कार में चार आदमी थे ।
ड्राइविंग सीट पर एक लगभग चालीस वर्ष का मोटा ताजा नर्वस सा दिखाई देने वाला आदमी बैठा हुआ था । उसने एक बार रियर व्यू मिरर में पीछे की सीट पर बैठे हुये दो आदमियों पर दृष्टिपात किया और फिर गम्भीरतापूर्ण स्वर में बोला - “जीवन !”
“हां !” - पिछली सीट पर बैठे दो आदमियों में से एक ने उत्तर दिया ।
“तुम्हें पूरा भरोसा है न कि सेठ गूजरमल आज रात कम से कम बीस लाख का माल लेकर सफर कर रहा है ?”
“चौधरी !” - जीवन तनिक विरक्ति का प्रदर्शन करता हुआ बोला - “सुबह से लेकर अब तक तुमने पचासवीं बार यह सवाल पूछा है मुझ से ।”
“आदत से मजबूर है यह !”- अगली सीट पर चौधरी की बगल में बैठा हुआ लम्बी मूछों वाला आदमी बोला ।
“ठीक है ।” - जीवन बोला - “मैं चौधरी की खातर अब आखिरी बार अपना रिकार्ड फिर चालू करने लगा हूं । इसके बाद अगर मुझसे फिर किसी ने सवाल किया तो गरदन नाप दूंगा । मोहनलाल, सुन रहे हो न ?”
“और तिवारी, तुम भी ।” - जीवन बगल में बैठे हुये आदमी से बोला ।
“कैरी आन ।” - तिवारी भावरहित स्वर में बोला ।
“आखिर ड्रामा करने की क्या जरूरत है ?” - चौधरी बोला - “मेरा यह मतलब नहीं था । मैंने तो आदतन यह सवाल पूछ लिया था ।”
“मैं भी तुम्हे आदतन जवाब दे रहा हूं ।” - जीवन बोला - अपनी नजर सड़क पर रखो और कान मेरी तरफ ।
चौधरी चुप रहा ।
“मुझे विश्वस्त सूत्रों से पता लगा है कि राजनगर का सेठ गूजरमल आज रात साढ़े दस बजे की गाड़ी से विशालगढ़ आ रहा है ।”
“अकेला ?” - तिवारी ने पूछा ।
“हां । फर्स्ट क्लास के डिब्बे में उसकी बर्थ रिजर्व है । वह अपने साथ एक नीले रंग का छोटा सा अटैची केस ला रहा है जिसमें लगभग बीस लाख रूपये का माल बन्द है ।”
“नकद ?”
“यह मालूम नहीं हो सका है । सम्भव है उस अटैची में नकद बीस लाख रूपये हों, सम्भव है सोना हो या जेवरात हों ? बहरहाल इस विषय में सन्देह की लेशमात्र भी गुन्जायश नहीं है कि उस अटैची में बीस लाख रूपये का माल है ।”
“क्या गारन्टी है ?”
“सेठ गूजरमल के नौकर ने उसे विशालगढ़ में किसी को ट्रंक काल करके यह कहते सुना था कि वह आज रात की गाड़ी से बीस लाख रुपये का माल लेकर विशालगढ़ आ रहा था ।”
“लेकिन यह तुम कैसे कह सकते हो कि माल उस अटैची में ही है ?”
“स्वयं सेठ गूजरमल ने नौकर से इस प्रकार की कोई बात कि थी उस छोटी सी अटैची में बीस लाख रूपये बन्द थे । यह दोपहर की बात है । तब से सेठ ने उस अटैची को एक क्षण के लिये भी बपने से अलग नहीं किया है । बाद में कोठी से निकलते समय जब नौकरों ने सेठ का बाकी समान स्टेशन जाने के लिये कार में रखा था, उस समय भी सेठ ने अटैची में किसी को हाथ नहीं लगाने दिया था ।”
“यह तो कोई ठोस दलील नहीं है ।”
“दलील ठोस हो या खोखली लकिन जो मैं कह रहा हूं वह शत प्रतिशत सत्य है । अटैची में माल है इस बात की गारन्टी मैं लेता हूं । मैं सेठ गूजरमल को बहुत पहले से जानता हूं । यह पहली बार नहीं है जब वह इस ढंग से माल लेकर सफर कर रहा है । मैंने उसे स्टडी किया है और उसी दम पर मैं अपनी बात की सत्यता के विषय में कोई भी शर्त लगाने के लिये तैयार हूं ।”
“खैर, स्कीम क्या है ?” - तिवारी ने पूछा ।
“स्कीम यह है ।” - जीवन बोला - “जिस कम्पार्टमेंट में सेठ की बर्थ रिजर्व है, उसकी बाकी की तीन बर्थ मैंने काल्पनिक नामों से अपने लिये रिजर्व करा ली हैं । मैं, मोहन लाल और तिवारी उसके साथ सफर करेंगे । विशालगढ़ से लगभग बीस मील पहले एक छोटा सा पुल आता है जिस पर आजकल मरम्मत चल रही है । मैंने पता लगा लिया है कि वहां आकर गाड़ी की रफ्तार कम हो जाती है । चौधरी कार द्वारा गाड़ी के वहां पहुंचने से पहले ही उस पुल के पास पहुंच जायेगा । तब तक हम सेठ से वह अटैची हथिया चुके होंगे । गाड़ी के पुल पार करते ही हम अटैची गाड़ी से बाहर चौधरी की ओर उछाल देंगे । उसके बाद चौधरी का काम यह होगा कि यह अटैची लेकर वापस राजनगर पहुंच जायेगा ।”
“लेकिन तुम लोग सेठ से अटैची हथियाओगे कैसे ?”
“इसकी तुम चिन्ता मत करो । अटैची हथिया ली जायेगी । चौधरी, तुम अपने साथ एक टार्च लेकर जाना । गाड़ी दिखाई देते ही टार्च की सहायतो हमें सिग्नल दे देना, ताकि हमें तुम्हारी स्थिति का ज्ञान हो जाये । साथ ही यह भी ख्याल रखना कि अटैची तुम्हारे से दस-पन्द्रह कदम इधर या उधर भी गिर सकती है । इसलिये अपनी आंखे खुली रखना । बाद में कहीं यह मत कह देना कि तुम्हे तो अटैची दिखाई ही नहीं दी ।”
“तुम चिन्ता मत करो ।” - चौधरी बोला - “मैं इतना निकम्मा नही हूं ।”
जीवन ने प्रत्युत्तर में बिना कुछ कहे जेब से पाईप निकाला वह कुछ क्षण एक सलाई से पाइप के भीतरी भाग को कुरेदता रहा फिर उसने तम्बाकू का एक पाउच निकाला । उसने पाइप के कच को तम्बाकू से भरा और फिर उसे सुलगा कर लम्बे-लम्बे कश लेने लगा ।
चौधरी ने फिर कोई प्रश्न नहीं किया ।
तिवारी और मोहनलाल भी चुप थे ।
जब वे लोग राजनगर रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूर रह गये तो जीवन ने अपने बैग में से बालों का एक विग निकाला और उसे अपने गंजे सिर पर चढ़ा लिया फिर उससे अपने ऊपर की दन्त पंक्ति को छुआ और सामने के दो दांत उसके हाथ में आ गये । पाइप अभी भी उसके हाथ में था । दो मिनट पहले के जीवन में और अब के जमीन आसमान का अन्तर था ।
तिवारी ने भी अपने चेहरे पर बड़ी नफासत से कटी हुई फ्रेंचकट दाढ़ी और पतली सी मूछें चिपकाईं और फिर सन्तुष्टिपूर्ण स्वर में बोला - “फाईन ।”
“थैंक्यू ।” - तिवारी ने कहा ।
“तुम तो अपने रेडीमेड मेकअप में हो ही ।” - वह मोहनलाल से बोला ।
“हां ।” - मोहनलाल अपनी मूछों और प्लास्टिक की नकली लेकिन एकदम असली लगने वाली नाक को छूता हुआ बोला । साथ ही उसने अपनी जेब में से निकालकर एक नजर का चश्मा आंखों पर चढ़ा लिया ।
फिर तीनों ने अपने हाथों पर त्वचा के रंग के दस्ताने चढ़ा लिये ।
उसी समय चौधरी ने गाड़ी रेलवे स्टेशन के कम्पाउन्ड में ला खड़ी की ।
चौधरी को छोड़कर सब बाहर निकल आये ।
दो कुलियों ने सामान उताराना आरम्भ कर दिया । दो होल्डाल थे । तीन अटैची केस थे ।
उसी समय पोर्टीको में उनकी गाड़ी के एकदम पीछे एक और गाड़ी आकर रूकी ।
वर्दीधारी ड्राइवर ने इग्नीशन बन्द किया और बाहर निकल आया । उसने बड़ी तत्परता से पिछली सीट का द्वार खोला ।
कार में से लगभग पचपन वर्ष का एक वृद्ध बाहर निकला । उसने चूड़ीदार पाजामा, बन्द गले का कोट और गोल टोपी पहनी हुई थी । उसके हाथ में नीले रंग का छोटा सा अटैची केस था ।
जीवन ने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से सेठ की ओर देखा और फिर तिवारी का हाथ दबा दिया ।
कुली ने सेठ की गाड़ी में से होल्डाल और दो अटैची केस निकाल लिये ।
कुली ने होल्डाल कन्धे पर लटकाया दोनों अटैची केसों को सिर पर रखा, अटैची केसों को सिर पर रखा, अटैची केसों को बायें हाथ से सम्भाला और अपना दाया हाथ सेठ के छोटे से अटैची की ओर बढ़ाता हुआ बोला - “लाइए, सेठ साहब ।”
“नहीं, ठीक है ।” - सेठ ने अटैची कुली को थमाने का तनिक भी उपक्रम नहीं किया - “इसे मैं उठा लूंगा ।”
कुली स्टेशन के भीतर की ओर बढ़ गया ।
सेठ अटैची बगल में दबाये उसके पीछे चल दिया ।
वर्दीधारी ड्राइवर कार में जा बैठा । उसने कार को बैक किया और उसे स्टेशन से बाहर निकाल ले गया ।
चौधरी अपलक नेत्रों से सेठ की बगल में दबी अटैची को निहार रहा था ।
“यही था ?” - सेठ के दृष्टि से ओझल होते ही चौधरी ने धीमे स्वर में पूछा ।
“हां ।” - जीवन ने उत्तर दिया - “सेठ गूजरमल । हमारा बीस लाख का आसामी ।”
“माल वाकई उस अटैच में है ?”
“अभी भी शक है तुम्हे ?”
“नहीं ।”
कुलियों ने सामान उठा लिया था ।
“इस सामान का क्या होगा ?”
“यह गाड़ी में ही रह जायेगा ।” - जीवन बोला - “सामान तो केवल इसलिये है कि सेठ को हम पर सन्देह न हो । सब कुछ एकदम नया है । होल्डाल में तो बिस्तर है लकिन अटैचियों में रात को पहनने के तीन जोड़ी वस्त्रों को छोड़कर गत्ते भरे हुये हैं ।”
चौधरी ने फिर कोई प्रश्न नही किया ।
“अब तुम फूटो यहां से ।” - जीवन बोला - “गाड़ी उस पुल के पास रात को लगभग साढ़े तीन बजे पहुंचेगी । तुम सिगनल देना मत भूलना ।”
“ओ के ।”
“मूव दैन ।”
चौधरी ने गाड़ी स्टार्ट कर दी ।
जीवन, मोहनलाल और तिवारी कुलियों के पीछे चल दिये ।
चारों के दिमाग में एक ही बात हथोड़े की तरह बज रही थी ।
बीस लाख ।
***
रात के लगभग साढ़े बारह बज चुके थे ।
विशालगढ़ एक्सप्रेस राजनगर से चले लगभग दो घन्टे हो चुके थे ।
सेठ गूजरमल अपनी बर्थ पर बैठा हुआ था । उसकी पीठ के पीछे दो तकिये लगे हुये थे उन तकियों के पीछे नीली अटैची दबी हुई थी । वह बड़ी तन्मयता से एक पुस्तक पढ़ रहा था ।
मोहनलाल और तिवारी अपने-अपने बिस्तरों में घुसे सोने का बहाना कर रहे थे, लेकिन नींद दोनों के ही नेत्रों में नहीं थी ।
जीवन भी अपनी बर्थ पर पांव फैलाये बैठा था । वह बड़ी बेचैनी से पाइप के लम्बे-लम्बे कश ले रहा था । उसके हाथ में एक पत्रिका जरूर थी लेकिन वह उसमें से एक भी अक्षर नहीं पढ़ पा रहा था ।
तीनों के मस्तिष्क में एक ही प्रश्न घूम रहा था ।
आखिर सेठ सोता क्यों नही ?
सेठ बेहद रिजर्व आदमी निकला था । आरम्भ में जीवन ने उससे दो-चार औपचारीक प्रश्न पूछे थे । जिसके सेठ ने ऐसे ठन्डे और भावहीन ढंग से उत्तर दिये थे कि जीवन का दुबारा उससे कोई प्रश्न पूछने का हौसला ही नहीं हुआ था ।
जीवन ने एक असहाय दृष्टि अपने साथियों पर डाली और फिर उसने पत्रिका बन्द कर दी । उसने पाईप को उलट दिया और बड़े नाटकीय ढंग से एक लम्बी जमहाई ली ।
सेठ ने एक उचटती हुई दृष्टि जीवन पर डाली और फिर पढ़ने में मग्न हो गया ।
“आप सोयेंगे नहीं, सेठ जी ?” - जीवन ने शिष्ट स्वर में पूछा ।
“मुझे सफर में सोने की आदत नहीं है ।” - सेठ पुस्तक से दृष्टि उठाकर बोला - “नींद नहीं आती मुझे ।”
“यूं ही पुस्तक पढ़ते रहने से आप बोर नहीं होते ?”
“थोड़ा बहुत बोर तो जरूर होता हूं । लेकिन खामखाह करवटें बदलते रहने से तो यह अच्छा ही है कि मैं कुछ पढ़ता रहूं ।”
“फिर तो आपको दिन की गाड़ी में सफर करना चाहिए था ।”
“अक्सर यही करता हूं । सुबह मेरा विशालगढ़ पहुंचना एकदम जरूरी हो उठा था इसलिये रात को सफर कर रहा हूं ।”
“कोई बिजनेस डील ।”
“जी हां ।”
“बहुत बड़ा ? “
“जी हां ।”
“बहुत महत्वपूर्ण ?”
“जी हां ।”
जीवन को और कोई बात न सूझी ।
सेठ फिर पुस्तक पढ़ने में मग्न हो गया ।
जीवन एक बार धीरे से खंखारा और फिर नर्वस स्वर में बोला - “सेठ जी, दरअसल बात यह है कि रोशनी में मुझे नींद नहीं आती है । मैं तो...... माफ कीजियेगा......इस बात की प्रतीक्षा में जाग रहा था कि आप बत्ती बुझाकर सोयें तो मैं सोऊं ।”
“ओह !” - सेठ एकदम हड़बड़ा कर बोला - “मैं माफी चाहता हूं । बरखुरदार, तुम बत्ती बुझा दो और सो जाओ । पुस्तक पढ़ना कोई जरूरी थोड़े ही है मेरे लिये !”
“थैंक्यू ।” - जीवन शिष्टताभरे स्वर में बोला ।
जीवन ने बत्ती बुझा दी ।
अब कम्पार्टमेंट में केवल एक जीरो वाट का हल्के नीले रंग का बल्ब जल रहा था ।
सेठ ने पुस्तक बन्द कर दी लेकिन उसकी पोजीशन में कोई अन्तर नहीं आया । वह उसी प्रकार बैठा रहा ।
जीवन भी बिस्तर में घुस गया ।
वह बेहद चिन्तित था ।
उसकी सारी स्कीम गड़बड़ा गई थी ।
उसी समय गाड़ी किसी स्टेशन पर आकर रूकी ।
वह लापरवाही से उठा और द्वार खोल कर प्लेटफार्म पर आ गया ।
मोहनलाल भी उसके पीछे - पीछे बाहर निकल आया ।
“क्या इरादे हैं ?” - मोहनलाल उसके समीप आकर धीमे स्वर में बोला ।
“इरादे तो गड़बड़ा दिये इस सेठ के बच्चे की अनोखी आदत ने ।” - जीवन झुंझला कर बोला - “मुझे तो लगता है कि विशालगढ़ तक यह साला पलक नहीं झपकेगा । मैने तो यह सोचा था कि इसके सोते ही इसकी नाक पर क्लोरोफार्म में डूबा रूमाल रख दूंगा और फिर हम लोग अपना सामान वगैरह कम्पार्टमेंट में ही छोड़ कर चुपचाप किसी स्टेशन पर उतर जायेंगे ।”
“अब क्या ख्याल है ?”
“एक-डेढ़ घन्टा और देखते हैं, शायद सेठ ऊंघ जाये । नहीं तो फिर रिवाल्वर का ही सहारा लेना पड़ेगा ।”
“एक बात का खयाल रखना कि इमरजेन्सी में गाड़ी रूकवाने की जंजीर उसकी बर्थ के एकदम ऊपर ही है ।”
“मैंने देखी है ।”
“हमारे इरादे जाहिर हो जाने के बाद अगर उसका हाथ जंजीर तक पहुंच गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे ।”
“कुछ नहीं होगा । तुम चिन्ता मत करो ।”
उसी समय गार्ड ने सीटी बजा दी ।
दोनों अपने कम्पार्टमेंट में चढ़ गये ।
सेठ उसी प्रकार तकियों से पीठ टिकाये बैठा हुआ था । अन्तर केवल इतना था कि अब उसने पांव फैला लिये थे ।
जीवन और मोहनलाल दोनों चुपचाप अपने बिस्तरों में घुस गये ।
तीन बज गये ।
जीवन ने एक गुप्त दृष्टि सेठ पर डाली ।
उसकी आंखों में नींद का नामोनिशान भी नहीं था ।
मोहनलाल और तिवारी प्रश्नसूचक दृष्टियों से जीवन को देख रहे थे ।
जीवन ने एक संकेत के रूप में अपनी बाईं आंख दबाई और बिस्तर पर उठकर बैठ गया ।
सेठ ने एक नजर जीवन की ओर डाली लेकिन वह मुंह से कुछ नहीं बोला ।
जीवन उठ खड़ा हुआ ।
उसने एक दो अंगड़ाइयां लीं और फिर सेठ की ओर से पीठ फेर ली ।
मोहनलाल और तिवारी भी सतर्क हो गये ।
जीवन ने खुंटी पर टंगे अपने कोट की जेब में हाथ डाला और रिवाल्वर निकाल लिया ।
अगले ही क्षण रिवाल्वर की नाल सेठ के सीने की ओर तनी हुई थी ।
“शोर मत मचाईये ।” - जीवन कठोर स्वर में बोला - “और न ही अपने स्थान से हिलने की चेष्टा कीजिये ।”
सेठ एकदम घबरा गया ।
“क्या मजलब है इसका ?” - वह हड़बड़ा कर बोला ।
“मतलब बताता हूं ।” - जीवन बोला - “आपके तकियों के पीछे जो नीली अटैची दबी हुई है, वह निकाल कर मेरे हवाले कर दीजिये ।”
सेठ ने ऐसा कुछ करने का तनिक भी उपक्रम नहीं किया ।
प्रत्यक्ष में तो तिवारी और मोहनलाल सोये पड़े थे, लेकिन वास्तव में उनकी सारी चेतना घटनाक्रम की ओर ही लगी हुई थी ।
“जो मैंने कहा है वह कीजिये, वरना गोली मार दूंगा ।” - जीवन डपटकर बोला ।
सेठ चुप रहा ।
“जल्दी ।” - ओर उसकी उंगली का दबाव ट्रीगर पर बढ़ा ।
“ठहरो ।” - सेठ एकदम बोल पड़ा - “देता हूं ।”
सेठ कांपते हुये हाथ तकिये के पीछे घुस गये ।
फिर पलक झपकते ही बिजली की फुर्ती से सेठ का दायां हाथ तकिये के पीछे से निकल आया ।
सेठ के हाथ में थमें छोटे से रिवाल्वर पर सबसे पहले तिवारी की नजर पड़ी ।
दो घटनायें साथ घटीं ।
सेठ की रिवाल्वर से फायर हुआ ।
“जीवन, बचो ।” - तिवारी एकदम अपने बिस्तर से छलांग मार कर सेठ पर कूदता हुआ चिल्लाया ।
तिवारी के शरीर के धक्के के कारण सेठ का निशाना चूक गया और गोली जीवन के कन्धे के पास से होती हुई गुजर गयी ।
दोबारा रिवाल्वर प्रयोग में लाने का अवसर सेठ को नहीं मिला ।
जीवन की रिवाल्वर में से निकली दो गोलियां सेठ के सीने में धस गईं ।
सेठ के मुंह से एक छोटी सी हाय निकली और उसका निश्चेष्ट शरीर फर्श पर लुढ़क गया ।
कई क्षण तक एक गहरी निस्तब्धता छाई रही । किसी के भी शरीर में कोई हरकत नहीं हुई ।
“भारी गड़बड़ी हो गई ।” - तिवारी बड़बड़ाया ।
“लेकिन उसे शूट कतना जरूरी हो गया था ।” - जीवन बोला, “अगर मैं उसे गोली न मारता तो वह हम सबको भून कर रख देता ।”
“अगर किसी ने गोलियां चलने की आवाज सुन ली हुई तो ।” - मोहनलाल ने संशय प्रकट किया।
“इतनी तेज रफ्तार से जाती हुई गाड़ी के अपने शोर में गोलियों की आवाज तो शायद कम्पार्टमेंट के बाहर भी नहीं निकली होगी और अगर निकली भी होगी तो इस समय तो सब सोये पड़े होंगे । आवाज किसने सुनी होगी ?”
जीवन ने रिवाल्वर जेब में रख लिया और आगे बढ़ कर सेठ के तकियों के पीछे से नीला अटैची केस निकाल लिया उसने अटैची केस खींच कर उसे खोलने की चेष्टा की लेकिन अटैची में ताला लगा हुआ था ।
उसी समय गाड़ी की गति कम हो गई ।
“पुल आ गया है ।” - मोहनलाल बोला।
जीवन ने कम्पार्टमेंट का बायीं ओर का द्वार खोल दिया सड़क उसी ओर थी ।
“अटैची को खोलकर तो देख लो कि इसमें माल है या नहीं ।” - तिवारी व्यग्र स्वर में बोला ।
“अब समय नहीं है ।” - जीवन बोला आऔर अटैची लेकर द्वार पर खड़ा हो गया - “लेकिन माल अटैची में है, यह निश्चित है वरना सेठ इस अटैची की खातिर अपनी जान नहीं दे देता ।”
तिवारी ने प्रतिवाद नहीं किया ।
गाड़ी पुल से बाहर निकलने लगी ।
जीवन आंखे फाड़े बाहर अन्धकार में झांक रहा था ।
उसी समय उसे पुल से कुछ थोड़ा आगे झाड़ियों में चमक सी दिखाई दी और फिर अन्धकार छा गया ।
कुछ ही क्षणों बाद उन्ही झाड़ियों में लगातार सात-आठ बार एक रोशनी जली और बुझी ।
“चौधरी उन झाड़ियों में है ।” - जीवन की बगल में खड़ा हुआ मोहनलाल बोला ।
“हां ।” - जीवन बोला और उसने पूरी शक्ति से अटैची उन झाड़ियों की ओर उछाल दी ।
उसके बाद रोखनी केवल एक बार और दिखाई दी ।
तब तक उनका कम्पार्टमेंट उस स्थान से बहुत आगे निकल चुका था गाड़ी दुबारा रफ्तार पकड़ चुकी थी ।
जीवन ने द्वार बन्द कर दिया और वहां से हट गया ।
उसने सेठ की लाश पर एक नजर ड़ाली और फिर अचकता कर उस ओर से निगाहें फेर ली । सेठ के सीने से अब भी खून रिस रहा था ।
“समय कम है ।” - जीवन बोला - “तुम इसकी तलाश लो । मैं सामान ठिकाने लगाता हूं ।”
तिवारी और मोहनलाल सेठ की जेबें और उसका सामान टटोलने में जुट गये । सेठ की जेब में से निकली चाबियों द्वारा उन्होंने उसके दोनों अटैची केस खोल डाले ।
जीवन ने कम्पार्टमेंट का द्वार फिर खोल दिया । उसने दोनों होल्डाल लपेटे और उन्हे गेट के पास लाकर द्वार के बाहर धकेल दिया ।
वह दो-तीन मिनट रूका और उसके बाद उसने दो सूटकेस भी कम्पार्टमेंट से बाहर उछाल दिये ।
“सामान में कुछ नहीं है ।” - तिवारी बोला - “इसकी जेब में लगभग दो हजार के नोट हैं ।”
“उन्हे हाथ मत लगाओ ।” - जीवन बोला - “इससे और सिद्ध हो जाता है कि माल निश्चय ही उस अटैची में था ।”
जीवन ने अपना स्लीपिंग सूट उतार कर सूट पहनना आरम्भ कर दिया ।
तिवारी ने सेठ के अटैची केसों को ताले लगाये और चाबियां वापस सेठ की जेब में रख दीं ।
फिर तिवारी और मोहनलाल ने भी कपड़े बदल लिये ।
जीवन ने तीनों स्लीपिंग सूट तीसरी अटैची में बन्द किये और फिर उसे भी गाड़ी के बाहर फेंक दिया ।
अन्त में उसने अपनी जेब में से रिवाल्वर निकाली और उसे पूरी शक्ति से कम्पार्टमेंट से बाहर फेंक दिया ।
“तैयार ?” - जीवन ने पूछा ।
“एकदम ।” - तिवारी और मोहनलाल एक साथ बोले
विशालगढ़ की बत्तियां दिखाई देने लगी थीं ।
गाड़ी की स्पीड कम हो गई थी । गाड़ी रेल्वे स्टेशन की हद में पहुंच चुकी थी और उस समय कई पटरियां बदल रही थीं ।
“प्लेटफार्म किधर आ रहा है ?” - जीवन ने व्यग्र स्वर में पूछा ।
मोहनलाल ने खिड़की से बाहर झांका और बोला - “दायीं ओर ।”
“उधर की सारी खिड़कियां और द्वार अच्छी तरह बन्द कर दो ।”
मोहनलाल और तिवारी ने बड़ी फुर्ती से खिड़कियां और द्वार बन्द करके उन्हे भीतर से बोल्ट कर दिया ।
जीवन ने घड़ी देखी, चार बजने को थे ।
उसने बायां ओर का द्वार खोल दिया ।
उसी समय गाड़ी प्लेटफार्म पर रूक गई ।
दूसरी ओर से रेलवे स्टेशन की जानी-पहचानी आवाजों का शोर सुनाई देने लगा ।
तीनों चुपचाप बायीं ओर उतर गये ।
कोई दाईं ओर के द्वार को प्लेटफार्म वाली दिशा से खोलने की चेष्टा कर रहा था ।
तीनों तेजी से गाड़ी के साथ-साथ चलते हुये वहां से तीन चार डिब्बे पीछे आ गये । सारे मुसाफिर उतर चुके थे ।
वे उस कम्पार्टमेंट में चढ़ गये और दूसरी ओर प्लेटफार्म पर उतर गये ।
अपार लापरवाही का प्रदर्शन करते हुये वे गेट पर पहुंचे और टिकट क्लैक्टर के हाथ में टिकटें देकर बाहर निकल गये ।
उसी समय प्लेटफार्म पर कोहराम मच गया ।
कोई गला फाड़ कर चिल्ला रहा था - “खून ! खून ! खून !”
“टैक्सी !”- जीवन ऊंचे स्वर में बोला ।
***
अटैची चौधरी से लगभग दस गज दूर आकर गिरी ।
चौधरी झाड़ियों में से निकला और उसने लपक कर अटैची को उठा लिया ।
गाड़ी नजर से ओझल हो चुकी थी ।
अटैची को बगल में दबाये वह सड़क की ओर चल दिया ।
कार उसने सड़क से उतार कर पेड़ों के एक झुरमुट के पीछे खड़ी कर रखी थी ।
उसने चाबी लगाकर कार का द्वार खोला और स्टेयरिंग व्हील के पीछे जा बैठा । अटैची उसने बगल में रख ली थी । उसने इग्नीशन खोला और गाड़ी स्टार्ट कर दी ।
अगले ही क्षण वह पचास मील प्रति घन्टे की रफ्तार से वापस राजनगर की ओर उड़ा जा रहा था ।
रह-रह कर उसकी चेतना पर बगल में रखी अटैची छा जाती थी ।
बीस लाख का माल !
इस समय अकेले उसके अधिकार में था ।
लेकिन क्या वाकई अटैची में इतना धन था !
वह एक बार अटैची खोलकर उसके भीतर झांकने का लोभ संवरण नहीं कर सका ।
एकाएक उसने गाड़ी को सड़क के नीचे उतारकर एक ओर रोक दिया ।
उसने गाड़ी के भीतर की बत्ती जला दी । अटैची उसने अपनी गोंद में रख ली और उसका कैच खींच कर उसे खोलने की चेष्टा की ।
अटैची में ताला लगा हुआ था ।
उसने कार के डेश बोर्ड में से एक पतला सा तार निकाला और उसके अगले सिरे का हुक-सा बनाकर उसे ताले के भीतर फिराने लगा ।
कुछ ही क्षणों में ताला एक खटाक की आवाज के साथ खुल गया ।
उसने कांपते हाथों से अटैची का ढ़क्कन उठाया और बड़ी व्यग्रता से उसके भीतर झांका ।
एकदम से उसे अटैची में कुछ भी दिखाई नहीं दिया और फिर उसकी आंखे चौंधिया गयीं ।
जीवन सच कहता था - वह बड़बड़ाया ।
बड़ी बेचैनी से उसके दोनों हाथ अटैची में फिरने लगे ।
बीस लाख !
इस माल के चार हिस्से होंगे लेकिन अगर जीवन का ख्याल गलत निकलता और अटैची में कुछ भी न होता तो ?
उसके नेत्र चमक उठे ।
एक बार इतना माल अगर उसके अकेले के हाथ में आ जाये तो इस अपराधपूर्ण जीवन से उसका सदा-सदा के लिये छुटकारा हो जाये ।
लेकिन क्या उसके साथी उसे इतनी आसानी से छोड देंगे ?
फिर उसने अपने सिर को एक जोर का झटका दिया ।
उसने मन ही मन एक दृढ निश्चय कर लिया । उसके हाथ अटैची में से बाहर निकल आये और उसके कोट की भीतरी जेबों में रेंग गये ।
फिर उसने भड़ाक से अटैची का ढ़क्कन बन्द किया और तार की सहायता से फिर पहले की तरह उसका ताला लगा दिया ।
उसने अटैची को लापरवाही से सीट पर सरका दिया और गाड़ी दोबारा स्टार्ट की ।
वह फिर राजनगर की ओर उड़ा जा रहा था । उसकी कल्पना उड़ानें भर रही थी । मस्तिष्क में भविष्य के मन्सूबे बन रहे थे, बिगड़ रहे थे ।
गाड़ी राजनगर में प्रवेश कर गई थी ।
सर्दियों के दिन होने के कारण सात बजे भी भोर का प्रकाश अभी अच्ठी तरह फैला नहीं था । सड़कें लगभग खाली पड़ी थीं इसलिये उसने शहर के समीप आकर भी गाड़ी की गति कम करने की आवश्यकता नहीं समझी ।
उसने सिद्धहस्त हाथों से गाड़ी को एक गहरा मोड़ दिया ।
एकाएक एक आदमी न जाने कहां से एकदम गाड़ी के सामने आ गया । कार को एकदम सामने देख कर वह हड़बड़ा गया और उसके मुंह से एक ह्रदयविदारक चीख निकल गई ।
चौधरी का पांव पूरी शक्ति से ब्रेक पर पड़ा । मशीन की सी तेजी से उसके दोनों हाथ स्टियरिंग व्हील को बायीं ओर घुमाने लगे । ब्रेकों की चरचराहट और उस आदमी की चीख के साथ ही एक भड़ाक की आवाज हुई और अगले ही क्षण वह आदमी चौधरी की दृष्टि से ओझल हो गया ।
गाड़ी लगभग बीस गज दूर जाकर रूकी ।
उसने घूमकर पीछे देखा ।
सुनसान सड़क पर वह आदमी चारों खाने चित्त पड़ा था और बुरी तरह तड़फ रहा था ।
सबसे पहला विचार जो चौधरी के दिमाग में आया, वह यही था कि वह भाग निकले लेकिन उसने यह विचार अपने दिमाग से झटक दिया । वह बड़ी फुर्ती से गाड़ी को बैक करके उस आदमी के शरीर के पास ले आया ।
वह तेजी से कार में से निकला और उसके समीप पहुंचे गया । वह होश में था ।
“बाबू जी, मार डाला मुझे तो ।” - वह पीड़ा से बुरी तरह छटपटाता हुआ बोला ।
“गलती तुम्हारी थी ।” - चौधरी उसके समीप बैठता हुआ बोला - “पता नहीं कहां से तुम एकदम कार के सामने आ टपके थे !”
“आप....आप भी तो अन्धाधुन्ध....!” - वह कराहकर बोला - “अन्धाधुन्ध....?”
“चुप रहो !” - चौधरी उसकी बात काटकर बोला - “मुझे देखने दो । कहां चोट लगी है ?”
“मेरी टांग.....बाबूजी मेरे प्राण निकल रहे हैं ।”
चौधरी ने उसकी टांग का निरीक्षण किया । कार का पहिया लगता था, दायी टांग पर से गुजर गया था । उसने टांग को जरा सा हिलाया ।
आदमी के मुंह से चीख निकल गई और उसका चेहरा एकदम रक्तहीन हो गया ।
“शायद टांग की हड्डी टूट गई है ?” - चौधरी बोला - “तुम घबराओ नहीं । मैं तुम्हे हस्पताल ले चलता हूं । यही गम्भीर चोट है । बाकी तो केवल खरोंच ही आईं है तुम्हे ।”
दर्द के मारे उस आदमी की आंखे मुंदी जा रही थीं ।
चौधरी ने उसकी बगलों में और उसे उठाने का उपक्रम करता हुआ बोला - “अपनी दायीं टांग पर बिना जोर दिये जरा उठने की कोशिश करो । क्या नाम है तुम्हारा ?”
“हरीचन्द ।” - वह बुदबुदाया ।
चौधरी ने उसे किसी प्रकार खींच-खींच कर कार की पिछली सीट पर डाल दिया ।
उसकी चेतना लुप्त हो चुकी थी ।
वह ड्राइविंग सीट पर आ बैठा और उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी ।
सर्दियों में भी उसे माथे पर पसीना आ गया था ।
सब कुछ पलक झपकते ही हो गया था । फिर भी गनीमत यही थी कि दुर्घटना नगर से बाहर फैक्ट्री एरिया में हुई थी जहां आबादी कम थी और दुर्घटना को किसी ने नहीं देखा था वरना अब तक बबाल खड़ा हो गया होता ।
किसी पब्लिक हस्पताल में जाने के स्थान पर उसने गाड़ी को एक प्राइवेट नर्सिंग होम की पोर्टिको में ला खड़ा किया ।
वह इग्निशन बन्द करके नर्सिंग होम में घुस गया ।
वह रिसेप्शन पर आकर बोला - “बाहर गाड़ी में एक बेहोश, आदमी पड़ा है, एक्सीडेंट हो गया है । उसकी एक टांग की हड्डी टूट गई मालूम होता है । जल्दी उसका कुछ इन्तजाम करवाइये ।”
रिसेप्शनिस्ट ने इन्टरनल टेलीफोन पर किसी से बात की । फौरन स्ट्रेचर लिये दो आदमी और एक डाक्टर वहां आ पहुंचे ।
वे हरिचंद को स्ट्रेचर पर डाल कर भीतर ले आये ।
“एक्सीडेंन्ट आपने किया है ?” - डॉक्टर ने चौधरी को घूरते हुए पूछा ।
“नहीं डॉक्टर !” - चौधरी जल्दी में बोला - “मैं तो केवल मानवता के नाते इसे सड़क से उठाकर यहां से लाया हूं । मेरे से आगे एक स्टेशन वैगन जा रही थी । उसी से टकराया था यह ।”
“हमें पुलिस में रिपोर्ट लिखवानी पड़ेगी ।”
“कोई फायदा नहीं, डाक्टर । वह स्टेशन वैगन वाला तो अब हाथ आयेगा नहीं । यह गरीब आदमी है । पुलिस के चक्कर में खामख्वाह परेशान होगा ।”
“लेकिन मिस्टर, आप जानते हैं यह कोई चैरिटी हास्पिटल तो है नहीं । इसके ट्रीटमेंट का बिल कौन देगा ?”
“मैं दे दूंगा ।”
“आप क्यों देंगे ?”
“डाक्टर साहब !” - चौधरी तसल्लीभरे स्वर में बोला - “आपको आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से ?”
डाक्टर चुप हो गया, जैसे उसे अपने प्रश्न की निरर्थकता का भान हो गया हो ।
“लेकिन डाक्टर....”
“यस ?”
“अगर आप मेरी थोड़ी सी सहायता करें, तो आपको दो लाभ हो सकते हैं ।”
“क्या ?”
“एक तो आपको यह समझ आ जायेगा कि मैं इस आदमी के ट्रीटमेंट का खर्चा उठाने के लिये क्यों उत्सुक हूं ? और दूसरा......” - चौधरी ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“दूसरा क्या ?”
“आप पांच मिनट में एक हजार रूपये कमा लेंगे ।”
डाक्टर की आंखो में सन्देह झलकने लगा ।
“क्या मतलब ?”
“आप हरिचन्द के ट्रीटमेंट के समय मुझे अपने पास रखियेगा मतलब आपकी समझ में आ जायेगा ।”
“हरिचन्द कौन ?”
“वही जिसे मैं अभी लाया हूं ।”
“मैं कोई गैरकानूनी काम नही करूंगा ।”
“मैं कोई गैरकानूनी काम करने के लिये आपको कहूंगा भी नहीं ।”
डाक्टर विचारपूर्ण मुद्रा बनाये खड़ा रहा लेकिन उसके चेहरे से स्पष्ट प्रकट हो रहा था कि हजार रूपये का लालच वह छोड़ना नहीं चाहता था ।
उसी समय सफेद गाउन पहने एक आदमी डाक्टर के सामने आ खड़ा हुआ ।
“यस ?” - डाक्टर बोला ।
“सर, उस आदमी का एग्जामिनेशन कर लिया गया है । दायीं फीमर में फ्रैक्चर है ।”
“और ?”
“और कोई गम्भीर चोट नहीं आयी है उसे ।”
डाक्टर चौधरी की ओर घूमा - “आप मेरे साथ आइये । लेकिन मैं फिलहाल कोई वायदा नहीं कर रहा हूं ।”
“मुझे मन्जूर है ।”
डाक्टर और चौधरी सफेद गाउन वाले के पीछे-पीछे चल दिये ।
वे एक आपरेशन थियेटर से लगने वाले कमरे में आ गये ।
एक लम्बी सी मेज पर हरीचन्द लेटा हुआ था । वह बेहोश था ।
“जरा इधर आइये ।” - वह डाक्टर को एक पार्टीयन के पीछे की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
सफेद गाउन वाला और एक आर्डरली टेबल के पास खड़े रहे ओर चौधरी और डाक्टर पार्टीशन के पीछे चले गये ।
लगभग दो मिनट बाद चौधरी और डाक्टर वापस आ गये ।
“प्लास्टर तैयार है ?” - वापस आकर डाक्टर ने सफेद गाउन वाले से पूछा ।
“यस यर ।”
“आर्डरली को बाहर भेज दो । इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी ।”
“सर !” - सफेद गाउन वाला हैरानी से बोला ।
“मैं जो कह रहा हूं, वह करो ?” - डाक्टर गम्भीर स्वर में बोला ।
सफेद गाउन वाले ने आर्डरली को संकेत किया । वह बाहर निकल गया ।
“द्वार बन्द कर दो ।” - डाक्टर बोला ।
गाउन वाले ने आगे बढ़कर द्वार बन्द कर दिया ।
“शुरू करो ।” - डाक्टर कमीज को कोहनियों तक चढ़ाता हुआ बोला ।
कुछ क्षण के बाद प्लास्टर से सनी हुई पट्टियां हरीचन्द की टांग के इर्द-गिर्द लिपटने लगी ।
चौधरी कुछ क्षण खड़ा-खड़ा तमाशा देखता रहा और फिर द्वार की ओर बढ़ गया ।
“मैं इसे कब ले जा सकता हूं ?” - चौधरी ने पूछा ।
“प्लास्टर की सैटिंग में देर लगेगी ।” - डाक्टर बोला - “अभी आठ बजे हैं । आप बारह बजे ले जाइयेगा इसे ।”
“ओ के ।”
चौधरी बाहर निकल गया ।
वह रिसेप्शन पर आ बैठा और सिगरेट-पर-सिगरेट फूंकने लगा ।
बारह बजे के करीब दो आर्डरली हरीचन्द को व्हील चेयर पर बैठा कर ले आये । साथ में डाक्टर भी था ।
उन्होंने हरिचन्द को चौधरी की कार पिछली सीट पर बैठा दिया ।
“थैंक्यू डाक्टर ।” - चौधरी डाक्टर के हाथ में सौ-सौ के कई नोट थमाता हुआ बोला ।
“डोंट मैशन ।” - डाक्टर बोला । उसने चुपचाप नोट अपनी जेब में रख लिये ।
चौधरी स्टियरिंग के पीछे बैठ गया और कार को स्टार्ट करके नर्सिंग होम के कम्पाउन्ड से बाहर निकाल लाया ।
“ठीक हो, हरीचन्द ?” - चौधरी ने पूछा ।
“मुझे तो रोटी-रोजी से मोहताज कर दिया आपने बाबु जी ।” - हरीचन्द टूटे स्वर में बोला ।
“तुम इतनी सुबह इस सड़क पर क्या कर रहे थे ?” - चौधरी ने उसकी बात को अनसुनी करते हुये प्रश्न किया ।
“मैं वहां एक कारखाने में नाइट शिफ्ट में काम करता हूं । ड्यूटी समाप्त करके घर लौट रहा था ।”
“कारखाने में क्या काम करते हो ?”
“मशीन चलाता हूं ।”
“कितने रुपये मिलते हैं ?”
“सौ रुपये ।”
“देखो, हरीचन्द ।” - चौधरी बोला - “तुम्हारा यह प्लास्टर दो महीने में उखड़ेगा । उसके बाद अधिक से अधिक पन्द्रह दिनों में तुम एकदम फिट होकर कारखाने जाने योग्य हो जाओगे । इतना अरसा तुम कारखाने में जाते भी रहते तो तुम अधिक से अधिक तीन सौ रुपया कमा पाते । अगर इस दुर्घटना के नाम पर तुम कोई बखेड़ा न खड़ा करो तो मैं हरजाने के तौर पर तुम्हें एक हजार रुपया देने के लिये तैयार हूं ।”
“मैं भला कोई बखेड़ा क्यों खड़ा करुगा बाबू जी ?” - हरीचन्द विनयपूर्ण स्वर में बोला - “मैं बाल-बच्चों वाला आदमी हूं । मुझे तो केवल इस बात में दिलचस्पी है कि मेरे बच्चे भूखे न मरें । यह तो आपकी महानता है कि आप मेरे पर इतना उपकार कर रहे हैं, वरना अगर आप मुझे सड़क पर तड़फता छोड़ कर भाग जाते तो भी मैं आपका क्या कर लेता ?”
“अपने घर का पता बता दो, मैं तुम्हें वहां छोड़ आता हूं ।”
“धर्मपुरे में मेरी खोली है ।”
“क्या नम्बर है ?”
“अठारह ।”
चौधरी ने एक हाथ से स्टियरिंग सम्भालते हुये जेब से हजार रुपये के नोट निकाले और हरीचन्द की ओर बढ़ा दिये ।
हरीचन्द ने चुपचाप नोट ले लिये ।
“इस बात का कभी जिक्र मत करना कि वास्तव में क्या हुआ था ?”
“तो फिर क्या कहूं ?” - हरीचन्द बोला ।
“कह देना किसी मोटर साइकिल से टकरा गये थे । बाद में कुछ दयावान लोग तुम्हें उठाकर किसी सरकारी अस्पताल में ले गये थे और वहीं उन्होंने तुम्हारी टूटी हुई टांग पर प्लास्टर चढ़वा दिया था ।”
“अच्छा जी ।”
“बीच में मेरा या उस नर्सिंग होम का जिक्र कतई नहीं आना चाहिये ।”
“बहुत अच्छा जी ।”
“टांग का प्लास्टर कटने की तारीख प्लास्टर पर लिखी हुई है । उस तारीख को मैं तुम्हें लेने आ जाऊंगा । उससे पहले प्लास्टर कटवाने की चेष्टा मत करना वरना जीवन भर के लिये लंगड़े हो जाओगे ।”
“मैं आपकी प्रतीक्षा करुंगा बाबू जी और आपके बिना प्लास्टर कटवाने नहीं जाऊंगा ।”
“फाइन ।” - चौधरी सन्तुष्ट स्वर में बोला - “अब धर्मपुरे को रास्ता बताते जाना ।”
“अच्छा जी ।”
चौधरी फिर कुछ नहीं बोला ।
वह उस मामले में पूर्णरुपेण सन्तुष्ट था ।
नीली अटैची उपेक्षित सी उसकी बगल में पड़ी थी ।
***
रात्रि के आठ बज गये थे ।
नगर के मध्यमवर्गीय लेकिन बहुतं कम बसे हुए एक इलाके में एक बड़ी सी दो मन्जिल की एक इमारत थी जिसकी ऊपर की मंजिल के एक फ्लैट का द्वार लगातार खटखटाया जा रहा था ।
खटखटाने वाले थे जीवन, मोहन लाल और तिवारी ।
कारीडोर के धुंधले प्रकाश में जीवन की गंजी चांद चमक रही थी और उस समय उसके सामने के दो दात भी गायब नहीं थे ।
तिवारी के चेहरे पर भी न तो उस समय फ्रेंच कट दाढ़ी और मूछें थीं और न ही उसने काला चश्मा लगाया हुआ था ।
मोहनलाल के चेहरे पर से लम्बी मूछें गायब थीं और उसकी रोमनों जैसी शानदार नकली नाक के स्थान पर उसकी चपटी सी सामने से लगभग न दिखाई देने वाली नाक विद्यमान थी ।
कुछ क्षण प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने के बाद द्वार को दोबारा खटखटाने के लिये जीवन ने हाथ बढ़ाया ही था कि द्वार खुल गया ।
द्वार पर चौधरी का मोटा ताजा शरीर खड़ा था । वह हथेलियों से अपनी आखें रगड़ रहा था ।
“मर गये थे क्या ?” - जीवन ने जलकर पूछा ।
“नींद आ गई थी, यार ।”- चौधरी द्वार से हटता हुआ बोला - “पिछली रात और आज सारा दिन सो नहीं पाया था ।”
“हम लोग ही कौन से सो पाये थे !”
“अपनी-अपनी आदत है । तुम लोग जानते हो कि अधिक जागना मेरे बस की बात नहीं है । एक बार सो जाऊं तो फिर कान के पास नगाड़े ही बजें तो उठ पाता हूं ।”
सबके भीतर आ जाने पर चौधरी ने द्वार बन्द करके भीतर से चिटकनी लगा दी ।
“अटैची कहां है ?” - जीवन ने व्यग्रता से पूछा ।
“देता हूं ।” - चौधरी बोला ।
“शुक्र है ।” - जीवन गहरी सांस लेकर बोला - “शुक्र है कि तुमने यह नहीं कह दिया कि तुम्हें तो पता नहीं लगा कि अटैची गाड़ी में से कब और कहां गिरी थी ?”
“पागल हो गया क्या ?” - चौधरी नाराज होकर बोला ।
“तुम अटैची लाओ, यार ।” - तिवारी एकदम बोल पड़ा - “जीवन तो बकता ही रहता है । यहां तो सस्पेंस के मारे जान निकली जा रही है और तुम दोनों तू-तू, मैं-मैं में ही लगे हुये हो ।”
“लाता हूं ।” - चौधरी बोला और बगल के एक छोटे से कमरे में घुस गया ।
तीनों बेचैनी से चौधरी के लौटने की प्रतीक्षा करने लगे ।
जीवन को कमरे में इकलौते बिजली के बल्ब का प्रकाश बेहद खल रहा था । उसकी नजर में बीस लाख रुपये के स्वागत के लिये तो चौंधिया देने वाली रोशनी होनी चाहिये थी ।
चौधरी अटैची ले आया ।
जीवन ने झपट कर अटैची उसके हाथ से ले ली ।
“तुमने खोला नहीं इसे ?” - उसने पूछा ।
“नहीं ।” - चौधरी नर्वस स्वर में बोला
“तुम्हारे स्वभाव से मेल तो नहीं खाती यह बात ।” - मोहन लाल मजाकभरे स्वर में बोला ।
“दरअसल मैंने इसे खोलने की चेष्टा तो की थी, लेकिन यह मेरे से खुली नहीं थी । मैंने फिर ज्यादा कोशिश नहीं की थी ।”
जीवन ने अटैची को मेज पर रख दिया और जेब में से चाबियों का एक बड़ा सा गुच्छा निकाल लिया । उस गुच्छे में हर आकार की कई-कई चाबियां मौजूद थीं ।
उसने एक-एक करके चाबियां अटैची के ताले में ट्राई करनीं आरम्भ कर दीं । सातवीं ताली उसमें लग गई । ताला एक क्लिक की आवाज के साथ खुल गया ।
उसने कांपते हाथों से अटैची का ढक्कन उठा लिया ।
मोहनलाल, तिवारी और चौधरी अटैची पर एकदम झुके जा रहे थे ।
अटैची में दो तौलियों और टायलेट के कुछ सामान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था ।
जीवन के कण्ठ से आश्चर्य और निराशा मिश्रित हल्की सी चींख निकल गई ।
उसने झपट कर अटैची को उठाया और उसका सास सामान एक मेज के ऊपर उलट दिया ।
तौलिये और टायलेट के सामान के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु के दर्शन नहीं हुए । उसकी बेचैन उंगलियां अटैची की लाइनिंग मे फिरने लगीं । फिर उसने उत्तेजित होकर अटैची के भीतर लगे कपड़े और रैक्सीन को उधेड़ना आरम्भ कर दिया ।
कुछ ही मिनटों में उसने अटैची के बखिये उधेड़ कर रख दिये लेकिन धन के नाम पर एक खोटे पैसे के भी तो दर्शन नहीं हुए ।
“और साहब कहते थे कि इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश ही नहीं थी कि अटैची में कम से कम बीस लाख रुपये का माल था ।” - तिवारी तलखीभरे स्वर से बोला ।
जीवन चिन्तित मुद्रा बनाये मेज पर हथेलियां टेके खड़ा रहा ।
मोहन लाल उखड़ कर बोला - “एक आदमी को खामखाह जान से मार डालने के बाद हमें हासिल हुए ये तौलिये और टायलेट का सामान ।”
“भारी चोट हो गई ।” - चौधरी दबे स्वर में बोला ।
“मैं कहता हूं इसमें जरूर कोई गड़बड़ है ।” - जीवन बड़बड़ाया ।
“गड़बड़ तो है ही । सब तुम्हारी लापरवाही के कारण हुआ है ।” - मोहनलाल बोला ।
“क्या ठाठ से फरमा रहे थे कि मुझे विश्वस्त सूत्रों से मालूम हुआ है कि सेठ गूजरमल नीले रंग की अटैची में बीस लाख का माल लेकर सफर कर रहा है और वह माल नगद रुपया भी हो सकता है, सोना भी हो सकता है, जेवरात भी हो सकते है । ऐसी की तैसी तुम्हारी और तुम्हारे विश्वस्त सूत्रों की ।” - तिवारी क्रोध से उफनता हुआ बोला ।
“अब अपनी ही हांके जाओगे या मेरी भी सुनोगे ।” - जीवन झल्ला कर बोला ।
“अभी कुछ बाकी है सुनने को ?”
“बहुत कुछ बाकी है ।”
“तो वह भी कह लो । जले पर नमक छिड़कने का काम भी समाप्त कर लो ।”
“मैं कहता हूं इस अटैची में माल था ।” - जीवन ‘था’ पर पूरा जोर देता हुआ चिल्लाया ।
“तो फिर कहां गया वह ?”
“यही तो मैं जानना चाहता हूं ।”
“तुम ही क्या, हम सब जानना चाहते हैं ।”
जीवन चौधरी की ओर मुड़ा और उसकी आंखों में झांकता हुआ कठोर स्वर में बोला - “तुमने इस अटैची को खोला था । यह मैं तुमसे सवाल नहीं कर रहा हूं, तुम्हें बता रहा हूं ।”
“पागल हुये हो क्या ?” - चौधरी उखड़े स्वर में बोला ।
“मैं पागल नहीं हूं । मैं जो कुछ कह रहा हूं सच कह रहा हूं । सुबह साढ़े तीन बजे से लेकर अब तक कम से कम सत्तरह घन्टे अटैची तुम्हारे पास रही है और यह नहीं हो सकता कि सत्तरह घन्टों में तुम्हारे मन में इस अटैची को खोलकर भीतर झांकने की इच्छा न उमड़ी हो ।”
“मैंने पहले ही कहा है कि मैंने अटैची खोलने की चेष्टा की थी लेकिन क्ह मुझसे खुली नहीं थी ।”
“तुम झूठ बक रहे हो ।” - जीवन एकदम चिल्ला पड़ा - मैं तुम्हारा यह घिस्सा चलने नहीं दूंगा, चौधरी । बीस लाख का माल तुम अकेले हजम नहीं कर सकते । तुमने अटैची खोली है और उसमें से सारा माल निकालकर वह तौलिये और टायलेट का सामान भर दिया है ।”
“जीवन !” - चौधरी भड़क उठा - “तुम मेरी नीयत पर शक कर रहे हो ?”
“हां । बीस लाख रुपये बडों-बड़ों की नीयत खराब कर देने के लिये काफी होते हैं, तुम तो हो क्या चीज ?”
चौधरी ने असहाय भाव से मोहनलाल और तिवारी की ओर देखा, फिर टूटे स्वर में बोला - “तुम लोग भी इसकी बकवास पर विश्वास कर रहे हो ?”
मोहनलाल चुप रहा ।
तिवारी क्षण भर हिचकिचाया और फिर बोला - “मुझे जीवन की बातें तर्कसंगत लग रही हैं । पिछले चार साल से तुम भी देख रहे हो और हम भी देख रहे हैं कि जीवन की लाई हुई कोई सूचना कभी गलत नहीं निकली है । इस बार ही जीवन को धोखा हो गया है, यह हम कैसे मान लें ! और फिर मैंने सेठ को अटैची के साथ देखा था । जिस ढंग से वह उसकी हिफाजत कर रहा था उसमें इस बात में सन्देह की गुंजाइश नहीं रह जाती है कि अटैची में कीमती माल था । मैं यह मानने के लिये तैयार नहीं हूं कि इन दो तौलियों और टायलेट के सामान की खातिर ही वह अटैची को अपनी छाती के लगाये फिर रहा था । और फिर इस अटैची की खातिर ही उसकी जान गई । अगर उस समय अटैची में माल था तो अब वह कहां गया ! सुबह साढ़े तीन बजे के बाद से अटैची केवल तुम्हारे पास रही है । चौधरी, तुमने माल निकाला है और इस तथ्य को स्वीकार कर लेने के अतिरिक्त तुम्हारे पास कोई चारा नहीं है ।”
“मैंने अटैची में से कोई माल नहीं निकाला है ।” - चौधरी एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला ।
जीवन एकदम उछल कर चौधरी के सामने पहुंचा और उसने चौधरी का गिरहबान पकड़ लिया ।
“माल कहां है ?” - वह उसे झिंझोड़ता हुआ बोला ।
“छोड़ो मुझे !” - चौधरी चिल्लाया ।
“चौधरी, जल्दी बको माल कहां है वरना जान से मार दूंगा ।”
चौधरी का भारी भरकम वाला हाथ वज्र की तरह जीवनं के उस हाथ से टकराया जिससे उसने उसका गिरहबान पकड़ रखा था । एक चर्रर की आवाज के साथ चौधरी की कमीज में से एक बड़ा सा टुकड़ा फट कर जीवन के हाथ में आ गया और चौधरी की गर्दन से उसकी पकड़ छूट गई । साथ ही चौधरी के दायें हाथ का प्रचंड घूंसा जीवन के जबड़े से टकराया । उस घूंसे के पीछे चौधरी के ढाई मन के शरीर की सारी शक्ति निहित थी ।
जीवन की आंखों के आगे जैसे एकदम अन्धेरा छा गया । उसका शरीर भरभरा कर पीछे की ओर उल्टा और धम्म से मेज के ऊपर आ गिरा । उसके शरीर के झटके से मेज भी उलट गई और वह फर्श पर एक कलाबाजी खाने के बाद दीवार से जा टकराया ।
तिवारी और मोहनलाल सकते की सी हालत में खड़े थे ।
एकाएक वे दोनों चौधरी की ओर झपटे ।
“अलग हट जाओ ।” - जीवन फर्श पर गिरा-गिरा ही गरजा - “इस सअर की औलाद से मैं निपटूंगा ।”
जीवन के हाथ में एक रिवाल्वर चमक रहा था । उसका चेहरा यूं वीभत्स हो उठा था जैसे चेहरे से चौधरी का वजनी घूंसा नहीं, हजार मन का पत्थर टकराया हो । उसके नेत्रों में शैतान नाच रहा था ।
तिवारी और मोहनलाल एकदम पीछे हट गये ।
जीवन रिवाल्वर को चौधरी की ओर ताने उठ खडा हुआ ।
“चौधरी !” - वह दांत पीस कर बोला - “मैं तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा ।
चौधरी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं ।
“अब न सिर्फ तुम मुझे यह बताओगे कि तुमने माल कहां छुपाया है, बल्कि अपनी जान से हाथ धोओगे । चौधरी, तुमने जीवन को धोखा देने की कोशिश की है । तुमने जीवन पर हाथ उठाया है । अब तुम जिन्दा नहीं बच सकते ।”
“जीवन ।” - चौधरी अनुनयपूर्ण स्वर से बोला - “तुम बेकार ही मुझ पर सन्देह कर रहे हो । मैं सच कह रहा हूं मैंने अटैची को नहीं खोला था ।”
“अपना बायां हाथ फैलाओ ।” - जीवन बोला ।
चौधरी ने उलझनपूर्ण नेत्रों से जीवन को घूरा और फिर अपना बायां हाथ फैला दिया ।
जीवन ने रिवाल्वर का ट्रीगर दबाया !
रिवाल्वर में से एक शोला लपका और अगले ही क्षण चौधरी के बायें हाथ में सुराख दिखाई देने लगा ।
चौधरी के मुंह से एक चीख निकली । उसने दायें हाथ से बायें को पकड़ा और घुटनों में दबा लिया ।
“इस रिवाल्वर में पांच गोलियां और बाकी हैं, चौधरी ।” - जीवन अपने चेहरे पर एक विषैली मुस्कराहट लाकर बोला - “आखिरी गोली तुम्हारा भेजा उड़ा देगी लेकिन मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि उससे पहले की चार गोलियों से तुम मरोगे नहीं । दूसरी गोली तुम्हारी टांग में झरोखा बनाने वाली है ।”
चौधरी के चेहरे पर असहाय यन्त्रणा के लक्षण दिखाई दे रहे थे ।
“माल कहां है ?” - जीवन ने अपना प्रश्न दोहराया ।
चौधरी के मुंह से बोल न फूटा ।
जीवन की अंगुलियां ट्रीगर पर कसने लगीं ।
“ठहरो !” - चौधरी एकदम बोल पड़ा - “गोली मत चलाना ।”
“तो शुरु हो जाओ ।”
“अभी बताता हूं ।” - चौधरी हांफता हुआ बोला - “तुम......तुम गोली मत चलाना ।”
“तुम बोलो । जीवन गोली नहीं चलायेगा ।” - तिवारी बोल पड़ा ।
अगर मैं यह बता दूं माल कहां हैं तो तुम मुझे जीवित छोड़ दोगे ?”
“नहीं ।” - जीवन दांत पीसकर बोला ।
“मेरी बात सुनो, चौधरी ।” - तिवारी बोला - “अगर तुम बिना हमें दुबारा बेवकूफ बनाने की चेष्टा किये सच-सच बात दोगे माल कहां है तो न केवल तुम्हें शारीरिक रुप से कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा बल्कि मैं तुम्हें माल में से तुम्हारा हिस्सा भी दिलाने का वादा करता हूं ।”
“यह नहीं होगा ।” - जीवन दहाड़ा ।
“यू शट अप ।” - तिवारी चिल्लाया - “चौधरी ने चार साल हम लोगों के साथ मिलकर काम किया है और इस चार साल के अरसे में यह पहला अवसर है जब उसने हमें धोखा देने की चेष्टा की है । अगर चौधरी माल का पता बता देता है तो वह होगा जो मैंने कहा है । अन्तर केवल यह होगा कि उसके बाद से चौधरी हमारे साथ काम नहीं करेगा ।”
जीवन ने कुछ कहने के लिये मुंह खोला लेकिन फिर भारी अनिच्छा का प्रदर्शन करता हुआ चुप हो गया ।
“माल कहां छिपाया है तुमने चौधरी ?” - तिवारी ने पूछा ।
“नेशनल बैंक के लाकर में रखा है सब कुछ ।” - चौधरी धीमे स्वर में बोला ।
“सब कुछ क्या था ?”
“लगभग पन्द्रह लाख रुपये हजार-हजार के नोटों में थे, बाकी हीरों से जड़े हुए सोने के आभूषण थे ।”
“सच कह रहे हो ?”
“मैं कसम खाकर कहता हूं कि सच कह रहा हूं ।”
“लाकर की चाबी कहां है ?”
“मेरे पास है ।”
“दो मुझे ।”
चौधरी ने घुटनों में दबे हुए दोनों हाथ निकाले । उसका बायां हाथ रक्त से एकदम लथपथ हो रहा था और उसकी पैंट रक्त से लाल हो उठी थी । उसने दायां हाथ पैंट की जेब में डाला ।
अगले ही क्षण एक अप्रत्याशित घटना घटी ।
बिजली की सी फुर्ती से चौधरी का पैंट की जेब से उसका दायां हाथ निकला, उस हाथ में एक छोटा सा रिवाल्वर था । एक सिद्धहस्त निशानेबाज की तरह चौधरी ने एकदम दो फायर कर दिये ।
दो घटनायें एक साथं घटीं ।
जीवन के मुंह से एक चीख निकली और रिवाल्वर उसके हाथ से छिटक कर दूर जा गिरी ।
और कमरे के एकमात्र प्रकाश के साथ बिजली के बल्ब के परखचे उड़ गये ।
कमरे में गहन अन्धकार छा गया ।
चौधरी द्वार के स्थान पर खिड़की की ओर झपटा ।
“मोहनलाल ! तिवरी ! रोको उसे ।” - अन्धकार में जीवन का स्वर सुनाई दिया ।
चौधरी लपककर खिड़की पर चढ़ गया और फिर बिना एक सैकन्ड भी हिचके नीचे कूद गया ।”
सौभाग्य से वह कार की छत पर गिरा । उसके पैरों को एक झटका लगा लेकिन उसे चोट नहीं आई ।
वह जल्दी से कार में घुस गया । चाबी इग्नीशन में ही लटक रही थी । उसने कार स्टार्ट की और फिर बन्दूक से छूटी हुई गाली को सी तेजी से वह उसे सड़क पर ले आया ।
वह कार को अपने दायें हाथ से ही ड्राइव करता हुआ नगर के बाहर की ओर उड़ चला ।
दर्द और अधिक रक्त बह जाने के कारण उसका बायां हाथ सुन्न होता जा रहा था ।
उसी समय उसे एक दूसरी कार अपने पीछे आती दिखाई दी ।
चौधरी उस कार को पहचानता था । वह जीवन की कार थी ।
चौधरी ने अपनी गाड़ी की गति तेज कर दी । एक हाथ से स्टियरिंग सम्भालने में वह भारी कठिनाई का अनुभव कर रहा था लेकिन फिर भी वह अन्धाधुन्ध गाड़ी भगाये लिये जा रहा था । वह जानता था कि एक बार फिर जीवन वगैरह के हाथ में पड़ जाने के बाद उसे भगवान भी नहीं बचा सकेगा ।
उसी समय पिछली गाडी में से फायर होने लगे ।
हे भगवान,काई पहिया न बैठ जाये । - चौधरी मन ही मन बुदबुदाया ।
एक्सीलेटर पर उसके पांव का दबाव बढ़ता जा रहा था । हर क्षण यही लगता था कि गाड़ी उसके कन्ट्रोल से बाहर हो जायेगी और फिर सड़क से उतरकर किसी गहरी खड्ड में जा गिरेगी ।
पिछली सीट से फायरिंग अब भी हो रही थी ।
एकाएक उसकी गाड़ी का हैडलाइट्स प्रकाश दूर रेलवे क्रासिंग पर पड़ा । क्रासिंग का आटोमैटिक बैरियर धीरे-धीरे नीचे गिर रहा था । शायद कोई गाड़ी आने वाली थी । उसने कार की गति एकदम बढ़ा दी ।
गाड़ी तीर की तरह सड़क की ओर गिरते हुये पहले बैरियर के नीचे से निकल गई और फिर बैरियर की लोहे की बल्ली से नीचे झूलती हुई झालरों से जा टकराई ! झटके से गाड़ी एकदम तिरछी हो गई लेकिन बल्ली के रास्ते में आने से पहले ही दूसरी ओर सड़क पर निकल गई ।
चौधरी ने अपनी पूरी शक्ति से स्टियरिंग को घुमाना आरम्भ कर दिया ।
किसी प्रकार गाड़ी सड़क पर आ गई ।
यह उसका सौभाग्य ही था कि उस समय क्रासिंग के दुसरी और कोई गाड़ी नहीं खड़ी थी वरना चौधरी की गाड़ी उससे टकराकर एक भयानक एक्सीडेन्ट की सम्भावना उत्पन्न कर सकती थी ।
पीछे रेलवे क्रासिंग ब्लाक हो चुका था ।
चौधरी के मुंह से शान्ति की एक दीर्घ निश्वास निकल गई ।
लेकिन उसने गाड़ी की गति कम नहीं की ।
0 Comments