नेपाल में वो सरकारी सरपरस्ती में था ! कितना सेफ समझता था वो उधर अपने आपको ! दो बार हमला हुआ उस पर । दूसरी बार पोखरा में न बच सका । बीवी समेत मारा गया ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
“सोचता हूं” - कुछ क्षण बाद वो बोला - “उसे हिमाचल अपने गांव चले जाने को तैयार करूं जहां की कि वो रहने वाली है लेकिन उसमें भी फच्चर है ।”
“क्या, बाप ?”
“क्या पता मायाराम बावा ने बिरादरी भाइयों को उस जगह की बाबत भी बताया हो !”
“वो तो है । बाप, तेरी तरह तेरी बेगम की भी प्लास्टिक सर्जरी नहीं हो सकती ? उसे भी नया चेहरा नहीं हासिल हो सकता ?”
“जब मेरा नया चेहरा राज न रह सका, मिलते ही उसका पर्दाफाश हो गया, तो नीलम के नये चेहरे की भी क्या गारन्टी होगी ? ऊपर से प्लास्टिक सर्जरी से चेहरे में इंकलाबी तब्दीली ला सकने वाला जादूगर एक ही था । डॉक्टर अर्ल स्लेटर । जो कि अपने क्लीनिक में ही कत्ल कर दिया गया । ताकि किसी के नये चेहरे का राज राज रह पाता ।”
“होटल में ही ठीक है ।” - शोहाब बोला ।
“यहां भी तो दो बार खता खायी ।”
“एक बार के वाकयात पर किसी का जोर नहीं था, दूसरी बार के लूपहोल प्लग किये जा चुके हैं ।”
“शोहाब बरोबर बोला, बाप ।” - इरफान बोला ।
विमल खामोश रहा, उसने पाइप का कश लगाया तो पाया कि वो बुझ चुका था ।
“अभी इधर का इन्तजाम पूरी तरह से तसल्लीबख्श है, बाप, पण हम फिर भी सोचेंगे भाभी साहिबा का हिफाजत का कोई और भी पुख्ता रास्ता ।”
विमल ने अनिश्चित भाव से गर्दन हिलायी, उसने लाइटर के लिये जेबें टटोलीं, इधर उधर निगाह दौड़ाई तो उसे याद आया कि लाइटर वो बाहरले आफिस में, जो कि कभी गजरे की सैक्रेट्री का होता था, छोड़ आया था । वो उठकर खड़ा हुआ और बाहर की तरफ बढता हुआ बोला - “हम कितने ही पुख्ता रास्ते सोच लें, कितने ही इन्तजाम कर लें, कितनी ही सिक्योरिटी बिठा लें, मेरा दिल गवाही देता है कि आइन्दा भी जब कभी भी मेरे पर तगड़ा वार होगा, बाजरिया नीलम और सूरज ही होगा ।”
“नहीं होगा, बाप ।” - इरफान दृढता से बोला - “हम ऐसा नहीं होने देंगे ।”
“देखेंगे ।”
विमल ने दरवाजा खोला तो उसे नीलम दिखाई दी । उसकी उसकी तरफ पीठ थी और वो बाहर की ओर बढ रही थी ।
“नीलम !”
वो ठिठकी, घूमी । विमल को देखकर उसके चेहरे पर मुस्कराहट आई जो कि विमल को सरासर फर्जी लगी ।
“तू यहां क्या कर रही है ?”
“कुछ नहीं । ऊपर बोर हो रही थी इसलिये तुम्हारे पास चली आयी ।”
“आई तो नहीं । तू तो लौटी जा रही है ।”
“तुम्हारी कान्फ्रेंस हो रही थी न ! मैंने दख्ल देना मुनासिब न समझा ।”
“कैसे मालूम हुआ ?”
“क्या ? क्या कैसे मालूम हुआ ?”
“कि कान्फ्रेंस हो रही थी ?”
“अन्दाजा लगाया ।”
“बस ?”
“और क्या ?”
“इधर आ ।”
नीलम उसके समीप पहुंची और फिर उसे देखकर बड़े चित्ताकर्षक अन्दाज से मुस्कराई ।
“न जाने क्यों मुझे लग रहा है कि अभी थोड़ी देर पहले तू इस बन्द दरवाजे पर थी ।”
“खामखाह !”
“और की-होल से भीतर झांक रही थी । या कान लगाये थी ।”
“हाय रब्बा । मैं तो दरवाजे के पास भी नहीं फटकी थी ।”
“अच्छा !”
“हां जी । मुझे तांक झांक की क्या जरूरत होगी भला ! फिर भी कुछ देखना सुनना होगा तो मैं की-होल से देखूं सुनूंगी ! जा के तुम्हारे सिरहाने नहीं खड़ी होऊंगी !”
“हूं ।”
“सरदारजी, मैं तुम्हारी मालकिन हूं, मैं जब चाहूं तुम्हारे सिर सवार हो सकती हूं ।”
“सूरज कहां है ?”
“ऊपर है । सो रहा है ।”
“उसे अकेला न छोड़ा कर ।”
“ये सलाह है या हुक्म ?”
“हुक्म ! हुक्म किस बात का ?”
“कि मैं वापस ऊपर जाऊं ! सूरज के पास ।”
“न सलाह है, न हुक्म है । दरख्वास्त है । ऊपर जा । और बेवजह इधर उधर न भटका कर ।”
“लो । अब क्या तुम्हारे पास आने पर भी पाबन्दी है ?”
“नहीं है । नहीं हो सकती । लेकिन खबर करके आया कर । बल्कि मुझे हुक्म दिया कर कि मैं तेरे पास पहुंचूं । समझी ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“पिछली बार कैसे तेरे सुइट में होते बच्चा उठ गया था, क्या भूल गयी ?”
“तुम तो मुझे डरा रहे हो ।”
“खबरदार कर रहा हूं ।”
“ये तो खसमांखानी कैद हो गयी ।”
“जो कि तूने खुद कुबूल की है । तुझे बच्चे के साथ कहीं दूरदराज की जिन्दगी कुबूल हो तो...”
“नहीं कुबूल । समझ लो मुझे कैद कुबूल है ।”
“फिर गिला कैसा ?”
“कोई गिला नहीं । मैं... मैं जाती हूं ।”
वो वहां से रुख्सत हो गयी ।
विमल अपलक उसे जाता देखता रहा ।
पाइप सुलगाना तो जैसे वो भूल ही चुका था ।
***
रीकियो फिगुएरा अपने लेफ्टीनेंट रॉस आरनाल्डो के साथ निर्विघ्न भारत से निकल जाने में कामयाब हो गया था ।
उस घड़ी वो काठमाण्डू के सोल्टी ओबराय के अपने आलीशान सुइट में बैठा स्काच विस्की की चुस्कियां ले रहा था और सिगार के कश लगा रहा था ।
‘भाई’ उसके हैलीकॉप्टर से दिल्ली में ही उतर गया था और अब फिलहाल उसका उससे कोई सम्पर्क नहीं था ।
उसके इन्टरनेशनल सिम कार्ड वाले मोबाइल फोन पर काल तो लगती थी लेकिन कोई जवाब नहीं मिलता था ।
पीछे दिल्ली में झामनानी के फार्म पर जो हाई टेंशन ड्रामा हुआ था, वो उसे अभी भी सपना जान पड़ रहा था । उसे ये करिश्मा जान पड़ता था कि एक अकेला आदमी न सिर्फ काल का पंजा मरोड़ने में कामयाब हो गया था, ऐसे हालात पैदा करने में भी कामयाब हो गया था कि उसकी हारी बाजी जीत में तब्दील हो गयी थी ।
उसकी आंखों के आगे सोहल का प्रतापी चेहरा उभरा ।
“वॉट ए मैन !” - बरबस उसके मुंह से निकला - “वॉट ए मैन !”
रॉस आरनाल्डो उससे परे एक कुर्सी पर बैठा हुआ था । अपने बॉस की आवाज सुनकर वो तत्काल उठ कर खड़ा हुआ और बॉस के करीब पहुंचा ।
“आपने कुछ कहा, बॉस !” - वो अदब से बोला ।
“मैं उस शख्स के बारे में सोच रहा था जो सोहल कहलाता है । चर्चे बहुत सुने थे उसकी बहादुरी और जांबाजी के । जब देखा तो वैसा ही पाया जैसा कि वो बताया जाता था । बहादुर । जांबाज । हौसलामन्द । निडर । लाखों में एक । वहां फार्म हाउस में गिरफ्तार भी ऐसा लग रहा था जैसे सियारों के बीच में बब्बर शेर खड़ा हो । जैसे जानता ही नहीं था कि खौफ क्या होता था ! मौत को जिन्दगी का आखिरी अंजाम बताता था और कहता था कि मौत से डरना अहमकों का काम था ।”
अदब की मुद्रा बनाये आरनाल्डो खामोशी से अपने बॉस के सामने खड़ा रहा ।
“बहादुर शख्स की बहादुरी को तसलीम करना पड़ता है । कितने अफसोस की बात है कि ऐसा बहादुर शख्स हमारी तरफ नहीं ।”
“यू आर राइट, सर ।”
“तुम्हारे ख्याल से पीछे कया हुआ होगा ?”
“कहना मुहाल है, सर । लेकिन जो हुआ होगा, बुरा ही हुआ होगा ।”
“किसके लिये ?”
“लोकल बॉस लोगों के लिये । झामनानी और उसके जोड़ीदारों के लिये ।”
“मे आल आफ दैम गो टु हैल । यूं हम नाकाबिल लोगों से माथा फोड़ने से तो बचेंगे ।”
“बॉस, पीछे अगर उन्होंने बाजी सम्भाल ली हुई तो ?”
फिगुएरा ने तुरन्त जवाब न दिया । उसने बड़े विचारपूर्ण ढंग से सिगार का लम्बा कश लगाया और विस्की का घूंट भरा ।
“तो हम उन्हें एक चांस और देंगे ।” - आखिरकार वो बोला - “इसलिये नहीं क्योंकि हम उन्हें किसी काबिल समझते हैं बल्कि इसलिये क्योंकि फिलहाल दिल्ली में उनकी जगह लेने वाला हमारी निगाह में कोई नहीं । कितने अफसोस की बात है कि नाकाबिल लोगों से हमें इसलिये माथा फोड़ना पड़ेगा क्योंकि काबिल को हमारी पेशकश कुबूल नहीं ।”
“काबिल सोहल ?”
“और कौन ?”
“मीटिंग का क्या होगा ?”
“फिलहाल तो मीटिंग कैंसल ही है । हमें खुशी है कि हमारे इनवाइटी एशियन ड्रग लॉर्ड्स को वक्त रहते वार्निंग मिल गयी, नतीजतन कुछ ने नई दिल्ली का रुख ही न किया और कुछ रास्ते से लौट गये । बहरहाल वो सब के सब अपने ठिकानों पर सेफ हैं ।”
“लेकिन मीटिंग ?”
“फिलहाल तो मीटिंग कैंसल ही है ।”
“आगे ?”
“आगे दिल्ली में मीटिंग होने का तो अब सवाल ही नहीं । मीटिंग के लिये ‘भाई’ मुम्बई में या उसके इर्द-गिर्द कोई सेफ जगह तजवीज कर पाया तो ठीक वरना मीटिंग यहां काठमाण्डू में या सिंगापुर में होगी ।”
“‘भाई’ कुछ कर पायेगा ?”
“देखेंगे । मीटिंग की जगह के तौर पर मेरी पसन्द अभी भी इन्डिया ही है । वो बड़ा मुल्क है जो कि कमजोर निजाम के हवाले है । मीटिंग में शामिल होने वाले हमारे नुमायन्दों को मीटिंग के लिये इन्डिया में आवाजाही रखना आसान लगता है ।”
“वो तो है । तभी तो ‘भाई’ जब चाहता है इन्डिया पहुंच जाता है ।”
“करैक्ट ।”
“वैसे ‘भाई’ के बारे में क्या सोचा आपने ?”
फिगुएरा की भवें उठीं ।
“दिल्ली में हेरोइन का कारोबार मजबूत करने के लिये आपने उसे एक महीने का वक्त दिया था । मौजूदा हालात में वो सिलसिला क्या अब कैंसल समझा जाये ?”
“हरगिज नहीं । पीछे दिल्ली के बिरादरीभाइयों पर क्या बीती, हमें उससे कुछे लेना देना नहीं है । वो मरें या बचें, वो ‘भाई’ की सिरदर्द है । ‘भाई’ से हमारी मांग थी, और है, कि एक महीने में वो हमें ये गुड न्यूज दे कि किसी जिम्मेदार आदमी ने मरहूम डॉन गुरुबख्शलाल की जगह ले ली थी और मुम्बई में ‘कम्पनी’ का सरगना या सोहल बन गया था या सोहल की हस्ती मिटा दी गयी थी ।”
“आई सी ।”
“वैसे मेरी पसन्द की बात ये होगी कि सोहल ‘कम्पनी’ का सरगना बन गया ।”
“आई बैग युअर पार्डन, सर । पीछे सोहल को लेकर जो हाईटेंशन ड्रामा हुआ था, उसकी रू में लगता नहीं कि सोहल को ये पेशकश कभी भी कुबूल होगी ।”
“मुझे भी नहीं लगता ।”
“तो फिर...”
“मैं जरा होपफुल थिंकिंग कर रहा था ।”
“बावजूद इसके कि वो आपके मुंह पर आपकी पेशकेश को ठुकरा चुका है । आपने उसे हुक्म नहीं दिया था, उससे दरख्वास्त की थी कि वो ‘कम्पनी’ की खाली गद्दी को कुबूल करे, फिर भी उसका जवाब इनकार में था । आपने उसे ‘कम्पनी’ की मुखालफत बन्द करने को कहा था तो भी उसका यही जवाब था कि वो भी नहीं हो सकता था ।”
“इसी बात का तो अफसोस है । वो आदमी जितना काबिल है, उतना ही ढीठ है । बहरहाल वो हमारी नहीं, ‘भाई’ की प्राब्लम है । हमें नतीजे से मतलब है । हम बदस्तूर, बाजरिया ‘भाई’ कोई माकूल नतीजा निकलने का इन्तजार करेंगे ।”
“क्या पता वो नतीजा निकल भी चुका हो ?”
“क्या मतलब ?”
“क्या पता पीछे सोहल का सिर लुढक भी चुका हो ।”
“ऐसा हुआ तो हम दिल्ली के बिरादरीभाइयों की बाबत अपनी राय तब्दील करने के लिये मजबूर होंगे । तो हम खुद उन्हें शाबाशी देंगे । तुम ‘भाई’ को उसके मोबाइल पर फोन लगाओ ताकि हमें पीछे के हालात की खबर लग सके ।”
आरनाल्डो ने सहमति में सिर हिलाया और फिर फोन लगाने में जुट गया ।
***
‘भाई’ निर्विघ्न पूना पहुंच गया ।
मैक्सवैल इन्डस्ट्रीज का जो प्लेन उसके आदेश पर ब्रजवासी और नीलम को दिल्ली लेकर गया था, उसका वापिसी का फ्लाइट शिडयूल पहले से निर्धारित था इसलिये प्लेन की ‘भाई’ के साथ पूना वापिसी में कोई अड़चन न आयी ।
उस घड़ी वो कर्वे रोड पर स्थित मेपल हाइट्स नामक मल्टीस्टोरी हाउसिंग कम्पलैक्स के एक फ्लैट में मौजूद था ।
पीछे दिल्ली में क्योंकर वो मौत का निवाला बनने से बाल-बाल बचा था, ये सोचकर ही उसके रोंगटे खड़े हो जाते थे ।
अपनी दिल्ली यात्रा का वो कतई तरफदार नहीं था लेकिन रीकियो फिगुएरा के डण्डे की वजह से उसे ऐसा करना पड़ा था । खुद को किसी अतिरिक्त तवज्जो से बचाये रखने की वजह से वो केवल एक ड्राइवर और एक बाडीगार्ड को साथ लेकर चला था । उसकी वो सावधानी कामयाब रही थी, वो किसी की भी निगाहों को मरकज नहीं बना था लेकिन फिर भी आखिरकार जिस वाहिद शख्स ने उसे देखकर पहचाना था, वो - तकदीर की मार कि - सोहल निकला था । ये भी करिश्मे से कम नहीं था कि अपनी जेन और सोहल की मैटाडोर की सीधी टक्कर में अपने गार्ड और ड्राइवर की तरह वो भी नहीं मर गया था । उसकी जान का सौदा अपनी बीवी की जान से करने की मजबूरी सोहल के सामने न होती तो या तो वो उसे मार डालता या गिरफ्तार करा देता । जान उसकी जरूर बच गयी थी लेकिन उसकी दायीं कनपटी में गहरा जख्म लगा था और बाकी शरीर का शायद ही कोई हिस्सा था जो कि बुरी तरह से रगड़ा नहीं गया था, खरोंचा नहीं गया था । उसका कितना ही व्यक्तिगत सामान पीछे रह गया था जिसकी बरामदी इस बात पर निर्भर करती थी कि दिल्लीवाले सोहल से जीतते थे या हारते थे ।
सबसे ज्यादा वो अपने इन्टरनेशनल सिम कार्ड वाले मोबाइल फोन को मिस कर रहा था जो कि एक्सीडेंट के दौरान पीछे पता नहीं कहां गिर गया था ।
अब उसके सामने जो बड़ा काम था, वो दुबई वापिस लौटना था ।
दुबई वो यूं सहज ही नहीं रवाना हो सकता था जैसे कि वो दिल्ली से पूना आया था । उसने पहले मुम्बई में दहिशर के करीब के उस उजाड़ समुद्र तट पर पहुंचना होता था जहां से कि एक मोटरबोट उसे समुद्र में भारतीय हद से बाहर खड़ी उस मोटर लांच तक लेकर जाती थी जो कि उसे निर्विघ्न दुबई पहुंचाती थी ।
हमेशा प्यादों और चाटुकारों से घिरा रहने वाला ‘भाई’ उस घड़ी अपने आपको बहुत तनहा और बहुत असुरक्षित महसूस कर रहा था ।
ये भी अफसोसनाक बात थी कि पीछे बाजी एक बार बिगड़ जाने के बाद फिर संवर गयी थी, सोहल के खत्म हो जाने की गारन्टी हो गयी थी लेकिन तकदीर की मार कि बाजी फिर सोहल के हक में पलट गयी थी ।
बिग बॉस फिगुएरा बड़ा नाराज और नाउम्मीद होकर दिल्ली से गया था, जो हुआ था उसमें उसका रोल नहीं था लेकिन फिर भी उसका दिल गवाही दे रहा था कि उसने उसे जिम्मेदार ठहरा के रहना था ।
दिल्ली के बिरादरीभाइयों में से उसे सिर्फ झामनानी का नम्बर मालूम था, उसने उस पर फोन लगाया लेकिन निरन्तर घंटी ही बजती रही, कोई जवाब न मिला ।
दिल्ली के हालात का पता करने का कोई और जरिया वहां पूना में फिलहाल उसके पास नहीं था ।
उसने काठमाण्डू में सोल्टी में फोन लगाया और रीकियो फिगुएरा की बाबत दरयाफ्त किया । ये सुनकर उसने तनिक राहत महसूस की कि बिग बॉस वहां पहुंच चुका था और उस घड़ी अपने सुइट में मौजूद था ।
ऑपरेटर ने उसकी कॉल फिगुएरा के सुइट में लगायी ।
जवाब में उसे रॉस आरनाल्डो की आवाज आयी ।
“‘भाई’ बोलता हूं ।” - वो बोला - “बॉस से बात करना मांगता हूं ।”
“आप कहां से बोल रहे हैं ?” - पूछा गया ।
“पूना से ।”
“मोबाइल पर जवाब क्यों नहीं देते ?”
“मोबाइल मेरे पास नहीं है । दिल्ली में मेरा जो एक्सीडेंट हुआ था, उसमें वहीं कहीं गिर गया था ।”
“नये मोबाइल का इन्तजाम कीजिये और बॉस को नम्बर की खबर कीजिये ताकि कम्यूनिकेशन में दिक्कत न हो ।”
“नहीं होगी । मैं दुबई पहुंचते ही...”
“अभी कीजिये । दुबई पता नहीं आप कब पहुंचेंगे ।”
“ठीक है । अब मैं बॉस से बात...”
“प्लीज स्टैण्डबाई ।”
“ओके ।”
भारी हत्तक महसूस करता ‘भाई’ रिसीवर कान से लगाये बैठा रहा ।
फिर एकाएक लाइन एक्टीवेट हुई ।
“बॉस इस वक्त आपसे कोई बात नहीं करना चाहता ।” - उसे आरनाल्डो की आवाज सुनायी दी - “आपके लिये हुक्म है कि आप दिल्ली के हालिया हालात का पता लगायें और बॉस को उनकी खबर करें । अगर दिल्ली वाले अपने आपको सेव करने में कामयाब हो गये हैं तो तमाम सिलसिला पहले जैसा ही चलेगा क्योंकि मौजूदा हालात में उनको एक और चांस देने के अलावा कोई चारा नहीं है । ओके ?”
“हां ।”
“और सोहल की बाबत भी बॉस की हिदायत अभी स्टैण्ड करती है । आपके पास पहले से निर्धारित एक महीने का वक्त है सोहल की जिद तोड़ने का या उसकी हस्ती मिटा देने का । अन्डरस्टैण्ड ?”
“यस ।”
“झामनानी वगैरह का कोई आल्टरनेटिव भी आपने तलाश करके रखना है जो कि बवक्तेजरूरत काम आयेगा ।”
“मैं कोशिश करूंगा इस बाबत भी ।”
“गुड ।”
“बॉस काठमाण्डू में आज शाम तक ही हैं, कल से सिंगापुर फोन लगायें ।”
“ठीक ।”
लाइन कट गयी ।
भारी मन से ‘भाई’ ने रिसीवर वापिस रखा ।
उस घड़ी छोटा अंजुम की कमी उसे बुरी तरह से खल रही थी ।
छोटा अंजुम की जगह लेने के लिये आदमी उसके पास था । उसका नाम इनायत दफेदार था और वो भी छोटा अंजुम जैसा ही मुस्तैद और वफादार था लेकिन छोटा अंजुम का क्या मुकाबला था !
जैसे शिवांगी शाह का क्या मुकाबला था !
शिवांगी के कातिल का पता लग जाये सही - मन ही मन दान्त पीसता वो बोला - उसे तो मैं तड़पा तड़पा के मारूंगा ।
अब उसके सामने जो अहम काम था, वो दिल्ली के हालात जानने का था ।
किसे फोन लगाये ?
एक लम्बी सोच के बाद आखिरकार उसे एक नाम सूझा ।
तत्काल उसने अमृतलाल नाग को फोन लगाया ।
***
दिल्ली के दादा, अन्डरवर्ल्ड के टॉप बॉस, सुपर गैंगस्टर, बिरादरीभाई यूं बन्धे पड़े थे जैसे कि वो इंसान न हों, एक ही तरह की आइटमों की पैकिंग हों । उनके अलग अलग हाथ पांव तो बान्धे ही गये थे, बन्धे हुए खलीफाओं को एक ही रस्सी से सामूहिक रूप ये यूं भी बान्ध दिया गया था कि वो जहां पड़े थे, वहां से हिल नहीं सकते थे ।
सब के चेहरे पर गहन पराजय के भाव थे ।
सबसे ज्यादा उनके रिंग लीडर झामनानी के चेहरे पर, जिसका कि वो फार्म था और जो एक विशेष मीटिंग के लिये बाहर से आकर वहां इकट्ठा होने वोल ड्रग लॉर्ड्स, ‘भाई’ और बॉसों के बॉस रीकियो फिगुएरा का मेजबान था । नार्थ ईस्ट एशिया के छ: ड्रग लॉर्ड्स को वहां आने से फिगुएरा ने रोक दिया था, खुद वो और ‘भाई’ हैलीकॉप्टर द्वारा वहां से कूच कर गये थे और सोहल के हिमायती कथित धोबियों के हमले का मुकाबला करने के लिये उन्हें छोड़ गये थे ।
कितनी आसानी से धोबियों की एकाएक वहां आमद की वजह से उसकी जीती बाजी पलट गयी थी ।
झामनानी की वहां जो खास बेइज्जती हुई थी वो ये थी कि उसके अपने आदमी उसके खिलाफ हो गये थे, उन्होंने ही उसे और बिरादरीभाइयों को दबोच कर सोहल के हवाले किया था । उनकी वो हालत बनाकर सोहल उन्हें जिन्दा तो छोड़ गया था लेकिन आइन्दा जिन्दगी की और आजादी की गारन्टी उनमें से किसी को नहीं दिखाई दे रही थी क्योंकि सोहल के बुलावे पर वहां दिल्ली पुलिस का एक ए.सी.पी. और एक इन्स्पेक्टर पहुंचा था और उस घड़ी एक तरह से वो पुलिस की कस्टडी में थे ।
उसके बाकी आदमियों की तरह उसके खास कारिन्दे अमरदीप और शैलजा पलक झपकते सोहल के हिमायती बन गये थे और खास उन्हीं की वजह से सोहल जान से जाते जाते बचा था और उसके दो खास आदमी टोकस और हुकमनी मारे गये थे ।
“कमीने !” - क्रोध और बेबसी के आधिक्य में उसके मुंह से सांप जैसी फुंफकार निकली - “गद्दार !”
“किन्हें कोस रिया है, सिन्धी भाई ?” - भोगीलाल बोला ।
“नमकहराम ! अहसानफरामोश !”
“तेरे आदमी, वीरे मेरे ।” - पवित्तर सिंह, जो कि जानता था कि झामनानी किन्हें कोस रहा था, बोला - “मांजायां वरगे ।”
“खालसा साईं” - झामनानी गुस्से से बोला - “वडी क्या मतलब है नी तेरा ?”
“तैनू पता ए मतलब मेरा ।”
“क्या पता है नी मुझे ?”
पवित्तर सिंह जवाब देने की जगह परे देखने लगा ।
“वो दाढी वाला गंजा खलीफा ठीक कहता था ।” - ब्रजवासी बोला ।
“वडी क्या ठीक कहता था नी ?” - झामनानी बोला ।
“प्रजा खिलाफ हो जाये तो कोई राजा नहीं जीत सकता ।”
“जो गोद मां बैट्ठे थे” - भोगीलाल बोला - “वा ही दाढी नोचने लगे ।”
“घर दे पालतू कुत्तों न कट्ट खाया ।” - पवित्तर सिंह बोला ।
“वडी क्या है नी तुम लोगों के मन में ?” - झामनानी झल्लाया - “तुम लोग तो यूं बोल रहे हो नी जैसे जो कुछ हुआ, उसके लिये मैं और सिर्फ मैं जिम्मेदार हूं ।”
कोई कुछ न बोला ।
“अब चुप क्यों हो नी ? अब बोलते क्यों नहीं नी ?”
“गिले शिकवों से कोई फायदा नहीं ।” - ब्रजवासी गम्भीरता से बोला ।
“सो तो है, जी ।” - भोगीलाल बोला - “जो होना होवे है, वा तो हो के रहवे है ।”
“तो फिर ?” - झामनानी बोला ।
“कुज नईं ।” - पवित्तर सिंह बोला - “सिन्धी भाई, तू साडा लीडर है, और इस लीडरी पर तूने खुद अपना दावा लगाया था । ऐस वास्ते मैं लीडर से पूछता हूं कि हुन साडा की होयेगा ?”
“क्या होगा ?”
“ओये वीर मेरे, सवाल मैं पुच्छया ए ।”
“वडी मैं क्या जवाब दूं नी ? तुम्हें खुद नहीं दिखाई देता कि अब हमारा क्या होगा ?”
“दिखाई तो देता है ।” - पवित्तर सिंह गमगीन स्वर मे बोला - “पर जो दिखाई देता है, वो देखा तो नहीं जा रहा । ओदे ते ख्याल से ही रूह हिलती है मेरी ।”
“हौसला रखो, सरदार जी” - ब्रजवासी बोला - “ये मत भूलो कि यूं बांध कर पुलिस के हवाले कर जाने की जगह सोहल हमें दूसरी दुनिया को रुख्सत करके जा सकता था ।”
“अपने धोबियों से धुलवा सके था जी ।” - भोगीलाल बोला ।
“पर उसने ऐसा नहीं कोत्ता ।” - पवित्तर सिंह बोला ।
“वो तो दीखे ही है जी ।”
“तैनू दिखता है न, लाला, साढे उस्ताद को तो नहीं दिखता...”
झामनानी तिलमिलाया ।
“...दिखता होगा तो इस सिचुएशन को कैश करने की कोई जुगत करता । पर ये तो लगता है कि फांसी के फंदे का झूला झूलने के लिये जेहनी तौर से अपने आपको तैयार कर भी चुका है ।”
“सरदार साईं” - झामनानी बोला - “वडी क्यों बढ बढ के बोल रहा है नी ?”
“वीर मेरे, ऐहोई तो एक काम है जो सोल ने हमें करने लायक छोड़ा है । बोल सकते हैं । मुश्कें कसने की तरह मुंह में कपड़ा भी ठूंस गया होता तो ये भी काम न होता । ऐस वास्ते वद वद के बोलना तां...”
“चुप कर सरदार साईं ।”
“पर...”
“चुप कर और मुझे सोचने दे ।”
पवित्तर सिंह खामोश हो गया ।
***
गार्ड के जिस्म में हरकत हुई ।
कुछ क्षण कुनमुनाते रहने के बाद उसने आंखें खोलीं लेकिन तत्काल बन्द कर लीं ।
कहां था वो ? क्या बीती थी उसके साथ ?
गार्ड का नाम हिम्मत सिंह था और वो लेखूमल झामनानी के छतरपुर वाले विशाल फार्म के फाटक पर ड्यूटी भरता था ।
हिम्मत सिंह का सिर बुरी तरह दुख रहा था, उसमें हथौड़े की तरह नब्ज चल रही थी और उसे लगता था कि वो किसी भी क्षण फिर बेहोश हो जाने वाला था ।
क्यों ?
क्योंकि किसी ने तब उसके सिर पर किसी भारी चीज का भरपूर वार किया था जब कि वो फाटक पर था ।
फाटक पर था ?
क्यों ?
बड़ी कठिनाई से वो अपनी उस हालत में पहुंचने से पहले के वाकये को अपने जेहन पर उतार पाया ।
साहब लोगों का खाना लेकर होटल ताज पैलेस की वैन वहां पहुंची थी । उसने वैन के लिये फाटक खोला था, वैन के फाटक से गुजर जाने के बाद जब वो उसको बन्द करने के लिये घूमा था तो उसके सिर पर किसी वजनी चीज का भीषण वार हुआ था और वो वहीं ढेर हो गया था ।
क्या वो अभी भी फाटक पर ही पड़ा था ?
बड़े यत्न से उसने फिर आंखें खोलीं, दोनों हाथों से सिर थाम कर वो उन्हें फोकस में लाया और फिर बड़ी मुश्किल से सूरत-अहवाल उसके जेहन पर दर्ज हो पाया ।
वो अपने केबिन में था और केबिन में बिछे तख्तपोश के नीचे फर्श पर पड़ा था ।
उसने बड़ी शिद्दत से दो बार करवट बदली तो उसका शरीर तख्तपोश के नीचे से निकल आया । अपने हवास पर काबू करने की भरपूर कोशिश करता वो उठकर खड़ा हुआ लेकिन खड़ा न रह सका । कांपते हाथ से उसने तख्तपोश का कोना पकड़ा और फिर उस पर बैठ गया ।
क्या माजरा था ?
किसने - और क्यों - उसे पर हमला किया था ?
उसकी निगाह फाटक की ओर खुलने वाली केबिन की खिड़की के करीब रखी अपनी कुर्सी पर पड़ी तो उसने पाया कि उसकी वर्दी, जो कि उसके जिस्म पर होनी चाहिये थी, वहां कुर्सी पर पड़ी थी ।
धीरे धीरे माजरा उसकी समझ में आने लगा ।
जरूर कोई लोग जबरन फार्म में घुस आये थे जिनमें से एक ने उसको अचेत करके उसकी वर्दी उतार कर खुद पहन ली थी और उसे तख्तपोश के नीचे धकेल कर उसकी जगह गार्ड की ड्यूटी भरने बैठ गया था ।
यही बात थी ।
लेकिन वर्दी तो तिरस्कृत सी कुर्सी पर पड़ी थी ।
क्या वो लोग वहां से जा चुके थे ?
जरूर यही बात थी ।
लेकिन कौन लोग ?
उस सवाल का जवाब उसके पास नहीं था ।
न ही उसे ये मालूम था कि वो तख्तपोश के नीचे कितनी देर बेहोश पड़ा रहा था ।
केबिन की एक दीवार पर एक पुराने जमाने का पेंडुलम वाला घड़ियाल टंगा हुआ था लेकिन उसका पेंडुलम स्थिर था और घड़ियाल पौने ग्यारह बजा रहा था ।
जो कि सही वक्त नहीं हो सकता था ।
वो नामुराद घड़ियाल अक्सर रुक जाता था लेकिन पेंडुलम को तनिक हिला देने पर फिर से चल पड़ता था ।
उसके अन्दाजे के मुताबिक वो टाइम दोपहर का होना चाहिये था ।
अपने अन्दाजे की तसदीक के तौर पर उसने खिड़की से बाहर झांका तो पाया कि बारिश का माहौल बदस्तूर बना हुआ था, बून्दाबान्दी हो रही थी और भरपूर नम राहदारी बता रही थी कि हाल ही में कदरन तेज बारिश भी हुई थी ।
फिर उसकी निगाह फाटक की तरफ उठी ।
फाटक खुला पड़ा था । चौपट खुला पड़ा था ।
अब वो महसूस कर रहा था कि वो अपनी गार्ड की डयूटी को अंजाम देने में बुरी तरह से नाकाम हुआ था और उसकी वो नाकामी उसकी नौकरी से बर्खास्तगी की वजह बन सकती थी ।
बर्खास्तगी से पहले फार्म के मालिक के हाथों जो बेइज्जत होना पड़ता सो अलग ।
पहले फाटक की तो खबर लूं - उसने मन ही मन सोचा और फिर जी कड़ा करके तख्तपोश पर से उठा । उसने कुर्सी पर से उठाकर अपनी नीली वर्दी पहनी, लड़खड़ाता सा केबिन से बाहर निकला और फिर आंधी में हिलते पेड़ की मानिन्द झूमता-झूलता फाटक पर पहुंचा ।
खुले फाटक के दोनों ओर भरपूर सन्नाटा था जो कि हमेशा ही होता था लेकिन उस घड़ी न जाने क्यों उसे वो सन्नाटा बड़ा बोझिल, बड़ा डरावना - बल्कि भुतहा - लगा ।
क्या माजरा था ?
बहरहाल माजरा जो भी था, हालिया वाकयात की और मौजूदा हालात की खबर मालिकान को देना जरूरी था ।
उसने फाटक को बद्स्तूर बन्द किया और अपने केबिन में वापिस लौटा । उसने खिड़की के साथ लगी मेज पर रखा फोन उठाया ।
फोन डैड पड़ा था ।
उसने खूब पलंजर खटखटाया, रिसीवर की तार खींची लेकिन फोन में जान न आयी ।
हताश होकर उसने रिसीवर वापिस क्रेडल पर पटका और फिर केबिन से बाहर निकला । लड़खड़ाता सम्भलता वो अर्द्धवृताकार ड्राइव-वे पर भीतर की तरफ चलने लगा ।
सन्नाटा अभी भी उसे खटक रहा था । फाटक पर बना उसका केबिन फार्म हाउस की इमारत से बहुत दूर था इस वजह से भीतर की आवाजें वहां तक नहीं पहुंचती थीं लेकिन वो एक आम बात आज ही उसे क्यों खटक रही थी ? आज ही उसे ऐसा क्यों लग रहा था कि वो मौत का सन्नाटा था ? फार्म पर साहब लोग थे, पचास के करीब और आदमी थे, फिर भी कहीं कोई आवाज नहीं, कहीं कोई हलचल नहीं, कहीं कोई आवाजाही नहीं ।
वो ठिठक कर खड़ा हो गया ।
भीतर जरूर कोई गड़बड़ थी, वो खामोशी जरूर उस पर हुए हमले की ही कोई अगली कड़ी थी ।
उसे वो बात जंची ।
फिर तो जरूर होटल की उस केटरिंग वैन में कोई भेद था ।
उसने महसूस किया कि वो अभी फार्म हाउस के आधे रास्ते में था । रास्ता घुमावदार था इसलिये पेड़ों से ढंके रास्ते के सिर पर स्थित इमारत उसे अभी दिखाई देनी नहीं शुरू हुई थी ।
यानी कि फिलहाल उसे भी इमारत की तरफ से नहीं देखा जा सकता था ।
तत्काल वो ड्राइव-वे को छोड़कर पेड़ों की कतारों में दाखिल हो गया और फिर उन्हीं की ओट लेता दबे पांव आगे बढा ।
सावधानी से चलता वो उस खुले मैदान के दहाने के पेड़ों की आखिरी कतार तक पहुंच गया जिसके पार फार्म हाउस की विशाल इमारत थी और जिसके सामने के तारीक बरामदे में मरघट का सा माहौल था ।
छाती तक आने वाली झाड़ियों के पीछे वो उकड़ूं होकर खड़ा हो गया और विस्फारित नेत्रों से सामने झांकने लगा ।
बरामदे की सीढियों के करीब की मैदान की जमीन पर कितने ही हथियार बिखरे पड़े थे जो कि उसे और भी सस्पेंस में डाल रहे थे ।
क्यों यूं लावारिस और तिरस्कृत पड़े थे इतने हथियार वहां ?
क्यों था वहां इतना नाकाबिलेबर्दाश्त सन्नाटा ?
कहां चले गये इतने लोग ?
क्या पिछवाड़े में थे ?
एकाएक वो सकपकाया ।
बरामदे में कहीं कोई था । लेकिन उसे एक खम्बे के पीछे हिलडुल का अहसास हुआ था ।
दबे पांव उसने अपनी पोजीशन बदली और फिर कोई सात-आठ फुट एक पहलू हट कर फिर सामने झांका ।
शैलजा !
झामनानी साहब की खास !
खम्बे के पीछे खड़ी थी ।
शैलजा ने एकाएक पहलू बदला तो हिम्मतसिंह को उसके जोड़ीदार अमरदीप के दर्शन हुए ।
तब कहीं जाकर हिम्मतसिंह आश्वस्त हुआ ।
नहीं, कोई गड़बड़ नहीं थी । साहब लोगों के दो इतने मुस्तैद कारिन्दे जब बरामदे में मौजूद थे तो कोई गड़बड़ कैसे हो सकती थी ?
तभी उसके सिर में जारे से दर्द की टीस उठी ।
वक्ती आश्वासन तुरन्त हवा हो गया ।
गड़बड़ नहीं थी तो उस पर आक्रमण क्यों हुआ ?
बरामदे में तभी फिर हिलडुल हुई तो उसने देखा कि वो दोनों बड़ी मुस्तैदी से हाथों में स्टेनगन सम्भाले थे ।
क्यों भला ?
जब कोई वहां था ही नहीं तो वो सशस्त्र पहरेदारी क्यों ?
उस क्यों का जवाब - उसकी अक्ल ने जवाब दिया - जरूर बरामदे के बन्द दरवाजों के पीछे छुपा था ।
वो जानता था वो दरवाजे तीन विशाल हालनुमा कमरों के थे जिनकी छतें बरामदे की छत के मुकाबले में कहीं ऊंची थी और उनमें दरवाजों के ऊपर रोशनदान यूं बने हुए थे कि जैसे दरवाजे बरामदे में खुलते थे, वैसे वो रोशनदान बरामदे की छत पर खुलते थे ।
मालिक के वफादार हिम्मतसिंह ने तत्काल अपना लक्ष्य निर्धारित किया ।
“दो घन्टे ।” - ए.सी.पी. प्राण सक्सेना के मुंह से निकला ।
पहाड़गंज थाने के एस. एच. ओ. इन्स्पेक्टर नसीबसिंह ने सिर उठाकर अपने आला अफसर की तरफ देखा ।
दोनों कोने के हाल कमरे में दो कुर्सियों पर अगल बगल बैठे हुए थे और रह रह कर बेचैनी से पहलू बदल रहे थे ।
“दो घन्टे की गिरफ्तारी की सजा सुनाकर गया था वो शख्स हमें ।” - सक्सेना बोला - “कितना वक्त बीत गया ?”
“अभी तो आधा घन्टा भी नहीं हुआ, साहब ।” - नसीबसिंह बोला ।
“वाच्ड कैटल नैवर ब्वायल्स ।”
“जी !”
“क्या ख्याल है तुम्हारा ? यहां से उठ कर अगर हम हरकत में आने की कोशिश करेंगे तो क्या वो छोकरा - या उसके साथ की छोकरी - सच में हमें गोली मार देगा ?”
“उसकी मजाल नहीं हो सकती बावर्दी पुलिस अफसर पर गोली चलाने की ।”
“मेरा भी यही ख्याल है । नसीबसिंह, अगर ऐसा है तो क्यों हम यहां मिट्टी के माधो बने खामोश बैठे सैकेंड गिन रहे हैं ?”
नसीबसिंह से जवाब देते न बना ।
“क्यों ?”
नसीबसिंह ने बेचैनी से बदला और फिर परे देखने लगा ।
“यानी कि ये अन्देशा तुम्हें बराबर है कि, जुबानी कुछ भी कहो, मजाल हो सकती है उसकी !”
“अब मैं क्या बोलूं, साहब ? यहां तो जो कुछ हो रहा है, दिमाग भन्ना देने वाला हो रहा है । यकीन ही नहीं आता कि हम यहां इतने बड़े ड्रामे के किरदार बन गये हैं ।”
“मुझे भी सपना ही लग रहा है ।”
“लेकिन साहब, ये मानना पड़ेगा कि सोहल - या अभी भी कौल ही बोलूं उसे - बहुत बड़ा केस हमारे हवाले करके गया है ।”
“वो तो है ।”
“वाह वाह हो जायेगी हमारी ।”
“जो होगा सामने आ जायेगा ।”
“आप की सच में कमिश्नर साहब को काल नहीं लगी थी ?”
“नहीं लगी थी, यार ।”
“तो मैसेज छोड़ा होगा ?”
“नहीं ।”
“नहीं ?” - नसीबसिंह की भवें उठीं ।
“जहां मैसेज छोड़ना था, वहां से भी कोई रिस्पांस नहीं मिला था ।”
“ऐसा होता तो नहीं !”
“आमतौर पर नहीं होता । खासतौर पर अक्सर होता है । बल्कि खास हालात में - जैसे कि इस वक्त हमारे सामने हैं - तो जरूर होता है ।”
“साहब, इसका तो ये मतलब हुआ कि... यहां के वाकयात की यहां से बाहर अभी किसी को खबर नहीं !”
“किसी को किसको ?”
“महकमे में किसी को ?”
“क्या कहना चाहते हो ?”
“कुछ नहीं, साहब । यूं ही जरा लाउड थिंकिंग कर रहा था ।”
“क्या लाउड थिंकिंग कर रहे थे ? पता तो चले ?”
“कुछ नहीं, साहब, कुछ नहीं ।”
“लेकिन...”
“छोड़िये, साहब वो किस्सा । ख्वाबों की दुनिया में विचरने की मुझे आदत है । समझ लीजिये कि टाइम पास के लिये एक सुहाना ख्वाब देखने की कोशिश कर रहा था ।”
“कमाल है !”
“साहब, एक आइडिया आया है ।”
“क्या ?”
“हम उस लड़के और लड़की के मिजाज को आजमायें तो कैसा रहे ?”
“मिजाज को आजमायें ?”
“आजमायेंगे तभी तो पता लगेगा कि वो दोनों किस हद तक सोहल की हुक्मबरदारी के हवाले हैं ।”
“हूं ।”
सक्सेना कुछ क्षण सोचता रहा और फिर एकाएक अपने स्थान से उठा । वो दरवाजे के करीब पहुंचा, उसने उसे अपनी तरफ खींचा तो वो सहज ही खुल गया । चौखट पर से उसने आगे बरामदे में निगाह दौड़ाई ।
परे बरामदे में मौजूद अमरदीप और शैलजा, जो कि दरवाजा खुलता पाकर ही चौकन्ने हो गये थे, अपलक उधर चौखट पर ए.सी.पी. को प्रकट होता देखने लगे ।
“अरे, सुनो ।” - सक्सेना ऊंचे, अधिकारपूर्ण स्वर में बोला - “क्या नाम है तुम्हारा ?”
“अमरदीप, सर ।” - अमरदीप हाथ में थमी स्टेनगन का रुख अपने सामने करता हुआ बोला ।
“इधर आओ ।”
अमरदीप ने अपने स्थान से हिलने की भी कोशिश न की ।
“सुना नहीं ?”
“भीतर जाकर बैठिये, साहब ।”
“अरे, हम कह रहे हैं...”
“अभी नहीं, सर, अभी नहीं । इन्तजार की मुकर्रर घड़ियां खत्म होने दीजिये, फिर आप ही आप कहेंगे ।”
“बड़े बदतमीज हो ! जानते हो किससे जुबानदराजी कर रहे हो ?”
“आप खामखाह गर्म हो रहे हो, साहब । भीतर जा के बैठिये । प्लीज ।”
“हमें हुक्म दे रहे हो ?”
“दरख्वास्त कर रहा हूं, साहब ।”
“हमें तुम्हारी दरख्वास्त कुबूल न हो तो ?”
“तो मैं आपको शूट कर दूंगा ।”
“क्या ?”
“इन्स्पेक्टर साहब को भी ।”
“तुम्हारी मजाल नहीं हो सकती ।”
अमरदीप खामोश रहा ।
“जानते हो वो रियायत विदड्रा हो सकती है जिसकी सिफारिश सोहल तुम्हारे लिये करके गया है । तुम्हारे लिये और इस लड़की के लिये ।”
“आप ऐसा नहीं करेंगे ।”
“कौन रोकेगा हमें ? तुम दोनों को वादामाफ गवाह बनाना या न बनाना हमारी और सिर्फ हमारी मर्जी पर मुनहसर है ।”
“फिर सोहल का कहर आप पर टूट कर रहेगा ।”
“उसे कुछ मालूम होगा तब न !”
“सब मालूम होगा । वो अन्तर्यामी है ।”
“नानसेंस ।”
“गुस्ताखी माफ, सर । सवाल आपकी मर्जी का नहीं, आपकी मजबूरी का है, आपकी जरूरत का है ।”
“क्या मतलब ?”
“हम दोनों की गवाहियों के बिना आप झामनानी और दूसरे दादा लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे । और हमारी गवाहियां आपको तभी उपलब्ध होंगी जबकि आप सोहल के हुक्म के मुताबिक हमें वादामाफ गवाह बनायेंगे ।”
“वो कौन होता है हमें ऐसा हुक्म देने वाला ?”
“ये सवाल आपको उसी से करना चाहिये था, तब करना चाहिये था जब उसने ऐसा कहा था जबकि आपने इसके लिये हामी भरी थी ।”
“हम अब करते हैं ।”
“अब करना बेमानी है । सर, सोहल की वार्निंग आप इतनी जल्दी नहीं भूल गये होंगे कि अगर उसका हुक्म - या दरख्वास्त या मांग जैसा कि वो खुद बोला - आपने मुकम्मल तौर पर न बजा लाया तो इसका बहुत बड़ा खामियाजा कोताही करने वाले को - जो कि आप होंगे - भुगतना पड़ेगा ।”
“इसे कहते हैं छाज तो बोले ही बोले छलनी भी बोले ।”
“सर, क्या आप चाहेंगे कि आपकी वादाखिलाफी की वजह से आपके कमिश्नर साहब का सिर उनके कन्धों पर न दिखाई दे ?”
“तुम सोहल को बहुत बढा-चढा के आंक रहे हो ।”
अमरदीप खामोश रहा ।
वो उस वार्तालाप से सख्त नाखुश था लेकिन ए.सी.पी. था कि बाज ही नहीं आ रहा था ।
“वो सोहल हो या सोहल का बाप, कमिश्नर साहब की परछाईं के पास भी नहीं फटक सकता ।”
“बड़े लोगों की बातें, साहब । हमें क्यों उनमें लपेटते हैं आप ?”
“सोहल किधर का बड़ा लोग है ?”
“सर, यू आर ट्राईंग माई पेशेंस ।”
सक्सेना कुछ क्षण खामोश रहा । साफ जाहिर हो रहा था कि उसे छोकरे के सामने उसकी पेश नहीं चलने वाली थी ।
“मुझे देखना होगा” - उसने पैंतरा बदला - “कि कैदी महफूज हैं ।
“अभी मैं देख रहा हूं, सर । दो घन्टे बीतने दीजिये, फिर आप देखियेगा ।”
“तब तुम भी उन्हीं में शामिल किेये जाओगे ।”
“मालूम है । हमें कोई एतराज नहीं ।”
“तुम पुलिस से सहयोग करोगे तो बहुत फायदे में रहोगे ।”
“मैं ऐन यही कर रहा हूं, सर । पुलिस से सहयोग ही कर रहा हूं मैं । नाओ, गो सिट इन साइड । आई बैग ऑफ यू ।”
“काफी पढे लिखे जान पड़ते हो ?”
अमरदीप ने उत्तर न दिया ।
ए.सी.पी. कुछ क्षण उसे घूरता रहा, उसे टस से मस न होता पाकर आखिरकार वो दरवाजे पर से हट गया ।
दरवाजा बदस्तूर बन्द हो गया ।
अमरदीप ने - शैलजा ने भी - चैन की सांस ली ।
***
बन्दर की सी फुर्ती से पिछवाड़े के एक परनाले को पाइप पकड़कर हिम्मतसिंह ऊपर चढ गया और फिर खामोशी से इमारत के चौतरफा घूमे बरामदे की छत पर कूद गया । इस ऊंचाई से सबसे पहले उसने कई एकड़ों में फैले फार्म की चारों दिशाओं में निगाह दौड़ाई ।
कहीं कोई नहीं था ।
फिर उकड़ूं होकर, दबे पांव चलता वो इमारत के अग्रभाग की ओर बढने लगा । रास्ते में जो भी रोशनदान आया उसने उसमें से भीतर झांक कर देखा लेकिन कहीं कुछ दिखाई न दिया ।
आखिरकार वो इमारत के अग्रभाग में पहुंचा ।
सावधानी से उसने उस रोशनदान में आंख लगाई जो कि वो बाखूबी जानता था कि सामने के तीन हॉल कमरों में से एक का था ।
जो नजारा उसे दिखाई दिया, वो दिल हिला देने वाला था ।
नीचे फर्श पर हुकमनी और टोकस की बेशुमार गोलियों से बिन्धी लाशें पड़ी थीं ।
हे भगवान ! - उसके मुंह से बरबस निकला - और उसे खबर ही न लगी ।
कैसे लगती ? - उसने खुद अपने आपको जवाब दिया - मैं तो बेहोश पड़ा था । गनीमत थी कि मर ही नहीं गया था ।
वैसे भी इमारत में होने वाली आवाजें कहां गेट तक पहुंचती थीं ।
वो अपने स्थान से हिला और सकर कर अगले कमरे के रोशनदानों पर पहुंचा । पूर्ववत् सावधानी से उसने एक रोशनदान के शीशे के साथ आंख लगाकर भीतर झांका तो उसे दो कुर्सियों पर आमने सामने बैठे दो पुलिसिये दिखाई दिये ।
एक ए.सी.पी. और दूसरा इन्स्पेक्टर ।
दोनों जरूर उसकी बेहोशी के दौर में वहां पहुंचे थे और इसी वजह से उसे उनकी आमद की खबर नहीं हुई थी ।
वो हैरान था कि पुलिस के अफसरान की मौजूदगी में वहां खूनखराबा हो गया था ।
और अमरदीप और शैलजा स्टेनगंस हाथ में लिये क्या पुलिस के उन अफसरों की निगरानी कर रहे थे ।
उनकी मजाल नहीं हो सकती थी ।
लेकिन लगता तो ऐसा ही था ।
जरूर वो दोनों शख्स पुलिस की वर्दी ही पहने थे, पुलिस वाले नहीं थे । वो कोई बहुरूपिये थे जो पुलिस की वर्दी की आड़ लेकर कोई वारदात करने के लिये फार्म हाउस में घुस आये थे लेकिन पकड़े गये थे और जरूर अब झामनानी साहब ने अमरदीप और शैलजा को उनकी रखवाली का काम सौंपा था ।
जरूर हुकमनी और टोकस उन नकली पुलिसियों की ही गोलियों का शिकार हुए थे ।
यानी कि सब काबू में था और ठीकठाक था ।
ऐसा था तो साहब लोग कहां थे ?
साहब लेाग उसे अगले रोशनदान में से दिखाई दिये जो कि कोने के हॉल कमरे का था ।
जो नजारा उसे हुआ, उसने उसके मुकम्मल छक्के छुड़ा दिये ।
साहब लोग गन्नों के गट्ठर की तरह नीचे फर्श पर बन्धे पड़े थे ।
उस नजारे ने उसे यकीन दिला दिया कि उन हालात में अमरदीप और शैलजा साहब लोगों की तरफ नहीं हो सकते थे । जरूर वो दुश्मनों से मिल गये थे और वो ही साहब लोगों की मौजूदा दुश्वारी की वजह थे ।
फिर तो वहां उसकी जान को भी खतरा था ।
अमरदीप और शैलजा ने जब साहब लोगों को नहीं बख्शा था तो उसे तो वो क्या बख्शते ?
अब क्या करे वो ?
उसे फौरन वहां से खिसक जाने में ही अपना कल्याण दिखाई दिया ।
साहब लोगों को लाचारी की उस हालत में छोड़ कर ?
मजबूरी थी - उसकी अक्ल ने जवाब दिया - वहां वो कुछ नहीं कर सकता था । लेकिन वहां से निकल कर कोई मदद जुटाने की कोशिश वो बराबर कर सकता था । और कुछ नहीं तो पुलिस के पास - असली पुलिस के पास - तो वो जा ही सकता था ।
उसे वो बात जंची ।
तत्काल जैसे दबे पांव वो वहां पहुंचा था, वैसे ही दबे पांव वहां से रुख्सत हुआ ।
***
“वडी कौन है नी उधर ? जल्दी इधर आओ....”
अमरदीप सकपकाया । उसकी शैलजा से निगाह मिली ।
“झामनानी !” - शैलजा धीरे से बोली ।
“हां । क्यों चिल्ला रहा है ?”
“चिल्लाने दो । यहां कौन है सुनने वाला ?”
“वडी बाहर कौन है नी ? जल्दी इधर आओ नी । जीने मरने का सवाल है नी ? अरे, कोई सुनता है कि नहीं...”
“तू यहीं ठहर ।” - अमरदीप बोला - “मुझे कवर करके रखना । मैं देखता हूं क्यों चिल्ला रहा है ?”
शैलजा ने सहमति में सिर हिलाया ।
सावधानी और मुस्तैदी से स्टेनगन थामे अमरदीप कोने के कमरे के दरवाजे पर पहुंचा । उसने कुंडा हटा कर दरवाजे को धक्का दिया और फिर भीतर झांका ।
चारों खलीफा बदस्तूर बन्धे पड़े थे ।
“क्या है ?” - अमरदीप बोला - “किसके जीने मरने का सवाल है ?”
“वडी अमरदीप ही है न तू ?” - झामनानी बोला - “या मेरे सामने तेरा प्रेत खड़ा है ?”
“अमरदीप ही हूं ।”
“वडी क्यों है नी ? वडी शर्म से डूब क्यों नहीं मरा नी ? जिस थाली में खाता है उसी में छेद करता है नी ? वडी लक्ख दी लानत नी तेरे ऊपर ।”
अमरदीप वापिस घूमा ।
“वडी किधर जाता है नी ?”
“आपने मुझे गालियों और कोसनों से नवाजने को बुलाया है तो मेरा यहां कोई काम नहीं ।”
“वडी काम है नी तेरा ।”
“क्या ?”
“पहले मेरे सवाल का जवाब दे । सिर्फ एक सवाल का जवाब दे ।”
“कैसा सवाल ?”
“वडी क्यों किया नी विश्वासघात तूने ? क्यों झामनानी की आंख में डंडा किया उसके खिलाफ जाकर ? क्यों बिरादरी की दुकान फाड़ दी दुश्मन का सगा बन कर ?”
“झामनानी साहब, इसका बेहतर जवाब आपके उन पचास कारिन्दों के पास था जिन्होंने आपको धर दबोचा था और इस अंजाम तक पहुंचाया था ।”
“वडी वो तो मजबूर थे, उनके सामने तो अपनी मां बहन बेटियों की सलामती का सवाल खड़ा था । तेरी क्या प्राब्लम थी ? शैलजा की क्या प्राब्लम थी ?”
“जब पचास जने खिलाफ हो गये थे तो बाकी बचे हम दो जने आपका क्या भला कर सकते थे ?”
“अरे कर्मांमारे, थोबड़ा तो बन्द रख सकता था । क्यों भौका था कि भीतर सोहल और उसकी बीवी की कनपटी से रिवॉल्वर सटाये हुकमनी और टोकस मौजूद थे ? एक तो भौंका ऊपर से झामनानी को भीतर साथ ले जाने की राय दी दुश्मनों को ताकि भीतर गोली चले तो पहले झामनानी मरे । वडी लक्ख दी लानत हई ।”
“मैं जो मुनासिब समझा, किया” - अमरदीप शान्ति से बोला - “इसलिये अब उन बातों का जिक्र बेकार है । आप बोलिये, क्यों शोर मचा रहे थे ? किस के जीने मरने का सवाल है ?”
“तू क्या समझता है सरकार तेरे को तेरी करतूत के लिये मैडल देगी, तमगा देगी ? या इक्कीस तोपों की सलामी देगी ?”
“देखिये आप....”
“वडी तू देख नी तू देख । अरे नसीबमारे, तू चाहे तो अभी भी बिगड़ी बात संवार सकता है ।”
“क्या करके ?”
“जैसे तुझे मालूम नहीं । वडी आजाद कर नी हम सब को और समझ कि तेरी सब खतायें माफ । समझ कि झामनानी की मेहर और नवाजिशों की छतरी फिर तेरे सिर ऊपर ।”
“ये नहीं हो सकता ।”
“अरे, खरदिमाग, तू बिरादरी का आदमी है इसलिये बिरादरी से बाहर जाने के सपने देखने बन्द कर । तूने जो खता की है, उसकी तलाफी के तौर पर हमें आजाद कर, बिरादरी तुझे मालामाल कर देगी । तू याद करेगा कि....”
“आप मुझे फुसला रहे हैं ।”
“अक्कल दे रहा हूं नी अक्कल ।”
“मुझे जरूरत नहीं ।”
“झूलेलाल ! इसकी तो मत्त मारी गयी है नी....”
“आपने कुछ कहना नहीं है तो मैं चलता हूं ।”
“कहना क्यों नहीं है नी ? कहना ही कहना है लेकिन तू सुनता किधर है ? तू तो....”
अमरदीप ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई और फिर वापिसी के लिये घूमा ।
“भैय्यन साईं को शूगर है नी ।” - झामनानी जल्दी से बोला ।
“तो ?” - ठिठकता हुआ अमरदीप बोला ।
“शूगर की वजह से पेशाब की हाजत जल्दी जल्दी लगती है । वैसे भी तुझे अहसास होना चाहिये नी कि दिशा-पानी-जंगल की जरूरत किसी को भी महसूस हो सकती है ।”
“अब किसे हो रही है ?”
“बोला तो, भैय्यन को ।”
ब्रजवासी के मुंह से एक फरमायशी कराह निकली ।
“कब से हाजत रोके हुए है बेचारा ।” - झामनानी बोला - “ब्लेडर फट गया तो यहीं मर जायेगा ।”
“या” - पवित्तर सिंह बोला - “सानूं पेशाब नाल नहलायेगा ।”
“हूं ।”
“वडी हूं क्या नी ? हूं क्या करता है नी ? वडी कुछ कर नी ।”
“ठीक है । करता हूं । जरा धीरज रखिये, मैं अभी वापिस आता हूं ।”
“देखते हैं नी तेरी अभी । वडी देखते हैं नी कि तू अभी वापिस आता है या ठहर के वापिस आता है या आता ही नहीं ।”
अमरदीप वापिस लौटा ।
हिम्मतसिंह को मालूम था कि फार्म के जिस हिस्से में सूखा कुआं था, उसकी तरफ की बाउन्ड्री वाल एक जगह से टूटी हुई थी, वो उस टूटे हिस्से पर से दीवार पार करके बड़ी आसानी से सड़क पर पहुंच सकता था । मेन रास्ते से बाहर निकलना उसने इसलिये मुनासिब नहीं समझा था क्योंकि फाटक के पार कोई छुप कर उसकी निगरानी करता हो सकता था । जो रास्ता वो अख्तियार करने जा रहा था, उससे वो फाटक से बहुत परे सड़क पर नमूदार होता ।
अपने सायं सायं करते सिर को जैसे तैसे सम्भालता वो सफेदे के पेड़ों के बीच से गुजरता आगे बढता रहा ।
पीछे जो नजारा उसे हुआ था, वो उसे अभी भी सपना लग रहा था । अपने साहब लोग - खासतौर से झामनानी साहब - उसे सर्वशक्तिमान लगते थे । ऐसा कौन उनसे भी जबर निकल आया था जो उनकी वो मत बना गया था !
क्या बांकी पगड़ी और शाही चाल वाला वो लम्बा तड़ंगा सरदार जो अपना नाम राजा गजेन्द्र सिंह बताता था, जो वहां अकेला पहुंचा था और जिसका वहां इन्तजार हो रहा था !
कैसे हो सकता था ?
एक इकलौता शख्स क्या कर सकता था ?
पता नहीं क्या माजरा था ?
एकाएक वह ठिठका ।
आगे कहीं से आवाज आ रही थी ।
वो कान लगाकर सुनने लगा ।
वो बहुत मद्धम इंसानी आवाज थी जो कि उसके कान बहुत कठिनाई से पकड़ पाये थे लेकिन आवाज क्या कह रही थी, ये समझ पाना सम्भव नहीं था ।
अब एक नये बखेडे़ से आन्दोलित वो आवाज की दिशा में बढ़ा ।
कुछ क्षण बाद आवाज स्पष्ट हुई ।
“बचाओ !” - कोई कह रहा था - “बचाओ ! अरे ऊपर कोई है ? कोई है ऊपर ?”
अब उसे साफ अहसास हुआ कि आवाज कुयें की तरफ से आ रही थी ।
वो और आगे बढ़ा तो उसे लगा कि आवाज सूखे कुयें के भीतर से आ रही थी ।
“बचाओ ! अरे, कोई है ?”
वो कुयें के दहाने पर पहुंचा तो उसका अहसास यकीन में बदल गया ।
कुयें में कोई था ।
वो कुयें के दहाने पर के लोहे के गोल जाल पर पहुंचा जो कि पूरी तरह से दहाने को ढंके था । उसने सावधानी से कुयें में झांका ।
“कौन है भीतर ?” - वो तनिक उच्च स्वर में बोला ।
“मैं बजाज हूं ।” - एक व्यग्र और आशापूर्ण आवाज कुयें की तलहटी से उठी - “तुम कौन हो ?”
“मुकेश बजाज ?”
“वही । तुम कौन हो भाई ?”
बजाज को हिम्मतसिंह खूब जानता था वो झामनानी साहब का खास से भी खास आदमी था ।
“अरे, बजाज साहब !” - वो बोला - “आप भीतर कैसे ?”
“हिम्मतसिंह ! तू हिम्मतसिंह है ?”
“हां, बजाज साहब । आप भीतर कैसे....”
“अरे, मुझे बाहर निकाल ।”
“अभी । अभी लो, बजाज साहब । अभी ।”
“तू गेट छोड़ के यहां क्या कर रहा है ?”
“लम्बी कहानी है, बजाज साहब ।”
“लम्बी ही होगी । कब से तो बन्द हूं मैं यहां ?”
“बजाज साहब, जाल को तो ताला लगा हुआ है ।”
“अरे, ताला तोड़ किसी तरीके से और मुझे जल्दी बाहर निकाल ।”
“चाबी कहां है ?”
“पता नहीं कहां है ? तू चाबी का ख्याल छोड़ और ताला तोड़ ।”
“अच्छा मैं करता हूं कोशिश । लेकिन... कुछ होना भी तो चाहिये मेरे पास तोड़ने को । मैं... मैं करता हूं कुछ ।”
हिम्मतसिंह जाल पर से हटा, उसने सीधा होकर किसी औजार की जुस्तजू में दायें बायें निगाह दौड़ानी शुरू की ।
बजाज, जो समझ रहा था कि वहीं कुयें में वो भूखा प्यासा मर जाने वाला था, अब अपनी आजादी के प्रति आश्वस्त था । वो हैरान था कि वैसी ही स्थिति में चन्द घन्टे पहले वो राजा साहब का बच्चा था जो कि न सिर्फ वहां से निकलने में कामयाब हो गया था बल्कि अपनी जगह कुयें में उसे बन्द कर गया था । कैसा मायावी आदमी था ये कम्बख्त सोहल ! उसके शैदाई उसे चलता फिरता प्रेत कहते थे, काल पर फतह पाया हुआ शख्स कहते थे तो ठीक ही कहते थे । वरना कैसे कोई पन्द्रह फुट गहरे उस अन्धे कुयें में से आजाद हो सकता था ! वो तो अपनी लाख कोशिशों के बाद वो करिश्मा नहीं कर पाया था ।
“अरे, हिम्मतसिंह !” - वो बोला - “क्या हो रहा है ? कुछ कर भी रहा है कि नहीं ?”
“कर रहा हूं, बजाज साहब ।” - हिम्मतसिंह बोला - “कोई औजार ढूंढ रहा हूं ।”
“कैंची ! बागवानी वाली कैंची ढूंढ़ । वहीं कहीं होगी ।”
“ढूंढता हूं ।”
हिम्मतसिंह ने चारों ओर निगाह दौड़ाई । उसे घास में पड़ी कैंची दिखाई दी तो उसके करीब ही पड़ी चाबी दिखाई दे गयी ।
“बन गया काम ।” - वो बोला - “बजाज साहब, चाबी मिल गयी ।”
“बढिया । अब जल्दी कर ।”
हिम्मतसिंह ने ताला खोलकर जाल हटाया, करीब पड़ी सीढ़ी उठाकर कुयें में लटकाई और उसे मुंडेर के सहारे छोड़ दिया ।
बरसाती पानी से भीगा, कुयें की धूल मिटृी से अटा बजाज कुयें से बाहर निकला ।
“क्या हुआ बजाज साहब ?” - हिम्मतसिंह उत्सुक भाव से बोला ।
“वो कल रात का खास मेहमान” - बजाज भुनभुनाया - “वो राजा साहब... चाल चल गया अपनी । उल्लू बना गया मुझे । न सिर्फ खुद आजाद हो गया, पीछे मुझे बन्द कर गया । झामनानी साहब सुनेंगे तो जरूर मेरी खाल खिंचवा देंगे ।”
“नहीं खिंचवा सकेंगे ।” - संजीदा लहजे में हिम्मतसिंह धीरे से बोला ।
“क्यों ?”
हिम्मतसिंह ने वजह बतायी ।
फार्म हाउस में बिरादरीभाई किस अंजाम को पहुंच चुके थे, सुन कर बजाज के छक्के छूट गये ।
“तौबा !” - उसके मुंह से निकला - “तेरी बातों से तो लगता है कि वो दो पुलिस अधिकारी भी गिरफ्तार ही हैं । कोई फर्क है तो बस ये कि बिरादरीभाइयों की तरह वो बन्धे नहीं हुए ।”
“मैं तो उन्हें नकली पुलिस वाले समझा था ।” - हिम्मतसिंह बोला ।
“नकली पुलिस वालों का यहां क्या काम ?”
“सो तो है ।”
“हैरानी है कि अमरदीप की ऐसी मजाल हो गयी ?”
“शैलजा की भी, साहब ।”
“दोनों बिरादरीभाइयों को बन्धक बनाये बैठे हैं ! एक इन्स्पेक्टर को, एक ए.सी.पी. को बन्धक बनाये बैठे हैं !”
“किस हासिल की खातिर ?”
“हासिल तो कोई तो दिखाई नहीं देता ।”
“लेकिन होगा तो जरुर ।”
“हां । होगा तो जरूर ।”
“वो दोनों हमेशा तो स्टेनगनें ताने खड़े नहीं रह सकते ?”
“हमेशा तो नहीं रह सकते । शायद उन्हें इन्तजार है ।”
“किस बात का ?”
“किसी खास शख्स का । या किसी खास घड़ी का ।”
“हो सकता है । फिर तो उस शख्स या घड़ी के आने से पहले कुछ करो, बजाज साहब । नमकहराम नहीं हो तो कुछ करो ।”
“तू है ?”
“क्या ? नमकहराम ?”
“हां ।”
“नहीं हूं । होता तो कब का खिसक गया होता । फार्म हाउस की तरफ रुख तक न किया होता मैंने ।”
“उसकी शाबाशी है तुझे, हिम्मत सिंह । झामनानी साहब सुनेंगे तो खुश हो जायेंगे ।”
“खुश होने लायक बचेंगे तो खुश न, साहब ! साहब, मैं मोटी अक्ल का आदमी हूं लेकिन आपके पास आला दिमाग है । भगवान के लिये कुछ सोचो, कुछ करो ।”
“तू मेरा साथ देगा ?”
“हां । हर हाल में ।”
“भाग नहीं खड़ा होगा ?”
“हरगिज नहीं । अगर मैं साहब लोगों की दुश्वारी की इस घड़ी में पीठ दिखाऊं तो गऊ खाऊं ।”
“शाबाश ! मैं सोचता हूं । करता हूं । तू अब चुप रह ।”
हिम्मतसिंह खामोश हो गया ।
***
अमरदीप वापिस लौटा तो उसके साथ ए.सी.पी. प्राण सक्सेना और इन्स्पेक्टर नसीबसिंह दोनों थे ।
पुलिसियों को देखकर बिरादरीभाइयों के नेत्र फैले ।
प्रत्यक्षत: उन्हें वहां पुलिस की मौजूदगी की खबर नहीं थी ।
झामनानी के चेहरे पर तो खास चमक आयी ।
“पुलिस !” - वो दबे स्वर में बोला - “साई लोगों, अन्धेरे ही अन्धेरे में पहली बार मुझे उम्मीद की एक किरण दिखाई दे रही है ।”
“उम्मीद की किरण !” - ब्रजवासी सकपकाया - “किरण दिखाई दे रही है या रही सही उम्मीद भी गयी ?”
“किरण दिखाई दे रही है, साईं । अब देख लेना नी, अगर इस मुसीबत से हमें आजादी मिलेगी तो वो पुलिस के करप्ट किरदार से ही मिलेगी ।”
“मैं नहीं समझा ?”
“अभी समझ जायेगा नी । भैय्यन साईं, लगता है तुझे टायलेट तक इन दो पुलिसियों में से एक ले के जायेगा ।”
“खुद अमरदीप क्यों नहीं ?”
“उसने ले जाना होता तो ले के गया होता । जा के आने को न बोलकर गया होता ।”
“ओह !”
“सोचा मैंने ये ही था नी कि अमरदीम तेरे साथ जायेगा । अपरदीप को सोचकर ही मैंने टायलेट की कहानी गढ़ी थी जहां कि उसे मार गिराना तेरे लिये मुमकिन होता ।”
“अब ?”
“अब भी कुछ तो होगा ही नी । लाला” - झामनानी भोगीलाल से सम्बोधित हुआ - “अब भैय्यन साईं के साथ तूने भी जाना है ।”
“लेकिन” - भोगीलाल दबे स्वर में बोला - “मन्ने तो हाजत....”
“किसी को भी लग सकती है नी, कभी भी लग सकती है ।”
“मैं समझ गया ।”
“शुक्र है ।” - वो फिर ब्रजवासी से सम्बोधित हुआ - “जो भी पुलिसिया तेरे साथ जाये नी, उसे ऐसी आफर पेश करनी है कि उससे इनकार करते न बने ।”
“फिर भी इनकार हुआ तो ?” - ब्रजवासी सशंक भाव से बोला ।
“तो दूसरे के साथ ट्राई मारेंगे । आखिर ये दो हैं और देख लेना, एक यहीं ठहरेगा ।”
तभी दोनों पुलिसिये उनके करीब पहुंचे और खामोशी से उन्हें बधनमुक्त करने लगे ।
स्टेनगन सम्माले मुस्तैदी और चौकसी की प्रतिमूर्ति बना अमरदीप दरवाजे पर ठिठका खड़ा रहा ।
उससे काफी परे उसको कवर किये वैसी ही मुस्तैद और चौकस शैलजा खड़ी थी ।
“झूलेलाल !” - झामनानी बोला - “सिपाही का काम ए.सी.पी. कर रहा है, इन्स्पेक्टर कर रहा है । वडी अमले के हाथों में मेहन्दी लगी है क्या ?”
“यहां कोई नहीं है ।” - सक्सेना सहज भाव से बोला ।
“कोई नहीं है बोला नी ?”
“हां । मेरे और मेरे इन्स्पेक्टर के सिवाय यहां कोई नहीं है ।”
“कमाल है ! वडी तुम दो भी क्यों हो ?”
“पता चल जायेगा ।”
“इन्स्पेक्टर तो, मैं जानता हूं पहाड़गंज थाने से है । शायद नसीबसिंह नाम है ।”
“यही नाम है ।”
“वडी तू कौन है नी ?”
“मुझे प्राण सक्सेना कहते हैं ।”
“वडी मेरे को जानता है नी ?”
“हां ।”
“बाकी जनों को ?”
“बाकियों को भी जानता हूं ।”
“वडी फिर भी ऐसे पेश आ रहा है नी ? झूलेलाल की किरपा से आज तक तो कोई पुलिस वाला साईं झामनानी से ऐसे पेश नहीं आया ।”
“जब पेश न चल रही हो तो वैसे पेश आना पड़ता है जैसे कि पेश आने को बोला जाता है ।”
“वडी, मैंने ठीक सुना नी ? तेरी, एक ए.सी.पी. की, पेश नहीं चल रही इधर ?”
“फिलहाल ।”
“फिलहाल बोला नी ?”
“हां ।”
“मैं समझ गया, साईं । फिर तो....”
“बातों से परहेज कीजिये, ए.सी.पी. साहब ।” - दरवाजे पर से अपरदीप बोला - “और हाथ जल्दी जल्दी चलाइये । आप भी इन्स्पेक्टर साहब ।”
“वडी जल्दी किसलिये ?” - झामनानी बोला ।
“इसलिये कि कहीं मेरा इरादा न बदल जाये ।”
“झूलेलाल ! कैसा सख्त हाकिम बन के दिखा रहा है ! कैसा....”
अमरदीप ने बड़े धमकीभरे अन्दाज से एक कदम आगे बढ़ाया ।
“वडी मैं चुप हूं नी ।” - झामनानी जल्दी से बोला । अमरदीप ठिठक गया और फिर वापिस यथास्थान सरक गया ।
कुछ क्षण खामोशी रही ।
चारों बन्धनमुक्त हो गये तो झामनानी यूं दान्त भींचकर बोला कि परे खड़े अपरदीप को वो बोलता न लगता - “ए.सी.पी. साईं, इधर ही ठहरना । तेरे से बात करनी है ।”
“क्या बात करनी है ?” - सक्सेना दबे स्वर में बोला ।
“ठहरेगा तो मालूम पड़ जायेगा ।”
“ये ठहरने देगा ?”
“जुगत कर कि ठहरने दे ।”
“हूं ।”
ब्रजवासी और भोगीलाल बड़ी कठिनाई से अपने पैरों पर उठ कर खड़े हुए ।
“जिसको हाजत लगी है” - अमरदीप बोला - “वो आगे आये ।”
ब्रजवासी और भोगीलाल दो कदम आगे बढ़े ।
सक्सेना ने नसीबसिंह को कोहनी मारी ।
“चलो, भई ।” - नसीबसिंह बोला ।
“आप नहीं ।” - अमरदीप बोला - “ए.सी.पी. साहब, आप इनके साथ जाइये ।”
“लेकिन” - सक्सेना ने प्रतिवाद करना चाहा - “लेकिन मैं तो....”
“आप आला अफसर हैं इसलिये उम्मीद करता हूं कि ज्यादा जिम्मेदारी दिखायेंगे ।”
“लेकिन....”
“हैरानी है कि इतनी मामूली बात पर आप बहस कर रहे हैं ?”
ए.सी.पी. ने असहाय भाव से झामनानी की तरफ देखा और फिर बोला - “ओके । अगर ए.सी.पी. का काम भाई लोगों को संडास ले जाना है तो करता हूं मैं ये काम । वक्त के हाकिम का हुक्म तो मानना पड़ेगा ।”
“थैंक्यू ।”
“चलो, भई ।”
ए.सी.पी., ब्रजवासी और भोगीलाल दरवाजे की तरफ बढ़े तो अमरदीप परे हट गया ।
“पांच मिनट ।” - वो करीब आये तो अमरदीप बोला - “पांच मिनट काफी होते हैं हाजत रफा करने को । मैं दस मिनट इन्तजार करूंगा, अगर इतने वक्फे में ए.सी.पी. साहब इन दो साहबान के साथ वापिस न लौटे तो मैं पीछे बचे दो साहबान को शूट कर दूंगा । इन्स्पेक्टर साहब को भी ।”
सक्सेना सकपकाया ।
“तुम्हारा मतलब है” - वो बोला - “तुम साथ नहीं चलोगे ?”
“अगर मैंने साथ चलना होता तो फिर आपकी क्या जरूरत थी ?”
“आई सी ।”
“सी ए लिटल फरदर अहेड, सर । मैं आपसे उम्मीद नहीं करता कि इन दो साहबान के फरार हो जाने में आप इनके मददगार बनेंगे । फिर भी अगर आपने ऐसा कुछ किया तो अपने इन्स्पेक्टर का खून आपके सर होगा । झामनानी साहब और सरदार साहब का खून भी आपके सर होगा ।”
“रैस्ट अश्योर्ड, मिस्टर । नथिंग ऑफ दि काइन्ड विल हैपन ।”
“थैंक्यू ।”
वो तीनों गलियारे में पहुंचे और शैलजा से विपरीत दिशा में बरामदे में चलने लगे ।
मोड़ काट कर उनके निगाहों से ओझल होते ही अमरदीप ने पीछे दरवाजा बन्द कर दिया और उससे परे हट कर खड़ा हो गया ।
बजाज और हिम्मतसिंह फार्म हाउस के सामने के मैदान के पार की झाड़ियों में छुपे हुए थे और असहाय भाव से सामने देख रहे थे जहां कि बरामदे के किसी खम्बे के पीछे से उन्हें कभी अपरदीप की झलक मिल जाती थी तो कभी शैलजा दिखाई दे जाती थी ।
“हम निहत्थे हैं ।” - बजाज दबे स्वर में बोला - “निहत्थे हम कुछ नहीं कर सकते । सारा दारोमदार हथियार काबू में आने पर है ।”
“हथियारों की यहां क्या कमी है ?” - हिम्मतसिंह भी वैसे ही दबे स्वर में बोला - “देखो, सामने मैदान में कितनी बन्दूकें, रायफलें और स्टेनगनें पड़ी हैं । ढेर के नीचे पिस्तौल तमंचे भी हों तो कोई बड़ी बात नहीं ।”
“जिस चीज तक पहुंच न हो सके, वो चीज किस काम की, मेरे भाई ? हमारी मजाल नहीं हो सकती खुले में कदम रख कर हथियारों का रुख करने की ।”
“फिर क्या बात बनी ?”
“इनका हथियारों की तरफ से, मैदान की तरफ से, ध्यान बंटाना होगा ।”
“कैसे ?”
“ठहर । सोचने दे ।”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“तू जा ।” - एकाएक बजाज बोला ।
“मैं जाऊं ?” - हिम्मतसिंह हड़बड़ाया - “कहां ? कहां जाऊं मैं ?”
“इमारत की तरफ । ड्राइव-वे पर चलते हुए ।”
“वो मुझे गोली मार देंगे ।”
“नहीं मार देंगे । तूने चोरों की तरह छुप के नहीं जाना । सरेआम चलते हुए जाना है । ऐसे सहज स्वाभाविक ढंग से जाना है जैसे यहां कुछ हुआ ही नहीं ।”
“जब कुछ हुआ ही नहीं तो....”
“फिर भी कुछ तो हुआ ही है ।”
“क्या ?”
“तेरे पर हमला हुआ है । तेरा फूटा सिर और खस्ताहाल इस बात का सबूत है ।”
“तो ?”
“तू फार्म हाउस के फाटक का गार्ड है । तेरे पर हमला करके किन्हीं मवालियों का भीतर घुस आना गम्भीर घटना है । तू बेहोश था, होश में आने पर तूने अपना फर्ज समझा वारदात की खबर मालिकान को देना इसलिये हिम्मत न होते हुए भी हिम्मत करके तू इमारत तक पहुंचा ।”
“हूं ।”
“तेरे पर हुए हमले की रू में तेरा झामनानी के रुबरू होने की कोशिश करना एक सहज स्वाभाविक बात है । हिम्मतसिंह, तू जा ।”
“अच्छा !” - वो अनिश्चित भाव से बोला ।
“और जाकर उन दोनों को बातों में लगा । यूं बातों में लगा कि मैदान की तरफ उनकी पीठ हो । मामूली काम है ये । तेरा मुंह मैदान की तरफ होगा तो उनकी पीठ अपने आप ही मैदान की तरफ हो जायेगी ।”
“पीछे आप क्या करोगे ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ! मैं चुपचाप मैदान में कदम रखूंगा, हथियारों के ढेर तक पहुंचूंगा और उनमें से कम से कम दो कारआमद हथियार कब्जाऊंगा । एक तेरे लिये एक अपने लिये ।”
“अगर उन्होने पीठ न फेरी तो ?”
“तो कोई और जुगत करेंगे ।”
“बजाज साहब, तो जो जुगत करोगे आप ही करोगे ।”
“क्या मतलब ?”
“जैसे यहां हालात दिखाई दे रहे हैं, उनमें ऐसा नहीं लगता कि एक बार मैं इमारत में पहुंच गया तो वो मुझे लौट के वापिस जाने देंगे ।”
“ऐसा कुछ नहीं होगा । वो तुझे जानते हैं और जो तू बोलेगा वो सौ टांक खरी बात होगी ।”
“हूं ।”
“और फिर ये न भूल कि अन्त पन्त तो वो हम में से ही हैं ।”
“है तो ऐसा ही लेकिन उनकी इस वक्त की हरकतें तो कोई और ही कहानी कह रही हैं ।”
“ऐसा है तो समझ ले उनकी खैर नहीं ।”
“मतलब ?”
“हथियार हाथ में आते ही सबसे पहले मैं उन दोनों को ही शूट करूंगा । हिम्मतसिंह, आइन्दा तमाम दारोमदार इस बात पर है कि हमारे हाथ में कोई हथियार आये । इसलिये पहला काम पहले होने दे, बाद की बाद में सोचेंगे ।”
“ठीक है । मैं चला ।”
“शाबाश !”
ब्रजवासी फार्म हाउस के पूरे जुगराफिये से उसके मालिक झामनानी जितना ही वाकिफ था । वो जानबूझ कर इमारत के पिछवाड़े के एक टायलेट में पहुंचा जबकि रास्ते में दो टायलेट और भी थे जिसमें से एक तो सामने के गलियारे में ही था । वहां पहुंच कर वो सीधा लैवेटरी में दाखिल हो गया और उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया ।
ए.सी.पी. सक्सेना अनिश्चित सा टायलेट के दरवाजे के करीब ठिठका खड़ा रहा ।
“जल्दी निपटना, भई ।” - वो खामखाह बोला - “वरना तुम्हें मालूम ही हैं क्या होगा ?”
कोई उत्तर न मिला ।
ब्रजवासी ने टंकी का ढक्कन हौले से परे सरकाया और सिर झुका कर भीतर झांका ।
भीतर पानी में एक पोलीथीन की मुंहबन्द थैली मौजूद थी जिसका पानी में तैरती होने की जगह नीचे बैठा होना इस बात का सबूत था कि वो वजनी थी ।
पानी में हाथ डाल कर उसने वो थैली काबू में की । उसने उसका मुंह खोलकर भीतर से गन बरामद की जो कि बत्तीस कैलीबर की, पूरी भरी हुई स्मिथ एण्ड बैसन ब्रांड की पिस्तौल थी ।
तब कहीं जाकर इतने हंगामे में उसके दिल को पहली बार चैन आया ।
जब बजरंग बली - वो हौसले से मन ही मन बोला - तोड़ दुश्मन की नली ।
उसने पोलीथीन को गुच्छा मुच्छा करके वापिस टंकी में डाला और उसका ढक्कन यथास्थान उस पर सरका दिया ।
पानी गड़गड़ की आवाज से साथ कमोड में बहने लगा ।
टंकी खाली हो गयी तो वो आवाज बन्द हो गयी ।
उसने पिस्तौल दायें हाथ में थामी और हाथ अपनी पतलून की दायीं जेब में डाल लिया । फिर बायें हाथ से दरवाजे को ठेक कर उसने लैवेटरी से बाहर कदम रखा ।
“चलें ?” - सक्सेना खामखाह बोला ।
ब्रजवासी ने परे वाश बेसिन पर खड़े हाथ धोते भोगीलाल पर एक निगाह डाली और फिर सन्तुलित स्वर में बोला - “अभी नहीं ।”
सक्सेना के माथे पर बल पड़े । ब्रजवासी का बदला हुआ लहजा उसके जेहन में खासतौर से खटका ।
“वजह ?” - वो बोला ।
“ये ।”
ब्रजवासी ने जेब से हाथ निकाला और पिस्तौल उसकी तरफ तान दी ।
“तुम्हारी मजाल नहीं हो सकती ।” - सक्सेना पूरे आत्मविश्वास के साथ बोला ।
“अच्छा !” - ब्रजवासी की भवें उठीं ।
“एक बर्खास्त हवलदार को शूट करना एक और एक ऑन ड्यूटी ए.सी.पी को शूट करना एक ही बात नहीं होती ।”
“ऑन ड्यूटी !”
“हां, ऑन ड्यूटी । ऑन ड्यूटी पुलिस आफिसर्स की हर मूवमेंट रोजनामचे में दर्ज होती है इसलिये मेरी भी दर्ज है । इन्स्पेक्टर नसीबसिंह की भी दर्ज है ।”
“हूं ।”
“हथियार कैसे हाथ में आ गया ?”
“शैतान का दिमाग पाया है झामनानी ने । कोई इमरजेन्सी आन पड़ने पर उसकी पहले से तैयारी करके रखना उसकी फितरत है । यहां ऐसी और भी कई जगह हैं जहां कि यूं हथियार उपलब्ध हैं । जैसे किसी परनाले में, किसी गमले में, किसी कूड़ेदान में, किसी लेटरबक्स में, किसी बैड के नीचे ।”
“यहां कहां थी ?”
“पानी की टंकी में ।”
“हथियार हाथ में आने का फायदा क्या हुआ ? पुलिस के रोजनामचे की वजह से ही नहीं, वैसे भी तुम मुझे शूट करना अफोर्ड नहीं कर सकते । दस मिनट के अन्दर अन्दर मैं उन लोगों को तुम्हारे साथ लौटता न दिखाई दिया तो क्या दोहराने की जरूरत है कि पीछे तुम्हारे जोड़ीदारों पर क्या बीतेगी ?”
“जो बीतेगी, वो न बीते, इसका इन्तजाम तुमने करना है ।”
“मौजूदा हालात में मैं कुछ नहीं कर सकता ।”
“मन बनाओगे तो कुछ कर पाओगे न !”
“नो ।”
“दो घन्टे बाद वो दोनों हथियार डाल देंगे, तब तो कर सकोगे ?”
“तब की तब देखी जायेगी ।”
“अभी देखो ।”
“क्या मतलब ?”
ब्रजवासी बड़े धीरज के साथ उसे मतलब समझाने लगा ।
“पुलिस कैसे पहुंच गयी नी ?” - झामनानी बोला । उसने नसीबसिंह की तरफ देखा, उसे जवाब देता न पाकर वो फिर बोला - “वडी साई, मैं तेरे से पूछ रहा हूं ।”
“मेरे पास फोन आया था ।” - नसीबसिंह तनिक हड़बड़ाकर बोला ।
“कहां से ? किसका ?”
“यहीं से । मुझे पहले मालूम नहीं था लेकिन अब मालूम है कि सोहल का । वही फोन पर बोला था कि हवलदार तरसेमलाल की सलामती की खातिर मैं अकेला यहां पहुंचूं ।”
“अकेला तो न पहुंचा नी । साथ में तो ए.सी.पी. भी पहुंचा ।”
“वो मेरा इमीजियेट बॉस है, उसने साथ चलने की जिद की तो मैं उसे टाल न सका ।”
“बुलाया क्यों तुझे ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ?”
“है पूछने की बात । बता ।”
“तुम लोगों की गिरफ्तारी के लिये । यहां की बेसमेंट का माल काबू में करने के लिये जिसमें कि छ: करोड़ की हेरोइन भी है ।”
झामनानी के नेत्र फैले । सकपकाये भाव से उसने पवित्तर सिंह की तरफ देखा ।
पवित्तर सिंह खुद वैसे ही हैरान था ।
“यहां कोई तहखाना नहीं है ।” - झामनानी बोला ।
नसीबसिंह हंसा ।
“है तो तू उसका रास्ता नहीं तलाश कर सकता ।”
“तलाश करने की जरूरत ही नहीं है । सोहल वो रास्ता हमें बता कर गया है ।”
“झूलेलाल !”
नसीबसिंह खामोश रहा ।
“वडी इन्स्पेक्टर साईं, जब सब कुछ पुलिस के काबू में है तो फिर देरदार किस बात की है ?”
“सोहल को अपने साथियों के साथ यहां से निकल जाने के लिये दो घन्टे का वक्त दरकार था । वो वक्त हासिल करने के लिये वो अमरदीप और शैलजा को हथियारबन्द करके हमारी छाती पर बिठा गया ।”
“ओह ! दो घन्टे बाद क्या होगा ?”
“दोनों आत्मसमर्पण कर देंगे । उन दोनों को आप लोगों के खिलाफ वादामाफ गवाह बनाये जाने का हुक्म हुआ है ।”
“हुक्म हुआ है ! वडी किसका हुक्म हुआ है नी ?”
“सोहल का ।”
“झूलेलाल ! वडी दिल्ली पुलिस सोहल के हुक्म से चलती है नी ?”
“मजबूरी है ।”
“वडी क्या मजबूरी है नी ?”
“वो आप लोगों के लिये बोल के गया है कि नेशनल सिक्योरिटी एक्ट और टाडा लगाकर आप लोगों को गिरफ्तार किया जाये । बोलकर गया है कि अगर आप लोगों की जमानत हुई या आप लोगों को ज्यादा से ज्यादा सजा न हुई तो कोताही करने वालों को बहुत बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा ।”
“वडी क्या खामियाजा नी ?”
“वो वापिस लौटेगा और कोताही करने वाले तमाम पुलिस अधिकारियों का सर कलम कर देगा । पुलिस ममिश्नर का भी ।”
“कहने से क्या होता है ?”
“उसके कहने से होता है ।”
“वडी बड़ा बोल कोई भी बोल सकता है नी ।”
“वो कोई नहीं, सोहल है ।”
“चड़या है । अपने आपको भगवान से दस हाथ ऊंचा समझा है कर्मामारा ।”
नसीबसिंह खामोश रहा ।
“इन्स्पेक्टर साईं, हमें गिरफ्तार करने से तो हम तुझे या तेरे ए.सी.पी. को नहीं रोक सकते लेकिन साबित कुछ नहीं कर सकोगे हमारे खिलाफ ।”
“वो आप लोगों को कई कत्लों का अपराधी ठहरा कर गया है ।”
“साबित कुछ नहीं कर सकोगे ।”
“पांच कत्ल दिल्ली में हुए जिनके लिये कि आप जिम्मेदार हैं । नाम सुनना चाहते हैं मकतूलों का ?”
“नहीं ।”
“क्योंकि नाम आपको मालूम हैं । आपसे और आपके बिरादरीभाइयों से बेहतर किसे मालूम हैं ! दिल्ली में कुशवाहा और उसके खास आदमी द्विवेदी का दिन दहाड़े लोटस क्लब में कत्ल हुआ । गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन के मालिक शिवशंकर शुक्ला का कत्ल हुआ । हिन्दोस्तान टाइम्स के एडीटर जगतनारायण का कत्ल हुआ । मायाराम बावा का पुलिस कस्टडी से अगवा हुआ और उसका कत्ल हुआ । मुम्बई में सुमन वर्मा का कत्ल हुआ । मुम्बई में और कई कत्ल आप लोगों के किये या कराये हुए जिनकी डिटेल अभी हमें नहीं मालूम है लेकिन जल्द ही मालूम पड़ जायेगी ।”
“वडी बोला न, साबित कुछ नहीं कर सकोगे ।”
“आप शैलजा और अमरदीप को भूल रहे हैं जो कि आपकी ज्यादातर काली करतूतों के जामिन हैं और जिन्हें आपके खिलाफ वादामाफ गवाह के तौर पर खड़ा किया जायेगा ।”
“उनकी लाशों का पता नहीं लगेगा ।”
“उन्हें भारी पुलिस प्रोटेक्शन में रखा जायेगा । जमा जो हेरोइन की खेप यहां से बरामद होने वाली है, अकेली वो ही आपका बन्टाधार कर देगी । झामनानी साहब, अब हमें ये भी मालूम है कि कैसे एक लाश को कन्टेनर बनाकर सौ सौ ग्राम की साठ पुड़िया मुम्बई से यहां तक पहुंची थीं !”
तब पहली बार झामनानी का रंग बदरंग हुआ ।
“ये भी मालूम है ?” - उसके मुंह से निकला ।
“हां । और ये भी मालूम है कि सोहल को लेकर यहां कौन सा हाईटेंशन ड्रामा स्टेज किया गया था ?”
“वडी सब भूल जा नी ।”
नसीबसिंह हंसा ।
“जादा जानकारी” - पवित्तर सिंह बोला - “खतरनाक होंदी ए ।”
“हां ।” - झामनानी बोला - “वडी सब भूल जा नी ।”
“ऐसे कहीं होता है ?” - नसीबसिंह बोला ।
“होता है । जो बोला वो कर और अपनी फीस बोल ।”
“ये बहुत बड़ा केस है ।”
“तो बहुत बड़ी फीस बोल नी ।”
“मेरा ए.सी.पी. भी मेरे साथ है ।”
“उसकी भी फीस बोल नी ।”
“नहीं, अब कुछ नहीं हो सकता ।”
“चड़या हुआ है ? क्यों नहीं हो सकता ? अभी हुआ क्या है पुलिस के किये जो नहीं हो सकता । खुद तो कह रहा है कि अपने ए.सी.पी. के साथ जब से आया है हमारी तरह गिरफ्तार है ।”
“फिर भी....”
“क्या फिर भी ? तेरा वो ए.सी.पी. खुद तो बोला कि पुलिस के नाम पर यहां या तू है या वो है । जब बात अभी तुम दोनों के ही बीच में है तो कुछ क्यों नहीं हो सकता ?”
“आप समझते नहीं हैं ।”
“वडी क्या नहीं समझता नी मैं ?”
“यहां ‘भाई’ मौजूद था ।”
“तो ?”
“यहां रीकियो फिगुएरा नाम का इन्टरनेशनल अन्डरवर्ल्ड डॉन मौजूद था ।”
“वडी साबित कर सकेगा नी ? जवाब उस कर्मांमारे अमरदीप और उस कम्बख्तमारी पुटड़ी शैलजा की गवाही को दरकिनार करके देना ।”
“उन्हीं की गवाही साबित करेगी कि....”
“वडी साईं तू सुनता नहीं है । मैं बोला न कि एक मिनट के लिये तू उनको भूल जा, समझ कि उनका वजूद ही नहीं है, और फिर जवाब दे । फिर जवाब दे कि साबित कर सकेगा कि यहां ‘भाई’ आया था, यहां रीकियो फिगुएरा करके बड़ा, विलायती साहब आया था ?”
“और कराची से जहांगीर खान, काठमाण्डू से बुद्धिरत्न भट्टराई, ढाका से खलील-उर-रहमान, रंगून से आंग सू विन, कोलम्बो से नेविल कनकरत्ने, काबुल से मुहम्मद कामिल दिलजादा !”
“वो भी सही । वडी साबित कर सकेगा नी कि ऐसे कोई साईं लोग यहां थे ?”
“अमरदीप और शैलजा की गवाही से....”
“वडी लक्ख दी लानत हई । तोते की तरह एक ही बात को रटे जा रहा है । इतना भी नहीं समझता कि वक्त का तोड़ा है ।”
“उन दोनों की गवाही के बिना नहीं....”
“तेरा साईं जीवे । शुक्र है माना तो ।”
“लेकिन उनकी गवाहियों के बिना भी बहुत कुछ साबित किया जा सकता है ।”
“मसलन क्या ?”
“आपने आननफानन यहां अपने फार्म में हैलीपैड बनवाया ताकि बड़ा साहब फिगुएरा हैलीकॉप्टर पर यहां पहुंच सकता । अब ये न कहियेगा कि हैलीपैड आपने अपने लिये बनवांया है क्योंकि मुझे मालूम है कि आपके पास हैलीकॉप्टर नहीं है ।”
“वडी साईं, कोई घर में गैरेज बनवाये तो क्या उसके पास कार होना जरूरी होता है ?”
“जब जरूरत नहीं तो क्यों बनवाया ?”
“वडी कोई कार खरीदने से पहले घर में गैरेज बनवा ले तो क्या इससे कानून की कोई धारा भंग होती है ?”
“फिर भी हैलीपैड....”
“आइन्दा जरूरत को मद्देनजर रख कर बनवाया नी । अब छोड़ इस बात का पीछा ।”
“बाहर मैदान में इतनी बन्दूकें, राइफलें, स्टेनगनें पड़ी हैं....”
“कोई कर्मामारा मुझे फंसाने के लिये वहां डाल गया ।”
“असलाह” - पवित्तर सिंह बोला - “हटाया जा सकदा ए ।”
“वडी गायब किया जा सकता है नी ।” - झामनानी बोला - “इसीलिये तो जमना दिल्ली शहर के बीच में से बहती है ।”
“तहखाने में मौजूद हेरोइन की खेप....”
“बरामदी दिखायेगा तो वजूद में आयेगी न ?”
“हवलदार तरसेमलाल महकमे का आदमी है....”
“था ।”
“उसका इस्तीफा खारिज किया जा चुका है ।”
“वडी क्या कहना चाहता है नी ? ये कि वो यहां पुलिस के लिये जासूसी कर रहा था ?”
“यहां उसका कत्ल हुआ है । एक पुलिसकर्मी का कत्ल....”
“कौन बोला ?”
“सोहल बोला । साफ बोला कि झामनानी के कहने पर उसे झामनानी के एक आदमी ने मारा ।”
“ये सोहल बोला नी ?”
“हां ।”
“जो कि तेरे एक बुलावे पर गवाही के लिये दौड़ा चला आयेगा ?”
नसीबसिंह का सिर स्वयंमेव ही इनकार में हिला ।
“तो फिर ?”
“जब लाश बरामद होती तो....”
“नहीं बरामद होगी नी । हुई तो गोली मार देना ।”
नसीबसिंह कुछ क्षण सोचता रहा ।
“वडी साईं क्यों खामखाह टाइम खोटी कर रहा है ?”
“यहां पुलिस की बड़ी व्यापक रेड होने वाली थी ।”
“हुई क्यों नहीं नी ?”
“ऐसा तरसेमलाल का फोन आने पर होना था ।”
“वो फोन कब करता ?”
“जब ‘भाई’ समेत एशिया के बड़े ड्रग लॉर्ड्स यहां जमा हो चुके होते ।”
“कुबूल । अब क्योंकि वो जमा नहीं हुए इसलिये फोन नहीं हुआ । ईजी ।”
“तरसेमलाल कहां गया ?”
“क्या पता कहां गया ?”
“उसकी गैरहाजिरी को शक की निगाह से देखा जायेगा ।”
“वो यहां हाजिर नहीं था । कल रात नौ बजे उसे लीडो से दो कैब्रे डांसर लिवा लाने के लिये कनॉट प्लेस भेजा गया था, कम्बख्तमारा अभी तक लौट कर नहीं आया ।”
“यहां एक जवान लड़की कैद थी ।”
“कौन बोला नी ?”
“तरसेमलाल ।”
“कब बोला नी ?”
“कल रात । जब वो मेरे घर पर आया था ।”
“वडी कब आया था नी ?”
“दस बजे के बाद ।”
“कमीना ! लानती ! लीडो पहुंचने की जगह थाने पहुंच गया ।”
“लड़की का क्या किस्सा है ?”
“वो पहले से यहां थी, अब नहीं है ।”
“कहां गयी ?”
“सोहल के साथ गयी ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वो उसकी बीवी थी ।”
“बीवी ! नीलम ?”
“हां । उसे सोहल पर दबाव बनाने के लिये दबोचा गया था, दबाव बना लेकिन अफसोस कि बना न रह सका । तकदीर का बादशाह है कर्मामारा । उसके उलटे पड़े पासे भी सीधे हो जाते है ।”
“होता है किसी किसी के साथ ऐसा ।”
“वडी अब जो फैसला करना हैं, जल्दी कर ।”
“कैसे करूं ? उसकी बातें याद करके रूह कांपती है । मैंने बोला न कि आपके और आपके बिरादरीभाइयों के खिलाफ पूरी पूरी कार्यवाही न होने की सूरत में वो पुलिस कमिश्नर तक का सिर कलम कर देने की धमकी जारी करके गया है ।”
“वडी इन्स्पेक्टर साई, धमकी देना आसान होता है, उस पर खरा उतर कर दिखाना मुश्किल होता है, कभी कभी तो नामुमकिन होता है ।”
“वो तो है लेकिन....”
“अपने किसी फैसले पर पहुंचने से पहले एक बात और सुन ले इन्स्पेक्टर साईं ।”
“कौन सी ?”
“जो पेशकश तेरे सामने अभी मैंने रखी है, ऐन वो ही पेशकश तेरे ए.सी.पी. के सामने इसी घड़ी अपना भैय्यन माताप्रसाद ब्रजवासी रख रहा होगा ।”
“मतलब क्या हुआ इस बात का ?”
“यही कि तू नहीं मानेगा तो वो मानेगा । हमारा काम किसी एक के मानने से भी बन सकता है ।”
“क्या कहने !” - नसीबसिंह के स्वर में व्यंग्य का पुट आ गया - “यानी कि एक मान जायेगा तो दूसरा खड़ा तमाशा देखेगा ।”
“वडी साईं, हमने ये भी तो नहीं होने देना है ।”
“क्या मतलब ?”
“वडी समझ नी । एक की करतूत का दूसरा जना गवाह बन जाये तो हालात को मुकम्मल तौर से काबू में नहीं माना जा सकता । काला कारनामा वो ही सेफ होता है जिसका कोई गवाह न हो ।”
“झामनानी साहब, वो ही कह रहे हो न जो कि मैं समझ रहा हूं ?”
“पता नहीं तू क्या समझ रहा है ? मुझे तो वो मालूम है जो मैं समझ रहा हूं ।”
“आप क्या समझ रहे हैं ?”
“या बेचारा तू या बेचारा तेरा साहब क्रॉस फायरिंग में मारा गया । खामखाह मारा गया कर्मामारा ।”
“क्रॉस फायरिंग में ?”
“वडी यही तो बोला मैं ।”
“क्रॉस फायरिंग क्यों ?”
“क्योंकि तरसेमलाल की नीयत बद हो गयी । मोटा माल देखकर लालच की गिरफ्त में आ गया नसीबमारा । लालच के सैलाब के साथ बहने लगा । माल के साथ भाग निकलने की खातिर गोलियां चलाने लगा । सिक्योरिटी गार्ड्स ने जवाबी फायरिंग की जिसमें बद्किस्मती से तेरा ए.सी.पी. फंस गया ।”
“नहीं चलेगा ।”
“तो समझ ले यहां डाका पड़ गया । समझ ले कि डाकुओं को थामने की कोशिश में तेरा बहादुर और जांबाज ए.सी.पी. शहीद हो गया और....”
झामनानी ने देखा कि नसीबसिंह का सिर पहले ही इनकार में हिलने लगा था ।
परिवत्तर सिंह ने बड़े अर्थपूर्ण भाव से अपनी कलाई घड़ी और वाल क्लाक पर निगाह डाली ।
“कहानी बाद में भी सोची जा सकती है, इन्स्पेक्टर साईं, और वो तू सोच ही लेगा । रोज सोचता है । तजुर्बा होता है पुलिस वालों को ऐसी कहानियां गढने का । इस वक्त तो खाली जवाब दे । और टाइम खोटी किये बिना फौरन जवाब दे वरना तेरा भी काम बिगड़ जायेगा और हमारा भी ।”
“मझे सोचने दो ।”
“वडी तू समझता क्यों नहीं ? समझता क्यों नहीं कि टाइम का तोड़ा है । अगर तू....”
“चुप करो । सोचने दो ।”
चेहरे पर नीव्र अनिच्छा और असंतोष के भाव लिये झामनानी खामोश हो गया ।
***
“कोई आ रहा है ।” - शैलजा एकाएक बोली ।
अमरदीप सकपकाया, उसने घूम कर मैदान से पार ड्राइव-वे की दिशा में देखा ।
“फाटक का गार्ड हिम्मतसिंह है ।” - अमरदीप बोला - “ये इधर क्यों आ रहा है ? इसे तो गेट छोड़ कर कहीं जाने की इजाजत नहीं है ।”
“कोई खास ही वजह होगी ।”
“आने दो, मालूम पड़ जायेगी ।”
“हमें इसका ख्याल क्यों न आया ?”
“मुझे आया था लेकिन मैंने सोचा था कि बाकी प्यादों की तरह ये भी यहां से किनारा कर गया होगा ।”
शैलजा खामोश रही ।
“अरे, कोई है इधर !” - बरामदे की सीढियों के करीब से हिम्मतसिंह बोला - “मैं फाटक का गार्ड हिम्मतसिंह हूं । कोई है ?”
“इधर आ जा, हिम्मतसिंह ।” - अमरदीप बोला ।
हिम्मतरसिंह बरामदे में चलता उनके करीब पहुंचा ।
“अरे !” - वो बोला - “ये तो अपने अमरदीप बाबू हैं । शैलजा बीबी हैं ।”
“फाटक छोड़ कर क्यों आया ?” - अमरदीप कर्कश स्वर में बोला ।
“फाटक को भीतर से ताला लगा कर आया हूं ।”
“वो तो हुआ । आया क्यों ?”
“साहब लोगों को हमले की खबर करने के लिये ।”
“हमला ! कैसा हमला ?”
हिम्मतसिंह ने बड़े यत्न से वो पोजीशन ली जिसमें कि उसके रूबरू खड़े अमरदीप और शैलजा की मैदान की तरफ पीठ हो जाती ।
“जो मेरे पर हुआ ।” - वो बोला और उसने अपना जख्मी सिर सामने कर दिया ।
अमरदीप ने देख उसकी खोपड़ी पीछे से फटी पड़ी थी और घाव के इर्द-गिर्द अब खून से सने बाल चिपके दिखाई दे रहे थे ।
“कब हुआ ?”
“काफी टेम हो गया ।”
“यहां अब आना सूझा ?”
“मेरे को अभी होश आया था । होश आते ही आना सूझा । सो आ गया ।”
“फोन ! फोन क्यों न किया ?”
“फोन कटा पड़ा था इसलिये....”
“अब चाहता क्या है ?”
“चाहना क्या है ! हालात की खबर तो झामनानी साहब को होनी चहिये थी या नहीं होनी चाहिये थी ?”
“समझ ले कि हो गयी खबर ।”
“मैं खुद खबर करना चाहता हूं ।”
“उसकी कोई जरूरत नहीं ।”
“लेकिन....”
तभी शैलजा के मुंह से एक सिसकारी निकली । वार्तालाप में क्योंकि वो शरीक नहीं थी इसलिये सहज ही वो एक पहलू घूम गयी थी और उसकी निगाह मैदान की तरफ उठ गयी थी ।
“पीछे !” - वो तीव्र स्वर में बोली ।
अमरदीप वापिस घूमा ।
“आप पहले मेरी बात सुनो ।” - हिम्मतसिंह व्यग्र भाव से बोला - “मैं कह रहा था कि....”
“शटअप !” - अमरदीप सांप की तरह फुंफकारा ।
हिम्मतसिंह सहम कर चुप हो गया ।
ऐन मौके पर काम बिगड़ा जा रहा था । उसने देखा कि मैदान में बजाज अभी हथियारों से काफी परे था ।
“खबरदार !” - अमरदीप चिल्लाया ।
उस ललकार ने बजाज के रोंगटे खड़े कर दिये, विक्षिप्तों की तरह उसने हथियारों के ढेर की तरफ जुस्त लगाई । वो जमीन पर औंधे मुंह गिरा, उसने आगे दायें बायें हाथ मारा तो वो एक रिवॉल्वर की नाल पर जाकर पड़ा ।
“खबरदार ! जो कोई भी है, उठ के खड़ा हो जा ।”
बजाज उठा और फिर एकाएक घूम कर उकडूं उकडूं पेड़ों के झुरमुट की तरफ भागा ।
अमरदीप ने स्टेनगन का आटोमैटिक ट्रीगर खींचा ।
गोलियों की बैछार बजाज के पीछे, इर्द गिर्द टकराई लेकिन वो निर्विघ्न, अब सामने आन पहुंची, झाड़ियों में छलांग लगाने में कामयाब हो गया ।
वातावरण फिर स्तब्ध हो गया ।
“कौन था ?” - शैलजा सस्पेंसभरे स्वर में बोली ।
“मुकेश बजाज ।” - अमरदीप वितृष्णापूर्ण स्वर मे बोला - “पता नहीं कहां से आन टपका ?”
“क्या चाहता होगा ?”
“हमारे लिये तो बुरा ही चाहता होगा वरना चोरों की तरह मैदान में नुमायां न हुआ होता । वरना भाग न खड़ा हुआ होता ।” - वो हिम्मतसिंह की तरफ घूमा - “एक सैकेंड में बोल क्या माजरा है वरना शूट कर दूंगा ।”
“कैसा माजरा ?” - हिम्मतसिंह बौखलाये स्वर में बोला ।
“तुझे मालूम है । अपनी जान की खैर चाहता है तो कुबूल कर कि तू बजाज के भेजे यहां आया है ।”
“बजाज ! कौन बजाज ?”
“तू किसी बजाज को नहीं जानता ?”
“मुकेश बजाज को जानता हूं जो कि झामनानी साहब का खास है । आपकी तरह । लेकिन मैंने तो कल से उसकी सूरत नहीं देखी । मैं तो अपने केबिन में बेहोश पड़ा था जहां से उठकर मैं सीधा यहां आया हूं ।”
“अभी मैदान में मुकेश बजाज था....”
“मैंने नहीं देखा ।”
“क्यों नहीं देखा ? अन्धा है ? तेरा तो मुंह भी मैदान की तरफ था ।”
“लेकिन तवज्जो उधर नहीं थी, तब तवज्जो आपकी तरफ थी ।”
“ठीक है, ऐसे ही सही । तो अब तू झामनानी साहब से मिलना चाहता है ?”
“हां । ताकि मैं....”
“मालूम । मालूम । ताकि तू साहब को बता सके कि तेरे पर हमला हुआ था ।”
“ह... हां ।”
“आ, चल मेरे साथ ।”
“क... कहां ?”
“जहां तू जाना चाहता है । जहां जाने के लिये तू आया है । झामनानी साहब के पास ।”
“ओह ! साहब हैं कहां ?”
“वहीं हैं जहां अब तू भी होगा ।”
“कहां ?”
“अभी मालूम पड़ता है ।”
अमरदीप उसे कोने के दरवाजे पर ले आया । उसने दरवाजा खोल कर जबरन उसे भीतर धकेल दिया और बाहर से दरवाजा पूर्ववत् बन्द कर दिया ।
हालात की उस करवट से वो फिक्रमन्द था । जो होना था, वो दो घन्टे का वक्फा मुकम्मल हो जाने के बाद होता तो उसे कोई परवाह न होती । लेकिन अब उसने बजाज की तरफ से चौकन्ना रहने का अतिरिक्त काम भी करना था जो कि पता नहीं किस फिराक में था ।
“दो करोड़ ।” - नसीबसिंह बोला ।
झामनानी ने हैरानी से उसकी तरफ देखा ।
“वडी चड़या हुआ है नी ?” - फिर वो भड़क कर बोला ।
“बड़ी वारदात पर पर्दा डालना होगा । बड़ी लीपापोती करनी होगी । जान का बड़ा जोखम उठाना होगा । सोहल की धमकी की तलवार हर वक्त मेरे सिर पर लटकी होगी । ये सिर धड़ की बाजी है, झामनानी साहब । हार की सूरत में जान और माल दोनों से महरूम होना पड़ेगा ।”
“फिर भी दो करोड़ !”
“हां ।” - नसीबसिंह दृढता से बोला - “दो करोड़ ।”
“आसमान में उड़ना बन्द कर, इन्स्पेक्टर साईं, और जमीन पर टिक कर अपनी कीमत बोल ।”
“दो करोड़ ।”
“वडी, देखे कभी दो करोड़ ?”
“नहीं देखे । अब देखूंगा ।”
“सपने में ही देखेगा । वडी मैं क्या पहली बार कोई पुलिस वाला खरीद रहा हूं ।”
“क्या कहना चाहते हो ?”
“मालूम है तेरे को । वडी दो करोड़ तो कमिश्नर के लिये भी ज्यादा है । हमने इतनी बड़ी रकम देकर जान छुड़ानी होगी तो तेरे आला अफसरों से सौदा करेंगे ।”
“और हम खड़े तमाशा देखेंगे ?”
“कहां नसीब होगा तमाशा देखना भी !”
“क्या मतलब ?”
“अगर तेरे ए.सी.पी. से ब्रजवासी का सौदा पट गया तो तेरा तो टिकट कट के रहेगा ।”
“एक ऑन ड्यूटी पुलिस आफिसर का टिकट काटने की किसी की मजाल नहीं हो सकती ।”
“किसी की नहीं हो सकती । पुलिस आफिसर की हो सकती है ।”
“क्या मतलब ?”
“तेरा ए.सी.पी. ही तेरे को गोली मार देगा । ये मतलब ।”
नसीबसिंह विचलित हुआ ।
“वडी मैं तेरे को पहले ही बोला कि यहां से एक जना जिन्दा वापिस जायेगा । या तू या तेरा ए.सी.पी. । अब फैसला तेरे हाथ में है कि जिन्दा वापिस तू जाना चाहता है या अपने ए.सी.पी. को भेजना चाहता है । अब बोल क्या बोलता है ?”
“तुम क्या बोलते हो ?”
“पच्चीस ।”
“पागल हुए हो ? इतनी रकम तो छ: करोड़ की हेरोइन छोड़ने के लिये ही काफी नहीं ।”
“वडी मैं हेरोइन भूल गया था नी । ठीक है पचास ।”
“डेढ ।”
“साठ से एक दमड़ी भी ज्यादा नहीं ।”
“सवा ।”
“अस्सी ।”
“एक पर फाइनल करो वरना भाड़ में जाओ ।”
“ठीक है ।” - झामनानी यूं बोला जैसे हथियार डाल रहा हो - “एक करोड़ ।”
“अभी ।”
“चड़या हुआ है नी ? यहां क्या नोट छापने की मशीन लगी है ?”
“फिर क्या बात बनी ?”
“पैसा तेरे पास पहुंच जायेगा ।”
नसीबसिंह ने इनकार में सिर हिलाया ।
“वडी बोला न नी....”
“झामनानी साहब, पुलिस के महकमे में मैं कल भरती नहीं हुआ था ।”
“वडी क्या कहना चाहता है नी ?”
“एक बार क्राइसिस का ये दौर गुजर गया तो फिर आप मेरी शक्ल भी नहीं पहचानेंगे ।”
“फिर कैसे बात बनेगी ?”
“हेरोइन....”
“हेरोइन क्या ?”
“मेरे हवाले करो । रकम देना और अपना माल ले जाना ।”
“कितना काबिल पुटड़ा है ! चुटकियों में हल सोच लेता है हर प्राब्लम का । वडी डन नी ।”
“अमरदीप और शैलजा का काम आप लोगों को तमाम करना होगा ।”
“वडी कैसे नी ? वो तो हथियारबन्द हैं ।”
“दो घन्टे का वक्फा खत्म होते ही वो हथिायार डाल देंगे ।”
“फिर क्या बात है ! फिर वो हथियार हम उठा लेंगे । क्यों, सरदार साईं ?”
“बिल्कुल जी ।” - पवित्तर सिंह तत्काल बोला - “उन विश्वासघातियों को, उन कीरतघनों को सजा तो मिलनी ही चाही दी ए ।”
“बराबर मिलेगी नी । विश्वासघातियों को भी जो कि पीछे छूट गये और कृतघ्नों को भी जो यहां से खिसक गये ।”
“वदिया ।”
“लेकिन इन्पेक्टर साईं, अगर पहले दांव लग गया तो जो करेगा, तू करेगा ।”
“पहले दांव” - नसीबसिंह बोला - “कहां से लग जायेगा ?”
“मैं अगर बोला साईं, अगर... अगर बोला ।”
“ठीक है । अगर...”
तभी दरवाजा खुला ।
इससे पहले कि वो लोग ठीक से दरवाजे की तरफ देख भी पाते, किसी को दरवाजे के भीतर धकेल दिया गया और दरवाजा फिर बदस्तूर बन्द हो गया ।
फर्श पर भरभरा कर आन गिरा हिम्मतसिंह उठ कर अपने पैरों पर खड़ा हुआ ।
“हिम्मतसिंह !” - झामनानी हैरानी से बोला ।
“जी, साहब जी ।” - अभिवादन करता हिम्मतसिंह अदब से बोला ।
“वडी तू किधर से टपका नी ?”
“साहब जी, हम आपको छुड़ाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन....”
“हम ! वडी हम बोला नी ?”
“हां, साहब जी ।”
“और कौन है तेरे साथ ?”
“बजाज साहब ।”
“बजाज ! वो कहां है नी ?”
“आसपास ही कहीं है, साहब जी । हम मुकाबले के लिये हथियार कब्जाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन बदकिस्मती से बाहर हमारी पोल पहले ही खुल गयी । फिर भी मेरे ख्याल से एक गन बजाज साहब के हाथ लग गयी है, वो बहुत जल्द अपनी चाल चलेंगे । साहब जी, देख लेना, बजाज साहब कुछ कर गुजरेंगे ।”
झामनानी खामोश रहा । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वो नई स्थिति उसके हित में थी या जो खिचड़ी अभी उसने नसीबसिंह के साथ पकाई थी, वो उसमें भांजी मरने वाली थी ।
झाड़ियों में छुपा बजाज चौकन्नी निगाहों से सामने देख रहा था ।
वो मरने से बाल बाल बचा था । ये करिश्मा ही था कि स्टेनगन से निकली गोलियों में से एक भी उसे नहीं लगी थी । रह रह कर वो हिम्मतसिंह को कोस रहा था जो कि उन दो जनों की तवज्जो अपने पर केन्द्रित किये नहीं रह सका था । ऐन वक्त पर गड़बड़ हो गयी थी इसीलिये कोई आधुनिक हथियार उसके हाथ लगने की जगह एक अधमरी सी रिवॉल्वर ही उसके हाथ लग पायी थी जिसमें कि सिर्फ चार ही गोलियां थीं ।
फिर भी शुक्र था कि चार तो थीं क्योंकि यूं आनन फानन हाथ लगी वो रिवॉल्वर खाली भी हो सकती थी । उस रिवॉल्वर के सदके अब कम से कम वो वहां टिका रह सकता था वरना भागते ही बनती । अब लाख रुपये का सवाल ये था कि क्या अमरदीप और शैलजा में से कोई उसके पीछे आयेगा ?
आये । - वो मन ही मन बोला - जरूर आये । भून के रख दूंगा । फिर उसी की स्टेनगन हथिया कर....
कोई उसके पीछे न आया ।
आखिरकार उसी ने आगे बढ़ने का निश्चय किया ।
“तो ये आपका आखिरी जवाब है ?” - ब्रजवासी बोला ।
“हां ।” - ए.सी.पी. सक्सेना गम्भीरता से बोला - “ये बहुत बड़ा केस है । इतना व्यापक कवर अप मेरे बस की बात नहीं ।”
“मालामाल हो जाओगे, भैया ।”
“मुझे माल से कोई अदावत नहीं लेकिन जो काम नहीं हो सकता वो नहीं हो सकता ।”
“तुम्हारे इन्स्पेक्टर के शायद ऐसे ख्यालात न हों ।”
“नसीबसिंह मेरे से बाहर नहीं जा सकता ।”
ब्रजवासी की भोगीलाल से निगाह मिली ।
चिन्तित भोगीलाल ने अनभिज्ञता से कन्धे उचकाये ।
“ठीक है ।” - गहरी सांस लेकर ब्रजवासी बोला - “आइये चलें । और देखें कि कौन कहां जा सकता है और कहां नहीं जा सकता ।”
“पिस्तौल मुझे दो ।” - सक्सेना बोला ।
“क्यो ?”
“या इसे यहीं छोड़ो ।”
“लेकिन क्यों?”
“पिस्तौल की ऐंठ में तुम कोई गलत कदम उठाने पर आमादा हो सकते हो ।”
“मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं । मैंने गलत कदम उठाना होता तो सबसे पहले तुम्हें शूट करता ।”
“यहां गोली चली तो तुम्हारे जोड़ीदारों का क्या होगा ?”
“वही जो तुम्हारे इन्स्पेक्टर का होगा ।”
“यहां चली गोली की आवाज” - भोगीलाल अर्थपूर्ण स्वर में बोला - “सामने तक नहीं पहुच पायेगी ।”
“तुम लोग ख्वाब देख रहे हो, वक्त जाया कर रहे हो और उस लड़के अमरदीप की वार्निंग को गम्भीरता से नहीं ले रहे हो ।”
“भैय्यन” - भोगीलाल दबे स्वर में बोला - “ये ठीक कह रिया है ।”
ब्रजवासी के चेहरे पर अनिश्चय के भाव आये ।
“पिस्तौल मन्ने दे, मैं वा को वापिस टंकी में डाल कर आता हूं ।”
हिचकिचाते हुए ब्रजवासी ने पिस्तौल उसे सौंप दी । भोगीलाल लैवेटरी में गया और हाथ पोंछता वापिस लौटा ।
“चलो ।” - वो बोला ।
तीनों टायलेट से निकले और वापिस लौट पड़े ।
निर्विघ्न बजाज सामने बरामदे की छत पर पहुंच गया ।
कोने के एक रोशनदान से उसने भीतर झांका तो उसे झामनानी और पवित्तर सिंह के दर्शन हुए, फिर उसे इन्स्पेक्टर दिखाई दिया और आखिर में एक तरफ फर्श पर बैठा हिम्मतसिंह दिखाई दिया ।
इन्स्पेक्टर वहां क्या कर रहा था ?
लेकिन प्रत्यक्षत: झामनानी और पवित्तर सिंह के लिये वो कोई खतरा नहीं था क्योंकि वो तो बड़े दोस्ताना अन्दाज से झामनानी के साथ बतिया रहा था ।
उसने हौले से रोशनदान के शीशे पर दस्तक दी ।
सबसे पतले कान झामनानी के ही निकले । उसने तत्काल सिर उठाया ।
बजाज ने एक उंगली से उसका अभिवादन किया और फिर वो ही उंगली होठों पर रखी ।
झामनानी के नेत्र फैले, उसने हाथ के इशारे से सवाल किया ।
बजाज ने रिवॉल्वर शीशे के सामने की और फिर उसे इशारे से समझाया कि वो उसे रोशनदान से नीचे लटकाने जा रहा था ।
झामनानी का सिर सहमति में हिला ।
तब तक बाकी तीन जनों की तवज्जो भी रोशनदान की तरफ जा चुकी थी । सब भौंचक्के से मुंह उठाये देख रहे थे ।
बजाज ने रोशनदान के पल्ले को हौले से गोल घुमाया तो वो निशब्द खुल गया ।
जो कि अच्छी बात थी ।
वरना उसे शीशा तोड़ना पड़ता ।
एक डोरी से बन्धी रिवॉल्वर को उसने रोशनदान से पार कमरे में लटकाया और फिर डोरी को ढील देनी शुरू कर दी ।
झामनानी ने नसीबसिंह को इशारा किया ।
सहमति में सिर हिलाता नसीबसिंह अपने स्थान से उठा और रोशनदान के नीचे पहुंच गया ।
डोरी से बन्धी रिवॉल्वर धीरे धीरे नीचे सरकती आ रही थी ।
***
“रुक जाइये ।” - एकाएक अमरदीप कर्कश स्वर में बोला ।
तीनों ठिठके ।
“क्या है ?” - ब्रजवासी भुनभुनाया ।
अमरदीप ने उसकी तरफ तवज्जो न दी ।
“आपके कोट की” - वो भोगीलाल से बोला - “दायीं जेब में क्या है ?”
“कुछ नहीं ।” - भोगीलाल सहज भाव से बोला ।
“जेब लटक रही है । जैसे कोई भारी चीज भीतर हो । जाती बार ऐसा नहीं था । क्या है जेब में ?”
“बोला न, कुछ नहीं ।”
“मैं अन्धा नहीं हूं । कुछ तो यकीनन है ।”
“तो आ के निकाल ले, भैया ।”
अमरदीप ने शैलजा को इशारा किया ।
शैलजा ने पूरी मुस्तैदी से अपनी स्टेनगन से भोगीलाल को कवर कर लिया ।
“अपना हाथ जेब से बाहर निकालिये ।” - अपनी स्टेनगन भी सामने तानते हुए अमरदीप ने आदेश दिया ।
भोगीलाल ने खाली हाथ बाहर निकाला ।
“जो कुछ जेब में है, वो आपके हाथ में होना चाहिये था ।”
“तन्ने वहम सतावे है । जेब में कुछ न है ।”
“ए.सी.पी. साहब !”
“बोलो ।” - सक्सेना बोला ।
“और थोड़ी देर बाद हम वैसे ही आपके हवाले हैं इसलिये मुझे उम्मीद है कि आप भी पसन्द नहीं करेंगे कि दो घन्टे के इन्तजार के वक्फे के टेल ऐंड पर अब कोई खूनखराबा हो । नहीं ?”
“हां ।”
“तो बरायमेहरबानी भैय्या जी की जेब में जो कुछ है, उसे निकालिये ।”
सहमति में सिर हिलाता ए.सी.पी. आगे बढा ।
“पीछे से । पीछे से । मेरे और इनके बीच में आने की कोशिश न कीजिये ।”
“सॉरी ।”
सक्सेना भोगीलाल के पीछे पहुंचा, उसने अपना हाथ उसके कोट की जेब में डाला तो उसके नेत्र फैले ।
भोगीलाल पिस्तौल टायलेट की टंकी में वापिस डाल कर नहीं आया था, वो उसकी जेब में मौजूद थी । अमरदीप की चौकन्नी निगाह जेब की बदली दशा पर न पड़ गयी होती तो खूनखराबा होने में कोई कसर बाकी नहीं रही थी ।
उसने पिस्तौल जेब से निकाली ।
“पिस्तौल !” - अमरदीप के नेत्र फैले - “कहां से आयी ?”
कोई उत्तर न मिला ।
“खैर, जहां से भी आयी, अब कम से कम वो गलत हाथों में नहीं है ।”
“मैं इसे” - सक्सेना बोला - “तुम्हारी तरफ उछालूं ?”
“नहीं, अपने पास रखिये । आप सीनियर पुलिस आफिसर हैं, मुझे आप पर एतबार है ।”
“थैंक्यू ।”
“जरा और वक्त की बात है, उसके बाद वैसे भी सब आप ही के हवाले होना है इसलिये मैं उम्मीद नहीं करता कि आप खामखाह गोली चलाने की कोशिश करेंगे ।”
“यू आर राइट ।”
“आप दोनों आगे बढिये ।”
ब्रजवासी और भोगीलाल ने आज्ञा का पालन किया ।
अपनी तरफ तनी दो स्टेनगनों के जेरेसाया भारी कदमों से चलते वो कोने के बन्द दरवाजे के सामने पहुंचे ।
लम्बे डग भरता अमरदीप उनके पीछे पहुंचा ।
“दरवाजा खोलिये” - वो पीछे से फासले से बोला - “भीतर दाखिल हो जाइये और इन्स्पेक्टर साहब को बाहर भेज दीजिये ।”
ब्रजवासी ने दरवाजा खोला ।
दोनों ने चौखट के भीतर कदम डाला ।
उनकी निगाह कमरे में मौजूद इन्स्पेक्टर नसीबसिंह पर पड़ी तो उनके नेत्र फैले ।
नसीबसिंह के हाथ में गन थी ।
दोनों ने तत्काल दरवाजे के दायें बायें छलांग लगाई ।
पिस्तौल ने दो बार आग उगली ।
दोनों गोलियां अमरदीप की छाती में धंस गयीं । वो कटे वृक्ष की तरह बरामदे के फर्श पर गिरा ।
एक छलांग में नसीबसिंह चौखट पर पहुंचा और उसने शैलजा की तरफ दो फायर झोंके ।
दोनों गोलियां उसके माथे में घुस गयीं ।
अमरदीप की तरह शैलजी भी धराशायी हो गय और स्टेनगन उसके हाथ से निकल गयी ।
मजबूती से रिवॉल्वर अपने सामने ताने नसीबसिंह ने बारमदे में कदम रखा । उसने कई बाद बारी बारी पिस्तौल का रुख अमरदीप और शैलजा की तरफ किया, फिर जब आश्वस्त हो गया कि उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे तो उसने एक विजेता के से भाव से अपने ए.सी.पी. की तरफ देखा ।
“नसीबसिंह !” - भौंचक्का सा सक्सेना बोला - “ये तुमने क्या किया ?”
“क्या किया ? हथियारबन्द आतताइयों पर, जो कि हमें बन्धक बनाये हुए थे, गोली चलायी और क्या किया !”
“ये दोनों किसी के लिये कोई खतरा नहीं थे ।”
“ये आपका ख्याल है । मेरा ऐसा ख्याल नहीं था ।”
“तुम्हारे पास गन कहां से आयी ?”
“आ गयी कहीं से । आपके हाथ में जो पिस्तौल है, उसमें गोलियां हैं ?”
“हैं । क्यों पूछ रहे हो ?”
“बताता हूं ।”
वो सहज भाव से चलता हुआ सक्सेना के पास पहुंचा ।
“इस रिवॉल्वर में पांच गोलियां थीं जिनमें से चार मैंने चला दीं । आप ये रिवॉल्वर सम्भालिये और वो पिस्तौल मुझे दीजिये ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि अभी हमने इनके दो हिमायतियों से भी दो चार होना है ।”
“हिमायती ! हिमायती कहां से आ गये ?”
“पता नहीं कहां से आ गये ! एक ऊपर छत पर है और दूसरा सामने झाड़ियों में कहीं है ।”
“कमाल है !”
“उन्हीं की वजह से मुझे दोनों की नीयत पर शक हुआ ।”
“क्या शक हुआ ?”
“ये सरेन्डर नहीं करने वाले थे ।”
“लेकिन ये तयशुदा बात थी कि दो घन्टे बाद...”
“किससे तयशुदा थी ?”
“भई, सोहल ने साफ ऐसा कहा था कि....”
“कहने वाला तो कह कर उड़नछू हो गया । पीछे इन्होंने उसके कहे पर अमल किया या नहीं किया, उसे क्या खबर ?”
“तुम बड़ी अजीब बातें कर रहे हो, नसीबसिंह । मैं कहता हूं दो घन्टे बाद सरेन्डर न करने जैसी इनकी कोई मंशा नहीं थी ।”
“पहले नहीं थी लेकिन हिमायती आ गये तो....”
“हिमायती ! मुझे तुम्हारी बात पर एतबार नहीं ।”
“मुझे पिस्तौल दीजिये और पांच मिनट की मोहलत दीजिये, अभी एतबार आता है ।”
“लेकिन...”
“अब दीजिये भी ।”
नसीबसिंह ने जबरन उसकी उंगलियों में से पिस्तौल निकाल ली और उसकी जगह उसे रिवॉल्वर थमा दी । फिर वो ए.सी.पी. से परे हटने लगा ।
“तुमने नाहक गोली चलायी ।” - सक्सेना असंतोषपूर्ण स्वर में बोला - “इन लोगों के खिलाफ दो ही गवाह थे और दोनो को तुमने मार डाला । नसीबसिंह, मैं तुम्हारी इस हरकत से सन्तुष्ट नहीं हूं ।”
“अच्छा !” - नसीबसिंह झुक कर शैलजा के हाथों से निकली स्टेनगन उठाता हुआ बोला ।
“हां । कहीं जरूर कोई गड़बड़ है ।”
“गड़बड़ ?”
“हां, गड़बड़ । मुझे दाल में काला दिखाई दे रहा है ।”
“दाल होगी तो काला भी होगा ही ।”
“जो बात मुझे सबसे ज्यादा खटक रही है, वो ये है कि तुम्हारे पास गन कहां से आयी ?”
“कहीं से तो आयी ही ।”
“अब कहानी मेरी समझ में आ रही है । वो दादा लोग पहले ही कह रहे थे कि मैं उनकी लाइन पर नहीं चलूंगा तो तुम चलोगे । नसीबसिंह, कितने में बिका ?”
“क्यों पूछते हो ? हिस्सा बंटाना चाहते हो ?”
“तुम्हारा ये धृष्ट जवाब ही साबित कर रहा है कि तुम बिक चुके हो, तुमने दादा लोगों को बचाने के लिये इन दो जनों को शूट कर दिया ताकि ये उनके खिलाफ गवाह न बन पाते ।”
“कितने समझदार हो !”
“नसीबसिंह” - सक्सेना ने रिवॉल्वर सामने तानी - “मैं तुझे नहीं छोडूंगा । इसमें जो एक गोली बाकी है, समझ ले कि उस पर तरेा ही नाम लिखा है ।”
नसीबसिंह हंसा ।
“हंस मत, कमीने । और ये ले ।”
सक्सेना ने घोड़ा खींचा तो एक पिट की आवाज होकर रह गया ।
“खाली है ।” - नसीबसिंह बोला - “इसमें पांच नहीं चार ही गोलियां थीं जो कि आपने इन आतताइयों पर चला दीं ।”
“मैंने !” - सक्सेना हौलनाक लहजे से बोला ।
“आत्मरक्षा के लिये । खुद को और अपने इन्स्पेक्टर को बचाने के लिये । बहुत बहादुरी का काम किया आपने । जरूर आपको पुलिस मैडल मिलेगा । मरणोपरान्त ।”
“क... क्या ?”
“प्राण सक्सेना । ए.सी.पी. दिल्ली पुलिस । फर्ज की राह पर चलते हुए वीरगति को प्राप्त हुए । महकमे का नाम रौशन किया ।”
“कमीने, तेरी बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा ।”
“जब हकीकत बयान करने के लिये मैं ही मैं बाकी बचा होऊंगा तो क्यों नहीं करेगा ?”
“क्या मतलब ?”
“ये मतमलब ।”
नसीबसिंह ने स्टेनगन का घोड़ा खींचा ।
कई गोलियां सक्सेना के जिस्म में धंस गयीं ।
“गुड बाई, ए.सी.पी. साहब ।”
ए.सी.पी. प्राण सक्सेना जब पछाड़ खाकर बरामदे के फर्श पर गिरा, रिवॉल्वर तब भी उसके हाथ में दबी हुई थी ।
***
0 Comments