मुंबई!

धारावी का, झोपड़-पट्टी वाला लंबा-चौड़ा इलाका। बाहरी इंसान उस इलाके में भटक जाए तो बिना किसी सहायता के बाहर निकलना कठिन हो जाए। पतली-पतली सुरंग जैसी गलियों का जाल। टेढ़े-मेढ़े रास्ते। वहां से खुले में देखना हो तो सिर्फ आसमान ही दिखता है, वरना झोपड़-पट्टी के घरों के खुले दरवाजे। झोपड़ी के बाहर बैठकर कपड़े धोते या बर्तन साफ करते लोग। झोपड़ियों पर पड़े सूखे कपड़े तो कहीं इकट्ठा हो चुके पानी की कीचड़। अजीब-सी दुनिया थी इस झोपड़-पट्टी की। शरीफ लोग भी यहां रहते और मवाली भी। परन्तु कोई किसी को कुछ न कहता। सब अपने कामों में लगे रहते। यहां रात कभी नहीं होती। शाम को कुछ लोग थके-टूटे वापस लौटते तो कुछ लोग तैयार होकर काम पर निकलते तब। इलाके की झोपड़ियों में ऐसे प्राइवेट बार चलते, जोकि शाम को शुरू होते और चार बजे तक चलते रहते।

पीने वाले पीकर हल्ला भी करते।

परन्तु पुलिस कभी नहीं आती। ऐसा करने वालों के अपने आदमी थे जो सारा मामला सम्भाल लेते थे। आस-पड़ोस के लोग शोर होने पर एतराज करते तो उन्हें भी चुप करा दिया जाता, और तो और ऐसे ठिकानों के आसपास शाम होते ही लड़कियां भी मंडराने लगती कि रात भर के लिए ग्राहक मिल जाएं और कमाई हो।

सब कुछ होता था, पर चुपके-चुपके से।

धारावी में ऐसे पचासों ठिकाने थे जो रात को जाग जाते थे। ये ऐसा इलाका था जहां पुलिस भी कदम रखने में पचास बार सोचती थी। इधर आने वाले कई पुलिस वाले गायब हो चुके थे। ना लाश मिली ना वो खुद।

उसका नाम पदम गोसावी था जो कि धारावी की गलियों के जाल में, एक गली में खड़ा बार-बार अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को देख रहा था। दस मिनट से वो यहां खड़ा था। शाम के आठ बज रहे थे। अभी-अभी अंधेरा हुआ था। वो तीस बरस का स्वस्थ व्यक्ति था। रंग सांवला था, बाल छोटे और घुंघराले थे। कमीज-पैंट पहन रखी थी, पांवों में लैदर की चप्पलें थीं। पांच मिनट और बीते कि उसके पास पैंतीस-चालीस बरस का एक व्यक्ति पहुंचा। उसका नाम बलबीर सैनी था।

"कहां रह गया था तू?" पदम गोसावी उसे देखते ही कह उठा।

"सीधा आया हूं। कार पार्क करने की जगह नहीं मिल रही थी।" बलबीर सैनी ने मुस्कुराकर कहा।

दोनों गली में आगे बढ़ गए।

"जब तेरा फोन आया तो तब मैं काम से फारिग ही हुआ था।" पदम गोसावी ने कहा।

"क्या काम किया आज?"

"वो ही।" पदम गोसावी ने लापरवाही से कहा--- "सत्तर लाख की ड्रग्स करकरे तक पहुंचानी थी। दस हजार मिला इस काम का।"

"दस हजार।" सैनी मुस्कुराया--- "फिर तो आज तेरी तरफ से पार्टी होगी।"

"क्यों मजाक करता है। अपनी ऐसी किस्मत कहां जो यारों को पार्टी दे सकूं। घर नहाने-धोने गया तो बीवी ने दस हजार झपट लिए। इसी बात को लेकर साली से झगड़ा भी हो गया।" गोसावी ने मुंह बनाया।

"तेरे को शादी करने को किसने कहा था?"

"उसी ने ही। साली पट गई तो शादी भी हो गई।" गोसावी मुस्कुराया।

"तो फिर भुगत भी। औरत को पालना, हाथी को पालने से कठिन है।" बलबीर सैनी हौले से हंसा--- "हाथी खा-पीकर मस्त हो जाता है, जबकि औरत खा-पीकर बिना रुके बोलना शुरु कर देती है। ऊपर से उसका कहा सुनना भी पड़ता है। ना सुनो तो और भी बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाती है। पता नहीं औरतें चाहती क्या हैं। ये समझ में नहीं आता।"

"तेरे को क्या पता... तूने तो शादी नहीं की।"

"देखा बहुत है तेरे जैसों का हाल...।"

फिर वो उसी गली में पड़ने वाले दारूखाने में घुस गए। वहां लाइटें जल रही थीं। लाइटों के आसपास मच्छर घूम रहे थे। वातावरण में शराब और सिगरेट की स्मैल फैली थी। वो दोनों आगे की तरफ बढ़ गए। ये पन्द्रह-बीस झोपड़ियों की जगह पर दारुखाना था। हर तरफ टेबल-कुर्सी, बेंच लगे थे। छोकरे बोतलें और चने की कटोरी सर्व कर रहे थे।

"सलाम साब...।" तभी सामने से आता छोकरा उन्हें देखकर मुस्कुरा पड़ा।

"कैसा है रे तू...?" बलबीर सैनी ने उसका सिर थपथपाया।

"एकदम फिट सेठ...।"

"अभी उधर हमारे पास आना...। समझा क्या?"

"पहुंचा सेठ...।"

वहां अब गाना भी बजने लगा था, बिंदिया चमकेगी, चूड़ी खनकेगी।

दारूखाने का माहौल गर्म होता जा रहा था। काफी लोग वहां बैठे थे। एक जगह बार काउंटर बना रखा था। चार-पांच मोटे-तगड़े बदमाश खड़े थे कि कोई पंगा हो तो फौरन संभाल लें। दो दादे दारूखाने में घूमते दिखाई दे रहे थे। यहां पीने के बाद हर रोज ही कोई-न-कोई पंगा खड़ा हो जाता था। पीने वाले जब आते तो दोस्तों की तरह हाथ पकड़े होते और पीने के बाद एक-दूसरे के दुश्मन बने एक-दूसरे को गालियां देने लगते। ऐसे लोगों को चुप कराकर, वहां से दूर छोड़ आने के लिए ही वो दादे लोग वहां मौजूद रहते। ऐसी बात को यहां सामान्य घटना मानी जाती थी।

पदम गोसावी और बलबीर सैनी ने एक टेबल संभाल ली।

गोसावी ने सिगरेट सुलगाकर कहा।

"क्या चल रहा है आजकल तेरा?"

"मेरा सब कुछ वही है, कुछ भी नहीं बदला।" बलबीर सैनी मुस्कुराया।

"आज क्या पिलायेगा, अंग्रेजी, देसी या लोकल ब्रांड।"

"अंग्रेजी पिला देता हूं। तू तो मेरा खास यार...।"

तभी वो लड़का आ पहुंचा।

"क्या मांगता सेठ?"

"हजार रुपये वाली कोई भी बोतल ले आ।" बलबीर सैनी ने कहा--- "साथ में पानी...।"

"लाया सेठ...।" कहने के साथ ही वो चला गया।

"बहुत माल है जेब में?" पदम गोसावी ने होंठ सिकोड़े।

"खास ज्यादा नहीं। फिर हमारा मिलना भी तो कम होता है। आज हजार रुपए वाली सही।"

"महंगी पीकर दिमाग ठीक रहता है, उछलता नहीं।" गोसावी ने हंसकर कहा।

लड़का बोतल ले आया। पानी का जग रखा। गिलास रखे। दो कटोरी में चने भी ले आया था।

"हजार दे दो सेठ। अपना सेठ पीने से पहले पैसे मांगता है। बाद में लफड़ा होता है।" लड़का बोला।

बलबीर सैनी ने हजार रुपया उसे देते हुए कहा---

"बाद में तेरे को पचास दूंगा, हमारा ख्याल रखना, पूछने आते रहना...।"

"आता रहूंगा सेठ...।" लड़का चला गया।

दोनों ने पीनी शुरू कर दी।

एक पैग खत्म हुआ तो दूसरा चालू हो गया।

नशा अब सवार होने लगा था।

"काम का खबर दे गोसावी?" बलबीर सैनी दूसरे पैग का तगड़ा घूंट भरते बोला।

"आ गया अपने मतलब की बात पर।" पदम गोसावी की आवाज में नशे का असर आ गया था।

"हजार रुपए की बोतल तुझे यूं ही थोड़े ना पिला रहा हूं...।" सैनी मुस्कुराया।

"मतलब कि हजार रुपए की बोतल पिलाकर, अपना मतलब निकाल लेना चाहता है। मैं बेवकूफ हूं क्या?"

"खबर के मुताबिक नकद भी दूंगा...।"

"तू मुझे मरवाएगा सैनी।"

"ऐसा अभी तक नहीं हुआ।"

"अब हो गया तो? ये खतरे वाला काम है। बार-बार मेरे से खबरें मत लिया कर।"

"तेरे पर कोई खतरा नहीं आएगा। तूने कितनी बार मुझे खबर दी, और मैंने तुझे नोट दिये। खतरा आया? नहीं आया। मेरे पर भरोसा रख। सैनी अपना मुंह कभी नहीं खोलता कि खबर कहां से आई। अपना तो धंधा ही खबरें इकट्ठी करना है अंडरवर्ल्ड से और जिसके काम की खबर हो, उसे बेच देता हूं। उम्र बीत गई यह सब करते-करते। सब ठीक चल रहा है।"

"मैं फंसना नहीं चाहता।" पदम गोसावी ने गिलास खाली कर दिया।

"नहीं फंसेगा तू कभी। वादा मेरा। मुझ पर भरोसा रख। हम दोनों अच्छे दोस्त बन चुके हैं।"

"वो तो ठीक है। पर कभी बात बाहर गई तो वागले रमाकांत मुझे छोड़ेगा नहीं।"

"मेरे होते बात बाहर नहीं जाएगी।"

"तू मुझे मरवा के रहेगा।"

"ऐसा क्यों सोचता है। क्या मेरे पर से भरोसा उठ गया है जो ऐसी बात कहता है।"

पदम गोसावी पुनः अपना गिलास तैयार करने लगा तो बलबीर सैनी कह उठा।

"बोतल की चिंता मत कर। और आ जाएगी।"

"हां, मुझे मुर्गा बनाने के लिए मुझे दबाकर पिलायेगा अब तू।" गोसावी ने मुस्कुराकर कहा।

तभी लड़का आ गया।

"कुछ लाऊं सेठ?"

"दो कटोरी चना और ले आ। उसमें नमक-नींबू डाल देना।" बलबीर सैनी बोला।

"लाया...।" लड़का फौरन पलटकर चला गया।

पदम गोसावी ने नये गिलास से घूंट भरकर कहा।

"तू क्या मुझे ही पिलाने यहां आया है। अपना गिलास देख...।"

बलबीर सैनी ने फौरन गिलास खाली कर दिया। फिर नया भरा।

"है कोई खबर काम की?"

"तेरे को वागले रमाकांत से डर नहीं लगता?" वो मुंबई अंडरवर्ल्ड किंग है।"

"मैं उससे नहीं तेरे से बात कर रहा हूं, तू वागले रमाकांत के लिए काम करता है। उसकी कोई खबर मुझे देगा तो वो कैसे जान पाएगा कि तूने मुझे कुछ बताया। हम दोनों के मुंह बंद हैं। हमारी बातों को कोई नहीं जानता कि तू मुझे वागले रमाकांत की भीतर की खबर देता है और उसे मैं आगे बेच देता हूं। तेरे को भी नोट देता हूं या नहीं?"

"देता है...।"

"हां तो

"हाथों-हाथ देता हूं। आगे मेरी खबर बिकती है या नहीं, या कब बिकती है, कुछ पता नहीं होता। पर तेरे को उसी वक्त मैं पैसे दे देता हूं, बता कभी उधार किया है इस सिलसिले में तेरे साथ...।"

पदम गोसावी ने गहरी सांस ली।

"हम यहां मिलते हैं कि कोई हमें मिलता देखे नहीं। किसी को कुछ पता ना चले।"

"पर मुझे वागले रमाकांत का डर लगा रहता है कि उसे पता ना चल जाए कि उसकी खबरें मैं तुझे देता हूं।"

"वहम मत कर। वहम करेगा तो नहीं भी फंसना, तब भी फंसेगा।"

पदम गोसावी ने आधा गिलास खाली किया।

बलबीर सैनी ने भी घूंट भरा।

"नेपाल गया है कभी?" बलबीर सैनी ने पूछा।

"नहीं।"

"प्लेन पर सफर भी नहीं किया?"

"नहीं...।"

"तो इस बार पक्का।" सैनी टेबल पर हाथ मारकर बोला--- "तेरे और तेरी बीवी के लिए नेपाल के लिए, हवाई जहाज का टिकट बुक कराकर दूंगा और वहां का खर्चा भी मैं दूंगा, एडवांस। नेपाल में मौज करना।" सैनी मुस्कुराया।

"तू दूसरे को फंसाना खूब जानता है।" गोसावी भी मुस्कुरा पड़ा।

"ये धंधा है गोसावी। सब ऐसे ही चलता है। इस बार जो तू खबर देगा, उससे मुझे कम कमाई हो या ज्यादा, पर तेरे को मैं नेपाल के दो टिकट और वहां का पचास हजार का खर्चा तेरे हाथ पर रख दूंगा। नेपाल में कसीनो होते हैं, पता है?"

"पता है।"

"वहां मशीनों पर खेलना। शायद तू लाखों जीत जाए। वो तेरी किस्मत की बात है।"

लड़का दो कटोरी चनों की रख गया।

बातों के साथ-साथ खाना-पीना भी चल रहा था। बोतल खत्म होने को थी।

"पेट भर के पी।" सैनी बोला--- "छोकरे से नई बोतल मंगवा लेता हूं।"

"पांच हजार मेरे को भी दे देना। जेब खाली है।"

"ले लेना। तूने पहले भी मेरे से सात हजार ले रखे हैं मैंने कभी वापस मांगे?"

"नहीं।"

"कभी तेरे को इस बात का एहसास कराया कि सात हजार तेरे से लेने हैं।" बलबीर सैनी बोला।

"नहीं कराया।"

"अब तूने पांच हजार के लिए कहा तो मैंने फौरन हां कर दी। मैं तेरे को दोस्त मानता हूं गोसावी। मुझ पर भरोसा रखकर चल। दोस्ती के साथ थोड़ा-बहुत बिजनेस भी हो जाए तो क्या बुरा है। खर्चे तेरे भी हैं, मेरे भी हैं। बता है कोई खबर?"

"अभी तो नहीं है।"

"सोच ले... शायद हो?"

"अभी नहीं है। जब हुई तो तेरे को फोन करूंगा।" पदम गोसावी ने सिर हिलाकर कहा।

"खबर ढूंढ। तू वागले रमाकांत के काम करता है। तेरे लिए खबर ढूंढना मुश्किल नहीं है। इस बारे में मेरे को जल्दी फोन करना...।" कहने के साथ ही बलबीर सैनी ने जेब से छः हजार रुपये निकालकर उसे दिए--- "छः हैं। पांच हजार तेरे और हजार की नई बोतल मंगवाकर मजे कर। मुझे कहीं पहुंचना है, नहीं तो मैं तेरे साथ अभी और बैठता। देखा जाए तो अब तेरी तरफ बारह हजार हो गए। पर मेरे को वापस नहीं चाहिए। तू मुझे कोई बढ़िया खबर दे वागले रमाकांत की और नेपाल की दो टिकटें और पचास हजार खर्चे का मेरे से ले। घाटा-नुकसान-फायदा मेरा। उसकी तू परवाह मत कर। बता, कब फोन करेगा मुझे?"

"जल्दी करूंगा। पहले कोई बात तेरे काम की तो ढूंढ लूं...।"  पदम गोसावी ने कहा।

बलबीर सैनी ने मुस्कुराकर उसका कंधा थपथपाया फिर दारूखाने से बाहर निकलता चला गया।

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गुजरात का शहर--- अहमदाबाद!

शाम के आठ बजे जगमोहन ने कार को डोलका इलाके में एक होटल की पार्किंग में रोका। बगल वाली सीट पर देवराज चौहान अधलेटा-सा था। कार पर धूल की हल्की परत चिपकी हुई थी। इस वक्त वो सीधा मुंबई से अहमदाबाद पहुंचे थे। सुबह दस बजे चले थे। सारे सफर में जगमोहन ने ही कार ड्राइव की थी। देवराज चौहान सीट पर पसरा रहा था। रास्ते में पड़ने वाले सूरत शहर में लंच लिया था।

जगमोहन ने इंजन बंद किया और देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान अभी भी उसी मुद्रा में पसरा पड़ा था।

"अब उठो भी। रात यहीं, कार में सोने का इरादा है क्या?" जगमोहन बोला।

"कहां हैं हम?" देवराज चौहान सीधा हुआ।

"डोलका इलाके में। गुलाब हाउस नाम के उसी होटल की पार्किंग में हैं जहां तीन साल पहले भी ठहरे थे।" जगमोहन ने कहा।

देवराज चौहान ने नजरें घुमाईं।

पार्किंग में पर्याप्त रोशनी थी। वहां पच्चीस-तीस और कारें भी खड़ी दिख रही थीं। पार्किंग बॉय भी घूमते नजर आ रहे थे। बगल में होटल तीव्र रोशनी के साथ जगमगा रहा था।

दोनों कार से बाहर निकले। जगमोहन ने पीछे की सीट पर रखा बैग उठा लिया। तभी पार्किंग वाला लड़का पास आया। उसने पहले कार का नंबर देखा फिर दोनों से बोला।

"रात रुकेंगे या चले जाएंगे?"

"रुकेंगे।" जगमोहन बोला।

"तो कार उस तरफ लगा दीजिए।" कहते हुए उसने एक तरफ इशारा किया।

जगमोहन ने बैग देवराज चौहान को दिया और कार को वहीं लगा दिया जहां लड़के ने कहा था।

दोनों होटल के भीतर पहुंचे। कमरा लिया जो कि उन्हें पहली मंजिल पर मिला। अभी वे कमरे में पहुंचे ही थे कि पीछे-पीछे वेटर हाजिर हो गया।

"सर, इस समय कुछ लेना चाहेंगे या सीधा डिनर ही लेंगे?" वेटर ने पूछा।

"कुछ नहीं...।" जगमोहन ने कहना चाहा।

"लार्ज पैग स्कॉच व्हिस्की का ले आओ।" देवराज चौहान बोला और बाथरूम में चला गया।

हाथ-मुंह धोकर कमरे में पहुंचा और जगमोहन से कहा।

"अश्विन पटेल को फोन लगा दे...।"

जगमोहन ने मोबाइल निकाला और नंबर मिलाने लगा। वो आराम से सोफे पर बैठा था और टांगे जूतों सहित सेंटर टेबल पर रखी थी। इस दौरान देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।

जगमोहन की बात हो गई।

"कौन?" उधर से आवाज आई। जगमोहन ने अश्विन पटेल की आवाज को पहचाना।

"हम अहमदाबाद आ गए हैं पटेल...।"

"जगमोहन...?"

"हां, मैं ही हूं।"

"देवराज चौहान भी है?"

"वो भी है। तूने हमारा साढ़े चार करोड़ गिन रखा होगा। बोल कब कहां पहुंचना है।"

"अभी?"

"अभी में क्या हर्ज है।"

"तुम कल फोन करना।" अश्विन पटेल ने उधर से कहा।

"दिन बहुत लंबा होता है, कल कब फोन करूं?"

"बारह बजे कर लेना...।"

"नोट गिन रखे हैं ना?"

"साढ़े चार करोड़ गिनने में वक्त ही कितना लगता है।" उधर से पटेल ने कहा।

"तभी तू दो महीने से लटका रहा है हमें। मुंबई से बार-बार फोन करके थक गया मैं।"

"अब तो मैंने ही बुलाया है कि आकर साढ़े चार करोड़ ले लो...।"

"तूने कहां बुलाया, मेरे बार-बार फोन करने पर, तूने अहमदाबाद पहुंच जाने को कहा और...।"

"छोड़ो भी। कल बारह बजे फोन करना।" इतना कहकर अश्विन पटेल ने उधर से फोन बंद कर दिया था।

"कमीना कहीं का।" जगमोहन ने बड़बड़ाकर फोन कान से हटाया और बोला--- "कल बारह बजे फोन करने को कहता है।"

देवराज चौहान ने सिर हिला दिया।

तभी वेटर स्कॉच व्हिस्की का लार्ज पैग के साथ आ पहुंचा।

■■■

अगले दिन साढ़े ग्यारह बजे देवराज चौहान और जगमोहन तैयार हो चुके थे। नाश्ता भी कर लिया था। अश्विन पटेल को फोन करने के लिए वे बारह बजने का इंतजार कर रहे थे।

"पटेल से साढ़े चार करोड़ लेते ही हम मुंबई के लिए चल देंगे।" देवराज चौहान ने कहा--- "मैंने एक प्रॉपर्टी डीलर से कुछ बंगले दिखाने को कह रखा है। हमें नया बंगला खरीदना है। हमारा बंगला कई लोगों की निगाहों में आ चुका है। यहां हमें कभी भी खतरा आ सकता है। डीलर का फोन आया था कि उसने तीन बंगले देख रखे हैं। हम भी देख लें।"

"वापस जाकर पहले यही काम करते हैं।" जगमोहन बोला।

देवराज चौहान ने सिर हिला दिया।

"नगीना भाभी का फोन आया?" जगमोहन ने पूछा।

"नहीं, क्यों?"

"मुझे दो बार फोन आ चुका है। दोनों बार भाभी ने तुम्हारे बारे में ही पूछा कि तुम कहां हो, क्या कर रहे हो। कितने व्यस्त हो।"

देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े। होंठों पर मुस्कान आ गई।

"क्या हुआ?" जगमोहन के होंठों से निकला।

"मुझे नगीना से मिले, दो महीने से ऊपर हो गए हैं। वो जरूर मेरी राह देख रही होगी।"

"तो कुछ दिन भाभी के पास रह आना...।"

"नया बंगला देखना है, मुंबई पहुंचते ही पहला ये काम करना जरूरी है।"

"ये मैं देख लूंगा। तुम भाभी के पास जाना।" जगमोहन ने फैसला सुनाने वाले अंदाज में कहा।

"सरबत सिंह का फोन भी दो बार आया है, पर मैंने कॉल रिसीव नहीं की।" देवराज चौहान बोला।

"वही सरबत सिंह, जिसे साथ लेकर महीना भर पहले तुमने छोटा-सा काम किया था।"

"हां वही...।"

"जरूर वो दोबारा किसी और काम के लिए फोन कर रहा होगा।" जगमोहन ने सिर हिलाया--- "पिछले काम में तुमने सारा पैसा सरबत सिंह को दे दिया था। साले को लालच पड़ गया होगा कि इस बार भी तुम ऐसा ही करोगे।"

"उसकी बहन की शादी थी। उसे पैसे की जरूरत थी फिर वो मेरे लिए मामूली रकम थी जो मैंने उसे दी।"

"अब उसके चक्कर में मत पड़ना... वो...।"

तभी देवराज चौहान का फोन बज उठा।

देवराज चौहान ने स्क्रीन पर आया नंबर देखा तो कहा---

"सरबत सिंह का ही फोन है।"

"रहने दो। बात मत करो...।" जगमोहन ने मुंह बनाकर कहा।

परन्तु देवराज चौहान ने बात की।

"हैलो...।"

"देवराज चौहान! मैं सरबत सिंह...।"

"पहचाना। पहचाना। कहो बहन की शादी कर दी?" देवराज चौहान बोला।

"बहुत बढ़िया की। सब तुम्हारी मेहरबानी से हुआ। मैंने तुम्हें दो बार पहले भी फोन किया था परन्तु तुमने...।"

"मैं व्यस्त था। अभी भी व्यस्त हूं। तुम कहो...।"

"एक बहुत ही बढ़िया काम आया है देवराज चौहान, ऐसा कि...।"

"अभी मैं किसी नए काम के लिए खाली नहीं हूं।"

"मेरी बात सुन तो लो...।"

"कहो...।"

"मेरा एक खास दोस्त ओंकार नाथ सूरत में रहता है। उसने कहीं पर हाथ मारने की तैयारी कर रखी है। पूरे एक सौ दस करोड़ का माल है, कहता है योजना भी बना ली है परन्तु इतना बड़ा काम उसने कभी किया नहीं है, इसलिए उसे किसी ऐसे इंसान की जरूरत है जो इस काम को संभाल सके। जैसे कि तुम ये काम संभाल सकते हो। इसलिए मैंने तुम्हें...।"

"सरबत सिंह।" देवराज चौहान कह उठा--- "अभी मैं व्यस्त हूं और कोई भी नया काम नहीं करना चाहता।"

"मेरी खातिर एक बार ओंकारनाथ से सूरत में मिल लो। देखो तो सही, वो क्या कहता है। उसके बाद जैसा मन करे...।"

"ठीक है। मैं मुंबई पहुंचकर तुमसे बात करता हूं...।"

"क्या अभी मुंबई में नहीं हो?"

"नहीं, मुंबई से दूर हूं। वापस आकर तुम्हें फोन करूंगा।"

"पक्का करना।"

देवराज चौहान ने फोन बंद करके जेब में रखा।

"क्या बोला वो?"

देवराज चौहान ने बताया।

"एक सौ दस करोड़।" जगमोहन बोला--- "तुम्हें सूरत जाकर एक बार ओंकार नाथ की बात सुननी चाहिए।"

"अभी नहीं...।"

"वापसी पर सूरत हमारे रास्ते में ही पड़ेगा।"

"अभी नहीं देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा लिए जो काम करने आए हैं, उसे पूरा करो। अश्विन पटेल को फोन लगाओ।"

"ये काम तो हुआ ही पड़ा है।" कहने के साथ ही जगमोहन ने पटेल का नंबर मिलाया और फोन कान से लगा लिया।

दूसरी तरफ बेल जाने लगी।

बेल जाती रही, फिर फोन कट गया। रिसीव नहीं किया गया।

जगमोहन ने दोबारा कॉल की।

दूसरी बार भी ऐसा ही हुआ।

"पटेल कॉल रिसीव नहीं कर रहा।" जगमोहन ने झल्लाकर कहा।

"दस मिनट बाद करना। वो कहीं पर ऐसा व्यस्त होगा कि कॉल रिसीव नहीं कर पा रहा होगा।" देवराज चौहान ने कहा।

"हमें उधार काम करना ही नहीं चाहिए था।" जगमोहन ने मुंह बनाया।

देवराज चौहान मुस्कुराकर रह गया।

कुछ देर बाद जगमोहन ने फिर नंबर मिलाया तो बात हो गई।

"क्या है?" उधर से अश्विन पटेल का खा जाने वाला स्वर कानों में पड़ा।

"पटेल भाई, मैं जगमोहन हूं...।"

"अच्छा तुम, बाद में बात करना।" पटेल की आवाज कानों में पड़ी।

"बाद में?" जगमोहन के माथे पर बल पड़े--- "हमें वापस मुंबई पहुंचना है। हमारे पास वक्त नहीं है।"

"मैं अभी व्यस्त हूं बात नहीं कर सकता।" कहकर उधर से पटेल ने फोन बंद कर दिया था।

जगमोहन सकपकाया देवराज चौहान से कह उठा---

"बोलता है, मैं अभी व्यस्त हूं अभी बात नहीं कर सकता।"

"कोई बात नहीं। घंटे बाद कर लेना।" देवराज चौहान शांत स्वर में बोला।

"यही काम रह गया है मुझे।" जगमोहन ने गुस्से से कहा--- "हमें मुंबई से अहमदाबाद बुला लिया कि आकर साढ़े चार करोड़ ले लो और यहां साढ़े चार करोड़ का कुछ अता-पता नहीं है। रात फोन किया तो सुबह फोन करना। अब फोन किया तो कहता है मैं व्यस्त हूं बात नहीं कर सकता। क्या यही इज्जत रह गई है हमारी...।"

"वो व्यस्त होगा। इसमें नाराज होने की क्या बात है।" देवराज चौहान मुस्कुराया।

"बात भी साला ठीक से नहीं कर रहा।"

"अपने दिमाग को शांत रखो। वो व्यस्त होगा तो एक- दो घंटों में फुर्सत में आ जाएगा। तब बात हो जाएगी। वो दो नंबर के ढेरों काम करता है। किसी काम में उलझा पड़ा होगा। अपने पर काबू रखो। घंटे बाद फोन कर लेना।"

शाम के पांच बज गए।

जगमोहन अश्विन पटेल को फोन कर-करके थक चुका था।

वो या तो फोन उठाता नहीं था। या उठाता था तो व्यस्तता की बात कहकर फोन बंद कर देता था।

"अब कहो।" जगमोहन ने जले-भुने स्वर में देवराज चौहान से कहा--- "क्या अब भी शांत रहूं।"

"हां। कल का इंतजार करो...।"

"कल का इंतजार। साले ने सारा दिन खराब कर दिया। कल से होटल में बिठा रखा है और...।"

"आज की रात निकल जाने दो। शायद पटेल का फोन आ जाए।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

"वो कमीना चालाकी कर रहा है। उसकी नियत फिर गई है साढ़े चार करोड़ देने से।"

"इतनी जल्दी फैसले पर मत पहुंचो। अभी इंतजार कर लो...।"

"तभी तो मैं कहता हूं कि भरोसे पर रहकर किसी का काम मत करो। बाद में अपने ही पैसे लेने के लिए दूसरे के पीछे-पीछे भागना पड़ता है। बुरे बनते हैं सो अलग। दो महीने से हमारा साढ़े चार करोड़ दबाकर बैठा है। अब देने का वक्त आया तो नए-नए नखरे दिखा रहा है। मुंबई से अहमदाबाद आ बैठे हैं हम और...।"

"अपने पर काबू रखो...।"

"यहां बेइज्जती हो रही है और तुम काबू रखने को कह रहे हो।"

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।

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अगले दिन सुबह दस बजे देवराज चौहान ने अश्विन पटेल को फोन किया।

तीन-चार बार फोन किया। तब कहीं जाकर कॉल रिसीव की गई।

"हैलो...।" अश्विन पटेल की आवाज कानों में पड़ी।

"कैसे हो पटेल...।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "कई बार के बाद भी तुमने फोन नहीं उठाया।"

"मैं सोया हुआ था। सुबह छः बजे ही सोया था। सारी रात काम में व्यस्त रहा। बाई गॉड बहुत बुरा हाल चल रहा है एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है। मुझे इतना काम नहीं फैलाना चाहिए था।"

"तुमने हमें साढ़े चार करोड़ देने के लिए बुला रखा है और...।"

"वो मालूम है मुझे मैं...।"

"तुम दो महीनों से हमें लटका रहे हो। परन्तु अब तुमने ही अमदाबाद आकर पैसा ले जाने को कहा...।"

"सब याद है मुझे देवराज चौहान। क्या करूं काम इतने हैं कि सांस लेने की फुर्सत नहीं मिलती। घर पर भी मेहमान बनकर जाता हूं और चाय पीकर लौट आता हूं। बहुत बुरा हाल चल रहा है मेरा। रही बात साढ़े चार करोड़ की तो वो तुम्हारा पैसा है मेरे पास। भला उसे देने में मैं क्यों पीछे हटूंगा। बस वक्त ही नहीं मेरे पास...।"

"अब क्या प्रोग्राम है?"

"प्रोग्राम? मैं तुम्हें अभी आधे घंटे भर में फोन करता हूं।"

"एक घंटे में?"

"पक्का देवराज चौहान। दोपहर तक तुम्हें तुम्हारा पैसा मिल जाएगा। कल के लिए मैं माफी चाहता हूं। पानी पीने तक की फुर्सत नहीं तो तुमसे कैसे मिल पाता। आज पक्का...।"

"मैं तुम्हारे फोन का इंतजार कर रहा हूं।" देवराज चौहान ने कहा।

"हां-हां, मैं अभी तुम्हें फोन करता हूं।"

देवराज चौहान ने फोन बंद करके जगमोहन से कहा---

"वो एक घंटे तक फोन करेगा और दोपहर तक पैसा दे देगा।"

"कमीना! हमारा कल का सारा दिन खराब कर दिया।" जगमोहन गुस्से से कह उठा।

■■■

शाम के पांच बज गए।

अश्विन पटेल का ना तो फोन आया ना ही उसे पैसे के ले-नदेन की दोबारा बात हुई। जगमोहन ने उसे कई बार फोन किया, परन्तु पटेल की तरफ से कॉल रिसीव नहीं की गई।

"अब क्या कहते हो?? जगमोहन ने सुलगे स्वर में देवराज चौहान से कहा।

"आज का दिन बीत जाने दो...।" देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा।

"कल क्या होगा?" जगमोहन के होंठ भिंच गए।

"हम साढ़े चार करोड़ अश्विन से वसूल कर लेंगे।" देवराज चौहान ने पहले जैसे स्वर में कहा।

"अगर वसूल ही करने थे तो ये काम दो महीने पहले क्यों ना कर लिया?" जगमोहन भड़का।

"तब हमें ये तो पता नहीं था कि पटेल ये सब करेगा।" देवराज चौहान मुस्कुराया।

"तुम्हारा क्या ख्याल है, वो पैसा देना नहीं चाहता या क्या चाहता है?"

"मैं ऐसी बातें नहीं सोचता। हमने पटेल से साढ़े चार करोड़ लेना है, उसने हमें देना है। वो देने पर नहीं आ रहा तो अपनी ताकत लगाकर वसूल करना पड़ेगा। इससे उसे ही तकलीफ होगी। क्योंकि हमारी तरफ से कुछ ज्यादा भी हो सकता है।"

"उल्लू का पट्ठा...।"

बाकी का समय उन्होंने होटल में ही बिताया।

रात दस बजे जगमोहन ने पटेल का नंबर मिलाया तो बात हो गई।

"तू चाहता क्या है पटेल?" जगमोहन ने सख्त स्वर में पूछा।

"ओह जगमोहन, बाई गॉड तुम्हें तो मैं भूल ही गया। सुबह नहाया भी नहीं और फौरन किसी लफड़े के लिए निकलना पड़ा। अभी तक फुर्सत नहीं मिली। बाई गॉड तुम्हें तो भूल ही...।"

"काम की बात कर। तू चाहता क्या है। हमने क्या तेरी बारात में शामिल होना है जो हमें यहां बुलाकर बिठा...।"

'गुस्सा नहीं। नाराज नहीं। हम तो भाई-भाई...।"

"नोट ला नोट। नोट ही हमारे भाई, रिश्तेदार, माँ-बाप सब कुछ हैं। तू नया रिश्ता मत बना।" जगमोहन ने गुस्से से कहा।

"मुझे सच में शर्मिंदगी हो रही है कि मुझे याद क्यों नहीं...।"

"अब याद है?"

"हां-हां, पर मैं अभी पैसा नहीं दे सकता, कहीं फंसा पड़ा हूं कल सुबह दूंगा।"

"कल सुबह देगा।"

"कसम से। मैं जरा भी नहीं भूलूंगा।"

"तो कल ही तू फोन करना। हम नहीं करेंगे। बारह बजे तक तेरी तरफ से कुछ ना हुआ तो तू जिम्मेदार होगा, आगे जो भी होगा। इस बार भूलना मत पटेल। वरना जो भी होगा बुरा होगा।"

■■■

अगले दिन के बारह बज गए।

कोई फोन नहीं आया पटेल का।

जगमोहन बारह बजते-बजते गुस्से से भर चुका था।

"उस साले कुत्ते को मैं अभी फोन करता...।" जगमोहन ने भड़ककर कहना चाहा।

"अब कोई फोन नहीं होगा।" देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा--- "अब सिर्फ वसूली होगी।"

जगमोहन के दांत भिंच गए।

"कहां मिलता है पटेल?" देवराज चौहान की आवाज में भरपूर सख्ती थी।

"पिछली बार जब हम आये थे तो सारखी इलाके में या मोर्चा नाम के इलाके के ठिकाने पर बैठता था।"

"सारखी चलो।"

देवराज चौहान और जगमोहन होटल से निकले और कार पे सवार होकर सारखे इलाके में पहुंचे जोकि अमदाबाद के ठीक बीचों-बीच स्थित भीड़ से भरा भरपूर इलाका था। व्यावसायिक केंद्रों के अलावा और भी हर तरह का बिजनेस वहां होता था। बड़े-बड़े शो-रुम थे उधर। हर कोई व्यस्त-सा भागता दिख रहा था।

जगमोहन ने कार को पार्किंग में रोका और पास ही बनी आठ मंजिला इमारत को देखा।

"इसी इमारत में छठी मंजिल पर उसका ठिकाना है।" देवराज चौहान कार से बाहर निकलता कह उठा--- "हम यहां दो बार आ चुके हैं जब पटेल का काम किया था। आओ...।"

दोनों बाहर निकले और उस इमारत की तरफ बढ़ गए।

लिफ्ट से वो छठी मंजिल पर पहुंचे और राहदारी में आगे बढ़ गए। रास्ते के दोनों तरफ खुले या बंद दरवाजे नजर आ रहे थे। लोग काफी आ-जा रहे थे। इस इमारत में हर मंजिल पर बड़ी-बड़ी कंपनियों के ऑफिस थे। दिनभर यहां लोगों का मेला लगा रहता था। कुछ आगे जाकर एक बंद दरवाजे के सामने रुके।

देवराज चौहान ने दरवाजे का हैंडल दबाया और दरवाजा धकेलता भीतर प्रवेश कर गया।

जगमोहन पीछे था।

सामने चार कमरों जितना बड़ा हॉल था। वहां करीब पच्चीस लोग टेबल-कुर्सियां संभाले, कागजों और फाइलों में व्यस्त थे। एक तरफ एक केबिन बना नजर आ रहा था।

उन्हें देखते ही सामने से आता चपरासी पास पहुंचते कह उठा---

"साब जी। आप लोग, आप तो दो महीने पहले भी यहां आए...।"

"पटेल कहां है?" देवराज चौहान ने पूछा।

"मालिक तो हैं नहीं। कई दिन से नहीं आए, आप क्या मालिक से मिलने...।"

देवराज चौहान केबिन की तरफ बढ़ गया। जगमोहन साथ था।

हड़बड़ाया-सा चपरासी भी पीछे हो गया।

दरवाजा धकेलकर देवराज चौहान और जगमोहन ने केबिन में प्रवेश किया।

सामने ही टेबल पर पचास बरस का सामान्य कद का व्यक्ति बैठा दिखा। उसके कंधे चौड़े थे। कमीज के आगे के दो बटन खुले हुए थे और छाती पर घने बाल थे। गले में सोने की भारी चेन पहन रखी थी। चेहरा कुछ भारी था और सख्ती लिए हुए था। टेबल पर नोटों की गड्डियां रखी हुई थीं। उसके बाईं तरफ दीवार के साथ सटी खड़ी स्टील की तिजोरी पड़ी थी। देवराज चौहान और जगमोहन को सामने पाकर वो चौंका फिर संभल गया।

"त...तुम लोग...।" उसके होंठों से निकला।

देवराज चौहान ने थोड़े से खुले दरवाजे से, भीतर झांकते चपरासी को देखा। उसका मतलब समझकर उस व्यक्ति ने फौरन चपरासी को जाने को कहा तो वो चला गया।

उस आदमी ने देवराज चौहान और जगमोहन को सतर्क निगाहों से देखते हुए कहा।

"तुम डकैती मास्टर देवराज चौहान और तुम जगमोहन हो ना। दो महीने पहले पटेल साहब ने तुम दोनों को किसी काम के लिए बुलाया था और तुम लोग काम करके चले गए थे। अब... अब अचानक कैसे आना हुआ, बैठो...।"

"पटेल कहां है?" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में पूछा।

"मालूम नहीं। कई दिन से इधर नहीं आये। मिलना था तो पटेल साहब से बात करके...।"

"बातें बहुत हो चुकी हैं।" जगमोहन तीखे स्वर में कह उठा--- "पटेल ने ही हमें अहमदाबाद बुलाया। हमारा साढ़े चार करोड़ देना है पर अब जाने क्यों नखरे लगा रहा है। तीन दिन से सूखे पड़े हैं...।"

वो फौरन कुछ ना कह सका।

"तुम देसाई हो ना?" देवराज चौहान बोला।

"हां, बैठो तो... मैं अभी पटेल साहब से बात...।"

"बात करने का वक्त निकल चुका है।" देवराज चौहान कठोर स्वर में बोला--- "यहां पर कितना पैसा रखा है?"

"यहां पर?" देसाई संभला।

"खासतौर से इस तिजोरी में हमें हमारा साढ़े चार करोड़ चाहिए।" जगमोहन बोला।

देसाई ने गंभीर निगाहों से उन्हें देखा फिर तिजोरी को और कह उठा---

"ये तो तरीका गलत है देवराज चौहान।"

"सही तरीका पटेल की समझ में नहीं आ रहा तीन दिन से।" देवराज चौहान ने कहा--- "दो महीने से वो वैसे ही हमारा पैसा देने में बहाने लगा रहा है अब अहमदाबाद बुलाकर, हमें गधा समझकर भूल गया है। हर रोज वो पैसा देने का वादा करता है पर देता नहीं। मेरे साथ ये तमाशा नहीं चलने वाला...।"

"मैं अभी पटेल साहब से बात...।"

"कोई जरूरत नहीं। हमें सिर्फ अपना पैसा चाहिए। यहां कितना पैसा है?" देवराज चौहान बोला।

"ये बात मैं तुम लोगों को नहीं बता सकता।" देसाई कह उठा।

इसी पल जगमोहन ने रिवाल्वर निकाली और टेबल के गिर्द घूमते, उसके पास पहुंचकर उसकी गर्दन पर नाल रखी और कड़वे स्वर में कह उठा।

"क्या अब भी नहीं बता सकते, जबकि मेरी उंगली ट्रेगर पर है और तुम जानते हो कि हमें किसी का डर नहीं है।"

"ये सब करना ठीक नहीं देवराज चौहान।" देसाई फंसे स्वर में बोला--- "हम लोग एक ही तो हैं। दो महीने पहले कितनी सुख-शांति से तुम लोगों ने काम को पूरा किया था। अब ये सब करना...।"

"इसमें सारी गलती पटेल की है।" देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा--- "कितना पैसा है यहां?"

देसाई सूखे होंठों पर जीभ फेरकर रह गया।

"मैं गोली चलाने जा रहा हूं।" जगमोहन गुर्राया।

"सवा-डेढ़ करोड़ है यहां...।" देसाई ने फंसे स्वर में कहा।

"तिजोरी खोलकर दिखाओ।" देवराज चौहान बोला--- "तुम्हारे शब्दों का हमें भरोसा नहीं है।"

देसाई थोड़ा आगे हुआ और झुककर टेबल की ड्राज से चाबी निकाली और खड़ा हो गया।

जगमोहन सावधानी से रिवाल्वर थामें खड़ा था।

देसाई ने तिजोरी खोली और सामने से हट गया।

तिजोरी के बीच का खाना नोटों की गड्डियों से भरा पड़ा था। ऊपर-नीचे का खाना खाली था।

"गड्डियों को बाहर निकालो।" देवराज चौहान ने कहा।

देसाई ने ऐसा ही किया।

अगले दस मिनटों में नोटों की गड्डियां टेबल पर थीं। जगमोहन साथ-साथ गिनती भी करता जा रहा था। जब सारी गड्डियां तिजोरी से बाहर आ गईं तो जगमोहन कह उठा---

"ये तो एक करोड़ अड़तीस लाख हुआ।"

"और है?" देवराज चौहान ने देसाई को सख्त स्वर में कहा।

"नहीं।" देसाई परेशान-सा बोला--- "इतना ही है।"

"ठीक है।" जगमोहन ने रिवाल्वर वाला हाथ हिलाकर कहा--- "इन्हें पैक करने का इंतजाम करो कि हम इसे...।"

"हमें ये नहीं लेना है जगमोहन।" देवराज चौहान ने होंठ भींचकर कहा--- "हमें साढ़े चार करोड़ पूरा चाहिए।"

"क्या फर्क पड़ता है, इसी तरह हम साढ़े चार करोड़ इकट्ठा कर लेंगे।"

"ऐसे नहीं, हमें इकट्ठा चाहिए। चलो यहां से।"

"लेकिन...।"

तभी देवराज चौहान पलटा और दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया।

जगमोहन ने झल्लाकर देसाई से कहा---

"हम फिर आएंगे और इस बार तेरी खोपड़ी में गोली मारूंगा।" रिवाल्वर जेब में रख ली।

जगमोहन भी बाहर निकला केबिन से।

देवराज चौहान को दरवाजा खोलकर बाहर जाते देखा तो उधर ही बढ़ गया। रास्ते में चपरासी मिला। उससे नजरें मिलीं तो चपरासी पूरे दांत दिखाकर मुस्कुरा दिया।

"उल्लू का पट्ठा।" जगमोहन बड़बड़ा उठा।

फिर राहदारी में जाते देवराज चौहान से जा मिला।

"तुमने वो पैसा लेने से मना क्यों कर दिया?"

"इस तरह टुकड़ों में पैसा लेना बुरी बात है। हम लेंगे तो इकट्ठा ही लेंगे।"

"पटेल की ऐसी-तैसी। मुफ्त में परेशान कर दिया।" जगमोहन ने गुस्से से कहा--- "कहां जाना है अब?"

"मोर्या नगर के इलाके के ठिकाने पर। वहां भी हम एक बार गए थे।

"वहां पैसा हो सकता है?"

"वो काफी बड़ा ठिकाना है। उधर पैसा होने की संभावना है।" देवराज चौहान ने कहा।

"अब तक तो देसाई ने पटेल को हमारे बारे में खबर कर दी होगी। पटेल का फोन आता ही होगा।"

वे कार में बैठे और मोर्या की तरफ चल पड़े।

चालीस मिनट के सफर के दौरान पटेल का कोई फोन नहीं आया।

"साले का फोन नहीं आया।" जगमोहन बड़बड़ा उठा--- "उसकी नीयत में ही खोट है।"

"क्या बोला?" बगल में बैठे देवराज चौहान ने कहा।

"पटेल का इरादा लगता नहीं है पैसे देने का। वरना अब तक उसका फोन आ गया होता।"

"उसके फोन का इंतजार मत करो। अब अपना पैसा हम ही वसूल करेंगे।"

"मामला लंबा भी हो सकता है। पटेल दम-खम वाला बंदा है।"

"तो रहने दे। वापस मुंबई चलते हैं।" देवराज चौहान मुस्कुरा पड़ा।

"मेरी नींद हराम हो जाएगी पैसा ना मिला तो... जगमोहन ने मुंह बनाकर कहा।

"तो फिर मामले का ना सोचो कि वो लंबा होता है या छोटा। सिर्फ अपने पैसे की सोचो...।"

जगमोहन ने मोर्या नाम के इलाके में सड़क पर बनी तीन मंजिला बिल्डिंग के बाहर कार रोक दी। वहां पर और भी गाड़ियां खड़ी थीं। दो मेटाडोर मौजूद थीं सामान ढोने वाली। बिल्डिंग के बड़े गेट पर एक गार्ड खड़ा था। गेट खुला हुआ था। यदा-कदा लोग आ जा रहे थे।

देवराज चौहान और जगमोहन गेट की तरफ बढ़ गए।

गार्ड की निगाह पहले ही उन पर टिक चुकी थी। उसने रोक लिया।

"कहां जाना है सर?" गार्ड ने पूछा।

"हम पहले भी यहां आए हुए हैं। तुम हमें पहचान नहीं रहे?" जगमोहन बोला।

"जरूर आए होंगे। तब मैं ड्यूटी पर नहीं था। मैं आपको नहीं जानता। किससे मिलना है आपने?"

"दीपक शाह से।" देवराज चौहान कह उठा। मोबाइल निकाला और बोला--- "नंबर बताओ, मैं अभी उससे तुम्हारी बात कराता हूं।"

गार्ड ने नंबर बताया तो देवराज चौहान ने नंबर मिलाकर फोन कान से लगाया।

"हैलो।" फौरन ही एक आवाज कानों में पड़ी।

"दीपक शाह?"

"हां...।"

"मैं देवराज चौहान बोल रहा हूं। दो महीने पहले मौर्या वाली इसी जगह पर हम मिले...।"

"पहचाना-पहचाना।" इस बार आवाज में सतर्कता आ गई--- "पूरी तरह पहचाना, हुक्म करो।"

"मैं बाहर गेट पर हूं और गार्ड मुझे भीतर नहीं आने दे रहा...।"

"ऐसा कैसे हो सकता है तुम जरा उसे फोन तो दो। तुम तो हमारे मेहमान हो...।"

देवराज चौहान ने फोन गार्ड को दिया।

गार्ड ने फौरन फोन कान से लगाया। उधर से कुछ कहा गया। फिर उसने फोन वापस देते हुए कहा।

"आप लोग भीतर जा सकते हैं सर।"

दोनों भीतर प्रवेश कर गए।

देवराज चौहान ने फोन कान से लगाया तो दीपक शाह अभी लाइन पर था।

"तुम भीतर कहां हो?"

"उसी कमरे में। जहां हम पहले मिले थे। आ जाओ। कैसे आना हुआ। क्या पटेल साहब ने फिर कोई काम...।"

"नहीं, मैं अपने काम से ही आया हूं। तुम्हारे पास पहुंच रहा हूं।" कहकर देवराज चौहान ने मोबाइल जेब में रखा।

ये पूरी बिल्डिंग अश्विन पटेल की थी।

भीतर काफी लोग काम कर रहे थे। सबसे नीचे बहुत बड़ा हॉल था, जहां लकड़ी की पेटियों को पैक किया जा रहा था। पटेल के दो नंबर के काम अहमदाबाद में फल-फूल रहे थे।

वो दोनों हॉल के ऊपर सीढ़ियां चढ़ गए और पहली मंजिल पर पहुंचे। वहां से मजदूर जैसे कई लोग एक-एक पेटी कंधे पर उठाए नीचे ले जा रहे थे। उनकी तरफ ध्यान न देकर वे एक बंद दरवाजे के सामने पहुंचे और दरवाजा धकेलकर भीतर प्रवेश कर गए। दरवाजा बंद किया

भीतर तीन लोग थे।

एक दीपक शाह, दो अन्य आदमी। साधारण-सा कमरा था। साधारण-सी कुर्सी-टेबल थी। बैठने के लिए चार कुर्सियां मौजूद थीं। दीवार के साथ लोहे की तीन अलमारियां खड़ी कर रखी थीं।

जब उन दोनों ने भीतर प्रवेश किया तो दीपक शाह मोबाइल पर बात कर रहा था, और बात करते-करते उसके चेहरे के रंग बदलते जा रहे थे फिर उसने फोन बंद किया और अजीब से स्वर में बोला।

"तुम तो गड़बड़ करते फिर रहे हो देवराज चौहान। सारखे वाले ठिकाने पर तुमने देसाई पर रिवाल्वर...।"

"अभी किससे बात कर रहे थे?" देवराज चौहान का स्वर सख्त हो गया।

"पटेल साहब से। उन्हें बता रहा था कि तुम यहां आए हो तो पता चला कि तुम...।"

"पटेल ने तुम्हें ये नहीं बताया कि हमें साढ़े चार करोड़ देने की बात कहकर हमें अहमदाबाद में तीन दिन से बिठा रखा है और लटकाए जा रहा है।" जगमोहन ने कड़वे स्वर में कहा।

"मैं ऐसी कोई बात नहीं जानता।" दीपक शाह ने इंकार में सिर हिलाया।

"अब तो जान गए हो कि हम यहां क्यों आए हैं।" जगमोहन के होंठ भिंच गए--- "निकाल साढ़े चार करोड़...।"

"बैठ जाओ।" शाह गंभीर स्वर में बोला--- "पटेल साहब आधे घंटे में यहां आ रहे हैं।"

"तो दौड़ा आ रहा है पटेल। अब उसकी क्या जरूरत...।"

"पटेल साहब आ रहे हैं।" शाह ने पुनः कहा।

"यहां पर पैसा है?" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में पूछा।

"है।" दीपक शाह ने देवराज चौहान को देखा।

"तो साढ़े चार करोड़ हमारे हवाले...।"

"देवराज चौहान। पटेल साहब आ रहे हैं और वो अपने हाथों से पैसा दें तो अच्छा रहेगा।"

"वो वक्त निकल चुका है। पटेल ने ही हमें मजबूर किया कि हम ऐसा करें। तुम उठो और पैसा हमारे हवाले करो।"

दीपक शाह बैठा रहा।

वहां मौजूद दोनों आदमियों में से एक ने कहा।

"इन्हें संभाल लें शाह साहब?"

"जुबान बंद रख। हमें संभालने वाले मर गए।" जगमोहन के होंठों से गुर्राहट निकली और रिवाल्वर निकालते हुए आगे बढ़कर नाल शाह के सिर पर रख दी--- "बोल पैसा देता है या काम निपटाऊं तेरा।"

"देता हूं। रिवाल्वर हटा लो। शाह ने गंभीर स्वर में कहा और कुर्सी से खड़ा हो गया--- "परन्तु तुम लोग ठीक नहीं कर रहे। हमारे साथ ऐसा व्यवहार करोगे तो बात कैसे बनेगी।"

"ये बात पटेल से पूछना।" जगमोहन गुर्राया।

दीपक शाह ने पैंट की जेब से चाबी निकालकर दोनों को देखा।

"पटेल साहब रास्ते में हैं। आ रहे हैं। उन्हें आने दो तो अच्छा है।" शाह ने पुनः कहा।

"तुम्हें जो कहा है वही करो।" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा--- "पैसा गिनने के लिए हमें पटेल की जरूरत नहीं।"

"ये सारी जगह हमारे आदमियों से भरी पड़ी है। वो तुम्हें जाने नहीं देंगे।"

"बाहर तक तुम हमें पहुंचाओगे।" देवराज चौहान ने खतरनाक स्वर में कहा--- "पटेल की वजह से ही हमें ऐसा करना पड़ रहा है, इसका जिम्मेदार अश्विन पटेल है। तुम पैसा निकालो।"

दीपक शाह चाबी संभाले अलमारी की तरफ बढ़ गया। वो गंभीर था। उसने अलमारी खोली तो भीतर पूरी अलमारी हजार-हजार के नोटों की गड्डियों से भरी पड़ी थी।

"ये ग्यारह करोड़ हैं।" पलटकर दीपक शाह ने कहा--- "मैं तुम्हारा साढ़े चार करोड़ बाहर निकलवा...।"

"हम ये सारा लेंगे। हमें तंग करने का पटेल पर जुर्माना भी तो लगेगा।" जगमोहन दांत भींचकर बोला।

"ये तुम गलत कर रहे...।" दीपक शाह ने कहना चाहा।

"जुबान मत चला हमसे " जगमोहन ने एक कदम आगे बढ़कर रिवाल्वर की नाल कमर से लगाई--- "फालतू बोला तो मरेगा। बड़े-बड़े थैले मंगवा, जिसमें नोट भर सकें। उन्हें बाहर खड़ी हमारी कार में रखवा, पूरा का पूरा ग्यारह करोड़। ये सारा काम तुमने जल्दी से करना है, नहीं तो मैं तुम्हें शूट कर दूंगा।"

शाह वहां मौजूद आदमियों से थैले लाने को कहने लगा।

उनमें से एक तुरन्त बाहर निकल गया।

देवराज चौहान, जगमोहन से कह उठा---

"हमारा साढ़े चार करोड़ बनता है। हमें ग्यारह करोड़ नहीं लेना है।"

"हम ग्यारह ही लेंगे। बहुत तंग किया है पटेल ने हमें। उस पर जुर्माना भी लगना चाहिए।" जगमोहन का स्वर बेहद कठोर था--- "ये सब करने पर हमें पटेल ने ही मजबूर किया है।"

वो छः थैले कपड़े के जिसमें हजार-हजार के नोटों के रूप में ग्यारह करोड़ आ चुका था और उन्हें बाहर खड़ी कार में, डिग्गी में और पीछे वाली सीट के पास नीचे थैलों को रखा जा चुका था। इस दौरान जगमोहन ने दीपक शाह को रिवॉल्वर पर ले रखा था। सब काम तेजी से हुए थे।

"जो भी हो रहा है, अच्छा नहीं हो रहा।" दीपक शाह गुस्से से कह उठा।

"मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा है।" जगमोहन ने कड़वे स्वर में कहा।

वहां आठ-दस आदमी, शाह के भी मौजूद थे जो कि कुछ फासले पर खड़े थे। शाह ने उन्हें बीच में दखल न देने को कह दिया था। उस पर रिवाल्वर लगी थी और वो नहीं चाहता था कि कुछ हो और गोली चले।

देवराज चौहान स्टेयरिंग डोर डालकर खोलकर भीतर बैठने लगा कि ठिठक गया। उसी पल स्कॉर्पियो गाड़ी वहां आकर रुकी थी। आनन-फानन उसके सारे दरवाजे खुले। दो गनमैनों के साथ अश्विन पटेल बाहर निकला। देवराज चौहान से उसकी नजरें मिलीं तो उसने अपने गनमैनों को वहीं रहने को कहकर आगे बढ़ा और देवराज चौहान के पास आया।

देवराज चौहान कठोर निगाहों से पटेल को देखे जा रहा था।

जगमोहन ने शाह को रिवाल्वर पर रखा हुआ था।

"गलत मत समझना देवराज चौहान। मैं बहुत व्यस्त था और...।"

"तो तुम हमें फुर्सत में समझते हो कि हम अहमदाबाद आकर बैठे रहें और तुम्हारे फारिग होने का इंतजार करते रहें।" देवराज चौहान कड़वे स्वर में कह उठा--- "गलती मेरी थी, तुमसे मुझे एडवांस पैसा लेना चाहिए था। परन्तु मैंने...।"

"अब क्या पोजीशन है।" पटेल ने सिर हिलाकर कहा--- "क्या तुमने अपना साढ़े चार करोड़ ले लिया?"

तभी चार कदम दूर खड़ा शाह कह उठा---

"पटेल साहब, ये ग्यारह करोड़ लेकर जा रहे हैं।"

अश्विन पटेल की आंखें सिकुड़ी।

"ग्यारह करोड़?" पटेल बोला--- "ये क्या हरकत हुई, तुम्हारे तो साढ़े चार करोड़...।"

"बाकी इस बात का है कि तुम हमें दो महीनों से पैसा देने को लटका रहे हो, इस बात का कि अहमदाबाद बुलाकर भी तुम हमें हमारा साढ़े चार करोड़ नहीं दे रहे थे। इस बात का है कि हमें खुद कोशिश करनी पड़ी, अपना पैसा वसूलने की। अगर तुम्हारा मन साफ होता तो तुम कह सकते थे कि दीपक शाह से पैसा ले लूं, परन्तु तुम तो...।"

"तुम साढ़े छः करोड़ ज्यादा ले जा रहे हो।" पटेल तीखे स्वर में कह उठा।

"रोक लो, रोक सकते हो तो...।"

पटेल ने एक निगाह जगमोहन पर डाली। शाह के साथ लगी रिवाल्वर को देखा।

"साढ़े छः करोड़ के बदले में शाह जैसे आदमी की मौत नहीं चाहता।" पटेल का स्वर कठोर हो गया।

"समझदार हो।"

"तुम्हारी समझदारी इसी में है देवराज चौहान कि तुम यहां से सिर्फ साढ़े चार करोड़ लेकर...।"

"अब रख लिया तो रख लिया पटेल...।" जगमोहन होंठ भींचे कह उठा।

"साढ़े छः करोड़ ज्यादा ले जाना, तुम लोगों को महंगा भी पड़ सकता है।" पटेल के भी दांत भिंच गए।

"धमकी दे रहे हो।" जगमोहन गुर्राया।

"ये सलाह है। मैं डकैती मास्टर देवराज चौहान को धमकी देने की सोच भी नहीं सकता।"

"पटेल।" देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा--- "मेरी इच्छा तो साढ़े चार करोड़ ले जाने की थी, लेकिन जगमोहन तुम्हारी हरकतों को देखकर कहता है कि तुम पर जुर्माना भी लगना चाहिए। साढ़े छः करोड़ जुर्माने का समझो...।"

अश्विन पटेल ने खा जाने वाली निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान कार में बैठा और दरवाजा बंद करके कार स्टार्ट की। बाहर खड़े पटेल को देखा जो अभी भी खतरनाक निगाहों से उसे देख रहा था। जगमोहन, शाह को कवर किए कार की तरफ बढ़ने लगा।

दूसरी तरफ का दरवाजा जगमोहन के कहने पर शाह ने खोला।

"भीतर बैठो।" जगमोहन उससे रिवाल्वर लगाए बोला।

"लेकिन मैं क्यों...।"

"चुप।" जगमोहन गुर्राया--- "अब बैठ, कुछ आगे जाकर तेरे को दफा कर देंगे। यहां से हमने निकलना है। तू सब समझता है कि मैं ये सब क्यों कर रहा हूं फिर भी फालतू की बकवास करता है।"

दीपक शाह भीतर बैठा।

जगमोहन फंसकर भीतर जा बैठा और दरवाजा बंद करते ही देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी।

अश्विन पटेल के चेहरे पर खतरनाक भाव नाच रहे थे। कार को जाते देखते वो बड़बड़ा उठा।

"तेरे को बहुत जल्दी साढ़े छः करोड़ का हिसाब देना पड़ेगा देवराज चौहान। गलत पंगा ले लिया है तूने...।"

■■■

मुम्बई!

बलबीर सैनी ने अपनी पुरानी-सी कार सड़क के किनारे रोकी और इंजन बंद करके चाबी हाथ में थामें बाहर निकला और दरवाजा बंद करके पैदल ही आगे बढ़ गया। सुबह के ग्यारह बज रहे थे। तेज धूप थी गर्मी लग रही थी। वो कुछ चलने के बाद मार्केट में प्रवेश कर गया। मार्केट में सुबह का वक्त होने की वजह से ज्यादा भीड़ नहीं थी। इक्का-दुक्का लोग ही वहां नजर आ रहे थे। चलते-चलते वो सतर्क निगाह हर तरफ मार रहा था।

मार्केट के बीचों-बीच एक पीपल का पेड़ था जिसकी छाया में एक चाय वाला बैठा था। उसके पास खड़े दो-तीन लोगों में से पदम गोसावी भी था। कुछ व्याकुल दिखा पदम गोसावी।

सैनी उसके पास पहुंचकर खड़ा हो गया।

"तू परेशान क्यों लग रहा है?" सैनी ने कहा।

"खबर देने के लिए तेरे को बुलाया है।" पदम गोसावी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर कहा।

"पहली बार तो खबर नहीं दे रहा मुझे। पहले तो तू कभी खबर देता परेशान नहीं हुआ।"

"खबर बड़ी है।"

बलबीर सैनी मन-ही-मन सतर्क हुआ।

"बता...।"

"मैंने कहा है खबर बड़ी है।" पदम गोसावी ने दबे स्वर में पुनः कहा।

"तो?"

"पचास हजार और नेपाल की दो टिकटों से काम नहीं चलेगा। ज्यादा चाहिए...।"

"कितना?"

"कम-से-कम एक लाख।"

"ज्यादा नहीं कह रहा तू?"

"अभी तो कम बोला है। वो जो मैंने बारह हजार ले रखा है, वो भी इस खबर के साथ बराबर हो जाएगा।"

सैनी ने पदम गोसावी के चेहरे पर नजर डाली।

वो रुमाल से पसीना पोछ रहा था।

"तू बहुत ज्यादा परेशान है।"

तभी चाहे वाले ने उन्हें गिलासों में दो चाय थमा दी।

चाय का गिलास थामें वो तीन कदम पीछे हो गए।

"खबर बता।"

"पहले तू लाख रुपए के लिए हां कर।"

"खबर काम की लगी तो तभी हां करूंगा।"

"काम की है।"

"खूब। तो इस बार मोटा आंकड़ा ही इकट्ठा करके लाया है। ठीक है, एक लाख मंजूर...।"

"वो बारह हजार भी बराबर...।"

"बराबर।"

"अगर वागले रमाकांत को पता चल गया तो वो उसी वक्त मेरी गर्दन काट देगा। ऐसा ना हो कि तू दूसरों के सामने मेरे नाम का ढोल पीटते फिरे कि ये खबर मैंने तेरे को दी है।" पदम गोसावी बोला।

"तेरे को मैं ऐसा लगता हूं।"

"वो खबर ही ऐसी है कि...।"

"कैसी भी खबर हो। तेरा नाम क्यों लूंगा मैं? मुझ पर भरोसा नहीं रहा क्या?"

"भरोसा ना होता तो मैं तेरे को खबर देने आता ही क्यों?"

"अब बताएगा अभी या...।"

"तेरे पास इस वक्त लाख रुपया नहीं है। खबर मेरे मुंह से निकली तो, बात खत्म...।"

"इतना भी भरोसा नहीं मुझ पर।"

"तूने ही तो कहा है कि धंधा धंधा होता है। धंधे में दोस्ती नहीं, दोस्ती में धंधा नहीं।" पदम गोसावी ने धीमे स्वर में कहा।

"बहुत समझदार हो गया है तू...।"

"लाख रुपया लेकर मिलना और खबर ले...।"

"मेरे साथ चल अभी...।"

"कहां?"

"मेरे फ्लैट पर। लाख पड़ा है उधर। तेरे को अभी देता हूं तू खबर अभी दे।"

"ठीक है।"

उन्होंने चाय के आधे भरे गिलास रखे और पैसे देकर वहां से चल पड़े।

बलबीर सैनी ने एक रिहायशी इलाके में कार रोकी और बोला।

"तू यहीं रह। मैं लाख लेकर आया।"

पदम गोसावी ने सिर हिला दिया।

"भाग मत जाना।"

"पागल है क्या? मैं क्यों भागूंगा?" गोसावी ने मुस्कुराने की चेष्टा की।

"हवा तो तेरी निकली नजर आ रही है।" सैनी कार से निकलकर फ्लैटों के भीतर की तरफ चला गया।

पांच मिनट बाद ही लौटा। एक छोटे से लिफाफे में पांच सौ के नोटों की दो गड्डियां डाल लाया था और कार में बैठता लिफाफा उसकी टांगों पर रखता कह उठा।

"ले। गिनना हो तो गिन भी ले।"

गोसावी ने लिफाफे के भीतर झांका फिर उसे बंद करके सैनी को देखा।

"अब बोल भी...।"

"मेरा नाम बीच में नहीं आना...।"

"खबर बोल। मेरे जीते जी तो तेरा नाम कहीं नहीं आने वाला।" बलबीर सैनी ने मुंह बनाकर कहा।

"आज से बारह-तेरह दिन बाद हवाला किंग अशोक गानोरकर, वागले रमाकांत को 180 करोड़ की नकद रकम देने वाला है।"

सैनी चौंककर सीधा होकर बैठ गया।

"180 करोड़ नकद?"

"हां।"

"तौबा।"

"ये लेन-देन बरसोवा की दाऊद मैन्शन इमारत की चौथी मंजिल पर, अंबे पेपर एजेंसी में होगा। अंबे पेपर एजेंसी वागले रमाकांत का ही एक ठिकाना है।" पदम गोसावी ने गंभीर स्वर में कहा।

"कब होगा लेन-देन?"

"कुछ दिन बाद...।"

"मुझे तारीख, दिन, वक्त पता नहीं तो मैं खबर आगे कैसे बेचूंगा?"

"वो मैं बता दूंगा।"

"कब, जब लेन-देन निपट जाएगा?"

"उससे पहले ही बता दूंगा, मरा क्यों जा रहा है।"

"लाख रुपया तेरे को दिया है। ऐसा ना हो कि तू बताने में देर लगा दे और उधर काम हो जाए।"

"मुझ पर भरोसा रख। वक्त से पहले ही मैं तेरे को तारीख दिन, वक्त बता दूंगा।"

"कम-से-कम एक दिन पहले जरूर बताना। एक घंटा पहले बताने का कोई फायदा नहीं।"

"मैं समझता हूं। पहले ही बताऊंगा। खबर सुनकर तेरे को मजा तो आया होगा।" गोसावी ने गहरी सांस ली।

"मजा तो तब है, जब ये खबर बिक जाए। वागले रमाकांत के मामले में कोई आसानी से हाथ नहीं डालेगा।"

"ये तू देख...।"

"लेकिन इतनी बड़ी रकम, वो भी कैश, ऐसा लेन-देन क्यों हो रहा है?"

"इसमें श्रीलंका का संगठन और पाकिस्तान के संगठन के अलावा दुबई वाला भी शामिल है।"

"पूरी बात तो बता।"

"ज्यादा तो नहीं जानता। पर जो जानता हूं वो तेरे को बता देता हूं।"

"बता-बता...।" बलबीर सैनी गर्दन हिलाकर कह उठा--- "मेरा लाख रुपया तो वसूल करा।"

■■■

रत्ना किचन में कॉफी बनाती गुनगुना रही थी। उसके बाल पीछे की तरफ बंधे हुए थे। शरीर पर जींस की पैंट और स्कीवी थी। सांवला चेहरा, तीखे नैन-नक्श। वो ऐसी थी कि जो उसे देख ले, फिर उसे बार-बार देखना चाहे।उसके शरीर का आकर्षण उसकी छातियां और कूल्हे थे जो कि देखते ही बनते थे। जिसकी तरफ नजर उठे, वही उसका दीवाना बन जाए। जिसे भरपूर निगाहों से देख ले, उसका चैन छीन ले।

तभी कॉलबेल बजी।

रत्ना ने गैस बंद की और कॉफी कप में डालने के बाद दरवाजे की तरफ बढ़ गई। बालों की एक लट माथे पर आ रही थी, जिसे हाथ से पीछे किया तो लट पुनः चेहरे पर आकर झूलने लगी।

तभी कॉलबेल पुनः बजी।

दरवाजे के पास पहुंच चुकी रत्ना ने दरवाजा खोला तो सामने हैंडसम युवक को खड़े पाया। उसने हाथ में पिज़्ज़ा का डिब्बा थाम रखा था। वो गोरा-चिट्टा स्मार्ट था। परन्तु रत्ना जैसी हसीना को सामने पाकर पल भर के लिए वो सकपका उठा। उसने मुस्कुराने की चेष्टा की। परन्तु ठीक से मुस्कुरा न सका।

"म...मैडम पिज्जा। आपने पिज्जा का आर्डर दिया था।"

"क्यों हीरो...।" रत्ना ने होंठ सिकोड़कर कहा--- "तू पिज्जा डिलीवर करने वाला तो नहीं लगता।"

"मैं पिज्जा डिलीवर करने वाला ही हूं...।" वो कह उठा।

"फिल्मी हीरो लगता है तू...।" उसके हाथ से पिज्जा का डिब्बा लेते रत्ना बोली।

"एक बात बोलूं मैडम।"

"बोल...।"

"नाराज तो नहीं होंगी आप?"

"कह तू, फिक्र मत कर...।"

"आप भी किसी हीरोइन से कम नहीं लगती। मैंने सोचा भी नहीं था कि यहां आप जैसी हसीना से मुलाकात होगी।"

"मैं जानती हूं मैं कैसी हूं।" कहते हुए रत्ना ने उसे सिर से पांव तक देख कर पुनः कहा--- "तू पिज्जा डिलीवरी वाला नहीं लगता।"

"किस्मत का फेर है मैडम। कानपुर से मुंबई हीरो बनने आया था। सोचा था बहुत जल्द टॉप का हीरो बन जाऊंगा, पर यहां आकर फिल्म इंडस्ट्री को नजदीक से देखा तो सच सामने आया कि हीरो बनना बहुत कठिन काम है। अब ना तो वापस जाने का रहा और ना फिल्मों में काम मिल रहा। खर्चा-पानी चलाने के लिए पिज़्ज़ा पार्लर पर काम करने लगा।" उसने गहरी सांस लेकर कहा।

"भीतर आ...।" पीछे हटते रत्ना ने कहा।

"क्या?" वो सकपका उठा।

"भीतर आ, पानी पिलाती हूं, जाने की जल्दी है तो जा...।"

"न...नहीं। कोई जल्दी नहीं।" वो भीतर आ गया।

रत्ना ने दरवाजा बंद किया। पिज्जा का डिब्बा टेबल पर रखा।

वह

वो अभी तक खड़ा उसे देख रहा था।

"बैठ जा हीरो, थक जाएगा।"

वो फौरन सोफे पर बैठ गया।

रत्ना ने उसे गिलास में पानी ला कर दिया।

"मैडम!" वो पानी पीकर बोला--- "आपसे बात करके मुझे बहुत खुशी हो रही है।"

"वो क्यों?"

"बस यूं ही।" हड़बड़ाकर बोला वो--- "आप खूबसूरत हैं ना, इसलिए...।" साथ ही मुस्कुरा पड़ा।

"कॉफी लेगा?"

"जरूर मैडम, आपके हाथ की बनी कॉफी कौन नहीं पीना चाहेगा।" उसने जल्दी से कहा।

रत्ना ने किचन से कॉफी का प्याला लाकर उसे थमा दिया।

"ले पी...।"

"आप भी तो...।"

"ये तेरे लिए बनाई थी। तेरी किस्मत में रही होगी ये कॉफी, तभी तो मन न होते हुए भी बना ली थी।" रत्ना ने कहा और उसके सामने सोफे पर बैठी और उसे देखते हुए बोली--- "क्या नाम है तेरा?"

"सदाशिव...।"

"कानपुर का रहने वाला है?"

"ज...जी...।"

"कहां तक पढ़ा है?"

"मेडिकल की पढ़ाई की है, पर इधर हीरो बनने...।"

"मुझे मैडम मत कह और बातों के साथ 'जी' मत लगा। मेरे से दोस्तों की तरह बात कर।"

"ज...जी...।"

"कितनी उम्र है तेरी?"

"चौबीस-पच्चीस...।"

"मेरी छब्बीस-सत्ताईस है।"

सदाशिव सिर हिलाकर रह गया।

"एक बात बोलूं तेरे से, जब तेरे को पहली बार अभी देखा तो तू मुझे बहुत अच्छा लगा।"

"ओह, ऐसा ही मेरे साथ हुआ। आप भी मुझे बहुत अच्छी लगी। देखता रह गया था मैं आपको।"

"बहुत अच्छी लगी?"

"बहुत...।"

रत्ना ने गहरी सांस ली।

"आप यहां अकेली रहती हैं मैडम...।"

"बोला ना तेरे को, मुझे मैडम और आप मत कह। दोस्तों की तरह बात कर। मैं यहां अकेली रहती हूं पर कोई है जो कभी-कभी मेरे पास आता है। मेरा खर्चा-पानी वही देता है।"

"ओह...।"

"एक वही आया अभी तक मेरी जिंदगी में। पर अब उससे मन खट्टा होने लगा है।"

"वो क्यों?"

"भंडारे नाम है उसका। जगदीप भंडारे। खून-खराबे वाला इंसान है। चोरी-डकैती करता है। पहले तो मैं नादान थी, पर अब मुझे ये सब काम पसंद नहीं। वो ये काम छोड़ने वाला नहीं। खतरनाक बंदा है। ये बात मैं पहली बार किसी को बता रही हूं।"

"मुझे ही क्यों बताया?"

"तू मुझे जाने क्यों अच्छा लगा।"

"आप भी, मतलब कि तुम भी मुझे अच्छी लगी।"

"रत्ना नाम है मेरा।"

"बहुत अच्छा नाम है।" सदाशिव अपनी घबराहट पर काबू पा चुका था। उसकी नजरें बातों के दौरान रत्ना के जिस्म पर भी फिर रही थीं। उसकी नजरों को पहचानते ही रत्ना ने कहा।

"क्या देखता है?"

"क...कुछ नहीं, आप... आपकी ड्रेस बहुत अच्छी है।"

"पसंद करता है मुझे?"

"बहुत...।"

"हाथ थामेगा मेरा।"

सदाशिव को झटका लगा। ऐसे ऑफर की उसे आशा नहीं थी।

"हाथ?" उसके होंठों से निकला।

"मुझे किसी और की तलाश है जो मेरे से शादी करे और मुझे प्यार के साथ रखे। तेरे को देखने के बाद ये बात जाने क्यों मेरे होंठों पर आ गई हीरो। बस कह दिया तो कह दिया। पर मेरा हाथ थामने से पहले ये जान ले कि दस सालों से मैं भंडारे के साथ हूं वो मुझे भोगता रहा है, पर कोई कमी नहीं आई मेरे में। तेरे को कोई शिकायत नहीं होगी।"

सदाशिव रत्ना को देखता रह गया।

"क्या देखता है हीरो। मेरी बात सुनकर हवा निकल गई क्या?"

सदाशिव ने तुरन्त खुद को संभाला। दिमाग तेजी से चल रहा था।

"तुम भंडारे को छोड़ना चाहती हो?"

"हां, पर पहले दूसरा ढूंढूंगी...। तू राजी हो तो बता।"

"भंडारे तुम्हें हाथ से जाने देगा? वो तो खुन्दक में मुझे मार देगा। तुमने बताया कि वो खतरनाक इंसान है।"

"उसकी तू फिक्र मत कर मैं संभाल लूंगी। तू राजी हो तो बता।"

"म...मैं तुम्हें कहां रखूंगा।" सदाशिव ने गहरी सांस ली--- "मेरे पास पैसे कहां...।"

"उसकी भी तू फिक्र ना कर। पैसे का इंतजाम भी हो जाएगा।"

"कहां से?" उसके होंठों से निकला।

"वो मैं देखूंगी।" रत्ना ने सोच भरे स्वर में कहा।

"मतलब कि मुझे सिर्फ तुम्हारे साथ रहना है। कमाई कुछ नहीं करनी है।"

रत्ना मुस्कुराई।

सदाशिव उसकी जानलेवा मुस्कान पर मर मिटा।

"सही समझा है तू। तूने मेरे साथ वफादारी से रहना है, मैं तेरे साथ वफादारी से रहूंगी। पर उससे पहले मैं तेरे से शादी करूंगी। हम शादी करेंगे। मुफ्त में अब और माल बांटने का मन नहीं है। रत्ना ने हाथ हिलाकर कहा--- "अपना भी घर बार, एक पति होना चाहिए। कॉफी पी ठंडी हो रही है।"

सदाशिव तुरन्त कॉफी का प्याला उठाकर घूंट भरने लगा। चेहरे पर सोचें थीं। रत्ना ने अचानक ही जो ऑफर सामने रख दी थी, उससे वो अजीब-सी स्थिति में फंस गया था। वो अपने बारे में सोच रहा था कि उसका कोई भविष्य नहीं है। पता नहीं फिल्मों में काम मिल पाता है या नहीं। हीरो बन पाता है या नहीं। ऐसे में रत्ना जैसी खूबसूरत युवती मिल रही है और खर्चा-पानी भी उसका। सदाशिव के लिए ये बेहतरीन मौका था अपनी नीरस जिंदगी को बढ़िया बनाने का। साथ-साथ में वो फिल्मों में काम पाने की कोशिश में भी लगा रहेगा।

"क्यों हीरो...!" रत्ना आंखें नचाकर कह उठी--- "तू तो निन्यानवे के चक्कर में पड़ गया ना। सोच रहा होगा भंडारे दस साल मेरे को घिसता रहा, अब मेरे में क्या बचा होगा। यही सोच रहा है ना तू?"

"नहीं, ऐसा कुछ नहीं...।"

"ऐसा ही है हीरो। मर्द ऐसा ही सोचते हैं।" रत्ना ने कहा--- "परन्तु इस बात की मैं तेरे को तसल्ली करा दूंगी कि मैं नई से भी नई हूं...।"

"तसल्ली करा दोगी?" सदाशिव ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

रत्ना मुस्कुराई।

सदाशिव ने गहरी सांस ली। देखता रहा रत्ना को।

"मेरे को आज तक भंडारे के अलावा कोई हासिल नहीं कर पाया। पर अब भंडारे का काम मुझे पसंद नहीं, इसलिए तेरे को मौका दे रही हूं कि ठोक-बजाकर देख ले मुझे। कहीं से कमजोर लगी तो छोड़कर चले जाना।"

"तुम-तुम गम्भीर हो?" सदाशिव के होंठों से निकला।

"पूरी तरह हीरो।इतनी बड़ी बात रत्ना यूं ही नहीं कह रही। तेरे को बहुत बढ़िया मौका दे रही हूं अपना बनाने का। मेरे जैसी तेरे को ढूंढने पर भी नहीं मिलेगी। पूरे विश्वास के साथ कह रही हूं। बहुत देर का प्रोग्राम था मेरा कि किसी को ढूंढूं। कोई शरीफ खानदान का हो। बुरे काम ना करता हो, अब तू दिखा तो कह डाला। तेरे को बुरा लगा क्या?"

"नहीं-नहीं...।" सदाशिव ने जल्दी से कहा।

"मैं तेरे को पसंद हूं?"

"बहुत...।"

"हाथ पकड़ेगा मेरा?"

"ह...हां, पर भंडारे का खतरा...।"

"वो बात तू मेरे पर छोड़ दे। उसके बारे में सोचूंगी कुछ कि कैसे उससे किनारा करना है। वो नंबरी बदमाश है। कभी-कभी तो मेरे को भी उससे डर लगता है। ऐसे इंसान से प्यार कैसे करूंगी, जिससे डर लगता हो।"

"दस साल से तो कर रही हो।"

"वो मेरी नादानी, नासमझी थी। अब अकल आ गई तो ये ही अच्छी बात है। मेरे को अपना घर भी बसाना है। शादी करनी है, बच्चे पैदा करने हैं, चैन से रहना है। भंडारे का क्या, वो तो सारी उम्र यूं ही बिता देगा। तू शादी करेगा मुझसे?"

"हां...।"

"तेरे परिवार वाले तो आड़े नहीं आ जाएंगे कि मैं डेढ़-दो साल तेरे से बड़ी हूं।"

"उनका इस बात से कोई मतलब नहीं। ये हम दोनों का मामला होगा।"

"बाद में तू मुझे भंडारे के नाम के ताने तो नहीं देगा कि दस साल मैं उसके साथ रही?"

"नहीं दूंगा।"

"देख हीरो। इस बात का कुछ पता नहीं चलता। कल को तू जिससे शादी करे, वो पन्द्रह सालों से किसी के साथ हो, कुछ पता नहीं चलता। जमाना बहुत खराब है। दूध का धुला तो मैंने कभी देखा नहीं। तूने देखा है?"

"न...नहीं...।"

"मैंने तेरे को सारी बात साफ-साफ बता दी। झूठ भी तो नहीं कह सकती थी मैं। मैं सज-संवरकर तेरे सामने आती और ऐसा दिखाती कि तू मेरा पहला मर्द है और कहती, मैंने ये सब पहले कभी नहीं किया। आराम से करना तो तू यही सोचता कि तू सच में मेरे लिए पहला मर्द है। मर्दों को बेवकूफ बनाना औरतों के लिए चुटकियों का काम है। पर मैंने तेरे से कोई ड्रामा नहीं किया। सब साफ-साफ बताया रिश्ता लंबा चलाना हो तो झूठ की बुनियाद पर नहीं चलता। शादी के बाद की वफादारी की तेरे को गारंटी देती हूं, वरना क्या भरोसा कि तू जिसे साफ-सुथरी समझकर कल को शादी करे, वो सारी उम्र तेरे को हर महीने तनख्वाह लाकर देती रहे और करे कुछ और, समझा ना। साफ-कहना-सुनना कड़वा होता है, पर कुछ देर के लिए, क्योंकि सच का रास्ता दूर तक जाता है, झूठ का रास्ता होता ही नहीं। मानता है कि नहीं?"

"तुम ठीक कहती हो।" सदाशिव अब सामान्य दिखने लगा था।

"प्यार करेगा मुझे, सारी उम्र आराम से रखेगा?"

"रखूंगा।"

"कसम खाता है?"

"तेरी कसम।"

"मेरी कसम?" रत्ना मुंह बनाकर बोली--- "क्यों हीरो, कसम खाने के लिए मैं ही मिली हूं। तेरी माँ-बहन नहीं है क्या। उनकी कसम खा। अपने बाप की कसम खा, अपने...!,

"मैं तेरी ही कसम खाऊंगा।"

"क्यों?"

"तू सच में मुझे बहुत अच्छी लगी। मुझे तेरे से प्यार जैसा कुछ हो गया है।"

"प्यार जैसा कुछ...?"

"हां। तेरी बातें करने का ढंग। मेरा दिल जीत लिया तूने। वरना इतनी सफाई से तो कोई भी अपनी बात नहीं कह पाता। मैं सच में तेरा दीवाना होता जा रहा हूं।" सदाशिव ने हाथ आगे बढ़ाया--- "मेरा हाथ पकड़...।"

"क्यों?"

सदाशिव खड़ा हुआ। मुस्कान लिए आगे बढ़ा और रत्ना की कमर में दोनों बांहें डाल दीं।

रत्ना उसे देखे जा रही थी।

"अब इतना तो हक रखता हूं कि तेरे कहने पर एक बार तेरे से प्यार कर सकूं।"

"ये सब तू एक बार के लिए तो नहीं कर रहा।" रत्ना ने उसे घूरा।

"पगली, मुझे सच में तुझसे प्यार हो गया है।" सदाशिव ने उसे बांहों के घेरे में भींच लिया।

■■■

रत्ना की बातों में जो खासियत थी कुछ वैसी ही खासियत उसे ऊपर वाले ने तब के लिए दी थी जब वो मर्द के साथ बैड पर हो। सदाशिव को उसने अपना ऐसा रंग दिखाया कि वो उसका दीवाना हो उठा।

दो घंटे ये खेल चलता रहा।

खेल खत्म हुआ तो सदाशिव प्यार की दुनिया में ही खुद को महसूस कर रहा था। उसने कपड़े डाले। रत्ना भी तब तक कपड़े पहन चुकी थी। चेहरे पर गंभीरता थी अब।

"मैं सारी जिंदगी तेरे साथ रहूंगा रत्ना।" सदाशिव ने दिल से कहा--- "मुझे तो बहुत पसंद आई।"

"दिल से कहता है।"

"दिल से। तेरे से शादी करूंगा और साथ-साथ फिल्मों में काम पाने के लिए...!"

"देख हीरो। ये फिल्में-विल्में तो तुझे छोड़नी होंगी। ये काम मुझे पसंद नहीं है। तू सिर्फ मेरा हीरो बनकर रहेगा। मेरा दोस्त और मेरा पति बनकर रहेगा। अपने घर की तरफ ध्यान देगा तू...।"

"फिल्मों में अगर काम मिल जाए तो क्या हर्ज है रत्ना!"

"नहीं।" रत्ना ने दृढ़ स्वर में कहा--- "तू सिर्फ मेरे साथ, मेरा बनकर रहेगा। फिल्में नहीं।"

"ठीक है इस बारे में तो बाद में भी बात हो जाएगी।" सदाशिव बोला--- "भंडारे कहां रहता है?"

"इधर ही मुंबई में। यहां से छः-सात किलोमीटर दूर, उसका घर...।"

"परिवार है उसका?"

"नहीं...।"

"अगर अब वो आ जाए तो तुम मेरे बारे में उसे क्या कहोगी कि मैं यहां क्या कर रहा...।"

"मुझे बेवकूफ मत समझ हीरो। यूं ही तेरे को इस वक्त घर में नहीं बिठा रखा। भंडारे परसों दिल्ली गया था और कल में मुंबई लौटेगा। मुझे सब बताता रहता है कि वो क्या कर रहा है, कहां जा रहा है। क्यों जा रहा है। अभी वो नहीं आने वाला। दिल्ली में है।" रत्ना ने शांत स्वर में कहा।

"तुमने कहा था कि मुझे कमाने की कोई जरूरत नहीं। क्या तेरे पास पैसा है?" सदाशिव बोला।

"नहीं, खास नहीं है।"

"तो फिर...।"

"भंडारे के पास बहुत पैसा है। मैं देखूंगी कि उससे कैसे पैसा निकालना...।"

"वो खतरनाक है। तुम उससे पैसा लेकर, उसे कैसे छोड़ सकती हो। वो तुम्हें मार देगा। मेरे बारे में भी पता लगा लेगा और मुझे भी मार देगा।" सदाशिव ने कहा--- "तुम्हें समझदारी से सोचना...।"

"मैंने तेरे को अभी कहा है कि मुझे बेवकूफ़ मत समझ। मैं सोचूंगी कुछ। भंडारी की नस-नस मैं जानती हूं और वो मुझ पर अपने जितना भरोसा करता है। मैं जरूर कोई रास्ता निकालूंगी कि उसका पैसा भी हासिल कर लूं और उससे पीछा भी छुड़ा लूं। आज से पहले इस बारे में सोचा नहीं, पर अब सोचूंगी।"

"तब तक तुम भंडारे के साथ रहोगी?"

"हां, वो अक्सर मेरे पास आता रहता है क्यों?" रत्ना ने उसे देखा।

सदाशिव के चेहरे पर नाराजगी के भाव उभरे।

रत्ना मुस्कुरा पड़ी।

"दिल छोटा मत कर। इतने सालों में मेरा कुछ नहीं बिगड़ा तो  कुछ दिन में मेरा क्या...।"

"पर अब मेरे को पसंद नहीं कि भंडारे तुम्हें हाथ लगाए।" सदाशिव बोला।

"बोला ना, दिल छोटा मत कर। कुछ नहीं होने वाला मेरे को।" रत्ना मुस्कुरा रही थी--- "मर्द दूसरे को जरा भी नहीं सह सकते। ये क्यों नहीं सोचता कि मैंने किसी तरह भंडारे से पैसा वसूलना है, जो कि हम दोनों के लिए जरूरी है।"

"लेकिन तू कोशिश करेगी कि भंडारे कम-से-कम तेरे पास आए...।"

"हां, कोशिश करूंगी। अब तूने मेरा स्वाद चख लिया है। भागना हो तो भाग जाना।मैं तुझे रोकूंगी नहीं।"

सदाशिव मुस्कुराया और प्यार से कह उठा---

"अगर तेरा स्वाद न चखा होता तो शायद भाग भी जाता, पर तेरा स्वाद चखकर अब भागने के काबिल नहीं रहा।"

"कमीना...।" रत्ना हंस पड़ी।

"शादी के बाद भी तू ऐसा ही प्यार करेगी?"

"इससे भी बढ़िया।"

सदाशिव ने गहरी सांस ली फिर बोला---

"तू तो मेरी जान निकालकर ही रहेगी।"

"तू मेरी जिंदगी में, मेरा हीरो बनेगा। तुझे तो फूलों की तरह रखूंगी मैं।"

"वादा...?"

"पक्का वादा।"

"खा कसम।"

"तेरी कसम। रत्ना ने कहा फिर दोनों खिलखिला कर हंस पड़े।

इन दोनों की नई जिंदगी, नए रिश्ते की शुरुआत हो गई थी। इनके रिश्ते ने भविष्य में क्या गुल खिलाना था, ये तो वक्त ही बताएगा। परन्तु नए-नए सपने इनके दिलो-दिमाग में उठने लगे थे।

"अब काम की बात सुन हीरो। तू मेरे फ्लैट के आसपास दिखेगा नहीं।"

"क्यों?"

"मैं नहीं चाहती कि भंडारे को किसी तरह का शक हो जाए। हमें संभलकर चलना होगा।"

"लेकिन हम मिलेंगे कब?"

"हम फोन पर बात करेंगे। तू मेरा मोबाइल नंबर ले ले। मैं तेरा ले लेती हूं। भूलकर भी मेरे पास मत आना। पिज्जा देने के बहाने भी मत आना। भंडारे तब भीतर हो सकता है। वो खतरनाक है, उसकी नजरें बहुत तेज है, उसे जरा भी शक हो गया तो हमारा खेल बिगड़ जाएगा, जबकि मैं तुझे खोना नहीं चाहती।" रत्ना गम्भीर थी।

"पर तेरे मन में क्या करने का विचार है?"

"अभी कोई विचार नहीं है। आगे के हालात देखकर ही कुछ करने की सोचूंगी। पर ये जान ले कि ये काम सब्र वाला है। हमें आराम से चलना होगा। भंडारे के पैसे पाना और उससे पीछा छुड़ाना, देर लगने वाला काम है। तूने कोई भी बेवकूफी नहीं करनी है। समझ रहा है ना हीरो...!" रत्ना ने हाथ हिलाया।

"हां, पर भंडारे को कम-से-कम अपने पास आने देना।" सदाशिव ने कहा।

"पूरी कोशिश करूंगी। अब तेरे को जाना चाहिए। रुक एक मिनट...।"

रत्ना दूसरे कमरे में गई और पांच सौ का नोट लेकर लौटी।

"ये रख। पिज्जा के पैसे। तूने भी तो जाकर दुकान पर पेमेंट देनी है।"

सदाशिव ने नोट को देखा फिर रत्ना को देखकर बोला---

"कुछ कहूं...बुरा तो नहीं मानेगी?"

"बोल दे।"

"मेरा हाथ तंग चल रहा है।"

"कितना दूं, दस हजार दे दूं...।" रत्ना ने पूछा--- "या बीस?"

"जो ठीक समझे।"

रत्ना कमरे में गई और दो मिनट बाद वापस आई। हाथ में पांच-पांच सौ के नोट थे।

"बीस हजार हैं। रख ले। पैसे की फिक्र मत कर। आज से रत्ना तेरा खर्चा उठाएगी। तू मेरा हीरो है, है ना?"

"हां...।" सदाशिव मुस्कुराकर नोटों को जेब में डालता कह उठा--- "तू मुझे पहले क्यों ना मिली?"

"अब मिल गई शुक्र मना।" रत्ना हंसी--- "तेरे को यहां आए बहुत देर हो गई। अब निकल ले।"

"तेरे से दूर जाने का दिल नहीं कर रहा।"

"निकल ले हीरो। अभी हमारे रास्ते में भंडारे नाम का कांटा है। वो निकालूंगी तो हम मिल पाएंगे। पता नहीं क्या करना होगा मुझे। भंडारे को तू नहीं जानता कि वो कितना बड़ा शैतान है।"

"ऐसी बातें करके तू मुझे डरा रही है रत्ना।" सदाशिव ने कहा।

"मेरे होते हुए तेरे को कुछ नहीं होने वाला। जैसा समझाया है, वैसा ही करना। मेरे से दूर रहना और फोन पर बात करना।"

"हम जल्दी मिलेंगे ना?"

"अभी कुछ कह नहीं सकती।" रत्ना के चेहरे पर गंभीरता थी--- "मेरे सामने अब कई काम पड़े हैं।तू अपना ख्याल रखना हीरो और मुझे याद करके खुश रहना। भंडारे के बारे में मैं ही कुछ सोचूंगी।"

सदाशिव ने रत्ना को बांहों में भर लिया। उसके होंठों को चूमा। उसके गालों पर प्यार किया। फिर बेमन से वहां से विदा हो गया। सच में उसे रत्ना को छोड़कर जाने का मन नहीं कर रहा था।

उसके जाने के बाद रत्ना ने दरवाजा बंद कर लिया। चेहरे पर सोचें नाच रही थीं। मन में एक अच्छा-सा लड़का पाने की इच्छा थी वो आज पूरी हो गई थी। परन्तु वो जानती थी कि सफर अभी लंबा है। जगदीप भंडारे रास्ते में खड़ा है।

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