सुनसान और गहरे पहाड़ी जंगल में घोड़ों की टापों की आवाजें गूंज रही थीं। जंगल के कहीं तंग और कहीं खुले रास्ते में वो तेरह घुड़सवार थे, जो कि रफ्तार के साथ घोड़ों को भगाए जा रहे थे। देवदार और चीड़ के ऊंचे पेड़ तेज हवा से हिल रहे थे। उनके पत्ते खड़खड़ा रहे थे, तालियां बजाते से महसूस हो रहे थे। उन बारह घोड़ों पर देवराज चौहान, रानी ताशा, जगमोहन, नगीना, सोमारा, मोना चौधरी, धरा, सोमाथ, बबूसा के अलावा रानी ताशा के तीन आदमी थे और तेरहवां घोड़े वाला था, जिसने कि बाद में घोड़े वापस ले जाने थे। पहाड़ के बड़े-बड़े टुकड़े, बड़े पत्थरों के रूप में टूटे रास्तों में दिख रहे थे। जंगल के पेड़ों के बीच में कुछ दूर खड़े पहाड़ों को झलक मिल रही थी जो कि बर्फ से ढके हुए थे। (पाठकों के लिए ये रास्ता अंजान नहीं है, पाठक ‘बबूसा’ उपन्यास में जोगाराम और धरा के साथ इस रास्ते पर आ चुके हैं, जब धरा, जोगाराम के साथ डोबू जति के ठिकाने पर गई थी और वापसी पर जोगाराम की जान, डोबू जाति के योद्धा, लेने में कामयाब रहे थे) तेज सर्द हवा चल रही थी। सबसे बड़ी मुसीबत वाली बात तो ये हुई थी कि दो घंटे लगातार बरसात होती रही थी जिसमें सब भीग गए थे परंतु उस वक्त भी सफर जारी रखा था उन्होंने। रुके नहीं थे। इस समय वे ठिठुर-से रहे थे। बाकी सबके लिए तो ये सफर साधारण था परंतु धरा के लिए ये सफर आसान नहीं था। वो डोबू जाति हो आई थी और वहां से बच निकली थी। डोबू जाति वाले उसे मार देने के लिए उसके पीछे थे, बबूसा उसे बचाता रहा था उनसे और अब फिर वो इन सबके साथ डोबू जाति जा रही थी। धरा का दिल सामान्य से ज्यादा तेज रफ्तार से दौड़ रहा था। वो चिंतित, व्याकुल दिख रही थी। वो डोबू जाति की तरफ नहीं आना चाहती थी दोबारा, पिछली बार जब आई थी तो मन में ये विचार पक्का कर लिया था कि अगर बच निकली तो दोबारा इधर कभी नहीं आएगी। उसने इंकार करने का बहुत बार मन बनाया, परंतु जाने क्या बात थी कि वो डोबू जाति जाने के लिए सख्ती से इंकार नहीं कर पाई और साथ चल पड़ी। अब उसे एक ही डर सता रहा था कि डोबू जाति वाले उसे देखते ही उसकी जान न ले लें।
वे सब मुम्बई से टाकलिंग ला सुबह पांच बजे आ पहुंचे थे। देवराज चौहान और रानी ताशा ने साढ़े चार दिन ये सफर लग्जरी वैन में किया था, जिसमें बाथरूम के अलावा पांच बाई छः का बेड भी था। सोमाथ उस वैन में ड्राइवर के साथ बैठा आया था। दूसरी वैन में जगमोहन, नगीना, मोना चौधरी और धरा थे। तीसरी वैन में बबूसा, सोमारा और रानी ताशा के तीन आदमी थे। टाकलिंग ला तक के रास्ते का मार्गदर्शन बबूसा ने किया था और टाकलिंग ला के गांव से घोड़ों का इंतजाम भी बबूसा ही करके लाया था। घोड़े वाले को पैसे पहले दे दिए थे। अब वो इसलिए साथ था कि जब ये लोग घोड़े छोड़ें तो घोड़ों को वापस ले जा सके।
इस वक्त भी बबूसा ही मार्गदर्शन कर रहा था, वो घोड़े पर सबसे आगे था। देवराज चौहान और रानी ताशा की दुनिया तो जैसे एक-दूसरे में ही बसी हुई थी। वे एक-दूसरे के प्यार में पूरी तरह डूबे हुए थे। घोड़ों पर यात्रा करते रह-रहकर वे एक-दूसरे को प्यार भरी निगाहों से मुस्कराकर देख लेते थे। उनके ये नजरे-तीर दूसरों से छिपे नहीं थे। जगमोहन बेहद गम्भीर नजर आ रहा था। कभी-कभार वो नगीना पर भी नजर मार लेता था। रानी ताशा उन्हें डोबू जाति के पास पहाड़ों के बीच खड़े पोपा की तरफ ले जा रही थी। वो, राजा देव (देवराज चौहान) के साथ सदूर ग्रह की तरफ रवाना हो जाना चाहती थी। देवराज चौहान पूरी तरह रानी ताशा का दीवाना हुआ पड़ा था। अगर देवराज चौहान के सिर पर दीवानगी न छाई होती तो, वो कुछ करने का सोचते भी, परंतु इस वक्त कुछ करने का मतलब था, देवराज चौहान का ही उनके सामने आ खड़ा होना। वो नहीं समझ पा रहे थे कि देवराज चौहान कैसे ठीक होगा, जबकि बबूसा का कहना था कि अभी राजा देव को सदूर ग्रह के जन्म की पूरी तरह याद नहीं आई है। राजा देव की वक्त से पहले ही रानी ताशा से मुलाकात हो गईं और राजा देव, रानी ताशा की खूबसूरती में जा डूबे हैं। अब जाने कब राजा देव को सदूर ग्रह के जन्म की, रानी ताशा के धोखे वाली बात याद आएगी, क्योंकि रानी ताशा के सामने होते हुए राजा देव, रानी ताशा में ही व्यस्त रहेंगे। ऐसे में उन्हें सदूर ग्रह के जन्म की बातें याद आने वाली नहीं। जब राजा देव फुर्सत में, शांत अवस्था में होंगे, तभी सदूर ग्रह के जन्म के याद आने की संभावना है।
नगीना पूरे रास्ते गम्भीर रही थी, परन्तु मोना चौधरी का चेहरा कठोरता से भरा रहा कि नगीना के लिए देवराज चौहान को रानी ताशा के चंगुल से छुड़ाना है, लेकिन इस काम के लिए न तो मौका था और न ही अभी वक्त। चिंता की बात तो ये थी वे डोबू जाति की तरफ बढ़ रहे थे और वहां पोपा (अंतरिक्ष यान) खड़ा था। जिस पर सवार होकर सबने सदूर ग्रह की तरफ रवाना हो जाना था। मोना चौधरी मन-ही-मन सोच रही थी कि अंतरिक्ष यान के रवाना होने से पहले ही कुछ करना होगा।
उन्हें घोड़ों पर सफर करते कई घंटे हो चुके थे।
दोपहर के तीन बज रहे थे। सूर्य का कहीं नामोनिशान नहीं था। सर्दी बढ़ जाने का एहसास होने लगा था। कहीं-कहीं तो पेड़ों के बीच हल्का कोहरा भी ठहरा नजर आ रहा था। हवाओं का रुख तेज हो रहा था। तभी जगमोहन ऊंचे स्वर में बोला।
“बबूसा। रुक कर कुछ खा लेना चाहिए।”
“मुझे भी भूख लग रही है।” बबूसा ने घोड़ा दौड़ाते कहा-“खाने को कुछ है क्या?”
“हां, है।”
उसी पल बबूसा ने अपने घोड़ों की लगाम खींच ली।
बबूसा रुका तो सब घोड़े रुकते चले गए। बबूसा घोड़े से उतरकर देवराज चौहान के पास पहुंचा।
“राजा देव।” बबूसा मुस्कराकर बोला-“कुछ खा लिया जाए। जगमोहन को भूख लगी है।”
“क्यों नहीं बबूसा।” देवराज चौहान ने मुस्कराकर कहा।
बबूसा ने रानी ताशा को देखा, जो कि मुस्कराकर उसे ही देख रही थी।
“राजा देव को वापस पाकर आप खुश हैं न रानी ताशा?” बबूसा बोला।
“तुमने तो भरपूर कोशिश की थी कि राजा देव मुझे न मिल सकें।” रानी ताशा ने तीखे स्वर में कहा।
“कैसी बातें करती हैं रानी ताशा। मैं तो आपके लिए राजा देव के संभाले हुए था।”
“मैं तुम्हें अच्छी तरह से समझती हूं बबूसा।”
“मेरे लिए आपने मन में गलतफहमी रख ली है।”
सब घोड़ों से उतर आए थे।
सोमाथ रह-रहकर बबूसा के देख लेता था। सफर के लिए सोमाथ को घोड़ों की जरूरत नहीं थी परंतु सफर ज्यादा लम्बा होने की वजह से सोमाथ घोड़े पर बैठ गया था। वो रानी ताशा के पास पहुंचा।
“मुझे बबूसा पर यकीन नहीं रानी ताशा।” सोमाथ ने कहा।
“मुझे भी यकीन नहीं।” रानी ताशा ने स्पष्ट कहा।
“मैं बबूसा पर नजर रखे हूं।” सोमाथ बोला।
“ज्यादा चिंता की बात नहीं सोमाथ।” रानी ताशा सोच भरे स्वर में बोली- “राजा देव अब मेरे पास हैं। ऐसे में बबूसा कुछ भी गलत करने की नहीं सोच सकता। जब हम पोपा में सवार हो जाएंगे तो बबूसा हमारा ही साथ देने लगेगा। फिर बबूसा को संभालने के लिए सोमारा तो है ही, वो बबूसा को काबू में रखेगी।” कहने के साथ ही रानी ताशा, देवराज चौहान की तरफ बढ़ गई।
देवराज चौहान ने प्यार भरी निगाहों से रानी ताशा को देखा।
“मैंने तुम्हें फिर से पा लिया देव।” पास पहुंचकर रानी ताशा मधुर स्वर में कहते, देवराज चौहान का हाथ थामकर बोली-“मेरा देव अब मेरे पास रहेगा। अब मैं तुम्हें कोई शिकायत नहीं होने दूंगी।”
“मुझे तो तुमसे पहले भी शिकायत नहीं थी ताशा।” देवराज चौहान की आवाज भावुक हो उठी।
“अब मैं अपने देव को पहले से भी ज्यादा प्यार करूंगी। आप फिर से राजा बनकर सदूर को संभालेंगे और मैं आपकी छाया की तरह आपके साथ रहूंगी।” रानी ताशा की आंखों में पानी चमक उठा- “आप कितने अच्छे हैं देव।”
देवराज चौहान प्यार से रानी ताशा का चेहरा निहारने लगा।
“आप फिर मुझे टकटकी बांधकर देखने लगे।”
“तुम कितनी खूबसूरत हो ताशा। तुम्हारे बिना मैं जीवन गुजारने की सोच भी नहीं सकता। सदूर पर हम कितने प्यार से जीवन बिताया करते थे। कितने खुश थे हम। मुझे मेरा सदूर ग्रह बहुत याद आ रहा है।”
“हम वहीं जाने वाले हैं। अब तो आप अपने सदूर को पहचान ही नहीं पाएंगे।”
“क्यों?” देवराज चौहान ने रानी ताशा का हाथ थाम लिया।
“सदूर अब पहले से बहुत बदल गया है। जम्बरा ने रोशनी देने वाले बक्से बना लिए हैं। अब सदूर पर मशालों की रोशनी नहीं, दूसरी तरह की रोशनी होती है। घर-घर में रोशनी है। हमारे किले में भरपूर रोशनी है। सदूर में सड़के बन गई हैं। ऊंचे-ऊंचे मकान बन गए हैं। पैसे की जगह धातु नहीं, सिक्के चलने लगे हैं। धातु अब भी सदूर की कीमती चीज मानी जाती है लोग उसे संभालकर रखते हैं। अब वहां बग्गी नहीं, छोटे-छोटे वाहन चलते हैं। गरीब लोग बग्गी भी चलाते हैं। सब कुछ नया होगा तुम्हारे लिए देव। जम्बरा ने सदूर को सजाने में बहुत मेहनत की है। महापंडित ने अपनी जगह को नए तरीके से बना लिया है। हमारे किले को छोड़कर सदूर का सब कुछ बदल चुका है देव। परंतु तुम और मैं अब भी वही हैं देव और ताशा।” रानी ताशा का स्वर प्यार में डूब गया-“वो दिन कितने अच्छे होते थे देव।”
“वो वक्त फिर लौट आएगा।” देवराज चौहान ने खुशी से कहा-“वो जंगल वही है न, जहां हम मिला करते थे ताशा?”
“हां। वो जंगल, वो जगह, वो पेड़ आज भी हम दोनों की वापसी का इंतजार कर रहे हैं। जानते हो देव, जब तुम मेरे पास नहीं थे तो मैं उसी जंगल में जाकर, उसी पेड़ के नीचे बैठकर तुम्हें याद किया करती थी, बोला करती थी कि मेरे देव तुम मुझे कब मिलोगे।” रानी ताशा की आंखें डबडबा गई-“मैं तुम्हारे बिना कितना तड़पी हूं देव।”
“अब मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा ताशा।” देवराज चौहान ने रानी ताशा को सीने से लगा लिया।
“आपने मुझे माफ कर दिया देव, उस गलती के लिए, जो मुझसे सदूर पर हुई थी।”
“मैं नहीं जानता, वो गलती क्या थी और जानना भी नहीं चाहता। मैं तुमसे कभी भी नाराज नहीं हो सकता ताशा। तुम मेरा जीवन हो। तुम्हारे बिना जीने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। ताशा-मेरी प्यारी ताशा...।”
“देव।”
दोनों ने एक-दूसरे को बांहों में जकड़ रखा था।
“ये खा लीजिए।” तभी नगीना की आवाज उनके कानों में पड़ी।
दोनों अपनी दुनिया से बाहर निकले। देखा, पास में नगीना खड़ी थी। दोनों हाथों में बर्गर और पैटीज थाम रखे थे। नगीना की निगाह देवराज चौहान पर थी।
“ओह नगीना, लाओ।” देवराज चौहान पैटीज-बर्गर थामता बोला-“ताशा तुम भी ले लो।”
रानी ताशा ने मुस्कराकर नगीना से बर्गर, पैटीज लिए और बोली।
“तुम्हें हमारी कितनी चिंता है, मैं तुम्हें सदूर पर अपनी खास बनाऊंगी।”
“मुझे तुम्हारी नहीं, देवराज चौहान की चिंता है।” नगीना ने शांत स्वर में कहा।
“अब तुम हम दोनों की चिंता किया करो देव सिर्फ मेरे हैं। क्यों देव?”
“हां ताशा। अब हम कभी भी जुदा नहीं होंगे।” देवराज चौहान, ताशा को देखता कह उठा।
नगीना ने देवराज चौहान पर निगाह मारी और पलटकर वापस चली गई।
“आओ देव, हम उस बड़े पत्थर पर बैठकर खाते हैं।” रानी ताशा ने कहा।
“चलो ताशा।”
बबूसा और सोमारा एक पेड़ के पास खड़े खा रहे थे। दोनों के चेहरों पर गम्भीरता थी।
“अब क्या होगा बबूसा?” सोमारा धीमे स्वर में कह उठी-“हम पोपा के पास जा रहे हैं।”
“मैं सोच रहा हूं कि इन हालातों में मुझे क्या करना चाहिए।” बबूसा गम्भीर था। उसने कुछ दूर पत्थर पर बैठे रानी ताशा और देवराज चौहान को खाते और हंस-हंसकर बातें करते देखा-“रानी ताशा का व्यवहार तो देखो, जैसे पूरी तरह बेगुनाह हो। अपने द्वारा दिए गए धोखे को भूल गई हो जैसे। मुझे रानी ताशा अच्छी नहीं लगती।”
“राजा देव को सदूर का जन्म पूरी तरह याद क्यों नहीं आया?” सोमारा ने पूछा।
“मैं नहीं जानता। वैसे काफी कुछ याद आ चुका है। परंतु रानी ताशा के दिए धोखे की बात याद नहीं आई। राजा देव को अभी सब कुछ याद आ जाए तो रानी ताशा उन्हें जरा भी अच्छी नहीं लगेगी।” बबूसा बोला।
“तुमने राजा देव को रानी ताशा तक पहुंचने ही क्यों दिया-सब कुछ याद आने देते।”
“मैं तुम्हें बता चुका हूं सोमारा। उस रात मैं राजा देव पर नजर रखे हुए था। परंतु सुबह होते-होते मेरी आंख लग गई और इस बात का फायदा उठाया राजा देव ने। रानी ताशा के बारे में उन्हें याद आ चुका था। राजा देव, रानी ताशा के पास चले जाना चाहते थे। परंतु मैं ही उन्हें रोके हुए था। मेरी आंख लगते ही, मौका पाकर राजा देव वहां से निकले और रानी ताशा के पास आ पहुंचे।” (ये बात पाठक पूर्व प्रकाशित उपन्यास ‘बबूसा खतरे में’ में विस्तार से पढ़ चुके हैं।)
“अब राजा देव को सदूर की बाकी की बातें कब याद आएंगी?” सोमारा ने पूछा।
“राजा देव दिन रात रानी ताशा में व्यस्त हैं। रानी ताशा राजा देव को चैन नहीं लेने दे रही। अकेला नहीं छोड़ती जबकि सदूर की बातें, मेरे ख्याल में तभी राजा देव को याद आएंगी, जब वे फुर्सत में होंगे।”
“फिर तो अभी राजा देव से कुछ आशा रखना बेकार है।”
“ये ही तो मुझे चिंता हो रही है कि अभी राजा देव को कुछ याद आने वाला नहीं और रानी ताशा उन्हें पोपा में बिठाकर सदूर ग्रह पर ले जाने की तैयारी कर रही है।” बबूसा ने गम्भीर स्वर में कहा-“सदूर पर पहुंचकर रानी ताशा ने महापंडित से कहकर, राजा देव के दिमाग के उस हिस्से को साफ करा देना है, जहां सुदूर की यादें दबी हैं फिर राजा देव को कुछ याद नहीं आएगा और रानी ताशा, राजा देव की सजा से हमेशा-हमेशा के लिए सुरक्षित हो जाएगी।”
“रानी ताशा का ऐसा ही करने का इरादा है। वो मुझे बता चुकी है।” सोमारा ने कहा।
“मैं ऐसा नहीं होने दूंगा।” बबूसा ने होंठ भींचकर कहा-“मुझे कुछ करना होगा। रानी ताशा और राजा देव को अलग करना होगा।”
“गलती मत कर बैठना बबूसा।” सोमारा ने चिंतित स्वर में कहा-“राजा देव को पाने के लिए रानी ताशा कुछ भी कर सकती है। जोबिना वाले आदमी भी साथ हैं। सोमाथ भी है। कहीं तुम मुसीबत में न पड़ जाओ।”
“राजा देव के लिए मैं कैसी भी मुसीबत सह लूंगा।”
“ऐसा कुछ करने का क्या फायदा कि काम पूरा न कर सको और फंस जाओ।”
बबूसा ने सिर हिलाकर सोमारा को देखा।
“तुम्हारी बात मैं समझ गया। चिंता न करो। मैं जो करूंगा, सोच समझकर करूंगा। मुझे अभी वहां जाकर डोबू जाति के हालात देखने हैं कि उधर रानी ताशा ने किस तरह कब्जा कर रखा है। मैं बहुत कुछ सोच रहा हूं सोमारा।”
“मैं तुम्हारे साथ हूं बबूसा।” सोमारा ने बबूसा की बांह थाम ली।
बबूसा के होंठों पर मुस्कान उभरी।
“तेरी उससे तो कोई बातचीत नहीं है न?” सोमारा बोली।
“किससे?”
“वो-धरा से।” सोमारा ने धरा पर निगाह मारी-“तू उसे डोबू जाति के योद्धाओं से बचाता रहा है।”
“कैसी बात करती हो सोमारा! धरा मेरी पहचान की है। उसी की सहायता से मैं राजा देव की तलाश में लगा रहा था।”
“और तो कुछ नहीं न?”
“नहीं-नहीं। ऐसी बात करके तुम मुझे परेशान मत करो।” बबूसा नाराजगी से कह उठा।
तभी सोमाथ पास आता कह उठा।
“तुम्हें रानी ताशा बुला रही है सोमारा।”
सोमारा उसी पल रानी ताशा की तरफ बढ़ गईं।
बबूसा और सोमाथ की नजरें मिली।
कुछ पल दोनों एक-दूसरे को देखते रहे, फिर सोमाथ उसके पास से चला गया।
‘तेरे से तो किसी तरह निबटूंगा सोमाथ।’ बबूसा बड़बड़ा उठा।
सोमारा पास पहुंची, खाते हुए रानी ताशा ने पूछा।
“बबूसा अब क्या विचार रखता है सोमारा?”
“बबूसा खुश है कि आप और राजा देव मिल गए।” सोमारा मुस्कराकर बोली।
“अब उसके मन में क्या है?”
“वो खुश है ताशा। उसके मन में कोई भी गलत बात नहीं। वो तो कहता है कि आपके लिए ही राजा देव को तलाशा था।”
“बबूसा मुझे सदूर ग्रह के जन्म की बातें याद दिलाना चाहता था।” देवराज बोला-“बबूसा का कहना था कि तुमसे मैं तब मिलूं जब मुझे मेरे सदूर ग्रह के जन्म को बातें याद आ जाएं। इसके लिए बबूसा ने कोशिश भी बहुत की। तभी तो मुझे अपने उस जन्म के बारे में याद आई और मैं तुम्हारे पास पहुंच गया, ताशा।”
“मेरा प्यारा देव।” रानी ताशा ने प्यार भरे स्वर में कहा।
“बबूसा की तुम फिक्र मत करो ताशा। वो मेरा सबसे बढ़िया दोस्त है। जो मैं कहूंगा, वो-वो ही करेगा।”
“आपके होते मुझे बबूसा की फिक्र करने की क्या जरूरत है देव।” ताशा ने कहा-“परंतु बबूसा अब पहले से बहुत बदल गया है। वो मनमानी भी करने लगा है। इस बार महापंडित ने जन्म आपकी ताकत से कराया है। मुझे लगता है कि बबूसा हम दोनों के मिलन को पसंद नहीं कर रहा।”
“नहीं ताशा।” सोमारा कह उठी-“आप दोनों के मिलने पर बबूसा बहुत खुश है।”
रानी ताशा ने गम्भीर निगाहों से, सोमारा के देखते हुए कहा।
“मैं जानती हूं बबूसा के मन में क्या है।”
“क्या है ताशा?” सोमारा ने पूछा।
“यही कि राजा देव को उस जन्म में की गई मेरी गलती की याद आ जाए और...।”
“ऐसी कोई भी बात बबूसा ने मुझसे नहीं कही।” सोमारा कह उठी।
“बबूसा से कह देना कि राजा देव मुझे मेरी हर गलती के लिए माफ कर चुके हैं।”
“सच में।” देवराज चौहान मुस्कराकर बोला-“ताशा से मैं नाराज क्यों होऊंगा। ये मेरी जिंदगी है।”
“आप दोनों का प्यार देखकर हमेशा ही मुझे खुशी होती रही है।” सोमारा मुस्कराई।
“बबूसा को संभालना तेरा काम है सोमारा। अगर उसने कुछ किया तो सोमाथ उसे सजा देगा।” रानी ताशा बोली।
“हम नाहक ही संदेह कर रही हैं। बबूसा तो मुझे पाकर बहुत खुश है।”
सोमारा वापस बबूसा के पास आकर बोली।
“रानी ताशा को तुम पर पूरी तरह संदेह है कि तुम कोई चालाकी कर सकते हो।” सोमारा गम्भीर थी।
“मैं सतर्क रहूंगा, सोमारा।”
“मुझे डर है कि सोमाथ से कहीं तुम्हारा दोबारा टकराव न हो जाए।” सोमारा बोली।
“सोमाथ ही तो मेरे रास्ते की सबसे बड़ी अड़चन है।” बबूसा का स्वर कठोर हो गया- “टकराव तो होगा ही।”
“सोमाथ तुमसे ज्यादा ताकतवर है बबूसा।” सोमारा गम्भीर थी-“कुछ करने से पहले मुझे जरूर बता देना।”
तभी धरा पास आती दिखी।
“वो तुम्हारे पास क्यों आ रही है?” धरा पर निगाह पड़ते ही, सोमारा कह उठी।
“जलो मत।” बबूसा ने शांत स्वर में कहा-“देख लेना वो क्या कहती है।”
धरा पास आकर ठिठकी और कह उठी।
“बबूसा। मुझे डर लग रहा है।”
“क्यों?”
“डोबू जाति वाले मुझे देखते ही मार देंगे। वो मेरी मां को, प्रकाश को और चतुर्वेदी साहब को भी मार चुके हैं।”
“मेरे होते तुम चिंता न करो।” बबूसा बोला-“कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा।”
“वो तुम्हारे भी तो दुश्मन हैं।” धरा ने बबूसा की कलाई पकड़ी- “तुमने उनके कई लोगों को मारा।”
“बांह छोड़ बबूसा की।” सोमारा ने धरा का हाथ, बबूसा की कलाई से हटा दिया-“बांह क्यों पकड़ती है।”
“धरा। तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं डोबू जाति से विद्रोह करके ही उनसे बाहर आया था और डोबू जाति में ऐसा कोई नहीं, जो मेरा मुकाबला कर सके। मेरी तरह वो भी मुझे दुश्मन नहीं मानते। वहां पहुंचने पर तुम समझ जाओगी।”
“बस मुझे ये ही डर है कि वो मुझे मार न दें। क्योंकि एक बार (बबूसा पढ़ें) मैं वहां पहुंचकर किसी तरह वहां से बच आई थी परंतु मेरे तब के मार्गदर्शक जोगाराम को उन्होंने मार दिया...।”
“तुम्हें कुछ नहीं होगा। डोबू जाति के योद्धाओं के हथियार इन दिनों उनके पास नहीं होते। हथियारों के बिना वो बेकार हैं।” बबूसा का चेहरा सख्त हो गया- “इस बारे में मुझे रानी ताशा से बात करनी होगी।”
“बबूसा तुम।” सोमारा ने कहना चाहा।
परंतु बबूसा रानी ताशा और देवराज चौहान की तरफ बढ़ गया। एक तरफ खड़े सोमाथ ने बबूसा को रानी ताशा की तरफ जाते देखा तो वो भी उसी तरफ बढ़ गया।
रानी ताशा और देवराज चौहान की निगाह पहले ही पास आते बबूसा पर टिक गई थी।
“आओ बबूसा।” उसके पास आने पर देवराज चौहान ने मुस्कराकर कहा- “तुम्हें देखकर तो मुझे सदूर की और भी याद आने लगती है।”
“कुछ ही दिनों में हम सदूर पर होंगे राजा देव।” बबूसा भी मुस्कराया।
तब तक सोमाथ भी पास आ पहुंचा था।
“तुम्हारे साथ बीते वो दिन बहुत याद आते हैं।”
“मुझे भी याद आते है। अब फिर सदूर ग्रह आपके रंग में रंग जाएगा।”
“हां बबूसा, पर रानी ताशा ने बताया कि वहां बहुत कुछ बदल गया है, पहले जैसा सदूर नहीं रहा।”
“मैं जानता हूं। मैंने देखा है सदूर को बदलते।” बबूसा बोला- “सिर्फ तीस साल पहले तो सदूर से पोपा में बैठाकर मुझे डोबू जाति में छोड़ दिया गया था। तब से पहले तो मैं सदूर पर ही था। मैं डोबू जाति के बारे में रानी ताशा से कुछ कहना चाहता हूं।”
“कहो-कहो।”
बबूसा ने रानी ताशा को देखकर कहा।
“रानी ताशा ये ठीक है कि मैं सदूर का वासी हूं पर मैंने अपना आधा जीवन डोबू जाति में बिताया है। मैं उन्हें दिल से अपना मानता हूं और ये बात मैं कभी भी पसंद नहीं करूंगा कि कोई डोबू जाति का मुखिया बन जाए। उन पर अधिकार कर ले।”
“तो?”
“मैं चाहता हूं आप उन्हें पहले की तरह आजाद कर दें।”
“मुझे डोबू जाति से कोई मतलब नहीं है।” रानी ताशा ने शांत स्वर में कहा- “परंतु मुझे उनका ठिकाना पसंद आया जो कि पहाड़ों के भीतर ही भीतर दूर तक जाता है। हमें पृथ्वी ग्रह पर ऐसा ही कोई ठिकाना चाहिए था कि जब हम पृथ्वी पर आएं तो किसी को हमारी खबर न हो सके। पोपा भी किसी को नजर में न आए। डोबू जाति का ठिकाना सदूर को चाहिए।”
“बेशक। आपका आना-जाना लगा रहे। डोबू जाति वाले आपका स्वागत करेंगे। परंतु मैं उन्हें गुलाम के रूप में नहीं देख सकता।”
“तो तुम चाहते हो कि मैं उन्हें आजाद कर दूं।”
“हां रानी ताशा।” बबूसा ने सामान्य स्वर में कहा।
“ये सम्भव नहीं।” रानी ताशा ने इंकार में गर्दन हिलाई-“हम पोपा में बैठकर सदूर पर चले जाएंगे परंतु हमारे कुछ लोग डोबू जाति में रहकर डोबू जाति और ठिकाने पर अपना नियंत्रण रखेंगे। हम लोग पृथ्वी पर आया करेंगे।”
“मैं डोबू जाति को आजाद देखना चाहता हूं रानी ताशा।”
“ये नहीं होगा।”
बबूसा ने देवराज चौहान को देखकर कहा।
“राजा देव। आप तो जानते ही हैं कि बबूसा कभी गलत बात नहीं कहता। मैं डोबू जाति की आजादी चाहता हूं। आपकी बात रानी ताशा अवश्य मान लेगी। डोबू जाति को पहले की तरह आजाद कर दीजिए।”
देवराज चौहान ने रानी ताशा के देखा।
“मेरे देव, अब आप मुझे बबूसा की बात मानने को मत कहिएगा।” रानी ताशा कह उठी।
“हम दोनों मिल गए हैं ताशा।” देवराज चौहान ने प्यार से कहा।
“हां देव, मैंने तुम्हें वापस पा लिया।”
“तो हमें किसी चीज की जरूरत नहीं। सदूर पर जाकर हम इतने व्यस्त हो जाएंगे कि पृथ्वी पर आने का वक्त ही कहां मिलेगा। हमें डोबू जाति और उनके ठिकाने की जरूरत ही नहीं है। बबूसा जो कहता है, मान लो।”
रानी ताशा ने कुछ नहीं कहा। देवराज चौहान और बबूसा को देखा।
“हमारे लिए सदूर ही काफी है। तुम-मैं, हमारा प्यार, सदूर के लोग, वहां की समस्याएं, इन्हीं में हमारा जीवन व्यतीत हो जायेगा ताशा। पृथ्वी और डोबू जाति को तो हमने भूल ही जाना है।”
“तुम ठीक कहते हो देव। सदूर पर जाते ही हमने एक-दूसरे में खो जाना है।” रानी ताशा मुस्करा पड़ी- “देव की बात को तो मैं इंकार कर ही नहीं सकती। जब हम सदूर रवाना होंगे तो डोबू जाति को आजाद कर देंगे देव।”
देवराज चौहान मुस्कराया और बबूसा से बोला।
“कोई और बात हो तो कहो बबूसा। तुम्हारी ये बात पूरी हो गई।”
“शुक्रिया राजा देव। मैं जानता हूं कि आपके होते मुझे कभी निराशा नहीं होगी।” बबूसा कह उठा- “मेरे लिए कोई हुक्म हो तो कहिए। बबूसा आपके हुक्म पर जान देने को भी तैयार है।”
देवराज चौहान ने मुस्कराकर सिर हिलाया।
“तुम मेरे देव के हमेशा ही खास रहे हो बबूसा।” रानी ताशा ने कहा।
“और आगे भी रहूंगा। आप मुझे कभी भी आजमा सकती हैं रानी ताशा।”
“मेरे देव की सेवा करते हुए कभी भी अपनी हद से बाहर जाने की चेष्टा मत करना।” रानी ताशा का स्वर शांत था।
“कभी नहीं रानी ताशा। बबूसा को अपनी हद का हमेशा ध्यान रहता है।”
इसके बाद बबूसा जाने के लिए पलटा कि सोमाथ से नजरें मिलीं।
“कैसे हो सोमाथ।” बबूसा मुस्कराया- “अब तो तुम्हें मेरा दोस्त बन जाना चाहिए।”
सोमाथ, एकटक बबूसा को देखता रहा।
बबूसा वहां से चला गया तो सोमाथ भी दूर हो गया।
बबूसा ने सोमारा को जगमोहन, मोना चौधरी और नगीना से बातें करते पाया।
बबूसा पास जा पहुंचा। धरा भी वहीं थी।
“अब तुम हालातों के बारे में क्या विचार रखते हो बबूसा?” जगमोहन ने धीमे स्वर में पूछा।
“मैंने तुम्हें बताया तो है कि...” सोमारा ने कहना चाहा।
“मुझे बबूसा से बात कर लेने दो।” जगमोहन गम्भीर था।
“मेरे विचार वो ही हैं जो कि पहले थे।” बबूसा ने कहा-“मैं राजा देव को वो वक्त याद दिला के रहूंगा, जब रानी ताशा ने उनके साथ धोखा करके सेनापति धोमरा के साथ मिलकर, उन्हें सदूर ग्रह से बाहर फेंक दिया था।”
“हम देवराज चौहान को वापस पाना चाहते हैं।” मोना चौधरी बोली।
“मुझसे जो बन पड़ेगा, मैं जरूर करूंगा। हम लोग एक ही हैं।” बबूसा ने कहा।
“परन्तु जब तक सोमाथ है, तब तक हम कुछ नहीं कर सकते।” मोना चौधरी ने कहा।
“ये बात सच है कि सोमाथ हमारे लिए समस्या है।” बबूसा ने मोना चौधरी को देखा-“सोमाथ से निबट पाना आसान नहीं है।” बबूसा की निगाह रानी ताशा के आदमियों की तरफ गई-“उनके पास सदूर का हथियार जोबिना है। अगर मुझे जोबिना मिल जाए तो मैं सोमाथ को पलों में राख कर सकता हूं।”
जगमोहन, मोना चौधरी और नगीना की निगाह उन तीनों की तरफ गई।
“मैं उनसे जोबिना हासिल करने की कोशिश करती हूं।” मोना चौधरी बोली।
“गलती मत कर देना। जोबिना सिर्फ उन्हीं लोगों के पास होती है जो खतरनाक लोग होते हैं। अगर तुमने ऐसी कोई कोशिश की तो वो पलों में तुम्हें राख बना देंगे। तुम जोबिना हासिल कर पाने में कभी सफल नहीं हो सकोगी।”
“तो तुम ये काम कैसे कर पाओगे?”
“मौका लगा तो जरूर करूंगा। क्योंकि सोमाथ को खत्म किए बिना, रानी ताशा को सबक नहीं सिखाया जा सकता। मेरे ख्याल में सोमाथ जान चुका है कि मैं कुछ करूंगा। वो मुझे संदेह भरी निगाहों से देखता रहता है।” बबूसा ने कहा।
“ये पक्का है कि जोबिना नाम के हथियार से सोमाथ खत्म हो जाएगा?” जगमोहन ने पूछा।
“हां, पक्का है।” बबूसा ने सख्ती से कहा-“जोबिना सोमाथ को राख में बदल देगा।”
जगमोहन ने मोना चौधरी को देखकर कहा।
“हमें जोबिना हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए।”
“मैं भी ये ही सोच रही हूं।” मोना चौधरी ने गम्भीर स्वर में कहा।
“ऐसा कर पाना इतना आसान होता तो मैं ये काम कब का कर चुका होता।” बबूसा बोला-“उल्टी हरकत करके अपनी जान मत गंवा देना। मुझे मौके और सही वक्त का इंतजार करने दो। आने वाले वक्त में न जाने कैसे हालात पैदा होने वाले हैं। अपने को उस वक्त के लिए बचाकर रखो। हो सकता है डोबू जाति पहुंचकर, अच्छा मौका हाथ लग जाए। वहां सब मेरे लोग हैं और रानी ताशा के लोग हुकूमत चला रहे हैं। वो भी जरूर मौके का इंतजार कर रहे होंगे।”
“तुम्हारा मतलब कि डोबू जाति पहुंचने पर, कुछ हो सकता है?” जगमोहन ने पूछा।
“हो भी सकता है। क्या पता आने वाला वक्त कैसे करवट लेता है।”
अब तक खामोश खड़ी नगीना कह उठी।
“आखिर तुम करना क्या चाहते हो। तुम्हारी मंजिल क्या है?”
“मैं राजा देव को रानी ताशा से अलग करके, राजा देव को एकांत में बैठाना चाहता हूं कि सदूर जन्म की बाकी बची यादें भी राजा देव को याद आ जाएं कि रानी ताशा ने उन्हें किस तरह का धोखा दिया था।” बबूसा ने कहा।
“परंतु रानी ताशा को तो देवराज चौहान हर गलती के लिए माफ कर चुका है।” धरा बोली।
“उन बातों पर मत जाओ। ये समझो कि राजा देव उस धोखे के प्रति अभी तक अंजान हैं। राजा देव को मैं आप सब से बेहतर जानता हूं। वो जितने नर्म है, उससे ज्यादा कठोर है। उस धोखे के बारे में जानने के बाद राजा देव, रानी ताशा को क्षमा नहीं करेंगे। तब राजा देव, रानी ताशा की सुंदरता की भी परवाह नहीं करेंगे।”
“इस वक्त देवराज चौहान अपनी इच्छा से, होशो-हवास में रानी ताशा के साथ है?” नगीना ने गम्भीर स्वर में पूछा।
बबूसा ने नगीना को देखा और कह उठा।
“ये बात तुम क्यों पूछ रही हो?”
“देवराज चौहान मेरा पति है। उसकी खुशी में ही मेरी खुशी है। अगर वो अपनी मर्जी से रानी ताशा के साथ जा रहा है तो मैं यहीं से वापस लौट जाना पसंद करूंगी। जब से सफर शुरू किया है, मैं इसी उलझन में फंसी हूं।”
“ये तुम कैसी बातें कर रही हो बेला।” मोना चौधरी कह उठी।
“अभी तुम...” जगमोहन ने कहना चाहा।
“मुझे इस बात का जवाब दे लेने दो।” बबूसा ने सामान्य स्वर में नगीना को देखते हुए कहा-“तुमने अच्छी बात पूछी, और मैं तुम्हें बता देना चाहता हूं कि कहने को तो राजा देव अपनी मर्जी से रानी ताशा के साथ हैं। तुम देख ही रही हो कि रानी ताशा, राजा देव के साथ कोई जबर्दस्ती नहीं कर रही। परंतु हकीकत ये है कि राजा देव इस वक्त बहुत जबर्दस्त गलतफहमी के शिकार हुए पड़े हैं कि रानी ताशा में उनकी जिंदगी बसती है। ऐसा कुछ नहीं है। तुम रानी ताशा द्वारा दिए गए धोखे के बारे में कुछ नहीं जानती, परंतु मैं और सोमारा जानते हैं।” बबूसा ने सोमारा को देखा-“जिस वक्त राजा देव को उस धोखे के बारे में याद आ गई तो उसी वक्त उन्हें अपनी
भूल का एहसास हो जाएगा। रानी ताशा उन्हें जहर की तरह लगने लगेगी और बेहद कड़ी सजा दे देंगे रानी ताशा को।”
“अगर ऐसा न हुआ तो? देवराज चौहान ने सब कुछ जान लेने के बाद भी रानी ताशा को सजा नहीं...”
“मैं राजा देव को आप सबसे बेहतर जानता हूं। उस धोखे की सजा तो राजा देव, रानी ताशा को जरूर देंगे। जैसे भी हो राजा देव को रानी ताशा से अलग करना है कि अकेले में उन्हें सदूर के जीवन की यादें ठीक से याद आ सके।”
“इसमें कितना वक्त लगेगा?”
“कह नहीं सकता।” बबूसा के चेहरे पर बेचैनी की लकीरें उभरीं।
“तुमने कहा था कि सदूर पर पहुंचने के बाद रानी ताशा महापंडित से कहकर देवराज चौहान के दिमाग के उस हिस्से को साफ करा देगी, जहां सदूर के जन्म की यादें दर्ज हैं।” नगीना ने सोच भरे स्वर में कहा।
“ऐसी ही बात है। परंतु मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। ऐसा वक्त आने से पहले ही मुझे कुछ करना होगा। तुम सब भी मेरे साथ हो तो ये और भी अच्छी बात है। हम रानी ताशा को सफल नहीं होने देंगे। उन्हें राजा देव धोखे की सजा जरूर देंगे। सोमाथ के लिए मुझे जल्दी ही कुछ सोचना होगा। शायद डोबू जाति जाकर कोई रास्ता दिखे सोमाथ को खत्म करने का।”
“इस मामले में तुम हमसे ज्यादा सहायता की उम्मीद मत रखना।” जगमोहन बोला-“सोमाथ हमारें बस के बाहर की ‘चीज’ है।”
“जानता हूं।” बबूसा के होंठ भिंच गए-“परंतु सोमाथ मेरे बस से बाहर की चीज नहीं है। मैं ही देखूंगा उसे।”
“मैं तेरे साथ हूं।” सोमारा गम्भीर स्वर में कह उठी।
सब थोड़ा-बहुत खा चुके थे। आराम भी हो गया था। सर्दी का जोर और भी बढ़ गया था। दिन की रोशनी सर्दी और कोहरे की वजह से मध्यम होने लगी थी। रास्ता अभी लम्बा सफर था। बबूसा चाहता था कि दिन भर का सफर करके, वो उस पहाड़ी खोह तक जा पहुंचे (जहां ‘बबूसा’ उपन्यास में धरा और जोगाराम रुके थे) ताकि रात की सर्दी से कुछ राहत मिले और थोड़ा-बहुत सोया भी जा सके।
सफर पुनः शुरू हो गया।
पहले की तरह बबूसा आगे अपना घोड़ा दौड़ा रहा था। घोड़ों की टापों की आवाजें उस वीरान और सुनसान जंगल में पुनः गूंजने लगी थी। धरा अपने घोड़े पर मौजूद थी और किसी का ध्यान उस पर नहीं था। इस वक्त अगर कोई धरा के चेहरे को देख लेता तो चौंक जरूर जाता। क्योंकि धरा की आंखों और चेहरे पर खतरनाक चमक लहरा रही थी। वो मुस्करा रही थीं जिसकी वजह से उसका निचला होंठ टेढ़ा हो गया था और वो खतरनाक जैसी दिखने लगी थी फिर अजीब से वहशी अंदाज में बड़बड़ा उठी।
“तू तो बहुत समझदार निकली खुंबरी। तेरी ताकतों ने तुझे पहले ही एहसास दिला दिया था कि वापस सदूर पर डोबू जाति और बबूसा की सहायता के बिना नहीं पहुंच सकेगी। वो ही बात सच निकली। अब सदूर ग्रह पर जाने का मेरा रास्ता साफ हो चुका है। पांच सौ सालों के बाद तू वापस सदूर ग्रह पर जा रही है। अपने सदूर पर पांच सौ साल पहले ही मुझे पता लग गया था अपनी ताकतों से कि पांच सौ साल बाद मुझे सदूर पर जाने का मौका मिलेगा, तभी तो वक्त बिताने मैं पृथ्वी पर आ गई थी और यहां जन्म लेने लगी। जब मैंने धरा के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया तो तभी मुझे एहसास हो गया था कि इस जन्म में पांच सौ साल पूरे होने वाले हैं और मैं वापस सदूर पर जाऊंगी। सदूर मेरा है, सिर्फ मेरा है। पहले तो मैं धोखे से फंस गई थी, परंतु अब खुंबरी नहीं फंसने। सबको तिगनी का नाच न नचा दिया तो मेरा नाम खुंबरी नहीं। पांच सौ साल पूरे होते ही मेरी ताकतें जिंदा हो जाएंगी। फिर खुंबरी का मुकाबला कोई नहीं कर सकेगा।”
घोड़े डोबू जाति की दिशा में दौड़े जा रहे थे। हर तरफ घोड़ों के टापों की ‘थापों’ की आवाज गूँज रही थी।
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डोबू जाति के दाईं तरफ, तीन दिन के रास्ते पर टाकलिंग ला पड़ता था तो बांई तरफ चार दिन के रास्ते पर ‘सूमा’ नाम का गांव पड़ता था, जहां की आबादी सिर्फ हजार लोगों के आसपास थी। टाकलिंग ला की तरफ से डोबू जाति में आया जाये तो रास्ते में जंगल पड़ते हैं, पहाड़ आते हैं, ये सब आप बबूसा उपन्यास में पढ़ चुके हैं परंतु ‘सूमा’ की तरफ से डोबू जाति की तरफ आया जाए तो चार दिन के सफर का बर्फीला रेगिस्तान पार करना पड़ता था और रास्ते में पनाह लेने के लिए, रात गुजारने के लिए, या बर्फ गिरने की स्थिति में, ठहरने की कोई जगह नहीं थी। चारों तरफ बर्फ का रेगिस्तान ही दिखता था। ये ही वजह थी कि ‘सूमा’ की तरफ से डोबू जाति तक का रास्ता कोई तय नहीं करता था, न ही डोबू जाति वाले ‘सूमा’ की तरफ जाते थे, क्योंकि रास्ता लम्बा और जटिल था।
अब हम ‘सूमा’ की तरफ चलते हैं। ‘सूमा’ गांव का हाल देखते हैं।
‘सूमा’ गांव के लोगों के पास रोजगार के नाम पर खास कुछ नहीं था। इन बर्फीले पहाड़ों के पास मैदानी जगहों पर अपने कच्चे-पक्के घर बनाकर जाने कब से यहां बसे हुए थे। सर्दियां शुरू होते ही जब बर्फ गिरने का वक्त करीब आता तो गांव के अधिकतर लोग जरूरी सामान लेकर पहाड़ों से नीचे, वहां चले जाते जहां बर्फ नहीं गिरती थी और वहीं रहते बर्फ गिरने तक। वहां कमाते, मेहनत करते, पैसा इकट्ठा करते और जब गर्मियां शुरू होतीं तो ये सब वापस ‘सूमा’ आ जाते। इस दौरान सर्दियों में, बर्फ गिरने के समय में कुछ लोग ‘सूमा’ में ही रुकते और वहां के घरों की देखभाल करते तो कुछ ऐसे भी होते जो सेहत से लाचार होते और लम्बा सफर करके, दूर कहीं जाने के काबिल नहीं होते। ये लोग उन भेड़ों का ख्याल रखते जिन्हें साथ नहीं ले जाया गया होता या उन गायें-भैंसों की देखभाल करते जिनके दूध से इनका काम चलता था। ऐसे वक्त में ‘सूमा’ में पांच-सात जवान लोग जरूर रह जाते थे, जो कि ‘सूमा’ के लोगों के लिए, खाने का इंतजाम करते। ऐसी बर्फ भरी कड़ाके की सर्दी में, गर्मी पाने के लिए, जानवरों का मांस खाना बहुत जरूरी हो जाता और ये जवान लोग जानवरों का शिकार करके लाते, जिन्हें खाने के लिए पकाया जाता।
‘सूमा’ गांव से आधा किलोमीटर दूर एकमात्र होटल ‘आइस हिल्स’ था।
‘आइस हिल्स’ सूमा गांव की रौनक था। उस इलाके की रौनक था। बर्फबारी के समय में ये होटल पूरी तरह वीरान हो जाता था। यहां तक कि चौकीदार भी नहीं होता था। क्योंकि बर्फ गिरते रहने की वजह से रास्ते बंद हो जाते थे और ‘सूमा’ की तरफ किसी के आ पहुंचने के सवाल ही नहीं उठता था। इस तरफ आने वाला एकमात्र कच्चा रास्ता, जो कि महज पंद्रह फुट चौड़ा था, जो कि कहीं आठ-दस फुट चौड़ा भी रह जाता था, बर्फ गिरने को वजह से वो भी बंद हो जाता था। परंतु गर्मियां शुरू होते ही ‘आइस हिल्स’ का मालिक ढेर सारे कर्मचारियों के साथ आ पहुंचता और साफ-सफाई के बाद होटल खुल जाता, क्योंकि गर्मियों में इधर आइस-स्कीइंग करने वाले लोगों के आने का तांता लग जाता था। सूमा के हर तरफ दूर-दूर तक बर्फ ही थी। आइस-स्कीइंग करने के लिए बेहतरीन जगह थी। आइस हिल्स नाम का ये होटल, आइस स्कीइंग के लिए काफी मशहूर था और लोग दूर-दूर से यहां आते थे। कई लोग तो जैसे हर साल ही आया करते थे। होटल में कुल बाईस कमरे थे और हालात ये हो जाती कि हर सीजन में कमरे कम पड़ जाते। अक्सर आने वालों को एक बड़े हॉल में इकट्ठे रहना पड़ता। चूँकि ये जगह पहाड़ों के बहुत ऊपर थी, ऐसे में खाना-पीना काफी महंगा था और पसंदीदा चीजें भी कम ही मिलती थीं। होटल वालों का जो ‘मेन्यू’ होता, वो ही होटल में ठहरे लोगों को खाना पड़ता। लेकिन इस बात से कम लोगों को ही शिकायत होती, क्योंकि ये उनकी पसंदीदा जगह थी आइस-स्कीइंग के लिए। आइस स्कीइंग का सामान होटल की तरफ से ग्राहकों के लिए मुफ्त उपलब्ध होता, या यूं भी कह सकते हैं कि किराए और खाने का पैसा ही इतना ठोक बजाकर लिया जाता कि आइस स्कीइंग के सामान का पैसा न लेकर दिखावे के तौर पर मलहम लगाई जाती होटल की तरफ से। जो भी हो आइस हिल्स होटल के खुलने पर गर्मियों में सूमा में बहार आ जाती, क्योंकि तीन महीनों के लिए सूमा गांव के लोगों को भरपूर रोजगार मिल जाता। आइस-स्कीइंग के लिए आए लोगों को साथ में ऐसे व्यक्ति की भी जरूरत होती जो यहां के बर्फीले पहाड़ों के रास्ते जानता हो, ताकि वे भटक न जाएं और ये काम सूमा गांव के युवक और युवतियां करते, जो कि इसी रोजगार के लिए आइस-स्कीइंग सीखे हुए हैं। इन पर्यटकों का साथी बनकर, इन्हें काफी अच्छा पैसा मिल जाता, जिनमें सूमा गांव वालों का खाना-पीना बेहतर रहता। हालांकि खाना-पीना यहां नहीं मिलता था। जरूरत का सामान लाने के लिए सात मील नीचे ‘ख्वारो’ नाम की जगह पर जाना पड़ता जो कि भरपूर पहाड़ी गांव था और वहां पर सामान मिलने की दुकानें थीं। गर्मियों में सूमो गांव वाले, आइस हिल्स होटल की गाड़ियों में बैठकर ‘ख्वारो’ चले जाते थे होटल की गाड़ियां अक्सर दिन में कई बार आती-जाती रहती थीं। इसी तरह वापस भी आ जाते सामान लेकर।
सर्दियों में वीरान, खामोशी थी और गर्मियों में चहल-पहल, ठहाके और मस्ती थी यहां। जैसे गर्मियां आते ही यहां के पहाड़ जीवित हो उठते हों। होटल की छोटी-सी इमारत, बर्फ से ढंके पहाड़ों के बीच रात को रोशनियों में जगमगाती बहुत मनमोहक लगती। एक अलग ही दुनिया का एहसास होता और कुछ दूरी ‘सूमा’ गांव की रात की लाइटें चमकती। कई जगह आग के अलाव दिखते, जहां इकट्ठे बैठे लोग, कड़कती सर्दी में आग सेंकते। रात को अक्सर कोहरा जमीन को छूने लगता और हाल ये हो जाता कि तीन कदम दूर भी कुछ भी नहीं दिखता। सब कुछ कोहरे की ओट में छिप जाता और जब कोहरा वहां से सरक जाता तो जीवन फिर उजागर हो उठता। रोशनी चमकती दिखाई देने लगती।
गर्मियों का मौसम शुरू हो चुका था।
होटल आइस हिल्स सज चुका था। उसमें फिर जीवन जवान हो उठा था।
‘सूमा’ गांव के लोग वापस आना शुरू हो चुके थे।
हर तरफ चहल-पहल और रौनक का दौर इन गर्मियों में भी शुरू हो गया था। हर तरफ बर्फ की सफेदी नजर आ रही थी, परंतु रास्तों पर से बर्फ साफ कर दी गई थी कि टूरिस्ट को होटल तक पहुंचने में परेशानी न हो। उधर सूमा गांव से भी गांव वालों ने बर्फ साफ कर दी थी। इसकी वजह ये थी कि जब टूरिस्टों को होटल में जगह नहीं मिलती तो वे जगह पाने के लिए गांव का रुख करते थे और उन्हें रहने की जगह देकर, वे अच्छी कमाई कर लेते थे। होटल के आसपास लोग बर्फ के गोले बनाकर एक-दूसरे पर फेंक रहे थे। खेल रहे थे। हंसी-ठठा के साथ वे मनोरंजन कर रहे थे। इस खेल में कई तो बूढ़े लोग भी शामिल थे। दोपहर हो रही थी। मध्यम-सा सूर्य निकला हुआ था। कोहरे की वजह से यहां सूर्य देर से निकलता और जल्दी गायब हो जाता। कभी-कभी तो सूर्य देव के दर्शन ही नहीं होते। हर समय वातावरण में तीव्र ठंडक फैली रहती बर्फ की वजह से, ऐसे में जब तेज हवा चलती तो शरीर में कंपकंपी-सी दौड़ जाती थी। मोटे गर्म कपड़े पहने रहना जरूरी था यहां। सप्ताह में तीन दिन ही मौसम बेहतर रहता आइस स्कीइंग के लिए। परंतु कुछ लोग तो मौसम की परवाह नहीं करके, खराब मौसम में भी आइस स्कीइंग के लिए निकल जाते थे। सूमा गांव के आइस स्कीइंग सीखे हुए युवक-युवतियां सुबह से ही हौटल के बाहर आकर जम जाते थे कि आइस स्कीइंग के लिए टूरिस्टों को गाइड की जरूरत हो तो वे अपनी सेवा दें। टूरिस्ट के साथ वे मोल-भाव करते। आमतौर पर गाइड टूरिस्ट से दिन भर के लिए तीन सौ से पांच सौ रुपया लेते थे। गांव के लोगों के लिए ये रकम बहुत बढ़िया होती थी। होटल में टूरिस्ट आते रहते, एक-दो दिन बाद चले जाते, तो तब तक और आ जाते। गर्मियां खत्म होने तक वे नौजवान युवक-युवतियां अच्छी रकम इकट्ठी कर लेते थे जिन्हें वे बाद में, रोजगार न होने पर बैठकर खाते। जिसके सहारे उनके परिवार चलते। जरूरतें पूरी होतीं।
तभी मारुति की इको, टूरिस्ट गाड़ी होटल के सामने आकर रुकी।
ड्राइवर बाहर निकला।
भीतर बैठे लोग भी बाहर निकलने लगे। वे तीन बहनें थीं और तीनों के पति उनके साथ थे। बेहतर है पहले परिचय हो जाए। बड़ी बहन को अक्सर बेबी कहकर पुकारा जाता है और वो दिल्ली के प्राइवेट बैंक में नौकरी करती है, उसका पति राजीव मल्होत्रा, छब्बीस साल का है और सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। बेबी की उम्र 24 हैं। उससे छोटी जोगना है, जो कि घरेलू औरत है। 22 साल की है, उसकी पति संदीप शर्मा उम्र 24 साल है वो इंडियन ऑयल में मैनेजर है, पढ़ाई की बहुत आदत है उसे। नौकरी करते हुए भी वो और पढ़ना चाहता है। वो चुप रहने वाला, गम्भीर किस्म का आदमी है। बातों में कम हिस्सा लेता है। सबसे छोटी बहन सुधा है, उम्र 21 साल, जिंदगी को मस्ती से बिता देने का इरादा रखती है उसका पति पुनीत सेठी है, जो कि दिल्ली पुलिस में सब-इंस्पेक्टर है। सबसे खास बात तो ये है कि तीनों बहनों में बहुत बनती है और तीनों के पति यानी कि साढ़ू भाइयों में गहरी जमती है। ये लोग पिछले साल भी यहां आए थे। तीनों बहनों में से कोई भी आइस-स्कीइंग नहीं जानती, परंतु इन्हें यहां का मौसम बहुत बढ़िया लगता है जबकि तीनों साढ़ू भाइयों को बढ़िया स्कीइंग आती है। संदीप शर्मा को बीते साल स्कीइंग नहीं आती थी परंतु राजीव मल्होत्रा और पुनीत सेठी ने उसे बेहतर ढंग से सिखा दी थी कि वो भी उनके साथ रह सके। वैसे वो कभी-कभी मजाक में संदीप शर्मा को भोंदू भी कहते थे। जिससे संदीप चिढ़ जाता था।
राजीव मल्होत्रा इको से छलांग लगाकर बाहर निकला और वहां का नजारा देखते ही बांहें फैलाकर नाच-सा उठा फिर खुशी से चिल्लाया।
“अब आएगा स्कीइंग का मजा।” कहने के साथ ही उसने खुशी भरे अंदाज में पास आ पहुंची जोगना के कंधे पर हाथ रखा।
तभी संदीप शर्मा इको से बाहर निकलता कह उठा।
“ये क्या कर रहा है। मेरी बीवी के कंधे पर क्यों हाथ रखता है।”
“ओह।” राजीव मल्होत्रा हाथ हटाकर बोला-“मैंने समझा मेरी है।”
“तुमने एक बार पहले भी जोगना के कंधे पर हाथ रखा था।” संदीप ने करीब आकर बुरा-सा मुंह बनाया।
जोगना मुस्करा रही थी।
बेबी और सुधा हंस पड़ी थीं।
“तेरे को याद है?” राजीव मल्होत्रा ने आंखें फैलाकर कहा।
“पुलिस में रिपोर्ट करो।” सुधा हंसी रोकती, अपने पति पुनीत सेठी की तरफ इशारा कर बोली- “रिपोर्ट लिखो।”
“जब जुर्म होगा, तभी रिपोर्ट लिखूंगा।” पुनीत सेठी मुस्कराया- “पुलिस जुर्म होने के बाद अपना काम करती है।”
“अब जोगना के कंधे पर हाथ मत रखना।” संदीप ने कहा और जोगना का हाथ पकड़े आगे बढ़ गया।
“भोंदू।” राजीव मल्होत्रा कड़वा-सा मुंह बनाकर कह उठा-“आधा पागल है साला।”
तभी बेबी पास पहुंचकर आंखें नचाती बोली।
“मेरे जीजू को ऐसा मत बोलो। तुम मेरे कंधे पर हाथ रखो। हम सटकर चलेंगे और जीजू को दिखाएंगे।”
“सामान बाहर निकालना उस्ताद जी।” पुनीत सेठी ने ड्राइवर से कहा, फिर बाकी सब भी इको से अपना सामान निकालने लगे। ड्राइवर ने दो सूटकेस और दो बैग निकालकर बाहर रखे।
राजीव मल्होत्रा ने टैक्सी वाले को पेमेंट दी।
बीस मिनट बाद जब वे होटल के भीतर पहुंचे तो संदीप और जोगना को रिसेप्शन पर खड़े पाया। उन्होंने तीन कमरे ले लिए थे। अभी आसानी से उन्हें कमरे मिल गए थे।
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चार बजे सूर्य गायब हो गया था और मौसम ठंडा होने लगा। पांच-सवा पांच बजे अंधेरा घिर आया था और सर्दी में बढ़ोतरी हो गई थी। अधिकतर टूरिस्ट होटल में जा सिमटे थे। इक्का-दुक्का लोग ही बाहर रहकर तीखी सर्दी का मजा ले रहे थे। होटल के बाहर खड़े वाहनों पर ओस की मोटी परत दिख रही थी। लकीरों के रूप में ओस की बूंदें, पानी बनकर कार की
बॉडी पर खिंची नजर आने लगी थीं। शीशे धुंधले पड़ गए थे।
होटल के भीतर, रिसेप्शन के पास बड़े हॉल में अलाव जला रखा था। वहां पर सीमेंट की पहाड़ी अंगीठी बना रखी थी, जिसके ऊपर चिमनी लगी थी और धुआं चिमनी से होकर, छत के ऊपर चिमनी के आखिरी सिरे से निकल रहा था। उसी हाल में छोटी-मोटी अंगीठियां भी थीं, जो कि कुर्सी पर बैठे आराम फरमाते लोगों के पास भी रखे हुई थीं। होटल का स्टाफ हर तरह की सेवा करने को मौजूद था। किसी को ज्यादा सर्दी लग रही थी तो होटल स्टाफ से कहकर अपने लिए कम्बल मंगवा लेता। होटल में ठहरे लोग एक-दूसरे से अंजान थे, परंतु इस सर्दी भरे वातावरण में आग के सामने इकट्ठे बैठे तो बातचीत का माहौल गर्म हो गया। एक तरफ इकट्ठे बैठे पांच लोग, व्हिस्की का मजा ले रहे थे। इस वक्त ये जगह होटल कम और घर जैसा ज्यादा लग रहा था। होटल का मालिक जिसे कि मिस्टर खोपा कहकर लोग बुला रहे थे, वो लोगों से हाल-चाल पूछता फिर रहा था और हिदायत दे रहा था कि नंगे सिर इस मौसम में होटल से बाहर न निकलें। पीने वाले तो इस बात का खास ध्यान रखें वरना सर्दी बीमार कर देगी।
पहली मंजिल के एक कमरे में संदीप शर्मा मौजूद था। वो रजाई में दुबका हुआ था और सिर पर गर्म टोपी के अलावा हाथों में गर्म दस्ताने भी पहन रखे थे। वो कुक्कड़ बना लग रहा था कि तभी दरवाजा खोलकर जोगना ने भीतर प्रवेश किया। संदीप को इस प्रकार रजाई में दुबके देखकर वो मुस्कराई। जोगना ने सूट और उसके ऊपर काले रंग का गर्म स्वेटर पहन रख था। वो खुश लग रही थी।
“तुम्हें क्या हो गया?” जोगना आगे बढ़ती कह उठी।
“सर्दी लग रही है।”
“सर्दी?” जोगना उसके पास बेड के किनारे पर आ बैठी-“होटल के भीतर सर्दी कहां है। हर कमरे में रूम हीटर चल रहा है। गर्म कपड़े हैं। नीचे हॉल में जाकर देखो, कैसे लोग बैठे गप्पें मार रहे हैं।”
“वो जो भी करें, मुझे सर्दी लग रही है।” संदीप कह उठा।
“तुम भी वो हो।”
“क्या वो?” संदीप ने जोगना को देखा।
“वो ही।”
“क्या वो ही...?” संदीप का हाथ रजाई से बाहर निकाला और जोगना की कलाई थाम ली।
जोगना ने आंखें नचाई।
“क्या बात है भोले बलम?”
“मुझे सर्दी लग रही है, तुम भी रजाई में आ जाओ।”
“पागल हो। ये कोई वक्त है जो...।”
“वक्त को क्या हुआ है, छः बज गये हैं। बाहर अंधेरा है और मुझे सर्दी...”
“साथ वाले कमरे में सब बैठे बातें कर रहे हैं हंस खेल रहे हैं और तुम्हें इन बातों की...”
“उन्हें सर्दी नहीं लग रही होगी। मुझे लग रही है। अब तुम ही मुझे गर्मी दे सकती हो।” कहते हुए संदीप ने जोगना को रजाई में खींचना चाहा कि जोगना झल्ला कर बोली।
“क्या करते हो, कोई आ जायेगा।”
“तो दरवाजा बंद कर दो।” संदीप मचल उठा।
“अभी कुछ नहीं होगा। कोई भी आ सकता है, हमें कमरे में बंद पाकर क्या सोचेगा कि...”
“कुछ नहीं सोचेगा।” संदीप उखड़ गया-“वो नहीं करते क्या?”
“ये बात नहीं है, समझा करो। हम लोग ग्रुप में यहां आये हैं, सब कुछ देखभाल के करना...”
“पर मुझे सर्दी लग रही है।” संदीप ने उसकी कलाई सख्ती से पकड़ ली।
“अब तुम्हारा क्या करूं।” जोगना ने मुंह बनाया-“तुम तो बच्चों की तरह जिद्द कर रहे हो।”
“आ जाओ ना। मुझे गर्मी मिल जाएगी।” संदीप मुंह लटकाकर प्यार से कह उठा।
“अच्छा छोड़ो।” एकाएक जोगना उठी।
“कहां जा रही हो?”
“कलाई तो छोड़ो।” जोगना ने आंख दबाई- “दरवाजा तो बंद कर लूं।
संदीप ने शराफत से जोगना की कलाई छोड़ दी।
जोगना दरवाजे के पास पहुंची और बंद करने की अपेक्षा उसे खोलते हुए बोली।
“इतनी भी सर्दी नहीं है कि तुम्हें गर्मी की जरूरत हो।”
“क्या मतलब?”
“उठ जाओ। रजाई से बाहर निकलो। राजीव और पुनीत की तरह स्मार्ट दिखो मुझे।” जोगना ने हंसकर कहा।
“उन्हें सर्दी नहीं लग रही होगी, पर मुझे तो लग रही है। बाद में मैं भी रजाई से बाहर...”
“सॉरी पतिदेव, ये वक्त इन बातों का नहीं है।”
“तो तुम मुझे धोखा देकर भाग रही हो।”
“मैं राजीव और पुनीत को तुम्हारे पास भेजती...”
“उनका मैं क्या करूंगा। मुझे तो तुम्हारी जरूरत...”
जोगना बाहर निकल गई और जाते-जाते दरवाजा बंद कर गई।
“समझ में नहीं आता कि शाम को छः बजे औरतों को सर्दी क्यों नहीं लगती।” संदीप बड़बड़ा उठा।
दस मिनट बीते कि पुनीत और राजीव ने भीतर प्रवेश किया।
“क्यों भोंदू, पता चला तेरे को सर्दी लग रही है।” राजीव ने कहा।
“तेरे को कई बार कहा है कि मुझे भोंदू मत कहा कर।” संदीप ने बुरा सा मुंह बनाया।
“वो तो यार तेरे को प्यार से कहता हूं।”
दोनों कुर्सियों पर आ बैठे।
“अब तो तूने जोगना के कंधे पर हाथ नहीं रखा?” संदीप ने आंखें तरेर कर कहा।
“बिल्कुल नहीं, पुनीत से पूछ ले।” राजीव ने पुनीत को तरफ इशारा किया-“पर मैं तेरे को इजाजत देता है तू बेबी के कंधे पर हाथ रख सकता है। उसके साथ डांस कर सकता है।”
“अच्छा।” संदीप ने व्यंग्य से कहा-“तेरा क्या ख्याल है कि तेरी ये बात सुनकर मैं तुझे जोगना के कंधे पर हाथ रखने की छूट दे दूंगा। भूल जा मैं तेरी बातों में फंसने वाला नहीं। जोगना के कंधे पर हाथ मत रखना।”
पुनीत दोनों को देखता मुस्करा पड़ा।
“तू इसे समझाता क्यों नहीं पुलिस वाले?” राजीव ने पुनीत से कहा।
“जोगना, संदीप की है। कंधे पर हाथ रखने के मामले में, में संदीप की तरफ हूं।”
“ये सच्चा पुलिस वाला है।” संदीप मुस्करा कर बोला।
“इतना भी सच्चा नहीं। मेरे एक दोस्त का केस ठीक कराने के लिए इसने पचास हजार...”
“वो मामला मालूम है मुझे।” संदीप कह उठा-“वो इसने नहीं, इसने साथी पुलिस वालों को दिए हैं। पुनीत की वजह से तुम्हारा दोस्त बच गया, वरना छेड़खानी के मामले में इस वक्त जेल की हवा खा रहा होता।”
“इन बातों को छोड़ो।” पुनीत बोला-“तू रजाई में क्यों घुसा हुआ है?”
“सर्दी बहुत है यार।” संदीप बोला-“एक बात तो बता कि औरतों को ठंड क्यों नहीं लगती?”
पुनीत और राजीव की नजरें मिलीं।
“तो ये मामला है।” पुनीत बोला-“औरतों को वक्त पर ठंड लगती है। बे-वक्त नहीं। आदमी खुले घोड़े की तरह होता है और औरतें कपड़े पहनकर रखती हैं।” पुनीत मुस्करा पड़ा।
“मैंने रजाई में बैठने को कहा तो कहती है राजीव और पुनीत को भेजती हूं।” संदीप ने मुंह बनाया-“मैं तो...”
तभी दरवाजा खुला और सुधा, बेबी, जोगना ने भीतर प्रवेश किया। सुधा ने हाथ में पकड़े लिफाफे से दो बोतल निकालकर बेड पर रख दी और बोली। गिलास, पानी और खाने का सामान वेटर लेकर आ रहा है। ज्यादा मत पीना तुम लोग। हम साथ वाले कमरे में हैं। जब तुम लोगों की बोतल बंद हो जाए तो हमें बता देना।”
संदीप ने शिकायती नजरों से जोगना को देखा।
जोगना ने ऐसी शरारती निगाहों से बेड पर पड़ी बोतलों की तरफ इशारा किया जैसे कह रही हो, ये बोतलें देंगी ‘सर्दी में भी, गर्मी का एहसास।’
जोगना, बेबी, सुधा बाहर निकल गईं।
‘इससे तो वो बढ़िया थी।’ संदीप बड़बड़ा उठा।
“कौन?” राजीव ने उसकी बड़बड़ाहट सुन ली थी।
“तुझे क्यों बताऊं, ये प्राइवेट बात है।”
तभी पुनीत उठा और टेबल उठाकर कुर्सियों के सामने रखने लगा। फिर दोनों बोतलें उठाकर टेबल पर रखीं। उसके बाद कुर्सी पर बैठता कह उठा।
“मेरे ख्याल में कल सुबह हमें आइस-स्कीइंग के लिए चलना चाहिए। और कुछ लम्बा चक्कर लेंगे। पिछले साल तो सारा समय इसे आइस-स्कीइंग में ही सिखाने में निकल गया था।”
“अब तो मैं तुमसे बढ़िया आइस-स्कीइंग कर लेता हूं।”
“भूले तो नहीं?” राजीव बोला।
“ऐसी चीजें भूली नहीं जाती।” संदीप मुस्कराया।
तभी वेटर आ गया।
पानी का जग और तीन गिलास रख गया।
पुनीत ने बोतल खोली और गिलासों को तैयार करने लगा।
“कल का मौसम देखेंगे।” राजीव ने कहा-“मौसम साफ हुआ तो आइस स्कीइंग के लिए निकल चलेंगे।”
“मेरे ख्याल में हमें गाइड भी साथ रखना चाहिए। रास्ता न भटक जाएं। बर्फ के सब रास्ते एक से लगते हैं।”
“गाइड मैं ढूंढ़ लूंगा।” संदीप बोला-“पर आइस स्कीइंग के वक्त मुझे सर्दी लगी तो, मैं क्या करूंगा।”
“मेरे से लिपट जाना।” राजीव बोला।
“तुमसे?” संदीप भड़क कर कुछ कहने लगा कि चुप हो गया।
पुनीत ने मुस्कराकर दोनों को गिलास थमाए।
“कहते-कहते चुप क्यों हो गए?”
“कह देता तो तुम जल-भुन उठते। मैं ट्रिप का मजा खराब नहीं करना चाहता।”
“समझदारी की बात कर रहा है।” पुनीत ने अपना गिलास थाम लिया।
“समझदार तो मैं तुमसे बहुत हूं पर जब ठंड लगती है तो दिमाग खराब हो जाता है।”
तीनों ने गिलास टकराए।
“चियर्स। हमारे यहां पहुंचने के नाम और हमारा ये दौर शुरू होने की खुशी में।”
तीनों ने गिलासों से घूंट भरे।
तभी वेटर ड्रिंक के साथ का खाने-पीने का सामान ले आया।
“रात के खाने का आर्डर ले जाना।” संदीप बोला।
“सर। होटल में खाना एक-सा ही बनता है क्योंकि खाने का सामान नीचे से आता है।” वेटर ने कहा-“किसी के लिए भी कुछ खास नहीं बनाया जाता। होटल का एक ही मेन्यू होता है।”
“आज के मेन्यू में क्या है।”
“आलू पालक और दाल।” वेटर ने बताया।
“ये मेन्यू कोई मेन्यू हुआ। ये चीजें तो हम घर में खाते हैं। बाहर भी यही खाना है तो आने का क्या फायदा?”
पुनीत के इशारे पर वेटर चला गया तो पुनीत ने कहा।
“ये पहाड़ों की काफी ऊंची जगह है। यहां खाने को जो मिल जाए, खा लो। यहां आलू-पालक और दाल भी खाने में मजा आएगा। दिल्ली में तो हमें मिलने का भी वक्त नहीं मिलता, यहां एक साथ खाएंगें तो मजा डबल हो जाएगा।”
संदीप सिर हिलाकर रह गया।
दौर जारी रहा। पीना चलता रहा। बीच-बीच में कभी सुधा तो कभी बेबी तो कभी जोगना चक्कर लगाती और उन्हें कम पीने को कहकर चली जाती परंतु पीने का दौर जब रुका तो रात के ग्यारह बज रहे थे। दोनों बोतलें खाली हो चुकी थीं। मजे ही मजे थे तीनों के।
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अगला दिन निकला।
कोहरे और धुंध से भरा वातावरण था। हर तरफ ओस का गीलापन दिखाई दे रहा था। सर्दी इतनी कि हड्डियां ठिठुर रही थीं। पौने सात बजे दिन का उजाला फैलना शुरू हुआ था और सवा सात बजे तक दिन की पूरी रोशनी फैल चुकी थी। ठहरा-ठहरा सा कोहरा, बेहद धीमे-धीमे सरक रहा था। हवा का नामों-निशान नहीं था। होटल के बाहर खड़ी कारें और टैक्सियों का ओस से बुरा हाल था। होटल में ड्राईवरों के लिए एक कमरा मुफ्त में रखा गया था कि ड्राईवर वहां रह सकें। ऐसी कड़ाके की ठंड में होटल के भीतर खामोशी थी। हर कोई कमरे में, रजाई में दुबका हुआ था। परंतु अब जाग होनी शुरू हो गई थी। वेटर ‘बेड टी’ लेकर आते-जाते दिखने लगे थे। चहल-पहल का आरम्भ होता जा रहा था। कुछ लोग ऐसे भी थे जो अपनी आदत से मजबूर थे और सुबह उठकर सैर के लिए जाकर, वापस भी आ चुके थे। परंतु अब वो फिर रजाई में जा घुसे थे। पुनीत की आंख खुल गई। बगल में सोई सुधा को देखा। वो रजाई में छिपी नींद में थी। वो जानता था कि सबको सोते-सोते रात के तीन बज गए थे। फिर वो मुस्करा पड़ा कि रात खूब पी। दोनों बोतलें, तीनों ने खत्म कर दी थीं। रात की कुछ बातें याद थीं तो कुछ नहीं, तभी उसे ध्यान आया कि आज आइस स्कीइंग करने जाने का प्रोग्राम है। पुनीत बेड से उतरा और खिड़की पर लगे पर्दे को जरा-सा हटाकर बाहर देखा। कोहरा दिखा बाहर। ऐसे मौसम में आइस स्कीइंग के लिए जाना ठीक नहीं था। सामने कुछ दिखेगा ही नहीं तो स्कीइंग कैसे की जा सकेगी। सूर्य बेशक ना निकले परंतु मौसम तो साफ होना ही चाहिए। वो वापस बेड पर पहुंचा और रजाई लेकर लेटने जा रहा था कि सुधा ने कहा।
“उठने के बाद क्यों सो रहे हो इंस्पेक्टर साहब?”
पुनीत ने देखा कि रजाई में से सुधा की खुली आंखों से उसे देख रही है।
“तुम जाग रही हो?” पुनीत मुस्कराया।
“तुम उठ जाओ तो मैं सोई कैसे रह सकती हूं।” सुधा ने उसी मुद्रा कहा।
“अभी नींद पूरी नहीं हुई। सोने जा रहा हूं।” पुनीत बोला।
“उठ जाने के बाद सोने का क्या मतलब?”
“बाहर बहुत सर्दी है।”
“आज तो तुम लोगों का आइस स्कीइंग का प्रोग्राम है।”
“मौसम बहुत खराब दिख रहा है बाहर कोहरा है।” पुनीत ने रजाई ओढ़ ली।
“आज हम बहनों का भी प्रोग्राम है।”
“कहां का?” पुनीत ने चेहरे से रजाई हटाई।
“तुम लोग आइस स्कीइंग के लिए जाओगे और हम तीनों पास के गांव में। पिछले साल जब आए थे तो गांव की एक औरत के घर हमने मजेदार खाना खाया था। उसे खाने के पैसे दिए थे। इस बार भी ऐसा करेंगे।”
“तुम तीनों गांव में हो आना। आइस स्कीइंग के लिए मौसम ठीक नहीं लग रहा।”
“क्या पता मौसम साफ हो जाए।”
“पता चल जाएगा।”
“रात तुम तीनों ने काफी पी ली थी। दोनों बोतलें खत्म कर दीं।”
“संदीप ने ज्यादा पी थी।” पुनीत मुस्कराया।
“हां। संदीप को सम्भालना पड़ा। वो नशे में उल्टी-सीधी हरकतें कर रहा था। उसे शराब हजम नहीं होती।”
“सब हजम होती है।” पुनीत हंसा-“ज्यादा पी लेगा तो आउट होगा ही।”
“वो नशे में जोगना के साथ लिपटे जा रहा था।” सुधा हंस पड़ी।
“उसे हर समय ये ही काम नजर आता है।” पुनीत मुस्कराया।
“रूम सर्विस में चाय-कॉफी के लिए कहो।” सुधा बोली।
“और सोना नहीं चाहती?”
“मैं यहां सोने नहीं, घूमने आई हूं। सोना तो वापस दिल्ली जाकर भी हो जाएगा।”
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बेबी और राजीव एक ही रजाई में, गहरी नींद में डूबे हुए थे। तभी राजीव ने करवट ली तो बेबी के ऊपर से रजाई सरक गई। कुछ पलों बाद उसे सर्दी लगी तो उसने बंद आंखों से ही रजाई टटोलकर उसे अपने ऊपर ले लिया। तो राजीव के ऊपर से रजाई हट गई। राजीव की नींद टूटी और झल्लाकर बोला।
“क्या करती हो। मेरी रजाई...।”
“पतिदेव।” नींद में बेबी ने कहा-“ये मेरी रजाई है। तुम मेरी रजाई में घुस आए थे।”
राजीव मल्होत्रा ने आंखें खोलीं। गहरी सांस ली।
“रात तो तुमने सारा नशा उतार दिया था।” राजीव के होंठों पर मुस्कान थी।
“अच्छा।” बेबी मुस्कराई। उसकी आंखें बंद थीं-“याद है तुम्हें?”
“याद क्यों न होगा।”
“ये भी याद होगा कि मैंने कैसे तुम्हारा नशा उतारा।” बेबी ने आंखें खोली।
“वैसे ही जैसे, हर बार उतारती हो। पीना वसूल हो जाता है, जब तुम्हारे पास आ जाता हूं।”
“मक्खन मत लगाओ। मैं तो भोली-भाली थी। सब कुछ तुमने ही सिखाया है मुझे।”
“कुछ गलत तो नहीं सिखाया। हम पति-पत्नी हैं।”
बेबी ने बांह आगे करके राजीव पर रख दी।
“तुम बहुत बढ़िया हो राजीव।”
“मेरे ख्याल में तो तुम ज्यादा बढ़िया हो।”
बेबी हौले से हंसी और कह उठी।
“मेरे ख्याल में हम दोनों ही अपना काम करना जानते हैं माई डियर। मुझे पता है तुम्हारा नशा कैसे उतरेगा।”
राजीव ने झुककर बेबी का गाल चूमा।
“तुम्हारे मुंह से अभी भी व्हिस्की की स्मैल आ रही है।” बेबी बोली।
“रात ज्यादा हो गई थी।”
“इतनी क्यों पी?”
“बातों-बातों में पता ही नहीं चला।”
“और मुझे तुम्हारा नशा उतारने में मेहनत करनी पड़ी।” बेबी ने शरारती स्वर में कहा।
“उस मेहनत में तुम्हें मजा आया कि नहीं?” राजीव ने मुस्कराकर कहा।
“बहुत मजा आया। पूछो मत। बहुत देर बाद ऐसा मजा आया। संदीप तो होश खो बैठा था।”
“क्या किया उसने?”
“वो सबके सामने ही जोगना से चिपके जा रहा था। तुमने और पुनीत ने उसे काफी पीछे किया, परंतु वो माना ही नहीं।”
“मुझे याद नहीं कि मैंने ऐसा किया था।”
“तुम भी कहां होश में थे।”
“पर मैं तुम्हारे साथ चिपका तो नहीं।” राजीव हंस पड़ा।
“नहीं। इस बात का बचाव रहा।” बेबी भी हंसी।
“आज हमारा स्कीइंग पर जाने का प्रोग्राम है।” राजीव ने कहा।
“रात बताया था तुम्हें हम बहनें आज गांव में जाएंगी, वहां हम किसी के यहां खाना खाएंगी। इन पहाड़ी लोगों के खाने का मजा ही अलग होता है। पिछले साल भी हमने इसी तरह मजा उठाया था।”
“इस बार स्कीइंग करते हम ज्यादा दूरी तक पहाड़ों को जाएंगे।”
“खो मत जाना।”
“हमारे साथ गाइड होगा। खाने-पीने का कुछ सामान भी ले चलेंगे। पूरी मस्ती करेंगे।”
“वक्त पर लौट आना।” बेबी ने कहा।
“डोंट वरी डियर।” राजीव ने कहा और बेड से उतरकर खिड़की से बाहर देखा-“मौसम खराब लग रहा है।”
“क्या खराबी है?”
“कोहरा है। आगे तक दिखाई नहीं दे रहा।” राजीव बाहर देख रहा था।
“पिछली बार भी ऐसा होता था, परंतु बाद में मौसम साफ हो जाता था।”
बेबी ने कहा और उठ बैठी।
“आज नहीं तो स्कीइंग के लिए कल चले जाएंगे। मजे करने के और भी रास्ते हैं।” पुनीत ने खिड़की से हटते हुए कहा और इंटरकॉम पर कॉफी लाने को कहा। फिर बेबी से बोला-“अगर हम आज नहीं जा सके स्कीइंग पर तो मैं तुम्हें स्कीइंग सिखाऊंगा।”
“ना बाबा। मुझे नहीं सीखनी स्कीइंग। मैं ऐसे ही ठीक हूं। मैं हाथ-पांव तुड़वाना नहीं चाहती।”
संदीप शर्मा घोड़े बेचकर सोया हुआ था। सुबह के साढ़े आठ बज रहे थे। जोगना की कुछ देर पहले ही आंख खुली थी। सुबह के चार बज गए थे सोते-सोते।
संदीप ने खासा तंग किया था पीकर। जब तक अपनी मनमानी दो बार पूरी ना कर ली, तब तक उसे सोने नहीं दिया था, जबकि जोगना चाहती थी कि संदीप ने ज्यादा पी रखी है, वो सो जाए। रात संदीप ने खूब हो-हल्ला मचाया था कमरे में। बरबस ही जोगना मुस्करा उठी कि संदीप बच्चों की तरह उसके पीछे पड़ जाता है कि प्यार करे। ये आदत उसकी शुरू से ही थी कि जब वो पास होती तो संदीप उसे पकड़ लेता था।
“बेवकूफ।” जोगना बड़बड़ा उठी और करवट लेकर संदीप को उठाया-“उठो, नौ बजने वाले हैं।”
परंतु संदीप सोया रहा।
“उठो।” जोगना ने उसके सिर पर हाथ मारा-“ऑफिस नहीं जाना क्या?”
उसी पल संदीप हिला और बोला।
“ऑफिस फोन कर दो कि शर्मा जी की तबीयत ठीक नहीं है।”
“तुम्हारा इंडियन ऑयल का ऑफिस शिफ्ट हो गया है।” जोगना मुस्कराकर बोली।
“कहां?”
“सूमा गांव में।”
संदीप ने तुरंत आंखें खोल दी। दो पल चुप रहकर, जोगना की तरफ करवट लेते कहा।
“तुम मजाक करने से बाज नहीं आओगी।”
“होश आ गया तुम्हें।”
“मैं नींद में था, बेहोश नहीं।”
“रात तुमने खूब हंगामा किया।”
संदीप कुछ चुप रहा। रात के बारे में सोच रहा था शायद।
“तब मेरा दिल तो कर रहा था कि डंडा पकड़कर तुम्हें मारने लगूं।” जोगना ने मुस्कराकर कहा।
“शायद ज्यादा पी ली थी। राजीव, पुनीत ने मुझे ज्यादा पिला दी थी।” संदीप बोला।
“वो हर बार ही तुम्हें ज्यादा पिला देते हैं।” जोगना का स्वर तीखा हो गया।
संदीप ने जोगना को देखा।
“ये शराब तुम्हें ले डूबेगी। छोड़ दो पीनी।”
“ऐसा मत कहो। सच में उन दोनों ने मुझे ज्यादा पिला दी थी।”
“ठीक है। आगे से मैं तुम लोगों के पास बैठा करूंगी, जब पीओगे।”
“तुम-पास-? नहीं। ये मुझे अच्छा नहीं लगेगा। राजीव तुम्हारे कंधे पर हाथ रख देगा।” संदीप कह उठा।
“तो क्या हो गया। मैं घिस जाऊंगी क्या। तुम बेबी के कंधे पर दोनों हाथ रख लेना।”
“ये बात नहीं है।” संदीप ने प्यार से कहा-“तुम्हें कोई छुए तो मुझे अच्छा नहीं लगता।”
“याद है रात तुमने पीने के बाद क्या किया?”
“क्या किया?”
“सबके सामने मुझसे लिपटने लगे...।”
“शुक्र है।”
“क्या मतलब?”
“तुमसे ही लिपटा। किसी और से नहीं। इसका मतलब मैं होश में था कि तुम मेरी पत्नी हो।”
“बकवास मत करो। रात तुमने अपना और मेरा तमाशा बना दिया था। सब हंस रहे थे। राजीव और पुनीत तुम्हें समझा रहे थे।”
“अच्छा। मुझे तो याद नहीं।”
“ऐसी हरकतें करोगे तो मैं तुम्हारे साथ बाहर जाना बंद कर दूंगी।” जोगना ने नाराजगी से कहा।
“इसमें कौन-सी आफत आ गई। यहां कौन-से बाहर के लोग हैं जो...”
“दोबारा तुमने ऐसा किया तो मैं वापस चली जाऊंगी।”
“नाराज मत होवो। मैंने जो भी किया, होश में नहीं किया...”
“तभी तो कहती हूं कि कम पिया करो। होश में रहा करो।”
“कल शाम को जब मुझे सर्दी लग रही थी तब तुम मेरे पास आ जाती तो रात को ये सब ना होता।” संदीप बोला।
“ओह, तो इसमें भी मेरी गलती हो गई।” जोगना झल्ला उठी।
“मेरा वो मतलब नहीं था, मैं तो...”
“तुम सुधर जाओ।” जोगना ने गुस्से से कहा-“नहीं तो मुझे तुम्हारी शिकायत लगानी पड़ेगी।”
“किससे?”
“घर जाकर मम्मा-पापा से।”
“उन्हें बीच में क्यों लाती...”
“अपने को सुधारने की सोचो। कम पियो और हर वक्त मेरे साथ प्यार करने की बात मत सोचते रहा करो।”
“ठीक है। लेकिन मुझे तुमसे शिकायत है।”
“क्या!”
“रात तुम मेरे पास क्यों नहीं आईं?”
“नहीं आई?” जोगना के चेहरे पर हैरानी उभरी।
“कितनी बार मैंने कहा, पर तुम...”
“हे भगवान। तुम सच में पागल होना शुरू हो गए हो। रात तुम दो बार, दो बार तुमने...तुम्हें जरा भी याद नहीं।”
संदीप ने अपने सिर पर हाथ फेरा। आंखें मरलीं फिर सोच भरे स्वर में कह उठा।
“लगता है रात मैंने सच में ज्यादा पी ली थी।”
“बहुत ज्यादा। क्योंकि तुम्हें ये भी याद नहीं कि तुमने रात दो बार मेरे साथ...”
“हां। याद आया। याद आ गया।” संदीप सिर हिलाकर बोला-“तुम सही कह रही हो।”
“शुक्र है। याद तो आया। याद आने के बाद तो ‘ठंड’ पड़ गई होगी कि तुम्हारा पेट भर कर ही मैं सोई थी।”
“ऐसा न कहो। वो तो प्यार था।”
“पर तुम्हारा पेट तकलीफ में रहता है, जब तक कि तुम्हें ‘ठंड’ न पड़ जाए। हद है तुम्हारी तो...”
संदीप ने मुस्कराकर जोगना का हाथ थाम लिया।
“नाराज हो।”
“आगे से कम पिया करो।”
“प्रॉमिस। बहुत कम।”
“इतना कम कि सुबह उठने पर तुम्हें ये याद रहे कि रात ‘ठंड’ पड़ी तुम्हारे पेट को कि नहीं।”
“प्रॉमिस कर लिया है। तुम देखना आज रात मैं एक पैग से ज्यादा नहीं लूंगा।”
“हांको मत। वो तो मैं रात को देखूंगी। लगता है तुम्हें सुधारना पड़ेगा नहीं तो मैं बीमार हो जाऊंगी।”
तभी दरवाजे पर थपथपाहट हुई।
“देखो, कौन है।” रजाई में लिपटी जोगना ने कहा।
संदीप ने उठकर दरवाजा खोला।
पुनीत भीतर आ गया।
“सोए हुए हो अभी तक?” पुनीत ने मुस्कराकर कहा।
“मुझे तुमसे बड़ी शिकायत है पुनीत।” संदीप बोला।
“क्या?”
“रात तुमने मुझे ज्यादा पिला दी थी।”
“मैंने पिलाई?” पुनीत के माथे पर बल पड़े फिर मुस्करा पड़ा-“तुम्हें याद होगा कि मैं तुम्हें हर बार और पीने को रोक रहा था। तुमसे दो बार तो मैंने बोतल छीन ली थी पर तुम माने ही नहीं और...”
“चुप कर।” संदीप दबे स्वर में बोला और फिर ऊंचे स्वर में कह उठा-“राजीव ने कई बार मेरे गिलास को भरा। मेरे मना करने पर भी भरा और तुम कहते हो कि...”
“राजीव जब भी बोतल उठाता तो तुम तुरंत अपना गिलास आगे कर...”
“अबे चुप कर।” संदीप ने धीमे स्वर में कहा-“क्यों ऐसा कहकर मुसीबत खड़ी करता...।”
“जोगना।” पुनीत ने जोगना को देखा-“ये जब पीने बैठता है तो जरूरत से ज्यादा पी लेता है और...”
“जानती हूं।” जोगना ने गम्भीर स्वर में कहा-“अब से मैं पास बैठा करूंगी कि पता चले ये कैसे पीता है।”
“बात बढ़ाओ मत जोगना।” संदीप ने कहा-“मेरा प्रॉमिस है कि रात को मैं एक ही पैग...”
“इसकी बातों पर मत जाना।” पुनीत बोला-“एक पैग से तो इसके होंठ भी गीले नहीं होंगे।”
“पुनीत तुम-।”
“ये तुम्हारा आपस का मामला है। तुम लोग निपटो। मैं तो कहने आया था कि तैयार हो जाओ। हम स्कीइंग के लिए जाने वाले हैं। सुबह मौसम बहुत खराब था। परंतु अब कोहरा कम होता जा रहा है। वेटर ने बताया कि यहां हर सुबह ऐसा ही होता और दस बजे के बाद सूर्य निकल आता है। तुम जल्दी से तैयार हो जाओ।”
“मैं घंटे भर में नहा-धोकर आता हूं।” संदीप बोला।
“नाश्ता हम इकट्ठे ही करेंगे, नीचे होटल के रेस्टोरेंट में और गाइड की क्या पोजिशन है?”
“गाइड!”
“साथ में एक गाइड भी तो चाहिए जो बर्फ के रास्ते जानता हो। आज हम दूर तक जाएंगे। तुमने कल कहा था कि गाइड का इंतजाम तुम करोगे। या मैं कर लूं?” पुनीत ने पूछा।
“मैं कर लूंगा। इतनी जल्दी मत मचाओ। मुझे नहा-धो तो लेने दो।”
“जल्दी करो।” पुनीत ने कहा और बाहर निकल गया।
संदीप ने दरवाजा बंद किया और मुस्कराकर जोगना से कहा।
“डार्लिंग। पुनीत की बातों पर मत जाना। ये झूठ बोलता है रात के बारे में। इसने और राजीव ने शरारत की थी कि मुझे ज्यादा पिला दे। आज रात मैं इन्हें ज्यादा पिला के रहूंगा और मैं सिर्फ एक ही पैग लूंगा।”
“बहुत अच्छी तरह जानती हूं तुम्हें।” जोगना ने संदीप को घूरा-“रात मैं तुम्हारी पहरेदारी करूंगी, जब तुम पीओगे।”
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